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भगवती मूत्र-म. ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा
की तरह वह भी ब्राह्मणों के दूसरे बहुत से नयों (शास्त्रों) में कुशल था। वह श्रमणों का उपासक, जीवाजीवादि तत्त्वों का जालकार, पुण्य पाप को पहिचानने वाला, यावत् आत्मा को भावित करता हुआ रहता था। उस ऋषभदत्त ब्राह्मण के 'देवानन्दा' नाम को स्त्री थी। उसके हाथ पर सुकुमाल थे, यावत् उसका दर्शन भी प्रिय था। उसका रूप सुन्दर था। वह श्रमणोपासिका थी। वह जीवाजीवादि तत्वों की जानकार तथा पुण्य पाप को पहिचाननेवाली थी।
उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे । जनता यावत् पर्युपासना करने लगी।
तएणं से उसभदत्ते माहणे इमीसे कहाए उवलद्धटे समाणे हट्ट जाव हियए, जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता देवाणंद माहणिं एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आइगरे, जाव सव्वण्णू सव्वदरिसी, आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरइ । तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए ! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं णामगोयस्स वि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमणवंदण-णमंसण-पडिपुच्छण-पज्जुवासणयाए, एगस्स वि आरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए, किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए; तं गच्छामो णं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीर
श्री ऋषभदत्तजी पहले तो वैदिक मनावलम्बी रहे होंगे, किंतु बाद में भ. पार्वनाथजी के सन्तानिक मुनिवरों के सम्पर्क से श्रमणोपासक बने होंगे-डोशी ।
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