Book Title: Savruttik Aagam Sootraani 1 Part 08 Bhagavati Mool evam Vrutti Part 1
Author(s): Anandsagarsuri, Dipratnasagar, Deepratnasagar
Publisher: Vardhaman Jain Agam Mandir Samstha Palitana
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आनमो नमो नमो निम्मलदंसणस् आगम अपूज्य आनंद - क्षमा- ललित - सुशील-सुधर्मसागर - गुरुभ्यो नमः स्म् सवृत्तिक- आगम-सुत्ताणि आगम ०५ ‘भगवति’ मूलं एवं वृत्ति: [१] आगरा आगम भाग ~1~ पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से 'वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था' पालिताणा 880 आगम आगम आगम अ आगम आगम आगम आगम मूल संशोधक :- पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम अभिनव संकलनकर्ता : आगम आरास रागम Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता Koid HITE OF OFF ~2~ श्री आगम मंदिर पालिताणा BHOHITE Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि - मूल संशोधक अभिनव-संकलनकर्ता । पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] प्रत प्राप्ति और पेज सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 982559885519825306275 ~34 Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਹਾਲ ਤਸਦ ਸ ਨ ਲ ਸ ਲਤ ਬਲ ਦਲ ਨੇ ਗ ਰ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ ਸ आगम वाचना शताब्दी वर्ष Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भाग-८] श्री भगवती-अंगसूत्रम्- भाग-१ _ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य श्रीआनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरुभ्यो नम: "भगवती” मूलं एवं वृत्ति: [भाग-1] (अपरनाम- "व्याख्याप्रज्ञप्ति") [मूलं एवं अभयदेवसूरि रचित वृत्तिः ] [आद्य संपादक: - पूज्य आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागर सूरीश्वरजी म. सा. ] (किञ्चित् वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) पुन: संकलनकर्ता- मुनि दीपरत्नसागर (M.Com., M.Ed., Ph.D.) 28/07/2017, शुक्रवार, २०७३ श्रावण शुक्ल ५ 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग-६ श्री आगमोद्धारक-वाचना-शताब्दी-वर्ष-निमित्त 'आगम-वृत्ति-मुद्रण-प्रोजेक्ट' ~5~ Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ___ सामाचारी-संरक्षक, ज्ञानधनी, आगम-संशोधक, तीव्र-मेधावी, समाधिमृत्यु-प्राप्त, बहुमुखीप्रतिभाधारक पज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसरीश्वरजी महाराज साहेब . जिन्होने शुद्ध-श्रद्धा, सम्यक-श्रुत आराधना, यथाख्यातचारित्र के प्रति गति और अंत समय देह-ममत्व के त्याग के दवारा कायोत्सर्ग नामक | अभ्यंतर-तप कि मिशाल कायम कि है ऐसे बहुश्रुत आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी महाराज का परिचय कराना मेरे लिए नामुमकिन है, फ़िर भी गुरुभक्ति : बुद्धि से श्रद्धांजली स्वरुप एक मामुली सी झलक पैस करने का यह प्रयास मात्र है। .चारित्र-ग्रहण के बाद अल्प कालमे जो अपने गुरुदेव की छत्रछाया से दूर हो गये, तो भी गुरुदेव के स्वर्ग-गमन को सिर्फ कर्मो का प्रभाव मानकर | । अपने संयम के लक्ष्य प्रति स्थिर रहते हुए अकेले ज्ञान-मार्ग कि साधना के पथ पर चले | पढाई के लिए ही कितने महिनो तक रोज एकासणा तप के साथ : - बारह किल्लोमिटर पैदल विहार भी किया | लेकिन अपने मंझिल पे डटे रहे, और परिणाम स्वरुप संस्कृत एवं प्राकृत भाषा का, प्राचीन लिपिओ का, | व्याकरण-न्याय-साहित्य आदि का सम्पूर्ण ज्ञान प्राप्त किया | जैन आगमशास्त्रो के समुद्र को भी पार कर गए। .एक अकेला आदमी भी क्या नहीं कर शकता? इस प्रश्न का उत्तर हमें इस महापुरुष के जीवन और कवन से मिल गया, जब वे चल पड़े | देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के स्थापित पथ पर. बिना किसी सहाय लिए हए सिर्फ अकेले ही “जैन-आगम-शास्त्रो" को दीर्घजीवी बनाने के लिए अनेक हस्तप्रतो से | : शुद्ध-पाठ तैयार किये | दो वैकल्पिक आगम, कल्पसूत्र और नियुक्तिओ को जोड़कर ४५ आगम-शास्त्रो को संशोधित कर के संपादित किया | फिर : पालीताणामें आगम मंदिर बनवाकर आरस-पत्थर के ऊपर ये सभी आगम-साहित्य को कंडारा, सूरतमें तामपत्र पर भी अंकित करवाए और “आगम मंजूषा" नाम से मुद्रण भी करवा के बड़ी बड़ी पेटीमें रखवा के गाँव गाँव भेज दिए | वर्तमानकालमे सर्व प्रथमबार ऐसा कार्य हुआ | .सिर्फ मूल आगम के कार्य से ही उन के कदम रुके नही थे, उन्होंने आगमो की वृत्ति, चूर्णि, नियुक्ति, अव चूरी, संस्कृत-छाया आदि का भी | संशोधन-सम्पादन किया | उपयोगी विषयो के लिए उन्होंने एक लाख श्लोक प्रमाण संस्कृत-प्राकृत नए ग्रंथो की रचना भी की | कितने ही ग्रंथो की : प्रस्तावना भी लिखी | ये सम्यक्-श्रुत मुद्रित करवाने के लिए आगमोदय समिति, देवचंद लालभाई इत्यादि विभिन्न संस्था की स्थापना भी की। .ज्ञानमार्ग के अलावा सम्मेतशिखर, अंतरीक्षजी, केशरियाजी आदि तीर्थरक्षा कर के सम्यक-दर्शन-आराधना का परिचय भी दिया | राजाओं को - प्रतिबोध कर के और वाचनाओ द्वारा अपनी प्रवचन-प्रभावकता भी उजागर करवाई | बालदिक्षा, देवद्रव्य-संरक्षण, तिथि-प्रश्न इत्यादि विषयोमे सत्य-पक्षमें | अंत तक दृढ़ रहे | जैनशासन के लिए जब जरुरत पड़ी तब अदालती कारवाईओ का सामना भी बड़ी निडरता से किया था | • सागरानंदजी के नाम से मशहूर हो चुके पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजीने अपने परिवार स्वरुप ७०० साधू-साध्वीजी भी शासन को भेट किये | __...ये थे हमारे गुरुदेव "सागरजी"... ......मुनि दीपरत्नसागर... . - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. - .. Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संयमैकलक्षी, उपधान-तप-प्रेरक, चारित्र-मार्ग-रागी, प्रवचन-पटु, सुपरिवार-युक्त । पूज्य गच्छाधिपतिआचार्यदेव श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब ... परमपूज्य आचार्यश्री आनंदसागरसूरीश्वरजी के पाट-परंपरामे हुए तिसरे गच्छाधिपति थे पूज्य आचार्य श्री देवेन्द्रसागरसूरीश्वरजी, जो एक पून्यवान् । | आत्मा थे, दीक्षा ग्रहण के बाद अल्पकालमे ही एक शिष्य के गुरु बन गये | फ़िर क्या । शिष्यो कि संख्या बढती चली, बढ़ते हुए पुन्य के साथ-साथ वे आखिर 'गच्छाधिपति' पद पे आरूढ़ हो गए | इस महात्मा का पुन्य सिर्फ शिष्यों तक सिमित नही था, वे जहा कहीं भी 'उपधान-तप' की प्रेरणा करते थे, तुरंत ही वहां 'उपधान' हो जाते थे | प्रवचनपटुता एवं पर्षदापुन्य के कारण उन के उपदेश-प्राप्त बहोत आत्माओने संयम-मार्ग का स्वीकार किया | खुद भी | संयमैकलक्षी होने के कारण चारित्रमार्ग के रागी तो थे ही, साथसाथ ज्ञानमार्ग का स्पर्श भी उन का निरंतर रहेता था | आप कभी भी दुपहर को चले जाइए, । • वे खुद अकेले या शिष्य-परिवार के साथ कोई भी ग्रन्थ के अध्ययन-अध्यापनमें रत दिखाई देंगे। | ... ये तो हमने उनके जीवन के दो-तीन पहेलु दिखाए | एक और भी अनुसरणीय बात उन के जीवनमें देखने को मिली थी- 'आराधना-प्रेम'. कैसी भी शारीरिक स्थिति हो, मगर उन्होंने दोनों शाश्वती ओलीजी, [पोष)दशमी, शुक्ल पंचमी, त्रिकाल देववंदन, पर्व या पर्वतिथि के देववंदन आदि आराधना कभी | नहीं छोड़ी | आखरी सालोमें जब उन को एहसास हो गया की अब 'अंतिम-आराधना' का अवसर नजदीक है, तब उन के मुहमें एक ही रटण बारबार चालु हो : गया- “अरिहंतनुं शरण, सिद्धनुं शरण, साधुनुं शरण, केवली भगवंते भाखेला धर्मनुं शरण " इसी चार शरणो के रटण के साथ ही वे समाधि-मृत्यु-रूप सम्यक् निद्रा को प्राप्त हुए थे | ऐसे महान् सूरिवर को भावबरी वंदना | ... मुनि दीपरत्नसागर... ... श्री वर्धमान जैन आगम मंदिर संस्था, पालिताणा ... | पूज्यपाद आनंदसागर-सूरीश्वरजी की बौद्धिक-प्रतिभा का मूर्तिमंत स्वरुप ऐसी इस संस्था की स्थापना विक्रम संवत १९९९ मे महा-वद ५ को हुइ। : आचार्य हर्षसागरसूरिजी की प्रेरणा से जिन की तरफ़ से इस सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि के लिए संपूर्ण द्रव्य-सहाय की प्राप्ति हुइ । शिल्प-स्थापत्य, शिलोत्कीर्ण आगम और समवसरण स्थित नयनरम्य ४५ चौमुख जिन-प्रतिमाजी से सुशोभित ऐसा ये 'आगममंदिर' है, जो शत्रुजयगिरिराज कि तलेटीमे स्थित है | वर्तमान २४ जिनवर, २० विहरमान जिनवर और १ शाश्वत मिलाकर ४५ चौमुखजी यहा बिराजमान है | जहां ४० समवसरण की रचना मेरु पर्वत के तिनो काण्ड के वर्णो के अनुसार चार अलग-अलग रंगो के आरस-पत्थर से बना है, देवो दवारा रचित समवसरण के शास्त्र वर्णनअनुसार आगम-मंदिर कि समवसरण का स्थापत्य है | ऐसी अनेक विशेषता से युक्त ये आगममंदिर है। - मुनि दीपरत्नसागर... . - . . - . . ~7~ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .. . - .. - .. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. 'सागर-समुदाय-एकता-संरक्षक, तीर्थ-उद्धार-कार्य-प्रवृत्त, गुणानुरागी' इस “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' श्रेणि भाग १ से ४० के संपूर्ण अनुदान के प्रेरणादाता पूज्य शासनप्रभावक आचार्य श्री हर्षसागरसूरिजी महाराज साहेब पूज्यपाद स्व. गच्छाधिपति देवेन्द्रसागर-सूरीश्वरजी के विनयी शिष्य एवं दो गच्छाधिपतिओ के मुख्य सहायक के रुपमे 'सागर समुदाय के सुचारु : संचालक पूज्य हर्षसागरसूरिजी, जिन की प्रेरणा से ये “सवृत्तिक-आगम-सुल्ताणि" के मुद्रण के लिए संपूर्ण दव्यराशि प्राप्त हुई , उनका अत्यल्प परिचय यहां करेंगे| समुदाय-एकता के लिए सदैव प्रयत्नशील रहते हुए ये महात्मा समुदाय के साधु-साध्वीजी की आवश्यकताओकी पूर्ती के लिए भी प्रवृत्त रहेते है, प्राचीन: अर्वाचीन तीर्थो के जीर्णोद्धार एवं विकाश के लिए भी उत्साहित रहेते है, ज्ञान-क्षेत्र अछूता न रहे इसीलिए अनुमोदना, अनुदान एवं समय मिलने पर शास्त्र वांचनमें भी रूचि रखते है | समुदाय के जरूरतमंद साध्वीजी भगवंतो के आवास का विषय हो या साध्वीजी के विहारमें मजदूर का वेतन चुकाना हो, ऐसे छोटे। छोटे कार्यों के प्रति भी उन का लक्ष्य रहेता है | दर्शन-शुद्धि के लिए जब उन्होंने समग्र भारतवर्ष के १०० साल तक के पुराने जिनालयो में १८ अभिषेक की • प्रेरणा की, उस वक्त लगभग सभी अभिषेक-सामग्री की द्रव्य-शुद्धि का ख़याल रखते हुए अपनी मेधावी बुद्धि का परिचय दिया था, साथमे अनुकंपा भाव से | पूजारी या विधि करानेवाले को यत्किंचित् बहुमान प्रगट करते हए कुछ धन-राशि प्रदान करवाई। ऐसे बहुगुण-संपन्न महात्मा पूज्य आचार्यश्री हर्षसागर-सूरिजी को हम भावभरी वंदना करते हुए इस श्रुतकार्य का प्रारंभ करने जा रहे है। ... मुनि दीपरत्नसागर [कात्रेज]पूना, शंखेश्वर, कपडवंज, प्रभासपाटण आदि स्थानोमे आगममंदिर के प्रेरक, कर्मग्रंथ अभ्यासु, निस्पृह महात्मा पूज्यपाद गच्छाधिपति आचार्य श्री दौलतसागर-सूरीश्वरजी महाराज साहेब (एवं) अजातशत्रु, स्वाध्याय-रसिक, प्रशांतमूर्ती और अपने गुरु के प्रीतिपात्र परम पूज्य आचार्य श्री नंदीवर्धनसागर-सूरिजी महाराज साहेब इस पवित्र श्रुत-कार्यमे दोनो सूरिवरो का स्मरण करते हुए कोटि कोटि वंदना के साथ .......मुनि दीपरत्नसागर -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -.. -. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [-] दीप अनुक्रम [-] [भाग - ८ ] “भगवती”- - अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्तिः) शतक [−], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.... आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [ ०५] “भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Education Immaternal NANANANANANANANANANANIAN ॥ अर्हम् ॥ श्रीमत्सु धर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमद्गौतमगणधारिवाचनानुगतं श्रीमच्चन्द्रकुला लङ्कारश्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीमद्भगवतीसूत्रम् । ( प्रथमो विभागः ) प्रकाशयित्री - श्रीमत्सुरतचन्दरवास्तव्य श्रेष्ठिवर्य मूलचन्द्रात्मजसुपुत्रोसमचन्द्राभय चन्द्रविहितपूर्ण द्रव्यसाहाय्येन शाह वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः 500: 9000 भगवती - ( अङ्ग) सूत्रस्य मूल “टाइटल पेज" मुद्रितं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणयन्त्रे रा० रा० रामचन्द्र येसू शेडगेवारा वीरसंवत् २४४४ विक्रम संवत् १९७४ क्राइष्ट. १९१८ पये ३-४-० Formonal & Prva Use Of ~6~ सपादनं रूप्यकत्रयं www.jay.m Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०० १३४ ३८८ १४४ १९९ ४१२ मूलाका: ८६८ + ११४ भगवती (अङ्ग)सत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १०८७ मूलांक: विषय: पृष्ठांक: | मूलांक: विषयः पृष्ठांक: मूलांक: विषयः पृष्ठांक: शतकं - १ ०११ ... ......शतकं -३ | ......शतकं -५ ००१ | उद्देशक: ०१ चलन ०२२ १७० | उद्देशक: ०२ चमरोल्पात ३४७ २६४ | उद्देशक: ०९ राजगृह ૦૨૬ | उद्देशक: ०२ दुःख ०८५ १७८ | उद्देशक: ०३ क्रिया ३७० २७१ | उद्देशक: १० चन्द्रमा ५०७ ०३४ | उद्देशक: ०३ कांक्षाप्रदोष १८४ | उद्देशक: ०४ यान . शतकं-६ ५०८ ०४६ | उद्देशक: ०४ कर्मप्रकृति १८९ | उद्देशक: ०५ स्त्री २७२ | उद्देशक: ०१ वेदना ५०८ ०५२ | उद्देशक: ०५ पृथ्वी १९१ | उद्देशक: ०६ नगर ३९१ २७७ | उद्देशक: ०२ आहार ५१३ ०६९ | उद्देशक: ०६ यावंत १९३ | उद्देशक: ०७ लोकपाल ३९३ २७८ | उद्देशक: ०३ महा-आश्रव ५१३ ०७९ | उद्देशक: ० नैरयिक २०१ | उद्देशक: ०८ देवाधिपति ४०९ २८६ | उद्देशक: ०४ सप्रदेशक છરોક ०८५ | उद्देशक: ०८ बाल २०५ | उद्देशक: ०९ इन्द्रिय ४११ २९१ | उद्देशक: ०५ तमस्काय ५४३ ०९४ | उद्देशक: ०९ गुरुत्व २०६ | उद्देशक: १० परिषद ३०० | उद्देशक: ०६ भव्य ५५३ १०२ | उद्देशक: १० चलत २१४ • शतकं-४ ४१४ ३०२ | उद्देशक: ०७ शाली ५५६ शतक - २ ૨૨૬ २०७ उद्देशका: १-४ लोकपाल-विमान ४१४ ३१३ | उद्देशक: ०८ पृथ्वी ५६४ १०५ | उद्देशक: ०१ स्कंदक २१० | उद्देशका: ५-८लोकपालराजधानी ४१५ ३१७ | उद्देशक: ०९ कर्म ५७३ ११८ | उद्देशक: ०२ समुदघात २६६ २११ | उद्देशक: ०९ नैरयिक ४१७ | उद्देशक: १०अन्ययथिक ១២២ ११९ | उद्देशक: ०३ पृथ्वी २६४ २१२ | उद्देशक: १० लेश्या ४१८ ... | शतकं-७.... १२२ उद्देशक: ०४ इन्द्रिय २६६ ... शतकं - ५..... ४२१ ३२७ | उद्देशक: ०१ आहार १२३ | उद्देशक: ०५ अन्यतीर्थिक २१५ | उद्देशक: ०१ रवि ४२१ ३३९ | उद्देशक: ०२ विरति १३८ | उद्देशक: ०६ भाषा २९२ २२० उद्देशक: ०२ वाय ४३१ ३४५ | उद्देशक: ०३ स्थावर १३९ | उद्देशक: ०७ देव | २९३ ।। २२३ | उद्देशक: ०३ जालग्रथिका ४३६ ३५१ | उद्देशक: ०४ जीव १४० | उद्देशक: ०८ चमरचंचा २९४ २२५ | उद्देशक: ०४ शब्द ४४० ३५३ | उद्देशक: ०५ पक्षी १४१ | उद्देशक: ०९ समयक्षेत्र । ३०१ २४१ | उद्देशक: ०५ छद्मस्थ ४५७ ३५५ | उद्देशक: ०६ आयु १४२ | उद्देशक: १० अस्तिकाय ३०३ २४४ | उद्देशक: ०६ आय ४५९ ३६१ | उद्देशक: ०७ अनगार | शतक - ३..... ३१४ २५३ | उद्देशक: ०७ पुदगल ४७२ ३६५ | उद्देशक: ०८ छद्मस्थ १५१ उद्देशक: ०१ चमरविकुर्वणा | ३१४ २६२ | उद्देशक: ०८ निर्ग्रन्थीपत्र ४८८ ३७१ | उद्देशक: ०९ असंवृत मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०५], अंग सूत्र-[०५] “भगवती" मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: २२६ ~10~ Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मूलाका ८६८ + ११४ विषय: मूलांक: ད་་ 3...ს ३८१ ३८९ ३९७ ४०० ४०१ ४०५ ४१० ४१२ ४२२ ४३० ४३८ ४४० ४४४ ४४५ ४५१ ४६० ४७ ४७३ ४७७ ...... शतकं ७ उद्देशक: १० अन्यतीर्थिक शतकं ८ - उद्देशक: ०१ पुद्गल उद्देशक: ०२ आशीविष उद्देशक: ०३ वृक्ष उद्देशक: ०४ क्रिया उद्देशक : ०५ आजीविक उद्देशक : ०६ प्रासकआहार उद्देशक: ०७ अदत्तादान उद्देशक: ०८ प्रत्यनिक उद्देशक: ०९ प्रयोगबन्ध उद्देशकः १० आराधना शतकं ९ उद्देशक: ०१ जम्बू उद्देशक: ०२ ज्योतिष्क उद्देशका: ०३ ३० अंतद्विप पृष्ठांक: उद्देशक: ३१ असोच्चा उद्देश: ३२ गांगेय उद्देशक: ३३ कुण्डग्राम उद्देशक: ३४ पुरुषघातक शतकं १०...... भगवती (अङ्ग) सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: विषय: ... ४८२ ४८७ ४८८ ४९० ४९३ ४९४ ४९९ ५०० ५०१ ...... शतकं - १० उद्देशक: ०३ आत्मऋद्धि उद्देशक : ०४ श्यामहस्ती उद्देशक: ०५ देव उद्देशक: ०६ सभा उद्देशका: ०७ ३४ अंतर्दद्वीप शतकं ११ उद्देशक: ०१ उत्पल उद्देशक: ०२ शालक उद्देशक: ०३ पलाश उद्देशक: ०४ कुम्भिक उद्देशक: ०५ नालिक उद्देशक: ०६ पद्म उद्देशक: ०७ कर्णिक उद्देशक: ०८ नलिन उद्देशक: ०९ शिवराजर्षि उद्देशकः १० लोक उद्देशक: ११ काल उद्देशक: १२ आलभिका शतकं - १२...... पृष्ठांक: उद्देशक: ०१ शंख उद्देशक: ०२ जयंति मूलांक : ཥ་་ ५४२ ५४६ ५५० ५५२ ५५४ ५६० ५६३ ५६७ ५६८ ५६९ ५८४ ५८५ ५८९ ५९३ ५९४ दीप-अनुक्रमाः १०८७ विषय: ५९५ ... ५९६ ६०० ६०३ ६०७ ६१२ .. शतकं १२ उद्देशक : ०५ अतिपात | उद्देशक: ०६ राहू उद्देशक: ०७ लोक ५०२ ५०३ ५०४ ५०५ ५०६ ५१० ५१४ ५२५ ... ५२९ ५३४ उद्देशक: ०१ दिशा ५३७ उद्देशक: ०३ पृथ्वी ५३८ उद्देशक: ०२ संवृतअनगार उद्देशक: ०४ पुद्गल मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित ....आगमसूत्र [०५], अंग सूत्र [०५] “भगवती” मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः ~ 11~ उद्देशक: ०८ नाग उद्देशक: ०९ देव उद्देशकः १० आत्मा शतकं १३ उद्देशक: ०१ पृथ्वी उद्देशक: ०२ देव - उद्देशक : ०३ नरक उद्देशक: ०४ पृथ्वी उद्देशक: ०५ आहार उद्देशक: ०६ उपपात उद्देशक: ०७ भाषा उद्देशक: ०८ कर्मप्रकृति उद्देशक : ०९ अनगारवैक्रिय उद्देशक: १० समुद्घात शतकं १४...... उद्देशक: ०१ चरम उद्देशक: ०२ उन्माद उद्देशक: ०३ शरीर उद्देशक: ०४ पुद्गल उद्देशक : ०५ अग्नि पृष्ठांक: Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ... ४२१ ४८१ ६३७ मूलाका: ८६८ + ११४ भगवती (अगसूत्रस्य विषयानुक्रम दीप-अनुक्रमा: १०८७ मलांक: | विषय: पृष्ठांक: मलांक: | विषय: पृष्ठांक: मूलांक: विषय: पृष्ठांक: .....शतकं - १४ ... .....शतक - १७ .....शतकं- १९ ६१५ | उद्देशक: ०६ आहार ७०६ | उद्देशक: ०४ क्रिया ४७० उद्देशक: ०८ निर्वृत्ति ६१८ | उद्देशक: ०७ संश्लिष्ट | उद्देशका: ६-११ पृथ्व्यादिकाय | उद्देशक: ०९ करण ६२४ | उद्देशक: ०८ अंतर ७१५ | उद्देशक: १२ एकेन्द्रिय ७७५ | उद्देशक: १० व्यंतर ६३१ | उद्देशक: ०९ अनगार ७१६ | उद्देशका:१३-१७ नागादिकुमार शतक - २० ६३६ | उद्देशक: १० केवली शतकं - १८ ७७९ | उद्देशक: ०१ बेईन्द्रिय शतकं - १५ | उद्देशक: ०१ प्रथम | उद्देशक: ०२ आकाश | --गोशालक હરક | | उद्देशक: ०२ विशाखा ७८३ उद्देशक: ०३ प्राणवध शतकं - १६ ७२८ | उद्देशक: ०३ माकंदीपत्र ४८५ | उद्देशक: ०४ उपचय ६६० उद्देशक: ०१ अधिकरण ७३३ | उद्देशक: ०४ प्राणातिपात ७८६ | उद्देशक: ०५ परमाण ६६६ । उद्देशक: ०२ जरा ७३६ उद्देशक: ०५ असुरकुमार ७८९ उद्देशक: ०६ अंतर ६७० | उद्देशक: ०३ कर्म ७४० | उद्देशक: ०६ गुडवर्णादि ७९२ उद्देशक: ०७ बन्ध ६७२ | उद्देशक: ०४ जावंतिय ७४२ | उद्देशक: ०७ केवली ७९३ | उद्देशक: ०८ भूमि ६७३ | उद्देशक: ०५ गंगदत्त ७४९ | उद्देशक: ०८ अनगारक्रिया ८०१ उद्देशक: ०९ चारण ६७७ | उद्देशक: ०६ स्वप्न ७५० | उद्देशक: ०९ भव्यद्रव्य ८०३ | उद्देशक: १० आय ૬૮૨ | उद्देशक: ०७ उपयोग ७५३ उद्देशक: १० सोमिल शतक - २१ ६८३ | उद्देशक: ०८ लोक | शतकं - १९..... | वर्ग: १ शाली-आदि ६८७ उद्देशक: ०९ बलिन्द्र ७५८ | उद्देशक: ०१ लेश्या | वर्गा:२-८ मूलअलसी, वंश, ६८८ उद्देशक: १० अवधि ७६० उद्देशक: ०२ गर्भ इक्षु,सेडिय, अमरुह, तुलसी ६८९ उद्देशक: ११-१४ दविपादि० ७६१ | उद्देशक: ०३ पृथ्वी शतक - २२ शतकं- १७..... ७६५ | उद्देशक: ०४ महाश्रव ८२२ वर्गा:१-६ताड़,निम्ब,अगस्ति ६९३ | उद्देशक: ०१ कुंजर ७६६ उद्देशक: ०५ चरम | बैंगन, सिरियक,पुष्पकलिका ६९९ | उद्देशक: ०२ संयत ७६८ | उद्देशक: ०६ दवीप • शतक - २३ ७०३ | उद्देशक: ०३ शैलेशी ७६९ | उद्देशक: ०७ भवन ८२९ वर्गा:१-४आलू,लोही,आय,पाठा मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित......आगमसूत्र-[०५], अंग सूत्र-[०५] "भगवती' मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: ८०६ ... ~12~ Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पृष्ठांक ८५७ मूलाका: ८६८ + ११४ मलाक: | विषय: | शतक - २४ ८३५ | उद्देशक: ०१ नैरयिक ८४३ | उद्देशक: ०२ परिमाण ८४४ | उद्देशक: ०३-११नागादिकुमारा ८४६ | उद्देशक: १२-१६ पृथ्व्यादि ८५३ | उद्देशक: १७-२० बेईन्द्रियादि उद्देशक: २१-२४ मनुष्यादि शतक - २५ उद्देशका: १-१२ लेश्या, द्रव्य, संस्थान, युग्म,पर्यव, निर्गन्थ संयत, ओघ, भव्य, अभव्य, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि शतक - २६ ९७५ उद्देशका: १-११ जीव, लेश्या, पखिय, दृष्टि, अज्ञान, ज्ञान, संज्ञा,वेद,कषाय,उपयोग,योग शतक - २७ | उद्देशका: १-११ जीव आदि-- जाव २६ शतक भगवती (अङ्ग)सूत्रस्य विषयानुक्रम मूलांक: | विषयः | पृष्ठांक: | शतक - २८ ९९२ उद्देशका: १-११ जीव आदि जाव २६ शतक | शतक - २९ ९९५ उद्देशका: १-११ जीव आदि-- जाव २६ शतक शतकं-३० ९९८ उद्देशका: १-११ समवसरण, लेश्या आदि | शतक - ३१ १००३ | उद्देशका: १-२८ युग्म, नरक, उपपात आदि विषयका: शतकं - ३२ | उद्देशका: १-२८ नारक्स्य --- | उद्वर्तन, उपपात, लेश्यादि | शतकं - ३३ १०१८ | एकेन्द्रिय शतकानि-१२ शतकं - ३४ १०३३ | एकेन्द्रिय शतकानि-१२ दीप-अनुक्रमा: १०८७ मलाक: विषय: पृष्ठांक: शतकं - ३५ १०४४ । एकेन्द्रिय शतकानि-१२ | शतकं - ३६ १०५८ बेन्द्रिय शतकानि-१२ | शतकं - ३७ १०६१ | त्रिन्द्रिय शतक शतकं - ३८ १०६२ चतुरिन्द्रिय शतक शतकं - ३९ असंज्ञीपंचेन्द्रिय शतकानि शतकं-४० १०६४ संजीपंचेन्द्रिय शतकानि शतकं - ४१ १०६८ से | उद्देशका: १-१९६ राशियुग्म, ---१०७९ | व्योजराशि, दवापरयुग्मराशि कल्योजराशि इत्यादि १०६३ . ९९१ १०८० से | उपसंहार गाथा ---१०८६ | परिसमाप्त: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] “भगवती"मूलं एवं ॥ ~13~ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [भगवती- मूलं एवं वृत्ति:] इस प्रकाशन की विकास-गाथा यह प्रत सबसे पहले “(श्रीमद्) भगवतीसूत्र" के नामसे सन १९१८ (विक्रम संवत १९७४) में आगमोदय समिति द्वारा प्रकाशित हुई, इस के संपादक-महोदय थे पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्यदेव श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी (सागरानंदसूरिजी) महाराज साहेब | __इसी प्रत को फिर से दुसरे पूज्यश्रीओने अपने-अपने नामसे भी छपवाई, जिसमे उन्होंने खुदने तो कुछ नहीं किया, मगर इसी प्रत को ऑफसेट करवा के, अपना एवं अपनी प्रकाशन संस्था का नाम छाप दिया. जिसमे किसीने पूज्यपाद् सागरानंदसरिजी के नाम को आगे रखा, और अपनी वफादारी दिखाई, तो किसीने स्वयं को ही इस पुरे कार्य का कर्ता बता दिया और श्रीमदसागरानंदसूरिजी तथा प्रकाशक का नाम ही मिटा दिया | • हमारा ये प्रयास क्यों? + आगम की सेवा करने के हमें तो बहोत अवसर मिले, ४५-आगम सटीक भी हमने ३० भागोमे १२५०० से ज्यादा पृष्ठोमें प्रकाशित करवाए है, किन्तु लोगो की पूज्य श्री सागरानंदसूरीश्वरजी के प्रति श्रद्धा तथा प्रत स्वरुप प्राचीन प्रथा का आदर देखकर हमने इसी प्रत को स्केन करवाई, उसके बाद एक स्पेशियल फोरमेट बनवाया, जिसमे बीचमे पूज्यश्री संपादित प्रत ज्यों की त्यों रख दी, ऊपर शीर्षस्थानमे आगम का नाम, फिर शतक-वर्ग-उद्देशक-मूलसूत्र- आदि के नंबर लिख दिए, ताँकि पढ़नेवाले को प्रत्येक पेज पर कौनसा शतक, उद्देशक आदि चल रहे है उसका सरलता से ज्ञान हो शके, बायीं तरफ आगम का क्रम और इसी प्रत का सूत्रक्रम दिया है, उसके साथ वहाँ 'दीप अनुक्रम' भी दिया है, जिससे हमारे प्राकृत, संस्कृत, हिंदी गुजराती, इंग्लिश आदि सभी आगम प्रकाशनोमें प्रवेश कर शके | हमारे अनुक्रम तो प्रत्येक प्रकाशनोमें एक सामान और क्रमशः आगे बढ़ते हुए ही है, इसीलिए सिर्फ क्रम नंबर दिए है, मगर प्रत में गाथा और सूत्रों के नंबर अलग-अलग होने से हमने जहां सूत्र है वहाँ कौंस [-] दिए है और जहां गाथा है वहाँ ||-|| ऐसी दो लाइन खींची है। हमने एक अनुक्रमणिका भी बनायी है, जिसमे प्रत्येक शतक, वर्ग एवं उद्देशक लिख दिये है और साथमें इस सम्पादन के पृष्ठांक भी दे दिए है, जिससे अभ्यासक व्यक्ति अपने चहिते शतक या विषय तक आसानी से पहँच शकता है | अनेक पृष्ठ के नीचे विशिष्ठ फूटनोट भी लिखी है, जिसमे उस पृष्ठ पर चल रहे ख़ास विषयवस्तु की, मूल प्रतमें रही हुई कोई-कोई मुद्रण-भूल की या क्रमांकन सम्बन्धी जानकारी प्राप्त होती है । शासनप्रभावक पूज्य आचार्यश्री हर्षसागरसूरिजी म.सा. की प्रेरणासे और श्री वर्धमान जैन आगममंदिर, पालिताणा की संपूर्ण द्रव्य सहाय से ये 'सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि' भाग-८ का मुद्रण हुआ है, हम उन के प्रति हमारा आभार व्यक्त करते है | ......मुनि दीपरत्नसागर. ~14~ Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [-1, वर्ग -1, अंतर्-शतक -1, उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 4%EC ॥ अहम् ॥ नन्द्रकुलाम्बरनभोमणिश्रीमदभयदेवसूरिविहितविवरणयुता श्रीमद्गणधरवरसुधर्मस्वामिप्रणीता। व्याख्याप्रज्ञप्तिः। 4%A5 I %A5% %%95%ACN सर्वज्ञमीश्वरमनन्तमसङ्गमैग्य, सार्वीयमस्मेरमनीशमनीहमिर्द्धम् । सिद्ध शिव शिवकर करणव्यपेतं, श्रीमजिनं जितरिपुं प्रयतः प्रणोमि ॥१॥ नत्वा श्रीवर्द्धमानाय, श्रीमते च सुधर्मणे । सर्वानुयोगवृद्धेभ्यो, वाण्यै सर्वविदस्तथा ॥२॥ एतट्टीकाची जीवाभिगमादिवृत्तिलेशांश्च । संयोज्य पञ्चमाझं विवृणोमि विशेषतः किञ्चित् ॥३॥ ६ १ अनन्तार्थगोचरानन्तकालगोचरज्ञानाव्यतिरेकात् । २ रागधनादिसङ्गरहितं । ३ प्रधानम् । १ सर्वेभ्यो हितम् । ५ वेदोदयरहितं । ६ खयम्बुद्धत्वात्परमपरमेष्ठित्वान्नास्यान्य ईशः । ७ ईहा स्पृहा विकल्पो वा । ८ अन्तर्ज्ञानलक्ष्म्या तपस्तेजसा वा बहिः शरीरतेजसा दीप्तं । ९ आगमसिद्धमर्थतो द्वादशाक्रीप्रणयनात् निष्ठितार्थ वा मङ्गलरूपं वा । १० रोगायुपद्रवाभाववन्तं । ११ इन्द्रियै रहित, निरुपयोगत्वाचेपाम् , हेतुहेतुमद्भावः सर्वत्र । १२ खरूपविशेषणं भावजिनवादेव पूर्वोक्तरूपस्य जिनस्य । T -%ाजवछ वृत्तिकार-रचिता आरंभिक-गाथा: ~15~ Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गम (०५) [भाग-८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक व्याख्या- ___ व्याख्यातं समवापारूपं चतुर्थमनम्, अथावसायातस 'विवाहपत्ति'त्तिसज्ञितस्य पञ्चमाङ्गस्य समुन्नतजयकु- १ शतके प्रज्ञप्तिः । अरस्येव ललितपदपद्धतिप्रबुद्धजनमनोरञ्जकस्य उपसर्गनिपोताव्ययस्वरूपस्य पदोदारशब्दस्य लिङविभकियुक्तस्य सदा- उपोदूपात अभयदेवी 1 ख्यातख सलक्षणस्य देवताधिष्ठितस्य सुवर्णमण्डितोद्देशकस्य नानाविधाजुतप्रवरचरितस्य षट्त्रिंशत्प्रश्नसहनप्रमाणसूत्र-II या वृत्ति देहरूप चतुरनुयोगचरणस्य ज्ञानचरणनयनयुगलस्य द्रव्यास्तिकपर्यायास्तिकनय द्वितयदन्तमुशलस्य निश्चयव्यवहारनयस-|| मुन्नतकुम्भद्वयख प्रस्तावनाषचनरचनाप्रकाण्डशुण्डादण्डस्य निगमनवचनातुच्छपुच्छस्य कॉलाद्यष्टप्रकारप्रवचनोपचार-द चारुपरिकरस्थ उत्सर्गापवादसमुच्छलदतुच्छघण्टायुगलघोषस यशापटहपटुप्रतिरवापूर्णदिक्चक्रवालस्य स्याद्वादविशदाशिवशीकृतस्य विविधतुतिसमूहसमन्वितस्य मिथ्यात्वाज्ञानाविरमणलक्षणरिपुवलदलनाय श्रीमन्महावीरमहाराजेन |नियुक्तस्य बलनियुक्तककल्पगणनायकमतिप्रकल्पितस्य मुनियोधैरनावाधमधिगमाय पूर्वमुनिशिल्पिकल्पितयोबहुप्रवरगुण १ उत्तमस्य जयकुअरामिधस्य । २ पदाश्चरणाः पदानि सुविचन्तानि । ३ विचक्षणा विद्वांसश्च । १ शत्रुकृता दिव्याचाश्च । ५ चवादयः आगमनं च। ६ उभयत्र खरूपाविचलनं। ७ हस्तिपक्षे मेघवगम्भीरध्वनेः, अतिशयेन सालहारध्यनेः । ८ हस्तिपक्षे पुरुषचिहरचनया युक्तस्य अन्यत्र पुमादिप्रथमादिना । ९शोभनानि आख्यातानि यत्र, नित्यं प्रसिद्धस्य । १० इस्तिपक्षेऽवयवाः सुवर्णाभरणैः । ११ प्रवराणि चरितानि । यत्र, पक्षे यस्य । १२ सूत्ररूपो देहो यस्स, पके सूत्रो कमाणबुको देश यस्य । १३ यानुयोगः १ चरणानुयोगः २ गणितानुयोगः । धर्मकथानुयोगः ४ । १४ काल: १ मरमरूपम् २ मईः ३ संबन्धः। उपकास ५ फिरेका संसर्गः शब्दः ८ एतेऽए । यद्वा 'काले विणए बहुमाणे इत्यादयोऽष्टी ज्ञानोपचाराः । १५ हेतयः-शस्त्राणि विविधतव एवं हेतयः पक्षे विविधहेतवो या हेतयः । -NCCES अनुक्रम *44 वृत्तिकारेण कृता जयकुंजर-हस्तिना सह अस्य 'विवाहपन्नत्ति' सूत्रस्य तुलना ~16~ Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * *5555453 ट्रा खेऽपि इस्वतया महतामेक अमिछतवस्तुसाधनसमर्थयोवृत्तिचूर्णिनाडिकयोस्तदन्येषां च जीवाभिगमादिविविधविव-16 रणदवरकलेशानां संपहनेन बृहत्तरा अत एवामहतामप्युपकारिणी हस्तिनायकादेशादिव गुरुजनवचनात्पूर्वमुनिशिस्पि-10 कुलोत्परस्माभिर्नाडिकवेयं वृत्तिरारभ्यते, इति शाखप्रस्तावना । ___ अथ 'विआहपन्नत्ति'त्ति का शब्दार्थः १, उच्यते, विविधा जीवाजीवादिप्रचुरतरपदार्थविषयाः आ-अभिविधिना-कथचिन्निखिल ज्ञेयच्यात्या मर्यादया वा-परस्परासंकीर्णलक्षणाभिधानरूपया ख्यानानि-भगवतो महावीरस्य गौतमादिविनेयान् प्रति प्रनितपदार्थप्रतिपादनानि व्याख्यास्ताः प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते भगवता सुधर्मस्वामिना जम्धूनामानमभि यस्याम् १, अथवा विविधतया विशेषेण वा आख्यायन्त इति व्याख्या:-अभिलाप्यपदार्थवृत्तयस्ताः प्रज्ञाप्यन्ते यस्याम् २ अथवा व्याख्यानाम्-अर्थप्रतिपादनानां प्रकृष्टाः ज्ञप्तयो-ज्ञानानि यस्यां सा व्याख्यामज्ञप्तिः ३, अथवा व्याख्याया:अर्थकधनस्य प्रज्ञायाश्च-तद्धेतुभूतबोधस्य व्याख्यासु वा प्रज्ञाया आप्ति:-प्राप्तिः आत्तिा-आदानं यस्याः सकाशादसौ व्याख्याप्रज्ञापियाख्याप्रज्ञात्तिर्या४-५,व्याख्याप्रज्ञाद्वा-भगवतः सकाशादाप्तिरात्तिा गणधरस्य यस्याः सा तथा,६,अथवा विवाहा-विविधा विशिष्टा वाऽर्थप्रवाहा नयप्रवाहा वा प्रज्ञाप्यन्ते-प्ररूप्यन्ते प्रबोध्यन्ते वा यस्यां, विवाहा वा-विशिष्टस न्ताना विवाधा वा-प्रमाणाबाधिताः प्रज्ञा आप्यन्ते यस्याः क्विाहा चासो विबाधा चासौ वा प्रज्ञप्तिश्च-अर्थप्रज्ञप्तिश्चार्थट्र प्ररूपणा विवाहप्रज्ञप्तिर्विवाहप्रज्ञाप्तिः विवाधप्रज्ञाप्तिर्विचाधप्रज्ञप्तिर्वा -८-९-१०, इयं च भगवतीत्यपि पूज्यत्वेनाभिधीयते | १ मतिमतां, पवे उच्चान। २ सबः । एतत् 'व्याख्याप्रज्ञप्ति' सूत्रस्य विविधा व्याख्या: ~17~ Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [-] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: दीनि %-437 व्याख्या-1|| इति । इह व्याख्यातारः शास्त्रन्याख्यानारम्भे फलयोगमङ्गालसमुदायार्थादीनि द्वाराणि वर्णयन्ति, तानि चेह व्याख्यायां ||१ शतके प्रज्ञप्तिः विशेषावश्यकादिभ्योऽवसेयानि, शास्त्रकारास्तु विघ्नविनायकोपशमननिमित्तं विनेयजनप्रवर्तनाय च (मङ्गलं मगलाअभयदेवी-शिष्टजनसमयसमाचरणाय वा मङ्गलाभिधेयप्रयोजनसम्बन्धानुदाहरन्ति, तत्र च सकलकल्याणकारणतयाऽधिकृतशास्त्रस्य या वृत्तिः शायोभतत्वेन विघ्नः संभवतीति तदुपशमनाय मङ्गलान्तरव्यपोहेन भावमङ्गलमुपादेयं, मङ्गलान्तरस्यानैकान्तिकत्वादना त्यस्तिकत्वाच, भावमङ्गलस्य तु तद्विपरीततयाऽभिलषितार्थसाधनसमर्थत्वेन पूज्यत्वात् , आह-"कि पुण तमणेगतियमचंतं च ण जोऽभिहाणाई । तबिवरीयं भावे तेण विसेसेण तं पुज ॥१॥" भावमङ्गलस्य च तपःप्रभृतिभेदभिन्नत्वेनानेकविधत्वेऽपि परमेष्ठिपञ्चकनमस्काररूपं विशेषेणोपादेयं, परमेष्ठिनां मङ्गलवलोकोत्तमत्वशरण्यत्वाभिधानात्, आह च-चत्तारि मंगल" मित्यादि, तन्नमस्कारस्य च सर्वपापप्रणाशकत्वेन सर्वविघ्नोपशमहेतुत्वात्, आह च-"एष। | पश्चनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः । मङ्गलानां च सर्वेषां, प्रथमं भवति मङ्गलम् ॥१॥" अत एवायं समस्तश्रुतस्कन्धानामादावुपादीयते, अत एव चायं तेषामभ्यन्तरतयाऽभिधीयते, यदाह-“सो सबसुयक्खंधऽभंतरभूओ"त्ति, अतः शास्त्रस्थादावेव परमेष्ठिपञ्चकनमस्कारमुपदर्शयन्नाह १ विघ्नविनायकोपशमस्य नियमेन भावाभावात् । २ परमप्रकर्षवद्विघ्नविनायकोपशमाभावात् । ३ एकान्तिकात्यन्तिकविनोपशमस्य ।। 8 &||कि पुनः !, तदभिधानादि यतोऽनैकान्तिकं नात्यन्तिकं च । तद्विपरीत भावे-तेन विशेषेण तत्पूज्यम् ॥ १॥ ५ विनविद्रावकाचत्वारः ।। ६ चत्वारो मङ्गलं। स सर्वश्रुतस्कन्धाभ्यन्तरभूतः । अनुक्रम [-] कद्र SHRELIEatinintentiaTATE Halalitaram.org | अस्य सूत्रस्य 'मंगल' आदि ~18~ Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 3% णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आयरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सब्वसाइणं (सू०१)18| तत्र नम इति नैपातिक पदं द्रव्यभावसङ्कोचार्थम् , आह च-"नेवाइयं पयं० दवभावसंकोयण पयत्यो 'नमः' करचरणमस्तकसुप्रणिधानरूपो नमस्कारो भवत्वित्यर्थः, केभ्य इत्याह-'अर्हद्भवः' अमरवरविनिर्मिताशोकादिमहापातिहार्यरूपां पूजामहन्तीत्यर्हन्तः, यदाह-"अरिहंति वंदेणनमंसणाणि अरिहंति पृयसकारं । सिद्भिगमणं च अरहा अरहता तेण बुच्चंति ॥१॥" अतस्तेभ्यः, इह च चतुयर्थे षष्ठी प्राकृतशैलीवशात् , अविद्यमानं वा रह:-एकान्तरूपो देशः अन्तश्च #I-मध्य गिरिगुहादीनां सर्ववेदितया समस्तवस्तुस्तोमगतप्रच्छन्नत्वस्याभावेन येषां ते अरहोऽन्तरः अतस्तेभ्योऽरहोडशान्तयाः, अथवा-अविद्यमानो रथ: स्यन्दनः सकलपरिग्रहोपलक्षणभूतोऽन्तश्च-विनाशो जरायुपलक्षणभूतो येषां ते| 2 || अरथान्ता अतस्तेभ्यः, अथवा 'अरहताणं'ति क्वचिदप्यासक्तिमगच्छन्द्रयः क्षीणरागत्वात् , अथवा अरहयद्धा-प्रकृष्ट रागादिहेतुभूतमनोज्ञेतरविषयसंपर्केऽपि वीतरागत्वादिकं स्वं स्वभावमत्यजमध इत्यर्थः, 'अरिहंताण'ति पाठान्तरं, तत्र | |कर्मारिहन्तृभ्यः, आह च-“अहविहंपि य कम्मं अरिभूर्य होइ सेयलजीवाणं । तं कम्ममरि हंता अरिहंता तेण चुचंति| 2 ॥१॥ 'अरुहंताण'मित्यपि पाठान्तरं, तत्र 'अरोहन यः' अनुपजायमानेभ्यः, क्षीणकर्मबीजत्वात्, आह च-"दग्धे १नैपातिकं पदं, द्रव्यमावसंकोचनं पदार्थः।२ वन्दननमस्यनानि अईन्ति पूजासत्कारौ चाईन्ति । सिद्धिगमनस्याश्चि तेनाईन्त उच्यन्ते॥१॥ ३ देशीभाषया। सर्वजीवानामप्यष्टविधञ्च कर्म भरिभूतं भवति । ते कारि यतो घातयति तेनारिहन्तार उच्यन्ते ॥१॥५ "सम्ब" इत्यपि । SSC46- 550 SAREaratunnina AUniorary.orm पञ्च परमेष्ठी-नमस्कारम एवं ते पञ्चानाम व्याख्या: ~19~ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १शतके प्रत सूत्रांक व्याख्या दिबीजे यथाऽत्यन्तं, प्रादुर्भवति नामः । कर्मबीजे तथा दग्धे, ब रोहति भवाकुरः॥॥" नमस्करणीयता चैषां भीमप्रज्ञप्तिः भवगहनभ्रमणभीतभूतानामनुपमानन्दरूपपरमपदपुरपथप्रदर्शकत्वेन परमोपकारित्वादिति । णमो सिद्धाणं' ति, सित-|| पश्चपरमेअभयदेवी-|| बद्धमटमकारकर्मेन्धनं ध्मात-दग्ध जाज्वल्यमानशुक्लध्यानानलेन यैस्ते निरुक्तविधिना सिखाः, अथवा 'पिधु गती ष्ठिनतिः या वृत्तिःला इति वचनात् सेधन्ति स्म-अपुनरावृच्या निवृतिधुरीमगच्छन्, अथवा "पिधु संराद्धी' इतिवचनात् सिद्धयन्ति स्म-निष्ठि-10 तार्था भवन्ति स्म, अथवा 'फ्यूिज् शास्त्रे माङ्गल्ये च' इतिवचनात् सेधन्ति स्म-शासितारोऽभूवन मङ्गल्यरूपतो चानु-5 भवन्ति स्मेति सिद्धाः, अथवा सिद्धा:-नित्याः, अपर्यवसानस्थितिकत्वात् , प्रख्याता वा भव्यरुपलब्धगुणसन्दोहत्वात्, ट्र आह च-मात सितं येन पुराणकर्म, यो वा गतो निवृतिसौधनि । ख्यातोऽनुशास्ता परिनिष्ठिताओं, यः सोऽस्तु || सिद्धः कृतमङ्गलो मे ॥१॥" अतस्तेभ्यो नमः, नमस्करणीयता चैषामविप्रणाशिज्ञानदर्शनसुखवीर्यादिगुणयुक्ततया ॥ स्वविषयप्रमोदप्रकर्षोत्पादनेन भव्यानामतीवोपकारहेतुत्वादिति । णमो आयरियाण'ति, आ-मर्यादया तद्विषयवि नयरूपया चर्यन्ते-सेन्यन्ते जिनशासनार्थोपदेशकतया तदाकादिभिरित्याचार्याः, उक्तश्च-"मुत्तत्थविऊ लक्खणजुत्तो । * गच्छस्स मेदिभूओ य । गणतत्तिविष्पमुको अस्थं वापइ आचरिओ ॥१॥"त्ति, अथवा-आचारो-ज्ञानाचारादिः पञ्चधा आ-मर्यादया वा चारो-विहार माचारस्तत्र साधकः स्वयंकरणात् प्रभाषणात् प्रदर्शनाचेत्वाचार्याः, आह - १ सूत्रार्थविलक्षणयुक्तो गधारकासम्बनभूतस्य । गगततिविषमुक्तः सवर्ष वाचवस्यावाः ।। अनुक्रम | 'अरिहंत' आदि पञ्च परमेष्ठिनाम व्याख्या: ~20~ Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [1] दीप अनुक्रम [3] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Eucator "पंचविहं आधारं आवरमाणा सहा पथासेता । आचारं दंसंता आयरिया तेण वुश्चेति ॥ १ ॥” अथवा आ-ईषद् अपरिपूर्णा इत्यर्थः, चारा हेरिका ये ते आचाराः, चारकस्पा इत्यर्थः, युक्तायुक्तविभागनिरूपणनिपुणा विनेयाः अतस्तेषु साधवो यथावच्छास्त्रार्थोपदेशकतया इत्याचार्या अतस्तेभ्यः, नमस्यता चैषामाचारोपदेशकतयोपकारित्वात् । 'णमो उवज्झायाणं' ति उप-समीपमागत्याधीयते 'इट् अध्ययने' इतिवचनात् पठ्यते 'इण गता' वितिवचनाद्वा अधि-आधिक्येन गम्यते, 'इक् स्मरणे' इति वचनाद्वा स्मर्यते सूत्रतो जिनप्रवचनं येभ्यस्ते उपाध्यायाः, यदाह-'बारसंगो जिणक्खाओ, सज्झाओ कहिओ बुहे । तं उवहसंति जम्हा उवझाया तेण दुचंति ॥ १ ॥" अथवा उपाधानमुपाधिः संनिधिस्तेनोपाधिना उपाधी वा आयो-लाभः श्रुतस्य येषामुपाधीनां वा विशेषणानां प्रक्रमाच्छोभनानामायो-लाभो येभ्यः अथवा उपाधिरेव -संनिधिरेव आयम् इष्टफलं दैवजनितत्वेन अयानाम् इष्टफलानां समूहस्तदेकहेतुत्वाद्येषाम् अथवा आधीनां मनः पीडानामायो-लाभ आध्यायः अधियां वा नञः कुत्सार्थत्वात् कुबुद्धीनामायोऽध्यायः 'ध्यै चिन्तायाम्' इत्यस्य धातोः प्रयोगानञः कुत्सार्थत्वादेव च दुर्ध्यानं वाऽध्यायः उपहत आध्यायः अध्यायो वा यैस्ते उपाध्याया अतस्तेभ्यः, नमस्यता चैषां सुसंप्रदायायातजिनवचनाध्यापनतो विनयनेन भव्यानामुपकारित्वादिति । 'णमो सबसाहूण' मिति, साधयन्ति ज्ञानादिशक्तिभिर्मोक्षमिति साधवः समतां वा सर्वभूतेषु ध्यायन्तीति निरुक्तिन्यायात्साधवः, यदाह--- १ पचविधमाचारमाचरन्तस्तथा प्रकाशयन्तः । आचारं दर्शन्तो यतस्तेनाचार्या उच्यन्ते ॥ १ ॥ २ जिनास्माता द्वादशानी बुधैः खाध्यायः कथितस्तां यस्मादुपदिशन्ति तस्मादुपाध्याया उच्यन्ते ॥ १ ॥ 'अरिहंत' आदि पञ्च परमेष्ठिनाम् व्याख्या: For Penal Use On ~21~ jayor Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [?] दीप अनुक्रम [3] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञधिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ ४ ॥ "निवाणसाहए जोए, जम्हा सार्हति साहुणो । समा य सबभ्रूपसु, तम्हा ते भावसाहुणो ॥ १ ॥” साहायकं वा संयमकारिणां धारयन्तीति साधवः, निरुक्तेरेव, सर्वे च ते सामायिकादिविशेषणाः प्रमत्तादयः पुलाकादयो वा जिनकल्पिकप्रतिमाकल्पिकयधालन्दकल्पिकपरिहारविशुद्धिकल्पिकस्थविर कल्पिकस्थित कल्पि (कास्थितकल्पि) कस्थितास्थितकल्पिककल्पातीत भेदाःप्रत्येकबुद्धस्वयम्बुद्ध बुद्धबोधितभेदाः भारतादिभेदाः सुषमदुष्पमादिविशेषिता वा साधवः सर्वसाधवः, सर्वग्रहणं च सर्वेषां गुणवतामविशेषनमनीयताप्रतिपादनार्थम् इदं चाईदादिपदेष्वपि बोद्धव्यं, न्यायस्य समानत्वादिति, अथवा - सर्वेभ्यो जीवेभ्यो हिताः सार्वास्ते च ते साधवश्च सार्वस्य वा अर्हतो न तु बुद्धादेः साधवः सार्वसाधवः, सर्वान् वा शुभयोगान् साधयन्ति-कुर्वन्ति सार्वान् या अर्हतः साधयन्ति तदाज्ञाकरणादाराधयन्ति प्रतिष्ठापयन्ति वा दुर्नयनिराकरणादिति सर्वसाधवः सार्वसाधवो वा, अथवा-श्रव्येषु श्रवणार्हेषु वाक्येषु, अथवा सव्यानि - दक्षिणान्यनुकूलानि यानि कार्याणि तेषु साधवो| निपुणाः श्रव्यसाधवः सव्यसाधवो वाऽतस्तेभ्यः, 'नमो लोए सबसाहूणं'ति क्वचित्पाठः, तत्र सर्वशब्दस्य देश सर्वताया| मपि दर्शनादपरिशेष सर्वतोपदर्शनार्थमुच्यते 'लोके' मनुष्यलोके न तु गच्छादौ ये सर्वसाधवस्तेभ्यो नम इति एषां च | नमनीयता मोक्षमार्गसाहायककरणेनोपकारित्वात्, आह च - " असहाए सहायत्तं करेंति में संयमं करेंतस्स । एएण | कारणेणं णमामिऽहं सबसाहूणं ॥ १ ॥ ति । ननु यद्ययं सङ्क्षेपेण नमस्कारस्तदा सिद्धसाधूनामेव युक्तः, तद्ब्रहणेऽन्येषाम१ निर्वाणसाधकान् योगान् यस्मात्साधयन्ति ततः साधवः । सर्वभूतेषु समाश्च तस्माचे भावसाधवः ॥ १ ॥ २ यतोऽसहायस्य में संयमं कुर्वतः साहायं कुर्वन्ति, एतेन कारणेन सर्वसाधूनमाम्यहम् ॥ १ ॥ Eat!! 'अरिहंत' आदि पञ्च परमेष्ठिनाम व्याख्या: For Parts Only ~ 22~ ११ शतके पचपरमेष्ठिनतिः ॥ ४ ॥ Sayar Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्यहंदादीनां ग्रहणात् , यतोऽहंदादयो न साधुत्वं व्यभिचरन्ति, अथ विस्तरेण तदा ऋषभादिव्यक्तिसमुच्चारणतोऽसौ वाच्यः स्यादिति, नैवं, यतो न साधुमात्रनमस्कारेऽहंदादिनमस्कारफलमवाप्यते, मनुष्यमात्रनमस्कारे राजादिनमस्कार| फलवदिति कर्तव्यो विशेषतोऽसौ, प्रतिव्यक्ति तु नासौ वाच्योऽशक्यत्वादेवेति । ननु यथाप्रधानन्यायमक्रीकृत्य सिद्धा-18 || दिरानुपूर्वी युक्ताऽत्र, सिद्धानां सर्वथा कृतकृत्यत्वेन सर्वप्रधानत्वात् , नैवम् , अईदुपदेशेन सिद्धानां ज्ञायमानत्वादहतामेव । च तीर्थप्रवर्तनेनात्यन्तोपकारित्वादियईदादिरेव सा, नन्वेवमाचार्यादिः सा पामोति, कचित्काले आचार्येभ्यः सकाशादह|| दादीनां ज्ञायमानत्वात्, अत एव च तेषामेवात्यन्तोपकारित्वात् , नैवम् , आचार्याणामुपदेशदानसामर्थ्यमहदुपदेशत एव, न हि स्वतन्त्रा आचार्यादय उपदेशतोऽर्थज्ञापकत्वं प्रतिपद्यन्ते, अतोऽईन्त एव परमार्थेन सर्वार्थज्ञापकाः, तथा अर्हत्परिषद्पा एवाचार्यादयोऽतस्तान् नमस्कृत्याहन्नमस्करणमयुक्तम् , उक्तं च "ण य कोइवि परिसाए पणमित्ता पणवए रनो"त्ति एवं तावत्परमेष्ठिनो नमस्कृत्याधुनातनजनानां श्रुतज्ञानस्यात्यन्तोपकारित्वात् तस्य च द्रव्यभावश्चत| रूपत्वात् भावभुतस्य च द्रव्यश्रुतहेतुकत्वात्सम्ज्ञाऽक्षररूपं द्रव्यश्रुतं नमस्कुर्वन्नाह णमो बंभीए लिवीए (सू०)॥ लिपिः-पुस्तकादायक्षरविन्यासः, सा चाष्टादशप्रकाराऽपि श्रीमन्नाभेयजिनेन स्वसुताया प्रामीनामिकाया दर्शिता ततो| ब्राह्मीत्यभिधीयते, आह च-"लेह लिवोविहाणं जिणेण बंभीइ दाहिणकरेणं" इत्यतो ब्राह्मीतिस्वरूपविशेषणं लिपेरितिनिनु ॥ १नच कोऽपि पर्षद्यन्यं प्रणम्य राजानं प्रणमेत् । २ लेखो लिपिविधानं तद्दक्षिणहस्तेन जिनेन ब्राव्या (दर्शितम्) । 55AX-95% REauratml For P OW murary.om | 'अरिहंत' आदि पञ्च परमेष्ठिनाम व्याख्या: ~23~ Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: | १ शतके उद्देशसंग्रहः व्याख्या-3 अधिकृतशाखस्यैव मशालत्यारिक मझलेना,अनवस्थाविदोषप्राप्तेः,सत्य,किन्तु शिष्यमतिमालपरिग्रहार्थ मङ्गालोपादानं शिष्टप्रज्ञप्तिः समयपरिपालनाय वेत्युक्तमेवेति, अभिधेयादयः पुनरस्य सामान्येन व्याख्याप्रज्ञप्तिरिति नानैवोक्ता इति ते पुन!च्यन्ते, अभयदेवी-* तत एव श्रोतृप्रवृत्त्यादीष्टफलसिद्धेः, तथाहि-दह भगवतोऽर्थव्याख्या अभिधेयतया उक्ताः, तासां च प्रज्ञापना बोधो या दृत्तिः वाऽनन्तरफलं, परम्परफलं तु मोक्षः, स चास्याऽऽप्तवचनत्वादेव फलतया सिद्धो, न ह्याप्तः साक्षात् पारम्पर्येण वा यन्न | द्र मोक्षानं तत्प्रतिपादयितुमुत्सहते, अनाप्तत्वप्रसङ्गात्, तथाऽयमेव सम्बन्धो यदुतास्य शाखस्येदं प्रयोजनमिति ॥२॥ तदेवमस्य शास्त्रस्यैकश्रुतस्कन्धरूपस्य सातिरेकाध्ययनशतस्वभावस्य उद्देशकदशसहस्री (१००००)प्रमाणस्य षत्रिंशत्प्रश्न(३६०००) सहस्रपरिमाणस्य अष्टाशीतिसहस्राधिकलक्षद्वय (२८८०००)प्रमाणपदराशेर्मङ्गलादीनि दर्शितानि । अथ प्रथमे शते ग्रन्थान्तरपरिभाषयाऽध्ययने दशोदेशका भवन्ति, उद्देशकाश्च-अध्ययनार्थदेशाभिधायिनोऽभ्ययनविभागाः, उहिश्यन्ते-उपधानविधिना शिष्यस्थाचार्येण यथा-एतावन्तमध्ययनभागमधीवेत्येवमुदेशास्त एवोदेशका, तांश्च सुखधरण|स्मरणादिनिमित्तमाद्याभिधेयाभिधानद्वारेण संग्रहीतुमिमा गाथामाह|| रायगिह चलेण दुखे कखपओसे य पर्गेइ पुढधीओ। जीवंते नेहए बाले गुरुए य चलणाओ॥१॥ अधिकृतगाथार्थों यद्यपि वक्ष्यमाणोद्देशकद वाकाभिगमे स्वयमेवाधगम्यते तथाऽपि बालानां सुखावबोधार्थमभिधीयतेतत्र 'रायगिहे'ति लुप्तसप्तम्येकवचनत्वाद्राजगृहे नगरे वक्ष्यमाणोद्देशकदशकस्वार्थो भगवता.श्रीमहावीरेण दर्शित इति ख्या-1 ख्येयम् , एवमन्यत्रापीष्टविभक्त्यस्तताऽवसेया।'चलण सि चलनविषयः प्रथमोद्देशकः 'चलमाणे चलिए' इत्याद्यर्थ मिर्णवार्थ ॥ ५ ॥ SARERaininternational उद्देशक-अधिकारस्य गाथा एवं तत् व्याख्या: ~24~ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक |||| दीप अनुक्रम [3] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [-], मूलं [२...], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः इत्यर्थः १, 'दुक्खे'सि दुःखविषयो द्वितीयः 'जीवो भदन्त ! स्वयंकृतं दुःखं वेदयती 'त्यादिप्रश्ननिर्णयार्थ इत्यर्थः २, 'कंखपओसे 'सि काङ्क्षा-मिथ्यात्वमोहनीयोदयसमुत्थोऽन्यान्य दर्शन महरूपो जीव परिणामः स एव प्रकृष्टो दोषो- जीवदूषणं काहाप्रदोषस्तद्विषयस्तृतीयः, 'जीवेन भदन्त । काङ्क्षामोहनीयं कर्म्म कृतमित्याद्यर्थनिर्णयार्थ इत्यर्थः २, चकारः समुच्चये, 'पग' ति | प्रकृतयः कर्मभेदाश्चतुर्थोद्देश कस्यार्थः, 'कति भदन्त ! कर्म्मप्रकृतयः ?' इत्याविश्वासी ४, 'पुढवीओ'त्ति रसप्रभादिपृथिव्यः पञ्चमे वाच्या, 'कति भदन्त । पृथिव्यः ?" इत्यादि च सूत्रमस्य ५, 'जावंते'त्ति यावच्छन्दोपलक्षितः षष्ठः 'यावतो भदन्त ! अवकाशान्तरात्सूर्य' इत्यादिसूत्रवासी ६, 'नेरइए'सि नैरयिकशब्दोपलक्षितः सप्तमः, 'नैरयिको भदन्त । निरये उत्पद्यमान' इत्यादि च तत्सूत्रं ७, 'बाले'त्ति बालशब्दोपलक्षितोऽष्टमः, 'एकान्तबालो भदन्त ! मनुष्य' इत्यादिसूत्रश्चासौ ८, 'गुरुए'त्ति गुरुकविषयो नवमः, कथं भदन्त ! जीवा गुरुकत्वमागच्छन्ति ?" इत्यादि च सूत्रमस्य ९, चः समुच्चयार्थः, 'चलणाओ 'ति बहुव | चननिर्देशाच्चलनाद्यादशमोदेशकस्यार्थाः, तत्सूत्रं चैवम्- 'अन्ययूथिका भदन्त । एवमाख्यान्ति चलद् अचलितमित्यादी' ति प्रथमशतोदेशक सङ्ग्रहणिगाथार्थः ॥ १ ॥ तदेवं शास्त्रोद्देशे कृतमङ्गलादिकृत्योऽपि प्रथमशतस्यादौ विशेषतो मङ्गलमाहनमो सुपस्स ॥ सू० ३ ॥ 'नमो सुयरस'ति नमस्कारोऽस्तु 'श्रुताय' द्वादशाङ्गीरुपायात्प्रवचनाथ, नम्बिष्टदेवतानमस्कारो मङ्गलार्थो भवति, न च श्रुतमिष्टदेवतेति कथमयं मङ्गलार्थ इति ?, अत्रोच्यते श्रुतमिष्टदेवतव, अर्हतां नमस्करणीयत्वात् सिद्धवत्, नमस्कुर्वन्ति च श्रुतमर्हन्तो, 'नमस्तीर्थाये' ति भणनात्, तीर्थं च श्रुतं संसारसागरोतरणासाधारणकारणत्वात्, तदाधारत्वेनैव उद्देशक अधिकारस्य गाथा एवं तत् व्याख्या:, 'श्रुतस्य इष्टदेवत्वेन तत् नमस्करणीयत्वं For Pale On ~ 25~ rary.org Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १ शतके उद्देशः १उ च्याख्या-3||च सङ्घस्य तीर्थशब्दाभिधेयत्वात् , तथा सिद्धानपि मंगलार्थमहन्तो नमस्कुर्वन्त्येव-"काऊण नमोकार सिद्धाणमभिग्गह प्रज्ञप्तिः दतु सो गिण्हे" इति वचनादिति ॥३॥ एवं तावत्प्रथमशतोद्देशकाभिधेयार्थलेशः पारदर्शितः, ततश्च यथोद्देशं निर्देश अभयदेवी | || इति न्यायमाश्रित्यादितः प्रथमोदेशकार्थप्रपञ्चो वाच्यः, तस्य च गुरुपर्वक्रमलक्षणं सम्बन्धमुपदर्शयन भगवान सुधर्मया वृत्तिः स्वामी जम्बूस्वामिनमाश्रित्येदमाह । तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नयरे होत्था, वण्णओ, तस्स णं रायगिहस्स बहिया नगरस्स उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए गुणसिलए नाम चेहए होत्था, सेणिए राया, चेल्लणा देवी ॥ सू०४॥ | अथ कथमिदमवसीयते यदुत-सुधर्मस्वामी जम्बूस्वामिनमभि संवन्धग्रन्धमुक्तवानिति , उच्यते, सुधर्मस्वामिवाचनाया एवानुवृत्तत्वात् , आह च-"तित्थं च सुहम्माओ निरवच्चा गणहरा सेसा" सुधर्मस्वामिनश्च जम्बूस्वाम्येव प्रधानः शिष्योऽतस्तमाश्रित्येयं वाचना प्रवृत्तेति, तथा षष्ठाने उपोद्घात एवं दृश्यते-यथा किल सुधर्मस्वामिनं प्रति जम्बूनामा प्राह-"जई णं भंते ! पंचमस्स अंगस्स विवाहपन्नत्तीए समणेणं भगवया महावीरेणं अयम पन्नत्ते, छहस्सणं भंते ! के अढे पन्नत्ते !"त्ति, तत एवमिहापि सुधर्मैव जम्बूनामानं प्रत्युपोद्घातमवश्यमभिहितवानित्यवसीयत इति । अयं चोपोद्घातग्रन्थो मूलटीकाकृता समस्तं शास्त्रेमाश्रित्य व्याख्यातोऽप्यस्माभिः प्रथमोदेशकमाश्रित्य व्याख्यास्यते, १ सिद्धानां नमस्कारं कृत्वा एव सोऽभिग्रहं गृहाति । २ सुधर्मणस्तीथ च शेषा गणधरा निरपत्याः (सिद्धाः)। ३ यदि भदन्त । पञ्चमस्यास्य व्याख्यापशः श्रमणेन भगवता महावीरेणायमर्थः प्रज्ञप्तः षष्ठस्य भदन्त ! कोऽर्थः प्रतः।। १ जम्बूलामिनो वाचनामाश्रित्य । GA4% A4 CASS+ % % ~26~ Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 45 - प्रत सूत्रांक ४ 455 प्रतिशत प्रत्युद्देशकमुपोद्घातस्येह शास्त्रेऽनेकधाऽभिधानादिति, अयं च प्राग व्याख्यातो नमस्कारादिको अन्यो || वृत्तिकृता न व्याख्यातः कुतोऽपि कारणादिति । 'ते णं काले णं'ति, ते इति-प्राकृतशैलीवशात्तस्मिन् यत्र तन्नगरमा-1 सीत्, णंकारोऽन्यत्रापि वाक्यालङ्कारार्थों यथा “इमा णं भंते ! पुढवी" त्यादिषु 'काले' अधिकृतावसर्पिणीचतुर्थवि भागलक्षण इति, 'ते णं'ति तस्मिन् यत्रासौ भगवान् धर्मकथामकरोत् 'समए गं'ति समये-कालस्यैव विशिष्टे विभागे, ॐ अथवा तृतीयैवेयं, ततस्तेन कालेन हेतुभूतेन तेन समयेन हेतुभूतेनैव 'रायगिहे'त्ति एकारः प्रथमैकवचनप्रभवः "कर्यरे आगच्छद दित्तरूवे" इत्यादाविव, ततश्च राजगृहं नाम नगरं 'होत्य'त्ति अभवत् । नन्विदानीमपि तनगरमस्तीत्यतः कथमुक्तमभवदिति , उच्यते, वर्णकग्रन्थोक्कविभूतियुक्तं तदैवाभवत् न तु सुधर्मस्वामिनो वाचनादानकाले, अवसर्पि-12 णीत्वात्कालस्य तदीयशुभभावानां हानिभावात् । 'वन्नओत्ति इह स्थानके नगरवर्णको वाच्यः, ग्रन्थगौरवभयादिह तस्यालिखितत्वात् , स चैवम्-"रिद्धस्थिमियसमिद्धे"ऋद्धं-पुरभवनादिभिवृद्धं स्तिमित-स्थिरं स्वचक्रपरचक्रादिभयवर्जितत्वात् समृद्ध-धनधान्यादिविभूतियुक्तत्वात् , ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'पमुइयजणजाणवए' प्रमुदिता-दृष्टाः प्रमोदकारणव-| स्तूनां सद्भावाजना-नगरवास्तव्यलोका जानपदाश्च-जनपदभवास्तत्रायताः सन्तो यत्र तत् प्रमुदितजनजानपदमित्यादिदारोपपातिकात् सव्याख्यानोऽत्र दृश्यः। 'तस्स णं'ति षष्ठ्याः पञ्चम्यर्थत्वात्तस्माद्राजगृहानगरात् 'पहिय'त्ति बहिस्तात् | PI'उत्तरपुरच्छिमे'त्ति उत्तरपौरस्त्ये 'दिसीभाए'त्ति दिशां भागो दियूपो वा भागो गगनमण्डलस्य दिग्भागस्तत्र 'गुण-1 १ कतर आगच्छति दीप्तरूपः । २ ( औप० सू०१)। अनुक्रम % 5 SHRELIEaturinternational ~27~ Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [४], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: %ER व्याख्या ४ सिलक' नाम 'चेइयंति चितेर्लेप्यादिचयनस्य भावः कर्म वेति चैत्यं-सञ्ज्ञाशब्दत्वादेवविम्बं तदाश्रयत्वात्तद्गृहमपि चैत्य, शतके प्रज्ञप्तिः || तोह व्यस्तरायतनं न तु भगवतामहतामायतनं 'होस्थति बभूव, इह च यज्ञ व्याख्यास्यते तत्मायः सुगमत्वादित्य-या उद्दशः १ अभयदेवी- वसेयमिति ॥४॥ राजगृहवया वृत्तिः । र्णनम् ॥ तेणं काले णं सेणं समए णं समणे भगवं महावीरे आइगरे तिस्थगरे सहसंबुद्धे पुरिसुत्तमे पुरिससीहे पुरि-1 सू०४ | सवरपुंडरीए पुरिसवरगंधहत्थीए लोगुत्तमे लोगनाहे लोगप्पदीवे लोगपजोयगरे अभयदए चक्खुदए मग्ग-18 दए सरणदए धर्मदेसए धम्मसारहीए धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी अप्पडिहयवरनाणदसणधरे विषहण्जमें || जिणे जाणए बुद्धे पोहए मुत्ते मोयए सव्व. सब्बदरिसी सिवमयलमरुपमणंतमक्खयमचामाहमपुणराव त्तयं सिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपाविउकामे जाच समोसरणं ॥ सू०॥५॥ II 'समणे'त्ति 'श्रमु तपसि खेदे चेति वचनात् श्राम्यसि-तपस्यतीति श्रमणः, अथवा सह शोभनेन मनसा वतेत इति ठा समनाः, शोभनत्वं च मनसो व्याख्यातं स्तवप्रस्तावात् , मनोमात्रसत्त्वस्थास्तवरवात, संगतं वा-यथा भवत्येवमणति भाषते समो वा सर्वभूतेषु सन् अणति-अनेकार्थत्वाद्धातना प्रवर्तत इति समणो निरुक्तिवशान् भवति, "भगति भगवान्-ऐश्वर्यादियुक्तः पूज्य इत्यर्थः, 'महावीरेति वीरः 'सूर वीर विक्रान्तावि'तिवचनात् रिपुनिराकरणसो विकान्तः, स च चकवादिरपि स्यादतो विशेष्यते-महांश्चासौ दुर्जयान्तररिपुतिरस्करणाद्वीरश्चेति महावीर, एसथ * धम्मदए इति पा०। 1-XESAKAUSHBSE -6* wiumstaram.org 'श्रमण' 'भगवन' 'महावीर' शब्दानाम एवं भगवत: विशेषणानाम व्याख्या: । (शक्रस्तवस्य व्याख्या) ~28~ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 3 प्रत सुत्रांक 3 देवैर्भगवतो गौणं नाम कृतं, यदाह-"अर्यले भयभेरवाणं संतिखमे परिसहोवसगाणं । देवेहिं (से नार्म) कथं (समणे भगवं) महावीरेत्ति," 'आदिकत्ति आदौ-प्रथमतः श्रुतधर्मम्-आचारादिग्रन्थात्मकं करोति तदर्थप्रणायकत्वेन प्रणयतीत्येवंशील आदिकर, आदिकरत्वाचासौ किंविध इत्याह-'तित्यपरे'त्ति तरन्ति तेन संसारसागरमिति तीर्थ-प्रवचनं तदव्यतिरेकाचेह सङ्गस्तीर्थ तत्करणशीलत्वात्तीर्थकरः, तीर्थकरत्वं चास्य नान्योपदेशपूर्वमित्यत आह-सहसंबुद्धे |ति, सह-आरमनैव सामनन्योपदेशत इत्यर्थी, सम्यग-यथावद् बुद्धो-योपादेयोपेक्षणीयवस्तुप्तवं विदित्सवानिति | सहसंबुद्धः । सहसंबुद्धवं कस्य न प्राकृतस्य सता, पुरुषोत्तमत्वादित्यत आह-पुरिसोत्तमोत्ति, पुरुषाणां मध्ये तेम तेन | रूपादिनाऽतिशयेनोडतत्वादूर्धवर्तित्वादुत्तमः पुरुषोत्तमः, अथ पुरुषोत्तमत्वमेवास सिंहायुपमानत्रयेण समर्थयशाह-पुरि-ट ससीहे'त्ति, सिंह इव सिंहः पुरुषश्चासौ सिंहश्चेति पुरुषसिंहः लोकेन हि सिंह शौर्यमतिप्रकृटमम्युपगतमत: शौर्येस उपमानं कृतः, शौर्य तु भगक्तो चास्ये प्रत्यनीकदेवेन भोप्यमानस्याप्यभीतत्त्वात् कुलिशकठिनमुष्टिपहारमहतिप्रवर्द्धमानामरशरीरकुलताकरणाचेति, तथा 'पुरिसवरपुंडरीए'त्ति, वरपुण्डरीक प्रधानपवलसहस्रपत्रं पुरुष एक वरपुण्डरीकमिवेति पुरुषवरपुण्डरीक, धवलत्वं चास्य भगवतः सर्वाशुभमलीमसरहितत्वात् सर्वैश्च शुभानुभावैः शुद्धत्वात् , अथवा पुरुषाणां-तत्सेवकजीवानां वरपुण्डरीकमिव-वरच्छत्रमिव यःसन्तापातपनिवारणसमर्थत्वात् भूषाकारणत्वाच स पुरुषवर| पुण्डरीकमिति, तथा-पुरिसवरगंधहत्यि'त्ति पुरुष एव वरगन्धहस्त्री पुरुषवरगन्धहस्ती, यथा गन्धहस्तिनो गन्धेनापि | १ अचलो भयभैरवयोः शान्तिक्षमः परीषहोपसर्गाणां । देवैः (तस्य नाम ) कृत (अमणो भगवान ) महावीर इति । अनुक्रम 454545453 'श्रमण' 'भगवन' 'महावीर' शब्दानाम एवं भगवत: विशेषणानाम व्याख्या: । (शक्रस्तवस्य व्याख्या) ~29~ Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [4] दीप अनुक्रम [६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञठिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ ८ ॥ Jan Euratur समस्तेतरहस्तिनो भज्यन्ते तथा भगवतस्तदेश विहरणेन इतिपरचक्रदुर्भिक्षडमरमरकादीनि दुरितानि नश्यन्तीति पुरुषवरगन्धहस्तीत्युच्यत इत्यत उपमात्रयात्पुरुषोत्तमोऽसौ । न चायं पुरुषोत्तम एव, किन्तु १, लोकस्याप्युत्तमो, लोकनाथत्वादू, एतदेवाह - 'लोगणाहेन्ति, लोकस्य सम्ज्ञिभव्य लोकस्य नाथः - प्रभुलकनाथः, नाथत्वं च योगक्षेमकारित्वं, 'योगक्षेमकृन्नाथ' इति वचनात् तच्चास्याप्राप्तस्य सम्यग्दर्शनादेर्योगकरणेन लब्धस्य च परिपालनेनेति, लोकनाथत्वं च यथाव| स्थित समस्तवस्तुस्तोमप्रदीपनादेवेत्यत आह- 'लोगपईवे 'त्ति लोकस्य - विशिष्टतिर्य नरामररूपस्याऽऽम्तरतिमिरनिराकरणेन | प्रकृष्टप्रकाश कारित्वात्प्रदीप इव प्रदीपः, इदं विशेषणं द्रष्टृलोकमाश्रित्योक्तम्, अथ दृश्यं लोकमाश्रित्याह- 'लोगपज्योयगरे त्ति, लोकस्य-लोक्यत इति लोकः अनया व्युत्पत्त्या लोकालोकस्वरूपस्य समस्तवस्तुस्तोमस्वभावस्याखण्डमार्त्तण्डमण्डलमिव निखिलभावस्वभावावभाससमर्थ केबुलालोकपूर्वकप्रवचनप्रभापटलप्रवर्त्तनेन प्रद्योतं - प्रकाशं करोतीत्येवंशीखो | लोकप्रद्योतकरः । उक्तविशेषणोपेतश्च 'मिहिरहरिहरहिरण्यगर्भादिरपि तत्तीर्थिक मतेन भवतीति कोऽस्य विशेष इत्या| शङ्कायां तद्विशेषाभिधानायाह- 'अभयदए'त्ति, न भयं दयते ददाति प्राणापहरण रसिकेऽप्युपसर्गकारिणि प्राणिनीत्यभयदयः, अभया वा सर्वप्राणिभयपरिहारवती दया- अनुकम्पा यस्य सोऽभयदयः, हरिहरमिहिरादयस्तु नैवमिति विशेषः, न केवलमसावपकारिणां तदन्येषां वाऽनर्धपरिहारमात्रं करोति अपि त्वर्थप्राप्तिमपि करोतीति दर्शयन्नाह - 'चक्खुदये'त्ति, चक्षुरिव चक्षुः - श्रुतज्ञानं शुभाशुभार्थविभागोपदर्शकत्वात्, यदाह - "चक्षुष्मन्तस्त एवेह ये श्रुतज्ञानचक्षुषा । सम्यकू सदैव पश्यन्ति, भावान् हेयेतरान्नराः ॥ १ ॥” तद्दयत इति चक्षुर्दयः यथा हि लोके कान्तारगतानां ond For Park Use Only 'श्रमण' 'भगवन' 'महावीर' शब्दानाम एवं भगवत: विशेषणानाम व्याख्याः / ( शक्रस्तवस्य व्याख्या) ~30~ १ शतके उद्देशः १ वीरवर्ण नादि सू० ५ ॥ ८ ॥ Kar Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक ॐॐॐॐॐॐ चौरविलुप्तधनानां बद्धचक्षुषां चक्षुरुद्घाटनेन चक्षुर्दत्वा वाञ्छितमार्गदर्शनेनोपकारी भवति, एवमयमपि संसारारण्यव-18 लातिनां रागादिचौरविलुप्तधर्मधनानां कुवासनाऽऽछादितसज्ज्ञानलोचनानां तदपनयनेन श्रुतचक्षुर्दत्त्वा निर्वाणमार्ग यच्छ नुपकारीति दर्शयन्नाह- मग्गदए'त्ति,मार्ग-सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्रात्मकं परमपदपुरपथं दयत इति मार्गदयः, यथा हि लोके चक्षुरुद्घाटनं मार्गदर्शनं च कृत्वा चौरादिविलुप्तान् निरुपद्रवं स्थान प्रापयन परमोपकारी भवतीत्येवमयमपीति | दर्शयन्नाह–'सरणदए'त्ति शरण-त्राणं नानाविधोपद्रवोपद्रुतानां तद्रक्षास्थानं, तच्च परमार्थतो निर्वाणं तद्दयत इति शरणदयः, शरणदायकत्वं चास्य धर्मदेशनयैवेत्यत आह–'धम्मदेसए'त्ति,धर्म-श्रुतचारित्रात्मकं देशयतीति धर्मदेशका, 'धम्मदयेत्ति पाठान्तर, तत्र च धर्म-चारित्ररूपं दयत इति धर्मदयः, धर्मदेशनामात्रेणापि धर्मदेशक उच्यत इत्यत आह-'धम्मसारहित्ति धर्मरथस्य प्रवर्तकत्वेन सारथिरिव धर्मसारधिः, यथा रथस्य सारथी रथं रथिकमन्वांश्च रक्षति एवं भगवान् चारित्रधर्माङ्गाना-संयमात्मप्रवचनाख्यानां रक्षणोपदेशाद्धर्मसारधिर्भवतीति, तीर्थान्तरीयमतेनान्येऽपि धर्मसारथयः सन्तीति विशेषयन्नाह-'धम्मवरचाउरंतचक्कवट्टी'ति, वयः समुद्राश्चतुर्थश्च हिमवान् एते चत्वारोऽन्ताः-18 पृथिव्यन्ताः एतेषु स्वामितया भवतीति चातुरन्तः स चासौ चक्रवत्तीं च चातुरन्तचक्रवर्ती वरश्चासौ चातुरन्तचक्रवत्ती च वरचातुरन्तचक्रवत्ती-राजातिशयः, धर्मविषये वरचातुरन्तचक्रवत्ती धर्मवरचातुरन्तचक्रवर्ती, यथा हि पृथिव्यां शेषराजातिशायी वरचातुरन्तचक्रवर्ती भवति तथा भगवान् धर्मविषये शेषप्रणेतृणांमध्ये सातिशयत्वात्तथोच्यत इति, अथवा धर्म एव वरमितरचक्रापेक्षया कपिलादिधर्मचक्रापेक्षया वा चतुरन्तं-दानादिभेदेन चतुर्विभाग चतसृणां वा नरनारका अनुक्रम 13 M isra.org 'श्रमण' 'भगवन' 'महावीर' शब्दानाम एवं भगवत: विशेषणानाम व्याख्या: । (शक्रस्तवस्य व्याख्या) ~31~ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत व्याख्या- दिगतीनामन्तकारिवाचतुरन्तं तदेव चातुरन्तं यच्च भावासतिच्छेदात् तेन वर्तितुं शीलं यस्य स तथा, एतच्च धर्मदे- १ शतके प्रज्ञप्तिः शकत्वादिविशेषणकदम्बकं प्रकृष्टज्ञानादियोगे सति भवतीत्याह-'अप्पडिहयवरनाणदसणधरेत्ति अप्रतिहते-कटकु-४ उद्देशा१ अभयदेवी-४ व्यादिभिरस्खलिते अविसंवादके वा अत एव क्षायिकत्वाद्वा वरे-प्रधाने ज्ञानदर्शने केवलाख्ये विशेषसामान्यबोधात्मके याताधारयति यः स तथा, छमवानप्येवंविधसंवेदनसंपदुपेतः कैश्चिदभ्युपगम्यते, स च मिथ्योपदेशित्वानोपकारी भवतीतिनादि | सू०५ ॥९ ॥ निश्छमाताप्रतिपादनायाऽस्याह, अथवा-कथमस्याप्रतिहतसंवेदनत्वं संपन्नम्, अत्रोच्यते, आवरणाभावाद्, एनमेवास्य वेदयन्नाह-षियहछउमें त्ति व्यावृत्तं-निवृत्तमपगतं छद्म-शठत्वमावरणं वा यस्यासौ व्यावृत्तछन्ना, छभिविश्वास्य पारागादिजयाजात इत्यत आह-'जिणे'त्ति, जयति-निराकरोति रागद्वेषादिरूपानरातीनिति जिमा, रागादिजयश्चास्य | | रागादिस्वरूपतजयोपायज्ञानपूर्वक एव भवतीत्येतदस्याह-जाणएत्ति, जानाति छानस्थिकज्ञानचतुष्टयेनेति ज्ञायका, ज्ञायक इत्यनेनास्य स्वार्थसंपत्त्युपाय उक्ता, अधुना तु स्वार्थसंपत्तिपूर्वकं परार्थसंपादकत्वं विशेषणचतुष्टयेमाह-बुरेसि, बुद्धो जीवादितत्त्वं बुद्धवान्, तथा 'बोहए'त्ति जीवादितत्त्वस्य परेषां बोधयिता, तथा 'मुत्तेत्ति मुक्तो बाह्याभ्यन्तरग्रन्थिबन्धनेन मुक्तत्वात् , तथा 'मोयए'त्ति परेषां कर्मबन्धनान्मोचयिता । अथ मुक्तावस्थामाश्रित्य विशेषणान्याह'सव्व सब्बरिसी'ति, सर्वस्य वस्तुस्तोमख विशेषरूपतया ज्ञायकस्येन सर्वज्ञः, सामान्यरूपतया पुनः सर्वदशी नतु ला मुक्कावस्थायां दर्शनान्तराभिमतपुरुषवद्भविष्यजडत्वम्, एतच पदद्वयं कचिन्न दृश्यत इति, तथा-'सिंवमयल मित्यादि । | तत्र 'शिव' सवोऽऽबाधारहितत्वादू 'अचलं' स्वाभाविकप्रायोगिकचलनहेस्वभावाद 'अरुजम्' अविद्यमानरोग तन्निनग्ध-18 'श्रमण' 'भगवन' 'महावीर' शब्दानाम एवं भगवत: विशेषणानाम व्याख्या: । (शक्रस्तवस्य व्याख्या) ~32~ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक शरामनसोरभावात्। 'अनन्तम् अनन्तार्थविषयज्ञानस्वरूपत्वात् 'अक्षयम् अनाशं साधपर्यवसितस्थितिकस्वात्। अक्षतं वा परिपूर्णत्वात्पौर्णमासींचन्द्रमण्डलवन् 'अव्याबा' परेषामपीडाकारित्वात् ('अपुणरावत्तिय'ति कर्मबीजाभावादवावताररहित) 'सिद्धिगहनामधेय'ति सिध्यन्ति-निष्ठितार्था भवन्ति यस्यां सा सिद्धिः सा चासौ गम्यमानत्वाद्गतिश्च सिद्धिगतिस्तदेव नामधेय-प्रशस्तं नाम यस्य तत्तथा, 'ठाणं'ति तिष्ठति-अनवस्थाननिबन्धनकर्माभावेन सदाऽवस्थितो भवति यत्र तत्स्थान-क्षीणकर्मणो जीवस्य स्वरूपं लोकायं वा, जीवस्वरूपविशेषणानि तु लोकाग्रस्याऽऽधेयधर्माणामा-1 धारेऽध्यारोपादवसेयानि, तदेवंभूतं स्थानं 'संपाविउकामे'त्ति यातुमनाः, न तु तत्वाप्तः, तत्प्राप्तस्याकरणत्वेन विवक्षितार्थानां प्ररूपणाऽसम्भवात् , प्राप्नुकाम इति च यदुष्यते तदुपचाराद्, अन्यथा हि निरभिलाषा एव भगवन्तः केबलिनो |भवन्ति-'मोक्षे भवे च सर्वत्र, निःस्पृहो मुनिसप्तमः' इति वचनादिति, 'जाव समोसरण ति, तावद्भगवद्वर्णको वाच्यो | यावत्समवसरणं-समवसरणवर्णक इति, स च भगवद्वर्णक एवम्-"भुवमोयगभिंगनेलकज्जलपहहभमरगणनि निकुरुंब-| |निचिकुंचियपयाहिणावत्तमुद्धसिरए" भुजमोचको-रलविशेषः भृङ्ग:-कीटविशेषोऽजारविशेषो वा नैल-नीलीविकारः कजलं-मषी प्रहृष्टभ्रमरगणः-प्रतीतः एत इव स्निग्धा-कृष्णच्छायो निकुरम्बः-समूहो येषां ते तथा ते च ते निचिताश्व-निविड़ाः कुचिताश्च-कुण्डलीभूताः प्रदक्षिणावश्च मूर्द्धनि शिरोजा यख स तथा, एवं शिरोजवर्णकादिः "रतुप्पलपत्तमउर्यसुकुमालकोमलतले" इति पादतलवर्णकान्तः शरीरवर्णको भागवतो वाच्यः, पादतलक्शेिषणस्य चाय-IA Bा १ अभावात् प०।२ औषपा० सू०१० साधुवर्णनं सू०१४-१५-१६-१७- देवागमः सू० २२-२३-२४-२५-२६ अनुक्रम REaratundel 'श्रमण' 'भगवन' 'महावीर' शब्दानाम एवं भगवत: विशेषणानाम व्याख्या: । (शक्रस्तवस्य व्याख्या) ~33~ Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [५], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १शतके प्रत सूत्रांक 51451 व्याख्या- मर्थः-रक्त-लोहितम् उत्पलपत्रवत्-कमलदलवत् मृदुकम्-अस्तब्धं सुकुमालानां मध्ये कोमलं च तले-पादतलं यस्य स प्रज्ञप्तिः । तथा, तथा-"असहस्सवरपुरिसलक्खणधरे आगासगएणं चकेणं आगासगएणं छत्तेणं आगासगयाहिं चामराहिं आगा-| MMH Aयाहिंचामरहिं आगा-|४|उद्देशः १ अभयदेवी- सफलिहामएणं सपायपीढणं सीहासणेणं' आकाशस्फटिकम्-अतिस्वच्छस्फटिकविशेषस्तन्मयेन उपलक्षित इति गम्यं, या वृत्तिःSTRACT 'धम्मञ्झएणं पुरो पकडिजमाणेणं' देवैरिति गम्यते 'चउदसहिं समणसाहस्सीहिं छत्तीसाए अज्जियासाहस्सीहिं सद्धि नादि संपरिबुडे' साहस्रीशब्दः सहनपर्यायः सार्द्ध सह, तेषां विद्यमानतयाऽपि सार्द्धमिति स्यादत उच्यते-संपरिवृतः-परि-8 ॥१०॥ करित इति, 'पुषाणुपुर्षि चरमाणे' न पश्चानुपूादिना 'गामाणुगार्म दूइज्जमाणे ग्रामश्च प्रतीतः अनुपामश्च-तदनन्तरं ग्रामो प्रामानुपामं तदू 'द्रवन्' गच्छन् 'सुहसुहेणं विहरमाणे जेणेव रायगिहे नगरे जेणेव गुणसिलए चेहए तेणेव उवागच्छद उवागच्छित्ता अहापडिरूवं जग्गहं ओगिण्हइ भोगिणिहत्ता संजमेणं तवसा अप्पाण भावेमाणे विहरई'त्ति । सम-||8| वसरणवर्णके च 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी बहवे समणा भगवंतो अपेगड्या उग्गपवइया' इत्यादि साध्वादिवर्णको वाच्या, तथाऽसुरकुमाराः शेषभवनपतयो व्यन्तरा ज्योतिष्का वैमानिका देवा(देव्य)ध भगवतः समीपमागच्छन्तो वर्णयितव्याः ॥५॥ परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया (सू०६)॥ “परिसा निग्गय"त्ति राजगृहाद्राजादिलोको भगवतो वन्दनार्थ निगता,तन्निर्गमश्चैवम्-"तए णं रायगिहे नगरे सिंघाडगतिगचउकचचरचउम्मुहमहापहपहेसु बहुजणो अन्नमनस्स एवमाइक्सइ ४-एवं खलु देवाणुप्पिया। समर्ण भगवं|| REmiratn and ~34~ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 55156+0530 महावीरे इह गुणसिलए चेइए अहापडिरूवं उग्महं ओगिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ, तं सेयं खलु तहारूवाणं अरहताण भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण वंदणणर्मसणयाए ? तिकट्ठ बहवे उग्गा उग्गपुत्ता ४ इत्यादिर्वाच्यो यावद्भगवन्तं नमस्यन्ति पर्युपासते चेति, एवं राजनिर्गमोऽन्तःपुरनिर्गमश्च तत्पर्युपासना चौपपातिकव-18 द्वाच्या । 'धम्मो कहिओ'ति, धर्मकथेह भगवतो वाच्या, सा चैवं-'तए णं समणे भगवं महावीरे सेणियस्य रनो चिल्लणापमुहाण य देवीणं तीसे य महतिमहालियाए परिसाए सबभासाणुगामिणीए सरस्सईए धर्म परिकहेइ, तंजहा-अस्थि लोए अस्थि अलोए एवं जीवा अजीवा बंधे मोक्खे' इत्यादि । तथा “जह गरगा गम्मंती जे णरया जा य वेयणा गरए। सारीरमाणसाई दुक्खाई तिरिक्खजोणीए ॥१॥” इत्यादि । 'पडिगया परिस'त्ति लोकः स्वस्थानं गतः, प्रतिगमश्च तस्या एवं वाच्या-तए णं सा महइमहालिया महापरिसा' महाऽतिमहती आलप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादतिशयातिशयगुवीं महत्या पर्षत्-प्रशस्ता प्रधानपरिषत् , महार्चानां वा-सत्पूजानां महार्चा वा पर्षत् महार्चपर्षदिति, 'समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हतुवा समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करेत्ता बंदा नमंसइ २ एवं वयासी-सुयक्खाए णं भंते ! निग्गंथे पावयणे, णस्थि णं अने केइ समणे वा माहणे वा एरिसं धम्ममाइ[क्खित्तए, एवं वइत्ता जामेव दिसिं पाउभूया तामेव दिर्श पडिगय'ति ॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूती नाम अणगारे गोयम१ औपपातिके सू०-२७-२८-२९-३०-३१-३२-३३ । २ औप० सू० ३४-३ औप० सू०३५-३६-३७ ALSASEACHECCACK REmiratanimal Dinmarary.om ~35 Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत १ शतके उद्देशः१ धर्मदेशना सू०६ व्याख्या-15 सगोत्तेणं सत्तुस्सेहे समचउरससंठाणसंठिए बजरिसहनारायसंघयणे कणगपुलगणिघसपम्हगोरे उग्गतवे | प्रज्ञप्तिः ४ दित्ततवे तत्ततवे महातवे ओराले घोरे घोरगुणे घोरतवस्सी घोरवंभचेरवासी उच्छ्हसरीरे संखित्तविकअभयदेवी-IKलतेयलेसे चोरसपुग्वीचसनाणोवगए सव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंत्ते | पावृत्ति उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोझेवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणे विहरइ (सू०७) ॥११॥18॥ तेन कालेन तेन समयेन श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'जेट्टे'ति प्रथम: 'अंतेवासि सि शिष्यः, अनेन पदद्वयेन C| तस्य सकलसहनायकत्वमाह, 'इंदभूह'त्ति, इन्द्रभूतिरिति मातापितृकृतनामधेयः 'नाम'ति विभक्तिपरिणामानानेत्यर्थः, अन्तेवासी किल विवक्षया श्रावकोऽपि स्यादित्यत आह-'अणगारेत्ति, नास्यागारं विद्यत इत्यनगारः, अयं चावगीत गोत्रोऽपि स्यादित्यत आह-गोयमसगोत्तेणं'ति गौतमसगोत्र इत्यर्थः, अयं चातकालोचितदेहमानापेक्षया न्यूमाधि3 कदेहोऽपि स्यादित्यह आह-'सत्तुस्सेहे'त्ति सप्तहस्तोच्छ्यः अयं च लक्षणहीनोऽपि स्वादित्यत आह-समचरंसस । ठाणसंठिए'त्ति, सम-नाभेरुपरि अधश्च सकलपुरुषलक्षणोपेतावयवतया तुल्यं तच्च तचतुरखं च-प्रधानं समचतुरस्त्रम्, ४ अथवा-समा:-शरीरलक्षणोक्तप्रमाणाविसंवादिन्यश्चतम्रोऽसयों यस्य तत्समचतुरस्रम् , अम्रयस्त्विह चतुर्दिविभागीपल लक्षिताः शरीरावयवा इति, अन्ये त्याहुः-समा-अन्यूनाधिकाः चतस्रोऽप्यनयो यत्र तत्समचतुरस्रम्, अम्रयश्च पर्यनस-|४ नोपविष्टस्य जामुनोरन्तरम् आसनस्य ललाटोपरिभागस्य चान्तरं दक्षिणस्कन्धस्य वामजानुनश्चान्तरं वामस्कन्धपक्षिपणजानुनश्चान्तरमिति, अन्ये वाहु-विस्तारोत्सेधयोः समत्वात् समचतुरनं तच तत् संस्थानं च-आकारः समचतुरन SARERainintenarana ...अत्र मूल-सम्पादन-अवसरे मुद्रण दोषात् सूत्र-क्रम ६ लिखितं, (इस प्रत की दायी तरफ ऊपर सू०६ लिखा है वो भूल है, यहाँ सू० '७' होना चाहिए गौतमस्वामिन: वर्णनं ~36~ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [<] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः | संस्थानं तेन संस्थितो व्यवस्थितो यः स तथा अयं च हीनसंहननोऽपि स्यादित्यत आह- 'वज्ररिसहनारायसंघयणे' त्ति, इह संहननम् - अस्थिसञ्चयविशेषः, इह वज्रादीनां लक्षणमिदम् - "रिसहो य होइ पट्टो वज्रं पुण कीलियं वियाणाहि । | उभओ मकडबंधों नारायं तं वियाणाहि ॥ १ ॥” ति, तत्र वज्रं च तत् कीलिकाकीलितकाष्ठसंपुटोपमसामर्थ्ययुक्तत्वात् | ऋषभश्च लोहादिमयपट्टबद्ध काष्ठसंपुटोपमसामर्थ्यान्वितत्वाद् वज्रर्षभः स चासौ नाराचं च उभयतो मर्कटबन्धनिबद्धकाष्ठसं| पुटोपमसामर्थ्योपेतत्वाद् वज्रर्षभनाराचं (तच्च) तत् संहननम् - अस्थिसञ्चयविशेषोऽनुपमसामर्थ्ययोगाद् यस्यासौ वज्रर्षभनाराचसंहननः, अम्ये तु कीलिकादिमत्त्वमरनामेव वर्णयन्ति, अयं च निन्द्यवर्णोऽपि स्यादिलत आह- 'कणयपुलयनिह सपम्हगोरे' कनकस्य- सुवर्णस्य 'पुलगं'ति यः पुलको -लवस्तस्य यो निकष:- पपट्टके रेखालक्षणः, तथा 'पम्ह'सिपद्मपक्ष्माणि-केशराणि तद्वगौरो यः स तथा, वृद्धव्याख्या तु-कनकस्य न लोहादेर्यः पुलकः-सारो वर्णातिशयस्तत्प्रधानो यो निकषो-रेखा तस्य यत्पक्ष्म - बहलत्वं तद्वगौरों यः स तथा अथवा कर्मकस्य यः पुलको - द्रुतत्वे सति विन्दुस्तस्य निकषो-वर्णतः सदृशो यः स तथा, 'पम्ह'त्ति पद्मं तस्य चेह प्रस्तावात्केशराणि गृह्यन्ते ततः पद्मवगौरो यः स तथा, ततः पदद्वयस्य कर्म्मधारयः, अयं च विशिष्टचरणरहितोऽपि स्वादित्यत आह- 'उग्गतवेत्ति उग्रम्-अप्रधृष्यं तपःअनशनादि यस्य स उग्रतपाः, यदन्येन प्राकृतपुंसा न शक्यते चिन्तयितुमपि तद्विधेन तपसा युक्त इत्यर्थः, 'दित्ततत्रे' त्ति, दीक्षं जाज्वल्यमान दहन इव कर्म्मवन गहन दहनसमर्थतया ज्वलितं तपो-धर्मध्यानादि यस्य स तथा, 'तत्ततवें' ति १ ऋषभो भवति पट्टो व पुनः कीलिकां विजानीहि । उभयतो मर्कटबन्धस्तु नाराचं विजानीहि ॥ १ ॥ गौतमस्वामिन: वर्णनं For Parts Only ~37~ Mar Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सू०६ व्याख्या- ततं तपो येनासौ तप्ततपाः, एवं हितेन तत्तपस्तप्तं येन कर्माणि संताय तेन तपसा स्वात्माऽपि तपोरूपा संतापितो १ शतके प्रज्ञप्तिः यतोऽन्यस्यास्पृश्यमिव जातमिति, 'महातवे'त्ति आशंसादोषरहितत्वात्प्रशस्ततपाः, 'ओराले'त्ति भीम उग्रादिविशेषण- उजः१ अभयदेवी- |विशिष्टतपःकरणात्पार्थस्थानामल्पसत्यानां भयानक इत्यर्थः, अम्ये वाहुः-ओराले त्ति उदार-प्रधानः 'चोरे'त्ति घोरः ||धमद धर्मदेशना या वृत्तिःशा अतिनिर्घणः, परीपहेन्द्रियादिरिपुगणविनाशमाश्रित्य निर्दय इत्यर्थः, अन्ये खात्मनिरपेक्षं घोरमाहुः, 'घोरगुणे त्ति, घोरा-अन्यैर्दुरनुचरा गुणा-मूलगुणादयो यस्य स तथा, 'घोरतवस्सि'त्ति घोरस्तपोभिस्तपस्वीत्यर्थः, 'घोरर्षभचेर-18 वासि'त्ति, घोर-दारुणमल्पसत्त्वैर्दुरनुचरत्वाद्यब्रह्मचर्य तत्र वस्तुं शीलं यस्य स तथा, 'उच्छृतसरीरे'त्ति उच्छूढम्उज्झितमिवोज्झितं शरीरं येन तत्संस्कारत्यागात्स तथा, 'संखित्तविउलतेयलेसेति, संक्षिप्ता-शरीरान्तलीनखेन इस्वतां गता विपुला-विस्तीर्णा अनेकयोजनप्रमाणक्षेत्राश्रितवस्तुदहनसमर्थत्वात्तेजोलेश्या-विशिष्टतपोजन्यलब्धिविशेषप्रभवा तेजोग्याला यस्य स तथा, मूलटीकाकृता तु 'उच्छ्रडसरीरसंखिसविउलतेयलेस'त्ति कर्मधारयं कृत्वा व्याख्यात-14 | मिति, 'चउदसपुब्बि'त्ति चतुर्दश पूर्वाणि विद्यन्ते यस्य तेनैव तेषां रचितत्वादसौ चतुर्दशपूर्वी, अनेन तस्य श्रुतकेव-12 |लितामाह, स चावधिज्ञानादिविकलोऽपि स्यादत आह-'चउणांणोवगए'त्ति, केवलज्ञानवर्जज्ञानचतुष्कसमन्वित इत्यर्थः, | उक्तविशेषणद्वययुक्तोऽपि कश्चिन्न समप्रभुतविषयव्यापिज्ञानो भवति चतुर्दशपूर्वविदां षट्स्थानकपतितत्वेन श्रवणादित्यत आह-सव्वक्खरसन्निवाइ'त्ति, सर्वे च तेऽक्षरसन्निपाताश्च-तत्संयोगाः सर्वेषां वाऽक्षराणां सन्निपाताः साक्षरसन्नि||2 || पातास्ते यस्य शेयतया सन्ति स सर्वाक्षरसन्निपाती, श्रव्याणि वा-श्रवणसुखकारीणि अक्षराणि साङ्गत्येन नितरां वदितुं ॥१२ SARERainintamatarna ***अत्र मूल-सम्पादन-अवसरे मुद्रण दोषात् सूत्र-क्रम ६ लिखितं, (इस प्रत की दायी तरफ ऊपर सू० ६ लिखा है वो भूल है, यहाँ सू० '७' होना चाहिए गौतमस्वामिन: वर्णनं ~38~ Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 94 प्रत -994-9 सूत्रांक - शीलमस्येति श्रब्याक्षरसंनिवादी, स चैगुणविशिष्टो भगवान् विनयराशिरिष साक्षादितिकृत्वा शिष्याचारवाच 'सम-| णस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते विहरती' ति योगः' तत्र दूरं च-विप्रकृष्ट सामन्तं च-संनिकृष्टं तनिषेधा-1& | ददूरसामन्तं तत्र, नातिदूरे नातिनिकट इत्यर्थः, किंविधः संस्तत्र विहरतीत्याह-'उहुंजाणु'त्ति, उर्दू जानुनी यस्यासाचूर्द्धजानुः | शुद्धपृथिव्यासनवर्जनादौपग्रहिकनिषद्याया अभावाच्चोत्कुटुकासन इत्यर्थः, 'अहोसिरे'त्ति अधोमुखः नोट्ट तिर्यग्वा | विक्षिप्तदृष्टिः, किन्तु नियतभूभागनियमितदृष्टिरिति भावः, 'झाणकोट्टोवगए'त्ति, ध्यान-धय शुक्लं वा तदेव कोष्ठःकुशूलो ध्यानकोष्ठस्तमुपगतः-तत्र प्रविष्टो ध्यानकोष्ठोपगतः, यथा हि कोष्टके धान्यं प्रक्षिप्तमविप्रसतं भवति एवं स | भगवान् ध्यानतोऽविप्रकीर्णेन्द्रियान्तःकरणवृत्तिरिति, 'संजमेणं'ति संवरेण 'तवसत्ति अनशनादिना, चशब्दः समुच्च| यार्थों लुप्तोऽत्र द्रष्टव्यः, संयमतपोग्रहणं चानयोः प्रधानमोक्षाङ्गत्वख्यापनार्थ, प्रधानत्वं च संयमस्य नवकर्मानुपादानहे. है तुत्वेन तपसश्च पुराणकर्मनिर्जरणहेतुत्वेन, भवति चाभिनवकर्मानुपादानात् पुराणकर्मक्षपणाच सकलकर्मक्षयलक्षणो मोक्ष का इति, 'अप्पाणं भावेमाणे विहरईत्ति, आत्मानं वासयंस्तिष्ठतीत्यर्थः ॥ M लए णं से भगवं गोयमे जायसहे जायसंसए जायकोउहल्ले उष्पन्न सहे उष्पन्नसंसए अप्पन्नकोउहाले संजायसहे संजायसंसए संजायकोउहल्ले समुप्पन्नसहे समुप्पन्नसंसए समुप्पन्नकोउहल्ले उडाए उडेइ उठाए उडेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिपियाहिणं करेइ २त्ता वंदइ नमसइ २त्ता पचासन्ने णाइदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहे विणएणं अनुक्रम व्या०३ REaratindin गौतमस्वामिन: वर्णनं ~39~ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक hicy व्याख्या- पंजलिउडे पजुवासमाणे एवं वयासी-से नूर्ण भंते ! चलमाणे चलिए १, उदीरिजमाणे उदीरिए २, वेइज्ज- शतके प्रज्ञप्तिःमाणे वेदए ३, पहिज्जमाणे पहीणे ४, छिजमाणे छिन्ने ५, भिजमाणे भिन्ने ६, दह (झ)माणे दहे ७, १उद्देशके अभयदेवी-| मिजमाणे मए८, निजरिजमाणे निजिन्ने९१,हंतागोयमाचलमाणे चलिए जाव णिजरिजमाणे णिजिपणे(सू०७) चलदादि या वृत्तिः 'ततः' ध्यानकोष्ठोपगतविहरणानन्तरं णमिति वाक्यालङ्कारार्थः 'स' इति प्रस्तुतपरामर्शार्थः, तस्य तु सामान्योकस्य ॥१३॥K विशेषावधारणार्थमाह-भगवं गोयमे'त्ति, किमित्याह-'जायस इत्यादि,जातश्रद्धादिविशेषणः सन् उत्तिष्ठतीति योगः, तत्र जाता-प्रवृत्ता श्रद्धा-इच्छा वक्ष्यमाणार्थतत्त्वज्ञानं प्रति यस्यासी जातश्रद्धः, तथा जातः संशयो यस्य स जातसंशयः संशयस्तु अनवधारितार्धं ज्ञानं, स चैवं तस्य भगवतो जातः-भगवता हि महावीरेण 'चलमाणे चलिए इत्यादी सूत्रे चल४ नर्थश्चलितो निर्दिष्टः, तत्र च य एव चलन् स एव चलित इत्युक्तः, ततश्चैकार्थविषयावेती निर्देशी, चलन्निति च वर्त्त& मानकालविषयः चलित इति चातीतकालविषयः, अतोऽत्र संशयः-कर्थ नाम य एवार्थो वर्तमानः स एवातीतो भवति !, विरुद्धवादनयोः कालयोरिति, तथा 'जायकोउहल्लेत्ति, जातं कुतूहलं यस्य स जातकुतूहलो, जातीत्सुक्य इत्यर्थः, कथ-14 मेतान पदार्थान भगवान् प्रज्ञापयिष्यतीति, तथा 'उप्पन्नसहे'त्ति उत्पन्ना-पागभूता सती भूता श्रद्धा यस्य स उत्पन्न-15 * श्रद्धा, अथ जातश्रद्ध इत्येतावदेवास्तु किमर्थमुत्पन्नश्रद्ध इत्यभिधीयते ?, प्रवृत्तश्रद्धत्वेनैवोत्पन्नश्रद्धत्वस्य लब्धत्वात् , न ॥ माद्यनुत्पन्ना श्रद्धा प्रवत्तेत इति, अनोच्यते, हेतुत्वप्रदर्शनार्थ, तथाहि-कथं प्रवृत्तबद्ध उच्यते, यत उत्पन्नश्रद्ध इति, हेतुत्वप्रदर्शनं चोचितमेव, वाक्यालङ्कारत्वाचस्य, यथा:-"प्रवृत्तदीपामप्रवृत्तभास्करी, प्रकाशचन्द्रां बुबुधे विभावरीम्" SRI C ..*मुद्रण-दोषात् अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रम '७' द्विवारान् लिखितम् ( इसके पहले सूत्र ७ था, यहाँ फिरसे "सू०७” लिखा है. ~ 40~ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक इह यद्यपि प्रवृत्तदीपत्वादेवाप्रवृत्तभास्करत्वमवगतं तथाऽप्यप्रवृत्तभास्करत्वं प्रवृत्तदीपत्वादेहेतुतयोपन्यस्तमिति, 'उप्पर नसंसए उप्पन्नकोउहल्ले'त्ति प्राग्वत् , तथा 'संजायसढे इत्यादि पदषद प्राग्वत् , नवरमिह संशब्दः प्रकर्षादिवचनो, यथा-"संजातकामो बलभिद्विभूत्यां, मानात् प्रजाभिः प्रतिमाननाच्च।" (संजातकाम:-) ऐन्द्रेश्वर्ये प्रकर्षेण जातेच्छ: 3 कार्तवीर्य इति । अन्ये तु 'जायसह इत्यादि विशेषणद्वादशकमेवं व्याख्यान्ति-जाता श्रद्धा यस्य प्रष्टुं स जातश्रद्धः, & किमिति जातश्रद्धः' इत्यत आह-यस्माज्जातसंशयः, इदं वस्त्वेवं स्यादेवं वेति, अथ जातसंशयोऽपि कथमित्यत आह-यस्माजा-2 तकुतूहलः कथं नामास्यार्थमवभोत्स्ये? इत्यभिप्रायवानिति, एतच्च विशेषणत्रयमवमहापेक्षया द्रष्टव्यम् , एवमुत्पन्नसंजा-3 तसमुत्पन्नश्रद्धत्वादय ईहापायधारणाभेदेन वाच्याः, अन्ये त्वाः-जातश्रद्धत्वाद्यपेक्षयोत्पन्नश्रद्धत्वादयः समानार्था विवक्षितार्थस्य प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय स्तुतिमुखेन ग्रन्थकृतोताः, न चैवं पुनरुक्तं दोषाय, यदाह-"वक्ता हर्षभयादिभिराक्षिप्तमनाः स्तुवंस्तथा निन्दन् । यत्पदमसकृद् ब्रूते तत्पुनरुक्तं न दोषाय ॥१॥" इति । 'उठाए उठेइ'त्ति उत्थानमुस्था-उर्दू वर्त्तनं तया उस्थया 'उत्तिष्ठति' ऊर्यो भवति, 'उहेइ' इत्युक्त क्रियारम्भमात्रमपि प्रतीयते यथा वक्तुमुत्तिष्ठते इति ततस्तस्यवच्छेदायोक्तमुत्थयेति, 'उद्याए उहित्त'त्ति उपागच्छतीत्युत्तरक्रियाऽपेक्षया उत्थानक्रियायाः पूर्वकालताIIIभिधानाय उत्थयोत्थायेति क्त्वाप्रत्ययेन निर्दिशतीति । 'जेणेवे'त्यादि, इह प्राकृतप्रयोगादथ्ययत्वाद्वा येनेति यस्मिक्षेव दिग्भागे श्रमणो भगवान् महावीरो वर्त्तते 'तेणेव'त्ति तस्मिन्नेव दिग्भागे उपागच्छति, तत्कालापेक्षया वर्तमानत्वादागमनक्रियाया वर्तमान विभक्त्या निर्देशः कृतः, उपागतवानित्यर्थः, उपागम्य च श्रमणं ३ कर्मतापन्नं 'तिक्खुत्तो'त्ति त्रीन अनुक्रम ~ 41~ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [७] दीप अनुक्रम [s] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र -५ / १ (मूलं + वृत्तिः ) शतक [१], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञठिः अभयदेवी- ४ या वृत्तिः १ ॥ १४ ॥ वारान् त्रिकृत्वः 'आयाहिणपयाहिणं करेइत्ति आदक्षिणाद्-दक्षिणहस्तादारभ्य प्रदक्षिणः परितो भ्राम्यतो दक्षिण एव आदक्षिणप्रदक्षिणोऽतस्तं करोतीति, 'वंदर'चि 'वन्दते' वाचा स्तौति 'नमस'त्ति 'नमस्यति' कायेन प्रणमति 'नचासन्ने 'न्ति, 'न' नैव 'अत्यासन्नः अतिनिकटः, अवग्रहपरिहारात्, नात्यासन्ने वा स्थाने, वर्त्तमान इति गम्यं, 'णाइदूरे' त्ति 'न' नैव 'अतिदूरः' अतिविप्रकृष्टः, अनौचित्यपरिहारात्, नातिदूरे वा स्थाने, 'सुस्सूसमाणे 'ति भगवद्वचनानि श्रोतुमिच्छन्, 'अभिमुहेत्ति, अभि-भगवन्तं लक्ष्यीकृत्य मुखमस्येत्यभिमुखः, तथा 'विणणं'ति विनयेन हेतुना 'पंजलिउडे'सि प्रकृष्टः- प्रधानो ललाटतटघटितत्वेनाञ्जलिः - हस्तन्यासविशेषः कृतो विहितो येन सोडायाहितादिदर्शनात् | प्राञ्जलिकृतः 'पज्जुवासमाणे'त्ति 'पर्युपासीनः' सेवमानः, अनेन च विशेषणकदम्बकेन श्रवणविधिरुपदर्शितः, आह च"णिद्दाविगहापरिवज्जिएहि गुत्तेहि पंजलिउडेहिं । भत्तिबहुमाणपुर्व उनउत्तेहिं सुणेयवं ॥ १ ॥ ति । एवं वयासित्ति 'एवं' वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु 'अवादीत्' उक्तवान्-'से' इति तद् यदुक्तं पूज्यैः 'चलच्चलित 'मित्यादि, 'पूर्ण' ति एवमर्थे, तत्र तत्रास्यैवं व्याख्यातत्वात्, अथवा 'से' इतिशब्दो मागधदेशी प्रसिद्धोऽथशब्दार्थे वर्त्तते, अथशब्दस्तु वाक्योपन्यासार्थः परिप्रश्नार्थी वा यदाह - " अथ प्रक्रियाप्रश्नानन्तर्यमङ्ग लोपन्यासप्रतिवचनसमुच्चयेषु " 'नून' मिति निश्चितं 'भंते 'ति गुरोरामन्त्रणं, ततश्च हे भदन्त ! - कल्याणरूप ! सुखरूप ! इति वा 'भदि कल्याणे सुखे च' इति वचनात् प्राकृतशैल्या वा भवस्य| संसारस्य भयस्य वा भीतेरन्तहेतुत्वाद्भवान्तो भयान्तो वा तस्यामन्त्रणं हे भवान्त ! हे भयान्त !वा, भान् वा ज्ञानादिभिदध्य१ परिवर्जितनिद्रा विकयैर्गुप्तैः कृतप्राञ्जलिभिरुपयुक्तैर्मक्ति बहुमानपूर्व श्रोतव्यम् ॥ १ ॥ For Penal Use On ***मुद्रण-दोषात् अत्र मूल-संपादने सूत्र क्रम '७' द्विवारान् लिखितम् ( इसके पहले सूत्र ७ था, यहाँ फिरसे "सू० ७" लिखा है. ~42~ १ शतके १ उद्देश चलदादि सू० ७ ॥ १४ ॥ rary or Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक मान ! 'भा दीप्ती' इति वचनात्, भ्राजमान ! वा-दीप्यमान ! 'भ्राज दीप्ती' इति वचनात् । अयं च आदित आरभ्य &भंतेत्ति पर्यन्तो अन्धो भगवता सुधर्मस्वामिना पश्चमाङ्गस्य प्रथमशतस्य प्रथमोद्देशकस्य सम्बन्धार्थमभिहितः। अथानेन सम्बन्धेनायातस्य पञ्चमाङ्गप्रथमशतप्रथमोद्देशकस्वेदमादिसूत्रम्-'चलमाणे चलिए' इत्यादि, अथ केनाभिप्रायेण भगवता सुधर्मस्वामिना पञ्चमाङ्गस्य प्रथमशतप्रथमोद्देश कस्यार्थानुकथनं कुर्वतैवमर्थवाचकं सूत्रमुपन्यस्त नान्यानीति?, अनोच्यते, इह चतुर्यु पुरुषार्थेषु मोक्षाख्यः पुरुषार्थो मुख्यः, सर्वातिशायित्वात् , तस्य च मोक्षस्य साध्यस्य साधनानां च सम्यग्दर्शनामादीनां साधनत्वेनाव्यभिचारिणामुभयनियमस्य शासनाच्छास्त्रं सद्भिरिष्यते, उभयनियमस्त्वेवं-सम्यग्दर्शनादीनि मोक्षस्यैव ४|साध्यस्य साधनानि नान्यस्यार्थस्य, मोक्षश्च तेषामेव साधनानां साध्यो नान्येषामिति, स च मोक्षो विषक्षक्षयात, तद्विपक्षश्च & वन्धः, स च मुख्यः कर्मभिरात्मनः सम्बन्धः, तेषां तु कर्मणां प्रक्षयेऽय मनुक्रम उक्तः 'चलमाणे इत्यादि तत्र 'चलमाणे'त्ति चलत-स्थितिक्षयादुदयमागच्छद् विपाकाभिमुखीभवद्यत्कर्मेति प्रकरणगम्यं तच्चलितम्-उदितमिति व्यपदिश्यते,चलनकालो हि उदयावलिका, तस्य च कालस्यासङ्ख्ययसमयत्वादादिमध्यान्तयोगित्वं, कर्मपुद्गलानामप्यनन्ताः स्कन्धा अनन्तप्रदेशाः | ततश्च ते क्रमेण प्रतिसमयमेव चलन्ति, तत्र योऽसावाद्यश्चलनसमयस्तस्मिंश्चलदेव तच्चलितमुच्यते, कथं पुनस्तद्वर्तमानं सदतीतं भवतीति ?, अत्रोच्यते-यथा पट उत्पद्यमानकाले प्रथमतन्तुप्रवेशे उत्पद्यमान एवोत्पन्नो भवतीति, उत्पद्यमानत्वं च तस्य प्रथमतन्तुप्रवेशकालादारभ्य पट उत्पद्यते इत्येवं व्यपदेशदर्शनात् प्रसिद्धमेव, उत्पन्नत्वं तूपपच्या प्रसाध्यते, तथाहि-उत्पत्तिक्रियाकाल एव प्रथमतन्तुप्रवेशेऽसावुत्पन्नः, यदि पुनर्नोत्पन्नोऽभविष्यत्तदा तस्याः क्रियाया वैयर्थ्यमभवि अनुक्रम ~ 43~ Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्या- ध्यत्, निष्फलत्वाद् , उत्पाद्योत्पादनार्था हि क्रियाः भवन्ति, यथा च प्रथमे क्रियाक्षणे नासाचुत्पन्नस्तथोत्तरेष्वपि क्षणेष्व-| मज्ञप्तिः नुत्पन्न एवासौ प्रामोति, को घुत्तरक्षणक्रियाणामात्मनि रूपविशेषो? येन प्रथमया नोत्पन्नस्तदुत्तराभिस्तूत्पाद्यते, अतः सर्वे-/ अभयदेवी-४ देवानुत्पत्तिप्रसङ्गः, दृष्टा चोत्पत्तिः, अन्त्यतन्तुप्रवेशे पटस्य दर्शनाद् , अतः प्रथमतन्तुप्रवेशकाल एव किश्चिदुत्पन्नं पटस्य, चलदादिया वृत्तिः यायचोपन न तदुत्तरक्रिययोत्पाद्यते, यदि पुनरुत्पाद्येत तदा तदेकदेशोत्पादन एव क्रियाणां कालानां च क्षयः स्यात्, ॥ १५ ॥ यदि हि तदंशोत्पादननिरपेक्षा अन्याः क्रिया भवन्ति तदोत्तरांशानुकमणं युज्यते नान्यथा, तदेवं यथा पट उत्पद्यमान | का एवोत्पन्नस्तथैवासल्यातसमयपरिमाणत्वादुदयापलिकाया आदिसमयात्प्रभृति चलदेव कर्म चलितं, कथं , यतो यदि हि | तत्कर्म चलनाभिमुखीभूतमुदयावलिकाया आदिसमय एव न चलितं स्यात्तदा तस्याद्यस्य चलनसमयस्य पैययं स्यात्, तत्राचलितत्वात्, यथा च तस्मिन् समये न चलितं तथा द्वितीयादिसमयेष्वपि न चलेत्, को हि तेषामात्मनि रूपविशेषो? येन प्रथमसमये न चलितमुत्तरेषु चलतीति, अतः सर्वदेवाचलनप्रसङ्गः, अस्ति चान्त्यसमये चलनं, स्थितेः परिमितत्वेन कर्माभावाभ्युपगमावू , अत आवलिकाकालादिसमय एव किश्चिञ्चलितं, यच्च तस्मिंश्चलितं तच्चोत्तरेषु समयेषु न चलति, यदि तु तेष्वपि तदेवायं चलनं भवेत्तदा तस्मिन्नेव चलने सर्वेषामदयावलिकाचलनसमयानां क्षयः स्यात्, यदि माहि तत्समयचलननिरपेक्षाण्यन्यसमवचलनानि भवन्ति तदोत्तरचलनानुक्रमणं युज्येत नान्यथा, तदेवं चलदपि तत्कर्म चलितं भवतीति । तथा 'उदीरिजमाणे उदीरिए'त्ति, उदीरणा नाम उदयप्रासं, चिरेणाऽऽगामिना कालेन यो| दयितव्यं कर्मदलिकं तस्य विशिष्टाध्यवसायलक्षणेन करणेनाकृष्योदये प्रक्षेपणं सा चासक्वे यसमयवर्तिनी तया च पुन-181 CAR) १५ REaratunvina G ualurary.om ..*मुद्रण-दोषात् अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रम '७' द्विवारान् लिखितम् ( इसके पहले सूत्र ७ था, यहाँ फिरसे "सू०७” लिखा है. ~44 Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ACCCCCA- सूत्रांक Pारुदीरणया उदीरणाप्रथमसमय एवोदीर्यमाणं कर्म पूर्वोक्तपटदृष्टान्तेनोदीरितं भवतीति २ तथा 'वेजमाणे वेडए'-1 त्ति, वेदन-कर्मणो भोगः, अनुभव इत्यर्थः, तच्च वेदनं स्थितिक्षयादुदयप्राप्तस्य कर्मण उदीरणाकरणेन वोदयमुपनीतस्य हैं भवति, तस्य च वेदनाकालस्थासक्येयसमयत्वादाद्यसमये वेद्यमानमेव वेदितं भवतीति ३ तथा 'पहिज्जमाणे पहीणे त्ति, प्रहाणं तु-जीवप्रदेशैः सह संश्लिष्टस्य कर्मणस्तेभ्यः पतनम्, एतदप्यसयसमयपरिमाणमेव, तस्य तु प्रहाणस्यादि४ समये महीयमाणं कर्म महीणं स्यादिति ४ । तथा 'छिजमाणे छिन्नेत्ति, छेदनं तु-कर्मणो दीर्घकालानां स्थितीनां हस्व| ताकरणं, तच्चापवर्त्तनाभिधानेन करणविशेषेण करोति, तदपि च छेदनमसोयसमयमेव, तस्य त्वादिसमये स्थितितस्त|च्छिद्यमानं कर्म छिन्नमिति ५। तथा 'भिजमाणे भिन्नेत्ति भेदस्तु-कर्मणः शुभस्याशुभस्य वा तीबरसस्थापवर्तना| करणेन मन्दताकरणं, मन्दस्य चोद्वर्तनाकरणेन तीव्रताकरणं, सोऽपि चासङ्ख्येयसमय एव, ततश्च तदाद्यसमये रसतो |भिद्यमानं कर्म भिन्नमिति ६ । तथा 'उज्झमाणे दहे'त्ति, दाहस्तु-कर्मदलिकदारूणां ध्यानामिना तद्रूपापनयनमक मत्वजननमित्यर्थः, यथा हि काष्ठस्याग्निना दग्धस्य काष्ठरूपापनयनं भस्मात्मना च भवनं दाहस्तथा कर्मणोऽपीति, तस्याप्यन्तर्मुहूर्तवर्तित्वेनासङ्ग्येयसमयस्यादिसमये दह्यमानं कर्म दग्पमिति । तथा 'मिजमाणे मडे नियमाणमायुःकर्ममृतमिति व्यपदिश्यते, मरणं ह्यायुःपुद्गलानां क्षयः तच्चासत्रेयसमयवर्ति भवति, तस्य च जन्मनः प्रथमसमयादारभ्यावीचिकमरणेनानुक्षणं मरणस्य भावाप्रियमाणं मृतमिति तथा 'निजरिजमाणे निजिषण'त्ति, निर्जीर्यमाणं-नितरामपुनर्भावेन क्षीयमाणं कर्म निर्जीर्ण-क्षीणमिति व्यपदिश्यते, निर्जरणस्यासकोयसमयभावित्वेन तत्प्रथम -%CARXARC अनुक्रम C5545 ~45~ Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [७-R], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्या-1 समय एव पटनिष्पत्तिदृष्टान्तेन निर्जीर्णत्वस्योपपद्यमानत्वादिति, पटदृष्टान्तश्च सर्वपदेषु सभावनिको वाच्यः९॥ तदे १शतके मज्ञप्तिःबमेतानव प्रश्नान् गौतमेन भगवता भगवान् महावीरः पृष्टः सनुवाच-हंते त्यादि, अथ कस्माद् भगवन्तं गौतमः | १ उद्देशके अभयदेवी- पृच्छति !, विरचितद्वादशाहतया विदितसकलश्रुतविषयत्वेन निखिलसंशयातीतत्वेन च सर्वज्ञकल्पत्वात्तस्य, आह च- | चलदादिपायात "संखाईए उ भवे साहइ जं वा पुरो उ पुच्छेज्जा । ण य णं अणाइसेसी बियाणई एस छउमत्थो ॥१॥"त्ति, नैवम्' उक्तगुणत्वेऽपि छमस्थतयाऽनाभोगसम्भवात् , यदाह-"न हि नामानाभोगश्छद्मस्थस्येह कस्यचिन्नास्ति । यस्माग्ज्ञाना-18 ८ वरण ज्ञानावरणप्रकृति कर्म ॥१॥" इति, अथवा जानत एव तस्य प्रश्नः संभवति, स्वकीयबोधसंवादनार्थमज्ञलोक बोधनार्थं शिष्याणां वा स्ववचसि प्रत्ययोत्पादनार्धं सूत्ररचनाकल्पसंपादनार्थ वेति । तत्र 'हंता गोयमें ति, हन्तेति को मलामन्त्रणार्थ, दीर्घत्वं च मागधदेशीप्रभवमुभयत्रापि, 'चलमाणे इत्यादेः प्रत्युच्चारणं तु चलदेव चलितमित्यादीनां स्वाC|| नुमतत्वप्रदर्शनार्थम् । वृद्धाः पुनराहुः-हता गोयमा' इत्यत्र 'हन्ते'ति एवमेतदिति अभ्युपगमवचन:, यदनुमतं तत्पदशेनार्थ 'चलमाणे' इत्यादि प्रत्युच्चारितमिति, इहच यावत्करणलभ्यानि पदानि सुप्रतीतान्येव । एवमेतानि नव पदानि INI१६॥ 8 कर्माधिकृत्य वर्तमानातीतकालसामानाधिकरण्यजिज्ञासया पृष्टानि निर्णीतानि च, अर्थतान्येव चलनादीनि परस्परतः | किंतुल्यार्थानि भिन्नार्थानि वेति पृच्छा निर्णयं च दर्शयितुमाह एए गं भंते ! नव पया किं एगट्ठा णाणाघोसा नाणावंजणा उदाहु नाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा , १ सहयातीतानपि भवान् कथयति यदा परः पृच्छेत् । न चावध्यादिरहितो जानात्येष छन्मस इति गणधरः ॥२॥ •••मुद्रण-दोषात् अत्र मूल-संपादने सूत्र-क्रम '७' द्विवारान् लिखितम् ( इसके पहले सूत्र ७ था, यहाँ फिरसे "सू०७” लिखा है.) ~46~ Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक द गोयमा ! चलमाणे चलिए १ उदीरिजमाणे उदीरिए २ बेइज्जमाणे वेइए ३ पहिजमाणे पहीणे ४ ते एएणं, चित्तारि पया एगट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा उप्पन्नपक्खस्स, छिज्जमाणे छिन्ने भिजमाणे भिन्ने दह-(डज्झ) माणे दहे मिज्जमाणे मडे निजरिजमाणे निजिणे एए थे पंच पया णाणट्ठा नाणाघोसा नाणावंजणा 8 & विगयपक्खस्स (सू०८)॥ | व्यक्त, नवरम् 'एगट्ट'त्ति 'एकार्थानि' अनन्यविषयाणि एकप्रयोजनानि वा 'नाणाघोसत्ति इह घोषा:-उदात्तादयः 'नाणावंजण'त्ति इह व्यञ्जनानि-अक्षराणि उदाहु'त्ति उताहो निपातो विकल्पार्थः 'नाणट्ठति भिन्नाभिधेयानि, इह 8 च चतुर्भशी पदेषु दृष्टा, तत्र कानिचिदेकार्थानि एकव्यञ्जनानि यथा क्षीर क्षीरमित्यादीनि १, तथाऽन्यानि एकार्थानि । नानाध्यञ्जनानि यथा क्षीरं पय इत्यादीनि २, तथाऽन्यान्यनेकार्थान्येकव्यञ्जनानि यथाऽर्कगव्यमाहिषाणि क्षीराणि ३, ४ तथाऽन्यानि नानार्थानि नानाव्यञ्जनानि यथा घटपटल कुटादीनि । तदेवं चतुर्भगीसंभवेऽपि द्वितीयचतुर्थभङ्गको प्रक्षसूत्रे गृहीती, परिदृश्यमाननानाच्यजनता तदन्ययोरसम्भवात्, निर्वचनसूत्रे तु चलनादीनि चत्वारि पदान्याश्रित्य | द्वितीयः, छिद्यमानादीनि तु पञ्च पदान्याश्रित्य चतुर्थ इति । ननु चलनादीनामर्थानां व्यक्तभेदत्वात् कथमाद्यानि च-12 स्वारि पदान्येकार्थानि ! इत्यादबाह-'उप्पन्नपक्खस्स'त्ति उत्पन्नमुत्पादो, भावे क्लीवे तप्रत्ययविधानात् , तस्य पक्ष:परिग्रहोजीकारः 'पक्ष परिग्रहे' इति धातुपाठादिति उत्पन्नपक्षः, इह च षष्ठ्यास्तृतीयार्थवाद उत्पन्नपक्षण-उत्पादाङ्गी-| कारेण-उत्पादाख्यं पर्यायं परिगृह्य एकार्थान्येतान्युच्यन्ते, अथवा 'उत्पन्नपक्षस्य उत्पादाख्यवस्तुविकल्पस्याभिधाय अनुक्रम [१०] CHHAL KUnioranorm ~47~ Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक व्याख्या- || कानीति शेषः, सर्वेषामेषामुत्पादमाश्रित्यैकार्थकारित्वादेकान्तर्मुहूत्तमध्यभावित्वेन तुल्यकालत्वाच्चैकार्थिकत्वमिति भावः, १ शतके प्रज्ञप्तिः स पुनरुत्पादाख्यः पर्यायो विशिष्टः केवलोत्पाद एव, यतः कर्मचिन्तायां कर्मणः प्रहाणेः फलस्यं केवलज्ञानमोक्षप्राप्ती, उद्देशके अभयदेवी तत्रैतानि पदानि केवलोत्पादविषयत्वादेकार्थान्युक्तानि, यस्मात् केवलज्ञानपर्यायो जीवेन न कदाचिदपि प्राप्तपूर्वः ॥र चलदायेया वृत्तिः यस्माच्च प्रधानस्ततस्तदर्थ एव पुरुषप्रयासः, तस्मात्स एव केवलज्ञानोत्पत्तिपर्यायोऽभ्युपगतः, एषां च पदानामेकार्थाना-II काथोदिवि॥१७॥ मपि सतामयमर्थः सामर्थ्यप्रापितक्रमः, बबुत-पूर्व तच्चलति-उदेतीत्यर्थः, उदितं च वेद्यते, अनुभूयत इत्यर्थः तच्च चारः सूत्रंट द्विधा-स्थितिक्षयादुदयमाप्तमुदीरणया चोदयमुपनीतं, ततश्चानुभवानन्तरं तत् प्रहीयते, दत्तफलत्वाज्जीवादपयातीत्यर्थः ॥ एतच्च टीकाकारमतेन ध्याख्यातम्, अन्ये तु व्याख्यान्ति-स्थितिबन्धाद्यविशेषितसामान्यकर्माश्रयत्वादेकार्थिकान्येतानि केवलोत्पादपक्षस्य च साधकानीति, चत्वारि चलनादीनि पदान्येकार्थिकानीत्युके शेपाण्यनेकाथिकानीति साम क्विगतमपि सुखावबोधाय साक्षात्प्रतिपादयितुमाह-'छिज्जमाणे इत्यादि, व्यक, नवरं 'णाणट्ठ'त्ति नानार्थानि, ना-1XI नार्थत्वं त्वे-छिद्यमानं छिसमित्येतत्पदं स्थितिबन्धाश्रय, यतः सयोगिकेवली अन्तकाले योगनिरोधं कझुकामो घेदनी|यनामगोत्राख्यानां तिसृणां प्रकृतीनां दीर्घकालस्थितिकानां सर्वापवर्त्तनयाऽऽन्तहितिक स्थितिपरिमाणं करोति । तथा |'भिद्यमानं भिन्न'मित्येतत्पदमनुभागबन्धाश्रयं, तत्र च यस्मिन् काले स्थितिघातं करोति तस्मिन्नेव काले रसधातमपि R ॥१७॥ | करोति, केवलं रसधातः स्थितिखण्डकेभ्यः क्रमप्रवृत्तेभ्योऽनन्तगुणाभ्यधिकः, अतोऽनेन रसघातकरणेन पूर्वस्माभिन्नार्थ | [पदं भवति । तथा 'दह्यमानं दग्ध'मित्येतत्पदं प्रदेशबन्धाश्रयं, प्रदेशबन्धस्त्वनन्तानन्तप्रदेशानां स्कन्धानां कर्मत्वापादनं, अनुक्रम [१०] H ~48~ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक CA I|| तस्य च प्रदेशवन्धकर्मणः सत्काना पञ्चहस्वाक्षरोच्चारणकालपरिमाणयाऽसङ्ख्यातसमयया गुणश्रेणीरचनया पूर्वरचितानां 15 | शैलेश्यवस्थाभाविसमुच्छिन्नक्रियध्यानाग्निना प्रथमसमयादारभ्य यावदन्त्यसमयस्तावत्पतिसमय क्रमेणासयेयगुणवृद्धानां | कर्मपुद्गलानां दहन-दाहः, अनेन च दहनार्थेनेदं पूर्वस्मात्पदाद्भिनार्थ पदं भवति, दाहश्चान्यनान्यथा रूढोऽपीह मोक्षचिन्ताRSधिकारान्मोक्षसाधन उक्तलक्षगकर्मविषय एव ग्राह्य इति । तथा 'ब्रियमाणं मृत मित्येतत्पदमायुःकर्मविषय, यत आयुष्क-15 Kा पुङ्गलानां प्रतिसमय क्षयोमरणम् , अनेन च मरणार्थेन पूर्वपदेभ्यो भिन्नार्थत्वाद्भिन्नार्थ पदं भवति। तथा 'वियमाणं मृत'मित्य-|| नेनायुः कमैंवोक्तं, यतः कमैंव तिष्ठ जीवतीत्युच्यते, कर्मैव च जीवादपगच्छत् वियत इत्युच्यते, तच मरणं सामान्येनोक्तमपि विशिष्टमेवाभ्युपगन्तव्य, यतः संसारवतीनि मरणानि अनेकशोऽनुभूतानि दुःखरूपाणि चेति किं तैः १. इह पुनः पदेऽपुनर्भ-|| वमरणमन्त्यं सर्वकर्मक्षयसहचरितमपवर्गहेतु भूतं विवक्षितमिति । तथा 'बिजमाण मिर्जीर्ण मित्येतत्पदं सर्वकर्माभावPा विषय, यतः सर्वकर्मनिर्जरणं न कदाचिदप्यनुभूतपूर्व जीवेनेति, अतोऽनेन सर्वकर्माभावरूपनिर्जरणार्थेन पूर्वपदेभ्यो || भिन्नार्थत्वाद्भिन्नार्थ पदं भवति । अथैतानि पदानि विशेषतो नानार्थान्यपि सन्ति सामान्यतः कस्य पक्षस्याभिधायक- 3 तया प्रवृत्तानीत्यस्यामाशङ्कायामाह-'विगयपक्खस्स'त्ति, विगतं विगमो-वस्तुनोऽवस्थान्तरापेक्षया विनाशा, स एव PI पक्षो-वस्तुधर्मः, तस्य वा पक्ष-परिग्रहो विगतपक्षस्तस्य विगतपक्षस्य वाचकानीति शेषः, विगतत्वं विहाशेषकर्माभावो-12 भिमतो, जीवेन तस्याप्राप्तपूर्वतयाऽत्यन्तमुपादेयत्वात् , तदर्थत्वाच्च पुरुषप्रयासस्येति, एतानि चैवं विगतार्थानि भव-| |न्ति, छिद्यमानपदे हि स्थितिखण्डनं विगम उक्तः, भिद्यमानपदे त्वनुभावभेदो विगमः, दह्यमानपदे .त्वकर्मताभवन अनुक्रम [१०] SARACSCR Hk-cutews-31- 0 ~ 49~ Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत शतके १ उद्देशः चलदाये कार्थादिविचारःसूत्रंद सुत्रांक च्याख्या-8 विगमः, नियमाणपदे पुनरायुःकर्माभावो विगमः, निर्जीयमाणपदे वशेषकर्माभावो विगमः उक्तः, तदेवमेतानि विगत- प्रज्ञप्तिः ई पक्षस्य प्रतिपादकानीत्युच्यन्ते । एवं च यत्पञ्चमाङ्गादिसूत्रोपन्यासे प्रेरित, यदुत-केनाभिप्रायेणेदं सूत्रमुपन्यस्तमिति, अभयदवा तत् केवलज्ञानोत्पादसर्वकर्मविगमाभिधानरूपसूत्राभिप्रायव्याख्यानेन निर्णीतमिति । एतत्सूत्रसंवादिसिद्धसेनाचार्योंया वृत्तिः१ Mऽप्याह-"उप्पज्जमाणकालं उपाणं विगययं विगच्छेतं । दवियं पण्णवयंतो तिकालविसयं विसेसेइ ॥१॥" इति, 'उत्प॥१८॥ Hधमानकाळ'मित्यनेनाद्यसमयादारभ्योत्पत्त्यन्तसमयं यावदुत्पद्यमानत्वस्येष्टत्वाद्वर्तमानभविष्यकालविषयं द्रव्यमुक्तम्, उ | स्पन्नमित्यनेन खतीतकालविषयम् , एवं विगतं विगच्छदित्यनेनापीति, ततश्चोत्पद्यमानादि प्रज्ञापयन स भगवान् द्रव्य विशेषयति, कथं १, त्रिकालविषयं यथा भवतीति संवादगाथार्थः । अन्ये तु कर्मेतिपदस्य सूत्रेऽनभिधानाचलनादिपदानि | सामान्येन व्याख्यान्ति, न कर्मापेक्षयैव, स्थाहि-चलमाणे चलिए'त्ति, इह चलनम्-अस्थिरत्वपयोयेण वस्तुन | उत्पादः । वेइज्जमाणे चेहए'त्ति 'ध्येजमान कम्पमानं 'व्येजितं' कम्पितम् , 'एज कम्पने' इति वचनात, जनमपि तद्रूपापेक्षयोरपाद एव । 'उदीरिजमाणे उदीरिए'त्ति, इहोदीरणं स्थिरस्य सतः प्रेरणं, तदपि चलनमेव, 'पहिज्जमाणे पहीणे'त्ति'महीयमाणं' प्रचश्यत् परिपतदित्यर्थः 'महीणं' प्रभ्रष्टं परिपतितमित्यर्थः, इहापि प्रहाणं चलनमेष, चलनादीनां चैकार्थत्वं सर्वेषां गत्यर्थत्वात् । 'उप्पन्नपक्खस्स'त्ति चलत्वादिना पर्यायेणोत्पन्नत्वलक्षणपक्षस्याभिधायकान्येतानीति । १ उत्पद्यमानकालमुत्पन्नं विगतं विगच्छत् । द्रव्यं प्रज्ञापयंखिकालविषय विशेषयति ॥ १ ॥ अनुक्रम [१०] - ॥१८॥ CHAR -CE% % REaratinidin For P OW ~50~ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: CASSES | तथा छेदभेददाहमरणनिर्जरणान्यकर्थािन्यपि व्याख्येयानि, तळ्याख्यानं च प्रतीतमेव, भिन्नार्थता पुनरेपामेव-कुठारादिना लतादिविषय छेदः, तोमरादिना शरीरादिविषयो भेदः, अग्निना. दावा धर्था दिविषयो दाहः, मरणं तु प्राणत्याग:निर्जरा तु अतिपुराणीभवनमिति, 'विगयपक्खस्स'त्ति भिन्नार्थान्यपि सामान्यतो विनाशाभिधायकान्येतानीत्यर्थः, न च X वक्तव्यं-किमेतैश्चलनादिभिरिह निरूपितैः ?, अतत्त्वरूपत्वादेषाम् , अतत्त्वरूपत्वस्यासिद्धत्वात् , तदसिद्धिश्च निश्चयनPilयमतेन वस्तुस्वरूपस्य प्रज्ञापयितुमारब्धत्वात् , तथाहि-व्यवहारनयश्चलितमेव चलितमिति मन्यते, निश्चयस्तु चलदपि चलितमिति, अत्र च बहुवक्तव्यं तच विशेषावश्यकादिहैवाभिधास्थमानजमालिचरिताद्वाऽबसेयमिति इहाचे प्रश्नोत्त|| रसूत्रद्वये मोक्षतत्त्वं चिन्तितं, मोक्षः पुनर्जीवस्य, जीवाश्च नारकादयश्चतुर्विशतिविधाः, यदाह-"नेरइया १ असुराई १० Dil पुढवाई ५ दियादओ ३ चेव । पंचिंदियतिरिय १ नरा १ वंतर १ जोइसिय १ वेमाणी १ (२४)॥