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________________ भगवती सूत्र - श. ११ उ. ९ राजपि शिव का वृतांत असंखेज्जे दीवसमुद्दे पण्णत्ते समणाउसो ! कठिन शब्दार्थ - - पज्जवसाणा - पर्यवसान - अन्त । भावार्थ - ९ - उस काल उस समय श्रमण भगवन् महावीर स्वामी वहाँ पधारे । जनता धर्मोपदेश सुनकर यावत् चली गई । उसे काल उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के ज्येष्ठ अन्तेवासी इन्द्रभूति अनगार, दूसरे शतक के निर्ग्रन्थोद्देशक में वर्णित विधि के अनुसार भिक्षार्थ जाते हुए, बहुत-से मनुष्यों के शब्द सुने । वे परस्पर कह रहे थे कि 'हे देवानुप्रियों ! शिवराजर्षि कहते हैं कि मुझे अतिशय ज्ञान-दर्शन उत्पन्न हुआ है, यावत् इस लोक में सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके आगे द्वीप और समुद्र नहीं हैं । यह बात कैसे जानी जाय ?' १८८९ १० - बहुत-से मनुष्यों से यह बात सुनकर गौतम स्वामी को सन्देह कुतूहल एवं श्रद्धा हुई, उन्होंने भगवान् की सेवा में आकर इस प्रकार पूछा - 'हे भगवन् ! शिवराज कहते हैं कि सात द्वीप और सात समुद्र हैं, इसके बाद द्वीप समुद्र नहीं हैं, उनका ऐसा कहना सत्य है क्या ? भगवान् ने कहा- 'हे गौतम ! शिवराजर्षि से सुनकर बहुत-से मनुष्य जो कहते हैं कि 'सात द्वीप और सात समुद्र ही हैं, इसके बाद कुछ भी नहीं है, इत्यादि' - यह कथन मिथ्या है । हे गौतम ! मैं इस प्रकार कहता हूँ यावत् प्ररूपणा करता हूँ कि जम्बूद्वीपादि द्वीप और लवण समुद्रादि समुद्र, ये सब वृत्ताकार (गोल) होने से आकार में एक सरीखे हैं । परन्तु विस्तार में एक दूसरे से दुगुने - दुगुने होने के कारण अनेक प्रकार के हैं, इत्यादि सभी वर्णन जीवाभिगम सूत्र में कहे अनुसार जानना चाहिए । यावत् हे आयुष्यमन् श्रमणों ! इस तिच्र्च्छा लोक में स्वयंभूरमण समुद्र पर्यन्त असंख्यात द्वीप और समुद्र कहे गये हैं । Jain Education International ११ प्रश्न - अत्थि णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे दव्वाई सवण्णाई पि अवगाई पिसगंधाई पि अंगंधाई पि सरसाई पि अरसाई पि For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004089
Book TitleBhagvati Sutra Part 04
Original Sutra AuthorN/A
AuthorGhevarchand Banthiya
PublisherAkhil Bharatiya Sudharm Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year2006
Total Pages578
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_bhagwati
File Size10 MB
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