________________
१७९८
भगवती सूत्र-श. १० उ. २ भिक्ष प्रतिमा और आराधना
अगालोइय अपडिक्कंते जाव णस्थि तस्स अराहणा, से णं तस्स ठागस्स आलोइय-पडिक्कंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा । भिक्खू य अण्णयरं अकिञ्चठाणं पडिसेवित्ता तस्सणं एवं भवइ-जइ ताव समणोवासगा वि कालमासे कालं किच्चा अण्णयरेसु देवलोएसु देवताए उववत्तारो भवंति, किमंग ! पुण अहं अणपण्णियदेवत्तणंपि णो लभिस्सामि त्ति कटु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइय अपडिक्कते कालं करेइ गत्थि तस्स आराहणा; से णं तस्स ठाणरस आलोइय-पडिबकंते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा।
8 सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ®
॥ दसमसए बीओ उद्देसो समत्तो ॥ __कठिन शब्दार्थ--पडिवण्णस्स--प्रतिपन्न (जो पहले स्वीकार कर चुका है) के वोसठे--छोड़ा हुआ, चियत्ते--त्यागा हुआ, अकिच्चट्ठाणं-अकृत्य स्थान--पाप स्थान, पच्छावि-वाद में, चरिमकालसमयंसि-अंतिम काल के समय, आलोएस्सामि--आलोचना करूंगा, आराहणा--आराधना, उववत्तारो-उत्पन्न होने वाले ।
भावार्थ-५-जिस अनगार ने मासिक भिक्षु-प्रतिमा अंगीकार की है, तथा जिसने शरीर के ममत्व का और शरीर-संस्कार का त्याग कर दिया है, इत्यादि मासिक भिक्षु-प्रतिमा सम्बन्धी सभी वर्णन यहाँ दशाश्रुतस्कन्ध में बताये अनुसार यावत् बारहवीं भिक्षु-प्रतिमा तक सभी वर्णन-यावत् उसके आराधना होती हैतक कहना चाहिये।
६-यदि किसी भिक्षु के द्वारा किसी अकृत्य-स्थान का सेवन हो गया हो और यदि वह उस अकृत्य-स्थान की आलोचना तथा प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती। यदि अकृत्य-स्थान की वह आलोचना
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org