________________
भगवती मूत्र-ग. १२ उ. ५ कर्म परिणाम से जीव के विविध रूप
२०५९
निष्कर्प यह है कि १८ पाप, ८ कर्म, कार्मण-शरीर, मनयोग, वचनयोग और सूक्ष्म पुद्गलास्तिकाय का स्कन्ध-ये तीस प्रकार के स्कन्ध, पाँच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और चार स्पर्श (शीत, उष्ण, स्निग्ध और रूम) युक्त होते हैं ।
६ द्रव्यलेश्या. ४ शरीर (औदारिक, वैक्रिय, आहारक और तेजस्) घनोदधि, घनवात, तनुवात, काययोग और वादर पुद्गलास्तिकाय का स्कन्ध, इन पन्द्रह प्रकार के स्कन्धों में पांच वर्ण, दो गन्ध, पांच रस और आठ स्पर्श पाये जाते हैं।
१८ पाप से विरति, १२ उपयोग (५ ज्ञान, ३ अज्ञान और ४ दर्शन) छह भाव. लेश्या, पाँच द्रव्य (धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल) चार बुद्धि, चार अवग्रहादि, तीन दृष्टि, पांच शक्ति (उत्थानादि) चार संज्ञा, इन ६१ प्रकार के स्कन्धों में वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श नहीं पाये जाते । ये सभी अरूपी हैं।
गर्भ में आता हुआ जीव (शरीर युक्त जीव) पंच वर्णादि वाला होता है ।
कर्म परिणाम से जीव के विविध रूप
१९ प्रश्न-कम्मओ णं भंते ! जीवे णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, कम्मओ णं जए णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ?
· १९ उत्तर-हंता गोयमा ! कम्मओ गंतं चेव जाव परिणमइ, णो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ।।
* सेवं भंते ! से भंते ! त्ति ® . ॥ पंचमो उद्देसो सम्मत्तो ॥ कठिन शब्दार्थ-विभत्तिभाव-विविध रूप, जए-जगत् (जीव समूह) ।
भावार्थ-१९ प्रश्न-हे भगवन् ! जीव कर्मों से ही मनुष्य तिर्यञ्चादि विविध रूपों को प्रात होता है, कर्मों के बिना विविध रूपों को प्राप्त नहीं होता
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org