________________
१७०४
. भगवती सूत्र-शः ९ उ. ३३ ऋषभदत्त और देवानन्दा
यह । तएणं सा अजचंदणा अजा देवाणंदामाणिं सयमेव पव्वावेइ,सयमेव मुंडावेइ, सयमेव सेहावेइ, एवं जहेव उसभदत्तो तहेव अजचंदणाए अजाए इमं एयारूवं धम्मियं च उवएसं संमं संपडिवजह, तमाणाए तहा गच्छइ, जाव संजमेणं संजमइ । तएणं सा देवाणंदा अजा अजचंदणाए अजाए अतियं सामाइयमाझ्याई एकारस अंगाई अहिज्जइ, सेसं तं चेव, जाव सव्वदुक्खणहीणा।
___ कठिन शब्दार्थ-आइक्खियं-कहा, दलयइ-देते हैं, सेहावेइ-शिक्षित करती है, सम्वदुक्खप्पहीणा-समस्त दुःग्वों को नष्ट कर मुक्त हुई।
भावार्थ-७-श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्म सुनकर और हृदय में धारण करके देवानन्दा ब्राह्मणी हृष्ट (आनन्दित) और तुष्ट हुई । श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार प्रदक्षिणा कर यावत् नमस्कार कर इस प्रकार बोली-'हे भगवन ! आपका कथन यथार्थ है।' इस प्रकार ऋषभदत्त ब्राह्मण के समान कहकर निवेदन किया कि-हे भगवान् ! मै प्रव्रज्या अंगीकार करना चाहती हूँ। तब श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने देवानन्दा को स्वयमेव दीक्षा दी । दीक्षा देकर आर्यचन्दना आर्या को शिष्या रूप में दिया । इसके पश्चात् आर्या चन्दना ने आर्या देवानन्दा को स्वयमेव प्रवजित किया, स्वयमेव मण्डित किया, स्वयमेव शिक्षा दी। देवानन्दा ने भी ऋषभदत्त ब्राह्मण के समान आर्याचन्दना के वचनों को स्वीकार किया और उनकी आज्ञानुसार पालन करने लगी यावत् संयम में प्रवृत्ति करने लगी। देवानन्दा आर्या ने आर्यचन्दना आर्या के पास सामायिक आदि ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। शेष वर्णन पूर्ववत् है यावत् वह देवानन्दा आर्या सभी दुःखों से मुक्त हुई। ...
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org