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१९७४
भगवती सूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपासक गंग पृप्कनी
आपुच्छिता जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ, ते० पोसहसालं अणुपविस्सइ, अणुपविस्सित्ता पोसहसालं पमन्जइ, पो० उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेइ, उ० दब्भसंथारगं संथरइ, दम्भ० दब्भसंथा. रगं दुरूहइ, द० पोसहसालाए पोसहिए वंभयारी जाव पक्खियं " पोसहं पडिजागरमाणे विहरह।
कठिन शब्दार्थ-अम्मस्थिए-अध्यवसाय ।
भावार्थ-२-इसके पश्चात् शंख श्रमणोपासक ने दूसरे श्रमणापासकों से इस प्रकार कहा-“हे देवानुप्रियो ! तुम पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराओ। अपन सभी उस पुष्कल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का आस्वादन करते हुए, विशेष आस्वादन करते हुए, परस्पर देते हुए और खाते हए, पाक्षिक पौषध का अनुपालन करते हुए रहेंगे।" उन श्रमणोपासकों ने शंख श्रमणोपासक के बचन को विनय पूर्वक स्वीकार किया। ,
इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक को इस प्रकार का विचार उत्पन्न हुआ -"अशनादि यावत् खाते हुए, पाक्षिक पौषध करना मेरे लिये श्रेयस्कर नहीं, परन्तु अपनी पौषधशाला में, ब्रह्मचर्य पूर्वक मणि और स्वर्ण का त्याग कर, माला, उद्वर्तना और विलेपन को छोड़कर तथा शस्त्र और मूसलादि का त्याग करना
और डाम के संधारा सहित, दूसरे किसी की सहायता बिना, मुम अकेले को पौषध स्वीकार करके विचरना श्रेयस्कर है।" ऐसा विचार कर वह अपने घर आया और अपनी उत्पला श्रमणोपासिका से पूछकर, अपनी पौषधशाला में आया। पौषधशाला का परिमार्जन करके उच्चार (बड़ीनीत) और प्रस्रवण (लघुनीत)की भूमि का प्रतिलेखन करके, डाभ का संथारा बिछाकर, उस पर बैठा और पौषध ग्रहण करके, पाक्षिक पौषध का पालन करने लगा।
विवेचन-भगवान् के दर्शन करके वापिस लौटते समय शंख श्रावक ने दूसरे श्रावकों से कहा कि अशनादि आहार तैयार करवाओ। अपन सभी खाते-पीते हुए पाक्षिक पौषध
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