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भगवती सूत्र - १ उ. ३३ ऋषभदत और देवानन्दा
गुरु के धूप से सुगन्धित होकर, लक्ष्मी के समान वेषवालो यावत् अल्पभार और बहुमूल्यवाले आभरणों से शरीर को अलंकृत करके, बहुतसी कुब्जा दासियां, अपने देश की दासियाँ यावत् अनेक देश-विदेशों से आकर एकत्रित हुई दासियां अपने देश के वेष धारण करनेवाली, इंगित - आकृति द्वारा चिन्तित और इष्ट अर्थ को जाननेवाली कुशल और विनय सम्पन्न दासियों के परिवार सहित तथा स्वदेश की दासियाँ, खोजा पुरुष, वृद्ध कंचुकी और मान्य पुरुषों के समूह के साथ वह देवानन्दा अपने अन्तःपुर से निकली और जहाँ बाहर की उपस्थान शाला है और जहां धार्मिक श्रेष्ठ रथ खड़ा है वहां आई और उस धार्मिक श्रेष्ठ रथ पर चढी ।
तरण से उसभदते माहणे देवानंदाए माहणीए सर्दिध धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियालसंपरिवुडे माहणकुंडग्गामं णयरं मज्झमज्झेणं णिग्गच्छड, णिग्गच्छित्ता जेणेव बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छ तेणेव उवागच्छित्ता छत्ताईए तित्थगराइसए पासह, पासित्ता धम्मियं जाणप्पवरं ठवेs, ठविता धम्मियाओ जाणप्पराओ पचोरुes पचोरुहित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छइ तं जहा सचित्ताणं दव्वाणं विउसरणयाए, एवं जहा बियसए जाव तिविहाए पज्जुवा सणयाए पज्जुवास | तरणं सा देवानंदा माहणी धम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुहह, पचोरुहित्ता बहूहिं खुजाहिं, जाव महत्तरगवंद - परिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभि
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