________________
भगवती मूत्र-स. १२ उ. १ श्रमणोपासक गंब पुष्कली
१९७५
करेंगे। शंख धावक की बात सुनकर वे सभी थावक अपने-अपने घर गए । पीछे गंग्व धावक के मन में बिना खाये-पोये ही पापध करने का विचार उत्पन्न हआ। घर आकर उसने अपनी पन्नी उ-पला श्राविका से पूछा और अपनी पौषधशाला में जाकर पौषध अंगीकार किया।
मूलपाठ में 'आसाएमाणा, विसाएमाणा, परिभाएमाणा, परिभुजमाणा' पद दिए हैं । इन सभी पदों के अन्त में 'शानन्' प्रत्यय लगा है । संस्कृत और प्राकृत में 'शत और शानच्' प्रत्यय वर्तमान में चालू क्रिया के लिये आते हैं । अर्थात् 'जाते हुए, खाते हुए, लाते हुए' इत्यादि वर्तमान में चालू क्रिया को बतलाने के लिये 'शतृ और शानच्' प्रत्यय लगते हैं । 'आसाएमाणा आदि चारों पद 'शान' प्रत्ययान्त हैं । इसलिये इनका अर्थ है कि 'आहारादि खाते-पीते हुए पौषध करना ।' इम पोषध का दूसरा नाम अभी 'दयाव्रत' है । पृष्कली आदि श्रावकों ने यही व्रत किया था।
३-तपणं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी णयरी जेणेव साई साइं गिहाई, तेणेव उवागच्छंति, ते विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावेंति, उवक्खडावित्ता अण्णमण्णं सद्दावेंति, अ० एवं वयामी-‘एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हेहिं से विउले असण-. पाण-खाइम-साइमे उवक्खडाविए, संखे य णं समणोवासए णो हव्वमागच्छइ, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए'। ___४-तएणं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी-'अच्छह णं तुम्भे देवाणुप्पिया ! सुण्णिव्वुया वीसत्था, अहं णं संखं समणोवासगं सद्दावेमि' त्ति कटु तेसिं समणोवासगाणं अतियाओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता सावत्थीए णयरीए
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org