________________
शतक ₹ उद्देशक ३३
ऋषभदत्त और देवानन्दा
१- तेणं कालेणं, तेणं समपर्ण माहणकुंडग्गामे णयरे होत्था । वष्णओ | बहुसालए चेइए । वण्णओ । तत्थ णं माहण कुंडग्गाम यरे उसभदत्ते णामं माहणे परिवसह अड्ढे, दित्ते, वित्ते, जाव अपरिभूए, रिउव्वेद-जजुव्वेद सामवेद अथव्वणवेद जहा खंदओ, जाव अण्णेसु य बहुसु बंभण्णएसु नएस सुपरिणिट्टिए समणोवासए अभिगयजीवाऽजीवे, उवलद्वपुण्ण-पावे, जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरड़ | तस्स णं उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदा णामं माहणी होत्था, सुकुमालपाणि-पाया, जाव पियदंसणा सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा, उवलद्धपुण्ण-पावा जाव विहरड़ । तेणं कालेणं, तेणं समरणं सामी समोसढे । परिसा जाव पज्जुवासइ ।
कठिन शब्दार्थ- परिवसइ - बसता ( रहता ) था, अड्ढे - समृद्ध, दित्ते दीप्त ( तेजस्वी ) वित्ते - प्रसिद्ध, अपरिभूए- अपरिभूत ( किसी से भी नहीं दबने वाला), बंभणएसु- ब्राह्मणों के शास्त्रों में, सुपरिणिट्टिए – कुशल था, सुकुमालपाणि पाया - जिसके हाथ पाँव बहुत सुकुमार (कोमल) थे, पियदंसणा - प्रियदर्शना ( देखने में प्रिय) ।
भावार्थ - १ उस काल उस समय में 'ब्राह्मण कुण्डग्राम' नाम का नगर था। (वर्णन) बहुशालक नाम का चंत्य ( उदयान ) था । उस ब्राह्मणकुण्ड ग्राम नामक नगर में 'ऋषभदत्त' नाम का ब्राह्मण रहता था। वह आढ्य ( धनवान् ) तेजस्वी, प्रसिद्ध यावत् अपरिभूत था । वह ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद में निपुण था । ( शतक दो उद्देशक एक में कथित ) स्कन्दक तापस
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org