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भगवती सूत्र-श. १२ उ. ४ पुद्गल परिवर्तन के भेद . .
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(प्रश्न) हे भगवन् ! आगे कितने होंगे? (उत्तर) हे गौतम ! अनन्त होंगे।
२८ प्रश्न-हे भगवन् ! 'औदारिक पुद्गल परिवर्तन' यह औदारिक पुद्गल परिवर्तन क्यों कहलाता है ?
२८ उत्तर-हे गौतम ! औदारिक शरीर में रहते हुए जीव ने, औदारिक शरीर योग्य द्रव्यों को औदारिक शरीरपने ग्रहण किये है, बद्ध किये हैं अर्थात जीव प्रदेशों के साथ एकमेक किये हैं, शरीर पर रेणु के समान स्पष्ट किये हैं, अथवा नवीन नवीन ग्रहण कर उन्हें पुष्ट किया है, उन्हें किया है, अर्थात् पूर्व परिणाम की अपेक्षा परिणामान्तर किया है । प्रस्थापित (स्थिर) किया है, स्थापित किया है, अभिनिविष्ट (सर्वथा लगे हुए) किये हैं, अभिसमन्वागत (सर्वथा प्राप्त) किये हैं, सभी अवयवों से उन्हें ग्रहण किया है, परिणामित (रसानुभूति से परिणामान्तर प्राप्त किया है, निर्जीर्ण (क्षीग रसवाले) किया है, निःश्रित (जीव प्रदेशों से पृथक् ) किया है, निःसष्ट (अपने प्रदेशों से परित्यक्त) किया है, इसलिए हे गौतम ! 'औदारिक पुद्गल परिवर्तन' औदारिक पुद्गल परिवर्तन कहलाता है । इसी प्रकार वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन भी कहना चाहिए, परन्तु इतनी विशेषता है कि 'वैक्रिय शरीर में रहते हुए जीव ने वैक्रिय शरीर योग्य ग्रहण आदि किया है,' इत्यादि कहना चाहिए। शेष पूर्ववत् कहना चाहिए। इसी प्रकार यावत् आनप्राग पुद्गल परिवर्तन तक कहना चाहिए। किंतु वहाँ 'आनप्राण योग्य सर्व द्रव्यों को आनप्राणपने ग्रहणादि किया,' इत्यादि कहना चाहिए । शेष पूर्ववत् जानना चाहिए।
विवेचन-नरयिक भव में रहते हुए अनन्त वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन हुए हैं और भविष्यत्काल में किसी के होंगे और किसी के नहीं होंगे। जिसके होंगे, उसके जघन्य एक दो, तीन और उत्कृष्ट संख्यात, असंख्यात अथवा अनन्त होंगे।
वायुकाय, मनुष्य, तिर्यञ्च पञ्चेन्द्रिय और व्यन्तरादि में वैक्रिय शरीर है । वहाँ वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन एकोत्तरिक कहने चाहिये और जहाँ अप्प्यादि में वैक्रिय शरीर · नहीं हैं, वहाँ वैक्रिय पुद्गल परिवर्तन भी नहीं है ।
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