१॥" तत्र नार कांस्तावत् स्थित्यादिभिश्चिन्तयन्नाहमा नेरइयाणं भंते ! केवइकालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा! जहनेणं दस वाससहस्साई उकोसेणं तेत्तीसं साग-10 रोवमाई ठिई पन्नत्ता १ । नेरइयाणं भंते ! केवइकालस्स आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा णीस-1 द संति वा, जहा ऊसासपए २। नेरइया णं भंते आहारट्ठी, जहा पन्नवणाए पढमए आहारुदेसए तहा नैरयिकाः १ असुरादयः १. पृथ्व्यादयः ५ द्वीन्द्रियादयः ३ पञ्चेन्द्रियतिर्यनरौ व्यन्तराज्योतिष्का वैमानिकाः 1 विशेषा, गा-४१४-१२६ पर्यन्तं ।। ER अनुक्रम [१०] h as %A4% ख्या ४ amerary.org ~51~ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: % ESC १ शतके उद्देशके नारकाणां स्थित्यादि सू०९ -% A A गाथा व्याख्या भाणियब्वं । ठिइ उस्सासाहारे किंवाऽऽहारेति ३६ सबओ वावि ३७। कतिभागं ? ३८ सवाणि व ३९ प्रज्ञप्तिः * कीस व भुखो परिणमंति १ ४०॥१॥ (सू०९) अभयदेवी-मा या वृत्तिः निर्गतमयम्-इष्टफलं कर्म येभ्यस्ते निरयास्तेषु भवा नैरयिका नारकास्तेषां नैरयिकाणां 'भंतेचि भदन्त ! केवइकाल | ति कियांश्चासौ कालश्चेति कियत्कालस्तं कियत्कालं यावत् 'ठिइत्ति आयुःकर्मवशान्नरकेऽवस्थानं पन्नत्त'त्ति 'प्रज्ञप्ता' प्ररू॥ १९॥ पिता ! भगवद्भिरन्यतीर्थकरैश्चेति प्रश्नः, 'गोयमे त्यादि निर्वचनं व्यक्तमेव, नवरं 'दस बाससहस्साईति प्रथमपृथिवी-|| प्रथमप्रस्तटापेक्षया तेत्तीसं सागरोवमाई ति सप्तमपृधिव्यपेक्षयेति,मध्यमातु जघन्यापेक्षया समयावधिका सामर्थ्यगम्येति॥ अनन्तरं नारकाणां स्थितिरुका, ते चोच्छ्रासादिमन्त इत्युच्छ्रासादिनिरूपणायाह-नेरइयाण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं | केवइकालस्सत्ति प्राकृतशैल्या कियत्कालात कियता कालेनेत्यर्थः, 'आणमंति'त्ति आनन्ति 'अन प्राणने' इति धातुपाKठात् मकारस्यागमिकत्वात् , 'पाणमंति'त्ति प्राणन्ति, वाशब्दौ समुच्चयार्थी, एतदेव पदद्वयं क्रमेणार्थतः स्पष्टयन्नाहका'ऊससंति वा नीससंति वत्ति यदेवोक्तमानन्ति तदेवोक्तमुच्छ्रसन्तीति, तथा यदेवोतं प्राणन्ति तदेवोक्त निःश्वसन्ती-|| ति, अथवा आनमन्ति प्राणमन्तीति 'णमु प्रहत्वे' इत्येतस्यानेकार्थत्वेन श्वसनार्थत्वात् , अन्य खाहु:-'आनन्ति वा प्राणन्ति वा' इत्यनेनाध्यात्मक्रिया परिगृह्यते, 'उच्सन्ति वा निःश्वसन्ति वा' इत्यनेन च बाह्येति । 'जहा ऊसासपए'त्ति, एतस्य का प्रश्नस्य निर्वचनं यथा उच्छासपदे प्रज्ञापनायाः सप्तमपदे तथा वाच्यं, तादम्-'गोयमा ! सययं संतयामेव आणमंति IX|| वा पाणमंति वा ऊससन्ति वा नीससंति वा' इति, तत्र 'सततम्' अनवरतम् , अतिदुःखिता हि ते, अतिदुःखब्याप्तस्य च दीप अनुक्रम [११-१२] ॥१९॥ नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~52~ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक गाथा निरन्तरमेवोच्छासनिःश्वासी दृश्येते, सततत्वं च प्रायोवृत्त्याऽपि स्यादित्यत आह-संतयामेवत्ति सन्ततमेव नैकसमयेऽपि तद्विरहोऽस्तीति भावः, दीर्घत्वं चेह प्राकृतत्वात् , आनमन्तीत्यादेः पुनरुच्चारणं शिष्यवचने आदरोपदर्शनार्थ, गुरुभिराद्रियमाणवचना हि शिष्याः सन्तोषवन्तो भवन्ति, तथा च पौनःपुन्येन प्रश्नश्रवणार्थनिर्णयादिषु घटन्ते लोके चादेयवचना भवन्ति, तथा च भव्योपकारस्तीर्थाभिवृद्धिश्चेति ॥ अथ तेषामेवाहारं प्रभावशाह-णेरड्याण'मित्यादि व्यक्तं, नवरम् 'आहारडि'त्ति आहारमर्थयन्ते-प्रार्थयन्त इत्येवंशीला अर्थो वा-प्रयोजनमेषामस्तीत्यार्थिनः,आहारेण-भोजनेनार्थिन आहारार्थिनः,आहारस्य-भोजनस्य वाऽर्थिन आहाराधिनः, जहा पन्नवणाएति 'आहारडी' इत्येतत्पदप्रभृति यथा प्रज्ञापनायाश्चतुर्थोपाङ्गस्य पढमएत्ति आये 'आहारउद्देसए'त्ति आहारपदस्थाष्टाविंशतितमस्योद्देशकः पदशब्दलोपाच्चाहारोद्देशका तत्र भणितं 'तहा भाणिय'ति तेन प्रकारेण वाच्यमिति। तत्र च नारकाहारवक्तव्यतायां बहूनि द्वाराणि भवन्ति, तत्सङ्ग्रहार्थ, पूर्वोक्तस्थित्युच्ढ़ासलक्षणद्वारद्धयदर्शनपूर्विकां गाथामाह-ठिइगाहा व्याख्या, स्थिति रकाणां वाच्या, उच्चासश्च, तौ चोक्तावेव । तथा 'आहार'त्ति आहारविषयो विधिर्वाच्यः, स चैवम्-‘ोरइयाणं भंते ! आहारठी ?, हंता आहारही अणेरइयाणं भंते ! केवइकालस्स आहारहे समुष्पजइ, “आहारार्थः' आहारप्रयोजनमाहारार्थित्वमित्यर्थः, "गोयमा! णेरइयाणं दुविहे आहारे पन्नत्ते' अभ्यवहारक्रियेत्यर्थः 'तंजहा-आभोगनिवत्तिए य अणाभोगनिबत्तिए य' तत्राभोगः अभिसन्धिस्तेन निर्वर्तितः-कृत आभोगनिर्वर्तितः, आहारयामीतीच्छापूर्वक इत्यर्थः, अनाभोगनिवर्तितस्तु आहारयाK मीति विशिष्टेच्छामन्तरेणापि, प्राट्काले प्रचुरतरप्रश्रवणायभिव्यजयशीतपुद्गलाद्याहारवत् , 'तत्थ गंजे से अणाभोगनि दीप अनुक्रम [११-१२] Alumirary.com | नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~53~ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत १ज सुत्राक गाथा व्याख्या-18 बत्तिए से णं अणुसमयमविरहिए आहारवे समुष्पजई' 'अणुसमय'ति प्रतिक्षणं सततातितीवधुवेदनीयकर्मोदयत ओज-||६|| १ शतके प्रज्ञप्तिः आहारादिना प्रकारेणेति, 'अविरहिए'त्ति चुकस्खलितन्यायादपि न विरहितः, अथवा प्रदीर्घकालोपभोग्याहारस्य सकृ- अभयदेवी- ग्रहणेऽपि भोगोऽनुसमयं स्थादतो ग्रहणस्यापि सातत्यप्रतिपादनार्थमविरहितमित्याह । 'तस्थ णं जे से आभोगनिवत्तिए से नारकाणां पाहात असंखेजसमइए अंतोमुहत्तिए आहारडे समुप्पज्जइ' असङ्ख्यातसामयिकः पस्योपमादिपरिमाणोऽपि स्यादत आह-|| | स्थित्यादि ॥२०॥ 'अंतोमुहुत्तिए'ति, इवमुक्कं भवति-आहारयामीत्यभिलाप एतेषां गृहीताहारद्रव्यपरिणामतीव्रतरदुःखजननपुरस्सरमन्त *मुंहान्निवर्तत इति । 'किं वाऽऽहारेति'त्ति, किंवरूपं वा वस्तु नारका आहारयन्ति इति वाच्यं, वाशब्दः समु-10 चये, तत्रेदं प्रश्ननिर्वचनसूत्रम्-'णेरइया णं भंते! किमाहारमाहारेंति ?, गोयमा दङमो अणंतपएसियाई अनन्तप्रदेशवन्ति लापुद्गलद्रव्याणीत्यर्थः, तदन्येषामयोग्यत्वात् , 'खेतमो असंखेजपएसावगाढाई' न्यूनतरप्रदेशावगाढानि हिन सब्रहणमा-IN योग्यानि, अनन्तप्रदेशावगाढानि तु न भवन्त्येव, सकललोकस्याप्यसङ्ख्येयप्रदेशपरिमाणत्वात् , 'कालयो अण्णतरविद-12 याई' जघन्यमध्यमोत्कृष्टस्थितिकानीत्यर्थः, स्थितिश्चाहारयोग्यस्कन्धपरिणामेनावस्थानमिति 'भावओ वन्नमंताई गंधर्मताई रसमंताई फासमंताई माहारिति । जाई भावओ बन्नमंताई आहारिंति ताई कि एगवन्नाई आहारेति ? जाब किं| पंचवन्नाई आहारेति !, गोयमा ! ठाणमग्गणं पडुच्च एगवन्नाइंपि आहारिति जाव पंचवन्नाईपि आहारिति, विहाणमग्गणं । पडुच्च कालवन्नाइंपि आहारति जाव सुकिलाईपि आहारैति' तत्र 'ठाणमग्गणं पडुच्चत्ति तिष्ठन्त्यस्मिन्निति स्थान-सामान्यं यथैकवर्ण द्विवर्णमित्यादि, 'विहाणमग्गणं पडुच्च'त्ति विधान-विशेषः कालादिरिति । 'जाई पनओ कालवन्नाई दीप अनुक्रम [११-१२] नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~54~ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 299% सूत्राक आहारेति ताई कि एगगुणकालाई आहारेंति जाव दसगुणकालाई आहारेति संखेज्जगुणकालाई असंखेजगुणकालाई अनंतगुणकालाई आहारेंति , गोयमा! एकगुणकालाईपि आहारति जाब अनन्तगुणकालाईपि आहारेंति, एवं जाव सुकिल्लाई १५, एवं गंधओवि . रसओवि १८ । जाइं भावओ फासमंताई ठाणमग्गणं पडुच्च नो एगफासाई आहारैति नो दुफासाईपि आहारैति नोतिफासाइपि आहारेंति' एकस्पर्शानामसम्भवादन्येषां चाल्पप्रदेशिकतासूक्ष्मपरिणामाभ्यां ग्रहराणायोग्यत्वात् , 'चउफासाईपि आहारेंति जाव अठ्ठफासाइपि आहारैति' बहुप्रदेशिकताबादरपरिणामाभ्यां ग्रहणयोग्यत्वा दिति, 'विहाणमग्गणं पडच कक्खडाईपि आहारेंति जाव लुक्खाईपि आहारति १९ । जाई फासओ कक्खडाईपि आहारति ताई किं एगगुणकक्खडाई आहारेंति जाव अनन्तगुणकक्खडाईपि आहारेंति ? गोयमा ! एगगुणकक्खडाईपि आहा रति जाव अणंतगुणकक्खडाईपि आहारेति २०, एवं अवि फासा भाणियबा जाव अणंतगुणलुक्खाईपि आहारैति २७ ॥ *जाई भंते । अणतगुणलुक्लाई आहारेति ताई किं पुट्ठाई आहारति अपुढाई आहारैति?, गोयमा ! पुट्ठाई आहारति नो । का अपुढाई आहारेंति २८' 'पुढाई ति आत्मप्रदेशस्पर्शवन्ति, तत्पुनरात्मप्रदेशस्पर्शनमवगाढक्षेत्राद्वहिरपि भवति अत उच्य ते-'जाई भंते ! पुढाई आहारेति ताई कि ओगाढाई आहारेंति अणोगाढाई आहारेति ?, गोयमा ! ओगाढाई नो अणोगाढाई 'अवगाढानीति आत्मप्रदेशैः सहकक्षेत्रावगाढानीत्यर्थः २९ । जाई भंते ! ओगाढाई आहारेति ताई कि अणंतरोगाढाई आहारेंति परंपरोगाढाई आहारैति?, गोयमा! अणंतरोगाढाई आहारेंति नो परंपरोगाढाई आहारेति' 'अनस्तरावगाढानीति येषु प्रदेशेष्वात्माऽवगाढस्तेष्वेव याम्यवगाढानि तान्यनन्तरावगाढानि अन्तराऽभावेनायगाढवात् ॥ गाथा दीप अनुक्रम [११-१२] ERICA नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~55~ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक गाथा यानि च तदन्तरवत्तीनि तान्यवगाढसम्बन्धात्परम्परावगाढानीति ३० । 'जाई भंते ! अर्णतरोगाढाई आहारेंति ताई कि १शतके प्रज्ञप्तिः अणूई आहारेंति वायराई आहारेंति ?, गोयमा ! अणूईपि आहारैति बायराईपि आहारेंति' तत्राणुत्वं पादरत्वं चापेक्षिकं १उद्देशक यावत्तिशास तेषामेवाहारयोग्यानां स्कन्धानां प्रदेशवृख्या वृद्धानामवसेयम् ३१ । जाई भंते | अणूईपि आहारेति बायराइपि आहार- नारकाणां ति ताई कि उहृपि आहारेंति ? एवं अहेवि तिरियपि, गोयमा! उहुंपि आहारेंति एवं अहेवि तिरियपि ३२ । जाईस्थित्यादि सू०९ भंते ! उहुंपि आहारेंति अहेवि तिरियपि आहारेति ताई किं आई आहारेंति मझे आहारेंति पज्जवसाणे आहारेंति !, गोयमा ! तिहावि' अयमर्थ:-आभोगनिर्वर्तितस्थाहारस्यान्तमौहर्तिकस्यादिमध्यावसानेषु सर्वत्राहारयन्तीति ३३ । 'जाई है। भंते ! आई मञ्झे अवसाणेवि आहारैति ताई कि सविसए आहारति अविसए आहारति !, गोयमा ! सविसए नो अविसए आहारेंति' तत्र स्वः-स्वकीयो विषयः स्पृष्टावगाढानन्तरावगाढाख्यः स्वविषयस्तस्मिन्नाहारयन्ति ३४ । 'जाई ४ भंते ! सविसए आहारेति ताई किं आणुपुर्वि आहारति अणाणुपुर्वि आहारति !, गोयमा ! आणुपुषिं आहारेंति नो अणाणुपुषि आहारेंति' तत्रानुपूा यथाऽऽसतं, नातिक्रम्य ३५ । 'जाई भते! आणुपुर्वि आहारैति ताई किं तिदिर्सि आहारेंति जाव छद्दिसि आहारेंति ? गोयमा ! नियमा छद्दिसि आहारैति' इह नारकाणां लोकमध्यवर्तित्वेन षण्णामप्यूद्धादिदिशामलोकेनानावृतत्त्वात् षट्स दिश्वाहारग्रहणमस्ति तत उक-नियमात् षडूदिशि, दिक्त्रयादिविकल्पास्तु लोकाMन्तवर्तिपु पृथिवीकायिकादिषु दिशा त्रयस्य द्वयस्य एकस्याश्चालोकेनावरणे भवन्तीति । यद्यपि वर्णतः पचवणांनीत्यामायुक्तं तथापि प्राचुर्येण यद्वर्णगन्धादियुतानि द्रव्याण्याहारयन्ति तद् दर्शयति-'ओसन्नं कारणं पडुच'त्ति बाहुल्यल दीप अनुक्रम [११-१२] ॥२१॥ JMEmiratna | नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~56~ Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक क्षणं कारणमाश्रित्य, तत्र च प्रकृत्यशुभानुभाव एव कारणमिति, 'बन्नओ कालनीलाई गंधो दुन्भिगंधाई रसओ तित्त- द्राकडयरसाई फासओ कक्खडगुरुयसीयलुक्खाई' एतानि च प्रायो मिथ्यादृष्टय एवाहारयन्ति, न तु भविष्यत्तीर्थकरादय है इति । अथ तानि यथास्वरूपाण्येव नारका आहारयन्त्यन्यथा वेत्यस्यामाशङ्कायामभिधीयते-तेसिपि पोराणे वनगुणे गंध-13 |गुणे रसगुणे फासगुणे विष्परिणामइत्ता परिपीलइत्ता परिसाडइत्ता परिविद्धसाइत्ता' विपरिणामादयो विनाशार्थत्वेनैBा कार्थी एव ध्वनयः 'अन्ने य अपुचे वनगुणे गंधगुणे रसगुणे फासगुणे उप्पाएत्ता आयसरीरोगाढे पोग्गले सबष्पणयाए & आहारमाहारेति' 'सबप्पणयाए'त्ति सर्वात्मना सर्वैरात्मप्रदेशैरित्यर्थः ३६ । व्याख्यातं सूत्रे सङ्घहगाधायाः 'किं वाऽऽहा तित्ति पदम् । अथ 'सव्वओ वा' इति व्याख्यायते-तत्र 'सर्वतः सर्वप्रदेशैनैरयिका आहारयन्तीति, वाऽपीति वचनाद भीक्ष्णमाहारयन्तीत्यपि वाच्यं, तचैवम्-"नेरइयाणं भंते ! सबओ आहारेति सबओ परिणामेंति सबओ ऊससंति सब-IN ईओ नीससंति अभिक्खणं आहारेंति अभिक्खणं परिणामेंति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति आहच्च आहा रति ४१, हंता गोयमा ! नेरइया सवओ आहारेंति १२ । 'सबओत्ति सर्वात्मप्रदेशः 'अभिक्खणं'ति अनवरतं पर्याप्तत्वे 18|| सति 'आहचेति कदाचित् न सर्वदा अपर्याप्तकावस्थायामिति ३७ । तथा 'कइभार्ग'ति आहारतयोपात्तपुद्गलानां कतिथं | भागमाहारयन्ति इति वाच्यं, तच्चैवम्-'नेरइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गिण्हति तेणं तेसि पोग्गलाणं सेया-1 लंसि कइभागमाहारेति ? कइभागं आसायंति, गोयमा ! असंखेजइभागं आहारति अणंतभागं आसाईति' 'सेवालंसित्ति एव्यरकाले, ग्रहणकालोत्तरकालमित्यर्थः, 'असंखेज्जइभागमाहारेति' इत्यत्र केचिट्याचक्षते-गवादिप्रथमबृहद्या- 11 25-049 5 गाथा दीप अनुक्रम [११-१२] % REaratinine ONLITam.org नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~57~ Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: सू०९ गाथा व्याख्या- सग्रहण इव कांश्चिद्गृहीतासङ्गयेयभागमात्रान पुद्गलानाहारयन्ति तदन्ये तु पतन्तीति । अन्ये वाचक्षते-ऋजुसूत्रनयदर्शना- शतके प्रज्ञप्तिः स्वशरीरतया परिणतानामसाधेयभागमाहारयन्ति, ऋजुसूत्रो हि गवादिप्रथमबृहग्रासग्रहण इव गृहीतानां शरीरत्वेना-Dil अभयदेवी-द परिणतानामाहारतां नेच्छति, शरीरतया परिणतानामपि केषाञ्चिदेव विशिष्टाहारकार्यकारिणां तामभ्युपगच्छति, शुद्ध- नारकाणा यावृत्तिः१|| नयत्वात्तस्येति । अन्ये पुनरित्थमभिदधति-'असंखेजइभागमाहारेंति'त्ति शरीरतया परिणमन्ति, शेषास्तु किट्टीभूय मनु॥२२॥ प्याभ्यवहृताहारवन्मलीभवन्ति, न शरीरत्वेन परिणमन्तीत्यर्थः । 'अणंतभागं आसाइंति'त्ति आहारतया गृहीतानामनम्तभागमास्वादयन्ति, तद्रसादीन् रसनादीन्द्रियद्वारेणोपलभन्ते इत्यर्थः । 'सव्वाणि च'त्ति दारं, तत्र सर्वाण्येवाहार-15 द्रव्याण्याहारयन्तीति वाच्यं, वाशब्दः समुच्चये, तच्चैवम्-'नेरइयाणं भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए परिणति ते किं| | सवे आहारेंति णो सवे आहारेंति, गोयमा ! सवे अपरिसेसिए आहारेंति' इह विशिष्टग्रहणगृहीता आहारपरिणामयोग्या एव ग्राह्याः, उज्झितशेषा इत्यर्थः, अन्यथा पूर्वापरस्त्रयोविरोधः स्यात् , इष्टा चैवं व्याख्या, यदाह-"जं जह सुत्ते भणियं तहेव जइ तं वियालणा नत्थि । किं कालियाणुओगो दिवो दिविष्पहाणेहिं ॥१९॥" 'कीस व भुजो २] परिणमंति'त्ति द्वारगाथापदं, तब 'कीसति पदावयवे पदसमुदायोपचारात् 'कीसत्ताए'त्ति हो, किंवतया-किंव-1 भावतया कीदृशतया वा केन प्रकारेण किंस्वरूपतयेत्यर्थः, वाशब्दः समुच्चये, 'भुजो'त्ति भूयो भूयः' पुनः पुनः परि-1 णमन्ति आहारद्रव्याणीति प्रकृतमित्येतदत्र वाच्यं, तच्चैवम्-'नेरइया ण भंते ! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति ते णं १ सूत्रे ययमा भणितं तत्तथैव यदि विचारणा नास्ति । किं कालिकानुयोगो दृष्टः दृष्टिप्रधानैः । ॥ १॥ REACEAEGACADA दीप अनुक्रम [११-१२] SAREaurato नैरयिकाणाम 'स्थिति' आदिनाम वर्णनं ~58~ Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [९], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक गाथा तसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति !, गोयमा ! सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अणिद्वत्ताए अकंतताए। अप्पियत्ताए अमणुनत्ताए अमणामत्ताए अणिच्छियत्ताए अभिज्झियत्ताए अहत्ताए नो उहत्ताए दुक्खत्ताए नो.सुहत्ताए। एपसि भुजो भुजो परिणमंति' तत्र 'अनिष्टतया' सदैव तेषां [ नारकाणां] सामान्येनावल्लभतया, तथा 'अकान्ततया' सदैव तद्भावेनाकमनीयतया, तथा 'अप्रियतया' सर्वेषामेव द्वेष्यतया, तथा 'अमनोज्ञतया' कथयाऽप्यमनोरमतया, तथा 'अमनोऽम्यतया' चिन्तयाऽपि अमनोगम्यतया, तथा 'अनीप्सिततया आप्तुमनिष्टतया, एकार्थाश्चैते शब्दाः, 'अहिल्झियत्ताए'त्ति अभिध्येयतया तृप्तेरनुत्पादकत्वेन पुनः पुनरप्यभिलापनिमित्ततया, अहृद्यत्वेनेत्यन्ये, अशुभत्वेनेत्यर्थः, 'अहवाए'त्ति गुरुपरिणामतया 'नो उहुत्ताए'त्ति नो लघुपरिणामतयेति सङ्ग्रहगाथार्थः ४०॥ इदं च सहणिगाथाविवरमाणसूत्र कचित् सूत्रपुस्तक एव दृश्यत इति ॥ अथ नैरयिकाऽऽहाराधिकारात्तद्विषयमेव प्रश्नचतुष्टयमाह| मेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परिणया ११, आहारिया आहारिजमाणा पोग्गला परिणया २१, अणाहारिया आहारिजिस्समाणा पोग्गला परिणया ३१, अणाहारिया अणाहारिजिस्समाणा पोग्गला परिणया १४, गोयमा! नेरइयाणं पुब्बाहारिया पोग्गला परिणया १, आहारिजमाणा पोग्गला परिणया परिणमंति य२, अणाहारिया आहारिजिस्समाणा पोग्गला नो परिणया परिणमिस्संति ३, अणाहारिया अणाहारिज्जिस्समाणा पोग्गला नो परिणता णो परिणमिस्संति ४॥ (सू०१०) नेरइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला चिया पुच्छा, जहा परिणया तहा चियावि, एवं चिया उचचिया उदीरिया वेड्या है C+CAREACTOR दीप अनुक्रम [११-१२] ~59~ Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [११], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: G - प्रत सुत्रांक [११] २३॥ शता सू११ गाथा व्याख्यान निजिन्ना,गाहा-परिणय चिया उपचिय उद्दीरिया वेश्या य निजिन्ना। एक्ककमि पदमि (मी) चउब्विहा पोग्गला १ शतके प्रज्ञप्तिः होति॥१॥(सू०११) १ उद्देशक अभयदेवी नारकाणा ही 'पुव्वाहारियत्ति ये पूर्वमाहृता:-पूर्वकाल एकीकृताः संगृहीता इतियावत् अभ्यवहृता वा 'पोग्गले'ति स्कन्धाः । माहारपपरिणय'त्ति ते 'परिणताः पूर्वकाले शरीरेण सह संपृक्ताः परिणतिं गता इत्यर्थः, इति प्रथमः प्रश्नः १, इह च सर्वत्र रिणतचि४ प्रश्नत्वं काकुपाठादवगम्यते । तथा 'आहारिय'त्ति पूर्वकाले 'आहृताः' संगृहीता-अभ्यवहता वा, 'आइरिजमाण'त्ति, तादि ये च वर्तमानकाले 'आहियमाणाः' सगृह्यमाणा अभ्यवप्रियमाणा वा पुद्गलाः 'परिणय'त्ति ते परिणता इति || द्वितीयः २ तथा 'अणाहारियत्ति येऽतीतकालेऽनाहताः 'आहारिजिस्समाणे'त्ति ये चानागते काले आह|रिष्यमाणाः पुद्गलास्ते परिणता इति तृतीयः । तथा 'अणाहारिया अणाहारिजिस्समाणा' इत्यादि अतीतानाग& ताहरणक्रियानिषेधाच्चतुर्थः ४ । इह च यद्यपि चत्वार एवं प्रश्ना उक्तास्तथाऽप्येते त्रिषष्टिः संभवन्ति, यतः पूर्वाहता आहियमाणा आहरिष्यमाणा अनाहता अनाहियमाणा अनाहरिष्यमाणाश्चेति षट् पदानीह सूचितानि, तेषु चैकैकपदा श्रयणेन पह, द्विकयोगे पञ्चदश, त्रिकयोगे विंशतिः, चतुष्कयोगे पश्चदश, पञ्चकयोगे पट्, पयोगे एक इति ॥ अत्रीदत्तरमाह-गोयमे'त्यादि व्यक्तं, नवरं ये पूर्वमाहृतास्ते पूर्वकाल एव परिणताः, ग्रहणानन्तरमेव परिणामभावात् १|| ये पुनराहता आह्रियमाणाश्च ते परिणताः, आहुतानां परिणामभावादेव, परिणमन्ति च आहियमाणानां परिणामभावस्य । वर्तमानत्वादिति २ । वृत्तिकृता तु द्वितीयप्रश्नोत्तरविकल्प एवंविधो दृष्टः-यदुत आहृता आहरिप्यमाणाः पुद्गलाः परि दीप अनुक्रम [१४-१५] JAREmiraton For P OW ~60~ Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [११], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [११] णताः परिणस्यन्ते च, यतोऽयं तेनैवं व्याख्यातः-यदुत ये पुनराहता आहरिष्यन्ते पुनस्तेषां केचित्परिणताः परिणताश्च | है ये संपृक्ताः शरीरेण सह, ये तु न तावरसंपृच्यन्ते कालान्तरे तु संपृश्यन्ते ते परिणस्यन्त इति २। ये पुनरनाहता आहरिष्यन्ते पुनस्ते नो परिणताः, अनाहतानां संपाभावेन परिणामाभावात् , यस्मात्त्वाहरिष्यन्ते ततः परिणस्यन्ते, आह तस्यावश्य परिणामभावादिति ३ । चतुर्थस्त्यतीतभविष्यदाहरणक्रियाया अभावेन परिणामाभावादवसेय इति । एत*दनुसारेणैव प्राग्दर्शितविकल्पानामुत्तरसूत्राणि वाच्यानीति ॥ अथ शरीरसंपर्कलक्षणपरिणामात्पुद्गलानां चयादयो भवमन्तीति तद्दर्शनार्थ प्रश्नयनाह-नेरइयाण मित्यादि चयादिसूत्राणि परिणामसूत्रसमानीतिकृत्वाऽतिदेशतोऽधीतानीति, तथाहि-'जहा परिणया तहा चियावी'त्यादि, इह च पुस्तकेषु वाचनाभेदो दृश्यते तत्र न संमोहः कार्यः, 3 * सर्वत्राभिधेयस्य तुल्यत्वात् , केवलं परिणतसूत्रानुसारेण प्रश्नसूत्राणि व्याकरणानि च मतिमताऽध्येयानीति, तत्र 'चिता' | शरीरे चयं गताः, 'उपचिता' पुनर्वहुशः प्रदेशसामीप्येन शरीरे चिता एवेति, उदीरितास्तु स्वभाषतोऽनुदितान् पुद्गला नुदयप्राप्ते कर्मदलिके करणविशेषेण प्रक्षिप्य यान् वेदयते, उदीरणा लक्षणं चेदम्-"ज करणेणाकहिय उदए दिजइ उदीरणा एसा।" तथा 'वेदिताः' खेन रसविपाकेन प्रतिसमयमनुभूयमानाः अपरिसमाप्ताशेषानुभावा इति । तथा 'निजीर्णाः' कात्सर्येनानुसमयमशेषतद्विपाकहानियुक्का इति । 'गाह'त्ति परिणतादिसूत्राणां संग्रहणाय गाथा भवति, सा चेयम्-'परिणयेत्यादि व्याख्यातार्था, नवरम्-एकैकस्मिन् पदे परिणतचितोपचितादौ चतुर्विधाः आहृताः १ आहृता १ अध्यवसायेनाकृष्टा यदुदयमानीयते कर्म एषोदीरणा ॥ * कर्मप्रकृति उदीर० गा०१ गाथा दीप अनुक्रम [१४-१५] Taurasurary.com ~61~ Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [११], + गाथा प्रत सूत्रांक [११] पुद्गलभेदादिः सू१२ व्याख्या ||४|| आहियमाणाध २ अनाहता आहरिष्यमाणाश्च ३ अनाहना अनाहरिष्यमाणाश्च ४, इत्येवं चतूरूपाः पुद्गला भवन्ति, प्रजाप्तिः || प्रश्ननिर्वचनविषयाः स्युरिति ।। पुद्गलाधिकारादेवेमामष्टादशसूत्रीमाह १ उद्देशके अभयदेवी-IIMIयाणं भंते ! कडविहा पोग्गला भिजति?, गोयमा! कम्मदव्ववग्गणमहिकिच दुविहा पोग्गला या वृत्तिः शामिति, तंजहा-अणू येव पायरा चेव १। नेरइयाणं भंते ! कतिविहा पोग्गला चिल्जेति', गोपमा|||| पद आहारदव्ववग्गणमहि किन दुविहा पोग्गला चिजंति, तंजहा-अणं चेव थायरा चेव । एवं उवचिजति नेर क० पो. उदीरेंति ?,गोयमा ! कम्मय्ववग्गणमहिकिच दुविहे पोग्गले उदीरेंति, तंजहा-अणूं चेव । बायरा थेव, सेसावि एवं चेव भाणियब्वा, एवं वेदेति ५ निजरेंति ६ उयहिंसु ७ उठवडेति ८ उम्बहिस्संति | ॥९संकार्मिसु १० संकामेति ११ संकामिस्संति १२ निहर्तिसु १३ निहत्तेति १४ निहसिस्संति १५ निकायंसु ||१६ निकायंति १७ निकाइस्संति १८, सब्वेसुवि कम्मव्ववग्गणमहिकिच गाहा-भेइयचिया उपचिया उदी४||रिया बेड्या प निजिन्ना । उयट्टणसंकामणनिहत्तणनिकायणे तिविह कालो ॥१॥(सू०१२) ril 'नरहयाणं भंते कायिहा पोग्गला भिज्जती' त्यादि व्यक्तं, नवरं 'भिज्जति'त्ति तीनमन्दमध्यतयाऽनुभागभेदेन भेदवन्तो भवन्ति, उद्धर्तनकरणापवर्तनकरणाभ्यां मन्दरसास्तीवरसाः तीव्ररसास्तु मन्दरसा भवन्तीत्यर्थे।, उत्तरम्BII'कम्मव्यवग्गणमहिकिच'त्ति समानजातीयद्न्याणां राशिव्यवर्गणा, सा चौदारिकादिद्रव्याणामप्यस्तीत्यत आहकर्मरूपा द्रव्यवर्गणा कर्मद्रव्याणां या वर्गणा कर्मद्रव्यवर्गणा तामधिकृत्य-तामाश्रित्य, कम्मेद्रव्यवगंणासत्का इत्यर्थः, गाथा दीप ॥२४ अनुक्रम [१४-१५] ~62~ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१२], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] SHRESCR456%ACE गाथा कर्मद्रव्याणामेव च मन्देतरानुभावचिन्ताऽस्ति न द्रव्यान्तराणामितिकृत्वा कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तम् , 'अणूं| चेव वायरा वत्ति चेवशब्दः समुच्चयार्थः, ततश्चाणवश्च बादराश्च, सूक्ष्माश्च स्थूलाश्चेत्यर्थः सूक्ष्मत्वं स्थूलत्वं चैषां । ल कर्मद्रव्यापेक्षयैवागतन्तव्यं नान्यापेक्षया, यत औदारिकादिद्रव्याणां मध्ये कर्मद्रव्याण्येव सूक्ष्माणीति । एवं चयोपच| योदीरणवेदननिर्जराः शब्दार्थभेदेन वाच्याः, किन्तु चयसूत्रे उपचयसूत्रे च 'आहारदव्ववग्गणमहिकिचेति यदुक्तं तत्रायमभिप्रायः-शरीरमाश्रित्य चयोपचयौ पार व्याख्याती, ती चाहारद्रव्येभ्य एव भवतो नान्यतः, अत आहारद्र|न्यवर्गणामधिकृत्येत्युक्तमिति, उदीरणादयस्तु कर्मद्रव्याणामेव भवन्त्यतस्तत्सूत्रेपूक्तं कर्मद्रव्यवर्गणामधिकृत्येति । 'उयमि'त्ति अपवर्तितवन्तः, इहापवर्चनं कर्मणां स्थित्यादेरध्यवसायविशेषेण हीनताकरणम् , अपवर्तनस्य चोपलक्षपणत्वादुद्वर्त्तनमपीह दृश्यं, तच्च स्थित्यादेवृद्धिकरणस्वरूपं, 'संकामेंसुत्ति संक्रमितवन्तः, तत्र संक्रमणं मूलप्रकृत्यभिन्ना नामुत्तरप्रकृतीनामध्यवसायविशेषेण परस्परं संचारणं, तथा चाह-"मूलप्रकृत्यभिन्नाः संक्रमयति गुणत उत्तराः प्रकृतीः। नन्वात्माऽमूर्तत्वादध्यवसायप्रयोगेण ॥१॥" अपरस्त्वाह-"मोनूण आउयं खलु देसणमोहं चरित्तमोहं च । सेसाणं पगईणं उत्तरविहिसंकमो भणिओ ॥१॥" एतदेव निदश्यते-यथा कस्यचित्सद्वद्यमनुभवतोऽशुभकर्मपरिणतिरेवंविधा जाता येन तदेव सवेद्यमसद्वेषतया संक्रामतीति, एवमन्यत्रापि योज्यमिति । 'निधत्तंसुत्ति निधत्तान् कृतवन्तः, इह च विश्लिष्टानां परस्परतः पुद्गलानां निचयं कृत्वा धारणं रूढिशब्दत्वेन निधत्तमुच्यते, उद्वर्तनापवर्तनव्यतिरिक्तकर गा १ आयुर्दर्शनमोह चारित्रमोदं च मुक्त्वा । शेषाणां प्रकृतीनामुत्तरविषिसंक्रमो भणितः ॥१॥ दीप अनुक्रम [१६-१७] l armierary.org ~63~ Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१२], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [१२]] गाथा व्याख्या नामविषयत्वेन कर्मणोऽवस्थानमिति । 'निकाइंसुत्ति निकाचितवन्तः, नितरां बद्धवन्त इत्यर्थः निकाचनं चैषामेव || १ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवी| पगलानां परस्परविश्लिष्टानामेकीकरणमन्योऽन्यावगाहिता अग्निप्रतप्तप्रतिहग्यमानशचीकलापस्येव, सकलकरणानाम- दशक नैरयिकाया वृत्तिः | विषयतया कर्मणो व्यवस्थापनमितियावत् । 'भिज्जती' त्यादिपदानां संग्रहणी यथा-'भेइय' इत्यादिगाधा गतार्था, गां ग्रहणोनवरम्-अपवर्तनसंक्रमनिधत्तनिकाचनपदेषु त्रिविधः कालो निर्देष्टव्यः, अतीतवर्तमानानागतकालनिर्देशेन तानि | दीरणवेद॥२५॥ I|| वाच्यानीत्यर्थः इह चापवर्तनादीनामिव भेदादीनामपि त्रिकालता युक्ता, न्यायस्य समानत्वात् , केवलमविवक्षणान्न तन्नि ननिर्जराः र्देशः सूत्रे कृत इति ॥ अथ पुद्गलाधिकारादिदं सूत्रचतुष्टयमाह सू०१३ AI नेरइयाणं भंते । जे पोग्गले तेयाकम्मत्ताए गेहंति ते किं तीतकालसमए गेहंति ? पडुप्पन्नकालसमए || गेण्हंति ? अणा का समए गेण्हंति ?, गोयमा ! नो तीयकालसमए गेहंति पडप्पन्नकालसमए गेहंति नो अणा० समए गिण्हंति १ । नेरइयाणं भंते ! जे पोग्गला तेयाकम्मत्साए गहिए उदीरेंति ते किं तीयकालसमयगहिए पोग्गले उदीरेंति पडुप्पन्नकालसमए घेप्पमाणे पोग्गले उदीरति गहणसमयपुरक्खडे |पोग्गले उदीरेंति', गोयमा । अतीयकालसमयगहिए पोग्गले उदीरेंति नो पडप्पनकालसमए घेप्पमाणे| ॥२५॥ पोग्गले उदीरेंति नो गहणसमयपुरक्खडे पोग्गले उदीरेंति २, एवं वेदेति ३ निजरेति ॥ (सू०१३) 2 'नरहयाण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं तेयाकम्मत्ताए'त्ति तेज शरीरकार्मणशरीरतया, तद्रूपतयेत्यर्थः, 'अतीतका लसमए'त्ति कालरूपः समयो न तु समाचाररूपः कालोऽपि समयरूपो न तु वर्णादिस्वरूप इति परस्परेण विशेषणात् दीप अनुक्रम [१६-१७] RELIGunintentiaTACHERE ~64~ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१३] दीप अनुक्रम [PC] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्तिः) शतक [१], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१३], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Educator कालसमयः अतीतः कालसमयः ( अतीतकालसमयः ) अतीतकालस्य चोत्सर्पिण्यादेः समयः परमनिकृष्टोऽशोऽतीत| कालसमयस्तत्र 'पडुप्पन्न' ति प्रत्युत्पन्नो- वर्त्तमानः, नोडतीतकालेत्यादी अतीतानागतकालविषयग्रहणप्रतिषेधो विषयातीतत्वात्, विषयातीतत्त्वं च तयोर्विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादिति, प्रत्युत्पन्नत्वेऽप्यभिमुखान् गृह्णाति नाम्यान्, 'गहण| समयपुरक्खडे त्ति ग्रहणसमयः पुरस्कृतो वर्त्तमानसमयस्य पुरोवर्त्ती येषां ते ग्रहणसमयपुरस्कृताः, प्राकृतत्वादेवं निर्देशः, अन्यथा पुरस्कृतग्रहणसमया इति स्याद् ग्रहीष्यमाणा इत्यर्थः १, उदीरणा च पूर्वकालगृहीतानामेव भवति, ग्रहणपूर्वकत्वादुदीरणायाः, अत उक्तम्-अतीतकालसमयगृहीतानुदीरयन्तीति, गृह्यमाणानां ग्रहीष्यमाणानां चागृहीत| स्वादुदीरणाऽभावस्तत उक्तं- 'नो पडुप्पन्ने' त्यादि २ | वेदनानिर्जरासूत्रयोरप्येषैवोपपत्तिरिति ॥ ३-४ ॥ अथ कर्माधिकारादेवेयमष्टसूत्री नेरइयाणं भंते! जीवाओं किं चलिये कम्मं बंधंति अचलियं कम्मं बंधंति ?, गोयमा ! नो चलियं कम्मं बंधंति अचलिये कम्मं बंधति १। नेरइयाणं भंते । जीवाओं किं चलिये कम्मं उदीरेंति अचलियं कम्मं उदीरेंति !, गोयमा ! नो चलियं कम्मं उदीरेंति अचलियं कम्मं उदीरेति २ । एवं वेदेति ३ उयति ४ संकार्मेति ५ निहत ६ निकार्येति ७, सब्बेसु अचलियं नो चलियं । नेरहयाणं भंते! जीवाओं किं चलियं कम्मं निजरेंति अचलियं कम्मं निजरेंति ?, गोयमा ! चलिये कम्मं निज्जरेंति नो अचलियं कम्मं निज्जति ८, गाहा-बंधोदयवेदोयइसकमे तह निहत्तणनिकाये । अचलियं कम्मं तु भवे चलियं जीवाउ निजरए ॥ १ ॥ ( सू० १४ ) एवं For Parta Use Only ~65~ jonary or Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १ शतके प्रत सूत्रांक [१४,१५] नरयिका धादि सू०१४ गाथा व्याख्या || ठिई आहारो य भाणियब्वो, ठिती-जहा ठितिपदे तहा भाणियव्या, सव्वजीवाणं आहारोऽवि जहा पन्न- प्रज्ञप्तिः वणाए पढमे आहारुहेसए तहा भाणियव्वो, एत्तो आढत्तो-नेरइयाणं भंते ! आहारही ? जाव दुक्खत्ताए| अभयदेवी-|||| भुजो भुजो परिणमंति, गोयमा । असुरकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिई पण्णसा, जहन्नेणं दस वा- या वृत्तिः ||४|| ससहस्साई उकोसेणं सातिरेग सागरोवमं, असुरकुमाराणं भंते ! केवड्यं कालस्स आणमंति वा पाणमंति Pाया,गोयमा ! जहन्नणं सत्सहं थोवाणं उक्कोसेणं साइरेगस्स पक्खस्स आणमंति वा पाणमंति वा, असु॥२६॥ | रकुमाराणं भंते ! आहारट्ठी, हंता आहारट्ठी, असुरकुमाराणं भंते ! केवइकालस्स आहारट्टे समुप्पजह, गोयमा ! असुरकुमाराणं दुविहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-आभोगनिच्चसिए य अणाभोगनिव्वतिए य, तत्थ णं जे से अणाभोगनिव्वत्तिए से अणुसमयं अविरहिए आहारट्टे समुप्पजा, तत्थ णं जे से आभो. ४ गनिब्बत्तिए से जहन्नेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं साइरेगस्स वाससहस्सस्स आहारट्टे समुप्पजह, असुर& कुमाराणं भंते ! किमाहारमाहारेति ?, गोयमा! ब्वओ अणंतपएसियाई व्वाई खित्तकालभावपन्नवणा गमेणं सेसं जहा नेरइयाणं जाव तेणं तेसिं पोग्गला कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमंति?, गोयमा सोई दियत्ताए सुरूवत्ताए सुवन्नत्ताए ४ इट्टत्ताए इच्छियत्ताए भिज्जियत्ताए उहुत्ताए णो अहत्ताए सुहत्ताए दाणो दुहत्ताए भुजो भुलो परिणमंति, असुरकुमारा णं पुवाहारिया पुरगला परिणया असुरकुमाराभि- | लावेण जहा नेरइयाण जाव नो अचलियं कम्मं निवरंति । नागकुमाराणं भंते ! केवइयं कालं ठिती पन्न-1 दीप अनुक्रम [१९-२१] ॥२६॥ REauratond na ~66~ Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४,१५] गाथा ता?, गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साहं उक्कोसेणं देसूणाई दो पलिओवमाई, नागकुमाराणं भंते ।। केवइकालस्स आणमंति वा पा०, गोयमा ! जहन्नेणं सत्तण्हं थोवाणं उक्कोसेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स आणमंति वा पा०, नागकुमाराणं आहारट्ठी, हंता आहारट्ठी, नागकुमाराणं भंते ! केवहकालस्स आहारट्टे समु-18 प्पजइ ?, गोयमा ! नागकुमाराणं दुविहे आहारे पन्नत्ते, तंजहा-आभोगनिब्वत्तिए य अणाभोगनिव्वत्तिए य, तत्व णं जे से अणाभोगनिव्वत्सिए से अणुसमयमविरहिए आहारट्टे समुप्पज्जा, तत्व पंजे से आभोगनिव्वत्तिए से जहन्नेणं चउत्थभत्तस्स उक्कोसेणं दिवसपुष्टुत्तस्स आहारहे समुप्पजइ, सेसं जहा असुरकुमार राणं जाव नो अचलियं कम्मं निजरंति । एवं सुवन्नकुमारावि जाव थणियकुमाराणति । पुढविकाइयाणं & भंते । केवईयं कालं ठिई पन्नत्ता, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं यावीसं वाससहस्साई, पुढवि काइया केवइकालस्स आणमति वा पा०१, गो० वेमाय आणमंति वा पा०? पुढविकाइयाण आहारट्ठी?, हंता आहारट्ठी, पुढविकाइयाणं केवहकालस्स आहारट्टे समुप्पज्जा, गोयमा ! अणुसमयं अविरहिए आहारहे समुप्पजइ, पुढविक्काइया किमाहारेति !, गोयमा ! व्वओ जहा नेरइयाण जाव निब्वाधाएणं छहिसि | वाघायं पहुच सिय तिदिसि सिय चउहिसिं सिय पंचदिसिं, वन्नओ कालनीलपीतलोहियहालिहसुकिल्लाणि, गंधओ सुरभिगंध २ रसओ तित्त५ फासओ कक्खड ८ सेसं तहेब, णाणत्तं कइभागं आहारेंति ? कहभागं फासाइंति ?, गोयमा । असंखिज्जइभागं आहारेन्ति अणंतभागं फासाइंति जाव तेर्सि पोग्गला दीप अनुक्रम [१९-२१] SNEaratun A udiorary au ~67~ Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) सूत्रांक [१४,१५] ཝཱ , अनुक्रम [१९-२१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४, १५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ २७ ॥ Education कीसत्ताए भुजो भुजो परिणमति १, गोयमा ! फासिंदियवेमा पत्ता भुजो भुजो परिणमंति, सेसं जहा नेर| इयाणं जाव नो अचलियं कम्मं निज्जरंति । एवं जाव वणस्स इकाइयाणं, नवरं ठिती बन्नेघव्वा जाव (इया) जस्स, उस्सासो बेमायाए । बेइंदियाणं ठिई भाणिपव्वा ऊसासो बेमायाए, बेइंदियाणं आहारे पुच्छा, गोयमा ! आभोगनिव्वत्तिए य अणाभोगनिव्यत्तिए य तहेव, तत्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए से असंखेजसमए अंतोमुहुत्तिए बेमायाए आहारट्ठे समुप्पज्जइ, सेसं तहेव जाव अनंतभागं आसायंति, बेई- १ दियाणं भंते! जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हति ते किं सब्बे आहारेति णो सब्वे आहारैति ?, गोयमा ! | बेइंदियाणं दुविहे आहारे पनते, तंजहा-लोमाहारे पक्खेवाहारे जे पोग्गले लोमाहारत्ताएं गिण्हंति ते सब्वे अपरिसेसिए आहारैति, जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गिण्हंति तेसिणं पोग्गलाणं असंखिज्जइभागं आहारैति अणेगाई व णं भागसहस्साई अणासाइज्जमाणाई अफासिजमाणाई विद्धंसमागच्छंति, एएसि णं भंते! पोग्गलाणं अणासाइज्यमाणाणं अफासाइजमाणाण य कयरे कयरे अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?, गोपमा ! सव्वत्थोवा पुग्गला अणासाइजमाणा अफासाइजमाणा अनंतगुणा, बेदियाणं भंते! जे पोग्गला आहारसाए गिण्हंति ते णं तेर्सि पुग्गला कीसत्ताए भुज्जो भुज्जो परिणमंति ?, गोयमा ! जिन्भिदिय फासिंदियवेमायत्ताए भुजो भुज्जो परिणमंति, बेइंदियाणं भंते ! पुव्वाहारिया पुग्गला परिगया तब जाब चलियं कम्मं निज्जरंति । तेइंदियचउरिंदियाणं णाणलं ठिइए जाव णेंगाई च णं भागसहस्साई For Parts Only ~68~ १ शतके १ उद्देशके असुरादीनामाहारादिस्थित्यादि सू० १५ ।। २७ ।। Parora Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४,१५] गाथा कककककक*RS | अणाघाइजमाणाई अणासाइजमाणाई अफासाइजमाणाई चिर्द्धसमागच्छति, एएसिणं भंते! पोग्गलाणं अणाघाइजमाणाई ३ पुरुछा, गोयमा सव्वस्थोवा पोग्गला अणाधाइज्जमाणा अणासाइजमाणा अर्णतगुणा अफासाइजमाणा अणंतगुणा, तेइंदियार्णधाणिदियजिभिदियफासिदियवेमायाए भुजो २ परिणमंति,चाउरि| दियाण चखिदियघाणिदियजिभिदियफासिंदियत्ताए भुजो भुजो परिणमंति। पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ठिई भणिऊणं ऊसासो वेमायाए, आहारो अणाभोगनिव्वत्तिए अणुसमयं अविरहिओ, आभोगनिव्वसओ जहनेणं अंतोमुहत्तस्स उक्कोसेणं छहभत्तस्स, सेसं जहा चाउरिदियाणं जाब चलियं कम्मं निजरेंति। एवं मणुस्साणवि, नवरं आभोगनिवत्तिए जहनेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अट्ठमभत्तस्स सोईदियवेमायत्ताए मुजो भुजो परिणमंति सेसं जहा चरिदियाणं, तहेव जाव निज़रेंति । वाणमंतराणं ठिईए नाणत्तं, परिणमंति अवसेसं जहा नागकुमाराणं, एवं जोइसियाणवि, नवरं उस्सासो जहन्नेणं मुहुत्तपुहुत्तस्स उकोसेणवि मुहत्तपुटुत्सस्स, आहारो जहन्नणं दिवसपुहुत्तस्स उक्कोसेणवि दिवसपुत्सस्स सेसं तहेव । बेमाणियाणं ठिई |भाणियब्वा ओहिया, ऊसासो जहन्नेणं मुहत्तपुहुत्तस्स उकोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं, आहारो आभोगनिव्वत्तिओ जहन्नेणं दिवसपुहुत्सस्स उक्कोसेणं तेत्तीसाए वाससहस्साणं, सेसंचलियाइयं तहेव जाव निजरेंति(सू०१५) | 'नेरइयाण मित्यादिळताच नवरं 'जीवाओ किं चलिय'ति जीवप्रदेशेभ्यश्चलित-तेष्वनवस्थानशीलं तदितरत्त्वचलितं तदेव बनाति, यदाह-"कृत्स्नैर्देशैः स्वकदेशस्थ रागादिपरिणतो योग्यम् । बनाति योगहेतोः कर्म स्नेहाक्त इव दीप अनुक्रम [१९-२१] SARERatinine ~69~ Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४,१५]] व्याख्या- च मलम् ॥१॥" इति । एवमुदीरणावेदनाऽपवर्तनासंक्रमणनिधत्तनिकाचनानि भाब्यानि, निर्जरा तु पुद्गलानां निर ना निरन शतके प्रज्ञप्तिः || नुभावीकृतानामात्मप्रदेशेभ्यः सातनं, सा च नियमाञ्चलितस्य कर्मणो नाचलितस्येति, इह सङ्ग्रहणीगाथा-बंधोदये' त्या-3 अभयदेवी- दिर्भावितार्था, केवलमुदयशब्देनोदीरणा गृहीतेति । उक्ता नारकवक्तव्यता, अथ चतुर्विंशतिदण्डकक्रमागतामसुरकुमा- असुरादीया वृत्तिः रवक्तव्यतामाह-'असुरकुमाराण'मित्यादि, तत्रासुरकुमारवक्तव्यता नारकवक्तव्यतावनेया, यतः 'ठिइऊसासाहारे- नामाहारा दिस्थित्या॥२८॥ || त्यादिगाथोक्तानि सूत्राणि ४० 'परिणयचिए' इत्यादिगाथागृहीतानि ६ 'भइयचिए इत्यादिगाथागृहीतांनि १८|8|| |'बंधोदये' त्यादिगाथागृहीतानि ८, तदेवं द्विसप्ततिः सूत्राणि नारकप्रकरणोक्तानि त्रयोविंशतावसुरादिप्रकरणेषु समानि, दिसू०१५ नवरं विशेषोऽयम्-'उकोसेणं साइरेगं सागरोवम मिति यदुक्तं तद्वलिसञ्ज्ञमसुरकुमारराजमाश्चित्योकं, यदाह चमर १ बलि २ सार महिय'ति, 'सत्तहं थोवाण'ति सप्तानां स्तोकानामुपरीति गम्यते, स्तोकलक्षणं चैवमाच|क्षते-"हहस्स अणवगोलस्स, निरुवकिस्स सुणो। एगे उसासनीसासे, एस पाणुत्ति वुच्चइ ॥१॥ सत्तपाणूणि से | थोवे, सत्त थोवाणि से लवे । लवाणं सत्तहसरिए, एस मुहुत्ते विधाहिए ॥२॥" इदं जघन्यमुचासादिमानं जघन्य-12 8 स्थितिकानाश्रित्यावगन्तव्यम्, उत्कृष्ट चोत्कृष्टस्थितिकानाश्रित्येति । 'चउत्थभत्तस्स'त्ति चतुर्थभक्तमित्येकोपवासस्य || सज्ञा ततस्तस्योपरि, एकत्र दिने भुक्त्वाऽहोरात्रं चातिक्रम्य तृतीये भुञ्जत इति भावः नागकुमारवक्तव्यतायाम् 'उको १ चमरबलिनोः सागरमधिकं च ॥ २ हृष्टस्याग्लानस्य निरुपकष्टस्य जन्तोरेक उच्छासनिःश्वासो य एष प्राण इत्युच्यते ॥ १॥ सप्त || प्राणास्ते स्तोकः सप्त खोका अथ लवः । लबानां या सप्तसप्ततिरेष मुहूर्त इति व्याख्यातः।। RAKAR-98 गाथा दीप N॥२८॥ अनुक्रम [१९-२१] * ~70~ Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४,१५] गाथा दीप अनुक्रम [१९-२१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ १४, १५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Educator | सेणं देणाएं दो पलिभोबमाई'ति यदुक्तं तदुत्तरश्रेणिमाश्रित्यावसेयं, यदाह - "दाहिण दिवपलियं दो देसृणुत्तरिहाणं" इति 'मुहुसपुहुत्तस्सप्ति, मुहूर्त्त उक्तलक्षण एव, पृथक्त्वं तु द्विप्रभृतिरानवभ्यः सङ्ख्याविशेषः समये प्रसिद्धः, एवं 'सुवनकुमाराणं ति नागकुमाराणामिव सुपर्णकुमाराणामपि स्थित्यादि वाच्यम्, इदं च कियद्दूरं यावद्वाच्यम् ? | इत्याह-'जाब भणियकुमाराणं'ति यावत्करणाद् विद्युत्कुमारादिपरिग्रहः, एषां चेहायं क्रमोऽवसेयः - असुरा १ नाग २ सुवन्ना ३ विज्जू ४ अग्गी य ५ दीव ६ उदही य ७ । दिसि ८ वाऊ ९ धणियावि य १० दस भैया भवणवासीणं ॥ १ ॥ अथ भवनपतिवक्तव्यताऽनन्तरं दण्डक क्रमादेव पृथिव्यादीनां स्थित्यादि निरूपयन्नाह - 'पुढची 'त्यादि व्यक्तमावनस्पतिसूत्रात्, नवरम्- 'अंतोमुहुत्त न्ति मुहूर्त्तस्यान्तरन्तर्मुहूर्त्त भिन्नमुहूर्त्तमित्यर्थः, 'उक्कोसेणं वाचीसं वाससहस्साई 'ति यदुक्तं तत् खरपृथिवीमाश्रित्यावगन्तव्यं, यदाह - "सैण्हा य १ सुद्ध १२ वालुय १४ मणोसिला १६ सकरा य १८ खरपुढबी २२ । एवं वारस चोइस सोउस अट्ठार बावीसा ॥ १ ॥” इति । 'वेमायाए 'सि विषमा विविधा वा | मात्रा - कालविभागो विमात्रा तया, इदमुक्तं भवति-विषमकाला पृथिवीकायिकानामुच्छासादिक्रिया - इयत्कालादिति न निरूपयितुं शक्यते, 'जहा नेरइयाण' मित्यतिदेशात् खत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाई कालओ अन्नयरठियाई १ दाक्षिणात्यानां सार्द्धपल्यमुतरत्यानां देशोने द्वे ॥ ४ असुराः १ नागाः २ सुपर्णाः ३ विद्युतः ४ अनयश्च ५ द्वीपा ६ उभयश्च ७ दिशः ८ वायवः ९ स्तनिताः १० अपि च भवनवासिनां दश भेदाः ॥ १ ॥ २णा च शुद्धा वालुका मनःशिला शर्करा च खरपृथ्वी एतासां क्रमत एकं द्वादश चतुर्दश षोडशाष्टादश द्वाविंशतिः सहस्राणि ॥ For Pale Only ~71~ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४,१५]] गाथा व्याख्या- इत्यादि दृश्य, 'निब्याघाएणं छदिसिंति व्याघात आहारस्य लोकान्तनिष्कुटेषु संभवति नान्यत्र, ततो निष्कुटे- १ शतक प्रज्ञप्तिः १ उद्देशके -, 'वाघायं अभयदेवीभ्योऽन्यत्र षट्सु दिक्षु, कथं ?-चतसृषु पूर्वादिदिक्षु ऊर्ध्वमधश्च पुद्गलग्रहणं करोति, तस्य स्थापना- असुरादीपापत्तिा पडुचे'त्ति व्याघातं प्रतीत्य, व्यापातश्च निष्कुटेषु, तत्र च 'सिय तिदिर्सि'ति स्यात्-कदाचित्तिसृषु प. दिक्षु आहारम-1 नामाहाराहणं भवति, कथं ?, यदा पृथिवीकायिकोऽधस्तने उपरितने वा कोणेऽवस्थितः स्यात्तदाऽधस्तादलोकः पूर्वदक्षिणयोश्चा- दिस्थित्या॥ २९॥ लोक इत्येवं तिसृणामलोकेनाऽऽवृतत्वात्तदन्यासु तिसृषु पुद्गलग्रहणम् , एवमुपरितनकोणेऽपि वाच्यं, यदा पुनरध उपरि दिसू १५ चालोको भवति तदा चतसषु [दिक्षु], यदा तु पूर्वादीनां पण्णां दिशामन्यतरस्यामलोको भवति तदा पञ्चस्विति, MI'फासओ कक्खडाईति इह कर्कशादयो रुक्षान्ताः स्पर्शा दृश्याः, 'सेसं तहेव'त्ति शेष-भणितावशेष तथैव यथा । कनारकाणां तथा पृथिवीकायिकानामपि, तवेदम्-"जाई भंते ! लुकखाई आहारेति ताई किं पुढाई अपुहाई, जह | पहाई किं ओगाढाई अणोगाढाई" इत्यादि । 'नाणतंति नानात्वं भेदः पुनः पृथिवीकायिकानां नारकापेक्षयाऽऽहारं || प्रितीदं यथा 'कहभाग'मित्यादि तत्र 'फासाइंति'त्ति स्पर्श कुर्वन्ति स्पर्शयन्ति-स्पर्शनेन्द्रियेणाहारपुद्गलानां कतिभागं||3|| स्पृशन्तीत्यर्थः, अथवा स्पर्शेनास्वादयन्ति प्राकृतशेल्या फासायंति, स्पर्शेन वाऽऽददति-गृहन्ति उपलभन्त इति 'फासा-MXM काति, इदमुक्तं भवति-यथा रसनेन्द्रियपर्याप्तिपर्याप्तका रसनेन्द्रियद्वारेणाहारमुपभुजाना आस्वादयन्तीति व्यपदिश्यन्ते ||||| एवमेते स्पर्शनेन्द्रियद्वारेणेति, 'सेसं जहा नेरइयाण ति, तच्चैवम्-'पुढविकाइयाणं भंते ! पुवाहारिया पोग्गला परिण दीप । अनुक्रम [१९-२१] JMEauratonा ~72~ Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४,१५] गाथा या'इत्यादि, प्राग्वञ्च व्याख्येयमिति। एवं 'जाव वणस्सइकाइयाणं'ति, अनेन पृथिवीकायिकसूत्रमिवाप्कायिकादिसूत्राणि समानीत्युक्त, स्थिती पुनर्विशेषोऽत एवाह-नवर 'ठिई वण्णेयव्वा जा जस्स'त्ति, तत्र जपन्या सर्वेषामन्तमुहर्तम् , | उत्कृष्ट खपां सप्त वर्षसहस्राणि तेजसामहोरात्रत्रयं वायूनां त्रीणि वर्षसहस्राणि वनस्पतीनां दशेति, उक्का चेयं पृथिव्यादिट्र क्रमेण-"बावीसाई सहस्सा १ सत्त सहस्साई २ तिनिहोरत्ता ३१वाए तिन्नि सहस्सा ४ दस वाससहस्सिया रुक्खे ५ Kim१॥"ति । 'बेइंदियाणं ठिइ भणिऊण ऊसासो वेमायाए'त्ति वक्तव्य इति शेषः, स्थितिश्च द्वीन्द्रियाणां द्वादश वर्षाणि, द्वीन्द्रियाणामाहारसूत्रे यदुक्तम्-'तस्थ णं जे से आभोगनिव्वत्तिए से णं असंखेनसमइए अंतोमुहुत्तिए वेमायाए आहारट्टे समुप्पज्जा'त्ति, तस्यायमर्थः-असङ्ख्यातसामयिक आहारकालो भवति, स चावसपिण्यादिरूपोऽध्य* स्तीत्यत उच्यते-आन्तमौहूर्तिकः, तत्रापि विमात्रया अन्तर्मुहूत्ते समयासलातत्वस्यासङ्ख्येयभेदत्वादिति । 'बेइंदियाण, दुविहे आहारे पत्ते, लोमहारे पक्खेवाहारे यत्ति, तत्र लोमाहारः खल्वोधतो वर्षादिषु यः पुद्गलप्रवेशः स मूत्रागम्यत इति, प्रक्षेपाहारस्तु कावलिकः, तत्र प्रक्षेपाहारे बहवोऽस्पृष्टा एव शरीरादन्तर्बहिश्च विध्वंसन्ते स्थौल्यसाक्षम्याभ्याम् , अत एवाह-'जे पोग्गले पक्खेवाहारत्ताए गिण्हती'त्यादि 'अणेगाइं च णं भागसहस्साईति असहयेया भागा इत्यर्थः, 'अणासाइजमाणाईति रसनेन्द्रियतः 'अफासाइजमाणाईति स्पर्शनेन्द्रियतः 'कयरे' इत्यादि यत्तदं | तदेवं दृश्यम्-'कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया चा तुल्ला वा विसेसाहिया वत्ति व्यक्तं च 'सब्वत्थोवा द्वाविंशतिः सहखाणि सप्त सहस्राणि त्रीण्यहोरात्राणि । वायौ त्रीणि सहस्राणि दृक्षे दश वर्षसहस्राणि ॥१॥ Ark दीप अनुक्रम [१९-२१] -ko-ki-0-0- INDunioranorm ~73~ Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र-५/१(मूलं वृत्तिः ) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४,१५] दिस्थित्या १ गाथा व्याख्या-18 पोग्गला अणासाइजमाणे त्यादि, येऽनास्वाधमानाः केवलं रसनेन्द्रियविषयास्ते लोका:, अस्पृश्यमाणानामनन्तभाग- १ शतके वर्तिन इत्यर्थः, ये त्वस्पृश्यमाणाः केवळ स्पर्शनविषयास्तेऽनन्तगुणा रसनेन्द्रियविषयेभ्यः सकाशादिति, 'तेइंदियचउरि- १उद्देशके अभयदेवी-1 दियाणं नाणतं ठिईए'त्ति, तोदम्-'जहन्नेणं अंतोमुहत्तं सकोसेणं तेइंदियाणं एगूणपन्नास राइंदियाई चरिंदियाणं || || असुरादीया वृधिः नामाहाराछम्मासा' तथाऽऽहारेऽपि नानात्वं, तत्र च 'तेइंदियाणं भंते । जे पोग्गले आहारत्ताए गेण्हंति' इत्यत आरभ्य तावत्सूत्रं ॥३०॥ ॥ वाच्यं यावत् 'अणेगाई च णं भागसहस्साई अणामाइजमाणाई' इत्यादि, इह पद्वीन्द्रियसूत्रापेक्षयाऽनामायमा-दिस १५ णानीत्यतिरिक्तमतो मानास्वम्, एवमल्पबहुत्वसूत्रे परिणामसूत्रे च, चतुरिन्द्रियसूत्रेषु तु परिणामसूत्रे 'चक्विविय-IPI ताए घाणिदियत्ताए' इत्यधिकमिति नानात्वमिति । पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्रे 'ठिई मणिऊणं'ति जहन्नेणं अंतोमुत्त,8 टाउकोसेणं तिन्नि पलिओचमाईति इत्येतद्रूपां स्थिति भणित्वा 'उस्सासोति उच्छासो विमात्रया वाच्य इति, तथा|| तिर्यपश्चेन्द्रियाणामाहारार्थ प्रति यदुकम्-'उकोसेणं छट्ठभत्सस्स'सि तदेवकुरूत्तरकुरुतिर्यक्षु लभ्यते । मनुष्यसूत्रे यदुक्तम् 'अष्टमभक्तस्येति तद्देवकुर्वादिमिथुनकनरानाश्रित्य समवसेयमिति । 'वाणमंतराण'मित्यादि, वाणमस्तराणां |स्थिती नानात्यम् , 'अवसेसं'प्ति स्थितेरवशेषमायुष्कवर्जमित्यर्थः, प्रागुक्तमाहारादि वस्तु यथा नागकुमाराणां तथा दृश्य, व्यन्तराणां नागकुमाराणां च प्रायः समानधर्मत्वात्, तत्र व्यन्तरांणां स्थितिर्जघन्येन दश वर्षसहस्राणि, पत्कर्षेण तु|| ॥३०॥ पस्योपममिति । 'जोइसिपाणंपी'त्यादि, ज्योतिष्काणामपि स्थितेरवशेष तथैव यथा नागकुमाराणां, तब ज्योतिष्काणां ॥ स्थिप्तिर्जघन्येन पल्योपमाष्टभागः उत्कर्षेण पल्योपमं वर्षलक्षाधिकमिति, नवरम् 'उस्सास'त्ति केवलमुचटासस्तेषां न नाग -4- दीप अनुक्रम [१९-२१] ~74~ Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१४,१५], + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: %*क प्रत सूत्रांक [१४,१५] कर गाथा * कुमारसमानः किन्तु वक्ष्यमाणः, तथा चाह-'जहन्नेणं मुहत्तपुहत्तस्से'त्यादि, पृथक्त्वं द्विप्रभृतिरानवभ्यः, तत्र यज पन्यं मुहपृथक्त्वं तद्वित्रा मुहूर्ताः, यच्चोत्कृष्टं तदष्टौ नव वेति, आहारोऽपि विशेषित एव, तथा चाह-आहारो॥ इत्यादि, 'वेमाणियाणं ठिई भाणियबा' 'ओहिय'त्ति औधिको-सामान्या, सा च पल्योपमादिका त्रयस्त्रिंशत्सागरोपA|मान्ता, तन्त्र जघन्या सौधर्ममाश्रित्य, उत्कृष्टा चानुत्तरविमानानीति, उच्छ्रासप्रमाणं तु जपन्यं जघन्यस्थितिकदेवाना-ठा काश्रित्य इतरत्तत्कृष्टस्थितिकानाश्रित्येत्यर्थः, अत्र गाथा-"जस्स जइ सागराई तस्स ठिई तत्तिएहिं पक्खेहिं । उसासो देवाणं || वाससहस्सेहिं आहारो ॥१॥"त्ति । तदेतायता ग्रन्थेनोक्ता चतुर्विंशतिदण्डकवक्तव्यता, इयं च के चिरसूत्रपुस्तकेषु एवं & ठिई आहारों' इत्यादिनाऽतिदेशवाक्येन दर्शिता, सा चेतो विवरणअन्धादवसेयेति ॥ उक्ता नारकादिधर्मवक्तव्यता, इयं चारम्भपूर्विकेति आरम्भनिरूपणायाह जीवाणं भंते ! किं आयारंभा परारंभा तदुभयारंभा अनारम्भा , गोयमा ! अस्थेगइया जीवा Kआयारंभावि परारंभावि तदुभयारंभावि नो अणारंभा अत्थेगइया जीवा नो आयारंभा नो परारंभा शानो तदुभयारंभा अणारंभा ॥ से केणडेणं भंते ! एवं बुचह-अत्धेगइया जीवा आयारंभावि एवं पडि उच्चारेयब्वं, गोयमा ! जीवा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-संसारसमावनगा य असंसारसमावनगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावनगा ते णं सिडा, सिहा णं नो आयारंभा जाव अणारम्भा, तत्थ णं जे ते १ यस्य यावन्ति सागरोपमाणि खितिस्तस्य तावद्भिः पौरुच्छासस्त तिभिर्वर्षसहवैः आहारस्तु देवानाम् ॥ 64- दीप 5 अनुक्रम [१९-२१] व्या०६ For P OW ~75 Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत -% सत्राक [१६] व्याख्या-13 संसारसमावन्नगा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संजया य असंजया य, तत्थ णे जेते संजया ते दुविहा१शतके प्रज्ञप्तिःलापण्णत्ता, तंजहा-पमत्तसंजया य अप्पमत्तसंजया य, तत्थ णं जे ते अप्पमत्तसंजया ते शं नो आयारंभाल आत्मारअभयदेवीसानो परारंभा जाव अणारंभा, तत्थ क जे ते पमत्तसंजया ते सुहं जोगं पडच नो आयारंभा नो परारंभा । म्भा सू१९ या वृत्तिः ||जाच अणारंभा, असुभ जोगं पडुच्च आयारंभावि जाव नो अणारंभा, तत्थ ण जे ते असंजया ते अविरतिं| पडच आयारंभावि जाव नो अणारंभा, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ-अस्थगइया जीवा जाव अणारंभा | नेरल्याणं भंते ! किं आयारंभा परारंभा तदुभयारंभा अणारंभा,गोयमा ! नेरइया आयारंभावि जाव नो | अणारंभा, से केणद्वेणं भन्ते एवं बुच्चा , गोयमा ! अविरतिं पहुच, से तेणटेणं जाव नो अणारंभा, एवं जाव असुरकुमाराणवि जाच पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा जीवा, नवरं सिद्धविरहिया भाणियव्वा, चाणमंतरा जाव वेमाणिया जहा नेरइया । सलेस्सा जहा ओहिया, कण्हलेसस्स नीललेसस्स काउ| लेसस्स जहा ओहिया जीवा, नवरं पमत्तअप्पमत्ता न भाणियच्या, तेउलेसस्स पम्हलेसस्स सुकलेसस्स जहा ओहिया जीवा, नवरं सिद्धा न भाणियया ॥ (सू०१६) आरम्भो-जीवोपघाता, उपद्रवणमित्यर्थः, सामान्येन वाऽऽश्रवद्वारप्रवृत्तिः, तत्र चात्मानमारभन्ते आरमना वा|| स्वयमारभन्त इत्यात्मारम्भाः , तथा परमारभन्ते परेण वाऽऽरम्भयतीति परारम्भाः , तदुभयम्-आत्मपररूपं, तदुभयेन | वाऽऽरम्भन्त इति तदुभयारम्भाः, आत्मपरोभयारम्भवार्जितास्त्वनारम्भा इति प्रश्ना, अनोत्तरं स्फुटमेव, नवरम् दीप अनुक्रम X ॥३१॥ [२२] - -- - ~76~ Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१६] दीप अनुक्रम [२२] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्तिः) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१६], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः | अस्तिशब्दस्याव्ययत्वेन बहुत्वार्थत्वाद् 'अस्ति' विद्यन्ते सन्तीत्यर्थः, अथवाऽस्ति अयं पक्षो यदुत 'एगइय'त्ति एकका एके केचनेत्यर्थः जीवाः, आत्मारम्भा अपीत्यादावपिशब्द उत्तरपदापेक्षया समुच्चये, स चात्मारम्भत्वादिधर्माणामेकाश्रयताप्रतिपादनार्थः भिन्नाश्रयताप्रतिपादनाथ वा, एकाश्रयत्वं च कालभेदेनावगन्तव्यं, तथाहि कदाचि | दात्मारम्भाः कदाचित्परारम्भाः कदाचित्तदुभयारम्भाः, अत एव नो अनारम्भाः, भिन्नाश्रयत्वं त्वेवम् एके जीवा | असंयता इत्यर्थः आत्मारम्भा वा परारम्भा वेत्यादि । अथैकस्वभावत्वाज्जीवानां भेदमसंभावयन्नाह - 'सेकेण्डेणे' ति अथ केन कारणेनेत्यर्थः, 'दुविहा पन्नन्त'त्ति मयाऽन्यैश्च केवलिभिः, अनेन समस्तसर्वविदां मताभेदमाह, मतभेदे तु विरोधिवचनतया तेरामसत्यवचनतापत्तिः, पाटलीपुत्र स्वरूपाभिधाय कविरुद्धवचनपुरुषकदम्बकवदिति, प्रमत्तसंयतस्य हि शुभोऽशुभश्च योगः स्यात् संयतत्वात्प्रमादपरत्वाच्च इत्यत आह-'सुभं जोगं पचति शुभयोगः- उपयुक्ततया प्रत्युपेक्षणादिकरणम्, अशुभयोगस्तु तदेवानुपयुक्ततया, आह च- "ढवी आउकार तेऊबाऊवणस्सइतखाणं । पडि लेहणापमत्तो छपि विराहओ होइ ॥ १ ॥" तथा "सेबो पमत्तजोगो समणस्स उ होइ आरंभो” त्ति अतः शुभाशुभौ योगावात्मा (ना) रम्भादिकारणमिति । 'अविरहं पहुंच'ति, इहायं भावः - यद्यप्यसंयतानां सूक्ष्मैकेन्द्रियादीनां नात्मारम्भकादित्वं साक्षादस्ति तथाऽप्यविरतिं प्रतीत्य तदस्ति तेषां न हि ते ततो निवृत्ताः, अतोऽसंयतानामविरति१ प्रतिलेखनाप्रमत्तः (कुम्भकारशाला दिस्थितः ) पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतित्रसानां षण्णामपि विराधको भवति ॥ १ ॥ २ श्रमणस्य तु सर्वः प्रमत्तयोग आरम्भो भवति ॥ For Pernal Use On ~77 ~ Corp Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: आत्मार म्भासू१६ प्रत सत्रांक व्याख्या- स्तत्र कारणमिति, निवृत्तानां तु कथञ्चिदात्माद्यारम्भकत्वेऽप्यनारम्भकत्वं, यदाह-"जा जयमाणस्त भवे विराहणा प्रज्ञप्तिः सुत्तविहिसमग्गस्स । सा होइ निजरफला अज्झत्थविसोहिजुत्तस्स ॥१॥"त्ति । 'से तेणढणं'ति अथ तेन कारणेने- अभयदेवी-मत्यर्थः ॥ अथात्मारम्भकत्वादित्वमेव नारकादिचतुर्विंशतिदण्डकैनिरूपयन्नाह-'नेरइयाण'मित्यादि व्यक, नवरंपापाता|| 'मणुस्से'त्यादी अयमर्थ:-मनुष्येषु संयतासंयतप्रमत्ताप्रमत्तभेदाः पूर्वोक्ताः सन्ति ततस्ते यथा जीवास्तथाऽध्येतव्याः ॥ ३२॥ किन्तु संसारसमापन्नाः, इतरे च ते न वाच्याः, भववर्तित्वादेव तेपामिति, एतदेवाह-'सिद्धविरहिए इत्यादि । व्यन्त रादयो यथा नारकास्तथाऽध्येव्याः, असंयतत्वसाधादिति ॥ आत्मारम्भकत्वादिभिर्द्धमजीवा निरूपिता तेच सले|| श्याश्चालेश्याश्च भवन्तीति सलेश्यांस्तांस्तैरेव निरूपयन्नाह-'सलेसा जहा ओहिय'त्ति, लेश्या-कृष्णादिद्रव्यसानिKध्यजनितो जीवपरिणामो, यदाह-"कृष्णादिद्रव्यसाचिव्यात्, परिणामो य आत्मनः । स्फटिकस्येव तत्रायं, लेश्याशब्दः प्रयुज्यते ॥१॥" तत्र 'सलेश्याः' लेश्यावन्तो जीवाः 'जहा ओहिय'त्ति यथा नारकादिविशेषणवर्जिता जीवा अधीताः, |'जीवा गं भंते! किं आयारंभा परारंभेत्यादिना दण्डकेन तथा सलेश्या जीवा अपि वाच्या, सलेश्यानामसंसारसमा* पन्नत्वस्थासम्भवेन संसारसमापन्नेत्यादिविशेषणवर्जितानां शेषाणां संयतादिविशेषणानां तेष्वपि युज्यमानत्वात् , तत्र चार्य पाठक्रमः-'सलेसा णं भंते ! जीवा किं आयारंभेत्यादि तदेव सर्व, नवर-जीवस्थाने सलेश्या इति वाच्यमिति, अयमेको दण्डका, कृष्णादिलेश्याभेदात्तदन्ये पद, तदेवमेते सप्त, तत्र 'कण्हलेसस्से'त्यादि, कृष्णलेश्यस्य नीललेश्यस्य १ सूत्रोक्तविधिसमग्रस्य यतमानस्स या विराधना भवेत् साऽपि निर्जरफलाऽध्यात्म (परिणाम ) विशुद्धियुक्तस्य ॥१॥ CREASASANSAR B4%A4%9555 दीप अनुक्रम [२२] ~78~ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१६], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: - प्रत - सत्रांक [१६] BBCॐॐॐॐॐ कापोतलेश्यस्य च जीवराशेर्दण्डको यथा औधिकजीवदण्डकस्तथाऽध्येतव्यः-प्रमत्ताप्रमत्तविशेषणवर्जा, कृष्णादिषु हि || ला अप्रशस्तभावलेश्यासु संयतत्वं नास्ति, यचोच्यते-"पुषपडिवण्णओ पुण अन्नयरीए उ लेसाए"त्ति, तद्रव्यलेश्या प्रती त्येति मन्तव्यं, ततस्तासु प्रमत्ताद्यभावः, तत्र सूत्रोच्चारणमेवम्-“कण्ह लेसाणं भंते ! जीवा किं आयारंभा परारंभा तद्|भयारंभा अनारंभा ४१, गोयमा ! आयारंभावि जाव नो अणारंभा, से केणवेणं भंते ! एवं बुच, गोयमा ! अविरहे। पड़च" एवं नीलकापोतलेश्यादण्डकावपीति, तथा तेजोलेश्यादेजीवराशेर्दण्डका ३ यथा औषिका जीवास्तथा वाच्या, #नवरं तेषु सिद्धान वाच्या, सिद्धानामलेश्यत्वात् , तचैवम्-'तेउलेस्साणं भंते ! जीवा किं आधारंभा ४१, गोयमा ! अत्थेगइया आयारंभावि जाव नो अणारंभा, अस्थेगइया नो आयारंभा जाव अणारंभा, से केणठेणं भंते 1 एवं वुच्चइ !, गोयमा ! दुविहा तेउलेस्सा पन्नत्ता, तंजहा-संजया य असंजया येत्यादि ॥ भवहेतुभूतमारम्भ निरूप्य भवाभावहेतुभूत ज्ञानादिधर्मकदम्बकं निरूपयन्नाह| इहभविए भंते ! नाणे परभविए नाणे तदुभयभविए नाणे, गोयमा! इहभाविएवि नाणे परभविएवि नाणे तदुभयभविएचि गाणे । दसर्णपि एवमेव । इहभविए भंते! चरित्ते परभविए चरिते तदुभयभविए चरिते?, गोयमा! इहभविए चरित्ते नो परमविए चरिते नो तदुभयभविए चरित्ते । एवं तवे संजमे ॥ सू०१७) १ पूर्वप्रतिपन्नचारित्रः पुनरन्यतरस्यां लेश्यायाम् ।। दीप अनुक्रम [२२] ~79~ Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: C बा१शतके | ज्ञानादि सू१७ प्रत सत्राक [१७] व्याख्या- 'इहभविए'इत्यादि व्यक, नवरम्-इह भवे-(ग्रन्धानम् १०००) वर्तमानजन्मनि यद्वर्त्तते न तु भवान्तरे तदेहमज्ञप्ति ऐहभाविकसमयदेवी भविक, काकुपाठाचेह प्रश्नताऽवसेया, तेन किमैहभविक ज्ञानमुत 'परभविए'त्ति परभवे-वर्तमानानन्तरभाविन्यनुगामियात या यद्वर्त्तते तत्पारभविकम् , आहोश्चित् 'तदुभयभविए'त्ति तदुभयरूपयो:-इहपरलक्षणयोर्भवयोर्यदनुगामितया वर्तते । तत्तदुभयभविकम् , इदं चैवं न पारभधिकाद्भिद्यत इति परतरभवेऽपि यदनुयाति तब्राह्यम् , इहभवव्यतिरिक्तत्वेन ॥३३॥ | परतरभवस्यापि परभवत्वात् , इस्वतानिर्देशश्चेह सर्वत्र प्राकृतत्वादिति प्रश्नः, निर्वचनमपि सुगम, नवरम् इहभविए' त्ति ऐहभविक यदिहाधीतं नानन्तरभवेऽनुयाति, पारभविकं यदनन्तरभवेऽनुयाति, तदुभयभविकं तु यदिहाधीतं पर है भवे परतरभवे चानुवर्तत इति । 'दसणंपि एवमेव'त्ति, दर्शनमिह सम्यक्त्वमवसेयं, मोक्षमार्गाधिकारात् , यदाह|"सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः" (तत्त्वा० अ-१ सू-१), यत्र तु ज्ञानदर्शनयोरेव ग्रहणं स्यात्तत्र दर्शनं सामान्यावबोधरूपमवसेयमिति, 'एवमेवेति ज्ञानवत् प्रश्ननिर्वचनाभ्यां समवसेय, चारित्रसूत्रे निर्वचने विशेषः, तथाहि-चारि मैहभविकमेव, न हि चारित्रवानिह भूत्वा तेनैव चारित्रेण पुनश्चारित्री भवति, यावज्जीवताऽवधिकत्वात्तस्य, किश्च|चारित्रिणः संसारे सविरतस्य देशविरतस्य च देवेष्वेवोत्पादात् तत्र च विरतेरत्यन्तमभावात् मोक्षगतावपि चारित्र४ संभवाभावात् , चारित्रं हि कर्मक्षपणायानुष्ठीयते मोक्षे च तस्याकिश्चित्करत्वात् यावज्जीवमिति प्रतिज्ञासमाप्तेः तदन्य G ॥३३॥ & स्थाश्चाग्रहणाद् अनुष्ठानरूपत्वात् चारित्रस्य शरीराभावे च तदयोगाद , अत एवोच्यते-'सिद्धे नोचरित्ती नोअचरिती || 'नो अचरित्तीति चाविरतेरभावादिति । अनन्तरं चारित्रमुक्तं, तब द्विधा तपासयमभेदादिति, तयोर्निरूपणायातिदेश दीप अनुक्रम 5555 [२३] SARERauninternational ~80 Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१७] दीप अनुक्रम [२३] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्तिः) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Educator माह-' एवं तवे संजमे' त्ति प्रश्ननिर्वचनाभ्यां चारित्रवत्तपःसंयमौ वाच्यौ, चारित्ररूपत्वात्तयोरिति । ननु सत्यपि ज्ञानादेर्मोक्षहेतुत्वे दर्शन एव यतिव्यं, तस्यैव मोक्षहेतुत्वात्, यदाह - "भट्टेण चरित्ताओ सुहुयरं दंसणं गहेयवं । सिज्झति चरणरहिया दंसणरहिया न सिज्झति ॥ १ ॥” इति यो मन्यते तं शिक्षयितुं प्रश्नयन्नाह - higi in! अणगारे किं सिज्झइ बुझइ मुबह परिनिम्बाइ सब्वदुक्खाणमंतं करेड़ १, गोयमा ! नो इणट्ठे समहे । से केणट्टेणं जाब नो अंत करेइ ?, गोयमा ! असंबुडे अणगारे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपग| गडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ धणियबंधणबद्धाओ पकरेइ हस्सकालठिझ्याओ दीहकालहियाओ पकरेह मंदाणुभावाओ तिब्वाणुभावाओ पकरेह अप्पपएसग्गाओ बहुप्पएसग्गाओ पकरेह आउयं च णं कम्मं सिय | बंधइ सिय नो बंधइ अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्मं भुज्जो भुज्जो उवचिणाइ अणाइयं च णं अणवदग्गं दीहमर्द्ध चाउरंत संसारकंतारं अणुपरियह, से एएणद्वेणं गोयमा ! असंबुडे अणगारे णो सिज्झह ५ । संबुडे णं भंते ! अणगारे सिज्झइ ५१, हंता सिज्झह जाव अंत करेह, से केणट्टेणं ?, गोयमा ! संबुडे अणगारे आउ | यवज्ञाओ सत्त कम्मपगडीओ धणियबंघणबद्धाओ सिढिलबंधणवद्धाओ पकरेड़ दीहकालठियाओ हस्सकालट्ठियाओ पकरेइ तिव्वाणुभावाओ मंदाणुभावाओ पकरेइ बहुप्पएसग्गाओ अप्पपपसण्णाओ पकरेह, आउयं च णं कम्मं न बंधह, अस्सायावेयणिज्जं च णं कम्म हो भुजो भुजो उवचिणाइ, अणाइयं च णं १ चारित्राद्धष्टेनापि दर्शनं सुष्ठुतरं गृहीतव्यम् । चरणरहिताः सिध्यन्ति दर्शनरहिता न सिध्यन्ति ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 81~ jrary org Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [१८] व्याख्या- अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकंतारं बीइबयइ, से एएणडेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-संवुडे अणगारे सिझइ शतके प्रज्ञप्ति जाव अंतं करेइ ॥ (सू०१८) अर्सवृतेतर अभयदेवी'असंवुडे णमित्यादि व्यक्तं, नवरम् 'असंवुडे 'ति 'असंवृतः' अनिरुद्धानवद्वारः 'अणगारे'त्ति अविद्यमानगृहम् ॥3॥ सिब्यादि यावृत्तिःश RI सू१८ साधुरित्यर्थः 'सिज्झइत्ति 'सिध्यति' अवाप्तचरमभवतया सिद्धिगमनयोग्यो भवति 'बुझहत्ति स एव यदा समुत्प-द ॥४॥ नकेवलज्ञानतया स्वपरपर्यायोपेतान्निखिलान् जीवादिपदार्थान् जानाति तदा बुध्यत इति व्यपदिश्यते 'मुच्चईत्ति स एव संजातकेवलबोधो भवोपनाहिकर्मभिः प्रतिसमयं विमुच्यमानो मुच्यत इत्युच्यते 'परिनिव्वाईत्ति स एव तेषां ४ दि कर्मपुद्गलानामनुसमयं यथा यथा क्षयमाप्नोति तथा तथा शीतीभवन् परिनिर्वातीति प्रोच्यते 'सब्वदुक्खाणमंतं करेइ'त्ति स एवं चरमभवायुपोऽम्तिमसमये क्षपिताशेषकर्माशः सर्वदुःखानामन्तं करोतीति भण्यते इति प्रश्ना, उत्तरं तु || कठी, नवरं 'नो इणढे समडे'त्ति 'नो' नव 'इणडे'त्ति 'अयम्' अनन्तरोक्तत्वेन प्रत्यक्षः 'अर्थ' भावः 'समर्थः' बलवान, ४ || वक्ष्यमाणदूषणमुद्गरमहारजर्जरितत्वात् , 'आउयवज्जाओ'त्ति यस्मादेकत्र भवग्रहणे सकृदेवान्तर्मुहर्तमात्रकाले एवायुषो। बन्धस्तत उक्तमायुर्वेजों इति 'सिढिलवंधणवद्धाओ'त्ति श्लथवन्धन-सृष्टता वा बद्धता वा निधत्तता वा तेन बद्धाःआत्मप्रदेशेषु संबन्धिताः पूर्वावस्थायामशुभतरपरिणामस्य कथञ्चिदभावादिति शिथिलबन्धन बद्धाः, एताश्चाशुभा एव G ॥ ४ ॥ द्रष्टव्या, असंवृतभाषस्य निन्दाप्रस्तावात् , ताः किमित्याह-'धणियबंधणबद्धाओ पकरेंति'त्ति गाढतरवन्धना बद्धावस्था वा निधत्तावस्था वा निकाचिता वा 'प्रकरोति' प्रशब्दस्यादिकार्थत्वात्कर्तुमारभते, असंवृतत्वस्याशुभयोगरूपत्वेन दीप अनुक्रम [२४] ARKARIRCANE Saintairatonyा ~82~ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: + CC प्रत सूत्रांक [१८] द गाढतरमकृतिबन्धहेतुत्वात् , आह च-"जोगा पयडिपएस"ति, पौनःपुन्यभावे त्वसंवृतत्वस्य ताः करोत्येवेति, तथा इस्वकालस्थितिका दीर्घकालस्थितिकाः प्रकरोति, तत्र स्थितिः-उपात्तस्य कर्मणोऽवस्थानं तामल्पकालां महतीं करोतीत्यर्थः, | असंवृतत्वस्य कषायरूपत्वेन स्थितिबन्धहेतुत्वात् , आह च-"ठिईमणुभार्ग कसायओ कुणइ"त्ति । तथा 'मंदाणुभावे.' त्यादि, इहानुभावो विपाको रसविशेष इत्यर्थः, ततश्च मन्दानुभावाः-परिपेलवरसाः सतीर्गाढरसाः प्रकरोति, असंघृतत्वस्य कषायरूपत्वादेव अनुभागबन्धस्य च कषायप्रत्ययत्वादिति, 'अप्पपएसे'त्यादि, अल्प-स्तोकं प्रदेशाग्रं-कर्म दलिकपरिमाणं यासां ताः तथा ता बहुप्रदेशाग्राः प्रकरोति, प्रदेशबन्धस्यापि योगप्रत्ययत्वाद्, असंवृतत्वस्य च योग& रूपत्वादिति, 'आउयं चेत्यादि, आयुः पुनः कर्म स्यात् कदाचिनाति स्यात् कदाचिद् न बध्नाति, यस्मात्रिभागा द्यवशेषायुषः परभवायुः प्रकुर्वन्ति, तेन यदा त्रिभागादिस्तदा बध्नाति, अन्यदा न बनातीति, तथा असाए'त्यादि असातवेदनीयं च-दुःखवेदनीय कर्म पुनः 'भूयो भूयः' पुनः पुनः 'उपचिनोति' उपचितं करोति , ननु कर्मसप्तकान्तवर्तित्वादसातवेदनीयस्य पूर्वोक्तविशेषणेभ्य एव तदुपचयप्रतिपत्तेः किमेतद्हणेन ? इति,अत्रोच्यते, असंवृतोऽत्यन्तदुःखितो भवतीति प्रतिपादनेन भयजननादसंवृतत्वपरिहारार्थमिदमित्यदुष्टमिति, 'अणाइय'ति अविद्यमानादिकम् अज्ञातिकं वा-अविद्यमानस्वजनम् ऋणस्वाऽतीतम् ऋणजन्यदुःस्थताऽतिक्रान्तं दुःस्थतानिमित्ततयेति ऋणातीतम् , अणं वाऽणक-पापमतिशयेनेतं-गतमणातीतम् , 'अणवयग्गं'ति, 'अवयग्गं'ति देशीवचनोऽन्तवाचकस्ततस्तनिषेधाद् अणवयग्गम् , अनन्तमि १ योगात्मकृतिपदेशबन्धौ ।। २ कषायतः स्थित्यनुभागबन्धं करोति ।। + RO -% दीप अनुक्रम [२४] 4%%* HTRIANGaram.org ~83~ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१८], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्राक [१८] व्याख्या-18 त्यर्थः अथवाऽवनतम्-आसन्नमग्रम्-अन्तो यस्य तत्तथा तन्निषेधाद अनवनताग्रम्, एतदेव वर्णनाशाववनता(नवता)ग्र- शतके प्रज्ञप्तिः || मिति, अथवाऽनवगतम्-अपरिच्छिन्नम-परिमाणं यस्य तत्तथा, अत एव 'दीहमळू'ति 'दीर्घाद्धं दीर्घकालं 'दीर्घावं 5 असंवृताअभयदेवी- सिब्यादि वा' दीर्घमार्ग 'चाउरंत'न्ति चतुरन्तं-देवादिगतिभेदात् पूर्वादिदिग्भेदाच्च चतुर्विभार्ग तदेव स्वार्थिकाण्प्रत्ययोपादाना सू१८ चातुरन्तं 'संसारकंतारं'ति भवारण्यम् 'अणुपरियट्टईत्ति पुनः पुनर्भमतीति ॥ असंवृतस्य तावदिदं फलं, संवृतस्य | ॥ ३५॥ तु यत्स्यात्तदाह-संवुडे ण'मित्यादि व्यक्त, नवरं संवृतः-अनगारः प्रमत्ताप्रमत्तसंयतादिः, स च चरमशरीरः स्यादचर मशरीरो वा, तत्र यश्चरमशरीरस्तदपेक्षयेदं सूत्र, यस्त्वचरमशरीरस्तदपेक्षया परम्परया सूत्रार्थोऽवसेयः, ननु पारम्पर्येणास वृतस्यापि सूत्रोक्तार्थस्यावश्यम्भावो,यतः शुक्लपाक्षिकस्यापि मोक्षोऽवश्यंभावी,तदेवं संवृतासंवृतयोः फलतो भेदाभाव एवेति, हा अत्रोच्यते, सत्यं, किन्तु यत्संवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतः सप्ताष्टभवप्रमाणं, यतो वक्ष्यति-'जहन्नियं चरिताराहणं आराहित्ता || सत्तभवग्गहणेहिं सिज्झइत्ति, यच्चासंवृतस्य पारम्पर्य तदुत्कर्षतोऽपार्जपुद्गलपरावर्त्तमानमपि स्याद्, विराधनाफलत्वाहात्तस्येति, 'बीइवयइत्ति व्यतिव्रजति व्यतिकामतीत्यर्थः। अनगारः संवृतत्वात्सिध्यतीत्युक्तं, यस्तु तदन्यः स विशिष्टगुणविकलः सन् किं देवा स्थान वा इति प्रश्नयन्नाह जीवेणं भंते ! अस्संजए अविरए अप्पडिहयपचक्खायपावकम्मे ओ चुए पेचा देवे सिपा, गोयमा!|All का अत्थेगइए देवे सिया अत्धेगइए नो देवे सिया। से केणतुणं जाव इओ चुए पेचा अस्थेगइए देवे सिया अत्थे गइए नो देवे सिया?, गोयमा जे इमे जीवा गामागरनगरनिगमरायहाणिखेडकब्बडमयदोणमुहपट्टणा दीप अनुक्रम [२४] ३५॥ ~84 ~ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९] समसन्निवेसेसु अकामतबहाए अकामळुहाए अकामबंभचेरवासेणं अकामसीतातवदंसमसगअण्हाणगसे-|3|| ★यजल्लमलपंकपरिदाहेणं अप्पतरं वा भुजतरं वा कालं अप्पाणं परिकिलेसंति अप्पाणं परिकिलेसित्ता काल मासे कालं किया अन्नयरसु वाणमंतरेसु देवलोगेसु देवत्ताए उषवसारो भवति ॥ केरिसाणं भंते ! तेसिं| | वाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णत्ता ?, गोयमा! से जहानामए-इहमणुस्सलोगंमि असोगवणे इवा सत्त वनवणे इवा चंपयवणे इवा चूपवणे इवा तिलगवणे इ वा लाउयवणे इवा निग्गोयवणे इ वा छत्तोववणे इ. कावा असणवणे इ वा सणवणे इ वा अयसिवणे इ वा कुसुंभवणे रवा सिद्धत्यषणे या बंधुजीवगवणे | वा णिचं कुसुमियमाइयलवइयथवइयगुलइयगुरिछयजमलियजुवलियविणमियपणमियमुविभत्तपिडिमंजरिवडेंसगधरे सिरीए अतीव अतीव उवसोभेमाणे उवसोभेमाणे चिट्ठह, एवामेव तेर्सि पाणमंतराणं देवाणं देवलोगा जहन्नेणं दसवाससहस्सद्वितीएहिं उक्कोसेणं पलिओवमद्वितीएहिं यहूहिं वाणमंतरेहिं देवहिं तद्देवी|हि य आइपणा वितिकिण्णा उवत्थडा संधडा फुडा अवगाढगाढसिरीए अतीव अतीव उचसोभेमाणा चिट्ठति, एरिसगाणं गोयमा । तेसिं चाणमंतराणं देवाणं देवलोगा पण्णता, से तेणष्टेणं गोयमा! एवं बुचा-॥ जीवे णं असंजए जाव देवे सिया। सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति बंदइत्ता नमसइत्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ (सू०१९)॥ ॥ पढमे सए पढमो उद्देसो समत्तो॥ E%EXAMS अनुक्रम [२५] 496-9643 For P OW ~85 Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व्याख्या-11 'जीवे ण'मित्यदि व्यक्तं, नवरम् 'असंजए'ति असाधुः संयमरहितो वा. 'अविरए'त्ति प्राणातिपातादिविरतिरहितः||१ शतके प्रज्ञप्तिःद विशेषेण वा तपसि रतो यो न भवति सोऽविरतः, 'अप्पडिहए'त्यादि, प्रतिहतं-निराकृतमतीतकालकृतं निन्दादिकर असंयतदेव अभयदेवी त्वं सू१९ णेन प्रत्याख्यातं च वर्जितमनागतकालविषयं पापकर्म-प्राणातिपातादि येन स प्रतिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा तनिषेधादप्रया वृत्तिा तिहतप्रत्याख्यातपापकर्मा, अनेनातीतानागतपापकर्मानिषेध उक्तः, असंयतोऽविरतश्चेत्यनेन वर्तमानपापासंवरणमभिहि तम्, अथवा 'न' नैव 'प्रतिहतं' तपोविधानेन मरणकालाद् आराक्षपितं प्रत्याख्यातं च मरणकालेऽप्यानवनिरोधेन पापकर्म येन स तथा, अधवा 'न' नैव प्रतिहतं सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तितः प्रत्याख्यातं च सर्वेविरत्यङ्गीकरणतः पापकर्मज्ञानावरणाघशुभं कर्म येन स तथा, 'इओ'त्ति इतः प्रज्ञापकप्रत्यक्षात्तिर्यग्भवाम्मनुष्यभवाद्वा च्युतो-भृतः 'पेच'त्ति | 2 जन्मान्तरे देवः स्यात् । इति प्रश्नः, 'जे हमे जीवे'त्ति ये इमे प्रत्यक्षासन्नाः पञ्चेन्द्रियतिर्यचो मनुष्या वा 'गामे त्यादि ग्रामादिष्यधिकरणभूतेषु, तत्र ग्रामो-जनपदप्रायजनाश्रितः स्थानविशेषः, आकरो लोहाद्युत्पत्तिस्थान नकर-कररहितं निगमो-चणिगजनप्रधानं स्थानं राजधानी-यत्र राजा स्वयं वसति खेटं-धूलिप्राकारं कर्बट-कुनगरं मडम्ब-सर्वतो दूरपति सन्निवेशान्तरं द्रोणमुख-जलपथस्थलपथोपेतं पत्तन-विविघदेशागतपण्यस्थान, तच द्विधा-जलपत्तनं स्थलपत्तनं चेति, रणभूमिरित्यन्ये, आश्रम-तापसादिस्थानं सन्निवेशो-घोषादिः, एषां द्वन्द्वस्त तस्तेषु, अथवा प्रामादयो ये सनिवेशा ॥३६॥ || स्ते तथा तेषु 'अकामतण्हाए'त्ति अकामाना-निर्जराधनभिलाषिणां सतां तृष्णा-तृड अकामतृष्णा तया, एवमकामक्षुधा, "अकामवंभचेरवासेणं'ति अकामाना-निर्जराधनभिलाषिणों सताम् अकामो वा-निरभिमायो ब्रह्मचर्येण RAMMAR अनुक्रम [२५] 18Musia ~86~ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ENCHAR ट्रा ख्यादिपरिभोगाभावमात्रलक्षणेन वासो-रात्रौ शयनमकामब्रह्मचर्यवासोऽतस्तेन, 'अकामअण्हाणगसेयजल्लमलपंक-18 परिदाहेणं'ति अकामा येऽस्नानकादयस्तेभ्यो यः परिदाहः स तथा तेन, तत्र स्वेदः-प्रस्वेदः याति च लगति चेति जल्लो-जोमानं मल:-कठिनीभूतं रज एव पङ्को-मल एव स्वेदेनाीभूत इति, 'अप्पतरो वा भुज्जतरो वा कालं'ति प्राकृतत्वेन विभकिविपरिणामादल्पतरं वा भूयस्तरं वा बहुतरं कालं यावत्, वाशब्दो देवत्वं प्रत्यल्पेतरकालयोः समताऽभिधानार्थों, केवलं देवत्वे सामान्यतः सत्यपि अल्पतरकालमकामनिर्जरावतामविशिष्टं तत्स्याद् इतरेषां तु विशिष्टमिति, 'अप्पाणं परिकिलेसंति'त्ति विबाधयन्ति, 'कालमासेचि कालो-मरणं तस्य मासः-प्रक्रमादवसरः कालमासस्तत्र 'कालं किच्च'त्ति मृत्वा 'वाणमंतरसुति वनान्तरेषु-वनविशेषेषु भवा अवर्णागमकरणादू वानमन्तराः, अन्ये | वाहुः-वनेषु भवा वानास्ते च ते व्यन्तराश्चेति वानव्यन्तरास्तेषामेते वानमन्तरा चानव्यन्तरा वाऽतस्तेषु 'देवलोकेषु देवाश्रयेषु 'देवत्ताए उववत्तारो भवंति'त्ति ये इमे इत्यत्र यच्छन्दोपादानासे देवतयोपपत्तारो भवन्तीति द्रष्टव्यम् ।। || 'तेसिं'ति ये देवलोकेष्यकामनिर्जरावन्तो देवतयोत्पद्यन्ते तेषामिति 'से जहानामए'त्ति 'से'त्ति अथ 'यथा' येन प्रका-18 रेण नामेति संभावने वाक्यालङ्कारे वा 'ए' इत्यामन्त्रणार्थोऽलङ्कारार्थ एव या 'इहति इह मर्त्यलोके 'असोगवणे इ. |व'त्ति अशोकवनम्, इतिशब्द उपप्रदर्शने, अनुस्वारलोपः सन्धिश्च प्राकृतत्वात् , 'वा' इति विकल्पार्थः, अथवा 'असोगवणे' इत्यत्र प्रथमैकवचनकृत एकारः, इवशब्दस्तु वाक्यालङ्कारे, अशोकादयस्तु प्रसिद्धा एव नवरं 'सत्तवन्न'त्ति सप्तपर्णः सप्तच्छद इत्यर्थः 'कसमिय'त्ति संजातकुसुमं 'माइय'त्ति मयूरितं संजातपुष्पविशेषमित्यर्थः, 'लवइय'त्ति लव-15 अनुक्रम [२५] -*-%ESORR ~87~ Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१९], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक व्याख्या- कितं संजातपल्लवलवमङ्गुरवदित्यर्थः, 'थवइय'त्ति स्तबकितं संजातपुष्पस्तबकमित्यर्थः, 'गुलइय'त्ति संजातगुल्मक, गुल्मं शतक प्रज्ञप्तिःलाच लतासमूहः, 'गुच्छिय'त्ति संजातगुच्छं, गुच्छश्च पत्रसमूहः, यद्यपि च स्तवकगुच्छयोरविशेषो नामकोशेऽधीतस्तथा- उद्देशः १ अभयदेवी पीह पुष्पपत्रकृतो विशेषो भावनीयः, 'जमलिय'त्ति यमलतया-समश्रेणितया तत्तरूणां व्यवस्थितत्वात् संजातयमल- देवलोकया वृत्तिः | त्वेन यमलितं, 'जुवलिय'त्ति युगलतया तत्तरूणां संजातत्वेन युगलितं, 'विणमिय'त्ति विशेषेण पुष्पफलभरेण नमि-|| वर्णनम् |तमितिकृत्वा विनमितं, पणमिय'त्ति तेनैव नमयितुमारब्धत्वात्प्रणमितं प्रशब्दस्यादिकार्थत्वादिति, तथा 'सुविभक्ता & सू १९ | अतिविभक्ताः सुनिष्पन्नतया पिण्ढ्यो-लुम्थ्यो मञ्जयश्च प्रतीतास्ता एवावतंसका-शेखरकास्तान धारयति यत्तत्सुविभक्त| पिण्डीमार्यवतंसकधरं, ततः कुसुमितादीनां कर्मधारय इति, 'सिरीए'त्ति श्रिया-बनलक्ष्म्या 'उपसोभेमाणे'त्ति इह | द्विवंचनमाभीक्ष्ण्ये भृशत्वे इत्यर्थः, 'आइन्न'त्ति कचित्प्रदेशे देवानां देवीनां च वृन्दैरात्मीयात्मीयावासमर्यादानुलानेन व्याप्ताः, आशब्दोऽत्र मर्यादावृत्तिः, तथा क्वचिनु 'विइइन्न'त्ति तैरेव वृन्दैनिजावाससीमोलानेन व्याप्ताः, विशब्दो| विशेषवाची, 'वत्थडत्ति उपस्तीर्णाः, उपशब्दः सामीप्यार्थः, स्तृजू च आच्छादनार्थस्ततश्चोत्पतद्भिर्निपतद्भिश्चानबरतक्रीडासक्तरुपयुपरि च्छादिताः, 'संथड'त्ति संस्तीर्णाः, संशब्दः परस्परसंश्लेपार्थः, ततश्च कचित्तरेव क्रीडमानैरन्योऽन्यस्पर्द्धया समन्ततश्चल द्भिराच्छादिता इति, 'फुड'त्ति 'स्पृष्टाः आसनशयनरमणपरिभोगद्वारेण परिभुक्ताः स्फुटा वा-14 | प्रकाशा न्यन्तरसुरनिकरकिरणविसरनिराकृतान्धकारतया, 'अवगाढगाढ'त्ति गाढं-बाढमवगाढास्तैरेव सकलक्रीडास्था-1 ॥३७॥ |नपरिभोगनिहितमनोभिरघोऽपि व्याशा, गाढावगाढा इति वाच्ये प्राकृतत्वादवगाढगाढाः, इह च देवत्वयोग्यस्य | CAMERASACRORSCOR) अनुक्रम [२५] ~88~ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१९] दीप अनुक्रम [२५] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्तिः) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१९], पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः जीवस्याभिधानेन तदयोग्यः सामर्थ्यादवसीयत एवेति 'अत्थे गहए नो देवे सिया' इत्येतस्यादावुक्तस्य पक्षस्य निर्वचनं कृतं द्रष्टव्यमिति ॥ अथोद्देशक निगमनार्थमाह-'सेवं भंते सेवं भंते त्ति, यन्मया पृष्टं तद्भगवद्भिः प्रतिपादितं तदेवमित्थमेव भदन्त ! नान्यथा, अनेन भगवद्वचने बहुमानं दर्शयति, द्विर्वचनं चेह भक्तिसंभ्रमकृतमिति, एवं कृत्वा भगवान् गौतमः श्रमणं भगवन्तं महावीरं वन्दते नमस्यति चेति ॥ ॥ प्रथमशते प्रथमोदेशकविवरणं समाप्तमिति ॥ व्याख्यातः प्रथमोद्देशकः, अथ द्वितीय आरभ्यते, अस्य चैवं संबन्धः - प्रथमोदेशके चलनादिधर्मकं कर्म कथितं | तदेवेह निरूप्यते, तथोद्देशकार्यसग्रहिण्यां 'दुक्खे'त्ति यदुक्तं तदिहोच्यते, तत्प्रस्तावनार्थं च पूर्वोक्तमेव ग्रन्थं स्मरन्नाहरायगिहे नगरे समोसरणं, परिसा निग्गया जाव एवं वयासी-जीवे णं भंते ! सयंकडं दुक्खं वेदेश १, गोयमा ! अस्थेगइयं वेएइ अत्थेगइयं नो वेएइ, से केणणं भंते ! एवं बुचर - अत्थेगइयं वेदेश अत्थेगइयं नो वेएइ १, गोयमा ! उदिन्नं वेरह अणुदिनं नो वेएइ, से तेणद्वेणं एवं बुचइ - अत्थेगइयं वेएइ अत्येगतियं नो वेएइ, एवं चब्बीसदंडएणं जाव वैमाणिए । जीवा णं भंते! सयंकडं दुक्खं वेएन्ति?, गोयमा ! अत्थेगइयं वेयन्ति अत्थेगइयं णो वेयन्ति, से केणद्वेणं?, गोयमा । उदिनं वेयन्ति नो अणुदिनं वेयन्ति, से तेणद्वेणं, एवं जाव वेमाणिया ॥ जीवे णं भंते! सयंकडं आउयं वेएह ? गोयमा ! अत्थेगइयं वेएर अत्थेगइयं नो वेएइ जहा अत्र प्रथम शतके प्रथमो उद्देशकः समाप्तः अथ प्रथम शतके द्वितीय- उद्देशक: आरब्धः For Par Lise Only ~ 89~ rryp Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [२०], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०] सू२० दीप दिक्खेणं दो दंडगा तहा आउएणवि दो दंडगा एगत्तपुहुत्तिया, एगत्तेणं जाय वेमाणिया पुहुत्तणवि शतके मज्ञप्तिःतहेव ॥ (सू०२०) उद्देशः २ अभवरेवी- 'रायगिहे'इत्यादि पूर्ववत्, 'जीवे ण'मित्यादि तत्र 'सयंकडं दुक्खंति यत्परकृतं तन्न वेदयतीति प्रतीतमेवातः कर्मायुर्वेदया वृत्तिः स्वयंकृतमिति पृच्छति स्म 'दुक्खंति सांसारिक सुखमपि वस्तुतो दुःखमिति दुःखहेतुत्वाद् 'दुःखं' कर्म वेदयतीति, नावेदन काकुपाठात् प्रश्नः, निर्वचनं तु यदुदीर्ण तद्वेदयति, अनुदीर्णस्य हि कर्मणो वेदनमेव नास्ति तस्मादुदीर्ण वेदयति नानु॥३८॥ दीर्ण, न च बन्धानन्तरमेवोदेति अतोऽवश्यं वेद्यमप्येक वेदयत्येकं न वेदयति इत्येवं व्यपदिश्यते, अवश्यं वेद्यमेव च कर्म "कंडाण कम्माण ण मोक्खो अस्थि” इति वचनादिति । एवं 'जाव वेमाणिए' इत्यनेन चतुर्विंशतिदण्डकः || सूचितः, स चैवम्-'नेरइए णं भंते ! सयंकड'मित्यादि । एवमेकत्वेन दण्डकः, तथा बहुत्वेनान्यः, स चैवम्-'जीवा णं भंते ! सपंकडं दुक्खं वेदेंती'त्यादि तथा 'नेरइयाणं भंते ! सर्यकर्ड दुक्ख'मित्यादि, नन्वेकत्वे योऽर्थों बहुत्वेऽपि स एवेति किं बहुत्वप्रश्नेन ? इति, अत्रोच्यते, क्वचिद्वस्तुनि एकत्वबहुत्वयोरर्थविशेषो दृष्टो यथा सम्यक्त्वादेः एकं जीव-16 माश्रित्य पट्पष्टिसागरोपमाणि साधिकानि स्थितिकाल उक्तो नानाजीवानाचित्य पुनः सर्वाद्धा इति, एवमत्रापि संभवे-| दिति शङ्कायां बहुत्वप्रश्नो न दुष्टः अव्युत्पन्नमतिशिष्यव्युत्पादनार्थत्वाद्धेति ॥ अथायुःप्रधानत्वान्नारकादिव्यपदेशस्या-151 * ॥३८॥ DI युराश्रित्य दण्डकद्वयम् एतस्य चेयं वृद्धोकभावना-यदा सप्ठमक्षितावायुर्वद्धं पुनश्च कालान्तरे परिणामविशेषान्ती १ कृतानां कर्मणां मोक्षो नैबास्ति ।। अनुक्रम [२६] REmiratna Cliarary on ~90~ Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२०], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 7454-55-4-554543 सूत्रांक [२०] दीप | यधरणीप्रायोग्य निर्वर्तितं बासुदेवेनेव तत्तादृशमङ्गीकृत्योच्यते-पूर्वबद्धं कश्चिन्न वेदयति, अनुदीर्णत्वात्तस्य, यदा पुनर्यत्रैव बद्धं तत्रैवोत्पद्यते तदा वेदयतीत्युच्यते, तथैव तस्योदितत्वादिति ॥ अथ चतुर्विशतिदण्डकमाहारादिभिनि| रूपयन्नाह नेरइया णं भंते ! सब्वे समाहारा सब्वे समसरीरा सब्बे समुस्सासनीसासा, गोयमा नो इणढे समढे । से केण्डेणं भंते ! एवं बुच्चा-नेरइया नो सब्वे समाहारा नो सब्वे समसरीरा नो सब्वे समुस्सास| निस्सासा, गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महा-IN सरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारेंति बहुतराए पोग्गले परिणामेति बहुतराए पोग्गले उस्ससंति बहुत-13 राए पोग्गले नीससंति अभिक्खणं आहारति अभिक्खणं परिणामेति अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणंद नी०, तत्थ णं जे ते अप्पसरीरा ते णं अप्पतराए पुग्गले आहारंति अप्पतराए पुग्गले परिणामेति अप्पI|तराए पोग्गले उस्ससंति अप्पतराए पोग्गले नीससंति आहच आहारेंति आहथ परिणामेंति आहच || | उस्ससंति आहच नीससंति, से तेणडेणं गोयमा! एवं वुच्चह-मेरइया नो सब्वे समाहारा जाब नो सब्वे समुस्सासनिस्सासा ॥ नेरईया णं भंते ! सब्वे समकम्मा, गोयमा ! णो इणढे समहे, से केणठेणं, गो|यमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुब्वोववन्नगा य पच्छोववन्नगा य, तत्थ णं जे ते पुब्बोववन्नगा ते णं अप्पकम्मतरागा, तत्व णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं महाकम्मतरागा, से तेणढेणं गोयमा ! | नेर अनुक्रम [२६] X-RSS-54:5% Milanmurary.au ~91~ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [२१], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] व्याख्या- या णं भंते ! सव्वे समवन्ना ?, गोयमा ! नो इणडे समढे, से केणटेणं तहेव ? गोयमा ! जे ते पुष्योववन्नगा शतक प्रज्ञप्तिः । ते णं विसुद्धवन्नतरागा, तत्व णं जे ते पच्छोववन्नगा ते णं अविसुद्धवन्नतरागा तहेव से तेगडेणं एवं०॥ उद्देशः २ अभयदेवी मामा नरइया गं भंते ! सब्बे समलेस्सा ?, गोयमा ! नो इणढे समडे, से केणडेणं जाव नो सच्चे समलेस्सा .DIL समशरीगोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पुथ्योववन्नगा य पच्छोववनगा य, तत्थ णं जे ते पुष्योववन्नगा रादिसू२१ ॥३९॥ ते णं विसुद्धलेस्सतरागा, तत्थ णं जे ते पच्छशेववन्नगा ते णं अविसुद्धलेस्सतरागा, से तेण्डेणं० ॥ नेरइया णं भंते ! सब्वे समवेयणा ?, गोयमा! नो इणढे समढे, से केणडेणं ?, गोयमा ! नेरइया दुविहा पन्नत्ता, लातंजहा-सन्निभूया य असन्निभूपा य, तत्थ णं जे ते सन्निभूया ते णं महावेपणा, तत्थ णं जे ते असन्निभूया || ते णं अप्पवेयणतरागा, से तेणद्वेणं गोयमा!॥नेरइया सव्वे समकिरिया ?, गोयमा ! भो इणडे समढे,* से केणटेणं ?, गोयमा ! नेरड्या तिविहा पण्णता, तंजहा-सम्मदिही मिच्छादिही सम्मामिच्छदिवी, तत्थ || णं जे ते सम्मदिही तेसि णं चत्तारि किरियाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-आरंभिया १ परि०२ माया०३ | अप्पश्च० ४, तत्थ णं जे ते मिच्छादिछी तेसि णं पंच किरियाओ कजंति-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया, एवं सम्मामिच्छादिहीणंपि, से तेणड्डेणं गोयमा !०॥ नेरइया णं भंते ! सब्वे समाज्या सब्वे समो IN ॥३९॥ ववन्नगा , गोयमा ! नो इणढे समझे, से केणडेणं ?, गोयमा ! नेरइया चउब्विहा पन्नत्ता, तंजहा-अत्गइया समाउया समोववन्नगा १ अत्थेगइया समाउया विसमोववन्नगा २ अत्धेगइया विसमाउया समोववन्नगा ३] **** AS टीप अनुक्रम [२७] CRORG ~92~ Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [२१], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] अत्थेगइया विसमाउया विसमोववन्नगा ४ से सेणडेणं गोयमा १० ॥ असुरकुमारा गं भंते ! सब्वे समाहारा सब्वे समसरीरा, जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, नवरं कम्मवन्नलेस्साओ परिवण्णेयदवाओ, पुब्बोववन्नगा महाकम्मतरागा अविसुद्धवन्नतरागा अविसुद्धलेसतरागा, पच्छोयवन्नगा पसत्था, सेसं तहेच, एवं जाव धणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं आहारकम्मवनलेस्सा जहा नेरइयाणं ॥ पुढविकाइया ण भंते ! सव्वे समवेपणा ?, हंता समवेयणा, से केपट्टेणं भंते ! समवेयणा ?, गोयमा ! पुढविकाइया सब्वे असन्नी असन्निभूया अणिदाए वेयणं वेदेति से तेणद्वेणं ॥ पुढविकाइया गंभंते ! सब्वे समकिरिया १, हता समकिरिया, से केणटेणं, गोयमा ! पुढविकाइया सब्वे माई मिच्छादिट्टी ताणं णिययाओ पंच किरियाओ कजति, तंजहा-आरंभिया जाव मिच्छादसणवत्तिया, से तेणढणं समाउया समोवबन्नगा, जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, जहा पुढविकाइया तहा जाव चरिंदिया। पंचिंदियतिरिक्खजोणिया || जहा नेरहया नाणसं किरियासु, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! सव्वे समकिरिया ?, गो०, णो ति०. सेकेणटेणं, गो पंचिंदियतिरिक्खजोणिया तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मदिही मिच्छादिही सम्मामिच्छादिट्टी, तत्थ णं जे ते सम्मदिडी ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-अस्संजया य संजयासंजया य, तत्व णं जे ते संजयासंजया तेसिणं तिन्नि किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया परिग्गहिया मापावत्तिया, असंजयाण चत्तारि, मिच्छादिट्ठीणं पंच, सम्मामिच्छादिट्ठीणं पंच, मणुस्सा जहा नेरइया नाणसं जे महासरीरा ते अनुक्रम [२७] ~93~ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१], पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१] व्याख्या- बहतराए पोग्गले आहारंति आहच आहारेंति जे अप्पसरीरा ते अप्पतराए आहारति अभिक्खणं आहा-I शतक प्रज्ञप्तिः रति सेसं जहा नेरइयाणं जाव वेयणा । मणुस्सा णं भंते ! सब्वे समकिरिया ?, गोयमा! णो तिणद्वे सम?, 8 उद्देशः २ अभवदेवी-४ सेकेणद्वेणं ?, गोयमा! मणुस्सा तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-सम्मदिही मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिडी, तत्थ समशरीया वृत्तिः &णं जे ते सम्मदिही ते तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-संजया अस्संजया संजयासंजया य, तत्थ णं जे ते संजयारादिसू२१ ॥४०॥ गते विहा पण्णत्ता, तंजहा-सरागसंजया य वीयरागसंजया य, तस्थ णं जे ते वीयरागसंजया ते णं अकि-18| |रिया, तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-पमत्तसंजया य अपमत्तसंजया य, तत्थ ण जेते अप्पमत्तसंजया तेसिणं एगा मायावत्तिया किरिया कज्जइ, तत्थ णं जे ते पमत्तसंजया तेसिणं दो किरियाओ कवति, तं०-आरंभिया य मायावत्तिया य, तत्थ णं जे ते संजयासंजया तेसिणं आइल्लाओ तिन्नि किरियाओ कजंति, तंजहा-आरंभिया१परिग्गहिया २ मायावत्तिया ३, अस्संजयाणं चत्तारि किरियाओ कजंति-आरं०१परि०२ मायावत्ति०३ अप्पच०४, मिच्छादिट्ठीणं पंच-आरंभि०१ परि० ९ माया०३ | अप्पश्च०४ भिच्छादसण०५, सम्मामिच्छदिहीणं पंच ५। वाणमंतरजोतिसवेमाणिया जहा असुरकुमारा, नवरं वेयणाए माणसं-मायिमिच्छादिट्टीउववनगा य अप्पवेदणतरा अमाथिसम्मदिट्टीजववनगा य महा ॥४०॥ |यणतरागा भाणियब्वा, जोतिसवेमाणिया || सलेस्सा भंते ! नेरहया सब्वे समाहारगा, ओहिया णं सलेस्साणं सुक्कलेस्साणं, एएसि णं तिण्हं एक्को गमो, कण्हलेस्साणं नीललेस्साणपि एको गमो नवरं वेदणाए अनुक्रम [२७] SanEairatndline ~94~ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] गाथा 5-5-15555553k मायिमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य अमायिसम्मदिवीउवव० भाणियव्वा । मणुस्सा किरियासु सरागवीयरागपमत्तापमत्ता ण भाणियन्वा । काउलेसाएवि एसेव गमो, नवरं नेरइए जहा ओहिए दंडए तहा भाणि-12 |यब्बा, तेउलेस्सा पम्हलेस्सा जस्स अस्थि जहा ओहिओ दंडओ तहा भाणियब्वा नवरं मणुस्सा सरागा Mचीयरागा य न भाणियब्वा, गाहा-मुक्खाउए उदिन्ने आहारे कम्मवन्नलेस्सा य। समवेयणसमकिरिया समा-|| है उए चेव बोद्धब्वा ॥१॥ (सू०२१) 'नेरइप'इत्यादि व्यक्तं, नवरं 'महासरीरा य अप्पसरीरा येत्यादि, इहाल्पत्वं महत्त्वं चापेक्षिक, तत्र जघन्यम्| अल्पत्वमङ्गलासयभागमात्रत्वम् , उत्कृष्टं तु महत्त्वं पञ्चधनुःशतमानत्वम्, एतच्च भवधारणीयशरीरापेक्षया, उत्तरवैकि&ायापेक्षया तु जघन्यमालसमातभागमात्रत्वम्, इतरतु धनुःसहस्रमानत्वमिति, एतेन च किं समशरीरा इत्यत्र प्रश्ने उत्तरमुक्त, शरीरविषमताऽभिधाने सत्याहारोच्डासयोर्वेषम्यं सुखप्रतिपाद्यं भवतीति शरीरप्रश्नस्य द्वितीयस्थानोक्तस्यापि प्रथमं निर्वचनमुक्तम् ॥ अथाहारोच्छासप्रश्नयोनिर्वचनमाह-तत्थ ण'मित्यादि ये यतो महाशरीरास्ते तदपेक्षया बहुतरान् पुद्गलान् आहारयन्ति, महाशरीरत्वादेव, रश्यते हि लोके बृहच्छरीरो बहाशी स्वल्पशरीरचाल्पभोजी, हस्तिशश-12 कवत्, बाहुल्यापेक्षं चेदमुच्यते, अन्यथा वृहच्छरीरोऽपि कश्चिदल्पमश्नाति अल्पशरीरोऽपि कश्चिद्भरि भुझे, तथावि-18 धमनुष्यवत्, न पुनरेवमिह, बाहुल्यपक्षस्यैवाश्रयणात् , ते च नारका उपपातादिसद्यिानुभवादन्यत्रासद्वेद्योदयवर्तित्वे★ नैकान्तेन यथा महाशरीरा दुःखितास्तीवाहाराभिलाषाश्च भवन्तीति । 'बहुतराए पोग्गले परिणामेति'त्ति आहार दीप अनुक्रम [२७-२८] -CREASRDCROCCASIOS. REatininex ~95 Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत मज्ञप्तिः सुत्राक यावृत्तिःशा [२१] गाथा व्याख्या- पुगलानुसारित्वात्परिणामस्य बहुतरानित्युक्त, परिणामश्चापृष्टोऽप्याहारकार्यमितिकृत्वोक्तः। तथा 'बहुतराए पोग्गले शतके * उस्ससंति'त्ति उच्छासतया गृहन्ति, 'निस्ससंति'त्ति निःश्वासतया विमुश्चन्ति, महाशरीरत्वादेव, दृश्यते हि बृहच्छ-18 उद्देशः२ अभयदेवी-बारीरस्तजातीयेतरापेक्षया बहुच्छासनिःश्वास इति, दुःखितोऽपि तथैव, दुःखिताश्च नारका इति बहुतरांस्तानुच्छसन्तीति। समशरी | तथाऽऽहारस्यैव कालकृतं वैषम्यमाह-'अभिक्रवणं आहारैति'त्ति, अभीक्ष्णं-पौनःपुन्येन यो यतो महाशरीरः सारादि सू२१ ॥४१॥ तदपेक्षया शीघशीघ्रतराहारग्रहण इत्यर्थः, 'अभिक्खणं ऊससंति अभिक्खणं नीससंति' एते हि महाशरीरत्वेन 81 दु:खिततरत्वाद् 'अभीक्ष्णम्' अनवरतमुच्छ्रासादि कुर्वन्तीति ॥ तथा-'(तत्थ णं)जे ते'इत्यादि, ये ते, इह 'ये' इत्ये| तावतैवार्थसिद्धौ यत्ते इत्युच्यते तदापामात्रमेवेति, 'अप्पसरीरा अप्पतराए पोग्गले आहारैति'त्ति ये यतोऽल्पश|रीरास्ते तदाहरणीयपुद्गलापेक्षयाऽल्पतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, अल्पशरीरत्वादेव 'आहच आहारैति'त्ति, कदाचिदाहारयन्ति कदाचिसाहारयन्ति, महाशरीराहारग्रहणान्तरालापेक्षया, बहुतरकालान्तरालतयेत्यर्थः, 'आहब ऊससंति नीससंति'त्ति एते ह्यल्पशरीरत्वेनैव महाशरीरापेक्षयाऽल्पतरदुःखत्वाद् आहत्य-कदाचित् सान्तरमित्यर्थः उच्छासादि कुर्वन्ति, यश्च नारकाः सन्ततमेवोच्छासादि कुर्वन्तीति प्रागुक्तं तन्महाशरीरापेक्षयेत्यवगन्तव्यमिति, अथवाऽपर्याप्तकालेऽल्पशरीरा: सन्तो लोमाहारापेक्षया नाहारयन्ति अपर्याप्तकत्वेन च नोच्छ्रसन्ति, अन्यदा वाहारयन्ति उच्च ॥४१॥ सन्ति चेत्यत आहत्याहारयन्ति आहत्योच्छुसन्तीत्युक्तं, 'से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं वुञ्चइ-नेरइया सब्वे नो समा-1 Bा.हारे'त्यादि निगमनमिति ॥ समकर्मसूत्रे-'पुब्धोववनगा य पच्छोववनगा यत्ति 'पूर्वोत्पन्नाः'प्रथमतरमुत्पन्नास्तदन्ये | * % दीप % % अनुक्रम [२७-२८] 4 ~96~ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] गाथा 18| तु पश्चादुत्पन्नाः, तत्र पूर्वोत्पन्नानामायुषस्तदन्यकर्मणां च बहुतरवेदनादल्पकर्मत्वं, पश्चादुत्पन्नानां च नारकाणामायुष्का-18 & दीनामल्पतराणां वेदितत्वात् महाकर्मत्वम्, एतच्च सूत्र समानस्थितिका ये नारकास्तानङ्गीकृत्य प्रणीतम्, अन्यथा हि | रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थिते रकस्य बहुम्यायुषि क्षयमुपगते पल्योपमावशेषे च तिष्ठति तस्यामेव रत्नप्रभायां दशवर्षसहस्र४ स्थितिारकोऽन्यः कश्चिदुत्पन्न इतिकृत्वा प्रागुत्पन्नं पल्योपमायुष्कं नारकमपेक्ष्य किं वक्त शक्यं महाकम्र्मेति ॥ एवं ४ वर्णसूत्रे पूर्वोत्पन्नस्याल्पं कर्म ततस्तस्य विशुद्धो वर्णः, पश्चादुत्पन्नस्य च बहुकर्मत्वादविशुद्धतरो वर्ण इति । एवं लेश्या सूत्रेऽपि, इह च लेश्याशब्देन भावलेश्या ग्राह्या, बाह्यद्रव्यलेश्या तु वर्णद्वारेणैवोक्तेति ॥ 'समवेयण'त्ति 'समवेदनाः' ४ समानपीडाः 'सन्निभूय'त्ति सज्ञा-सम्यग्दर्शनं तद्वन्तः सज्ञिनः सजिनो भूताः-सज्ञित्वं गताः सज्ञिभूताः, अथ-18 वाऽसज्ञिनः सझिनो भूताः सज्ञिभूताः, च्चिप्रत्यययोगात्, मिथ्यादर्शनमपहाय सम्यग्दर्शनजन्मना समुत्पन्ना इतिPil यावत् , तेषां चपूर्वकृतकर्मविपाकमनुस्मरतामहो महदुःखसङ्कटमिदमकस्मादस्माकमापतितं न कृतो भगवदहत्प्रणीतः सकल-1 दुःखक्षयकरो विषयविषमविषपरिभोगविप्रलब्धचेतोभिर्द्धर्म इत्यतो महहुःखं मानसमुपजायतेऽत्तो महावेदनास्ते, अस-18 जिभूतास्तु मिथ्यादृष्टयः, ते तु स्वकृतकर्मफलमिदमित्येवमजानन्तोऽनुपतप्तमानसा अल्पवेदनाः स्युरित्येके, अन्ये | वाहुः-सम्जिना-सज्ञिपश्चेन्द्रियाः सन्तो भूता-नारकत्वं गताः सज्ञिभूताः, ते महावेदनाः, तीवाशुभाध्यवसायेनाशुभ-|| | तरकर्मबन्धनेन महानरकेषूत्पादात् , असज्ञिभूतास्त्वनुभूतपूर्वासज्ञिभवाः, ते चासज्ञित्वादेवात्यन्ताशुभाध्यवसायाभावा १सायभावात् ३० दीप 5554555 अनुक्रम [२७-२८] REmiratin ~97~ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत रादिसू सूत्रांक [२१] व्याख्या- 15 दलप्रभायामनतितीनवेदननरकेपूत्पादादल्पवेदनाः, अथवा 'सज्ञिभूताः' पर्याप्तकीभूताः, असज्ञिनस्तु-अपर्याप्तकाः,॥४९ शतके प्रज्ञप्तिः ते च क्रमेण महावेदना इतरे च भवन्तीति प्रतीयत एवेति ॥ 'समकिरिय'त्ति, समा:-तुल्याः क्रिया:-कर्मनिवन्धन- उद्देशः२ अभयदेवी-IA|| भूता आरम्भिक्यादिका येषां ते समक्रियाः, 'आरंभिय'त्ति आरम्भः-पृथिव्याधुपमर्दः स प्रयोजनं-कारणं यस्याः || समशरीया वृत्तःशासाsरम्भिकी १, परिग्गहियत्ति, परिग्रहो-धर्मोपकरणवर्जवस्तुस्वीकारो धर्मोपकरणमूर्छा च स प्रयोजनं यस्याः || ॥४२॥ सा पारिग्रहिकी २, 'मायावत्तियत्ति, माया-अनार्जवं उपलक्षणत्वात्क्रोधादिरपि च सा प्रत्ययः-कारणं यस्याः सा मायाप्रत्यया ३, 'अप्पचक्खाणकिरिय'त्ति अप्रत्याख्यानेन-निवृत्त्यभावेन क्रिया-कर्मबन्धादिकरणमप्रत्याख्यानकि||5येति ४ 'पंच किरियाओ कजति'ति क्रियन्ते, कर्मकर्तरि प्रयोगोऽयं तेन भवन्तीत्यर्थः, 'मिच्छादसणवत्तिय'त्ति || मिथ्यादर्शनं प्रत्ययो-हेतुर्यस्याः सा मिथ्यादर्शनप्रत्यया, ननु मिथ्यात्वाविरतिकपाययोगाः कर्मवन्धहेतव इति प्रसिद्धिः इह तु आरम्भादयस्तेऽभिहिता इति कथं न विरोधः !, उच्यते, आरम्भपरिग्रहशब्दाभ्यां योगपरिग्रहो, योगानां तद् पत्वात्, शेषपदैस्तु शेषवन्धहेतुपरिग्रहः प्रतीयत एवेति, तत्र सम्यग्दृष्टीनां चतन एव, मिथ्यात्वाभावात्, शेषाणां दतु पश्चापि, सम्यग्मिथ्यात्वस्य मिथ्यात्वेनैवेह विवक्षितत्वादिति ॥ 'सब्वे समाउया'इत्यादिप्रश्नस्य निर्वचनचतुर्भङ्गया है। |भावना क्रियते, निचद्धदशवर्षसहस्रप्रमाणायुपो युगपञ्चोपन्ना इति प्रथमभङ्गः १, तेष्वेव दशवर्षसहस्त्रस्थितिषु नरकेध्वेके प्रथमतरमुत्पना अपरे तु पश्चादिति द्वितीयः, अन्यैर्विषममायुर्निबद्धं कैश्चिदशवर्षसहस्रस्थितिषु केश्चिच पश्चदश- Dil॥४२॥ वर्षसहस्रस्थितिषु उत्पत्तिः पुनर्युगपदिति तृतीयः ३, केचित्सागरोपमस्थितयः केचित्तु दशवर्षसहनस्थितय इत्येवं विषमा S गाथा दीप अनुक्रम [२७-२८] OCRACROSex ~98~ Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक 5445 [२१] गाथा युषो विषममेव चोत्पन्ना इति चतुर्थः ४, इह सनहगाथा-"आहाराईसु समा कम्मे वन्ने तहेव लेसाए । बियणाए किरि-|| याए आउयउववत्तिचउभंगी ॥१॥" 'असुरकुमारा णं भंते 'इत्यादिनाऽसुरकुमारप्रकरणमाहारादिपदनवकोपेतं सूचितं, तच्च नारकपकरणवन्नेयम्, एतदेवाह-'जहा नेरइया इत्यादि, तत्राहारकसूत्रे नारकसूत्रसमानेऽपि भावना विशेषेण लिख्यते-असुरकुमाराणामल्पशरीरत्वं भवधारणीयशरीरापेक्षया जघन्यतोऽङ्गलासक्येयभागमानत्वं, महा|शरीरत्वं तूरकर्षतः सप्तहस्तप्रमाणत्वम् , उत्तरवैक्रियापेक्षया स्वल्पशरीरत्वं जघन्यतोऽङ्गुलसोयभागमानत्वं महाशरी-16 रत्वं तूरकर्षतो योजनलक्षमानमिति, तत्रैते महाशरीरा बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्ति, मनोभक्षणलक्षणाहारापेक्षया, देवानां । ह्यसौ स्यात् प्रधानश्च, प्रधानापेक्षया च शास्त्रे निर्देशो वस्तूनां विधीयते, ततोऽल्पशरीरमाह्याहारपुद्गलापेक्षया बहुतरांस्ते तानाहारयन्तीत्यादि प्राग्वत् , अभीक्षणमाहारयन्ति अभीक्ष्णमुच्छ्रसन्ति च इत्यत्र ये चतुर्थादेरुपर्याहारयन्ति स्तोकसप्तकादेचोपर्युच्छ्सन्ति तानाश्रित्याभीक्ष्णमित्युच्यते, उत्कर्षतो ये सातिरेकवर्षसहस्रस्योपरि आहारयन्ति सातिरेकपक्षस्य चोपर्युच्छस-12 न्ति तानङ्गीकृत्य एतेषामल्पकालीनाहारोच्चासत्वेन पुनः पुनराहारयन्तीत्यादिव्यपदेशविषयत्वादिति, तथाऽल्पशरीरा अल्प-18 तरान पुद्गलानाहारयन्ति उच्सन्ति च अल्पशरीरत्वादेव, यत्पुनस्तेषां कादाचित्कत्वमाहारोच्यासयोस्तन्महाशरीराहारोच्चासान्तरालापेक्षया बहुतमान्तरालस्वात् , तत्र हि अन्तराले ते नाहारादि कुर्वन्ति तदन्यत्र कुर्वन्तीत्येवं विवक्षणादिति, महाशरीराणामप्याहारोच्हासयोरन्तरालमस्ति किन्तु तदल्पमित्यविवक्षणादेवाभीक्ष्णमित्युक्त, सिद्धं च महाशरीराण १ आहारादिषु समाः कर्मणि वर्णे तथैव लेश्यायाम् । वेदनायां क्रियायामायुरुपपत्तिचतुर्भनी ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [२७-२८] ~99~ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] गाथा व्याख्या तेषामाहारोच्यासयोरल्पान्तरत्वम् अल्पशरीराणां तु महान्तरत्वं, यथा सौधर्मदेवानां सप्तहस्तमानतया महाशरीराणां १ शतके प्रज्ञप्तिः तयोरन्तरं क्रमेण वर्षसहस्रद्वयं पक्षद्वयं च, अनुत्तरसुराणां च हस्तमानतया अल्पशरीराणां त्रयस्त्रिंशद्वर्षसहस्राणि प्रय- उद्देशक २ अभयदेवी- खिंशदेव च पक्षा इति, एषां च महाशरीराणामभीक्ष्णाहारोच्यासाभिधानेनाल्पस्थितिकत्वमवसीयते, इतरेषां तु विपयेयो पैमानिकवदेवेति, अथवा लोमाहारापेक्षयाऽभीक्ष्णम्-अनुसमयमाहारयन्ति महाशरीराः पर्याप्तकावस्थायाम, उच्छा-S * समायुष्क MS सस्तु यथोक्तमानेनापि भवन परिपूर्णभवापेक्षया पुनः पुनरित्युच्यते, अपयोप्तकावस्थायां स्वल्पशरीरा लोमाहारतो नाहा- ॥४३॥ १ है रयन्ति ओजाहारत एवाहरणात् इति कदाचित्ते आहारयन्तीत्युच्यते, उच्छासापर्याप्तकावस्थायां च नोच्छ्रसन्त्यन्यदा तूच्छ्रसन्तीत्युच्यते आहत्योच्छ्रसन्तीति । 'कम्मवन्न लेस्साओ परिवन्नेयवाओ'त्ति कमादीनि नारकापेक्षया विपर्ययेण याच्यानि, तथाहि-नारका ये पूर्वोत्पन्नास्तेऽल्पकर्मकशुद्धतरवर्णशुभतरलेश्या उक्काः असुरास्तु ये पूर्वोत्पन्नास्ते महा-17 कर्माणोऽशुद्धवर्णा अशुभतरलेश्याश्चेति, कथम् , ये हि पूर्वोत्पन्ना असुरास्तेऽतिकन्दर्पदध्मातचित्तत्वान्नारकाननेकप्रकारया यातनया यातयन्तः प्रभूतमशुभं कर्म संचिन्वन्तीत्यतोऽभिधीयन्ते ते महाकर्माणः, अथवा ये बद्धायुपस्ते तिर्य४ गादिप्रावोग्यकर्मप्रकृतिबन्धनान्महाकाणः तथाऽशुभवर्णा अशुभलेश्याश्च ते, पूर्वोत्पन्नानां हि क्षीणत्वात् शुभकर्मणः । xi॥४३॥ शुभवर्णोदय:-शुभो वर्णो लेश्या च हसतीति, पश्चादुत्पन्नास्त्वबद्धायुषोऽल्पकर्माणो बहुतरकर्मणामवन्धनादशुभकर्मणा-||5|| मक्षीणत्याच शुभवर्णादयः स्युरिति ॥ वेदनासूत्रं च यद्यपि नारकाणामिवासुरकुमाराणामपि तथाऽपि तद्भावनायां || विशेषः, स चायम्-ये सज्ञिभूतास्ते महावेदनाः, चारित्रविराधनाजन्यचित्तसन्तापात्, अथवा सब्जिभूताः सज्ञिपू दीप अनुक्रम [२७-२८] ~100~ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] गाथा भवाः पर्याप्ता वा ते शुभवेदनामाश्रित्य महावेदना इतरे त्वल्पवेदना इति । एवं नागकुमारादयोऽपि ९ औचित्येन |वाच्याः।। 'पुढविकाइया णं भंते । आहारकम्मवन्नलेस्सा जहा नेरइयाणति चत्वार्यपि सूत्राणि नारकसूत्राणीव मा पृथिवीकायिकाभिलापेनाधीयन्त इत्यर्थः, केवलमाहारसूत्रे भावनैवं-पृथिवीकायिकानामङ्गलासमयेयभागमात्रशरीरत्वे ऽप्यल्पशरीरत्वम् इतरचेत आगमवचनादवसेयम् 'पुढविकाइयस्स ओगाहणठ्याए चउहाणवडिए'त्ति, ते च महाशरीरा दालोमाहारतो बहुतरान् पुद्गलानाहारयन्तीति(न्ति) उच्छसन्ति च अभीक्ष्ण महाशरीरत्वादेव,अल्पशरीराणामल्पाहारोच्छ्रासत्वमल्पशरीरत्वादेव, कादाचित्कत्वं च तयोः पर्याप्तकेतरावस्थापेक्षमवसेयम् । तथा कर्मादिसूत्रेषु पूर्वपश्चादुत्पन्नानां पृथिवीकायिकानां कर्मवर्णलेश्याविभागो नारकैः सम एव,वेदनाक्रिययोस्तु नानात्वमत एवाह-'असन्नित्ति मिथ्यादृष्टयोऽमनस्का वा 'असनिभूयति असज्ञिभूता असज्ञिना या जायते तामित्यर्थः, एतदेव व्यनक्ति-अणिदाए'त्ति अनिर्धारणया मवेदनां वेदयन्ति, वेदनामनुभवन्तोऽपि न पूर्वोपाचाशुभकर्मपरिणतिरियमिति मिथ्याष्टित्वादवगच्छन्ति, विमनस्कत्वाद्वा मत्तमूञ्छितादिवदिति भावना। 'माईमिच्छादिहि'त्ति मायावन्तो हि तेषु प्रायेणोत्पद्यन्ते, यदाह-"उम्मग्गदेसओ मग्गणासओ गूढहियय माइलो । सहसीलो य ससल्लो तिरियाउंबंधए जीवो ॥१॥"त्ति, ततस्ते मायिन उच्यन्ते, अथवा मायेहानन्तानुबन्धिकषायोपलक्षणम् अतोऽनन्तानुवन्धिकपायोदयवन्तोऽत एव मिथ्यादृष्टयो-मिथ्यात्वोदयवृत्तय इति । 'ताणं १पृथ्वीकायिका पृथ्वीकायिकस शरीरापेक्षया चतु:स्थानपतितः ( अनन्तभागानन्तगुणवर्षे ) ॥२ उन्मार्गदेशको मार्गनाशको गूढहृदयो मायावी । शठस्वभावः सशल्यश्च जीवस्तिर्यगायुध्नाति ॥ १॥ दीप अनुक्रम [२७-२८] ~101~ Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] गाथा व्याख्या-माणियहयाओ'त्ति तेषां पृथिवीकायिकानां नैयत्तिक्यो-नियता न तु त्रिप्रभृतय इति, पञ्चवेत्यर्थः, 'से तेणढणं समकि- १ शतके प्रज्ञप्तिः ४ रियत्ति निगमनं, 'जाव चरिंदिय'त्ति, इह महाशरीरत्वमितरच स्वस्वावगाहनाऽनुसारेणावसेयम्, आहारश्च द्वीन्द्रि- उद्देशः २ अभयदेवी- यादीनां प्रक्षेपलक्षणोऽपीति । 'पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइय'त्ति प्रतीतं, नवरमिह महाशरीरा अभीक्ष्ण-13/16 लेश्याविचा या वृत्तिः माहारयन्ति उच्छ्सन्ति चेति यदुच्यते तत्सङ्ग्यातवर्षायुषोऽपेक्ष्येत्यवसेयं, तथैव दर्शनात् , नासङ्ख्यातवर्षायुषः, तेषां व रसू २१ प्रक्षेपाहारस्य षष्ठस्योपरि प्रतिपादितत्वात् , अल्पशरीराणां त्वाहारोच्छासयोः कादाचिकत्वं वचनप्रामाण्यादिति, लोमा-2 ॥