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भगवती सूत्र - ९ उ. ३३ सर्वज्ञता का झूठा दावा
३४ - ' जमाली' त्ति ममणे भगवं महावीर जमालिं अणगारं एवं वयासी - अस्थि णं जमाली ! ममं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था, जेणं पभू एयं वागरणं वागरित्तए, जहा णं अहं णो व णं एयपगारं भासं भासितए, जहा गं तुमं ! सासए लोए जमाली ! जंण कयाड़ णासी, ण क्याड़ ण भवइ, ण कयाड़ ण भविस्पड़, भुवि च भवड़ य, भविस्सड़ य, धुवे, णिइए, सासए, अक्खर, अव्वए, अडिए णिच्चे । असासर लोए जमाली ! जं ओमप्पणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ, उस्सप्पिणी भवित्ता ओसपिणी भव । सास जीवे जमाली ! जंण कयाड़ गासी, जाव णिच्चे । असास जीवे जमाली ! जं णं णेरहए भविता तिरिखजोणिए भवइ तिरिक्खजोगिए भवित्ता मणुस्ते भवड़, मणुस्से भविता देवे भवइ ।
कठिन शब्दार्थ - एक्प्गारं - इस प्रकार, अव्वए - अव्यय अवट्ठिए-अवस्थित ।
'भावार्थ - ३४ - इसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने जमाली अनगार को सम्बोधित करके कहा - "हे जमाली ! मेरे बहुत से श्रमण-निर्ग्रन्थ शिष्य छवस्थ हैं, परन्तु वे मेरे ही समान इन प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ हैं, किंतु जिस प्रकार तू कहता है कि ' में सर्वज्ञ अरिहन्त, जिन, केवली हूँ,' वे इस प्रकार की भाषा नहीं बोलते ।"
हे जमाली ! लोक शाश्वत है, क्योंकि 'लोक कदापि नहीं था, नहीं है और नहीं रहेगा' - यह बात नहीं है, किंतु 'लोक था, है और रहेगा ।' लोक ध्रुव नियत, शाश्वत, अक्षय, अव्यय, अवस्थित और नित्य है । हे जमाली ! लोक अशात भी है, क्योंकि अवसर्पिणी काल होकर उत्सर्पिणी काल होता है ।
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