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भगवती सूत्र-श. १० उ. २ योनि और वेदना
णेरइया णं भंते ! किं दुक्ख वेयणं वेदेति, सुहं वेयणं वेदेति, अक्खमसुहं वेयणं वेदेति ? गोयमा ! दुवख पि वेयणं वेदेति, सुह पि वेयणं वेदेति, अदुक्खमसुहं पि वेयणं वेदेति ।
कठिन शब्दार्थ-जोणी-योनि-जीवों का उत्पत्ति स्थान, अदुक्ख-दुःख नहीं, असुहं
सुख नहीं।
भावार्थ-३ प्रश्न-हे भगवन् ! योनि कितने प्रकार की कही गई है ?
३ उत्तर-हे गौतन ! योनि तीन प्रकार की कही गई है । यथा-शीत, उष्ण और शीतोष्ण । यहाँ प्रज्ञापना सूत्र का नौवां योनि पद' सम्पूर्ण कहना चाहिये।
४ प्रश्न-हे भगवन् ! वेदना कितने प्रकार की कही गई है ?
४ उत्तर-हे गौतम ! वेदना तीन प्रकार की कही गई है । यथा-शीत, उष्ण और शीतोष्ण । इस प्रकार यहां प्रज्ञापना सूत्र का सम्पूर्ण पैतीसवां वेदना पद कहना चाहिये, यावत् हे भगवन् ! क्या नैरयिक जीव दुःख रूप वेदना वेदते हैं, या सुख-रूप वेदना वेइते हैं, या अदुःख-असुख रूप वेदना वेदते हैं ? हे गौतम ! नरयिक जीव, दुःखरूप वेदना भी वेदते हैं, सुखरूप वेदता भी वेदते हैं और अदुःख-असुख रूप वेदना भी वेदते हैं।
विवेचन-योनि शब्द 'यु मिश्रणे' धातु से बना है । इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार है"युवन्ति अस्यामिति 'योनिः' अर्थात् जिसमें तैजस कार्मण शरीरवाले जीव, औदारिकादि शरीर योग्य पुद्गल स्कन्ध के समुदाय के साथ मिश्रित होते हैं, उसे 'योनि' कहते हैं । अर्थात् जीवों के उत्पत्ति स्थान को योनि कहते हैं । वह योनि प्रत्येक जीवनिकाय के वर्ग, गन्ध, रस, स्पर्श के भेद से अनेक प्रकार को है। यथा-पृथ्वीकाय, अप्काय, तेउकाय और वायुकाय प्रत्येक की सात-सात लाख, प्रत्येक वनस्पति की दस लाख, साधारण वनस्पति (अनन्त) काय की चौदह लाख, बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय प्रत्येक की दो-दो लाख, देव,
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