४४॥ * हारापेक्षया तु सर्वेषामप्यभीक्ष्णमिति घटत एव, अल्पशरीराणां तु यत्कादाचित्करवं तदपर्याप्तकत्वे लोमाहारोच्यासयो-16 भरभवनेन पर्याप्तकत्वे च. तद्भावेनावसेयमिति ॥ तथा कर्मसूत्रे यत्पूर्वोत्पन्नानामल्पकर्मत्वमितरेषां तु महाकर्मत्वं तदायु कादितद्भववेद्यकर्मापेक्षयाऽवसेयम् ॥ तथा वर्णलेश्यासूत्रयोर्यत्पूर्वोत्पन्नानां शुभवर्णायुक्तं तत्तारुण्यात् पश्चादुत्पन्नानां | चाशुभवर्णादि बाल्यादवसेय, लोके तथैव दर्शनादिति । तथा 'संजयासंजय'त्ति देशविरताः स्थूलात् प्राणातिपाता-18 Follदेर्निवृत्तवादितरस्मादनिवृत्तत्वाच्चेति । 'मणुस्सा जहा नेरइय'त्ति तथा वाच्या इति गम्यं, 'नाणत्तंति नानात्वं भेदः | पुनरयं, तत्र 'मणुस्सा णं भंते ! सवे समाहारगा ? इत्यादि प्रश्नः, 'नो इणडे समडे' इत्यायुत्तरं 'जाव दुविहा मणुस्सा ॥४४॥ पन्नत्ता, तंजहा-महासरीरा य अप्पसरीरा य, तत्थ णं जे ते महासरीरा ते बहुतराए पोग्गले आहारैति, एवं 'परिणामेति ऊससंति नीससंति' ॥ इह स्थाने नारकसूत्रे 'अभिक्खणं आहारती'त्यधीतम्, इह तु 'आह'त्यधीयते, महाशरीरा हि देवकुर्बादिमिथुनकाः, ते च कदाचिदेवाहारयन्ति कावलिकाहारेण, 'अहमभत्तस्स आहारो'सि दीप अनुक्रम [२७-२८] ~102 Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्राक [२१] RECAUSACROREOGRESS गाथा वचनात् , अल्पशरीरास्त्वभीषणमल्प च, बालानां तथैव दर्शनात् संमूच्छिममनुष्याणामल्पशरीराणामनवरतमाहारसम्भवाच्च, यच्चेह पूर्वोत्पन्नाना शुद्धवर्णादि तत्तारुण्यात् संमूच्छिमापेक्षया वेति । 'सरागसंजय'त्ति अक्षीणानुपशान्तकषायाः 'वीयरागसंजय'त्ति उपशान्तकषायाः क्षीणकषायाश्च, 'अकिरिय'त्ति वीतरागत्वेनारम्भादीनामभावाद क्रियाः, 'एगा मायावत्तियत्ति अप्रमत्तसंयतानामेकैव मायाप्रत्यया 'किरिया कजईत्ति क्रियते-भवति कदाचिदुडाहरक्षणप्रवृत्तानामक्षीणकषायत्त्वादिति, 'आरंभिय'त्ति प्रमत्तसंयतानां च 'सर्वः प्रमत्तयोग आरम्भ इतिकृत्वाऽऽरम्भिकी स्यात्, अक्षीणकषायत्वाच्च मायाप्रत्ययेति । 'वाणमंतरजोइसवेमाणिया जहा असुरकुमार'त्ति, तत्र शरीरस्थाल्पत्वमहत्त्वे स्वावगाहनानुसारेणावसेये । तथा वेदनायामसुरकुमाराः 'सन्निभूया य असन्निभूया य, सन्निभूया महावेयणा असन्निभूया | अप्पवेयणा' इत्येवमधीताः, व्यन्तरा अपि तथैवाध्येतव्याः, यतोऽसुरादिषु व्यन्तरान्तेषु देवेषु असजिन उत्पद्यन्ते, यतोऽत्रैवोद्देशके वक्ष्यति-'असन्नीणं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं वाणमंतरसुत्ति, ते चासुरकुमारप्रकरणोक्तयुक्तरल्पवेदना भव|न्तीत्यवसेयं, यत्तु प्रागुक्त सम्झिनः सम्यग्दृष्टयोऽसज्ञिनस्त्वितरे इति तद्बद्धव्याख्यानुसारेणैवेति,ज्योतिष्कवैमानिकेषु त्वस-४ जिनो नोत्पद्यन्तेऽतो वेदनापदे तेष्वधीयते 'दुविहा जोतिसिया-मायिमिच्छदिवी उववन्नगा ये त्यादि,तत्र माथिमिथ्यादृष्टयो|अल्पवेदना इतरे च महावेदनाः शुभवेदनामाश्नित्येति, एतदेव दर्शयन्नाह-नवरं 'वेयणाए'इत्यादि ॥अथ चतुर्विंशतिदण्डक-II मेव लेश्याभेदविशेषणमाहारादिपदैनिरूपयन दण्डकसप्तकमाह-'सलेस्साणं भंते !नेरइया सव्वे समाहारगत्ति अनेना-18 हारशरीरोच्छासकर्मवर्णलेश्यावेदनाकियोपपाताख्यपूर्वोकनवपदोपेतनारकादिचतुवशतिपददण्डको लेश्यापदविशेषितः दीप अनुक्रम [२७-२८] For P OW anirwastaram.org ~103~ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: C प्रत सुत्राक गाथा व्याख्या- सूचितः, तदन्ये च कृष्णलेश्यादिविशेषिताः। पूर्वोक्तनवपदोपेता एव यथासम्भवं नारकादिपदात्मकाः षड् दण्डकाः सूचि- १ शतके प्रज्ञप्तिःताः । तदेवमेतेषां सप्तानां दण्डकानां सूत्रसोपार्थ यो यथाऽध्येतब्यस्तं तथा दर्शयन्नाह-ओहियाण'मित्यादि, तत्राधिकानां | उद्देशः २ अभयदा पूर्वोक्तानां निर्विशेषणानां नारकादीनां तथा सलेश्यानामधिकृतानामेव शुक्ललेश्यानां तु सप्तमदण्डकवाच्यानामेषां त्रया- लेश्यास्वाया वृत्तिः पाणामेको गमः-सदृशः पाठः, सलेश्यः शुक्ललेश्यश्चेत्येवंविधविशेषणकृत एव तत्र भेदः, औधिकदण्डकसूत्रवदनयोः सूत्र- । 1 हारादिसा हा ॥४५॥ समिति हृदयं, तथा 'जस्सत्थि' इत्येतस्य वक्ष्यमाणपदस्येह सम्बन्धाद्यस्य शुक्ललेश्याऽस्ति स एव तद्दण्डकेऽध्येतव्यः || म्यादिवि 1४चारः सू२१ तेनेह पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्या वैमानिकाश्च वाच्याः, नारकादीनां शुक्लेश्याया अभावादिति, "किण्हलेसनीललेसाणंपि जाएगो गमों' औषिक एवेत्यर्थः, विशेषमाह-'नवरं वेयणा'इत्यादि, कृष्णलेश्यादण्डके नीलले श्यादण्डके च पेदनासूत्रे ||31 PI“तुविहा रश्या पत्नत्ता-समिभूया य असन्निभूया य'त्ति औधिकदण्डकाधीतं नाध्येतव्यम् , असज्ञिनां प्रथमपृथिव्यामेषो त्पादात्, 'असण्णी खलु पढम'मिति वचनात् , प्रथमायां च कृष्णनीललेश्ययोरभावात, तर्हि किमध्येतव्यमित्याह&ा'माथिमिच्छादिहिउववनगा येत्यादि, तत्र मायिनो मिथ्यादृष्टयश्च महावेदना भवन्ति, यतः प्रकर्षपर्यन्तवर्सिनी स्थि तिमशुभां ते निवर्तयन्ति, प्रकृष्टायां च तस्यां महती वेदना संभवति, इतरेषां तु विपरीतेति । तथा मनुष्यपदे क्रिया-1 || सूत्रे यद्ययीपिकदण्डके 'तिविहा मणुस्सा पन्नत्ता, तंजहा-संजया ३, तत्थ ण जे ते संजया ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-1 IDIIN४५॥ तसरागसंजया य वीयरागसंजया य, तत्थ णं जे ते सरागसंजया ते दुविहा पत्नत्ता, तंजहा-पमत्तसंजया य अप्पमत्तसं १ असंज्ञी खल्लु प्रथमायां । दीप अनुक्रम [२७-२८] ~ 104~ Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५) अंगसूत्र- [०५] "भगवती"मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * प्रत सूत्राक [२१] गाथा 5545454%A5% |जया यति पठितं, तथाऽपि कृष्णनीललेश्यादण्डकयो ध्येतव्यं, कृष्णनीललेश्योदये संयमस्य निषिद्धत्वात् , यचोच्यते 'पुषपडिवन्नओ पुण अन्नयरीए उ लेस्साए'त्ति तत्कृष्णादिद्रव्यरूपां द्रव्यलेश्यामङ्गीकृत्य न तु कृष्णादिद्रव्यसाचिन्यजनितात्मपरिणामरूपां भावलेश्याम्, एतच प्रागुक्तमिति, एतदेव दर्शयन्नाह-'मणुस्से'त्यादि, तथा कापोतलेश्यादण्डकोऽपि नीलादिलेश्यादण्डकवदध्येतव्यो, नवरं नारकपदे वेदनासूत्रे नारका औधिकदण्डकवदेव वाच्याः, ते चैवम्-'नेरइया दुविहा पन्नत्ता,तंजहा-सन्निभूया य असन्निभूया यत्ति,असज्ञिनां प्रथमपृथिव्युत्पादेन कापोतलेश्यासम्भवादत आह-'काउलेस्साजाणवी'त्यादि । तथा तेजोलेश्या पद्मलेश्या च यस्य जीवविशेषस्यास्ति तमाश्रित्य यथोषिको दण्डकस्तथा तयोर्दण्डको भणितव्यो, तदस्तिता चैवम्-नारकाणां विकलेन्द्रियाणां तेजोवायूनां चाद्यास्तिन एव, भवनपतिपृथिव्यम्बुवनस्पतिव्यन्तराणामाद्याश्चतस्रः, पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्याणां पड़, ज्योतिषां तेजोलेश्या, वैमानिकानां तिम्रः प्रशस्ता इति, आह | च-"किण्हानीलाकाऊतेउलेसा य भवणवंतरिया । जोइससोहम्मीसाण तेउलेसा मुणेयवा ॥१॥ कप्पे सणंकुमारे माहिंदे चेव भलोगे य । एएसु पम्हलेसा तेण परं सुक्कलेस्सा उ ॥२॥" तथा-"पुढबीआउवणस्सइबायरपत्तेय लेस | चत्वारि [ तेजोलेश्यान्ताः ] गम्भयतिरियनरेसु छल्लेसा तिनि सेसाणं ॥३॥" केवलमौधिकदण्डके क्रियासूत्रे मनुष्याः १ भवनव्यन्तराः कृष्णनीलकापोततेजोलेश्याः, ज्योतिष्कसौधर्मशानास्तेजोलेश्या ज्ञातव्याः ॥१॥ सनत्कुमारे कल्पे माहेन्द्रे ब्रह्मलोके | चैव । एतेषु पालेश्या ततः परं शुक्लेश्यैव ॥२॥ पृथिव्यब्बनस्पतिबादरप्रत्येकानां चतसो लेश्याः (तेजोऽन्ताः) । गर्भजतिर्यइनराणां का षडू लेश्याः शेषाणां तिसः ॥३॥ दीप अनुक्रम [२७-२८] Indurary.org ~105 Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्राक गाथा व्याख्या-13 सरागवीतरागविशेषणा अधीताः इह तु तथा न वाच्याः, तेजःपद्मलेश्ययोर्वीतरागत्वासम्भवात् शुक्ललेश्यायामेव तत्स १ शतके प्रज्ञप्तिमा म्भवात् , प्रमत्ताप्रमत्तास्तूच्यन्त इति, एतदेव दर्शयन्नाह-'तेउलेसा पम्हलेसे त्यादि । 'गाह'त्ति, उद्देशकादितः सूत्रा उद्देशः २ अभयदेवी सनाहगाथा गतार्थाऽपि सुखबोधार्थमुच्यते-दुःखमायुश्चोदीर्ण वेदयतीत्येकत्वबहुत्वाभ्यां दण्डकचतुष्टयमुक्त, तथा लेश्याधिया वृत्तिः ला'आहारे'त्ति नेरइया किं समाहारा ?' इत्यादि, तथा 'किं समकम्मा ?' तथा 'किं समवन्ना?' तथा 'किं समलेसा तथा कारःसू२२ ॥४६॥ 'कि समवेयणा' तथा 'किं समकिरिया ?' तथा 'किं समाउया समोववन्नग'त्ति गाधार्थः । प्राकू सलेश्या नारका इत्यु-दू तमथलेश्या निरूपयन्नाह| कइ णं भंते । लेस्साओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! छल्लेस्साओ पन्नत्ता, तंजहा-लेसाणं धीयओ उद्देसओ भाणियन्वो जाव इही ।। (सू० २२॥ तत्रात्मनि कर्मपुद्गलानां लेशनात्-संश्लेषणालश्या, योगपरिणामश्चैताः, योगनिरोपे लेश्यानामभावात् , योगश्च शरीहरनामकर्मपरिणतिविशेषः, 'लेस्साणं धीओ उद्देसओ'त्ति प्रज्ञापनायां लेश्यापदस्य चतुरुद्देशकस्येह द्वितीयोदेशको लेश्यास्वरूपावगमाय भणितव्यः, प्रथम इति कचिदृश्यते सोऽपपाठ इति । अथ कियडूरं यावदित्याह-जाव इही' ऋद्धि-||४|| वक्तव्यतां यावत् , स चायं सोपतः-'करणं भंते। लेसाओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! छलेसाओ पन्नत्ताओ, तंजहा- ॥४६॥ कण्हलेसा ६, एवं सर्वत्र प्रश्न उत्तरं च वाच्यं, 'नेरइयाणं तिन्नि कण्हलेस्सा ३, तिरिक्खजोणियाणं ६, एगिदियाणं ४, पुढविआउवणस्सईणं ४, तेउवाउबेइंदियतेइंदियचउरिंदियाण ३, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं ६' इत्यादि बहु वाच्यं 18 दीप अनुक्रम [२७-२८] ~106~ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२] श्रीप यावत् 'एएसि णं भंते ! जीवाणं कण्हलेस्साणं जाव सुकलेस्साणं कयरेरहिंतो अप्पहिया वा महहिया वा १, गोयमा ! ॥ कण्हलेस्सहिंतो नीललेसा महड्डिया, नीललेसेहितो कावोयलेसे त्यादि ॥ अथ पशवः पशुत्वमश्नुवते इत्यादिवचनविप्रलम्भाद् यो मन्यतेऽनादावपि भवे एकधैव जीवस्यावस्थानमिति तद्वोधनार्थ प्रश्नयन्नाह जीवस्स भंते ! तीतहाए आदिवस्स कइविहे संसारसंचिट्ठणकाले पण्णते?, गोंयमा! चउबिहे संसार-16 संचिट्ठणकाले पण्णत्ते, तंजहा-णेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले तिरिक्ख० मणुस्स० देवसंसारसंचिट्ठणकाले य? पण्णत्ते॥नेरइयसंसारसंचिट्ठणकाले ण भंते ! कतिविहे पण्णते?,गोयमा! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुन्नकाले | असुन्नकाले मिस्सकाले ॥ तिरिक्खजोणियसंसार पुच्छा, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-असुन्नकाले य मिस्सकाले य, मणुस्साण य देवाण य जहा नेरइयाणं ॥ एयरस णं भंते ! नेरइयसंसारसंचिट्ठणकालस्स सुन्नकालस्स असुन्नकालस्स मीसकालस्स य कयरेशहिंतो अप्पा वा पहुए वा तुले वा विसेसाहिए वा ?, गोयमा! सब्ध असुन्नकाले मिस्सकाले अणंतगुणे सुन्नका० अणं० गुणे॥ तिरि० जो० भंते ! सब्ब० असुन्नकाले मिस्सकाले अर्णतगुणे, मणुस्सदेवाण य जहा नेरइयाणं ॥ एयस्स भंते ! नेरइयरस संसारसंचिट्ठणकालस्स जाव देवसंसारसंचिट्ठणजावविसेसाहिए वा?, गोयमा ! सब्बत्थोवे मणुस्ससंसारसंचिठ्ठणकाले, नरइयसंसारसंचिहणकाले असंखेजगुणे, देवसंसारसंचिढणकाले असंखेजगुणे, तिरिक्खजोणिए अणंतगुणे ॥ (सू०२३) अनुक्रम [२९] ~107~ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३] पीप व्याख्या- 'जीवस्स ण'मित्यादि ब्यक्त, नवरं किंविधस्य जीवस्य ? इत्याह-'आदिष्टस्य' अमुष्य नारकादेरित्येवं विशेषितस्य १ शतके प्रज्ञप्तिः 'तीतद्धाए'त्ति अनादावतीते काले 'कतिविधः' उपाधिभेदात्कतिभेदः संसारस्य-भवानवान्तरे संचरणलक्षणस्य संस्था- उद्देशः २ अभयदेवी- नम्-अवस्थितिक्रिया तस्य काल:-अवसरः संसारसंस्थानकालः, अमुष्य जीवस्यातीतकाले कस्यां कस्यां गताक्वस्थान- संसारावया वृत्तिः मासीत् । इत्यर्थः, अनोत्तर-चतुर्विध उपाधिभेदादिति भावः, तत्र नारकभवानुगसंसारावस्थानकालखिधा-शून्यका-| स्थानं सू२३ लोऽशून्यकालो मिश्रकालश्चेति, तिरवां शून्यकालो नास्तीति तेषां द्विविधा, मनुष्यदेवानां त्रिविधोऽप्यस्ति, आह च"सुन्नासुन्नो मीसो तिविहो संसारचिट्ठणाकालो । तिरियाण सुन्नवजो सेसाणं होइ तिविहोवि ॥१॥" तत्राशून्यकाल|स्तावदुच्यते, अशून्यकालस्वरूपपरिज्ञाने हि सतीतरौ सुज्ञानौ भविष्यत इति, तत्र वर्तमानकाले सप्तसु पृथिवीषु ये | नारका वर्तन्ते तेषां मध्याद्यावन्न कश्चिदुर्भते न चान्य उत्पद्यते तावन्मात्रा एवं ते आसते स कालस्तानारकानङ्गीकृत्या-1 शून्य इति भण्यते, आह च-"आइसमझ्याण नेरइयाणं न जाव एकोवि । उबट्टा अन्नो वा उववजइ सो असुन्नो उ 2॥१॥" मिश्रकालस्तु तेषामेव नारकाणां मध्यादेकादय उद्धृत्ताः याबदेकोऽपि शेषस्तावन्मिश्रकालः, शून्यकालस्तु यदा | त एवादिष्टसामयिका नारकाः सामस्त्येनोद्वृत्ता भवन्ति नैकोऽपि तेषां शेषोऽस्ति स शून्यकाल. इति, आह च-बट्टे । | १ शून्योऽशून्यो मिश्रविविधः संसारस्थानकालः । तिरश्वा शून्यवयः शेषाणां गबति त्रिविधोऽपि ॥१॥२ आदिष्टसामयिकानां नैर-| विकाणां यावदेकोऽपि नोदते अन्यो बोत्पद्यते सोऽशून्य एव ॥ १॥ ३-एकस्मिन्नप्युद्वचे यावदेकोऽपि तिष्ठति ठाबन्मिनः । वर्चमानेषु । 18 सेंबैधु निलंपितेषु शून्यस्तु ॥ १॥ SCS-4560 अनुक्रम [३०] SAREaratunintimational ~108~ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत ४ा एकमिवि ता मीसो धरइ जाव एकोवि । निल्लेविएहिं सबेहिं वट्टमाणेहिं सुन्नो उ ॥१॥" इदं च मिश्रनारकसंसाराव स्थानकालचिन्तासूत्रं न तमेव वार्तमानिकनारकभवमङ्गीकृत्य प्रवृत्तम् , अपि तु वार्त्तमानिकनारकजीवानां गत्यन्तरग|मने तत्रैवोत्पत्तिमाश्रित्य, यदि पुनस्तमेव नारकभवमङ्गीकृत्येदं सूत्र स्यात्तदाऽशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणता सूत्रोक्ता न स्यात् , आह च-"एयं पुण ते जीवे पडुच्च सुत्तं न तब्भवं चेव । जइ होज तब्भवं तो अनन्तकालो ण ४ संभवइ ॥१॥" कस्मात् ? इति चेद् उच्यते, ये वार्तमानिका नारकास्ते स्वायुष्ककालस्यान्ते उद्वर्तन्ते, असङ्ख्यातमेव 31 &च तदायुः, अत उत्कर्षतो द्वादशमीहुर्तिकाशून्यकालापेक्षया मिश्रकालस्यानन्तगुणत्वाभावप्रसङ्गादिति, आह च "किं. कारणमाइडा नेरइया जे इमम्मि समयम्मि । ते ठिइकालस्संते जम्हा सबे खबिजति ॥१॥" इति । 'सब्वत्थोचे असुन्नकाले'त्ति नारकाणामुत्पादोद्वर्तनाविरहकालस्योत्कर्षतोऽपि द्वादशमुहूर्तप्रमाणत्वात् , 'मीसकाले अर्णतगुणे'त्ति | मिश्राख्यो विवक्षितनारकजीवनिर्लेपनाकालोऽशून्यकालापेक्षयाऽनन्तगुणो भवति, यतोऽसौ नारकेतरेष्वागमनगमनकालः, स च त्रसवनस्पत्यादिस्थितिकालमिश्रितः सन्ननन्तगुणो भवति, त्रसवनस्पत्यादिगमनागमनानामनन्तत्वात् , स च नार अनुक्रम [३०] ४ १-एतत्सूत्रं पुनस्तान् जीवान् प्रतीत्य, नैव तद्भवं, यदि तवं प्रतीत्य भवेत्तदाऽनन्तकालो न संभवति ( असञ्जयातसमयस्थितिकालात् )॥१॥२-कि कारणमसम्मवे ? अस्मिन् समये ये नैरयिका आदिष्टाः स्थितिकालस्यान्ते ते सर्वे यस्मादुर्तिष्यन्ते ॥१॥ RELIGunintentiational ~109~ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ब Ke सू२३ कनिलेपनाकालो वनस्पतिकायस्थितेरनन्तभागे वर्तत इति, उक्तं च-"धोवो असुन्नकालो सो उकोसेण बारसमुहत्तो । 8/१ शतके प्रज्ञप्तिः ॥ तत्तो य अणंतगुणो मीसो निल्लेवणाकालो ॥१॥ आगमणगमणकालो तसाइतरुमीसिओ अणंतगुणो । अह निल्लेवण- उद्देशः२ अभयदेवी कालो अणतभागे वणद्धाए ॥२॥"त्ति । 'सुन्नकाले अणंतगुणे'त्ति सर्वेषां विवक्षितनारकजीवानां प्रायो वनस्पति-या संसाराव या वृत्तिः१|| प्वनन्तानन्तकालमवस्थानात्, एतदेव वनस्पतिष्वनन्तानन्तकालावस्थानं जीवानां नारकभवान्तरकाल उत्कृष्टो देशितः|3|| . स्थाने शुन्याशून्य ॥४८॥ x |समय इति, उर्फ प-"सुन्नो य अर्णतगुणो सो पुण पाय वणस्सइगयाणं । एवं चेव य नारयभवंतरं देसियं जेई ॥१॥" ति । 'तिरिक्खजोणियाणं सम्वत्थोवे असुन्नकाले'त्ति, स चान्तर्मुहर्तमात्रः, अयं च यद्यपि सामान्येन तिरश्चामुक्त8| स्तथाऽपि विकलेन्द्रियसंमूच्छिमानामेवाबसेयः, तेषामेवान्तर्मुहर्तमानस्य विरहकालस्योक्तस्वात्, यदाह-"भिन्नमुहुत्तो || विगलिंदिपसु सम्मुच्छिमेसुवि स एव" एकेन्द्रियाणां तदर्तनोपपातविरहाभावेनाशून्यकालाभाव एव, आह च-"एगो || असंखभागो बट्टा उबट्टणोवधायंमि । एगनिगोए निचं एवं सेसेसुवि स एवं ॥१॥" पृथिव्यादिषु पुनः 'अणुसमयम|संखेज'त्ति वचनाद्विरहाभाव इति, 'मिस्सकाले अणतगुणे'त्ति नारकवत् , शून्यकालस्तु तिरश्चां नास्त्येव, यतो वाचे १-अशून्यकालः स्तोकः स उत्कृष्टेन द्वादशमुहूर्तः । ततश्चानन्तगुणो मिश्रो निलेपनाकालः ॥१॥ आगमनगमनकालखसादितरुमिश्रि-5॥४८॥ तोऽनन्तगुणः । अथ च निर्लेपनकालोऽनन्तभागे बनकालस्य ॥२॥२-शून्यश्चानन्तगुणः स पुनः प्रायो वनस्पतिगतानाम् । एतदेव चोत्कृष्ट नारकभवान्तरं दर्शितं ज्येष्ठम् ( अस्ति) ॥३-विकलेन्द्रियेषु मिन्नमुहूर्तः संमूर्षिछमेष्वपि स एव ( कालः ।) १ एकस्मिन्निगोदे एकोऽसख्यातभागो नित्यमुनोपपातयोर्वतेते शेषनिगोदेष्वप्येवं स एव ( असख्यातभागः ।) अनुक्रम [३०] CRACRee ~110~ Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: +964 १ प्रत 5%85%25-265%4 मानिकसाधारणवनस्पतीनां तत उत्तानां स्थानमन्यन्नास्ति, 'मणुस्सदेवाणं जहा नेरइयाणं'ति, अशून्यकालस्यापि द्वादशमहर्सप्रमाणत्वात् , अत्र गाथा-"एवं नरामराणवि तिरियाणं नवरि नस्थि सुन्नद्धा । निग्गयाण नेसि भायण मन्नं तओ नत्थि ॥१॥" इति । 'एयस्से'त्यादि व्यक्तम् । किं संसार एवावस्थानं जीवस्य स्थादुत मोक्षेऽपि इति ४ शङ्कायां पृच्छामाहMIजीये णं भंते ! अंतकिरियं करेजा, गोपमा ! अस्थेगतिया करेजा अस्धेगतिया नो करेजा, अंतकिरि यापयं नेयव्वं ।। (सू०२४) र 'जीवे णमित्यादि व्यक्तं, नवरम् 'अंतकिरियं ति अन्त्या च सा पर्यन्तवर्तिनी क्रिया चान्त्यक्रिया, अन्त्यस्य वा कर्मान्तस्य क्रिया अन्तक्रिया, कृत्स्नकर्मक्षयलक्षणां मोक्षप्राप्तिमित्यर्थः। अंतकिरियापयं नेयव्य ति, तच्च प्रज्ञापनायां विंशतितम, तश्चैवम्-'जीवे णं भंते ! अंतकिरियं करेजा, गोयमा ! अरथेगइए करेजा अत्यंगइए णो करेजा, एवं नेरइए जाव वेमाणिए' भन्यः कुर्यानेतर इत्यर्थः, 'नेरइया णं भंते ! नेरइएसु वट्टमाणे अंतं करेजा', गोयमा । नो इणढे समडे' इत्यादि नवरं 'मणुस्सेसु अंतं करेजा' मनुष्येषु वर्तमानो नारको मनुष्यीभूत इत्यर्थः । कर्मलेशादम्तक्रियाया अभावे केचिज्जीवा देवेषुत्पद्यन्तेऽतस्तद्विशेषाभिधानायाहट्र अह भंते । असंजयभविपदबदेवाणं १ अविराहियसंजमाणं विराहियसं०३ अविराहियसंचमासं| १ एवं-नारकवनरामराणा, तिरश्चामपि, पर तिरश्वां न शून्यकालः, यस्माचतो निर्गतानां तेषामन्यरस्थानं नास्ति (अनन्तानन्तत्वात्) -2- CACA अनुक्रम 4- [३०] 4-954 A asurary.com ~111~ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्या- प्रज्ञप्तिः प्रत सूत्रांक [२५] या वृत्तिः१ ॥४९॥ दीप ज०४ विराहियसंजमासं०५ असन्नीणं ६ तावसाणं ७ कंदप्पियाणं ८ चरगपरिब्वायगाणं ९ किब्विसि- १ शतके याणं १० तेरिच्छियाणं ११ आजीवियाणं १२ आभिओगियाण १३ सलिंगीणं दसणवावनगाणं १४ एएसि || ४ उद्देशः२ ण देवलोगेसु उववजमाणार्ण कस्स कहिं उपवाए पण्णते?, गोयमा! अस्संजयभवियदव्वदेवाणं जहन्नेणं || RI सू०२४ भवणवासीसु उकोसेणं पथरिमगेविज्जएमु १, अविराहियसंजमाणं जहन्नेणं सोहम्मे कप्पे उकोसेणं सब्बह- संयम सिद्ध विमाणे २, विराहियसंजमाणं जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पे ३, अविराहियसंजमा०२||व्याद्यपपागंजह सोहम्मे कप्पे उक्कोसेणं अचुए कप्पे ४, विराहियसंजमासं० जहन्नेणं भवणवासीसु उक्कोसेणं तः सू२५ जोतिसिएसु ५, असन्नीणं जहन्नेणं भवणवासीसु उकोसेणं वाणमंतरेसु ६, अवसेसा सव्वे जह. भवणवा उकोसगं वोच्छामि-तावसाणं जोतिसिएम, कंदप्पियाण सोहम्मे, चरगपरिवायगाणं बंभलोए कप्पे, किविसियाणं लंतगे कप्पे, तेरिच्छियाणं सहस्सारे कप्पे, आजीवियाणं असुए कप्पे, आभिओगियाणं अजुए कप्पे, सलिंगीणं दसणवावनगाणं उवरिमगेवेजएम १४ ॥ (सू ०२५) 'अह भंने इत्यादि व्यक्त, नवरम् 'अथेति परिप्रश्नार्थः 'असंजयभवियदव्वदेवाणति इह प्रज्ञापनाटीका लि ॥४९॥ ख्यते-असंयता:-चरणपरिणामशून्याः भन्या:-देवत्वयोग्या अत एव द्रव्यदेवाः, समासवं-असंयताश्च ते भव्यद्र-||* व्यदेवाश्चेति असंयतभव्यद्रव्यदेवाः, तत्रैतेऽसंयतसम्यग्दृष्टयः किलेत्येके, यतः किलोक्तम्-"अणुवयमहबएहि य बाल १अणुव्रतैर्महाब्रतालतपसाऽकामनिर्जस्या च । देवायुर्निबध्नाति यश्च जीवः सम्यग्दृष्टिः ॥१॥ अनुक्रम [३२] SARELatun internatkomal ~112~ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] तवोऽकामनिजराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मद्दिडी य जो जीवो ॥१॥" एतच्चायुक्तं, यतोऽमीषामुत्कृष्टत उपरिमवेयकेषूपपात उक्तः, सम्यग्दृष्टीनां तु देशविरतानामपि न तत्रासौ विद्यते, देशविरतश्रावकाणामच्युतादूर्वमगमनात, नाप्येते निवाः, तेषामिहेव भेदेनाभिधानात्, तस्मान्मिथ्यादृष्टय एवाभव्या भव्या वा असंयतभव्यद्रव्यदेवाः श्रमणगुणधारिणो निखिलसामाचार्यनुष्ठानयुक्ता द्रव्यलिङ्गधारिणो गृह्यन्ते, ते ह्यखिलकेवलक्रियानभावत एवोपरिमप्रैवेयके त्पद्यन्त इति, असंयताश्च ते सत्यप्यनुष्ठाने चारित्रपरिणामशून्यत्वात्, ननु कथं तेऽभन्या भव्या वा श्रमणगुणधारिणो भवन्ति ! इति, अत्रोच्यते, तेषां हि महामिथ्यादर्शनमोहप्रादुर्भावे सत्यपि चक्रवर्तिप्रभृत्यनेकभूपतिप्रवरपूजासत्कारसन्मानदानान् साधून समवलोक्य तदर्थ प्रत्रज्याक्रियाकलापानुष्ठानं प्रति श्रद्धा जायते, ततश्च ते यथोक्तक्रियाकारिण & इति । तथा 'अविराहियसंजमाणं'ति प्रत्रज्याकालादारभ्याभग्नचारित्रपरिणामानां संज्वलनकषायसामर्थ्यात् प्रमत्त गुणस्थानकसामथ्योद्वा स्वरूपमायादिदोषसम्भवेऽप्यनाचरितचरणोपघातानामित्यर्थः, तथा 'विराहियसंजमाण'ति | उक्तविपरीतानाम् , 'अधिराहिपसंजमासंजमाणं'ति प्रतिपत्तिकालादारभ्याखण्डितदेशविरतिपरिणामानां श्रावकाणां 'विराहियसंजमासंजमाण ति उक्तव्यतिरेकिणाम् 'असन्त्रीणं'ति मनोलब्धिरहितानामकामनिर्जरावता, तथा 'ताबसाणं ति पतितपत्राद्युपभोगवतां बालतपस्विना, तथा 'कन्दप्पियाण'ति कन्दर्पः-परिहासः स येषामस्ति तेन वा ये चरन्ति ते कन्दर्पिकाः कान्दर्पिका वा-व्यवहारतश्चरणवन्त एव कन्दर्पकौकुच्यादिकारकाः, तथाहि-"कहकहकहस्स १-कहकहकहेन हसनं कन्दर्पः अनिभृताश्चोल्लापाः । कन्दर्पकथाकथनं कन्दपोपदेशः कन्दर्पप्रशंसा च ॥ १॥ ACC दीप अनुक्रम [३२] ~113~ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५] दीप व्याख्या-12 हसन कंदप्पो अणिया य उहावा । कंदप्पकहाकहणं कंदप्पुवएस संसा य ॥१॥ भुमनयणवयणदसणच्छदेहिं करपा- शतके यकन्नमाईहिं । तं तं करेइ जह जह हसइ परो अत्तणा अहसं ॥२॥ वाया कुकुहओ पुण तं जंपइ जेण हस्सए अनो| उद्देशः२ अभयदेवी & नाणाविहजीवरुए कुबह मुहतूरए चेव ॥३॥" इत्यादि, "जो संजओवि एयासु अप्पसस्थासु भावणं कुणइ । सो तवि-1||असंयतभया वृत्तिः१ इस गाइ सुरेम भाओं चरणहीणो. ॥१॥"त्ति, अतस्तेषां कन्दर्पिकाणां, 'चरगपरिब्वायगाणति साव्यदयो -धाटिभैश्योपजीविनस्त्रिदण्डिनः, अथवा चरका:-कच्छोटकादयः परित्राजकास्तु-कपिलमुनिसूनवोऽतस्तेषां, 'किवि-हावापुत्पातः सियाणं'ति किल्बिर्ष-पापं तदस्ति येषां ते किल्बिषिकाः, ते च व्यवहारतश्चरणवन्तोऽपि ज्ञानाद्यवर्णवादिनः, यथो-४ है सू२५ कम्-"णाणस्स केवलीणं धम्मायरियस्स सपसाहूणं । माई अवनवाई किविसिय भावणं कुणइ ॥१॥" अतस्तेषां, तथा|| 'तेरिच्छियाण ति 'तिरश्चा' गवावादीनां देशविरतिभाजाम् 'आजीवियाणं ति पापण्डिविशेषाणां नाम्यधारिणां, मोशालकशिष्याणामित्यन्ये, आजीवन्ति वा येऽविवेकिलोकतो लन्धिपूजाख्यात्यादिभिस्तपश्चरणादीनि ते आजीविकाऽस्ति-14 वेनाजीविका अतस्तेषां, तथा 'आभिओगियाणं'ति अभियोजन-विद्यामन्त्रादिभिः परेषां वशीकरणाद्यभियोगः, स| १धनयनवदनदन्तोष्ठेन करपादकर्णादिकैस्तत्तत्करोति यथा यथा परो हसति आत्मना अहसन् ॥२॥ वाचा कुत्कुचितः पुनस्तज-10 पति येनान्यो हसति । नानाविधजीवरुतान् मुखतूर्याणि च करोति ॥३॥२ यः संयतोऽप्येताखप्रशस्तासु वासनां फरोति स तथाविधेषु-14|| सुरेषु मच्छति चरणहीनस्तु भक्तः (स्थाद्वा न वा) ॥३ ज्ञानस्य केवलिनां धर्माचार्यस्य सर्वसाधूनां चावर्णवादी मायी च किल्विपिकीभावनां करोति ॥३॥ अनुक्रम [३२] ~114~ Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [ २५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jacatur च द्विधा, यदाह-"दुविहो खलु अभिओगो दबे भावे य होइ नायवो । दबंमि होति जोगा विज्जा मंता च भामि ॥ १ ॥” इति सोऽस्ति येषां तेन वा चरन्ति ये तेऽभियोगिका आभियोगिका वा, ते च व्यवहारतश्चरणवन् मन्त्रादिप्रयोक्तारः, यदाह - "कोउयभूईकम्मे परिणापसिणे निमित्तमाजीवी । इडिरससायगरुओ अहिओगं भावर्ण कुणइ ॥ १ ॥” इति [कौतुकं - सौभाग्याद्यर्थं स्नपनकं भूतिकर्म ज्वरितादिभूतिदानं प्रश्नापश्नं च-स्वप्नविद्यादि, ] 'सलि गीणं ति रजोहरणादिसाधुलिङ्गवतां किंविधानामित्याह-'दंसणवावन्नगाणं ति दर्शनं सम्यक्त्वं व्यापन्नं भ्रष्टं येषां ते तथा तेषां निहवानामित्यर्थः । 'एएसि णं देवलोएस उबवजमाणाणं'ति, अनेन देवत्वादन्यत्रापि केचिदुत्पद्यन्त इति प्रतिपादितं, 'विराहियसंजमाणं जहन्त्रेणं भवणवईसु उक्कोसेणं सोहम्मे कप्पेत्ति, इह कश्चिदाह - विराधितसंयमानामुत्कर्षेण सौधर्मे कल्पे इति यदुक्तं तत्कथं घटते १, द्रौपद्याः सुकुमालिकाभवे विराधितसंयमाया ईशाने उत्पादश्रवणात् इति, अत्रोच्यते, तस्याः संयमविराधना उत्तरगुणविषया वकुशत्वमात्रकारिणी न तु मूलगुणविराधनेति, सौधर्मोत्पादश्च विशिष्टतरसंयमविराधनायां स्थात्, यदि पुनर्विधनमात्रमपि सौधर्मोत्पत्तिकारकं स्यात्तदा बकुशादीनामुतरगुणादिप्रतिसेवावतां कथमच्युतादिषूत्पत्तिः स्यात् ?, कथचिद्विराधकत्वात्तेषामिति । 'असन्नीणं जहणं भवणवा सीसु उद्योसेणं वाणमंतरेसु'त्ति इह यद्यपि 'चमरबलि सारमहिय 'मित्यादिवचनादसुरादयो महर्द्धिकाः 'पछिभोवममु१ अभियोगः खलु द्विविधो द्रव्यतो भावतश्च भवति ज्ञातव्यः । द्रव्यतभूर्णादयो योगा भावतो योगा विद्या माश्च ॥ १ ॥ २ पनकं भूतिदानं प्रशमनादिनिमित्ताजीवी च । ऋद्धिरससातगौरवितोऽभियोगिक भावनां करोति ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 115 ~ nary org Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२५] दीप अनुक्रम [३२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञष्ठिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ ५१ ॥ कोसं बंतरियाणं'ति इति वचनाच्च व्यन्तरा अल्पर्द्धिकास्तथाऽप्यत एव वचनादवसीयते- सन्ति व्यन्तरेभ्यः सकाशाद| स्पर्द्धयो भवनपतयः केचनेति ॥ असज्ञी देवेषूत्पद्यत इत्युक्तं स चायुषा इति तदायुर्निरूपयन्नाह - कतिवि णं भंते! असन्नियाउए पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउच्विहे असन्निभउए पण्णत्ते, तंजा-नेरइयअ| सन्निआउए तिरिक्ख० मणुस्स० देव० । असन्नी णं भंते! जीवे किं नेरझ्याउयं पकइ तिरि० मणु० देवाउयं पकरेइ ?, हंता गोयमा नेरइयाउयंपि पकरेइ तिरि० मणु० देवाउयंपि पकरेइ, नेरइयाउयं पकरेमाणे जहनेणं दसवाससहस्साई उक्कोसेणं पलिओचमस्स असंखेजड़भागं पकरेति तिरिक्खजोणियाउयं पकरेमाणे जणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं पकरेह, मणुस्साउएवि एवं चैव देवाउयं जहा नेरइया ॥ एयरस णं भंते! नेरइयभसन्निआउयस्स तिरि० मणु० देवअसनिआउयस्स कपरे कयरे जाव विसेसाहिए वा ?, गोयमा । सव्वत्थोवे देवअसन्निआउए, मणुस्स० असंखेज्जगुणे, तिरिय० असंखेज्जगुणे, | नेरइए० असंखेज्जगुणे । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ ( सू० २६ ) ॥ बितिओ उद्देसओ समन्तो ॥ 'कविहे णमित्यादि व्यक्तं, नवरम् 'असन्निआउएत्ति असज्ञी सन् यत्परभययोग्यमायुर्वभाति तदसन्यायुः, 'नेरश्यअसन्निआउए'ति नैरयिकप्रायोग्यमध्यायुनैरविकासन्यायुः एवमन्यान्यपि ॥ एतच्चास| व्यायुः संबन्धमात्रेणापि भवति यथा भिक्षोः पात्रम्, अतस्तत्कृतत्वलक्षण संबन्धविशेषनिरूपणायाह--'असन्नी'त्यादि व्यक्तं, नवरं 'पकरेइ'त्ति बनाति 'दसवाससहस्साई ति रत्नप्रभाप्रथमप्रतरमाश्रित्य 'उक्कोसेणं पलि For Parts Only ~116~ १ शतके उद्देशः २ असंज्ञयायुः सू २६ ॥ ५१ ॥ www.uniprayog Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: A प्रत सूत्रांक [२६] ओवमस्स असंखिजइभार्ग'ति रक्षप्रभाचतुर्थंग्रतरे मध्यमस्थितिकं नारकमाश्रित्येति, कथम् , यतः प्रथमप्रस्तटे || दश वर्षाणां सहस्राणि जघन्या स्थितिरुत्कृष्टा नवतिः सहस्राणि, द्वितीये तु दश लक्षाणि जघन्या इतरा तु नवतिर्लक्षाणि,18 एषैव तृतीये जघन्या इतरा तु पूर्वकोटी, एषैव चतुर्थे जपन्या इतरा तु सागरोपमस्य दशभागः एवं चात्र पल्योपमासहयभागो मध्यमा स्थितिर्भवति, तिर्यक्सूत्रे यदुक्तं 'पलिओवमस्स असंखेजइभागंति तन्मिथुनकतिरश्चोऽधिकृ त्येति । 'मणुस्साउए वि एवं वत्ति जघन्यतोऽन्तर्मुहर्तमुत्कर्षतः पल्योपमासङ्ग्येयभाग इत्यर्थः, तत्र चासङ्ख्येबभागो मिथुन-18 किनरानाश्रित्य । 'देवा जहा नेरइय'त्ति, देवा इति असज्ञिविषयं देवायुरुपचारात्तथा वाच्यं 'जहा नेरहय 'त्ति यथा-1 सज्ज्ञिविषयं नारकायुः, तच्च प्रतीतमेव, नवरं भवनपतिव्यन्तरानाश्रित्य तदवसेयमिति ॥ 'एयस्स णं भंते ! इत्यादिना यदसञ्झ्यायुषोऽल्पबहुत्वमुक्तं तदस्य इस्वदीर्घत्वमाश्रित्येति ॥ ॥ प्रथमशतके द्वितीय उद्देशकः ॥२॥॥ दीप RRESCRICARROCESS अनुक्रम [३३] द्वितीयोद्देशकान्तिमसूत्रेष्वायुर्विशेषो निरूपिता, स च मोहदोषे सति भवतीत्यतो मोहनीयविशेष निरूपयन्नादौ च सनहगाथायां यदुक्तं 'कंखपओसेति तदर्शयन्नाह जीवाणं भंते ! खामोहणिजे कम्मे कडे ?, हंता कडे ॥ से भंते ! किं देसेणं देसे कडे? १ देसेणं सब्वे Saintairatan in For P OW अत्र प्रथम-शतके द्वितीय-उद्देशकः समाप्त: अथ प्रथम-शतके तृतीय-उद्देशक: आरब्ध: ~117~ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व्याख्या-कडे १२ सम्वेणं देसे कहे १३ सम्वेणं सब्वे कडे १४, गोयमा! नो देसेणं देसे कडे१नो देसेणं सब्वे कडे १ शतके प्रज्ञप्तिः । २ नो सब्वेणं देसे कडे ३ सब्वेणं सब्वे कडे ४॥ नेरइया णं भंते ! कंखामोहणिजे कम्मे कहे, हंता कडे, ाट उद्देशः ३ कखामाहाणज कम्म कहताकाडामोहजाव सब्वेणं सब्चे कडे ४ । एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ भाणियच्चो (सू०२७) या वृत्तिः नीये देश'जीवाण'मित्यादि व्यक्तं, नवरं जीवानां सम्बन्धि यत्'कंखामोहणिजे त्ति मोहयतीति मोहनीय फर्म तच्च चारित्रमोहनी-1 कृतादिः ॥५२॥ सू २७ यमपि भवतीति विशिष्यते-कासन-अन्यान्यदर्शनग्रहः, उपलक्षणत्वाचास्य शङ्कादिपरिग्रहाः, ततः काङ्गायां मोहनीय कासामोहनीय, मिथ्यात्वमोहनीयमित्यर्थः,'कडे'त्ति कृतं क्रियानिष्पाद्यमिति प्रश्नः, उत्तरं तु 'हंता कडे'त्ति अकृतस्य कर्मत्वानुपपत्तेः ॥ इह च वस्तुनः करणे चतुर्भङ्गी दृष्टा, यथा देशेन हस्तादिना वस्तुनो देशस्याच्छादनं करोति १ अथवा हस्तादिदशेनैव स मस्तस्य वस्तुनः२ अथवा सर्वात्मना वस्तुदेशस्य ३ अथवा सर्वात्मना सर्वस्य वस्तुनः४ इत्येतां कालमोहनीयकरणं प्रति प्रश्नडायमाह-से'त्ति तस्य कर्मणः भदन्त! 'किम्' इति प्रश्श्रे'देशेन' जीवस्यांशेन देशः' काममोहनीयस्य कर्मणोऽशः कृतः इत्येको भङ्गः १, अथ 'देशेन' जीवांशेनैव सर्व काडामोहनीयं कृतम् । इति द्वितीयः २ उत 'सर्वेण' सर्वात्मना देशः || | कासमोहनीयस्य कृतः इति तृतीयः २ उताहो ! 'सर्वेण' सर्वात्मना सर्व कृतम् ? इति चतुर्थः ४ । अत्रोत्तरं-'सय्वेणं ॥५२॥ ल सव्वे कडेत्ति जीवस्वाभाव्यात् सर्वस्वप्रदेशावगाढतदेकसमयबन्धनीयकर्मपुद्गलबन्धने सर्वजीवप्रदेशानां व्यापार इत्यत उच्यते-सर्वात्मना 'सर्व' तदेककालकरणीय कासामोहनीयं कर्म 'कृतं' कर्मतया बद्धम् , अत एव च भङ्गत्यप्रतिषेध अनुक्रम [३४] | कांक्षा-मोहनीय कर्म विशेषस्य व्याख्या ~118~ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२७] । इति, अत एवोकम्-"एगपएसोगाढं सवपएसेहिं कम्मुणो जोग । बंधइजहुत्तहेर्ड"ति, ['एगपएसोगार्ट'ति जीवापेक्षया कर्मद्रव्यापेक्षया च ये एके प्रदेशास्तेष्ववगाद], सर्वजीवप्रदेशब्यापारत्वाच तदेकसमयबन्धनार्ह सर्वमिति गम्यम् । अथवा सर्व यत्किचित् कालमोहनीयं तत्सर्वात्मना कृतं न देशेनेति ॥ जीवानामिति सामान्योक्ती विशेषो नावगम्यत इति विशेषावगमाय नारकादिदण्डकेन प्रश्नयन्नाह-'नेरइयाण'मित्यादि भावितार्थमेव ॥ क्रियानिष्पायं कर्मोक्तं तक्रिया च त्रिकालविषयाऽतस्तां दर्शयन्नाह| जीवा णं भंते ! कखामोहणिज्ज कम्मं करिंसु, हंता करिंसु । तं भंते ! किं देसेणं देसं करिंसु , एएणं 8 अभिलावेणं दंडओ भाणियब्यो जाच वेमाणियाणं, एवं करेंति एत्थवि दंडओ जाव वेमाणियाणं, एवं करे-18 |स्संति, एस्थवि दंडओ जाच वेमाणियाणं ॥ एवं चिए चिणिसुचिणंति चिणिस्संति, जबचिए उचचिणिसु उव-|| चिणंति उवचिणिस्संति, उदीरेंसु उदीरति उदीरिस्संति, बेदिसु बेदति चेदिस्संति, निजरेंसु निजरेंति निज-18/ |रिस्संति, गाहा-कडचिया उपचिया उदीरिया वेदिया य निजिन्ना । आदितिए चउभेदा तियभेदा|| पच्छिमा तिन्नि ॥१॥(सू०२८) 'जीवा णमित्यादि व्यक, नवरं 'करिसुत्ति अतीतकाले कृतवन्तः, उत्तरं तु हन्त ! अकार्षः, तदकरणेऽनादिसं-15 १ खावगाढमदेशावगाडं यथोक्तहेतोः सकाशाद् योग्य कर्म बनाति सर्वात्मप्रदेशैः ॥ अनुक्रम [३४] ~119~ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२८] गाथा व्याख्या- साराभावप्रसङ्गात् । एवं 'करेंति' सम्प्रति कुर्वन्ति, एवं 'करिस्संति' अनेन च भविष्यत्कालता करणस्य दर्शितेति ॥ मज्ञप्तिः कृतस्य च कर्मणश्चयादयो भवन्तीति तान् दर्शयन्नाहअभयदेवी 'एवं चिए' इत्यादि व्यक्तं, नवरं चयः-प्रदेशानुभागादेर्वर्द्धनम् उपचयस्तदेव पौनःपुन्येन, अन्ये स्वाहुर-वयन-कर्मया वृत्तिः१४ पुगलोपादानमात्रम् उपचयनं तु चितस्याबाधाकालं मुक्त्वा वेदनार्थ निषेकः, स चैवम्-प्रथमस्थिती बहुतरं कर्मदलिक ॥५३॥ निषिशति ततो द्वितीयायां विशेषहीनम् एवं यावदुत्कृष्टायां विशेषहीनं निषिथति, उक्तं च-"मोत्तूण सगमवाहं पढ़ माइ ठिईइ बहुतरं दबं । सेसं विसेसहीणं जावुक्कोसंति सवासिं ॥१॥"ति । उदीरणम्-अनुदितस्य करणविशेषावुदयमवेशनं, वेदनम्-अनुभवन, निर्जरणं-जीवप्रदेशेभ्यः कर्मप्रदेशानां शातनमिति । इह च सूत्रसनहगाथा भवति, सा च गाहा-'कडचिए'त्यादि, भावितार्था च, नवरम् 'आइतिए'त्ति कृतचितोपचितलक्षणे 'चउभेय'त्ति सामान्य क्रियाका& लत्रयक्रियाभेदात् , 'तियभेय'ति सामान्यक्रियाविरहात, 'पच्छिम'त्ति उदीरितवेदितनिर्जीर्णा मोहपुद्गला इति शेषः || 'तिन्नित्ति त्रयस्त्रिविधा इत्यर्थः । नन्याचे सूत्रत्रये कृतचितोपचितान्युक्तानि उत्तरेषु कस्मानोदीरितवेदितनिर्जीणोनि ! इति, उच्यते, कृतं चितमुपचितं च कर्म चिरमष्यवतिष्ठत इति करणादीनां त्रिकालक्रियामात्रातिरिक्तं चिरावस्थानलक्षणकृतत्वाद्याश्रित्य कृतादीन्युक्तानि, उदीरणानां तु न चिरावस्थानमस्तीति त्रिकालवर्तिना क्रियामात्रेणैव तान्यभिहितानीति ॥ जीवाः कालमोहनीयं कर्म वेदयन्तीत्युक्तम् , अथ तद्वेदनकारणप्रतिपादनाय प्रस्तावयन्नाह १ स्वकीयामबायां मुक्त्वा प्रथमायां स्थिती बहुतरं द्रव्यं स्थापयति, शेषायां कमशो विशेषहीनं यावत् सर्वासामुत्कृष्टा ॥१॥ REEKSHES दीप अनुक्रम [३५-३६] ~120 Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२९] दीप अनुक्रम [३७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः जीवाणं भंते! कंखामोहणिज्वं कम्मं वेदेति ?, हंता वेदेति । कहलं भंते! जीवा कंखामोहणिजं कम्मं वेदेति ?, गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं संकिया कंखिया वितिगिच्छिया भेदसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं खलु जीवा कंखामोहणिज्जं कम्मं वेदेति ॥ ( सू० २९ ) 'जीवाणं भंते!' इत्यादि व्यक्तं, नवरं ननु जीवाः काङ्गामोहनीयं वेदयन्तीति प्राग् निर्णीतं किं पुनः प्रश्नः १, उच्यते, | वेदनोपायप्रतिपादनार्थम्, उक्तं च- "पुवभणियंपि पच्छा जं भण्णइ तत्थ कारणं अस्थि । पडिसेहो य अणुना देवविसेसोवलंभोत्ति ॥ १ ॥” "तेहिं तेहिं'ति तैस्तैर्दर्शनान्तरश्रवणकुतीर्थिकसंसर्गादिभिर्विद्वत्प्रसिद्धैः, द्विर्वचनं चेह वीप्सायां कारणैः शङ्कादिहेतुभिः किमित्याह - शङ्किताः- जिनोक्तपदार्थान् प्रति सर्वतो देशतो वा संजातसंशयाः काङ्क्षिताः- देशतः सर्वतो वा संजातान्यान्यदर्शनग्रहाः'वितिगिच्छिय'त्ति विचिकित्सिताः- संजातफलविषयशङ्काः भेदसमापन्ना इति किमिदं जिनशासनमा होम्बिदिदमित्येवं जिनशासनस्वरूपं प्रति मतेद्वैधीभावं गताः, अनध्यवसायरूपं वा मतिभ गताः, अथवा यत एव शङ्कितादिविशेषणा अत एव मतेद्वैधीभावं गताः 'कलुषसमापन्नाः' नैतदेवमित्येवं मतिविषर्यासं गताः । एवं खलु' इत्यादि, 'एवम्' इत्युक्तेन प्रकारेण 'खलु'त्ति वाक्यालङ्कारे निश्वयेऽवधारणे वा । एतच जीवानां काङ्क्षामोहनीय वेदनमित्यमेवावसेयं, जिनप्रवेदितत्वात्, तस्य च सत्यत्वादिति तत्सत्यतामेव दर्शयन्नाह १ पूर्व मणिराम पश्चात्पुनर्यद्भण्यते तत्र प्रतिषेधोऽनुज्ञा हेतुविशेषोपलम्भः एतेषामन्यतमत् कारणमस्ति ॥ १ ॥ For Parts Only ~ 121 ~ Merary org Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [३०] दीप अनुक्रम [३८] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या- से नूणं भंते! तमेव सञ्चं णीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं ?, हंता गोयमा । तमेव सचं णीसंकं जं जिणेहिं प्रज्ञप्तिः पवेदितं ॥ ( सू० ३० ) अभयदेवी या वृत्तिः १ 'से 'मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'तदेव' न पुरुषान्तरैः प्रवेदितं रागाद्युपहतत्वेन तत्प्रवेदितस्यासत्यत्वसम्भवात्, 'सत्यं' सूनृतं तच्च व्यवहारतोऽपि स्यादत आह-'निःशङ्कम्' अविद्यमानसन्देहमिति ॥ अथ जिनप्रवेदितं सत्यमित्यभि| प्रायवान् यादृशो भवति तद्दर्शयन्नाह - से नूणं भंते । एवं मणं धारेमाणे एवं पकरेमाणे एवं चिद्वेमाणे एवं संवरेमाणे आणाए आराहए भवति ?, | हंता गोपमा ! एवं मणं धारेमाणे जाव भवइ ॥ ( सू० ३१ ) 'से नूण' मित्यादि व्यक्तं, नवरं 'नूनं' निश्चितम् 'एवं मणं धारेमाणे'त्ति 'तदेव सत्यं निःशङ्कं यज्जिनेः प्रवेदित' मित्यनेन प्रकारेण मनो-मानसमुत्पन्नं सत् धारयन्-स्थिरीकुर्वन् 'एवं पकरेमाणे'त्ति उक्तरूपेणानुत्पन्नं सत् प्रकुर्वन् बिद धानः 'एवं चिट्ठेमाणे'त्ति उक्तन्यायेन मनश्श्रेष्टयन् नान्यमतानि सत्यानीत्यादिचिन्तायां व्यापारयन् चेष्टमानो वा | विधेयेषु तपोध्यानादिषु 'एवं संवरेमाणे 'ति उक्तवदेव मनः संवृण्वन्-मतान्तरेभ्यो निवर्त्तयन् प्राणातिपातादीन् वा | प्रत्याचक्षाणो जीव इति गम्यते, 'आणाए'चि आज्ञायाः ज्ञानाद्यासेवारूपजिनोपदेशस्य 'आराहए'त्ति आराधक:पालयिता भवतीति ॥ अथ कस्मात्तदेव सत्यं यज्जिनैः प्रवेदितम् १ इति, अत्रोच्यते, यथावद्वस्तुपरिणामाभिधानादिति तमेव दर्शयन्नाह *%%%%% 6966 ॥ ५४ ॥ For Pernal Use On ~122~ - न १ श | उद्देश काङ्क्षाम नीयहे जिनोप त्यता ४ आरा मनो णादिर ॥५ Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [३२] दीप अनुक्रम [४०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्या० १० Jan Eticato सेनू भंते! अस्थित्तं अस्थिसे परिणमइ नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ ?, हंता गोयमा ! जाव परि णमह ॥ जपणं भंते! अस्थित्तं अत्थिते परिणमइ नत्थितं नत्थित्ते परिणमइ तं किं पयोगसा वीससा ?, गोयमा ! पयोगसावि तं वीससावि तं ॥ जहा ते भंते ! अत्थित्तं अस्थित्ते परिणमइ तहा ते नत्थित्तं नत्थित्ते | परिणमइ ? जहा ते नस्थित्तं नत्थित्ते परिणमह तहा ते अत्थितं अस्थिन्ते परिणमइ ?, हंता गोयमा ! जहा मे अत्थित्तं अस्थित्ते परिणम तहा मे नत्थित्तं नत्थित्ते परिणमइ, जहा मे नत्थितं नत्थिन्ते परिणम तहा मे अत्थितं अत्थित्ते परिणमइ ॥ से णूणं भंते ! अस्थित्तं अत्थिते गमणिज्वं जहा परिणमइ दो आलावगा तहा ते इह गमणिवेणवि दो आलावगा भाणियव्वा जाव जहा मे अत्थितं अत्थित्ते गमणिखं ॥ ( सू० ३२ ) 'सेणूणमित्यादि 'अस्थित्तं अत्थिते परिणमइति, अस्तित्वं-अङ्गुल्यादेः अङ्गुल्यादिभावेन सत्यम्, उकथ "सर्वमस्ति स्वरूपेण, पररूपेण नास्ति च । अन्यथा सर्वभावानामेकत्वं संप्रसज्यते ॥ १ ॥ तच्चेह ऋजुत्वादिपर्यायरूपमवसेयम् अङ्गुल्यादिद्रव्यास्तित्वस्य कथञ्चिदृजुत्वादिपर्यायाव्यतिरिक्तत्वात् अस्तित्वे - अङ्गुल्यादेरेवाङ्गुल्यादिभावेन | सच्चे वक्रत्वादिपर्याये इत्यर्थः 'परिणमति' तथा भवति, इदमुक्कं भवति-द्रव्यस्य प्रकारान्तरेण सत्ता प्रकारान्तरसत्तायां वर्त्तते यथा मृद्रव्यस्य पिण्डप्रकारेण सत्ता घटप्रकारसत्तायामिति । 'नत्थिन्तं नत्थित्ते परिणम 'त्ति नास्तित्वम् - अङ्ग| ल्यादेरङ्गुष्ठादिभावेनासत्त्वं तच्चाङ्गुष्ठादिभाव एव ततश्चाङ्गुत्यादेर्नास्तित्वमङ्गुष्ठ। द्यस्तित्वरूपमङ्गुल्यादेर्नास्तित्वे अङ्गुष्ठादेः अस्ति नास्ति आदि परिणामस्य वर्णनं For Parts Only ~ 123~ anrary org Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३२] व्याख्या- पर्यायान्तरेणास्तित्वरूपे परिणमति, यथा मृदो नास्तित्वं तम्स्वादिरूपं मुन्नास्तित्वरूपे पटे इति, अथवाऽस्तित्वमिति-धर्म- १ शतके प्रज्ञप्तिः Clic धर्मिणोरभेदात् सद्वस्तु अस्तित्वे-सत्त्वे परिणमति, तत्सदेव भवति, नात्यन्तं विनाशि स्यात्, विनाशस्य पर्यायान्तरगम उद्देश:३ अभयदेवी अस्तित्वाया वृत्तिः१ नमात्ररूपत्वात्, दीपादिविनाशस्थापि तमिस्रादिरूपतया परिणामात् , तथा 'नास्तित्वम्' अत्यन्ताभावरूपं यत् खरवि-13 दिपरिपाणादि तत् 'नास्तित्वे' अत्यन्ताभाव एव वर्तते, नात्यन्तमसतः सत्त्वमस्ति, खरविषाणस्येवेति, उक्तं च-"नासतो णामः ॥५५॥ जायते भावो, नाभावो जायते सतः।" अथवाऽस्तित्वमिति धर्मभेदात् सद् 'अस्तित्वे' सत्त्वे वर्त्तते, यथा पटः पटत्व सू ३२ एव, नास्तित्वं चासत् 'नास्तित्वे' असत्त्वे वर्तते, यथा अपटोऽपटत्व एवेति ॥ अथ परिणामहेतुदर्शनायाह-14 'जन'मित्यादि 'अत्थितं अत्थित्ते परिणमह'त्ति पर्यायः पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थः 'नस्थितं नस्थित्ते परिण-1x मईत्ति वस्त्वन्तरस्य पर्यायस्तत्पर्यायान्तरतां यातीत्यर्थः, 'पओगसत्ति सकारस्यागमिकत्वात् 'प्रयोगेण जीवब्यापारेण 'वीससत्ति यद्यपि लोके विश्रसाशब्दो जरापर्यायतया रूढस्तथाऽपीह स्वभावार्थो दृश्यः, इह प्राकृतत्वाद् 'वीससाए'त्ति वाच्ये 'वीससा' इत्युक्तमिति, अत्रोत्तरम्-'पओगसावि तंति प्रयोगेणापि तद्-अस्तित्वादि, यथा कुलालब्यापारान्मू ॥ ५५॥ पिण्डो घटतया परिणमति, अलिफजता या वक्रतयेति, 'अपिः समुच्चये, 'चीससावि तंति, यथा शुभ्राश्रमशु-14 धानतया, नास्तित्वस्यापि नास्तिवपरिणामे प्रयोगविश्रसयोरेतान्येवोदाहरणानि, वस्त्यन्तरापेक्षया मृत्पिण्डादेरस्तित्वस्य | नास्तित्वात् , सत्सदेव स्यादिति व्याख्यानान्तरेऽप्येतान्येवोदाहरणानि पूर्वोत्तरावस्थयोः सद्रूपत्वादिति, यदपि-'अभा अनुक्रम [४०] Taurasurary.org अस्ति नास्ति आदि परिणामस्य वर्णनं ~124~ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) “[भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 16 वोऽभाव एव स्याद्' इति व्याख्यातं तत्रापि प्रयोगेणापि तथा विनसयाऽपि अभावोऽभाव एव स्यात् न प्रयोगादेः साफल्यमिति व्याख्येयमिति ॥ अधोक्तहेत्वोरुभयत्र समतां भगवदभिमततां च दर्शयन्नाह'जहा ते'इत्यादि, 'यथा' प्रयोगविश्रसाभ्यामित्यर्थः 'ते'इति तव मतेन अथवा सामान्येनास्तित्वनास्तित्वपरिणामः प्रयोगविश्रसाजन्य उक्तः, सामान्यश्च विधिः क्वचिदतिशयवति वस्तुन्यन्यथाऽपि स्यात् अतिशयवांश्च भगवानिति तमाश्रित्य परिणामान्यथात्वमाशङ्कमान आह-जहा ते इत्यादि, 'ते'इति तब सम्बन्धि अस्तित्वं, शेष तथैवेति ॥ अथोक्तस्वरूपस्यैवार्थस्य सत्यत्वेन प्रज्ञापनीयतां दर्शयितुमाह-से णूण मित्यादि, अस्तित्वम॥स्तित्वे गमनीयं सद्वस्तु सत्त्वेनैव प्रज्ञापनीयमित्यर्थः, 'दो आलावग'त्ति से पूर्ण भंते ! अस्थित्तं अत्थित्ते |गमणिज्ज'मित्यादि 'पओगसावि तं वीससावि तं' इत्येतदन्त एका, परिणामभेदाभिधानात्, 'जहा ते भंते अस्थित्तं अस्थित्ते गमणिज'मित्यादि 'तहा मे अत्थितं अस्थित्ते गमणिज' मित्येतदन्तस्तु द्वितीयोऽस्तित्वनास्तित्वपरिणामयोः समताऽभिधायीति ॥ एवं वस्तुप्रज्ञापनाविषयां समभावतां भगवतोऽभिधायाथ शिष्यविषयां तां दर्शयन्नाह जहा ते भंते । एत्य गमणि तहा ते इहं गमणिजं, जहा ते इहं गमणिजं तहा ते एत्थं गमणिज्जं ?, हता! गोषमा !, जहा ! मे एत्थं गमणिजंजाव तहा मे एत्थं (इ) गमणिज्जं ॥ (सू. ३३) 'जहा ते इत्यादि 'यथा स्वकीयपरकीयताऽनपेक्षतया समत्वेन विहितमितिप्रवृत्त्या उपकारबुख्या वा 'ते' तव भद अनुक्रम [४०] ~125 Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) “[भाग-८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सत्रांक [३३] व्याख्या-कान्त ! 'एस्थति एतस्मिन् मयि संनिहिते स्वशिष्ये गमनीयं-वस्तु प्रज्ञापनीयं तथा' तेनैव समतालक्षणप्रकारेण उपका- १ शतके मज्ञप्तिःला रधिया वा 'इ'ति 'इह' अस्मिन् गृहिपापण्डिकादी जने गमनीयं । वस्तु प्रकाशनीयमिति प्रश्नः । अथवा 'एत्थं'ति | अभयदेवी है उद्देशः३ T-II स्वात्मनि यथा गमनीयं सुखप्रियत्वादि तथा 'इह' परात्मनि, अथवा यथा प्रत्यक्षाधिकरणार्थतया 'एल्थ'मित्येतच्छया वृत्तिः१/४ अत्रेइसमकाब्दरूपं गमनीयं तथा 'इह'मित्येतच्छब्दरूपमिति', समानार्थत्वाद् द्वयोरपीति ॥ काङ्खामोहनीयकर्मवेदनं सप्रसङ्गमुक्तम् | गमनी॥५६॥ अथ तस्यैव बन्धमभिधातुमाह यता सू.३३ जीवाणं भंते खामोहणिज कम्मं बंधति , हंता बंधंति । कहं णं भंते। जीवा कंखामोहणिजे कम्म कासामोहबंधंति, गोयमा । पमादपचया जोगनिमित्तं च ॥ से गं भंते ! पमाए किंपवहे ?, गोयमा! जोगप्पवहे। हेतवः से गंभंते । जोए किंपवहे , गोयमा ! वीरियप्पवहे । सेणं भंते वीरिए किंपबहे , गोयमा! सरीरप्पवहे ।। सू३४ M सेणं भंते । सरीरे किंपवहे ?, गोयमा! जीवप्पवहे । एवं सति अस्थि उट्ठाणे तिचा कम्मे ति वा घले इ Filवा वीरिए इवा पुरिसक्कारपरकमे इ वा ॥ (सू०३४) 'जीवाणं भंते ! कंखे'त्यादि 'पमायपच्चय'त्ति 'प्रमादमत्ययात्' प्रमत्ततालक्षणाद्धेतोः प्रमादश्च मद्यादिः, अथवा प्रमादग्रहणेन मिथ्यात्वाविरतिकषायलक्षणं बन्धहेतुत्रयं गृहीतम् , इष्यते च प्रमादेऽन्तर्भावोऽस्य, यदाह-"पमाओ य १ प्रमादश्च मुनीन्द्ररष्टमेदो भणितः । अज्ञानं संशयश्चैव मिथ्याज्ञानं तथैव च ॥१॥ रागो द्वेषो मतिनंशो धर्मे चानादरः । योगाना | दुष्प्रणिधानमष्टधाऽपि वर्जवितव्यः ॥ २॥ दीप अनुक्रम [४१] SantarataMI कांक्षा-मोहनियस्य हेतवः, 'प्रमाद' शब्दस्य विविध अर्थाः ~126~ Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सुत्रांक [३४] मणिदेहि, भणिो अट्ठभेयओ । अण्णाणं संसओ चेव, मिच्छानाणं तहेव य ॥१॥ रागो दोसो मइन्भंसो, धम्ममि य अणायरो । जोगाणं दुप्पणीहाणं, अहहा बज्जियवओ ॥ २ ॥" ति । तथा 'योगनिमित्त च' योगाः-मनम्प्रभृतिव्यापाराः ते निमित्तं-हेतुर्यत्र तत्तथा बनन्तीति, क्रियाविशेषणं चेदम्, एतेन च योगाख्यश्चतुर्थः कर्मबन्धहेतुरुक्ता, चशब्दः समुच्चये । अथ प्रमादादेरेव हेतुफलभावं दर्शनायाह-'से ण'मित्यादि। 'पमाए किंपवहे'त्ति प्रमादोऽसौ कस्मात् प्रवहति-प्रवर्तत इति किंवहः १, पाठान्तरेण किंप्रभवः', 'जो-द गप्पवहे'त्ति योगो-मनःप्रभृतिव्यापारः, तत्प्रवहत्वं च प्रमादस्य मद्याधासेवनस्य मिथ्यात्वादित्रयस्य च मनप्रभृतिव्यापारसदावे भावात्, 'चीरियप्पवहे त्ति पीयें नाम वीर्यान्तरायकर्मक्षयक्षयोपशमसमुत्थो जीवपरिणामविशेषः, 'सरीरप्पवहे'त्ति वीर्य द्विधा-सकरणमकरणं च, तत्रालेश्यस्य केवलिनः कृत्स्नयो यदृश्ययोः केवलं ज्ञानं दर्शनं चोपला युञ्जानस्य योऽसावपरिस्पन्दोऽपतिघो जीवपरिणामविशेषस्तदकरणं तदिह नाधिक्रियते, यस्तु मनोवाकायकरणसाधनः | सलेश्यजीवकर्तृको जीवप्रदेशपरिस्पन्दात्मको व्यापारोऽसौ सकरणं वीर्यं तच्च शरीरप्रवहं, शरीरं विना तदभावादिति । 'जीवप्पवहे'त्ति इह यद्यपि शरीरस्य कर्मापि कारणं न केवलमेव जीवस्तथाऽपि कर्मणो जीवकृतत्वेन जीवप्राधान्यात् जीवनवहं शरीरमित्युक्तम् । अथ प्रसङ्गतो गोशालकमतं निषेधयवाह-एवं सह'त्ति, 'एवम्' उकन्यायेन जीवस्य । कासामोहनीयकर्मवन्धकत्वे सति 'अस्ति' विद्यते नतु नास्ति, यथा गोशालकमते नास्ति जीवानामुत्थानादि, पुरुषार्थासाधकत्वात् , नियतित एव पुरुषार्थसिद्धेः, यदाह-"प्राप्तव्यो नियतिबलाश्रयेण योऽर्थः सोऽवश्यं भवति नृणां शुभो-|| अनुक्रम [४२] Santaratammanand munaturanorm कांक्षा-मोहनियस्य हेतवः, 'प्रमाद' शब्दस्य विविध अर्थाः ~127~ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३४] व्याख्या- शुभो वा । भूतानां महति कृतेऽपि हि प्रयले, नाभाव्यं भवति न भाविनोऽस्ति नाशः॥१॥" इति । एवं हि अप्रा-IIX | १ शतके प्रज्ञप्तिः । | उद्देशः३ माणिकाया नियतेरभ्युपगमः कृतो भवति अध्यक्षसिद्धपुरुषकारापलापश्च स्यादिति । 'उहाणे इ वत्ति उत्थानमिति वेति अभयदेवी आत्मनोसवाच्ये प्राकृतवात्सन्धिलोपाभ्यामेवं निर्देशः, तत्र 'उत्थानम् ऊवीभवनम् 'इतिः' उपप्रदर्शने वाशब्दो विकल्पे समुया वृत्तिः दीरणादि चिये या 'कम्मेदव'त्ति कर्म-उत्क्षेपणापक्षेपणादि 'बले इ बत्ति बल-शारीर प्राणः 'पीरिए वत्ति वीर्य-जीवो॥ ५७॥ |त्साहः 'पुरिसकारपरफमेह च'त्ति पुरुषकारश्च पौरुषाभिमानः पराक्रमश्च स एव साधिताभिमतप्रयोजनः पुरुषकारप राक्रमः अथवा पुरुषकार:-पुरुषक्रिया सा च प्रायः खीक्रियातः प्रकर्षवती भवतीति तत्स्वभावत्वादिति पिशेषेण तबहणं, पराक्रमस्तु शात्रुनिराकरणमिति ।। कासामोहनीयस्य वेदनं बन्धश्च सहेतुक उक्ता, अथ तस्पेषोदीरणामम्यच सद्ग-g तमेव दशेयन्नाह--- | से पूर्ण भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ अप्पणा चेव गरहइ अप्पणा व संघरइ, हता! गोपमा! अप्पणा चेव तं चेव उच्चारेयवं ३॥ तं भंते ! अप्पणा चेव उदीरेइ अप्पणा चेव गरहेइ अप्पणा चेव संवरेइ सं| किं उदिनं उदीरेइ १ अणुदिनं उदीरेइ २ अणुदिन्नं उदीरणाभवियं कम्मं पदीरेह ३ उदयार्णतरपच्छाकर्ड | कम्मं उदीरेइ ४१, गोयमा ! नो उदिपणं उदीरेइ १ मो अणुदिनं उदीरेइ २ अणुदिन्नं उदीरणाभवियं कम्मं| उदीरेइ ३ णो उदयाणंतरपच्छाकडं कम्मं उदीरेइ ४॥ तं भंते ! अणुदिनं उदीरणाभवियं कम्मं उदीरहे |तं किं उहाणेणं कम्मेण बलेणं वीरिएणं पुरिसकारपरफमेणं अणुदिनं उदीरणाभवियं क. उदी ? उदाहु ते दीप अनुक्रम [४२] ~128~ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: VI प्रत सूत्रांक %A4 [३५]] अणुहाणेणं अकम्मेणं अबलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कारपरकमेणं अणुविन उदीरणाभवियं कम्मं उदी, गोयमा!तं. उहाणेणवि कम्मे० पले०वीरिए. पुरिसक्कारपरकमेणवि अणुदिनं उदीरणाभवियं कम्म ||3|| उदीरेइ, णोतं अणुढाणेणं अकम्मेणं अपलेणं अवीरिएणं अपुरिसक्कार० अणुदिन्नं उदी० भ० क० उदी, एवं सति अस्थि उहाणे इ वा कम्मे इ वा बले इ वा वीरिए इ वा पुरिसकारपरफमे इवा ॥ से नूर्ण भंते ! अप्पणा चेव उवसामेइ अप्पणा चेव गरहइ अप्पणा चेव संवरइ ?, हंता गोयमा! एत्व वि तहेव भाणियब, नवर अणुदिन्नं अवसामेइ सेसा पडिसेहेयव्वा तिन्नि ॥ तं भंते ! अणुदिन्नं उवसामेइ तं किं उठाणेणं जाव पुरिसकारपरकमेति वा, से नूर्ण भंते ! अप्पणा चेव वेदेड अप्पणा चेव गरहइ?, एत्यवि सव परिवाडी, नवरं उद्दिन्नं वएइ नो अणुदिन्नं वेएड, एवं जाव पुरिसक्कारपरिकमे इ वा । से नृणं भंते! अप्पणा चेव निजरेति अप्पणा चेव गरहइ, एत्वयि सचेव परिवाडी नवरं उदयार्णतरपच्छाकडं कम्मं निजरेइ एवं जाव परिक्कमेह वा ॥ (सू० ३५) 'अप्पणा चेवत्ति 'आस्मनैव' स्वयमेव जीवा, अनेन कर्मणो बन्धादिषु मुख्यवृत्त्याऽऽत्मन एवाधिकारः उक्तो, नाप-| रस्य, आह च-"अणुमेत्तोवि न कस्सइ बंधो परवत्थुपच्चया भणिओ "त्ति । 'उदीरेइति'करणविशेषेणाकृष्य भवि १ परवस्तुप्रत्ययिकोऽणुमात्रोऽपि बन्धो न कस्यापि भणितः॥ दीप अनुक्रम [४३] %BRORA ~129~ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १ शतके प्रत सूत्रांक [३५]] व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः सू ३५ ॥५८॥ प्यत्कालवेद्यं कर्म क्षपणायोदयावलिकायां प्रवेशयति । तथा 'गरहईत्ति आत्मनैव गर्हते निन्दतीत्यतीतकालकृतं कर्म | स्वरूपतः तत्कारणगर्हणद्वारेण वा जातविशेषबोधः सन् । तथा 'संवरईत्ति संवृणोति न करोति वर्तमानकालिकं कर्म || उद्देशः३ स्वरूपतस्तद्धेतुसंवरणद्वारेण वेति, गादौ च यद्यपि गुर्वादीनामपि सहकारित्वमस्ति तथाऽपि न तेषां प्राधान्य आत्मनोजीववीर्यस्यैव तत्र कारणत्वात् , गुर्वादीनां च वीयर्योल्लासनमात्र एवं हेतुत्वादिति ॥ अथोदीरणामेवानित्याह दीरणादि जंतं भंते !' इत्यादि व्यक्तं, नवरम् अथोदीरयतीत्यादिपदत्रयोद्देशेऽपि कस्मात् 'तं किं उदिन्नं उदीरेह'इत्या-3|| दिनाऽऽद्यपदस्यैव निर्देशः कृतः १, उच्यते-उदीरणादिके कर्मविशेषणचतुष्टये उदीरणामेवाश्रित्य विशेषणस्य सद्भावाद् इतरयोस्तु तदभावाद, एवं तर्हि उद्देशसूत्रे गर्हिते संवृणोतीत्येतत् पदद्वयं कस्मादुपात्तम् ? उत्तरत्रानिर्देक्ष्यमाणत्वात्त|स्येति, उच्यते-कर्मण उदीरणायां गाँसंवरणे प्राय उपायावित्यभिधानार्थम् , एवमुत्तरत्रापि वाच्यमिति । प्रश्नार्थश्चेहोत्तरव्याख्यानाद्बोद्धन्यः, तत्र 'नो उदिन्नं उदीरेइ 'त्ति १ उदीर्णत्वादेव, उदीर्णस्याप्युदीरणे उदीरणाऽविरामप्रसङ्गात्।। 'नो अणुदिनं उदीरेइ'त्ति २ इहानुदीर्ण-चिरेण भविष्यदुदीरणम् अभविष्यदुदीरणं च तन्नोदीरयति तद्विषयोदीर-14 णायाः सम्प्रत्यनागतकाले चाभावात् । 'अणुदिनं उदीरणाभवियं कम्म उदीरे'त्ति ३ अनुदीर्ण स्वरूपेण किन्त्वन-|| ॥५८॥ न्तरसमय एव यदुदीरणाभविक तदुदीरयति, विशिष्टयोग्यताप्राप्तत्वात् , तत्र भविष्यतीति भवा सैव भविका उदीरणा | | भविका यस्येति प्राकृतत्वाद् उदीरणाभविकम्, अन्यथा भविकोदोरणमिति स्यात्, उदीरणायां वा भव्य-योग्यमुदीरणाभव्यमिति । 'नो उदयार्णतरपच्छाकहन्ति ४ उदयेनानन्तरसमये पश्चात्कृतम्-अतीतता नीतं यत्तत्तथा दीप अनुक्रम [४३] 15- For P OW ~130 Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५]] तदपि नोदीरयति, तस्यातीतत्वात् अतीतस्य चासत्त्वाद् असतश्चानुदीरणीयत्वादिति ॥ इह च यद्यप्युदीरणादिषु कालस्वभावादीनां कारणत्वमस्ति तथाऽपि प्राधान्येन पुरुषवीर्यस्यैव कारणत्वमुपदर्शयन्नाह-जंत-13 मित्यादि व्यक्तं, नवरम् उत्थानादिनोदीरयतीत्युक्तं, तत्र च यदापन्नं तदाह-एवं सहति 'एवम् उत्थाना-18| X दिसाध्ये उदीरणे सतीत्यर्थः, शेषं तथैव ॥ काडामोहनीयस्योदीरणोता, अथ तस्यैवोपशमनमाह-से णूण' मित्यादि, * उपशमनं मोहनीयस्यैव, यदाह-"मोहस्सेबोवसमो खाओवसमो चउण्ह घाईणं । उदयक्खयपरिणामा अहण्हवि होंति 2 | कम्माणं ॥१॥” उपशमश्चोदीर्णस्य क्षयः अनुदीर्णस्य च विपाकतः प्रदेशतश्चाननुभवनं, सर्वथैव विष्कम्भितोदयत्वमि-13/ त्यर्थः, अयं चानादिमिथ्यादृष्टेरौपशमिकसम्यक्त्वलाभे उपशमश्रेणिगतस्य चेति, 'अणुदिन्नं उवसामेति'त्ति उदीणस्य त्ववश्यं वेदनादुपशमनाभाव इति । उदीर्ण सद्वेद्यते इति वेदनसूत्र, तत्र 'उदिन्नं वेएइ'त्ति अनुदीर्णस्य वेदनाभावात् , अथानुदीर्णमपि वेदयति तर्हि उदीर्णानुदीर्णयोः को विशेषः स्यात् ? इति। वेदितं सन्निीर्यत इति निर्जरासूत्रं, | तत्र 'उदयाणंतरपच्छाकडंति उदयेनानन्तरसमये यत्पश्चात्कृतम्-अतीततां गमितं तत्तथा तत् 'निर्जरयति' प्रदेशे-12 भ्यः शातयति, नान्यद्, अननुभूतरसत्वादिति । उदीरणोपशमवेदनानिर्जरणसूत्रोकार्थसनहगाथा-"तैइएण उदीरेंति | १ उपशमो मोहस्यैव क्षयोपशमो घातिनां चतुर्णाम् । उदयक्षयपरिणामा अष्टानामपि कर्मणां भवन्ति ॥ १॥ २ तृतीयेनोदीरयन्ति | उपशमयन्ति च पुनरपि द्वितीयेन । वेदयन्ति निर्जरयन्ति च प्रथमचतुर्थयोः सर्वेऽपि ॥१॥ दीप अनुक्रम [४३] ACTRESS REarati ~131~ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३५]] दीप अनुक्रम [४३] व्याख्या- || || उवसामेति य पुणोवि बीएणं । वेइंति निजरंति य पढमचउत्थेहिं सोऽपि ॥ १॥ अथ कासामोहनीयवेदनादिक | १ शतके ॥|| निर्जरान्तं सूत्रप्रपञ्चं नारकादिचतुर्विंशतिदण्डकैंनियोजयसाह उद्देशः३ अभयदेवीनेरइयाणं भंते ! कंखामोहणिज्ज कम्मं वेएइ?, जहा ओहिया जीवा तहा मेरइया, जाप थणियकुमारा॥ कासामोहः या वृत्तिः१४ पुढषिकाइयाण भंते ! खामोहणिजे कम्मं वेइंति, हता वेईति, कहणं भंते ! पुढविका० कंखामोहणिज । नीयवेदनं सू३६ ॥ ५९॥ कम्मं वेदेति !, गोयमा ! तेसिणं जीवाणं णो एवं तका इ वा सण्णा इवा पण्णा इ वा मणे इ वा वइ ति वा-अम्हे गं कंखामोहणिजे कम्मं वेएमो, एंति पुण ते । से पूर्ण भंते ! तमेव सर्च नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं, सेसं तं चेव, जाब पुरिसकारपरिकमेइ वा । एवं जाव पारिदियाण पथिंदियतिरिक्खजोणिया जाव वेमाणिया जहा ओहिया जीवा ॥ (सू० ३६) . इह च'जहा ओहिया जीवा'इत्यादिना 'हता वेयंति, कहनं भंते ! नेरइयाण कहखामोहणिज कम्म वेयंति !, गोयमा ! तेहिं तेहिं कारणेहिं इत्यादिसूत्र निर्जरासूत्रान्तं स्तनितकुमारप्रकरणान्तेषु प्रकरणेषु सूचितं, | तेषु च यत्र यत्र जीवपदं पागधीतं तत्र तत्र नारकादिपदमध्येयमिति । पश्चेन्द्रियाणामेव शहितत्वादयः कासामोहनीयवेदनप्रकारा घटन्ते नैकेन्द्रियादीनाम् , अतस्तेषां विशेषेण तद्वेदनप्रकारदर्शनायाह-'पुढवि- ॥ ५९॥ काइयाणमित्यादि व्यक्तं, नघरम्-'एवं तका इ वत्ति एवं यक्ष्यमाणोल्लेखेन तर्को-विमर्शः, खीलिङ्गनिदेशश्च प्राकृतत्वात् , 'सन्माइ वति सज्ञा-अर्थावग्रहरूपं ज्ञानं, 'पपणा इ वसि प्रज्ञा-अशेषविशेषविषयं ज्ञानमेव, REaratunmahind कांक्षा-मोहनियस्य वेदनं ~132~ Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ४'मणे वत्ति मनः स्मृत्यादिशेषमतिभेदरूपं, 'वइ इ वत्ति वागू-वचनं, 'सेसं तं चेव'त्ति शेषं तदेव यथा औधिक-12 प्रकरणेऽधीतं, तन्नेदम्-'हता गोयमा ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं । से णूणं भंते ! एवं मणं धारेमाणे इत्यादि तावद्वाच्यं यावत् से गुणं भंते ! अप्पणा चेव निजरेइ अप्पणा चेव गरहई' इत्यादेः सूत्रस्य 'पुरिसक्कारपरक्कमेइ व'त्ति पदम् । 'एवं जाव चरिंदिय'त्ति पृथिवीकायप्रकरणवदप्कायादिप्रकरणानि चतुरिन्द्रियप्रकरणान्तान्यध्येयानि, |तिर्यपश्शेन्द्रियप्रकरणादीनि तु पैमानिकप्रकरणान्तानि औधिकजीवप्रकरणवत्तदभिलापेनाध्येयानीति, अत एवाह'पंचेदिए'त्यादि । भवतु नाम शेषजीवानां कासामोहनीयवेदनं निर्ग्रन्थानां पुनस्तन्न संभवति जिनागमावदातबुद्धित्वा सेषामिति प्रश्नयन्नाहl अस्थि ण भंते ! समणावि निग्गंधा कखामोहणिज्जं कम्मं वेएइ ?, हंता अस्थि, कहन्नं भंते ! समणा निग्गमाथा पंखामोहणिजं कम्मं वेएइ, गोयमा ! तेहिं नाणतरेहिं देसणंतरेहिं चरितंतरेहिं लिंगंतरेहिं पवयणं तरेहिं पावयणंतरेहिं कप्पंतरेहिं मग्गंतरेहिं मतंतरेहिं भंगतरेहिं णयंतरेहिं नियमंतरेहिं पमाणतरेहि संकिया कंखिया वितिगिछिया भेयसमावन्ना कलुससमावन्ना, एवं खलु समणा निग्गंधा कंखामोहणिज्ज कम्मं बेइंति, से नूर्ण भंते ! तमेव सच्चं नीसंकं जं जिणेहिं पवेइयं, हंता गोयमा ! तमेव सर्च नीसंके, जाव पुरिसकारपरफमेह वा सेवं भंते सेवं भंते ! ॥ (मु०३७) पढमसए ततिओ॥ १-३॥ 'अस्थि णमित्यादि काकाऽध्येयम् 'अस्ति विद्यतेऽयं पक्ष यत 'श्रमणा'तिनः, अपिशब्दः श्रमणानां काता SOCIRCANCIES4AC [३६] दीप अनुक्रम [४४] T REaratinda OR Kummrary.org कांक्षा-मोहनियस्य वेदनं ~133~ Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम व्याख्या- मोहनीयस्यावेदनसंभावनार्थः, ते च शाक्यादयोऽपि भवन्तीत्याह-'निर्ग्रन्थाः' सबाह्याभ्यन्तरग्रन्थानिर्गताः, साधव || १ शतके प्रज्ञप्तिः इत्यर्थः, 'णाणतरेहिंति एकस्माग्ज्ञानादन्यानि ज्ञानानि ज्ञानान्तराणि तैनिविशेषैर्ज्ञानविशेषेषु वा शहिता इत्यादिभिः | उद्दशः श्रमणानां अभदवाराला संबन्धः, एवं सर्वत्र, तेषु चैवं शङ्कादयः स्युः-यदि नाम परमाण्वादिसकलरूपिद्रव्यावसानविषयग्राहकत्वेन सङ्ख्यातीतरूपा या वृत्तिः काङ्क्षामोहण्यवधिज्ञानानि सन्ति तत्किमपरेण मनःपर्यायज्ञानेन ?, तद्विषयभूतानां मनोद्रव्याणामवधिनैव दृष्टत्वात्, उच्यते चा- नीयवेद॥६॥5 गमे मनःपर्याय ज्ञानमिति किमत्र तत्त्वमिति ज्ञानतः शङ्का, इह समाधिः-यद्यपि मनोविषयमप्यवधिज्ञानमस्ति तथाऽपि नम् न मनःपर्यायज्ञानमवधावन्तर्भवति, भिन्नस्वभावत्वात् , तथाहि-मनःपर्यायज्ञानं मनोमात्रद्रव्यग्राहकमेवादर्शनपूर्वकं च, सू ३७ | अवधिज्ञानं तु किञ्चिन्मनोव्यतिरिक्तद्रव्यग्राहक किश्चिचोभयग्राहकं दर्शनपूर्वकं च न तु केवलमनोद्रव्यग्राहकम् इत्या|दि यह वक्तव्यमतोऽवधिज्ञानातिरिक्तं भवति मनःपर्यायज्ञानमिति । तथा दर्शन-सामान्यबोधः, तत्र यदि नामेन्द्रियानि|न्द्रियनिमित्तः सामान्यार्थविषयो बोधोदर्शनं तदा किमेकश्चक्षुर्दर्शनमन्यस्त्वचक्षुर्दर्शनम् , अथेन्द्रियानिन्द्रियभेदाद् भेदस्तदा दचक्षुष इव श्रोत्रादीनामपि दर्शनभायात् षडिन्द्रियनोइन्द्रियजानि दर्शनानि स्युन द्वे एवेति, अत्र समाधिः-सामान्यMI विशेषात्मकत्वाद्वस्तुनः क्वचिद्विशेषतस्तन्निर्देशः क्वचिच सामान्यतः, तत्र चक्षुर्दर्शन मिति विशेषतः अचक्षुदेशनमिति च सामान्यतः, यच्च प्रकारान्तरेणापि निर्देशस्य सम्भवे चक्षुर्दर्शनमचक्षुर्दर्शनं चेत्युक्तं तदिन्द्रियाणामप्राप्तकारित्वप्राप्तकारिचविभागात्, मनसस्त्वप्राप्तकारित्वेऽपि प्राप्तकारीन्द्रियवर्गस्य तदनुसरणीयस्य बहुत्वात्तद्दर्शनस्याचक्षुर्दर्शनशब्देन ग्रहण-द -% [४५] JMEauratonा . कांक्षा-मोहनियस्य वेदनं ~134~ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३७] मिति । अथवा दर्शन-सम्यक्त्वं तत्र च शङ्का-"मिच्छत्तं जमुदिन्नं तं खीणं अणुदियं च उपसंत" । इत्येवलक्षण क्षायो* पशमिकम् , औपशमिकमप्येवलक्षणमेव, यदाह-"खीणम्मि उइन्नम्मी अणुदिजते य सेसमिच्छत्ते । अंतोमुहत्तमेत्तं उवस-18 मसम्म लहइ जीवो ॥१॥" ततोऽनयोर्न विशेषः उक्तश्चासाविति, समाधिश्च-क्षयोपशमो हि उदीर्णस्य क्षयोऽनुदीर्णस्य च विपाकानुभवापेक्षयोपशमः, प्रदेशानुभवस्तूदयोऽस्त्येव, उपशमे तु प्रदेशानुभवोऽपि नास्तीति, उक्त च-वेएइ संत| कम्म खओवसमिएसु नाणुभावं सो । उवसंतकसाओ पुण वेदेह ण संतकम्मं ति (पि)॥१॥" तथा चारित्रं-चरणं 8 |तन्त्र यदि सामायिकं सर्वसावद्यविरतिलक्षणं छेदोपस्थापनीयमपि तलक्षणमेव, महावतानामवद्यविरतिरूपत्वात् , तत्कोXऽनयो भेंदः उक्तश्चासाविति, अत्र समाधिः-ऋजुजडवक्रजडानां प्रथमचरमजिनसाधूनामाश्वासनाय छेदोपस्थापनी-|| यमुक्त, प्रतारोपणे हि मनाक् सामायिकाशुद्धावपि प्रताखण्डनाचारित्रिणो वयं चारित्रस्य व्रतरूपत्वादिति बुद्धिः स्यात्, | सामायिकमात्रे तु तदशुद्धौ भग्नं नश्चारित्रं चारित्रस्य सामायिकमात्रत्वादित्येवमनाश्वासस्तेषां स्यादिति, आह च-ले 4 "रिविकजडा पुरिमेयराण सामाइए बयारुहणं । मणयमसुद्धेवि जओ सामइए हुति हु वयाई ॥१॥” इति । तथा|| १ यन्मिथ्यात्वमुदीर्ण तत्क्षीणमनुदितं चोपशान्तम् ॥ २ उदीर्ण क्षीणेऽनुदीर्यमाणे च शेषमिथ्यात्वेऽन्तर्मुहर्गमात्रमुपशमसम्यक्त्वं जीवो लभते ॥ १ ॥ ३ क्षायोपशमिकेषु भावेषु स सत्कर्म वेदयति अनुभावं न, उपशान्तकषायः पुनः सत्कर्मापि न वेदयति (प्रदेश४ तोऽपि)॥१॥ ४ पूर्वपश्चिमजिनानामृजुवक्रजडाः साधव इति सामायिके सत्यपि व्रतारोहः, यतः सामायिके मनागशुद्धेऽपि ब्रतानि | भवन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम AAAAAAACHARACTES [४५] कांक्षा-मोहनियस्य वेदनं ~135 Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [४५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३], मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ ६१ ॥ लिङ्गं साधुवेषः, तत्र च यदि मध्यमजिनैर्यथालब्धवस्त्ररूपं लिङ्गं साधूनामुपदिष्टं तदा किमिति प्रथमचरमजिनाभ्यां सप्रमाणधवलवसनरूपं तदेवोक्तं १, सर्वज्ञानामविरोधिवचनत्वादिति, अत्रापि ऋजुजडवकजडऋजुप्रज्ञशिष्यानाश्रित्य भगवतां तस्योपदेशः, तथैव तेषामुपकारसम्भवादिति समाधिः । तथा प्रवचनमत्रागमः तत्र च यदि मध्यमजिनप्रवचनानि चतुर्यामधर्मप्रतिपादकानि कथं प्रथमेतर जिनप्रवचने पशयामधर्मप्रतिपादके ? सर्वज्ञानामविरुद्धवचनत्वात्, अत्रापि समाधिः- चतुर्यामोऽपि तत्त्वतः पञ्चयाम एवासौ, चतुर्थव्रतस्य परिग्रहेऽन्तर्भूतत्वात्, योषा हि नापरिगृहीता भुज्यते इति न्यायादिति । तथा प्रवचनमधीते वेत्ति या प्रावचनः - कालापेक्षया बह्नागमः पुरुषः, तत्रैकः प्रावचनिक एवं कुरुते अन्यस्त्वेवमिति किमत्र तस्यमिति, समाधिश्चेह चारित्रमोहनीयक्षयोपशमविशेषेण उत्सर्गापवादादिभावितत्वेन च प्रावचनिकानां विचित्रा प्रवृत्तिरिति नासौ सर्वथाऽपि प्रमाणम् आगमाविरुद्धप्रवृत्तेरेव प्रमाणत्वादिति । तथा कल्पो-जिनकल्पिकादिसमाचारः, तत्र यदि नाम जिनकल्पिकानां नाश्यादिरूपो महाकष्टः कल्पः कर्म्मक्षयाय तदा स्थविरकल्पिकानां वस्त्रपात्रादिपरिभोगरूपो यथाशक्तिकरणात्मकोऽकष्टस्वभावः कथं कर्मक्षयायेति, इह च समाधिःद्वावपि कर्म्मक्षय हेतू, अवस्थाभेदेन जिनोक्तत्वात्, कष्टाकष्टयोश्च विशिष्टकर्मक्षयं प्रत्यकारणत्वादिति । तथा मार्ग:- पूर्वपुरुषक्रमागता सामाचारी, तत्र केषाञ्चिद्विश्चैत्यवन्दनानेकविध कायोत्सर्गकरणादिकाऽऽवश्यक सामाचारी तदन्येषां तु न तथेति किमत्र तत्त्वमिति, समाधिश्च - गीतार्थाशठप्रवर्त्तिताऽसौ सर्वाऽपि न विरुद्धा, आचरितलक्षणोपेतत्वात्, आच कांक्षा - मोहनियस्य वेदनं For Park Use Only ~ 136~ १ शतके उद्देशः ३ श्रमणाना काङ्क्षावेदनं सू ३७ ॥ ६१ ॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [३७] दीप अनुक्रम [४५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [३], मूलं [३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Eucat रितलक्षणं चेदम्-"असढेण समाइन्नं जं कत्थइ केणई असावज्जं । न निवारियमन्नेहिं बहुमणुमय मे यमायरियं ॥ १ ॥” ति । तथा मतं समान एवागमे आचार्याणामभिप्रायः, तत्र च सिद्धसेनदिवाकरो मन्यते केवलिनो युगपद् ज्ञानं दर्शनं च, अन्यथा तदावरणक्षयस्य निरर्थकता स्यात्, जिन भद्रगणिक्षमाश्रमणस्तु भिन्नसमये ज्ञानदर्शने, जीवस्वरूपत्वात्, | तथा तदावरणक्षयोपशमे समानेऽपि क्रमेणैव मतिश्रुतोपयोगी, न चैकतरोपयोगे इतरक्षयोपशमाभावः, तत्क्षयोपशमस्योत्कृष्टतः षट्षष्टिसागरोपमप्रमाणत्वादतः किं तत्त्वमिति, इह च समाधिः- यदेव मतभागमानुपाति तदेव सत्यमिति मन्तव्यमितरत्पुनरुपेक्षणीयम्, अथ चाबहुश्रुतन नैतदवसातुं शक्यते तदैवं भावनीयम् - आचार्याणां संप्रदायादिदोषादयं मतभेदः, जिनानां तु मतमेकमेवाविरुद्धं च रागादिविरहितत्वात्, आह च- “अणुवकयपराणुग्गहपरायणा जं जिणा | जुगप्पवरा । जियरागदो समोहा य णण्णहावाइणो तेणं ॥ १ ॥ ति । तथा भङ्गाः - द्वयादिसंयोगभङ्गकाः, तत्र च द्रव्य| तो नाम एका हिंसा न भावत इत्यादि चतुर्भङ्गयुक्ता, न च तत्र प्रथमोऽपि भङ्गो युज्यते, यतः किल द्रव्यतो हिंसा- ईर्या| समित्या गच्छतः पिपीलिकादिव्यापादनं, न चेयं हिंसा, तलक्षणायोगात्, तथाहि - "जो उ पमत्तो पुरिसो तस्स उ जोगं पडुञ्च जे सत्ता । वावजंती नियमा तेसिं सो हिंसओ होइ ॥ १ ॥ त्ति, उक्ता चेयमतः शङ्का, न चेयं युक्ता, एतद्द्वायो १ अशठेन समाचीर्णे यदसावयं केनापि कुत्रचित् । अन्यैर्न निवारितं बहुनुमतमेतदाचरितम् ॥ १ ॥। २ यतः अनुपकृतपरानुग्रहपरायणा युगप्रवरा जितरागद्वेषमोहाश्च जिनान्ततो नान्यथावादिनः ॥ २ ॥ ३ यस्तु प्रमत्तः पुरुषस्तस्यैव योगं प्रतीत्य ये सत्या व्यापाद्यन्ते | स नियमाचेषां हिंसको भवति ॥ १ ॥ कांक्षा - मोहनियस्य वेदनं For Par Lise Only ~ 137~ jonary or Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रज्ञप्तिः प्रत सूत्रांक व्याख्या कहिंसालक्षणस्य द्रव्यभावहिंसाश्रयत्वात् , द्रव्यहिंसायास्तु मरणमात्रतया रूढत्वादिति । तथा नया-द्रव्यास्तिकादयः, स्तिकादया: ४१ शतके || सब यदि नाम द्रव्यास्तिकमतेन नित्यं वस्तु पर्यायास्तिकनयमतेन कथं तदेवानित्यं । विरुद्धत्वात्, इति शङ्का, इयं | उद्देशः३ अभयदेवी-IIचायुक्ता, द्रव्यापेक्षयैव तस्य नित्यत्वात्, पर्यायापेक्षया चानित्यत्वात् , दृश्यते चापेक्षयैकत्रैकदा विरुद्धानामपि धर्माणां | श्रमणानां या वृत्तिः१ |समावेशो, यथा जनकापेक्षया य एव पुत्रः स एव पुत्रापेक्षया पितेति । तथा नियमः-अभिग्रहः, तत्र यदि नाम सर्ववि- All रतिः सामायिकं तदा किमन्येन पारुष्यादिनियमेन ! सामायिकेनैव सर्वगुणावाप्ते, उक्तश्वासी इति शङ्का, इयं चायुक्ता, | यतः सत्यपि सामायिके युक्तः पौरुष्यादिनियमः, अप्रमादवृद्धिहेतुत्वादिति, आह च-"सामाइए वि हु सावजचाग-18 रुवे उगुणकरं एवं । अपमायवुहिजणगसणेण आणाओ विनेयं ॥१॥"ति। तथा प्रमाण-प्रत्यक्षादि, तत्रागमप्रमाणम्ला आदित्यो भूमेरुपरि योजनशतैरष्टाभिः संचरति चक्षुःप्रत्यक्षं च तस्य भुवो निर्गच्छतो ग्राहकमिति किमत्र सत्यमिति || सन्देहा, अत्र समाधिः-न हि सम्यक् प्रत्यक्षमिदं, दूरतरदेशतो विभ्रमादिति ॥ प्रथमशते तृतीयोद्देशकः ॥ ३॥ वेदन [३७] दीप अनुक्रम [४५] ॥६२॥ अनन्तरोद्देशके कर्मण उदीरणवेदनायुक्तमिति तस्यैव भेदादीन् दर्शयितुं तथा द्वारगाथायां 'पगइ'त्ति यदुक्तं तच्चाभिधातुमाहकति णं भंते ! कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ? गोयमा ! अह कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ, कम्मप्पगडीए १ सर्वसावधत्यागरूपे सामायिके सत्यप्येतत्पौरुप्यादि गुणकरमप्रमादबृद्धिजनकत्वादाज्ञातो विज्ञेयम् ॥ १॥ अत्र प्रथम-शतके तृतीय-उद्देशक: समाप्त: अथ प्रथम-शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरब्ध: ~138~ Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [३८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३८] ट गाथा पडमो उद्देसो नेयब्यो जाव अणुभागो सम्मत्तो । गाहा-कह पयडी कह बंधइ काहि व ठाणेहि बंधई पय-31 डी। कइ वेदेह य पयडी अणुभागो कइविहो कस्स॥१॥ (सू०३८) | 'कइण'मित्यादि व्यक्त, नवरं 'कम्मपगडीए'त्ति प्रज्ञापनायां त्रयोविंशतितमस्य कर्मप्रकृत्यभिधानस्य पदस्य प्रथमोद्देशको नेतव्यः, एतद्वाच्यानां चार्थानां सहगाथाऽस्तीत्यत आह-गाहा, सा चेयम्-'कई'त्यादि, तत्र 'कइप्पगडी'ति। द्वारं, तच्चैवम्-'कडणं भंते ! कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! अह, तंजहा-णाणावरणिज्ज'मित्यादि । 'कह बंधई त्यादि द्वारमिदं चैवम्-'कहनं भंते ! जीवे अट्ठ कम्मपगडीओ बंधइ ? गोयमा ! णाणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं * सणावरणिज कर्म निग (य)च्छई' विशिष्टोदयावस्थं जीवस्तदासादयतीत्यर्थः 'दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उद-12 भएणं दसणमोहणिज कम्मं निग्गच्छइ' विपाकावस्थां करोतीत्यर्थः, 'दंसणमोहणिजस्स कम्मरस उदएणं मिच्छत्तं निग्ग| च्छाइ, मिच्छत्तेणं उदिनेणं एवं खलु जीवे अहकम्मप्पगडीओ वंधई' इत्यादि, न चैवमिहेतरेतराश्रयदोषः, कर्मबन्धप्रवाहस्यानादित्वादिति । 'कहहि व ठाणेहित्ति द्वार, तच्चैवम्-'जीवेणं भंते ! णाणावरणिज कर्म कइहिं ठाणेहिं बंध? गोयमा ! दोहिं ठाणेहि, तंजहा-रागेण य दोसेण य' इत्यादि । 'कह वेएइ यत्ति द्वारमिदं चैवम्-'जीवे णं भंते ! कइ | कम्मप्पगडीओ वेएइ ? गोयमा! अस्थगइए वेएइ अत्थेगतिए नो वेएइ, जे वेएइ से ते अइत्यादि, 'जीवे णं भंते ।। णाणावरणिज्ज कम्मं वेएइ ? गोयमा ! अत्थेगइए वेएइ अत्थेगतिए नो वेएई केवलिनोऽवेदनात् , 'गेरइए णं भंते ! णाणावरणिजं कम्मं वेएइ ? गोयमा ! नियमा वेएइ'इत्यादि । 'अणुभागो कइविहो कस्सत्ति कस्य कर्मणः कति दीप अनुक्रम [४६-४७] hिurmurary.org 'कर्म-प्रकृति' तस्या भेदा: एवं वर्णनं ~139~ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [३८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १ शतके प्रत सूत्रांक [३८] गाथा व्याख्या- विधो रसः ! इति द्वारम् , इदं चैवम्-"णाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स कतिविहे अणुभागे पण्णत्ते ? गोयमा ! प्रज्ञप्तिः । दसविहे अणुभागे पण्णत्ते, तंजहा-सोयावरणे सोयविन्नाणावरणे"इत्यादि, द्रव्येन्द्रियावरणो भावेन्द्रियावरणश्चेत्यर्थः ॥ll अभयदेवी अथ कर्मचिन्ताऽधिकारान्मोहनीयमाश्रित्याह ४ प्रकृत्यादिया वृत्तिः जीवेणं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिनेणं उबढाएजा? हंना उवट्ठाएजा । से भंते ! किं वीरिय॥६३॥ त्ताए उवद्यापज्जा अवीरियत्ताए उवहाएजा गोयमा! वीरियत्ताए उवट्ठाएजा नो अवीरियत्ताए उवट्ठा हनीयोदएज्जा, जइ वीरियत्ताए उवट्ठाएजा किं बालवीरियत्ताए उचढाएज्जा पंडियवीरियत्ताए उवहाएजा बालपंडि यादुपस्थालायबीरियत्ताए उवटाएजा ?, गोयमा ! बालवीरियत्ताए उवहाएजा णो पंडियबीरियत्ताए उवद्याएजा णो नादि बालपंडियवीरियत्ताए उचट्ठाएजा। जीवेणं भंते ! मोहणिजेणं कडेणं कम्मेणं उदिनेणं अवफमेजा हंता अवकमज्जा, से भंते ! जाव बालपंडियवीरियत्ताए अवकमेजा ३१, गोयमा वालवीरियत्ताए अवकमेजा नो पंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजा, सिय बालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजा।जहा उदिनेणं दो आलावगा तहा उवसंतेणवि दो आलावगा भाणियब्वा, नवरं उवट्ठाएज्जा पंडियवीरियत्साए अवकमेजा बालपंडियवीरियत्ताए । से भंते !किं आयाए अवकमइ अणायाए अवकमाइ ? गोयमा ! आयाए अवकमइ णो अणायाए अवक्कमह, मोहणिज्ज कम्म एमाणे से कहमेयं भंते ! एवं ? गोयमा ! पुचि से एयं एवं रोयह इयाणि से एयं एवं नो रोयइ एवं खलु एवं ॥ (सू०३९) ३९ BACHAOTOS दीप अनुक्रम [४६-४७] ६३॥ SHREaturIPTaमार For P OW ~140 Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [३९] 'मोहणिजेण'ति मिथ्यात्वमोहनीयेन 'उदिपणेणं ति उदितेन 'उवहाएजत्ति उपतिष्ठेत्' उपस्थान-परलोकक्रियास्व|भ्युपगमं कुर्यादित्यर्थः, 'वीरियताएत्ति वीर्ययोगाद्वीर्यः-प्राणी तद्भावो वीर्यता, अथवा वीर्यमेव स्वार्थिकप्रत्यया॥ीर्यता वीर्याणां वा भावो वीर्यता, तया, 'अचीरियत्ताए'त्ति अविद्यमानवीर्यतया वीर्याभावेनेत्यर्थः, 'नो अवी रियत्ताएत्ति वीर्यहेतुकत्वादुपस्थानस्येति । 'बालवीरियत्ताए'त्ति बालः-सम्यगर्थानवबोधात् सद्बोधकार्यविरत्यभा४ावाच मिथ्यादृष्टिस्तस्य या वीर्यता-परिणतिविशेषः सा तथा तया । 'पंडियवीरियताए'त्ति पण्डितः-सकलाMवद्यवर्जकस्तदन्यस्य परमार्थतो निनित्त्वेनापण्डितत्वाद्, यदाह-"तज्ज्ञानमेव न भवति यस्मिन्नदिते विभाति मारागगणः। तमसः कुतोऽस्ति शक्तिर्दिनकरकिरणाग्रतः स्थातुम् ॥१॥" इति, सर्वविरत इत्यर्थः । 'बालपंडियवी-13 परिपत्ताए'त्ति बालो देशे विरत्यभावात् पण्डितो देश एव विरतिसद्भावादिति बालपण्डितो-देशविरतः, इह मिथ्यात्वे उदिते मिथ्यादृष्टित्वाज्जीवस्य बालवीर्येणैवोपस्थानं स्यान्नेतराभ्याम् , एतदेवाह-'गोयमें'त्यादि ॥ उपस्थानविपक्षोऽपक्रमणमतस्तदाश्रित्याह-'जीवे णमित्यादि 'अवक्कमेन्ज'त्ति 'अपकामेत्' अपसर्पेत् , उत्तमगुणस्थानकाद् हीनतरं3 गच्छेदित्यर्थः, 'बालचीरियत्ताए अधक्कमेज'त्ति मिथ्यात्वमोहोदये सम्यक्त्वात् संयमाद्देशसंयमाद्वा 'अपक्रामेत् मिथ्यादृष्टिर्भवेदिति । णो पंडियबीरियत्ताए अवक्कमेज'त्ति, नहि पण्डितत्वात्प्रधानतरं गुणस्थानकमस्ति यतः पण्डितवीर्येणापसत्, "सिय बालपंडियवीरियत्ताए अवक्कमेजति स्यात्-कदाचिच्चारित्रमोहनीयोदयेन संयमादपगत्य बालपण्डितवीर्येण देशविरतो भवेदिति । वाचनान्तरे त्वेवम्-'बालवीरियत्ताए नो पंडियबीरियचाए नो दीप अनुक्रम [४८] ॐॐॐ45555555 ~141~ Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ACA प्रत सूत्रांक [३९] दीप अनुक्रम [४८] व्याख्या-3 बालपंडियबीरियत्ताए'त्ति, तत्र च मिथ्यात्वमोहोदये बालवीर्यस्यैव भावादितरवीर्यद्वयनिषेध इति । उदीर्णविपक्षत्वादुपप्रज्ञप्तिः शान्तस्येत्युपशान्तसूत्रद्वयं तथैव, नवरम् 'उववाएजा पंडियवीरियत्ताए'त्ति उदीणोलापकापेक्षयोपशान्तालापकयोरयं || उहेशः। अभयदेवी- विशेषः-प्रथमालापके सर्वथा मोहनीयेनोपशान्तेन सतोपतिष्ठेत क्रियासु पण्डितवीर्येण, उपशान्तमोहावस्थायां पण्डितवी- मोहनीयोया वृत्तिः १ यस्यैव भावादितरयोश्चाभावात् । वृद्धस्तु काचिद्वाचनामाश्रित्येदं व्याख्यातं-मोहनीयेनोपशान्तेन सतान मिथ्यादृष्टिर्जायते, | दयादुप॥६४॥ साधुःश्रावको वा भवतीति । द्वितीयालापके तु'अबक्कमेज बालपंडियबीरियत्ताए'त्ति, मोहनीयेन हि उपशान्तेन संयत- ४/स्थानादि त्वाद्वालपण्डितवीर्येणापक्रामन् देशसंयतो भवति, देशतस्तस्य मोहोपशमसद्भावात्, न तु मिथ्यादृष्टिः, मोहोदय एव तस्य सू३९ भावात् , मोहोपशमस्य चेहाधिकृतत्वादिति । अथापक्रामतीति यदुक्तं तत्र सामान्येन प्रश्नयन्नाह से भंते कि'मित्यादि, 'स'त्ति असी जीवः, अथार्थों वा सेशब्दः, 'आयाए'त्ति आत्मना 'अणायाए'त्ति अनात्मना, परत इत्यर्थे। 'अपक्रामति'। अपसर्पति, पूर्व पण्डितत्वरुचिर्भूत्वा पश्चाम्मिश्ररुचिमिथ्यारुचिर्वा भवतीति, कोऽसौ ? इत्याह-मोहनीय कर्म मिथ्यात्वमोहनीय चारित्रमोहनीयं वा वेदयन् , उदीर्णमोह इत्यर्थः । 'से' कहमेयं भंते ति अथ 'कथं' केन प्रकारेण 'एतद्' अपक्रमणम् 'एवं ति मोहनीयं वेदयमानस्येति, इहोत्तर-गोयमे'त्यादि, 'पूर्वम्' अपक्रमणात् माग 'असी' अपकमणकारी जीवः 'एतदू' जीवादि अहिंसादि वा वस्तु 'एवं' यथा जिनरुक्तं रोचते' श्रद्धत्ते करोति वा, 'इदानीं मोहनीयो oil॥६४॥ दयकाले 'सः' जीवः 'एतत्' जीवादि अहिंसादि वा 'एवं' यथा जिनरुक्तं 'नोरोचते' न श्रद्धत्ते न करोति वा, 'एवं खलु' उपकारेण 'एतदू' अपक्रमणम् , एवं' मोहनीयवेदने इत्यर्थः॥ मोहनीयकर्माधिकारात् सामान्यकर्म चिन्तयन्नाह N CCACACASS ~142~ Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४०] से नूणं भंते ! नेरइयस्स वा तिरिक्खजोणियस्स वा मणूसस्स वा देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे नत्थिर तस्स अवेइयत्ता मोक्खो, हंता गोयमा ! नेरइयरस वा तिरिक्ख०मणु देवस्स वा जे कडे पावे कम्मे नत्थि तस्स अवेइत्ता मोक्यो । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चति-नेरइयस्स वा जाच मोक्त्रो, एवं खलु मए गोयमा! विहे कम्मे पण्णत्ते, तंजहा-पएसकम्मे य अणुभागकम्मे य, तत्थ णं जं तं पएसकम्मं तं नियमा बेएइ, ★ तत्थ णं जतं अणुभागकम्मं तं अस्धेगइयं वेएइ अत्धेगइयं नो वेएइ । णायमेयं अरहया सुयमेयं अरहया । विनायमेयं अरहया इम कम्मं अयं जीवे अज्झोवगमियाए वेयणाए बेदिस्सइ इमं कम्मं अयं जीवे उवक्रमि-18 याए वेदणाए वेदिस्सह, अहाकम्म अहानिकरणं जहा जहा तं भगवया दिड तहा तहा तं विप्परिणमिस्सतीति, से तेणटेणं गोयमा ! नेरइयस्स वा ४ जाव मोक्खो ॥ (सू०४०) | 'नेरइयास्स वे'त्यादी नास्ति मोक्षः इत्येवं संबन्धात्षष्ठी, 'जे कडे'त्ति तैरेव यद्बद्धं 'पावे कम्मे त्ति 'पापम्' अशुभं | नरकगत्यादि, सर्वमेव वा 'पापं' दुष्ट, मोक्षव्याघातहेतुत्वात् , 'तस्स'त्ति तस्मात्कर्मणः सकाशात् 'अवेइयत्त'त्ति तत्कर्मा&| ननुभूय एवं खलु'त्ति वक्ष्यमाणप्रकारेण 'खलु' वाक्यालङ्कारे 'मए'त्ति मया, अनेन च वस्तुप्रतिपादने सर्वज्ञपेनात्मनः | स्वातन्त्र्य प्रतिपादयति, 'पएसकम्मे य'त्ति प्रदेशा:-कर्मपुद्गला जीवप्रदेशेष्योतप्रोतास्तद्रूपं कर्म प्रदेशकर्म 'अणुभागक-15 ४म्मे यत्ति अनुभाग:-तेषामेव कर्मप्रदेशानां संवेद्यमानताविषयो रसस्तद्रूपं कर्मानुभागकर्म, तत्र यत्प्रदेशकर्म तन्नियमाद्वे दयति, विपाकस्याननुभवनेऽपि कर्मप्रदेशानामवश्यं क्षपणात्, प्रदेशेभ्यः प्रदेशान्नियमाच्छातबतीत्यर्थः, अनुभागकर्म च दीप अनुक्रम [४९] OROSCORNERSEASEX ~143~ Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्या-1 प्रज्ञप्तिः CATE-AC अभयदेवी-1 या वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४०] 454545454ॐॐ तथाभावं वेदयति वा न वा, यथा मिथ्यात्वं तत्क्षयोपशमकालेऽनुभागकर्मतया न वेदयति प्रदेशकर्मतया तु वेदयत्ये- १ शतक वेति । इह च द्विविधेऽपि कर्मणि वेदयितव्ये प्रकारद्वयमस्ति, तच्चाहतैव ज्ञायते इति दर्शयन्नाह-'ज्ञात' सामान्येनाव- उद्देश ४ गतम् 'एतद् वक्ष्यमाणं वेदनाप्रकारद्वयम् 'अर्हता' जिनेन 'सुयंति 'स्मृतं' प्रतिपादितम् अनुचिन्तितं वा, तत्र स्मृत-8 कर्मवेदन| मिव स्मृतं केवलित्वेन स्मरणाभावेऽपि जिनस्यात्यन्तमव्यभिचारसाधादिति, 'विण्णायं' ति विविधप्रकारैः-देशकाला| दिविभागरूपैति विज्ञातं, तदेवाह-इम कम्मं अयं जीवेत्ति, अनेन द्वयोरपि प्रत्यक्षतामाह केवलित्वादर्हतः, 'अझो सू४० वगमियाए'त्ति प्राकृतत्वादभ्युपगमः-प्रवज्याप्रतिपत्तितो ब्रह्मचर्यभूमिशयनकेशलुश्चनादीनामङ्गीकारस्तेन निर्वृत्ता आभ्यु| पगमिकी तया 'वेयइस्सइत्ति भविष्यकालनिर्देशः भविष्यत्पदार्थो विशिष्टज्ञानवतामेव ज्ञेयः अतीतो वर्तमानश्च पुनरनु| भवद्वारेणान्यस्यापि ज्ञेयः संभवतीति ज्ञापनार्थः, 'उपकमियाए'त्ति उपक्रम्यतेऽनेनेत्युपक्रमः-कर्मवेदनोपायस्तत्र भवा औ-12 पक्रमिकी-स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन वोदयमुपनीतस्य कर्मणोऽनुभवस्तया औपक्रमिक्या वेदनया वेदयिष्यति, तथा च 8 'अहाकम्मति यथाकर्म-धद्धकर्मानतिक्रमेण 'अहानिगरणति निकरणानां-नियतानां देशकालादीनां करणानां-विप-| |रिणामहेतूनामनतिक्रमेण यथा यथा तत्कर्म भगवता दृष्टं तथा तथा विपरिणस्यतीति, इतिशब्दो वाक्यार्थसमाप्ताविति ॥|| | अनन्तरं कर्म चिन्तितं, तञ्च पुद्गलात्मकमिति परमाण्वादिपुद्गलांश्चिन्तयन्नाह-अथवा परिणामाधिकारात्पुद्गलपरिणाममाह-2॥६५ ।। एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं भुवीति वत्तव्वं सिया ?, हंता गोयमा ! एस गं पोग्गले अतीतमणतं सासयं समयं भुवीति वत्तब्वं सिया। एसणं भंते ! पोग्गले पडुप्पन्नसासयं समयं भवतीति दीप अनुक्रम [४९] P anauranorm ~144~ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४१] वत्तव्वं सिया ?, हंता गोयमा ! तं चेव उच्चारेयध्वं । एस णं भंते ! पोग्गले अणागयमणतं सासयं समयं । भविस्सतीति बत्तब्वं सिया?, हन्ता गोयमा ! तं चेव उच्चारेयव्वं । एवं खंघेणवि तिन्नि आलावगा, एवं जीवेणवि तिन्नि आलावगा भाणियब्वा ॥ (सू०४१)॥छ उमत्थे णं भते! मणूसे अतीतमणतं सासयं समयं भुवीति केवलेणं संजमेण केवलेणं संवरे केवलेणं बंभचेरवासेणं केवलाहिं पबयणमाईहिं सिन्शिसु बुझिसु जाव सम्पदुक्खाणमंतं करिंसु ? गोयमा! नो इणहे समहे । से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव अंतं करेंसु ? गोयमा ! जे के अंतकरा वा अंतिमसरीरिया वा सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करि-- स्संति वा सव्वे ते उप्पन्ननाणदंसणधरा अरहा जिणे केवली भविता तओ पच्छा सिझंति बुझंति मुचंति । परिनिब्वायंति सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति बा, से तेणटेणं गोयमा! जाय सव्वदुक्खा णमंतं करेंसु०, पडप्पन्नेऽवि एवं चेव नवरं सिझंति भाणियब्वं, अणागएवि एवं चेव, नवरं सिज्झिस्संति । Xभाणियव्यं, जहा छउमस्थो तहा आहोहिओवि तहा परमाहोहिओऽपि तिनि तिन्नि आलायगा भाणि-18 दियवा । केवली गं भंते ! मणूसे तीतमणतं सासयं समयं जाव अंतं करेंसु ? हेता सिर्जिझसु जाव अंतं क रसु, एते तिन्नि आलाचगा भाणियब्धा छउमत्थस्स जहा नवरं सिझिसु सिझंति सिज्झिस्सति । से पूर्ण । भंते ! तीतमणतं सासयं समयं पडप्पन्नं वा सासयं समयं अणागयमणंतं वा सासयं समयं जे केइ अंतकरा 3 |वा अंतिमसरीरिया वा सव्वदुक्खाणमंतं करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा सब्वे ते उप्पन्ननाणदंसणधरा दीप अनुक्रम [५०] CROCOLOCARECTRESSECRET M ontieraryara ~145 Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) पूज्य आग मोद्धार कश्री संशो प्रत धित: सूत्रांक मुनि [ ४२ ] दीपर दीप अनुक्रम [५१] त्नसा गरेण संक लित.. आग मसूत्र [०५], अंग त्र व्याख्याअरहा जिणे केवली भवित्ता तओ पच्छा सिज्यंति जाब अंतं करेस्संति वा? हंता गोयमा ! तीतमर्णतं सासयं प्रज्ञप्तिः | समयं जाव अंत करेस्संति वा । से नूणं भंते ! उत्पन्ननाणदंसणवरे अरहा जिणे केवलि अलमत्युत्ति वत्तअभयदेवी- *व्वं सिया ? हंता गोयमा ! उप्पन्ननाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली अलमत्युत्ति वतव्वं सिया । सेवं भंते ! या वृत्तिः १ ।। ६६ ।। [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४२] Jam Educator सेवं भंते ! ति ॥ ( सू० ४२ ) ॥ चत्थो उद्देसो समन्तो ॥ १-४ ॥ ४ 'पोग्गले 'ति परमाणुरुत्तरत्र स्कन्धग्रहणात् 'तीतं' ति अतीतम्, इह च सर्वेऽध्यभाव काला (अकर्मक धातु संयोगे देशः कालो | भावो गन्तव्योऽध्वा च कर्मसंज्ञक इति वाच्यम् - वार्त्तिकम् ) इत्यनेनाधारे द्वितीया, ततश्च सर्वस्मिन्नतीत इत्यर्थः, 'अनंत' ति अपरिमाणम्, अनादित्वात्, 'सास' ति सदा विद्यमानं, न हि लोकोऽतीतकालेन कदाचिच्छून्य इति, 'समय'ति कालं 'भुवित्ति अभूदिति, एतद्वक्तव्यं स्यात् ? सद्भूतार्थत्वात्, 'पप्पन्नं'ति प्रत्युत्पन्नं वर्त्तमानमित्यर्थः, वर्त्तमानस्यापि शाश्वतत्वं सदाभावाद्, एवमनागतस्यापीति । अनन्तरं स्कन्ध उक्तः, स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया जीवोऽपि स्यादिति जीवसूत्रं, जीवाधिकाराञ्च प्रायो यथोत्तरमधान जीववस्तुवक्तव्यतामुद्देशकान्तं यावदाह- 'छउमत्थे णमित्यादि, इह छद्म| स्थोऽवधिज्ञानरहितोऽवसेयो, न पुनरकेवलिमात्रम्, उत्तरत्रावधिज्ञानिनो वक्ष्यमाणत्वादिति, 'केवलेणं'ति असहायेन | शुद्धेन वा परिपूर्णेन वाऽसाधारणेन वा, यदाह - "केवलमेगं सुद्धं सगलमसाहारणं अनंतं च" 'संजमेणं' ति पृथिव्यादि| रक्षणरूपेण 'संवरेणं' ति इन्द्रियकपायनिरोधेन 'सिर्जिझसु' इत्यादौ च बहुवचनं प्राकृतत्वादिति । एतच्च गौतमेनाने१ केवलमेकं शुद्धं सकलमसाधारणमनन्तं च ॥ Lovel For Parana Prat Use Onl परं वारेकी विना क ~146~ ११ शतके उद्देशः ४ पुलपरि५ णामः सू४१ * सिद्धि प्रकारः सू ४२ ॥ ६६ ॥ janethion Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: %A5 प्रत सूत्रांक [४२] नाभिप्रायेण पृऐ-यदुत उपशाम्तमोहाद्यवस्थायां सर्वविशुद्धाः संयमादयोऽपि भवन्ति विशुद्धसंयमादिसाध्या व सिद्धिरिति सा छास्थस्यापि स्यादिति । 'अंतकरें' ति भवान्तकारिणः, ते च दीर्घतरकालापेक्षयाऽपि भवन्तीत्यत आह|| अंतिमसरीरिया वत्ति अन्तिमं शरीरं येषामस्ति तेऽन्तिमशरीरिकाः, चरमदेहा इत्यर्थः, वाशब्दौ समुच्चये । 'सब्ब-8 दुक्खाणमंतं करेंसु' इत्यादी 'सिन्झिसु सिझंती'त्याद्यपि द्रष्टव्यं, सियाद्यविनाभूतत्वात् सर्वदुःखान्तकरणस्येति, |'उप्पन्ननाणदंसणधरे'ति उत्पन्ने ज्ञानदर्शने धारयन्ति ये ते तथा, न त्वनादिसंसिद्धज्ञानाः, अत एव 'अरह'त्ति पूजाहाः 'जिण'त्ति रागादिजेतारः, ते च छद्मस्था अपि भवन्तीत्यत आह-'केवली'ति सर्वज्ञाः, 'सिझंती' त्यादिषु चतुर्घ पदेषु वर्तमाननिर्देशस्य शेषोपलक्षणत्वात् 'सिझिसु सिझंति सिज्झिस्संती'त्येवमतीतादिनिर्देशो द्रष्टव्यः, अत एव 'सब्बदु खाण' मित्यादौ पञ्चमपदेऽसौ विहित इति । 'जहा छउमत्थो' इत्यादेरियं भावना-'आहोहिएणं भंते ! मणूसेऽतीद| तमणतं सासय मित्यादि दण्डकत्रयं, तत्राधः-परमावधेरधस्ताद् योऽवधिः सोऽधोऽवधिस्तेन यो व्यवहर त्यसौ आधो-2 ऽवधिका-परिमितक्षेत्रविषयावधिकः 'परमाहोहिओ'त्ति परम आघोऽवधिकाद् यः स परमाधोऽवधिकः, प्राकृतत्वाच्च व्यत्ययनिर्देशः परमोहिओत्ति कचित्पाठो व्यक्तश्च, स च समस्तरूपिद्रव्यासायातलोकमात्रालोकखण्डासपातावस-14 सापिणीविषयावधिज्ञानः, 'तिन्नि आलावग'त्ति कालत्रयभेदतः, 'केवली ण'मित्यादि केवलिनोऽप्येते एव त्रयो दण्डकाः है विशेषस्तु सूत्रोक्त एवेति । 'से गुण मित्यादिषु कालत्रयनिर्देशो वाच्य एवेति, 'अलमत्थुत्ति वत्तवं सियति 'अल RECRoc दीप अनुक्रम [५१] *-*4%AC% 8 Munior ~147~ Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४] गा- मस्तु' पर्याप्तं भवतु नातः परं किञ्चिद् ज्ञानान्तरं प्राप्तव्यमस्यास्तीत्येतद्वक्तव्यं 'स्यात्' भवेत्, सत्यत्वादस्येति ॥ १ शतके प्रज्ञप्तिः। प्रथमशते चतुर्थोद्देशकः समाप्तः॥१-४॥ उद्देशः ५ अभयदेवी नारकादीया वृत्तिः HIMI अनन्तरोदेशकस्थान्तिमसूत्रेष्वहदादय उक्तास्ते च पृथिव्यां भवन्तीति अथवा पृथिवीतोऽप्युवृत्य मनुजत्वमवाप्ताः नामासन्तस्ते भवन्तीति पृथिवीप्रतिपादनायाह तथा 'पुढवित्ति यदुद्देशकसङ्ग्रहिण्यामुक्तं तत्प्रतिपादनाय चाह वासा ॥६ ॥ कति गंभंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा! सत्त पुढचीओ पन्नत्ताओ, जहा-रयणप्पभा जाच तम-द सू४३ तमा ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए कति निरयावाससयसहस्सा पन्नत्सा ?, गोयमा! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्सा, गाहा-तीसा य पन्नवीसा पन्नरस दसेव या सपसहस्सा । तिन्नेगं पंचूर्ण पंचेच अणुत्तरा निरया ॥१॥ केवइया णं भंते ? असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता?, एवं-चउसही असुराणं Mचउरासीई य होइ नागाणं । बावत्तरि सुवन्नाण वाउकुमाराण छन्न उई॥१॥ दीवदिसाउदहीणं विजुकुमा-IP रिंदणियमग्गीणं । उहंपि जुयलयाणं छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥२॥ केवइया णं भंते ! पुढविकाइयावा| ससपसहस्सा पपणता?, गोयमा असंखेवा पुढविकाइयावाससयसहस्सा पण्णत्ता,गोयमा !जाव असंखिजा ICI||६७॥ जोतिसियचिमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता । सोहम्मे भंते ! कप्पे केवइया विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, गोयमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, एवं-पत्तीसहावीसा बारस अट्ट चउरो सयसहस्सा । पन्ना चत्तालीसा छच्च सहस्सा सहस्सारे ॥१॥ आणयपाणयकप्पे चत्तारि सयाऽऽरणचुए BCC5%95%ॐॐॐ दीप अनुक्रम [५१] अत्र प्रथम-शतके चतुर्थ-उद्देशकः समाप्त: अथ प्रथम-शतके पंचम-उद्देशक: आरब्ध: ~148~ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: C % प्रत सूत्रांक [४३] तिन्नि । सत विमाणसयाई चउसुवि एएमु कप्पेसुं ॥२॥ एक्कारसुत्तरं हेडिमेसु सत्तुत्तरं सयं च मज्झिमए । सयमेग उचरिमए पंचेच अणुत्तरविमाणा ॥३॥ (सू०४३) । तत्र 'रयणप्पभ'त्ति नरकवर्ज प्रायः प्रथमकाण्डे इन्द्रनीलादिबहुविधरत्नसम्भवात् रसानां प्रभा-दीप्तिर्यस्यां साल रत्नप्रभा.यावत्करणादिदं दृश्य-शर्कराप्रभावालुकाप्रभा पङ्कप्रभा धूमप्रभा तमःप्रभेति, शब्दार्थश्च रत्नप्रभावदिति, 'तम-1| तमति तमस्तमःप्रभेत्यर्थः, तत्र प्रकृष्टं तमस्तमस्तमस्तस्येव प्रभा यस्याः सा तमस्तम-प्रभा ॥ एतासु च नरकावासा भवन्तीति तान् आवासाधिकाराच शेषजीवावासान् परिमाणतो दर्शयन्नाह-'इमीसे णमित्यादि, 'अस्यां विनेयप्रत्यक्षायां 'नरयावाससयसहस्स'त्ति आवसन्ति येषु ते आवासाः नरकाश्च ते आवासाश्चेति नरकावासास्तेषां यानि शतसहस्राणि तानि तथेति । शेषपृथिवीसूत्रणि तु गाथाऽनुसारेणाध्येयानि, अत एवाह-'गाह'त्ति, सा चेयं-'तीसा य पन्नवीसा इत्यादि, सूत्राभिलापश्च-'सक्करप्पभाए णं भंते ! पुढवीए कइ निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता', गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता' इत्यादिरिति । 'छण्डंपि जुयलयाण'ति, दक्षिणोत्तरदिग्भेदेनासुरादिनिकायो द्विभेदो भवतीति युगलान्युक्तानि, तत्र षट्सु युगलेषु प्रत्येकं षट्सप्ततिर्भवनलक्षाणामिति । एषां चासुरादिनिकाययुमगलानां दक्षिणोत्तरदिशोरयं विभाग:-"चउतीसा चउचत्ता अकृत्तीसं च सयसहस्साओ । पन्ना चत्तालीसा दाहिणओ | १ चतुर्विंशचतुश्चत्वारिंशदष्टत्रिंशच्च शतसहस्राणि । पञ्चाशचत्वारिंशच दक्षिणस्यां भवनानि भवन्ति ॥ १॥ [१० लक्षाः & षण्णां प्रत्येकम् ] 96%96%25-4-%25 दीप अनुक्रम [५२-६० REairat I murary.om नाराकादिनाम् नामानि एवं वर्षा: ~149~ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४३] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प प्रत सूत्रांक [४३] हुं ति भवणाई ॥१॥" 'चत्तालीसत्ति द्वीपकुमारादीनां पण्णां प्रत्येकं चत्वारिंशद्भवनलक्षा, "तीसा पत्तालीसा। प्रज्ञप्तिःचोत्तीस चेव सयसहस्साई । छायाला छत्तीसा उत्तरओ होति भवणाई ॥१॥"'उत्तीस'त्ति द्वीपकुमारादीनां षण्णां है अभयदेवी-& प्रत्येकं पत्रिंशद्भवनलक्षाणीति ॥ अथाधिकृतोद्देशकार्थसहाय गाथामाह स्थिती या वृत्तिः पुढवि द्विति" ओगाहणसरीरसंघयणमेव संठाणे । लेस्सा "दिही णाणे जोगुव'ओगे य दस ठाणा ॥१॥ क्रोधोपइमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावाससि नेरइ तादिः ॥६८॥ सू४४ it.याण केवड्या ठितिठाणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता, तंजहा-जहनिया ठिती समयाहिया जहनिया ठिई दुसमयाहिया जाव असंखेजसमयाहिया जहनिया ठिई तप्पाउरगुकोसिया ४ ठिती । इमीसे णं भंते रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि जहनियाए ठितीए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता माणोवउत्ता मायोवउत्ता लोभोवउत्ता ?, गोयमा !16 सब्वेवि ताय होजा कोहोवउक्सा १, अहवा कोहोवउत्ता य माणोवउत्ते य २, अहवा कोहोवउत्ता य माणी-|| ४ व उत्ता य ३, अहवा कोहोबउत्ता य मायोवउत्ते य ४, अहवा कोहोवउत्ता यमायोवउत्ता य ५, अहवा। कोहोववत्ता य लोभोवउत्ते य ६, अहवा कोहोवउत्सा य लोभोवउत्ता य ७। अहवा कोहोवउत्ता य माणो-18/ वउत्ते य मायोच उत्ते य १, कोहोवउत्ता य माणोवउत्ते य मायोवउत्ता य२, कोहोवउत्ता य माणोवउत्ता १ विशश्चत्वारिंशचतुस्विंशच्चैव शतसहस्राणि षट्चत्वारिंशत् षण्णां प्रत्येक पत्रिंशदुत्तरस्यां भवनानि भवन्ति ॥१॥ दीप अनुक्रम [५२-६० KHin६८॥ REaratinum ~150~ Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [४४ ] दीप अनुक्रम [६१-६२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर् शतक [-], उद्देशक [ ५ ], मूलं [४४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Educat य मायोउन् य ३, कोहोबत्ता य माणोवउत्ता य मायाउवडत्ता य ४ एवं कोहमाणलोभेणवि चत्र ४, एवं कोहमायालोभेणवि च ४ एवं १२, पच्छा माणेण मायाए लोभेण य कोहो भइयव्वो, ते कोहं अमुंचता ८, एवं सत्तावीसं भंगा णेयव्वा ॥ इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयाचाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि समयाहियाए जहन्नद्वितीय वट्टमाणा नेरइया किं कोहोबत्ता माणोवउत्ता मायोवडता लोभोवडत्ता ?, गोयमा ! कोहोबउसे य माणोवउत्ते य मायोवडत्ते य लोभोवउत्ते य, कोहोबउत्ता यमाणोवन्ता य मायोवन्ता य लोभोवन्ता य, अहवा कोहोवउसे य माणोवउत्ते य, अहवा कोहोवउत्ते य माणोवउत्ता य एवं असीति भंगा नेयव्वा, एवं जाव संखितसमयाहिया टिई असंखेजसमग्राहियाए ठिईए तप्पाकोसियाए ठिईए सत्तावीस भंगा भाणियन्वा ॥ ( सू० ४४ ) 'पुढची 'त्यादि, तत्र पुढवीति लुप्तविभक्तिकत्वान्निर्देशस्य पृथिवीषु उपलक्षणत्वाच्चास्य पृथिव्यादिषु जीवावासेष्विति द्रष्टव्यमिति । 'ठिह'ति 'सूचनात् सूत्र' मिति न्यायात् स्थितिस्थानानि वाघ्यानीति शेषः । एवम् 'ओगाहणे 'ति अबगाहनास्थानानि शरीरादिपदानि तु व्यक्तान्येव एकारान्तं च पदं प्रथमैकवचनान्तं दृश्यम् इत्येवमेतानि स्थितिस्थानादीनि दश वस्तूनि इहोद्देशके विचारयितव्यानीति गाथासमासार्थः, विस्तरार्थं तु सूत्रकारः स्वयमेव वक्ष्यतीति, तत्र रत्नप्रभापृथिव्यां स्थितिस्थानानि तावत्प्ररूपयन्नाह - 'इमीसे णमित्यादि व्यक्तं, नवरम् 'एगमेगंसि निरयाबा संसित्ति प्रतिनरकावा समित्यर्थः 'ठितिठाण'त्ति आयुषो विभागाः 'असंखेज'त्ति सङ्ख्यातीतानि कथं ?, प्रथमपृथि For Parts Only ~ 151~ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] दीप अनुक्रम [६१-६२] व्याख्या-1 व्यपेक्षया जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टा तु सागरोपमम् , एतस्यां चैकैकसमयवृद्ध्याऽसोयानि स्थितिस्था-15| १ शतके प्रज्ञप्तिः ॥ नानि भवन्ति, असपेयत्वात्सागरोपमसमयानामिति, एवं नरकावासापेक्षयाऽप्यसोयान्येव तानि केवलं तेषु जघन्यो-1|| उद्देशः ५ अभयदेवीत्कृष्टविभागो ग्रन्थान्तरादवसेयो, यथा प्रथमप्रस्तटनरकेषु जघन्या स्थितिर्दश वर्षसहस्राणि उत्कृष्टा तु नवतिरिति, स्थिती या वृत्तिः एतदेव दर्शयन्नाह-'जहपिणया ठिती'त्यादि, जघन्या स्थितिर्दशवर्षसहस्रादिका इत्येकं स्थितिस्थानं, तच्च प्रतिनरकं | क्रोधोपयु कादिः भिन्नरूपं, सैव समयाधिकेति द्वितीयम् , इदमपि विचित्रम् , एवं यावदसङ्ख्येयसमयाधिका सा, सर्वान्तिमस्थितिस्थान सू४४ दर्शनायाह-'तप्पाउग्गुक्कोसिय'त्ति, उत्कृष्टा असावनेकविधेति विशेष्यते तस्य-विवक्षितनरकावासस्य प्रायोग्या-उचिता & उत्कर्षिका तत्प्रायोग्योत्कर्षिका इत्यपरं स्थितिस्थानम्, इदमपि चित्रं, विचित्रत्वादुत्कर्षस्थितेरिति ॥ एवं स्थितिस्थानानि प्ररूप्य तेष्वेव क्रोधाद्युपयुक्तत्वान्नारकाणां विभागेन दर्शयन्निदमाह-इमीसे णं इत्यादि, 'जहनियाए ठिईए वमाणस्सत्ति या यत्र नरकावासे जघन्या तस्यां वर्तमानाः, किं कोहोवउत्ते'त्यादि प्रश्ने 'सव्वेवी'त्याधुत्तरं, तत्र च प्रतिनरकं जघन्यस्थितिकानां सदैव भावात् तेषु च क्रोधोपयुक्तानां बहुत्वात्सप्तविंशतिर्भङ्गकाः, एकादिसङ्ग्यातसमयाधिकजघन्यस्थिति. कानां तु कादाचित्कत्वात् तेषु च क्रोधाद्युपयुक्तानामेकत्वानेकत्वसम्भवादशीतिर्भङ्गकाः, एकेन्द्रियेषु तु सर्वकषायोपयुक्तानां | प्रत्येक बहूनां भावादभङ्गकम, आह च-"संभवइ जहिं विरहो असीई भंगा तहिं करेजाहि । जहियं न होइ बिरहो & अभंगयं सत्तबीसा वा ॥१॥" अयं च तत्सत्तापेक्षो विरहो द्रष्टव्यो, न तूत्पादापेक्षया, यतो रत्नप्रमायां चतुर्विंशति १-यत्र (एकादिसङ्ख्यातसमयाधिकादौ ) विरहः संभवति तत्राशीति भङ्गानां कुर्यात् । यत्र न विरहो भवति तत्रामङ्गक सप्तविंशतिर्या ॥१॥ 5555534 Indiranmaru ~152 Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४४] हर्ता उत्पादविरहकाल उक्तः, ततश्च यत्र सप्तविंशतिर्भङ्गका उच्यन्ते तत्रापि विरहभावादशीतिः प्राप्नोति, सप्तविंशतेपाश्चाभाव एवेति, तत्र 'सव्येवि ताव होज कोहोवउत्त'त्ति, प्रतिनरकं स्वकीयस्वकीयस्थित्यपेक्षया जघन्यस्थितिकानां Mनारकाणां सदैव बहूनां सद्भावात् नारकभवस्य च क्रोधोदयप्रचुरत्वात्सर्व एव क्रोधोपयुक्ता भवेयुरित्येको भङ्गः AN'अहवा इत्यादिना द्वित्रिचतुःसंयोगभङ्गा दर्शिताः, तत्र द्विकसंयोगे बहुवचनान्तं क्रोधममुञ्चता षडू भङ्गाः कार्याः, तथाहि-क्रोधोषयुक्तश्च मानोपयुक्ताश्च १ तथा क्रोधोपयुक्ताश्च मानोपयुक्ताश्च २, एवं मायया एकत्वबहुत्वाभ्यां दौ, लोभेन च द्वौ, एवमेते द्विकसंयोगे षट् । त्रिकसंयोगे तु द्वादश भवन्ति १२, तथाहि-क्रोधे नित्यं बहुवचनं मानमाययोरेकवचनमित्येकः १, मानैकत्वे मायाबहुत्वे च द्वितीयः २, माने बहुवचनं मायायामे| कत्वमिति तृतीयः ३, मानवहुत्वे मायाबहुत्वे च चतुर्थः ४, पुनः क्रोधमानलोभरित्थमेव चत्वारः ४, पुनः क्रोधमाया ला लोभैरिस्थमेव चत्वारः ४, एवमेते द्वादश १२ । चतुष्कसंयोगे त्वष्टी, तथाहि-क्रोधे बहुवचनेन मानमायालोभेषु चैकवIM चनेनैकः, एवमेव लोभे बहुवचनेन द्वितीयः, एवमेतावेकवचनान्तमायया जाती, एवमेव बहुवचनान्तमाययाऽन्यौ द्वौ, का एवमेते चत्वार एकवचनान्तमानेन जाताः, एवमेव बहुवचनान्तमानेन चत्वार इत्येवमष्टौ, एवमेते जघन्यस्थितिषु नारकेषु सप्तविंशतिर्भवन्ति, जघन्यस्थितौ हि बहवो नारका भवन्त्यतः क्रोधे बहुवचनमेव ॥ 'समयाहियाए जहन्नहिईए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता' इत्यादि प्रश्नः, इहोत्तरम्-'कोहोवउत्ते य' इत्यादयोऽशीतिभङ्गाः, इह समयाधिकायां यावत्सङ्ख्येयसमयाधिकायां जघन्यस्थितौ नारका न भवन्त्यपि, भवन्ति चेदेको वाऽनेको धेति ततः क्रोधादि दीप अनुक्रम [६१-६२]] ~153~ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४४] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: स्थिती क्रोधोपयु प्रत सूत्रांक [४४] सू४४ दीप अनुक्रम [६१-६२] व्याख्या- वेकत्वेन चत्वारो विकल्पाः, बहुत्वेन चान्ये चत्वार एव ४, द्विकर्मयोगे चतुर्विंशतिः, तथाहि क्रोधमानयोरेकत्वब- १ शतके प्रज्ञप्तिःहत्वाभ्यां चत्वारः ४, एवं क्रोधमाययोः४, एवं क्रोधलोभयोः ४, एवं मानमाययोः ४, एवं मानलोभयोः ४, एवं माया- उद्देशः ५ अभयदेवी लोभयोरिति ४ द्विकसंयोगे चतुर्विंशतिः । त्रिकसंयोगे द्वात्रिंशत् , तथाहि-क्रोधमानमायास्वेकत्वेनैकः, एष्वेव माया-द यावृत्तिः बहुत्वेन द्वितीयः, एवमेती मानकत्वेन, द्वावेवान्यौ तद्बहुत्वेन, एवमेते चत्वारः क्रोधैकत्वेन चत्वार एवान्ये क्रोधबहु॥