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________________ भगवंती सूत्र-श. ६ उ. ३३ जमाली चरित्र - moi - भावार्थ-२२-माता-पिता को उत्तर देते हुए जमालीकुमार ने इस प्रकार कहा-“हे माता-पिता ! आपने निग्रंन्य-प्रवचन को सत्य, अनुत्तर और अद्वितीय कह कर संयम पालन में जो कठिनाइयां बतलाई, वे ठीक हैं, परन्तु कृपण-मन्द शक्तिवाले कायर और कापुरुष तथा इस लोक में आसक्त और परलोक से परांमुख ऐसे विषयभोगों की तष्णा वाले पुरुषों के लिए इसका पालन करना अवश्य कठिन है । परन्तु धीर और शूरवीर, दृढ़ निश्चय वाले तथा उपाय करने में प्रवृत्त पुरुषों के लिए इसका पालन करना कुछ भी कठिन नहीं है । इसलिए हे माता-पिता ! आप मुझे दीक्षा की आज्ञा दीजिए। आपकी आज्ञा होने पर में श्रमण भगवान महावीर स्वामी के पास दीक्षा लेना चाहता हूँ। - जब जमालीकुमार के माता-पिता, विषय में अनुकूल और प्रतिकूल बहुत-सी उक्तियां, प्रज्ञप्तियां, संज्ञप्तियां और विज्ञप्तियों द्वारा उसे समझाने में समर्थ नहीं हुए, तब बिना इच्छा के जमालीकुमार को दीक्षा लेने की आज्ञा दो। विवेचन-जमाली क्षत्रिय कुमार के माता-पिता ने संयम की कठिनाइयाँ बतलाते हुए कहा, कि आगे बताये जानेवाले दोष युक्त आहारादि लेना साधु को नहीं कल्पता । यथा १ आधार्मिक-'आधया साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते, अचेतनं वा पच्यते, चीयते वा गृहादिकं, वयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म ।' अर्थात् किसी खास साधु को मन में रखकर उसके निमित्त से सचित्त वस्तु को अचित्त करना या अचित्त को पकाना, घर आदि.बनाना, वस्त्र आदि बुनना-'आधाकर्म' कहलाता है । यह दोष चार प्रकार से लगता है। यथा-१ प्रतिसेवन-आधाकर्मी आहार आदि का सेवन करना, २ प्रतिश्रवण-आधाकर्मी आहारादि के लिये निमन्त्रण स्वीकार करना, ३ संवसन-आधाकर्मी आहारादि भोगनेवालों के साथ रहना और ४ अनुमोदन-आधाकर्मी आहार आदि भोगनेवालों की अनुमोदना करना । . २ औद्देशिक-सामान्य याचकों को देने की बुद्धि से जो आहारादि तैयार किये जाते हैं, उन्हें 'औद्देशिक' कहते हैं। इसके दो भेद हैं, यथा-ओघ और विभाग। भिक्षुकों के लिये अलग तयार न करते हुए अपने लिये बनते हुए आहारादि में ही कुछ और मिला देना'ओघ' है । विवाह आदि में याचकों के लिये निकाल कर पृथक् रख छोड़ना 'विभाग' है। यह उद्दिष्ट, कृत और कर्म के भेद से तीन प्रकार का है। फिर प्रत्येक के उद्देश, समुद्देश, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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