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भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३२ गांगेय को श्रद्धा
मान के द्वारा नहीं, किन्तु स्वयं आत्मा द्वारा जानता हूँ तथा किसी दूसरे पुरुषों के वचनों को सुनकर नहीं जानता, अपितु पारमार्थिक प्रत्यक्ष स्वरूप केवलज्ञान के द्वारा में स्वयं जानता है।
_ 'नरयिक स्वयं उत्पन्न होते हैं, अस्वयं उत्पन्न नहीं होते'-यह कथन कर के जीव के लिये 'ईश्वर परतन्त्रता' का खण्डन किया गया है। जैसा कि किन्हीं मतावलम्बियों ने कहा है
अज्ञो जन्तुरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः ।
____ईश्वरप्रेरितो गच्छेत, स्वर्ग वा स्वभ्रमेव वा ॥ अर्थ-यह जीव अज्ञ है और अपने लिये सुख-दुःख उत्पन्न करने में असमर्थ है । ईश्वर की प्रेरणा से यह स्वर्ग में चला जाता है, अथवा नरक में चला जाता है।।
यह मान्यता जैन सिद्धान्त से विपरीत है । क्योंकि जीव कर्म करने में स्वतन्त्र है। फिर कर्मों के वश वह स्वर्ग या नरक में जाता है, ईश्वर की प्रेरणा से नहीं जाता।
___जीवों की उत्पत्ति के लिये मूल में 'कर्मोदय' आदि शब्द दिये गये हैं, उनका अर्थ इस प्रकार है । यथा-कर्मोदय-कर्मों का उदय । कर्मगुरुता-कर्मों का गुरुत्व । कर्मभारिताकर्मों का भारीपन । कर्मगुरुसंभारिता-कर्मों के गुरुत्व और भारीपन की अति प्रकृष्ट अवस्था। विपाक-यथाबद्ध रसानुभूति । फलविपाक-रसप्रकर्षता। कर्मविगति-कर्मों का अभाव । कर्म विशोधि-कर्मों के रस की विशुद्धि । कर्मविशुद्धि-कर्मों के प्रदेशों की विशुद्धि । उपरोक्त शब्दों में किंचित् अर्थ भेद है अथवा ये सभी शब्द एकार्थक ही हैं । अर्थ प्रकर्ष को बतलाने के लिये दिये गये हैं।
गांगेय को श्रद्धा
५१ प्रश्न-तप्पभिई च णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सव्वण्णु, सम्वदरिसिं । तएणं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिण-पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदड़ णमंसह, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि
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