७॥ |स्वेनेत्येवमष्टौ क्रोधमानमायात्रिके जाताः, तथैवान्येऽष्टी क्रोधमानलोभेष. तथैवान्येऽष्टौ क्रोधमायालोभेषु, तथैवान्येऽष्टौ त्वनत्यवमष्टा काधमानमायात्रिक जाताः, तथवान्यऽष्टा क्रोध कादिर ॥४मानमायालोभेष्विति द्वात्रिंशत् । चतुष्कसंयोगे पोडश, तथाहि-क्रोधादिष्वेकत्वेनैको लोभस्य बहुत्वेन द्वितीयः, एव-III |मेती मायकत्वेन, तथाऽन्यौ मायावहत्वेन, एवमेते चत्वारो मानकत्वेन, तथाऽन्ये चत्वार एवं मानबहुत्वेन, एवमेतेऽष्टी |कोधेकत्वेन, एवमन्येऽष्टौ क्रोधबहुत्वेनेति पोडश, एवमेते सर्व एवाशीतिरिति, एते च जघन्यस्थिती एकादिसङ्ग्यातान्त-131 Xसमयाधिकायां भवन्ति, असङ्ग्यातसमयाधिकायास्तु जघन्यस्थितेरारभ्योत्कृष्टस्थिति यावत्सप्तविंशतिभेगास्त एव, तत्र | है नारकाणां बहुत्वादिति । अथावगाहनाद्वारं तत्र| इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पदवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि नेरह-15 याणं केवइया ओगाहणाठाणा पन्नता?, गोयमा! असंखेज्जा ओगाहणाठाणा पन्नत्ता, तंजहा-जहनिया ॥७०० ओगाहणा, पदेसाहिया जहनिया ओगाहणा. दप्पएसाहिया जहनिया ओगाहणा, जाच असंखिजपएसाहिया जहनिया ओगाहणा, तप्पाउग्गुकोसिया ओगाहणा ॥ हमीसे भंते। रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निर-12 REarahmundana ~154~ Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५]] यावाससयसहस्सेसु एगमेगसि निरयावासंसि जहन्नियाए ओगाहणाए वट्टमाणा नेरइया कि कोहोवउत्ता, असीइभंगा भाणियव्वा जाव संखिजपएसाहिया जहन्निया ओगाहणा, असंखेजपएसाहियाए जहन्नियाए ओगाहणाए वट्टमाणाणं तप्पाउग्गुकोसियाए ओगाहणाए वट्टमाणाणं नेरइयाणं दोसुवि सत्तावीसं भंगा॥ इसीसे णं भंते ! रयण जाव एगमगंसि निरयावासंसि नेरइयाणं कह सरीरया पण्णत्ता ?, गोयमा! तिन्नि सरीरया पण्णता, तंजहा-वेउव्विए तेयए कम्मए । इमीसे गं भंते ! जाच वेउब्वियसरीरे वट्टमाणां नेरइया कि कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा भाणियब्वा, एएणं गमएणं तिन्नि सरीरा भाणियब्वा ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढविए जाव नेरइयाणं सरीरया किंसंघयणी पन्नत्ता, गोयमा ! छहं संघयणाणं अस्संघयणी, नेवट्ठी नेव छिरा नेव पहारूणि जे पोग्गला अणिहा अर्कता अप्पिया असुहा अमणुन्ना अमप्रणामा, एतेसिं सरीरसंघायत्ताए परिणमंति ॥ इमीसे णं भंते ! जाच छण्हं संघयणाणं असंघयणे वट्टमा&णाणं नेरच्या किं कोहोवउत्ता ? सत्तावीसं भंगा॥ इमीसे गं भंते ! रयणप्पभा जाव सरीरिया किंसंठिया पन्नता, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा--भवधारणिज्जा य उत्तरविउब्विया य, तत्थ णं जे ते भवधारणिज्जा ते हुंडसंठिया पण्णत्ता, तत्थ णं जे ते उत्तरवेउब्विया तेवि हुंडसंठिया पण्णत्ता । इमीसे णं जाय &ा हुंडसंठाणे घट्टमाणा नेरइया किं कोहोवउत्ता? सत्तावीसं भंगा ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए दीप अनुक्रम [६३] REaratund ~155~ Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [४५] दीप अनुक्रम [ ६३ ] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [ ५ ], मूलं [ ४५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ | नेरइयाणं कति लेस्साओ पत्ता ?, गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता । इमीसे णं भंते । रयणप्पभाए जाव काउलेस्साए बट्टमाणा सत्तावीसं भंगा ॥ ( सू० ४५ ) ॥ ७१ ॥ 'ओगाहणाठाण' ति अवगाहन्ते - आसते यस्यां साऽवगाहना-तनुस्तदाधारभूतं वा क्षेत्रं तस्याः स्थानानि प्रदेशवृद्ध्या विभागाः अवगाहनास्थानानि, तत्र 'जहन्निय'त्ति जघन्याऽङ्गलास होय भागमात्रा सर्वनरकेषु 'तप्पाउग्गुकोसिय' ४ ति तस्य विवक्षितनरकस्य प्रायोग्या या उत्कर्षिका सा तत्प्रायोग्योत्कर्षिका यथा त्रयोदशप्रस्तटे धनुःसप्तकं रलित्रयमकुलपङ्कं चेति । 'जहन्नियाए' इत्यादि जघन्यायां तस्यामेव चैकादिसङ्ख्यातान्तप्रदेशाधिकायामवगाहनायां वर्त्तमानानां नारकाणामल्पत्वात् क्रोधाद्युपयुक्त एकोऽपि लभ्यतेऽतोऽशीतिर्भङ्गाः । 'असंखेजपएसे'त्यादि, असङ्ख्यातप्रदेशाधिकायां तत्प्रायोग्योत्कृष्टायां च नारकाणां बहुत्वात् तेषु च बहूनां क्रोधोपयुक्तत्वेन क्रोधे बहुवचनस्य भावात् मानादिषु त्वेकत्वबहुत्वसम्भवात्सप्तविंशतिर्भङ्गा भवन्तीति । ननु ये जघन्यस्थितयो जघन्यावगाहनाश्च भवन्ति तेषां जघन्यस्थितिकत्वेन | सप्तविंशतिर्भङ्गकाः प्राशुवन्ति जघन्यावगाहनत्वेन चाशीतिरिति विरोधः ?, अत्रोच्यते, जघन्यस्थितिकानामपि जघन्यावगाहनाकालेऽशीतिरेव, उत्पत्तिकालभावित्वेन जघन्यावगाहनानामल्पत्वादिति, या च जघन्यस्थितिकानां सप्तविंशतिः सा जघन्यावगाहनत्वमतिक्रान्तानामिति भावनीयम् ॥ शरीरद्वारे 'सत्तावीसं भंग'त्ति, अनेन यद्यपि वैक्रि| यशरीरे सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तास्तथाऽपि या स्थित्याश्रया अवगाहनाश्रया च भङ्गकप्ररूपणा सा तथैव दृश्या, निरवकाशत्वात्तस्याः, शरीराश्रयायाश्च सावकाशत्वात् एवमन्यत्रापि विमर्शनीयमिति । 'एएणं गमेणं तिन्नि सरीरया भाणि For Park Use Only ~156~ १ शतके उद्देशः ५ अवगाह नाशरीरसं हननसंस्था नलेश्यासुक्रो० सू ४५ ॥ ७१ ॥ norary org Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४५]] ४ यवत्ति, वैक्रियशरीरसूत्रपाठेन त्रीणि शरीरकाणि वैक्रियतैजसकार्मणानि भणितव्यानि, त्रिष्वपि भङ्गकाः सप्तविंशतिलाच्येत्यर्थः, ननु विग्रहगतो केवले ये तैजसकार्मणशरीरे स्यातां तयोरल्पत्वेनाशीतिरपि भङ्गकानां संभवतीति कथमु च्यते ? तयोः सप्तविंशतिरेवेति, अत्रोच्यते, सत्यमेतत् केवलं वैक्रियशरीरानुगतयोस्तयोरिहाश्रयणं केवलयोश्चानाश्रयणमिति सप्तविंशतिरेवेति, यच्च द्वयोरेवातिदेश्यत्वे त्रीणीत्युक्तं तच त्रयाणामपि गमस्यात्यन्तसाम्योपदर्शनार्थमिति ।। सिंहननद्वारे 'छण्हं संघयणाणं असंघणित्ति, षण्णां संहननानां-वज्रर्षभनाराचादीनां मध्यादेकतरेणापि संहननेनासहननानीति, कस्मादेवमित्यत आह-'नेवट्ठी'त्यादि, नैवास्थ्यादीनि तेषां सन्ति अस्थिसञ्चयरूपं च संहननमुच्यत इति, 'अनिट्ठ'त्ति इप्यन्ते मेतीष्टास्तनिषेधादनिष्टाः, अनिष्टमपि किञ्चित्कमनीयं भवतीत्यत उच्यते-अकान्ताः, अकान्तमपि किश्चित्कारणवशात् प्रीतये भवतीत्याह-(मन्थानम् २०००)'अप्पिया' अप्रीतिहेतवः, अप्रियत्वं तेषां कुतः', यतः 'असुभ'त्ति अशुभस्वभावाः, ते च सामान्या अपि भवन्तीत्यतो विशेष्यते-'अमणुण्ण'त्ति न मनसा:-अन्तःसंवेदनेन शुभतया ज्ञायन्त इत्यमनोज्ञाः, अमनोज्ञता चैकदाऽपि स्यादत आह-'अमणाम'त्ति न मनसा अम्यन्तेगम्यन्ते पुनः पुनः स्मरणतो ये ते अमनोऽमाः, एकाथिका वैते शब्दाः अनिष्टताप्रकर्षप्रतिपादनार्था इति । एतेसि सरीरसंघायत्ताए'त्ति साततया, शरीररूपसञ्चयतयेत्यर्थः। संस्थानद्वारे 'किंसंठिय'त्ति किं संस्थित-संस्थानं येषां तानि किंसंस्थितानि, 'भवधारणिज्जत्ति, भवधारणं-निजजन्मातिवाहनं प्रयोजनं येषां तानि भवधारणीयानि, आज दीप अनुक्रम [६३] P armarary.org ~157~ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदवी- या वृत्तिः प्रत सूत्रांक [४५]] " न्मधारणीयानीत्यर्थः, 'उत्तरवेउब्विय'त्ति पूर्ववैक्रियापेक्षयोत्तराणि-उत्तरकालभावीनि वैक्रियाणि उत्तरवैक्रियाणि, || १ शतके 'हुंडसंठिय'ति सर्वत्रासंस्थितानि ॥ है उद्देशः५ दर्शनज्ञाइमीसे णं जाव किं सम्मदिही मिच्छादिही सम्मामिच्छादिही, तिन्निवि । इमीसे णं जाव सम्मईसणे। वट्टमाणा नेरइया सत्तावीसं भंगा, एवं मिच्छादसणेवि, सम्मामिच्छादंसणे असीति भंगा ॥ इमीसे णं हा भंते ! जाच किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा! णाणीवि अन्नाणीवि, तिन्नि नाणाई नियमा, तिन्नि अन्नाणाईकोस ४६ भयणाए । इमीसे गं भंते ! जाव आभिणियोहियनाणे वट्टमाणा सत्तावीसं भंगा, एवं तिनि नाणाई तिन्नि* अन्नाणाई भाणियब्वाई। इमीसे णं जाय किंमणजोगी वडजोगी कायजोगी.? तिन्निवि । इमीसे णं जाव || मणजोए वट्टमाणा कोहोवउत्ता, सत्तावीसं भंगा। एवं वइजोए एवं कायजोए ॥ इमीसेणं जाव नेरइया किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्सा, गोयमा! सागारोवउत्तावि अणागारोवउत्तावि । इमीसे णं जावसागारोवओगे घट्टमाणा किं कोहोवउत्ता, सत्तावीसं भंगा । एवं अणागारोवउत्साथि सत्तावीसं 'भंगा ॥ एवं सत्तवि पुढविओ नेयचाओ, णाणसं लेसासु गाहा-काऊय दोस तश्याए मीसिया नीलिया चउ-|| ॥७२॥ थीए । पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥१॥(सू०.४६) दृष्टिद्वारे 'सम्मामिच्छादसणे असीइभंग'त्ति मिश्रादृष्टीनामल्पत्वात्तद्धावस्यापि च कालतोऽल्पत्वादेकोऽपि लभ्यते | इत्यशीतिभङ्गाः॥ ज्ञानद्वारे 'तिन्नि णाणाई नियम'त्ति ये ससम्यक्त्वा नरकेषुत्पद्यन्ते तेषां प्रथमसमयादारभ्य भव दीप अनुक्रम [६३] 5 -% ERX RELIERtunintentarin ~158~ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [४६] +गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४६] गाथा ॐॐॐॐॐ प्रत्ययस्यावधिज्ञानस्य भावात् त्रिज्ञानिन एव ते, ये तु मिथ्यादृष्टयस्ते सज्ञिभ्योऽसज्ञिभ्यश्चोत्पद्यन्ते, तत्र ये सन्निभ्यस्ते भवप्रत्ययादेव विभङ्गस्य भावात् व्यज्ञानिनः, ये त्वसज्ञिभ्यस्तेषामाद्यादन्तर्मुहूर्तात्परतो विभङ्गस्योत्पत्तिरिति तेषां पूर्वमज्ञानद्वयं पश्चाद्विभङ्गोत्पत्तावज्ञानत्रयमित्यत उच्यते-'तिन्नि अण्णाणाई भयणाए'त्ति भजनया' विकल्प-10 || नया कदाचिढ़े कदाचित्रीणीत्यर्थः, अत्रार्थ गाथे स्याताम्-"सन्नी नेरइएसुं उरलपरिचायणंतरे समए । विन्भंग ओहि | वा अविग्गहे विग्गहे लहइ ॥१॥ अस्सन्नी नरएसुं पज्जतो जेण लहइ विन्भंगं । नाणा तिन्नेव तओ अन्नाणा दोन्नि तिन्नेव ॥२॥" एवं तिन्नि णाणे'त्यादि, आभिनिबोधिकज्ञानवत् सप्तविंशतिभङ्गकोपेतानि आद्यानि त्रीणि ज्ञानानि * अज्ञानानि चेति, इह च त्रीणि ज्ञानानीति यदुक्तं तदाभिनिबोधिकस्य पुनर्गणनेनान्यथा द्वे एव ते वाच्ये स्यातामिति । 'तिन्नि अन्नाणाई' इत्यत्र यदि मत्यज्ञानश्रुताज्ञाने विभङ्गात्पूर्वकालभाविनी विवक्ष्येते तदाऽशीतिर्भङ्गा लभ्यन्ते, अल्पत्वात्तेषां, किन्तु जघन्यावगाहनास्ते ततो जघन्यावगाहनाश्रयेणैवाशीतिर्भङ्गकास्तेषामवसेया इति ॥ योगद्वारे 'एवं कायजोए'त्ति, इह यद्यपि केवलकार्मणकाययोगेऽशीतिभङ्गाः संभवन्ति तथाऽपि तस्याविवक्षणात् सामान्यकाययोगाश्रयणाच, सप्तविंशतिरुक्तेति ।। उपयोगद्वारे 'सागारोवउत्त'त्ति, आकारो-विशेषांशग्रहणशक्तिस्तेन सहेति साकारः, तद्विकलोनाकारः सामान्यग्राहीत्यर्थः । 'णाणसं लेसासु'त्ति, रलप्रभापृथिवीप्रकरणवच्छेषपृथिवीप्रकरणान्यध्येयानि,केवलं लेश्यासु १ सञ्जी औदारिकपरित्यागानन्तरसमयेऽविग्रहो विग्रहो वा नैरयिकेषु लभते विभामवधि वा ॥१॥ असनी येन पर्याप्तः सन् ६ विभङ्ग लभते नरकेषु । ततो ज्ञानानि त्रीणि भज्ञानानि त्रीणि द्वे वा ॥२॥ दीप अनुक्रम [६४-६५] व्या .. ३ ~159~ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) སྒྲ + ངྒལླཱ ཡྻ |[६४-६५ ] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४६] +गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः १ ॥ ७३ ॥ Educator विशेषः, तासां भिन्नत्वाद्, अत एव तदर्शनाय गाथा- 'काऊ' इत्यादि, तत्र 'तहयाए मीसिय'त्ति वालुकाप्रभाप्रकरणे ४११ शतके | उपरितननरकेषु कापोती अधस्तनेषु तु नीली भवतीति यथासम्भवं प्रश्नसूत्रे उत्तरसूत्रे चाध्येतव्य इत्यर्थः, यच्च सूत्राभिला| पेषु नरकावा ससज्ञयानानात्वं तत् 'तीसा य पन्नवीसा' इत्यादिना पूर्वप्रदर्शितेन समव सेयमिति, एवं सूत्राभिलापः कार्यः'सक्करप्पभाषणं भंते ! पुढवीए पणवीसाए निरयावाससयस हस्सेसु एकमेकंसि निरयावासंसि कइ लेस्साओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! एगा काउलेस्सा पण्णत्ता । सकरप्पभाए णं भंते ! जाव काउलेसाए वट्टमाणा नेरइया किं कोहोबत्ता?' इत्यादि 'जाव सत्तावीसं भंगा'। एवं सर्वपृथिवीषु गाथाऽनुसारेण वाच्याः ॥ सीएणं भंते! असुरकुमारावाससयसहस्सेस एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं केव इया ठिइठाणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! असंखेज्जा ठितिठाणा पण्णत्ता, जहन्निया ठिई जहा नेरइया तहा, नवरं पडिलोमा भंगा भाणियच्चा - सव्वेवि ताव होल लोभोवउता, अहवा लोभोवउत्ता य मायोवउत्ते य, अहवा लोभोवउत्ता य मायोवउत्ता य, एएणं गमेणं नेयव्वं जाव धणिय कुमाराणं, नवरं णाणत्तं जाणियध्वं ॥ (सू० ४७) । असुरकुमारप्रकरणे 'पहिलोमा भंग'त्ति, नारकप्रकरणे हि क्रोधमानादिना क्रमेण भङ्गकनिर्देशः कृतः, असुरकुमारादिप्रकरणेषु लोभमायादिनाऽसौ कार्य इत्यर्थः, अत एवाह - 'सब्वेवि ताव होज लोहोवउस'त्ति, देवा हि प्रायो लोभवन्तो भवन्ति तेन सर्वेऽप्यसुरकुमारा टोभोपयुक्ताः स्युः, द्विकसंयोगे तु लोभोपयुक्तत्वे बहुवचनमेव, मायोपयोगे त्वेकत्ववहुत्वाभ्यां द्वौ भङ्गको, एवं सप्तविंशतिर्भङ्गकाः कार्याः, 'नवरं णाणतं जाणियव्वंति नारकाणामसुरकुमारादीनां च For Parts Only ~ 160~ उद्देश: ५ नारकस्थि त्वदौक्रोधा खू ४३ ॥ ७३ ॥ rary org Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: PRA प्रत सूत्रांक [४७] परस्परं नानात्वं ज्ञात्वा प्रश्नसूत्राणि उत्तरसूत्राणि चाध्येयानीति हृदयं, तच्च नारकाणामसुरकुमारादीनां च संहननसंस्थानलेश्यासूत्रेषु भवति, तच्चैवम्-'चउसद्वीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि असुरकुमारावासंसि असुरकुमाराणं सरीरगा किंसंघयणी, गोयमा ! असंघयणी, जे पोग्गला इहा कंता ते तेसिं संघायत्साए परिणमंति, एवं |संठाणेवि, नवरं भवधारणिज्जा समचउरंससंठिया उत्तरवेउबिया अन्नयरसंठिया एवं लेसासुवि, नवरं कइ लेस्साओ पन्न-16 ताओ?, गोयमा ! चत्तारि, तंजहा-किण्हा नीला काऊ तेऊलेसा, चउसठ्ठीए णं जाव कण्हलेसाए वट्टमाणा किं कोहोव| उत्ता ?, गोयमा ! सधेवि ताव होज लोहोवउत्ता' इत्यादि, एवं 'नीलाकाऊतेऊवि' नागकुमारादिप्रकरणेषु तु 'चुलसीए| नागकुमारावाससयसहस्सेसु' इत्येवं “चउसट्ठी असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीइ" इत्यादेवेचनात् प्रश्नसूत्रेषु भवन-1 समानानात्वमवगम्य सूत्राभिलापः कार्य इति ॥ &I असंखेजेसु णं भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयाणं केव-12 तिया ठितिठाणा पण्णत्ता ?, गोयमा! असंखेजा ठितिठाणा पण्णत्ता, तंजहा-जहन्निया ठिई जाव तप्पाका उग्गुकोसिया ठिई । असंखेनेसुण भंते ! पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि पुढविक्काइयावासंसि ४ जहनियाए ठितीए वट्टमाणा पुढविकाइया कि कोहोवउत्ता माणोवउत्तामायोवउत्ता लोभोवउत्ता?, गोयमा! कोहोवउत्तावि माणोवउत्तावि मायोवउत्तावि लोभोवउत्तावि, एवं पुढविक्काइयाणं सव्वेसुवि ठाणेसु अभं दीप अनुक्रम [६६] KARSASSAGAR SERIAN ~161~ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] सू४८ दीप अनुक्रम [६७] गयं, नवरं तेउलेस्साए असीति भंगा, एवं आउक्काइयावि, तेउकाइयवाउकाइयाणं सव्वेसुवि ठाणेसु अभं- १ शतके 18 उद्देशः ५ मज्ञप्तिः गयं ॥ वणस्सइकाइया जहा पुढविक्काइया ॥ (सू० ४८)॥ अभयदेवी- | असुराणां'एवं पुढविकाइयाणं सब्वेसु ठाणेसु अभंगति, पृथिवीकायिका एकैकस्मिन् कषाये उपयुक्ता बहवो लभ्यन्त स्थित्यादी या वृत्तिः इत्यभङ्गक दशस्वपि स्थानेषु, नवरं 'तेउलेसाए असीई भंग'त्ति, पृथिवीकायिकेषु लेश्याद्वारे तेजोलेश्या वाच्या, सा को.४७ पृ॥ ७४॥ च यदा देवलोकाञ्चयुत्तो देव एकोऽनेको वा पृथिवीकायिकेषत्पद्यते तदा भवति, ततश्च तदैकत्वादिभवनादशीतिर्भङ्गका | व्यादीनां आल भवन्तीति । इह पृथिवीकायिकप्रकरणे स्थितिस्थानद्वारं साक्षाल्लिखितमेवास्ति, शेषाणि तु नारकवद्वाच्यानि, तत्र च 'नवर। |णाणतं जाणियवं' इत्येतस्यानुवृत्तेर्नानात्वमिह प्रश्नत उत्तरतश्चावसेयं, तच शरीरादिषु सप्तम द्वारेष्विदम्-'असंखिजेसु शाण भंते ! पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु जाव पुढविकाइयाणं कइ सरीरा पन्नत्ता, गोयमा । तिनि सरीरा, तंजहा ओरालिए तेयए कम्मए' एतेषु च 'कोहोवउत्तावि माणोवउत्तावी त्यादि वाच्यं, तथा 'असंखेज्जेसु णं जाव पुढविकाइयाणं सरीरंगा किंसंघयणी ?' इत्यादि तथैव, नवरं 'पोग्गला मणुन्ना अमणुन्ना सरीरसंघायत्ताए परिणमंति' एवं संस्थानद्वारेऽपि. किन्त उत्तरे 'हंडसंठिया' एतावदेव वाच्यं न तु 'दुविहा सरीरगा पन्नत्ता, तंजहा-भवधारणिज्जा य उत्तरवेज-|| दिया य' इत्यादि, पृथिवीकायिकानां तदभावादिति । लेश्याद्वारे पुनरेवं वाच्यं-'पुढविक्काइयाणं भंते ! कइ लेस्साओ पन्न M ॥ ७४॥ ताओ?, गोयमा ! चत्तारि, तंजहा-कण्हलेसा जाव तेउलेसा' एतासु च तिसृष्वभङ्गकमेव, तेजोलेश्यायां त्वशीतिर्भङ्गकाः, एतच प्रागेवोक्तमिति । दृष्टिद्वारे इदं वाच्यम्-'असंखेजेसु जाव पुढविकाइया किं सम्मादिही मिच्छादिही | * REaamana ~162~ Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [४८] दीप अनुक्रम [६७] सम्मामिच्छादिही, गोयमा ! मिच्छादिही', शेष तथैव । ज्ञानद्वारे तथैव, नवरं 'पुढविकाइया णं भंते । किं णाणी अन्नाणी, गोयमा ! णो णाणी अन्नाणी नियमा दो अन्नाणी' । योगद्वारेऽपि तथैव, नवरं 'पुढविकाइया ण भंते ! कि मणजोगी वइजोगी कायजोगी?, गोयमा! नो मणजोगी नो बयजोगी कायजोगी' ॥ एवं आउक्काइयावित्ति पृथिवी-12 कायिकवदप्कायिका अपि वाच्याः, ते हि दशस्वपि स्थानकेश्वभङ्गकार, तेजोलेश्यायां चाशीतिभङ्गकवन्तो, यतस्तेष्वपि देव उत्पद्यत इति ।, 'तेउकाइए' त्यादौ 'सब्वेसु ठाणेसु'त्ति स्थितिस्थानादिषु दशस्वप्यभङ्गक, क्रोधाधुपयुक्तानामेकदैव लातेषु बहूनां भावात् , इह देवा नोत्पद्यन्त इति तेजोलेश्या तेषु नास्ति, ततस्तत्सम्भवान्नाशीतिरपीत्यभङ्गकमेवेति, एतेषु च सूत्राणि पृथिवीकायिकसमानि केवलं वायुकायसूत्रेषु शरीरद्वारे एवमध्येयम्-'असंखेजेसुण भंते ! जाव वाउकाइयाण कइ सरीरा पन्नत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि, तंजहा-ओरालिए वे उषिए तेयए कम्मए'ति ॥ 'यणस्सइकाइए' त्यादि, बनस्पतयः पृथिवीकायिकसमाना वक्तव्याः, दशस्वपि स्थानकेषु भङ्गकाभावात् , तेजोलेश्यायां च तथैवाशीतिभङ्गकसभावादिति । ननु पृथिव्यम्बुवनस्पतीनां दृष्टिद्वारे सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं कर्मग्रन्थेष्वभ्युपगम्यते, तत एव च ज्ञानद्वारे मतिज्ञानं श्रुतज्ञानं च, अल्पाश्चैते इत्येवमशीतिर्भङ्गाः सम्यग्दर्शनाभिनियोधिक श्रुतज्ञानेषु भवन्तु, नैवं, पृथिव्यादिषु | सास्वादनभावस्यात्यन्तविरलत्वेनाविवक्षितत्वात् , तत एवोच्यते-"उभयाभावो पुढवाइएसु विगलेसु होज उववण्णो।" त्ति, 'उभयं' प्रतिपद्यमानपूर्वप्रतिपन्नरूपमिति ॥ १ पूर्वपतिपन्नपतिपद्यमानोभयाभावः पृथिव्यादिषु विकलेधूपपन्नो भवेत् ।। SALASSORRENCES REaramila ~163~ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी प्रत सूत्रांक [४९] या वृत्तिः ७५॥ दीप अनुक्रम [६८] बेइंदियतेइंदियचउंरिंदियाणं जेहिं ठाणेहिं नेरतियाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं असीई चेव, नवरं ठी १ शतके अन्भहिया सम्मत्ते आभिणियोहियनाणे सुयनाणे य, एएहिं असीहभंगा, जेहिं ठाणोहिं नेरतियाणं सत्ता-16 उद्देशः ५ वीसं भंगा तेसु ठाणेसु सब्वेसु अभंगयं ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा नेरइया तहा भाणियब्वा, नवरं दींद्रियाजेहिं सत्तावीस भंगा तेहिं अभंगयं कायव्वं जत्थ असीति तत्थ असीति चेव ॥ मणुस्साणवि जेहिं ठाणेहिं दिवैमानि कान्तानां नेरझ्याणं असीतिभंगा तेहिं ठाणेहि मणस्साणवि असीतिभंगा भाणियब्वा, जेसु ठाणेसु सत्तावीसा तेसुद सू ४९ अभंगयं, नवरं मणुस्साणं अम्भहियं जहनिया ठिई आहारए य असीति भंगा ॥ वाणर्मतरजोइसवेमाणिया जहा भवणवासी, नवरंणाणसं जाणियच्च जं जस्स, जाव अणुसरा, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति॥ (सू०४९)। पंचमो उद्देसो सम्मत्तो॥५॥ | 'बेइंदिए'त्यादावेवमक्षरघटना-जेहिं ठाणेहिं नेरइयाणं असीइभंगा तेहिं ठाणेहिं बेइंदियतेइंदियचरिं|दियाणं असीई चेव'त्ति, तत्रेकादिसङ्ख्यातान्तसमयाधिकायां जघन्य स्थिती १ तथा जघन्यायामवगाहनायां च २ | तत्रैव च सङ्ख्ययान्तप्रदेशवृद्धायां ३ मिश्ररष्टी च नारकाणामशीतिर्भङ्गका उक्ता, विकलेन्द्रियाणामप्येतेषु स्थानेषु मिश्र-18 ॥७५॥ दृष्टिवर्जेष्वशीतिरेव, अल्पत्वाचेषाम् एकैकस्यापि क्रोधाद्युपयुक्तस्य सम्भवात, मिश्रदृष्टिस्तु विकलेन्द्रियेष्वेकेन्द्रियेषु च |न संभवतीति न विकलेन्द्रियाणां तत्राशीतिभङ्गकसम्भव इति, वृद्ध स्त्विह सूत्रे कुतोऽपि वाचनाविशेषाद् यत्राशीतिस्तत्राप्यभङ्गकमिति व्याख्यातमिति । इहैव विशेषाभिधानायाह-नवरमित्यादि, अयमर्थः-दृष्टिद्वारे ज्ञानद्वारे च नार-1 ~164~ Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ROCCASC [४९] दीप अनुक्रम [६८] काणां सप्तविंशतिरुक्ता, विकलेन्द्रियाणां तु 'अन्भहिय'त्ति अभ्यधिकान्यशीतिर्भङ्गकानां भवति, क? इत्याह-सम्यक्त्वे, अल्पीयसां हि विकलेन्द्रियाणां सास्वादनभावेन सम्यक्त्वं भवति, अल्पत्वाच्चैतेषामेकत्वस्यापि सम्भवेनाशीतिर्भङ्गकानां भवति,एवमाभिनिवोधिके श्रुते चेति । तथा 'जेही त्यादि, येषु स्थानकेषु नैरयिकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गाकास्तेषु स्थानेषु द्वि वि.४ | चतुरिन्द्रियाणां भङ्गकाभावः, तानि च प्रागुक्ताशीतिर्भङ्गक स्थानविशिष्टानि मन्तच्यानि, भङ्गकाभावश्च क्रोधाधुपयुक्ताना| मेकदैव बहूनां भावादिति । विकलेन्द्रियसूत्राणि च पृथिवीकायिक सूत्राणीवाध्येयानि, नवरमिह लेश्याद्वारे-तेजोलेश्या | नाध्येतव्या, दृष्टिद्वारे च 'बेइंदिया णं भंते ! किं सम्मद्दिकी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिही ?, गोयमा ! सम्मदिडीवि मा मिच्छविहीवि नो सम्मामिच्छादिष्ठी, सम्मईसणे वट्टमाणा बेइंदिया कि कोहोवउत्ता?' इत्यादि प्रश्नोत्तरमशीतिभङ्गकाः। तथा ज्ञानद्वारे-बेइंदिया णं भंते ! किं णाणी अन्नाणी ?, गोयमा! णाणीवि अन्नाणीवि, जइ णाणी दुन्नाणी मइणाणी ||* सुयणाणी य' शेषं तथैवाशीतिश्च भङ्गा इति। योगद्वारे 'बेइंदिया णं भंते ! किं मणजोगी वइजोगी कायजोगी,गोयमा ! णो मणजोगी वइजोगी कायजोगी य' शेषं तथैव । एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियसूत्राण्यपि ॥ 'पंचेदिये त्यादि'जहिं सत्तावीस भंग'त्ति, यत्र नारकाणां सप्तविंशतिर्भङ्गकास्तत्र पञ्चेन्द्रियतिरश्चामभङ्गकं, तच्च जघन्यस्थित्यादिकं पूर्व दर्शितमेव, भङ्गकाभावश्च क्रोधाद्युपयुक्तानां बहूनामेकदैव तेषु भावादिति, सूत्राणि चेह नारकसूत्रवदध्येयानि, नवरं शरीरद्वारेऽयं विशेषः-15 'असंखेजेसु णं भंते ! पंचिंदयतिरिक्खजोणियावासेसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं केवइया सरीरा पन्नत्सा, गोयमा ? चत्तारि, तंजहा-ओरालिए वेउथिए तेयए कम्मए' सर्वत्र चाभङ्गकमिति । तथा संहननद्वारे 'पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं Saintaintinila R elarary au ~165 Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: दीन्द्रिया प्रत सूत्रांक [४९]] दिवैमानि दीप अनुक्रम [६८] व्याख्या- केवइया संघयणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! छ संघयणा पं०, तंजहा-वइरोसहनारायं जाव छेवडं'ति । एवं संस्थानद्वारेऽपि छ १ शतके प्रज्ञप्तिः संठाणा पन्नत्ता, तंजहा-समचउरंसे ६ । एवं लेश्याद्वारे-'कइलेसाओ पन्नत्ताओ, गोयमा छ लेस्सा प०, तंजहा-किण्ह-18 अभयदेवी-3 लेस्सा' ६॥'मणुस्साणवित्ति, यथा नैरयिका दशसु द्वारेवभिहितास्तथा मनुष्या अपि भणितण्या इति प्रक्रमः, एतया वृत्तिःला देवाह-'जेही' त्यादि, तत्र नारकाणां जघन्यस्थितावेकादिसङ्ख्यातान्तसमयाधिकायां १ तथा जपन्यावगाहनायो २ कान्तानां ॥७६॥ || तस्यामेव सयातान्तप्रदेशाधिकायां ३ मिश् च ४ अशीतिर्भङ्गका उक्ताः, मनुष्याणामप्येतेष्वशीतिरेय, तत्कारणं च | को. सू ४९ तदल्पत्वमेवेति, नारकाणां मनुष्याणां च सर्वधा साम्यपरिहारायाह-'जेसु सत्तावीसा' इत्यादि, सप्तविंशतिर्भङ्गकस्थानानि च नारकाणां जघन्यस्थित्यसङ्ख्यातसमयाधिकजघन्यस्थितिप्रभृतीनि, तेषु च जघन्यस्थितौ विशेषस्य वक्ष्यमाणत्वेन | तद्वर्जेषु मनुष्याणामभङ्गक, यतो नारकाणां बाहुल्येन क्रोधोदय एव भवति तेन तेषां सप्तविंशतिर्भङ्गका उक्तस्थानेषु | युज्यन्ते, मनुष्याणां तु प्रत्येक क्रोधाद्युपयोगवा बहूनां भावान कषायोदये विशेषोऽस्ति, तेन तेषां तेषु स्थानेषु भङ्गका भाव इति । इहैव विशेषाभिधानायाह-नवरमित्यादि, येषु स्थानेषु नारकाणामशीतिस्तेषु मनुष्याणामप्यशीतिः तथा XII 'जेसु सत्तावीसा तेसु अभंगय' मित्युक्तं, केवलं मनुष्याणामिदमभ्यधिकं यदुत जघन्यस्थिती तेषामशीतिने तु नारकाणां | तत्र सप्तविंशतिरुक्केत्यभङ्गकम् । तथाऽऽहारकशरीरे अशीतिराहारकशरीरवतां मनुष्याणामल्पत्वान्नारकाणां तन्नास्त्येवेत्ये- ॥७६ ॥ | तदप्यभ्यधिकं मनुष्याणामिति, इह च नारकसूत्राणां मनुष्यसूत्राणां च प्रायः शरीरादिषु चतुषु ज्ञानद्वार एव च विशेषा, तथाहि-'असंखेजेसु णं भंते ! मणुस्सावासेसु मणुस्साणं कइ सरीरा पन्नत्ता, गोयमा पंच, तंजहा-ओरालिए वेउबिए SHREmirau lana marary.org ~166~ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 4%95%ES [४९] दीप अनुक्रम [६८] आहारए तेयए कम्मए, असंखेजेसुणं जाव ओरालियसरीरे वट्टमाणा मणुस्सा कि कोहोवउत्ता ४१, गोयमा! कोहोवउसावि ४, एवं सर्वशरीरकेषु नवरमाहारकेऽशीतिभङ्गकानां वाच्या । एवं संहननद्वारेऽपि नवरं 'मणुस्साणं भंते ! कह | संघयणा पण्णता ?, गोयमा ! छस्संघयणा पण्णता, तंजहा-वइरोसहनाराए जाव छेवढे' । संस्थानद्वारे 'छ संढाणा ४ पण्णता, तंजहा-समचउरंसे जाव हुंडे'। लेश्याद्वारे 'छ लेसाओ, तंजहा-किण्हलेस्सा जाब सुक्कलेसा' । ज्ञानद्वारे 'मणु |स्साणं भंते ! कइ णाणाणि ? गोयमा ! पंच, तंजहा-आभिणिवोहियणाणं जाव केवलणाणं'। एतेषु च केवलवर्जेध्वभङ्गक, Mil केवले तु कषायोदय एव नास्तीति । वाणमंतरे'त्यादि, व्यन्तरादयो दशस्वपि स्थानेषु यथा भवनवासिनस्तथा वाच्याः, यत्रा-1 || सुरादीनामशीतिभङ्गकाः यत्र च सप्तविंशतिस्तत्र च व्यन्तरादीनामपि ते तथैव वाच्याः, भङ्गकास्तु लोभमादौ विधायाध्ये तव्याः, तत्र भवनवासिभिः सह व्यन्तराणां साम्यमेव, ज्योतिष्कादीनां तु न तथेति तैस्तेषां सर्वथा साम्यपरिहारसूचनायाह-'णवरं णाणत्तं जाणियब्वं जे जस्स'त्ति, 'यत्' लेश्यादिगतं 'यस्य ज्योतिष्कादेः 'नानात्वम्' इतरापेक्षया भेदस्तद् ज्ञातव्यमिति, परस्परतो विशेष ज्ञात्वैतेषां सूत्राण्यध्येयानीतिभावः । तत्र लेश्याद्वारे-ज्योतिष्काणामेकैव तेजोलेश्या । वाच्या, ज्ञानद्वारे त्रीणि ज्ञानानि, अज्ञानान्यपि त्रीण्येव, असज्जिनां तत्रोपपाताभावेन विभङ्गास्यापर्याप्तकावस्थायामपि भावात् । तथा वैमानिकानां लेश्याद्वारे तेजोलेश्यादयस्तिस्रो लेश्या वाच्याः । ज्ञानद्वारे च त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि चेति, वैमानिकसूत्राणि चैवमध्येयानि--'संखेजेसु णं भंते ! वेमाणियावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि वेमाणियावासंसि केवइया माठिइठाणा पत्नत्ता ?' इत्येवमादीनि ॥ प्रथमशते पञ्चम उद्देशः समाप्तः १-५॥ KANGAR अत्र प्रथम-शतके पंचम-उद्देशक: समाप्त: ~167~ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५० सू५० दीप अनुक्रम [६९] व्याख्या अथ षष्ठो व्याख्यायते, तस्य चायं सम्बन्धः-अनन्तरोदेशकेऽन्तिमसूत्रेषु 'असंखेजेसु णं भंते ! जाव जोतिसियवे- शतके प्रज्ञप्तिः | माणियावासेसु' तथा 'संखेजेसुणं भंते वेमाणियावाससयसहस्सेसु' इत्येतदधीतं, तेषु च ज्योतिष्कविमानावासाः प्रत्यक्षा उद्देशः ६ अभयदेवी-& एवेति तद्गतदर्शनं प्रतीत्य तथा 'जावते' इति यदुक्तमादिगाथायां तच्च दर्शयितुमाहया वृत्तिः१|| जावइयाओ यणं भंते ! उवासंतराओ उदयंते मूरिए चक्खुप्फासंहब्वमागच्छति अस्थमंतेविय णं सूरिए पशः स्थतावतियाओ चेव उवासंतराओ चक्खुप्फासं हब्वमागच्छति ?, हंता ! गोयमा ! जावयाओ णं उवासंत-|| तादिरव॥७७॥ भासस्य राओ उदयंते सरिए चक्खुप्फासं हव्यमागच्छति अत्थमंतेवि सूरिए जाव हब्बमागच्छति । जावइयाणं | भंते ! खित्तं उदयंते सूरिए आतावेणं सव्वओ समंता ओभासेइ उज्जोएइ तवेइ पभासेइ, अत्थमंतेविय णं ४ सरिए तावइयं चेव खितं आयावेणं सब्यओ समंता ओभासेइ उज्जोएड् तवेह पभासेइ ?, हता गोयमा | जावतियणं खेत्तं जाव पभासेइ ॥ तं भंते! किं पुढे ओभासेइ अपुढे ओभासेइ , जाव छदिसि ओभासेति, एवं उज्जोवेइ तवेइ पभासेइ जाव नियमा छद्दिसि ॥ से नूणं भंते सव्वंति सव्वाचंति फुसमाणकालसमयंसि जावतियं खेत्तं फुसद तावतियं फुसमाणे पुढेत्ति वत्सव्वं सिया, हंता ! गोयमा! सव्वंति जाव वत्सब्वं सिया ॥ तं भंते ! किं पुढे फुसइ अपुढे फसइ ?जाव नियमा छदिसि ।। (म०५०)॥ 'जावइयाओं' इत्यादि, यत्परिमाणात् 'उवासंतराओ'त्ति 'अवकाशान्तरात्' आकाशविशेषादवकाशरूपान्तरालाद्वा, है| यावत्यवकाशान्तरे स्थित इत्यर्थः 'उदयंतेत्ति 'उदयन्' उद्गच्छन् 'चक्खुप्फासंति, चक्षुषो-दृष्टेः स्पर्श इव स्पशों न| BHAGACASSAGESH IR॥७७॥ IVITAuran Santaratmala अथ प्रथम-शतके षष्ठ-उद्देशक: आरभ्यते ~168~ Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [ ६९ ] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [५० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तु स्पर्श एव चक्षुषोऽप्राप्तकारित्वादिति चक्षुःस्पर्शस्तं 'हवं'ति शीघ्रं स च किल सर्वाभ्यन्तरमण्डले सप्तचत्वारिंशति योजनानां सहस्रेषु द्वयोः शतयोस्त्रिषष्टौ (४७२६३) च साधिकायां वर्त्तमान उदये दृश्यते, अस्तसमयेऽप्येवम्, एवं प्रतिमण्डलं दर्शने विशेषोऽस्ति, स च स्थानान्तरादवसेयः, 'सओ समंत'त्ति 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु 'समन्तात् ' विदिक्षु, एकार्थी वैती, 'ओभासेई' त्यादि 'अवभासयति' ईषत्प्रकाशयति यथा स्थूलतरमेव वस्तु दृश्यते 'उद्योतयति' भृशं प्रकाशयति यथा स्थूलमेव दृश्यते 'तपति' अपनीतशीतं करोति यथा वा सूक्ष्मं पिपीलिकादि दृश्यते तथा करोति 'प्रभा सयति' अतितापयोगाद्विशेषतोऽपनीतशीतं विधत्ते यथा वा सूक्ष्मतरं वस्तु दृश्यते तथा करोतीति । एतत्क्षेत्रमेवाश्रित्याह'तं भंते 'त्यादि 'तं भंते 'त्ति यत् क्षेत्रमवभासयति यदुद्योतयति तपति प्रभासयति च'तत्' क्षेत्रं किं भदन्त । स्पृष्टमवभासयति अस्पृष्टमवभासयति १, इह यावत्करणादिदं दृश्यम् -'गोयमा ! पुढं ओभासेइ नो अपुडं, तं भंते! ओगाढं ओभासेइ अणोगाढं ओभासेइ ?, गोयमा ! ओगाढं ओभासेइ नो अणोगाढं, एवं अनंतरोगाढं ओभासेइ नो परंपरोगाढं, तं भंते!, कि अर्जु ओभासइ बायरं ओभासइ १, गोयमा ! अणुपि ओभासइ बायरंपि ओभासह, तं भंते ! उहुं ओभासह तिरियं ओभासइ अहे ओभासह १, गोयमा ! उडूंपि ३, तं भंते! आई ओभासइ मज्झे ओभासइ अंते ओभासइ ?, गोयमा ! आई २, | तं भंते!, सविसए ओभासइ अविसए ओभासह १, गोयमा ! सविसए ओभासद नो अविसए, तं भंते ! आणुपुषिं ओभासेइ अणाणुपुर्वि ओभासइ !, गोयमा ! आणुपुत्रिं ओभासइ नो अणाणुपुर्वि तं भंते! कइदिसिं ओभासह १, गोवमा ! नियमा छदिसिं'ति । एतेषां च पदानां प्रथमोद्देशकनारकाहारसूत्र (बव्याख्या) दृश्येति । य एव 'ओभासह' इत्य For Parts Only ~169~ nary org Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [५० ] दीप अनुक्रम [ ६९ ] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [५० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ ७८ ॥ नेन सह सूत्रप्रपञ्च उक्तः स एव 'उज्जोय ईत्यादिना पदत्रयेण वाच्य इति दर्शयन्नाह एवं 'उज्जोवेई'त्यादि । स्पृष्टं क्षेत्रं प्रभासयतीत्युक्तम्, अथ स्पर्शनामेव दर्शयन्नाह - 'सव्वंति 'त्ति प्राकृतत्वात् 'सर्वतः सर्वासु दिक्षु 'सव्वायंति'ति प्राकृतत्वादेव सर्वात्मना सर्वेण वाऽऽतपेनापत्तिः - व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सर्वापत्तिः, अथवा सर्व क्षेत्रम्, इतिशब्दो विषयभूतं क्षेत्रं सर्वे न तु समस्तमेवेत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः, तथा सर्वेणातयेनापो - व्याप्तिर्यस्य क्षेत्रस्य तत्सर्वापम्, इतिशब्दः | सामान्यतः सर्वेणातपेन व्याप्तिर्न तु प्रतिप्रदेशं सर्वेणेत्यस्यार्थस्योपप्रदर्शनार्थः, अथवा सह व्यापेन - आतपव्याप्त्या यत्तत्सव्यापम्, इतिशब्दस्तु तथैव । 'फुसमाणकालसमय'ति स्पृश्यमानक्षणे, अथवा स्पृशतः सूर्यस्य स्पर्शनायाः कालसमयः स्पृशत्काल समयस्तत्र आतपेनेति गम्यते, यावत्क्षेत्रं स्पृशति सूर्य इति प्रकृतं तारक्षेत्रं स्पृश्यमानं स्पृष्टमिति वक्तव्यं स्वादिति प्रश्नः हन्तेत्याद्युत्तरं, स्पृश्यमानस्पृष्टयोश्चैकत्वं प्रथमसूत्रादवगन्तव्यमिति ॥ स्पर्शनामेवाधिकृत्याह यं ते! अलोयतं फुस अलोयतेवि लोयतं फुसइ ?, हंता गोयमा ! लोयंते अलोयंतं फुस अलोयंतेवि लोयंतं फुस ३ । तं भंते! किं पुढं फुसइ अपुई फुसह ? जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ । दीवंते भंते ! सागतं फुसइ सागरंतेचि दीवलं फुसह ?, हंता जाव नियमा छद्दिसिं फुसर, एवं एएणं अभिलावेणं उदयंते पोयतं फुसइ छिदंते दूसंतं छायंते आयवंतं जाव नियमा छद्दिसिं फुसइ ॥ ( सू० ५१) ॥ 'लोयंते भंते ! अलोयंत 'मित्यादि, लोकान्तः सर्वतो लोकावसानम्, अलोकान्तस्तु तदनन्तर एवेति । इहापि 'पुढे | फुसइ' इत्यादिसूत्रमपचो दृश्यः, अत एवोकं 'जाव नियमा छद्दिसिंति एतद्भावना चैवं - स्पृष्टमलोकान्तं लोकान्तः For Penal Use On ~ 170~ १ शतके उद्देशः अवभासा सादेः स्पृष्टतादिः ०सू ५० 11 12 11 Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [७०] स्पृशति, स्पृष्टत्वं च व्यवहारतो दूरस्थस्यापि दृष्टं यथा चक्षुःस्पर्श इत्यत उच्यते-अवगाढम्-आसन्नमित्यर्थः, अवगाढत्वं | IM चासत्तिमात्रमपि स्यादत उच्यते-अनन्तरावगाढम्-अव्यवधानेन संबद्धं, न तु परम्पराऽवगाढं-शृङ्खलाकटिका इय परसम्परासम्बद्ध, तं चाणं स्पृशति, अलोकान्तस्य कचिद्विवक्षया प्रदेशमात्रत्वेन सूक्ष्मत्वात् , वादरमपि स्पृशति, कचिद्विव-11 क्षयैव बहुप्रदेशत्वेन बादरत्वात् , तमू मधस्तिर्यक् च स्पृशति, उर्दादिदिक्षु लोकान्तस्यालोकान्तस्य च भावात् , तं चादी मध्येऽन्ते च स्पृशति, कथम् !, अधस्तिर्यगूढलोकमान्तानामादिमध्यान्तकल्पनात् , तं च स्वविषये स्पृशति-स्पृष्टावगा दादी, नाविषयेऽस्पृष्टादाविति, तं चानुपूया स्पृशति, आनुपूर्वी चेह प्रथमे स्थाने लोकान्तस्ततोऽनन्तरं द्वितीय स्थाने४ा लोकान्त इत्येवमवस्थानतया स्पृशति, अन्यथा तु स्पर्शनेव न स्यात्, तं च षट्सु दिक्षु स्पृशति, लोकान्तस्य पावतः12 &| सर्वतोऽलोकान्तस्य भावात, इह च विदिक्ष स्पर्शना नास्ति, दिशा लोकविष्कम्भप्रमाणत्वाद् विदिशा च तत्परिहारेण भावादिति । एवं द्वीपान्तसागरान्तादिसूत्रेषु स्पृष्टादिपदभावना कार्या, नवरं द्वीपान्तसागरान्तादिसूत्रे 'छर्दिसिं | इत्यस्यैवं भावना-योजनसहस्रावगाढा द्वीपाश्च समुद्राश्च भवन्ति, ततश्चोपरितनानधस्तनांश्च द्वीपसमुद्रप्रदेशानाश्रित्य | & ऊर्वाधोदिगुद्वयस्य स्पर्शना वाच्या, पूर्वादिदिशां तु प्रतीतैव, समन्ततस्तेषामवस्थानात् । 'उदयंते पोयंत ति नद्याधुद कान्तः 'पोतान्त' नौपर्यवसानम् , इहाप्युच्छ्यापेक्षया ऊर्द्धदिकस्पर्शना वाच्या जलनिमज्जन येति । 'छिदंते दूसंत'न्ति का छिद्रान्तः 'दूप्यान्त' वखान्तं स्पृशति, इहापि षदिक्स्पर्शनाभावना वस्त्रोच्छ्यापेक्षया, अथवा कम्बलरूपवस्त्रपोलिनिकायां तन्मध्योत्पन्नजीवभक्षणेन तन्मध्यरन्ध्रापेक्षया लोकान्तसूत्रवत् पड्दिस्पर्शना भावयितव्या।'छायंते आयवंतंति T urmurary.org ~171~ Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [५१] दीप अनुक्रम [७०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [ ५९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्ति: इह छायाभेदेन पदिग्भावनैवम् आतपे व्योमवर्त्तिपक्षिप्रभृतिद्रव्यस्य या छाया तदन्त आतपान्तं चतसृषु दिक्षु स्पृशति तथा तस्या एव छायाया भूमेः सकाशात्तद्रव्यं यावदुच्छ्रयोऽस्ति ततश्च छायान्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशति, अथवा अभयदेवी & प्रासादवरण्डिकादेर्या छाया तस्या भित्तेरवतरन्त्या आरोहन्त्या वाऽन्त आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति भावनीयम्, अथवा यावृत्तिः १ तयोरेव छायाऽऽतपयोः पुद्गलानामसङ्ख्येयप्रदेशावगाहित्वादुच्छ्रय सद्भावः, तत्सद्भावाच्चोर्ध्वाघोविभागः, ततश्च छायान्त | आतपान्तमूर्ध्वमधश्च स्पृशतीति ॥ स्पर्शनाऽधिकारादेव च प्राणातिपातादिपापस्थानप्रभवकर्मस्पर्शनामधिकृत्याह ॥ ७९ ॥ Eticatin अत्थि णं भंते! जीवाणं पाणाइवाएणं किरिया कलह ?, हंता अस्थि । सा भंते । किं पुट्ठा कज्जइ अपुट्ठा कलाइ ?, जाव निव्वाघाएणं छद्दिसिं वाघायं पहुंच सिय तिदिसि सिय चउदिसिं सिय पंचदिसिं । सा भंते! किं कडा कलह अकडा कज्जह ?, गोयमा ! कडा कज्जद नो अकडा कज्जइ । सा भंते ! किं अत्तकडा कज्जइ परकडा कजाइ तदुभयकडा कज्जद ?, गोयमा ! अतकडा कज्जर णो परकडा कज्जह णो तदुभयकडा कज्जइ । सा भंते! किं आणुपुवि कडा कज्जइ अणाणुपुवि कडा कज्जइ?, गोयमा ! आणुपुवि कडा कजइ नो अणाणुपुवि कडा कजइ, जा य कहा जा य कजइ जा य कज्जिस्सह सच्चा सा आणुपुवि कडा नो अणाणुपुवि | कडत्ति वत्तव्यं सिया । अस्थि णं भंते! नेरइयाणं पाणाइवायकिरिया कज्जइ ?, हंता अस्थि । सा भंते किं पुट्ठा कज्जइ अपुडा कज्जइ जाव नियमा छर्दिसिं कज्जह, सा भंते! किं कडा कज्जह अकडा कज्जह ?, तं | चेव जाव नो अणाणुपुवि कडत्ति वक्तव्यं सिया, जहा नेरड्या तहा एगिंदियवज्जा भाणियत्रवा, जाव वेमा For Par Use Only ~ 172~ १ शतके उद्देशः ६ लोकान्तादिस्पर्शः सू ५१ ॥ ७९ ॥ rary org Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [ ५२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Eat णिया, एगिदिया जहा जीवा तहा भाणियव्वा, जहा पाणाइवाए तहा मुसावाए तहा अदिन्नादाणे मेहुणे परिग्गहे कोहे जाव मिच्छादंसणसल्ले, एवं एए अट्ठारस, चउवीसं दंडगा भाणियव्वा, सेवं भंते! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं जाव विहरति ॥ ( सू० ५२ ) ॥ ॐ 'अस्थि' ति अस्त्ययं पक्षः-'किरिया कज्जइति, क्रियत इति क्रिया-कर्म सा क्रियते भवति, 'पुढे' इत्यादेर्व्याख्या पूर्ववत् । 'कडा कज्जइ'त्ति कृता भवति, अकृतस्य कर्मणोऽभावात्, 'अत्तकडा कज्जइत्ति आत्मकृतमेव कर्म भवति, नान्यथा । 'अणाणुपुवि कडा कज्जहति पूर्वपश्चाद्विभागो नास्ति यत्र तदनानुपूर्वीशब्देनोच्यत इति । 'जहा नेरइया तहा एर्गिदियवज्जा भाणियव्य'त्ति नारकवदसुरादयोऽपि वाच्याः, एकेन्द्रियवर्जाः, ते वन्यथा, तेषां हि दिकूपदे 'निदाघारणं छद्दिसिं वाघायें पडुच्च सिय तिदिसि' इत्यादेर्विशेपाभिलापस्य जीवपदोक्तस्य भावात्, अत एवाह - 'एगिं | दिया जहा जीवा तहा भाणियन्व'त्ति 'जाव मिच्छादंसणसल्ले' इह यावत्करणात् 'माणे माया लोभे पेजे' अनभिव्यक्तमाया लोभस्वभावमभिष्वङ्गमात्रं प्रेम 'दोसे' अनभिव्यक्तक्रोधमान स्वरूपमप्रीतिमात्रं द्वेषः 'कलहः' राटिः 'अभक्खाणे' असद्दोषाविष्करणं 'पेसुन्ने' प्रच्छन्नमसदोषाविष्करणं 'परपरिवार विप्रकीर्ण परेषां गुणदोषवचनम् 'अरइरई' अरतिः| मोहनीयोदया चित्तोद्वेगस्तत्फला रतिः विषयेषु मोहनीयोदयाच्चित्ताभिरतिररतिरतिः, 'मायामोसे' तृतीयकषायद्वितीयाश्रवयोः संयोगः, अनेन च सर्वसंयोगा उपलक्षिताः, अथवा बेषान्तरभाषान्तरकरणेन यत्परवञ्चनं तन्मायामृषेति, मिथ्या अठ्ठारस पाप-स्थान--- नामानि एवं तेषाम् व्याख्या For Parts Only ~ 173~ प्राणाति पातादिक्रियायाः स्पृष्टतादिः सू ५२ narr Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५२] दीप अनुक्रम [७१] व्याख्या- दर्शनं शल्यमिव विविधव्यथानिबग्धनत्वान्मिथ्यादर्शनशल्यमिति ॥ एवं तावद्गीतमद्वारेण कर्म प्ररूपित, तच्च प्रवाहतः | १ शतके प्रज्ञप्ति शाश्वतमित्यतः शाश्वतानेव लोकादिभावान् रोहकाभिधानमुनिपुङ्गवद्वारेण प्ररूपयितुं प्रस्तावयन्नाह उद्देशः६ अभयदेवी| तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी रोहे नाम अणगारे पगइभए पग ४ रोहकपया वृत्तिः च्छा लोकाइमजए पगइविणीए पगइ उपसंते पगइपयणुकोहमाणमायालोमे मिउमहवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए सम-ICI || लोकादि॥८॥ णस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरे झाणकोडोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावे Mमाणे विहरइ, तए णं से रोहे नामं अणगारे जायसडेजाव पजुवासमाणे एवं वदासी-पुचि भंते! लोए पच्छा अलोए पुचि अलोए पच्छा लोए, रोहा ! लोए य अलोए य पब्धिपेते पच्छापते दोवि एए सासया भावा. ४अणाणुपुच्ची एसा रोहा!। पुचि भंते ! जीवा पच्छा अजीवा पुचि अजीवा पच्छा जीवा?, जहेच लोए य] & अलोए य तहेव जीवा य अजीवा य, एवं भवसिडीया य अभवसिद्धीया य सिद्धी असिद्धी सिद्धा असिजा, पुब्धि भंते ! अंडए पच्छा कुकुडी पुवि कुछडी पच्छा अंडए, रोहा ! से गं अंडए कओ, भयवं! कुकुडीओ, सा णं कुमुडी कओ, भंते ! अंडयाओ. एवामेव रोहा । से य अंडए सा य कुकुडी, पुठियपेले पच्छा|पेते दुवेते सासया भावा, अणाणुपुब्बी एसा रोहा! पब्बि भंते ! लोयंते पच्छा अलोयते पुर्व अलोपते पच्छा लोयंते !, रोहा! लोयंते य अलोयंते य जाव अणाणुपुच्ची एसा रोहा!। पुब्धि भंते ! लोयंते पच्छा सत्तमे उवासंतरे पुच्छा, रोहा ! लोयंते य सत्तमे उवासंतरे पुबिपि दोवि एते जाव अणाणुपुब्वी एसारोहा !। एवं ho॥ रोहक-अनगार कृत् विविध प्रश्न: एवं भगवत: उत्तराणि ~174~ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३-५४] गाथा: लोयंते य सत्तमे य तणुवाए, एवं घणवाए घणोदहि सत्तमा पुढवी, एवं लोयंते एकेकेणं संजोएयव्वे इमेहि ४ा ठाणेहिं-तंजहा-ओवासवायघणउदहि पुढवी दीवा य सागरा वासा । नेरइया अस्थिय समया कमाई लेस्साओ॥१॥ दिही दसण णाणा सन्न सरीरा य जोग उवओगे। वपएसा पज्जव अहा कि पुब्वि लोयंते? H॥२॥ पुब्धि भंते ! लोयंते पच्छा सब्बद्धा ? । जहा लोयंतेणं संजोइया सव्वे ठाणा एते एवं अलोयंतेणवि संजोएयव्वा सव्वे । पुब्धि भंते ! सत्तमे उवासंतरे पच्छा सत्तमे तणुवाए, एवं सत्तम उवासंतरं सब्वेहि समं संजोएयव्वं जाव सब्बहाए । पुचि भंते ! सत्समे तणुवाए पच्छा सत्तमे घणवाए, एयपि तहेव नेयध्वं जाव सब्बद्धा, एवं उबरिल्लं एककं संजोयंतेणं जो जो हिडिल्लो तं तं छडुतेणं नेयव्वं जाव अतीयअणागयद्धा पच्छा सब्बद्धा जाव अणाणुपुब्वी एसारोहा! सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति! जाव विहरइ॥ (सू.५३) भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं जाव एवं बयासी-कतिविहा गं भंते ! लोयहिती पण्णता ?, गोयमा ! अढविहा लोयद्विती पण्णत्ता, तंजहा-आगासपइडिए वाए १ वायपइटिए उदही २ उदहीपइडिया पुढवी ३ पुढविपइडिया तसा थावरा पाणा ४ अजीवा जीवपइटिया ५ जीवा कम्मपइडिया ६ अजीवा जीवसंगहिया ७ जीवा कम्मसंग४हिया ८। से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ !-अट्टविहा जाय जीवा कम्मसंगहिया, गोयमा ! से जहानामए-केइ है पुरिसे वस्थिमाडोवेइ पत्थिमाडोबित्ता उपि सितं बंधइ २ मज्झेणं गठिं बंधई २ उवरिल्लं गठिं मुयइ २ उच-18 रिलं देसं वामेइ २ उवरिल्लं देसं वामेत्ता उवरिल्लं देसं आउयायस्स पूरेइ २ उपिसि तं बंधइ २ मज्झिलं दीप अनुक्रम [७२-७६] | रोहक-अनगार कृत् विविध प्रश्न: एवं भगवत: उत्तराणि ~175 Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [५३-५४] गाथा: दीप अनुक्रम [७२-७६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [ ५४ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ ८१ ॥ | गंठि मुयह। से नूणं गोयमा । से आउयाए तस्स वाउयायस्स उप्पि उवरितले चिह्न ?, हंता चिट्ठा, से तेणद्वेणं जाव जीवा कम्मसंगहिया, से जहा वा केइ पुरिसे वत्थिमाडोवेह २ कडीए बंधइ २ अस्थाहमतारमपोरसिसि उदगंसि ओगाहेजा, से नूणं गोयमा । से पुरिसे तस्स आउयायस्स उवरिमतले चिट्ठह ?, हंता चिट्ठह, एवं वा अट्ठविहा लोयडिई पण्णत्ता जाव जीवा कम्मसंगहिया ॥ ( सू० ५४ ) ॥ 'पग भए 'त्ति स्वभावत एव परोपकारकरणशीलः 'पगइमउए'त्ति स्वभावत एव भावमार्दविकः, अत एव 'पगड़विणीए 'ति तथा 'पगइड वसंते' त्ति क्रोधोदयाभावात् 'पाइपको हमाणमायालोने' सत्यपि कषायोदये तत्कार्याभावात् प्रतनुकोधादिभावः 'मिउमदवसंपन्ने' त्ति मृदु यन्मार्दवम् - अत्यर्थमहङ्कृतिजयस्तत्संपन्नः प्राप्तो गुरूपदेशाद् यः स तथा, 'आलीणे'त्ति गुरुसमाश्रितः संलीनो वा, 'भद्दए'त्ति अनुपतापको गुरु शिक्षागुणात्, 'विणीए'त्ति गुरुसेवागुणात् 'भवसिद्धीया यत्ति भविष्यतीति भवा भवा सिद्धिः-निर्वृतिर्येषां ते भवसिद्धिकाः, भव्या इत्यर्थः, 'सत्तमे उवासं तरेति सप्तमपृथिव्या अधोवकाशमिति । सूत्रसङ्ग्रहगाथे— के, तत्र 'ओवासे' ति सप्तावकाशान्तराणि 'वाय'त्ति तनु| वाताः घनवाताः 'घणउहि 'त्ति घनोदध्यः सप्त 'पुढवि'त्ति नरकपृथिव्याः सप्तैव 'दीवा य'त्ति जम्बूद्वीपादयोऽसङ्ख्याताः असङ्ख्येया एव 'सागराः' लवणादयः 'वास'ति वर्षाणि भरतादीनि सप्तैव 'नेरइयाइ' चि चतुर्विंशतिदण्डकः 'अत्थि, | यत्ति अस्तिकायाः पञ्च 'समय'त्ति कालविभागाः कर्माण्यष्टी लेश्याः षट् दृष्टयो- मिथ्यादृष्ट्यादयस्तिस्रः, दर्शनानि चत्वारि ज्ञानानि पश्च सज्ञाश्चतस्रः शरीराणि पञ्च योगास्त्रयः उपयोगौ द्वौ द्रव्याणि षट् प्रदेशा अनन्ताः पर्यवा अनन्ता रोहक अनगार कृत् विविध प्रश्नः एवं भगवतः उत्तराणि For Pasta Use Only ~176~ ११ शतके उद्देशः ६ अष्टधा लोक० स्थितिः सू ५४ ॥ ८१ ॥ Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३-५४] एव 'अद्ध'त्ति अतीताद्धा अनागताद्धा सर्वाद्धा चेति, 'किं पुचि लोयंति'त्ति, अयं सूत्राभिलापनिर्देशः, तथैव पश्चिम-15 15 सूत्राभिलापं दर्शयन्नाह-पुचि भंते ! लोयंते पच्छा सव्वद्धे 'त्ति । एतानि च सूत्राणि शून्यज्ञानादिवादनिरासेन विधि-14 बबाह्याध्यात्मिकवस्तुसत्ताऽभिधानार्थानि ईश्वरादिकृतत्वनिरासेन चानादित्वाभिधानार्थानीति । लोकान्तादिलोकपदार्थ-5 || प्रस्तावादथ गौतममुखेन लोकस्थितिप्रज्ञापनायाह-अयं सूत्राभिलापः-आकाशप्रतिष्ठितो वायुः-तनुवातघनवातरूपः, त-15 स्थावकाशान्तरोपरि स्थितत्वात् , आकाशं तु स्वप्रतिष्ठितमेवेति न तत्प्रतिष्ठाचिन्ता कृतेति । तथा वातप्रतिष्ठित उदधिःघनोदधिस्तनुवातघनवातोपरि स्थितत्वात् २ । तथा उदधिप्रतिष्ठिता पृथिवी, घनोदधीनामुपरि स्थितत्वात् रत्नप्रभादीनां, बाहुल्यापेक्षया चेदमुक्तम्, अन्यथा ईषत्पाग्भारा पृथिवी आकाशप्रतिष्ठितैव । तथा पृथिवीप्रतिष्ठिताखसस्थावराः प्राणाः, इदमपि प्रायिकमेव, अन्यथाऽऽकाशपर्वतविमानप्रतिष्ठिता अपि ते सन्तीति ४ । तथाऽजीवाः-शरीरादिपुद्गलरूपा जीव प्रतिष्ठिताः, जीवेषु तेषां स्थितत्वात् ५ । तथा जीवाः कर्मप्रतिष्ठिताः, कर्मसु-अनुदयावस्थकर्मपुद्गलसमुदायरूपेषु संसारि-5 जीवानामाश्रितत्वात् , अन्ये त्याहुः-जीवाः कर्मभिः प्रतिष्ठिताः-नारकादिभावनावस्थिताः ६। तथा अजीवा जीवसंगृहीताः, मनोभाषादिपुद्गलानां जीवैः संगृहीतत्वात् , अथाजीवाः जीवप्रतिष्ठितास्तथाऽजीवा जीवसंगृहीता इत्येतयोः को भेदः, | उच्यते, पूर्वस्मिन् वाक्ये आधाराधेयभाव उक्तः, उत्तरे तु संग्राह्यसंग्राहकभाव इति भेदः, यच्च यस्य संग्राह्य तत्तस्याय-5 मध्यपत्तितः स्याद् यथाऽपूपस्य तैलमित्याधाराधेयभावोऽप्युत्तरवाक्ये दृश्य इति । तथा जीवाः कर्मसंगृहीताः, संसारिजीवानामुदयप्राप्तकर्मवशवर्तित्वात्, ये च यद्वशास्ते तत्र प्रतिष्ठिताः, यथा घटे रूपादय इत्येवमिहाप्याधाराधे 4555645455564-15 गाथा: दीप अनुक्रम [७२-७६] % रोहक-अनगार कृत् विविध प्रश्न: एवं भगवत: उत्तराणि ~177~ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५३-५४] गाथा: व्याख्या-18|| यता दृश्यति । 'से जहानामए केईत्ति, स 'यथानामकः यत्पकारनामा, देवदत्तादिनामेत्यर्थः, अथवा 'से' इति स|| शतके प्रज्ञप्तिः यथा' इति दृष्टान्तार्थः 'नाम' इति संभावनायाम् 'ए' इति वाक्यालङ्कारे, 'वस्थिति 'बस्ति' इति 'आडोवेईत्ति आटो-18|| उद्देश अभयदेवी-दा पयेत् वायुना पूरयेत्, 'उपि सियं बंधईत्ति उपरि सितं 'पिन् बन्धने' इति वचनात् प्रत्ययस्य च भावार्थत्वात् । अष्टधा या वृत्तिः कर्मार्थत्वाद्वा बन्ध-प्रन्थिमित्यर्थः 'बनाति' करोतीत्यर्थः, अथवा 'उपिसि'त्ति उपरि 'त'मिति वस्ति 'से आउयाए'त्ति, लोक स्थितिः ॥८२॥ | सोऽप्कायस्तस्य वायुकायस्य 'उम्पिति उपरि, उपरिभावश्च व्यवहारतोऽपि स्यादित्यत आह-उपरितले सर्वोपरीत्यर्थः, | यथा वायुराधारो जलस्य दृष्ट एवमाधाराधेयभावो भवति आकाशधनवातादीनामिति भावः, आधाराधेयभावश्च प्रागेव सू ५४ | सर्वपदेषु व्यञ्जित इति । 'अत्याहमतारमपोरुसियंसित्ति, अस्ताघम्-अविद्यमानस्ताघम्-अगाधमित्यर्थः, अस्ताधो वा निरस्ताधस्तलमिवेत्यधेः, अत एवातारं-तरीतुमशक्यं, पाठान्तरेणापार-पारवर्जितं पुरुषःप्रमाणमस्येति पौरुषेयं तत्पति पेधादपौरुषेयं ततः कर्मधारयोऽतस्तत्र, मकारश्चेहालाक्षणिक, एवं वा' इत्यत्र वाशब्दो दृष्टान्तान्तरतासूचनार्थः ॥ लोकलास्थित्यधिकारादेवेदमाह-'अस्थि णमित्यादि, अन्ये त्वाह:-अजीवा जीवपइडिया' इत्यादेः पदचतुष्टयस्य भावनार्थमिदमाह| अस्थि णं भंते ! जीवा य पोग्गलाय अन्नमन्नबद्धा अन्नमन्नपदा अन्नमनमोगाढा अन्नमन्नसिणेहपडियदा अन्न-॥४ मनघडताए चिट्ठति !, हता!अस्थि । से केणटेणं भंते !जाव चिट्ठति ?, गोयमा ! से जहानामए-हरदे सिया ॥८२॥ ICI पुषणे पुण्णप्पमाणे वोलहमाणे वोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठा, अहे णं केइ पुरिसे तंसि हरदसि एग महं नाना सयासवं सयछिटुं ओगाहेजा, से नूर्ण गोयमा ! सा णावा तेहिं आसवदारेहिं आपूरमाणी २ पुण्णा SEBEEX दीप अनुक्रम [७२-७६] रोहक-अनगार कृत् विविध प्रश्न: एवं भगवत: उत्तराणि ~178~ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 44.99 [५५] ॐॐॐॐॐॐ दीप अनुक्रम [७७] पुण्णप्पमाणा वोलमाणा वोसमाणा समभरघडताए चिट्ठद, हंता चिट्ठइ, से तेणद्वेणं गोयमा! अत्थिणं | जीवा य जाव चिट्ठति ॥ (सू०५५)॥ _ 'पोग्गले ति कर्मशरीरादिपुद्गलाः 'अण्णमण्णबद्ध'त्ति अन्योऽन्यं जीवाः पुद्गलानां पुद्गलाश्चश्च जीवानां संबद्धा इत्यर्थः, कथं बद्धाः इत्याह-'अन्नमनपुट्ठा' पूर्व स्पर्शनामात्रेणान्योऽन्य स्पृष्टास्ततोऽन्योऽन्यं बद्धाः, गाढतरं संबद्धा इत्यर्थः, 'अण्णमण्णमोगाढ'त्ति परस्परेण लोलीभावं गताः, अन्योऽन्य स्नेहप्रतिबद्धा इति,अत्र रागादिरूपः स्नेहः, यदाह-"स्नेहा | भ्यक्तशरीरस्य रेणुना श्लिष्यते यथा गात्रम् । रागद्वेषक्किन्नस्य कर्मवन्धो भवत्येवम् ॥१॥” इति, अत एव 'अण्णम-18 पणघडताए'त्ति अन्योऽन्य घटा-समुदायो येषां तेऽन्योऽन्यघटास्तद्भावस्तत्ता तयाऽन्योऽन्यघटतया । 'हरए सिय'त्ति 'इदों' नदः 'स्यात्' भवेत् 'पुण्णे'त्ति भृतो जलस्य, स च किञ्चिन्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यादत आह-पुण्णप्पमाणे त्ति पूर्णप्रमाणः पूर्ण वा जलेनात्मनो मानं यस्य स पूर्णात्ममानः 'वोलट्टमाणे'त्ति व्यपलोड्यन् अतिजलभरणाच्छद्यमानजल ४ इत्यर्थः 'बोसट्टमाणे'त्ति जलप्राचुर्यादेव विकशन-स्फारीभवन् वर्द्धमान इत्यर्थः 'समभरघडत्ताए'त्ति समो न विषमो घटैकदेशमनाश्रितत्वेन भरो-जलसमुदायो यत्र स समभरः सर्वथा भृतो वा समभरः, समशब्दस्य सर्वशब्दार्थत्वात्, समभरश्चासौ घटश्चेति समासः, समभरघट इव समभरघटस्तद्धावस्तत्ता तया समभरघटतया,सर्वथाभृतघटाकारतयेत्यर्थः, 'अहे थे| ति अहेशब्दोऽथार्थः अथशब्दश्चानन्तर्यार्थः, णमिति वाक्यालङ्कारे, 'मह'ति महतीं 'सयास'ति आश्रवति-ईपत्क्षरति&ाजलं येस्ते आश्रवाः-सूक्ष्मरन्ध्राणि सन्तो-विद्यमानाः सदा वा-सर्वदा शतसङ्ख्या वाऽऽश्रवा यस्यां सा सदाश्रवाः शता-| Glau रोहक-अनगार कृत् विविध प्रश्न: एवं भगवत: उत्तराणि ~179~ Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [ ५५ ] दीप अनुक्रम [७७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [ ५५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या- श्रवा वातस्ताम, एवं 'सयछिदु' नवरं छिद्रं महत्तरं रन्धम्, 'ओगाहेज'त्ति 'अवगाहयेत्' प्रवेशयेद् आसवदारेहिं' ति प्रज्ञप्तिः ४ आश्रवच्छिदैः 'आपूरमाणी' त्ति आपूर्यमाणा जलेनेति शेषः, इह द्विर्वचनमाभीक्ष्ण्ये, 'पुण्णे'त्यादि प्राग्वन्नवरं 'वोसट्टअभयदेवी- माणा' इत्यादौ वृद्धैरयं विशेष उक्त:- 'वोसट्टमाणा' भृता सती या तत्रैव निमज्जति सोच्यते 'समभर घडत्ताए 'ति या वृत्तिः १ ह्रदक्षितसमभरघटवद् इदस्याधस्त्योदकेन सह तिष्ठतीत्यर्थः, यथा नौश्च हदोदकं चान्योऽन्यावगाहेन वर्त्तते एवं जीवाश्च | पुद्गलाश्चेति भावना || लोकस्थितावेवेदमाह ॥ ८३ ॥ अधिणं भंते ! सपा समियं सुहमे सिणेहकाये पवडइ ?, हंता अस्थि । से भंते! किं उढे पवडइ अहे | पवडर तिरिए पवडइ?, गोयमा ! उद्देवि पवडइ अहे पवडर तिरिएवि पवडर, जहा से बादरे आउयाए अन्नमनसमाउत्ते चिरंपि दीहकालं चिट्ठइ तहाणं सेवि, नो इणट्टे समट्ठे, से णं खिप्पामेव विद्धसमागच्छइ । सेवं भंते! सेवं भंतेन्ति ! ॥ छट्ठो उद्देसो समत्तो ॥ १ । ६ । (सू०५६ ) ॥ 'सदा' सर्वदा 'समियं' ति सपरिमाणं न बादराष्कायवदपरिमितमपि, अथवा 'सदा' इति सर्वर्त्तषु 'समित' मिति रात्रौ दिवसस्य च पूर्वापरयोः प्रहरयोः, तत्रापि कालस्य स्निग्धेतरभावमपेक्ष्य बहुत्वमल्पत्वं चावसेयमिति, यदाह - "पढमचरिमाउ सिसिरे गिम्हे अद्धं तु तासं वज्जेत्ता । पायं ठवे सिणेहाइरक्खणडा पवेसे वा ॥ १ ॥” लेपितपात्रं बहिर्न स्थापयेत् स्नेहादिरक्षणार्थायेति, 'सूक्ष्मः स्नेहकाय' इति अष्कायविशेष इत्यर्थः 'उट्टे'त्ति ऊर्ध्वलोके वर्त्तलवैताढ्यादिषु 'अहे' ति १ प्रथमचरमपौरुष्यौ शिशिरतों ग्रीष्मे तु तयोरर्द्ध वर्जयित्वा स्नेहादिरक्षणार्थं लिप्तपात्राणि स्थापयेत् प्रविशेद्वा ॥ १ ॥ For Plata Lise Only ~ 180~ १ श उद्देशः सूक्ष्मा यपा ॥ www.lanetary or Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: अधोलोकग्रामेषु 'तिरिय'ति तिर्यग्लोके 'दीहकालं चिट्टईत्ति तडागादिपूरणात् , 'विद्धंसमागच्छइ'त्ति स्वल्पत्वात्त|स्येति ॥ प्रथमशते षष्ठः ॥१६॥ प्रत सूत्रांक [५६] दीप अनुक्रम [७८] RECORRORSC+++ अथ सप्तम आरभ्यते, तस्य चैवं सम्बन्धः-विध्वंसमागच्छतीत्युक्तं प्राक् इह तु तद्विपर्यय उत्पादोऽभिधीयते, अथवा लोकस्थितिः प्रागुक्ता इहापि सैव, तथा 'नेरइए'त्ति यदुक्तं सङ्ग्रहिण्यां तच्चावसरायातमिहोच्यत इति, तत्रादिसूत्रम् नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जमाणे किं देसणं देसं उववजा देसेणं सव्वं उबवजह सवेणं देसं उववजह सवेणं सव्वं उववजह, गोयमा ! नो देसेणं देसं उववजह नो देसेणं सव्वं उववजह नो सब्वेणं देसं उववज्जइ सब्वेणं सव्वं उववजह, जहा नेरइए एवं जाव वेमाणिए १॥ (सू०५७)॥ 'नरइएणं भंते ! नेरइएमु उववज्जमाणे'त्ति, ननूत्पद्यमान एव कथं नारक इति व्यपदिश्यते?, अनुत्पन्नत्वात् , तिर्यगादिवद् इति, अत्रोच्यते, उत्पद्यमान उत्पन्न एव, तदायुष्कोदयात्, अन्यथा तिर्यगाद्यायुष्काभावान्नारकायुष्को दयेऽपि यदि नारको नासौ तदन्यः कोऽसौ ? इति, 'किं देसेणं देसं उववजइ'त्ति देशेन च देशेन च यदुत्पादनं प्रवृत्तं ४ तद्देशेनदेश, छान्दसत्वाचाव्ययीभावप्रतिरूपः समासः, एवमुत्तरत्रापि, तत्र जीवः किं 'देशेन' स्वकीयावयवेन 'देशेन । नारकावयविनोऽशतयोत्पद्यते अथवा 'देशेन देशमाश्रित्योत्पादयित्वेति शेषः, एवमन्यत्रापि । तथा 'देसेणं सव्वंति READIand अत्र प्रथम-शतके षष्ठ-उद्देशकः समाप्त: अथ प्रथम-शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते ~181~ Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५७] दीप अनुक्रम [७९]] व्याख्या-1|| देशेन च सर्वेण च यत् प्रवृत्तं तदेशेनस, तत्र देशेन-स्वावयवेन सर्वतः-सर्वात्मना नारकावयवितयोत्पद्यत इत्यर्थः, III प्रज्ञप्तिः आहोश्चित्सर्वेण-सर्वात्मना देशतो-नारकांशतयोत्पद्यते, अथवा 'सर्वेण सर्वात्मना सर्वतो नारकतयेति प्रश्नः ४, अत्रोअभयदेवी- त्तरम्-न देशेनदेशतयोत्पद्यते, यतो न परिणामिकारणावयवेन कार्यावयवो निर्धय॑ते, तन्तुना पटाप्रतिबद्धपटप्रदेशवत्, या वृत्तिः यथा हि पटदेशभूतेन तन्तुना पटाप्रतिबद्धः पटदेशो न निर्वय॑ते तथा पूर्वावयविप्रतिबद्धेन तद्देशेनोत्तरावयविदेशो न ॥ ८४॥ | निर्षवंत इति भावः । तथा न देशेन सर्वतयोत्पद्यते, अपरिपूर्णकारणत्त्वात् , तन्तुना पट इवेति । तथा न सर्वेणदेशत| योत्पद्यते, संपूर्णपरिणामिकारणत्वात् , समस्तघटकारणैर्घटैकदेशवत् । 'सवेणं सव्वं उववजई' सर्वेण तु सर्व उत्पद्यते, पूर्णकारणसमवायाद्, घटवदिति चूर्णिव्याख्या, टीकाकारस्त्वेवमाह-किमवस्थित एव जीवो देशमपनीय यत्रोत्पत्तव्यं तत्र देशत उत्पद्यते ११, अथवा देशेन सर्वत उत्पद्यते १२, अथवा सर्वात्मना यत्रोत्पत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते १३, | अधवा सर्वोत्मना सर्वत्र १४, इति, एतेषु पाश्चात्यभङ्गी ग्राह्यौ, यतः सर्वेण-सर्वात्मप्रदेशव्यापारणेलिकागती यत्रोपत्तव्यं तस्य देशे उत्पद्यते, तद्देशेनोत्पत्तिस्थानदेशस्यैव व्याप्तत्वात् , कन्दुकगती वा सर्वेण सर्वत्रोत्पद्यते विमुच्यव पूर्वस्थानमिति, एतच्च टीकाकारव्याख्यानं वाचनान्तरविषयमिति ॥ उत्पादे चाहारक इत्याहारसूत्रम् नेरइए ण भंते ! नेरइएसु उववजमाणे किं देसेणं देसं आहारेइ १ देसेणं सब्वं आहार २ सब्वेणं देसं आहारेइ ३ सब्वेणं सव्वं आहारह? ४. गोयमानो देसेणं देसं आहारेह नो देसेणं सव्वं आहारेइ सव्वेण वा देसं आहारेइ सव्वेण वा सवं आहारेइ, एवं जाव वेमाणिए शमेरहए णं भंते ! नेरइ एहितो उब्वट्टमाणे FARRORESEAS %CCCCC-5 S ~182~ Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] ॥ किं देसेणं देसं उबवट्टइ ? जहा उववजमाणे तहेच उववट्टमाणेऽवि दंडगो भाणियब्यो ३ । नेरइए णं भंते ! नेर-1 & इएहिंतो उचवहमाणे किं देसेणं देसं आहारद तहेव जाच सब्वेण वा देसं आहारेइ ?, सव्वेण वा सव्वं आ०| १, एवं जाब बेमाणिए ४ । नेरह भंते ! नेर० उववन्ने किं देसेणं देसं उववन्ने, एसोऽवि तहेव जाव सव्वेणं सर्व उववन्ने ?, जहा उववजमाणे उबवट्टमाणे य चत्तारि दंडगा तहा उववन्नेणं उब्बडेणवि चत्तारि दंडगा भाणियब्वा, सब्वेणं सव्वं उववन्ने सब्वेण वा देसं आहारेइ सब्वेण वा सव्वं आहारेइ, एएणं अभिलावेणं उववक्षेचि उब्वट्टणेवि नेयव्वं ८॥ नेरहए णं भंते ! नेरइएम उवचजमाणे किं अद्वेणं अद्ध उववजह ११ अ-IG द्वेणं सव्वं उपवजा १२ सम्वेणं अद्धं उववजह?३ सम्वेणं सव्वं उवषजह०१४,जहा पढमिल्लेणं अट्ट | दंडगा तहा अद्धेणवि अह दंडगा भाणियब्वा, नवरं जहिं देसेणं देसं उववजइ तहिं अद्वेणं अद्धं उववजाइ इति भाणियवं, एवं णाणसं, एते सम्वेवि सोलसदंडगा भाणियब्वा ॥ (सू०५८) . तत्र 'देशेन देश मिति आत्मदेशेनाभ्यवहार्यद्रव्य देशमित्येवं गमनीयम् । उत्तरम्-'सब्वेण वा देसमाहारेइत्ति, । उत्पत्त्यनन्तरसमयेषु सर्वात्मप्रदेशेराहारपुद्गलान् कांश्चिदादत्ते कांश्चिद्विमश्चति, तप्ततापिकागततैलग्राहकविमोचकापूपविद्, अत उच्यते-देशमाहारयतीति, 'सव्वेण वा सवं'ति सर्वात्मप्रदेशरुत्पत्तिसमये आहारपुद्गलानादत्ते एव प्रथमतः तैलभृततततापिकाप्रथमसमयपतितापूपवदित्युच्यते-सर्वमाहारयतीति । उत्पादस्त दाहारेण सह प्राग्दण्डकाभ्यामुक्तः, अथोत्पादप्रतिपक्षत्वाद्धर्तमानकालनिर्देशसाधयांच्चोद्वर्तनादण्डकस्तदाहारदण्डकेन सह ४ । तदनन्तरं च नोद्ध दीप NEERXNX-2C24 9RIES- ROCCORRC-RS अनुक्रम [८०] या Hd [Maylamurary.au ~183 Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [५८] **2345 यावृत्तिः दीप अनुक्रम [८०] व्याख्या- तैनाऽनुत्पन्नस्य स्यादित्युत्पन्नतदाहारदण्डको, उत्पन्नप्रतिपक्षत्वाचोद्वत्ततदाहारदण्डकाविति । पुस्तकान्तरे तूत्पादतदा-||७१ शतके प्रज्ञप्तिः हारदण्डकानन्तरमुत्पादे सत्युत्पन्नः स्यादित्युत्पन्नतदाहारदण्डको, ततस्तूत्पादप्रतिपक्षत्वादुद्वर्तनाया- उद्वर्तनातदाहारद- उद्देशः ७ अभयदेवी- ण्डको, उद्धर्तनायां चोद्वृत्तः स्यादित्युदृत्ततदाहारदण्डको, कण्ठ्याश्चैत इति । एवं तावदष्टाभिर्दण्डकैर्देशसर्याभ्यामुत्पा- विग्रहेतरा दादि चिन्तितम् , अथाष्टाभिरेवाड़सर्वाभ्यामुत्पादायेव चिन्तयन्नाह–'नेरइएण'मित्यादि 'जहा पढमिल्लेणं ति यथा । तिःसू ५९ ॥८५॥ |देशेन, ननु देशस्य चार्धस्य च को विशेषः ?, उच्यते, देशस्त्रिभागादिरनेकधा, अर्द्धं त्वेकधैवेति ॥ उत्पत्तिरुद्धर्तना च प्रायो गतिपूर्विका भवतीति गतिसूत्राणि जीवे णं भंते ! किं विग्गहगतिसमावन्नए अविग्गहगतिसमावन्नए ?, गोयमा! सिय विग्गहगइसमावन्नए: | सिय अविग्गहगतिसमावन्नगे, एवं जाव वेमाणिए । जीवाणं भंते ! किं विग्गहगइसमावन्नया अविग्गहगह समावन्नगा, गोपमा ! विग्गहगइसमावन्नगावि अविग्गहगइसमावनगावि । नेरइया णं भंते ! कि विग्ग-12 शाहगतिसमावन्नया अविग्गहगतिसमावन्नगा. गोयमा ! सब्वेविताच होजा अविग्गहगतिसमावन्नगा। | अहवा अविग्रहगतिसमावन्नगा य विग्गहगतिसमावन्ने य२ अहवा अबिग्गहगतिसमावनगा य विग्गहगहसमावनगा य ३॥ एवं जीवेगिदियवजो तियभंगो ॥ (सू०५९) 'विग्गहगइसमावन्नए'त्ति विग्रहो-वक्रं तत्प्रधाना गतिविग्रहगतिः, तत्र यदा वक्रेण गच्छति तदा विग्रहगतिसमापन्न उच्यते, अविप्रहगतिसमापन्नस्तु ऋजुगतिकः स्थितो वा, विग्रहगतिनिषेधमात्राश्रयणात्, यदि चाविग्रहगतिसमापन्न ॥८५ SARERatinika ~184~ Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [ ५९ ] दीप अनुक्रम [८] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ ५९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] ऋजुगतिक एवोच्यते तदा नारकादिपदेषु सर्वदेवाविग्रहगतिकानां यद्वहुत्वं वक्ष्यति तन्न स्याद्, एकादीनामपि तेषूत्पादश्रवणात्, टीकाकारेण तु केनाप्यभिप्रायेणाविग्रहगतिसमापन्न ऋजुगतिक एव व्याख्यात इति । 'जीवा णं भंते !' इत्यादि प्रश्नः, तत्र जीवानामानन्त्यात् प्रतिसमयं विग्रहगतिमतां तन्निषेधवतां च बहूनां भावादाह-'विग्गहगह' इत्यादि । नारकाणां वल्पत्वेन विग्रहगतिमतां कदाचिदसम्भवात् सम्भवेऽपि चैकादीनामपि तेषां भावाद् विग्रहगतिप्रतिषेधव तां च सदैव बहूनां भावात् आह- 'सव्वेषि ताव हो अविग्गहे त्यादि विकल्पत्रयम्, असुरादिषु एतदेवातिदेशत आह- 'एव' मित्यादि जीवानां निर्विशेषाणामेकेन्द्रियाणां चोक्तयुक्तया विग्रहगतिसमापन्नत्त्वे तत्प्रतिषेधे च बहुत्वमेवेति न भङ्गत्रयं तदन्येषु तु त्रयमेवेति, 'तियभंगो' त्ति त्रिकरूपो भङ्गत्रिकभङ्गो, भङ्गत्रयमित्यर्थः ॥ गत्यधिकाराच्चयवनसूत्रम् - "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः देवे णं भंते! महिहिए महज्जुईए महब्बले महायसे महासुक्खे महाणुभावे अविवंतियं चयमाणे किंचिवि कालं हिरिवन्तियं दुर्गुछावत्तियं परिसहबत्तियं आहारं नो आहारेह, अहे णं आहारेइ, आहारिजमाणे आहा|रिए परिणामिज्ज़माणे परिणामिए पहीणे य आउट भवइ जत्थ उववज्जइ तमाउयं पडिसंवेएइ, तंजहा- तिरिखजोणियाउयं वा मणुस्साज्यं वा ?, हंता गोयमा ! देवे णं महिद्दीए जाव मणुस्साजयं वा ॥ (सू० ६० ) ॥ 'महिहिए 'ति महर्द्धिको विमानपरिवाराद्यपेक्षया 'महज्जइए त्ति महाद्युतिकः शरीराभरणाद्यपेक्षया 'महम्बले' त्ति महाबलः शारीरप्राणापेक्षया 'महायसे 'ति 'महायशाः' बृहत्प्रख्यातिः 'महेसक्खे'त्ति महेशो-महेश्वर इत्याख्या-अभि धानं यस्यासौ महेशाख्यः 'महासोक्खे'त्ति क्वचित् 'महाणुभावे 'ति 'महानुभावः' विशिष्टवैकियादिकरणाचिन्त्यसामर्थ्यः For Parts Only ~ 185~ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६०] 'अविउक्कंतियं चयमाणे'त्ति च्यवमानता किलोत्पत्तिसमयेऽप्युच्यत इत्यत आह-व्युत्क्रान्तिः-उत्पत्तिस्तन्निषेधादव्युत्का- व्याख्या-1 १ शतके प्रज्ञप्तिःन्तिकम् , अथवा व्यवक्रान्तिः-मरणं तनिषेधादव्यवक्रान्तिकं तद्यथा भवत्येवं च्यवमानो जीवमानो, जीवन्नेव मरण- उद्देशः७ अभयदेवीकाल इत्यर्थः, 'अविउकतियं चयं चयमाणे त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र च'चर्य' शरीरं 'चयमाणे'त्ति त्यजन् 'किञ्चिवि कालं' तिदेवस्य हीया वृत्तिः कियन्तमपि कालं यावन्नाहारयेदिति योगः, कुतः ? इत्याह-'हीप्रत्ययं लज्जानिमित्तं, स हि च्यवनसमयेऽनुपक्रान्त एव पश्यत्युत्पत्तिस्थानमात्मनः, दृष्ट्वा च तद्देवभवविसदृशं पुरुषपरिभुज्यमानस्त्रीगर्भाशयरूपं जिहेति, हिया च नाहारयति, ॥८६॥ तथा 'जुगुप्साप्रत्यय' कुत्सानिमित्तं, शुक्रादेरुत्पत्तिकारणस्य कुत्साहेतुत्वात् , 'परीसहवत्तियति इह प्रक्रमात् परीषह-|| शब्देनारतिपरीषहो ग्राह्यः, ततश्चारतिपरीपहनिमित्तं, दृश्यते चारतिप्रत्ययालोकेऽप्याहारग्रहणवैमुख्यमिति, "आहारंटू मनसा तथाविधपुद्गलोपादानरूपम् , 'अहे शंति अथ लज्जादिक्षणानन्तरमाहारयति बुभुक्षावेदनीयस्य चिरं सोदुमशक्यत्वादिति, "आहारिजमाणे आहारिए'इत्यादौ भावार्थः प्रथमसूत्रवत् , अनेन च क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदाभिधानेन तदीयाऽऽहारकालस्यास्पतोक्का, तदनन्तरं च 'पहीणे य आउए भवइत्ति 'चः' समुच्चये प्रक्षीणं प्रहीणं वाऽऽयुर्भवति, ततश्च यत्रोत्पद्यते मनुजत्वादौ 'तमाउयंति तस्य-मनुजत्वादेरायुस्तदायुः 'प्रतिसंवेदयति' अनुभवतीति , 'तिरिकखजोणियाउयं वा इत्यादी देवनारकायुषोः प्रतिषेधो, देवस्य तत्रानुत्पादादिति ।। उत्पत्त्यधिकारादिदमाह| जीवेणं भंते गम्भ वकमाणे किं सईदिए वक्कमइ अणिदिए वकमइ ?, गोयमा ! सिय सइंदिए वक्कमइ ४ सिय अणिदिए वक्कमइ, से केणद्वेणं ?, गोयमा ! दविदियाई पडुच अणिदिए वकमइ भाचिदियाई पडुच । Cốc Cốc दीप अनुक्रम [८२] क REsamana launcierary au ~186~ Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [८३] सइंदिए वकमह, से तेण?णाजीवे णं भंते !गभं वकममाणे किं ससरीरी वकमा असरीरी वक्कमइ ?, गोयमा! सिय ससरीरी वसिय असरीरी वकमइ, से केण?ण , गोयमा! ओरालियवेउब्वियआहारयाई पडुब्य असरीरी व तेयाकम्मा०प० सस वक्त से तेण?णं गोयमा । जीवे णं भंते ! गम्भं वकममाणे तप्पडम*याए किमाहारमाहारेइ ?, गोयमा ! माउओयं पिउसुकं तं तदुभयसंसिर्ल्ड कलुस किब्विसं तप्पढमयाए आ हारमाहारेइ । जीवेणं भंते ! गम्भगए समाणे किमा हारमाहारेइ ?, गोयमा ! जं से माया नाणाविहाओ रसविगईओ आहारमाहारेइ तदेकदेसेणं ओयमाहारेइ । जीवस्स णं भंते ! गम्भगयस्स समाणस्स अस्थि है उच्चारेइ वा पासवणेइ वा खेलेइ वा सिंघाणेइ वा वंतेइ वा पित्तेइ वा!, णो इणद्वे समढे, से केणटेणं ?, गो भयमा ! जीवे णं गभगए समाणे जमाहारेइ तं चिणाइ तं सोइंदियत्ताए जाव फासिंदियत्ताए अहिअष्टि मिंजकेसमंसुरोमनहत्ताप, से तेणटेणं । जीवे ण भंते ! गभगए समाणे पभू मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए, गोयमा ! णो इणढे समडे, से केणट्टेणं ?, गोयमा ! जीवे णं गम्भगए समाणे सवओ आहारेइ सब्धओ परिणामेइ सब्बओ उस्ससह सवओ निस्ससइ अभिक्खणं आहारेइ अभिक्खणं परिणामेइ अभि क्खणं ऊस्ससइ अभिक्खणं निस्ससह आहच आहारेइ आय परिणामेइ आहच उस्ससइ आहच्च नीससह ॥ & माउजीचरसहरणी पुत्तजीवरसहरणी माउजीवपडिबद्धा पुत्तजीवं फुडा तम्हा आहारेह सम्हा परिणामेह, I Sh अवरावि य णं पुत्तजीवपडिबद्धा माउजीवफुडा तम्हा चिणाइ तम्हा उवचिणाइ से तेणटेणं जाव नो पक्ष NCCSC REaratund-ind ~187~ Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] ॥८७॥ दीप अनुक्रम [८३] व्याख्या-8 मुहण कावा मुहेणं कावलियं आहारं आहारित्तए ॥ कइ णं भंते ! माइअंगा पण्णता ?, गोयमा ! तओ माइयंगा पाण-13/ प्रज्ञप्तिः शता, तंजहा-मंसे सोणिए मत्थुलुंगे । कइ णं भंते ! पिइयंगा पण्णत्ता?, गोयमा! तओ पिइयंगा पण्णत्ता, | उद्देशः ७ अभयदेवी गर्भस्येन्द्रि तंजहा-अहि अद्विमिंजा केसमंसुरोमनहे। अम्मापिइए णं भंते ! सरीरए केवइयं कालं संचिट्टह, गोयमा। यवत्त्वाहाया वृत्तिः१४ा जावइयं से कालं भवधारणिज्जे सरीरए अब्वावन्ने भवइ एवतियं कालं संचिठ्ठइ, अहे णं समए समए वोक|सिजमाणे २ चरमकालसमयंसि वोच्छिन्ने भबइ ।। (सू०६१)॥ गादि | 'गन्भं वक्कममाणे'त्ति, गर्भ व्युत्क्रामन् गर्भ उत्पद्यमान इत्यर्थः 'दबिंदियाईति निर्वृत्त्युपकरणलक्षणानि, तानि है हीन्द्रियपर्याप्ती सत्यां भविष्यन्तीत्यनिन्द्रिय उत्पद्यते, "भार्विदियाईति लब्ध्युपयोगलक्षणानि, तानि च संसारिणः IX|| सर्वावस्थाभावीनीति । 'ससरीरित्ति सह शरीरेणेति सशरीरी, इन्समासान्तभावात, 'असरीरित्ति शरीरवान् श-15 रीरी तनिषेधादशरीरी 'चकमह'त्ति व्युत्क्रामति, उत्पद्यत इत्यर्थः, 'तप्पढमयाए'त्ति तस्य-गर्भव्युत्क्रमणस्य प्रथमता तत्प्रथमता तया 'कि'मिति प्राकृतत्वात् कथम्?,'माउओयंति 'मातुरोजः' जनन्या आर्त्तवं, शोणितमित्यर्थः, पिउनुकंति पितुः शुक्रम् , इह यदिति शेषः 'तंति आहारमिति योगः, 'तदुभयसंसिहति तयोरुभयं तदुभयं द्वयं तच्च तत् संश्लिष्टं च संसृष्टं वा-संसर्गवत् तदुभयसंश्लिष्टं तदुभयसंसृष्टं वा 'जं से'त्ति या तस्य गर्भसस्वस्य माता 'रसविगईओ'चि रसरूपा विकृती:-दुग्धाद्या रसविकारास्ताः'तदेगदेसेणं ति तासां रसविकृतीनामेकदेशस्तदेकदेशस्तेन सह ओज आहारय-18 तीति । 'उच्चारेइ वत्ति उच्चारो-विष्ठा 'इति' उपप्रदर्शने 'चा' विकल्पे खेलो-निष्ठीवनं 'सिंघाणं'ति नासिकाश्लेष्मा SARERuralini ~188~ Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] दीप अनुक्रम [८३] का केसमंसुरोमनहत्ताए'त्ति इह श्मथूणि-कूर्चकेशाः रोमाणि-कक्षादिकेशाः । 'जीवेण' मित्यादि, सव्वओत्ति सवात्मना 'अभिक्खणति पुनः पुनः 'आहञ्चत्ति कदाचिदाहारयति कदाचिन्नाहारयति, तथास्वभावत्वात्, यतश्च सर्वत आहारयदि तीत्यादि ततो मुखेन न प्रभुः कावलिकमाहारमाह मिति भावः, अथ कथं सर्वत आहारयति ? इत्याह-माउजीवर सहरणी'त्यादि, रसो हियते-आदीयते यया सा रसहरणी नाभिनालमित्यर्थः, मातृजीवस्य रसहरणी मातृजीवरसहरणी, ४ किमित्याह-'पुत्तजीवरसहरणी' पुत्रस्य रसोपादाने कारणत्वात् , कथमेवमित्याह-मातृजीवप्रतिबद्धा सती सा यतः M'पुत्तजीवं फुड'त्ति पुत्रजीवं स्पृष्टवती, इह च प्रतिबद्धता गाढसम्बन्धः, तदंशत्वात् , स्पृष्टता च सम्बन्धमात्रम्, अत-15 देशत्वात् , अथवा मातृजीवरसहरणी पुत्रजीवरसहरणी चेति द्वे नाब्यो स्वः, तयोश्चाद्या मातृजीवप्रतिबद्धा पुत्रजीवस्मृ-द टेति, 'तम्हे'ति यस्मादेवं तस्मान्मातृजीवप्रतिबद्धया रसहरण्या पुत्रजीवस्पर्शनादाहारयति । 'अवरावि यति पुत्रजीवला रसहरण्यपि च पुत्रजीवप्रतिबद्धा सती मातृजीवं स्पृष्टवती 'तम्ह'त्ति यस्मादेवं तस्माचिनोति शरीरम् , उक्तं च तन्त्रान्तरेFI"पुत्रस्य नाभौ मातुश्च, हृदि नाडी निवध्यते । ययाऽसौ पुष्टिमामोति, केदार इव कुख्यया ॥१॥” इति ॥गर्भाधिकारादेवेद13माह-कइण'मित्यादि'माइअंगति आर्त्तवविकारबहुलानीत्यर्थः 'मत्थुलुंग'त्ति मस्तकभेज्जकम् , अन्ये त्याहुः-मेदः फिफिसादि मस्तुलुङ्गमिति । 'पिइयंगत्ति पैतृकाङ्गानि शुक्रविकारबहुलानीत्यर्थः, 'अडिमिंज'त्ति अस्थिमध्यावयवः,8 ki केशादिकं बहुसमानरूपत्वादेकमेव, उभयव्यतिरिक्तानि तु शुक्रशोणितयोः समविकाररूपत्वात् मातापित्रोः साधारणा नीति । 'अम्मापिइए णति अम्बापैतृकं, शरीरावयवेषु शरीरोपचाराद्, उक्तलक्षणानि मातापित्रङ्गानीत्यर्थः, 'जावइयं| SARERaininternational ~189~ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६१] व्याख्या-1 से काले ति यावन्तं कालं 'सेति तत् तस्य वा जीवस्य "भवधारणीय' भवधारणप्रयोजन मनुष्यादिभवोपग्राहकमि-III १शतके प्रज्ञप्तिः । त्यर्थः, 'अब्बावन्नेत्ति अविनष्टम् , 'अहे ण'ति उपचयान्तिमसमयादनन्तरमेतद् अम्बापैतृकं शरीरं 'चोक्कसिबमाणे'त्ति ||5|| अभयदेवी-12 व्यवकृष्यमाणं हीयमानं ।। गर्भाधिकारादेवापरं सूत्रम् गर्भस्य देया वृत्तिः१] वनरकयोजीवे णं भंते ! गम्भगए समाणे नेरहएसु उववजेजा ?, गोयमा! अत्थेगइए उववजेजा अत्यंगइए नो रुत्पादः ॥८८॥ उववज्जेज्जा, से केणद्वेणं ?, गोयमा ! से णं सन्नी पंचिंदिए सव्वाहि पजत्तीहिं पज्जत्तए वीरियलहीए वेउन्वि-|| जातस्या| यलद्धीए पराणीएणं आगयं सोचा निसम्म पएसे निच्छभइ नि०२ वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणइ समो015 देयतेतरे हार चाउरंगिणि सेन्नं विउठवह चाउरंगिणीसेनं विउब्वेत्ता चाउरंगिणीए सेणाए पराणीएणं सर्द्धि संगाम || संगामेइ, से णं जीवे अत्यकामए रजकामए भोगकामए कामकामए अत्यखिए रजकंखिए 'भोगकखिए कामकंखिए अस्थपिवासिए रजपिवासिए भोगपिवासिए कामपिवासिए तचित्ते तम्मणे तल्लेसे तदज्झसिए तत्तिब्वजावसाणे तदहोवउत्ते तदप्पियकरणे तन्भावणाभाविए एयंसि णं अंतरंसि कालं करेज नरइएसु उववजह से तेणतुणं गोयमा ! जाव अत्थेगइए उववजेज्जा अत्थेगहए नो उबवजेजा। जीवे णं भते गम्भ-| गए समाणे देवलोगेसु उववजेजा, गोयमा! अत्धेगहए उपवजेजा अत्थेगइए नो उववजंजा, से कण-| टेण, गोयमा! से ण सन्नी पंचिंदिए सब्वाहिं पज्जत्तीहिं पजत्तए तहारूवरस समणस्स चा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुबयणं सोचा निसम्म तओ भवइ संवेगजायसहे तिव्वधम्माणुरागरत्ते,13 ACCOGOG4 दीप अनुक्रम [८३] 555 ॥८८ arEnata narainraryou ~190~ Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२] दीप IIसे णं जीवे धम्मकामए पुषणकामए सग्गकामए मोक्खकामए धम्मकखिए पुषणकंखिए सग्गमोक्खक० धम्म पिवासिए पुण्णसग्गमोक्खपिवासिए तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसिए तत्तिबज्झवसाणे तदट्टोवउत्ते तद्प्पियकरणे तम्भावणाभाविए एयंसिणं अंतरंसि कालं करे० देवलो. उव० से तेणद्वेणं गोयमा । जीवे णं ||8| भंते ! गम्भगए समाणे उत्ताणए वा पासिल्लए वा अंवखुजए वा अच्छेज वा चिट्टेज वा निसीएज्ज वा * तुयहेज वा माऊए सुपमाणीए सुबह जागरमाणीए जागरइ सुहियाए सुहिए भवद दुहियाए दुहिए भवइ, हंता गोयमा! जीवेणं गभगए समाणे जाच दुहियाए दुहिए भवइ, अहे णं पसवणकाल समयंसि सीसेण 81 |वा पाएहिं वा आगच्छद सममागच्छद तिरियमागच्छद विणिहायमागच्छद ॥ वणवज्झाणि य से कम्माई पढ़ाई पुट्ठाई निहत्ताई कडाई पट्टवियाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाइं उदिन्नाई नो उवसंताई भवंति तओ भवइ दुरूवे दुब्वन्ने दुग्गंधे दूरसे दुप्फासे अणिट्टे अर्कते अप्पिए असुभे अमणुन्ने अमणामे हीणस्सरे दीणसरे अणिहस्सरे अकंतस्सरे अप्पियस्सरे असुभस्सरे अमणुन्नस्सरे अमणामस्सरे अणाएज वयणे पञ्चायाए यावि ★ भवइ, वनवज्झाणि प से कम्माई नो बढ़ाई पसत्यं नेयव्वं जाव आदेजवयणं पचायाए यायि भवइ, सेवं | भंते ! सेवं भंते ! (सू०६२)त्ति सत्तमो उद्देसो समत्तो ॥ १-७॥ गब्भगए समाणे'त्ति गर्भगतः सन् मृत्वेति शेषः 'एगइए'त्ति सगर्वराजादिगर्भरूपः, सञ्जित्वादिविशेषणानि च & गर्भस्थस्यापि नरकप्रायोग्यकर्मबन्धसम्भवाभिधायकतयोक्तानि, वीर्यलब्ध्या वैक्रिय लब्ध्या संग्रामयतीति योगः, अथवा अनुक्रम [८४] -- JMEnuration: ~191~ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: S प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [८४] व्याख्या वीर्यलब्धिको वैक्रियलब्धिकश्च सन्निति, पराणीएण'ति 'परानीक' शत्रुसैन्यं 'सोच'त्ति आकर्य'निशम्य' मनसाऽवधार्य १ शतके प्रज्ञप्तिः 'पएसे निच्छुभइ'त्ति (प्रदेशान् गर्भदेशाद्वहिः क्षिपति 'समोहणइत्ति 'समवहन्ति' समवहतो भवति तथाविधपुद्गलग्रह- उद्देशः अभयदेवी- णार्थ, 'सङ्ग्राम सङ्कामयति' युद्धं करोति, 'अत्थकामए' इत्यादि अर्थे-द्रव्ये कामो-वाञ्छामात्रं यस्यासावर्थकामः, गर्भस्य दे वनरकयोया वृत्तिः१ एवमन्यान्यपि विशेषणानि, नवरं राज्यं-नृपत्वं भोगा-गन्धरसस्पर्शाः कामौ-शब्दरूपे कास-गृद्धिः, आसक्तिरित्यर्थः, रुत्पादः | अर्थे काहा संजाताऽस्येत्यर्थकाद्विन्तः, पिपासेव पिपासा-प्राप्तेऽप्यर्थेऽतृप्तिः, 'तचित्ते'त्ति तत्र-अर्थादी चित्तं-सामान्यो-18 ॥८९।। |पयोगरूपं यस्यासौ तचित्तः, 'तम्मणे'त्ति तत्रैव-अर्थादी मनो-विशेषोपयोगरूपं यस्य स तन्मनाः, 'तल्लेसेत्ति लेश्या- तरेस | आत्मपरिणामविशेषा, 'तदज्झवसिए'त्ति इहाध्यवसायोऽध्यवसितं, तत्र तच्चित्तादिभावयुक्तस्य सतस्तस्मिन्-अर्थादा-1 वेवाध्यवसितं-परिभोगक्रियासंपादनविषयमस्येति तदध्यवसितः, 'तत्तिवझवसाणेत्ति तस्मिन्नेव-अर्थादौ तीव्रम्-13 आरम्भकालादारभ्य प्रकर्षयायि अध्यवसान-प्रयाविशेषलक्षणं यस्य स तथा, 'तदहोवउत्तेत्ति तदर्थम्-अर्थादिनिमिसमुपयुक्तः-अवहितस्तदर्थोपयुक्तः, 'तप्पियकरणे'त्ति तस्मिन्नेव-अर्थादावर्पितानि-आहितानि करणानि-इन्द्रियाणि कृतकारितानुमतिरूपाणि वा येन स तथा, 'तम्भावणाभाविए'त्ति असकृदनादौ संसारे तद्भावनया-अर्थादिसंस्कारेण |भावितो यः स तथा, 'एयंसि णं अंतरंसित्ति 'एतस्मिन्' सङ्ग्रामकरणावसरे कालं-भरणमिति । 'तहारुवस्स'त्ति R ॥८९॥ तथाविधस्य, उचितस्येत्यर्थः, 'श्रमणस्य' साधो, वाशब्दो देवलोकोत्पादहेतुत्वं प्रति श्रमणमाहनवचनयोस्तुल्यत्वप्रकाशनार्थः, 'माहणस्स'त्ति मा हन इत्येवमादिशति स्वयं स्थूलप्राणातिपातादिनिवृत्तवाद्यः स माहनः, अथवा ब्राह्म SM++ EKADAKACK SHREmirates K amurary.au ~192~ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२] दीप णो-ब्रह्मचर्यस्य देशतः सझावाद् ब्राह्मणो देशविरतः तस्य वा 'अंतिए'त्ति समीपे एकमप्यास्तामनेकम् 'आर्यम्' आराद् यातं पापकर्मभ्य इत्यार्यम् , अत एव धार्मिकमिति, 'तओ'त्ति तदनन्तरमेव 'संवेगजायसहिति संवेगेन-भवभयेन जाता श्रद्धा-श्रद्धानं धर्मादिषु यस्य स तथा 'तिब्वधम्माणुरागरत्तित्ति तीवो यो धर्मानुरागो-धर्मबहुमानस्तेन रक | इव यः स तथा, 'धम्मकामए'त्ति धर्म:-श्रुतचारित्रलक्षणः पुण्य-तत्फलभूतं शुभकर्मेति । 'अंबखुज्जए वत्ति आर-31 | फलवत्कुजः 'अच्छेजति आसीत सामान्यतः, एतदेव विशेषत उच्यते-चिउज्जत्ति ऊर्द्धस्थानेन 'निसीएजत्ति निषदस्थानेन त्यहेजत्ति शयीत, 'सममागच्छद'त्ति, समम्-अविषमं 'सम्मति पाठे 'सम्यम्' अनुपघातहेतुत्वादागच्छति|मातरुदराद योन्या निष्कामति 'तिरियमागच्छत्ति तिरश्चीनो भूत्वा जठरान्निर्गन्तुं प्रवत्तते यदि तदा 'विनिघात' मरणमापद्यते, निर्गमाभावादिति । गर्भान्निर्गतस्य च यत्स्यात्तदाह-'वण्णवज्झाणि य'त्ति वर्ण:-श्लाघा वध्यो-हन्तव्यो येषां तानि वर्णवध्यानि, अथवा वर्णाद्वाह्यानि वर्णबाह्यानि अशुभानीत्यर्थः, चशब्दो वाक्यान्तरत्वद्योतनार्थः, सेति तस्य गर्भनिर्गतस्य 'बदाईति सामान्यतो बद्धानि 'पुट्ठाईति पोषितानि गाढतरवन्धतः 'निहत्ताईति उद्वर्त्तनापवर्तनकरणावर्जशेषकरणायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, अथवा बद्धानि, कथम् !-यतः पूर्व स्पृष्टानीति, कडाईति निकाचितानि सर्वकरपायोग्यत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, पट्ठवियाई ति मनुष्यगतिपञ्चेन्द्रियजातित्रसादिनामकर्मादिना सहोदयत्वेन व्यवस्थापितानीत्यर्थः, अभिनिविट्ठाई ति तीव्रानुभावतया निविष्टानि, अभिसमन्नागयाई ति उदयाभिमुखीभूतानीति, ततश्च 'उदिन्नाईति 'उदीर्णानि स्वत उदीरणाकरणेन वोदितानि, व्यतिरेकमाह-'नो स्वसंताईति, अनिष्टादीनि व्याख्या अनुक्रम [८४] 444SOOR Pleasurary.com ~193~ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [६२] दीप अनुक्रम [४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [६२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ ९० ॥ Ja Eratur तान्येवैकार्थानि वा, 'हीणस्सरे 'त्ति अल्पश्वरः 'दीणस्सरे 'ति दीनस्येव - दुःस्थितस्येव स्वरो यस्य स दीनस्वरः 'अणादेयवयणे पच्चायाए यावित्ति, इहैवमक्षरघटना- प्रत्याजातश्चापि समुत्पन्नोऽपि चानादेयवचनो भवतीति ॥ प्रथमशते सप्तमः ॥ १-७ ॥ 30 गर्भवक्तव्यता सप्तमोदेशकस्यान्ते उक्ता, गर्भवासश्चायुषि सतीत्यायुर्निरूपणायाह, तथाऽऽदिगाथायां यदुक्तं 'बाले'त्ति तदभिधानाय चाष्टमोद्देशक सूचकसूत्रम् रायगिहे समोसरणं जाव एवं वयासी- एगंतवाले णं भंते! मणूसे किं नेरइयाज्यं पकरेइ तिरिक्ख० मणु०देवा० एक० ?, नेरइयाउयं किया नेरइएस उव० तिरियाजयं कि० तिरिए उबव० मणुस्साज्यं० मणुस्से० जब देवाड० कि० देवलोएसु० उववज्जइ?, गोयमा ! एगंतवाले णं मणुस्से नेरइयाउयंपि पकरेइ तिरि०मणु० | देवाउयंपि पकरेह, नेरइयाज्यंपि किवा नेरइएस उव० तिरि०मणु० देवाउयं किवा तिरि०मणु० देवलोपसु उबवज्जइ ॥ (० ६३ ) ॥ 'एगंतबाले' इत्यादि, एकान्तवालः' मिथ्यादृष्टिरविरतो वा, एकान्तग्रहणेन मिश्रतां व्यवच्छिनत्ति, यचैकान्तवालत्वे | समानेऽपि नानाविधायुर्वन्धनं तन्महारम्भाद्युन्मार्गदेशनादितनु कषायत्वादि अकामनिर्जरादि तद्धेतुविशेषवशादिति, अत एव | बालत्वे समानेऽप्यविरतसम्यग्दृष्टिर्मनुष्यो देवायुरेव प्रकरोति न शेषाणि ।। एकान्तबालप्रतिपक्षत्वादेकान्तपण्डितसूत्रं, तत्र च अत्र प्रथम शतके सप्तम उद्देशकः समाप्तः अथ प्रथम शतके अष्टम उद्देशक: आरभ्यते For Parts Only ~ 194~ १ शतके उद्देशः ८ एकान्त बालस्य गतिः सू ६३ ॥ ९० ॥ org Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: E% प्रत सूत्रांक [६४] दीप अनुक्रम [८६] ४ एगंतपंडिए भंते ! मणुस्से किं नेर० पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवलोएमु उवव०, गोयमा ! एगंत पंडिए णं मणुस्से आउयं सिय पकरेइ सिय नो पकरेइ, जह पकरेह नो नेरहया पकरेह नो तिरि०नो मणु०॥४॥ देवाज्यं पकरेइ, नो नेरड्याउयं किच्चा नेर० उव० णो तिरि० णो मणुस्स देवाउयं किच्चा देवेसु उव०, से केणAणं जाव देवाकिच्चा देवेसु उववजद, गोयमा ! एगंतपंडियस्स णं मणुसस्स केवलमेव दो गईओ पन्ना यति. तंजहा-अंतकिरिया चेव कप्पोववत्तिया चेव, से तेणद्वेणं गोयमा! जाव देवाज्यं किचा देवेसु उवव-18|| जइ ॥ बालपंडिएणं भंते ! मणूस्से किं नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाज्यं किच्चा देवेसु उववजह ?, गोयमा! नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजइ, से केणडेणं जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववजह?, गोयमा ! बालपंडिए णं मणुस्से तहारुवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म देसं उवरमइ देसं नो उबरमह देसं पञ्चक्खाइ देसं णो पचक्खाइ, से तेणतुणं देसोवरमदेसपञ्चक्खाणेणं नो नेरइयाउयं पकरेइ जाव देवाउयं किच्चा देवेसु उववज्जइ, से तेणडेणं जाव देवेसु उववज्जइ । (सू० ६४) । 'एगंतपंडिए णति एकान्तपण्डितः-साधुः 'मणुस्से'त्ति विशेषणं स्वरूपज्ञापनार्थमेव, अमनुष्यस्यैकान्तपण्डितत्वायोगात् , तदयोगश्च सर्वविरतेरन्यस्याभावादिति, 'एगंतपंडिए णं मणुस्से आउयं सिप पकरेइ सिय नो पकरेइ'त्ति, सम्यक्त्वसप्तके क्षपिते न बनात्यायुः साधुः अवाक पुनर्वधातीत्यत उच्यते-स्यात्प्रकरोतीत्यादि, 'केवलमेव दो गईओ C3454 SARERatun international For P OW ~195 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६४] सू६४ दीप अनुक्रम [८६] व्याख्या- पन्नायंति'त्ति केवलशब्दः सकलार्थस्तेन साकल्येनैव(द्वे)गती 'प्रज्ञायते' अवबुध्येते केवलिना, तयोरेव सत्त्वादिति 'अंत- १ शतके प्रज्ञप्तिः किरिय'त्ति निर्वाणं कप्पोचवत्तिय'त्ति कल्पेषु-अनुत्तरविमानान्तदेवलोकेपपत्तिः सैव कल्पोपपत्तिका, इह च कल्पशब्दः उद्देशः ८ अभयदेवी- सामान्येनैव वैमानिकदेवाऽऽवासाभिधायकं इति ॥एकान्तपण्डितद्वितीयस्थानवर्तित्वाद्वालपण्डितस्य अतो बालपण्डितसूत्र, या वृत्तिः१|का तत्र च-बालपंडिए 'तिश्रावका 'देसं उवरमइत्ति विभक्तिविपरिणामादेशात् 'उपरमते' विरतो भवति, ततो 'देसं| लपण्डित18 स्थूलं प्राणातिपातादिकं प्रत्याख्याति' वर्जनीयतया प्रतिजानीते ॥ आयुर्वन्धस्य क्रियाः कारणमिति क्रियासूत्राणि पश्च, तत्र योरुत्पादः ॥ ९१॥ पुरिसे णं भंते ! कच्छसि वा १ दहंसि वा २ उदगंसि वा ३ दवियंसि वा ४ वलयंसि वा ५ नूमंसि वा ६] गहणंसि वा ७ गहणविदुग्गसि वा ८ पब्वयंसि वा९पब्वयविदग्गंसि वा १० वर्णसि वा ११ वणविदुग्गसि वा १२ मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियवहाएगंता एए मिएत्तिका अन्नयरस्स मियस्स वहाए कूड&ापासं उद्दाइ, ततो गं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए पपणते ?. गोयमा ! जापं च णं से पुरिसे कच्छसि वा १०|| (१२) जाव कूडपासं उद्दाइ तावं च णं से पुरिसे सिय तिकिसिय चउ० सिय पंच०, से केणद्वेणं सिय ति०॥8 ४ासिय च० सिय ५०, गोयमा! जे भविए उद्दवणयाए णो बंधणयाए णो मारणपाए तावं च णं से पुरिसे |काइयाए अहिंगरणियाए पाउसियाए तिहिं किरियाहिं पुढे, जे भविए उद्दघणयाएवि बंधणयाएवि णो समारणयाए तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणियाए पाउसियाए पारियावणियाए चाहिं किरियाहिं|3|| ॥ ९१ ॥ | पुढे, जे भविए उद्दवणयाएवि बंधणयाएवि मारणया एवि तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिंगरणियाए REmirati o nal In m arary.orm ~196~ Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५-६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६९] दीप अनुक्रम [८७-९१] पाउसियाए जाय पंचहिं पुढे, से तेणढणं जाव पंचकिरिए, सू० (६५) पुरिसे णं भंते ! कच्छसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा तणाई ऊसविय २ अगणिकार्य निस्सरह तावं चणं से भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकि० सिय पंच०, से केणडेणं ?, गोयमा जे भविए उस्सवणयाए तिहिं, उस्सवणयाएवि निस्सिरणयाएवि नो दहणयाए चउहिं, जे भविए उस्सवणयाएवि निस्सिरणयाएवि दहणयाएवि तावं च णं से पुरिसे काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, से तेण गोयमा ।। (मू०६६) 1-18 पुरिसे गं भंते ! कच्छसि वा जाव वणविदुग्गंसि वा मियवित्तीए मियसंकप्पे मियपणिहाणे मियव हाए गंता एए मियेत्तिका अन्नयरस्स मियस्स वहाए उसु निसिरइ, ततो णं भंते ! से पुरिसे कइ& किरिए, गोयमा! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, से केणडेणं, गोयमा । जे भविए || |निस्सिरणयाए नो विद्धंसणयाएवि नो मारणयाए तिहिं, जे भविए निस्सिरणयाएवि विद्धंसणघाएवि नोमारणयाए चाहिं, जे भविए निस्सिरणयाएवि विडंसणयाएवि मारणयाएवि तावं च णं से पुरिसे जाव पंचहिं किरियाहिं पुढे, से तेणड्डेणं गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंच किरिए (सू०६७)। पुरिसे णं भंते ! कच्छसि वा जाव अन्नयरस्स मियस्स वहाए आययकन्नाययं उसुं आयामेत्ता चिहिला, अन्नयरे पुरिस मग्गओ आगम्म सयपाणिणा असिणा सीसं छिदेखा से य उसुताए चेव पुवायामणयाए तं विंधेजा से णं भंते ! पुरिसे किं मियवेरेणं पुढे पुरिसवेरेणं पुढे?, गोयमा ! जे मियं मारेइ से मियवरेणं पुढे, जे पुरिसं ~197 Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५-६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६९] दीप अनुक्रम [८७-९१] व्याख्या-मार मारेइ से पुरिसवेरेणं पुढे, से केण्डेणं भंते ! एवं बुचह जाव से पुरिसवेरेणं पुढे ?, से नूर्ण गोयमा ! कत्रमाणे दा. ॥४१ शतके || कडे संधिजमाणे संधिए निब्बत्तिज्वमाणे निव्वत्तिए निसिरिजमाणे निसिडेत्ति वत्तवं सिया ?, हंता भ-RE अभयदेवी- गवं! कजमाणे कडे जाव निसिद्वेत्ति बत्तवं सिया, से तेणद्वेणं गोयमा ! जे मियं मारेह से मियवेरेणं पुढे, मृगवधादौ या वृत्तिः जे पुरिसं मारेड से पुरिसवेरेणं पुढे ॥ अंतो छपहं मासाणं मरइ काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, बाहिं क्रिया: हिं मासाणं मरइकाइयाए जाव पारियावणियाए चउहि किरियाहिं पुढे (सू०६८)। पुरिसे गंसू ६४-६९ ॥१२॥ भंते! पुरिसं सत्तीए समभिधंसेजा सयपाणिणा वा से असिणा सीसं छिदेखा तओ णं भंते ! से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं चणं से पुरिसे तं पुरिसं सत्तीए अभिसंघेइ सयपाणिणा वा से असिणा सीसंद छिदइ तावं च णं से पुरिसे काइयाए अहिगरणि जाव पाणाइवायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुढे, आसन्नबहएण य अणवखवत्तिएणं पुरिसरेणं पुढे ॥ (सू०६९) 'कच्छंसि वत्ति 'कच्छे नदीजलपरिवेष्टिते वृक्षादिमति प्रदेशे 'दहंसि वत्ति इदे प्रतीते 'उदगंसि वत्ति I उदके-जलाश्रयमाने 'दवियंसि वत्ति 'द्रविके' तृणादिव्यसमुदाये 'वलयंसि वत्ति 'बलये तृत्ताकारनद्या धुदककुटिलगतियुक्तपदेशे 'नूमंसि वत्ति 'नूमें' अवतमसे 'गहणंसि वसि 'गहने' वृक्षवालीलतावितानवीरुत्स-III१२॥ IPामदाये 'गहणविदुग्गंसि बत्ति 'गहनविदुर्गे पर्वतैकदेशावस्थितवृक्षवायादिसमुदाये 'पब्वयंसि वत्ति पर्वते 'पब्बयविदुम्गसि वत्ति पर्वतसमुदाये 'वर्णसि वत्ति 'बने एकजातीयवृक्षसमुदाये 'वणविदुगंसि बत्ति नाना Rainrary.org ~198~ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५-६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 555% [६५-६९] दीप अनुक्रम [८७-९१] विधवृक्षसमूहे 'मिगवित्तीए'त्ति मृगैः-हरिणैर्वृत्तिः-जीविका यस्य स मृगवृत्तिकः, स च मृगरक्षकोऽपि स्यादि४ त्यत आह-मियसंकप्पे'त्ति मृगेषु सङ्कल्पो-वधाध्यवसायः छेदनं वा यस्यासी मृगसङ्कल्पः, स च चलचित्ततयाऽपि द भवतीत्यत आह–'मियपणिहाणे'त्ति मृगवधैकाग्रचित्तः 'मिगवहाए'त्ति मृगवधाय 'गंत'त्ति गत्वा कच्छादाविति | योगः 'कूडपासंति कूटं च-मृगग्रहणकारणं गर्तादि पाशश्च-तद्वन्धनमिति कूटपाशम् 'उहाइ'त्ति मृगयधायो| ददाति, रचयतीत्यर्थः, 'तओ णति ततः कूटपाशकरणात् 'कइकिरिए'त्ति कतिक्रियः ?, क्रियाश्च कायिक्यादिकाः, 'जे भविए'त्ति यो भन्यो योग्यः कतैतियावत् 'जावं च णमिति शेषः, यावन्तं कालमित्यर्थः, कस्याः कर्ता इत्याह'उद्दवणयाए'त्ति कूटपाशधारणतायाः, ताप्रत्ययश्चेह स्वार्थिकः, 'तावं च णं'ति तावन्तं कालं 'काइयाए'त्ति गमना-13 ||दिकायचेष्टारूपया 'अहिगरणियाए'त्ति अधिकरणेन-कूटपाशरूपेण निर्वृत्ता या सा तथा तया 'पासियाए'त्ति प्रद्वेपो-मृगेषु दुष्टभावस्तेन निवृत्ता प्राद्वेषिकी तया 'तिहिं किरियाहिं'ति क्रियन्त इति क्रियाः-चेष्टाविशेषाः, 'पारिता-11 वणियापत्ति परितापनप्रयोजना पारितापनिकी, सा च बद्धे सति मृगे भवति प्राणातिपातक्रिया च घातिते इति १॥ |'ऊसविए'त्ति उत्सर्पः ऊसिकिऊणेत्यर्थः उदींकृत्येति या 'निसिरह'त्ति निसृजति-क्षिपति यावदिति शेषः २ ॥ 'उK ति बाणम् 'आययकण्णायत्त'ति कर्ण यावदायत:-आकृष्टः कर्णायतः आयत-प्रयत्नवद् यथा भवतीत्येवं कर्णायत *आयतकर्णायतस्तम् 'आयामेस'त्ति 'आयस्य' आकृष्य 'मग्गओ'त्ति पृष्ठतः 'सयपाणिण त्ति 'स्वकपाणिना' स्वकहका स्तेन 'पुवायामणयाए'त्ति पूर्वाकर्षणेण, 'से णं भंते ! पुरिसेति 'स' शिर छेत्ता पुरुषः 'मियबेरेणं'ति रह वैरं| % % ~199~ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५-६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६९] दीप अनुक्रम [८७-९१] व्याख्या- वैरहेतुत्वाद् वधः पापं वा वैरं वैरहेतुत्वादिति, अथ शिर छेतृपुरुषहेतुकत्वादिषुनिपातस्य कथं धनुर्द्धरपुरुषो मृगवधेन शतके प्रज्ञप्तिः स्पृष्ट इत्याकूतवतो गौतमस्य तदभ्युपगतमेवार्थमुत्तरतया प्राह-क्रियमाणं धनुःकाण्डादि कृतमिति व्यपदिश्यते !, उद्देशः८ ४ा युक्तिस्तु प्रागुवत् , तथा सन्धीयमानं-प्रत्यञ्चायामारोप्यमाणं काण्डं धनुर्वाऽऽरोप्यमाणप्रत्यञ्च 'सन्धितं' कृतसन्धानं या वृत्तिः । मृगवधादा ला भवति ?, तथा 'निर्वृत्त्यमान' नितरां वर्तुलीक्रियमाणं प्रत्यञ्चाकर्षणेन निर्वृत्तितं-वृत्तीकृतं मण्डलाकारं कृतं भवति !,ISIL ॥ ९३॥ तथा 'निसृज्यमान निक्षिप्यमाणं काण्डं निसृष्टं भवति?, यदा च निसृष्टं तदा निसृज्यमानताया धनुर्द्धरेण कृतत्वात् तेन || काण्डं निसृष्टं भवति, काण्डनिसर्गाच्च मृगस्तेनैव मारितः, ततश्चोच्यते-'जे मियं मारेइ' इत्यादीति ३॥ इह च क्रियाः प्रक्रान्ताः, ताश्चानन्तरोक्ते मृगादिवधे यावत्यो यत्र कालविभागे भवन्ति तावतीस्तत्र दर्शयन्नाह-'अन्तो छण्ह मित्यादि, षण्मासान् यावत् प्रहारहेतुकं मरणं परतस्तु परिणामान्तरापादितमितिकृत्वा षण्मासादूर्व प्राणातिपातक्रिया न स्यादिति हृदयम् , एतच्च व्यवहारनयापेक्षया प्राणातिपातक्रियाव्यपदेशमात्रोपदर्शनार्थमुक्तम् , अन्यथा यदा कदाऽप्यधिकृतं प्रहारहेतुकं मरणं भवति तदैव प्राणातिपातक्रिया इति ॥'सत्तीए'त्ति शक्त्या-पहरणविशेषेण 'समभिधंसेज'त्ति हन्यात् 'सयपाणिण'त्ति स्वकहस्तेन 'से'त्ति तस्य 'काइयाए'त्ति 'कायिक्या' शरीरस्पन्दरूपया आधिकरणिक्या' शक्ति ॥९ ॥ खगव्यापाररूपया 'प्राद्वेषिक्या' मनोदुष्प्रणिधानेन 'पारितापनिक्या' परितापनरूपया 'प्राणातिपातक्रियया' मारणरूपया ला'आसन्ने'त्यादि वस्थाऽभिध्वंसकः असिना वा शिर छेत्ता पञ्चभिः क्रियाभिः स्पृष्टः, तथा पुरुषवरेण च स्पृष्टः, मारि-12 तपुरुषवैरभावेन किम्भूतेनेत्याह-आसन्नो वधो यस्माद्वैरात्तत्तथा तेनासन्नवधन, भवति च वैराद्वधो वधकस्य तमेव Clauditurary.com ~200~ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [६५-६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [६५-६९] दीप अनुक्रम [८७-९१] वध्यमानित्यान्यतो वा तत्रैव जन्मनि जन्मान्तरे वा, यदाह-वहमारणअन्भक्साणदाणपरधणविलोवणाईणं । सबज हन्नो उदओ दसगुणिओ एकसिकयाणं ॥१॥"ति, 'चः समुच्चयेऽनवकालक्षणा-परप्राणनिरपेक्षा स्वगतापायपरिहारहानिरपेक्षा वा वृत्तिः-वर्तनं यत्रैव वैरे तत्तथा तेनानवकाङ्गणवृत्तिकेनेति ५॥ क्रियाऽधिकार एवेदमाह& दो भंते ! पुरिसा सरिसया सरित्तया सरिब्वया सरिसभंडमत्तोवगरणा अन्नमन्नेणं सद्धिं संगाम संगा मेन्ति, तत्व णं एगे पुरिसे पराइणइ एगे पुरिसे पराइलाइ, से कहमेयं भंते ! एवं , गोयमा ! सवीरिए पराइ४ाणइ अवीरिए पराइजद से केणटेणं जाव पराइजह?, गोयमा ! जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई णो बद्धाई जो पुट्ठाई जाव नो अभिसमन्नागयाई नो उदिनाई उपसंताई भवंति से णं पराइणइ, जस्स णं वीरियवज्झाई कम्माई बद्धाइं जाव उदिन्नाई नो उवसंताई भवंति से णं पुरिसे पराइजइ, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुचइसवीरिए पराइणइ अवीरिए पराइज्जइ ॥ (सू०७०)॥ 'सरिसय'त्ति सदृशको कौशलप्रमाणादिना 'सरित्तयत्ति 'सहक्वची' सदृशच्छवी 'सरिव्वय'त्ति सदृग्वयसौ समानयौवनाद्यवस्थौ 'सरिसभंडमत्तोवगरण'त्ति भाण्ड-भाजनं मृन्मयादि मात्रो-मात्रया युक्त उपधिः स च कांस्य-16 |भाजनादिभोजनभण्डिका भाण्डमात्रा वा-गणिमादिद्रव्यरूपः परिच्छदः उपकरणानि-अनेकधाऽऽवरणप्रहरणादीनि १ वधमारणाभ्याख्यानदानपरधनविलोपनादीनामेकशः कृतानामपि सर्वजघन्य उदयो दशगुणितः ॥१॥ REaratimEAna K arauraryorg ~ 201~ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [७०] दीप अनुक्रम [२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [८], मूलं [ ७०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ ९४ ॥ Jan Eratur ततः सदृशानि भाण्डमात्रोपकरणानि ययोस्ती तथा अनेन च समानविभूतिकत्वं तयोरभिहितं, 'सवीरिए'त्ति सवीर्यः 'वीरियवज्झाई' ति वीर्य वध्यं येषां तानि तथा ॥ वीर्यप्रस्तावादिदमाह - जीवा णं भंते! किं सवीरिया अवीरिया ?, गोयमा ! सवीरियावि अवीरियावि, से केणद्वेणं ?, गोयमा ! जीवा दुबिहा पन्नत्ता, संजहा- संसारसमावन्नगा य असंसारसमावन्नगा य, तत्थ णं जे ते असंसारसमावलगा ते णं सिद्धा, सिद्धा णं अवीरिया, तत्थ णं जे ते संसारसमावन्नगा ते दुबिहा पन्नत्ता, तंजहा- सेलेसिपडिवनगा य असेलेसिपडिवन्नगा य, तत्थ णं जे ते सेलेसिपडिवन्नगा ते णं लडिवीरिएणं सवीरिया करणवीरिएणं अवीरिया, तत्थ णं जे ते असेलेसिपडिवन्नगा ते णं लडिवीरिएणं सवीरिया करणवीरिएणं सवीरियावि अवीरियाचि, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ-जीवा दुबिहा पण्णत्ता, तंजहा सवीरियावि अवीरियावि । नेरइया णं भंते । किं सवीरिया अवीरिया ?, गोपमा ! नेरहया लद्विवीरिएणं सवीरिया करणवी| रिएणं सवीरियावि अवीरियावि, से केणद्वेणं ?, गोयमा ! जेसि णं नेरइयाणं अस्थि उडाणे कम्मे बले बी|रिए पुरिसक्कारपरक मे ते णं नेरझ्या लद्विवीरिएणवि सवीरिया करणवीरिएणवि सवीरिया, जेसि णंनेरयाणं नत्थि उडाणे जाव परक्कमे ते णं नेरइया लडिवीरिएणं सवीरिया करणवीरिएणं अवीरिया, से तेणद्वेणं०, जहा नेरइया एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिया, मणुस्सा जहा ओहिया जीवा, नवरं सिद्धवजा भाणियचा, वाणमंत रजोइसवेमाणिया जहा नेरइया, सेवं भंते! सेवं भंते !त्ति ।। (सू०७०) ।। पढमसए अडमो उद्देसो समत्तो ॥ For Parts Only এछন ~ 202~ १ शतके उद्देशः ८ जयपराज यहेतु सू७० वीर्यम् सू ७१ ॥ ९४ ॥ nary org ***अत्र सूत्र-क्रमस्य मूल-संपादने एक: मुद्रण-दोषः जातः सू० ७० (यहाँ सू० ७१ होना चाहिए, मगर नीचे की लाइनमें सू० ७० लिखा है, वैसे उपर दाईं तरफ तो ७१ ही छपा है और इस सूत्र के बाद भी आगे के सूत्रमे सूत्र क्रम ७२ ही दिया गया है ।) Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: M प्रत सूत्रांक सिद्धा णं अवीरिय'त्ति सकरणवीर्याभावादवीर्याः सिद्धाः, सेलेसिपडिवनगा यत्ति शीलेशः-सर्वसंवररूपचरणप्रभुस्तस्येयमवस्था शैलेशो वा-मेरुस्तस्येव याऽवस्था स्थिरतासाधर्म्यात्सा शैलेशी, सा च सर्वथा योगनिरोधे पञ्चइस्वाक्षरोच्चारकालमाना तां प्रतिपन्नका ये ते तथा, 'लडिवीरिएणं सवीरिय'त्ति वीर्यान्तरायक्षयक्षयोपशमतो या वीर्यस्य लब्धिः सैव तद्धेतुत्वाद्वीय लब्धिवीर्य तेन सवीर्याः, एतेषां च क्षायिकमेव लब्धिवीर्य, 'करणवीरिएणति लब्धिवीर्यकायभूता क्रिया करणं तद्रूपं करणवीर्य, 'करणवीरिएणं सवीरियावि अवीरियावित्ति तत्र 'सवीर्याः' उत्थानादिक्रियावन्तः अवीर्यास्तूत्थानादिक्रियाविकला, ते चापर्याप्यादिकालेऽवगन्तव्या इति । 'नवरं सिहयजा भाणियब्ब'त्ति, औधिकजीवेषु सिद्धाः सन्ति मनुष्येषु तु नेति, मनुष्यदण्डके वीर्य प्रति सिद्धस्वरूपं नाध्येयमिति ॥ प्रथमशतेऽष्टम॥१-८॥ [७१] 5 दीप अनुक्रम [९३] CSCSC % | अष्टमोद्देशकान्ते वीर्यमुक्त, वीर्याच जीवा गुरुत्वाद्यासादयन्तीति गुरुत्वादिप्रतिपादनपरः तथा सङ्घहण्यां यदुक्कं । |'गुरुए'त्ति तत्प्रतिपादनपरश्च नवमोद्देशकः, तत्र च सूत्रम्| कहनं भंते !जीवा गरुयत्तं हव्वमागच्छन्ति ?, गोयमा! पाणाइवाएणं मुसावाएणं अदिन्ना मेहुणपरि०कोह. माणमाया लोभ०० दोस० कलह अभक्खाण पेसुन्न रतिअरति० परपरिवाय मायामोसमिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु गोयमा ! जीवा गरुयत्तं हव्यमागच्छति । कहनं भंते ! जीवा लहुयत्तं हब्वमागच्छति', गोयमा! पाणाइवायवेरमणेणं जाब मिच्छादसणसवेरमणेणं एवं खलु गोयमा! जीवा लहुयत्तं हब्वमाग-2 REscamix murary.org अत्र प्रथम-शतके अष्टम-उद्देशकः समाप्त: अथ प्रथम-शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते ~203~ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [७२] दीप अनुक्रम [४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ ९५ ॥ Je Eticatur च्छन्ति, एवं संसारं आउलीकरेंति एवं परितीकरेंति दीहीकरेंति हस्सीकरेंति एवं अणुपरियहंति एवं वीरवयंति-पसत्था चत्तारि अप्पसत्था चत्तारि ॥ ( सू० ७२ ) ॥ 'गरुतं' ति 'गुरुत्वम्' अशुभकर्मापचय रूपमधस्ताद्गमनहेतुभूतं 'लघुकत्वं' गौरवविपरीतम्, एवम् 'आउलीकरिंति' त्ति, इहैवंशब्दः पूर्वोक्ताभिलापसंसूचनार्थः, स चैवम्- 'कहनं भंते ! जीवा संसारं आउलीकरेंति ?, गोयमा ! पाणाइवाएण मित्यादि, एवमुत्तरत्रापि तत्र 'आउलीकरेंति' प्रचुरीकुर्वन्ति कर्मभिरित्यर्थः, 'परिसीकरेंति'त्ति स्तोकं कुर्वन्ति कर्मभिरेव, 'दीहीकरेंति'त्ति दीर्घं प्रचुरकालमित्यर्थः, 'हस्सीकरेंति'त्ति अल्पकालमित्यर्थः 'अणुपरियहंति'त्ति पौनःपुन्येन भ्रमन्तीत्यर्थः, 'वीइवयंति' त्ति व्यतित्रजन्ति व्यतिक्रामन्तीत्यर्थः, 'पसत्था चत्तारि ति लघुत्वपरीतत्वहस्वत्वव्यतित्रजनदण्डकाः प्रशस्ताः मोक्षाङ्गत्वात्, 'अप्पसत्था चत्तारिति गुरुत्वाकुलत्वदीर्घत्यानुपरिवर्त्तनदण्डका अप्रशस्ताः अमोक्षाङ्गत्वादिति ॥ गुरुत्वलघुत्वाधिकारादिदमाह सत्तमे णं भंते ओवासंतरे किं गुरुए लहुए गुरुयलहुए अगुरुयलहुए ?, गोपमा ! नो गुरुए नो लहुए नो गुरुयल हुए अगुरुयल हुए। सूत्तमे णं भंते ! तनुवाए कि गुरुए लहुए गुरुयल हुए अगुरुपलहुए ?, गोयमा ! नो गुरुए नो लहुए गुरुपलहुए नो अगुरुयल हुए। एवं सत्तमे घणवाएं सत्तमे घणोदही सत्तमा पुढवी, उवासंतराई सव्वाई जहा सत्तमे ओवासंतरे, (सेसा) जहा तणुवाए, एवं ओवासवायघणउद्दि पुढवी दीवा य सागरा वासा। नेरइयाणं भंते! किं गुरुपा जाव अगुरुलहुया ?, गोयमा ! नो गुरुया नो लहुया गुरुपलहुयावि अगुरुलहुयावि, For Parts Only ~204~ १ शतके उद्देशः ९ जीवानां गुर्वाकुला नुपरिवर्तनव्यतित्रजनेतराणि सू ७२ ॥ ९५ ॥ nirary or Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७३] दीप अनुक्रम [९५] से केणडेणं १, गोयमा ! वेउब्वियतेयाई पडुच नो गुरुया नो लहुया गुरुयलहुया नो अगुरुलहुया, जीवं च कम्मणं च पडुच्च नो गुरुया नो लहुया नो गुरुयलहुया अगुरुयलहुया, से तेणद्वेणं जाव वेमाणिया, नवरं णाणत्तं जाणियव्वं सरीरेहिं । धम्मस्थिकाए जाव जीवत्यिकाए चउत्थपएण। पोग्गलत्थिकाए णं भंते! किं गुरुए लहुए गुरुयलहुए अगुरुयलहुए, गोयमा! णो गुरुए नो लहुए गुरुयलहुएवि अगुरुयल हुएवि, से केणद्वेणं ?,15 गोयमा ! गुरुयलहुयदन्वाई पहुच नो गुरुए नो लहुए गुरुयलहुए नो अगुरुयलहुए, अगुरुयलहुयद्व्वाइं पड्डुचद नो गुरुए नो लहए नो गुरुयलहुए अगुरुघलहुए, समया कम्माणि य चउत्थपदेणं । कण्हलेसाणं भंते ! किं गुरुया जाव अगुरुपलहुया ?, गोयमा ! नो गुरुया नो लहुया गुरुयल हुयाचि अगुरुयलहयावि, से केणडेणं, गोयमा ! व्वलेसं पटुच्च ततियपदेणं भावलेसं पड्डुच चउत्थपदेणं, एवं जाव सुकलेसा, दिट्ठीदसणनाणअन्नागसण्णा चउत्थपदेणं णेयवाओ,हेडिल्ला चत्तारि सरीरा नायब्वा ततियपदणं, कम्म य चउत्थयपएणं, मणजोगो वइजोगोचउत्थएणं पदेणं, कायजोगो ततिएणं पदेणं, सागारोवओगो अणागारोवओगोचउत्थपदेणं, सब्वपदेसासवव्वा सव्वपज्जवा जहा पोग्गलत्थिकाओ, तीतद्धा अणागयद्धा सव्वद्धा चउत्थएणं पदेणं ॥ (सू०७३)।। | इह चेयं गुरुलधुव्यवस्था-"निच्छयओ सबगुरु सबलई वा न विजए दर्ष । ववहारओ उ जुजा पायरखंधेसु न: १ निश्चयतः सर्वगुरु सर्बलघु वा द्रव्यं न विद्यते । व्यवहारतस्तु बादरस्कन्धेषु युज्यते गुरुत्वं लघुत्वं च नान्येषु ॥ १॥ . GREASSAGARRIAGRA SREaratima ~205~ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रज्ञप्ति प्रत सूत्रांक गुरुलघुस्वादिः ७३ व्याख्या-1 पणेसु ॥१॥ अगुहलह चउफासो अरूविदवा य होति नायथा । सेसा उ अठुफासा गुरुल हुया निच्छयणयस्स ॥२॥ १ शतके अभयदेवी 'चउफास'त्ति सूक्ष्मपरिणामानि 'अट्ठफास'त्ति बादराणि, गुरुलघुद्रव्यं रूपि, अगुरुलघुद्रव्यं त्वरूपि रूपि चेति, व्यव- उद्देशः९ यावटि हारतस्तु गुवादीनि चत्वार्यपि सन्ति, तत्र च निदर्शनानि-गुरुर्लोप्टोऽधोगमनात्, लघुधूमः ऊ गमनात, गुरुलधु- | युस्तियेग्गमनाव, अगुरुलध्वाकाशं तत्स्वभावत्वादिति । एतानि चावकाशान्तरादिसूत्रःण्येतदाथाऽनुसारेणावगन्तव्यानि,13| तद्यथा-"ओवासवायघणउदहीपुढविदीवा य सागरा यासा । नेरइयाई अस्थि य समया कम्माइ लेसामो ॥ १॥ दिहीद सू७३ दसणणाणे सणि सरीरा य जोग उपओगे। दवपएसा पज्जवतीयाआगामिसबद्ध ॥२॥"त्ति । 'वेउब्धियतेयाई || पडच'त्ति नारकादौ वैक्रियतैजसशरीरे प्रतीत्य गुरुकलघुका एव, यतो वैकियतैजसवर्गणात्मके ते, एताश्च गुरुलघुका एव, यदाह-"ओरालियवेउवियआहारगतेय गुरुलह दई"ति, 'जीवं च कम्मणं च पहुचत्ति जीवापेक्षया कार्मेणशरी रापेक्षया च नारका अगुरुलघुका एव, जीवस्यारूपित्वेनागुरुलघुत्वात् कार्मणशरीरस्य च कार्मणवर्गणात्मकत्वात् कामेणका वर्गणानां चागुरुलघुत्वात् , आह च-“कम्मगमणभासाई एयाई अगुरुलहयाई"ति । 'णाणतं जाणियब्वं सरी-18 १ चतुःस्पर्शानि अरूपिद्रव्याणि च अगुरुलधूनि भवन्ति शेषाणि-रूपिद्रव्याण्पष्टस्पर्शानि गुरुलघूनि निश्चयनयेन ज्ञातव्यानि ॥१॥ दा॥९६॥ |२ अवकाशो बातो पनोदधिः पृथ्व्यो द्वीपाच सागरा वर्षाणि । नैरयिकादयोऽस्तिकायाः समयाः कर्माणि लेश्याः ॥ १॥श्या दर्श-पते। का नानि ज्ञानानि सम्जाः शरीराणि योगा उपयोगा द्रव्याणि प्रदेशाः पर्यवा अतीतानागतसर्थकालाः ॥२॥३-औदारिक्रियाहारकतेजांसि | गुरुलघूनि द्रव्बाणि । ४ कार्मणं मनो भाषादि एतान्यगुरुलघूनि ॥ दीप अनुक्रम [९५] R SASA%A5% DCROSORRC SUREmiratna 1 emrary ~206~ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 15495% E0 % A [७३] रेहिति, यस्य यानि शरीराणि भवन्ति तस्य तानि ज्ञात्वाऽसुरादिसूत्राण्यध्येयानीतिहृदयं, तत्रासुरादिदेवा नारकवद्वाच्याः, M| पृथिव्यादयस्तु औदारिकतैजसे प्रतीत्य गुरुलघवो जीवं कार्मणं च प्रतीत्यागुरुलघवः इति, वायवस्तु औदारिकवैक्रियतैजसानि प्रतीत्य गुरुलघवः, एवं पश्चेन्द्रियतिर्योऽपि, मनुष्यास्त्वौदारिकवैक्रियतेजसाहारकाणि प्रतीत्येति। 'धम्मत्थिकाए'त्ति, इह यावत्करणाद् 'अहम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए'त्ति दृश्यं 'चउत्थपएणं'ति एते 'अगुरुलहु इत्यनेन पदेन वाच्याः, शेषाणां तु निषेधः कार्यो, धर्मास्तिकायादीनामरूपितयाऽगुरुलघुत्वादिति ॥ पुद्गलास्तिकायसूत्रे उत्तरं निश्चयनयाश्रयम् , एकान्तगुरुलघुनोस्तन्मतेनाभावात् 'गरुलहुयदब्वाईति औदारिकादीनि चत्वारि 'अगुरुलहुयवाईति कार्मणादीनि ३॥'समया कम्माणि य चउत्थपएणं'ति समयाः-अमूर्ताः कर्माणि च-कार्मणवर्गणात्मकानीत्यगुरुलघुत्वमेषां । 'दव्वलेसं पडुच तइयपएणं'ति द्रव्यतः कृष्णालेश्या औदारिकादिशरीरवर्णः औदारिकादिकं च गुरुलध्वितिकृत्वाऽनेन तृतीयविकल्पेन व्यपदेश्या, भावलेश्या तु जीवपरिणतिस्तस्याश्चामूर्तत्वादगुरुलचित्यनेन व्यपदेश इत्यत आह-भावलेसं पडच चउत्थपदेणं'ति । 18 'दिट्ठीदसणे'त्यादि, दृष्ट्यादीनि जीवपर्यायत्वेनागुरुलधुत्वादगुरुलघुलक्षणेन चतुर्थपदेन याच्यानि । अज्ञानपदं त्विह ज्ञानविपक्षत्वादधीतम् , अन्यथा द्वारेषु ज्ञानपदमेव दृश्यते । 'हेडिल्लए'त्ति औदारिकादीनि 'तइयपएण'ति गुरुलघुपदेन, गुरुलघुवर्गणात्मकत्वात् । 'कम्मय चउत्थपएण'ति अगुरुलघुद्रव्यात्मकत्वात् कार्मणशरीराणां, मनोयोगवाग्योगी | चतुर्थपदेन बाच्यौ, तद्रव्याणामगुरुलघुत्वात् , काययोगः कार्मणवर्जस्तृतीयेन, गुरुलघुत्वात्तद्रव्याणामिति । 'सचदब्वें | त्यादि, 'सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'सर्वप्रदेशाः तेषामेव निर्विभागा अंशाः 'सर्वपर्यवाः वर्णोपयोगादयो द्रव्य दीप अनुक्रम [९५] CARROTECR5R-RANA RCH स्था.१७ ~207~ Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ऊ उद्देशः१ प्रत सूत्रांक [७३] %8 दीप अनुक्रम [९५] व्याख्या धाः, एते पुद्गलास्तिकायवद् व्यपदेश्याः, गुरुलघुत्वेनागुरुलघुत्वेन चेत्यर्थः, यतः सूक्ष्माण्यमूर्त्तानि च द्रव्याण्यगुरुल-|| १ शतके प्रज्ञप्तिः घूनि, इतराणि तु गुरुलघूनि, प्रदेशपर्यवास्तु तत्तद्रव्यसम्बन्धित्वेन तत्तत्स्वभावा इति ॥ गुरुलघुत्वाधिकारादिदमाहअभयदेवी-टी से नूर्ण भंते ! लापवियं अप्पिच्छा अमुच्छा अगेही अपडिबद्धया समणाणं णिग्गंधाणं पसत्थं , हता। गुरुलघुद्र व्या०सू७३ या वृत्तिः गोयमा ! लापवियं जाव पसत्यं ।। से नूर्ण भंते ! अकोहतं अमाणत्तं अमायत्तं अलोभत्तं समणाणं निग्ग॥१७॥ थाणं पसत्थं ?, हंता गोयमा ! अकोहत्तं अमाणत्तं जाव पसत्यं ।। से नूर्ण भंते ! कंखापदोसे खीणे समणे शस्त सूट & निग्गंधे अंतकरे भवति अंतिमसारीरिए वा बहुमोहेवि य णं पुटिव विहरित्ता अह पच्छा संवुडे कालं करेति । तओ पच्छा सिज्झति ३ जाव अंतं करेइ ?, हंता गोयमा! कंखापदोसे खीणे जाव अंतं करेति ।। (सू०७४ ) | 'लावियंति लाघवमेव लाघविकम्-अल्पोपधिकम् 'अप्पिच्छत्ति अल्पोऽभिलाष आहारादिषु 'अमुच्छत्ति उपधावसंरक्षणानुबन्धः 'अगेहित्ति भोजनादिषु परिभोगकालेऽनासक्ति अप्रतिबद्धता-स्वजनादिषु स्नेहाभाव इत्येतत्पश्चक-12 मिति गम्यं, श्रमणानां निर्ग्रन्धानां 'प्रशस्त' सुन्दरम्, अथवा लायविक प्रशस्त, कथम्भूतमित्याह--'अप्पिच्छा अल्पे-15 च्छारूपमित्यर्थः, एवमितराण्यपि पदानि । उता लापविकस्य प्रशस्तता, तश्च क्रोधाद्यभावाविनाभूतमिति क्रोधादिदोलाषाभावप्रशस्तताऽभिधानार्थ क्रोधादिदोषाभावाविनाभूतकाङ्क्षाप्रदोषक्षयकार्याभिधानार्थ च क्रमेण सूत्रे, व्यक्त च, नवरं || ९७ ॥ काङ्क्षा-दर्शनान्तरग्रहो गृद्धि, सैव प्रकृष्टो दोषः कालाप्रदोषः कासापद्वेषं वा, रागद्वेपावित्यर्थः ॥ कालाप्रदोषः प्रागुक्तः,15 ४ प्रदोषत्वं च कासायास्तद्विषयभूतदर्शनान्तरस्य विपर्यस्तत्वादिति दर्शनान्तरस्य विपर्यस्ततां दर्शयन्नाह 25 4-655 REairamana ~208~ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७४] दीप अनुक्रम [९६] अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति एवं भासेंति एवं पण्णवेंति एवं परूवेंति-एवं स्खलु एगे जीचे | एगेणं समएणं दो आउयाई पकरेति, तंजहा-इहभवियाउयं च परभवियाउयं च, जं समय इहभविया-| उयं पकरेति तं समयं परभवियाउयं पकरेति, जं समयं परभवियाउयं पकरेति तं समर्थ इहभचियाउयं |पकरेति, इहभवियाउयस्स पकरणयाए परभवियाज्यं पकरेइ, परभचियाउयस्स पकरणयाए इहभविया| उयं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेण समएणं दो आउयाई पकरेति, तं०-इहभवियाउयं च परभवियाउयंच, से कहमेवं भंते ! एवं ?, खलु गोयमा ! जपणं ते अण्णउत्थिया एवमातिक्खंति जाव परभवियाउयं च, जे| ते एवमाहंसु मिच्छं ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-एवं खलु एगे जीवे | एगेर्ण समएणं एग आउयं पकरेति, तं०-दहभवियाउयं वा परभवियाज्यं वा, जं समयं इहभवियाउयं |पकरेति णो तं समयं परभवियाउयं पकरेति, जं समयं परभवियाउयं पकरेइ णोतं समयं इहभवियाउयं| पकरेइ, इहभवियाउयस्स पकरणताए णो परभवियाउयं पकरेति, परभवियाउयस्स पकरणताए णो इह-1 भवियाउयं पकरेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एग आउयं पकरेति, तं०-इहभवियाउयं वा परभवियाउयं वा, सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाव विहरति ॥ (सू०७५)॥ _ 'अण्णउत्थिए'इत्यादि, अन्ययूथ-विवक्षितसवादपरः सहस्तदस्ति येषां तेऽन्ययूथिकाः, तीर्थान्तरीया इत्यर्थः, एवम् इति वक्ष्यमाणम् 'आइक्खंति'त्ति आख्यान्ति सामान्यतः 'भासंति'त्ति विशेषतः 'पण्णवेति'त्ति उपपत्तिभिः H aram.org ~209~ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: १शतके प्रत सूत्रांक [७५]] सू७५ दीप अनुक्रम [९७] परूति'ति भेदकथनतः, द्वयोर्जीवयोरेकस्य वा समयभेदेनायुद्धयकरणे नास्ति विरोध इत्युक्तम्-'एगे जीवे इत्यादि, व्याख्याप्रज्ञप्तिः ||| 'दो आउयाई पकरेइ'त्ति जीवो हि स्वपर्यायसमूहात्मकः, स च यदैकमायुःपर्यायं करोति तदाऽन्यमपि करोति, स्वप-II || उहेशः९ अभयदेवी- यत्वात् , ज्ञानसम्यक्त्वपर्यायवत्, स्वपर्यायकर्तृत्वं च जीवस्याभ्युपगन्तब्यमेव, अन्यथा सिद्धत्वादिपर्यायाणामनुत्पाद- इहपरभवाप्रसङ्ग इति भावः, उक्तार्थस्यैव भावनार्थमाह-'जमित्यादि, विभक्तिविपरिणामाद् यस्मिन् समये इहभवो-वर्तमानभवो यु:करण वि प्रतिपात्तिः ॥ ९८॥ यत्रायुषि विद्यते फलतयैतदिहभवायुः, एवं परभवायुरपि, अनेन चेहभवायुःकरणसमये परभवायुःकरणं नियमितम् , अथ परभवायुःकरणसमये इहभवायुःकरणं नियमयन्नाह-जं समयं परभवियाउय'मित्यादि, एवमेकसमयकार्यतां । द्वियोरप्यभिधायैककियाकार्यतामाह-'इहभवियाउयस्से'त्यादि, 'पकरणयाए'त्ति करणेन 'एवं खलु'इत्यादि निगमनं। 'जण्णं ते अण्णउत्थिया एवमाइक्खंती त्याद्यनुवादवाक्यस्यान्ते तत् प्रतीतं न केवलमित्ययं वाक्यशेषो दृश्यः,8 'जे ते एवमासु मिच्छं ते एचमाहंसुत्ति तत्र 'आहंसुत्ति उक्तवन्तः, यच्चार्य वर्तमाननिर्देशेऽधिकृतेऽतीतनिर्देश लास सर्वो वर्तमानः (नका) कालोऽतीतो भवतीत्यस्यार्थस्य जापनार्थः मिथ्यात्वं चास्यैवम्-एकेनाध्यवसायेन विरु-|| योरायुषोर्बन्धायोगात्, यच्चोच्यते-पर्यायान्तरकरणे पर्यायान्तरं करोति, स्वपर्यायत्वादिति, तदनकान्तिक, सिद्धत्वकरणे संसारित्वाकरणादिति । टीकाकारव्याख्यानं विहभवायुयंदा प्रकरोति-वेदयते इत्यर्थः परभवायुस्तदा| || प्रकरोति बनातीत्यर्थः, इहभवायुरुपभोगेन परभवायुर्वधातीत्यर्थः, मिथ्या चैतत्परमतं, यस्माज्जातमात्री जीव इहभवा ॥९८ E Saintairatne ~210~ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७५]] दीप अनुक्रम [९७] युर्वेदयते, तदैव तेन यदि परभवायुर्बद्धं तदा दानाध्ययनादीनां वैयर्थं स्यादिति, एतच्चायुर्वन्धकालादन्यत्रावसेयम् , अन्यथाऽऽयुर्वन्धकाले इहभवायुर्वेदयते परभवायुस्तु प्रकरोत्येवेति ॥ अन्ययूधिकप्रस्तावादिदमाह तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे कालासवेसियपुत्ते णामं अणगारे जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव *उवागच्छति २ ता धेरे भगवते एवं वयासी-थेरा सामाइयं ण जाणंति थेरा सामाइयस्स अढ ण याणंति साधेरा पचक्खाणं ण याणंति धेरा पञ्चक्खाणस्स अट्ट ण याणंति धेरा संजमं ण याणंति थेरा संजमस्स अढ णटू याणंति थेरा संवरं ण याणंति धेरा संवरस्स अटुं ण याणंति थेरा विवेगण याणंति थेरा विवेगस्स अटुं ण याणंति धेरा विउस्सग्गं ण याणंति थेरा विउस्सग्गस्स अट्ठ ण याति ६ । तए णं ते घेरा भगवंतो कालासवेसियपुसं अणगारं एवं वयासी-जाणामो ण अजो! सामाइयं जाणामो णं अजो! सामाइयरस अटुं जावई जाणामो णं अजो। विउस्सगस्स अटुं । तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे धेरे भगवंते एवं बयासीजति णं अजो! तुम्भे जाणह सामाइयं जाणह: सामाइयस्स अट्ठ जाव जाणह विउस्सग्गस्स अट्ट किं भे अजो ! सामाइए किं भे अजो सामाइयस्स अडे? जाव किंभे विउस्सगस्स अट्टे ?, तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी-आया णे अजो! सामाइए आया णे अजो। सामाइयस्स अट्टेट |जाव विउस्सग्गस्स अट्ठे । तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे धेरे भगवंते एवं वयासी-'जति भे अजोर |आया सामाइए आया सामाइयस्स अट्ठे एवं जाव आया बिउस्सग्गरस अडे अवहह कोहमाणमायालोभे| CANCCC SANSASAKARANG का कालासशिक-अनगारस्य प्रश्ना: एवं स्थवीरस्य उत्तराणि ~211 Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [९८ व्याख्या-1 किमट्ट अज्जो गरहह , कालास० संजमट्टयाए, से भंते! किंगरहा संजमे अगरहा संजमे ?, कालास गरहा || १शतके प्रज्ञप्तिः संजमे नो अगरहासंजमे, गरहावि य णं सब्वं दोसं पविणेति सव्वं बालियं परिणाए, एवं खुणे आया संजमे || उद्देशः९ अभयदेवी- उवहिए भवति, एवं खुणे आया संजमे उवचिए भवति, पवं खुणे आया संजमे उवहिए भवति, एस्थणं से सामायिकया वृत्तिः । देकलास कालासवेसियपुत्ते अणगारे संबुद्धे थेरे भगवंते वंदति णमंसति २ एवं वयासी-एएसिणं भंते ! पयाणं MITRA ॥ ९९॥ पुब्बि अण्णाणयाए असवणयाए अबोहियाए अणभिगमेणं अदिहाणं अस्सुयाणं असुयाणं अविषणायाणं || सू७६ अव्योगडाणं अव्वोच्छिन्नाणं अणिज्जूढाणं अणुवधारियाणं एयममु णो सद्दहिए जो पत्तिइए णो रोइए इयाणि भंते ! एतेसि पयाणं जाणणयाए सवणयाए वोहीए अभिगमेणं दिहाणं सुयाण मुयाणं विण्णायाणं वोग-1 डाणं वोच्छिन्नाणं णिजूढाणं उवधारियाणं एयमद्वं सद्दहामि पत्तियामि रोएमि एवमेयं से जहेयं तुम्भे बदह, तए णं ते थेरा भगवंतो कालासवेसियपुत्तं अणगारं एवं वयासी-सदहाहि अजो ! पत्तियाहि अजो ! रोएहि । अजोसे जहेयं अम्हे वदामो।तएणं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे धेरे भगवंतो वंदह नमसह २एवं वदासीइच्छामि गं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउजामाओ धम्माओ पंचमहब्वइयं सपडिकमणं धम्म उवसंपज्जित्ता गं || विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पियामा पडिबंधं । तए णं से कालासवेसियपुत्ते अणगारे धेरे भगवते वंदइ नमसह । | वंदित्ता नमंसित्ता चाउजामाओधम्माओ पंचमहब्वइयं सपडिक्कमणं धम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरइ। तएणं से | कालासवेसियपुत्ते अणगारे बहूणि यासाणि सामण्णपरियागं पाउणइ जस्सहाए कीरइ नग्गभावे मुंडभावे | RAS कालासवैशिक-अनगारस्य प्रश्ना: एवं स्थवीरस्य उत्तराणि ~212~ Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [ ७६ ] दीप अनुक्रम [८] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९], मूलं [ ७६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Educati अण्हाणयं अतधुवणयं अच्छन्तयं अणोवाहणयं भूमिसेजा फलहसेजा कहसेज्जा केसलोओ बंभचेरवासो | परधरपवेसो लद्धावली उच्चावया गामकंटगा बाबीसं परिसहोवसग्गा अहियासिजति तम आराहेद २ चरिमेहिं उस्सासनीसासेहिं सिद्धे बुद्धे मुक्के परिनिब्बुडे सब्वदुक्खप्पहीणे ॥ ( सू० ७६ ) ॥ 'पासाव चिजे 'ति पार्श्वपत्यानां पार्श्वजिनशिष्याणामयं पार्श्वापत्यीयः 'थेरे 'ति श्रीमन्महावीरजिनशिष्याः श्रुतवृद्धाः 'सामाइयं' ति समभावरूपं 'न याणंति'त्ति न जानन्ति, सूक्ष्मत्वात्तस्य, 'सामाइयस्स अहं'ति प्रयोजनं कर्मानुपादाननिर्जरणरूपं, 'पञ्चक्खाणं' ति पौरुष्यादिनियमं तदर्थं च आश्रवद्वारनिरोधं, 'संजमं' ति पृथिव्यादिसंरक्षणलक्षणं, तदर्थ च-अनाश्रवत्वं, 'संवरं 'ति इन्द्रियनोइन्द्रियनिवर्त्तनं, तदर्थं तु-अनाश्रवत्वमेव 'विवेगं 'ति विशिष्टबोधं, तदर्थे च - त्याग्यत्यागादिकं, 'विउस्सग्गं' ति व्युत्सगै कायादीनां तदर्थं चानभिष्वङ्गताम् 'अज्जो !"त्ति हे आर्य !, ओकारान्तता सम्बोधने प्राकृतत्वात्, 'किं भे'त्ति किं भवतामित्यर्थः, 'आया णे'त्ति आत्मा नः अस्माकं मते सामायिकमिति, यदाह - "जीवो गुणपडिवष्णो नयस्स दवडियस्स सामइयं "ति, सामायिकार्थोऽपि जीव एव, कर्मानुपादानादीनां जीवगुणत्वात् जीवाव्यतिरिक्तत्वाच्च तद्गुणानामिति । एवं प्रत्याख्यानाद्यप्यवगन्तव्यम् । 'जइ ने अज्जो' त्ति यदि भवतां हे आर्याः ! स्थविराः सामायिकमा त्मा तदा 'अवहद्दु'त्ति अपहृत्य त्यक्त्वा क्रोधादीन् किमर्थं गर्हध्ये ? 'निंदामि गरिहामि अप्पाणं बोसिरामि' इति वचनात् क्रोधादीनेव अथवा 'अवज्ज'मिति गम्यते, अयमभिप्रायः यः सामायिकवान् त्यक्तक्रोधादिश्च स कथं किमपि निन्दति ?, निन्दा हि १ गुणप्रतिपन्नो जीवो द्रव्यार्थिकस्य नयस्य मतेन सामायिकम् ॥ कालास वैशिक- अनगारस्य प्रश्नाः एवं स्थवीरस्य उत्तराणि For Penal Use Only ~213~ yor Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [82] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९], मूलं [ ७६ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥१००॥ किल द्वेषसम्भवेति, अत्रोत्तरं - संयमार्थमिति, अवद्ये गर्हिते संयमो भवति, अवद्यानुमतेर्व्यवच्छेदनात्, तथा गर्हा संयमः तद्धेतुत्वात्, न केवलमसौ गर्हा कर्मानुपादान हेतुत्वात्संयमो भवति, 'गरहावित्ति गर्दैव च सर्वे 'दोसं 'ति दोषं-रागादिकं पूर्वकृतं पापं वा द्वेपं वा 'प्रविनयति' क्षपयति, किं कृत्वा ? इत्याह-'सव्वं बालियं' ति बाल्यं - चालतां मिथ्याखमविरतिं च 'परिण्णाए 'त्ति 'परिज्ञाय' ज्ञपरिज्ञया ज्ञात्वा प्रत्याख्यान परिज्ञया च प्रत्याख्यायेति, इह च मया स्तद्वतश्चाभेदादे ककर्तृकत्वेन * परिज्ञायेत्यत्र क्त्वाप्रत्ययविधिरदुष्ट इति, 'एवं खुति एवमेव 'णे' इत्यस्माकम् 'आया संजमे उबहिए'ति उपहितः प्रक्षिप्तो न्यस्तो भवति, अथवाऽऽत्मरूपः संयमः 'उपहितः' प्राप्तो भवति, 'आया संजमे उवचिपत्ति आत्मा संयमविषये पुष्टो भवति आत्मरूपो वा संयम उपचितो भवति, 'उबट्ठिए'त्ति 'उपस्थितः' अत्यन्तावस्थायी ॥ 'एएसि णं भंते! पयाणं' इत्यस्य 'अदिट्ठाण' मित्यादिना सम्बन्धः, कथमदृष्टानामित्याह - 'अन्नाणयाए'ति अज्ञानो - निर्ज्ञानस्तस्य भावोऽज्ञानता तयाऽज्ञानतया, स्वरूपेणानुपलम्भादित्यर्थः, एतदेव कथमित्याह- 'असवणयाए 'त्ति अश्रवणःश्रुतिवर्जितस्तद्भावस्तत्ता तथा 'अबोहीए'त्ति अबोधिः- जिनधर्मानवाप्तिः, इह तु प्रक्रमान्महावीरजिनधर्मानवा प्तिस्तया, अथवौत्पत्तिक्यादिबुद्ध्यभावेन, 'अणभिगमेणं'ति विस्तरबोधाभावेन हेतुना 'अदृष्टानां' साक्षात्स्वयमनुपलब्धानाम् 'अश्रुतानाम्' अन्यतोऽना कर्णितानाम् 'अस्सुयाणं'ति 'अस्मृतानां दर्शनाकर्णनाभावेनान नुध्यातानाम्, अत एव 'अवि| ज्ञातानां विशिष्टबोधाविषयीकृतानाम्, एतदेव कुत इत्याह- 'अब्बोकडानं'ति अव्याकृतानां विशेषतो गुरुभिरनाख्यातानाम्, 'अव्वोच्छिष्णाणं'ति विपक्षादव्यवच्छेदितानाम्, 'अनिजूढाणं'ति महतो ग्रन्थात्सुखावबोधाय सङ्क्षेप कालास वैशिक- अनगारस्य प्रश्नाः एवं स्थवीरस्य उत्तराणि For Pernal Prata Use Only "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ~ 214~ ३१ शतके उद्देशः ९ कालासवैशिकप्रश्नाः सामायिका दे सू ७६ ॥१००॥ org Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७६] दीप अनुक्रम [९८ ॐॐॐॐॐॐ निमित्तमनुग्रहपरगुरुभिरनुदुतानाम् , अत एवास्माभिः 'अनुपधारिवानाम् अनवधारितानाम् 'एयमढे 'त्ति एवंप्रकारोऽर्थः अथवाऽयमर्थः 'नो सहहिए'त्ति न अद्धितः 'नो पत्तिए'त्ति 'नो' नैव 'पत्तिय'ति प्रीतिरुच्यते तद्योगात् पत्तिए'त्ति प्रीतः-प्रीतिविषयीकृतः, अथवा न प्रीतितः न प्रत्ययितो वा हेतुभिः, नो रोइए'त्ति न चिकीर्षितः 'एवमेयं 8 से जहेयं तुम्भे वयह'त्ति अथ यथैतद्वस्तु यूर्य वदथ एवमेतद्वस्त्विति भावः । 'चाउज्जामाउत्ति चतुर्महाव्रतात् , पार्श्वनाथजिनस्य हि चत्वारि महानतानि, नापरिगृहीता स्त्री भुज्यते इति मैथुनस्य परिग्रहेऽन्तर्भावादिति, 'सप्पडिकमण जाति पार्श्वनाथधर्मो हि अप्रतिक्रमणः, कारण एवं प्रतिक्रमणकरणादन्यथा त्वकरणात्, महावीरजिनस्य तु सप्रतिकमणः, कारणं विनाऽप्यवश्यं प्रतिक्रमणकरणादिति, 'देवाणुप्पिय'त्ति प्रियामन्त्रणं 'मा पडिबंधीति मा व्याघातं कुरुवेति गम्यम् । 'मुंडभावे'त्ति मुण्डभावो-दीक्षितत्वं 'फलगसेजत्ति प्रतलायतविष्कम्भवतकाष्ठ रूपा कइसेज'त्ति असंस्कृतकारशयनं कष्टशय्या वाऽमनोज्ञा वसतिः 'लहावलजी'सि लब्धं च-लाभोऽपलब्धिश्च-अलाभोऽपरिपूर्णलाभो वा || लब्धापलब्धिः 'उचाचय'त्ति उच्चावचाः अनुकूलप्रतिकूला असमञ्जसा वा 'गामकंटय'त्ति ग्रामस्थ-इन्द्रियसमूहस्य कण्टका इव कण्टका-पाधकाः शत्रवो ग्रामकण्टकाः, क एते इत्याह-बावीस परीसहोवसग्ग'त्ति परीपहा:-क्षुदादयस्त I एवोपसर्गा-उपसर्जनात् धर्मभ्रंशनात् परीपहोपसर्गाः, अथवा द्वाविंशतिपरीपहार, तथा उपसर्गा-दिव्यादयः॥ कालस्य-18 ट्र वैशिकपुत्रः प्रत्याख्यानक्रियया सिद्ध इति तद्विपर्ययभूतापत्याख्यानक्रियानिरूपणसूत्रम् भंतेत्ति भगवं गोयमे समर्ण भगवं महावीरं वंदति नर्मसति २ एवं वदासी-से नूर्ण भंते । सेहियस्स या REaand Vel mmrary.org कालासवैशिक-अनगारस्य प्रश्ना: एवं स्थवीरस्य उत्तराणि ~215~ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रज्ञप्तिः प्रत सूत्रांक [७७]] दीप अनुक्रम तणुयस्स य किवणस्स य खत्तियस्स य समं चेव अपञ्चक्खाणकिरिया कज्जइ ?, हंता गोयमा! सेवियस्स य १ शतके व्याख्या जाव अपञ्चक्खाणकिरिया कज्जइ, से केणडेणं भंते!?,गोयमा ! अविरतिं पडुच्च से तेण गोयमा! एवं वुच्च- | उद्देशः ९ अभयदेवी- इ-सेट्टियस्स य तणु० जाव कज्जइ ॥ (सू०७७)। अप्रत्याख्या नक्रियासाया वृत्तिः|| तत्र भंतेत्ति हे भदन्त ! 'इति' एवमामन्येति शेपः, अथवा भदन्त ! इतिकृत्वा, गुरुरितिकृत्वेत्यर्थः, 'से | म्यमीश्वरे सद्रियस्स'त्ति श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितशिरोवेष्टनोपेतपौरजननायकस्य 'तणुयस्स'त्ति दरिद्रस्य 'किवणस्स'त्ति | ॥१० ॥ तरयो रकस्य 'खत्तियस्स'त्ति राज्ञः 'अपचक्याणकिरिय'त्ति प्रत्याख्यानक्रियाया अभावोऽप्रत्याख्यानजन्यो वा कर्म- सू ७७ बन्धः, 'अविरईति इच्छाया अनिवृत्तिः, सा हि सर्वेषां समैवेति ॥ अप्रत्याख्यानक्रियायाः प्रस्तावादिदमाह- . आहाकम्मं झुंजमाणे समणे निग्गंधे किं बंधइ किं पकरेइ किं चिणाइ किं उवचिणाइ, गोयमा ! आहा- Il. आधाकमेंकम्मं णं भुंजमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ सिढिलबंधणघद्धाओ धणियपंधणबद्धाओ पकरेइ जाव तरभोगफअणुपरियट्टइ, से केणटेणं जाव अणुपरियट्टइ, गोयमा ! आहाकम्मं णं मुंजमाणे आयाए धम्म अइकमह लं सू७८ आयाए धम्म अइक्कममाणे पुढविक्कायं णावकंखइ जाव तसकार्य णावखह, जेसिपि य णं जीवाणं सरीराई आहारमाहारेइ सेवि जीचे नावकखइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुच्चइ-आहाकम्मं गं भुंजमाणे आउयवजाओ ॥१०११॥ सत्त कम्मपगडीओ जाव अणुपरियट्टइ।।फासुएसणिज भंते ! भुजमाणे किं बंधइ जाव उवचिणाइ?, गोयमा! सफासुएसणिज्जंण मुंजमाणे आउयवजाओ सत्त कम्मपयडीओ धणियबंधणवद्धाओ सिदिलबंधणबद्धाओ पक-13 [९९] Naraya आधाकर्म-भोग्यामाने दोषा: ~216~ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७८] सारे जहा संवुटे णं, नवरं आज्यं च णं कर्म सिय बंधइ सिय नो पंधह, सेसं तहेव जाव चीईवयह, से| 3 & केणटेणं जाव चीईवयह, गोयमा! फासुएसणिज्जं मुंजमाणे समणे निग्गथे आयाए धम्म नो अइकमइ, आयाए धम्मं अणइफममाणे पुढविकाइयं अवकखति जाव तसकार्य अवकंखह, जेसिपि य णं जीवाणं सरी-|| राई आहारेइ तेऽवि जीवे अवकंस्खति से तेणटेणं जाव वीईवयह ॥ (सू०७८)॥ 'आहाकम्म मित्यादि आधया-साधुप्रणिधानेन यत्सचेतनमचेतनं क्रियते अचेतनं वा पच्यते चीयते वा गृहादिक व्यूयते वा वस्त्रादिकं तदाधाकर्म 'किं बंधईत्ति प्रकृतिबन्धमाश्रित्य स्पृष्टावस्थापेक्षया वा 'किं पकरेइत्ति स्थिति| बन्धापेक्षया बद्धावस्थापेक्षया वा 'किं चिणाई'त्ति अनुभागवन्धापेक्षया निधत्तावस्थाऽपेक्षया वा 'किं उवचिणाइ'त्ति ||8 प्रदेशबन्धापेक्षया निकाचनापेक्षया वेति, 'आयाए'त्ति आत्मना धर्म श्रुतधर्म चारित्रधर्म वा 'पुढविकायं 'नावक खईत्ति नापेक्षते, नानुकम्पत इत्यर्थः ॥ आधाकर्मविपक्षश्च प्रासुकैषणीयमिति प्रासुकैषणीयसूत्रम् ॥ अनन्तरसूत्रे संसार18व्यतिब्रजनमुक्तं, तच्च कर्मणोऽस्थिरतया प्रलोटने सति भवतीत्यस्थिरसूत्रम् | से नूर्ण भंते ! अधिरे पलोदृइ नो घिरे पलोद्दति अधिरे भजनो घिरे भज्जइ सासए बालए बालियत्तं | असासयं सासए पंडिए पंडियत्तं असासयं , हंता गोयमा! अथिरे पलोहइ जाव पंडियत्तं असासयं | सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाब विहरति ॥ (सू०७९)॥ नवमो उद्देसो समत्तो॥१-९॥ | तत्र 'अथिरे'त्ति अस्थास्नु द्रव्यं लोष्टादि 'प्रलोटति' परिवर्तते अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तस्य जीवप्रदेशेभ्यः | CASEACROS दीप अनुक्रम [१०० REsamlila Alumitaram.org आधाकर्म-भोग्यामाने दोषा: ~217~ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [७९] व्याख्या- प्रतिसमयचलनेनास्थिरत्वात् 'प्रलोटयति' बन्धोदयनिर्जरणादिपरिणामैः परिवर्त्तते 'स्थिर' शिलादिन प्रलोटयति, अध्या- १ शतके प्रज्ञप्तिः । अभयदेवी-15 C. त्मचिन्तायां तु स्थिरो जीवः, कर्मक्षयेऽपि तस्यावस्थितत्वात् , नासौ 'प्रलोटयति उपयोगलक्षणस्वभावान्न परिवर्तते, उद्दशः९ 2प्रलोनबशा या वृत्तिःलाव तथा 'अस्थिरं' भगुरस्वभावं तृणादि 'भज्यते' विदलयति, अध्यात्मचिन्तायामस्थिरं कर्म तद् "भज्यते' व्यपैति, तथालाना 'स्थिरम्' अभङ्गुरमयःशलाकादि न भज्यते, अध्यात्मचिन्तायां स्थिरो जीवः स च न भज्यते शाश्वतत्वादिति । जीव-15 श्वतेतराणि ॥१०२॥ प्रस्तावादिदमाह'सासर बालए'त्ति बालको व्यवहारतः शिशुनिश्चयतोऽसंयतो जीवः स च शाश्वतो द्रव्यत्वात् , 'बालियतंति इहेकप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वाद्वालत्वं व्यवहारतः शिशुत्वं निश्चयतस्त्वसंयतत्वं तचाशाश्वतं पयोयत्वादिति ।। एवं पण्डितसूत्रमपि, नवरं पण्डितो व्यवहारेण शास्त्रज्ञो जीवः निश्चयतस्तु संयत इति ॥ प्रथमशते नवमः ॥१-९॥ सू७९ दीप अनुक्रम [१०१] १०+ 14 अनन्तरोदेशकेऽस्थिरं कर्मेत्युक्तं, कर्मादिषु च कुतीर्थिका विप्रतिपद्यन्ते अतस्तद्विप्रतिपत्तिनिरासप्रतिपादनार्थः तथ सचहण्या'चलणाउ'त्ति यदुक्तं तत्प्रतिपादनार्थश्च दशमोद्देशको व्याख्यायते, तत्र च सूत्र| अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेंति-एवं खलु चलमाणे अचलिए जाव | ॥१०२॥ || निजरिजमाणे अणिज्जिपणे, दो परमाणुपोग्गला एगयओ न साहणंति, कम्हा दो परमाणुपोग्गला | एगततो न साहणंति, दोण्हं परमाणुपोग्गलाणं नथि सिणेहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला जाएगयओ न साहणंति, तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति, कम्हा? तिन्नि परमाणुपागला E SCCCCCC SantauratoniaN अत्र प्रथम-शतके नवम-उद्देशकः समाप्त: अथ प्रथम-शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते ~218~ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [८०] दीप अनुक्रम [१०२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्या० 1८ Jain Educatin एगयओ साहणंति, तिन्हं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ सा०, ते भिमाणा दुहावि तिहावि कांति, दुहाकजमाणा एगयओ दिवडे परमाणुपोग्गले | भवति एगयओवि दिवढे पर० पो० भवति, तिहा कञ्चमाणा तिष्णि परमाणुपोग्गला भवंति एवं जाव चत्तारि पंचपरमाणुपो० एगयओ साहणंति, एगयओ साहणित्ता दुक्खत्ताए कांति, दुक्खेवि य णं. से सासए सया समियं उवचिव य अवचिज य पुवि भासा भासा भासिनमाणी भासा अभासा भासासमयवीतितं च णं भासिया भासा, जा सा पुवि भासा भासा भासिज्जमाणी भासा अभासा भासासमयवीतितं च णं भासिया भासा सा किं भासओ भासा अभासओ भासा ?, अभासओ गं सा भासा नो खलु सा भासभ भासा । पुवि किरिया दुक्खा कज्जमाणी किरिया अक्खा किरिया समयवीतितं च णं कडा किरिया दुक्खा, जा सा पुवि किरिया दुक्खा कजमाणी किरिया अदुक्खा किरियासमयवीइतं च णं कडा किरिया दुक्खा सा किं करणओ दुक्खा अकरणओ दुक्खा ?, अकरणओ णं सा | दुक्खा णो खलु सा करणओ दुक्खा, सेवं वतव्यं सिया-अकिचं दुक्खं अफुसं दुक्खं अफज्ज़माणकडं दुक्खं अकट्टु अकट्टु पाणभूयजीवसत्ता वेदणं वेदतीति वक्तव्यं सिया । से कहमेयं भंते । एवं?, गोयमा ! जपणं ते अण्णउत्थिया एवमातिक्वंति जाब वेदणं वेदेति वक्तव्वं सिया, जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमातिक्खामि, एवं खलु चलमाणे चलिए जाव निज्जरिज्जमाणे निज्जिपणे, For Parts Only ~ 219~ Vinary Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८०]] भासू८० व्याख्या- दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहर्णति, कम्हा? दो परमाणुपोग्गला एगयओ साहपणंति , दोपहं परमा- १ शतके प्रज्ञप्तिः गुपोग्गलाणं अस्थि सिहकाए, तम्हा दो परमाणुपोग्गला एगयओ सा०,ते भिजमाणा दुहा कजंति, दुहा उद्देशः १० अभयदेवी कमाणे एगयओ पर० पोग्गले एगयओ प. पोग्गले भवंति, तिपिण परमा० एगओ साह, कम्हा? तिनि अन्यतीर्थिया वृत्तिःशा परमाणुपोग्गले एग सा०१, तिण्हं परमाणुपोग्गलाणं अस्थि सिणेहकाए, तम्हा तिषिण परमाणपोग्गलाकवतव्यता ॥१०॥ एगयओ साहणंति, ते भिजमाणा दुहावि तिहावि कजंति, दुहा कज्जमाणा एगओ परमाणुपोग्गले एगयओ क्रियासु दुपदेसिए खंधे भवति, तिहा कन्जमाणा तिपिण परमाणुपोग्गला भवंति, एवं जाव चत्तारिपंचपरमाणुपो एगओ साहणिसा २ खंधत्ताए कजंति, खंधेवि य णं से असासए सया समियं उवचिजह य अवचिजह य। पुचि भासा अभासा भासिज्जमाणी भासा २भासासमयवीतिकंतं च णं भासिया भासा अभासा जा सा पुवि भासा अभासा भासिज्जमाणी भासा२ भासासमयबीतिकंतं च णं भासिया भासा अभासा सार्कि |भासओ भासा अभासओ भासा, भासओणं भासा नो खलु सा अभासओ भासा । पुदि किरिया | अदुक्खा जहा भासा तहा भाणियब्वा, किरियावि जाव करणओ णं सा दुक्खा नो खलु सा अकरणओ | दुक्खा, सेवं वत्तव्वं सिया-किचं फुसं दुक्खं कज्जमाणकडं क१२ पाणभूयजीवसत्ता वेदणं वेतीति वत्तव्वं सिया ॥ (सू०८०)॥ 'चलमाणे अचलिए'त्ति चलत्कर्माचलितं, चलता तेन चलितकार्याकरणात् , वर्तमानस्य चातीततया व्यपदेष्टुमश RECO594544 दीप अनुक्रम [१०२] K१०३॥ For P OW ~220~ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८०]] - - - क्यत्वात् , एवमन्यत्रापि वाच्यमिति ॥ 'एगयओ न साहणंति'त्ति एकत एकत्वेनैकस्कन्धतयेत्यर्थः 'न संहन्येते' न संहती-मिलितौ स्याता, 'नधि सिणेहकाए'त्ति स्नेहपर्यवराशि स्ति, सूक्ष्मत्वात् , व्यादि योगे तु स्थूलत्वात्सोऽस्ति । 'दुक्खत्ताए कज्जति'त्ति पश्च पुद्गलाः संहत्य दुःखतया-कर्मतया क्रियन्ते, भवन्तीत्यर्थः, 'दुक्खेऽपि य णति कर्मापि |च 'से'त्ति तत् शाश्वतमनादित्वात् 'सय'त्ति सर्वदा 'समिय'ति सम्यक् सपरिमाणं वा 'चीयते' चयं याति 'अपची| यते' अपचयं याति । तथा 'पुवंति भाषणात्माक् 'भास'त्ति वाग्द्रव्यसंहतिः 'भास'त्ति सत्यादिभाषा स्यात्, तत्कारणत्वात् , विभङ्गज्ञानित्वेन वा तेषां मतमात्रमेतत् निरुपपत्तिकमुन्मत्तकवचनवदतो नेहोपपत्तिरत्यर्थ गवेषणीया, एवं सर्वत्रापीति, तथा 'भासिज्जमाणी भासा अभास'त्ति निसृज्यमानवारद्रव्याणि अभाषा, वर्तमानसमयस्यातिसूक्ष्मत्वेन व्यवहारानङ्गत्वादिति, 'भासासमयविइकंतं च णति इह तप्रत्ययस्य भावार्थत्वाद् विभक्तिविपरिणामाच भाषासमयन्यतिक्रमे च 'भासिय'त्ति निसृष्टा सती भाषा भवति, प्रतिपाद्यस्याभिधेये प्रत्ययोत्पादकत्वादिति, "अभास ओ गं भासति अभाषमाणस्य भाषा, भाषणात्पूर्व पश्चाच्च तदभ्युपगमात् , 'नो खलु भासओ'त्ति भाष्यमाणाया& स्तस्या अनभ्युपगमादिति ॥ तथा-पुवं किरिए'त्यादि, क्रिया कायिका सा यावन्न क्रियते तावत् 'दुक्ख'त्ति दुःख-8 हेतुः, 'कजमाण'त्ति क्रियमाणा क्रिया 'न दुक्खा' न दुक्खहेतुः, क्रियासमयव्यतिकान्ते च क्रियायाः क्रियमाणताव्यतिक्रमे च कृता सती क्रिया दुःखेति, इदमपि तन्मतमात्रमेव निरुपपत्तिकम्, अथवा पूर्व क्रिया दुःखा, अनभ्यासात् , क्रियमाणा क्रिया न दुःखा, अभ्यासात्, कृता क्रिया दुःखा, अनुतापश्नमादेः, 'करणो दुक्ख'त्ति करणमाश्रित्य करण - दीप अनुक्रम [१०२] SAREDuratinLUE ~221~ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [८०] दीप अनुक्रम [१०२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१०], मूलं [ ८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या | काले कुर्वत इत्यर्थः 'अकरणओ दुक्ख'त्ति अकरणमाश्रित्याकुर्वत इतियावत्, 'नो खलु सा करणओ दुक्खति' अक्रियमाणत्वे दुःखतया तस्या अभ्युपगमात् 'सेवं वक्तव्वं सिया' अथैवं पूर्वोक्तं वस्तु वक्तव्यं स्यादुपपन्नत्वादअभयदेवी| स्येति । अथान्ययूथिकान्तरमतमाह- 'अकृत्यम्' अनागतकालापेक्षयाऽनिर्वर्तनीयं जीवैरिति गम्यं 'दुःखम्' असातं या वृत्तिः १ ४ तत्कारणं वा कर्म, तथाऽकृतत्वादेवास्पृश्यम् - अबन्धनीयं, तथा क्रियमाणं वर्त्तमानकाले कृतं चातीतकाले तनिषेधा प्रज्ञप्तिः ॥१०४॥ दक्रियमाणकृतं कालत्रयेऽपि कर्मणो बन्धनिषेधाद् अकृत्वाऽकृत्वा, आभीक्ष्ण्ये द्विर्वचनं दुःखमिति प्रकृतमेव, के ? इत्याह-प्राणभूत जीवसश्वाः, प्राणादिलक्षणं चेदम्- "प्राणा द्वित्रिचतुः प्रोक्ताः, भूतास्तु तरवः स्मृताः । जीवाः पश्चेन्द्रिया ज्ञेयाः, शेषाः सच्त्वा इतीरिताः ॥ १ ॥" 'वेयणं'ति शुभाशुभकर्म्मवेदनां पीडां वा 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, इत्येतद्वक्तव्यं स्यात्, एतस्यैवोपपद्यमानत्वाद्, याच्छिकं हि सर्व लोके सुखदुःखमिति, यदाह - “अतर्कितोपस्थितमेव सर्व चित्रं जनानां सुखदुःखजातम् । काकस्य तालेन यथाऽभिघातो, न बुद्धिपूर्वोऽत्र वृथाऽभिमानः ॥ १ ॥” से कहमेयंति अथ कथमेतद् भदन्त ! 'एवम् ?' अन्ययूथिकोक्तन्यायेन ? इति प्रश्नः 'जं णं ते अण्णउत्थिया' इत्याद्युत्तरं, व्याख्या चास्य प्राग्वत्, मिथ्या चैतदेवं यदि चलदेव प्रथमसमये चलितं न भवेत्तदा द्वितीयादिष्वपि तदचलितमेवेति न कदाचनापि चलेत्, अत एव वर्त्तमानस्यापि विवक्षयाऽतीतत्वं न विरुद्धम्, एतच प्रागेव निर्णीतमिति न पुनरुच्यते, यच्चोच्यते-चलित कार्याकरणादचलितमेवेति, तदयुक्तं यतः प्रतिक्षणमुत्पद्यमानेषु स्थासकोशादि वस्तुध्वन्त्यक्षणभावि वस्तु आद्यक्षणे स्वकार्य न करोत्येव, असत्त्वाद्, अतो यदन्त्यसमयचलितं कार्यं विवक्षितं परेण तदाद्यसमयचलितं यदि Eucation Internationa For Parts Only ~ 222~ ११ शतके उद्देशः १० अन्यतीर्थि कवकव्यता स्नेहभाषा क्रियासु सु ८० ॥ १०४॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [८०] दीप अनुक्रम [१०२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Ja Eucatur न करोति तदा क इव दोषोऽत्र १, कारणानां स्वस्वकार्यकरणस्वभावत्वादिति । यच्चोतं-द्वौ परमाणू न संहभ्येते, सूक्ष्मतया स्नेहाभावात् तदयुक्तम् एकस्यापि परमाणोः स्नेहसम्भवात् सार्द्धपुद्गलस्य संहतत्वेन तैरेवाभ्युपगमाच्च, यत | उक्तम्- “तिष्णि परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति ते भिमाणा दुहावितिहावि कज्जति, दुहा कज्जमाणा एगओ दिव"त्ति, अनेन हि सार्द्धपुङ्गलस्य संहतत्वाभ्युपगमेन तस्य स्नेहोऽभ्युपगत एवेत्यतः कथं परमाण्वोः | स्नेहाभावेन सङ्घाताभाव इति यच्चोक्तम् एकतः सार्द्ध एकतः सार्द्ध इति एतदप्यचारु, परमाणोरद्धीकरणे परमाणुस्वाभावप्रसङ्गात् तथा यदुक्तं पश्च पुद्गलाः संहताः कर्मतया भवन्ति, तदप्यसङ्गतं कर्मणोऽनन्तपरमाणुतयाऽनन्तस्क|न्धरूपत्वात् पश्चाणुकस्य च स्कन्धमात्रत्वात् तथा कर्म जीवावरणस्वभावमिष्यते तच कथं पञ्चपरमाणुस्कन्धमात्ररूपं सदसङ्ख्यातप्रदेशात्मकं जीवमावृणुयादिति । तथा यदुक्तं कर्म च शाश्वतं तदपि असमीचीनं, कर्म्मणः शाश्वतत्वे | क्षयोपशमाद्यभावेन ज्ञानादीनां हानेरुत्कर्षस्य चाभावप्रसङ्गात् दृश्यते च ज्ञानादिहानिवृद्धी, तथा यदुक्तं कर्म सदा चीयतेऽपचीयते चेति, तदप्येकान्तशाश्वतत्वे नोपपद्यत इति । यच्चोक्तं-भाषणात्पूर्वं भाषा, तद्धेतुत्वात्, तदयुक्तमेव, औपचारिकत्वात् उपचारस्य च तस्त्वतोऽवस्तुखात् किं च-उपचारस्तात्त्विके वस्तुनि सति भवतीति तात्विकी भाषाऽस्तीति सिद्धम्, यच्चोक्तं-भाष्यमाणाऽभाषा, वर्त्तमानसमयस्याच्यावहारिकत्वात्, तदप्यसम्यग् वर्त्तमानसमयस्यैवास्तित्वेन व्यवहाराङ्गत्वाद् अतीतानागतयोश्च विनष्टानुत्पन्नतयाऽसत्वेन व्यवहारानङ्गत्वादिति यच्चोक्तं-भाषासमयेत्यादि, तदप्यसाधु, भाग्यमाणभाषाया अभावे भाषासमय इत्यस्याभिलापस्याभावप्रसङ्गात् यश्च प्रतिपाद्यस्याभिधेये For Pasta Use Only ~ 223~ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [ ८० ] दीप अनुक्रम [१०२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१०], मूलं [ ८० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥१०५॥ Education प्रत्ययोत्पादकत्वादिति हेतुः सोऽनैकान्तिकः, करादिचेष्टानामभिधेयप्रतिपादकत्वे सत्यपि भाषात्वासिद्धेः । तथा यदुक्तम्अभाषकस्य भाषेति, तदसङ्गततरम्, एवं हि सिद्धस्याचेतनस्य वा भाषाप्राप्तिप्रसङ्ग इति । एवं क्रियाऽपि वर्त्तमानकाल एव युक्ता, तस्यैव सत्त्वादिति, यच्चानभ्यासादिकं कारणमुक्तं तच्चानैकान्तिकम्, अनभ्यासादावपि यतः काचित्सुखादिरूपैव, तथा यदुक्तम्-अकरणतः क्रिया दुःखेति, तदपि प्रतीतिबाधितं यतः करणकाल एव क्रिया दुःखा वा सुखा वा दृश्यते, न पुनः पूर्व पञ्चाद्वा, तदसत्त्वादिति । तथा यदुक्तम् 'अकिच्च' मित्यादि यदृच्छावादिमताश्रयणात्, तदप्यसाधीयो, यतो यद्यकरणादेव | कर्म दुःखं सुखं वा स्यात् तदा विविधैहिकपारलौकिकानुष्ठानाभावप्रसङ्गः स्यात्, अभ्युपगतं च किञ्चित्पारलौकिकानुष्ठानं | तैरपि चेति, एवमेतत्सर्वमज्ञानविजृम्भितम् उक्तं च वृद्धै:-"परतित्थियवत्तवय पढमसए दसमर्थमि उसे विभंगीणादेसा | मइभेया वाबि सासवा ॥ १ ॥ सम्भूयमसम्भूय भंगा चत्तारि होंति विभंगे । उम्मत्तवायसरिसं तो अण्णाणंति निद्दिहं ॥२॥” सद्भूते-परमाणौ असद्भूतं- अर्घादि १, असद्भूते - सर्वगात्मनि सद्भूतं चैतन्यं २, सद्भूते - परमाणौ सद्भूतं निष्प्रदेशत्वम् ३, अस| ते सर्वगात्मनि असद्भूतं कर्तृत्वमिति ४ । 'अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामी" त्यादि तु प्रतीतार्थमेवेति, नवरं 'दोन्ह | परमाणुपोग्गलाणं अत्थि सिणेहकाए'त्ति एकस्यापि परमाणोः शीतोष्णस्निग्धरूक्षस्पर्शानामन्यतरदविरुद्धं स्पर्शद्वयमेकदैवास्ति ततो द्वयोरपि तयोः स्निग्धत्वभावात् स्नेहकायोऽस्त्येव, ततश्च तौ विषमस्नेहात्संहन्येते, इदं च परमतानुवृत्त्योक्तम्, १- प्रथमशते दशमे उद्देशे परतीर्थिकवकव्यता विभङ्गिनामादेशा मतिभेदाच्चापि सा सर्वा ॥ १ ॥ सद्भूतेऽसद्भूतादयश्चत्वारो भङ्गाः परमाणावर्द्धादि सर्वगात्मनि चैतन्यं परमाणावप्रदेशस्वं सर्वगात्मन्यकर्तृत्वम् विभने भवन्ति उन्मत्तवाक्सदृशा इत्यज्ञानमिति निर्दिष्टम् ॥ २ ॥ For Parts Only ~ 224~ ११ शतके उद्देशः १० अन्यतीर्थिकवक्तव्यता स्नेहभाषा क्रियासु सू ८० ॥१०५॥ rary org Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१०], मूलं [८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८०] अन्यथा रुक्षावपि रूक्षस्ववैषम्ये संहन्येते एव, यदाह-"समनिद्धयाएबंधोन होइ समलुक्खयाएविन होइ।वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ संधाणं ॥१॥"ति । 'खंधेवि य णं से असासए'त्ति उपचयापचयिकत्वात्, अत एवाह-सया समिय'मित्यादि 'पुचि भासा अभास'त्ति भाष्यत इति भाषा भाषणाच्च पूर्व न भाष्यते इतिन भाषेति भासिज्जमाणी भासा भास'त्ति शब्दार्थोपपत्तेः 'भासिया अभास'त्ति शब्दार्थवियोगात् । 'पुब्धि किरिया अदुक्ख त्ति करणात्पूर्व क्रियैव नास्तीत्यसवादेव च न दुःखा, सुखापि नासौ, असत्त्वादेव, केवलं परमतानुवृत्त्याऽदुःखेत्युक्तं 'जहा भास'त्ति वच नात् , 'कजमाणी किरिया दुक्खा' सत्त्वात् , इहापि यक्रियमाणा क्रिया दुःखेत्युक्तं तत्परमतानुवृत्त्यैव, अन्यथा सुखाPisपि क्रियमाणैव क्रिया, तथा 'किरियासमयवितिकतं च ण'मित्यादि दृश्यमिति । 'किचं दुक्ख'मित्यादि, अनेन च कर्मसत्ताऽऽवेदिता, प्रमाणसिद्धत्वादस्य, तथाहि-इह यद्वयोरिष्टशब्दादिविषयसुखसाधनसमेतयोरेकस्य दुःखलक्षणं फल|| मन्यस्येतरत् न तद्विशिष्टहेतुमन्तरेण संभाव्यते, कार्यत्वाद्, घटवत् , यश्चासौ विशिष्टो हेतुः स कर्मेति, आह च-"जो तुलसाहणाणं फले विसेसो ण सो विणा हेउं । कज्जत्तणओ गोयम ! घडो व हेऊ य से कम्मं ॥१॥"ति ॥ पुनरप्यन्ययूथिकान्तरमतमुपदर्शयन्नाह अण्णास्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति जाव-एवं खलु एगे जीवे एगणं समएणं दो किरियाओ पक१ समस्निग्धतया न भवति समरूक्षतयाऽपि न भवति बन्धः, विमात्रनिन्धरूक्षतया स्कन्धानां बन्धस्तु ॥१॥२ यस्तुल्यसाबनानां फले विशेषः कार्याणां न स हेतुं विना । कार्यत्वाद् घट इव तस्स हेतुश्च कर्म गौतम ! । दीप अनुक्रम [१०२] SHREmiratanRana ~225 Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१] दीप अनुक्रम [१०३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१०], मूलं [८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः | माहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि ४ एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं किरियं पकरेइ तंजहा' इत्यादि पूर्वोक्तानुसारेणाध्येयमिति । मिथ्यात्वं चास्यैवम् - ऐर्यापथिकी क्रियाडकषायोदयप्रभवा इतरा तु | कषायप्रभवेति कथमेकस्यैकदा तयोः संभवः १, विरोधादिति ॥ अनन्तरं क्रियोक्ता, क्रियावतां चोत्पादो भवतीत्युत्पादविरहप्ररूपणायाह- निरयगई णं भंते! केवतियं कालं विरहिया उववाएणं पनता ? गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं बारस मुहुत्ता, एवं वकंतीपयं भाणिपव्वं निरवसेसं, सेवं भंते । सेवं भंते सि जाव विहरह ( सू० ८२ ) ॥ १-१० ॥ ॥ पढमं सयं समत्तं ॥ 'वकंतीपर्य'ति व्युत्क्रान्तिः - जीवानामुत्पादस्तदर्थं पदं - प्रकरणं व्युत्क्रान्तिपदं तच्च प्रज्ञापनायां पर्छ, तच्चार्थलेशत एवं द्रष्टव्यं पश्चेन्द्रिय तिर्यग्गतौ मनुष्यगती देवगतौ चोत्कर्षतो द्वादश मुहर्त्ताः जघन्यतस्त्वेकसमय उत्पादविरह इति तथा - "चैबीसई मुहुत्ता १ सत अहोरत २ तह य पण्णरस ३ मासो य ४ दो य ५ चउरो ६ छम्मासा ७ विरहकालो उ ॥ १ ॥ उक्कोसो रयणाइसु सव्दासु जहण्णओ भवे समओ एमेव य उबट्टण संखा पुण सुरवरा तुला ॥ २ ॥” षण्मासा विरहकालस्तु ॥ १ ॥ सर्वासु रत्नायासुत्कृष्टो १ - चतुर्विंशतिर्मुहूर्तनि सप्ताहोरात्रास्तथा च पञ्चदशमासश्व द्वौ चत्वारश्च जघन्यतो भवेत् समयः । एवमेवोद्वर्तनापि सङ्ख्या पुनः सुरवरतुल्या ॥ २ ॥ Eucation International For Parts Only ~ 227 ~ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक बिरहः [८२] दीप अनुक्रम [१०४] व्याख्या-1 सा चेयम्-"एगो य दो य तिणि य संखमसंखा व एगसमएणं । उववजंतेवइया उबटुंतावि एमेव ॥१॥" तिर्यग्गतौ १ शतके प्रज्ञप्तिःच विरहकालो यथा-"भिन्नमुहुत्तो विगलिंदियाण संमुच्छिमाण य तहेव । चारस मुहुत्त गब्भे उक्कोस जहन्नओ समओ उद्देशः १० अभयदेवी- ॥१॥" एकेन्द्रियाणां तु विरह एव नास्ति, मनुष्यगतौ तु "बारस मुहुत गम्भे मुहुत्त संमुच्छिमे चउबीसं । उकोसी उपपातविरहकालो दोसुवि य जहन्नओ समओ ॥१॥" देवगतौ तु "भवणवणजोइसोहम्मीसाणे चउवीसइ मुहुत्ता उ । उको सू८२ ।।१०७॥ ४ सविरहकालो पंचसुवि जहन्नओ समओ ॥१॥णवदिण वीस मुहुत्ता बारस दस चेव दिणमुहुत्ताओ । बावीसा अद्ध है चिय पणयालअसीइदिवससयं ॥२॥ संखेजा मासा आणयपाणएसु तह आरणञ्चुए वासा । संखेजा विनेया गेवे- ॥१७॥ मजेसुं अओ वोच्छं॥३॥ हेहिम वाससयाई मज्झि सहस्साइ उवरिमे लक्खा । संखेजा विनेया जह संखेनं तु तीसुंपिine ॥ १-एकच द्वौ च प्रयब सख्याता असल्याता वैकसमयेनोत्पद्यन्ते एतावन्त उद्बनाया अप्येवमेव ॥१॥२ विकलेन्द्रियाणां। समूछिमाणां च तथैव भिन्नगुहूर्तः । गर्भजे द्वादशमुहर्चाः उत्कर्षतो जघन्यतः समयः ॥ १॥३गर्भजनरे द्वादश महर्चाः समछिमे चतु-IC | विशतिः । उत्कृष्टो विरहकालो द्वयोरपि जघन्यतः समयः ॥ १॥ भवनव्यन्तरज्योतिःसौधर्मेशानेषु चतुर्विशतिर्मुहूर्ताः । उत्कृष्टो विरहकालः पञ्चवपि जघन्यतः समयः ॥२॥ नवदिनानि विशतिर्मुहूर्ण द्वादश दिनानि दश मुहूर्साः सार्द्धद्वाविंशतिर्दिनानि पञ्चचत्वारि& शदशीतिः शतं दिवसानाम् ॥ २ ॥ आमतमाणतयोः सायेया मासाः, तथाऽऽरणाच्युतयोर्वाणि ससचेयानि ( शतादर्वाग ) विज्ञेयानि , वेयकेष्वतो वक्ष्ये ॥ ३॥ अधस्तनेषु वर्षशतानि मध्येषु सहस्राणि उपरितनेषु लक्षाः सवधेयानि विज्ञेयानि यथासङ्ख्येन तिसवपि ॥४॥ ~228~ Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [८२] दीप अनुक्रम [१०४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [१], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [८२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] Ja Eratur पलिया असंखभागो उकोसो होइ विरहकालो उ । विजयाश्सु निधिडो सबेसु जहण्णओ समओ ॥ ५ ॥ उयवायविरह'कालो इय एसो वण्णिओ उ देवेसु । उबट्टणावि एवं सधेसु होइ विष्णेया ॥ ६ ॥ जहणणेण एगसमओ उकोसेणं तु होंति | छम्मासा । विरहो सिद्धिगईए उबट्टणवज्जिया नियमा ॥ ७ ॥ इति ॥ ॥ प्रथमशते दशमोदेशकः ॥ १-१० ॥ इति गुरुगमभङ्गः सागरस्याहमस्य स्फुटमुपचितजाढ्यः पञ्चमाङ्गस्य सद्यः । प्रथमशतपदार्थावर्त्तगर्त्तव्यतीतो, विवरणवरपोती प्राप्य सद्धीवराणाम् ॥ १ ॥ ॥ इति श्रीमदभयदेवाचार्यविरचितायां भगवतीवृत्ती प्रथमशतं समाप्तमिति १ ॥ १- पल्या सख्यभागश्चतुर्षु विजयादिषूत्कृष्टो विरहकालस्तु भवति निर्दिष्टः सर्वेषु जघन्यतः समयः ॥ ५ ॥ एवमेष उपपातविरद्दकालो देवेषु तु वर्णितः । एवमुद्रर्त्तनाऽपि सर्वेषु भवति विज्ञेया ॥ ६ ॥ सिद्धिगतौ विरहो जघन्येनैकः समय उत्कर्षतः पण्मासा भवन्ति नियमादुद्वर्त्तमवर्जिताः ॥ ७ ॥ अत्र प्रथम शतके दशम उद्देशकः समाप्तः "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Digra For PanalPrata Use Only तत् समाप्ते प्रथमं शतकं अपि समाप्तं ~ 229~ untary org Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती"मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] अथ द्वितीयं शतकं व्याख्यात प्रथम शतमथ द्वितीयं व्याख्यायते, तत्रापि प्रथमोद्देशकः, तस्य चायमभिसम्बन्धः-प्रथमशतान्तिमोदेशकान्ते जीधानामुत्पादविरहोऽभिहितः, इह तु तेषामेवोच्छ्रासादि चिन्त्यत इत्येवसम्बन्धस्यास्येदमुपोद्घातसूत्रानलन्तरसूत्रम् गाहा-सासखंदए वि य १ समुग्धाय २ पुढचं ३ दिय ४ अन्नउस्थिभासा ५य। देवा य ३ चमरचंचा ७ समय ८ खिस ९स्थिकाय १० बीयसए ॥१॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था, वण्णओ, सामी समोसढे परिसा निग्गया धम्मो कहिओ पडिगया परिसा । तेणं कालेणं २ जेडे अंतेवासी जाच पजुवासमाणे एवं वयासी-जे इमे भंते !बई६ दिया तेइंदिया चरिंदिया पंचेदिया जीवा एएसिणं आणामं वा पाणामं वा उस्सासंचानीसासं वा जाणामो पासामो,जे इमे पुढविक्काइया चणस्सइकाइया एगिदिया जीवा एएसि णं आणामं वा पाणामंचा उस्सासं वा निस्सासं वाण याणामो ण पासामो, एएसि णं भंते ! जीचा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंतिचा नीससंति वा ? हंता गोयमा ! एएवि य णं जीवा आणमंति वा पाणमंति वा उस्ससंति वा नीससंति वा॥ (सू०८४) |'जे इमे'इत्यादि, यद्यष्येकेन्द्रियाणामागमादिप्रमाणाजीवत्वं प्रतीयते तथाऽपि तदुचनासादीनां साक्षादनुपलम्भाजीवशरीरस्य |च निरुच्छ्रासादेरपि कदाचिदर्शनात् पृथिव्यादिषूच्छासादिविषया शङ्का स्यादिति तन्निरासाय तेषामुच्छ्रासादिकमस्तीत्येतस्या ACASSESASCOSCRI5 गाथा दीप अनुक्रम [१०५१०६] % M auranorm अथ द्वितीय शतकं आरभ्यते अत्र द्वितीय शतके प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: सूत्रस्य क्रमांकने अत्र मुद्रण-दोष: सम्भाव्यते (यहाँ सूत्र-क्रम ८३ आना चाहिए मगर ८४ मुद्रित हुआ है, सम्भव है की गाथा के क्रमांक में गिन लिया हो ~230 Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८४] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८४] स्वरूपं गाथा व्याख्या- गमप्रमाणप्रसिद्धस्य प्रदर्शनपरमिदं सूत्रमवगन्तव्यमिति । उच्छासायधिकाराज्जीवादिषु पश्चविंशतौ पदेपूच्यासादिद्रव्या २ शतके उद्देशः१ प्रज्ञप्तिः राणां स्वरूपनिर्णयाय प्रश्नयन्नाह एकेन्द्रियाअभयदेवीया वृत्तिः | किण्णं भंते जीवा आण पा० उ० नी०१, गोयमा ! दवओ णं अर्णतपएसियाई दवाई खेसओ fणाउच्छासा असंखपएसोगाढाई कालओ अन्नयरद्वितीयाई भावओ वण्णमंताई गंधमंताई रसमंताई फासमंताई आण-दिः उच्छास ॥१०९॥ ४ मंति वा पाणमंति वा उससंति वा नीससंति वा, जाइंभावओ वनमंताई आण पाण असल्नीस० ताई किंएगव पणाई आणमंति पाणमंति ऊसनीस०१, आहारगमोनेयव्योजाव तिचउपचदिसि।किण्णं भंते ! नेरहया आ० पा० उ० नीतं व जाव नियमा छहिसिं आ० पा० उ०नी जीवा एगिदिया वाघाया य निवाघाया यडू भाणियब्वा, सेसा नियमा छरिसिं ॥ वाज्याए णं भंते ! वाउयाए चेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति IM वा नीससंति वा, हंता गोयमा! चाउयाए णं जाव नीससंति वा ॥ (सू०८५)॥ का 'किण्णं भंते ! जीचे त्यादि, किमिल्यस्य सामान्यनिर्देशत्वात् 'कानि' किंविधानि द्रव्याणीत्यर्थः । 'आहारगमो नेयम्बो'त्ति प्रज्ञापनाया अष्टाविंशतितमाहारपदोक्तसूत्रपद्धतिरिहाध्येयेत्यर्थः, सा चेयम्-'दुवन्नाई तिवण्णाई जाच पंचवण्णाईपि, जाई बन्नओ कालाई ताई कि एगगुणकालाई जाव अणंतगुणकालाईपि' इत्यादिरिति ॥'जीवा एगि दिए' त्यादि, जीवा एकेन्द्रियाश्च 'वाघायाय निव्वाघाया य'त्ति मतुबलोपाद् व्याघातनिर्व्याघातवन्तो भणितव्याः। इह चैत्र || ॥१०९॥ & पाठेऽपि नियाघातशब्दः पूर्वं द्रष्टव्यः, तदभिलापस्य सूत्रे तथैव दृश्यमानत्वात् , तत्र जीवा निर्व्याघात सध्याधाताः सूत्रे दीप अनुक्रम [१०५१०६]] SARERatunintamand ~231~ Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक HARSHA [८५]] ला एव दर्शिताः, एकेन्द्रियास्त्वेवम्-'पुढविक्काइया णे भंते ! कइदिसं आणमंति ४ ?, गोयमा ! निवाघाएणं छद्दिसि वाघाय || पडुच्च सिय तिदिसि'मित्यादि । एवमकायादिष्वपि, तत्र नियाघातेन षड्दिर्श पदिशो यत्रानमनादौ तत्तथा, व्याघात प्रतीत्य स्यानिदिशं स्थाच्चवर्दिशं स्यात्पश्चदिशमानमन्ति ४, यतस्तेषां लोकान्तवृत्तावलोकेन व्यादिदिक्षुच्छ्रासादिपुगलानां । व्याघातः संभवतीति, सेसा नियमा छद्दिसिं'ति शेषा नारकादित्रसाःषदिशमानमन्ति, तेषां हि त्रसनाड्यन्तर्भूतत्वात् पदिशमुच्यासादिपुद्गलग्रहोऽस्त्येवेति । अथैकेन्द्रियाणामुच्यासादिभावादुच्छासादेश्च वायुरूपत्वात् किं वायुकायिकानाकामप्युच्छासादिना वायुनैव भवितव्यमुतान्येन केनापि पृथिव्यादीनामिव तद्विलक्षणेन ? इत्याशगयां प्रश्नयन्नाह-वाउया एणमित्यादि, अथोच्छ्रासस्यापि वायुत्वादन्येनोच्यासवायुना भाव्यं तस्याप्यन्येनैवमनवस्था, नैवमचेतनत्वात्तस्य किंच योऽयमुच्छासवायुःस वायुत्वेऽपिन वायुसंभाव्यौदारिकवैक्रियशरीररूपः तदीयपुद्गलानामानमाणसज्ञितानामौदारिकवैक्रि यशरीरपुद्गलेभ्योऽनन्तगुणप्रदेशत्वेन सूक्ष्मतर्यतच्छरीरव्यपदेश्यत्वात् , तथा च प्रत्युच्छासादीनामभाव इति नानवस्था । हा वाउयाए णं भंते ! वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता २ तस्थेव भुजो भुजो पचायाति , महंता गोयमा ! जाव पचायाति । से भंते किं पुढे उद्दाति अपुढे उद्दाति ?, गोयमा! पुढे उद्दाइ नो अपुढे उद्दाइ । से भंते । किं ससरीरी निक्खमइ असरीरी निक्खमइ ?, गोयमा ! सिय ससरीरी निक्खमइ सिय ला असरीरी निक्खमइ । से केणटेणं भंते ! एवं बुचइ सिय ससरीरी नियमइ सिय असरीरी निकखमइ ?, १ परम्परया वायूनामुच्छासादिप्रसङ्गस्याभावः ॥ दीप अनुक्रम [१०] AX*XXXA*** Saintamatuntal ~232~ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८६-८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६-८९] दीप अनुक्रम [१०८-१११] व्याख्या-लागोयमा ! वाउयायस्स णं चत्तारि सरीरया पन्नत्सा, तंजहा-ओरालिए वेउब्बिए तेयए कम्मए, ओरालिय- २ शतके प्रज्ञप्तिः घेउब्बियाई विपजहाय तेयकम्मएहिं निक्खमति, से तेणड्डेणं गोयमा ! एवं चुदइ-सिय ससरीरी सिय उद्देशः१ अभयदेवी-1 असरीरी निक्खमह । (सू०८६)॥ मडाईण भंते नियंठे नो निरुद्धभवे नो निरुद्धभवपवंचे णो पहीणसं-18 वायुकाय या वृत्तिः१ सारे णो पहीणसंसारवेयणिज्जे णो वोच्छिण्णसंसारे णो वोच्छिण्णसंसारवेयणिज्जे नो निहियढे नो निहि- कायस्थान पढकरणिजे पुणरवि इत्थसं हव्यमागच्छति ?, हंता गोयमा ! मडाई णं नियंठे जाव पुणरवि इत्थतं हव्य-IN भास्८६ मृता बाद दिनइत्थंता मागच्छद ॥ (सू०८७)॥ से णं भंते ! किं वत्तव्वं सिया? गोयमा ! पाणेति बत्तब्वं सिया भूतेति वत्तव्वं 31 सिया जीवेत्ति वत्तव्वं सत्तेत्ति वत्तव्वं वित्ति वत्तव्वं वेदेति वत्तवं सिया पाणे भूए जीवे सत्ते विनू दाण्यादिताड सू८७प्रएति वत्तव्वं सिया, से केणडेणं भंते ! पाणेत्ति वत्तव्बं सिया जाव वेदेति वत्तवं सिया ?, गोपमा ! जम्हा | नित्थता आ० पा० उ० नी० तम्हा पाणेत्ति वत्तव्वं सिया, जम्हा भूते भवति भविस्सति य तम्हा भूपत्ति वत्तव्य ||४|सू८८-८९ लासिया, जम्हा जीवे जीवइ जीवत्तं आउयं च कम्मं उबजीवइ तम्हा जीवेत्ति वित्तब्वं सिया, जम्हा सत्ते सुहासुहेहिं कम्मेहिं तम्हा सत्तेत्ति वत्तब्वं सिया, जम्हा तित्तकडयकसायअंथिलमहुरे रसे जाणइ तम्हा वित्ति वत्तवं सिया, वेदेह य सुहदुक्खं तम्हा वेदेति वत्तव्वं सिया, से तेणद्वेणं जाव पाणेत्ति वत्तब्वं सिया ॥११०॥ जाव वेदेति बत्तध्वं सिया ॥ (स.८८)॥ मडाई गं भंते ! नियंठे निरुद्धभवे निरुद्धभवपवंचे जाव निहियडकरMणिज्जे णो पुणरवि इत्थत्तं हव्वमागच्छति', हंता गोयमा मडाई णं नियंठे जाव नो पुणरवि इस्थत्तं हवमाग-19 ~233~ Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८६-८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६-८९] दीप अनुक्रम [१०८-१११] छति से भंते ! किंति वत्सव्वं सिया?, गोयमा ! सिद्धेत्ति वत्तव्वं सिया बुद्धेत्ति वत्तव्वं सिया मुत्तेत्ति बत्तव्य पारगएत्ति व परंपरगएत्ति व. सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिब्बुडे अंतकडे सव्वदुक्खप्पहीणेत्ति वत्तव्य सिया, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदद नमसह २ संजमेणं तवसा| ४ अप्पाणं भावेमाणे विहरति ॥ (सू०८९)॥ | 'वाउकाए णं भंते'इति, अयं च प्रश्नो वायुकायप्रस्तावाद्विहितोऽन्यथा पृथिवीकायिकादीनामपि मृत्वा स्वकाये उत्पा|| दोऽस्त्येव, सर्वेषामेषां कायस्थितेरसङ्ख्याततयाऽनन्ततया चोक्तत्वात् , यदाह--"अस्सङ्खोसप्पिणीउस्सप्पिणीओ एगि-1 दियाण उ चउण्हं । ता चेव ऊ अणंता वणस्सईए उ योद्धवा ॥१॥" तत्र वायुकायो वायुकाय एवानेकशतसहस्रकृत्वः॥ है 'उद्दाइत्त'त्ति 'अपहत्य' मृत्वा तत्थेव'त्ति वायुकाय एव 'पञ्चायाइत्ति 'प्रत्याजायते' उत्पद्यते । 'पुढे उद्दाइ'त्ति स्पृष्टः स्वकायशस्त्रेण परकायशस्त्रेण वा 'अपद्रवति' वियते 'नो अपुढे 'त्ति सोपक्रमापेक्षमिदं, 'निक्खमइ'त्ति स्वकडेवरान्निःहा सरति, 'सियससरीरीत्ति स्थात्-कथञ्चित् 'ओरालियवेउब्वियाई विप्पजहाये'त्यादि, अयमर्थः-औदारिकवैक्रिया- ★ पेक्षयाऽशरीरी तैजसकार्मणापेक्षया तु सशरीरी निष्क्रामतीति ॥ वायुकायस्य पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिर्भवतीत्युक्तम्, अथ है कस्यचिन्मुनेरपि संसारचक्रापेक्षया पुनः पुनस्तत्रैवोत्पत्तिः स्यादिति दर्शयन्नाह-मडाई णं भंते ! नियंठे'इत्यादि, मृ|| तादी-प्रासुकभोजी, उपलक्षवादेषणीयादी चेति दृश्य, 'निर्ग्रन्थः' साधुरित्यर्थः 'हवं' शीघमागच्छतीति योगः। १ चतुर्णामेकेन्द्रियाणागसहयातोत्सपिण्य एव ताश्चैव वनस्पतेः अनन्ता एव बोद्धव्याः ॥१॥ ~234~ Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८६-८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६-८९] ८८-८९ दीप अनुक्रम [१०८-१११] व्याख्या- किंविधः सन् ? इत्याह-नो निरुद्धभवेत्ति अनिरुद्धातनजन्मा, चरमभवाप्राप्त इत्यर्थः, अयं च भवद्भयप्राप्तव्यमो-18| २ शतके प्रज्ञप्तिः ॥काक्षोऽपि स्यादित्याह-'नो निरुद्धभवपर्व'त्ति प्राप्तव्यभवविस्तार इत्यर्थः, अयं च देवमनुष्यभवप्रपश्चापेक्षयाऽपि स्यादि- उद्देशः १ अभयदेवी यदवार त्यत आह–णो पहीणसंसार'त्ति अग्रहीणचतुर्गतिगमन इत्यर्थः, यत एवमत एव 'नो पहीणसंसारवेयणिज्जेत्ति मृतादिसा. या वृत्तिः पर अप्रक्षीणसंसारवेद्यकर्मा, अयं च सकृञ्चतुर्गतिगमनतोऽपि स्यादित्यत आह-'नो बोच्छिन्नसंसारे'त्ति अत्रुटितचतुर्ग-18 दिधोरित्यंता दिसू ८७ ॥११॥ तिगमनानुबन्ध इत्यर्थः, अत एव 'नो वोच्छिन्नसंसारवेयणिज्जेत्ति 'नो' नैव व्यवच्छिन्नम्-अनुबन्धव्यवच्छेदेन चतुर्गतिगमनवेचं कर्म यस्य स तथा, अत एव 'नो निहियडे'त्ति अनिष्ठितप्रयोजनः, अत एव 'नो निडियट्ठकरणिज्जे' त्ति 'नो' नैव निष्ठितार्थानामिव करणीयानि-कृत्यानि यस्य स तथा, यत एवंविधोऽसावतः पुनरपीति, अनादौ संसारे | पूर्व प्राप्तमिदानी पुनर्विशुद्धचरणावाप्तेः सकाशादसम्भावनीयम् 'इत्थत्यंति 'इत्यर्थम् एनमर्थम्-अनेकशस्तियङ्नरना किनारकगतिगमनलक्षणम् 'इत्यत्त'मिति पाठान्तरं तत्रानेन प्रकारेणेत्थं तद्भाव इत्थत्वं, मनुष्यादित्वमिति भावः, अनुस्वारलोपश्च प्राकृतत्वात् , 'हब्बति शीघम् 'आगच्छत्ति प्राप्नोति अभिधीयते च-कषायोदयात्प्रतिपतितचरणानां चारित्रवतां संसारसागरपरिचमणं, यदाह-"जइ उवसंतकसाओ लहइ अणतं पुणोवि पडिवाय'ति । स च संसारचक्रगतो मुनिजीवः प्राणादिना नामपट्टेन कालभेदेन युगपच्च वाच्यः स्यादिति विभणिषुः प्रश्नयनाह-'से णमित्यादि, तत्र 'संः' निर्गन्धजीवः किंशब्दः प्रश्ने सामान्यवाचित्वाच्च नपुंसकलिङ्गेन निर्दिष्ट: 'इति' एवमन्वर्थयुक्ततयेत्यर्थः, १ उपशान्तकषायोऽपि यद्यनन्तं कालं यावद्विषतिपातं लभते (तदा का वार्ताऽन्यस्य सकषायस्य ? ) ॥ CRECOACK ॥११॥ ~235~ Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [८६-८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [८६-८९] दीप अनुक्रम [१०८-१११] वक्तव्यः स्यात्, प्राकृतत्वाच सूत्रे नपुसकलिङ्गताऽस्येति, अन्वर्थयुक्तशब्दैरुच्यमानः किमसी वक्तव्यः स्यात् । इति । भावः । अनोत्तर-'पाणेत्ति वत्तव्य'मित्यादि, तत्र प्राण इत्येतत्तं प्रति वक्तव्यं स्यात् यदोच्छ्रासादिमत्वमात्रमाश्रित्य | तस्य निर्देशः क्रियते, एवं भवनादिधर्मविवक्षया भूतादिशब्दपञ्चकवाच्यता तस्य कालभेदेन व्याख्येया, यदा तूच्छ्रासादिधमैयुगपदसौ विवक्ष्यते तदा प्राणो भूतो जीवः सत्त्वो विज्ञो वेदयितेत्येतत्तं प्रति वाच्यं स्यात् , अथवा निगमनवा| क्यमेवेदमतो न युगपत्पक्षव्याख्या कार्येति । 'जम्हा जीवे इत्यादि, यस्मात् 'जीवः' आत्माऽसौ 'जीवति' प्राणान धारयति, तथा 'जीवत्वम् उपयोगलक्षणम् आयुष्कं च कर्म 'उपजीवति'अनुभवति तस्माज्जीव इति वक्तव्यं स्यादिति। 'जम्हा सत्ते सुभासुभेहिं कम्मे हिंति सक्तः-आसक्तः शक्तो वा-समर्थः सुन्दरासुन्दरासु चेष्टासु, अथवा सक्तः६ संबद्धः शुभाशुभैः कर्मभिरिति ॥ अनन्तरोक्तस्यैवार्थस्य विपर्ययमाह-'पारगए'त्ति पारगतः संसारसागरस्य 'भाविनि भूतवदि'त्युपचारादिति 'परंपरागए'त्ति परम्परया-मिथ्यादृष्ट्यादिगुणस्थानकानां मनुष्यादिसुगतीनां वा पारम्पर्येण गतो भवाम्भोधिपारं प्राप्तः परम्परागतः ॥ इहानन्तरं संयतस्य संसारवृद्भिहानी उक्त सिद्धत्वं चेति, अधुना तु तेषामन्येषां है चार्थानां व्युत्पादनार्थ स्कन्दकचरितं विवक्षुरिदमाह| तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमिसा यहिया जणवयविहारं विहरह, तेणं कालेणं तेणं समएणं कयंगलानाम नगरी होत्था वण्णओ, तीसे णं कयंगलाए नगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए छत्तपलासए नाम चेइए RELIGunintentiaTRE ~236~ Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] व्याख्या-1 महोत्था षण्णओ, तए णं समणे भगवं महावीरे उपपणनाणदसणधरे जाव समोसरणं परिसा निगच्छति, २१ शतके प्रज्ञप्तिः तीसे णं कर्यगलाए नगरीए अदूरसामंते सावत्थी नामं नयरी होत्था वण्णओ, तस्थ णं सावत्थीए नयरीए | उद्देशः१ अभयदेवी- गहभालिस्स अंतेवासी खंदए नाम कच्चायणस्सगोत्ते परिवायगे परिवसइ रिउब्वेदजजुब्वेदसामवेदअह स्कन्द्रकचयावृत्तिः ॥ चणवेदइतिहासपंचमाणं निग्घंटुछट्ठाणं चउण्हं वेदाणं संगोवंगाणं सरहस्साणं सारए धारए धारए पारए आरितं सू९० पिङ्गलकसडंगवी सहिततविसारए संखाणे सिक्खाकप्पे वागरणे छंदे निरुत्ते जोतिसामयणे अन्नेसु य बहसु बभण॥११२॥ सडगवी सहिततर्विसारए सखाणे सिक्खाकप्प वागरण एसु परिव्वायएसु य नयेसु सुपरिनिहिए यावि होत्या, तत्थ णं सावत्थीए नयरीए पिंगलए नामं नियंठे वेसालियसावए परिवसइ, तए ण से पिंगलए णामं णियंठे वेसालियसावए अण्णया कयाई जेणेव खंदए कचायणस्सगोत्ते तेणेव उवागच्छद २ खंदगं कच्चायणस्सगोतं इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा! किं सते लोए । अणते लोए १ सअंते जीवे अणंते जीवे २ सअंता सिद्धी अणंता सिद्धी ३ सअंते सिद्धे अर्णते सिडे ४ केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वड्डति वा हायति वा ५१, एतावं ताव आयक्वाहि वुच्चमाणे एवं, तएणं से खंदए । | कचा गोत्ते पिंगलएणं णियंठेणं सालीसावएणं इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुसमावन्ने णो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स वेसालियसावयस्स किंचिवि पमोक्खमक्खाइऊं, तुसिणीए संचिट्ठद, तए णं से पिंगले नियंठे बेसालीसावए खंदयं कचायणस्सगोत्तं दोचंपि तचंपि इणमक्खेवं पुच्छे-मागहा ! किं सते लोए जाव केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वहद वा हायति वा एतावं दीप अनुक्रम [११२] 5454545565654 स्कंदक (खंधक) चरित्र ~237~ Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] ताव आइक्वाहि बुचमाणे एवं, ततेणं से खंदए कच्चा० गोत्ते पिंगलएणं नियंठेणं वेसालीसावएणं दोचंपितचंपि इणमक्खेवं पुच्छिए समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावण्णे कलुसमावणे नो संचाएइ पिंगलयस्स नियंठस्स बेसालिसावयस्स किंचिवि पमोक्खमक्खाउं तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं सावत्थीए नयरीए सिंघाडग जावमहापहेसु महया जणसंमद्दे इ वा जणबूहे इ वा परिसा निगच्छा । तए णं तस्स साखंदयस्स कच्चायणस्सगोत्तस्स बहुजणस्स अंतिए एयमहूं सोचा निसम्म इमेयारूवे अभत्थिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे कयंगलाए नयरीए बहिया छत्तप है लासए चेहए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वंदामि। नमसामि, सेयं खलु मे समणं भगवं महावीरं वंदित्ता णमंसित्ता सकारेत्तासम्माणित्ता कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं दीपजुचासित्ता इमाई च णं एयाख्वाइं अट्ठाई हेऊई पसिणाई कारणाई पुच्छित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ २|| जेणेव परिवायावसहे तेणेव उचागच्छद २त्ता तिदंडं च कुंडियं च कंचणियं च करोडियं च भिसियं च | का केसरियं च छन्नालयं च अंकुसयं च पवित्तयं च गणेत्तियं च छत्तयं च वाहणाओ य पाउयाओं य धाउरहत्ताओ य गेहद गेण्हइत्ता परिव्वायावसहीओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमहत्ता तिदंडकुंडियकंचणिय-18 करोडियभिसियकेसरियछन्त्रालयअंकुसयपवित्तगणेत्तियहस्थगए छत्तोवाहणसंजुत्ते धाउरत्तवत्थपरिहिए सावत्थीए नगरीए मझमजमेणं निगच्छद निगच्छइत्ता जेणेव कयंगला नगरी जेणेव छत्तपलासए चेहए जेणेव दीप अनुक्रम [११२] स्कंदक (खंधक) चरित्र ~238~ Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रज्ञप्तिः प्रत सूत्रांक [९०] दीप अनुक्रम [११२] व्याख्या-16 समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्य गमणाए । गोयमाइ समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी- २ शतके अभयदेवी दच्छिसि णं गोयमा ! पुव्वसंगतियं, कहं भंते !?, खंदयं नाम, से काहं वा किहं वा केवचिरेण वा, एवं खलु या वृत्तिः गोयमा ! तेणं कालेणं २ सावत्थीनाम नगरी होत्या वन्नओ, तत्य णं सावत्थीए नगरीए गहभालिस्स अंते-IIIRAMA वासी खंदए णाम कचायणस्सगोत्ते परिब्वायए परिवसइ तं चेव जाव जेणेव ममं अंतिए तेणेव पहारेत्थ सरणे आ॥११३॥ गमणाए, से तं अदूरागते बहुसंपत्ते अद्धाणपडिवणे अंतरापहे वट्टह । अज्जेवणं दकिछसि गोयमा !, भंते-|| गमः त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं वंदइ नमसइ २एवं वदासी-पहू णं भंते ! खंदए कचायणस्सगोत्ते देवाणु-दा प्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पब्वइत्तए ?, हंता पभू, जावं चणं समणे भगवं महा वीरे भगवओ गोयमस्स एयमई परिकहे इ तावं च णं से खंदए कचायणस्सगोत्ते तं देसं हब्वमागते, तए णं 51 &भगवं गोयमे खंदयं कचायणस्सगोतं अदूरआगयं जाणित्ता खिप्पामेव अब्भुढेति खिप्पामेव पनुवगच्छदार |२ जेणेव खंदए कच्चायणस्सगोते तेणेव उवागच्छदत्ता खंदयं कच्चायणस्सगोतं एवं बयासी-हे खंदया! सागय खंदया ! सुसागयं खंदया ! अणुरागयं खंदया! सागयमणुरागयं खंदया ! से नूर्ण तुर्म खंदया। & सावत्थीए नयरीए पिंगलएणं नियंठेणं वेसालियसाबएणं इणमक्खेवं पुच्छिए-मागहा ! किं सोते लोगे ॥११३॥ अणते लोगे? एवं तं चेव जेणेव इह तेणेच हव्यमागए. से नणं खंदया ! अढे समझे ?, हंता अस्थि, तए राणं से खंदए कथा भगवं गोयम एवं बयासी-से केणटेणं गोयमा! तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा जेणं तव ४ स्कंदक (खंधक) चरित्र ~239~ Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] एस अडे मम ताव रहस्सकडे हव्वमक्खाए ? जओ णं तुम जाणसि, तए णं से भगवं गोयमे खंदयं कथा यणस्सगोतं एवं वयासी-एवं खलु खंदया ! मम धम्मायरिए धम्मोवएसए समणे भगवं महावीरे उप्पण्णकणाणदसणधरे अरहा जिणे केवली तीयपचुप्पन्नमणागयवियाणए सव्व सब्वदरिसी जेणं मर्म एस अहे || तव ताव रहस्सकडे हब्बमक्खाए जओ णं अहं जाणामि खंदया। तए णं से खंदए कच्चायणस्सगोत्ते भगवं गोयम एवं वयासी 'उप्पण्णणाणदसणधरे' इह यावत्करणात् 'अरहा जिणे केवली सवण्णू सबदरिसी आगासगएणं छत्तेण'मित्यादि समवसरणान्तं वाच्यमिति । 'गद्दभालिस्स'त्ति गर्दभालाभिधानपरिव्राजकस्य 'रिउब्वेयजजुब्बेयसामवेयअथव्बण| वेय'त्ति, इह षष्ठीबहुवचनलोपदर्शनात् ऋग्वेदयजुर्वेदसामवेदाथर्वणवेदानामिति दृश्यम् इतिहास:-पुराणं स पञ्चमो येषां ते तथा तेषाम् 'चउण्हं वेयाण'ति विशेष्यपदं 'निग्घंटुछट्ठाणं'ति निर्घण्टो नामकोशः 'संगोवंगाण'ति अङ्गानिशिक्षादीनि षडू उपाङ्गानि-तदुक्तप्रपञ्चनपराः प्रबन्धाः 'सरहस्साणं ति ऐदम्पर्ययुक्तानां 'सारएत्ति सारकोऽध्यापन द्वारेण प्रवर्तकः स्मारको वाऽन्येषां विस्मृतस्य सूत्रादेः स्मारणात् 'वारए'त्ति वारकोऽशुद्धपाठनिषेधात् 'धारए'त्ति | कचित्पाठः तत्र धारकोऽधीतानामेषां धारणात् 'पारए'त्ति पारगामी 'षडङ्गविदिति षडङ्गानि-शिक्षादीनि वक्ष्यमाणानि, साझोपाङ्गानामिति यदुक्तं तद्वेदपरिकरज्ञापनार्थम्, अथवा पडङ्गविदित्यत्र तद्विचारकत्वं गृहीतं 'विद विचारणे इति वचनादिति न पुनरुतत्वमिति 'सद्वितंतविसारए'त्ति कापिलीयशास्त्रपण्डितः, तथा 'संखाणेत्ति गणितस्कन्धे 50-254 दीप अनुक्रम [११२] 0-54 स्कंदक (खंधक) चरित्र ~240~ Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: चरितं प्रत सूत्रांक [१०] व्याख्या- III सुपरिनिष्ठित इति योगः, षडङ्गवेदकत्वमेव म्यनक्ति-सिक्खाकप्पेत्ति शिक्षा-अक्षरस्वरूपनिरूपक शास्त्रं कल्पश्च-1|| २ शतके मज्ञप्तिः || तथाविधसमाचारनिरूपकं शास्त्रमेव ततः समाहारद्वन्द्वात् शिक्षाकल्ये 'वागरणे'त्ति शब्दशाखे 'छंदे'त्ति पद्यलक्षण-दा उद्देशः १ अभयदेवी| शास्त्रे 'निरुत्तेति शब्दव्युत्पत्तिकारकशास्त्रे 'जोतिसामयणे'त्ति ज्योतिःशास्त्रे 'बभण्णएसुत्ति ब्राह्मणसम्बन्धिषु । स्कन्दकया वृत्तिः 'परिवायएसु यत्ति परिव्राजकसत्केषु 'नयेषु' नीतिषु दर्शनेष्वित्यर्थः । 'नियंठे'त्ति निर्घन्धः, श्रमण इत्यर्थः 'वेसा॥११॥ लियसायए'त्ति विशाला-महावीरजननी तस्या अपत्यमिति वैशालिकः-भगवांस्तस्य वचनं शृणोति तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकः, तद्वचनामृतपाननिरत इत्यर्थः 'इणमक्खे'ति एनम् 'आक्षेप' प्रश्नं 'पुच्छे'त्ति पृष्टवान् , 'मागह'त्ति मगधजनपदजातत्वान्मागधस्तस्यामन्त्रणं हे मागध ! 'बहुइ'त्ति संसारवर्द्धनात् 'हाय'त्ति संसारपरिहान्येति । 'एतावं| तावे'त्यादि, एतावत् प्रश्नजातं तावदाख्याहि 'उच्यमानः' पृच्छयमानः, 'एवम्' अनेन प्रकारेण, एतस्मिन्नाख्याते पुन-1 रन्यत्प्रक्ष्यामीति हृदयम् । 'संकिए' इत्यादि, किमिदमिहोत्तरमिदं वा । इति संजातशङ्कः, इदमिहोत्तरं साधु इदं च न || साधु अतः कथमत्रोत्तरं लप्स्ये इत्युत्तरलाभाकालावान् कासितः अस्मिनुत्तरे दत्ते किमस्य प्रतीतिरुत्पत्स्यते न वा । इत्येवं | विचिकित्सितः'भेदसमावन्ने' मतेम-किंकर्तव्यताब्याकुलतालक्षणमापन्नः 'कलुषमापन्नः' नाहमिह किचिजानामीत्येवं ॥११॥ स्वविषयं कालुप्यं समापन्न इति 'नो संचाएइ'त्ति न शकोति 'पमोक्खमक्खाइ'ति प्रमुच्यते पर्यनुयोगबंधनादनेनेति प्रमोक्षम्-उत्तरम् 'आख्यातुं' वक्तुम् । 'महया जणसंमद्दे इ वा जणवूहे इ वा' इत्यत्रेदमन्यद् दृश्यम्-'जणबोले इ वा जणकलकले इ वा जणुम्मी इ वा जणुकलिया इ वा जणसंनिवाए इ वा बहुजणो अण्णमण्णस्स एवमाइक्खइ ४ KARAGRA दीप अनुक्रम [११२] Auditurary.com स्कंदक (खंधक) चरित्र ~241~ Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक * [९०] एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे ३ आइगरे जाव संपाविउकामे पुषाणुपुर्वि चरमाणे गामाणुगाम दूइमाणे कयंगलाए नयरीए छत्तपलासए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिणिहत्ता संजमेणं तबसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ, तं महप्फलं & खलु भो देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहताणं भगवंताणं नामगोयस्सवि सवणयाए, किमंग पुण अभिगमणबंदणनम-16 सणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्स सुवयणस्स सवणयाए ?, किमंग पुण विउलस्स अहस्स | गहणयाए, तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामो सकारेमो सम्माणेमो कलाणं मंगलं & देवयं चेइयं पञ्जुवासामो, एयं णो पेञ्चभवे हियाए सुहाए खमाए निस्सेयसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइत्तिकट्ठ बहवे उग्गा उग्गपुत्ता एवं भोगा राइण्णा खत्तिया माहणा भडा जोहा मलई लेच्छई अण्णे य बहवे राईसरतलवरमाडं|| बियकोईबियइन्भसेडिसेणावइसत्यवाहपभियओ जाव उक्तिहसीहनायबोलकलयलरवेणं समुद्दरवभूयंपिव करेमाणा सावस्थीए नयरीए मझं मझेणं निगच्छंति' अस्यायमर्थः-श्रावस्त्यां नगर्यो यत्र 'महय'त्ति महान् जनसंमर्दस्तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति वाक्यार्थः, तत्र जनसंमदः-उरोनिष्पेषः 'इतिः' उपप्रदर्शने 'वा' समुच्चये पाठान्तरे शब्द इति वा जनव्यूहः-चक्राद्याकारो जनसमुदायः बोल:-अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकला-स एवोपलभ्यमानवचनविभागः ऊर्मि:संबाधः कलोलाकारो वा जनसमुदायः उत्कलिका-समुदाय एवं लघुतरः जनसन्निपातः-अपरापरस्थानेभ्यो जनानां मीलनं, 'यथाप्रतिरूप'मित्युचितं 'तथारूपाणां' सङ्गतरूपाणां 'नामगोयस्सवित्ति नानो यादृच्छिकस्याभिधानस्य गोत्रस्य च-गुणनिष्पन्नस्य 'सवणयाए' श्रवणेन 'किमंग पुणत्ति किंपुनरिति पूर्वोक्तार्थस्य विशेषद्योतनार्थः अङ्गेल्यामन्त्रणे अभि-४ ACANCE -0-90- दीप अनुक्रम [११२] SARELatun international स्कंदक (खंधक) चरित्र ~242~ Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक A [९०] दीप अनुक्रम [११२] व्याख्या- गमनम्-अभिमुखगमनं वन्दनं-स्तुतिः नमस्यन-प्रणमनं प्रतिप्रच्छनं-शरीरादिवा प्रश्नः पर्युपासनं-सेवा तेषाम्-अभि- २ शतके प्रज्ञप्तिः ||| गमनादीनां भावस्तत्ता तया आर्यस्येत्यार्यप्रणेतृकत्वात् धार्मिकस्य धर्मप्रतिबद्धत्वात् , 'वंदामोति स्तुमः 'नमस्यामः || उद्देशः१ अभयदेवी| इति प्रणमामः 'सत्कारयामः' आदरं कुर्मों वस्त्रार्चनं वा सन्मानयाम उचितप्रतिपत्तिभिः, किम्भूतम् । इत्याह-कल्याण स्कन्दकचया वृत्तिः । रितं सू९१ कल्याणहेतुं मङ्गल-दुरितोपशमनहेतु दैवतं-दैवं चैत्यम्-इष्टदेवप्रतिमा चैत्यमेव चैत्यं 'पर्युपासयामः' सेवामहे 'एतण्णे' ॥११५॥ त्ति एतत् 'नः' अस्माकं 'प्रेत्यभवे' जन्मान्तरे 'हिताय' पथ्यान्नवत 'सुखाय' शर्मणे 'क्षेमाय' सङ्गतत्वाय 'निःश्रेयसाय' & मोक्षाय 'आनुगामिकत्वाय' परम्पराशुभानुबन्धसुखाय भविष्यति 'इतिकृत्वा' इतिहेतोबहवः 'उग्राः' आदिदेवावस्थापि ताऽऽरक्षकवंशजाता: 'भोगाः' तेनैवावस्थापितगुरुवंशजाताः 'राजन्याः भगवद्वयस्यवंशजाः 'क्षत्रिया' राजकुलीनाः! |४||'भटाः' शीर्यवन्तः 'योधाः' तेभ्यो विशिष्टतराः मल्लकिनो लेच्छकिनश्च राजविशेषाः 'राजानः' नृपाः 'ईश्वराः' युवराजा&स्तदन्ये च महर्बिकाः 'तलवराः' प्रतुष्टनरपतिवितीर्णपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाः 'माडम्बिकाः' संनिवेशविशेषना-1 कायकाः 'कौटुम्बिकाः' कतिपयकुटुम्बप्रभवोराजसेवकाः, उत्कृष्टिश्च-आनन्दमहाध्वनिः सिंहनादश्च-प्रतीतः बोलश्च-वर्णव्य- IS ||क्तिवर्जितो महाध्यनिः कलकलव-अव्यक्तवचनः स एवैतल्लक्षणो यो रवस्तेन समुद्ररवभूतमिव-जलधिशब्दप्राप्तमिव तन्मय ॥११५ ॥ मिवेत्यर्थः नगरमिति गम्यत इति । एतस्यार्थस्य सखेपं कुर्वन्नाह-परिसा निग्गच्छति'त्ति। 'तए 'ति'ततः' अनन्त-2 रम् 'इमेयारूवेत्ति 'अयं वक्ष्यमाणतया प्रत्यक्षः स च कविनोच्यमानो न्यूनाधिकोऽपि भवतीत्यत आह-एतदेव रूपंटू ४ यस्यासावेतद्रूपः 'अम्मथिए'त्ति आध्यात्मिक आत्मविषयः 'चिंतिए'त्ति स्मरणरूपः 'पस्थिए'त्ति प्रार्थितः-अभिला For P LOW सूत्रस्य क्रमांकने अत्र मुद्रण-दोष: सम्भाव्यते (यहाँ सूत्र-क्रम ९० ही चल रहा है मगर ९१ मुद्रित हुआ है ) स्कंदक (खंधक) चरित्र ~243~ Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [30] दीप अनुक्रम [११२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः वात्मकः 'मणोगए'ति मनस्येव यो गतो न बहिः वचनेनाप्रकाशनात्स तथा 'सङ्कल्पः' विकल्पः 'समुप्पज्जित्य'ति समुत्पन्नवान् 'सेर्य'त्ति श्रेयः- कल्याणं 'पुच्छित्तए 'ति योगः 'इमाईच णं'ति प्राकृतत्वाद् 'इमान्' अनन्तरोक्तत्वेन | प्रत्यक्षासन्नान् चशब्दादन्यांश्च 'एयारूबाई'ति 'एतद्रूपान्' उक्तस्वरूपान्, अथवैतेषामेवानन्तरोकानामर्थानां रूपं येषां प्रष्टव्यतासाधर्म्यात्तत्तथा तान् 'अर्थान्' भावान् लोकसान्तत्वादींस्तदन्यांश्व 'हेऊ'ति अन्वयव्यतिरेकलक्षण हेतुगम्य| त्वाद्धेतवो- लोक सान्तत्वादय एव तदन्ये चातस्तान् 'पसिनाई'ति प्रश्नविषयत्वात् प्रश्ना एत एव तदन्ये वातस्तान् 'कारणाई' ति कारणम् - उपपत्तिमात्रं तद्विषयत्वात्कारणानि एत एव तदन्ये वाऽतस्तानि 'वागरणाई' ति व्याक्रियमा णत्वाद्व्याकरणानि एत एव सदन्ये वाऽतस्तानि 'पुच्छित्तए'ति प्रष्टुं 'तिकट्टु' इतिकृत्वाऽनेन कारणेन एवं संपेहेइ'त्ति 'एवम्' उक्तप्रकारं भगवद्वन्दनादिकरणमित्यर्थः 'संप्रेक्षते' पर्यालोचयति 'परिवायावसहे'त्ति परिब्राजकमठः 'कुण्डिका' कमण्डलु 'काशनिका' रुद्राक्षकृता 'करोटिका' मृद्भाजनविशेषः 'भृशिका' आसन विशेषः 'केशरिका' प्रमार्जनार्थ चीवरखण्ड 'पालक' त्रिकाष्ठिका 'अङ्कुश के' तरुपलवग्रहणार्थमङ्कुशाकृतिः 'पवित्रकम्' अङ्गुलीयकं 'गणेत्रिका' कलाचिकाssभरणविशेषः 'घाउरताओ'त्ति साटिका इति विशेषः, 'तिदंडे' त्यादि त्रिदण्डकादीनि दश हस्ते गतानि स्थितानि यस्य स तथा, 'पहारेत्थ'त्ति 'प्रधारितवान्' सङ्कल्पितवान् 'गमनाथ' गन्तुं । 'गोयमाइ ति गौतम इति एवमामध्येति शेषः, अथवाऽयीत्यामन्त्रणार्थमेव । 'से काहे व'त्ति अथ कदा वा ? कस्यां वेलायामित्यर्थः 'किह वत्ति केन वा प्रकारेण ? साक्षादर्शनतः श्रवणतो वा 'केवचिरेण वत्ति कियतो वा कालात् ?, 'सावस्थी नामं नयरी होत्यति विभक्तिपरि Education International स्कंदक (खंधक) चरित्र For Pernal Use Only ~244~ Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [११२] व्याख्या-जाणामादस्तीत्यर्थः, अथवा कालस्यावसर्पिणीत्वात्प्रसिद्धगुणा कालान्तर एवाभवन्नेदानीमिति । 'अदूराइगए'त्ति अदूरे २ शतके मज्ञप्तिः आगतः, स चावधिस्थानापेक्षयाऽपि स्यात् अथवा दूरतरमार्गापेक्षया[ग्रंथा० ३०००] कोशादिकमप्यदूरं स्यादत उच्यते स्कन्दकचअभयदेवी- बहुसंपत्ते'ईषदूनसंप्राप्तो बहुसंप्राप्तः, स च विश्रामादिहेतोरारामादिगतोऽपि स्यादत उच्यते-'अडाणपडिबन्नेत्ति | DNA वृत्ति शालीमार्गप्रतिपन्नः, किमुक्तं भवति ?-'अंतरापहे वइत्ति विवक्षितस्थानयोरन्तरालमार्गे वर्तत इति । अनेन च सूत्रेण || ॥११ कथं द्रक्ष्यामि ? इत्यस्योत्तरमुक्त, कथं ?, यतोऽदूरागतादिविशेषणस्य साक्षादेव दर्शनं संभवति, तथा 'अज्जेव || दच्छसि इत्यनेन कियच्चिरादित्यस्योत्तरमुक्तं, 'काहे इत्यस्य चोत्तरं सामर्थ्यगम्य, यतो यदि भगवता मध्याहसमये इयं | वार्ताऽभिहिता तदा मध्याहस्योपरि मुहूर्ताद्यतिक्रमणे या वेला भवति तस्यां द्रक्ष्यसीति सामथ्योदुक्तम् , अदूरागता-18 दिविशेषणस्य हि तद्देशप्राप्तौ मुहूर्तादिरेव कालः संभवति न बहुतर इति । 'अगाराओ'त्ति निष्क्रम्येतिशेषः 'अनगारितां' साधुतां 'प्रवजितुं' गन्तुम् , अथवा विभक्तिपरिणामादनगारितया 'प्रबजितुं प्रवज्यां प्रतिपत्तुम् 'अन्भुटेति'त्ति | आसनं त्यजति, यच्च भगवतो गौतमस्थासंयतं प्रत्यभ्युत्थानं तगाविसंयतत्वेन तस्य पक्षपातविषयत्वाद् गौतमस्य चाक्षी|णरागत्वात्, तथा भगवदाविष्कृततदीयविकल्पस्य तत्समीपगमनतस्तत्कथनादू भगवज्ज्ञानातिशयप्रकाशनेन भगवत्यतीव बहुमानोत्पादनस्य चिकीर्षितत्वादिति । 'हे खंदय'त्ति सम्बोधनमात्र 'सागयं खंदय'त्ति 'स्वागतं' शोभनमाग-1 ॥११॥ मनं तब स्कन्दक! महाकल्याणनिर्भगवतो महावीरस्य संपर्केण तव, कल्याणनिवन्धनत्वात्तस्य, 'सुसागर्य'ति अति| शयेन स्वागतं, कथञ्चिदेकार्थों वा शब्दावेती, एकार्थशब्दोच्चारणं च क्रियमाणं न दुष्ट, संभ्रमनिमित्तत्वादस्वेति, 'अणु-||* Hrwasaram.org सूत्रस्य क्रमांकने अत्र मुद्रण-दोष: सम्भाव्यते (यहाँ सूत्र-क्रम ९० ही चल रहा है मगर ९१ मुद्रित हुआ है ) स्कंदक (खंधक) चरित्र ~245 Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९०] दीप अनुक्रम [११२] रागयं खंदय !त्ति रेफस्यागमिकत्वाद् 'अन्वागतम्' अनुरूपमागमनं स्कन्दक ! तवेति दृश्य, 'सागयमणुरागर्य'ति शोभनत्वानुरूपत्वलक्षणधर्मद्वयोपेतं तवागमनमित्यर्थः, 'जेणेव इहति यस्यामेव दिशीदं भगवत्समवसरणं 'तेणेवत्ति तस्यामेव दिशि "अस्थे समत्थे त्ति अस्त्येषोऽर्थः?, 'अढे समडेत्ति पाठान्तरं, काका चेदमध्येयं, ततश्चार्थः किं 'समर्थः । सङ्गतः ? इति प्रश्नः स्यात्, उत्तरं तु 'हंता अधि' सद्भूतोऽयमर्थ इत्यर्थः । 'णाणी'त्यादि, अस्यायमभिप्रायः-ज्ञानी | ज्ञानसामर्थ्याजानाति तपस्वी च तपःसामाद्देवतासान्निध्याज्जानातीति प्रश्नः कृतः 'रहस्सकडे'त्ति रहाकृता-प्रच्छन्नका कृतो, हृदय एवावधारितत्वात्, गच्छामो णं गोयमा ! तव धम्मायरियं धम्मोवदेसयं समणं भगवं महावीरं वंदामो णमंसामो जाव 2 पजुवासामो, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध, तए णं से भगवं गोयमे खंदएणं कचायणस्सगोत्तेणं ||| सडि जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणयाए । तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे विय४ डभोतीयावि होत्या, तए णं समणस्स भगवओ महावीरस्स वियट्टभोगियस्स सरीरं ओरालं सिंगारं * कल्लाणं सिवं धणं मंगल्लं सस्सिरीयं अणलंकियविभूसियं लक्षणवंजणगुणोबवेयं सिरीए अतीव टू २ उपसोभमाणे चिट्ठद । तएणं से खंदए कच्चायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स विथट्टभोगिस्स सरीरं ओरालं जाच अतीव २ उवसोभेमाणं पासइ २त्ता हहतुहचित्तमाणदिए पीइमणे परमसोमणस्सिए हरिसवसविसप्पमाणहियए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता समणं भगवं स्कंदक (खंधक) चरित्र ~246~ Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१] दीप अनुक्रम [११२] व्याख्या- महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणप्पयाहिणं करेद जाव पजुवासइ । खंदयाति समणे भगवं महावीरे खंदयं २ शतक प्रज्ञप्तिः कच्चाय एवं वयासी-से नूणं तुम खंदया ! सावस्थीए नयरीए पिंगलएणं णियंठेणं वेसालियसावएण * उद्देशः१ अभयदेवी इणमक्खेवं पच्छिए मागहा। किं सते लोए अणते लोए एवं तं जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए, से स्कन्दकचया वृत्तिः१ नणं खंदया। अयमढे समडे?, हंता अस्थि, जेविय ते खंदया ! अयमेयारूवे अन्भत्थिए चिंतिए पथिए। ॥११७॥ मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्था-किं सते लोए अणंते लोए? तस्सविय णं अयमढे-एवं खलु मए खंदया चिबिहे लोए पन्नत्ते, तंजहा-दब्बओ खेत्तओ कालओ भावओ। दवओ एगे लोए सअंते ?, खेत्तओ णं लोए असंखेज्जाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविखंभेणं असंखेजाओ जोयणको-15|| डाकोडीओ परिक्खेवेणं प० अस्थि पुण सअंते २, कालओ णं लोए ण कयावि न आसी न कयावि न भवति | न कयाविन भविस्सति भविंसु य भवति य भविस्सइ य धुचे णितिए सासते अक्खए अव्वए अवडिए राणिये, णधि पुण से अंते ३, भावओ णं लोए अणंता वण्णपज्जवा गंध रस० फासपजवा अर्णता संठाणपज्जवा || अर्णता गरुयलहुयपजवा अर्णता अगरुयलहयपज्जवा, नस्थि पुण से अंते ४, सेत्तं खंदगा! दवओ लोए ससाअंते खेत्तओ लोए सअंते कालतो लोए अणंते भाषओ लोए अणते । जेविय ते खंदया! जाव सते || जीवे अणंते जीवे, तस्सवि य णं अयमढे-एवं खलु जाब दवओ णं एगे जीवे सते, खेत्तओ णं जीवे ॥ असंखेजपएसिए असंखेजपदेसोगादे अस्थि पुण से अंते, कालओ णं जीवे न कयाविन आसि जाव निचे-दा स्कंदक (खंधक) चरित्र ~247~ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१] दीप अनुक्रम [११२] नास्थि पुण से अंते, भावओ णं जीवे अणता णाणपज्जवा अर्णता दसणप० अणंता चरित्तप० अर्णता अगुरुलहुयप नत्थि पुण से अंते, सेत्तं दवओ जीवे सअंते खेत्तओ जीवे सअंते कालओ जीवे अणते भावओ जीवे अणते । जेवि य ते खंदया पुच्छा [ इमेयारूवे चिंतिए जाव सअंता सिद्धी अणंता सिद्धी, तस्सवि | यणं अयमढे खंदया!-मए एवं खलु चउविवहा सिद्धी पण्ण, तं०-दब्बओ४, दव्वओ णं एगा सिद्धी] ४ खेत्तओणं. सिद्धी पणयालीसं जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं एगा जोयणकोडी बायालीसं च* जोयणसयसहस्साई तीसं च जोयणसहस्साई दोन्नि य अउणापन्नजोयणसए किंचि विसेसाहिए परिक्खे-15 वेणं अस्थि पुण से अंते, कालओ णं सिही न कयाचि न आसि, भावओ य जहालोयस्स तहा भाणियव्वा, तस्थ व्बओ सिद्धी सअंता खे० सिही सअंता का सिद्धी अर्णता भावओ सिद्धी अणंता । जेवि य ते खंदया ! जाव किं अगते सिहे तं चेव जाव दवओ णं एगे सिद्धे सते, खे० सिद्धे असंखेजपएसिए असंखेजपदेसोगाडे, अस्थि पुण से अंते, कालओ णं सिहे सादीए अपज्जवसिए नत्थि पुण से अंते, भा० सिझे अर्णता णाणपज्जवा अणंता दूसणपज्जवा जाव अर्णता अगुरुलहुयप नस्थि पुण से अंते, सेत्तं व्व|ओ सिद्धे सभंते खेत्तओ सिद्धे सअंते का सिद्धे अणते भा० सिद्धे अणते । जेविय ते खंदया ! इमेयारवे 5 अभत्थिए चिंतिए जाव समुप्पजित्था-केण वा मरणेणं मरमाणे जीवे वहति वा हायति चा?, तस्सवि यद पण अयमढे एवं खलु खंदया!-मए दुविहे मरणे पण्णत्ते, तंजहा-बालमरणे य पंडियमरणे य, से किं तं बाल स्कंदक (खंधक) चरित्र ~248~ Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९१] ४ मरणे ?, २ दुवालसविहे प०, तं-वलयमरणे चसट्टमरणे अंतोसल्लमरणे तन्भवमरणे गिरिपडणे तरु- व्याख्या २ शतके प्रज्ञप्तिः पडणे जलप्पवेसे जलणप्प० विसभक्खणे सत्थोवाडणे वेहाणसे गिद्धपढे । इचेतेणं खंद्या ! दुवालसविहेणं || उद्दशः१ अभयदेवीपालमरणेणं मरमाणे जीवे अर्णतेहिं नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं संजोएइ तिरियमणुदेव० अणायं च णंदू स्कन्द्रकचया वृत्तिः१ ॥ अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियट्टइ, सेत्तं मरमाणे बहुइ २, सेत्तं बालमरणे । से किंत | रितं सू९१ पंडियमरणे, २ दुविहे प०, तं०-(०१०००) पाओवगमणे य भत्तपञ्चवखाणे य । से किं तं पाओवग॥११८॥ मणे ?, २ दुविहे प०, तं०-नीहारिमे य अनीहारिमे य नियमा अप्पडिकमे, सेत्तं पाओवगमणे । से कित ४ भत्तपचक्खाणे १,२ दुविहे पं०, तं०-नीहारिम य अनीहारिमे य, नियमा सपडिकमे, सेत्तं भत्तपचक्खाणे । इचेते खंया ! दुविहेणं पंडियमरणेणं मरमाणे जीवे अणंतेहिं नेरइयभवग्गहणेहि अप्पाणं विसंजोएइ8 जाव वीईवयति, सेतं मरमाणे हायइ, सेतं पंडियमरणे । इच्चेएणं खंया ! दुविहेणं मरणेणं मरमाणे जीवेल वहइ वा हायति वा ।। (सू०९१)। 'धम्मायरिए'त्ति कुत एतत् ? इत्याह-'धम्मोवएसए'त्ति, उत्सन्नज्ञानदर्शनधरो न तु सदा संशुद्धः, अह-|| द्वन्दनाद्यर्हत्वात्, जिनो रागादिजेतृत्वात् , केवली असहायज्ञानत्वात्, अत एवातीतप्रत्युत्पन्नानागतविज्ञायका, स च | दा॥११८॥ |देशज्ञोऽपि स्यादित्याह-सर्वज्ञः सर्वदशी, 'वियभोह'त्ति व्यावृत्ते २ सूर्ये भुझे इत्येवंशीलो व्यावृत्तभोजी | प्रतिदिनभोजीत्यर्थः, 'ओरालं'ति प्रधानं 'सिंगारंति शृङ्गार:-अलङ्कारादिकृता शोभा तद्योगात् शृङ्गारं, शृङ्गा दीप अनुक्रम [११२] For P OW स्कंदक (खंधक) चरित्र ~249~ Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: % - 5 प्रत सूत्रांक ) [९१] 2454 शारमिव मारमतिशयशोभावदित्यर्थः, 'कल्याण' श्रेयः 'शिवम्' अनुपद्रवमनुपद्रवहेतु 'धन्य धर्मधनलब्धृ तत्र वाद | साधु तद्वाऽर्हति 'मङ्गल्यं' मङ्गले-हितार्थप्रापके साधु माङ्गल्यम्, अलङ्कतं मुकुटादिभिर्विभूषितं-वस्त्रादिभिस्त निषेधा| दनलकृतविभूषितं, 'लक्खणबंजणगुणोववेयंति लक्षणं-मानोन्मानादि, तत्र मान-जलद्रोणमानता, जलभृतकुण्डिकायां हि मातव्यः पुरुषः प्रवेश्यते तत्प्रवेशे च यजलं ततो निस्सरति तद्यदि द्रोणमानं भवति तदाऽसौ मानोपेत उच्यते, उन्मानं त्वर्द्धभारमानता, मातव्यः पुरुषो हि तुलारोपितो यद्यर्द्धभारमानो भवति तदोन्मानोपेतोऽसावच्यते.IN प्रमाणं पुनः स्वाङ्गलेनाष्टोत्तरशताङ्कलोच्छ्यता, यदाह-"जलदोणमद्धभार समुहाइ समूसिओ उ जो नव उमाणुम्माणपमाणं तिविहं खलु लक्षणं एयं ॥१॥" व्यञ्जनं-मषतिलकादिकमथवा सहज लक्षणं पश्चार्य व्यञ्जनमिति, गुणा:सौभाग्यादयो लक्षणव्यञ्जनानां वा ये गुणास्तरुपपेतं यत्तत्तथा, उपअपइतम् इत्येतस्य स्थाने निरुक्तिवशादुपपेतं भवतीति, 'सिरीए'त्ति लक्ष्म्या शोभया वा ॥ ___ 'हतुडचित्तमाणदिए'त्ति हृष्टतुष्टमत्यर्थं तुष्टं दृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं च-सन्तोषवचित्त-मनो यत्र तत्तथा, तद् दृष्टतुष्टचित्तं यथा भवति एवम् 'आनन्दितः' ईपन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगतः, ततश्च 'नंदिए'त्ति नन्दितस्तैरेव समृद्धतरतामुपगतः 'पीइमणे'त्ति प्रीतिः-श्रीणनमाप्यायनं मनसि यस्य स तथा 'परमसोमणस्सिए'त्ति परमं सौमनस्यसुमनस्कता संजातं यस्य स परमसौमनस्थितस्तद्वाऽस्यास्तीति परमसौमनस्थिकः 'हरिसवसविसप्पमाणहियए'त्ति हर्ष १-जलद्रोणो मानमर्द्धभार उन्मान स्वमुखानि नव समुच्छ्रितस्तु मानोन्मानप्रमाणानि एतत्रिविधं लक्षणम् ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [११२] स्कंदक (खंधक) चरित्र ~250~ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: मज्ञप्तिः । प्रत सूत्रांक [९१] दीप अनुक्रम [११२] व्याख्या- वशेन विसर्पद्-विस्तारं व्रजद् हृदयं यस्य स तथा, एकाधिकानि वैतानि प्रमोदप्रकर्षप्रतिपादनार्थानीति । 'दव्यओ २ शतके । एगे लोए सअंतेत्ति पञ्चास्तिकायमयैकद्रव्यत्वाल्लोकस्य सान्तोऽसौ, 'आयामविक्खंभेणं'ति आयामो-दय विष्क- उद्देशः१ अभयदेवी म्भो-विस्तारः 'परिक्खेवेणं'ति परिधिना 'भुर्विसु यत्ति अभवत् इत्यादिभिश्च पदैः पूर्वोतपदानामेव तात्पर्यमुक्त, स्कन्दकचया वृत्तिः१४ | 'धुचि ध्रुवोऽचलत्वात् स चानियतरूपोऽपि स्यादत आह-णियए'त्ति नियत एकस्वरूपत्वात् , नियतरूपः कादाचि. रितं सू९१ ॥११॥ कोऽपि स्थादत आह-सासए'त्ति शाश्वतः प्रतिक्षणं सद्भावात् , स च नियतकालापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-'अ. क्खए'त्ति अक्षयोऽविनाशित्वात, अयं च बहतरप्रदेशापेक्षयाऽपि स्यादित्यत आह-'अव्वए'त्ति अव्ययस्तत्प्रदेशानाम-15 व्ययत्वात् , अयं च द्रव्यतयाऽपि स्यादित्याह-'अवट्टिए'त्ति अवस्थितः पर्यायाणामनन्ततयाऽवस्थितत्वात् , किमुक्तं भवति ?-नित्य इति, 'वष्णपज्जवत्ति वर्णविशेषा एकगुणकालत्वादयः, एवमन्येऽपि गुरुलघुपर्यवास्तद्विशेषा बादरस्कन्धानाम्, अगुरुलघुपर्यवा अणूनां सूक्ष्मस्कन्धानाममूर्तानांच, नाणपज्जवत्ति ज्ञानपर्याया ज्ञानविशेषा बुद्धिकृता वाsविभागपरिच्छेदार, अनन्ता गुरुलघुपर्याया औदारिकादिशरीराण्याश्रित्य, इतरे तु कार्मेणादिद्रव्याणि जीवस्वरूपं चाश्रित्येति । 'जेवि य ते खंदया पुच्छत्ति अनेन समनं सिद्धिप्रश्नसूत्रमुपलक्षणत्वाचोत्तरसूत्रांशश्च सूचितः, तच्च य-का मप्येवम्-'जेवि य ते खंदया इमेयारूवे जाव कि सअंता सिद्धी अर्णता सिद्धी तस्सवि य णं अयमहे, एवं खलु मए | ॥११॥ खंदया! चउबिहा सिद्धी पण्णत्ता, तंजहा-दबओ खेत्तओ कालओ भावओत्ति, दबओणं एगा सिद्धि'त्ति, इह सिद्धिर्य४द्यपि परमार्थतः सकलकर्मक्षयरूपा सिद्धाधाराऽऽकाशदेशरूपा वा तथाऽपि सिद्धाधाराकाशदेशप्रत्यासन्नत्वेनेषत्माग्भारा 355453 IKnorammaru स्कंदक (खंधक) चरित्र ~251~ Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [९१] % A पृथिवी सिद्धिरुका, 'किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं'ति किश्चिन्यूनगव्यूतद्वयाधिके वे योजनशते एकोनपश्चाशदुत्तरे भवत इति। 'चलयमरणे'त्ति बलतो-बुभुक्षापरिगतत्वेन बलवलायमानस्य-संयमाद्वाभ्रस्यतो (यत)मरणं तद्वलन्मरण, तथा वशेन-इन्द्रियवशेन ऋतस्य-पीडितस्य दीपकलिकारूपाक्षिप्तचक्षुषः शलभस्पेव यन्मरणं तद्वशार्तमरणं, तथाऽन्तःशल्यस्य द्रव्यतोऽनुततोमरादेः भावतः सातिचारस्य यन्मरणं तदन्तःशल्यमरणं, तथा तस्मै भवाय मनुष्यादेः सतो मनुप्यादावेव बद्धायुषो यन्मरणं तत्तद्भवमरणम् , इदं च नरतिरश्वामेवेति, 'सत्धोवाडणे'त्ति शस्त्रेण-क्षुरिकादिना अवपाटन-विदारणं देहस्य यस्मिन् मरणे तच्छखावपाटनं, 'वहाणसे'त्ति विहायसि-आकाशे भवं वृक्षशाखाद्युद्वन्धनेन यत्तन्निरुक्तिवशाबैहानसं, 'गिद्धपट्टे'त्ति गृधैः-पक्षिविशेपैदे॒वा-मांसलुब्धैः शृगालादिभिः स्पृष्टस्य-विदारितस्य करिकरभरासभादिशरीरान्तर्गतत्वेन यन्मरणं तद्धस्पृष्टं वा गृद्धस्पृष्टं वा गृधैर्वा भक्षितस्य-स्पृष्टस्य यत्तद्धस्पृष्टम् । 'दुवालसविहेणं बालमरणेण ति उपलक्षणत्वादस्यान्येनापि बालमरणान्तःपातिना मरणेन नियमाण इति 'बहुइ बहुइ'त्ति | संसारवर्द्धनेन भृशं वर्द्धते जीवः, इदं हि द्विवचनं भृशाथै इति। पाओवगमणेत्ति पादपस्येवोपगमनम्-अस्पन्दतयाऽवस्थान पादपोपगमनम् , इदं च चतुर्विधाहारपरिहारनिष्पन्नमेव भवतीति ।'नीहारिमेय'त्ति निहारेण निर्वृत्तं यत्तनिहारिमं। प्रतिश्श्रये यो नियते तस्यैतत् , तत्कडेवरस्य निरिणात् , अनिहरिमं तु योऽटव्यां बियते इति । यच्चान्यनेह स्थाने इङ्गि४|| तमरणमभिधीयते तद्भकप्रत्याख्यानस्यैव विशेष इति नेह भेदेन दर्शितमिति । एत्य णं से खदए कच्चायणस्स गोत्ते संबुद्धे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ एवं वदासी-इच्छामि दीप अनुक्रम [११२] - -- - 4 -- + awraturasurary.com स्कंदक (खंधक) चरित्र ~252~ Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९२] मुनि दीप रत्नसागरेण संकलित..........आगमसूत्र - [०५], अंग सूत्र - [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] दीप अनुक्रम [११३] ॥भंते । तुभ अंतिए केवलिपनत्तं धम्म निसामेत्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध । तए णं समणे || २ शतक प्रज्ञप्तिः भगवं महावीरे खंदयस्स कचायणस्सगोत्तस्स तीसे य महतिमहालियाए परिसाए धम्म परिकहेइ, धम्म-8 उद्देशः १ अभयदेवी कहा भाणियब्धा । तए णं से खंदए कचायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्म सोचा यावृत्तिः१ रितं सू९१ निसम्म हहुतुढे जाव हियए उट्ठाए उठेइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ ॥१२॥ है एवं वदासी-सदहामिण भंते ! निग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं भंते ! निग्गंध पावयणं, रोएमि | |भंते ! निग्गंध पावयां, अन्भुट्ठमि णं भंते ! निग्गंधं पा०, एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते । असंदिद्धमेयं भंते ! इच्छियमेयं भंते ! पडिच्छियमेयं भंते ! इच्छियपहिच्छियमेयं भंते! से जहेयं तुन्भे बद-12 हत्तिक? समणं भगवं महावीरं चंदति नमंसति २ उत्तरपुरच्छिम दिसीभायं अवकमइ २ तिदंडं च कुंडियं ४ |च जाव घाउरसाओ य एगते एडेइ २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद २ समणं भगवंट महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ करेइत्ता जाव नमंसित्ता एवं वदासी-आलित्ते णं भंते! लोए पलिते णं भलो. आ. प. भं० लो जरामरणेण य, से जहानामए केइ गाहावती आगारंसि ॥२०॥ | झियायमाणसिजे से तत्थ भंडे भवइ अप्पसारे मोल्लगरूए तंगहाय आयाए एगंतमंतं अवकमइत्ति, एस ||मे निस्थारिए समाणे पच्छा पुरा हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्साए भविस्सइ, एवामेव देवाणुपिया ! मज्झवि आया एगे भंडे इढे कंते पिए मणुन्ने मणामे घेजे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए ...अब मूल-संपादने एक सामान्य मुद्रण-दोष: दृश्यते (यहाँ दायीं तरफ ऊपर सू ९१ लिखा है, वहां सू ९२ होना चाहिए, क्योंकि सूत्र के आखिर में ९२ ही लिखा है, मूल सम्पादनमें यह भूल का कारण है---सूत्र ९० को दो भागोमे बांटना, ऐसे दो भाग “आगममञ्जूषा" में भी नहीं है) स्कंदक (खंधक) चरित्र ~253 Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [११३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः भंडकरंडगसमाणे मा णं सीपं मा णं उन्हं मा णं खुहा मा णं पिवासा मा णं चोरा मा णं वाला मा णं दंसा मा णं मसगा मा णं वाइयपित्तियसंभियसंनिवाइयविविहा रोगायका परीसहोवसग्गा फुसंतुतिकट्टु एस मे नित्थारिए समाणे परलोयस्स हियाए सुहाए समाए नीसेसाए अणुगामियत्ताए भविस्सह, तं इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! सयमेव मुंडावियं सयमेव सेहावियं सयमेव सिक्वावियं सयमेव आयारगोयरं | विणयवेणइय चरणकरणजायामायावत्तियं धम्ममाइक्खिअं । तए णं समणे भगवं महावीरे खंदयं कथायणस्सगोतं सयमेव पव्वावेह जाव धम्ममातिक्खर, एवं देवाणुप्पिया ! गंतव्वं एवं चिट्ठियव्वं एवं निसीतियध्वं एवं तुयहियव्वं एवं भुंजियव्वं एवं भासिपव्वं एवं उट्ठाए पाणेहिं भूपहिं जीवेहिं सप्तेहिं संजमेणं संजमियचं, असि च णं अट्ठे णो किंविवि पमाहयच्वं । तए णं से खंदए कच्चायणस्सगोत्ते समणस्स भगवओ महावीरस्स इमं एथारूवं धम्मियं उचएसं सम्मं संपविजति तमाणाए सह गच्छइ तह चिट्ठा तह निसीयति तह तुग्रहइ तह भुंजइ तह भासह तह उठाए २ पाणेहिं भूएहिं जीवेहिं सत्तेहिं संजमेणं संजमियव्यमिति, अस्सि च णं अड्डे णो पमायह। तए णं से खंदए कच्चाय० अणगारे जाते ईरियासमिए भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिए उच्चारपासवणखेलसिंघाणजल्ल पारिहाणियासमिए मणसमिए वयसमिए कायसमिए मणगुते बहमुत्ते कायगुले गुत्ते गुतिदिए गुत्तबंभयारी चाई लबू घण्णे Education Internation स्कंदक (खंधक) चरित्र For Parks Use Only ~254~ Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] सू९२ व्याख्या- खंतिखमे जिइंदिए सोहिए अणियाणे अप्पुस्मुए अवहिल्लेस्से सुसामण्णरए दंते इणमेव पिग्गं पावयणं 8/२ शतके प्रज्ञप्तिः पुरओ काउंविहरइ।। (सू०९२)॥ | उद्देशः१ अभयदेवी- 'धम्मकहा भाणियबत्ति, सा चैवम्-"जह जीवा बझंती मुच्चती जह य संकिलिस्संती । जह दुक्खाणं अंत स्कन्दकया वृत्तिः१ कोरिया करेंति केई अपडिबद्धा ॥१॥ अनियट्टियचित्ता जह जीवा दुक्खसागरमुवेति । जह वेरग्गमुवगया कम्मसमुर्ग बिहा-18 दीक्षाशिक्षे ॥१२शा डिति ।। २॥" इत्यादि, इह च 'अनियट्टियचित्ता' आतै निर्मितं चित्ते यैस्ते तथा, आ द्वानिवर्तितं चिर्त यैस्ते | आर्तनिवर्तितचित्ताः । 'सदहामिति निर्गन्धं प्रवचनमस्तीति प्रतिपद्ये 'पत्तियामिसि प्रीतिं प्रत्ययं वा सत्यमिदमित्येवं-|| | रूपं तत्र करोमीत्यर्थः 'रोएमिति चिकीर्षामीत्यर्थः 'अन्डेमिति एतदङ्गीकरोमीत्यर्थः । अथ श्रद्धानाद्युल्लेखं दर्श-|| |यति-एवमेतIन्धं प्रवचनं सामान्यतः, अथ यथतयं वदति योगः। 'तहमेय'ति तथैव तद्विशेषतः 'अवितह-|| मेयं सत्यमेतदित्यर्थः 'असंदिदमयंति सन्देहवर्जितमेतत् 'इच्छियमेयंति इष्टमेतत् 'पडिच्छियमेय'ति प्रतीप्सितं | का प्राप्नुमिष्टम् 'इच्छियपडिच्छिय'ति युगपदिच्छापतीप्साविषयत्वात् 'तिकत्ति इतिकृत्वेति, अथवा 'एवमेयं भतेर ट्रा इत्यादीनि पदानि यथायोगमेकार्थान्यत्यादरप्रदर्शनायोक्तानि । 'आलित्तेति अभिविधिना ज्वलितः 'लोए'त्ति जीव-|||॥ १२१॥ लोकः 'पलिते 'ति प्रकर्षेण ज्वलितः एवंविधश्चासौ कालभेदेनापि स्यादत उच्यते-आदीसप्रदीप्त इति, 'जराए मर' | १-यथा जीवा वध्यन्ते मुच्यन्ते प संक्तिश्यन्ते यथा च केचिदप्रतिबद्धा दुःखानामन्तं कुर्वन्ति ॥१॥ आर्चनिवर्तितचिचा यथा। जीवा दुःखसागर(संसार)मुपयान्ति । यथा च वैराग्यमुपगताः कर्मसमुद्गमुद्घाटयन्ति ॥२॥ APER RASRAM दीप अनुक्रम [११३] * * स्कंदक (खंधक) चरित्र ~255~ Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२] दीप अनुक्रम [११३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः णेण यत्ति इह वहिनेति वाक्यशेषो दृश्यः 'शियायमाणंसि' त्ति ध्यायमाने ध्यायति वा दह्यमान इत्यर्थः, 'अप्पसारे'ति अल्पं च तत्सारं चेत्यल्पसारम् 'आयाए'ति आत्मना एकान्तं - विजनम् अन्तं-भूभागं 'पच्छा पुरा यत्ति विवक्षितकालस्य पश्चात् पूर्व च सर्वदैवेत्यर्थः 'येज्जे 'त्ति स्थैर्यधर्मयोगात् स्थैर्यो वैश्वासिको विश्वासप्रयोजनत्वात् संमतस्तस्कृतकार्याणां संमतत्वात् 'बहुमतः ' बहुशो बहुभ्यो वाऽन्येभ्यः सकाशाद्बहुरिति वा मतो बहुमतः 'अनुमतः' अनु| विप्रियकरणस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः 'भंडकरंडगसमाणे ति भाण्डकरण्डकम् - आभरणभाजनं तत्समान आदेयस्वादिति । 'माणं सीत' मित्यादी माशब्दो निषेधार्थः णमिति वाक्यालङ्कारार्थः, इह च स्पृशत्विति यथायोगं योजनीयम्, अथवा मा एनमात्मानमिति व्याख्येयं, 'वाल'ति व्यालाः श्वापदभुजगाः 'माणं वाइयपित्तियसंभियसन्नि| वाइय'ति इह प्रथमाबहुवचनलोपो दृश्यः 'रोगायंक'त्ति रोगाः- कालसहा व्याधयः आतङ्कास्त एव सद्यो घातिनः 'परसहोवसग्ग'ति अस्य मा णमित्यनेन सम्बन्धः 'स्पृशन्तु' छुपन्तु भवन्त्वित्यर्थः 'त्तिकद्दु' इत्यभिसन्धाय यः पालित | इति शेषः, स किम् ? इत्याह- 'तं इच्छामि'त्ति तत्तस्मादिच्छामि 'सयमेव त्ति स्वयमेव भगवतैवेत्यर्थः प्रब्राजितं | रजोहरणादिवेषदानेनात्मानमिति गम्यते, भावे वा कप्रत्ययस्तेन प्रत्राजनमित्यर्थः, मुण्डितं शिरोलुञ्चनेन 'सेहावियं 'ति सेहितं प्रत्युपेक्षणादिक्रियाकलापग्राहणतः शिक्षितं सूत्रार्थग्राहणतः तथाऽऽचारः - श्रुतज्ञानादिविषय मनुष्ठानं काला|ध्ययनादि गोचरो- भिक्षाटनम् एतयोः समाहारद्वन्द्वस्ततस्तदाख्यातमिच्छामीति योगः, तथा विनयः प्रतीतो वैनयिकतत्फलं कर्मक्षयादि धरणं-त्रतादि करणं-पिण्डविशुद्धयादि यात्रा - संयमयात्रा मात्रा तदर्थमेवाहारमात्रा, ततो विनया Education Internation स्कंदक (खंधक) चरित्र For Parts Only ~256~ Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: MOI प्रत सूत्रांक [१२] सू९२ दीप अनुक्रम [११३] व्याख्या-दादानाबा दीनां द्वन्द्वः, ततश्च विनयादीनां वृत्तिः-वर्त्तनं यत्रासौ विनयबैनयिकचरणकरणयात्रामात्रावृत्तिकोऽतसं धर्मम् 'आ २ शतके प्रज्ञप्तिः ख्यातम्' अभिहितमिच्छामीति योगः। 