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भगवती सूत्र-श. ११ उ. ११ महाबल चरित्र
'एवमेयं भंते ! जाव मे जहेयं तुझे वयह' त्ति कटु उत्तरपुरच्छिम दिसिभागं अवक्कमइ, मेमं जहा उमभदत्तस्म, जाव मव्वदुक्खप्पहोणे, णवरं चोइस पुयाई अहिज्झइ, बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामण्णपरियागं पाउणइ, मेसं तं चेव ।
ॐ सेवं भंते ! मेवं भंते ! त्ति । महब्बलो समत्तो ॐ
॥ एकारसमे सए एक्कारसमो उद्देसो समत्तो । कठिन शब्दार्थ-दुगुणाणीय सङ्घसंवेगे-श्रद्धा एवं संवेग दुगुना होगया।
भावार्थ-३५-'हे सुदर्शन ! बालभाव से मुक्त होकर तू विज्ञ और परिणत वयवाला हुआ, यौवन वय प्राप्त होकर तथा प्रकार के स्थविरों के पास केवलिप्ररूपित धर्म सुना । वह धर्म तूझे इच्छित प्रतीच्छित और रुचिकर हुआ। हे सुदर्शन ! अभी जो तू कर रहा है वह अच्छा कर रहा है। हे सुदर्शन ! इसलिये ऐसा कहा जाता है कि पल्योपम और सागरोपम का क्षय और अपचय होता है।
श्रमण भगवान महावीर स्वामी से धर्म सुनकर और हृदय में धारण कर सुदर्शन सेठ को शुभ अध्यवसाय, शुभ परिणाम और विशुद्ध लेश्या से तदावरणीय . कर्मो का क्षयोपशम हुआ और ईहा, अपोह, मार्गणा और गवेषणा करते हुए संजी पूर्वजातिस्मरण (ऐसा ज्ञान जिससे निरंतर संलग्न अपने संज्ञी रूप से किये हुए पूर्वभव देखे जा सके) ज्ञान उत्पन्न हुआ, जिससे भगवन् द्वारा कहे हुए अपने पूर्वभव को स्पष्ट रूप से जानने लगा। इससे सुदर्शन सेठ को दुगुनी श्रद्धा और संवेग उत्पन्न हुआ। उसके नेत्र आनन्दाश्रुओं से परिपूर्ण हो गये। तत्पश्चात् श्रमण भगवान महावीर स्वामी को तीन बार आदक्षिण प्रदक्षिणा एवं वन्दना नमस्कार करके इस प्रकार बोला-“हे भगवन् ! आप जैसा कहते हैं, वैसा ही है, सत्य है, यथार्थ है।" इस प्रकार कहकर सुदर्शन सेठ ने, नौवें शतक के तेतीसवें उद्देशक में वर्णित ऋषभदत्त की तरह प्रवज्या अंगीकार की। चौदह
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