________________
भगवती सूत्र. श. १० उ. २ योनि और वेदना
नारक और तिचपञ्वेन्द्रिय की वार-चार लाख और मनुष्य को चौदह लाख योनि है। सव मिलाकर चौरासी लाख योनि होती है। यद्यपि व्यक्ति भेद की अपेक्षां से अनन्त जीव होने से अनन्त योनियां होती है, तथापि सनान वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्शवाली वहुतसी योनियाँ होने पर भी सामान्यतया जाति रूप से एक योनि गिनी जाती है। इसलिये चौरासी लाख हो योनियां होती हैं । जैसा कि कहा है
“समवण्णाई समेया बहवोवि हु जोणिभेय लक्खा उ ।
सामण्णा घेप्पंति हु एक्कजोणीए गहणेणं ॥" . अर्थात् समान वर्णादि सहित योनि के अनेक लाख भेद होते है, तथापि सामान्य रूप से एक योनि के ग्रहण द्वारा उन समान वर्णादि वाली सब योनियों का ग्रहण हो जाता है।
यहाँ योनि के सामान्यतया तीन भेद कहे गये हैं। यथा-शीतयोनि, उष्णयोनि और शीतोष्णयोनि । शीत स्पर्श के परिणाम वाली शीतयोनि और उष्ण स्पर्श के परिणाम वाली उप्णयोनि तथा शीत और उष्ण उभय स्पर्श के परिणाम वाली शीतोष्णयोनि कहलाती है।
.. देव और गर्भज जीवों के शीतोष्ण योनि, तेउकाय के उष्ण योनि और नरयिक जीवों के शीत और उष्ण दोनों प्रकार की योनि तथा शेष जीवों के तीनों प्रकार की योनि होती है।
दूसरी तरह से योनि के तीन भेद कहे गये है। यया-सचित्त, अचित्त और मिश्र । जीव प्रदेशों से सम्बन्ध वाली योनि सचित्त और सर्वया जीव रहित योनि अचित्त कहलाती है । अंशतः जीव प्रदेश सहित और अंशतः जीव प्रदेश रहित योनि सचित्ताचित्त (मिश्र) कहलाती है। .
देव और नारक जीवों की अचित्तयोनि होती है । गर्भज जीवों की सचित्ताचित्त योनि होती है और शेष जीवों की तीनों प्रकार को योनि होती है।
दूसरे प्रकार से योनि के तीन भेद कहे गये हैं । यथा-संवृत, विवृत और संवृतविवृत। जो उत्पत्ति स्थान ढका हुआ (गुप्त) हो, उसे 'संवृत योनि' और जो उत्पत्ति स्थान खुला हुआ हो, उसे 'विवृत योनि' तथा जो कुछ ढआ और कुछ खुला हुआ हो, उसे 'संवृतविवृत' योनि कहते हैं। - नरयिक, देव और एकेंद्रिय जीवों के संवृत योनि, गर्भज जीवों के संवृत-विवृत योनि
और शेष जीवों के विवृत योनि होती हैं ।
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org