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१९७६
भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपामक शंस गुप्तानी
मझ-मझेणं जेणेव संखस्स समणोवासगस्स गिहे तेणेव उवागच्छइ, ते० संखस्स समणोवासगस्स गिहं अणुपवितु।
५-तएणं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं समणोवासयं एज्जमाणं पासइ, पासित्ता हट्ट-तुट्ठ० आसणाओ अब्भुट्टेइ आ० सत्त-टु पयाई अणुगच्छइ अणुगच्छित्ता पोक्खलिं समणोवासगं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता आसणेणं उवणिमंतेइ, आ० एवं वयासी-“संदिसउ णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पओयणं ?" तएणं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी-“कहिं णं देवाणुप्पिए ! संखे समणोवासए ?” तएणं सा उप्पला समणो. वासिया पोक्खलिं समणोवासयं एवं वयासी-"एवं खलु देवाणुप्पिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरइ ।” __. कठिन शब्दार्थ-उवक्खडावेति-तैयार करवाते हैं ।
भावार्थ-३-इसके बाद वे श्रमणोपासक श्रावस्ती नगरी में अपने-अपने घर गए और पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया। फिर एक दूसरे को बुलाकर वे इस प्रकार कहने लगे कि-हे देवानुप्रियो ! अपन ने विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवा लिया है, परन्तु अभी तक शंख श्रमणोपासक नहीं आये हैं। इसलिए उन्हें बुलवाना चाहिए।
४-इसके बाद पुष्कली श्रावक ने उन श्रावकों से कहा कि-'हे देवानुप्रियो ! तुम शांतिपूर्वक विश्रान करो, 'मैं शंख श्रावक को बुला लाता हूँ। "ऐसा कहकर वहां से चले और श्रावस्ती नगरी के मध्य होते हुए शंख श्रावक के घर पहुंचे।
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