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________________ 'भगवती गुत्र-स. ९ उ. ३३ जमाली चरित्र १७१७ श्री (शोभा रहित). पसिढिलभूसण-आभूपण ढीले हो गए, पडतखुणियसंचुण्णियधवलवलयपन्भट्टउत्तरिज्जा-श्वेत वलय (चडिया) गिरकर चूर्ण होगई, उत्तरीय वस्त्र गिर गया, मच्छावसणट्टचेयगरुई-मर्छा से चेतनता नट होकर शरीर भारी होगया, सुकुमालविकिष्णकेसहत्था-मुकोमल केश पाम बिखर गया, परसुणिकत्त व्व चंपगलया-कुल्हाड़ी से काटी हुई चम्पकलता की तरह, णिवत्तमहे व्व इंदलट्ठी-निवन महोत्सव के इन्द्र-ध्वज की लट्ठी (दंड) की तरह, विमुक्कसंधिबंधणा-शरीर के मंधि-बन्धन शिथिल होगा, कोट्टिमतलंसिधसत्ति सम्वंगेहि संणिवडिया-धरती की फर्श पर धसक कर सर्वांग से गिर गई, ससंभमोवत्तियाए-व्याकुलता पूर्वक उठी हुई, तुरियं-त्वरित, कंचभिगारमुहविणिग्गयसीयलविमलजलधारपरिसिच्चमाणिवावियगायलट्ठी- स्वर्ण कलश के मुख से निकलती हुई शीतल निर्मल जल धाग के सिंचन में स्वस्थ किया, उक्ने वय तालियंट वौयणगजणियवाएणं-वांस और नाल वृक्ष के पं.चे की जल विन्दुयुक्त वायु से, संफुसिएणं - स्पर्श से, अंतेउरपरिजणेणं अंतः पुरस्थ परिजनों मे, आसासियासमाणी-आश्वासन पाई हुई, रोयमाणी-रोती हुई, कंदमाणीआक्रन्द करती हुई, सोयमाणी-गोक करती हुई, विलवमाणी-विलाप करती हुई, थेज्जेस्थिरता गुण युक्त, वेमासिए-विश्वास योग्य, संनए-पम्मत, बहुमए-बहुमत, अणुमए-अनुमत, भंडकरंडगसमाणे-आभूषगों की पेटी जैसा, रयणभूए-रत्न के समान, जीविऊसवियेजीविकोत्सव ममान, हिययणंदिजणणे-हृदय में आनन्द उत्पन्न करने वाला, उंबरपुप्फमिवदुल्लहे-गुलर के फूल के समान दुर्लभ, खणमवि-क्षण मात्र भी, विप्पओग-वियोग नहीं चाहते, कालगएहि-मग्ने पर, परिणयवये-वृद्धावस्था में, वडियकुलवंसतंतुकज्जम्मि-कुलवंश के तन्तु की वृद्धि करके, गिरवयक्खे-निरपेक्ष होकर। ___ भावार्थ-१३-जमाली क्षत्रियकुमार की माता उसके उपरोक्त अनिष्ट, अकान्त, अप्रिय, अमनोज्ञ, मन को अप्रिय, अश्रुतपूर्व (जो पहले कमी नहीं सुनी! ऐसी (आघात कारक) वाणी सुनकर और अवधारण कर (शोक ग्रस्त हुई) शरीर के रोमकूपों से झरते हुए पसीने से वह भीग गई । शोक के भर : उसका सारा शरीर कम्पित होने लगा, चेहरे की कान्ति निस्तेज हो गई । उसका मुख, दीन और शोकातुर हो गया । हाथों से मसली हुई कमल-माला की तरह उसका शरीर तत्काल ग्लान एवं दुर्बल हो गया । वह लावण्य रहित, प्रभा रहित और शोभा रहित हो गई । उसके शरीर पर पहने हुए आभूषण ढीले हो गये । उसको Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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