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________________ १९७० भगवती सूत्र-श. ११ उ. १२ पुद्गल परिव्राजक अवक्कमित्ता तिदंडकुंडियं च जहा खंदओ, जाव पव्वइओ सेसं जहा सिवस्स, जाव “अव्वाबाहं सोक्खं अणुभवंति सासयं सिद्धा" । * सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति ॥ दुवालसमो उद्देसो समत्तो॥ ॥ समत्तं एगारसमं सयं ॥ कठिन शब्दार्थ-अव्वाबाह-अव्यावाध (किसी भी प्रकार की बाधा से रहित)। भावार्थ-७ प्रश्न-हे भगवन् ! सौधर्म देवलोक में वर्ण सहित और वर्ण रहित द्रव्य है, इत्यादि प्रश्न । ७ उत्तर-हां, गौतम ! हैं। इसी प्रकार ईशान देवलोक में यावत् अच्युत देवलोक में,ग्रेवेयक विमानों में,अनुत्तर विमानों में और ईषत्प्रारभारा पृथ्वी में वर्णादि सहित और वर्णादि रहित द्रव्य हैं। धर्मोपदेश सुनकर वह महापरिषद् चली गई। ८-आलभिका नगरी के मनुष्यों द्वारा पुद्गल परिवाजक को अपनी मान्यता मिथ्या ज्ञात हुई और वे भी शिवराजर्षि के समान शङ्कित, कांक्षित, हए, जिससे उनका विभंगज्ञान नष्ट हो गया। वे अपने उपकरण लेकर भगवान् के पास आये । भगवान के द्वारा अपनी शंका निवारण हो जाने पर स्कन्दक की तरह त्रिदण्ड, कुण्डिका एवं भगवा वस्त्र छोड़कर प्रवजित हुए और शिवराजर्षि के समान आराधक होकर सिद्ध, बुद्ध, मुक्त हुए। वे सिद्ध अव्याबाध, शाश्वत सुख का अनुभव करते हैं। हे भगवन् ! यह इसी प्रकार है । हे भगवन् ! यह इसी प्रकार हैऐसा कहकर गौतम स्वामी यावत् विचरते हैं। ॥ ग्यारहवें शतक का बारहवां उद्देशक सम्पूर्ण ॥ ॥ ग्यारहवां शतक सम्पूर्ण ॥ Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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