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भगवती सूत्र-श. ९ उ. ३१ असोच्चा-मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि
सम्यक्त्व का अनुभव नहीं करते, यावत् केवलज्ञान को उत्पन्न नहीं करते। जिन जीवों ने ज्ञानावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, दर्शनावरणीय कर्म का क्षयोपशम किया है, धर्मान्तरायिक कर्म का क्षयोपशम किया है, यावत् केवलज्ञानावरणीय कर्म का क्षय किया है, वे जीव, केवली आदि के पास सुने बिना ही धर्म का बोध प्राप्त करते हैं, शुद्ध सम्यक्त्व का अनुभव करते हैं यावत् केवलज्ञान उत्पन्न करते हैं।
विवेचन-केवलज्ञान, केवलदर्शन के धारक को केवली कहते हैं । जिसने स्वयं केवलज्ञानी से पूछा है, अथवा उनके समीप सुना है, उसे–'केवलिश्रावक' और 'केवलिश्राविका' कहते हैं । केवलज्ञानी की उपासना करते हुए, केवली के द्वारा दुसरे को कहा जाने पर जिसने सुना हो उसे-'केवलिउपासक' और 'केवलिउपासिका' कहते हैं । केवलिपाक्षिक का अर्थ है-'स्वयं बुद्ध' । उसके श्रावक, श्राविका, उपासक, उपासिका क्रमशः केवलि-पाक्षिक श्रावक, केवलिपाक्षिक श्राविका, केवलिपाक्षिक उपासक और केवलिपाक्षिक उपासिका कहते हैं। 'असोच्चा' का अर्थ हैं-'धर्मफलादि प्रतिपादक वचन सुने बिना ही पूर्वकृत धर्मानुराग से ।' इन दस के पास केवलि प्ररूपित धर्मफलादि प्रतिपादक वचन सुने बिना ही कोई जीव धर्म का बोध x प्राप्त करता है और कोई जीव नहीं करता। इसी प्रकार शुद्ध सम्यक्त्व, मुण्डित होकर अगारवास से अनगारपन, शुद्ध ब्रह्मचर्यचास, शुद्ध संयम द्वारा संयमयतना, शुद्ध संवर द्वारा आश्रवनिरोध, आभिनिवोधिक ज्ञान यावत् केवलज्ञान को तदावरणीय कर्मों के क्षयोपशम और क्षय से प्राप्त करता हैं और जिस जीव के तदावरणीय कर्मों का क्षयोपशम और क्षय नहीं हुआ, वह जीव धर्म-बोध यावत् केवलज्ञान प्राप्त नहीं करता।
असोच्चा-मिथ्यादृष्टि से सम्यग्दृष्टि
११-तस्स णं भंते ! छटुंटेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं
xमल पाठ में 'सवणयाए' शब्द है, जिसका सीधा अर्थ होता है 'सुनना' किन्तु यहाँ श्रवण का अर्थ श्रुतज्ञानरूप बोध (धर्म का बोध) लेना चाहिये ।
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