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भगवती सूत्र श. ११ उ. १ उत्पल के जीव
वाले होते हैं । अथवा एक जीव कृष्णलेश्या वाला और एक जीव नीललेश्या वाला होता है । इस प्रकार द्विक संयोगी, त्रिकसंयोगी और चतुःसंयोगी सब मिलकर अस्सी भंग होते हैं ।
१४ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव सम्यग्दृष्टि हैं, मिथ्यादृष्टि हैं अथवा सम्यग्मिथ्यादृष्टि हैं ?
१४ उत्तर - हे गौतम! वे सम्यग्दृष्टि नहीं, सम्मग्मिथ्यादृष्टि भी नहीं, वे एक हों या अनेक, सभी जीव मिथ्यादृष्टि ही हैं ।
१५ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव ज्ञानी हैं, अथवा अज्ञानी ? १५ उत्तर - हे गौतम! वे ज्ञानी नहीं, परन्तु एक हो या अनेक, सभी जीव अज्ञानी हैं ।
१६ प्रश्न - हे भगवन् ! वे उत्पल के जीव मनयोगी, वचन-योगी और काय-योगी हैं ?
१६ उत्तर - हे गौतम! वे मन योगी नहीं, वचन योगी भी नहीं, वे एक हो या अनेक सभी जीव काययोगी हैं।
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विवेचन - उत्पल वनस्पतिकायिक है, इसलिये उसमें पहले की चार लेश्याएँ पाई जाती हैं। एक संयोगी एक जीव के चार और अनेक जीवों के चार, ये एक संयोगी (असंयोगी) आठ भंग होते हैं । द्विक-संयोगी में एक और अनेक की चतुभंगी होती है । कृष्णादि चार लेश्याओं के छह द्विक-संयोग होते है । इन छह को पूर्वोक्त चतुभंगी से गुणा करने पर चौवीस भंग होते हैं । चार लेश्या के त्रिकसंयोगी आठ विकल्प होते हैं । इनको पूर्वोक्त चतुभंगी के साथ गुणा करने से त्रिक-संयोगी बत्तीस भंग होते हैं । चतुःसंयोगी सोलह भंग होते हैं । ये सब मिलकर अस्सी भंग होते हैं । वे इस प्रकार है
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१ कृष्ण का एक,
५ कृष्ण के बहुत,
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असंयोगी आठ भंग --
४ तेजो का एक,
२ नील का एक, ६ कापोत का एक; ६ नील के बहुत, ७ कापोत के बहुत और ८ तेजो के बहुत,
द्विक संयोगी २४ भंग
१ कृष्ण का एक, नील का एक ।
२ कृष्ण का एक, नील के बहुत ।
३ कृष्ण के बहुत, नीले का एक ।
४ कृष्ण के बहुत, नील के बहुत ।
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