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________________ भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद २०४५ यह उनसे अनन्त गुण है । उसमें औदारिक पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । क्योंकि औदारिक पुद्गल अति स्थूल है. अतः उन में मे अल्प का ही ग्रहण होता है और वे प्रदेश भी अल्पतर हैं । अतः उनके ग्रहण करने पर एक समय में अल्प अणु ही गृहीत होते है। दूसरी बात यह है कि वे कार्मण और तंजन पुद्गलों की तरह सर्व संसारी जीवों से निरन्तर गृहीत नहीं होते, किंतु केवल औदारिक गरीरधारी जीवों द्वारा ही उनका ग्रहण होता है, अत: बहुत काल में उनका ग्रहण होता है। उससे आनप्राण पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । यद्यपि आनप्राण पुद्गल औदारिक पुद्गलों से मूक्ष्म और बहु प्रदेशी हैं, इसलिये उनका अल्पकाल में हो ग्रहण हो सकता है, तथापि अपर्याप्त अवस्था में उनका ग्रहण न होने से तथा पर्याप्त अवस्था में भी औदारिक शरीर पुद्गलों की अपेक्षा उनका अल्प परिमाण में ग्रहण होने से उनका शीघ्र ग्रहण नहीं होता । इसलिये औदारिक पुद्गल परिवर्तन निप्पत्तिकाल से आनप्राण पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है। उससे मन पुद्गल परिवर्तन निष्पनिकाल अनन्त गुण है । यद्यपि आनप्राण पुद्गलों से मन पुद्गल सूक्ष्म और बहुप्रदेशी है, इसलिये अल्पकाल में ही उनका ग्रहण हो सकता है, तथापि एकेन्द्रियादि की कायस्थिति बहुत लम्बी है । उसमें चले जाने पर मन की प्राप्ति बहुत लम्बे . समय में होती है । इसलिये मन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल उनमे अनन्त गुण कहा गया है। उससे वचन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । यद्यपि मन की अपेक्षा वचन शीघ्र प्राप्त होता है तथा द्वीन्द्रियादि अवस्था में भी वचन होता है, तथापि मन द्रव्यों की अपेक्षा भापा द्रव्य अति स्थूल है। इसलिये एक समय में उनका अल्प परिमाण में ही ग्रहण होता है, अत: मन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल से वचन पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । इससे वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन निष्पत्तिकाल अनन्त गुण है । क्योंकि वैक्रिय शरीर बहुत लम्बे समय में प्राप्त होता है। इसके पश्चात् इन पुद्गल परिवर्तनों का पारस्परिक अल्प-बहुत्व बतलाया गया है। वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन सबसे थोड़े हैं, क्योंकि वे बहुत काल में निष्पन्न होते हैं । उससे वचन पुद्गल परिवर्तन अनन्त गुण हैं, क्योंकि वे अल्पतरकाल में ही निष्पन्न होते हैं। इसी रीति से आगे-आगे का भी अल्प-बहुत्व समझ लेना चाहिये । ॥ बारहवें शतक का चतुर्थ उद्देशक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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