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________________ १९६२ भगवती सूत्र-श. ११ उ. १२ श्रमणोपासक ऋषिभद्रपुत्र की धर्मचर्चा (वर्णन ।। वहां शंखवन नामक उद्यान था (वर्णन)। उस आलभिका नगरी में 'ऋषिभद्रपुत्र' प्रमुख बहुत-से श्रमगोपासक रहते थे। वे आढय यावत् अपरिभूत थे। वे जीवाजीवादि तत्त्वों के ज्ञाता थे। किसी समय एक स्थान पर एकत्रित होकर बैठे हुए उन श्रमणोपासकों में इस प्रकार का वार्तालाप हुआ-“हे आर्यो! देवलोकों में देवों की कितनी स्थिति कही गई है ?" प्रश्न सुनकर देवों की स्थिति के विषय का ज्ञाता 'ऋषिभद्रपुत्र' ने उन श्रमणोपासकों को इस प्रकार कहा"हे आर्यों ! देवों को जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की कही गई है। उसके बाद एक समय अधिक, दो समय अधिक यावत् दस समय अधिक, संख्यात समय अधिक और असंख्यात समय अधिक, इस प्रकार बढ़ते हुए उत्कृष्ट तेतीस सागरोपम की स्थिति कही गई है। इसके आगे अधिक स्थिति वाले देव और देवलोक नहीं हैं।" ऋषि मद्रपुत्र श्रमगोपासक के उपरोक्त कथन पर उन श्रमणोपासकों ने श्रद्धा, प्रतीति और रुचि नहीं की और अपने-अपने स्थान पर चले गये। . २-उस काल उस समय में श्रमण भगवान महावीर स्वामी वहाँ पधारे यावत् परिषद् उपासना करती है। तुंगिका नगरी के श्रावकों के समान वे श्रमणोपासक भी भगवान् का आगमन सुनकर हर्षित और सन्तुष्ट हुए, यावत् भगवान की पर्युपासना करने लगे। भगवान ने उन श्रमणोपासकों को और आई हुई महापरिषद् को यावत् 'आज्ञा के आराधक होते हैं'-यहां तक धर्मोपदेश दिया। ३-तएणं ते समणोवासया समणस्स भगवओ महावीरस्स अतियं धम्म सोचा णिसम्म हट्ठ-तुट्ठा उठाए उठेइ, उ० समणं भगवं महावीरं वंदति, णमंसंति, वंदित्ता णमंसित्ता एवं वयासी-(प्र०) एवं खलु भंते ! इसिभदपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खइ, जाव परूवेइ-देवलोएसु णं अजो! देवाणं जहण्णेणं दस वास. Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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