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भगवती मूत्र-म. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृत्तान
१८८१
रायाणो य खत्तिए य सिवभई च रायाणं आपुच्छइ, आपुच्छित्ता सुबहुं लोही-लोहकडाह-कडुन्छुयं जाव-भंडगं गहाय जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावमा भवंति, तं चेव जाव तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पव्वइए, पब्वइए वि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-'कप्पड़ मे जावजीवाए छटुं०' तं चेव जाव अभिग्गहं अभिगिण्हइ, अभिगिण्हित्ता पढमं छटुक्खमेणं उवसंपजित्ता णं विहरइ।
कठिन शब्दार्थ-वाणपत्था-वानप्रस्थ (तीसरा आश्रम)।
भावार्थ-४-इसके पश्चात् किसी समय शिव राजा ने प्रशस्त तिथि, करण, दिवस और नक्षत्र के योग में विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार करवाया और मित्र, ज्ञाति, स्वजन, परिजन, राजा, क्षत्रिय आदि को आमंत्रित किया । स्वयं स्नानादि करके भोजन के समय भोजन मण्डप में उत्तम सुखासन पर बैठा और उन मित्र, ज्ञाति, स्वजन, परिजन, राजा, क्षत्रिय आदि के साथ विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम का भोजन कर के तामली तापस के समान उनका सत्कार सम्मान किया। तत्पश्चात् उन सभी की तथा शिवभद्र राजा को आज्ञा लेकर तापसोचित उपकरण ग्रहण किये और गंगा नदी के किनारे दिशाप्रोक्षक तापसों के पास दिशाप्रोक्षक तापसी प्रव्रज्या ग्रहण की और इस प्रकार का अभिग्रह धारण किया कि 'मुझे बेले-बेले तपस्या करते हुए विचरना कल्पता है, इत्यादि पूर्ववत् अभिग्रह धारण कर, प्रथम छ? तप अंगीकार कर विचरने
लगा।
विवेचन-जल से दिशाओं की पूजा करके फिर फल-फूल को ग्रहण करना-दिशाप्रोक्षक प्रव्रज्या' कहलाती है।
बले के पारणे के दिन पूर्व, पश्चिम आदि किसी एक दिशां से फलादि लाकर खाना
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