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भगवती सूत्र - शं. ९ उ. ३३. सर्वज्ञता का झूठा दाव
पुव्वाणुपुव्विं चरमाणे. गामाशुंग्गामं दूइजमाणे जेणेव चंपा णयरी, जेणेव पुण्णभद्दे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छड़, तेणेव उवागच्छित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी जहा णं देवाणुप्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा णिग्गंथा छउमत्था भवित्ता छउमत्थाववकमणं अवक्कता, णो खलु अहं तहा छउमत्थे भवित्ता छउमत्था - वक्कमणेणं अवक्कंते, अहं णं उप्पण्णणाण-दंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवक्कते ।
कठिन शब्दार्थ - अण्णया कयाइ - किसी अन्य दिन बलियसरीरे - वलवान् शरीर वाले, छउमत्था - असर्वज, छउमत्थावक्कमणेणं असर्वज्ञ रहे हुए विचर रहे हैं ।
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भावार्थ - ३२ - किसी समय जमाली अनगार पूर्वोक्त रोग मुक्त हुआ, रोग रहित और बलवान् शरीर वाला हुआ । श्रावस्ती नगरी के कोष्ठक उद्यान से निकल कर अनुक्रम से विचरता हुआ एवं ग्रामानुग्राम विहार करता हुआ चंपा नगरी के पूर्णभद्र उद्यान में आया। उस समय श्रमण भगवान् महावीर स्वामी भी वहाँ पधारे हुए थे । वह श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के पास आया और भगवान् केन अति दूर और न अति समीप खड़ा रहकर इस प्रकार बोला - " जिस प्रकार आपके बहुत से शिष्य छद्मस्थ रहकर, छद्मस्थ विहार से विचरण करते हुए आपके पास आते है, उस प्रकार में छद्मस्थ बिहार से विचरण करता हुआ नहीं आया हूँ, किन्तु उत्पन्न हुए केवलज्ञान केवलदर्शन को धारण करने वाला अरिहन्त, जिन, केवली होकर केवली - विहार से विचरण करता हुआ आया हूँ ।"
३३- तणं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं वयासी - णो
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