SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 429
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भगवती मूत्र-श. १२ उ. १ श्रमणोपासक शंख पृष्कली संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छंति ते० संखं समणोवासयं वदंति णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एयमटुं सम्मं विणएणं भुज्जो भुज्जो खामेति । तएणं ते समणोवासगा सेसं जहा आलभियाए जाव पडिगया। __ १५ प्रश्न-'भंते!' त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसइ, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-पभू गं भंते ! संखे समणो. वासए देवाणुप्पियाणं अंतियं० । १५ उत्तर-सेसं जहा इसिभद्दपुत्तस्स, जाव अंतं काहेइ । ® से भंते ! सेवं भंते ! ति जाव विहरइ * ॥पढमो उद्देसो समत्तो॥ . भावार्थ-१२ प्रश्न-इसके बाद उस शंख श्रमणोपासक ने श्रमण भगवान् पहावीर स्वामी को वन्दना नमस्कार कर इस प्रकार पूछा-“हे भगवन् ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव, क्या बांधता है ? क्या करता है ? किसका चय करता है और किसका उपचय करता है ? १२ उत्तर-हे शंख ! क्रोध के वश आर्त बना हुआ जीव आयुष्य कर्म को छोड़कर शेष सात कों को शिथिल बंधन से बंधी हई प्रकृतियों को दढ़ बन्धन वाली करता है, इत्यादि सब पहले शतक के पहले उद्देशक में कथित 'संवर रहित अनगार के समान जान लेना चाहिए । यावत् वह संसार में परिभ्रमण करता है। १३ प्रश्न-हे भगवन् ! मान के वश आतं बना हुआ जीव क्या बांधता है, इत्यादि प्रश्न । १३ उत्तर-हे शंख ! पूर्व कहे अनुसार जानना चाहिए। इसी प्रकार Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy