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________________ भगवती मूत्र-स. ९ उ. ३१ असोच्चा-लेश्या नान योगादि. १६०१ ३० प्रश्न-से णं भंते ! सिज्झइ जाव अंतं करेइ ? ३० उत्तर-हंता सिज्झइ, जाव अंतं करेइ । कठिन शब्दार्थ-विसंजोएइ-विमुक्त करते हैं, उवग्गहिए आधारभूत, तालमत्थाकडंतालवृक्ष के मस्तक के समान क्षोग करके, कम्मरयविकिरणकर-कर्म रूपी रज को झटककर, अपुवकरणं-अपूर्वकरण में, अणुपविटुस्स-प्रवेश करके, णिव्वाघाए-व्याघात रहित, णिरावरणे-आवरण रहित, कसिणं-सम्पूर्ण, पडिपुण्णे-प्रतिपूर्ण, समुप्पण्णे-उत्पन्न होता है, एगणाएण-एक उदाहरण, एगवागरणेण-एक प्रश्न का उत्तर। भावार्थ-२७-वह अवधिज्ञानी, बढ़ते हुए प्रशस्त अध्यवसायों से, अनन्त नैरयिक-भावों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है, अनन्त तिर्यंच-भवों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है, अनन्त मनुष्य-भवों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है और अनन्त देव-भवों से अपनी आत्मा को विमुक्त करता है । जो ये नरक-गति, तिर्यच गति, मनुष्य-गति और देव-गति नामक चार उत्तर प्रकृतियां हैं, उनके तथा दूसरी प्रकृतियों के आधारभूत अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया, और लोभ का क्षय करता है, उनका क्षय करके अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है, उनका क्षय करके प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया और लोम का क्षय करता है, उनका क्षय करके संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ का क्षय करता है। इसके बाद पाँच प्रकार का ज्ञानावरणीय कर्म, नौ प्रकार का दर्शनावरणीय कर्म, पाँच प्रकार का अन्तराय कर्म तथा कटे हुए मस्तक वाले ताड़-वृक्ष के समान मोहनीय कर्म को बनाकर, कर्म-रज को बिखेर देने वाले अपूर्वकरण में प्रवेश किये हुए उस जीव के अनन्त, अनुत्तर, व्याघात रहित, आवरण रहित, कृत्स्न (संपूर्ण) प्रतिपूर्ण एवं श्रेष्ठ केवलज्ञान और केवलदर्शन उत्पन्न होता है। २८ प्रश्न-हे भगवन् ! वे असोच्चाकेवली, केवलिप्ररूपित धर्म कहते हैं, बतलाते हैं और प्ररूपणा करते हैं ? २८ उत्तर-हे गौतम ! यह अर्थ समर्थ नहीं । वे एक ज्ञात (उदाहरण) Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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