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भगवती मूत्र-दा. ९ उ. ३२ स्वयं उत्पन्न होते हैं
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उत्तर-हे गांगेय ! कर्म के उदय से, कर्म के गरुपन से, कर्म के भारी. पन से, कर्म के अत्यन्त गुरुत्व और भारीपन से, शुभ और अशुभ कर्मों के उदय से, शुभ और अशुभ कर्मों के विपाक से और शुभाशुम कर्मों के फल-विपाक से पृथ्वीकायिक, पृथ्वीकायिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते। इसलिये हे गांगेय ! पूर्वोक्त रूप से कहा गया है। इसी प्रकार यावत् मनुष्य तक जानना चाहिये। जिस प्रकार असुरकुमारों के विषय में कहा, उसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिकों के विषय में भी जानना चाहिये। इसलिये हे गांगेय ! इस कारण ऐसा कहता हूँ कि 'यावत् वैमानिक, वैमानिकों में स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते।'
विवेचन-यद्यपि 'प्रवेशनक' से पूर्व नैरयिक आदि जीवों के उत्पाद आदि का तथा सान्तरादि का कथन किया गया है, तथापि यहां जो पुनः कथन किया जाता है, इसका कारण यह है कि पहले नैरयिक आदि के प्रत्येक का उत्पाद और उद्वर्तना का सान्तरादि कथन किया गया है । यहाँ नैरयिक आदि सभी जीवों के उत्पाद और उद्वर्तना का समुदित ' (सम्मिलित) रूप से कथन किया जाता है। .
सत् अर्थात् 'द्रव्य रूप में विद्यमान' नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं, अमत् (अविद्यमान) उत्पन्न नहीं होते। क्योंकि सर्वथा असत् द्रव्य कोई भी उत्पन्न नहीं होता। वह तो 'खरविषाण' (गधे के सींग) के समान असत् है । इन जीवों में 'सत्त्व' जीव द्रव्य की अपेक्षा, अथवा नैरयिक पर्याय की अपेक्षा समझना चाहिये, क्योंकि भावी नैरयिक पर्याय की अपेक्षा द्रव्य से नैरयिक ही नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं । अथवा यहाँ से मरकर नरक में जाते समय विग्रह गति में नरकायु का उदय हो जाता है, इसलिये वे भाव-नारक हैं और भाव-नारक होकर ही नैरविकों में उत्पन्न होते हैं।
जो जीव, नरक में उत्पन्न होता है, वह पहले से उत्पन्न हुए नरयिकों में उत्पन्न होता है, किन्तु असत् नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होता, क्योंकि लोक शाश्वत है । इसलिये नरयिक आदि का सदा सद्भाव रहता है ।
"लोक शाश्वत है, ऐसा पुरुषादानीय भगवान् पार्श्वनाथ ने भी फरमाया है,"-ऐमा कहकर भगवान् महावीर ने गांगेय सम्मत सिद्धान्त के द्वारा अपने कथन की पुष्टि की है ।
गांगेय के प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा कि इन सब बातों को में किसी अनु
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