'एवं देवाणुप्पिया! गंतब्बति युगमात्रभून्यस्तदृष्टिनेत्यर्थः 'एवं चिट्ठि उद्देशः१ अभयदेवी- यच्छति निष्कमणप्रवेशादिवर्जिते स्थाने संयमात्मप्रवचनबाधापरिहारेणोलस्थानेन स्थातव्यम् , 'एवं निसीइयव्यंति, स्कन्दकया वृत्तिः १ || निषि (पीदि ) तन्यम्' उपवेष्टव्य संदंशकभूमिप्रमार्जनादिन्यायेनेत्यर्थः ‘एवं तुयट्टिय'ति शयितव्यं सामायिको दीक्षाशिक्षे ॥१२२॥ाभार चारणादिपूर्वकम् 'एवं भुंजियव्वं'ति धूमाङ्गारादिदोषवर्जनतः 'एवं भासिय'ति मधुरादिविशेषणोपपतयेति ॥ एवमुत्थायोत्थाव' प्रमादनिद्राव्यपोहेन विबुख्य २ प्राणादिषु विषये यः संयमो-रक्षा तेन संयंतथ्य-यतितव्यं 'तमा-18 &णाए'त्ति 'तद्' अनन्तरम् 'प्राज्ञया' आदेशेन 'ईरियासमिए'त्ति ईर्यायांामने समितः, सम्यक्पवृत्तस्वरूपं हि समि| सत्यम्, 'आयाणभंडमत्सनिक्खेवणासमिए'त्ति आदानेन-ग्रहणेन सह भाण्डमात्राया-उपकरणपरिच्छदस्य या निक्षे|पणा-ग्यासस्तस्यां समितो यः स तथा 'उच्चारे'त्यादि, इह च 'खेल'त्ति कण्ठमुखश्लेष्मा सिङ्घानकं च नासिकाश्लेष्मा, 'मणसमिए'त्ति संगतमनःप्रवृत्तिकः 'मणगुस्से'त्ति मनोनिरोधवान् 'गुत्तेत्ति मनोगुप्तत्वादीनां निगमनम् , एतदेव |विशेषणायाह-'गुसिदिए'त्ति 'गुत्तबंभयारी ति गुप्त-ब्रह्मगुप्तियुक्तं ब्रह्म चरति यः स तथा 'चाइ'त्ति सङ्गत्यागवान् 'लजु'त्ति संयमवान् रजुरिव वा रजु:-अवक्रव्यवहारः 'धन्नेत्ति धन्यो-धर्मधनलब्धेत्यर्थः 'खंतिखमे'त्ति क्षान्त्या है क्षमते न त्वसमर्थतया योऽसौ शान्तिक्षमः 'जितेन्द्रियः' इन्द्रियविकाराभावात् , यच्च प्राग्गुप्तेन्द्रिय इत्युकं तदिन्द्रिय- १२२॥ विकारगोपनमात्रेणापि स्यादिति विशेषः 'सोहिए'ति शोभितः शोभावान शोधितो वा निराकृतातिचारत्वात , सौहृद-10 स्कंदक (खंधक) चरित्र ~257~ Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२] &| मैत्री सर्वप्राणिषु तद्योगात्सौहदो वा 'अणिपाणेत्ति प्रार्थनारहितः 'अप्पुस्सुए'त्ति 'अल्पीत्सुक्यः' वरारहितः-1|| 'अपहिल्लेस्से'त्ति अविद्यमाना बहि:-संयमादहिस्तालेश्या-मनोवृत्तिर्यस्यासावबहिर्लेश्यः 'सुसामन्नरपंत्ति शोभने श्रमणत्वे रतोऽतिशयेन वा श्रामण्ये रतः 'दंते'त्ति दान्तः क्रोधादिदमनात् द्रवन्तो वा रागद्वेषयोरन्तार्थ प्रवृत्तत्वात् 'इण-12 मेव'ति इदमेव प्रत्यक्षं 'पुरो काउंति अग्रे विधाय मार्गानभिज्ञो मार्गजनरमित्र पुरस्कृत्य वा-प्रधानीकृत्य 'विहरति आस्ते इति । तए णं समणे भगवं महावीरे कथंगलाओ नयरीओ छत्सपलासयाओ चेहयाओ पहिनिक्खमा २ बहिट्रया जणषयविहारं विहरति । तए णं से खंदए अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स तहारुवाणं घेराण || है अंतिए सामाइयमाझ्या एकारस अंगाई अहिज्जइ, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छह २स-16 जमणं भगवं महावीरं वंदह नमंसह २ एवं वयासी-इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अम्भणुण्णाए समाणे मासिलायं भिक्खुपडिमं उपसंपज्जित्ता णं विहरिसए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मापडिबंध । तए णं से खंदए अण-| || गारे समणेणं भगवया महावीरेणं अम्भणुण्णाए समाणे हढे जाव नमंसित्ता मासियं भिक्खुपडिम उवसंपज्जित्ता णं विहरह, तए णं से खंदए अणगारे मासियभिक्खुपडिमं अहासुतं अहाकप्पं अहामग्गं अहातवं महासम्म कारण फासेति पालेति सोभेति तीरेति पूरेति किट्टेति अणुपालेह आणाए आराहेह संमं कारण फासित्ता जाच आराहेसा जेणेच समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद २ समणं भगवं जाव नम दीप अनुक्रम [११३] - 962 स्कंदक (खंधक) चरित्र ~258~ Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] दीप अनुक्रम [११४] व्याख्या-1 सित्ता एवं वयासी-इच्छामिण भंते ! तुम्भेहिं अन्भणण्णाए समाणे दोमासिपं भिक्खुपडिमं उपसंपजि-1|| २ शतके प्रज्ञप्तिः ताणं विहरित्तए अहासुहं देवाणुप्पिया!मा पडिबंध, तं चेव, एवं तेमासियं चाउम्मासियं पंचछसत्तमा०, उद्देशः १ अभयदेवी पदम सत्तराईदियं दोचं सत्तराईदियं तवं सत्तरातिदियं अहोरातिदियं एगरा०, तए णं से खंदए स्कन्दकस्य या वृत्तिः अणगारे एगराइंदियं भिक्खुपडिमं अहामुत्तं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे० तेणेच उवागच्छति २ समणं | प्रतिमादिः सू९३ ॥१२३॥ भगवं म० जाव नमंसित्ता एवं वदासी-इच्छामि णं भंते ! तुन्भेहिं अब्भणुण्णाए समाणे गुणरयणसंवच्छर || तबोकम्म उवसंपज्जित्ता णं विहरित्तए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं । तए णं से खंदए अणगारे समणणं भगवया महावीरेणं अन्भणुण्णाए समाणे जाव नमंसित्ता गुणरयणसंवच्छरं तवोकम्मं उवसंपज्जित्ता गं विहरति, तं०-पढ़म मास चजत्थंचउत्थेण अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुकडए सूराभिमुहे आया-|| ४ावणभूमीए आयावेमाणे रसिं वीरासणेणं अवाउडेण य । एवं दोचं मासं छड्ढण्टेणं एवं तचं मासं अट्ठम-1 अट्ठमेणं चउत्थं मासं दसमंदसमेणं पंचमं मासं बारसमंवारसमेणं छ? मासं चोदसमंचोइसमेणं सत्तमं| |मासं सोलसमं २ अवमं मासं अट्ठारसमं २ नवमं मासं वीसतिम २ दसमं मासं बाबीसं २ एकारसमं मासं चउन्वीसतिम २ बारसमं मासं छब्बीसतिमं तेरसमं मासं अद्राचीसतिम २ चोदसमं मासं तीसइम || ॥१२३।। पन्नरसममासंबत्तीसतिमरसोलसमं मासं चोत्तीसइमर अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं दिया ठाणुफुहुए सूराभिमुहे आयावणभूमीए आयावेमाणे रसिं बीरासणेणं अवाउडेणं, तए णं से खंदए अणगारे गुणरयणसंवच्छरं AAKAARAKARANG स्कंदक (खंधक) चरित्र ~259~ Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३] तवोकम्मं अहामुत्तं अहाकप्पं जाव आराहेत्ता जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं | भगवं महावीरं वंदह नमसइ २ बहहिं चउत्थछहमदसमदुवालसेहिं मासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तए णं से खंदए अणगारे तेणं ओरालेणं विउलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं कल्लाणेणं सिवेणं धन्नेणं मंगल्लेणं सस्सिरीएणं उदग्गेणं उदत्तेणं उत्तमेणं उदारेणं महाणुभागेणं तवोx|| कम्मेणं सुके लुक्खे निम्मंसे अट्टियम्मावणद्धे किडिकिडियाभूए किसे धमणिसंतए जाते यावि होत्या. जीवं-1 लाजीवेण गच्छह जीवंजीवेण चिट्ठ भासं भासित्तावि गिलाइ भासं भासमाणे गिलाति भासं भासि-15 सामीति गिलायति, से जहा नामए-कट्ठसगडिया इ वा पत्तसगडिया इ वा पत्सतिलभंडगसगडिया इ वा ४ एरंडकट्ठसगडिया इ वा इंगालसगडिया इ वा उण्हे दिण्णा सुका समाणी ससई गच्छह ससई चिट्ठइ एवा& मेव खंदएवि अणगारे ससई गच्छद ससई चिट्ठइ उवचिते तवेणं अवचिए मंससोणिएणं हुयासणेविव भासकारासिपडिच्छन्ने तवेणं तेएण तवतेयसिरीए अतीव २ उवसोभेमाणे २ चिट्ठइ ॥ (म०९३)॥ 3 'एक्कारसअंगाई अहिज्जइ'त्ति इह कश्चिदाह-नम्वनेन स्कन्दकचरितात्मागेवैकादशाङ्गनिष्पत्तिरवसीयते, पञ्चमाBानान्तर्भूतं च स्कन्दकचरितमिदमुपलभ्यते इति कथं न विरोधः !, उच्यते. श्रीमन्महावीरतीर्थे किल नव वाचनाः, तत्र || च सर्ववाचनासु स्कन्दकचरितात्पूर्वकाले ये स्कन्दकचरिताभिधेया अर्थास्ते चरितान्तरद्वारेण प्रज्ञाप्यन्ते, स्कन्दकचरितोत्पत्तौ च सुधर्मस्वामिना जम्बूनामानं स्वशिष्यमङ्गीकृत्याधिकृतवाचनायामस्यां स्कन्धकचरितमेवाश्रित्य तदर्थप्ररूपणा दीप अनुक्रम [११४] MROSCOCUSTOR स्कंदक (खंधक) चरित्र ~260~ Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] व्याख्या कृतेति न विरोधा, अथवा सातिशायित्वाद्गणधराणामनागतकालभाविचरितनिवन्धनमदुष्टमिति, भाविशिष्यसन्ताना- २ शतके 'प्रज्ञप्तिःला पेक्षयाऽतीतकालनिर्देशोऽपि न दुष्ट इति । 'मासिय'ति मासपरिमाणां 'भिक्खुपडिमति भिलचितमभिग्रहविशेषम्, उद्दश:१ अभयदेवी- एतत्स्वरूपं च-गच्छा विणिक्खमित्ता पडिवजइ मासियं महापडिमा दत्तेगभोयणस्सा पाणस्सवि एग जा मास ॥शाल स्कन्दकस्य या वृत्तिः ||४| इत्यादि । नन्वयमेकादशाङ्गधारी पठितः, प्रतिमाश्च विशिष्टश्रुतवानेव करोति, यदाह-“गच्छे चिय णिम्माओ जाया प्रतिमादि। ॥१२॥ & पुषा दस भवे असंपुण्णा । नवमरस तइयवस्थू होइ जहण्णो सुयाहिगमो ॥१॥" इति कथं न विरोधः, उच्यते, पुरु-IXसूर पान्तरविषयोऽयं श्रुतनियमः तस्य तु सर्वविदुपदेशेन प्रवृत्तत्वान्न दोष इति । 'अहामुत्त'ति सामान्यसूत्रानतिक्रमेण| 'अहाकप्पति प्रतिमाकल्पानतिक्रमेण तत्कल्पवस्त्वनतिक्रमेण वा 'अहामग्गंति ज्ञानादिमोक्षमार्गानतिक्रमेण क्षायोपशमिकभावानतिक्रमेण वा 'अहातचंति यथातत्त्वं तत्त्वानतिक्रमेण मासिकी भिक्षुप्रतिमेति शब्दार्थानतिलहनेनेत्यर्थः 'अहासम्म ति यथासाम्यं समभावानतिक्रमेण 'काएणं'ति न मनोरथमात्रेण 'फासेइ'त्ति उचितकाले विधिना ग्रहणात् 'पालेइ'त्ति असकृदुपयोगेन प्रतिजागरणात् 'सोहेइ'त्ति शोभयति पारणकदिने गुर्वादिदत्तशेषभोजनकरणात शोधयति वाऽतिचारपङ्कक्षालनात् 'तीरेइ'त्ति पूर्णेऽपि तदवी स्तोककालावस्थानात् 'पूरेहति पूर्णेऽपि तदवधौ तत्क-1 ॥१२॥ दीप अनुक्रम [११४] | १-गच्छाद्विनिष्कम्य मासिकी महाप्रतिमा प्रतिपद्यते एका दत्तिभोजनस्व एका पानस्यापि मास यावत् ॥ १॥२-च्छ एव निर्मातो यावदसंपूर्णानि पूर्वाणि दश भवेयुः । जघन्यः श्रुताभिगमो नवमस्य तृतीयवस्तु यावद्भवति ॥ १ ॥ स्कंदक (खंधक) चरित्र ~261 Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] स्वपरिमाणपूरणात् , 'किइ'त्ति कीर्त्तयति पारणकदिने इदं चेदं चैतस्याः कृत्यं तच्च मया कृतमित्येवं कीर्तनात् 'अणु|पाले 'त्ति तत्समाप्तौ तदनुमोदनात्, किमुक्तं भवति ? इत्याह-आज्ञयाऽऽराधयतीति एवमेताः सप्त सप्तमासान्ताः, ततोऽष्टमी प्रथमा सप्तरानिन्दिया-सप्ताहोरात्रमानाः एवं नवमी दशमी चेति, एतास्तिस्रोऽपि चतुर्थभक्तनापानकेनेति, उत्तानकादिस्थानकृतस्तु विशेषः, 'राइंदिय'त्ति रात्रिन्दिवा, एकादशी अहोरात्रपरिमाणा, इयं च पष्ठभक्केन, 'एगराइय'त्ति एकरात्रिकी, इयं चाष्टमेन भवतीति । 'गुणरयणसंवच्छति गुणानां -निर्जराविशेषाणां रचन-करणं संवत्सरेण-सत्रिभागवर्षेण यस्मिंस्तपसि तद् गुणरचनसंवत्सरं, गुणा एव वा रक्षानि यत्र स तथा गुणरतः संवत्सरो यत्र तद्दुणरत्नसंवत्सरं-तपः, इह च त्रयोदश मासाः सप्तदशदिनाधिकास्तपःकालः, त्रिसप्ततिश्च दिनानि पारणककाल इति, एवं पायम्-"पण्णरसबीसचउबीस चेव चउवीस पण्णवीसा य । चउबीस एकवीसा चउवीसा सत्तवीसा य ॥१॥तीसा तेत्तीसाविय चउबीस छवीस अछवीसा य । तीसा बत्तीसावि य सोलसमासेसु तवदिवसा ॥२॥ पण्णरसदसहकप्पंचचउर | पंचसु य तिण्णि तिण्णित्ति । पंचसु दो दो य तहा सोलसमासेसु पारणगा ॥३॥" दीप अनुक्रम [११४] १-पश्चदश विंशतिश्चतविशतिवैव चतुर्विंशतिः पञ्चविंशतिश्च । चतुविशतिरेकविंशतिश्चतुर्विंशतिः सप्तविंशतिश्च ॥ १॥ त्रिंशत्रयख्रिशदपि च चतुर्विशतिः पषिचतिरष्टविंशतिष । त्रिशद्वात्रिंशदपि च पोडशमासेषु तपोदिवसाः॥२॥ पथदश दशाट पद पच | चत्वारः अयक्षयश्च पचास । पञ्चसु द्वौ द्वौ च तथा पोडशमासे पारणकदिवसाः ॥३॥ SAREauratonintamational स्कंदक (खंधक) चरित्र ~262~ Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रज्ञष्ठिः अभयदेवीयावृत्तिः २ २०१० प्रत सूत्रांक [९३] ॥१२५॥ BHAR दीप अनुक्रम [११४] गुण असंवत्सर । इह च यत्र मासेऽष्टमादितपसो यावन्ति दिनानि न पूर्यन्ते तावन्त्यप्रेतनमासादाकृष्य पूरणीयानि, अधि-|| पासपोटिया वि. कानि चाग्रेतनमासे क्षेप्तव्यानि । 'चउत्थं चउत्घेणं'ति चतुर्थं भक्तं यावद्भक्तं त्यज्यते यत्र तच्चतुर्थम् , उद्देश १५- इयं चोपवासस्य सम्ज्ञा, एवं षष्ठादिकमुपवासद्वयादेरिति । 'अणिक्खित्तेणं ति अविश्रान्तेन 'दिय'त्ति स्कन्दकस्य ३ २४ दिवा दिवस इत्यर्थः 'ठाणुकुडए'त्ति, स्थानम्-आसनमुत्कुटुकम्-आधारे पुतालगनरूपं यस्यासौ स्थानो- प्रतिमादि। रकुटुकः 'चीरासणेणं'ति सिंहासनोपविष्टस्य भून्यस्तपादस्यापनीतसिंहासनस्येव यदवस्थानं तद्वीरासनं । सू९३ | तेन,'अवाउडेण यत्ति प्रावरणाभावेन च । 'ओरालेण मित्यादि'ओरालेन' आशंसारहिततया प्रधानेन, प्रधानं चाल्पमपि स्यादित्याह-'विपुलेन' विस्तीर्णेन बहुदिनत्वात् , विपुलं च गुरुभिरननुज्ञातमपि स्थादप्रयतकृत वा स्यादत आह-पयसेणं ति प्रदत्तेनानुज्ञातेन गुरुभिः प्रयतेन वा प्रयत्नवता-प्रमादरहितेने| त्यर्थः, एवंविधमपि सामान्यतः प्रतिपन्नं स्यादित्याह-प्रगृहीतेन' बहुमानप्रकर्षादाश्रितेन, तथा 'कल्या न' नीरोगताकारणेन 'शिवेन' शिवहेतुना 'धन्येन' धर्मधनसाधुना 'माङ्गल्येन' दुरितोपशमसाधुना २८ / सश्रीकेण' सम्यक्पालनात्सशोभेन 'उदग्रेण उन्नतपर्यवसानेन उत्तरोत्तर वृद्धिमतेत्यर्थः 'उदात्तेन' उन्न तभाववता 'उत्तमेणं'ति ऊर्व तमसः-अज्ञानाद्यत्तत्तथा तेन ज्ञानयुक्तेनेत्यर्थः उत्तमपुरुषासेवितत्वाद्वोत्तमेन ४०७७३/उदारेण औदार्यवता निःस्पृहत्वातिरेकात्,'महानुभागेन' महाप्रभावेण 'मुफित्ति शुष्को नीरसशरीर-17 ॥१२५॥ त्वात् 'लुक्खे'त्ति बुभुक्षावशेन रूक्षीभूतत्वात् , अस्थीनि चर्मावनद्धानि यस्य सोऽस्थिचर्मावनद्धः किदिकिटिका-15 | HAAS.MECH स्कंदक (खंधक) चरित्र ~263 Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९३] RSS दीप अनुक्रम [११४] निर्मासास्थिसम्बन्ध्युपवेशनादिक्रियासमुत्थः शब्दविशेषस्ता भूतः-प्राप्तो यः स किटिकिटिकाभूतः कृशः'दुर्बल: 'धमनी सन्ततो' नाडीव्याप्तो मांसक्षयेण दृश्यमाननाडीकत्वात् , 'जीवंजीवेणं ति अनुस्वारस्यागमिकत्वात् 'जीवजीवेन' जीवनकालेन गच्छति न शरीरवलेनेत्यर्थः "भासं भासित्तेत्यादौ कालत्रयनिर्देशः 'गिलाई'त्ति ग्लायति म्लानो भवति। 'से जहा नामए'त्ति 'से'त्ति यथार्थः यथेति दृष्टान्तार्थः नामेति सम्भावनायाम् 'इति' वाक्पालङ्कारे 'कट्ठसगडिय'त्ति काष्ठभृता शकटिका काष्ठशकटिका 'पत्तसगडिय'त्ति पलाशादिपत्रभृता गन्त्री 'पत्ततिलभंडगसगडिय'त्ति पत्रयुक्ततिलानां भाण्डकानां च-मृन्मयभाजनानां भृता गन्त्रीत्यर्थः 'तिलकगसगडिय'त्ति कचित्पाठ प्रतीतार्थः 'एरण्डकट्ठसगडिय' त्ति एरण्डकाष्ठमयी एरण्डकाष्ठभृता वा शकटिका, एरण्डकाष्ठग्रहणं च तेषामसारत्वेन तच्छकटिकायाः शुष्कायाः सत्या | अतिशयेन गमनादौ सशब्दत्वं स्यादिति, अङ्गारशकटिका' अङ्गारभृता गन्त्री 'उण्हे दिण्णा सुक्का समाणीति विशेयणद्वयं काष्ठादीनामार्दाणामेव संभवतीति यथासम्भवमायोज्यमिति हुताशन इव भस्मराशिप्रतिच्छन्नः 'तवेणं तेए४'ति तपोलक्षणेन तेजसा, अयमभिप्रायः यथा भस्मच्छन्नोऽग्निर्बहिर्वृत्त्या तेजोरहितोऽन्तर्वच्या तु ज्वलति, एवं स्कन्द कोऽपि अपचितांसशोणितत्वादहिनिस्तेजा अन्तस्तु शुभध्यानतपसा ज्वलतीति ॥ उक्तमेवार्थमाहPI तेण कालेणं २ रायगिहे नगरे जाव समोसरणं जाव परिसा पडिगया, तए णं तस्स खंदयस्स अण. अण्णया कयाइ पुन्वरत्तावरत्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अन्भत्धिए चिंतिए | जाव समुप्पजित्था एवं खलु अहं इमेणं एयारवेणं ओरालेणं जाव किस धमणिसंतए जाते जीवंजीवेणं ग *45 *51 स्कंदक (खंधक) चरित्र ~264~ Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४] RCHRISESSIOAM व्याख्या- छामि जीवजीवेणं चिट्ठामि जाव गिलामि जाव एवामेव अहंपि ससई गच्छामि ससई चिट्ठामि तं अस्थि २ शतके प्रज्ञप्तिःता मे उठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे तंजाव ता मे अस्थि उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसकार-1 | उद्देशः१ अभयदेवीयावृत्तिः१ स्कन्दकपरकमे जाव य मे धम्मायरिए धम्मोवदेसए समणे भगवं महावीरे जिणे सुहत्थी विहरह ताव ता मे सेयं । स्थानशन |कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए फुल्लुप्पलकमलकोमलुम्मिल्लियंमि अहापांडुरे पभाए रत्तासोयप्पकासकिंसुय सू ९४ ॥१२६॥ द सुपमुहगुंजारागसरिसे कमलागरसंडबोहए उठ्ठियंमि सूरे सहस्सरस्सिमि दिणयरे तेपसा जलते समणं| भगवं महावीरं वंदित्ता जाव पजुवासित्ता समणेणं भगवया महावीरेणं अन्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महव्वयाणि आरोवेत्ता समणा य समणीओ य खामेत्ता तहास्वेहिं धेरेहिं कडाईहिं सद्धिं विपुलं पव्वयं | सणियं २ दुरूहित्ता मेघघणसन्निगासं देवसन्निवातं पुढवीसिलावद्दयं पडिलेहित्ता दन्भसंथारयं संघरित्ता दब्भसंथारोवगयस्स सलेहणाजोसणाजूसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अण-| वकखमाणस्स विहरितात्तिक एवं संपेहेइ २त्ता कल्लं पाउपभायाए रयणीए जाव जलंते जेणेव समणे | ॥१२६॥ भग जाव पजुवासति, खंदयाइ समणे भगवं महावीरे खंदयं अणगारं एवं चयासी-से नूणं तव खंदया! | पुव्यरसावरत्तकालस.जाव जागरमाणस्स इमेयारूचे अम्भत्थिए जाव समुप्पजिस्था-एवं खलु अहं हमेणं एपारवेणं तवेणं ओरालेणं विपुलेणं तं चेव जाव कालं अणवखमाणस्स विहरित्तएत्तिकहु एवं संपेहेति २ SCIECES दीप अनुक्रम [११५] R ENCESite A asurary.com स्कंदक (खंधक) चरित्र ~265~ Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४] 54SSCRICEMARAO4 सकलं पाउप्पभाए जाव जलते जेणेव मम अंतिए तेणेव हव्वमागए, से नूर्ण खंदया ! अढे समझे ?, हता अस्थि, अहासुहं देवाणुप्पिया!मा पडिबंधं ॥ (सू०९४)॥ 'पुन्धरत्तावरत्तकालसमयंसित्ति पूर्वरात्रश्च-रात्रेः पूर्वो भागः अपररात्रश्च-अपकृष्टा रात्रिः पश्चिमतदाग इत्यर्थः, तल्लक्षणो यः कालसमयः कालात्मकः समयः स तथा तत्र, अथवा पूर्वरात्रापररात्रकालसमय इत्यत्र रेफलोपात् 'पुबरचावरत्तकालसमयंसि'त्ति स्याद्, धर्मजागरिकां जानतः-कुर्वत इत्यर्थः, 'तं अस्थि ता में त्ति तदेवमप्यस्ति तावन्मम | उत्धानादि न सर्वथा क्षीणमिति भावः 'तं जाव ता मे अस्थित्ति तत्-तस्माद्यावत्ता इति भाषामात्रे 'मे' ममास्ति 'जाव यत्ति यावच्च 'सुहत्यित्ति शुभार्थी भव्यान् प्रति सुहस्ती वा पुरुषवरगन्धहस्ती, एतच्च भगवत्साक्षिकोऽनशनविधिर्महाफलो भवतीत्यभिप्रायेण भगवनिर्वाणे शोकदुःखभाजनं मा भूवमहम् इत्यभिप्रायेण वा चिन्तितमनेनेति, 'कल्लमि' त्यादि, 'कल्लं'ति श्वः प्रादुः-प्राकाश्ये ततः प्रकाशप्रभातायां रजन्यो 'फुल्लोत्पल कमलकोमलोन्मीलिते' फुलं-विकसितं तच्चतदुत्पलं च फुलोत्पलं तच कमलश्च हरिणविशेषः फुल्लोत्पलकमलौ तयोः कोमलम्-अकठोरमुन्मीलित-दलानां नयन| योश्चोन्मीलनं यस्मिंस्तत्तथा तस्मिन् 'अथेति रजनीविभातानन्तरं पाण्डुरे प्रभाते रक्ताशोकप्रकाशेन किंशुकस्य शुक-|| मुखस्य गुजार्द्धस्य च रागेण सदृशो यः स तथा तस्मिन् , तथा कमलाकरा-इदादयस्तेषु पण्डानि-नलिनीषण्डानि तेषां 8 Pाबोधको यः स कमलाकरपण्डबोधकस्तस्मिन् 'उत्थिते' अभ्युद्गते, कस्मिन् । इत्याह-सूरे, पुनः किम्भूते इत्याह-| 8'कडाईहिंति, इह पदेकदेशात्पदसमुदायो दृश्यस्ततः कृतयोग्यादिभिरिति स्यात्, तत्र कृता योगा:-प्रत्युपेक्षणादि AAAAA5% दीप अनुक्रम [११५] Intainamaina स्कंदक (खंधक) चरित्र ~266~ Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९४] दीप अनुक्रम [११५] व्याख्या-1 व्यापारा येषां सन्ति ते कृतयोगिनः आदिशब्दात् प्रियधर्माणो दृढधर्माण इत्यादि गृह्यत इति, 'विउल'ति विपुलं ||२ शतकेप्रज्ञप्तिः विपुलाभिधानं 'मेघघणसंनिगासंति घनमेघसदृशं सान्द्रजलदसमानं कालकमित्यर्थः 'देवसंनिवार्य'ति देवानां संनि- II उद्देशः१ अभयदेवी- |पातः-समागमो रमणीयत्वाद् यत्र स तथा तं 'पुढविसिलापट्टयं ति पृथिवीशिलारूपः पट्टकः-आसनविशेषः पृथिवी- II या वृत्तिः स्थाशनवि|शिलापट्टकः, काष्ठशिलाऽपि शिला स्यादतस्तव्यवच्छेदाय पृथिवीग्रहणं, 'सलेहणाजूसणाजूसियस्स'त्ति संलिख्यते चार ॥१२७॥ || कृशीक्रियतेऽनयेति संलेखना-तपस्तस्या जोषणा-सेवा तया जुष्टः-सेवितो जूषितो वा क्षपितो यः स तथा तस्य 'भत्स-र सू९४ पाणपडियाइक्खियरस'त्ति प्रत्याख्यातभक्तपानस्य 'कालं'ति मरणं 'तिक'इतिकृत्वा इदं विषयीकृत्य ।। | तए णं से खंदर अणगारे समणेणं भगवया महावीरेणं अन्मणुषणाए समाणे हहतुह जाव हयहियए ४ उट्ठाए उट्टेइ २ समणं भगवं महा०तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ जाव नमंसित्ता सयमेव पंचर &ामहब्वयाई आरुहेहरसा समय समणीओयखामेइत्ता तहारूवेहि धेरेहिं कडाईहिं सर्हि विपुलं पब्वयं स-1 |णियं २ दुरूहेइ मेहघणसन्निगासं देवसन्निवायं पुढविसिलावध्यं पडिलेहेइ २ उच्चारपासवणभूमि पडिलेहेह २ दम्भसंधारयं संथरइ २ ता पुरस्थाभिमुहे संपलियंकनिसन्ने करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कड्ड एवं वदासि-नमोऽत्थु णं अरहताणं भगवंताणं जाव संपत्ताणं, नमोऽत्थु णं समणस्स भगवओ ला॥१२७॥ म. जाव संपाविउकामस्स, वंदामिण भगवंतं तत्थ गयं इहगते, पासउ मे भयवं तत्थगए इहगपंतिकट्ठवंदइ नमसति २ एवं वदासी-पुस्विपि मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए सव्वे पाणाइवाए पञ्चक्खाए RESS4%94%% स्कंदक (खंधक) चरित्र ~267~ Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५-९६]] दीप अनुक्रम [११६-११७] SCRECR49046346456256* जावजीवाए जाव मिच्छादसणसल्ले पञ्चक्खाए जावजीवाए इयाणिपि यणं समणस्स भ०म० अंतिए सव्वं पा णाइवायं पचक्खामिजावज्जीवाए जाव मिच्छादसणसल्लं पचक्खामि, एवं सव्वं असणं पाणं खासा चउकाबिहंपि आहारंपचक्खामि जायजीवाए, जंपि य इमं सरीरं इहूँ कंतं पियं जाच फसंतत्तिकह एपंपिणं चरिमेहिं उस्सासनीसासेहि बोसिरामित्तिकटु संलेहणाजूसणाजूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगए कालं अणवखमाणे विहरति।तएणं से खंदए अण समणस्स भ०म०तहारूवाणं थेराणं अंतिए सामाइयमादियाई इकारस अंगाई अहि जित्ता बहुपडिपुण्णाई दुवालसवासाइं सामनपरियार्ग पाउणित्ता मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेत्ता आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते आणुपुब्बीए कालगए (सू०९५)तएणते थेरा भगवंतो खंदयं अण कालगयं जाणित्ता परिनिव्वाणवत्तियं काउस्सग्गं करेंति २ पत्तचीवराणि गिण्हंति २ विपुलाओ पब्बयाओ सणियं २ पचोरुहंति २ जेणेव समणे भगवं म० तेणेव उवा० समणं भगवं म. वंदति नमसंति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अणगारे पगइभदए पगतिविणीए पगतिउवसंते पगतिपयणुकोहमाणमायालोमे मिउमद्दवसंपन्ने अल्लीणे भद्दए विणीए, से ण देवाणुप्पिएहिं अब्भणुपणाए समाणे सयमेव पंच महब्बयाणि आरोवित्ता समणे या समणीओ य स्वामेत्ता अम्हहिं सद्धिं विपुलं पब्वयं तं चेव निरवसेसं जाव आणुपुब्बीए कालगए इमे य से आयारभंडए । भंते ति भगवं गोयमे समणं भगवं मकवंदति नमसति २एवं बयासी-एवं खलु देवाणु स्कंदक (खंधक) चरित्र ~268~ Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५-९६] सू९५-९६ दीप व्याख्या- प्पियाणं अंतेवासी खंदए नामं अण. कालमासे कालं किच्चा कहिं गए ? कहिं उबवणे ?, गोयमाइ समणे || २ शतके भगवं महा० भगवं गोधर्म एवं वयासी-एवं खलु गोषमा ! मम अंतेवासी खंदए नाम अणगारे पगतिभ० उद्देशः१ दिवा- जाव से णं मए अम्भणुण्णाए समाणे सयमेव पंच महब्वयाई आरुहेत्ता तं चेव सव्वं अविसेसियं नेयव्वं या वृत्तिः१|| लिजाव आलोतियपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा अचुए कप्पे देवत्ताए उववणे, तत्थ णं अत्थे स्थानशन मतिश्च ॥१२८॥ गइयाणं देवाणं बावीसं सागरोवमाई ठिती प०, तस्स णं खंदयस्सवि देवस्स बावीसं सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । से णं भंते ! खंदए देवे ताओ देवलोगाओ आउखएणं भवक्खएणं ठितीख० अणंतरं चयं चहत्ता कहिं गच्छिहिति ? कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिजिनहिति बुझिहिति मुचिहिति परिनिवाहिति सव्वदुक्खाणमंत करेहिति (सू०९६ ) ॥ खंदओ समत्तो ॥ वितीयसयस्स पढमो ॥२-२|| एवं संपेहेइत्ति 'एवम्' उक्तलक्षणमेव 'संप्रेक्षते' पर्यालोचयति सङ्गतासङ्गतविभागतः 'उचारपासवणभूमि । पडिलेहेह'त्ति पादपोपगमनादारावुच्चारादेस्तस्य कर्त्तव्यत्वादुच्चारादिभूमिप्रत्युपेक्षणं न निरर्थक, 'संपलियंकनिसपणे'त्ति || पद्मासनोपविष्टः 'सिरसावत्तं ति शिरसाध्याप्तम्-अस्पृष्टम् , अथवा शिरसि आवर्त आवृत्तिरावर्तन-परिभ्रमणं यस्यासौ सधम्यलोपाच्छिरस्यावर्तस्तं, 'सद्धि भत्ताईति प्रतिदिनं भोजनद्वयस्य त्यागात्रिंशता दिनैः पष्टिर्भक्कानि त्यक्तानि भवन्ति 'अणसणाए'त्ति प्राकृतत्वादनशनेन 'छेइत्त'त्ति 'छित्त्वा' परित्यज्य 'आलोइयपडिकते'ति आलोचितंमगुरूणां निवेदितं यदतिचारजातं तत् प्रतिक्रान्तम्-अकरणविषयीकृतं येनासावालोचितमतिकान्तः अथवाऽऽलोचित अनुक्रम [११६-११७] ॐॐॐ स्कंदक (खंधक) चरित्र ~269~ Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [९६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९५-९६]] श्वासावालोचनादानात् प्रतिक्रान्तश्च मिथ्यादुष्कृतदानादालोचितप्रतिक्रान्तः 'परिणिव्वाणवत्तियति परिनिर्वाणंमरणं तत्र यच्छरीरस्य परिष्ठापनं तदपि परिनिर्वाणमेव तदेव प्रत्ययो-हेतुर्यस्य स परिनिर्वाणप्रत्ययोऽतस्तं 'कहिं 8 गए'त्ति कस्यां गतौ 'कहिं उबवणे'त्तिक देवलोकादौ ? इति । 'एगइयाणं'ति एकेषां न तु सर्वेषाम् । 'आउक्खएपाण'ति आयुष्ककर्मदलिकनिर्जरणेन 'भवक्खएणं ति देवभवनिवन्धनभूतकर्मणां गत्यादीनां निर्जरणेन 'ठितिक्खए 'ति आयुष्ककर्मणः स्थितेवेदनेन 'अणंतरंति देवभवसम्बन्धिनं 'चय'न्ति शरीरं 'चइसत्ति त्यक्त्वा, अथवा का'चयति च्यवं-च्यवनं 'चइस'त्ति च्युत्वा कृत्वाऽनन्तरं क गमिष्यति ? इत्येवमनन्तरशब्दस्य सम्बन्धः कार्य इति । द्वितीयशते प्रथमः ॥२-१॥ दीप अनुक्रम [११६-११७] म अथ द्वितीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-'केण वा मरणेण मरमाणे जीवे यहाइ'त्ति प्रागुक्तं, मरणं च मारराणान्तिकसमुदूधातेन समवहतस्यान्यथा च भवतीति समुद्घातस्वरूपमिहोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्वेदमादिसूत्रम्Kा कति णं भंते । समुग्धाया पण्णता ?, गोयमा! सत्त समुग्धाचा पण्णता, तंजहा-वेदणासमुग्धाए एवं समुग्घायपदं छाउमत्थियसमुग्घायवज्जं भाणियब्च, जाव चेमाणियाणं कसायसमुग्घाया अप्पाबहुयं । XI अणगारस्स णं भंते ! भावियप्पणो केवलिसमुग्धाय जाव सासयमणागयद्धं चिट्ठति, समुग्घायपदं नेयन्वं (सू०१७) ॥ बितीयसए वितीयोदेसो भाणियब्वो ॥२-२॥ AAR अत्र द्वितीय-शतके प्रथम-उद्देशकः समाप्त: अथ द्वितीय-शतके द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते ~270~ Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [86] दीप अनुक्रम [११८] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥१२९॥ 'कह णं भंते ! समुग्याए’त्यादि, तत्र 'हन हिंसागत्योः' इति वचनाद् हननानि - धाताः सम्-एकीभावे उत्-प्राबल्येन ततश्चैकीभावेन प्राबल्येन च घाताः समुद्घाताः अथ केन सहैकीभावः ?, उच्यते, यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातगतो | भवति तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकीभावः, अथ प्राबल्येन घाताः कथम् ?, उच्यते यस्माद्वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्य उदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति, आत्मप्रदेशैः सह श्लिष्टान् शातयतीत्यर्थः, अतः प्राबल्येन घाता इति । 'सन्त समुग्धाय'त्ति वेदनासमुद्घातादयः एते च प्रज्ञापनायामिव द्रष्टव्याः, अत एवाह 'छाउमस्थिए 'त्यादि, 'छाउमत्थिय| समुग्धायवचं'ति 'कइ णं भंते ! छाउमत्थिया समुग्धाया पण्णत्ता' इत्यादिसूत्रवर्जितं 'समुग्धायपयंति प्रज्ञापनायाः | पत्रिंशत्तमपदं समुद्घातार्थमिह नेतव्यं तचैवम्— 'कइ णं भंते ! समुग्धाया पण्णत्ता 2, गोयमा ! सत्त समुग्धाया पण्णत्ता, तंजावेयणासमुग्धाए कसायसमुग्धाए' इत्यादि, इह सङ्ग्रहगाथा - "वेयण १ कसाय २ मरणे ३ बेडब्बिय ४ तेयए य ५ आहारे ६ । केवलिए चैत्र ७ भवे जीवमणुस्साण सत्तेव ॥ १ ॥ जीवपदे मनुष्यपदे च सप्त वाच्याः, नारकादिषु तु यथायोगमित्यर्थः, तत्र वेदनासमुद्घातेन समुद्धत आत्मा बेदनीयकर्मपुङ्गलानां शातं करोति, कषायसमुद्घातेन कषायपुद्गलानां मारणान्तिकसमुद्घातेनायुः कर्म्म पुगलानां बैकुर्विकसमुद्घातेन समुद्धतो जीवः प्रदेशान् शरीराद्वहिर्निष्काश्य शरीरविष्कम्भवाहल्यमात्रमायामतश्च सोययोजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथास्थूलान् Eucation International 'समुद्घात' शब्दस्य अर्थ एवं भेदा: For Parts Only ~271~ २ शतके उद्देशः २ समुधाताः सू९७ ॥१२९॥ wor Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९७] दीप अनुक्रम [११८] वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् शातयति यथासूक्ष्मांश्चादत्ते, यथोक्तम्-"वेउवियसमुग्याएणं समोहणइ २४ संखेज्जाई जोयणाई दंडं निसिरह २ अहाबायरे पोग्गले परिसाडेइ अहासुहुमे पोग्गले आइयई"त्ति, एवं तैजसाहारकदो समुद्घातावपि व्याख्येयौ, केवलिसमुद्घातेन तु समुद्धतः केवली वेदनीयादिकर्मपुद्गलान् शातयतीति, एतेषु च सर्वे-16 प्वपि समुद्घातेषु शरीराजीवप्रदेश निर्गमोऽस्ति, सर्वे चैतेऽन्तर्मुहूर्तमानाः, नवरं केवलिकोऽष्टसामयिका, एते चैके|न्द्रियविकलेन्द्रियाणामादितस्त्रयो, वायुनारकाणां चत्वारः, देवानां पञ्चेन्द्रियतिरश्चां च पञ्च, मनुष्याणां तु सप्तेति ॥ द्वितीयशते द्वितीय उद्देशकः ॥२-२॥ m ere--- अथ तृतीय आरभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-द्वितीयोद्देशके समुद्घाताः प्ररूपिताः, तेषु च मारणान्तिकसमुद्पातः, तेन च समबहताः केचित्पृथिवीपुत्पद्यन्त इतीह पृथिव्यः प्रतिपाद्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्-.. ___कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ, जीवाभिगमे नेरइयाण जो वितिओ उद्देसो सो नेयव्यो, पुढविंद ओगाहित्ता निरया संठाणमेव पाहल्लं। [विक्खंभपरिक्खेवो वपणो गंधो य फासो य॥१॥] जाप किं सब्वपाणा उबवण्णपुब्बा ?, हंतागोयमा असतिं अदुवा अणंतखुत्तो (सू०९८) ॥ पुढवी उऐसो ॥२-३॥ १-वैक्रियसमुद्घातेन समवहन्ति समवहस्य सख्येयानि योजनानि यावद्दण्डं निःसृजति निःसज्य च यथायादरान् पुद्गलान् परिशा| टयति यथासूक्ष्मान् पुद्गलानादते ।। कर अत्र द्वितीय-शतके द्वितीय-उद्देशकः समाप्त: अथ द्वितीय-शतके तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते ~272 Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [९८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [९८] गाथा व्याख्या- 'कइणभंते ! पुढवीओ'इत्यादि, इहच जीवाभिगमे नारकद्वितीयोद्देशकार्थसहगाथा-"पुढवी ओगाहित्ता निरया २ शतके प्रज्ञप्तिः संठाणमेव बाहलं । विक्खंभपरिक्खेयो वण्णो गंधो य फासो य ॥१॥" सूत्रपुस्तकेषु च पूर्वाद्धमेव लिखितं, शेषाणां उद्दशा . अभयदेवीविवक्षितार्थानां यावच्छब्देन सूचितत्वादिति, तत्र 'पुढवित्ति पृथिच्यो वाच्याः, ताश्चैवम्-'कइणं भंते ! पुढवीओ पाण पृथ्व्यधिया वृत्तिः१ कार:सू९८ माताओ?, गोयमा ! सत्त, तंजहा-रयणप्पमेत्यादि, ओगाहिता निरय'त्ति पृथिवीमवगाह्य कियहरे नरकाः इति || ॥१३०॥ वाच्य, तत्रास्यां रलप्रभायामशीतिसहस्रोत्तरयोजनलक्षवाहल्यायामुपर्येक योजनसहस्रमवगाह्याधोऽप्येक वर्जयित्वा त्रिंश सरकलक्षाणि भवन्ति, एवं शर्कराप्रभादिषु यथायोगं वाच्यं, 'संठाणमेव'त्ति नरकसंस्थानं वाच्य, सत्र ये आवलिका-115 प्रविष्टास्ते वृत्तास्यनाश्चतुरश्राश्च, इतरे तु नानासंस्थानाः, 'चाहल्लं'ति नरकाणां चाहल्यं वाच्यं, तच त्रीणि योजनसह माणि, कधम् ?, अध एक मध्ये शुषिरमेकमुपरि च सङ्कोच एकमिति, 'विक्खंभपरिक्खेवोत्ति एतौ वाच्यौ, तत्र || & सन्यासविस्तृतानां सङ्ग्यातयोजन आयामो विष्कम्भः परिक्षेपश्च, इतरेषां वन्यथेति । तथा वर्णोदयो वाच्याः, ते चात्य-15 न्तमनिष्टा इत्यादि बहु वक्तव्यं यावदयमुद्देशकान्तः, यदुत-'किं सव्वपाणा ?'इत्यादि, अस्य चैवं प्रयोग:-अस्थां रक्षप्रभायां त्रिंशन्नरकलक्षेषु किं सर्वे प्राणादय उत्पन्नपूर्वाः, अत्रोत्तरम्-'असई ति असकृद्-अनेकशः, इदं च वेलाद्वया ॥१३०॥ दावपि स्थादतोऽत्यन्तबाहुल्यप्रतिपादनायाह-'अदुव'त्ति अथवा 'अणंतखुत्तोत्ति 'अनन्तकृत्वा' अनन्तवारानिति ।। द्वितीयशते तृतीयः ॥२-३ ॥ दीप 54534% 15 अनुक्रम [११९-१२१] अत्र द्वितीय-शतके तृतीय-उद्देशकः समाप्त: ~273~ Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [९] दीप अनुक्रम [१२२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तृतीयोदेशके नारका उक्ताः, च पञ्चेन्द्रिया इतीन्द्रियप्ररूपणाय चतुर्थोद्देशकः, तस्य चादिसूत्रम् - कति णं भंते! इंदिया पनन्ता 23, गोयमा ! पंचिदिया पत्ता, तंजा-पढमिलो इंदिउसो नेयब्बो, संठाणं बालं पोहत्तं जाव अलोगो ( सू० ९९ ) ॥ इंदिउसो । २-४ ॥ 'पढमिल्लो इंदियउद्देसओ नेयच्चो त्ति प्रज्ञापनायामिन्द्रियपदाभिधानस्य पञ्चदशपदस्य प्रथम उद्देशकोऽत्र 'नेतव्यः' अध्येतव्यः, तत्र च द्वारर्गाथा - "ठाणं बालं पोहत्तं कइपएसओगाढे । अप्पा बहुपुपविहविसय अणगार आहारे ॥ १ ॥ इहू च सूत्र पुस्तकेषु द्वारत्रयमेव लिखितं, शेषास्तु तदर्था यावच्छब्देन सूचिताः, तत्र संस्थानं श्रोत्रादीन्द्रि प्रयाणां वाच्यं तच्चेदं श्रोत्रेन्द्रियं कदम्बपुष्पसंस्थितं चक्षुरिन्द्रियं मसूरकचन्द्रसंस्थितं मसूरकम् - आसनविशेषश्चन्द्रः - शशी, अथवा मसूरकचन्द्रो-धान्यविशेषदलं, घ्राणेन्द्रियमतिमुक्तकचन्द्रकसंस्थितम्, अतिमुक्तचन्द्रकः- पुष्पविशेषदलं, | रसनेन्द्रियं क्षुरप्रसंस्थितं स्पर्शनेन्द्रियं नानाकार, 'वाह'ति इन्द्रियाणां वाहस्यं वाच्यं तच्चेदं सर्वाण्यङ्गलासत्येय भागबाहल्यानि, 'पोहत्तं'ति पृथुत्वं तच्चेदं श्रोत्रचक्षुर्माणानामङ्गुला सध्यभागो जिह्वेन्द्रियस्याङ्गुल पृथक्त्वं स्पर्शनेन्द्रियस्य च शरीरमानं, 'कइपएस' त्ति अनन्तप्रदेशनिष्पन्नानि पञ्चापि 'ओगाढे' त्ति असतेयप्रदेशावगाढानि, 'अप्पाबहु ति सर्वस्तोकं चक्षुरवगाहतस्ततः श्रोत्रघाणरसनेन्द्रियाणि क्रमेण सङ्ख्यातगुणानि ततः स्पर्शनं त्वसम्यगुणमित्यादि 'पुट्ठ पविति श्रोत्रादीनि चक्षूरहितानि स्पृष्टमर्थं प्रविष्टं च गृह्णन्ति 'विसयन्ति सर्वेषां जघन्यतोऽङ्गुलस्यासत्ये १ श्रोत्राणेन्द्रिये क्रमेण सङ्ख्यातगुणे ततो रसनेन्द्रियं संख्येयगुणं ततः स्पर्शनं सङ्ख्येयगुणमित्यादि । यद्यपिं चक्षुषोऽङ्गुलंस्य संख्येयभागो विषयः अर्वावनुपलब्धिस्तथापि अत्र सर्वेषां सामान्येन ग्रहणात् जपन्यस्य तेषां असंख्येयभागस्य भावात् असंख्येयेति || Education International अथ द्वितीय-शतके चतुर्थ-उद्देशकः आरभ्यते For Parts Only ~274~ war Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [९९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: २ शतके है इन्द्रियाधि प्रत सूत्रांक [९९] व्याख्या- यभागो विषयः, उत्कर्षतस्तु श्रोत्रस्य द्वादश योजनानि, चक्षुषः सातिरेक लक्षं, शेषाणां च नव योजनानीति, 'अणगारे'। त्ति अनगारस्य समुद्घातगतस्य ये निर्जरापुद्गलास्तान्न छद्मस्थो मनुष्यः पश्यतीति, 'आहार'त्ति निर्जरापुद्गलानारका- उद्देशः४ अभयदेवीया वृत्तिः ॥५ दयो न जानन्ति न पश्यन्ति आहारयन्ति चेत्येवमादि बहु वाच्यम् । अथ किमन्तोऽयमुद्देशकः ? इत्याह-यावदलोकः' अलोकसूत्रान्तः, तच्चेदम्-'अलोगे णं भंते ! किण्णा फुडे कइहिं वा कारहिं फुडे !, गोयमा ! नो धम्मस्थि कारः सू९९ ॥१३॥ कारणं फुडे जाव नो आगासस्थिकारणं फूडे आगासत्थिकायस्स देसेणं फुडे आकासस्थिकायस्स पएसेहिं फुडे नो पुढ-10 विकाइएणं फुडे जाव नो अद्धासमएणं फुडे एगे अजीवदवदेसे अगुरुलहुए अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुसे सपागासे अणंतभागूणे'त्ति । नालोको धर्मास्तिकायादिना पृथिव्यादिकायैः समयेन च स्पृष्टो-व्याप्तः, तेषां तत्रासरवात्, आकाशास्तिकायदेशादिभिश्च स्पृष्टः, तेषां तत्र सत्त्वात् , एकश्चासावजीवद्रव्यदेशः, आकाशद्रव्यदेशत्वात्तस्येति ॥ द्वितीयशते | चतुर्थः ॥२-४॥ दीप अनुक्रम [१२२] KARERAKAR अनन्तरमिन्द्रियाण्युक्तानि, तद्वशाच्च परिचारणा स्यादिति तन्निरूपणाय पञ्चमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम् अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमाइक्खंति भासंति पन्नति परवेति, तंजहा-एवं खलु नियंठे कालगए स-|| माणे देवभूएणं अप्पाणेणं से णं तत्थ णो अन्ने देधे नो अन्नेसि देवाणं देवीओ अहिजंजिय २ परियारेइ १ | ४ाणो अप्पणचियाओ देवीओ अभिजुंजिय २ परियारेइ २ अप्पणामेव अप्पाणं विउब्बिय २ परियारेइ ३| ॥१३१॥ अत्र द्वितीय-शतके चतुर्थ-उद्देशक: समाप्त: अथ द्वितीय-शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते ~275~ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१००] एगेवि य णं जीवे एगेणं समएणं दो वेदे वेदेव, तंजहा-इत्थिवेदं पुरिसवेदं च, एवं परउत्थियवसम्बया | नेपब्वा जाव इस्थिवेदं च पुरिसवेदं च । से कहमेयं भंते ! एवं , गोयमा ! जपणं ते अन्नउस्थिया एवमाइ खंति जाव इस्थिवेदं च पुरिसवेदं च, जे ते एवमासु मिच्छं ते एचमाहंसु, अहं पुण गोपमा! एवमातिक्खामि भा०प० परू०-एवं खलु नियंठे कालगए समाणे अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवन्ति महिडिएसु जाव महाणुभागेसु दूरगतीसु चिरहितीएसु, से णं तत्थ देवे भवति महिहीए जाव दस दिसामाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे जाच पडिरूवे । से णं तस्थ अन्ने देवे अन्नेसिं देवाणं देवीओ अभिजंजिय २|| परिपारेर १ अप्पणचियाओ देवीओ अभिजुजिय २ परियारेइ २ नो अप्पणामेव अप्पाणं विउम्चिय २|3 परियारेद ३, एगेविय णं जीवे एगेणं समएणं एर्ग वेदं वेदेह, तंजहा-इत्थिवेदं वा पुरिसवेदं वा, जं समय इत्थिवेदं वेदेह णो तं समयं पुरुसवेयं वेएइ जं समयं पुरिसवेयं वेएइ नो तं समयं हथिवेयं वेदेइ, इथिवेयस्स उदएणं नो पुरिसवेदं वेएइ, पुरिसवेयस्स उदएणं नो इत्थिवेयं वेएइ, एवं खलु एंगे जीवे एगेणं समएणं एगं| वेदं वेदेइ, तंजहा-इत्थीवेयं वा पुरिसवेयं वा, इत्थी इस्थिवेएणं उदिन्नेणं पुरिसं पत्थेइ, पुरिसो पुरिसवेएणं उदिन्नेणं इल्यि पत्थेइ, दोवि ते अन्नमन्नं पत्थंति, तंजहा-इस्थी वा पुरिसं पुरिसे वा इस्थि ॥ (सू०१००)॥ | 'देवभूएण'ति देवभूतेनात्मना करणभूतेन नो परिचारयतीति योगः, 'से णति असौ निम्रन्थदेवः 'तत्र' देवलोके | 'नो' नैव 'अण्णे'त्ति 'अन्यान् आत्मव्यतिरिक्तान 'देवान्' सुरान १ तथा नो अन्येषां देवानां सम्बन्धिनीदेवीः 'अभि दीप अनुक्रम [१२३] ***** * * For P OW awreturasurary.com ~276~ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१०० ] दीप अनुक्रम [१२३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [ १०० ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः १ ॥ १३२ ॥ जुंजिय'त्ति 'अभियुज्य' वशीकृत्य आश्लिष्य वा 'परिचारयति' परिभु णो 'अप्पणचियाओ'ति आत्मीयाः 'अप्पणामेव अप्पाणं विउब्विय'त्ति स्त्रीपुरुषरूपतया विकृत्य, एवं च स्थिते - 'परउत्थियवत्तवया णेयव्य'त्ति एवं चेयं | ज्ञातव्या- 'जं समयं इत्थिवेयं वेएइ तं समयं पुरिसवेयं वेएइ जं समयं पुरिसवेयं वेएइ तं समयं इस्थिवेयं वेएइ, इत्थि - वेयस्स वेयणयाए पुरिसवेयं वेएइ पुरिसवेयस्स वेयणयाए इत्थीवेयं वेएर, एवं 'खलु एगेऽविय णमित्यादि । मिथ्यात्वं चैषामेवं स्त्रीरूपकरणेऽपि तस्य देवस्य पुरुषत्वात् पुरुषवेदस्यैवैकत्र समये उदयो न स्त्रीवेदस्य, स्त्रीवेदपरिवृत्या वा स्त्रीवेदस्यैव न पुरुषवेदोदयः, परस्परविरुद्धत्वादिति । 'देवलोएस' त्ति देवजनेषु मध्ये 'उववत्तारो भवति'त्ति प्राकृतरौल्या उपपत्तारो भवन्तीति दृश्यं, 'महिहिए' इत्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम् -'महज्जुइए महाबले महायसे महासोक्ले महाणुभागे हारविराइयवच्छे कडयतुडियर्थभियभुए' त्रुटिका - बाहरक्षिका 'अंगयकुंडलमहगंड कण्णपीढधारी' अङ्गदानि| बाह्राभरणविशेषान् कुण्डलानि कर्णाभरणविशेषान् मृष्टगण्डानि च - उल्लिखितकपोलानि कर्णपीठानि - कर्णाभरणविशेषान् धारयतीत्येवंशीलो यः स तथा, 'विचित्तहत्थाभरणे विचित्तमालाम उलिम उडे' विचित्रमाला च- कुसुमाग् मौलौमस्तके मुकुटं च यस्य स तथा, इत्यादि यावत् 'रिद्धीए जुईए पभाए छायाए अच्चीए तेएणं लेसाए दस दिसाओ उजोवेमाणेत्ति तत्र ऋद्धिः - परिवारादिका युतिः- इष्टार्थसंयोगः प्रभा - यानादिदीहिः छाया-शोभा अचिः-शरीरस्थरत्नादि - ॥१३२॥ | तेजोज्वाला तेजः-शरीराचिः लेइया- देहवर्णः, एकार्था वैते, उद्योतयन् प्रकाशकरणेन 'पभासेमाणे ति 'प्रभासयन्' | शोभयन्, इह यावत्करणादिदं दृश्यम् -'पासाइए' द्रष्टृणां चित्तप्रसादजनकः 'दरिसणिज्जे' यं पश्यच्चक्षुर्न श्राम्यति 'अ For Pale Only २ शतके उद्देशः ५ एकवेदवेदनाधिकारः सू १०० ~277~ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०० दीप अनुक्रम [१२३] भिरूवे' मनोज्ञरूपः 'पडिरूवेत्ति द्रष्टारं २ प्रति रूपं यस्य स तथेति, एकेनैकदैक एव वेदो वेद्यते, इह कारणमाहBI'पत्थी इत्विवएणमित्यादि ॥ परिचारणायां किल गर्भः स्यादिति गर्भप्रकरणं. तत्र उद्गगम्भे णं भंते ! उद्गगम्भेत्ति कालतो केवचिरं होइ ?, गोपमा ! जहनेणं एक समयं उफोसेणं छ-16 ॥म्मासा ॥ तिरिक्खजोणियगम्भे गं भंते । तिरिक्खजोणियगम्भेसि कालओ केवचिरं होति ?, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अह संवच्छराई ॥ मणुस्सीगम्भे णं भंते ! मणुस्सीगन्भेसि कालओ केवचिरं होह, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं बारस संवाछराई। (सू०१०१)॥ ___ 'उद्गगम्भे गं' कचित् 'दगगठभे गं'ति एश्यते, तत्रोदकगर्भ:-कालान्तरेण जलमवर्षणहेतुः पुनलपरिणामः, तस्य | चावस्थानं जघन्यतः समयः, समयानन्तरमेव प्रवर्षणात्, उत्कृष्टतस्तु षण्मासान, षण्णां मासानामुपरि वर्षणात् , अयं च मार्गशीर्षपौषादिषु वैशाखान्तेषु सन्ध्यारागमेघोत्पादादिलिङ्गो भवति, बदाह-"पीपे समार्गशीर्षे सन्ध्यारागोड-टी म्युदाः सपरिवेषाः । नात्यर्थं मार्गशिरे शीतं पोपेऽतिहिमपातः॥१॥" इत्यादि । | कायभवत्थे णं भंते ! कायभवत्थेत्ति कालओ केवचिरं होह, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुटुर्स उकोसेणं चउन्धीसं संवच्छराई । (सू०१०२)। मणुस्सपंचेदियतिरिक्खजोणियबीए णं भंते ! जोणियन्भूए केवतियं कालं संचिठ्ठा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं पारस मुटुत्ता ॥ (सू०१०३)॥ 'कायभवत्थे णं भंते'इत्यादि, काये-जनन्युदरमध्यव्यवस्थितनिजदेह एव यो भवो-जन्म स कायभवस्तत्र तिष्ठति SAREaratunintamatkand ~278~ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [१०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: उद्देशः५ प्रत सूत्रांक [१०३]] या वृत्तिः दीप अनुक्रम [१२६] व्याख्या-IIP यः स कायभवस्था, स च कायभवस्थ इति, एतेन पर्यायेणेत्यर्थः, 'चउव्वीसं संवच्छराईति स्त्रीकाये द्वादश वर्षाणि ||3||२ शतके प्रज्ञप्तिः ॥४ास्थित्वा पुनर्मृत्वा तस्मिन्नेवात्मशरीरे उत्पद्यते द्वादशवर्षस्थितिकतया, इत्येवं चतुर्विशतिवर्षाणि भवन्ति । केचिदाहुःअभयदेवी- द्वादश वर्षाणि स्थित्वा पुनस्तत्रैवान्यबीजेन तच्छरीरे उत्पद्यते, द्वादशवर्षस्थितिरिति । | उदकतिर्यएगजीवे गं भंते ! जोणिए बीयम्भूए केवतियाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छा, गोयमा ! जहनेणं इकस्स १०१ ॥१३॥ वा दोण्हं वा तिण्हं वा, उक्कोसेणं सयपुहुत्तस्स जीवाणं पुत्तत्ताए हव्वमागच्छति (सू०१०४)। एगजी-1 कायमवस्थ वस्स भंते ! एगभवग्गहणेणं केवइया जीवा पुत्तत्ताए हव्वमागच्छंति ? गोयमा ! जहन्नेर्ण इकोता बीजकावा दो वा तिन्नि वा, उक्कोसेणं सयसहस्सपुहत्तं जीवा णं पुत्तत्ताए हवमागच्छति, से केणद्वेणं भंते ! एवं || ली १०२बुच्चइ-जाव हव्वमागच्छइ, गोयमा । इत्थीए य पुरिसस्स य कम्मकडाए जोणीए मेहुणवत्तिए नाम सं-१०३पुत्रबी जोए समुप्पज्जइ, ते दुहओ सिणेहं संचिणंति २ तत्थ णं जहन्नेणं एको वा दो वा तिपिण वा उक्कोसेणं सय-काज बीजपुत्रा का सहस्सपुहत्तं जीवाणं पुत्तत्साए हव्वमागकछंति, से तेणटेणं जाव हव्यमागकछह (सू०१०५)। मेहुणे णं|| मा १०४ला भंते ! सेवमाणस्स केरिसिए असंजमे कजह?, गोयमा 1 से जहानामए केह पुरिसे रूयनालियं वा चूरना-IRI. १०५-१०६ लियं वा तत्तेणं कणएणं समभिधंसेज्जाएरिसएणं गोयमा! मेहुणं सेवमाणस्स असंजमे कज्जा, सेवं भंते ! सेवं शाभंते ! जाव विहरति ।। (सू०१०६)॥ ॥१३॥ * एगभबग्गहणेणं प्र० ~279~ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१०४-१०६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०४१०६] 'एगजीवे णं भंते'इत्यादि, मनुष्याणां तिरश्चां च बीजं द्वादश मुहूर्तान यावद्योनिभूतं भवति, ततश्च गवादीनां शत-12 | पृथक्त्वस्यापि वीजं गवादियोनिप्रविष्टं बीजमेव, तत्र च बीजसमुदाये एको जीव उत्पद्यते, स च तेषां बीजस्वामिनां | | सर्वेषां पुत्रो भवतीत्यत उक्तम्-'उकोसेणं सयपुहुत्तस्सेत्यादि । 'सयसहस्सपुहुत्त'ति मत्स्यादीनामेकसंयोगेऽपि शतसहपृथक्त्वं गर्भे उत्पद्यते निष्पद्यते चेत्येकस्यैकभवग्रहणे लक्षपृथक्त्वं पुत्राणां भवतीति, मनुष्ययोनौ पुनरुत्पन्ना अपि बहवो न निष्पद्यन्त इति । इत्थीए पुरिसस्स य' इत्येतस्य 'मेहुणवत्तिए नाम संयोगे समुप्पज्जति' इत्यनेन सम्बन्धः, कस्यामसौ उत्पद्यते ? इत्याइ-कम्मकडाए जोणीए'त्ति नामकर्मनिवर्तितायां योनौ, अथवा कर्म-मदनोद्दीपको व्यापा४ रस्तत् कृतं यस्यां साकर्मकृताऽतस्तस्यां मैथुनस्य वृत्तिः-प्रवृत्तियस्मिन्नसौ मैथुनवृत्तिको मैथुनं वा प्रत्ययो-हेतुर्यस्मिन्नसौ स्वा|| थिंकेकप्रत्यये मैथुनप्रत्ययिकः 'नाम'ति नाम नामवतोरभेदोपचारादेतन्नामेत्यर्थः 'संयोगः संपर्कः, 'ते' इति स्त्रीपुरुषो 'दुह|ओ'त्ति उभयतः 'स्लेहरेतःशोणितलक्षणं 'संचिनुत:' सम्बन्धयतः इति ॥ 'मेहुणवत्तिए नाम संजोए'त्ति प्रागुक्तम् , | अथ मैथुनस्यैवासंयमहतुतामरूपणसूत्रम्-'रूयनालियं वत्ति रूतं-कर्पासविकारस्तभृता नालिका-शुषिरवंशादिरूपा | रूतनालिका ताम्, एवं बूरनालिकामपि, नवरं बूर-वनस्पतिविशेषावयवविशेषः, 'समभिद्धंसेज'त्ति रूतादिसमभिधंसनात्, इह चायं वाक्यशेपो दृश्य:-एवं मैथुनं सेवमानो योनिगतसत्त्वान् मेहनेनाभिध्वंसयेत्, एते च किल ग्रन्थान्तरे पश्चेन्द्रियाः श्रूयन्त इति, 'एरिसए ण'मित्यादि च निगमनमिति ॥ पूर्व तिर्यडमनुष्योत्पत्तिर्विचारिता, अथ देवो त्पत्तिविचारणायाः प्रस्तावनायेदमाह अनुक्रम [१२७ -१२९] ~280~ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७] व्याख्या- 1|| तए णं समणे भगवं महावीरे रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्खमह २ बहिया प्रज्ञप्तिः जणवयविहारं विहरति । तेणं कालेणं २ तुंगिया नाम नगरी होत्था चण्णओ, तीसे णं तुंगियाए नगरीए अभयदेवी-18 पहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए पुप्फवतिए नाम चेतिए होत्था, वण्णओ, तस्थ णं तुंगियाए नयरीए पहवे उद्देशः५ का या वृत्तिः१] |समणोवासया परिवसंति अवा दित्ता विच्छिण्णविपुलभवणसयणासणजाणवाहणाइण्णा बहुधणयहुजायसव-दा श्रावकार ॥१३॥ * रयया आओगपओगसंपउत्ता विरुछड्डियविपुलभत्तपाणा बहुदासीदासगोमहिसगवेलयप्पभूया बहुजणस्स सू१०७ अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उपलद्धपुण्णपावा आसवसंवरनिजरकिरियाहिकरणबंधमोक्खकुसला असबाहेजदेवासुरनागसुवपणजक्खरक्खसकिनरकिंपुरिसगरुलगंधव्वमहोरगादीएहिं देवगणेहिं निग्गंधाओ पाव-IMG यणाओ अणतिकमणिजा णिग्गंधे पावयणे निस्संकिया निकंखिया निव्वितिगिच्छा लट्ठा गहियट्ठा । | पुछियट्ठा अभिगयट्ठा विणिच्छियहा अद्विमिंजपेम्माणुरागरत्ता अयमाउसो । निग्गथे पावयणे अड्डे अयं परमढे सेसे अणट्टे असियफलिहा अवंगुयदुवारा चियत्तंतेउरघरप्पवेसा बहहिं सीलव्ययगुणवेरमणपञ्च क्वाणपोसहोवयासेहि, चाउछसहमुदिपुण्णमासिणीसु पडिपुन्नं पोसहं सम्म अणुपालेमाणे समणे निग्गंथे| हाफासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं वस्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणेणं पीढफलगसेज्जासंथारएणं ओसह-18|| ॥१३४॥ ट्राभसजेण प पडिलामेमाणा आहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मेहि अप्पाणं भावेमाणा विहरंति ॥ (स०१०७)||CI 'अहति आढ्या धनधान्यादिभिः परिपूर्णाः 'दित्त'ति दीक्षा:-प्रसिद्धाः दृप्ता वा-दर्पिताः 'विछिन्नविपुलभ-* दीप अनुक्रम [१३०] तुन्गिका-नगर्या: श्रावका: ~281~ Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७] दीप अनुक्रम [१३०] वणसयणासणजाणवाहणाइण्णा' विस्तीर्णानि-विस्तारवन्ति विपुलानि-प्रचुराणि भवनानि-गृहाणि शयनासनयानवाहनैराकीर्णानि येषां ते तथा, अथवा विस्तीर्णानि-विपुलानि भवनानि येषां, ते शयनासनयानवाहनानि चाकीर्णानिगुणवन्ति येषां ते तथा, तन्त्र यानाच्यादि वाहन तु-अश्वादि, 'यहुधणबहुजायस्वरयया बहु-प्रभूतं धनं-गणिमा-12 दिक तथा बहु एव जातरूपं-सुवर्ण रजतं च-रूप्य येषां ते तथा, 'आओगपओगसंपउत्सा' आयोगो-द्विगणादि| वृद्ध्यार्थप्रदानं प्रयोगश्च-कलान्तरं तौ संप्रयुक्ती-व्यापारितौ यैस्ते तथा, 'विच्छड्डियविउलभत्तपाणा' विच्छदित-विविधमुज्झितं बहुलोकभोजनत उच्छिष्टावशेषसम्भवात् विच्छर्दितं वा-विविधविच्छित्तिमद्विपुलं भक्तं च पानकं च येषां ते तथा, 'बहुदासीदासगोमहिसगवेलगप्पभूया' बहवो दासीदासा येषां ते गोमहिषगवेलकाश्च प्रभूता येषां ते तथा, गवे-18| लका-उरचाः, 'बहुजणस्स अपरिभूया' बहोर्लोकस्यापरिभवनीयाः, 'आसवे'त्यादी क्रिया:-कायिक्यादिकाः 'अधिकरणं गत्रीयन्त्रकादि 'कुसल'त्ति आश्रवादीनां हेयोपादेयतास्वरूपवेदिनः, 'असहेज्जेत्यादि, अविद्यमान साहाय्यं-12 परसाहायकम् अत्यन्तसमर्थत्वाधेषां तेऽसाहाय्यास्ते च ते देवादयश्चेति कर्मधारयः, अथवा व्यस्तमेवेदं तेनासाहाय्या-18 आपद्यपि देवादिसाहायकानपेक्षाः स्वयं कृतं कर्म स्वयमेव भोक्तव्यमित्यदीनमनोवृत्तय इत्यर्थः अथवा पाषण्डिभिः प्रारब्धाः सम्यक्त्वाविचलनं प्रति न परसाहाय्यमपेक्षन्ते, स्वयमेव तत्प्रतिघातसमर्थत्वाजिनशासनात्यन्तभावितत्वाति, तत्र देवा-पैमानिकाः 'असुरे'ति असुरकुमाराः 'नाग'त्ति नागकुमारा, उभयेऽप्यमी भवनपतिविशेषाः, 'सुवण्ण'त्ति & सद्वर्णाः ज्योतिष्काः यक्षराक्षसकिंनरकिंपुरुषा:-व्यन्तरविशेषाः 'गरुल'त्ति गरुडध्वजाः सुपपर्णकुमारा:-भवनपतिवि SS CRESS | तुन्गिका-नगर्या: श्रावका: ~282~ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०७] दीप अनुक्रम [१३०] व्याख्या-1 शेषाः गन्धर्वा महोरगाश्च-व्यन्तरविशेषाः 'अणतिकमणिजत्ति अनतिक्रमणीया:-अचालनीयाः, 'लहत्ति अर्थश्रय- २ शतके प्रज्ञप्ति कोणात् 'गहिय?'त्ति अर्थावधारणात् 'पुच्छियट्ट'त्ति सांशयिकार्थप्रश्नकरणात् 'अभिगहियट्ठत्ति प्रनितार्थस्याभिगमनात् उद्देशः ५ अभयदेवी विणिच्छियहत्ति ऐदम्पर्यार्थस्योपलम्भाद् अत एव 'अद्विमिजपेम्माणुरागरत्ता' अस्थीनि च-कीकसानि मिञ्जा या वृत्तिः१ तुङ्गिका|च-तन्मध्यवर्ती धातुरस्थिमिजास्ताः प्रेमानुरागेण-सर्वज्ञप्रवचनप्रीतिरूपकुसुम्भादिरागेण रक्ता इव रक्ता येषां ते तथा, लाश्रावकाः ॥१३५॥ अथवाऽस्थिमिजासु जिनशासनगतप्रेमानुरागेण रक्ता ये ते तथा, केनोल्लेखेन ? इत्याह-'अयमाउसो'इत्यादि, अयमिति तथा. नोलेले हत्यामा सू १०७ प्राकृतत्वादिदम् 'आउसो'त्ति आयुष्मन्निति पुत्रादेरामन्त्रणं 'सेसे'त्ति शेष-निर्ग्रन्थप्रवचनव्यतिरिक्तं धनधान्यपुत्रकलत्रमित्र कुप्रवचनादिकमिति, 'ऊसियफलिह'त्ति उच्छ्रितम्-उन्नतं स्फटिकमिव स्फटिक चित्तं येषां ते उच्छ्रितस्फटिकाः मौनीन्द्रप्रवचनावाप्त्या परितुष्टमानसा इत्यर्थ इति वृद्धव्याख्या, अन्ये वाहुः-उच्छ्रितः-अर्गलास्थानादपनीयो कृतो नमू |तिरश्चीनः कपाटपश्चाद्भागादपनीत इत्यर्थः परिधः-अर्गला येषां ते उच्छ्रितपरिणाः, अथवोच्छ्रितो-गृहद्वारादपगतः परियो। ला येषां ते उच्छ्रितपरिधार, औदार्यातिशयादतिशयदानदायित्वेन भिक्षुकाणां गृहप्रवेशनार्थमनर्गलितगृहद्वारा इत्यर्थः, 'अवंगु-12 यदुवारे'ति अप्रावृतद्वाराः कपाटादिभिरस्थगित गृहद्वारा इत्यर्थः, सद्दर्शनलाभेन न कुतोऽपि पाण्डिकाद्विभ्यति, शोभनमापरिग्रहेणोद्घाटशिरसस्तिष्ठन्तीति भाव इति वृद्धव्याख्या, अन्ये त्वाहुः-भिक्षुकमवेशार्थमौदार्यादस्थगितगृहद्वारा इत्यर्थः, ॥१३५॥ 'चियत्तंतेउरघरप्पवेसा' 'चियत्तो'त्ति लोकानां प्रीतिकर एवान्तःपुरे वा गृहे वा प्रवेशो येषां ते तथा, अतिधार्मिकतया सर्वत्रानाशङ्कनीयास्त इत्यर्थः, अन्ये त्वाहुः-'चियत्तोत्ति नाप्रीतिकरोऽन्तःपुरगृहयोः प्रवेश:-शिष्टजनप्रवेशनं | | तुन्गिका-नगर्या: श्रावका: ~283~ Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * S प्रत सूत्रांक [१०७] दीप अनुक्रम [१३०] ACREAS55 येषां ते तथा, अनीालुताप्रतिपादनपरं चेत्थं विशेषणमिति, अथवा चियत्तोत्ति त्यक्तोऽन्तःपुरगृहयोः परकीययोयथाकथश्चित्प्रवेशो यैस्ते तथा, 'बहुर्हि इत्यादि, शीलवतानि-अणुव्रतानि गुणा-गुणवतानि विरमणानि-औचित्येन | रागादिनिवृत्तयःप्रत्याख्यानानि-पौरुष्यादीनि पौषधं-पर्वदिनानुष्ठानं तत्रोपवास:-अवस्थानं पौषधोपवासः,एषां द्वन्द्वोऽत|स्तैर्युक्ता इति गम्यम् । पौषधोपवास इत्युक्तं, पौषधं च यदा यथाविधं च ते कुर्वन्तो विहरन्ति तद्दर्शयन्नाह-चाउइसे त्यादि, इहोद्दिष्टा-अमावास्या 'पडिपुषणं पोसह ति आहारादिभेदाच्चतुर्विधमपि सर्वतः 'वस्थपडिग्गहकंबलपायपुंछणणं'ति इह पतबह-पात्रं पादप्रोञ्छनं-रजोहरण 'पी'त्यादि पीठम्-आसनं फलकम्-अवष्टम्भनफलक शय्यावसतिबृंहसंस्तारको वा संस्तारको-लघुतरः एषां समाहारद्वन्द्वोऽतस्तेन 'अहापरिग्गहिएहिं'ति यथाप्रतिपन्नने पुनसिं नीतैः॥ तेणं कालेणं २ पासावचिजा थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना बलसंपन्ना रूवसंपन्ना विणयसं| पन्ना णाणसंपन्ना दसणसंपन्ना चरित्तसंपन्ना लज्जासंपन्ना लाघवसंपन्ना ओयंसी तेयंसी वर्चसी जसंसी जि| यकोहा जियमाणा जियलोभा जियनिदा जितिंदिया जियपरीसहा जीवियासमरणभयविप्पमुका जाब कुत्तियावणभूता बहुस्सुया बहुपरिवारा पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं संपरिबुडा अहाणुपुचि चरमाणा |गामाणुगामं दूइज्जमाणा सुहंसुहेणं विहरमाणा जेणेव तुंगिया नगरी जेणेव पुष्पवतीए चेहए तेणेव उवाग-1 छंति २ अहापडिरूवं उग्गहं गिणिहत्ता णं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरंति ॥ (सू०१०८)। | तुन्गिका-नगर्या: श्रावका: ~284~ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०८] त्यागमः दीप अनुक्रम [१३१] व्याख्या- 'घर'त्ति श्रुतवृद्धाः 'रूवसंपन्न'त्ति इह रूपं-सुविहितनेपथ्यं शरीरसुन्दरता वा तेन संपन्ना-युक्ता रूपसंपन्नाः'लज्जा लाघ |२ शतके प्रज्ञप्तिः वसंपन्न'त्ति लज्जा-प्रसिद्धा संयमो वा लाघवं-द्रव्यतोऽल्पोपधित्वंभावतो गौरवत्यागः, ओयंसी'ति ओजस्विनों मानसावअभयदेवीया वृत्तिः१४ | टम्भयुक्ताः 'तेयंसी'ति 'तेजस्विनः' शरीरप्रभायुक्ताः वचंसी'ति 'वर्चस्विनः' विशिष्टप्रभावोपेताः 'वचस्विनो वा' विशिष्टव चनयुक्काजसंसी'ति ख्यातिमन्तः,अनुस्वारश्चैतेषु प्राकृतत्वात् , 'जीवियासमरणभयविप्पमुफत्ति जीविताशया मरणभ॥१३६॥ | येन च विप्रमुक्का येते तथा, इह यावत्करणादिदं दृश्य-तवष्पहाणा गुणप्पहाणा' गुणाश्च संयमगुणाः, तपःसंयमग्रहण चेह | तपःसंयमयोः प्रधानमोक्षाङ्गताभिधानार्थ, तथा 'करणप्पहाणा चरणप्पहाणा' तत्र करणं-पिण्डविशुयादि चरणं-व्रतश्रमणधर्मादि निग्गहप्पहाणा' निग्रहः-अन्यायकारिणां दण्डः 'निच्छयप्पहाणा' निश्चय:-अवश्यंकरणाभ्युपगमस्तत्त्वनिर्णयो वामहवप्पहाणा अज्जवप्पहाणा' ननु जितक्रोधादित्वाम्माईवादिप्रधानत्वमवगम्यत एव तरिक मार्दवेत्यादिना , उच्यते, || तत्रोदयविफलतोक्का मार्दवादिप्रधानत्वे तूदयाभाव एवेति, लाघवप्पहाणा' लाघव-क्रियासु दक्षत्वं 'खंतिष्पहाणा मुत्तिप्पहाणा एवं विजामतवेयबभनयनियमसच्चसोयप्पहाणा 'चारुपण्णा' सत्प्रज्ञाः 'सोही' शुद्धिहेतुत्वेन शोधयः सुहृदो वा-- मित्राणि जीवानामिति गम्यम, 'अणियाणा अप्पस्सुया अबहिल्लेसा सुसामण्णरया अच्छिद्दपसिणवागरणे'ति अग्छि1 द्राणि-अविरलानि निर्दषणानि वा प्रश्नव्याकरणानि येषां ते तथा, तथा 'कुत्तियावणभूय'त्ति कुत्रिक-स्वर्गमये- ॥१३६॥ पाताललक्षणं भूमित्रयं तत्सम्भवं वस्त्वपि कुत्रिक तत्संपादक आपणो-हहः कुत्रिकापणस्तजूताः सभीहितार्थसम्पादनल 5425 ~285 Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१०८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०८] दीप अनुक्रम [१३१] ब्धियुक्तत्वेन सकलगुणोपेतत्वेन वा तदुपमाः, 'सद्धिति सार्द्ध सहेत्यर्थः 'संपरिकृताः' सम्यकपरिवारिताः परिकरभावेन परिकरिता इत्यर्थः पञ्चभिः श्रमणशतैरेव ॥ | तए णं तुगियाए नगरीए सिंघाडगतिगचउपचचरमहापहपहेसु जाव एगदिसाभिमुहा णिज्जायंति, तए णं ||3| लाते समणोवासया इमीसे कहाए लट्ठा समाणा हहतुट्ठा जाब सहावेंति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणु-15 प्पिया ! पासावञ्चेज्जा धेरा भगवंतो जातिसंपन्ना जाव अहापडिरूवं उग्गहं उम्पिण्हित्ता णं संजमेणं तवसा * अप्पाणं भावेमाणा विहरति, तं महाफलं खलु देवाणुप्पिया ! तहारूवाणं थेराणं भगवंताणं णामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ? जाव गहणयाए ?, तंग|च्छामो णं देवाणुप्पिया । धेरे भगवते वंदामो नमंसामो जाव पज्जुबासामो, एवं णं इह भवे वा परभवे वा ट्राजाव अणुगामियत्ताए भविस्सतीतिकट्ट अन्नमन्नस्स अंतिए एयमढे पडिसुणेति २ जेणेव सयाई २ गिहाई|| द तेणेव उवागच्छंति २ ण्हाया कयवलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई वत्थाई पवराई परिहिया अप्पमहग्धाभरणालंकियसरीरा सएहिं २ गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति २त्सा एगयो मेलायति २ पायबिहारचारेणं तुंगियाए नगरीए मझमज्झेणं णिगच्छति २ जेणेव पुष्फवतीए चेहए तेणेच उचागच्छंति २ थेरे भगवते पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छंति, तंजहा-सचित्ताणं दवाणं विउसरणयाए १ अचित्ताणं दवाणं अविउसरणयाए २ एगसाडिएणं उत्तरासंगकरणेणं ३ चक्खुप्फासे अंजलिप्पग्ग FaParanaimaan unsony ~286~ Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०९] दीप अनुक्रम [१३२] व्याख्या-1 हेणं ४ मणसो एगत्तीकरणेणं ५ जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छति २ तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं शतके प्रज्ञप्तिःकरेइ २ जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पजुवासंति ॥ (सू०१०९)॥ उद्देशा५ अभयदेवीSIX 'सिंघाडग'त्ति शृङ्गाटकफलाकार स्थानं त्रिक-रथ्यात्रयमीलनस्थानं चतुष्क-रण्याचतुष्कमीलनस्थानं चत्वरं-वत्त पर्युपासना या वृत्तिः१४ काररथ्यामीलनस्थानं महापथो-राजमार्गः पन्था-रथ्यामात्रं यावत्करणाद् 'बहुजणसद्दे इ वा' इत्यादि पूर्व आख्यानमत्र सू१०९ भादृश्यं 'एयमझु पडिसुणेति ति अभ्युपगच्छन्ति 'सयाई २'ति स्वकीयानि २ 'कयवलिकम्म'त्ति स्नानानन्तरं कृतं बलिकर्म यैः स्वगृहदेवतानां ते तथा, 'कयकोउयमंगलपायच्छित्त'त्ति कृतानि कौतुकमशलान्येव प्रायश्चित्तानि दुःस्वमादिविघातार्थमवश्यकरणीयत्वाचस्ते तथा, अन्ये त्वाः-पायच्छित्त'त्ति पादेन पादे वा छुप्ताक्षक्षुर्दोषपरिहारार्थ || या पादच्छुप्ताः कृतकौतुकमालाच ते पादच्छुप्ताश्चेति विग्रहः, तत्र कौतुकानि-मपीतिलकादीनि मनालानि तु-सिद्धार्थकद-|| 18॥ध्यक्षतर्वाङ्करादीनि 'सुद्धप्पायेसाईति शुद्धात्मनां वैष्याणि-पोचितानि अथवा शुद्धानि च तानि प्रवे-18 श्यानि च-राजादिसभाप्रवेशोचितानि शुद्धप्रवेश्यानि 'वत्थाई पवराई परिहिय'त्ति कचिदृश्यते, कचित्र 'वत्थाई पवरपरिहिय'त्ति, तत्र प्रथमपाठो व्यक्का, द्वितीयस्तु प्रवरं यथाभवत्येवं परिहिताः प्रवरपरिहिताः'पायविहारचारेणं'ति Mपादविहारेण न यानविहारेण यथारो-मनं स तथा तेन 'अभिगमेणं'ति प्रतिपस्या 'अभिगच्छन्ति' तत् समीपं अभि गच्छन्ति 'सचित्ताणंति पुष्पताम्बूलादीनां 'विउसरणयाए'त्ति 'व्यवसर्जनया' त्यागेन 'अचित्ताण ति वस्त्रमुद्रिकादी-1 नाम् 'अविउसरणयाए'त्ति अत्यागेन 'एगसाहिएण'ति अनेकोत्तरीयशाटकानां निषेधार्थमुक्तम् 'उत्तरासंगकर-10 ~287~ Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१०९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१०९] गणति उत्तरासङ्गः-उत्तरीयस्य देहे भ्यासविशेषः 'चक्षुःस्पर्श' दृष्टिपाते 'एगत्तीकरणेणं ति अनेकत्वस्य-अनेकालम्बन-18 त्वस्य एकत्वकरणम्-एकालम्बनत्वकरणमेकत्रीकरणं तेन 'तिविहाए पजुवासणाए'त्ति, इह पर्युपासनात्रैविध्यं मनोवाकायभेदादिति ॥ | तए णं ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं तीसे य महतिमहालियाए चाउजामं धम्म परिकहेंति जहा केसिसामिस्स जाच समणोवासियत्ताए आणाए आराहगे भवति जाव धम्मो कहिओ। तए ते समणोवासया घेराणं भगवंताणं अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ट तुट्ठ जाव हयहियया तिक्खुत्तो आयाहिणप्पयाहिणं करेंति २ जाच तिचिहाए पज्जुवासणाए पजुवासति २ एवं वदासी-संजमे थे भंते ! किंफले ? तवे णं भंते ! किंफले ?, तए णं ते घेरा भगवंतो ते समणोवासए एवं बदासी-संजमे थे अज्जो ! अणण्हयफले तवे चोदाणफले, तए णं ते समणोवासया धेरे भगवंते एवं वदासी-जतिणं भंते ! संजमे अणण्हयफले में तवे वोदाणफले किंपत्तियं णं भंते देवा देवलोएसु उववजंति, तत्व णं कालियपुत्ते नाम धेरेते समणोबासए एवं वदासी-पुब्बतवेणं अजो। देवा देवलोएसु उववति, तत्थ णं मेहिले नाम थेरे ते समणोवासए एवं ४ शवदासी-पुब्वसंजमेणं अजो! देवा देवलोएसु उववजंति, तत्थ णं आणंदरक्खिए णामं धेरे ते समणोवासए । एवं वदासी-कम्मियाए अज्जो ! देवा देवलोएम उववजंति, तत्थ णं कासवेणामं धेरे ते समणोवासए एवं *वदासी-संगियाए अजो ! देवा देवलोएसु उववजंति, पुव्वत्तवेणं पुव्यसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अनो: दीप अनुक्रम [१३२] ॐॐॐ ~288~ Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [११०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [१३३] व्याख्या- देवा देवलोएसु उववज्जति, सचे णं एस अडे नो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए, तए णं ते समणोवासया धेरे-||3|२ शतके प्रज्ञप्तिः | हिं भगवतेहिं इमाई एयारूवाई वागरणाई वागरिया समाणा हहतुट्टा थेरे भगवते वंदति नमसंति २ पसि-1| उद्देशः ५ अभयदेवी-शणाई पुच्छति २ अट्ठाई उवादियति २ उट्ठाइ उद्धेति २ थेरे भगवते तिक्खुत्तो वंदंति णमसंति २ थेराणं | भगवं० अंतियाओ पुष्फवतियाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति २ जामेव दिसि पाउन्भूपा तामेव दिसि || ॥१३८॥ पडिगया ॥ तए णं ते थेरा अन्नया कयाई तुंगियाओ पुष्फवतिचेइयाओ पडिनिगच्छह २ बहिया जणवय विहारं विहरह (सू० ११०)॥ 'महइमहालियाए'त्ति आलप्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वान्महातिमहत्याः 'अणण्हयफले'त्ति न आश्रवः अनाश्रवः अनाद्र श्रवो-नवकम्मोनुपादानं फलमस्येत्यनाश्रवफलः संयमः 'चोदाणफले'त्ति 'दाए लवने' अथवा 'दैप शोधने' इति वच-14 नाद् व्यवदान-पूर्वकृतकर्मवनगहनस्य लवनं प्राक्कृतकर्मकचवरशोधनं वा फलं यस्य तद्व्यवदानफलं तप इति । किंप-1 |त्तिय'ति का प्रत्ययः-कारणं यत्र तत् किंप्रत्ययं ?, निष्कारणमेव देवा देवलोकेषुत्पद्यन्ते तपःसंयमयोरुक्तनीत्या तद-31 | कारणत्वादित्यभिप्रायः। 'पुच्वतचेणं'ति पूर्वतपः-सरागावस्थाभावि तपस्या, वीतरागावस्थाऽपेक्षया सरागावस्थायाः | पूर्वकालभावित्वात्, एवं संयमोऽपि अयथाख्यातचारित्रमित्यर्थः, ततश्च सरागकृतेन संयमेन तपसा च देवत्वावाप्तिः, ॥१३८॥ रागांशस्य कर्मबन्धहेतुत्वात् । 'कम्मियाए'त्ति कर्म विद्यते यस्थासौ कर्मी तद्भावस्तत्ता तया कम्मितया, अन्ये त्वाहु-151 कर्मणां विकारः कार्मिका तयाऽक्षीणेन कर्मशेषेण देवत्वावाप्तिरित्यर्थः, 'संगियाए'त्ति सङ्गो यस्यास्ति स सङ्गी तद्भा-ट्रा ~289~ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [११०] दीप अनुक्रम [१३३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५] मूलं [११०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः वस्तत्ता तया, ससङ्गो हि द्रव्यादिषु संयमादियुक्तोऽपि कर्म बनाति ततः सङ्गितया देवत्वावाप्तिरिति, आह च - "युव | तवसंजमा होंति रागिणो पच्छिमा अरागस्स । रागो संगो वृत्तो संगा कस्मै भवो तेणं ॥ १ ॥” 'सबै ण'मित्यादि सत्योऽयमर्थः कस्मात् ? इत्याह- 'नो वेव ण'मित्यादि नैवात्मभाववक्तव्यतयाऽयमर्थः, आत्मभाव एव - स्वाभिप्राय एव न वस्तुतत्त्वं वक्तव्यो वाच्योऽभिमानाद्येषां ते आत्मभाववक्तव्यास्तेषां भाव- आत्मभाववक्तव्यता- अहंमानिता तया, न वय महंमानितयैवं ब्रूमः अपि तु परमार्थ एवायमेवंविध इति भावना ॥ ते काले २ रायगिहे नाम नगरे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स जेहे अंतेवासी इंदभूतीनामं अणगारे जाव संखित्तविउलतेय लेस्से छछणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे जाव विहरति । तए णं से भगवं गोयमे छट्ठक्खमणपारणगंसि पढमाए | पोरिसीए सज्झायं करेइ बीयाए पोरिसीए झाणं झियायह तहयाए पोरिसीए अतुरियमचवलमसंभंते मुहपोत्तियं पडिलेहेइ २ भायणाई वत्थाई पडिलेहेइ २ भागणाई पमजइ २ भाषणाई उग्गाहेइ २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं भगवं महावीरं बंदर नमसह २ एवं वदासी - इच्छामि णं भंते ! तुम्भेहिं अन्भन्नाए छट्टक्खमणवारणगंसि रायगिहे नगरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्तए, अहासुरं देवाणुप्पिया ! मा परिबंध, तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महा १ रागिणस्तपः संयमी देवत्वकारणे (पूर्वी) अरागिणोऽन्त्यौ रागः सङ्ग उक्तः सङ्गात् कर्म्म तेन भयो जायते ॥ १ ॥ Education International For Parts Use One ~290~ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१११] डामर्थ्य गौत व्याख्या-1B वीरेणं अम्भणुनाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ गुणसिलाओ चेइयाओ पडिनिक्ख-18|| २ शतके प्रज्ञप्तिः ॥ मह २ अतुरियमचवलमसंभंते जुगतरपलोयणाए दिट्ठीए पुरओ रियं सोहेमाणे २ जेणेव रायगिहे नगरे उद्देशः ५ अभयदेवी- तेणेव उवागच्छइ २रायगिहे नगरे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियं अडइ । तए णं स्थावरसा या वृत्तिः से भगवं गोयमे रायगिहे न० जाव अडमाणे बहुजणसई निसामेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! तुङ्गियाए नग-| मप्रश्नः ॥१३९॥ रीए यहिया पुष्फवतीए चेएइ पासावञ्चिज्जा धेरा भगवंतो समणोवासपहिं इमाई एयारवाई वागरणाई| सू१११ पुच्छिया-संजमे थे भंते ! किंफले ? तवे णं भंते ! किंफले ?, तए णं ते घेरा भगवंतोते समणोवासए एवं वदासी-संजमे णं अनो! अणण्हयफले तवे बोदाणफले तं चेव जाव पुब्बतवेणं पुवसंजमेणं कम्मियाए |संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएसु उववजंति, सच्चे गं एसमडे णो चेव णं आयभाववत्तब्वयाए । से कहमेघ मण्णे एवं ,लए णं समणे० गोयमे इमीसे कहाए लहढे समाणे जायसढे जाव समुप्पन्नकोहल्ले अहापज्जत्तं समुदाणं गेण्हइ २ रायगिहाओ नगराओ पडिनिक्खमइ २ अतुरियं जाव सोहेमाणे जेणेव गुणसिलए चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवा० सम० भ० महावीरस्स अदूरसामंते गमणागमणए पडिकमइ एसणमणेसणं आलोपइ २ भत्तपाणं पडिदंसह २ समणं भ० महावीरं जाव एवं ॥१३९॥ वयासी-एवं खलु भंते ! अहं तुम्भेहिं अभYण्णाए समाणे रायगिहे नगरे उच्चनीयमज्झिमाणि कुलाणि घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडमाणे बहुजणसई निसामेति(मि), एवं खलु देवा तुंगियाए नगरीए बहिया ॐILEGASॐ कर दीप अनुक्रम [१३४] पापित्य-स्थवीर सार्ध गौतमस्वामिन: प्रश्न: ~291 Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१३४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः पुष्कवईए बेइए पासावचिज्जा घेरा भगवंतो समणोवासएहिं इमाई एयारूबाई वागरणाई पुच्छिया - संजमे णं भंते! किंफले ? तवे किंफले १ तं चैव जाव सबै णं एसमट्ठे णो चैव णं आयभाववत्सव्वपाए, तं पभू णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूबाई वागरणाई बागरित्तए उदाहु अप्पम् ?, समिया णं भंते ! ते धेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयाख्वाई वागरणाई बागरित्तए उदाह असमिया ? आउज्जिया णं भंते! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयारूबाई वागरणाई दागरित्तए ? उदाहु अणाउज्जिया ? पलिउज्जिया णं भंते ! ते थेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयास्वाई वागरणाई वागरित्तए उदाहु अपलिउजिया ?, पुव्वतवेणं अज्जो ! देवा देवलोएस उचवज्र्ज्जति पुण्यसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएस उबवजंति, सच्चे णं एसमट्टे णो चेव णं आयभाववतव्वयाए, पभू णं गोयमा ! ते धेरा भगवंतो तेसिं समणोवासयाणं इमाई एयाख्वा वागरणाई वागरेत्तए, णो चेव णं अप्पभू, तह चेव नेयव्वं अवसेसियं जाव पभू समियं आउनिया पलिउल्जिया जाव सच्चे णं एसमहे णो चेव णंआयभाववत्तव्वयाए, अपि णं गोयमा । एवमाइक्खामि भासेमि पण्णवेमि परूवेमि पुव्वतवेणं | देवा देवलोएस उववज्र्ज्जति पुव्वसंजमेणं देवा देवलोपसु उववज्र्ज्जति कम्मियाए देवा देवलोपसु उववज्रंति संगियाए देवा देवलोएसु उववज्जंति, पुष्धतवेणं पुण्बसंजमेणं कम्मियाए संगियाए अज्जो ! देवा देवलोएस उबवज्रंति, सचे णं एसमहे णो चेव णं आयभाववत्तव्वयाए ॥ ( सू० १११ ) ॥ Education Internationa पार्श्वपत्य स्थवीर सार्ध गौतमस्वामिनः प्रश्नः For Pal Use Only ~292~ %%%%% % %%% www.lanerary.org Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१११] दीप अनुक्रम [१३४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५] मूलं [१११] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥१४०॥ 'अतुरिय'ति कायिकत्वरहितम् 'अचवलं'ति मानसचापल्यरहितम् 'असंमंते'त्ति असंभ्रान्तज्ञानः 'घरसमुदा|णस्स' गृहेषु समुदानं-भैक्षं गृहसमुदानं तस्मै गृहसमुदानाय 'भिक्खायरियाए 'ति भिक्षासमाचारेण 'जुगंतरपलोय| गाए 'ति युगं - यूपस्तत्प्रमाणमन्तरं स्वदेहस्य दृष्टिपात देशस्य च व्यवधानं प्रलोकयति या सा युगान्तरप्रलोकना तया दया 'रियं'ति ईर्या गमनम् ॥ 'से कहमेयं मण्णे एवं'ति अथ कथमेतत् स्थविश्वचनं मन्ये इति वितर्कार्थो निपातः 'एवम्' अमुना प्रकारेणेति बहुजनवचनं 'पभू णं'ति 'प्रभवः' समर्थास्ते 'समिया णं'ति सम्यगिति प्रशंसार्थो निपातस्तेन सम्यक् ते व्याक | वर्त्तन्ते अविपर्यासास्त इत्यर्थः समञ्चन्तीति वा सम्यञ्चः समिता वा सम्यक्पवृत्तयः श्रमिता वा-अभ्यासवन्तः 'आउजिय'त्ति 'आयोगिकाः' उपयोगवन्तो ज्ञानिन इत्यर्थः जानन्तीति भावः 'पलिउज्जियति परि-समन्ताद् योगिकाः | परिज्ञानिन इत्यर्थः परिजानन्तीति भावः ॥ अनन्तरं श्रमणपर्युपासनासंविधानकमुक्तम्, अथ सा यत्फला तदर्शनार्थमाह तहारूवं भंते! समणं वा माहणं वा पलुवासमाणस्स किंफला पज्जुवासणा ?, गोयमा ! सवणफला, से णं भंते ! सवणे किंफले ?, णाणफले, से णं भंते ! नाणे किंफले ?, विष्णाणफले, से णं भंते! विनाणे किंफले ?, पचक्खाणफले, से णं भंते! पञ्चक्खाणे किंफले १, संजमफले, से णं भंते! संजमे किंफले १, अणण्यफले, एवं अणण्ड्ये तवफले, तबे वोदाणफले, बोदाणे अकिरियाफले, से णं भंते ! अकिरिया किं ucation Internation पार्श्वपत्य स्थवीर सार्ध गौतमस्वामिनः प्रश्नः For Parks Use Only ~ 293~ २ शतके उद्देशः ५ स्थविरसामये गौत मप्रश्नः सू १११ ॥१४०॥ Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [११२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११२] फला ?, सिद्धिपज्जवसाणफला पण्णत्ता गोयमा !, गाहा-सवणे णाणे य विष्णाणे पञ्चक्खाणे य संजमे। अणण्हए तवे चेव चोदाणे अकिरिया सिद्धी ॥१॥(सू०११२)॥ . | 'तहारूव'मित्यादि 'तधारूपम्' उचितस्वभावं कश्चन पुरुष श्रमणं वा तपोयुक्तम् , उपलक्षणत्वादस्योत्तरगुणवन्तमित्यर्थः, 'माहनं वा' स्वयं हनननिवृत्तवात्परं प्रति मा हनेतिवादिनम् , उपलक्षणत्वादेव मूलगुणयुक्तमिति भावः, वा| शब्दी समुच्चये, अथवा 'श्रमणः' साधुः 'माहनः' श्रावकः 'सवणफले'ति सिद्धान्तश्रवणफला, 'णाणफले'त्ति श्रुतज्ञानफलं, श्रवणाद्धि श्रुतज्ञानमवाप्यते, 'विण्णाणफले'त्ति विशिष्टज्ञानफलं, श्रुतज्ञानाद्धि हेयोपादेयविवेककारिविज्ञान| मुत्पद्यत एव, 'पचक्खाणफले'त्ति विनिवृत्ति कलं, विशिष्टज्ञानो हि पापं प्रत्याख्याति, 'संजमफले'त्ति कृतप्रत्याख्याKानस्य हि संयमो भवत्येव, 'अणण्हयफले'त्ति अनावफलः, संयमवान किल नवं कर्म नोपादत्ते, 'तवफले'त्ति अना-|| श्रवो हि लघुकर्मत्वात्तपस्यतीति, 'वोदाणफले'त्ति व्यवदानं-कर्मनिर्जरणं, तपसा हि पुरातनं कर्म निर्जरयति, 'अकिरियाफले'त्ति योगनिरोधफलं, कर्मनिर्जरातो हि योगनिरोधं कुरुते, 'सिद्धिपज्जवसाणफले'ति सिद्धिलक्षणं पर्यवसानफल-सकलफलपर्यन्तवर्ति फलं यस्यां सा तथा । 'गाह'त्ति सङ्ग्रगाथा, एतल्लक्षणं चैतद्-"विषमाक्षरपादं वा"इत्यादि छन्दःशास्त्रप्रसिद्धमिति ॥ तथारूपस्यैव श्रमणादेः पर्युपासना यथोक्तफला भवति, नातधारूपस्य, असम्यग्भाषित्त्वादिति असम्यगभाषितामेव केपाश्चिद्दर्शयन्नाह अण्णउत्थिया णं भंते ! एवमातिक्खंति भासंति पण्णवेंति परूवेति-एवं खलु रायगिहस्स नगरस्स बहिया +CCCCCCCCOR गाथा दीप अनुक्रम [१३५१३६] पापित्य-स्थवीर सार्ध गौतमस्वामिन: प्रश्न: ~294~ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: २ शतके प्रत सूत्रांक [११३] दीप अनुक्रम [१३७] व्याख्या- वेभारस्स पब्वयस्स अहे एत्य णं महं एगे हरए अधे पन्नत्ते अणेगाई जोयणाई आयामविखंभेणं नाणावुम-13 प्रज्ञप्तिः संडमंडितउद्देसे सस्सिरीए जाव पडिरूवे, तत्थ णं बहवे ओराला बलाहया संसेयंति सम्मुञ्छिति वासंति । उद्देशः ५ अभयदेवी तव्यतिरित्ते य णं सया समिओ उसिणे २ आउकाए अभिनिस्सवइ । से कहमेयं भंते ! एवं , गोयमा जपणं अघहदप्रया वृत्तिः ते अण्णउत्थिया एवमातिक्खंति जाव जे ते एवं परूवेंति मिच्छ ते एवमातिक्खंति जाव सर्व नेयव्वं, जाव नासू११३ ॥१४॥ || अहं पुण गोयमा ! एवमातिक्खामि भा०पं०प० एवं खलु रायगिहस्स नगरस्स पहिया वेभारपब्वयस्स अद्-|| | रसामंते, एस्थणं महातवोवतीरप्पभवे नाम पासवणे पन्नत्ते पंचधणुसयाणि आयामविक्खंभेणं नाणामसंडम-II* है डिउद्देसे सस्सिरीए पासादीए दुरिसणिज्जे अभिरुवे पडिरूवे तत्थ णं बहवे उसिणजोणिया जीवा य पोग्ग ला य उदगत्ताए वकर्मति विउकर्मति चयंति उपवज्जति तव्वतिरित्तेवि य णं सया समियं उसिणे २ आ| उयाए अभिनिस्सवइ, एस णं गोयमा ! महातबोवतीरप्पभवे पासवर्ण एस णं गोयमा ! महातवोवती-II || रणभवस्स पासवणस्स अट्टे पन्नत्ते, सेवं भंते २त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नर्मसति ॥131 (सू०११३) ॥२-५॥ | 'पब्वयस्स अहे'त्ति अधस्तात्तस्योपरि पर्वत इत्यथः 'हरए'त्ति इदः 'अ'त्ति अधाभिधानः, कचित्त 'हरए'त्ति न ॥१४॥ दश्यते, अघेत्यस्य च स्थाने 'अप्पे'त्ति दृश्यते, तत्र चाप्यः-अप प्रभवो हूद एवेति, 'ओराल'त्ति विस्तीर्णः-'बलाहय' त्ति मेघाः 'संसेयंति' 'संस्विद्यन्ति' उत्पादाभिमुखीभवन्ति 'संमुच्छति'त्ति 'संमूर्छन्ति' उत्पद्यन्ते 'तब्बइरित्ते यत्ति ~295 Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [११३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक पाणादतिरिक्तधोत्कलित इत्यर्थः 'आउयाए'त्ति अकायः 'अभिनिस्सवह'त्ति 'अभिनिःश्रवति' धरति मिच्छ॥ ते एवमाइक्वंति'त्ति मिथ्यात्वं चैतदाख्यानस्य विभङ्गज्ञानपूर्वकत्वात् प्रायः सर्वज्ञवचनविरुद्धत्वाव्यावहारिकप्रत्यक्षेण है है प्रायोऽन्यथोपलम्भाचावगन्तव्यम् । 'अदूरसामंतेत्ति नातिदूरे नाप्यतिसमीप इत्यर्थः 'पत्थ गं'ति प्रज्ञापकेनोपदय-12 माने 'महातवोवतीरप्पभवे नामं पासवणे'त्ति आतप इवातपः-उष्णता महाश्चासावातपश्चेति महातपः महातपस्योपतीर-तीरसमीपे प्रभव-उत्पादो यत्रासौ महातपोपतीरप्रभवः, प्रश्रवति-क्षरतीति प्रश्रवणः प्रस्यन्दन इत्यर्थः, 'वकमंति' उत्पद्यन्ते 'विउक्कमंति' विनश्यन्ति, एतदेव व्यत्ययेनाह-च्यवन्ते चेति उत्पद्यन्ते चेति । उक्तमेवार्थं निगमयन्नाह 'एस 'मित्यादि 'एषः' अनन्तरोक्तरूपः एष चान्ययूधिकपरिकल्पिताघसज्ञो महातपोपतीरप्रभवः प्रश्रवण उच्यते, तथा 'एषः' योऽयमनन्तरोक्तः 'उसिणजोणीए'त्यादि स महातपोपतीरप्रभवस्य प्रश्रवणस्वार्थ:-अभिधानान्वर्थःप्रज्ञप्तः इति ॥ द्वितीयशते पञ्चमः ॥२-५॥ [११३] दीप अनुक्रम [१३७] BECACCESS पश्चमोद्देशकस्यान्तेऽन्ययूधिका मिथ्याभाषिण उक्ताः, अथ षष्ठे भाषास्वरूपमुच्यते, तत्र सूत्रम्से पूर्ण भंते ! मण्णामीति ओहारिणी भासा, एवं भासापदं भाणियव्वं (सू० ११४ ) ॥२-६ ।। 'से पूर्ण भंते ! मण्णामीति 'ओहारिणी भास'त्ति सेशब्दोऽथशब्दार्थे स च वाक्योपन्यासे, 'नूनम्' (नून) उपमानावधारणतर्कप्रश्नहेतु' इह अवधारणे 'भदन्त' इति गुर्वामन्त्रणे 'मन्थे' अवबुध्ये इति, एवमवधार्यते-अवगम्यतेऽनयेत्य अत्र द्वितीय-शतके पंचम-उद्देशकः समाप्त: अथ द्वितीय-शतके षष्ठम-उद्देशक: आरभ्यते ~2964 Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [११४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११४] दीप अनुक्रम [१३८] व्याख्या-|वधारणी, अवबोधवीजभूतेत्यर्थः भाष्यत इति भाषा-तद्योग्यतया परिणामितनिस्टनिसृज्यमानद्रव्यसंहतिरिति हृदयम् || २ शतके प्रज्ञप्तिः ||| एप पदार्थ, अयं पुनवोक्या:-अथ भदन्त । एवमहं मन्येऽवश्यमवधारणी भाषेति । एवममुना सूत्रकमेण भाषापदंश उद्देशी६-७ अभयदेवी- प्रज्ञापुनायामेकादशं भणितव्यमिह स्थाने, इह च भाषा द्रव्यक्षेत्रकालभावैः सत्यादिभिश्च भेदैरन्यैश्च बहुभिः पर्यायै-8 भाषादेवया वृत्तिःविचार्यते ॥ इति द्वितीयशते षष्ठः ॥२-६ ॥ स्थानयोःसू ४११४-११५ ॥१४२||-का भाषाविशुद्धेर्दैवत्वं भवतीति देवोदेशकः सप्तमः समारभ्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् __कतिविहाणं भंते ! देवा पण्णता ?, गोयमा ! चउन्विहा देवा पण्णता, तंजहा-भवणवइवाणमंतरजो-2 तिसवेमाणिया । कहि णं भंते ! भवणवासीणं देवाणं ठाणा पण्णता?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जहा ठाणपदे देवाणं वत्तब्धया सा भाणियब्वा, नवरं भवणा पण्णत्ता, उववाएणं लोयस्स असंखेज्जइभागे, एवं सव्वं भाणियब्वं जाव सिद्धगंडिया समत्ता-कप्पाण पइट्ठाणं बाहुलुचत्तमेव संठाणं । जीवाभि-1 गमे जाव बेमाणि उद्देसो भाणियच्यो सब्बो (सू०११५)॥२-७॥ ___ 'कणेति कति देवा जात्यपेक्षयेति गम्यं, कतिविधा देवाः इति हृदयं, 'जहा ठाणपए'त्ति यथा-यत्प्रकारा यारशी प्रज्ञापनाया द्वितीये स्थानपदाख्ये पदे देवानां वक्तव्यता से ति तथाप्रकारा भणितव्येति, नवरं 'भवणा प-11311 ॥१४॥ पणत'त्ति कचिद् दृश्यते, तस्य च फलं न सम्यगवगम्यते, देववक्तव्यता चैवम्-'इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए असीउ-15 सत्तरजोयणसयसहस्सबाहल्लाए उवरि एग जोयणसहस्सं ओगाहेचा हेठा चेगं जोयणसहस्सं वज्जेत्ता मञ्झे अट्टहचरे जोयण-19 अत्र द्वितीय-शतके षष्ठम-उद्देशक: समाप्त: अथ द्वितीय-शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते ~297 Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक दीप अनुक्रम [१३९] सयसहस्से, एस्थ णं भवणवासीणं देवाणं सत्त भवणकोडीओ बावत्तरिंच भवणावाससयसहस्सा भवतीति मक्खाय'इत्या|| दि । तद्गतमेवाभिधेयविशेष विशेषेण दर्शयति-उववाएणं लोयस्स असंखेवाभागे'त्ति, उपपातो-भवनपतिस्वस्थान प्राध्याभिमुख्यं तेनोपपातमाश्रित्येत्यर्थः, लोकस्यासक्वेयतमे भागे वर्तन्ते भवनवासिन इति । 'एवं सव्व भाणियब ति 'एवम्' उक्तन्यायेनान्यदपि भणितव्यं, तबेदम्-'समुग्याएर्ण लोयस्स असंखेजहभागे'त्ति मारणान्तिकादिसमुद्घातवर्तिनो भवनपतयो लोकस्यासधेय एव भागे वर्तन्ते । तथा 'सहाणेणं लोयस्स असंखेजे भागे' स्वस्थानस्य-उक्त भवनवाससातिरेककोटीसतकलक्षणस्य लोकासङ्गवेयभागवर्तित्वादिति, एवमसुरकुमाराणाम् , एवं तेषामेव दाक्षिणात्यानामौदीच्यानाम् , एवं नागकुमारादिभवनपतीनां यथौचित्येन व्यन्तराणां ज्योतिष्काणां वैमानिकानां च स्थानानि वाच्यानि, कियदूरं यावदित्याह-'जाब सिद्धेत्ति यावत्सिद्धगण्डिका-सिद्धस्थानप्रतिपादनपरं प्रकरणं, सा चैवम्-'क[हिणं भंते ! सिद्धाणं ठाणा पण्णता?' इत्यादि, इह च देवस्थानाधिकारे यत्सिद्धगण्डिकाऽभिधानं तत्स्थानाधिकारबलादित्यवसेयं, तथेदमपरमपि जीवाभिगमप्रसिद्धं वाच्यं, तद्यथा-कप्पाण पइहाणं' कल्पविमानानामाधारो वाच्य इत्यर्थः, स चैवम्-'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी किंपइडिया पपणत्ता, गोयमा! घणोदहिपइडिया पपणत्ता इत्यादि, आह च-"घणउदहिपइटाणा सुरभवणा होंति दोसु कप्पेसु । तिसु बाउपइटाणा | १ द्वयोः कल्पयोर्धनोदधिप्रतिष्ठानानि सुरभवनानि वायुप्रतिष्ठानानि त्रिषु त्रिषु च तदुभयप्रतिष्ठानानि ॥ १ ॥ ततः परमुपरितनानि आकाशान्तरमतिष्ठितानि सर्वाणि । ~298~ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [११५] दीप अनुक्रम [१३९] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्तिः) शतक [२], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [११५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः ॥ १४३॥ तदुभयसुपइडिया तिसु य ॥ १ ॥ तेण परं उबरिमगा आगासंतरपइडिया सबे । "त्ति । तथा 'बाल'त्ति विमान पृथिव्याः पिण्डो वाच्यः, स चैवम्— 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणपुढवी केवइयं बाहल्लेणं पण्णत्ता ?, गोयमा ! सत्तावीसं जोयणसयाई इत्यादि, आह च - "सत्तावीस सयाई आइमकप्पेस पुढविवाहलं । एकिकहाणि सेसे दु दुगे य दुगे चउक्के य ॥ १ ॥” ग्रैवेयकेषु द्वाविंशतियजनानां शतानि, अनुत्तरेषु त्वेकविंशतिरिति । 'उच्चत्तमेव 'त्ति कल्पविमानोच्चत्वं वाच्यं तच्चैवम्- 'सोहम्मीसाणेसु णं भंते! कप्पेसु विमाणा केवइयं उच्चतेणं पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंचजोयणसवाई इत्यादि, आह च-- “ पंचसउच्चत्तेणं आइमकप्पेस होंति उ विमाणा । एक्केकवुद्धि सेसे दु दुगे य दुगे चउके य ॥ १ ॥” मैवेयकेषु दश योजनशतानि अनुत्तरेषु त्वेकादशेति, 'संठाणं'ति विमानसंस्थानं वाच्यं तच्चैवम्- “सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु विमाणा किंसंठिया पण्णत्ता ?, गोयमा ! जे आवलियापविट्ठा ते वट्टा तंसा चउरंसा, जे आवलियाबाहि रा ते नाणासंठिय'ति । उक्तार्थस्य शेषमतिदिशन्नाह - जीवाभिगमेत्यादि, स च विमानानां प्रमाणवर्णप्रभागन्धादिप्रतिपादनार्थः ॥ इति द्वितीयशते सप्तमः ॥ २७ ॥ ~~~88;& अथ देवस्थानाधिकाराचमरचञ्चाभिधानदेवस्थानादिप्रतिपादनायाष्टमोद्देशकः, तस्य चेदं सूत्रम्१–सौधर्मेशानकल्पे सप्तविंशतिशतानि पृथ्वीबाहल्यम् । शेषे वेकैकशतहानिः द्विके द्विके द्विके चतुष्के च ॥ १ ॥ २२००-२१०० मैवेयकेषु अनुत्तरेषु ॥ सौधर्मेशानकरूपे विमानानि पञ्चशतोचानि शेषेष्वेकैकशतदृद्धिः द्विके द्विके द्विके च चतुष्के च ॥ १ ॥ अत्र द्वितीय शतके सप्तम उद्देशकः समाप्तः अथ द्वितीय शतके अष्टम-उद्देशक: आरभ्यते For Parts Only ~299~ २ शतके उद्देशः ८ देवस्थानं सू ११५ ॥ १४३॥ wor Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक कहिणभंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सभा मुहम्मा पन्नत्ता, गोयमा ! जंबूद्दीवे दीवे |मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे वीईवइत्ता अरुणवरस्स दीवस्स बाहिरिल्लाओ बेहयंताओ अरुणोदयं समुई बायालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्थण चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो तिगिच्छियकूडे नामं उप्पायपव्यए पण्णत्ते, सत्तरसएकवीसे जोयणसए उहूं उच्चत्तेणं चत्तारि जोयणसए कोसं च उच्चेहेणं गोत्धुभस्स आवासपब्वयस्स पमाणेणं णेयध्वं नवरं उचरिल्लं पमाणं मज्झे भाणियव्यं [ मूले दसवावीसे जोयणसए विक्खंभेणं मज्झे चत्तारि चउवीसे जोयणसते चिखंभेणं उरि सत्ततेवीसे जोयणसते विक्खंभेणं मूले तिणि जोयणसहस्साई दोषिण य बत्तीसुत्तरे जोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं मझे एग जोयणसहस्सं तिष्णि य इगयालेजोयणसते किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं उचरिं दोण्णि य जोयणसहस्साई दोणि यछलसीते जोयणसते किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं ]जाव मूले वित्थडे मझे संखित्ते उपि बिसाले मझे वरवइरविग्गहिए महामउंदसंठाणसंठिए सब्वरयणामए अच्छे जाव पडिरूवे, से णं एगाए पउमवरवेड्याए एगेणं वणसंडेण य सवओ समता संपरिक्खित्ते, पउमवरवेइयाए वणसंडस्स य वण्णओ, तस्स णं तिगिच्छिकूडस्स उपायपव्वयस्स उम्पि यहुसमरमणिज्जे भूमिभागे पण्णत्ते, वण्णओ तस्स णं बहुसमरमणिजस्स भूमिभागस्स बहुमज्झदेसभागे एस्थ णं महं एगे पासायवर्डिसए | पन्नत्ते अडाइजाई जोयणसयाई उहुं उच्चत्तेणं पणवीसं जोयणसयाई विक्खंभेणं, पासायवण्णओ उल्लोय दीप अनुक्रम [१४०] ~300~ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११६] ॥१४४॥ दीप अनुक्रम [१४०] व्याख्या-18भूमिवन्नओ अट्ट जोयणाई मणिपेढिया चमरस्स सीहासणं सपरिवारं भाणियव्वं, तस्स णं तिगिच्छिकूडस्स२ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवीदिदाहिणेणं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साइं पण्णासं च सहस्साई अरुणोदे समुद्दे | असुरराजयावृत्तिः१ तिरिय वीइवइत्ता अहे रयणप्पभाए पुढचीए चत्तालीसं जोयणसहस्साई ओगाहित्ता एत्य णं चमरस्स सभा असुरिंदस्स असुरकुमाररण्णो चमरचंचा नाम रायहाणी पं० एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं । सू ११६ टू जंबूदीवप्पमाणं, पागारो दिवहूं जोयणसयं उहूं उच्चत्तेणं मूले पन्नास जोयणाई विक्खंभेणं उवरिं अद्भतेरस★ जोयणा कविसीसगा अद्धजोयणआयामं कोसं विक्खंभेणं देसूर्ण अद्धजोयणं उखु उचत्तेणं एगमेगाए वा-18 हाए पंच २ दारसया अड्डाइजाइं जोयणसयाई २५० उहूं उच्चत्तेणं १२५ अजं विक्खंभेणं उबरियलेणं ४ सोलसजोयणसस्साई आयामविक्खंभेणं पन्नासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउयजोयणसए किंचिविसे सूणे परिक्खेवेणं सब्वप्पमाणं वेमाणियप्पमाणस्स अई नेयचं, सभा सुहम्मा, उत्तरपुरच्छिमे णं जिणघरं, ततो उववायसभा हरओ अभिसेय. अलंकारो जहा विजयस्स संकप्पो अभिसेयविभूसणा य ववसाओ। अञ्चणिय सिद्धायण गमोवि य णं चमर परिवार इट्टत्तं (सू० ११६) ॥ बीयसए अट्ठमो ॥२-८॥ | ॥१४४॥ | 'असुरिंदस्स'त्ति असुरेन्द्रस्य, स चेश्वरतामात्रेणापि स्यादित्याह-असुरराजस्य, वशव_सुरनिकायस्येत्यर्थः, 'उप्पायपव्वए'त्ति तिर्यगूलोकगमनाय यत्रागत्योत्पतति स उत्पातपर्वत इति । 'गोत्थुभस्से'त्यादि, तत्र गोस्तुभो लवणसमु RESEARSLRSACROSESEX ~301~ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [११६] दीप अनुक्रम [१४०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः द्रमध्ये पूर्वस्यां दिशि नागराजावासपर्वतस्तस्य चादिमध्यान्ते ( प्रान्तमध्ये ) षु विष्कम्भप्रमाणमिदम् - "कैमसो विक्खंभो से दसबावीसाइ जोयणसयाई १ । सत्तसए तेवी से २ चत्तारिसए व चवीसे ३ ॥ १ ॥" इहैव विशेषमाह-- 'नवर' मित्यादि, ततश्चेदमापन्नम् -'मूले दसबावीसे जोयणसए विक्खंभेणं, मज्झे चत्तारि चडवीसे, उवरिं सत्ततेवीसे, मूले तिण्णि जोयणसहस्साई दोण्णि य बत्तीसुतरे जोयणसर किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं मज्झे एगं जोयणसहस्सं तिष्णि य इगुवाले जोय|णसए किंचिविसेसूणे परिक्लेवेणं उवरिं दोण्णि य जोयणसहस्साई दोणि यं छलसीए जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिवखेवेणं' पुस्तकान्तरे स्वेतत्सकलमस्त्येवेति । 'वरवर विग्गहिए' त्ति वरवज्रस्येव विग्रह-आकृतिर्यस्य स स्वार्थिकेकप्रत्यये सति वरवज्रविग्रहिको, मध्ये क्षाम इत्यर्थः, एतदेवाह - 'महामउंदे'त्यादि मुकुन्दो - वाद्यविशेषः 'अच्छे'त्ति स्वच्छ आकाशस्फटिकवत् यावत्करणादिदं दृश्यम् -'सहे' श्लक्ष्णः श्लक्ष्णपुद्गलनिर्वृत्तत्वात् 'लव्हे' मसृणः 'घट्टे' घृष्ट इव पृष्टः खरशानया प्रतिमेव 'मट्ठे' मृष्ट इव सृष्टः सुकुमारशानया प्रतिमेव प्रमार्जनिकयेव वा शोधितः अत एव 'नीरए' नीरजा रजोरहितः 'निम्मले' कठिनमलरहितः 'निष्पके' आर्द्रमलरहितः 'निक्कंकडच्छाए' निरावरणदीप्तिः 'सप्प भे' सत्प्रभावः (भः) 'समरिईए' सकिरणः 'सउज्जोए' प्रत्यासन्नवस्तू द्योतकः पासाईए ४, 'परमवरवेइयाए वणसंइस्स य वण्णओ'त्ति, वेदिकावर्णको यथा - 'सा णं पडमवरबेइया अद्धं जोयणं उन्हें उच्चत्तेणं पंचधणुसयाई विक्खभेणं सवरयणामई तिगिच्छकूड उवरितलपरिकखेवसमा परिक्खेवेणं, तीसे णं परमवरवेश्याए इमे एयारूत्रे वण्णावासे १- क्रमश स्तस्य (गोस्तूपस्य) विष्कम्भो द्वाविंशत्यधिकं दशशतं योजनानां त्रयोविंशत्यधिकानि सप्तशतानि चतुर्विंशत्यधिकानि चतुःशतानि ॥ १ ॥ Eucation International For Pale Only ~302~ Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] “भगवती शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११६]] दीप अनुक्रम [१४०] कापण्णत्ते 'वर्णकव्यासः' वर्णकविस्तरः 'वइरामया नेमा' इत्यादि, 'नमत्ति स्तम्भानां मूलपादाः । वनखण्डवर्णकस्वेवम्-18/२ शतके प्रज्ञप्तिः से णं वणसंडे देसूणाई दो जोयणाई चक्कबालविक्खंभेणं पउमवरवेइयापरिक्खेवसमे परिक्खेवेणं, किण्हे किण्हाभासेलाउद्देशः ८ अभयदवा-IV || इत्यादि । 'बहुसमरमणिज्जेत्ति अत्यन्तसमो रमणीयश्चेत्यर्थः 'वन्नओ'त्ति वर्णकस्तस्य वाच्या, स चायम्-'से जहा- चमरचना या वृत्तिः व०सू ११६ नामए आलिंगपुक्खरे इ वा' आलिंगपुष्करं-मुरजमुखं तद्वत्सम इत्यर्थः, 'मुइंगपुक्खरे इ वा सरतले इ वा करतले इ वा .॥१४५॥ आयसमंडले इ वा चंदमंडले इ वेत्यादि । 'पासायवडिसएत्ति प्रासादोऽवतंसक इव-शेखरक इव प्रधानत्वात् प्रासा दावतंसका, 'पासायवण्णओ'त्ति प्रासादवर्णको वाच्यः, स चैवम्-'अन्भुग्गयमूसियपहसिएं' अभ्युद्गतमभ्रोद्गतं वा यथाभवत्येवमुच्छ्रितः, अथवा मकारस्यागमिकत्वाद् अभ्युनतश्चासावुच्छ्रितश्चेत्यभ्युद्गतोच्छ्रितः, अत्यर्थमुच्च इत्यर्थः, प्रथमैकवचनलोपश्चात्र दृश्यः, तथा प्रहसित इव प्रभापटलपरिगततया प्रहसितःप्रभया वा सितः-शुक्ल संबद्धो वा प्रभासित है इति, 'मणिकणगरयणभत्तिचित्ते' मणिकनकरलानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रो विचित्रो यः स तथा, इत्यादि 'उल्लो यभूमिवण्णओ'ति उल्लोचवर्णकः प्रासादस्योपरिभागवर्णकः, स चैवम्-'तस्स णं पासायवडिंसगस्स इमेयारूचे उल्लोए प्रापण्णत्ते-दहामिगजसभतुरगनरमगरविहगवालगकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्ते जाव सपतवणिजमए | 3॥१४५॥ | अच्छे जाव पडिरूवे' भूमिवर्णकस्त्वेवम्-'तस्स णं पासायवडिसयस्स बहुसमरमणिजे भूमिभागे पण्णते, तंजहा आलिंगपुक्सरे हवेत्यादि, 'सपरिवारंति चमरसम्बन्धिपरिवारसिंहासनोपेतं, तचैवम्-'तस्स र्ण सिंहासणस्स अवरु-18 ॥४त्तरेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं एत्य णं चमरस्स च उसहीए सामाणियसाहस्सीणं उसडीए भद्दासणसाहस्सीओ पण्ण-| ICC565555 - १k ~303~ Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [११६] 4 प्रत सूत्रांक |ताओ एवं पुरच्छिमेणं पंचण्हं अग्गमहिसीण सपरिवाराणं पंच भद्दासणाई सपरिवाराई दाहिणपुरच्छिमेणं अभितरियाए परिसाए चउबीसाए देवसाहस्सीणं चउबीस भद्दासणसाहस्सीओ, एवं दाहिणणं मज्झिमाए अहावीस भद्दासणसाहस्सीओ, दाहिणपञ्चस्थिमेणं बाहिरियाए बत्तीसं भद्दासणसाहस्सीओ पञ्चस्थिमेणं सत्तण्हं अणियाहिवईर्ण सत्त भद्दासणाई चउद्दिसिं आयरक्खदेवाणं चत्तारि भद्दासणसहस्सचउसठ्ठीओ'त्ति, 'तेत्तीसं भोम'त्ति वाचनान्तरे दृश्यते, तत्र* | भौमानि-विशिष्ट स्थानानि नगराकाराणीत्यन्ये, 'उवयारियलेणं ति गृहस पीठबन्धकल्प 'सब्बप्पमाणं वेमाणियप्पमाणस्स अद्धं नेयव्वं'ति, अयमर्थः-यत्तस्यां राजधान्यां प्राकारप्रासादसभादिवस्तु तस्य सर्वस्योच्छ्रयादिप्रमाणं सौध| मेवैमानिकविमानप्राकारप्रासादसभादिवस्तुगतप्रमाणस्यार्द्ध च नेतव्यं, तथाहि-सौधर्मवैमानिकानां विमानप्राकारो योजनानां त्रीणि शतान्युञ्चत्वेन, एतस्यास्तु सार्द्ध शतं, तथा सौधर्मवैमानिकानां मूलप्रासादः पञ्च योजनानां शतानि तदन्ये चत्वारस्तत्परिवारभूताः साढे द्वे शते ४ प्रत्येकं च तेषां चतुर्णामप्यन्ये परिवारभूताश्चत्वारः सपादशतम् १६ एवमन्ये तत्परिवारभूताः साो द्विषष्टिः ६४ एवमन्ये सपादैकत्रिंशत्, २५६ इह तु मूलप्रासादा साढे द्वे योजनशते एवम हीनास्तदपरे यावदन्तिमाः पञ्चदश योजनानि पञ्च च योजनस्याष्टांशाः, एतदेव वाचनान्तरे उक्तम्-'चत्तारि परिवाडीओ पासायवर्डेसगाणं अद्धद्धहीणाओति एतेषां च प्रासादानां चतसृष्वपि परिपाटीषु त्रीणि शतान्येकचत्वारिंशदधिकानि भवन्ति, एतेभ्यः प्रासादेभ्य उत्तरपूर्वस्यां दिशि सभा सुधर्मा सिद्धायतनमुपपातसभा ह्रदोऽभिपेकसभाऽलङ्कारसभा व्यवसायसभा चेति, एतानि च सुधर्मसभादीनि सौधर्मवैमानिकसभादिभ्यः प्रमाणतोऽद्धेप्रमाणानि, ततश्चोच्छ्य इहपां षट्-| दीप अनुक्रम [१४०] 5675450755-5 ~304~ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [११६] दीप अनुक्रम [१४०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र -५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [११६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥१४६॥ त्रिंशद्योजनानि पञ्चाशदायामो विष्कम्भश्च पञ्चविंशतिरिति एतेषां च विजयदेवसम्बन्धिनामित्र 'अणेगखम्भसयस णिविट्ठा | अभुग्गयसुकयवइरवेश्या' इत्यादिवर्णको वाच्यः । तथा दाराणं उपिं बहवे अमंग उगा झया छत्ता इत्यादि, अलङ्कारश्च सभादीनां वाच्यः, सर्व च जीवाभिगमोक्त विजयदेवसम्बन्धि चमरस्य वाच्यं यावदु| पपातसभायां सङ्कल्पश्चाभिनवोत्पन्नस्य किं मम पूर्व पश्चाद्वा कर्त्तुं श्रेयः ? इत्यादिरूपः, अभिषेकश्चाभि| येकसभायां महद्धर्ज्या सामानिकादिदेवकृतः, विभूषणा च वस्त्रालङ्कारकृताऽलङ्कारसभायां व्यवसायश्च | व्यवसायसभायां पुस्तकवाचनतः, अर्धनिका च सिद्धायतने सिद्धप्रतिमादीनां सुधर्मसभागमनं च सामा| निकादिपरिवारोपेतस्य चमरथ्य, परिवारश्च सामानिकादिः, ऋद्धिमत्त्वं च एवंमहिडिए' इत्यादिवचनैर्वाच्यमस्येति एतद् वाचनान्तरेऽर्थतः प्रायोऽवलोक्यत एवेति ॥ द्वितीयशतेऽष्टमः ॥ २-८ ॥ Education Internation चमरचवालक्षणं क्षेत्रमष्टमोद्देशक उक्तम्, अथ क्षेत्राधिकारादेव नवमे समयक्षेत्रमुच्यत इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्किमिदं भंते! समयखेत्तेत्ति पवुञ्चति ?, गोयमा ! अड्डाइज्जा दीवा दो य समुद्दा एस णं एवइए समयखे तेति पचति, तत्थ णं अयं जंबूद्दीचे २ सव्वदीचसमुदाणं सब्वम्भंतरे एवं जीवाभिगमवत्तब्वया (जोइसविणं) नेयव्वा जाव अभितरं पुक्खराद्धं जोइसविणं (इमा गाहा ) | ( सू०११७) । बितीयस्स नवमो उद्देसो ।। २-९ ।। 'किमिदमित्यादि तत्र समयः - कालस्तेनोपलक्षितं क्षेत्रं समयक्षेत्रं, कालो हि दिनमासादिरूपः सूर्यगतिसमभिव्यङ्गयो अत्र द्वितीय शतके अष्टम- उद्देशकः समाप्तः अथ द्वितीय शतके नवम उद्देशक: आरभ्यते For Pass Use Only ४ १६ ६४ ~ 305~ २५६ एवं ३४१ २ शतके उद्देशः ८ चमरचना व० सू११६ समयक्षेत्र व० सू११७ उद्देश ९ ॥१४६॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११७] दीप अनुक्रम [१४१] मनुष्यक्षेत्र एव न परतः, परतो हि नादित्याः संचरिष्णव इति, एवं जीचाभिगमवत्तव्यया नेयव्य'त्ति, एषा चैवम्'एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेण मित्यादि 'जोइसविहणं'ति, तत्र जम्बूद्वीपादिमनुष्यक्षेत्रवक्तव्यतायां जीवाभिगमोकायां ज्योतिष्कवक्तव्यताऽप्यस्ति ततस्तद्विहीनं यथा भवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यता नेतव्येति, वाचना-12 ट्रान्तरे तु 'जोइसअढविणं ति इत्यादि बहु दृश्यते, तत्र 'जंबूद्दीवे णं भंते ! कइ चंदा पभासिंसु वा ३१ कति सूरीया ४ तविंसु वा ३१ कइ नक्षत्ता जोइं जोइंसु वा ३१ इत्यादिकानि प्रत्येकं ज्योतिष्कसूत्राणि, तथा से केणडेणं भंते ! एवं वुच्चइ जंबूहीवे दीवे?, गोयमा ! जंबूदीवे णं दीवे मंदरस्स पयस्स उत्तरेणं लवणस्स दाहिणेणं जाव तत्थ २ बहवे जंबूरुक्खा जंबूवण्णा जाव उपसोहेमाणा चिट्ठति, से तेणद्वेणं गोयमा! एवं बुच्चइ जंबूदीवे दीवे' इत्यादीनि प्रत्येकमर्थसूत्राणि च । सन्ति, ततश्चैतद्विहीनं यथा भवत्येवं जीवाभिगमवक्तव्यतया नेयं अस्योद्देशकस्य सूत्रं 'जाव इमा गाह'त्ति सहगाथा,* साच-"अरहंत समय बायर विजू थणिया बलाहगा अगणी । आगर निहि नइ उवराग निग्गमे तुहिवयणं च ॥१"12 अस्याश्चार्थस्तत्रानेन सम्बन्धेनायातो-जम्बूद्वीपादीनां मानुषोत्तरान्तानामर्थानां वर्णनस्यान्ते इदमुक्तम्-'जायं च णं माणुसुत्तरे पवए तावं च णं अस्सिलोएत्ति पवुच्चई' मनुष्यलोक उच्यत इत्यर्थः, तथा 'अरहंसे'त्ति जावं च णं अरहता चक्कवट्टी जाव सावियाओ मणुया पगइभद्दया विणीया तावं च णं अस्सिलोएत्ति पवुच्चइ । 'समय'त्ति जावं च णं |समयाइ वा आवलिया इ वा जाव अस्सिलोएत्ति पवुच्चइ, एवं जावं च णं बायरे विजुयारे बायरे थणियसद्दे जावं च णं बहवे ओराला बलाढ्या संसेयंति, 'अगणि' त्ति जावं च णं बायरे तेउयाए जावं च णं आगरा इ वा निही इ वा नई इ - 2 4 6- ~306~ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [११७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: धर्मास्ति प्रत सूत्रांक [११७] व्यायाम व्याख्या- वा 'उवराग'त्ति चंदोवरागाइ वा सूरोवरागा इ वा तावं च णं अस्सिलोएत्ति पवुच्चई उपरागो-ग्रहणं 'निग्गमे वुहि- २ शतके प्रज्ञप्तिः वयणं च'त्ति यावच निर्गमादीनां वचन-प्रज्ञापनं तावन्मनुष्यलोक इति प्रकृतं, तत्र 'जावं चणं चंदिमसूरियाणं जावइ उद्देश:१० अभयदेवी सातारारूवाणं अइगमर्ण निग्गमणं वुड्डी निवुड्डी आघविजइ तावं च णं अस्सिलोएत्ति पवुच्चईत्ति, अतिगमनमिहोत्तरायणं| या वृत्तिः कायादिद्र|निर्गमनं-दक्षिणायनं वृद्धिः-दिनस्य वर्द्धनं निवृद्धिः-तस्यैव हानिरिति ॥ द्वितीयशते नवमः ॥२-९॥ ॥१४७॥ सू ११८ ___ अनन्तरं क्षेत्रमुक्तं तच्चास्तिकायदेशरूपमित्यस्तिकायाभिधानपरस्य दशमोदेशकस्यादिसूत्रम् कति णं भंते ! अस्थिकाया पन्नत्ता, गोयमा! पंच अस्थिकाया पण्णत्ता, तंजहा-धम्मस्थिकाए| अधम्मस्थिकाए आगासस्थिकाए जीवधिकाए पोगलत्यिकाए ॥ धम्मत्थिकाएणं भंते ! कतिवने || कतिगंधे कतिरसे कतिफासे?, गोयमा ! अवपणे अगंधे अरसे अफासे अरूवे अजीवे सासए अवहिए लोगदचे, से समासओ पंचविहे पन्नसे, तंजहा-दब्वओ खेत्तओ कालो भावओ गुणओ, दवओ णं || धम्मत्थिकाए एगे दव्वे, खेसओ णं लोगप्पमाणमेत्ते, कालओ न कयाविन आसिन कयाइ नत्थि जाब || || निचे, भावओ अवपणे अगंधे अरसे अफासे, गुणओ गमणगुणे । अहम्मस्थिकाएवि एवं चेव, नवरं गुणओl ठाणगुणे, आगासस्थिकाएवि एवं चेव, नवरं खेत्तओ णं आगासस्थिकाए लोयालोयप्पमाणमेत्ते अर्णते चेव है जाव गुणओ अवगाहणागुणे । जीवस्थिकाए णं भंते ! कतिवन्ने कतिगंधे कतिरसे कइफासे , गोयमा! 8 दीप अनुक्रम [१४१] अत्र द्वितीय-शतके नवम-उद्देशकः समाप्त: अथ द्वितीय-शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते ~307~ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] “भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [११८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११८] दीप अनुक्रम [१४२] || अथणे जाव अस्वी जीवे सासए अवहिए लोगब्वे, से समासओ पंचविहे पण्णसे, तंजहा-दब्वओ जाव गुणओ, दव्वओ जीवत्थिकाए अर्थताई जीवव्वाई, खेसओ लोगप्पमाणमेत्ते कालओ न कयाइ म है आसि जाव निचे, भावओ पुण अवपणे अगंधे अरसे अफासे, गुणओ उवओगगुणे । पोग्गलत्यिकाए णं भंते! कतिवण्ण कतिगंधे०रसे फासे?, गोयमा पंचवपणे पंचरसे दुर्गधे अट्ठफासे रूबी अजीवे सासए अवट्टिए 13 लोगव्वे, से समासओ पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दबश्रो खेसओ कालओ भावो गुणओ, दबओणं पोग्गलस्थिकाए अणंताई दव्वाई, खेत्तओ लोयप्पमाणमेत्ते, कालो न कयाइ न आसि जाव निचे, भावओ वण्णमंते गंधरसफासमते, गुणओ गहणगुणे। (सू०११८) एगे भंते! धम्मस्थिकायपदेसे धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्यं ५ |8|| सिया?,गोयमाणोणढे समडे,एवं दोनिवि तिन्निवि चत्तारिपंच छ सत्तअट्ट मष दस संखेजा.