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________________ भगवती सूत्र-श. १० उ. २ भिक्षु प्रतिमा और आराधना १७९९ और प्रतिक्रमग करके काल करे, तो उसके आराधना होती है। कदाचित् किसी भिक्षु के द्वारा अकृत्यस्थान का सेवन होगया हो और बाद में उसके मन में यह विचार उत्पन्न हो कि 'मैं अपने अन्तिम समय में इस अकृत्य स्थान को आलोचना करूंगा यावत् तप रूप प्रायश्चित्त स्वीकार करूंगा, परन्तु वह उस अकृत्यस्थान को आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती। यदि वह आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करे, तो आराधना होती है । कदाचित् किसी भिक्षु के द्वारा अकृत्यस्थान का सेवन हो गया हो और उसके बाद वह यह सोचे कि 'जब कि श्रमणोपासक भी काल के समय काल करके किसी एक देवलोक में उत्पन्न हो जाते हैं, तो क्या मैं अगपनिक देवभी नहीं हो सकूँगा'-यह सोचकर यदि वह उस अकृत्य-स्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण किये बिना ही काल कर जाय, तो उसके आराधना नहीं होती। यदि अकृत्यस्थान की आलोचना और प्रतिक्रमण करके काल करता है, तो उसके आराधना होती है। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है। ऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। विवेचन-साधु के अभिग्रह विशेष को 'भिक्षु-प्रतिमा' कहते हैं । वे बारह हैं-एक मास से लेकर सात मास तक सात प्रतिमाएँ हैं । आठवी, नौवीं और दसवीं प्रतिमाएँ प्रत्येक सात दिन-रात्रि की होती हैं, ग्यारहवीं एक अहोरात्र की होती है और बारहवीं केवल एक रात्रि की होती है । इनका विस्तृत विवेचन दशाश्रुतस्कन्ध की सातवीं दशा में है। ॥ दसवें शतक का द्वितीय उद्देशक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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