असंखेज्जा भंते! धम्मत्थिकायप्पएसा धम्मत्थिकाएत्ति वत्तव्य सिया ?, गोयमा ! णो इणढे समढे, एगपदेसूणेविय भंते ! धम्मस्थिकाए २ ति वत्तव्वं सिया ? णो तिणहे समढे, से केणढेणं भंते ! एवं बुइ ? एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मस्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया जाव एगपदेसूणेवि य णं धम्मस्थिकाए नो धम्मस्थिकाएत्ति वत्तवं सिया, से नूर्ण गोयमा ! खंडे चक्के सगले चक्के ?, भगवं ! नो खंडे चक्के सकले चक्के, एवं छत्ते चम्मे दंडे दूसे आउ पहे मोयए, से तेणडेणं गोयमा ! एवं बुच्चा-एगे धम्मत्थिकायपदेसे नो धम्मस्थिकाएत्ति वत्सब्वं सिया जाव एगपदेसूणेविय णं धम्मत्थिकाए नो धम्मस्थिकाएत्ति वत्तव्वं सिया ॥ से किंखातिए णं भंते ! धम्म ~308~ Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [११९] दीप अनुक्रम [१४३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञष्ठिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ १४८ ॥ त्थिकाए त्ति वत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! असंखेजा धम्मत्थिकायपएसा ते सव्वे कसिणा पडिपुण्णा निरव| सेसा एगगहणगहिया एस णं गोवमा ! धम्मत्थिकाएत्ति बत्तव्वं सिया, एवं अहम्मत्थिकाएवि, आगास- १ | त्थिकारवि, जीवत्धिकायपोग्गलत्थिकायाचि एवं चेव, नवरं तिरहंपि पदेसा अनंता भाणियव्वा, सेसं तं चैव ॥ ( सू० ११९ ) ॥ 'कड़ णमित्यादि, अस्तिशब्देन प्रदेशा उच्यन्तेऽतस्तेषां काया- राशयोऽस्तिकायाः, अथवाऽस्तीत्ययं निपातः कालत्रयाभिधायी, ततोऽस्तीति- सन्ति आसन् भविष्यन्ति च ये कायाः- प्रदेशराशयस्तेऽस्तिकाया इति, धर्मास्तिकायादीनां चोपन्यासेऽयमेव क्रमः, तथाहि धर्मास्तिकायादिपदस्य माङ्गलिकत्वाद्धर्मास्तिकाय आदायुक्तः, तदनन्तरं च तद्विपक्षत्वादधर्मास्तिकायः, ततश्च तदाधारत्वादाकाशास्तिकायः, ततोऽनन्तत्वामूर्त्तत्वसाधर्म्या जीवास्तिकायः, ततस्तदुपष्टम्भकत्वात्युद्गलास्तिकाय इति ॥ 'अवणे इत्यादि, यत एवावर्णादिरत एव 'अरूपी' अमूर्तो न तु निःस्वभावो, नञः पर्युदासवृत्तित्वात् शाश्वतो द्रव्यतः अवस्थितः प्रदेशतः 'लोगदव्वें'त्ति लोकस्य पञ्चास्तिकायात्मकस्यांशभूतं द्रव्यं लोकद्रव्यं, भावत इति पर्यायतः, 'गुणओ'त्ति कार्यतः 'गमणगुणे'त्ति जीवपुद्गलानां गतिपरिणतानां गत्युपष्टम्भहेतुर्मत्स्यानां जलमिवेति । ' ठाणगुणे'ति जीवपुद्गलानां स्थितिपरिणतानां स्थित्युपष्टम्भ हेतुर्मत्स्यानां स्थलमिवेति । 'अवगाहणा| गुणे'त्ति जीवादीनामवकाशहेतुर्बदराणां कुण्डमिव । 'उवओगगुणे'त्ति उपयोगः- चैतन्यं सरकारानाकारभेदं । 'गहणगुणे' त्ति ग्रहणं- परस्परेण सम्बन्धनं जीवेन वा औदारिकादिभिः प्रकारैरिति ॥ 'खंड चके' इत्यादि, यथा खण्डचक्रं चक्रं Ja Eucation International For Parts Only ~309~ २ शतके उद्देशः १० प्रदेशोनस्यापि व्यप देशाभावः सू११९ ॥१४८॥ Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [११९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [११९] न भवति, खण्डचक्रमित्येवं तस्य व्यपदिश्यमानत्वात्, अपि तु सकलमेव चक्रं चक्रं भवति, एवं धर्मास्तिकायः प्रदेशेनाप्यूनो न धर्मास्तिकाय इति वक्तव्यः स्याद्, एतच निश्चयनयदर्शन, व्यवहारनयमतं तु-एकदेशेनोनमपि वस्तु वस्त्येव, यथा खण्डोऽपि घटो घट एव, छिन्नकर्णोऽपि श्वाश्चैव, भणन्ति च-'एकदेशविकृतमनन्यवदिति ।। 'से किंखाइंति अथ किं पुनरित्यर्थः 'सब्बेऽवि' समस्ताः, ते च देशापेक्षयाऽपि भवन्ति, प्रकारकास्न्येऽपि सर्वशब्दप्रवृत्तेरित्यत आह|| 'कसिण'त्ति कृत्स्ना न तु तदेकदेशापेक्षया सर्व इत्यर्थः, ते च स्वस्वभावरहिता अपि भवन्तीत्यत आह-प्रतिपूर्णाः |आत्मस्वरूपेणाविकला, ते च प्रदेशान्तरापेक्षया स्वस्वभावन्यूना अपि तथोच्यन्त इत्याह-निरवसेस'त्ति प्रदेशान्तभरतोऽपि स्वस्वभावेनान्यूनाः, तथा 'एगग्गहणगहिय'त्ति एकग्रहणेन-एकशब्देन धर्मास्तिकाय इत्येवंलक्षणेन गृहीता है ये ते तथा, एकशब्दाभिधेया इत्यर्थः, एकार्था वैते शब्दाः,'पएसा अणंता भाणियव्य'त्ति धर्माधर्मयोरसतोयाः प्रदेशा उक्ताः आकाशादीनां पुनः प्रदेशा अनन्ता वाच्याः, अनन्तप्रदेशिकत्वात्रयाणामपीति ॥ उपयोगगुणो जीवास्तिकायः माग्दर्शितः, अथ तद्देशभूतो जीव उत्थानादिगुण इति दर्शयन्नाह जीवे णं भंते ! सउठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकारपरकमे आयभावेणं जीवभावं उवदंसेतीत्ति वत्तब्वं सिया?, हंता गोयमा! जीवे णं सउहाणे जाव उवदंसेतीति बत्तव्यं सिया। से केणटेणं जाव वत्तव्वं सिया ?, गोयमा! जीवे णं अणंताणं आभिणिबोहियनाणपजवाणं एवं सुयनाणपज्जवाणं ओहिनागणपजवाणं मणपजवनाणप० केवलानणप० महअन्नाणप० सुयअन्नाणप० विभंगणाणपल्लवाणं चक्खुदंसणप० दीप अनुक्रम [१४३] ~310~ Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२० दीप अनुक्रम [१४४] व्याख्या अचक्खुदंसणप० ओहिदसणप० केवलदसणप० उवओगं गच्छइ, उवओगलक्खणे णं जीवे, से तेणटेणं एवं शतके प्रज्ञप्तिः बुचा-गोयमा ! जीवेणं सउहाणे जाय वत्तव्वं सिया ॥ (सू०१२०)॥ | उद्देश:१० अभयदेवी 'जीवे ण'मित्यादि, इह च 'सउट्ठाणे इत्यादीनि विशेषणानि मुक्तजीवब्युदासार्थानि 'आयभावेणं'ति या वृत्तिः१ | मत्यादिपआत्मभावेन-उत्थानशयनगमनभोजनादिरूपेणात्मपरिणामविशेषेण 'जीवभावं'ति जीवत्वं चैतन्यम् 'उपदर्शयति' प्रका- र्यवात्मक॥१४॥ शयतीति वक्तव्यं स्यात्, विशिष्टस्योत्थानादेविशिष्टचेतनापूर्वकत्वादिति । 'अणताणं आभिणियोहिए'त्यादि तोपयोगः | 'पर्यवाः प्रज्ञाकृता अविभागाः पलिच्छेदाः, ते चानन्ता आभिनिबोधिकज्ञानस्यातोऽनन्तानामाभिनिबोधिकज्ञानपर्यवाणांट सू १२० सम्बन्धिनम् , अनन्ताभिनिबोधिकज्ञानपर्यवात्मकमित्यर्थः, 'उपयोग' चेतनाविशेष गच्छतीति योगः, उत्थानादावात्मभावे वर्तमान इति हृदयुम्, अथ यद्युस्थानाद्यात्मभावे वर्तमानो जीव आभिनिबोधिकज्ञानाथुपयोगं गच्छति तत्किमेतावतेव जीवभावमुपदर्शयतीति वक्तव्यं स्यात् ? इत्याशक्याह-'उवओगे'त्यादि, अत उपयोगलक्षणं जीवभावमुत्था नाद्यात्मभावेनोपदर्शयतीति वक्तव्यं स्यादेवेति ॥ अनन्तरं जीवचिन्तासूत्रमुक्तम्, अथ तदाधारत्वेनाकाशचिन्तासूत्राणि IFI कतिविहे गं भंते ! आगासे पण्णत्ते, गोयमा! दुविहे आगासे प०, तंजहा-लोयागासे य अलोयागासे Bाय॥ लोयागासे णं भंते । किं जीवा जीवदेसा जीवपदेसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा, गोयमा ! १ अत्र हि लोकाकाशशब्देन समग्रो लोकस्तत्पदेशो वा विवक्ष्यते तथा चैकसिन् प्रदेशे जीवपुद्गलानां बहुना प्रदेशानां भावात् । १४९॥ * जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकायदेशसंभवो यादरपरिणामे विकाशे च प्रदेशसंभवः धर्माधर्मयोस्तु नैवमिति निषिद्धी तद्देशी समने तु सममा एवं उठाते इति, यदा तु लोकाकाशस्थापि देशो विवक्ष्यते तदाऽनयोः खातामेव देशी, तस्ससमानत्वात्तयोः, ~311 Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१४५] जीवावि जीवदेसावि जीवपदेसावि अजीवावि अजीवदेसावि अजीवपदेसावि जे जीवा ते नियमा एगिदिया दिया तेइंदिया चरिंदिया पंचेंदिया अणिदिया, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा, जे जीवपदेसा ते नियमा एनिदियपदेसा जाव अणिदियपदेसा, जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रुवीय अरूवी य, जे रुवी ते चउब्बिहा पण्णत्ता,तंजहा-खंधा खंधदेसा खंधपदेसा परमाणुपोग्गला,जे अरूवी ते पंचविहा पण्णसा, तंजहा-धम्मत्थिकाए नो धम्मत्धिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पदेसा अधम्मथिकाए नो अधम्मत्थिकायस्स देसे अधम्मत्थिकायस्स पदेसा अद्धासमए ॥ (सू०१२१)। तत्र लोकालोकाकाशयोर्लक्षणमिदं-"धर्मादीनां वृत्तिव्याणां भवति यत्र तत्क्षेत्रम् । तैव्यैः सह लोकस्तद्विपरीतह्यलोकाख्यम् ॥ १॥” इति ॥ 'लोगागासे ण'मित्यादौ षट् प्रश्नाः, तत्र लोकाकाशेऽधिकरणे 'जीवति संपूर्णानि | जीवद्रव्याणि 'जीवदेस'त्ति जीवस्यैव बुद्धिपरिकल्पिता व्यादयो विभागाः, 'जीवपएस'त्ति तस्यैव बुद्धिकृता एव प्रकृष्टा देशाः प्रदेशा, निर्विभागा भागा इत्यर्थः, अजीव'त्ति धर्मास्तिकायादयो, ननु लोकाकाशे जीवा अजीवाश्चेत्युक्ते तद्देशप्रदेशास्तत्रोक्का एव भवन्ति, जीवाद्यव्यतिरिकत्वाद्देशादीनां, ततो जीवाजीवग्रहणे किं देशादिग्रहणेनेति !, नैवं, निरवयवा जीवादय इति मतव्यवच्छेदार्थत्वादस्येति, अत्रोत्तर-गोयमा जीवावी त्यादि, अनेन चाद्यप्रश्नत्रयस्य निर्वचनमुक्तम् । अधान्त्यस्य प्रश्नत्रयस्य निर्वचनमाह-रूवी यत्ति मूर्ताः, पुद्गला इत्यर्थः, 'अरूवी यत्ति अमूर्ताः, ~312~ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२१] अभयदेवी प्रत सूत्रांक [१२१] व्याख्या- धर्मास्तिकायादय इत्यर्थः, 'खंध'त्ति परमाणुमचयात्मकाः स्कन्धाः 'स्कन्धदेशाः' यादयो विभागाः 'स्कन्धप्रदेशा, प्रज्ञप्तिः २ शतके | तस्यैव निरंशा अंशाः 'परमाणुपुद्गलाः स्कन्धभावमनापन्नाः परमाणव इति, ततो लोकाकाशे रूपिद्रव्यापेक्षया 'अजी- उद्देशः१० यावृत्तिः१ वावि अजीवदेसावि अजीचपएसावि' इत्येतदर्थतः स्याद्, अणूनां स्कन्धानां चाजीवग्रहणेन ग्रहणात् , 'जे अरूवी वाद्यवस्थि|| ते पंचविहे त्यादि, अन्यत्रारूपिणो दशविधा उक्ताः, तद्यथा-आकाशास्तिकायस्तद्देशस्तत्पदेशश्चेत्येवं धर्माधर्मास्तिकायौ ॥१५॥ तिः सु१२१ | समयश्चेति दश, इह तु सभेदस्याकाशस्याधारत्वेन विवक्षितत्वात्तदाधेयाः सप्त वक्तव्या भवन्ति, न च तेऽत्र विवक्षिताः,15 | वक्ष्यमाणकारणात् , ये तु विवक्षितास्तानाह-पश्चेति, कथमित्याह-'धम्मत्थिकाए' इत्यादि, इह जीवानां पुद्गलानां च बहु-14 खादेकस्यापि जीवस्य पुद्गलस्य वा स्थाने सङ्कोचादितथाविधपरिणामवशादहवो जीवाः पुद्गलाश्च तथा तद्देशास्तत्प्रदेशाच||* संभवन्तीतिकृत्वा जीवाश्च जीवदेशाच जीवप्रदेशाच, तथा रूपिद्रव्यापेक्षयाऽजीवाश्चाजीवदेशाश्चाजीवप्रदेशाश्चेति संगतम् | एकत्राप्याश्रये भेदवतो वस्तुत्रयस्य सद्भावात् , धर्मास्तिकायादौ तु द्वितयमेव युक्तं, यतो यदा संपूर्ण वस्तु विवक्ष्यते | तदा धर्मास्तिकायादीत्युच्यते, तदंशविवक्षायां तु तत्पदेशा इति, तेषामवस्थितरूपत्वात्, तदेशकल्पना त्वयुक्ता, तेषाम-द। नवस्थितरूपत्वादिति, यद्यपि चानवस्थितरूपत्वं जीवादिदेशानामप्यस्ति तथाऽपि तेषामेकत्राश्रये भेदेन सम्भवः प्ररूप- ॥१५॥ |णाकारणम् इह तु तन्नास्तिकायादेरेकरवादसोचादिधर्मकत्वाच्चेति, अत एव धर्मास्तिकायादिदेशनिषेधायाह-'नो ध-18 |म्मस्थिकायस्स देसे' तथा 'नो अधम्मस्थिकायस्स देसेति । चूर्णिकारोऽप्याह-अरूविणो दधा समुदयसद्देणं || दीप अनुक्रम [१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मुलं एवं अभयदेवसरि-रचिता वृत्ति: ~313~ Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१२१] दीप अनुक्रम [१४५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [−], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः भन्नंति, नीसेसा पएसेहिं वा नीसेसा भणिज्जा, नो देसेणं, तस्स अणैवद्वियप्पमाणत्तणओ, तेण न देसेण निद्देसो, जो पुण देससद्दो एपसु कओ सो सविसयगयववहारत्थं परदबंफुसणादिगयववहारत्थं चेति, तत्र स्वविषये-धर्मास्तिकायादि|विषये यो देशस्य व्यवहारो-यथा धर्मास्तिकायः स्वदेशेनोर्ध्वलोकाकाशं व्याप्नोतीत्यादिस्तदर्थं, तथा परद्रव्येण-ऊर्ध्वलोकाकाशादिना यः स्वस्य स्पर्शनादिगतो व्यवहारो यथोर्ध्व लोकाकाशेन धर्मास्तिकायस्य देशः स्पृश्यते इत्यादिस्तदर्थमिति 'अद्धासमय'ति अद्धा कालस्तलक्षणः समयः - क्षणोऽद्धासमयः, स चैक एव वर्तमानक्षण लक्षणः, अतीतानागतयोरसत्त्वादिति ॥ कृतं लोकाकाशगतप्रश्नषस्य निर्वचनम्, अथालोकाकाशं प्रति प्रश्नयन्नाह - अलोगागासे णं भंते! किं जीवा ? पुच्छा तह चेव, गोयमा । नो जीवा जाव नो अजीवप्पएसा एगे अजीवदव्वदेसे अगुरुपलहुए अनंतेहिं अगुरुलपगुणेहिं संजुत्ते सब्वागासे अनंतभागुणे ॥ ( सू० १२२ ) ॥ धम्मत्थिकाए णं भंते । किं (के) महालए पण्णत्ते ?, गोयमा ! लोए लोयमे से लोयप्पमाणे लोयफुडे लोयं चेव फुसित्ता णं चिट्ठा, एवं अहम्मत्थिकाए लोयागासे जीवत्थिकाए पोग्गलत्थिकाए पंचवि एक्काभिलावा ॥ सू० १२३ ) । 'पुच्छा तह चेव'त्ति यथा लोकप्रश्ने, तथाहि - 'अलोकाकासे णं भंते! किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा अजीवा अजी* अनवस्थितप्रमाणत्वं हि एकस्मिन्नपि प्रदेशे तदा स्याद्यदा सादिप्रदेशसमुदाय एकत्रीभावमाप्नुयात् न चैवं धर्माधर्मयोः ॥ X जीवपुद्गब्योरा काशदेशावगाढयोरुपष्टम्भदानाय जीवपुद्गलाकाशादेः परस्परं च या स्पर्शना देशापेक्षया तस्व व्यवहाराय || Education International For Parts Only ~314~ www.or Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२३] दीप अनुक्रम [१४७] ख्या-5 वदेसा अजीवप्पएस'त्ति । निर्वचनं त्वेषां षण्णामपि निषेधः, तथा 'एगे अजीवव्वदेसे'त्ति अलोकाकाशस्य देशत्वं ||8/२ शतके लोकालोकरूपाकाशद्रव्यस्य भागरूपत्वात् 'अगरुयलहुए'त्ति गुरुलघुत्वाव्यपदेश्यत्वात् 'अणंतेहिं अगुरुयलहु-ला उद्देश:१० अभयदेवी- यगुणेहिति 'अनन्तैः' स्वपर्यायपरपर्यायरूपैर्गुणैः, अगुरुलधुस्वभावैरित्यर्थः, 'सब्वागासे अणंतभागूणे'त्ति लोकाका- अलोकाया वृत्तिः || शस्यालोकाकाशापेक्षयाऽनन्तभागरूपत्वादिति ॥ अथानन्तरोक्तान् धर्मास्तिकायादीन् प्रमाणतो निरूपयन्नाह-'केमहा-| । M काशप्रश्नः सू १२२ ॥१५॥ लए'त्ति लुप्तभावप्रत्ययत्वानिर्देशस्य किं महत्त्वं यस्यासौ किंमहत्वः ?, 'लोए'त्ति लोकः, लोकप्रमितत्वाल्लोकव्यपदे|शाद्वा, उच्यते च-"पंचस्थिकायमइयं (ओ) लोय (ओ)"इत्यादि, लोके चासौ वर्त्तते, इदं चाप्रनितमप्युक्तं, धर्मास्तिका शिष्यहितत्वादाचार्यस्येति, लोकमात्रः' लोकपरिमाणः, स च किञ्चिन्यूनोऽपि व्यवहारतः स्यादित्यत आह-लोकप्रमाणः, | यादिमह सत्ता सू१२३ लोक(प्रमाण)प्रदेशत्वात्तत्पदेशाना, स चान्योऽन्यानुबन्धेन स्थित इत्येतदेवाह-'लोयफुडे'त्ति लोकेन-लोकाकाशेन लोकस्पर्शः सकलस्वप्रदेशैः स्पृष्टो लोकस्पृष्टः, तथा लोकमेव च सकलस्वप्रदेशैः स्पृष्ट्वा तिष्ठतीति ॥ पुद्गलास्तिकायो लोकं स्पृष्ट्वा तिष्ठ- सू १२४ छातीत्यनन्तरमुक्तमिति स्पर्शनाऽधिकारादघोलोकादीनां धर्मास्तिकायादिगतां स्पर्शनां दर्शयनिदमाह पृथ्व्यादिस्स ला अहेलोए णं भंते । धम्मत्तिकायस्स केवइयं फसति', गोयमा ! सातिरेगं अर्द्ध फसति । तिरियलोए शासू १२५ माण भंते ! पुच्छा, गोयमा ! असंखेजहभागं फसह । उडलोए णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! देसूर्ण अहं फुसइ ॥ (सू०१२४)॥ ॥१५॥ १-पञ्चास्तिकायात्मको लोकः ॥ * अत्र मूल-संपादने सूत्रक्रम-सूचनाविषयक एका स्खलना दृश्यते (यहाँ इस पृष्ठ के बायीं तरफ सूत्रक्रम सुचानामे सू.१२५ लिखा है वो सूत्र अगले पृष्ठ से आरम्भ होता है। ~315 Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२४] दीप अनुक्रम [१४८] 552452- 53E 'सातिरेगं अद्धति लोकव्यापकत्वाद्धर्मास्तिकायस्य सातिरेकसप्तरज्जुप्रमाणत्वाच्चापोलोकस्य । 'असंखेजहभाग'ति असङ्ख्यातयोजनप्रमाणस्य धर्मास्तिकायस्याष्टादशयोजनशतप्रमाणस्तिर्यग्लोकोऽसङ्ग्यातभागवतीति तस्यासावसङ्ग्येयभागं स्पृशतीति । 'देसोणं अद्धति देशोनसप्तरज्जुप्रमाणत्वादूललोकस्येति ॥ | इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी धम्मत्थिकायस्स किं संखेज्जहभागं फुसति? असंखेजाभार्ग फुसद ! संखिजे भागे फुसति ? असंखेने भागे फुसति ? सव्वं फुसति ?, गोयमा ! णो संखेज्जइभागं फुसति असं खेजहभागं फुसइणो संखेजे णो असंखेजे नो सव्वं फुसति । इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए४ ४ उवासंतरे घणोदही धम्मत्थिकायस्स पुच्छा, कि संखेजहभागं फुसति जहा रयणप्पभा तहा घणोद|हिघणवायतणुवाया । इमीसे गं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए उवासंतरे धम्मस्थिकायस्स किं संखेजतिभागं फुसति असंखेजहभागं फुसइ जाव सव्वं फुसइ, गोयमा ! संखेजहभागं फुसहणो असंखेजइ-18 भार्ग फुसह नो संखेने नो असंखेज्जे० नो सब्वं फुसइ, उवासंतराई सव्वाइं जहा रयणप्पभाए पुढवीए है वत्तम्बया भणिया, एवं जाव अहेसत्तमाए, जंबूहीवाइया दीवा लवणसमुद्दाइया समुहा, एवं सो हम्मे कप्पे जाव ईसिपम्भारापुढवीए, एते सव्वेऽवि असंखेजतिभागं फुसति, सेसा पडिसेहेयव्वा । एवं अधम्मस्टिकाए, एवं लोयागासेवि, गाहा--पुढवोदहीषणतणुकप्पा गेवेजणुत्तरा सिद्धी । संखेजतिभागं अंतरेसु सेसा असंखेज्जा ॥१॥ (सू०१२५)॥ वितियं सयं समतं ॥२-१०॥२॥ SSCUSAKALACHC SAREILLEGunintentiational FRImurary.org ~316~ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [२], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१२५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व्याख्या- 'इमा णं भंते इत्यादि, इह प्रतिपृथिवि पञ्च सूत्राणि देवलोकसूत्राणि द्वादश अवेयकसूत्राणि त्रीणि अनुत्तरेपत्पा- प्रज्ञप्तिः ग्भारासूत्रे दे एवं द्विपश्चाशत्सूत्राणि धर्मास्तिकायस्य किं समवेयं भागं स्पृशन्तीत्याद्यभिलापेनावसेयानि, तत्रावकाशा- अभयदेवी-||न्तराणि सोयभागं स्पृशन्ति, शेषास्त्वसाधेयभागमिति निर्वचनम् , एतान्येव सूत्राण्यधर्मास्तिकायलोकाकाशयोरिति ॥ या वृत्तिः शालाहोतार्थसाहगाथा भाविताथैवेति ॥ द्वितीयशते दशमः ॥२-१०॥ श्रीपञ्चमाझे गुरुसूत्रपिण्डे, शतं स्थितानेकशते द्वितीयम् । अनैपुणेनापि मया व्यचारि, सूत्रप्रयोगज्ञवचोऽनुवृत्त्या ॥ १॥ इति ॥ २ शतके उद्देशः १० ण्यादिप हसू १२५ [१२५] ॥१५२॥ गाथा B%E5B4545 3 दीप ॥ इति श्रीभगवतीवृत्तौ द्वितीयं शतं समाप्तम् ॥ . ॥१५॥ अनुक्रम [१४९१५०] ~317 Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) ཊྛཡྻོཡཱ ལྦ + ཡྻ [१२५...] [१५१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ १२५...] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः ॥ अथ तृतीयं शतकम् ॥ व्याख्यातं द्वितीयशतमथ तृतीयं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तरशतेऽस्तिकाया उक्ताः, इह तु तद्विशेपभूतस्य जीवास्तिकायस्य विविधधर्मा उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्य तृतीयशतस्योदेश कार्थसङ्ग्रहायेयं गाथा - ariassar चमेर किरिये जाणित्थि नगर पाला येँ । अहिवह इंदियेपरिसा ततियम्मि सए दसुदेसा ॥ १ ॥ तत्र 'रिस' त्ति कीदृशी चमरस्य विकुर्वणाशक्तिरित्यादिप्रश्ननिर्वचनार्थः प्रथम उद्देशकः १, 'चमर ति | चमरोत्पाताभिधानार्थी द्वितीयः २, 'किरिय'ति कायिक्यादिक्रियाद्यर्थाभिधानार्थस्तृतीयः ३, 'जाण'त्ति यानं देवेन वैक्रियं कृतं जानाति साधुरित्याद्यर्थनिर्णयार्थश्चतुर्थः ४, 'इत्थि'त्ति साधुर्बाह्यान् पुद्गलान् पर्यादाय प्रभुः ख्यादिरूपाणि वैक्रियाणि कर्तुमित्याद्यर्थनिर्णयार्थः पञ्चमः ५, 'नगर'ति वाराणस्यां नगर्थ्यो कृतसमुद्घातोऽनगारो राजगृहे रूपाणि | जानातीत्याद्यर्थनिश्चयपरः षष्ठः ६, 'पाला य'त्ति सोमादिलोकपालचतुष्टयस्वरूपाभिधायकः सप्तमः ७, 'अहिवह 'त्ति असुरादीनां कति देवा अधिपतयः १ इत्याद्यर्थपरोऽष्टम', 'इंदिय'त्ति इन्द्रियविषयाभिधानार्थो नवमः ९, 'परिस'त्ति | चमरपरिषदभिधानार्थी दशमः १० इति । तत्र कीदृशी विकुर्वणा ? इत्याद्यर्थस्य प्रथमोदेशकस्येदं सूत्रम्तेर्ण काणं तेणं समएणं मोया नामं नगरी होत्था वण्णओ, तीसे णं मोयाए नगरीए बहिया उत्तरपुर For Parts Only ~318~ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: मज्ञप्तिः । प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१५२] व्याख्या-छिमे दिसीभागे णं नंदणे नामं चेतिए होस्था, वण्णओ, तेणं कालेणं २ सामी समोसहे, परिसा निग्गच्छद | ३ शतके पडिगया परिसा, तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स दोचे अंतेवासी अग्गिभूतीनामंउद्देशः १ अभयदेवी या दृत्तिः अणगारे गोयमगोत्तेणं सत्तुस्सेहे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी-चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरराया के हैं। ॥ णयां अमहिड्डीए ? केमहजुत्तीए ? केमहावले? केमहायसे? केमहासोक्खे ? केमहाणुभागे ? केवइयं च णं पभूमिभतिप्र. ॥१५॥ विउवित्तए, गोयमा ! चमरे णं असुरिंदे असुरराया महिहीए जाव महाणुभागे से गं तत्य चोत्तीसाए नासू १२६ भवणावाससयर्सहस्साणं,चउसट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं, तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं जाव विहरह, एवं महिड्डीए जाब महाणुभागे, एवतियंचणं पभू विउवित्तए से जहानामए-जुवती जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा, चकरस वा नाभी अरगाउत्ता सिया, एवामेव गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया बेउब्वियसमुग्धाएणं & समोहणइ २ संखेज्जाई जोयणाई दंड निसिरइ, तंजहा-रयणाणं जाव रिड्डाणं अहाषायरे पोग्गले परिसाडेह PiIP अहासुहमे पोग्गले परियाएति २ दोचंपि वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहणति २, पभृणं गोयमा! अमरेट असुरिंदे असुरराया केवलकप्पं जंबूदीव २ बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइपणं वितिकिण्णं ॥१५॥ उवत्थर्ड संथडं फुडं अवगाढाअवगावं करेत्तए । अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरे अमुरिंदे असुरराया 31 ना तिरियमसंखेल्ने दीवसमुझे बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य आइपणे वितिकिपणे उपत्थडे संथडे फुडे अग्निभूति-गणधरकृत् प्रश्न: ~319~ Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] दीप अनुक्रम [१५२] INDI अवगाढावगादे करेत्तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररपणो अयमेयारूवे विसए विसयमेत्ते| || बुइए णो चेव णं संपत्तीए विकुविसु वा विकुव्वति वा विकुब्बिस्सति वा ॥ (सू०१२६)॥ तेणं कालण'मित्यादि सुगम, नवरं 'केमहि डिए'त्ति केन रूपेण महर्द्धिकः? किंरूपा वा महर्द्धिरस्येति किंमह-| |र्द्धिकः, कियन्महर्द्धिक इत्यन्ये, 'सामाणियसाहस्सीण'ति समानया-इन्द्रतुल्यया ऋक्या चरन्तीति सामानिकाः 'तायत्तीसाए'त्ति त्रयस्त्रिंशतः 'तायत्तीसगाणं'ति मन्त्रिकल्पाना, यावत्करणादिदं दृश्यं 'चउण्हं लोगपालाणं पंचण्हं अग्गमहिसीर्ण सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिवईणं चउण्डं चउसठ्ठीणं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसि च बहणं चमरचंचारायहाणिवत्थवाणं देवाण य देवीण य आहेवचं पोरेवच्चं सामित्तं भट्टितं आणाई8|| सरसेणायचं कारेमाणे पालेमाणे महयाऽऽहयनट्टगीयवाइयतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडप्पवाइयरवेणं दिवाईभोगभोगाई मुंजमाणे'त्ति तत्राधिपत्यम्-अधिपतिकर्म पुरोवर्तित्वम्-अग्रगामित्वं स्वामित्वं-स्वस्वामिभाव भर्तृत्व-पोषकत्वम् आज्ञेश्वरस्य-आज्ञाप्रधानस्य सतो यत्सेनापत्यं तत्तथा तत्कारयन् अन्यैः पालयन स्वयमिति तथा महता रवेणेति योगः 'आहय'त्ति | आख्यानकप्रतिबद्धानीति वृद्धा, अथवा 'अहय'त्ति अहतानि-अव्याहतानि नाव्यगीतवादितानि, तथा तन्त्री-वीणा तलतालाः-हस्ततालाः तत्मा वा-हस्ताः ताला:-कंसिका तुडिय'त्ति शेषतूर्याणि, तथापनाकारोध्वनिसाधाद्यो मृदङ्गोमर्दलः पटुना-दक्षपुरुषेण प्रवादित इत्येतेषां द्वन्द्वोऽत एषां यो रवः स तथा तेन 'भोगभोगाईति भोगार्हान् शब्दादीन |'एवंमहिहिए'त्ति एवं महर्बिक इव महर्द्धिकः इयन्महद्धिक इत्यन्ये । 'से जहानामए' इत्यादि, यथा युवतिं युवा ARROSAARESSAAR अग्निभूति-गणधरकृत् प्रश्न: ~320 Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] व्याख्या- हस्तेन हस्ते गृह्णाति, कामवशाद्गाढतरग्रहणतो निरन्तरहस्ताङ्गुलितयेत्यर्थः, दृष्टान्तान्तरमाह-चक्कस्से'त्यादि, चक्रस्य || शतके प्रज्ञप्तिः वा नाभिः, किंभूता?-अरगाउत्त'त्ति अरकैरायुक्ता-अभिविधिनाऽन्विता अरकायुक्ता 'सिय'त्ति 'स्यात् भवेत् , उद्देशः१ अभयदेवीया वृत्तिः१४ अथवाऽरका उत्तासिता-आस्फालिता यस्यां साऽरकोत्तासिता, 'एवमेव'त्ति निरन्तरतयेत्यर्थः प्रभुर्जम्बूद्वीपं बहुभिर्दे-चमरेन्द्रवि वादिभिराकीर्ण कर्तुमिति योगः, वृद्धस्तु व्याख्यात-यथा यात्रादिषु युवतियूनो हस्ते लग्ना-प्रतिबद्धा गच्छति बहुलो-धावणार ॥१५॥ कप्रचिते देशे, एवं यानि रूपाणि विकुर्वितानि तान्येकस्मिन् कर्तरि प्रतिबद्धानि, यथा वा चक्रस्य नाभिरेका बहुभिर निभूतिप्र नसू १२६ रकैः प्रतिबद्धा घना निमिछद्रा, एवमात्मशरीरप्रतिबद्धैरसुरदेवैर्देवीभिश्च पूरयेदिति । 'वेब्बियसमुग्घाएकति वैकियकरणाय प्रयत्नविशेषेण 'समोहणइत्ति समुपहन्यते समुपहतो भवति समुपहन्ति वा-प्रदेशान् विक्षिपतीति ।। तत्स्वरूपमेवाह-संखेज्जाई'इत्यादि, दण्ड इव दण्डः-ऊर्ध्वाधआयतः शरीरवाहल्यो जीवप्रदेशकर्मपुद्गलसमूहः पतत्र च विविधपुद्गलानादत्त इति दर्शयन्नाह-तद्यथा-रत्नानां' कतनादीनाम्, इह च यद्यपि रसादिपुद्गलाद औदारिका क्रियसमुदूधाते च वैक्रिया एवं ग्राह्या भवन्ति तथाऽपीह तेषां रत्नादिपुद्गलानामिव सारताप्रतिपा-1 बदनाय रसानामित्याधुक्तं, तच रत्नानामिवेत्यादि व्याख्येयम् , अन्ये त्वाः-औदारिका अपि ते गृहीताः सन्तो वैक्रि-5 यतया परिणमन्तीति, यावत्करणादिदं दृश्यम्-चइराणं बेरुलियाणं लोहियक्खाणं मसारगलाणं हंसगम्भाणं पुलयाणं ॥१५॥ सोगंधियाणं जोतीरसाणं अंकाणं अंजणाण रयणाणं जायरूवाणं अंजणपुलयाणं फलिहाण'ति, किम् , अत आह'अहाथायरे'त्ति यथाबादरान्-असारान् पुद्गलान् परिशातयति दण्डनिसर्गगृहीतान् , यच्चोतं प्रज्ञापनाटीकायां 'यथा-1 दीप अनुक्रम [१५२] 45 अग्निभूति-गणधरकृत् प्रश्न: ~321 Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१२६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२६] स्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान शातयतीति तत्समुद्घातशब्दसमर्थनार्थमनाभोगिक क्रियशरीरकर्मनिर्जरणमाश्रित्येति, 'अहासुहमति यथासूक्ष्मान् सारान् परियाएति' पर्यादत्ते, दण्डनिसर्गगृहीतान् सामस्त्येना४ दत्त इत्यर्थः, 'दोचंपित्ति द्वितीयमपि वारं समुद्घातं करोति, चिकीर्पितरूपनिर्माणार्थ, ततश्च 'पशु'त्ति समर्थः 'केव-18 लकप्पति केवल:-परिपूर्णः कल्पत इति कल्पा-स्वकार्यकरणसामोपेतस्ततः कर्मधारयः, अथवा 'केवलकल्पः केवल-1 ज्ञानसदृशः परिपूर्णतासाधात् , संपूर्णपर्यायो वा केवलकल्प इतिशब्दः । 'आइन्न'मित्यादय एकार्था अत्यन्तव्याप्तिदर्श-3 नायोक्ताः । 'अदुत्तरं च णं'ति अथापरं च, इदं च सामथ्योतिशयवर्णनं 'विसए'ति गोचरो वैक्रियकरणशक्तेः, अयं लच तत्करणयुक्तोऽपि स्थादित्यत आह–विसयमेत्ते'त्ति विषय एव विषयमात्रं-क्रियाशून्यं 'Jहए'त्ति उक्तम् , एतदे वाह-संपत्तीए'त्ति यथोक्तार्थसंपादनेन 'विउविसु वा विकुर्वितवान् विकुर्वति वा विकुर्विध्यति वा, विकुर्व इत्ययं 1 धातुः सामयिकोऽस्ति, विकुर्वणेत्यादिप्रयोगदर्शनादिति ।। ट जति णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरराया एमहिहीए जाव एवइयं च णंपभू विकृवित्तए, चमरस्सणं भंते ! असुरिंदस्स असुररनो सामाणिया देवा केमहिडीया जाच केवतियं च णं पभू विकृवित्तए', गोयमा सचमरस्स असुरिदस्स असुररन्नो सामाणिया देवा महिडीया जाच महाणुभागा, ते णं तत्थ साणं २ भवणाणं 8 साणं २ सामाणियाणं साणं २ अग्गमहिसीणं जाव दिब्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति, एवंमहि-| हीया जाव एवइयं च णं पभू विकुम्वित्तए, से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा चक्कस्स वा| RRORSCOROCEROCHOOT दीप अनुक्रम [१५२] ~322~ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७-१२९] दीप व्याख्या- नाभी अरयाउत्ता सिया एवामेव गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो एगमेगे सामाणिए देवे वे प्रज्ञप्तिः || वियसमुग्धाएणं समोहणइ २ जाव दोचंपि वेब्वियसमुग्घाएणं समोहणति २ पभू गं गोयमा ! चमरस्साशा अभयदवा- अमरिंदरस असुररनो एगमेगें सामाणिए देवे केवलकप्पं जंवूधीवं २ बहूर्हि असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि या वृत्तिःशार चमरसामा य आइन्नं वितिकिन्नं उपत्थर्ड संथर्ड फुडं अवगाढावगाढं करेत्तए, अदुत्तरं च णं गोयमा ! पभू चमरस्स निकादीनां ॥१५५॥ असुरिंदस्स असुररन्नो एगमेगे सामाणियदेवे तिरियमसंखेजे दीवसमुझे बहूहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवी-13 विकुवणा है हिय आइण्णे वितिकिपणे उपत्थडे संथडे फुडे अवगाढावगाढे करेत्तए, एस णं गोयमा ! चमरस्स असुरि-टयां सू१२७ दस्स असुररन्नो एगमेगस्स सामाणियदेवस्स अयमेयासवे विसए विसयमेत्ते वुहए णो चेव णं संपत्तीए विकुविंसु वा विकुब्वति वा विकुव्विस्सति वा । जति णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो सामाणिया * देवा एवंमहिहीया जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररनो तायत्ती|सिया देवा केमहिहीया ?, तायत्तीसिया देवा जहा सामाणिया तहा नेयव्वा, लोयपाला तहेव, नवरं संखेज्जा दीवसमुरा भाणियब्वा, बहूहिं असुरकुमारेहिं २ आइन्ने जाब विउविस्संति वा । जति णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररनो लोगपाला देवा एवंमहिहीया जाव एवतियं च णं पभू विउवित्तए । चमरस्स णं भंते असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ देवीओ केमहिहीयाओ जाव केवतियं च णं पभू विकुवित्तए !, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुररन्नो अग्गमहिसीओ महिड्डीयाओ जाव महाणुभागाओ, ताओ गं अनुक्रम [१५३-१५५]] ॥१५५॥ SARERuralunintamarama Anemurary.org ~323 Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७-१२९] दीप तत्थ साणं २ भवणाणं साणं २ सामाणियसाहस्सीणं साणं २ महत्तरियाणं साणं २ परिसाणं जाव एमहिद्वियाओ अन्नं जहा लोगपालाणं अपरिसेसं । सेवं भंते २त्ति (सूत्रं १२७)भगवं दोचे गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ जेणेव तचे गोयमे वायुभूतिअणगारे तेणेव उवागच्छति २तचं गोयमं वायुभूतिं अणगारं एवं वदासि-एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया एवंमहिहीए तं चेव एवं सव्वं अपुट्टवागरणं नेयव्वं अपरिसेसियं जाव अग्गमहिसीणं वत्तब्बया समत्ता । तए णं से तचे गोयमे वायुभूती अणगारे दो-16 चस्स गोयमस्स अग्गिभूइस्स अणगारस्स एवमाइक्खमाणस्स भा०५० परू० एयम8 नो सद्दहइ नो पत्तियह नो रोयइ एयम९ असहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे उहाए उद्देइ २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद जाव पजुवासमाणे एवं वयासी-एवं खलु भंते ! दोचे गोयमे अग्गिभूतिअणगारे मम एवमातिक्खा भासह पन्नवेड परूवेइ-एवं खलु गोयमा ! चमरे असुरिंदे असुरराया महिहीए जाव महाणुभावे से णं तत्थ चोत्तीसाए भवणावाससयसहस्साणं एवं तं चेव सव्वं अपरिसेसं भाणियव्यं जाच अग्गमहिसीणं वत्तब्वया समत्ता, से कहमेयं भंते!, एवं गोयमादि समणे भगवं महावीरे तचं गोयमं वाउभूर्ति अणगारं एवं वदासि-जपणं गोयमा! दोचे गो० अग्गिभूइअणगारे तव एवमातिक्खइ ४-एवं खलु। गोयमा ! चमरे ३ महिहीए एवं तं चेव सव्वं जाव अग्गमहिसीणं वत्तब्चया समत्ता, सचे णं एसमढे, | अहंपिणं गोयमा । एवमातिक्खामि भा०प० परू०, एवं खलु गोयमा !-चमरे ३ जाव महिहीए सो चेव KASAROREGA अनुक्रम [१५३-१५५]] वायुभूति-अनागारकृत् प्रश्न: ~324~ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७ -१२९] दीप व्याख्या & बितिओ गमो भाणियन्वो जाव अग्गमहिसीओ, सच्चे णं एसमढे, सेवं भंते २, तच्चे गोयमे! वायुभूती अण- ३ शतके प्रज्ञप्तिः । द गारे समर्ण भगवं महावीरं वंदह नमंसह २ जेणेव दोचे गोयमे अग्गिभूती अणगारे तेणेव उवागच्छह २८ उद्देशः१ अभयदेवी दोचंगो० अग्गिभूति अणगारं वंदइ नमसति २ एयमटुं सम्मं विणएणं भुजोरखामेति (सूत्रं १२८)तए पां से वायुभूतेयावृत्तिः तिचे गोयमे वाउभूती अणगारे दोघेणं गोपमेणं अग्गिभूतीणामेणं अणगारेणं सद्धिं जेणेव समणे भगवं महावीरेनणयक्षा मर्ण च ॥१५६॥ जाव पजुबासमाणे एवं वयासि-जति णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुराया एवंमहिडीए जाव एवतियं| सू १२८ च णं पभू विकुवित्तए बली भंते। बहरोयणिंदे वइरोयणराया केमहिहीए जाव केवइयं च णं पभू द्वाभ्यांशेषविकुचित्तए, गोयमा ! बली णं पहरोयणिंदे बहरोयणराया महिहीए जाय महाणुभागे, से गं तत्था क्रियपृतीसाए भवणावाससयसहस्साणं सट्ठीए सामाणियसाहस्सीणं सेसं जहा चमरस्स तहा पलियस्सविणेय-च्छासू१२९ ब्वं, णवरं सातिरेगं केवलकप्पं जंबूद्दीवंतिभाणियब्वं, सेसं तं चेव णिरवसेसं णेयव्वं,णवरंणाणत्तं जाणियब्वं भवणेहिं सामाणिएहिं, सेवं भंते २ ति तचे गोयमे वायुभूती जाब विहरति । भंते त्ति भगवं दोचे गोयमे अग्गिभूतीअणगारे समणं भगवं महावीरं वंदह २ एवं वदासी-जहणं भंते ! बली बहरोयर्णिदे बहरोयण-IG| ॥१५॥ राया एमहिडीए जाव एवइयं च ण प विकब्बित्तए धरणे णं भंते। नागकुमारिंदे नागकुमारराया केमहि-1 वाहीए जाय केवतियं च णं पभू विक्रवित्तए १. गोयमा ! धरणेणं नागकुमारिंदे नागकुमारराया एमहिहीए टजाव से णं तत्थ चोयालीसाए भवणाचाससयसहस्साणं छहं सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्ती-द| ROSECRECORARY अनुक्रम [१५३-१५५]] वायुभूति-अनागारकृत् प्रश्न: ~325 Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७-१२९] दीप सगाणं चउण्हं लोगपालाणं छह अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिबईणं चउत्तीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीणं अन्नेसिं च जाव विहरह, एवतियं च णं पभू विउवित्तए से जहानामए-जुवति जुवाणे जाव पभू केवलकप्पं जंबूद्दी २ जाव तिरियं संखेज्जे दीवसमुद्दे बहहिं नागकुमा रीहिं जाव विउविस्संति वा, सामाणिया तायत्तीसलोगपालगा महिसीओ य तहेव,जहा चमरस्स एवं धरणे जाणं नागकुमारराया महिहिए जाव एवतियं जहा चमरे तहा धरणेणवि, नवरं संखेने दीवसमुदे भाणियब्वं, एवं जाव धणियकुमारा वाणमंतरा जोइसियावि, नवरं दाहिणिल्ले सब्वे अग्गिभूती पुच्छति, उत्तरिल्ले सब्वे वाउभूती पुच्छह, भंतेत्ति भगवं दोचे गोयमे अग्गिभूती अणगारे समणं भगवंम वंदति नमसति २एवं वयासी-जति भंते ! जोइसिंदे जोतिसराया एवंमहिड्डीए जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए सकेणं भंते ! देविंदे देवराया केमहिड्डीए जाव केवतियं च णं पभू विउवित्तए ?, गोयमा! सके णं देविंद देवराया & महिहीए जाव महाणुभागे, से णं तत्थ बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं चउरासीए सामाणिपसाहजास्सीणं जाव चउण्डं चउरासीणं आयरक्ख(देव)साहस्सीणं अन्नेसिंच जाव विहरह, एवंमहिहीए जाव एवतियं चणं पभू विकुवित्तए, एवं जहेव चमरस्स तहेव भाणियव्वं, नवरं दो केवलकप्पे जंबूरीचे २ अवसेसं तं चेव, एस गं गोयमा ! सकस्स देविंदस्स देवरपणो इमेयारूवे विसए विसयमेसे गं बुइए नो चेव णं संपत्तीए विउविसु वा विउच्चति वा विउव्विस्सति वा (मु०१२९) । अनुक्रम [१५३-१५५]] वायुभूति-अनागारकृत् प्रश्न: ~326~ Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७ -१२९] वायुभूतिन दीप व्याख्या- 'नवरं संखेजा दीवसमुह'त्ति लोकपालादीनां सामानिकेभ्योऽस्पतरद्धिकत्वेनाल्पतरत्वाईक्रियकरणलब्धेरिति । ३ शतके प्रज्ञप्तिः 'अपुढवागरण'ति अपृष्टे सति प्रतिपादनं 'बहरोयर्णिदे'त्ति दाक्षिणात्यासुरकुमारेभ्यः सकाशाद्विशिष्टं रोचनं-दीपनं उद्देशः १ अभयदेवी-|| Pयेषामस्ति ते वैरोचना-औदीच्यासुरास्तेषु मध्ये इन्द्रः-परमेश्वरो वैरोचनेन्द्रः 'साइरेग केवलकप्पंति औदीच्येन्द्रत्वेन | दिववक्रियया वृत्तिः 18 वलेविशिष्टतरलम्धिकत्वादिति । 'एवं जाव धणियकुमार'त्ति धरणप्रकरणमिव भूतानन्दादिमहाघोषान्तभवनपतीन्द्र करणशक्ती ॥ प्रकरणान्यध्येयानि, तेषु चेन्द्रनामान्येतद्दाथानुसारतो चाच्यानि-"चमरे १ धरणे २ तह वेणुदेव ३ हरिकंत ४ अग्गि-|| अग्निभूति॥१५७॥ सीहे य ५ । पुणे ५ जलकतेवि य ७ अमिय ८ विलंबे य ९ घोसे य १० ॥१॥" एते दक्षिणनिकायेन्द्राः , इतरे तु-1 दिनः सू१२९ | "बलि १ भूयाणंदे २ वेणुदालि हरिसह ४ ऽग्गिमाणव ५ वसिढे ६ । जलप्पभे ७ अमियवाहणे ८ पभंजण ९ महाघोसे १०॥" एतेषां च भवनसङ्ख्या "चउतीसा १ चउचत्ता २" इत्यादिपूर्वोक्तगाथाद्वयादवसेया, सामानिकात्मरक्षसङ्ख्या चैत्रम्-"चउसही सट्ठी खलु छच्च सहस्सा उ असुरवजाणं । सामाणिया उ एए चउग्गुणा आयरक्खा उ ॥१॥" अग्रमहि४ाध्यस्तु प्रत्येक धरणादीनां षट् , सूत्राभिलापस्तु धरणसूत्रवत्कार्यः, 'वाणमंतरजोइसियाचि'त्ति व्यन्तरेन्द्रा अपि |धरणेन्द्रवत्सपरिवारा वाच्याः, एतेषु च प्रतिनिकायं दक्षिणोत्तरभेदेन द्वौ द्वौ इन्द्रौ स्यातां, तद्यथा-"काले य महा१-चमरो धरणस्तथा घेणुदेवो हरिकान्तोऽमिसिंहश्च । पूर्णो जलकान्तोऽपि चामितो विलम्बन घोषश्च ॥ १॥२-बलिर्भूतानन्दो || ॥१५७॥ वेणुदारी हरिपहोऽमिमानवो वसिष्ठो जलप्रभोऽमितवाहनः प्रभजनो महाघोषः ॥ ३-चतुःषष्टिश्च षष्टिरेव षट् सहस्राणि असुरवज्योनाम् । एतावन्तः सामानिका आत्मरक्षाश्चतुर्गुणाः ॥ १-कालश्च महा अनुक्रम [१५३-१५५]] OGSAXSCR4560 For P OW Imaturary.org ~327 Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७-१२९] काले १ सुरूव पडिरूव २ पुण्णभहे य । अमरवइ माणिभद्दे ३ भीमे य तहा महाभीमे ४ ॥१॥ किंनर किंपुरिसे ५ खलु है सप्पुरिसे चेव तह महापुरिसे ६ । अइकाय महाकाए ७ गीयरई चेव गीयजसे ८॥२॥" एतेषां ज्योतिष्काणां च बाय-19 स्त्रिंशा लोकपालाश्च न सन्तीति ते न वाच्याः, सामानिकास्तु चतुःसहस्रसङ्ख्याः, एतच्चतुर्गुणाश्चात्मरक्षा अग्रमहिष्यश्च-18 | तन इति, एतेषु च सर्वेष्वपि दाक्षिणात्यानिन्द्रानादित्यं चाग्निभूतिः पृच्छति, उदीच्यांश्चन्द्रं च वायुभूतिः, तत्र च | दाक्षिणात्येष्वादित्ये च केवलकल्पं जम्बूद्वीपं संस्तृतमित्यादि, औदीच्येषु च चन्द्रे च सातिरेक जम्बूद्वीपमित्यादि च वाच्यं, यच्चेहाधिकृतवाचनायामसूचितमपि व्याख्यातं तद्बाचनान्तरमुपजीव्येति भावनीयमिति, तत्र कालेन्द्रसूत्राभि४ लाप एवम्-'काले णं भंते ! पिसाईदे पिसायराया केमहिड्डीए ६ केवइयं च णं पभू विउवित्तए !, गोयमा ! काले णं महिडीए ६ से णं तत्थ असंखेज्जाणं नगरवाससयसहस्साणं चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं सोलसह आयरक्खदेवसाहस्सीणं || | चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं अण्णेसिं च बहूणं पिसायाणं देवाणं देवीण य आहेवचं जाव विहरइ, एवंमहिहिए ६ एवतियं च णं पभू विउवित्तए जाव केवलकप्पं जंबूहीवं २ जाव तिरिय संखेजे दीवसमुद्दे'इत्यादि, शक्रप्रकरणे 'जाव चउण्हं चउरासीण'मित्यत्र यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अण्डं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं चउण्हं लोगपालाणं दीप अनुक्रम [१५३-१५५]] कालः सुरूपः प्रतिरूपः पूर्णभद्रश्यामरपतिर्माणिभद्रो भीमश्च तथा महाभीमः ॥१॥ किंनरः किंपुरुषः खलु सत्पुरुषश्चैव तथा महापुरुषः । अतिकायो महाकायो गीतरतिश्चैव गीतयशाः ॥२॥ ~328~ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१२७-१२९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१२७ -१२९] दीप ब्याख्या-3 तिहं परिसाणं सत्तण्हं अणियाणं सत्तण्हं अणियाहिबईणति ॥ शक्रस्य विकुर्वणोक्ता, अथ तत्सामानिकानां सा वक्त-दा 13३ शतके प्राप्तिः व्या, तत्र च स्वप्रतीतं सामानिकविशेषमाश्रित्य सच्चरितानुवादतस्तान प्रश्नयन्नाह उद्देशः१ अभयदेवी-| जहणे भंते! सके देविंदे देवराया एमहिहीए जाव एवतियं च णं पभू विकुवित्तए । एवं तिष्यकानया वृत्तिः शाखलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी तीसए णामं अणगारे पगतिभदए जाब विणीए छहूंछणं अणि-गारशक्रसा - मानिकश॥१५॥ क्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुण्णाइं अट्ठ संवच्छराई सामण्णपरियागं पाउणित्ता भक्तिःसू१३० मासियाए संलेहणाए अत्ताण झसेत्ता सहि भत्ताई अणसणाए छे देता आलोतियपडिकते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे सयंसि विमाणसि उववायसभाए देवसयणिजंसि देवदूसंतरिए अंगुलस्स असंखेजहभागमेत्ताए ओगाहणाए सकस्स देविंदस्स देवरपणो सामाणियदेवत्ताए उवषपणे, तए णं तीसए देवे अहणोववन्नमेसे समाणे पंचबिहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छद, तंजहा-आहारपज्जत्तीए| सरीर०इंदिप०आणुपाणुपजसीए भासामणपजत्तीए, तए णं तं तीसयं देवं पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तिभावं & गयं समाणं सामाणियपरिसोववन्नया देवा करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलिं कटु जएणं विजएणं बद्धाविति २ एवं वदासि-अहोणं देवाणुप्पिए ! दिव्वा देविही दिब्वा देवजुत्ती दिब्वे देवाणुभावे || IT ॥१५८॥ ॥ लडे पत्ते अभिसमन्नागते, जारिसिया णं देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविट्ठी दिब्बा देवजुत्ती दिब्वे देवाणुभावे लखे पत्ते अभिसमन्नागते तारिसिया गं सक्केणं देविंदणं देवरना दिब्बा देविड्डी जाव अभिसमन्नागया, अनुक्रम [१५३-१५५]] Junaturary.org ~329~ Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] दीप अनुक्रम [१५६] जारिसिया णं (सकेणं देविंदेणं देवरपणा दिब्बा देविट्ठी जाव अभिसमण्णागया तारिसिया णं) देवाणुप्पिएहिं दिव्वा देविड्डी जाव अभिसमन्नागया। से णं भंते! तीसए देवे केमहिड्डीए जाव केवतियं च णं पभू | विउवित्तए ?, गोयमा ! महिहीए जाव महाणुभागे, से गं तत्थ सयस्स विमाणस्स चउण्हं सामाणियसाहस्सीणं चउण्हं अग्गमहिसीणं सपरिवाराणं तिण्हं परिसाणं सत्तहं अणियाणं सत्तहं अणियाहिवईणं सोलसहं आयरक्खदेवसाहस्सीणं अपणेसिं च बहुणं वेमाणियाणं देवाण य देवीण य जाब विहरति, एवंमहिडीए जाव एवइयं च णं पभू विउम्बित्तए, से जहाणामए जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा जहेव सफरस तहेव जाव एस णं गोयमा ! तीसयरस देवस्स अयमेयारूचे विसए विसयमेत्ते बहए नो चेव णं संप-18 तीए विउब्बिसु वा ३ । जति णं भंते ! तीसए देवे महिड्डीए जाब एवइयं च णं पभू विउम्वित्तए सकस्स ण भंते ! देविंदस्स देवरन्नो अवसेसा सामाणिया देवा केमहिडीया तहेव सवं जाव एस गं गोयमा! सकस्स देविंदस्स देवरनो एगमेगस्स सामाणियस्स देवस्स इमेयारूवे विसयमेसे बुइए नो चेव ण संपत्तीए विउब्बिसु वा विउविति वा विउविस्संति वा तायत्तीसा य लोगपालअग्गमहिसीणं जहेव चमरस्स नवरं दो केवलकप्पे जंबूहीवे २ अण्णं तं पणेव, सेवं भंते २ त्ति दोचे गोयमे जाव विहरति ॥ (सू०१३०)॥ _ 'एवं खलु'इत्यादि, 'एवम्' इति वक्ष्यमाणन्यायेन सामानिकदेवतयोत्पन्न इति योगः, 'तीसए'त्ति तिष्यकाभिधानः सयंसि'त्ति स्वके विमाने, 'पंचविहाए पजत्तीपत्ति पर्याप्तिः--आहारशरीरादीनामभिनिर्वृत्तिः, सा चान्यत्र पोढोक्ता, ~330~ Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३०] दीप व्याख्या-15 इह तु पञ्चधा, भाषामनःपर्याप्योर्बहुश्रुताभिमतेन केनापि कारणेनैकत्वविवक्षणात , 'लहेत्ति जन्मान्तरे तदुपार्जनापे-|| ३ शतके प्रज्ञाप्तः क्षया 'पत्ते'त्ति प्राप्ता देवभवापेक्षया 'अभिसमण्णागए'त्ति तद्भोगापेक्षया 'जहेव चमरस्स'ति, अनेन लोकपालान- दशः१ अभयदेवी महिषीणां तिरियं संखेने दीवसमुद्दे'त्ति वाच्यमिति सूचितम् ॥ इशानेन्द्रवै या वृत्तिः१ भंतेत्ति भगवं तचे गोयमे वाउभूती अणगारे समणं भगवं जाव एवं वदासी-जति णं भंते ! सके देविंदे क्रियशक्तिः सू१३१ ॥१५॥ गदेवराया ए महिहीए जाव एवाइयं च णं पभू विउवित्तए ईसाणे णं भंते ! देचिंदे देवराया केमहिहीए ? एवं तहेव, मवरं साहिए दो केवलकप्पे जंबूदीवे २ अबसेसं तहेव (सू० १३१)॥ 'ईसाणे णं भंते' इत्यादि, ईशानप्रकरणम् , इह च एवं तहेव'त्ति अनेन यद्यपि शक्रसमानवक्तव्यमीशानेन्द्रप्रकरणं || सूचितं तथाऽपि विशेषोऽस्ति, उभयसाधारणपदापेक्षत्वादतिदेशस्येति, स चायम्-'से गं अठ्ठावीसाए विमाणावाससय-पद | सहस्साणं असीईए सामाणियसाहस्सीणं जाव चउण्हं असीईणं आयरक्खदेवसाहस्सीणति ॥ ईशानवक्तव्यतानन्तरं | तस्सामानिकवक्तव्यतायां स्वप्रतीतं तद्विशेषमाश्रित्य तच्चरितानुवादतः प्रनयन्नाह जति णं भंते । ईसाणे देविदे देवराया एमहिड्डीए जाव एवतियं च णं पभू विउवित्तए || एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुरुदत्तपुत्ते नाम पगतिभद्दए जाब विणीए अट्ठमंअट्ठमणं अणि-II | क्वित्तेणं पारणए आयंबिलपरिग्गहिएणं तवोकम्मेणं उडे बाहाओ पगिज्झिय २सूराभिमुहे आपावणभू-|| मीए आयावेमाणे बहुपडिपुन्ने छम्मासे सामपणपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं ||2|| अनुक्रम [१५६] SUBinauranorm ~331 Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१३२ १३३] दीप अनुक्रम [१५८ -१५९] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ १३२-१३३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः | झोसित्ता तीसं भत्ताई अणसणाए छेदिता आलोइयपडियंते समाहिपसे कालमासे कालं किचा ईसाने कप्पे सरांसि विमाणंसि जा चैव तीसए वत्तच्वया ता सन्वेव अपरिसेसा कुरुदत्तपुतेवि, नवरं सातिरेंगे दो केवलकप्पे जंबूदीवे २, अवसेसं तं चेव, एवं सामाणियतायत्ती लोगपाल अग्गमहिसीणं जाव एस णं गोयमा ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो एवं एंगमेगाए अग्गमहिसीए देवीए अयमेपारूवे विसए बिसयमेन्ते बुझ्ए नो चेव णं संपत्तीए विवि वा ३ ॥ ( सू० १३२ ) ॥ एवं सणकुमारेवि, नवरं चत्तारि केवलकप्पे जंबूही वे दीवे अदुत्तरं च णं तिरियमसंखेज्जे, एवं सामाणियताय तीस लोगपाल अग्गमहिसीणं असंखेज्जे दीवसमुद्दे सच्चे विध्वंति, सणकुमाराओ आरद्वा उवरिल्ला लोगपाला सव्वेवि असंखेजे दीवसमुद्दे विउव्विति, एवं माहिंदेवि, नवरं सातिरेगे चत्तारि केवलकप्पे जंबूदीवे २, एवं बंभलोएवि, नवरं अट्ठ केवलकप्पे, एवं लंतएवि, नवरं सातिरेगे अह केवलकप्पे, महासुक्के सोलस केवलकप्पे, सहसारे सातिरंगे सोलस, एवं पाणएवि, नवरं वत्तीसं केवल ०, एवं अचुएवि० नवरं सातिरेगे बत्तीसं केवलकप्पे जंबूद्दीवे २ अन्नं तं चेष, सेवं भंते २ ति तचे गोयमे वायुभूती अणगारे समणं भगवं महावीरं वंदइ नम॑सति जाव विहरति । तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कपाई मोयाओ नगरीओ नंदणाओ चेतियाओ पडिनिक्खमइ २ बहिया जणवयविहारं विहरइ || (सू० १३३) । 'उ बहाओ परिशिय'त्ति प्रगृह्य विधायेत्यर्थः । 'एवं सणकुमारेवि'त्ति, अनेनेदं सूचितम् -'सर्णकुमारे णं Educatin internation For Park Use Only ~332~ Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३२-१३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३२१३३] ब्याख्या- भंते ! देविंदे देवराया केमहिहिए ६ केवइयं च णं पभू विउवित्तए ?, गोयमा ! सणंकुमारे णं देविंद देवराया महिहिए । ३ शतके प्रज्ञप्तिः ४६, सेणं बारसह विमाणावाससयसाहस्सीणं बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीणं जाव चउहं बावत्तरीणं आयरक्खदेवसा- उद्देशः१ दवानाटा हस्सीण मित्यादीति, 'अग्गमहिसीणं'ति यद्यपि सनत्कुमारे स्त्रीणामुत्पत्तिर्नास्ति तथाऽपि याः सौधर्मोत्पन्नाः समयाया वृत्तिः१४ ईशानेन्द्रधिकपल्योपमादिदशपल्योपमान्तस्थितयोऽपरिगृहीतदेव्यस्ताः सनत्कुमारदेवानां भोगाय संपद्यन्ते इतिकृत्वाऽयमहिष्य, सामानिक॥१६॥ इत्युक्तमिति । एवं माहेन्द्रादिसूत्राण्यपि गाथानुसारेण विमानमानं सामानिकादिमानं च विज्ञायानुसन्धानीयानि कुरुदत्तशगाथाश्चैवम्-"बत्तीस अडवीसा २ वारस ३ अ४४ चउरो ५य सयसहस्सा। आरेण बंभलोया विमाणसंखा भवे एसा॥१॥ सूर२२ पण्णासं ६ चत्त ७ छच्चेव ८ सहस्सालंतसुक्कसहसारे। सयचउरो आणयपाणएसु ९-१० तिण्णारणच्यओ ११-१२ ॥२॥ सामानिकपरिमाणगाथा-"चउरासीइ असीई बावत्तरि सत्तरी य सही य । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा शक्तिः सू१३३ ॥१॥" इह च शक्रादिकान् पश्चैकान्तरितानग्निभूतिः पृच्छति, ईशानादीश्च तथैव वायुभूतिरिति ॥ इन्द्राणां वैक्रियशक्तिप्ररूपणप्रक्रमादीशानेन्द्रेण प्रकाशितस्यात्मीयस्य वैक्रियरूपकरणसामर्थस्य तेजोलेश्यासामर्थ्यस्य चोपदर्शनायेदमाहतेणं कालेणं तेणं० रायगिहे नाम नगरे होत्था, वन्नओ, जाव परिसा पजुचासह । तेणं कालेणं २ ईसाणे १-द्वात्रिंशदष्टाविंशतिदशाष्टौ चत्वारश्च लक्षाः । ब्रह्मलोकादाराद्विमानसख्या भवेद् एषा ॥१॥ पञ्चाशचत्वारिंशत् षट् चैव C ॥१६॥ सहस्राणि लान्तकशुक्रसहस्रारेषु । आनताणतयोश्चत्वारि शतानि आरणाच्युतयोस्त्रीणि ॥२॥२-चतुरशीतिरशीति सप्ततिः सप्ततिश्च पष्टिश्च । पचाश चत्वारिंशत्रिंशदिशतिर्दश च सहस्राणि ( सामानिकाः) ॥१॥ STAG दीप अनुक्रम [१५८ -१५९] ~333~ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * * * प्रत सूत्रांक [१३४] * देविदे देवराया सूलपाणी वसभवाहणे उत्तरड्लोगाहिवई अट्ठावीसविमाणावाससयसहस्साहिबई अयरबरवत्यधरे आलइयमालमउडे नवहेमचारुचित्तचंचलकुंडलविलिहिज्जमाणगंडे जाव दस दिसाओ उज्जोवेमाणे पभासेमाणे ईसाणे कप्पे ईसाणवडिसए विमाणे जहेव रायप्पसेणहज्जे जाव दिव्वं देविहि, जाव जामेव [दिसि पाउन्भूए तामेव दिसि पडिगए । भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वदति णमंसति २ एवं वदासी-अहोणं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया महिडीए ईसाणस्स णं भंते ! सा दिव्वा देविड्डी कहिं गता कहिं अणुपविट्ठा ?, गोयमा ! सरीरं गता २, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचति सरीरंगता? २, गोयमा! से जहानामए-कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुत्ता गुत्तदुवारा णिवाया णिवायगंभीरा तीसे णं कृडागारे जाव कूडागारसालादिढतो भाणियञ्चो । ईसाणेणं भंते ! देविदेणं देवरण्णा सा दिव्या देविड्डी दिव्वा देवजुत्ती ४ दिव्वे देवाणुभागे किण्णा लडे किन्ना पत्ते किण्णा अभिसमन्नागए के वा एस आसि पुब्बभचे, किण्णामए वा |किंगोत्ते वा कयरंसि वा गामंसि वा नगरंसि वा जाव संनिवेसंसि वा किंवा सुचा किंवा दचा किंवा भोचा किं वा किच्चा किं वा समायरित्ता कस्स वा तहारूवस्स समणस्स वा माहणस्स वा अंतिए एगमवि आयरियं धम्मियं सुवयणं सोचा निसम्म [जण्णं] ईसाणेणं देविंदेणं देवरण्णा सा दिग्बा देविही जाव अभिसमनागया, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं २ इहेव जंबूदीवे २ भारहे वासे तामलिली नाम नगरी होत्था, वन्नओ, तत्थ णं तामलित्तीए नगरीए तामली नाम मोरियपुत्ते गाहावती होत्था, अहे दित्ते जाव बहुज SSOCCESCACCESSAGAR दीप अनुक्रम [१६०] *5-15* * * तामली-तापस कथा ~334~ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१६०] व्याख्या- शणस्स अपरिभूए यावि होस्था, तए णं तस्स मोरियपुत्तस्स तामलित्तस्स गाहाचइयस्स अण्णया कयाइ पुच- ३ शतके प्रज्ञप्तिः रत्तावरत्तकालसमयंसि कुटुंबजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अज्झस्थिए जाब समुप्पज्जित्था-अस्थि ता उद्देशः१ अभयदा मे पुरा पोराणाणं सुचिन्नाणं सुपरिकांताणं सुभाणं कल्लाणाणं कडाणं कम्माणं कल्लाणफलवित्तिविसेसोद तामलोप्राया वृत्तिः१४ | जेणाहं हिरणेणं वहामि सुवन्नेणं बहामि धणेणं वहामि धन्नेणं बहामि पुत्तेहिं वहामि पमूहि वहामि | णामप्रत्र ज्यासू१३४ ॥१६१५५ | विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलपवालरत्तरयणसंतसारसावतेजेणं अतीव २ अभिवहामि, तं किपणं अहं पुण पोराणाणं मुचिन्नाणं जाव कडाणं कम्माणं एगंतसोक्खयं उबेहेमाणे विहरामि,तं जाव ताव अहं हिरपणेणं वहामि जाव अतीव २ अभिवहामि जावं च णं मे मित्तनातिनियगसंबंधिपरियणो ४ आढाति परियाणाइ सकारेइ सम्माणेह कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं पजुवासइ ताव ता मे सेयं 31 कल्लं पाउप्पभाषाए रयणीए जाव जलंते सयमेव दारुमयं परिग्गहियं करेत्ता विउलं असणं पाणं खातिम सातिम उवक्खडावेत्ता मित्तणातिनियगसयणसंबंधिपरियणं आमंतेत्तातं मित्तनाइनियगसंबंधिपरियणं विउलेणं असणपाणखातिमसातिमेणं चत्वगंधमल्लालंकारेण य सकारेत्ता सम्माणेता तस्सेव मित्तणाइनियगसं-16 IN ॥१६॥ बंधिपरियणस्स पुरतो जेट्टपुत्तं कुटुंबे ठावेत्ता तं मित्तणातिणियगसंबंधिपरियणं जेवपुतं च आपुच्छित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय मुंडे भवित्ता पाणामाए पवजाए पब्वइत्तए, पब्वइएऽविय णं समाणे इमं || एयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि-कप्पइ मे जावजीवाए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उर्ल्ड-13 GAN-C404 DI तामली-तापस कथा ~335~ Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१६०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः बाहाओ परिशिय २ सराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स विहरित्तए, छट्ठस्सवि य णं पारणयंसि आयावणभूमीतो पचोरुभित्ता सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं गहाय तामलिसीए नगरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडित्ता सुद्धोदणं पडिग्गाहेत्ता तं तिसत्तखुत्तो उद| एणं पक्खालेत्ता तओ पच्छा आहारं आहारितएत्तिक एवं संपेहेइ २ कल्ले पाउप्पभाषाए जाब जलते | सयमेव दारुमयं पडिग्गहयं करेइ २ विडलं असणं पाणं खाइमं साइमं उबक्खडावे २ तओ पच्छा पहाए | कथवलिकम्मे कपकोउयमंगल पायच्छिते सुद्धप्पावेसाई मंगल्लाई बस्थाई पवरपरिहिए अप्पमहग्धा भरणालंकियसरीरे भोषणवेलाए भोषणमंडवंसि सुहासणवरगए तए णं मित्तणाइनियगसपणसंबंधिपरिजणेणं सद्धिं तं विउलं असणं पाणं खातिमं साइमं आसादेमाणे बीसाएमाणे परिभाषमाणे परिभुंजेमाणे विहरइ । जिमि यमुत्तुत्तरागएऽवि य णं समाणे आयंते चोक्खे परमसुइभूए तं मित्तं जाव परियणं विउलेणं असणपाण ४| पुप्फवत्थगंधमलालंकारेण य सकारे २ तस्सेव मित्तणाइ जाव परियणस्स पुरओ जेई पुत्तं कुटुंबे ठावेह २ ता तस्सेव तं मित्तनाइणियगसपण संबंधिपरिजणं जेपुरतं च आपुच्छर २ मुंडे भविता पाणामाए पव्वज्जाए पव्वहए, पव्वइएवि य णं समाणे इमं एयारूवं अभिग्ग अभिगिण्हह - कप्पड़ मे जावजीवाए उछट्टेणं जाव आहारितएत्तिक इमं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिन्हइ २ ता जावजीबाए छहछणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उहुं बाहाओ परिशिष २ सूराभिमुद्दे आयावणभूमीए आयावेमाणे विह Eatonto तामली-तापस कथा For Pasta Use Only ~336~ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१६०] व्याख्या-16 रइ, छहस्सवि य णं पारणयंसि आयावणभूमीओ पचोरुहइ २ सयमेव दारुमयं पडिग्गहं गहाय तामलित्तीए ३ शतके प्रज्ञप्तिः नगरीए उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडइ २ सुद्धोयणं पडिग्गाहेइ २ तिसत्त- उद्देशः१ भयदवा- खुत्तो उदएणं पक्वालेह, तओ पच्छा आहारं आहारेइ । से केण?णं भंते! एवं बुचा-पाणामा पञ्चजातामलामायावृत्तिः१ ||२१, गोयमा ! पाणामाए णं पञ्चजाए पब्वइए समाणे जं जत्थ पासइ इंदं वा खंदं वा कई वा सिवं वा वेस-18|| णामपत्र Enाज्यासू१३४ ॥१३ मणं वा अजं वा कोकिरियं वा रायं वा जाव सस्थवाहं वा कार्ग वा साणं वा पाणं वा उचं पासइ उच्च | कापणामं करेइ,नीयं पासह नीयं पणामं करेइ, जं जहा पासति तस्स तहा पणामं करेइ, से तेणगुणं गोयमा ! द्र एवं वुचइ-पाणामा जाव पब्वजा ॥ (सू०१३४)॥ 'जहेव रायप्पसेणइज्जेत्ति यथैव राजप्रश्नीयाख्येऽध्ययने सूरियाभदेवस्य वक्तव्यता तथैव चेहेशानेन्द्रस्य, किमन्तेत्याह-जाव दिव्वं देविहि मिति, सा चेयमर्थसझेपतः-सभायां सुधर्मायामीशाने सिंहासनेऽशीत्या सामानिकसही|श्चतुर्भिर्लोकपालरष्टाभिः सपरिवाराभिरग्रमहिषीभिः सप्तभिरनीकैः सप्तभिरनीकाधिपतिभिश्चतसृभिश्चाशीतिभिरात्मरक्षदेवसहस्राणाम् अन्यैश्च बहुभिर्देवैर्देवीभिश्च परिवृतो महताऽऽहतनाव्यादिरवेण दिव्यान् भोगभोगान् भुञ्जानो विहरति स्म, इतश्च जम्बूद्वीपमवधिनाऽऽलोकयन् भगवन्तं महावीरं राजगृहे ददर्श, दृष्ट्वा च ससंभ्रममासनादुसस्थी, उत्थाय च सप्ताष्टानि पदानि तीर्थकराभिमुखमाजगाम, ततो ललाटतटघटितकरकुड्मलो ववन्दे, बन्दित्वा चाभियोगिकदेवान् शब्दयाञ्चकार, एवं च तानवादीत-गच्छत भो राजगृहं नगरं महावीरं भगवन्तं वन्दध्वं योजनपरिमण्डलं च क्षेत्रं शोध SECREASE ॥१६॥ तामली-तापस कथा ~337~ Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: SAB प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१६०] | यत, कृत्वा चैवं मम निवेदयत, तेऽपि तथैव चक्रुः, ततोऽसौ पदात्यनीकाधिपति देवमेवमवादीत्-भो ! भो। देवाना | प्रिय ! ईशानावतंसकविमाने घण्टामास्फालयन् घोषणां कुरु यदुत गच्छति भो । ईशानेन्द्रो महावीरस्य वन्दनाय | ततो यूयं शीघ्रं महा तस्यान्तिकमागच्छत, कृतायां च तेन तस्यां बहवो देवाः कुतूहलादिभिस्तत्समीपमुपागताः, तैश्च परिवृतोऽसौ योजनलक्षप्रमाणयानविमानारूढोऽनेकदेवगणपरिवृतो नन्दीश्वरे द्वीपे कृतविमानसझेपो राजगृहनगरमाजगाम, ततो भगवन्तं त्रिप्रदक्षिणीकृत्य चतुर्भिरकुलै वमप्राप्तं विमानं विमुच्य भगवत्समीपमागत्य भगवन्तं वन्दित्वा पर्युपास्ते स्म, ततो धर्म श्रुत्वैवमवादीत्-भदन्त ! यूयं सर्व जानीथ पश्यथ केवलं गौतमादीनां महर्षीणां दिव्यं नाव्यविधिमुपदर्शयितुमिच्छामीत्यभिधाय दिव्यं मण्डपं विकुर्वितवान्, तन्मध्ये मणिपीठिका तन च सिंहासन, ॐ ततश्च भगवन्तं प्रणम्य तत्रोपविवेश, ततश्च तस्य दक्षिणा जादष्टोत्तरं शतं देवकुमाराणां वामाच देवकुमारीणां निर्गदच्छति स्म, सतश्च विविधातोधवरगीतध्वनिरजित जनमानस द्वात्रिंशद्विधं नाव्यविधिमुपदर्शयामासेति । 'तए णं से Pईसाणे देविंदे २ तं दिवं देविहि यावत्करणादिदमपरं वाच्यं यदुत 'दिवं देवजुई दिवं देवाणुभावं पडिसाहरइ साह रित्ता खणेणं जाए एगभूए । तए णं ईसाणे ३ समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमंसित्ता नियगपरियालसंपरिबुडे'त्ति Mil'परियाल'त्ति परिवारः। 'कडागारसालादिहतो'त्ति कुटाकारण-शिखराकृत्योपलक्षिता शाला या सा तथा तया * दृष्टान्तो यः स तथा, स चैव-भगवन्तं गौतम एवमवादीत्-ईशानेन्द्रस्य सा दिव्या देवकि गता? (कानुपविष्टा), 8|| गौतम ! (शरीरं गता) शरीरकमनुप्रविष्टा । अथ केनार्थेनैवमुच्यते !, गौतम ! यथा नाम कुटाकारशाला स्यात्, तस्या-IXI 945 तामली-तापस कथा ~338~ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] व्याख्या- 15 वादूरे महान् जनसमूहस्तिष्ठति, स च महाभादिकमागच्छन्तं पश्यति, दृष्टा व तो कूटागारशालामनुप्रविशति, परमीशा-||31. उद्देशः१ प्रशप्तिः बाला नेन्द्रस्य सा दिव्या देवर्द्धिः (शरीरं गता) शरीरकमनुप्रविष्टेति । 'किपणे'ति केन हेतुना ? 'किं वा दचे'त्यादि, इह ||STATE अभयदेवी तामलीप्रन या वृत्तिः दत्त्वाऽशनादि भुक्त्वाऽन्तप्रान्तादि कृत्वा तपाशुभध्यानादि समाचर्य च प्रत्युपेक्षाप्रमार्जनादि, 'कस्स वेत्यादि-न्यास वाक्यस्य चान्ते पुण्यमुपार्जितमिति वाक्पशेषो दृश्यः, 'जण्ण'ति यस्मात्पुण्यात् णमित्यलङ्कारे। 'अस्थि ता मे पुरा ॥१६॥ पोराणाण'मित्यादि पुरा-पूर्व कृतानामिति योगः, अत एव 'पोराणाण'ति पुराणानां 'सुचिण्णार्ण'ति दानादिसुच रितरूपाणां 'सुपरफताणं'ति सुष्ठु पराक्रान्त-पराक्रमस्तपःप्रभृतिक येषुतानि तथा तेषां, शुभानामोंवहत्वेन कल्याणाना| मनर्थोपशमहेतुत्वेनेति, कुतोऽस्ति ? इत्याह-'जेणाह'मित्यादि, पूर्वोक्तमेव किचिरसविशेषमाह-'विउलघणकणगरयणमणिमोसिपसंखसिलप्पवालरत्तरयणसंतसारसावएजेणं'ति, इह धनं-गणिमादि रत्नानि-कर्केतनादीचिमणयः| चन्द्रकान्तायाः शिलाप्रवालानि-विद्वमाणि,अन्ये त्वाहः-शिला-राजपट्टादिरूपाःप्रवाल-विदुम रक्तरतानि-पारागादीनि, एतद्रूपं यत् 'संत'त्ति विद्यमानं सारं-प्रधानं स्वापतेय-द्रव्यं तत्तथा तेन 'एगंतसो खयंति एकान्तेन क्षयं, नवानां | शुभकम्मेणामनुपार्जनेन, 'मित्ते'त्यादि, तत्र मित्राणि-सुहृदो ज्ञातयः-सजातीयाः निजका-गोत्रजाः सम्बन्धिनो ॥१६॥ मातृपक्षीयाः श्वशुरकुलीना वा परिजनो-दासादिः 'आदाईत्ति आद्रियते 'परिजाणइत्ति परिजानाति स्वामितया का'पाणामाए'त्ति प्रणामोऽस्ति विधेयतया यस्यां सा प्राणामा तया, 'सुद्धोय'ति सूपशाकादिवर्जितं कूर 'तिसत्त-का खुत्तोत्ति त्रिसप्तकृत्वः, एकविंशतिवारानित्यर्थः, 'आसाएमाणे'ति ईषत्स्वादयन् 'वीसाएमाणे'त्ति विशेषेण स्वादयन्। CSC MCAE दीप अनुक्रम [१६०] A asurary.com तामली-तापस कथा ~339~ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३४] दीप अनुक्रम [१६०] | स्वाधविशेष 'परिभावेमाणे'त्ति ददत् 'परिभुजमाणेति भोज्यं परिभुञ्जाना, 'जिमियनुत्तुसरागए'त्ति 'जिमिय'त्ति प्रथमैकवचनलोपात् जेमिता-भुक्तवान् 'भुत्तोत्तर'त्ति भुकोत्तर-भोजनोत्तरकालम् 'आगए'त्ति आगतः उपवेशनस्थाने भुक्तोत्तरागतः, किंभूतः सन् ? इत्याह-'आयते'त्ति आचान्तः-शुद्धोदकयोगेन'चोक्ख'त्ति चोक्षा लेपसिक्थाद्यपनयनेनात एव परमशुचिभूत इति । 'जं जत्थ पासइत्ति यम्-इन्द्रादिक यत्र-देशे काले वा पश्यति तस्य तत्र प्रणामं करोतीति है वाक्पशेषो दृश्यः 'खंदं यत्ति स्कन्दं वा-कार्तिकेयं 'रुई वा' महादेवं 'सिवं वत्ति व्यन्तरविशेषम्, आकारविशेषो| दृश्यः, आकारविशेषधरं वा रुद्रमेव, 'वेसमणं वत्ति उत्तरदिक्पालम् 'अजं वत्ति आर्या प्रशान्तरूपां चण्डिका 'कोहट्राकिरियं वत्ति चण्डिकामेव रौद्ररूपां, महिषकुट्टनक्रियावतीमित्यर्थः, 'रायं वा' इत्यत्र यावरकरणादिदं दृश्यम्-'ईसर | वा तलवरं वा भाडंपियं वा कोडंबियं वा सेहिं वा इति, 'पाणं बत्ति चाण्डाल 'उ'ति पूज्यम् 'उचं पणमति ठा अतिशयेन प्रणमतीत्यर्थः 'नीय'ति अपूज्यं 'नीयं पणमति' अनत्यर्थ प्रणमतीत्यर्थः, एतदेव निगमयशाह-'जं जहे-IIX इत्यादि पुरुषपश्चादिक यथा-यत्प्रकारं पूज्यापूज्यस्वभावं तस्य-पुरुषादेः तथा-पूज्यापूग्योचिततया ॥ है तए णं से तामली मोरियपुत्ते तेणे ओरालेणं विपुलेणं पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं सुक्के भुक्खे जाव धमणिसंतए जाए यावि होत्था, तए णं तस्स तामलित्तस्स बालतवसिस्स अन्नया कयाइ पुम्वरत्तावरत्तकालसमयंसि अणिचजागरियं जागरमाणस्स इमेयारूवे अझस्थिए चिंतिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं।। इमेणं ओरालेणं विपुलेणं जाव उदग्गेणं उत्तेणं उत्तमेणं महाणुभागेणं तवोकम्मेण सुके भुक्खे जाव धम तामली-तापस कथा ~340~ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५-१३७] दीप व्याख्या-4 णिसंतए जाए, तं अस्थि जा मे उहाणे कम्मे बले वीरिए पुरिसक्कारपरक्कमे ताव ता मे सेयं कल्लं जाव जलते ३ शतके प्रज्ञप्तिः तामलित्तीए नगरीए दिट्ठाभट्टे य पासंडस्धे य पुव्वसंगतिए य गिहत्थे य पच्छासंगतिए य परियायसंगतिए य उद्देशः१ अभयदेवी- आपत्तिा तामलित्तीए नगरीए मज्झमझेणं निग्गच्छित्ता पाजग्गं कुंडियमादीयं जवकरणं दारुमयं च पडि-18||तामलरनश ग्गहियं एगते [एडेड एडित्ता तामलित्तीए नगरीए उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए णियत्तणियमंडलं [आलिहदाद नअसुरेन्द्र॥१६॥ आलिहिता संलेहणाझूसणाझुसियस्स भत्तपाणपडियाइक्खियस्स पाओवगयस्स कालं अणवस्खमाणस्सा त्वानादरण विहरित्तएत्तिकदु एवं संपेहेइ एवं संपेहेत्ता कलं जाव जलते जाव आपुच्छह २ तामलित्तीए [ एगते एडेए]3/ जाव जलंतेजाव भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवगमणं निवन्ने । तेणं कालेणं २ वलिचंचारायहाणी अर्णिदा अपुरोहिया यावि होत्था । तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ Pय तामलिं बालतवरिंस ओहिणा आहोयंति २ अन्नमन्नं सद्दावेंति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पि-13 ४ या ! पलिचंचा रायहाणी अणिंदा अपुरोहिया अम्हे णं देवाणुप्पिया! इंदाहीणा इंदाधिडिया इंदाही कजा अयं च णं देवाणुप्पिया ! तामली पालतवस्सी तामलित्तीए नगरीए बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए नियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणाझूसणाझूसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओवग-1 W॥१६४॥ मणं निवन्ने, तं सेयं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं तामलिं बालतवस्सि बलिचंचाए रायहाणीए ठितिप-| कप्पं पकरावेत्तएत्तिक? अन्नमन्नस्स अंतिए एयमह पडिसुणेति २ बलिचचाए रायहाणीए मझमज्जमेणं अनुक्रम [१६१ -१६३] SAREaratunintenational तामली-तापस कथा ~341 Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५-१३७] दीप 55A5%85ॐॐॐॐॐ निग्गच्छइ २ जेणेव रुयगिंदे उपायपम्वए तेणेव उवागच्छइ २ घेउब्बियसमुग्घाएणं समोहणंति जाव उत्तरउब्वियाई रूवाई विकुठवंति, ताए उमिटाए तुरियाए चवलाए चंडाए जाणाए छेयाए सीहाए सिग्घाए दिवाए उद्धयाए देवगतीए तिरियमसंखेजाणं दीवसमुद्दाणं मजझमज्झेणं जेणेव जंबूद्दीवे २ जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती[ए] नगरी[प] जेणेव तामलित्ती मोरियपुत्ते तेणेव उवागच्छंति २त्ता तामलिस्स बालतव स्सिस्स उप्पिं सपक्खि सपडिदिसि ठिच्चा दिव्वं देविहिं दिव्वं देवजुर्ति दिव्वं देवाणुभागं दिव्वं यत्तीसविहं नहविहिं उपदंसंति २ तामलिं बालतवस्सि तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति वंदति नमसंति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हे बलिचंचारायहाणीवत्थब्बया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पियं वंदामो नमसामो जाव पजुवासामो, अम्हाणं देवाणुप्पिया! बलिचंचा रायहाणी अणिदा अपुरोहिया अम्हेऽवि य क देवाणुप्पिया ! इंदाहीणा इंदाहिट्ठिया इंदाहीणकज्जा तं तुम्भे ण देवाणुप्पिया! बलिचंचारायहाणिं आढाह परियाणह सुमरह अटुं बंधह निदानं पकरेह ठितिपकप्प पकरेह, तते णं तुम्भेद कालमासे कालं किच्चा पलिचंचारायहाणीए उववजिस्सह, तते णं तुम्भे अम्हं इंदा भविस्सह, तए णं तुम्भे अम्हेहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरिस्सह । तए णं से तामली वालतवस्सी तेहिं बलिचचारायहाणिवत्धब्बेहिं बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहि देवीहि य एवं वुत्ते समाणे एयमझु नो आढाइ नो परियाणेइ तुसिणीए संचिट्ठा, तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थब्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य अनुक्रम [१६१ -१६३] तामली-तापस कथा ~342~ Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१३५ -१३७] दीप अनुक्रम [१६१ -१६३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥१६५॥ तामलि मोरियपुत्तं दोपि तबंपि तिक्खुत्तो आग्राहिण प्पयाहिणं करेंति २ जाव अम्हं च णं देवाणुपिया यदिचंचारायहाणी अनिंदा जाव ठितिपकप्पं पकरेह जाब दोचंपि तचंपि, एवं बुत्ते समाणे जाव तुसिणीए संचिद्द, तप णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थब्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य तामलिणा बालतवरिसणा अगाढाइजमाणा अपरियाणिज्यमाणा जामेव दिसिं पाउ भूया तामेव दिसिं पडिगया । (सू०१३५) ।। तेणं कालेणं २ ईसाणे कप्पे अणिंदे अपुरोहिए यावि होत्था, तते णं से तामली बालतवस्ती बहुपडिपुन्नाई सट्टि वाससहरसाई परियागं पाउणित्ता दोमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसित्ता सवीसं भत्तसयं अण|सणाए छेदिता कालमासे कालं किचा ईसाणे कप्पे ईसाणवर्डिसए बिमाणे उबवायसभाए देवसयणिसि देवसंतरिये अंगुलस्स असंखेज्जभागमेत्ताए ओगाहणाए ईसाणदेबिंदविरहकालसमयंसि ईसाणदेविंदताए उबवण्णे, तए णं से ईसाणे देविंदे देवराया अनुणोबबन्ने पंचविहाए पज्जतीए पञ्चत्तीभावं गच्छति, तंजहाआहारप० जाव भासमणपल्लत्तीए, तए णं ते वलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य | देवीओ य तामलिं बालतवसि कालगयं जाणित्ता ईसाणे य कप्पे देविंदत्ताए उबवण्णं पासित्ता आसुरुत्ता कुविया चंडिक्किया मिसिमिसेमाणा बलिचंचारायः मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ ताए उक्किट्ठाए जाव | जेणेव भारहे वासे जेणेव तामलित्ती[ए] नयरी[ए] जेणेव तामलिस्स बाल तवस्सिस्स सरीरए तेणेव उवागच्छति २ वामे पाए सुषेणं यंधति २ तिक्खुत्तो मुद्दे उद्दहति २ तामलित्तीए नगरीए सिंघाडगतिगचक्कचचर चउ Jacation intemation तामली-तापस कथा For Penal Use Only ~343~ ३ शतके उद्देशः १ तामडेरीशानेन्द्रत्वे नोत्पादः सू १३६ ॥१६५॥ Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१३५ -१३७] दीप अनुक्रम [१६१ -१६३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः तामली-तापस कथा म्मुहमहापहपहेसु आकविकर्हि करेमाणा महया २ सद्देणं उग्धोसेमाणा २ एवं क्यासिकेस णं भो से | तामली बालतब० सयंग हियलिंगे पाणामाए पव्वज्जाए फव्वहए ? केस णं भते (भो)। ईसाणे कप्पे ईसाणे देविंदे देवरायाइतिकट्टु तामलिस्स बालतव० सरीरयं हीलंति निंदति खिंसंति गरिहिंति अवमन्नंति तज्जति तालेति परिवर्हेति पव्वर्हेति आकचिकहिं करेंति हीलेत्ता जाव आकट्टविकहिं करेसा एगते एडति २ जामेव | दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया ( सू० १३६ ) तए णं ते ईसाणकप्पवासी यहवे वैमाणिया देवा य देवीओ य बलि चंचारायहाणिवत्थव्वएहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं दवीहि य तामलिस्स बालतवसिस्स सरीरयं हीलिज़माणं निंदिज्जमाणं जाव आकडविकद्धिं कीरमाणं पासंति २ आसुरुत्ता जाव मिसिमिसेमाणा | जेणेव ईसाणे देविंदे देवराया तेणेव उवागच्छति २ करयल परिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मत्थए अंजलि कट्टु जएणं विजएणं वृद्धावेति २ एवं वदासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! बलिच्चारायहाणिवत्थञ्चया बहके असुरकुमारा देवा य देवीओ य देवाणुप्पिए कालगए जाणित्ता ईसाणे कप्पे इंदत्ताए उबवन्ने पासेत्ता आसु| रुत्ता जाव एगते एडेंति २ जामेव दिसिं पाउन्भूया तामेव दिसिं पडिगया । तए णं से ईसाणे देविंदे देव| राया तेसिं ईसाणकप्पवासीणं बहूणं बेमाणियाणं देवाण य देवीण य अंतिए एयमहं सोचा निसम्म आसु रुते जाव मिसिमिसेमाणे तत्थेव सयणिलवरगए तिवलियं भिउडिं निडाले साहडु बलिचंचारायद्दाणिं अहे सपखि सपडिदिसिं समभिलोएइ, तए णं सा वलिचंचारायहाणी ईसाणेणं देविंदेणं देवरन्ना अहे स For Par at Use Only ~344~ Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५-१३७] SEGES ३ शतके उद्देशः१ ईशानेन्द्रकृताऽसुराणांशिक्षा *** पक्खि सपरिदिसिं समभिलोइया समाणी तेणं दिब्बप्पभावेणं इंगालन्भूया मुम्मुरभूया छारियम्भूया तत्त- प्रज्ञप्तिः कवेल्लकन्भूया तत्ता समजोइभूया जाया यावि होत्था, तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया यहवे असु- अभयदेवी-|| रकमारा देवा य देवीओ यतं बलिचंचं रायहाणि इंगालम्भूयं जाव समजोतिम्भूयं पासंति २भीया तथा या वृत्तिः तसिया उब्धिग्गा संजायभया सब्वओ समंता आधाति परिधावेंति २ अन्नमन्नस्स कार्य समतुरंगेमाणा ॥१६॥ रचिटुंति, तए णं ते बलिचंचारायहाणिवत्थव्वया बहवे असुरकुमारा देवा य देवीओ य ईसाणं देविंदं देव || रायं परिकवियं जाणित्ता ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो तं दिव्वं देविहि दिवं देवजुई दिव्वं देवाणुभामं|| * दिव्वं तेयलेस्सं असहमाणा सव्वे सपक्खि सपडिदिसिं ठिचा करयलपरिग्गहियं दसनहं सिरसावतं मथए अंजलिं कह जएणं विजएणं वद्धाषिति २ एवं क्यासी-अहो णं देवाणुप्पिएहिं दिव्या देविट्ठी जाव ॥४ अभिसमन्नागता तं दिव्वा णं देवाणुप्पियाणं दिव्वा देविड्डी जाव लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया तं खामेमि । णं देवाणुप्पिया। खमंतुणं देवाणुप्पिया! [खमंतु] मरिहंतुणं देवाणुप्पियाणाइ भुजोर एवंकरणयाए-12 तिकडे एयमई सम्मं विणएणं भुजो २ खामेति, तते णं से ईसाणे देविंदे देवराया तेहिं बलिचंचारायहाणी W बत्यहिं बहुहिं असुरकुमारेहिं देवेहिं देवीहि य एयमझु सम्मं विणएणं भुजोरखामिए समाणे तं दिव्वं विहिं जाव तेयलेस्सं पडिसाहरह, तप्पभितिं च णं गोयमाते बलिचंचारायहाणिवत्थन्वया बहवे असु-11४ रकुमारा देवा व देवीओ य ईसाणं देविंदं देवरायं आदति जाव पजुवासंति, ईसाणस्स देविंदस्स देवरनो दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ॥१६६॥ *** SAREILLEGunintentiatisha ~345~ Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५-१३७] आणाउववायवयणनिदेसे चिट्ठति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणेणं देविंदण देवरन्ना सा दिव्या देविही जाव||| अभिसमन्नागया। ईसाणस्स णं भंते । देविंदस्स देवरन्नो केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता, गोयमा । सातिरे-1 गाई दो सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता । ईसाणे णं भंते । देविंदे देवराया ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं जावई गतितितिहिं उववजिहिति?, गो० महाविदेहे चासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहेति (सू०१३७t अणिच्चजागरियति अनित्यचिन्तां दिवाभट्टे यत्ति दृष्टाभाषितान 'पुथ्वसंगतिए'त्ति पूर्वसङ्गतिकान गृहस्थत्वे | ४ परिचितान नियत्तणियमंडलं'ति निवर्तनं-क्षेत्रमानविशेषस्तत्परिमाणं निवर्तनिक, निजतनुप्रमाणमित्यन्ये, 'पाओग-18|| मणं निवणे त्ति पादपोपगमनं 'निष्पन्नः' उपसंपन्न आश्रित इत्यर्थः । 'अणिदत्ति इन्द्राभावात् 'अपुरोहिय'त्ति शान्तिकर्मकारिरहिता, अनिन्द्रत्वादेव, पुरोहितो हीन्द्रस्य भवति तदभावे तु नासाविति, 'इंदाहीण'त्ति इन्द्राधीना | इन्द्रवश्यत्वात् 'इंदाहिडिय'त्ति इन्द्राधिष्ठितास्तद्युक्तत्वात् , अत एवाह-इंदाहीणकज्जत्ति इन्द्राधीनकार्याः 'ठितिपकप्पति स्थिती-अवस्थाने बलिचश्चाविषये प्रकल्पः-सङ्कल्पः स्थितिप्रकल्पोऽतस्तं 'ताए उनिहाए इत्यादि, 'तया' विवक्षितया 'उत्कृष्टया उत्कर्षवत्या देवगत्येति योगः 'त्वरितया' आकुल[]या न स्वभावजयेत्यर्थः, अन्तराकूततोऽप्येषा स्थादित्यत आह-'चपलया'कायचापलोपेतया 'चण्डया'रौद्रया तथाविधोत्कर्षयोगेन 'जयिन्या' गत्यन्तरजेतृत्वात् &छेकया' निपुणया उपायप्रवृत्तितः 'सिंहया' सिंहगतिसमानया श्रमाभावेन 'शीघ्रया' वेगवत्या 'दिव्यया' प्रधानया 'उद्धृत या वस्त्रादीनामुजूतत्वेन, उद्धतया वा सदर्पया, 'सपक्खि'ति समाः सर्वे पक्षा:-पायोः पूर्वापरदक्षिणोत्तरा यत्र दीप अनुक्रम [१६१-१६३] SCALCUS ~346~ Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१३५ -१३७] दीप अनुक्रम [१६१ -१६३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥१६७॥ स्थाने तत्सपक्षम्, इकारः प्राकृतप्रभवः समाः सर्वाः प्रतिदिशो यत्र तत्सप्रतिदिक्, 'बत्तीसतिविहं नहविहिंति द्वात्रिंशद्विधं नाव्यविधिं नाव्यविषयवस्तुनो द्वात्रिंशद्विधत्वात् तच्च यथा राजप्रीयाध्ययने तथाऽवसेयमिति । 'अहं बंध'त्ति प्रयोजननिश्चयं कुरुतेत्यर्थः 'निदानं' प्रार्थनाविशेषम् एतदेवाह - ठिपकप्पं'ति प्राग्वत् । 'आसुरुत' |त्ति 'आसुरुत्ताः' शीघ्रं कोपविमूढबुद्धयः, अथवा स्फुरितकोपचिह्ना', 'कुविय'त्ति जातकोपोदयाः 'चंडकिय'त्ति प्रक| टितरौद्ररूपाः 'मिसिमिसेमाणे 'ति देदीप्यमानाः क्रोधज्वलनेनेति । 'बेणं'ति रज्वा' उद्दहति' त्ति' अवष्ठीव्यन्ति' निष्ठीवनं कुर्वन्ति 'आकडविकहिं 'ति आकर्षविकर्षिकां 'होलेति त्ति जात्याद्युद्घाटनतः कुत्सन्ति 'निंदंति'त्ति चेतसा कुत्सन्ति 'खिंसंति'त्ति स्वसमक्षं वचनैः कुत्सन्ति 'गरहंति'त्ति लोकसमक्षं कुत्सन्त्येव 'अवमण्णंति'त्ति अवमन्यन्ते- 2 अवज्ञाऽऽस्पदं मन्यन्ते 'तजिति'त्ति अङ्गुडीशिरश्वालनेन 'तायेंति' ताडयन्ति हस्तादिना 'परिवहति 'त्ति सर्वतो व्यथन्ते कदर्थयन्ति 'पव्वति'त्ति प्रव्यथन्ते प्रकृष्टव्यथामिषोत्पादयन्ति । 'तत्थेव सयणिज्जवरगएत्ति तत्रैव शयनीयवरे स्थित इत्यर्थः, 'तिवलियं' ति त्रिवलिकां 'भृकुटिं' दृष्टिविन्यासविशेषं, 'समजोहभूय'त्ति समा ज्योतिषा-अग्निना भूता समज्योतिर्भूताः 'भीय'त्ति जातभयाः 'उत्तत्थ'त्ति 'उत्रस्ताः ' भयाज्जातोत्कम्पादिभयभावाः 'सुसियत्ति शुषिताऽऽनन्दरसा : 'उब्विग्ग'त्ति तत्त्यागमानसाः, किमुक्तं भवति ?-इत्यत आह-संजातभया, 'आधावन्ति' ईषद्भावन्ति | 'परिधावन्ति' सर्वतो धावन्तीति 'समतुरंगेमाण'त्ति समाश्लिष्यन्तः, अन्योऽन्यमनुप्रविशन्त इति वृद्धाः । 'नाइ भुजो एवं करणयाए'त्ति नैव भूय एवंकरणाय संपत्स्यामहे इति शेषः, 'आणाश्ववायवयणनिदे से'ति आज्ञा कर्त्तव्यमे Educatory Internationa For Park Use Only ~ 347~ ३ शतके उद्देशः १ ईशानेन्द्र कृताऽसुराणांशिक्षा सू १३७ ॥१६७॥ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३५-१३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३५-१३७] वेदमित्याचादेशः उपपात:-सेवा वचनम्-अभियोगपूर्वक आदेशः निर्देशा-प्रश्निते कायें नियतार्थमुत्तरं तत एषां बन्छ&स्ततस्तत्र ॥ ईशानेन्द्रवक्तव्यताप्रस्तावात्तद्वक्तव्यतासंबद्धमेवोद्देशकसमाप्तिं यावत् सूत्रवृन्दमाह| सकस्स णं भंते ! देविंदुस्स देवरन्नो विमाणेहिंतो ईसाणस देविंदस्स देवरन्नो विमाणा ईसिं उच्चयरा चेव ईसिं उन्नयतरा चेव ईसाणस्स वा देविंदस्स देवरन्नो विमाणेहिंतो सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो विमाणा लणीययरा चेव ईसि निन्नयरा चेव , हता! गोयमा सकस्स तं चेव सव्वं नेयब्वं । से केणटेणं ?, गोयमा ! से जहानामए-करयले सिया देसे उचे देसे उन्नए देसे पीए देसे निन्ने, से तेणटेणं गोयमा सकस्स देविंदस्स देवरन्नो जाव ईसिं निण्णतरा चेव । (स. १३८)। पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउन्भवित्तए १, हंता पभू, से णं भंते ! किं आढायमाणे पभू अणादायमाणे पभू?, गोयमा! आढायमाणे पभू नो अणादायमाणे पभू, पभू णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया सकस्स देविंदस्स देवरनो अंतियं पाउन्भवित्तए ?, हंता पभू, से भंते ! किं आढापमाणे पभू अणादायमाणे पभू?, गोयमा आढायमाणेवि पभू अणाढायमाणेवि पभू। पभू ण भंते !सके देविंदे देवराया ईसाणं देविंदं देवरायं सपक्खि सपडिदिसिं समभिलोएत्तए जहा पादुम्भवणा तहा दोवि आलावगा नेयब्वा । पभू णं भंते ! सके देविंदे देवराया ईसाणेणं देविदेणं देवरन्ना सद्धिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए?, हंता! पभू जहा पादुन्भवणा । अस्थि णं भंते ! तेर्सि सकीसाणाणं देविंदाणं देवराईणं किचाई करणिज्जाई समुप्पजंति !, हता! अस्थि, से कहमिदाणिं पकरेंति !, गोयमा ! दीप अनुक्रम [१६१-१६३] ~348~ Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३८-१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८-१४१] ब्याख्या 1 ताहे ष णं से सके देविंदे देवराया ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं पाउम्भवति, ईसाणे पं देविंदे || १ शतके प्रज्ञप्तिः ॥ देवराया सकस्स देविंदस्स देवरायस्स अंतियं पाउन्भवइ, इति भो । सक्का देविंदा देवराया दाहि- देशः १ यावृत्तिणडलोगाहिवइ, इति भो ! ईसाणा देविंदा देवराया उत्तरहृलोगाहिवइ, इति भो ! इति भो ति ते अन्नम विमानानिअस्स किच्चाई करणिजाई पचणुम्भवमाणा विहरति ।। (सू०१३९) । अस्थि णं भंते ! तेर्सि सकीसाणाणं याला ॥१६८॥ देविंदाणं देवराईणं विवादा समुप्पजंति, हता! अस्थि । से कहमिदाणि पकरेंति ?, गोयमा! ताहे चेवालापौविवा ते सकीसाणा देविंदा देवरायाणो सणकुमारं देविंदं देवरायं मणसीकरेंति, तए णं से सर्णकुमारे देविंदे दनिर्णयःस| देवराया तेहिं सफीसाणेहिं देविदेहिं देवराईहिं मणसीकए समाणे खिप्पामेव सकीसाणाणं दविंदार्ण देव-||8 नरकुमारेराईर्ण अंतियं पाउन्भवति, जं से बदह तस्स आणाउववायवयणनिसे चिट्ठति ॥ (सू०१४०)॥सर्णकु- न्द्रस्वरूपं सू मारे णं भंते ! देविंदे देवराया किं भवसिद्धिए अभवसिद्धिए सम्मदिट्ठी मिच्छदिही परित्तसंसारए अणंतसं-IP१२८९ ||१४०-१४१ सारए सुलभयोहिए दुलभवोहिए आराहए विराहए चरिमे अचरिमे?.गोयमा सणकुमारेणं देविदे देवराया| भवसिद्धीए नो अभवसिद्धीए, एवं सम्मट्टिी परित्तसंसारए सुलभयोहिए आराहए चरिमे पसत्थं नेयव्वं । से केणतुणं भंते! , गोयमा ! सर्णकुमारे देविंदे देवराया बहूणं समणाणं बरणं समणीणं बहूर्ण सावयाणं बहणं || ४/सावियाणं हियकामए मुहकामए पत्यकामए आणुकंपिए निस्सेयसिए हियमुहनिस्सेसकामए, से तेणटेणं || गोयमा ! सर्णकुमारणं भवसिद्धिए जाव नो अचरिमे । सणकुमारस्स णं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो केवतियं ८ ॥१६८॥ StsGREGACROCCASI दीप अनुक्रम [१६४-१६७]] ~349~ Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३८-१४१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८ -१४१] गाथा: कालं ठिती पन्नत्ता ?, गोयमा ! सत्तसागरोवमाणि ठिती पन्नत्ता । सेणं भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खर एणं जाव कहिं उपवजिहिति, गोयमा । महाविदेहे वासे सिजिनहिति जाव अंतं करेहिति. सेवं भंते । सेवं भंते ! २ । गाहाओ-छट्टममासो अद्धमासो वासाइं अट्ठ छम्मासा । तीसगकुरुदत्ताणं तवभत्तपरि पणपरियाओ॥१॥ उच्चत्तविमाणाणं पाउन्भव पेच्छणा य संलावे । किंचि विवादुप्पत्ती सणंकुमारे य भविII यब्वं (सं)॥२॥ (सू०१४१)॥ मोया समत्ता । तईयसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥३-१॥ &ा 'उच्चतरा चेवत्ति उच्चत्वं प्रमाणतः 'उन्नयतरा चेव'त्ति उन्नतत्वं गुणतः, अथवा उच्चत्वं प्रासादापेक्षम् , उन्नतत्वं तु प्रासादपीठापेक्षमिति, यच्चोच्यते-पंचसउच्चत्तेणं आइमकप्पेसु होति उ विमाण'त्ति तत्परिस्थूलन्यायमङ्गीकृत्यावसेयं, ४ तेन किश्चिदुच्चतरत्वेऽपि तेषां न विरोध इति । 'देसे उच्चे देसे उन्नएत्ति प्रमाणतो गुणतश्चेति । 'आलावं या संला है बत्ति 'आलापः' संभाषणं संलापस्तदेव पुनः पुनः । 'किच्चाईति प्रयोजनानि 'करणिज्जाईति विधेयानि । 'से कह| मियाणि करेंति'त्ति, अथ कथम् 'इदानीम् अस्मिन् काले कार्यावसरलक्षणे प्रकुरुतः१, कार्याणीति गम्यम् । 'इति भोत्ति 'इति' एतत्कार्यमस्ति, भोशब्दश्चामन्त्रणे, 'इति भो इति भोत्ति'त्ति परस्परालापानुकरणं 'जं से वयह तस्स | आणाउववायवयणनिद्देसेति यदाज्ञादिकमसौ वदति तत्राज्ञादिके तिष्ठत इति वाक्यार्थः, तत्राज्ञादयः पूर्व व्याख्याता एवेति । 'आराहए'त्ति ज्ञानादीनामाराधयिता'चरमें'त्ति चरम एव भवो यस्याप्राप्तस्तिष्ठति, देवभवो वा चरमो यस्य सः, चरमभवो वा भविष्यति यस्य स चरमः । 'हियकामए'त्ति हितं-सुखनिबन्धनं वस्तु 'सुहकामए'ति दीप अनुक्रम [१६४-१६९] 4%AE%ARKEKO ~350~ Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१३८-१४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१३८ % -१४१] गाथा: व्याख्या- मुख-शर्म 'पत्यकामए'मि पश्यं-दुःखमायां, कस्मादेवमित्यत आर-आकरिषति पायाम, अत एवार-विस- ३ शतके प्रज्ञप्तिः यसिय'त्ति निःश्रेयसं-पोषसन्न नियुक्त इव नैःश्यसिकः 'हियमुहलिस्सेसकामपत्ति हितं यस्मुसम्-अदुःखानुवन्ध-13 उद्देशः१ अभयदेवी- मित्यर्थः तविशेषाणा-सर्वेषां कामयते-याश्चति यः स तथा । पूर्वोक्तार्थसङ्ग्रहाय गाथे द्वे-छठे स्यादि, इहायगाथायां । मोकाख्ये या वृत्तिा पूर्वार्द्धपदानां पश्चापदैः सह यथासको सम्बन्धः कार्यः, तथाहि-तिम्यककुरुदत्ससाध्वोः क्रमेण षष्ठमष्टमं च तपा, सनत्कुमार भव्यत्वा॥१६॥ | (ग्रन्थानम् ४०००) तथा मासोऽर्द्धमासश्च भत्तपरिणत्ति अनशनविधिः, एकस मासिकमनशममन्यस्य चार्द्धमा दिसू१४१ सिकमिति भावः, तथैकस्याष्ट वर्षाणि पर्यायः अन्यस्य च पण्मासा इति । द्वितीया गाथा गतार्था । 'मोया समत्त ति मोकाभिधाननगर्यामरुयोदेशकार्थस्य कीदृशी विकुर्वणा इत्येतावदपस्योक्तत्वान्मोकैवायमुदेशक उच्यते ॥ इति तृतीय-पर शते प्रथमोद्देशकः संपूर्णः ॥ ३ ॥१॥ प्रथमोद्देशके देवामा विकुर्वणोक्ता, द्वितीये तु तविशेषाणामेवासुरकुमाराणां गतिशक्तिप्ररूपणायेदमाहतेणं कालेणं सेणं समपर्ण रायगिहे नाम मगरे होत्था जाव परिसा पलुवासइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं |8 चमरे असुरिंदे असुरराया धमरचंचाए रापहाणीए सभाए महम्माए चमरंसिसीहासणंसि चउसडीए सामा-IM॥११९॥ णियसाहस्सीहिं जाव महविहिं उबदसेत्ता जामेव दिसिं पाउन्भूए तामेच दिसि पडिगए।भंतेसि भगवं गोपमे समणं भगवं महावीर मंदति नमसति १ एवं बदासी-अस्थि भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए अहे| असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोयमा!बो इणढे समढे, जाव अहेसत्तमाए पुटवीए, सोहम्मस्स कप्पस्स| - - % दीप अनुक्रम [१६४-१६९] % REaratunmlaminina अत्र तृतीय-शतके प्रथम-उद्देशक: समाप्त: अथ तृतीय-शतके द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते ~351~ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४२ -१४४] + गाथा: दीप अनुक्रम [१७० -१७२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः अहे जाव अस्थिणं भंते ! ईसिन्भाराए पुढवीए अहे असुरकुमारा देवा परिवसंति !, जो इणट्ठे समट्टे । से कहिँ खाइ णं भंते! असुरकुमारा देवा परिवसंति ?, गोषमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुडवीए असीउत्तरजोयणसय सहस्सबाहल्लाए, एवं असुरकुमार देवव सव्वया जाव दिब्बाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरंति । अत्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं अहे गतिविसए ?, हंता अत्थि, केवतियं च णं पभू! ते असुरकुमा| राणं देवाणं अहे गतिविसए पन्नत्ते ?, गोयमा ! जाव असत्तमाए पुढवीए तचं पुण पुढविं गया य गमिस्संति य। किं पत्तियनं भंते ! असुरकुमारा देवा तचं पुढविं गयाय गमिस्संति य ?, गोयमा ! पुष्ववेरियस्स वा | वेदणउदीरणयाए पुञ्चसंगइयस्स वा वेद्णजवसामणयाए, एवं खलु असुरकुमारा देवा तवं पुढचं गया य गमिस्संति य । अत्थि णं भंते । असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गतिविसए पन्नत्ते !, हंता अस्थि, केवतियं व णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं तिरियं गइविसए पनते १, गोयमा ! जाव असंखेजा दीवसमुद्दा नंदिस्सरवरं पुण दीवं गया य गमिस्संति य। किं पत्तियन्नं भंते ! असुरकुमारा देवा नंदीसरवरदीचं गया य गमिस्संति य?, गोयमा जे इमे अरिहंता भगवंता एएसिणं जम्मणमहेसु वा निक्खमणमद्देसु वा णाणुप्पयमहिमासु वा परिनिव्वाणमहिमासु वा, एवं खलु असुरकुमारा देवा नंदीसरवरदीवं गया प गमिस्संति य । अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं देवाणं उहुं गतिविसए?, हंता । अस्थि । केवतियं च णं भंते! असुरकुमाराणं देवाणं उ गतिविसए ?, गोयमा ! जावsचुए कप्पे सोहम्मं पुण कप्पं गया य गमिस्संति व । किं पत्तियण्णं भंते! असुर Education Internation For Parks Use Only ~352~ war Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ हा उद्देशः२ असुराणां -१४४] गाथा: || कुमारा देवा सोहम्मं कप्पं गया य गमिस्संति य?, गोयमा! तेसिणं देवाणं भवपच्चइयवेराणुवंधे, ते णं देवा विकुव्वेमाणा परियारेमाणा वा आयरक्खे देवे वित्तासेंति अहालहुस्सगाई रयणाई गहाय आयाए एगप्रज्ञप्तिः ४३ शतके अभयदेवी तमंतं अवकामति । अत्थि णं भंते ! तेसिं देवाणं अहालहुस्सगाई रयणाई, हंता अस्थि । से कहमियाणि या वृत्तिः परति ?, तओ से पच्छा कार्य पब्वहति । पभूण भंते ! ते असुरकुमारा देवा तत्थ गया चेव समाणा ताहिं| तिथंगादौग अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरित्तए, णो तिणढे समझे, ते णं तओ पडिनियतंति तिःसू१४२ ॥१७॥ २त्ता इहमागच्छंति २ जति णं ताओ अच्छराओ आढायंति परियाणंति।पभूर्ण भंते !ते असुरकुमारा देवा चमरोत्पादे ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिब्वाई भोगभोगाई अंजमाणा विहरित्तए अहन्नताओ अच्छराओ नोआढायंति नो हेतवः परियाणंति, णोणपभू ते असुरकुमारा देवा ताहिं अच्छराहिं सद्धिं दिव्वाई भोगभोगाई भुंजमाणा विहरि-|| सत्तए, एवं खलु गोयमा! असुरकुमारा देवा सोहम्मं कर्प गया य गमिस्संति य (सू१४२)केवइकालस्स गंभंते! || असुरकुमारा देवा उहुं उप्पयंति जाव सोहम्मं कप्पं गया यगमिस्संति य?, गोयमा! अर्णताहिं उस्सप्पिणीहि || अणंताहिं अवसप्पिणीहिं समतिकांताहिं, अस्थि णं एस भावे लोयच्छेरयभूए समुप्पजद जन्नं असुरकुमारास देवा उहुं उप्पयंति जाय सोहम्मो कप्पो, किं निस्साए णं भंते ! असुरकुमारा देवा उर्दु जप्पयंति जाच सोहम्मो ||४|| P ॥१७॥ &|कप्पो, से जहानामए-इह सबरा इवा बब्बरा इवा टंकणाइवा भुत्तुया इवा पल्हयाइ वा पुलिंदा वा एगं महं गईं वा खर्बु वा दुग्गं वा दरिं वा विसमं वा पब्वयं वा णीसाए सुमहल्लमवि आसबलं वा हत्थिबलं वार दीप अनुक्रम [१७०-१७२] ~353~ Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक GAIRECAC [१४२ -१४४] 55626045646459-456-4-564 गाथा: जोहचलं वाधणुवलं वा आगलति, एवामेव असुरकुमारावि देवा, णण्णत्थ अरिहंते वा अरिहंतचेयाणि वा अणगारे वा भावियप्पणो निस्साए उहूं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । सब्वेविणं भंते ! असुरकुमारा देवा उहूं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ?, गोयमा! णो इणटे समहे, महिड्डिया णं असुरकुमारा देवा उहुं उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । एसबि गंभंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमाररापा उहूं उप्पइयपुब्धि जाव सोहम्मो | कप्पो ?, हंता गोयमा १२। अहो णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकुमारराया महिहीए महजुईए जाव कहि |पविट्ठा ?, कूडागारसालादिद्रुतो भाणियब्वो। (सू१४३) चमरेणं भंते ! असुरिंदेणं असुररन्ना सा दिव्वा देविही ४ तं चेव जाव किन्ना लद्धा पत्ता अभिसमन्नागया, एवं खलु गोयमा! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूहीवे भारहे वासे विंझगिरिपायमूले चेभेले नाम संनिवेसे होस्था, वनओ, तस्थ णं भेले संनिवेसे परणे नाम। गाहावती परिवसति अढे दित्ते जहा सामलिस्स वत्तध्वया तहा नेयव्वा, नवरं चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गसहयं करेत्ता जाव विपुलं असणं पाणं वाइमं साइमं जाच सयमेव चउप्पुडपं दारुमयं पडिग्गहयं गहाय मुंडे|8| भवित्ता दाणामाए पबजाए पब्वइत्तए पव्वइएऽवि यणं समाणे तं चेव, जाव आयावणभूमीओ पचोरुभइ २त्ता सयमेव चउप्पुडयं दारुमयं पडिग्गहियंगहाय बेभेले सन्निवेसे उच्चनीयमज्झिमाई कुलाई घरसमुदाणस्स भिक्खायरियाए अडेसा जं मे पढमे पुडए पडइ कप्पड़ मे तं पंथे पहियाणं दलइत्तए जमे दोचे पुडए पडा कप्पइ मे तं कागसुणयाणं दलहत्तए ज मे तचे पुडए पडइ कप्पइ मे तं मच्छकच्छभाणं दलइत्तए जं मे चउत्थे पुडए पडइ दीप अनुक्रम [१७० CACAMAR -१७२] पूरण-गाथापति एवं चमरोत्पात कथा ~354~ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः -१४४] ॥१७॥ गाथा: कप्पह मे तं अपणा आहारिसएसिकटु एवं संपेहेइ २ कल्लं पाउप्पभायाए रयणीए तं व निरवसेसं जाव३ शतके मे(से)चउत्थे पुडए पडइ तं अप्पणा आहारं आहारेइ, तए णं से पूरणे बालतबस्सी तेणं ओरालेणं विउलेणं उद्देशः२ |पयत्तेणं पग्गहिएणं बालतवोकम्मेणं सं चेव जाव वेभेलस्स सन्निवेसस्स मज्झमज्झेणं निग्गच्छति २ पाउयं चमरोत्या|कुंडियमादीयं उबकरणं चप्पुडयं च दारुमयं पडिग्गहियं एगंतमंते एडेइ २ वेभेलस्स सन्निवेसस्स दाहिण- दम्पूरणदीपुरच्छिमे दिसीमागे अदनियत्तणियमंडलं आलिहिता संलेहणाझुसणाझसिए भत्तपाणपडियाइक्खिए पाओ- क्षा सू१४४ वगमणं निवणे । तेणं कालेणं तेणं समएणं अहं गोयमा! छउमस्थकालियाए एकारसवासपरिवाए छ8 ण्टेणं || अनिक्वित्तेणं तवोकम्मेणं संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे पुब्वाणुपुब्धि चरमाणे गामाणुगाम दूइज्जमाणे | जेणेव सुसमारपुरे नगरे जेणेव असोयवणसंडे उज्जाणे जेणेव असोयबरपायवे जेणेव पुढविसिलाओ तेणेव |उवागच्छामि २ असोगवरपायवस्स हेट्ठा पुढविसिलापट्टयंसि अट्ठमभत्तं परिगिण्हामि, दोधि पाए साहड्ड|वग्धारियपाणी एगपोग्गलनिविद्वदिट्ठी अणिमिसनयणे ईसिंपन्भारगएणं काएणं अहापणिहिएहिं गत्तेहिं सबि*दिएहिं गुत्तेहिं एगराइयं महापडिमं उपसंपज्जित्ताणं विहरामि । तेणं कालेणं तेणं समएणं चमरर्चचारापहाणी |||| |अजिंदा अपुरोहिया यावि होत्था, तए णं से पूरणे चालतबस्सी बहुपडिपुन्नाई दुवालसवासाई परियागं ॥१७॥ पाउणित्ता मासियाए संलहणाए अत्ताणं झूसेत्ता स िभत्ताई अगसणाए छेदेत्ता कालमासे कालं किया चमरचंचाए रायहाणीए उववायसभाए जाव इंदत्ताए उववन्ने, तए णं से चमरे अमुरिंदे असुरराया अहुणो दीप अनुक्रम [१७०-१७२] SACREGA पूरण-गाथापति एवं चमरोत्पात कथा ~355 Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ 4% -१४४] B गाथा: दवने पंचविहाए पजत्तीए पजत्तिभावं गच्छा, तंजहा-आहारपजत्तीए जाव भासमणपबत्तीए, तए से चमरे असुरिंदे असुरराया पंचविहाए पज्जत्तीए पजत्तिभावं गए समाणे उहुं वीससाए ओहिणा आभोएइ द जाव सोहम्मों कप्पो, पासइ य तत्व सकं देविंदं देवरायं मघवं पाकसासणं सयकतुं सहस्सक्सं वजपाणि पुरंदरं जाब दस दिसाओ उज्जोवेमाणं पभासेमाणं सोहम्मे कप्पे सोहम्मव.सए विमाणे सार्कसि सीहासणंसि जाव दिव्वाई भोगभोगाई भुजमाणं पासइ २ इमेयारूवे अज्झथिए चिंतिए पत्थिए मणोगए संकप्पे समुप्पज्जित्वा-केस णं एस अपत्धियपत्थए दुरंतपंतलक्षणे हिरिसिरिपरिवजिए हीणपुनचाउद्दसे जन्नं मम इमाए एयारवाए दिव्वाए देविहीए जाव दिव्वे देवाणुभावे लढे पत्ते अभिसमन्नागए उम्पि अप्पुस्सुए दिब्वाई || भोगभोगाई भुंजमाणे विहरह, एवं संपेहेइ सामाणियपरिसोववन्नए देवे सहावेह एवं वयासी-केस णं | | एस देवाणुप्पिया अपत्थियपत्थए जाव भुंजमाणे बिहरह, तए णं ते सामाणियपरिसोववन्नगा देवा चमरेणं असुरिंदेणं असुररन्ना एवं वुत्ता समाणा हहतुट्ठा जाव हयहियया करयलपरिग्गहियं दसनह सिरसावत्तं मत्थए अंजलिं कद्दु जएणं विजएणं वद्धाति २ एवं वयासी-एस णं देवाणुप्पिया ! सके देविंदे देवराया | जाब बिहरह, तए णं से चमरे असुरिंदे असुरराया तेसिं सामाणियपरिसोववन्नगाणं देवाणं अंतिए एय-3 मढे सोचा निसम्म आसुरुत्ते रुठे कुविए चंडिकिए मिसिमिसेमाणे ते सामाणियपरिसोववन्नए देवे एवं वयासी-अन्ने खलु भो ! (से)सके देविंदे देवराया अन्ने खलु भो! से चमरे असुरिंदे असुरराया, महिहीए खलु ER CAR दीप अनुक्रम [१७० -१७२] पूरण-गाथापति एवं चमरोत्पात कथा ~356~ Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ मज्ञप्तिः -१४४] गाथा: से सक्के देविंदे देवराया, अप्पहिए खलु भो ! से चमरे असुरिंदे असुरराया, तं इच्छामि गं देवाणुप्पिया : ३ शतके व्याख्या सकं देविंदं देवरायं सयमेव अचासादेत्तएत्तिकमु उसिणे उसिणभूए यावि होत्या, तए णं से चमरे असुरिंदे उद्देशः२ अभयदेवी- द असुरराया ओहिं पउंजइ २ मम ओहिणा आभोएइ २ इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पजिस्था-एवं खलु | चमरेत्पादे या वृत्तिः || || समणे भगवं महावीरे जंबूरीवे २ भारहे वासे सुसमारपुरे नगरे असोगवणसंडे उजाणे असोगवरपायवस्स | || वीरस्य शर & ण सू १४४ अहे पुढविसिलावट्टयंसि अट्ठमभत्तं पडिगिण्हित्ता एगराइयं महापडिम उवसंपज्जित्ताणं विहरति, तं सेयं ॥१७॥ खलु मे समणं भगवं महावीर नीसाए सकं देविंद देवरायं सयमेव अच्चासादेत्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ २ सयणिजाओ अन्मुट्ठहरता देवदूसं परिहेह२ उववायसभाए पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं णिग्गच्छद, जेणेव सभा सुहम्मा ||* जेणेव चोप्पाले पहरणकोसे तेणेव उवागच्छद रत्ता फलिहरयणं परामुसइ २ एगे अबीए फलिहरयणमायाए महया अमरिसं वहमाणे चमरचंचाए रायहाणीए मझमझेणं निग्गच्छद २ जेणेव तिगिच्छकृडे उप्पायप व्वए तेणामेव उवागच्छद २त्ता वेउब्वियसमुग्याएणं समोहणइ २त्ता संखेजाई जोषणाई जाच उत्तरवेउ-2 || वियरूवं विजब्बइ २त्ता ताए उफिट्टाए जाव जेणेव पढविसिलापहए जेणेव मम अंतिए तेणेव उवाग-|||| ॥१७॥ लिच्छति २ मम तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेति जाव नमंसित्ता एवं वयासी-इच्छामि भंते! तुन्भ नीसाए सर्फ देविदं देवरायं सयमेव अचासादित्तएत्तिकट्ट उत्तरपुरच्छिमे दिसिभागे अबकमइ २ वेउब्वियसमुग्धाएर्ण समोहणइ २ जाच दोचंपि बेउब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ २ एगं महं घोरं घोरागारं भीम दीप अनुक्रम [१७०-१७२] SARERatininematural पूरण-गाथापति एवं चमरोत्पात कथा ~357~ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ -१४४] गाथा: भीमागारं भासुरं भयाणीयं गंभीरं उत्तासणयं कालहुरत्तमासरासिसंकासं जोयणसयसाहस्सीयं महाबोंदि का विउध्वइ २ अप्फोडेइ २ वग्गह २ गजहर हयहेसियं करेइ २हत्धिगुलगुलाइयं करे। २रहघणघणाइयं करेइ २॥ पायदद्दरगं करेइ २ भूमिचवेडयं दलयइ २ सीहणादं नदइ २ उच्छोलेइ २ पच्छोलेइ २ तिपई छिंदह २ वाम भुयं ऊसवेइ २ दाहिणहत्यपदेसिणीए य अंगुट्ठणहेण य वितिरिच्छमुहं विडंबेइ २ महया २ सद्देणं २ कलकलरवेणं करेइ, एगे अबीए फलिहरयणमायाए उ8 वेहासं उप्पइए, खोभंते चेव अहेलोयं कंपेमाणे च मेयणितलं आकर्ट्स (साकहूं) तेव तिरियलोयं फोडेमाणेव अंबरतलं कत्थइ गजंतो कत्थइ विजुयायंते कत्थइ वासं वासमाणे कत्थई रउग्घायं पकरेमाणे कत्थइ तमुक्कायं पकरेमाणे, वाणमंतरदेवे वित्तासेमाणे, जोइसिए देवे दुहा विभयमाणे २ आयरक्खे देवे विपलायमाणे २ फलिहरयणं अंबरतलंसि वियट्टमाणे २ विउज्झाएमाणे २ ताए उकिटाए जाव तिरियमसंखजाणं दीवसमुदाणं मझं मझेणं वीयीवयमाणे २ जेणेव सोहम्मे 8 कप्पे जेणेव सोहम्मव.सए विमाणे जेणेव सभा सुधम्मा तेणेव उवागच्छइ २ एगं पायं पउमवरवड्याए करेहद एगं पायं सभाए सुहम्माए करेइ फलिहरयणेणं महया २ सद्देणं तिक्खुत्तो इंदकीलं आउडेइ २ एवं वयासी कहिणं भो! सके देविंदे देवराया ? कहिणं ताओ चउरासीइ सामाणियसाहस्सीओ? जाव कहि णं ताओ *चत्तारि चउरासीइओ आयरक्खदेवसाहस्सीओ? कहि गं ताओ अणेगाओ अच्छराकोडीओ अजहणामि अज महेमि अन्न वहेमि अज ममं अवसाओ अच्छराओ वसमुवणमंतुत्तिकडु तं अणिटुं अकंतं अप्पियं असु० अमगु. दीप अनुक्रम [१७०-१७२] SARERatun international पूरण-गाथापति एवं चमरोत्पात कथा ~358~ Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ -१४४] ॥१७॥ गाथा: व्याख्या- | अमणा फरुसं गिरनिसिरह, तए णं से सक्के देविंद देवराया तं अणि जाव अमणामं अस्सुयपुव्यं फरसं शतके गिरं सोचा निसम्म आसुरुत्ते जाब मिसिमिसेमाणे तिवलियं भिडिं निडाले सारडे चमरं असुरिंदं असु- उदेशा२ अभयदेवी |ररायं एवं वदासी-हं भो चमरा ! असुरिंदा ! असुरराया! अपत्थियपत्थया! जाव हीण पुन्नचाउद्दस्साद बज्रमोचनं या वृत्तिः१४ अजं न भवसि नाहि ते सुहमत्थीत्तिकट्ट तस्थेव सीहासणवरगए वर्ष परामुसहरतं जलतं फुडतं तडतडतं प्रतिनिवृत्ति उकासहस्साई विणिम्मुपमाणं जालासहस्साई पमुंचमाणं इंगालसहस्साई पविक्खिरमाणं २ फुलिंगजाला-श्चचमरस्य मालासहस्सेहिं चक्खुविक्वेवदिहिपडिघायं पकरेमाण हुपवहअइरेगतेयदिप्पंतं जतिणवेगं फुल्लकिंमय समार्ण महन्भयं भयंकरं चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो वहाए वजं निसिरह । तते णं से चमरे असुरिंदे ४ असुरराया तं जलंतं जाव भयंकरं वज्जमभिमुहं आवयमाणं पासइ पासइत्सा झियाति पिहाइ &ाझियायित्ता पिहाइत्ता तहेव संभग्गमउडविडए सालंबहस्थाभरणे उखुपाए अहोसिरे कक्खागय-14 सेयंपि व विणिम्मुयमाणे २ ताए उकिटाए जाव तिरियमसंखेजाणं दीवसमुहाणं मझ मज्झेणं वीईवयमाणे २ जेणेव जंबूदीवे २ जाय जेणेव असोगवरपायवे जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छद रत्ता भीए भयगग्गरसरे भगवं सरणमिति बुयमाणे ममं दोण्हवि पायाणं अंतरंसि वेगेण समोवडिए (सू०१४४) (ग्रन्थानम् २०००) ॥१७३|| । 'एवं असुरकुमारे त्यादि, 'एवम्' अनेन सूत्रक्रमेणेति, स चैवम्-'उबरि एगं जोयणसहस्सं ओगाहेत्ता हेहा चेगं | जोयणसहस्सं बजेत्ता मझे अहहत्तरे जोयणसयसहस्से एत्थ णं असुरकुमाराणं देवाणं चोसहि भवणावाससक्सहस्सा 51 दीप अनुक्रम [१७०-१७२] पूरण-गाथापति एवं चमरोत्पात कथा ~359~ Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४२ -१४४] + गाथा: दीप अनुक्रम [१७० -१७२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः भवतीति अक्लाय' मित्यादि । 'विब्वैमाणा वत्ति संरम्भेण महद्वै क्रियशरीरं कुर्वन्तः 'परियारेमाणा वत्ति परिचारयन्तः परकीयदेवीनां भोगं कर्तुकामा इत्यर्थः, 'अहालहुस्सगाई' ति 'यथे 'ति यथोचितानि लघुस्खकानि-अमहास्वरूपाणि, | महतां हि तेषां नेतुं गोपयितुं वाऽशक्यत्वादिति यथालघुस्वकानि, अथालघूनि महान्ति वरिष्ठानीति वृद्धाः । 'आयाए' त्ति आत्मना स्वयमित्यर्थः 'एगतं' ति विजनम् 'अंत'ति देशम्। 'से कहमियाणि पकरेंतित्ति अथ किमिदानीं रलग्रहणानन्तरमेकान्तापक्रमणकाले प्रकुर्वन्ति वैमानिका रहादा तृणामिति । 'तओ से पच्छा कार्य पव्वहंति'ति ततो रत्नादानात् 'पच्छति अनन्तरं 'से'ति एषां रत्नादादणामसुराणां 'कार्य' देहं 'प्रव्यथन्ते' प्रहारैर्मशन्ति वैमानिका देवाः, तेषां च प्रव्यथितानां वेदना भवति जघन्येनान्तर्मुहत्तमुत्कृष्टतः षण्मासान् यावत् । 'सबरा इ वा' इत्यादी शवरादयोऽनार्यविशेषाः 'मङ्कं वत्ति गर्दा 'दुग्गं व'त्ति जलदुर्गादि 'दरिं व'ति दरी पर्वतकन्दरां 'विसमं व'ति विषमं गततर्वाद्याकुलं भूमिरूपं 'निस्साए ति निश्रयाऽऽश्रित्य 'घणुबलं व'त्ति धनुर्द्धरबलम् 'आगलेति'त्ति आकलयन्ति जेष्याम इत्यध्यवस्यन्तीति । 'नण्णत्थ'त्ति 'ननु' निश्चितम् 'अत्र' इहलोके, अथवा 'अरिहंते वा निस्साए उहुं उप्पयंति' 'नान्यत्र' | तन्निश्रयाऽन्यत्र न न तां विनेत्यर्थः । 'दाणामाए'त्ति दानमय्या, 'छउमत्थकालियाए'सि उद्मस्थकाल एव छद्मस्थकालिका तस्यां 'दोवि पाए साहङ्कुत्ति संहृत्य -संह (ह) तौ कृत्वा, जिनमुद्रयेत्यर्थः 'बरधारियपाणि'त्ति प्रलम्बितभुजः, 'ईसिंफभार गएणं' ति प्राग्भारः - अग्रतो मुखमवनतत्वम् 'अहापणिहिएहिं गत्तेहिं'ति 'यथाप्रणिहितैः' यथास्थितैः । 'बीससाए'ति स्वभावत एव । 'पासइ य तत्थ'ति पश्यति च तत्र - सौधर्मकल्पे 'मघवंति मघा - महामेघास्ते यस्य Eucation Internationa For Parts Use Only ~360~ war Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४२ -१४४] गाथा: दीप अनुक्रम [१७० -१७२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्य: प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥१७४॥ वशे सन्त्यसौ मघवानतस्तं 'पागसासणं' ति पाको नाम बलवान् रिपुस्तं यः शास्ति-निराकरोत्यसौ पाकशासनोऽतस्तं 'सय| कडे' ति शतं ऋतूनां प्रतिमानामभिग्रहविशेषाणां श्रमणोपासक पञ्चमप्रतिमारूपाणां वा कार्त्तिकश्रेष्ठिभवापेक्षया यस्यासौ | शतक्रतुरतस्तं 'सहस्सक्खति सहस्रमणां यस्यासौ सहस्राक्षोऽतस्तम्, इन्द्रस्य किल मन्त्रिणां पञ्च शतानि सन्ति, तदी| यानां चाक्ष्णामिन्द्रप्रयोजनव्यापृततयेन्द्रसम्बन्धित्वेन विवक्षणात्तस्य सहस्राक्षत्वमिति 'पुरंदर'ति असुरादिपुराणां दारणात् पुरन्दरस्तं 'जाव दस दिसाओ'त्ति इह यावत्करणात् 'दाहिणडुलोगाहिवई बत्तीसविमाणसय सहस्साहिवई एरावणवाहणं सुरिंदं अरयंबरवत्थधरं' अरजांसि च तानि अम्बरवस्त्राणि च स्वच्छतयाऽऽकाशकल्पवसनानि अरजोऽम्बरवस्त्राणि तानि धारयति यः स तथा तम्, 'आलइयमालमउड' आलगितमा मुकुटं यस्य स तथा तं 'नवहेमचारुचित्तचंचलकुण्डलविलिहिज्ज माणगंडं' नवाभ्यामिव हेम्नः सत्काभ्यां चारुचित्राभ्यां चञ्चलाभ्यां कुण्डलाभ्यां विलिख्यमानी गण्डौ यस्य स तथा तम्, इत्यादि तावद्वाच्यं यावत् 'दिवेणं तेएणं दिखाए लेसाए'त्ति, अथ यत्र यत्परिवारं यत्कुर्वाणं च तं पश्यति तथा दर्शयितुमाह- 'अपत्थियपत्थए 'त्ति अप्रार्थितं प्रार्थयते यः स तथा 'दुरंतपंत लक्खणे 'ति दुरन्तानि-दुष्टाबसानानि अत एव प्रान्तानि-अमनोज्ञानि लक्षणानि यस्य स तथा 'हीणपुन्नचाउद से त्ति हीनायां पुण्यचतुर्दश्यां जातो हीनपुण्यचातुर्दशः, किल चतुर्दशी तिथिः पुण्या जन्माश्रित्य भवति, साव पूर्णा अत्यन्तभाग्यवतो जन्मनि भवति अत आक्रोशतोक्तं- 'हीणपुण्णचा उद्दसेति । 'मम'ति मम 'अस्याम् एतद्रूपायां दिव्यायां देवद्ध सत्यां, तथा दिव्ये देवानुभागे लब्धे प्राप्ते अभिसमन्वागते सति 'उपि'ति ममैव 'अप्पुस्सुए'त्ति अल्पौत्सुक्यः 'अच्चासाइ Eucation International For Parks Use One ~ 361~ ३ शतके उद्देशः २ चमरोत्पा दः सू१४४ ॥ १७४॥ jonary or Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक -- [१४२ -- -१४४] गाथा: ए'त्ति 'अत्याशातयितुं' छायाया भ्रंशयितुमिति । 'उसिणे'त्ति उष्णः कोपसन्तापात् , कोपसन्तापजं चोष्णवं कस्यचित्स्वभावतोऽपि स्यादित्याह-'उसिणभूए'त्ति अस्वाभाविकमौष्ण्यं प्राप्त इत्यर्थः, 'एगे'त्ति सहायाभावात् , एकत्वं |च बहुपरिवारभावेऽवि विवक्षितसहायाभावान्यवहारतो भवतीत्यत आह-'अबिइए'त्ति अद्वितीयो पिण्डरूपमात्रस्यापिट द्वितीयस्याभावादिति । 'एगं महति एका महती बोन्दीमिति योगः 'चोर'ति हिंस्रां, कथम् ?-यतो 'घोराकारां' हिंसा-1 | कृति 'भीमति 'भीमा' विकरालत्वेन भयजनिका, कथम् !-यतो "भीमाकारां' भयजनकाकृति 'भामुरं ति भास्वरां 18 IMI'भपाणीय'ति भयमानीतं यया सा भयानीताऽतस्ताम्, अथवा भयं भयहेतुत्वादनीक-तत्परिवारभूतमुल्कास्फुलिङ्गादि |सैन्यं यस्याः सा भयानीकाऽतस्तां 'गंभीर'ति गम्भीरां विकीर्णावयवत्वात् 'उत्तासणय'त्ति उत्रासनिकां त्रसी उद्वेगे| इति वचनात् स्मरणेनाप्युद्वेगजनिका 'महायोंदिन्ति महाप्रभावतनुम् 'अप्फोडेइ'त्ति करास्फोटं करोति 'पापदारगं'ति || है भूमेः पादेनास्फोटनम् 'उच्छोलेइत्ति अग्रतोमुखां चपेटां ददाति 'पछोलेइ'त्ति पृष्ठतोमुखां चपेटां ददाति 'तिवई छिंदह'त्ति मल्ल इव रङ्गभूमी त्रिपदीच्छेदं करोति 'ऊसवेईत्ति उच्छृतं करोति 'विडयेई'त्ति विवृतं करोति साकडंतेव'त्ति समाकर्षयन्निव 'विउज्झाएमाणे'त्ति व्युद्धाजमानः-शोभमानो विजृम्भमाणो वा युद्धाजयन् वाऽम्बरतले परि-3 घरक्षमिति योगः। 'इंदकील'त्ति गोपुरकपाटयुगसन्धिनिवेशस्थानम् । 'नाहि तेत्ति नैव तव । 'फुलिंगजाले'त्यादि | स्फुलिङ्गानां ज्वालानां च या मालास्तासांच यानि सहस्राणि तानि तथा तैः, चक्षुर्विक्षेपश्च-चक्षुर्धमः दृष्टिप्रतिघातश्च-दर्श-12 नाभावः चक्षुर्विक्षेपदृष्टिप्रतिघातं तदपि कुर्वत्, 'अपि' विशेषणसमुचये 'हुतवहे त्यादि, हुतबहातिरेकेण यत्तेजस्तेन | दीप अनुक्रम [१७०-१७२] AC-%% IIT ncianary.com ~362~ Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४२-१४४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४२ -१४४] गाथा: दीप्यमानं यत्तत्तथा 'जाणवेग'ति जयी शेषवेगवद्वेगजयी वेगो यस्य तत्तथा 'महन्भय'ति महतां भयमस्मादिति मह-र ३ शतके प्रज्ञप्तिः पलायं, कस्मादेवमित्यत आह-"भयङ्कर' भयकर्तृ । 'झियाइ'त्ति 'ध्यायति' किमेतत् ? इति चिन्तयति, तथा 'पिहात्तिा शार अभयदेवी-I'स्पृहयति' यद्येवंविध प्रहरणं ममापि स्यादित्येवं तदभिलपति स्वस्थानगमनं वाऽभिलपति, अथवा 'पिहाइ'त्ति अक्षिणी चमरस्य वी या वृत्तिः रचरणयोपिधत्ते-निमीलयति, 'पिहाइ झियाइ'त्ति पूर्वोक्कमेव क्रियाद्वयं व्यत्ययेन करोति, अनेन च तस्यातिव्याकुलतोक्ता, तहेव'त्ति || रागमः ॥१७॥ ॥ यथा ध्यातवांस्तथैव तत्क्षण एवेत्यर्थः, 'संभग्गमउडविडवेत्ति संभन्नो मुकुटविटपः-शेखरकविस्तारो यस्य स तथा ।|| ||3|| सू१४५ 'सालंयहत्वाभरणे'त्ति सह आलम्बेन-प्रलम्वेन वर्तन्ते सालम्बानि तानि हस्ताभरणानि यस्याधोमुखगमनवशादसौर सालम्बहस्ताभरणः 'कक्खागयसेयंपिव'त्ति भयातिरेकात्कक्षागतं स्वेदमिव मुश्चयन् , देवानां किल स्वेदो न भवतीति संदर्शनार्थः पिवशब्दः 'झत्ति वेगेणं'ति वेगेन समवपतितः, कथं ?-'झगिति' झटितिकृत्वा तए णं तस्स सकस्स देविंदस्स देवरन्नो इमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चमरे || & असुरिंदे असुरराया नो खलु समस्धे चमरे असुरिंदे असुरराया नो खलु विसए चमरस्स असुरिंदस्स असुर | ॥१७५॥ रन्नो अप्पणो निस्साए उडे उप्पइत्ता जाव सोहम्मो कप्पो, णण्णत्व अरिहंते वा अरिहंतचेझ्याणि वा अणगारे वा भावियप्पणो णीसाए पहुं उपयति जाव सोहम्मो कप्पो,तं महादुक्खं खलु तहारूवाणं अरहहाताणं भगवंताणं अणगाराण य अचासायणाएत्तिकद्द ओहिं पउंजति २ ममं ओहिणा आभोएति २हा हा दीप अनुक्रम [१७०-१७२] REnatantri | चमरोत्पात-वर्णनं ~363~ Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४५] दीप अनुक्रम [१७३] SONASSCOCC436 अहो हतोऽहमसिप्तिका लाए उकिटाए जाव दिव्वाए देवगतीए पज्जस्स वीहिं अणुगच्छमाणे २ तिरियमसंखेजाणं दीवसमुदाणं मझमज्झेणं जाय जेणेव असोगवरपायवे जेणेव ममं अंतिए तेणेव उवागच्छइ २ मम चउरंगुलमसंपतं वजं पडिसाहरइ (सूत्रं १४५) । अवियाई मे गोयमा ! मुहिवाएणं केसग्गे वीइत्था, तए णं से सके देविंदे देवराया वजं पडिसाहरिता ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २ वंदइ नमंसह २ एवं बयासी-एवं खलु भंते । अहं तुन्भं नीसाए धमरेणं असुरिंदेणं असुररन्ना सयमेव अचासाइए, तए णं मए परिकृविएणं समाणेणं चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो वहाए वज्जे निसहे, तए णं मे इमेयारूवे अजमथिए जाव समुप्पज्जित्था-नो खलु पभू चमरे असु४ रिंदे असुरराया तहेव जाव ओहिं पउंजामि देवाणुप्पिए ओहिणा आभोएमि हा हा अहो हतोमीतिकट्टु ताए उक्किट्ठाए जाव जेणेच देवाणुप्पिए तेणेव उवागरुछामि देवाणुप्पियाणं चउरंगुलमसंपत्तं वजं पडिसा हरामि वजपडिसाहरणट्ठयाए णं इहमागए इह समोसढे इह संपत्ते इहेव अज उवसंपजित्ता णं विहरामि, तं खामेमि णं देवाणुप्पिया ! खमंतु णं देवाणुप्पिया! खमंतु मरहंतु णं देवाणुप्पिया ! णाइभुजो एवं पकरणछायाएत्तिकहु ममं वंदा नमसइ २ उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमा २ वामेण पादेणं तिक्खुत्तो भूमि KI दलेर २ चमरं असुरिंदं असुररायं एवं पदासी-मुफोऽसि णं भो चमरा ! असुरिंदा असुरराया! समणस्स Santauraton Auditurary.com | चमरोत्पात-वर्णनं ~364~ Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१४६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ३ शतके प्रत सूत्रांक [१४६] ॥१७६॥ दीप अनुक्रम [१७४] व्याख्या- 1|| भगवओ महावीरस्स पभावेणं न हि ते दाणिं ममाओ भयमत्थीतिकट्ठ जामेव दिसि पाउन्मूए तामेव प्रज्ञप्तिः दिसि पडिगए ॥ (सूत्रं १४६) उद्देशा२ अभयदेवी-पभु'त्ति शक्तः 'समत्थेत्तिसङ्गतप्रयोजन हाहा' इत्यादेःसंस्कारोऽयं-हा हा अहो हतोऽहमस्मीतिकृत्वा, व्यक्तं चैतत् ।। चमरमुक्तिः या वृत्तिः१ 'अवियाईति, 'अपिच' इत्यभ्युच्चये 'आईति वाक्यालङ्कारे 'मुट्टिवाएण'ति अतिवेगेन वज्रग्रहणाय यो मुष्टेबन्धने सू१४६ वात उत्पन्नोऽसौ मुष्टिवातस्तेन मुष्टिवातेन 'केसग्गे'त्ति केशाग्राणि 'बीइत्था' वीजितवान् । 'इहमागए'त्ति तिर्यग्लोके 'इह समोसडे'त्ति सुसमारपुरे 'इह संपत्ते'त्ति उद्याने 'इहेव'त्ति इहैवोद्याने 'अजेति 'अद्य' अस्मिन्नहनि 8 अथवा हे आर्य! पापकर्मबहिर्भूत ! 'आर्य!' वा स्वामिन् ! 'उवसंपज्जित्ता गं'ति 'उपसंपद्य' उपसंपन्नो भूत्वा । |'विहरामि' वर्ते 'नाइभुजोत्ति नैव भूयः 'एवं पकरणयाए सि एवं प्रकरणतायां वर्तिष्य इति शेषः, दाणि ति इदानीं | सम्प्रतीत्यर्थः । इह लेष्ट्वादिकं पुद्गलं क्षिप्तं गच्छन्तं क्षेपकमनुष्यस्तावहीतुं न शक्नोतीति दृश्यते, देवस्तु किं शक्नोति? येन शक्रेण वजं क्षिप्तं सहतं च, तथा वनं चद्गृहीतं चमरः कस्मान्न गृहीत इत्यभिप्रायतः प्रस्तावनोपेतं प्रश्नोत्तरमाह भंतेत्ति भगवं गोयमे समण भगवं महावीरं वंदति २ एवं वदासि-देवे णं भंते! महिड्डीए महजुतीए जाव महाणुभागे पुवामेव पोग्गलं खिवित्ता पभू तमेव अणुपरियहित्ता णं गिण्हित्सए, हंता पभू ॥ से केणतुणं भिंते ! जाव गिणिहत्तए , गोयमा ! पोग्गले निक्खित्ते समाणे पुढवामेव सिग्धगती भक्त्तिा ततो पच्छा|| मंदगती भवति, देवे णं महिडीए पुब्बिंपिय पच्छावि सीहे सीहगती येव तुरियतुरियगती चेव, से तेणद्वेणं ॥१७॥ वामेव सिग्धगती भविता Taurasurary.org | चमरोत्पात-वर्णनं ~365~ Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१७५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [ १४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Education चमरोत्पात-वर्णनं | जाव पभू गेण्हितए । जति णं भंते! देबिंदे महिडीए जाव अणुपरियहिता णं गेण्हित्तए कम्हा णं भंते! सके णं देविंदे देवरन्ना (राया) चमरे असुरिंदे असुरराया तो संचाएति साहस्थि गण्हित्तए?, गोयमा ! असुरकुमाराणं | देवाणं अहे गतिविसए सीहे २ चैव तुरिए २ चेब उहुं गतिविसए अप्पे २ चेव मंदे मंदे चैव वैमाणियाणं देवाणं उहुं गतिविसए सीहे २ चैव तुरिए २ चेव अहे गतिविसए अप्पे २ चैव मंदे २ चेव, जाघतियं खेत्तं सके देविंदे देवराया उ उष्पयति एक्केणं समएणं तं बजे दोहिं, जं वज्जे दोहिं तं चमरे तिर्हि, सव्वत्थोवे सकस्स देविदस्त देवरन्नो उहलोयकंडए अहेलोयकंडर संखेज्जगुणे, जावतियं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया अहे ओवयति एक्केणं समएणं तं सके दोहिं जं सक्के दोहिं तं वज्जे तिहिं सव्वत्थोवे चमरस्स असुरिंदस्स असुररन्नो अहेलोयकंड लोकंडए संखेज्जगुणे । एवं खलु गोयमा ! सक्केणं देविंदेणं देवरण्णा चमरे असुरिंदे असुरराया नो संचापति साहत्थि गेण्हित्तए । सक्क्स्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो उ अहे तिरियं च गतिविसयस्स करेहिंतो अप्पे वा बहुए वा तुले वा विसेसाहिए वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवं खेतं सके देविंदे | देवराया अहे ओवयइ एक्केणं समएणं तिरियं संखेले भागे गच्छइ उहुं संखेने भागे गच्छइ । चमरस्स णं भंते! असुरिंदस्स असुररन्नो उ अहे तिरियं च गतिविसयस्स कयरेरहिंतो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ?, गोयमा ! सव्वत्थोवं खेत्तं चमरे असुरिंदे असुरराया उहूं उप्पयति एक्केणं समएणं तिरियं संखेने भागे गच्छद अहे संखेज्जे भागे गच्छद्द, वज्जं जहा सकस्स देविंदस्स तहेव नवरं विसेसाहियं कायव्वं ॥ For Parts Only ~366~ yor Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४७] टीप अनुक्रम [१७५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्तिः) शतक [३], वर्ग [-] अंतर- शतक [-1, उद्देशक [२] मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः 'अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥ १७७॥ लहलहलह चमरोत्पात-वर्णनं विभागापेक्षा Education Intentional २४ ऊ तिर्यक् १२ १८ १० १२ . शक्रः वज्रं ऊर्द्ध तिर्यक् अधः अधः ० २४ १८ १२ १२ १० ८ १६ इंद्र: २४ वज्र चमरः चमरः ० शक्रः वज्रं ० ऊर्द्ध तिर्यक् गम्यगम्यपेक्षया तिर्यक् अधः यो० २ यो०ग०२ यो ०१ यो० १ ग० २३ ग० २३ ०२३ ० ५३ यो० २ इंद्र: योग २ यो २१॥ | सक्करस णं तं देविंदस्स देवरन्नो ओवयणकालस्स य उप्पयणकालस्स य कपरेरर्हितो अप्पे वा बहुए वा तुल्ले वा विसेसाहिए वा ?, गोपमा । सव्वत्थोवे सकस्स देविं ग० २३ दस्त देवरन्नो उद्धं उप्पयणकाले पत्र- ओवयणकाले संखेज्जगुणे ॥ चमरभागद्वय- स्सवि जहा सकस्स णवरं सव्वत्थोवे न्यूनग०६ ओवयणकाले उप्पयणकाले संखेग० २३ | यो० २ जगुणे ॥ वज्रस्स पुच्छा, गोयमा ! चमरः १६ २४ चमरः अधः यो० १ | सव्वत्थोवे उपयणकाले ओवयणकाले विसेसाहिए । एयस्स णं मंते ! वज्जस्स वज्जाहिवइस्स चमरस्स य | असुरिंदस्स असुररनो ओवयणकालस्स य उप्पयणकालस्स य कयरे२हिंतो अप्पे वा ४१, गोयमा ! सफस्स य उप्पयणकाले चमरस्स य ओवयणकाले एए णं दोनिवि तुल्ला सन्वत्थोवा, सस्स य ओवयणकाले वास्स वज्रः यो० १ ग० २३ ~367~ For Panal Lise Only ३ शतके | उद्देशः २ शक्रवज्रच. मराणांगति कालयोर रूप. सू१४७ ॥ १७७॥ yor Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१७५] काय उपयणकाले एसणं दोण्हवि तुले संखेजगुणे चमरस्स उ उप्पयणकाले वजस्स य ओवयणकाले एसणं दोण्हवि तुल्ले विसेसाहिए (स०१४७) ___ भिंते ! इत्यादि, 'सीहे'त्ति शीघ्रो वेगवान , स च शीघ्रगमनशक्तिमात्रापेक्षयाऽपि स्यादत आह-'सीहगई चेव'त्ति शिधगतिरेव नाशीघ्रगतिरपि, एवंभूतश्च कायापेक्षयाऽपि स्थादत आह-तुरिय'त्ति त्वरितः-वरावान , स च गतेरन्यत्रापि स्थादित्यत आह-तुरियगइ'त्ति त्वरितगतिः' मानसौत्सुक्यप्रवर्तितवेगवद्गतिरिति, एकार्था वैते शब्दाः 'संचाइए'ति । शकितः 'साहस्थिन्ति स्वहस्तेन । 'गइविसए'त्ति, इह यद्यपि गतिगोचरभूत क्षेत्रं गतिविषयशब्देनोच्यते तथाऽपि गति-| रेवेह गृह्यते, शीघ्रादिविशेषणानां क्षेत्रेऽयुज्यमानत्वादिति, 'सीहेति शीघ्रो वेगवान् , स चानैकान्तिकोऽपि स्यादत 18 आह-'सीहे चेव'त्ति शीघ्र एव, एतदेव प्रकर्षवृत्तिप्रतिपादनाय पर्यायान्तरेणाह-त्वरितस्त्वरितश्चैवेति, 'अप्पे अप्पे | चेवत्ति अतिशयेनाल्पोऽतिस्तोक इत्यर्थः, 'मंदे मंदे चेव' त्ति अत्यन्तमन्दः, एतेन च देवानां गतिस्वरूपमात्रमुक्तम् ॥ एतस्मिंश्च गतिस्वरूपे सति शक्रवनचमराणामेकमाने अर्धादी क्षेत्रे गन्तव्ये यः कालभेदो भवति तं प्रत्येकं दर्शयन्नाह'जावइय'मित्यादि, अथेन्द्रस्योर्ध्वाधःक्षेत्रगमने कालभेदमाह-सव्वत्थोचे सकस्सेत्यादि, 'सर्वस्तोक' स्वल्पं शक्रस्य ऊर्ध्वलोकगमने ख(क)ण्डक-कालखण्डं ऊर्ध्वलोककण्डक ऊर्ध्वलोकगमनेऽतिशीघ्रत्वात्तस्य, अधोलोकगमने कण्डक कालखण्डमधोलोककण्डक सश्यातगुण, ऊर्ध्वलोककण्डकापेक्षया द्विगुणमित्यर्थः, अधोलोकगमने शकस्य मन्दगतित्वात्, द्विगुणत्वं च 'सकस्स उप्पयणकाले चमरस्स य ओवयणकाले एएणं दोषिणवि तल्ला' तथा 'जावतिय खेत्तं चमरे ३ अहे ओवयह +KCONCERABAR SantaratanimlKI | चमरोत्पात-वर्णनं ~368~ Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रज्ञप्तिः प्रत सूत्रांक [१४७] दीप व्याख्या इक्केणं समएणं तं सक्को दोहिं' ति वक्ष्यमाणवचनद्वयसामर्थ्याल्लभ्यमिति, 'जावइय'मित्यादिसूत्रद्वयमध क्षेत्रापेक्षं पूर्वव- ३ शतके व्याख्येयं, 'एवं खलु' इत्यादि च निगमनम् । अथ शक्रादीनां प्रत्येकं गतिक्षेत्रस्याल्पबहुत्वोपदर्शनाय सूत्रत्रयमाह- उद्देशः२ अभयदेवी-दा'सकस्से'त्यादि, तत्र ऊर्द्धमधस्तिर्यक् च यो गतिविषयो-गतिविषयभूतं क्षेत्रमनेकविधं तस्य मध्ये कतरो गतिविषयः शक्रवज्रचया वृत्तिः १|| कतरस्माद्गतिविषयारसकाशादल्पादिः इति प्रश्नः, उत्तरं तु सर्वस्तोकमधःक्षेत्रं समयेनावपतति, अधो मन्दगतित्वाच्छ-||मराणागति कस्य, 'तिरियं संखेजे भागे गच्छईत्ति कल्पनया किलैकेन समयेन योजनमधो गच्छति शक्रः, तत्र च योजने द्विधा-IBE ॥१७८॥ कल्प.सू१४७ कृते द्वौ भागौ भवतः, तयोश्चैकस्मिन् द्विभागे मीलिते त्रयः सङ्खवेया भागा भवन्ति अतस्तान् तिर्यग् गच्छति, सा.|| योजनमित्यर्थः, तिर्यगतौ तस्य शीघ्रगतित्वात् , 'उहूं संखेजे भागे गच्छत्ति यान् किल कल्पनया त्रीन् द्विभागांस्तियेग्गच्छति तेषु चतुर्थेऽन्यस्मिन् द्विभागे मीलिते चत्वारो द्विभागरूपाः सङ्ख्यातभागाः संभवन्ति अतस्तानूई गच्छति । अथ कथं सूत्रे सङ्ख्यातभागमात्रग्रणे सतीदं नियतभागव्याख्यानं क्रियते !, उच्यते, 'जावइयं खेत्तं चमरे ३ अहे ओवयह एकेणं समएणं तं सके दोहिं', तथा 'सकस्स उप्पयणकाले चमरस्स ओवयणकाले एते णं दोनिवि तुला' इति वचनतो निश्चीयते शको यावदधो द्वाभ्यां समयाभ्यां गच्छति तावद मेकेनेति द्विगुणमधःक्षेत्रावक्षेत्र, एतयोश्चापान्त-31 रालवर्ति तिर्यक्षेत्रमतोऽपान्तरालप्रमाणेनैव तेन भवितव्यमित्यधाक्षेत्रापेक्षया तिर्यक्षेत्रं सार्द्ध योजनं भवतीति ॥१७८॥ व्याख्यातं, आह् च चूर्णिकार:-'एगेणं समएणं ओवयइ अहे जोयणं एगेणेव समएणं तिरिय दिवडे गच्छइ उहुं दो जोयणाणि सक्को'त्ति ।। 'चमरस्स णमित्यादि 'सबत्यो खेत्तं चमरे ३ उडे उप्पयइ एकेणं समएण'ति, ऊर्दुगतौ मन्द अनुक्रम [१७५] SAREastatininternational ~369~ Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४७] दीप अनुक्रम [१७५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [ १४७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः गतिस्वात्तस्य, तच किल कल्पनया त्रिभागभ्यूनं गव्यूतत्रयं,' तिरियं संखेने भागे 'ति तस्मिन्नेव पूर्वोके त्रिभागन्यूनगन्यू| तत्रये द्विगुणिते ये योजनस्य सङ्ख्या भागा भवन्ति तान् गच्छति, तिर्यग्गतौ शीघ्रतरगतित्वात्तस्य, 'अहे संखेज्जे भागे गच्छत्ति पूर्वोक्ते त्रिभागद्वयन्यूने गव्यूतषङ्के त्रिभागन्यूनगब्यूतत्रये मीलिते ये सङ्ख्येयभागा भवन्ति तान् गच्छति, | योजनद्रयमित्यर्थः । अथ कथं सयात भागमात्रोपादाने नियतसङ्ख्येयभागत्वं व्याख्यायते ?, उच्यते, शक्रस्योर्द्धगतेश्चमरस्य चाधोगतेः समत्वमुक्तं, शक्रस्य चोर्द्धगमनं समयेन योजनद्वयरूपं कल्पितमतश्चमरस्याधोगमनं समयेन योजनद्वयमुक्तं, तथा 'जावश्यं सके र उहुं उप्पयइ एगेणं समएणं तं वज्रं दोहिं जं वज्जं दोहिं तं चमरे तिर्हिति वचनसामर्थ्यात् प्रतीयते शक्रस्य यदूर्द्ध गतिक्षेत्रं तस्य त्रिभागमात्ररूपं चमरस्योर्द्धगतिक्षेत्रमतो व्याख्यातं त्रिभागन्यूनत्रिगव्यूतमानं तदिति, ऊर्द्धक्षेत्राधोगतिक्षेत्र योश्चापान्तरालवत्तिं तिर्यकूक्षेत्रमितिकृत्वा त्रिभागद्वयन्यूनपड्गव्यूतमानं तद्व्याख्यातमिति, यच चूर्णिकारेणोक्तं 'चमरो उहुं जोयण'मित्यादि तन्नावगतं, 'वज्रं जहा सक्कस्स तहेव'त्ति वज्रमाश्रित्य गतिविषयस्याल्पबहुत्वं वाच्यं यथा शक्रस्य तथैव, विशेषद्योतनार्थं त्वाह-'नवरं विसेसाहियं कायच्वं' ति, तच्चैवम्- 'वज्जस्स णं भंते! उहूं | अहे तिरियं च गइविसयरस कयरे कयरेहिंतो अप्पे वा ४ १, गोयमा ! सवत्थोवं खेचं वज्जे अहे ओवयइ एक्केणं समएणं तिरियं विसेसाहिए भागे गच्छइ उहूं विसेसाहिए भागे गच्छइ त्ति, वाचनान्तरे तु एतत्साक्षादेवोकमिति, अस्थायमर्थःसर्वस्तोकं क्षेत्रं वज्रमधो ब्रजत्येकेन समयेन, अधो मन्दगतित्वात्तस्य वज्रस्य, तच्च किल कल्पनया त्रिभागन्यूनं योजनं, तिर्यक् तच्च विशेषाधिको भागौ गच्छति, शीघ्रतरगतित्वात्, तौ च किल योजनस्य द्वौ त्रिभागौ विशेषाधिको सत्रिभागं गव्यू Education Internationa For Parts Use One ~ 370~ Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१४७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ३ शतके प्रत सूत्रांक [१४७] ॥१७९॥ दीप व्याख्या- तत्रयमित्यर्थः, तथोर्दू विशेषाधिको भागी गच्छति, यौ किल तिग्विशेषाधिको भागौ गच्छति तावेवोगतौ किश्चि प्रज्ञप्तिः विशेषाधिकौ, उईगतौ शीघ्रतरगतित्वात्परिपूर्ण योजनमित्यर्थः, अथ कथं सामान्यतो विशेषाधिकत्वेऽभिहित नियत- उद्देशः २ अभयदेवी | भागवं व्याख्यायते ?, उच्यते, 'जावइयं चमरे ३ अहे ओवयइ एकेणं समएणं तावइयं सके दोहिं जं सके दोहिं तं शक्रवज्रचया वृत्तिः१४ all वजे तिहिति वचनसामर्थ्याच्छकाधोगत्यपेक्षया बज्रस्य विभागन्यूनाधोगतिर्लब्धेति त्रिभागन्यून योजनमिति सामराणांगति | व्याख्याता, तथा 'सकस्स ओवयणकाले वजस्स य उप्पयणकाले एस णं दोण्हवि तुले' इति वचनादवसीयते यावदेकेम कालयोरसमयेन शक्रोऽधो गच्छति तावद्वज्रमू, शक्रश्चैकेनाधः किल योजनं एवं वज्रमूर्द्ध योजनमितिकृत्वोई योजनं तस्योक्तं, हैल्प-सू१४७ ऊोधोगत्योश्च तिर्यग्गतेरपान्तरालवर्तित्वात्तदपान्तरालवयैव सत्रिभागगन्यूतत्रयलक्षणं तिर्थग्गतिप्रमाणमुक्तमिति। अनन्तरं गतिविषयस्थ क्षेत्रस्याल्पबहुत्वमुक्त, अथ गतिकालस्य तदाह-सक्कस्स ण'मित्यादि सूत्रत्रयं । शक्रादीनां गतिकालस्य प्रत्येकमल्पबहुत्वमुक्तं अथ परस्परापेक्षया तदाह-एयस्स णं भंते ! वजस्से'त्यादि, एएणं विपिणवि तुल्ल'त्ति शक्रयमसारयोः स्वस्थानगमन प्रति गस्य समत्वादुत्पतनावपतनकाली तयोस्तुल्यौ परस्परेण, 'सवस्थोच'त्ति वक्ष्यमाणापेक्षयेति, | तथा 'सकस्से' त्यादी 'एस णं दोण्हवि तुल्लेत्ति उभयोरपि तुल्यः शकावपतनकालो वजोत्पातकालस्य तुल्यः वज्रोत्पातकालश्च शक्रावपतनकालस्य तुल्य इत्यर्थः, 'संखेजगुणे'त्ति शक्रोत्पातचमरावपातकालापेक्षया, एवमनन्तरसूत्रमपि भावनीयम् ॥ तए णं चमरे अमुरिंदे असुरराया वजभयविप्पमुक्के सकेणं देविदेणं देवरना महया अवमाणेणं अवमाणिए अनुक्रम [१७५] ~371 Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [१४८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४८] दीप 5545665555 |समाणे चमरचंचाए रापहाणीए सभाए सुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि ओहयमणसंकप्पे चिंतासोयसाग-18 रसंपविढे करयलपल्हस्थमुहे अज्झाणोवगए भूमिगयदिट्टीए झियाति, तते णं तं चमरं असुरिंदं असुररायं सामाणियपरिसोववन्नया देवा ओहयमणसंकप्पं जाव झियायमाणं पासंति २ करयल जाव एवं वयासिकिण्णं देवाणुप्पिया ओहयमणसंकप्पा जाव झियायह?, लए णं से चमरे असुरिंदे असुर ते सामाणियपरिसोववन्नए देवे एवं वपासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! मए समणं भगवं महावीरं नीसाए सके देषिदे देवराया सयमेव अचासादिए, तए णं तेणं परिकुविएणं समाणेणं ममं वहाए वज्बे निसिढे तं भद्दण्णं भवतु देवाणुप्पिया! समणस्स भगवओ महावीरस्स जस्स मम्हिमनुपभावेण अकिटे अव्वहिए अपरिताविए इहमागए इह समोसहे इह संपत्ते इहेव अज्नं उवसंपज्जित्ता णं विहरामि, तं गच्छामोणं देवाणुप्पिया ! समणं भगवं महावीरं वंदामो णमसामो जाब पजुवासामोत्तिकटु चउसठ्ठीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव सब्बिड्डीए जाव जेणेच असोगवरपायवे जेणेव मम अंतिए तेणेव उवागच्छह २ ममं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वदासि-एवं खलु भंते ! मए तुम्भं नीसाए सके देविंदे देवराया सयमेव अचासादिए जाव तं भई णं भवतु देवाणुप्पियाणं माहि जस्स अणुपभावणं अकिडे जाव विहरामितं खामेमि णं देवाणुप्पिया। जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ २त्ता जाव यत्तीसइबद्धं नविहिं उवदंसेइ २ जामेव दिसिं पाउ RECE%E04546 अनुक्रम [१७६] | चमरोत्पात-वर्णनं ~372~ Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१४८] दीप अनुक्रम [१७६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [ १४८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥१८०॥ चमरोत्पात-वर्णनं भूए तामेव दिसं पडिगए, एवं खलु गोयमा ! चमरेणं असुरिंदेण असुररन्ना सा दिव्या देविट्टी लद्धा पत्ता | जाव अभिसमन्नागया, ठिती सागरोवमं, महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति ॥ ( सूत्रं १४८ ) 'ओह मणसं'त्ति उपहतो - ध्वस्तो मनसः सङ्कल्पो-दर्पहर्षादिप्रभवो विकल्पो यस्य स तथा, 'चिंतासोगसागरमणुपविट्टे' ति चिन्ता - पूर्वकृतानुस्मरणं शोको- दैन्यं तावेव सागर इति विग्रहोऽतस्तं 'करत लपलह्स्थमुहे 'ति करतले पर्यस्तं-अधोमुखतया न्यस्तं मुखं येन स तथा, 'जस्समम्हि मनुपभावेणं'ति यस्य प्रभावेण इहागतोऽस्मि भवामीति योगः, किंभूतः सन्नित्याह-'अकिट्टे'त्ति 'अकृष्टः' अविलिखितः अक्लिष्टो वा अबाधितो निर्वेदनमित्यर्थः, एतदेव कथमित्याह- 'अन्वहिए'त्ति अव्यथितः, अताडितत्वेऽपि ज्वलन कल्पकुलिशसन्निकर्षात्परितापः स्यादतस्तं निषेधयन्नाह'अपरिताविए' त्ति, 'इहमागए' त्यादि विवक्षया पूर्ववद्व्याख्येयं, 'इहेव अजे' त्यादि, इहैव स्थाने 'अर्थ' अस्मिन्नहनि 'उपसंपद्य' | प्रशान्तो भूत्वा विहरामीति । पूर्वमसुराणां भवप्रत्ययो वैरानुबन्धः सौधर्मगमने हेतुरुक्तः, अथ तत्रैव हेत्वन्तराभिधानायाहकिं पतिए णं भंते! असुरकुमारा देवा उ उम्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो ?, गोयमा ! तेसिणं देवाणं अरुणोववन्नगाण वा चरिमभवत्थाण वा इमेपारूवे अज्झत्थिए जाव समुप्पजइ- अहो णं अम्हेहिं दिव्वा | देविही लद्धा पत्ता जाव अभिसमन्नागया जारिसिया णं अम्हेहिं दिव्या देविट्ठी जाव अभिसमन्नागया तारिसियाणं सकेणं देविंदेणं देवरन्ना दिग्वा दिविही जाब अभिसमन्नागया जारिसिया णं सक्केणं देविंदेणं देवरन्ना जाव | अभिसमन्नागया तारिसियाणं अम्हेहिवि जाव अभिसमन्नागया तं गच्छामोणं सकस्स देविंदस्स देवरन्नो अंतियं For Parts Only ~373~ ३ शतके उद्देशः २ प्रमोदात् चमरनृत्य सू० १४८ असुराणमूर्ध्वगतिहतुः सू १४९ ॥१८०॥ war Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१४९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१४९] पाउम्भवामो पासामो ताव सकस्स देविंदस्स देवरन्नो दिव्यं देविहि जाव अभिसमन्नागयं पासतु ताव अम्हविसक्के देविदे देवराया दिव्वं देविढि जाव अभिसमण्णागयं, तं जाणामो ताव सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो दिव्वं लादेविहिं जाव अभिसमन्नागयं जाणउ ताव अम्हवि सके देविंदे देवराया दिव्वं देविढेि जाव अभिसमण्णागयं, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारा देवा उखु उप्पयंति जाव सोहम्मो कप्पो । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति ॥ (सूत्र १४९) चमरो समतो ।। ३-२॥ किं पत्तियण'मित्यादि, तत्र 'किंपत्तिय'ति का प्रत्ययः-कारणं यत्र तत् किंप्रत्ययम् 'अहुणोववणाणं ति है उत्पन्नमात्राणां 'चरिमभवत्थाण बत्ति भवचरमभागस्थानां! च्यवनावसर इत्यर्थः ॥ इति तृतीयशते द्वितीयश्चम राख्यः ॥३-२॥ दीप अनुक्रम [१७७] द्वितीयोद्देशके चमरोत्पात उक्तः, स च क्रियारूपोऽतः क्रियास्वरूपाभिधानाय तृतीयोद्देशकः, स च तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नाम नगरे होत्था जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं माजाच अंतेवासी मंडियपुसे णाम अणगारे पगतिभदए जाव पजुवासमाणे एवं वदासी-कति णं भंते ! किरियाओ पण्णत्ताओ?, मंडियपुत्ता ! पंच किरियाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-काइया अहिगरणिया पाउसिया Alumstaram.org अत्र तृतीय-शतके द्वितीय-उद्देशक: समाप्त: अथ तृतीय-शतके तृतीय-उद्देशक: आरभ्यते मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~374~ Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५०] दीप पारियावणिया पाणाइवायकिरिया । काइया गं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णत्ता ?, मंडियपुत्ता ! विहार शतके प्रज्ञप्तिः पणता, तंजहा-अणुवरयकायकिरिया य दुप्पउत्तकायकिरिया य। अहिगरणिया णं भंते! किरिया कतिविहा उद्देशः३ अभयदेवी- पपणता ?, मंडियपुत्ता! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-संजोयणाहिगरणकिरिया य निब्वत्तणाहिगरणकिरिया मण्डितपुत्र या वृत्तिः य। पाओसिया णं भंते ! किरिया कतिविहा पण्णता?, मंडियपुत्ता ! दुविहा पण्णता, तंजहा-जीवपाओ-प्रश्नाःक्रिया ॥१८॥ || सिया य अजीवपादोसिया य । पारियावणिया णं भंते ! किरिया कइविहा पण्णत्ता, मंडियपुत्ता! दुविहा|| सुसू १५० * पण्णत्ता, तंजहा-सहत्यपारियावणिया य परहत्यपारियावणिया य । पाणाइवायकिरिया णं भंते ! पुच्छा, पाणाइवायकिरिया कइविहा पण्णसा, मंडियपुत्ता! दुविहा पण्णता, तंजहा-सहत्यपा० परहत्थपा०र किरिया य॥ (सूत्रं १५०)। । तेणं कालेण'मित्यादि तत्र 'पंच किरियाओं'त्ति करणं क्रिया कर्मबन्धनिवन्धना चेष्टेत्यर्थः 'काइय'त्ति चीयत इति । | काय:-शरीरं तत्र भवा तेन वा निवृत्ता कायिकी, 'अहिगरणिय'त्ति अधिक्रियते नरकादिष्वात्माऽनेनेत्यधिकरण-अनु-18 छानविशेषः बाह्यं वा वस्तु चक्रखङ्गादि तत्र भवा तेन वा निवृत्तेत्याधिकरणिकी २, 'पाउसिय'ति प्रदेषो-मत्सरस्तत्र & भवा तेन वा निवृत्ता स एव वा प्राद्वेषिकी ३, 'पारितावणिय'त्ति परितापनं परितापः-पीडाकरणं तत्र भवा तेन वा ॥१८॥ निवृत्ता तदेव वा पारितापनिकी ४, पाणातिवायकिरियत्ति प्राणातिपातः-प्रसिद्धस्तद्विषया क्रिया प्राणातिपात एव वा ४ क्रिया प्राणातिपातक्रिया ५ । 'अणुवरयकायकिरिया यत्ति अनुपरतः-अविरतस्तस्य कायक्रियाऽनुपरतकायक्रिया LOCANCE अनुक्रम [१७८] मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~375 Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [१५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५०] दीप पाइयमविरतस्य भवति, 'दुप्पउत्तकायकिरिया यत्ति दुष्टं प्रयुक्तो दुष्पयुक्तः स चासौ कायश्च दुष्प्रयुक्तकायस्तस्य क्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, अथवा दुष्टं प्रयुक्तं-प्रयोगो यस्य स दुष्प्रयुक्तस्तस्य कायक्रिया दुष्प्रयुक्तकायक्रिया, इयं प्रमत्तसंय॥ तस्यापि भवति, विरतिमतः प्रमादे सति कायदुष्टप्रयोगस्य सद्भावात् , 'संजोयणाहिगरणकिरिया य'ति संयोजनं-1x हलगरविपकूटयन्त्राद्यङ्गानां पूर्वनिर्वतितानां मीलनं तदेवाधिकरणक्रिया संयोजनाधिकरणक्रिया, 'निव्वत्तणाहिगरण किरिया यत्ति, निवर्त्तनं-असिशक्तितोमरादीनां निष्पादनं तदेवाधिकरणक्रिया निवर्तनाधिकरणक्रिया, 'जीवपाओहै सिया यत्ति जीवस्य-आत्मपरतदुभयरूपस्योपरि प्रद्वेषाद् या क्रिया प्रद्वेषकरणमेव वा, 'अजीवपाउसिया कायत्ति अजीवस्योपरि प्रद्वेषाद्या क्रिया प्रवेषकरणमेव वा, 'सहत्यपारितावणिया य'त्ति स्वहस्तेन स्वस्य परस्य तदुभयस्य वा परितापनाद्-असातोदीरणाद्या क्रिया परितापनाकरणमेव वा सा स्वहस्तपारितापनिकी, एवं परहस्तपारितापनिक्यपि, एवं प्राणातिपातक्रियाऽपि ॥ उक्ता क्रिया, अथ तज्जन्य कर्म तद्वेदनां चाधिकृत्याह& पुब्बि भंते ! किरिया पच्छा वेदणा पुचि चेदणा पच्छा किरिया ?, मंडियपुत्ता ! पुचि किरिया पच्छा वेदणा, णो पुचि वेदणा पच्छा किरिया ॥ (सूत्रं१५१) अस्थि णं भंते ! समणाणं निग्गंथाणं किरिया कजइ, हंता! अस्थि । कह णं भंते ! समणाणं निग्गंधाणं किरिया कजा, मंडियपुत्ता पमायपचया जोगनिमित्तं &च, एवं खलु समणाणं निग्गंधाणं किरिया कजति ।। (सूत्रं १५२)॥ अनुक्रम [१७८] मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~376~ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [१५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५२] दीप व्याख्या 'पुचि भंते।' इत्यादि क्रिया-करणं तजन्यत्वात्कर्मापि क्रिया, अथवा क्रियत इति क्रिया कर्मैव, वेदना तु कर्मणोऽ- ३ शतके प्रज्ञप्तिःनुभवः, सा च पश्चादेव भवति, कर्मपूर्वकत्वात्तदनुभवस्येति ॥ अथ क्रियामेव स्वामिभावतो निरूपयन्नाह–'अधि ण- उद्देशः३ अभयदेवी-मित्यादि, अस्त्ययं पक्षो यदुत क्रिया क्रियते-क्रिया भवति, प्रमादप्रत्ययात् यथा दुष्प्रयुक्तकायक्रियाजन्यं कर्म, योग-18| क्रियावेदन या वृत्तिः१४ निमित्तं च यथैर्यापधिक कर्म ॥ क्रियाधिकारादिदमाह योः पौर्वाप वैश्रमणा॥१८॥MI जीवेणं मते ! सया समियं एयति यति चलति फंदइ घइ खुम्भइ उदीरइ तं तं भावं परिणमति, नां चक्रिया मोहन्ता ! मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया समियं एयति जाव तं तं भावं परिणमइ । जावं च णं भंते ! से जीव सू १५६ सया समितं जाव परिणमइ तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवति?, णो तिणडे समहे, से १५२ केण्डेणं भंते ! एवं बुचह-जावं च णं से जीवे सया समितं जाव अंते अंतकिरिया न भवति !, मंडियपुत्ता जावं च णं से जीवे सया समितं जाच परिणमति तावं च णं से जीवे आरंभइ सारंभह समारंभइ आरंभे ४ वह सारंभे वह समारंभे वह आरंभमाणे सारंभमाणे समारंभमाणे आरंभे वहमाणे सारंभे वहमाणे | समारंभे वहमाणे बहूर्ण पाणाणं भूयाणं जीवाणं सत्ताणं दुक्खावणयाए सोयावणयाए जूरावणयाए है अतिप्पावणयाए पिट्टावणयाए परियाणयाए वहा से तेणतुणं मंडियपुत्ता! एवं बुबह-जावं च णं से 5 ॥१८२॥ जीवे सया समियं एयति जाव परिणमति तावं च णं तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया न भवद ॥ जीवे णं भंते ! सया समियं प्रो एयइ जाव नो तं तं भावं परिणमइ ?, हंता मंडियपुत्ता ! जीवे णं सया स अनुक्रम [१८०] SARERatininemarana मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~377~ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५३]] दीप अनुक्रम [१८१] मियं जाच नो परिणमति । जावं च णं भंते ! से जीये नो एयति जाव नो तं तं भावं परिणमति ताचं च | तस्स जीवस्स अंते अंतकिरिया भवह ? हंता ! जाच भवति । सेकेणटेणं भंते! जाव भवति, मंडियपुत्ता! जावं च णं से जीवे सया समियं णो एयति जाव णोपरिणमइ तावं च णं से जीवे नो आरंभइ नोसारंभइ नो समारंभइनो आरंभे वह णो सारंभे वह णो समारंभे वह अणारंभमाणे असारंभमाणे असमारंभमाणे आरंभे अवहमाणे सारंभे अवद्दमाणे समारंभे अवमाणे बहूर्ण पाणाणं ४ अदुक्खावणयाए जाव अपरिया-द है वणयाए वहाद । से जहानामए केइ पुरिसे सुकं तणहत्थयं जायतेयंसि पक्विवेजा, से नूर्ण मंडियपुत्ता ! से सुके तणहत्थए जायतेयंसि पक्वित्ते समाणे खिप्पामेव मसमसाविजह ? हंता ! मसमसाविजइ, से जहानामए-के पुरिसे तत्संसि अयकवल्लंसि उदयविंदू पक्खिवेला, से नूर्ण मंडियपुत्ता ! से उदयविंदू तत्तंसिर अयकवल्लंसि पक्खित्ते समाणे खिप्पामेव विद्धंसमागच्छद ?, हता! विहंसमागच्छद, से जहानामए हरए| सिया पुण्णे पुण्णप्पमाणे वोलहमाणे वोसट्टमाणे समभरघडताए चिट्ठति ?, हंता चिट्ठति, अहे णं केह पुरिसे तंसि हरयंसि एगं महं णावं सतासवं सच्छिदं ओगाहेजा से नूर्ण मंडियपुत्ता ! सा नाया तेहिं आसव&|| दारेहिं आपूरेमाणी २ पुण्णा पुण्णप्पमाणा वोलहमाणा वोसहमाणा समभरघडत्साए चिट्ठति ! हता! चिट्ठति, अहे णे केह पुरिसे तीसे नावाए सब्बतो समंता आसवदाराई पिहेइ २ नास्सिंचणएणं उदयं| उस्सिचिज्जा से नूर्ण मंडियपुसा ! सा नाथा तंसि उदयंसि उस्सिचिजंसि समाणसि खिप्पामेव उहुं उदाह?, SHRELIEatunintentiational मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~378~ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१५३ ] दीप अनुक्रम [१८१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [ १५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥१८३॥ Jain Eucatio मंडितपुत्रस्य प्रश्न: हंता ! उदाइजा, एवामेव मंडियपुता । असत्तासंवुडस्स अणगारस्स ईरियासमियस्स जाव गुप्त्तर्वभयारि| यस्स आउन्तं गच्छमाणरस चिट्टमाणस्स निसीयमाणस्स तुयहमाणस्स आउत्तं वत्थपडिग्गह कंबलपायपुंछणं गेहमाणस्स णिक्खियमाणस्स जाव चक्खुपन्हनिवायमवि बेमाया सुहमा ईरियावहिया किरिया कज्वर, सा पढमसमयबद्धपुट्ठा वितियसमयवेतिया ततियसमयनिज़रिया सा बडा पुट्ठा उदीरिया वेदिया निजिण्णा सेयकाले अकम्मं वावि भवति, तेणद्वेणं मंडियपुत्ता ! एवं बुच्चति- जावं च णं से जीवे सपा समियं नो एयति जाब अंते अंतकिरिया भवति ॥ ( सूत्रं १५३ ) 'जीवे ण'मित्यादि, इह जीवग्रहणेऽपि सयोग एवासौ ग्राह्यः अयोगस्यैजनादेरसम्भवात्, 'सदा' नित्यं 'समियं'ति सप्रमाणं 'एयइ'ति एजते-कम्पते 'एजु कम्पने' इति वचनात् 'वेयर'त्ति 'ब्येजते' विविधं कम्पते 'चलइ'त्ति स्थानान्तरं गच्छति 'फंदर'त्ति 'स्पन्दते' किश्चिच्चलति 'स्पदि किञ्चिचलने' इति वचनात्, अम्यमवकाशं गत्वा पुनस्तत्रैवागच्छतीत्यन्ये 'घर'त्ति सर्वदिक्षु चलति पदार्थान्तरं वा स्पृशति 'खुब्भइति 'शुभ्यति' पृथिवीं प्रविशति क्षोभयति | वा पृथिवीं विभेति वा 'उदीरह' त्ति प्राबल्येन प्रेरयति पदार्थान्तरं प्रतिपादयति वा, शेषक्रियाभेदसग्रहार्थमाह- 'तं तं भावं | परिणमइ'त्ति उत्क्षेपणावक्षेपणाकुञ्चनप्रसारणादिकं परिणामं यातीत्यर्थः, एषां चैजनादिभावानां क्रमभावित्वेन सामान्यतः सदेति मन्तव्यं न तु प्रत्येकापेक्षया, क्रमभाविनां युगपदभावादिति, 'तस्स जीवस्स अंतेत्ति मरणान्ते अंतकिरिय'त्ति | सकलकर्मक्षयरूपा, 'आरंभ'त्ति आरभते पृथिव्यादीनुपद्रवयति 'सारंभ 'त्ति 'संरभते' तेषु विनाशसङ्कल्पं करोति For Penal Use Only ~379~ ३ शतके उद्देशः र क्रियायामअन्तक्रियाभावः सू १५३ ॥१८३॥ yor Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [१५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५३]] दीप अनुक्रम [१८१] 'समारंभाइ'त्ति'समारभते' तानेव परितापयति, आह च-"संकप्पो संरंभो परितावकरो भवे समारंभो । आरंभो उद्दवओ सबनयाणं विसुद्धाणं ॥१॥" इदं च क्रियाक्रियावतः(तोः) कथञ्चिदभेद इत्यभिधानाय तयोः समानाधिकरणतः + सूत्रमुक्तम् , अथ तयोः कथचिनेदोऽप्यस्तीति दर्शयितुं पूर्वोक्तमेवार्थ व्यधिकरणत आह-'आरभे'इत्यादि, आरम्भे-अधि करणभूते वत्तते जीवः, एवं संरम्भे समारम्भे च, अनन्तरोक्तवाक्यार्थद्वयानुवादेन प्रकृतयोजनामाह-आरम्भमाणः 18 संरभमाणः समारभमाणो जीव इत्यनेन प्रथमो वाक्यार्थोऽनूदितः आरम्भे वर्तमान इत्यादिना तु द्वितीयः, 'दुक्खा वणयाए' इत्यादौ ताशब्दस्य प्राकृतप्रभवत्वात् 'दुःखापनायां' मरणलक्षणदुःखपापणायाम् अथवा इष्टवियोगादि दुःखहेतुप्रापणायां वर्तत इति योगः, तथा 'शोकापनाया दैन्यप्रापणायां 'जूरावणताए'त्ति शोकातिरेकाच्छरीरजीर्णता|| प्रापणायां तिप्पावणयाए'त्ति 'तेपापनायां' 'तिपृ टेष क्षरणार्थी' इतिवचनात् शोकातिरेकादेवाश्रुलालादिक्षरणप्राप णायां 'पिट्टावणताए'त्ति पिट्टनप्रापणायां ततश्च परितापनायां शरीरसन्तापे वर्तते, कचित्पठ्यते 'दुक्खावणयाए'इत्यादि, तच व्यक्तमेव, यच्च तत्र 'किलामणयाए उद्दावणयाए' इत्यधिकमभिधीयते तत्र 'किलामणयाए'त्ति ग्लानिनयने । ॐा उद्दावणयाए'त्ति उपासने। उक्तार्थविपर्ययमाहIS 'जीवे ण'मित्यादि, 'णो एयईत्ति शैलेशीकरणे योगनिरोधान्नो एजत इति, एजनादिरहितस्तु नारम्भादिषु वर्तते | तथा च न प्राणादीनां दुःखापनादिषु तथाऽपि च योगनिरोधाभिधानशुक्लध्यानेन सकलकर्मध्वंसरूपाऽन्तक्रिया भवति तत्र १संकल्पो (मनसो) विचारः संरम्भः परितापको भवेत्समारम्भः । अपद्रावयत आरम्भः सर्वेषां विशुद्धनवानाम् ॥ १॥ SARERatantntanational मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~380 Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१५३ ] दीप अनुक्रम [१८१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [ १५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञतिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ १८४॥ दृष्टान्तद्वयमाह - 'से जहे'त्यादि, 'तिणहत्थयं'ति तृणपूलकं 'जायतेयंसि' त्ति वहाँ 'मसम साविज्जह'त्ति शीघ्रं दह्यते, इह च दृष्टान्तद्वयस्याप्युपनयार्थः सामर्थ्य गम्यो, यथा- एवमेजनादिरहितस्य शुक्लध्यान चतुर्थभेदानलेन कर्मदाह्यदहनं | स्यादिति ॥ अथ निष्क्रियस्यैवान्तक्रिया भवतीति नौदृष्टान्तेनाह' से जहाणा मए' इत्यादि, इह शब्दार्थः प्राग्वन्नवरम् + 'उदाइ'त्ति उद्याति जलस्योपरि वर्त्तते 'अत्ततासंबुदस्स' त्ति आत्मन्यात्मना संवृतस्य प्रतिसंलीनस्येत्यर्थः, एतदेव 'इरिया| समियस्से' त्यादिना प्रपञ्चयति- 'आउत्तं'ति आयुक्तमुपयोगपूर्वकमित्यर्थः 'जाव चक्खुपहनिवायमवित्ति किं बहुना आयुक्तगमनादिना स्थूलक्रियाजालेनोक्तेन ? यावच्चक्षुःपक्ष्मनिपातोऽपि प्राकृतत्वाल्लिङ्गव्यत्ययः, उन्मेपनिमेषमात्रक्रियाऽप्यस्ति आस्तां गमनादिका तावदिति शेषः 'वेमाय'त्ति विविधमात्रा, अन्तर्मुहूर्त्तादेर्देशो न पूर्व कोटीपर्यन्तस्य क्रिया| कालस्य विचित्रत्वात्, वृद्धाः पुनरेवमाहु:- यावता चक्षुषो निमेषोन्मेषमात्राऽपि क्रिया क्रियते तावताऽपि कालेन विमात्रया स्तोकमात्रयाऽपीति, क्वचिद्विमात्रेत्यस्य स्थाने 'सपेहाए'ति दृश्यते तत्र च 'स्वप्रेक्षया' स्वेच्छया चक्षुःपक्ष्मनिपातो न तु परकृतः 'सुम'त्ति सूक्ष्मबन्धादिकाला 'ईरियावहिय'ति ईर्यापथ-गमनमार्गस्तत्र भवा ऐर्यापथिकी केवलयो|गप्रत्ययेति भावः 'किरिये ति कर्म सातवेदनीयमित्यर्थः 'कज्जह'त्ति क्रियते भवतीत्यर्थः, उपशान्तमोहक्षीण मोहसयोगिकेवलिलक्षण गुणस्थानक त्रयवतीं वीतरागोऽपि हि सक्रियत्वात्सातवेद्यं कर्म बनातीति भावः, 'से'ति ईर्यापथिकी क्रिया 'पढमसमयबद्धपुद्ध' ति ( प्रथमसमये) बद्धा कर्मतापादनात् स्पृष्टा जीवप्रदेशैः स्पर्शनात्ततः कर्मधारये तत्पुरुषे च सति प्रथमसमयबद्धस्पृष्टा तथा द्वितीयसमये वेदिता - अनुभूतस्वरूपा, एवं तृतीयसमये 'निर्जीर्णा' अनुभूतस्वरूपत्वेन जीवप्रदेशेभ्यः Education Internation मंडितपुत्रस्य प्रश्न: For Parts Only ~381~ ३ शतके उद्देशः ३ [क्रियायामन्तक्रिया"भावः सू १५३ ॥ १८४॥ Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१५३] दीप अनुक्रम [१८१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [ १५३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः परिशादितेति एतदेव वाक्यान्तरेणाह-सा बद्धा स्पृष्टा प्रथमे समये द्वितीये तु 'उदीरिता' उदयमुपनीता, किमुक्तं भवति ?-वेदिता, न ह्येकस्मिन् समये बन्ध उदयश्च संभवतीत्येवं व्याख्यातं तृतीये तु निर्जीर्णा, ततश्च 'सेयकाले 'ति एष्यत्काले 'अकम्मं वावि'त्ति अकर्माऽपि च भवति, इह च यद्यपि तृतीयेऽपि समये कर्माकर्म भवति तथाऽपि तत्क्षण एवातीतभाव कर्मत्वेन द्रव्य कर्मत्वात् तृतीये निर्जीर्ण कर्मेति व्यपदिश्यते, चतुर्थादिसमयेषु त्यकर्मेति, अत्तत्तासंवुडस्से'त्यादिना चेदमुक्त - यदि संयतोऽपि साश्रवः कर्म बनाति तदा सुतरामसंयतः, अनेन च जीवनावः कर्म्मजलपूर्यमाणतयार्थतोऽघोनिमज्जनमुक्तं, सक्रियस्य कर्मबन्धभणनाच्चाक्रियस्य तद्विपरीतत्वात्कर्मबन्धाभाव उक्तः, तथा च जीवनाबोऽनाश्रबताया मूर्द्धगमनं सामर्थ्यादुपनीतमवसेयमिति । अथ यदुक्तं श्रमणानां प्रमादप्रत्यया क्रिया भवतीति, तत्र प्रमादपरत्वं तद्विपक्षत्वात्तदितरत्वं संयतस्य कालतो निरूपयन्नाह- मंडितपुत्रस्य प्रश्न: पत्त संजयस्स णं भंते! पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वावि य णं पमसद्धा कालओ केवचिरं होइ ?, मंडियपुक्ता ! एगजीवं पहुच जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं देणा पुच्बकोडी, णाणाजीवे पहुच सव्वा ॥ अप्पमत्तसंजयस्स णं भंते । अप्पमत्तसंजमे वट्टमाणस्स सव्वावि य णं अप्पमत्तद्वा कालओ केवचिरं होइ ?, मंडियपुत्ता ! एगजीवं पहुच जहनेणं अंतोमुहुतं उक्को० पुब्बकोडी देसॄणा, णाणाजीवे पडुच सम्बद्धं, सेवं भंते । २ सि भयवं मंडियपुत्ते अणगारे समणं भगवं महावीरं बंदर नर्मसह २ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह । ( सूत्रं १५४ ) ॥ Education Internationa For Pale Only ~382~ ayor Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [१५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक . . . . ... . .. . म म ता [१५४] दीप व्याख्या- 'सव्वादियणं पमत्तद्ध'त्ति 'सर्वाऽपि च सर्वकालसम्भवाऽपि च 'प्रमत्ताद्धा' प्रमत्तगुणस्थानककालः 'कालतः' ३ शतके प्रज्ञप्तिः प्रमत्ताद्धासमूहलक्षणं कालमाश्रित्य 'कियचिरं' कियन्तं कालं यावद्भवतीति प्रश्नः, नतु कालत इति वाच्य, उद्देशः३ अभयदान कियधिरमित्यनेनैव गतार्थत्वात् , नैवं, क्षेत्रत इत्यस्य व्यवच्छेदार्थत्वात् , भवति हि क्षेत्रतः कियच्चिरमित्यपि प्रश्नः, यथा मण्डितपुत्र या वृत्तिः वधिज्ञानं क्षेत्रतः कियचिरं भवति?,यविंशत्सागरोपमाणि, कालतस्तु सातिरेका षट्षष्टिरिति, एक समयं ति, कथम् , प्रमत्तकाल: ॥१८५॥ | उच्यते, प्रमत्तसंयमप्रतिपत्तिसमयसमनन्तरमेव मरणात् , 'देसूणा पुवकोडिति किल प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तप्रमाणे एव || सू १५४ प्रमत्ताप्रमत्तगुणस्थानके, ते च पर्यायेण जायमाने देशोनपूर्वकोटिं यावदुत्कर्षेण भवतः, संयमवतो हि पूर्वकोटिरेव परमायुः, स च संयममष्टासु वर्षेषु गतेष्वेव लभते, महान्ति चाप्रमत्तान्तर्मुहूर्त्तापेक्षया प्रमत्तान्तर्मुहर्तानि कल्प्यन्ते, एवं ४ चान्तर्मुहूर्तप्रमाणानां प्रमत्ताद्धानां सर्वासां मीलनेन देशोना पूर्वकोटी कालमानं भवति, अन्ये त्वाः-अष्टवानां पूर्व-13 & कोटिं यावदुत्कर्षतः प्रमत्तसंयतता स्यादिति । एवमप्रमत्तसूत्रमपि, नवरं 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तंति किलाप्रमत्ताद्धायां वर्तमानस्यान्तर्मुहूर्तमध्ये मृत्युनं भवतीति, चूर्णिकारमतं तु प्रमत्तसंयतवर्जः सर्वोऽपि सर्वविरतोऽप्रमत्त उच्यते, प्रमादा| भावात् , स चोपशमश्रेणी प्रतिपद्यमानो मुहाभ्यन्तरे कालं कुर्वन् जघन्यकालो लभ्यत इति, देशोनपूर्वकोटी तु केव लिनमाश्रित्येति ॥'णाणाजीवे पञ्च सव्वद्ध' मित्युक्त, अथ सर्वाद्धाभाविभावान्तरप्ररूपणायाहका भंते ! सि भगवं गोयमे समणं भगवं महावीर वंदह नमसहसा एवं वयासी-कम्हा णं भंते ! लवण समुद्दे चाउद्दसहमुद्दिट्टपुन्नमासिणीसु अतिरेयं वहति वा हापतिवा?, जहा जीवाभिगमे लवणसमुद्दवत्तब्वया अनुक्रम [१८२] ॥१८५॥ SCARE iiiil मंडितपुत्रस्य प्रश्न: ~383~ Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [3], मूलं [१५५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५५]] नयब्वा जाव लोयद्विती, जपणं लवणसमुहे जंबूहीवंर णो उप्पीलेति णो चेव णं एगोदगं करेइ(लोयडिई)लोया-3 णुभाये । सेवं भंते । ति जाव विहरति ।। किरिया समत्ता (सूत्रं १५५)॥ ततियस्स सयस्स तइओ॥३-३|| भन्ते'त्ति इत्यादि, अतिरेगंति' तिथ्यन्तरापेक्षया अधिकतरमित्यर्थः लवणसमुदवत्तवया नेयब'त्ति जीवाभिगमोक्का, किया। ४ा हरं यावदित्याह-जाव लोयढिईत्यादि, सा चैवमर्थतः-कस्माद्भदन्त! लषणसमुद्रश्चतुर्दश्यादिष्यतिरेकेण वर्धते वा हीयते वा?, इह प्रश्ने उत्तरं-लवणसमुद्रस्य मध्यभागे दिक्षु चत्वारो महापातालकलशा योजनलक्षप्रमाणाः सन्ति, तेषां चाधस्तने । त्रिभागे वायुमध्यमे वायूदके उपरितने तूदकमिति, तथाऽन्ये क्षुद्रपातालकलशा योजनसहनप्रमाणाश्चतुरशीत्युत्तराष्टश-| ताधिकसप्तसहस्रसङ्ख्या वाग्वादियुक्तत्रिभागवन्तः सन्ति, तदीयवातविक्षोभवशाजलवृद्धिहानी अष्टम्यादिषु स्याता, तथा लवणशिखाया दशयोजनानां सहस्राणि विष्कम्भः षोडशोच्छ्यो योजनार्द्धमुपरि वृद्धिहानी इत्यादि, अथ कस्मालवणो जम्बूद्वीपं नोप्लावयति ?, अहंदादिप्रभावालोकस्थितिषा इति, एतदेवाह-'लोयट्टिइत्ति लोकव्यवस्था 'लोयाणु| भावे'त्ति लोकप्रभाव इति ॥ तृतीयशते तृतीयोदेशकः ॥३-३॥ दीप अनुक्रम [१८३] SAL A. अनन्तरोदेशके क्रियोक्ता, सा च ज्ञानवता प्रत्यक्षेति तदेव क्रियाविशेषमाश्रित्य विचित्रतया दर्शयंश्चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य चेदं सूत्रम् अणगारे णं भंते ! भावियप्पा देवं विउब्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ? अत्र तृतीय-शतके तृतीय-उद्देशक: समाप्त: अथ तृतीय-शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरभ्यते ~384~ Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६]] दीप व्याख्या ॥ गोपमा ! अत्थेगइए देवं पासइ णो जाणं पासह १ अस्थेगइए जाणं पासह नो देवं पासइ २ अस्धेगइए|४|| ३ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवी देवपि पासह जाणंपि पासइ ३ अगइए नो देवं पासह नो जाणं पासइ ४॥ अणगारे णं भंते ! भावियप्पा उद्देशः ४ यातिदेविं घेउब्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासह, गोयमा! एवं चेव ।। अणगारे णं दवदवीया. भंते ! भावियप्पा देवं सदेवीय वेउब्वियसमुग्धाएणं समोहयं जाणरूवेणं जायमाणं जाणइ पासइ ?,गोयमाला दिः ज्ञानद॥१८६॥ अत्थेगइए देवं सदेवीयं पासइ नो जाणं पासइ, एएणं अभिलावणं चत्तारि भंगा ४ ॥ अणगारे णं भंते शनै साधोः भावियप्पा रुक्खस्स किं अंतो पासइ बाहिं पासइ चउभंगो । एवं किं मूलं पासह कंदं पा०, चउभंगो, मूल सू१५६ पा० खंधं पा० चउभंगो, एवं मूलेणं बीजं संजोएयब्वं, एवं कदेणवि समं संजोएयव्वं जाव बीयं, एवं जाव पुप्फेण 8 समं बीयं संजोएयब्वं ॥ अणगारेणं भंते ! भावियप्पा रुक्खस्स किं फलं पाम्बीयं पा०, चउभंगो॥ (सू०१५६). "अणगारे 'मित्यादि, तत्र 'भाषियप्पत्ति भावितात्मा, संयमतपोभ्यामेवंविधानामनगाराणां हि प्रायोऽवधिज्ञाना-IIM दिलब्धयो भवन्तीतिकृत्वा भावितात्मेत्युक्तं, विउब्वियसमुग्घाएणं समोहयं ति विहितोत्तरवैक्रियशरीरमित्यर्थः दि जाणरूवेणं'ति यानप्रकारेण शिबिकाद्याकारबता वैक्रियविमानेनेत्यर्थः 'जायमाणं'ति यान्तं गच्छन्तं 'जाणइत्ति ज्ञानेन 'पासई' ति दर्शनेन ?, उत्तरमिह चतुर्भङ्गी, विचित्रत्वादवधिज्ञानस्येति । 'अंतोत्ति मध्य काष्ठसारादि । 'बाहिं'ति बहिर्वत्र्ति त्वपत्रसञ्चयादि, 'एवं मूलेण'मित्यादि, 'एव'मिति मूलकन्दसूत्राभिलापेन मूलेन सह कन्दा-1 | दिपदानि वाच्यानि याबद्वीजपदं, तत्र मूलं १ कन्दः २ स्कन्धः ३ त्वक् ४ शाखा ५ प्रवालं ६ पत्रं ७ पुष्पं बाद। CREACOCKRRCREASCHAR अनुक्रम [१८४] SARERainintamaraana ~385 Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५६]] द्विकसंयोगाः ४५ की. ॥ फलं ९ बीज १० चेति दश पदानि, एषां च पञ्चचत्वारिंशविकसयोगाः, एतावन्त्येवेह चतुर्भङ्गीसूत्राण्यध्येयानीति ॥ Faro. .9000 एतदेव दर्शयितुमाह-एवं कंदेE00000 णवी'त्यादि ।। 'देवं विउवियsurururur',vvie पर urvaoneyurvoor0yurv3 समुग्धाएण समाहयातमागुफा marwana.oralerrrrrrrrrमता वक्रियाधिकारादिदमाह| पभू णं भंते । वाउकाए एगं महं इस्थिरूवं वा पुरिसरुवं वा हत्थिरूवं वा जाणरूवं वा एवं जुग्गगिल्लि-13 थिल्लिसीयसंदमाणियरूवं वा विउवित्तए १, गोयमा ! णो तिणढे समढे, वाउकाएक विकुब्बमाणे एग महं पडागासंठियं रूवं विकुब्बइ । पभू णं भंते ! वाउकाए एगं महं पडागासंठियं रूवं बिउब्वित्ता अणेगाइं जोयणाई गमित्तए ?, हंता ! पभू । से भंते ! किं आयड्डीए गच्छद परिडीए गच्छद, गोयमा ! आयडीए गणो | परिड्डीए ग० जहा आयडीए एवं चेव आयकम्मुणावि आयप्पओगेणवि भाणियब्धं । से भंते ! किं ऊसिओदगं गच्छह पयतोदगं गः, गोयमा ! फसिओदयंपिग पयोदयंपि ग०, से भंते ! कि एगओपडागं गच्छइ दुहुओपडागं गच्छद, गोयमा ! एगओ पडागं गच्छद नो दुहओ पडागं गच्छद, से णं भंते ! किं वाउकाए | पड़ागा ?, गोयमा ! वाउकाए णं से नो खलु सा पडागा॥ (सूत्र १५७)पभू णं भंते ! बलाहगे एग महं इत्थिरूवं BARASANS-5SASE दीप अनुक्रम [१८४] SAREDuration ~386~ Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१५७ -१५८] दीप अनुक्रम [१८५-१८६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१५७-१५८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्ति: अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ १८७॥ Xxxx | वा जाव संदमाणियरूवं वा परिणामेत्तए ?, हंता पभू । पभू णं भंते बलाहए एवं महं इथिरूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए १, हंता पभू से भंते! किं आयडीए गच्छ परिहीए गच्छह, गोषमा ! नो आयहीए गच्छति, परिडीए ग० एवं नो आयकम्मुणा परकम्मुणा नो आयपओगेणं परप्पओगेणं ऊसितोदयं वा गच्छ पयोदयं वा गच्छर से भंते । किं बलाहए इत्थी ?, गोपमा ! बलाहए णं से णो खलु सा इत्थी, एवं | पुरिसेण आसे हत्थी |पभू णं भंते! बलाहए एवं महं जाणरूवं परिणामेत्ता अणेगाई जोयणाई गमित्तए जहा इत्थित्वं तहा भाणियचं, नवरं एमओचकवालंपि दुहओचक्कवालंपि गच्छइ (ति) भाणियव्वं, जुग्गगिल्लिधिलिसीयासंमाणियाणं तहेव || (सूत्रं १५८ ) 'पभू ण' मित्यादि, 'जाणं'ति शकटं 'जुग्गं'ति गोल्लविषयप्रसिद्धं जम्पानं द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितं 'गेल्लि'ति हस्तिन उपरि कोलररूपा या मानुषं गिलतीव 'थिल्ली'ति लाटानां यदश्वपल्यानं तदन्यविषयेषु थिल्लीत्युच्यते 'सिय'ति शिविका कूटाकाराच्छादितो जॅम्पानविशेषः 'संदद्माणिय' ति पुरुषप्रमाणायामो जम्पान विशेषः 'एवं महं पडागासंठियं ति महत् पूर्वप्रमाणापेक्षया पताकासंस्थितं स्वरूपेणैव वायोः पताकाकारशरीरस्याद् वैक्रियावस्थायामपि तस्य तदाकारस्यैव भावादिति, 'आइहिए' त्ति 'आत्म' आत्मशक्याऽऽत्मलब्ध्या वा 'आयकम्मुण'त्ति आत्मक्रियया 'आयप्पओगेणं' ति न परप्रयुक्त इत्यर्थः, 'ऊसिओ दयं ति, उच्छृत ऊर्द्धम् उदय- आयामो यत्र गमने तदुच्छ्रितोदयम्, ऊर्द्ध्वपताकमित्यर्थः, क्रियाविशेषणं चेदं, 'पतोदयं'ति पतदुदयं पतितपताकं गच्छति, ऊर्ध्वपताका स्थापना चेयम्, पतितपताकास्थापना त्वियम्-, 'एग Educatin internation For Parts Only ~387~ ३ शतके उद्देशः ४ वातवलाहकयोर्वेंक्रिय सू १५७. १५८ ॥ १८७॥ Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१५७-१५८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५७-१५८] दीप अनुक्रम [१८५-१८६] ॥ ओपडाग'ति एकतः-एकस्यां दिशि पताका यत्र तदेकतःपताक, स्थापना त्वियम्-, दुहओपड़ागति द्विधापताक, स्थापना-19 त्वियम्- । रूपान्तरक्रियाधिकाराद्वलाहकसूत्राणि-'बलाहए'त्ति मेघः परिणामेसएत्ति बलाहकस्याजीवत्वेन विकुर्वणाया। असम्भवात् परिणामयितुमित्युक्त, परिणामश्चास्य विश्रसारूपः, 'नो आयडीए'त्ति अचेतनत्वान्मेघस्य विवक्षितायाः शक्तरभावानात्मा गमनमस्ति, वायुना देवेन वा प्रेरितस्य तु स्यादपि गमनमतोऽभिधीयते-परिडीए'त्ति, एवं 'पुरिसे | आसे हथि'त्ति स्त्रीरूपसूत्रमिव पुरुषरूपाश्वरूपहस्तिरूपसूत्राण्यध्येतव्यानि, यानरूपसूत्रे विशेषोऽस्तीति तदर्शयति-प| शाणं भंते ! बलाहए एगे महं जाणरूवं परिणामेत्ता' इत्यादि 'पतोदयंपि गच्छई' इत्येतदन्त स्त्रीरूपसूत्रसमानमेव, | | विशेषः पुनरयम्-'से भंते ! किं एगओचकवालं दुहओचकवालं गच्छइ, गोयमा! एगोचकवालंपि गच्छद दुहोचकवालंपि गच्छत्ति, अस्यैवोत्तररूपमंशमाह-नवर 'एगओं' इत्यादि, इह यानं-शकर्ट चक्रवाल-चक्र, शेषसूत्रेषु त्वयं विशेषो नास्ति, शकट एव चक्रवालसद्भावात् , ततश्च युग्यगिल्लिथिल्लिशिबिकास्यन्दमानिकारूपसूत्राणि स्त्रीरूपसूत्रवदध्येयानि, एतदेवाह-'जुग्गगिल्लिथिल्लिसीयासंदमाणियाणं तहेव'त्ति ॥ परिणामाधिकारादिदमाह जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उचवजित्तए से णं भंते ! किलेसेसु उववजति ?, गोयमा! जल्लेसाई ॥४॥ दब्वाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववजइ, तं०-कण्हलेसेसु वा नीललेसेसु वा काजलेसेसु वा, एवं जस्स जा लेस्सा सा तस्स भाणियब्वा जाव जीवे णं भंते ! जे भविए जोतिसिएसु उववजित्तए ? पुच्छा, | गोयमा ! जल्लेसाई दबाई परियाइतिरत्ता कालं करेइ तल्लेसेसु उववजइ, सं०-तेउलेस्सेसु । जीवे णं भंते ! Hereasaram.org ~388~ Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१५९ ] दीप अनुक्रम [१८७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [ १५९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥१८८॥ जे भविए बेमागिएसु उववज्जिन्त्तए से णं भंते! किंलेस्सेसु उववज्जइ ?, गोयमा ! जल्लेस्साई दुब्वाई परियाइसा कालं करेइ तल्लेसेसु उववज्जह, तं० तेउलेस्सेसु वा पहलेसेसु वा सुक्कलेसेसु वा ॥ ( सूत्रं १५९ ) 'जीवे ण' मित्यादि, 'जे भविए'त्तियो योग्यः 'किंलेसेस'त्ति का कृष्णादीनामन्यतमा लेश्या येषां ते तथा तेषु किंलेश्येषु मध्ये, 'जल्लेसाई'ति या लेश्या येषां द्रव्याणां तानि यल्लेयानि यस्या लेश्यायाः सम्बन्धीनीत्यर्थः, 'परियाहत्त'त्ति पर्यादाय परिगृह्य भावपरिणामेन कालं करोति खियते तश्येषु नारकेषूत्पद्यते भवन्ति चात्र गाथा:- "संवाहिं लेसाहिं पढमे समयंमि परिणयाहिं तु । नो करसवि उबवाओ परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ १ ॥ सचाहिं लेसाहिं चरमे समयंमि | परिणयाहिं तु । नो कस्सवि उववाओ परे भवे अस्थि जीवस्स ॥ २ ॥ अंतमुहुर्त्तमि गए अंतमुहुर्त्तमि सेसए चैव । लेस्साहिं परिणयाहिं जीवा गच्छन्ति परलोयं ॥ ३ ॥ चतुर्विंशतिदण्डकस्य शेषपदान्यतिदिशन्नाह - 'एवमित्यादि, 'एव मिति नारकसूत्राभिलापेनेत्यर्थः 'जस्स'त्ति असुरकुमारादेर्या लेश्या कृष्णादिका सा लेश्या तस्यासुरकुमारादेर्भणितव्येति । नन्येतावतैव विवक्षितार्थसिद्धेः किमर्थं भेदेनोकं 'जाव जीवे णं भंते (जोइसिए) इत्यादि, उच्यते, दण्डक पर्यवसानसूत्रदर्शनार्थम् एवं तर्हि वैमानिकसूत्रमेव वाच्यं स्यान्न तु ज्योतिष्कसूत्रमिति, सत्यं, किन्तु ज्योतिष्कवैमानिकाः प्रशस्त १ सर्वांस यासु प्रथमसमयपरिणतासु । न कस्याप्युपादः परस्मिन् भवेऽस्ति जीवस्य ॥ १ ॥ सर्वासु लेश्या परिणत चरमसम | यासु । न० ॥ २ ॥ अन्तर्मुहूर्ते गते अन्तर्मुहूर्ते शेष एव । लेश्यापरिणामे जीवा गच्छन्ति परलोकम् ॥ ३ ॥ Education international For Parts Only ~389~ ३ शतके उद्देशः ४ पूर्वभवले श्यापरभवे सू १५९ ॥१८८॥ ra Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१५९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१५९] दीप अनुक्रम [१८७] लेश्या एव भवन्तीत्यस्य दर्शनार्थ तेषां भेदेनाभिधानं, विचित्रत्वाद्वा सूत्रगतेरिति ॥ देवपरिणामाधिकारादनगाररूपद्र व्यदेवपरिणामसूत्राणिKI अणगारे णं भंते ! भावियपा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू वेभारं पब्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए या?, गोयमा ! णो तिणढे समझे । अणगारे णं भंते ! भावियप्पा वाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू वेभारं पब्वयं उल्लंघेत्तए वा पलंघेत्तए वा ?, हंता पभू । अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरिया-18 है इत्ता जावइयाई रायगिहे नगरे रूवाई एवइयाई विकुवित्ता वेभारं पव्वयं अंतो अणुप्पविसित्ता पभू सम वा विसमं करेत्तए विसमं वा समं करेत्तए?, गोयमा ! णो इणढे समढे, एवं चेव वितिओऽवि आलावगो रणवरं परियातित्ता पभू ॥ से भंते ! किं माई विकुब्वति अमाई विकुब्बा, गोयमा! माहें विकुब्बइ नो ||४|| अमाई विकुब्वति, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव नो अमाई विकुब्वह?, गोयमा! माईए पणीयं पाणभोयणं भोचा २ वामेति तस्स णं तेणं पणीएणं पाणभोयणेणं अहि अद्विमिजा यहलीभवंति पयणुए मंससोणिए भवति, जेविय से अहाबायरा पोग्गला तेविय से परिणमंति, तंजहा-सोतिदियत्ताए जाव फासिं-18 दियत्ताए अहिअद्विमिंजकेसमंसुरोमनहत्ताए मुक्त्ताए सोणियत्ताए, अमाईणं लूहं पाणभोयणं भोचा २णो वामेइ, तस्स णं तेणं लूहेणं पाणभोयणेणं अहिअद्विमिजा. पयणु भवति बहले मंससोणिए, जेविय से अहाबादरा पोग्गला तेविष से परिणमंति, तंजहा-उच्चारत्ताए पासवणत्ताए जाव सोणियत्ताए, से तेणटेणं जाव ~390 Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: द प्रत सूत्रांक [१६०] दीप अनुक्रम [१८८] व्याख्या- 1नो अमाई विकुब्बइमाईणं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ नत्यि तस्स आराहणा। अमाई ४३ शतके प्रज्ञप्तिः तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकते कालं करेइ अस्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते ! सेयं भंते ! सि & उद्देशः४ अभयदेवी ट्रा मा( सूत्रं १६०)। तईयसए चउत्थो उद्देसो समत्तो ३-४॥ माय्यमा यिनोर्विकु2 'बाहिरपत्ति औदारिक शरीरव्यतिरिक्तान् वैक्रियानित्यर्थः 'वेभारंति वैभाराभिधानं राजगृहक्रीडापर्वतं 'उल्लंधि वणेतरे ॥१८९॥ सए वे'त्यादि तत्रोलनं सकृत् प्रल हुन पुनः पुनरिति, 'णो इणढे सम8'त्ति वैक्रियपुद्गलपयर्यादानं विना वैक्रियकरण- सू१६० स्वैवाभावात् , बाह्यपुद्गलपर्यादाने तु सति पर्वतस्योलनादौ प्रभुः स्यात्, महतः पर्वतातिकामिणः शरीरस्य सम्भवादिति, 'जावइयाई इत्यादि यावन्ति रूपाणि पशुपुरुषादिरूपाणि 'एवइयाई ति एतावन्ति 'विउवित्त'त्ति वैक्रियाणि । कृत्वा वैभारं पर्वतं समं सन्तं विषमं विषमं तु समं कर्तुमिति सम्बन्धः, किं कृत्वत्याह-'अन्तः' मध्ये वैभारस्यैवानुप्र|विश्य ॥ 'मायी'ति मायावान , उपलक्षणस्वादस्य सकषायः प्रमत्त इतियावत् , अप्रमत्तो हिन वैक्रियं कुरुत इति, पणीय' ति प्रणीतं गलत्स्नेहविन्दुक भोचा भोचा वामेति' वमनं करोति विरेचना वा करोति वर्णवलाधर्थ, यथा प्रणीतभोजनं | तद्वमनं च विक्रियास्वभावं मायित्वाद्भवति एवं वैक्रियकरणमपीति तात्पर्य, 'बहलीभवन्ति'धनीभवन्ति, प्रणीतसामयात् , 'पयणुए'त्ति अपनम् 'अहावायर'त्ति यथोचितबादराः आहारपुद्गला इत्यर्थः परिणमन्ति श्रोत्रेन्द्रियादित्वेन, ॥१८९|| | अन्यथा शरीरस्य दायोसम्भवात् , लूह'ति रूक्षम्' अप्रीणितं नोवामेइ'त्ति अकषायितया विक्रियायामनार्थति]त्वात् , | 'पासवणत्ताए' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'खेलत्ताए सिंघाणत्ताए वंतताए पित्तत्ताए पूयत्ताए'त्ति, रूक्षभोजिन उच्चा +44-45 ~391~ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [१६०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६०] 25AGCSC ACASS रादितयैवाहारादिपुद्गलाः परिणमन्ति अन्यथा शरीरस्यासारताऽनापत्तेरिति ॥ अथ माय्यमायिनोः फलमाह-माई - | मित्यादि, 'तस्स ठाणस्सत्ति तस्मात्स्थानाद्विकुर्वणाकरणलक्षणात्मणीतभोजनलक्षणाद्वा, 'अमाई ण'मित्यादि, पूर्व मायित्वादै क्रियं प्रणीतभोजनं वा कृतवान् पश्चाजातानुतापोऽमायी सन् तस्मात्स्थानादालोचितप्रतिक्रान्तःसन् कालं करोति यस्तस्यास्त्याराधनेति ॥ तृतीयशते चतुर्थः ॥ ३-४ ॥ दीप अनुक्रम [१८८] -25645 चतुर्थोद्देशके विकुर्वणोक्ता, पञ्चमेऽपि तामेव विशेषत आह अणगारे ण भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एग महं इस्थिरूवं वा जाव संदमाणि5 यरूवं या विउवित्तए ? णो ति०, अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू एग महं| इत्थिरूवं वा जाव संदमाणियरूवं वा विउवित्तए ?, हंता पभू, अणगारे णं भंते ! भावि० केवतियाई पभू इत्थिरूवाई विकुवित्तए ?, गोयमा ! से जहानामए जुवई जुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा चफस्स वा नाभी अरगा उत्तासिया एवामेव अणगारेवि भावियप्पा वेब्वियसमुग्घाएणं समोहणइ जाव पभूणं गोयमा। अणगारेणं भाबियप्पा केवलकप्पं जंबूद्दीवं बहहिं इत्थीरूवेहिं आइन्नं वितिकिन्नं जाव एस णं गोयमा ! अण-15 गारस्स भावि० अयमेयारुवे विसए विसयमेत्ते बुधइ नो चेव णं संपत्तीए विकुम्धिसु वा ३, एवं परिवाडीए नेयव्वं जाव संदमाणिया। से जहानामए केइ पुरिसे असिचम्मपाय गहाय गच्छेजा एवामेव भावियप्पा अण NAGAR ॐ A asurary.com अत्र तृतीय-शतके चतुर्थ-उद्देशकः समाप्त: अथ तृतीय-शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते ~392~ Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१६१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] दीप अनुक्रम [१८९] व्याख्या- गारेवि असिचम्मपायहत्यकिचगएणं अप्पाणेणं उहुं वेहासं उप्पइजा ?, हंता उप्पइज्जा, अणगारे णं भंते ! ३ शतके मज्ञप्तिःभा |भावियप्पा केवतियाई पभू असिचम्मपायहत्यकिचगयाई रुवाई विउवित्तए?, गोयमा ! से जहानामए-जुवति । 18| उद्देशः५ अभयदेवीजुवाणे हत्थेणं हत्थे गेण्हेजा तं चेव जाच विउब्बिसु वा ३ । से जहानामए केइ पुरिसे एगओपडागं काउं साधोख्या या वृत्तिः१ | दिविकुर्व गच्छेजा, एवामेव अणगारेवि भावियप्पा एगओपडागहत्यकिच्चगएणं अप्पाणेणं उर्दु वेहासं उप्पएज्जा ? णावादि॥१९०॥ हंता गोयमा ! उप्पएज्जा, अणगारेणं भंते ! भाचियप्पा केवतियाई पभू एगओपडागाहस्थकिञ्चगयाई रूवाई प्रवेशः विकुब्वित्तए ? एवं चेव जाव विकुब्धिसु वा ३ । एवं दुहओपडागपि । से जहानामए-केर पुरिसे एगओ-3सू १६१ जंनोचइत का गच्छेज्जा, एषामेव अण. भा०एगओजण्णोवइयकिचगएणं अप्पाणणं उहुं वेहासं उप्पएजा ४|| हता! उप्पएज्जा, अणगारेणं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू एगओजपणोवइयकिचगयाई रूवाई विकु- वित्तए तं चेव जाब विकुब्बिसु वा ३, एवं दुहओजण्णोवइयंपि । से जहानामए-केर पुरिसे एगओ पल्हत्थियं का चिट्ठेजा, एवामेव अणगारेवि भावियप्पा एवं चेव जाव विकुब्बिसु वा ३ एवं दुहओ पलियंक ॥१९ ॥ मापि। अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाहत्ता पम् एग महं आसरूवं वा हस्थिरूवं वा|| || सीहरूवं वा बग्यवगदीषियअच्छतरच्छपरासरस्वं वा अभिजुंजिसए, णो तिणद्वे समढे, अणगारे णं एवं पाहिरए पोग्गले परियादित्ता पभू । अणगारे णं भंते! भा० एग महं आसरूवं चा अभिजुंजित्ता अणेगाई काजोयणाई गमित्तए ? हंता! पभू, से भंते ! किं आयडीए गच्छति परिडीए गच्छति ?, गोयमा! आइडीए ~393 Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१६१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] ॐ454545454 गाथा गच्छद नो परिडीए, एवं आय कम्मुणा नो परकम्मुणा आपप्पओगेणं नोपरप्पओगेणं उस्सिओदयं वा गच्छइ || पयोदगं वा गच्छह । से भंते ! किं अणगारे आसे?, गोयमा ! अणगारे णं से नो खलु से आसे, एवं | जाव परासरस्वं वा । से भंते ! किं मायी विकुब्वति अमा यी चिकुव्वति!, गोयमा ! मायी विकुम्वति नो अमायी विकुब्वति, माई णं भंते ! तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालं करेइ कहिं उबवजति ?, गोयमा! अन्नयरेसु आभियोगेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववजह, अमाई णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकंते कालं करेह कहिं उचवज्जति ?, गोयमा ! अन्नयरेसु अणाभिओगेसु देवलोगेसु देवत्ताए उववज्जइ, सेवं भंते २ त्ति, & गाहा-इत्थीअसीपडागा जण्णोवइए य होइ योदब्वे । पलहस्थियपलियंके अभिओगविकुब्वणा माई ॥१॥ (सूत्रं १६१)तईए सए पंचमो उद्देसो समत्सो ३-५॥ 'अणगारे ण'मित्यादि, 'असिचम्मपायं गहाय'त्ति असिचर्मपात्रं-स्फुरकः, अथवाऽसिश्च-खगः चर्मपात्रं चस्फुरकः खड्गकोशको वा असिचर्मपात्रं तद् गृहीत्वा 'असिचम्मपायहत्थकिचगएणं अप्पाणेणं'ति असिचर्मपात्रं हस्ते यस्य स तथा कृत्य-सादिप्रयोजनं गतः-आश्रितः कृत्यगतः ततः कर्मधारयः, अतस्तेनास्माना, अथवाऽसिचर्मपात्रंट कृत्वा हस्ते कृतं येनासौ असिचर्मपात्रहस्तकृत्वाकृतस्तेन, प्राकृतत्वाच्चैवं समासः, अथवाऽसिचर्मपात्रस्य हस्तकृत्या-हस्तकरणं गतः-प्राप्तो यः स तथा तेन, 'पलियंक ति आसनविशेषः प्रतीतश्च 'वग'त्ति वृकः 'दीविय'त्ति चतुष्पदविशेषः 'अच्छत्ति ऋक्षः 'तरकति ब्याप्रविशेषः 'परासरति सरभः, इहान्यान्यपि शृगालादिपदानि वाचनान्तरे दृश्यन्ते । दीप अनुक्रम [१८९-१९०] ANSAREERACK ~394 Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [१६१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६१] गाथा व्याख्या-3'अभिजुंजित्तए'त्ति 'अभियोक्तुं' विद्यादिसामर्थ्यतस्तदनुप्रवेशेन व्यापारयितुं, यच स्वस्थानुप्रवेशनेनाभियोजन तद्वि शतके प्रज्ञप्तिः धादिसामोपात्तबायपुद्गलान् विना न स्यादितिकृत्वोच्यते-'नो बाहिरए पुग्गले अपरिपाइस'त्ति । 'अणगारेणं से उद्देशः६ अभयदेवी-त्ति अनगार एवासी तत्त्वतोऽनगारस्यैवाश्चाद्यनुप्रवेशेन व्याप्रियमाणत्वात् । 'माई अभिर्जुजइति कषायवानभियुङ्गा सम्यग्मिया वृत्तिःS IN इत्यर्थः, अधिकृतवाचनायो 'माई विउवई'त्ति दृश्यते, तत्र चाभियोगोऽपि विकुर्वणेति मन्तव्यं, विक्रियारूपत्वात्तस्येति, ध्याहशोःस ॥१९॥ |'अण्णयरेसुति आभियोगिकदेवा अच्युतान्ता भवन्तीतिकृत्वाऽन्यतरेष्वित्युक्तं, केषुचिदित्यर्थः, उत्पद्यते चाभियोजन-5 मुद्धातेत. भावनायुक्तः साधुराभियोगिकदेवेषु, करोति च विद्यादिलब्ध्युपजीवकोऽभियोगभावना, यदाह-"मंता जोगं काउं भूई-प्यातयाष धौ सू १६२ कम्मं तु जो पउंजेति । सायरसइतिहेउ अभिओगं भावणं कुणइ ॥ १॥" 'इत्थी'त्यादिसङ्ग्रहगाथा गतार्था ॥ इति || | तृतीयशते पञ्चमः ॥ ३-५॥ विकुर्वणाऽधिकारसंबद्ध एव षष्ठ उद्देशका, तस्य चादिसूत्रम्अणगारेण भंते ! भावियप्पा माई मिच्छट्टिी वीरियलडीए वेउम्वियलद्धीप विभंगनाणलद्धीए चाणारसिंx ॥१९॥ नगरि समोहए समोहणिता रायगिहे नगरे ख्वाई जाणति पासति ?, हंता जाणइ पासह । से भंते । किंतहाभाचं जाण पा० अन्नहाभावं जा० पा०, गोयमा ! णो तहाभावं जाण. पा० अण्णहाभावं जा० पा०11 १ मन्नान् योगांश्च कृत्वा सातरसचिहेतोः मूतिदानं यः प्रयोजयति स आभियोगिका भावनां करोति ॥ १ ॥ दीप अनुक्रम [१८९-१९०] 64564% 84-5 अत्र तृतीय-शतके पंचम-उद्देशक: समाप्त: अथ तृतीय-शतके षष्ठं-उद्देशक: आरभ्यते ~395 Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१६२ -१६३] दीप अनुक्रम [१९१ -१९२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [ १६२ - १६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ नो तहाभावं जा० पा० अन्नहाभावं जाण० पा० १, गोयमा ! तस्स णं एवं | भवति एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रुवाई जाणामि पासामि, से | से दंसणे विवचासे भवति, से तेण्डेणं जाव पासति । अणगारे णं भंते! भावियप्पा माई मिच्छदिट्ठी जाव रायगिहे नगरे समोहए समोहणित्ता वाणारसीए नगरीए रुवाई जाणइ पासह ?, हंता जाणइ पासह, तं चैव जाब तस्स णं एवं होइ एवं खलु अहं वाणारसीए नगरीए समोहए २ रायगिहे नगरे रुवाई जाणामि पासामि, से से दंसणे विवञ्चासे भवति, से तेणद्वेणं जाव अन्नहाभावं जाणइ पास || अणगारे णं भंते! | भावियप्पा माई मिच्छदिट्ठी वीरियलद्वीप वेडब्बियलडीए विभंगणाणलद्वीए वाणारसिं नगरि रायगिहं च नगरं अंतरा एवं महं जणवयवग्गं समोहए २ वाणारसिं नगरिं रायगिहं च नगरं अंतरा एवं महं जणवयवग्गं जाणति पासति से भंते । किं तहाभावं जाणइ पासह अन्नहा भाव जाणइ पा० १, गोयमा ! णो तहाभावं जाणति पासइ अन्नहाभावं जाणइ पासह, से केणद्वेणं जाव पासइ ?, गोयमा ? तस्स खलु एवं भवति एस खलु वाणारसी [ए] नगरी एस खलु रायगिहे नगरे एस खलु अंतरा एगे महं जणवयवग्गे नो खलु एस | महं वीरियलद्धी वेडव्वियलद्धी विभंगनाणल० इही जुत्ती जसे वले वीरिए पुरिसकारपरमे लदे पत्ते अभि समण्णागए, से से दंसणे विवचासे भवति, से तेणहेणं जाव पासति ॥ अणगारे णं भंते! भावियप्पा अमाई सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए बेउब्वियलद्धीए ओहिनाणलद्वीप रायगिहे. नगरे समोहए २ वाणारसीए नगरीए Education international For Parts Only ~ 396~ Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१६२-१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६३] दीप अनुक्रम [१९१-१९२] व्याख्या-13 रूवाई जाणइ पासइ?, हंता, से भंते! किं तहाभाचं जाणइ पासइ अन्नहाभा जाणति पासति , गोयमा ३ शतके प्रज्ञप्तिः तहाभाव जाणति पासति नो अन्नहाभावं जाणति पासति, से केणद्वेणं भंते! एवं वुचइ ?, गोषमा ! तस्स णं | 81 अभयदेवी एवं भवति-एवं खलु अहं रायगिहे नगरे समोहणिता वाणारसीए नगरीए रूवाई जाणामि पासामि, से सम्यग्मि MER यावृत्तिा से दसणे अविवचासे भवति, से तेजटेणं गोयमा! एवं बुद्धति, बीओ आलावगो एवं चेव नवरं वाणार- मुदपातेत॥१९॥ सीए नगरीए समोहणा नेयब्बा रायगिहे नगरे स्वाईजाणइ पासइ । अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अ-॥४थ्यातथ्यौपमाई सम्मदिट्ठी वीरियलद्धीए वेउब्वियल द्वीए ओहिनाणलडीए रायगिह नगरं वाणारसिं नगरिं च अंतराएगधौ सू १६२ महं जणवयवग्गं समोहए २ रायगिहं नगरं वाणारसिं च नगरिं तं च अंतरा एगं महं जणवयवग्गं जाणा पासइ, हंता जा० पा०, से भंते ! किं तहाभाव जाणइ पासइ अन्नहाभावं जाणइ पासइ, गोयमा। |तहाभा जाणइ पा०, णो अन्नहाभावंजा पा०, से केणडेणं ? गोषमा तस्स णं एवं भवति-नो खलु एस रायगिहेणगरेणो खलु एस वाणारसी नगरी नो खलुएस अंतरा एगे जणवयवग्गे एस खलु ममं वीरियलद्धी| वेउब्बियलद्धी ओहिणाणलद्वी इवी जुत्ती जसे बले वीरिए पुरिसकारपरकमे लद्धे पसे अभिसमनागए से से दसणे अविवचासे भवति से तेणढणं गोयमा! एवं बुचति तहाभावं जाणति पासति नो अन्नहाभा जाणति पासति । |अणगारे णं भंते ! भावियप्पा बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एर्ग महंगामरूवं वा नगररूवं वा जाव सन्निवेसरूवं वा विकुवित्तए, णो तिगढे समढे, एवं विति ओवि आलावगो, णवरं बाहिरए पोग्गले परि ॥१९२॥ ~397~ Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१६२ -१६३] दीप अनुक्रम [१९१ -१९२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [ १६२ - १६३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः याइता पभू । अणगारे णं भंते! भावियप्पा केवतियाई पभू गामरूवाई विकुव्वित्तए ?, गोयमा ! से जहानामए जुवतिं जुवाणे हस्थेणं हत्थे गेण्हेज्जा तं चैव जाव विकुव्विसुवा ३ एवं जाव सन्निवेसरूवं वा ॥ ( सूत्रं १६३ ) 'अणगारे ण'मित्यादि, अनगारो गृहवासत्यागाद् भावितात्मा स्वसमयानुसारिप्रशमादिभिः मायीत्युपलक्षणत्वात्कपायवान्, सम्यग्दृष्टिरप्येवं स्यादित्याह - मिथ्यादृष्टिरन्यतीर्थिक इत्यर्थः, वीर्यलब्ध्यादिभिः करणभूताभिः 'वाणारसिं नगरिं समोहए'त्ति विकुर्वितवान्, राजगृहे नगरे रूपाणि पशुपुरुषप्रासादप्रभृतीनि जानाति पश्यति विभङ्गज्ञानलब्ध्या 'नो तहा भावं'ति यथा वस्तु तथा भावः- अभिसन्धिर्यत्र ज्ञाने तत्तथाभावं अथवा यथैव संवेद्यते तथैव भावो-बाह्यं वस्तु यत्र तत्तथाभावं, अन्यथा भावो यत्र तदन्यथाभावं क्रियाविशेषणे चेमे, स हि मन्यते - अहं राजगृहं नगरं समवहतो वाराणस्यां रूपाणि जानामि पश्यामीत्येवं 'से'त्ति तस्यानगारस्येति 'से' ति असौ दर्शने विपर्यासो विपर्ययो भवति, अन्यदी|यरूपाणामन्यदीयतया विकल्पितत्वात्, दिग्मोहादिव पूर्वामपि पश्चिमां मन्यमानस्येति, क्वचित् 'से से दंसणे विवरीए विवचासेति दृश्यते तत्र च तस्य तद्दर्शनं विपरीतं क्षेत्र व्यत्ययेनेति कृत्वा विपर्यासो- मिथ्येत्यर्थः । एवं द्वितीयसूत्रमपि ॥ तृतीये तु 'वाणारसिं च नगरिं रायगिहं नगरं अंतरा य एवं महं जणवयवग्गं समोहए त्ति वाणारसीं राजगृहं तयोरेव चान्तरालवर्त्तिनं 'जनपदवर्ग' देशसमूहं समवहतो विकुर्वितवान् तथैव च तानि विभङ्गतो जानाति पश्यति केवलं नो तथाभावं यतोऽसौ वैक्रियाण्यपि तानि मन्यते स्वाभाविकानीति, 'जसे 'त्ति यशोहेतुत्वाद्यशः, 'नगरेरुवं वा' इह Ja Education International For Parts Only ~398~ Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [9], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१६२-१६३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६२ -१६३] ॥१९॥ तिःसू१६३ व्याख्या- यावत्करणादिदं दृश्य-निगमरूवं वा रायहाणिरूर्व वा खेडरूवं वा कटबडरूवं वा मडंवरूवं वा दोणमुहरूवं वा पट्टणरूवं शतके प्रज्ञप्तिः४वा आगररूवं वा आसमरूवं वा संघाहरूवं वत्ति । विकुर्बणाधिकारात्तत्तत्समर्थदेवविशेषप्ररूपणाय सूत्राणि उद्देशः ६ अभयदेवी विभगवतो या वृत्तिः१४॥ Ka|| चमरस्स गंभंते असुरिंदस्स असुररन्नो कति आयरक्खदेवसाहस्सी पपणत्तागोयमा चत्तारि चजसडीओ विक्रियेऽन्य आयरक्खदेवसाहस्सीओ पण्णत्ताओ, तेणं आयरक्खा वण्णओ जहा रायप्पसेणइजे, एवं सम्वेर्सि इंदाणं माथात्वावग जस्स जत्तिया आयरक्खा भाणियव्या । सेवं भंते २॥ (सूत्रं १६४)। तयसए छहो उद्देसो समत्तो॥३-६॥ IMI 'वष्णओ'त्ति आत्मरक्षदेवानां वर्णको वाच्यः, स चायम्-'सन्नद्धबद्धवम्मियकवयउप्पीलियसरासणपट्टिया पिणद्धगे- आत्मरक्षाः कावेजा बद्धआविद्धविमलवरचिंधपट्टा गहियाउहपहरणा तिणयाई तिसंधियाई वयरामयकोडीणि धणूई अभिगिज्झ पयओ सू१६४ परिमाइयकंडकलावा नीलपाणिणो पीयपाणिणो रत्तपाणिणो एवं चारुचावचम्मदंडखग्गपासपाणिणो नीलपीयरत्तचा| रुचावचम्मदंडखग्गपासवरधरा आयरक्खा रक्खोवगया गुत्ता गुत्तपालिया जुत्ता जुत्तपालिया पत्तेयं पत्तेर्य समयओ [विणयो किंकरभूया इव चिट्ठति'त्ति अस्यायमर्थः-संनद्धाः-संनिहतिकया कृतसन्नाहाः बद्धः कशावन्धनतः पर्मितश्च|वीकृतः शरीरारोपणतः कवच:-कङ्कटो यैस्ते तथा, ततः सन्नद्धशब्देन कर्मधारयः, तथोत्पीडिता प्रत्यारोपणेन शरा| सनपट्टिका-धनुर्यष्टिर्यैस्ते तथा अथवा उत्पीडिता-बाही बद्धा शरासनपट्टिका-धनुर्द्धरप्रतीता यैस्ते तथा, तथा पिनद्धंपरिहितं अवेयक-ग्रीवाभरणं यैस्ते तथा, तथा बद्धो प्रन्थिदानेन आविच शिरस्यारोपणेन विमलो वरच चिहपट्टो-योध & ॥१९॥ तासूचको नेत्रादिवखरूपः सौवर्णों वा पट्टो यैस्ते तथा, तथा गृहीतान्यायुधानि प्रहरणाय यैस्ते तथा, अथवा गृहीता शनवर दीप अनुक्रम [१९१-१९२] SHASHTRA ~399~ Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] न्यायुधानि-क्षेप्यास्त्राणि प्रहरणानि च-तदितराणि यैस्ते तथा, 'त्रिनतानि' मध्यपार्श्वद्वयलक्षणे स्थानत्रयेऽवनतानि, 'त्रिसन्धितानि त्रिषु स्थानकेषु कृतसन्धिकानि नैकाङ्गिाकानीत्यर्थः, वज्रमयकोटीनि धनूंषि अभिगृह्य पदतः-पदे मुष्टिस्थाने तिष्ठन्तीति सम्बन्धः, परिमात्रिका-सर्वतो मात्रावान् काण्डकलापो येषां ते तथा, नीलपाणय इत्यादिषु नीलादि-18 वर्णपुखत्वान्नीलादयो बाणभेदाः संभाव्यन्ते, चारुचापपाणय इत्यत्र चापं-धनुरेवानारोपितज्यमतो न पुनरुक्तता, चर्मपाणय इत्यत्र चर्मशब्देन स्फुरक उच्यते, दण्डादयः प्रतीताः, उक्कमेवार्थ सङ्घहणेनाह-नीलपीए'त्यादि, अथवा नीलादीन् सर्वानेव युगपत्केचिद्धारयन्ति देवशक्तेरिति दर्शयन्नाह-'नीलपीए'त्यादि, ते चात्मरक्षा न सज्ञामात्रेणैवेत्याहआत्मरक्षाः स्वाम्यात्मरक्षा इत्यर्थः, त एव विशेष्यन्ते-रक्षोपगताः' रक्षामुपगताः सततं प्रयुक्तरक्षा इत्यथैः, एतदेव कथ-15 मित्याह-'गुप्ताः' अभेदवृत्तयः, तथा 'गुप्तपालिकाः' तदन्यतो व्यावृत्तमनोवृत्तिकाः मण्डलीकाः 'युक्ताः' परस्परसंवद्धाः | 'युक्तपालिकाः निरन्तरमण्डलीका प्रत्येकम्-एकैकशः समयतः-पदातिसमाचारेण विनयतो-विनयेन किङ्करभूताइव-प्रेष्य| त्वं प्राप्ता इवेति, अयं च पुस्तकान्तरे साक्षात् रश्यत एवेति । एवं ससिमिंदाण'ति एवमिति--चमरवत सर्वेषामिन्द्राणां ||| सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा वाच्याः, ते चार्थत एवं-सर्वेषामिन्द्राणां सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षाः, तत्र चतुःषष्टिः | सहस्राणि चमरेन्द्रस्येन्द्रसामानिकानां बलेस्तु षष्टिः शेषभवनपतीन्द्राणां प्रत्येक पट् सहस्राणि शक्रस्य चतुरशीतिः । ईशानस्याशीतिः सनरकुमारस्य द्विसप्ततिः माहेन्द्रस्य सप्ततिः ब्रह्मणः षष्टिः लान्तकस्य पञ्चाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत् ACCCCCE दीप अनुक्रम [१९३] For P OW ~400~ Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [१६४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६४] दीप ब्याख्या- सहस्रारस्य त्रिंशत् प्राणतस्य विंशतिः अच्युतस्य दश सहस्राणि सामानिकानामिति, यदाह-चिउसही सट्ठी खलु छच्च च ३ शतके प्रज्ञप्तिः सहस्सा उ असुरवजाणं । सामाणिया उ एए चउरगुणा आयरक्खा उ ॥१॥ चउरासीइ असीई बाबत्तरि सत्तरी य. अभयदेवी दउद्देशः७ सही य । पण्णा चत्तालीसा तीसा वीसा दस सहस्सा ॥२॥" इति ।। तृतीयशते षष्ठ उद्देशकः ॥३-६॥ था वृत्तिः१ शक्रस्यसो मोलोकपा॥१९४॥ पष्ठोदेशके इन्द्राणामात्मरक्षा उक्ताः, अथ सप्तमोद्देशके तेषामेव लोकपालान दर्शयितुमाह ला सू१६५ रायगिहे नगरे जाव पजवासमाणे एवं वयासी-सकरसणं भंते ! देविंदस्स देवरन्नो कति लोगपाला पण्ण-18 ता?, गोथमा!चत्तारि लोगपाला पण्णता, तंजहा-सोमे जमे वरुणे वेसमणे । एएसि णं भंते ! चउण्ह लोग|पालाणं कति विमाणा पण्णता?, गोयमा! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तंजहा-संझप्पभे वरसिढे सयंजले बग्गू । कहिणं भंते । सक्कस्स देविदिस्स देवरणो सोमस्स महारनो संझप्पमेणामं महाविमाणे पपणते ?, गोयमा! जंबूहीवे २ मंदरस्स पब्बयस्स दाहिणणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए बहुसमरमणिज्जाओ भूमिभागाओ उहुं चंदिमसूरियगहगणणक्खनतारारूवाणं बहई जोयणाईजाच पंच वर्डिसया पण्णता, तंजहा-असोयवसाडेसए सत्तवन्नवर्डिसए चंपयवर्डिसए चूपवडिसए मज्झे सोहम्मवडिसए, तस्स णं सोहम्मवसयस्स महा-॥४ १ चतुःषष्टिः षष्टिः खलु षट् सहस्राणि तु असुरवर्जानाम् । सामानिकास्त्वेते चतुर्गुणा आत्मरक्षकास्तु ॥ १॥ चतुरशीतिरशीति- ॥१९॥ & सप्ततिः सप्ततिश्च पष्टिश्च । पञ्चाशचत्वारिंशत् त्रिंशदिशतिर्दश सहस्राणि ॥२॥ अनुक्रम [१९३] ॐ5 अत्र तृतीय-शतके षष्ठं-उद्देशक: समाप्त: अथ तृतीय-शतके सप्तम-उद्देशकः आरभ्यते सोम-लोकपालस्य वर्णनं ~ 401~ Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] दीप विमाणस्स पुरच्छिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाई जोपणाई वीतिवइत्ता एस्थ ण सकस्स देविंदस्स देवरनो || 5 सोमस्स महारनो संझप्पभे नाम महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरस जोयणसयसहस्साई आयामविक्खंभेणं उयालीसं जोयणसयसहस्साई चावन्नं च सहस्साई अह य अडयाले जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्खेवेणं || प० जा सूरियाभविमाणस्स वत्सव्वया सा अपरिसेसा भाणियब्वा जाव अभिसेयो नवरं सोमे देवे ॥ संझ-3 पभस्स महाविमाणस्स अहे सपक्खि सपडिदिसिं असंखेनाईजोयणसयसहस्सा ओगाहित्ता एत्य गं | सकस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारनोसोमा नाम रायहाणी पण्णत्ता एगं जोयणसयसहस्सं आयामविक्वंभेणं जंबूहीवपमाणे(ण)वेमाणियाणं पमाणस्स अर्द्ध नेपब्वं जाव उवरियलेणं सोलस जोयणसहस्साई आयामविक्खंभेणं पन्नासं जोयणसहस्साई पंच य सत्ताणउए जोयणसते किंचिबिसेसूणे परिक्खेवेणं पण्णत्ते, पासायाणं चत्तारि परिवाडीओ नेयवाओ, सेसा नस्थि । सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो इमे देवा आणाउववायवयणनिद्देसे चिटुंति, तंजहा-सोमकाइयाति वा सोमदेवकाइयाति वा विजुकुमारा ५ विजुकुमारीओ अग्गिकुमारा अग्गिकुमारीओ वाउकुमारा वाउकुमारीओ चंदा सूरा गहा णक्खत्ता तारा रूवा जे पावन्ने तहप्पगारा सम्बे ते तम्भत्तिया तप्पक्खिया तम्भारिया सफरस देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारनो आणाउबवायवयणनिइसे चिट्ठति ॥ जंबूद्दीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पजंति, तंजहा-हदंडाति वा गहमुसलाति वा गहगजियाति वा, एवं गहयुद्धाति वा गहसिंघाडगाति वा अनुक्रम [१९४] सोम-लोकपालस्य वर्णनं ~402~ Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [१६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५ दीप व्याख्या- गहावसब्वाइ वा अम्भाति वा अम्भरुक्खाति वा संज्झाइ वा गंधवनगराति या उकापायाति वा दिसी-12 शतके प्रज्ञप्तिः दाहाति वा गजियाति वा विजयाति या पंसुवुट्ठीति वा जूवेत्ति वा जक्खालित्तत्ति वा धूमियाइ वा महि- उद्देशः७ अभयदेवी याइ वा रयुग्घायाइ वा चंदोवरागाति वा सूरोवरागाति वा चंदपरिवेसाति वा सूरपरिवेसाति वा पडि शक्रस्यसोया वृत्तिः१| | चंदाइ वा पडिसूराति वा इंधणूति वा उदगमच्छकपिहसियअमोहापाईणवायाति वा पडीणवाताति वा मोलकिपा॥१९५॥ जाव संवयवाताति वा गामदाहाइ वा जाव सन्निवेसदाहाति वा पाणक्खया जणक्खया धणक्खया कुल-18 लाःसू१६५ क्खया वसणभूया अणारिया जे यावन्ने तहप्पगारा ण ते सकस्स देविंदस्स देवरनो सोमस्स महारस्रो अण्णाया अदिट्ठा असुया अमुया अविषणाया तेर्सि वा सोमकाइयाणं देवाणं, सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो इमे आहावचा अभिन्नाया होत्या, तंजहा-इंगालए वियालए लोहियक्खे सणिचरे चंदे सूरे |सुके बुहे वहस्सती राहू ॥ सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारनो सत्तिभागं पलिओवर्म ठिती| |पण्णत्ता, अहावञ्चाभिन्नायाणं देवाणं एर्ग पलिओवमं ठिई पण्णत्ता, एवंमहिहीए जाव महाणुभागे सोमे | महाराया (सूत्रं १६५)१॥ 'रायगिहे'इत्यादि, 'बहूई जोयणाई' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साई बहूई १९५॥ |जोयणसयसहस्साई बहूओ जोयणकोडीओ बरओ जोयणकोडाकोडीओ उहुं दूरं धीइवइत्ता एत्थ सोहम्मे णाम कप्पे || |पण्णत्ते पाईणपडीणायए उदीणदाहिणविरिछन्ने अद्धचंदसंठाणसंठिए अश्चिमालिभासरासिवन्नाहे असंखेज्जाओ जोयण अनुक्रम [१९४] सोम-लोकपालस्य वर्णनं ~403~ Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] कोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं असंखेंजाओं जोयणकोडाकोडीओ परिक्खेवणं एस्थ णं सोहम्माणं देवाणं बत्तीस | बिमाणावाससयसहस्साई भवन्तीति अक्खाया, ते णं विमाणा सवरयणामया अच्छा जाव पडिरूवा, तस्स णं सोहम्मक|पस्स बहुमज्झदेसभाए' इति, 'वीहवइसत्ति व्यतित्रज्य-व्यतिक्रम्य 'जा सूरियाभविमाणस्स'त्ति सूरिकाभविमानं राजप्रश्नीयोपाङ्गोक्तस्वरूपं तद्वक्तव्यतेह वाच्या, तत्समानलक्षणत्वादस्पेति, कियती सा वाच्या इत्याह-यावदभिषेक' 18|| अभिनवोत्पन्नस्य सोमस्य राज्याभिषेक यावदिति, सा चेहातिबहुत्वान्न लिखितेति ॥ 'अहे' इति तिर्यगलोके 'बेमाणिया-* ण पमाणस्स'त्ति वैमानिकानां सौधर्मविमानसत्कप्रासादमाकारद्वारादीनां प्रमाणस्येह नगर्यामर्द्ध ज्ञातव्यं 'सेसा नत्थि'। त्ति सुधर्मादि(काः)सभा इह न सन्ति, उत्पत्तिस्थानेष्वेव तासां भावात् , 'सोमकाइय'त्ति सोमस्य कायो-निकायो येषामस्ति ते सोमकायिका:-सोमपरिवारभूताः सोमदेवयकाइय'त्ति सोमदेवता:-तत्सामानिकादयस्तासां कायो येषामस्ति ते सोमदेवताकायिकाः सोमसामानिकादिदेवपरिवारभूता इत्यर्थः, तारारूवत्ति तारकरूपाः 'तम्भत्तिय'त्ति तत्र-सोमे भक्ति-सेवा * बहुमानो या येषां ते तद्भक्तिकाः 'तप्पक्षिय'त्ति 'सोमपाक्षिकाः' सोमस्य प्रयोजनेषु सहायाः 'तम्भारिय'त्ति 'तार्याः || | तस्य सोमस्य भार्या इव भार्या अत्यन्तं वश्यत्वात्पोषणीयत्वाच्चेति तद्भार्याः, तद्भारो वा येषां वोढव्यतयाऽस्ति ते तदारिकाः॥ 'गहदंड'त्ति दण्डा इव दण्डाः-तिर्यगायताः श्रेणयः ग्रहाणां-मङ्गलादीनां त्रिचतुरादीनां दण्डा ग्रहदण्डा, एवं ग्रह| मुशलादीनि नवरीयताः श्रेणयः, 'गहगज्जिय'त्ति प्रहसञ्चालादौ गर्जितानि-स्तनितानि ग्रहगर्जितानि 'ग्रहयुद्धानि का ग्रहयोरेकत्र नक्षत्रे दक्षिणोत्तरेण समश्रेणितयाऽवस्थानानि' 'ग्रहसिनाटकानि ग्रहाणां सिवाटकफलाकारणावस्थानानि | 444404444 दीप अनुक्रम [१९४] ~404~ Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१६५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६५] दीप व्याख्या- 'ग्रहापसव्यानि'ग्रहाणामपसव्यगमनानि प्रतीपगमनानीत्यर्थः, अभ्रात्मका वृक्षा अधवृक्षाः 'गन्धर्वनगराणि' आकाशे शतके प्रज्ञप्तिः व्यन्तरकृतानि नगराकारप्रतिबिम्बानि, 'उल्कापाता' सरेखाः सोद्योता वा तारकस्येव पाताः 'दिग्दाहाः' अन्यत-| अभयदेवी- मस्यां दिशि अधोऽन्धकारा उपरि च प्रकाशात्मका दह्यमानमहानगरप्रकाशकल्पाः 'जूवय'त्ति शुक्लपक्षे प्रतिपदादिदिनत्रयं शक्रस्यसोया वृत्तिः PM यावधैः सन्ध्याछेदा आत्रियन्ते ते यूपकाः 'जक्खालित्तय'त्ति 'यक्षोद्दीप्तानि' आकाशे व्यन्तरकृतज्वलनानि, धूमिका-मालाकपा ॥१९॥ महिकयोर्वर्णकृतो विशेषः, तत्र धूमिका-धूम्रवर्णा धूसरा इत्यर्थः, महिका त्वापाण्डुरेति, 'रउग्धाय'त्ति दिशां रजस्वल सालासू१६५ त्वानि 'चंदोवरागा सूरोवरागा' चन्द्रसूर्यग्रहणानि 'पडिचंद'त्ति द्वितीयचन्द्राः 'उदगमच्छत्ति इन्द्रधनुःखण्डानि है 'कविहसिय'त्ति अनने या विद्युत्सहसा तत् कपिहसितम्, अन्ये त्वाः-कपिहसितं नाम यदाकाशे वानरमुखसहशस्य है विकृतमुखस्य हसनम् 'अमोह'त्ति अमोघा आदित्योदयास्तमययोरादित्यकिरणविकारजनिताः 'आताम्रा कृष्णाः ४ श्यामा वा शकटोद्भिसंस्थिता दण्डा इति, 'पाईणवाय'त्ति पूर्वदिग्वाताः 'पडीणवाय'त्ति प्रतीचीनवाताः, यावत्करणा|| दिदं दृश्यम्-'दाहिणवायाइ वा उदीणवायाइ वा उडवायाइ वा अहोवायाइ वा तिरियवायाइ वा विदिसीवायाइ वा वाउन्भामाइ वा वाउक्कलियाइ वा वायमंडलियाइ वा उक्कलियावायाइ वा मण्डलियावायाइ वा गुंजावायाइवा झंझावायाइ ४ वत्ति, इह 'वातोद्रामाः' अनवस्थितवाताः 'वातोत्कलिकाः' समुद्रोत्कलिकावत् 'वातमण्डलिका वातोल्या 'उत्कलिकाहै वाताः' उत्कलिकाभिर्ये वान्ति 'मण्डलिकावाताः' मण्डलिकाभियें वान्ति 'गुजवाताः' गुञ्जन्तः सशब्दं ये वान्ति 'झन्झा- ॥१९६॥ वाता' अशुभनिष्ठुराः 'संवतकवाता' तुणादिसंवनस्वभावा इति । अथानन्तरोकानां ग्रहदण्डादीनां प्रायिकफलानि अनुक्रम [१९४] ~405~ Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१६५ ] दीप अनुक्रम [१९४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ १६५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः दर्शयन्नाह - 'पाणक्य'त्ति बलक्षयाः 'जणक्खय'त्ति लोकमरणानि, निगमयन्नाह - 'वसणन्भूया अणारिया जे यावन्ने तहप्पगार त्ति, इहैवमक्षरघटना- न केवलं प्राणक्षयादय एव ये चान्ये एतद्व्यतिरिक्तास्तत्मकाराः- प्राणक्षयादितुल्याः 'व्यसनभूता:' आपद्रूपाः 'अनार्याः 'पापात्मकाः न तेऽज्ञाता इति योगः 'अण्णाय'त्ति अनुमानतः 'अदिट्ठ'त्ति प्रत्य| क्षापेक्षया 'असुय'त्ति परवचनद्वारेण 'अनुय'ति अस्मृता मनोऽपेक्षया 'अविण्णाय'त्ति अवध्यपेक्षयेति । 'अहावच'त्ति यथाऽपत्यानि तथा ये ते यथाऽपत्या देवाः पुत्रस्थानीया इत्यर्थः, 'अभिण्णाया' इति अभिमता अभिमतवस्तुका| रित्वादिति 'होत्थ'त्ति अभवन् उपलक्षणत्वाच्चास्य भवन्ति भविष्यन्तीति द्रष्टव्यम्, 'अहावच्चाभिन्नायाणं'ति यथाऽ. पत्यमेवमभिज्ञाता - अवगता यथाऽपत्याभिज्ञाताः, अथवा यथाऽपत्याश्च तेऽभिज्ञाताश्चेति कर्म्मधारयः, ते चाङ्गारकादयः | पूर्वोक्ताः, एतेषु च यद्यपि चन्द्रसूर्ययोर्वर्षलक्षाद्यधिकं पल्योपमं तथाऽप्याधिक्यस्याविवक्षितत्वादङ्गारकादीनां च ग्रहत्वन पल्योपमस्यैव सद्भावात् पल्योपममित्युक्तमिति ॥ कहिणं भंते! सस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारत्नो वरसिट्टे णामं महाविमाणे पण्णत्ते ?, गोयमा ! | सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स दाहिणेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाई जोयणसहस्साई वीइवतित्ता एत्थ णं सकस्स देविंदरस देवरन्नो जमस्स महारनो वरसिट्टे णामं महाविमाणे पण्णत्ते अडतेरस जोयणसय सहस्साई जहा सोमरस विमाणे तहा जाव अभिसेओ रायहाणी तहेब जाव पासायपतीओ ॥ सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो इमे देवा आणा० जाव चिह्नंति, तंजहां-जमकाइयाति वा जमदेवकाइयाइवा पेय Eucation Intention यम- लोकपालस्य वर्णनं For Par Lise Only ~406~ Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-1, अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६] गाथा: व्याख्या- काइयाइ वा पेयदेवकाइयाति वा असुरकुमारा असुरकुमारीओ कंदप्पा निरयवाला आभिओगा जे यावन्ने३ शतके प्रज्ञप्तिः ४ तहप्पगारा सब्वे ते तम्भत्तिगा तप्पक्खिया तन्भारिया सकस्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारन्नो आणाए उद्देशः ७ अभयदेवी- जाव चिट्ठति ॥ जंबूदीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पजंति, तंजहा-डिवाति वा डम-[ या वृत्तिः राति था कलहाति वा बोलाति वा खाराति वा महायुद्धाति वा महासंगामाति वा महासत्यनिवडणाति ॥१९७॥ वा एवं पुरिसनिवडणाति वा महारुधिरनिवडणाइ वा दुन्भूयाति वा कुलरोगाति वा गामरोगाति वा मंड लरोगाति वा नगररोगाति वा सीसवेषणाइ वा अच्छिवेयणाइवा कन्ननहदंतवेयणाइ वा इंदगाहाइ बा खंदगाहाइ वा कुमारगाहा जक्खगा भूयगा० एगाहियाति वा आहियाति वा तेयाहियाति चाउत्थहियाति वा उब्वेयगाति कासा० सासाति वा सोसेतिवा जराइ वा दाहा. कच्छ कोहाति वा अजीरया | पंडुरगा हरिसाइ वा भगंदराइ वा हिययसूलाति वा मस्थयमू० जोणिसू० पाससू० कुच्छिसू० गाम-14 |मारीति वा नगर खेड० कब्बड दोणमुह मडंब० पट्टण आसम संवाह संनिवेसमारीति वा पाण-IN क्खया धणखया जणक्खया कुलवसणभूयमणारिया जे यावन्ने तहप्पगारा न ते सफास्स देविंदस्स देवरन्नो जमस्स महारनो अण्णाया०५ तेर्सिचा जमकाइयाणं देवाणं । सकस्स देविंदस्स देवरपणो जमस्स महारनो इमे || देवा अहावचा अभिण्णाया होत्या, तंजहा-अंबे १ अंबरिसे चेव २, सामे ३ सबलेत्ति यावरे ४। रुद्दो ५ ॥१९७॥ वरुद्दे ६ काले ७ य, महाकालेत्ति यावरे ८॥१॥ असिपत्ते ९धणू १० कुंभे ११ (असी य असिपत्ते कुंभे) % दीप अनुक्रम [१९५-१९८] A4%9CRASI यम-लोकपालस्य वर्णनं ~407~ Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक 55625 [१६६] 4564E गाथा: *682- 5 दीवाल १२ वेयरणीत्तिय १३ । खरस्सरे १४ महाघोसे १५, एए पन्नरसाहिया ॥२॥ सकस्स णं देविंदस्स * देवरन्नो जमस्स महारनो सत्तिभागं पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, अहावच्चाभिषणायाणं देवाणं एग पलिओवमं ठिती पन्नत्ता, एवंमहिहिए जाव जमे महाराया २ ( सूत्रं १३६)। 'पेयकाइय'त्ति प्रेतकायिकाः' ब्यन्तरविशेषाः ‘पेयदेवतकाइयत्ति प्रेतसत्कदेवतानां सम्बन्धिनः 'कंदप्पत्ति ये कन्दर्पभावनाभावितत्वेन कान्दर्पिकदेवेषत्पन्नाः कन्दर्पशीलाच, कन्दर्पश्च-अतिकेलिः, आहियोग'त्ति येऽभियोगभावनाभावितत्वेनाभियोगिकदेवेपूत्पन्ना अभियोगवर्तिनश्च, अभियोगश्च-आदेश इति ॥र्डिबाइ वत्ति डिम्बा-विघ्नाः 'डमर'त्ति एकराज्य एव राजकुमारादिकृतोपद्रवाः 'कलह'त्ति वचनराटयः 'बोल'त्ति अव्यक्ताक्षरध्वनिसमूहाः 'खार'त्ति परस्परमत्सराः 'महायुद्ध'त्ति महायुद्धानि व्यवस्थाविहीनमहारणाः 'महासंगाम'त्ति सब्यवस्थचक्रादिव्यूहरचनोपेतमहारणाः महाशखनिपातनादयस्तु त्रयो महायुद्धादिकार्यभूताः, 'दुन्भूय'त्ति दुष्टा-जनधान्यादीनामुपद्रवहेतुत्वाद् भूताः-सत्त्वाः यूकामत्कुणोन्दुरतिजुमभृतयो दुर्भूता ईतय इत्यर्थः, इन्द्रग्रहादयः उन्मत्तताहेतवः, एकाहिकादयो ज्वरविशेषाः, 'उब्वेयग'त्ति उद्वेगका इष्टवियोगादिजन्या उद्वेगाः उद्वेजका वा लोकोद्वेगकारिणश्चौरादयः 'कच्छकोह'त्ति कक्षाणां-शरीरावयव विशेषाणां बनगहनानां वा कोथा:-कुथितत्वानि शटितानि वा कक्षाकोथाः कक्षकोथा वा ॥ 'अम्ब' इत्यादयः| पश्चदशासुरनिकायान्तवर्तिनः परमाधार्मिकनिकायाः, तत्र यो देवो नारकानम्बरतले नीत्या विमुश्चत्यसौ अम्ब इत्यभिधी-| यते १, यस्तु नारकान् कल्पनिकाभिः खण्डशः कृत्वा भ्राष्ट्रपाकयोग्यान् करोतीत्यसावम्बरीषस्य-भ्राष्ट्रस्य सम्बन्धादम्ब दीप अनुक्रम [१९५-१९८] 3 4560 यम-लोकपालस्य वर्णनं ~408~ Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१६६] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६६]] गाथा: प्रज्ञप्तिः उरीप एवोच्यते २, यस्तु तेषां शातनादि करोति वर्णतस्तु श्यामः स श्याम इति ३, 'सवलेत्ति पाचरे'त्ति शबल इति || || ३ शतके अभयदेवी पदचापरो देव इति प्रक्रमः, स च तेषामन्ब्रहृदयादीन्युपाय्यति वर्णतश्च शबलः कवुर इत्यर्थः ४, यः शक्तिकुन्तादिषु नार-IX HTN कान् प्रोतयति स रौद्रत्वाद्रौद्र इति ५, यस्तु तेषामेवाङ्गोपाङ्गानि भनक्ति सोऽत्यन्तरौद्रत्वादुपरौद्र इति ६, यः पुनः कण्ड्डा यमोलोकपा सादिषु पचति वर्णतश्च कालः स काल इति ७,'महाकालेत्ति यावर'त्ति महाकाल इति चापरो देव इति प्रक्रमः, तच यः15 लःसू १६६ ॥१९८॥ द श्लक्ष्णमांसानि खण्डयित्वा खादयति वर्णतश्च महाकालः स महाकाल इति4,'असी यत्ति यो देयोऽसिना तान् छिनत्ति सोऽसिरेव ९, 'असिपत्ते'त्ति अस्थाकारपत्रवद्वनविकुर्वणादसिपत्रः १०, 'कुंभेत्ति कुम्भादिषु तेषां पचनाकुम्भः १, कचित्पठ्यते 'असिपत्ते धणूं कुंभेत्ति, तत्रासिपत्रकुम्भौ पूर्ववत् , 'धणु'त्ति यो धनुर्विमुक्ता चन्द्रादिभियोणः कर्णोदीनां || दाछेदनभेदनादि करोति स धनुरिति ११, 'वालु'त्ति कदम्बपुष्पाद्याकारवालुकासु यः पचति स वालुक इति १२, 'वेयर णीति य' वैतरणीति च देव इति प्रक्रमः, तत्र पूयरुधिरादिभृतवैतरण्यभिधाननदीविकुर्वणाद्वैतरणीति १३, खरस्सर'त्ति यो वज्रकण्टकाकुलशाल्मलीवृक्षमारोप्य नारकं खरस्वरं कुर्वन्तं कुर्वन् वा कर्षत्यसौ खरस्वरः १४, 'महाघोसि'त्ति, यस्तु || भीतान् पलायमानाचारकान् पशूनिय बाट केषु महाघोपं कुर्वनिरुणद्धि स महाघोष इति १५, 'एए पन्नरसाहियत्ति IPएवम्' उक्तन्यायेन 'एते' यमयथाऽपत्यदेवाः पञ्चदश आख्याता इति ॥ I कहिणं भंते ! सकस्स देविंदस्स देवरनो वरुणस्स महारनो सयंजले नाम महाविमाणे पन्नत्ते, गोयमा ! R ॥१९८॥ | तस्स णं सोहम्मवर्डिसपस्स महाविमाणस्स पचत्थिमेणं सोहम्मे कप्पे असंखेजाई जहा सोमस्स तहा विमा-|| AAAAAAAEE दीप अनुक्रम [१९५-१९८] वरुण-लोकपालस्य वर्णनं ~409~ Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [१६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [१६७] दीप णरायहाणीओ भाणियब्वा जाव पासायडिंसया नवरं नामणाणतं । सकस्स णं वरुणस्स महारनो इमे || देवा आणा. जाव चिट्ठति, तं०-वरुणकाइयाति वा वरुणदेवयकाइयाइ वा नागकुमारा नागकुमारीओ उदहि-18 कुमारा उदहिकुमारीओ थणियकुमारा थणियकुमारीओ जे यावणे तहप्पगारा सव्वे ते तम्भत्तिया जावट चिट्ठति ॥ जंबूहीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणेणं जाई इमाई समुप्पाजंति, तंजहा-अतिवासाति बा मंद-12 वासाति वा सुवुडीति वा दुव्वुडीति वा उदन्भेयाति वा उदप्पीलाइ वा उदवाहाति वा पब्वाहाति वा 8 गामवाहाति वा जाव सन्निवेसवाहाति वा पाणक्खया जाव तेसिं वा वरुणकाइयाणं देवाणं सक्कस्स गं देविंदस्स देवरनो वरुणस्स महारनो जाच अहावचाभिन्नाया होत्या, तंजहा-कफोटए कदमए अंजणे | संखवालए पुंढे पलासे मोएजए दहिमुहे अयंपुले कायरिए । सकस्स देविंदस्स देवरन्नो वरुणस्स महारण्णो ॥ देसूणाई दो पलिओचमाई ठिती पण्णत्ता, अहावच्चाभिन्नायाण देवाणं एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता, एवंमहिहीए जाव वरुणे महाराया ३ । (मूत्र १६७) 'अतिवासत्ति अतिशयवर्षा वेगवद्धर्षणानीत्यर्थः, 'मन्दवासत्ति शनैर्षणानि 'सुवुट्टि'त्ति धान्यादिनिष्पत्तिहेतुः 'दुव्बुट्टि'त्ति धान्याद्यनिष्पत्तिहेतुः 'उदन्भेय'त्ति उदकोझेदाः गिरितटादिभ्यो जलोद्भवाः 'उदप्पील'त्ति उदकोत्पीलाःतडागादिषु जलसमूहाः 'उदवाह'त्ति अपकृष्टान्यल्पान्युदकवहनानि, तान्येव प्रकर्षवन्ति प्रवाहाः, इह प्राणक्षयादयो जलकृता द्रष्टव्याः, 'कक्कोडएत्ति कर्कोटकाभिधानोऽनुवेलन्धरनागराजावासभूतः पर्वतो लवणसमुद्रे ऐशान्यां दिश्यस्ति अनुक्रम [१९९] -55064 वरुण-लोकपालस्य वर्णनं ~410~ Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [१६७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६७] दीप अनुक्रम [१९९] व्याख्या- तन्निवासी नागराजः कर्कोटकः, 'कद्दमए'त्ति आग्नेय्यां तथैव विद्युत्प्रभपर्वतस्तत्र कर्दमको नाम नागराजः 'अंजणे'त्ति || २ शतके प्रज्ञप्तिः ॥X वेलम्बाभिधानवायुकुमारराजस्य लोकपालोऽञ्जनाभिधानः 'संखवालए'त्ति धरणाभिधाननागराजस्य लोकपालः शङ्खपा-द अभयदेवी- लको नाम, शेषास्तु पुण्ड्रादयोऽप्रतीता इति ।। शक्रलोकया वृत्तिः पालौवरुण | कहिणं भंते ! सकस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारन्नो वग्गूणामं महाविमाणे पण्णते, गोयमा श्रमणी ॥१९॥ तस्स णं सोहम्मवडिंसयस्स महाविमाणस्स उत्तरेणं जहा सोमस्स विमाणरायहाणिवत्तम्बया तहा नेयब्वासू १६७ जाव पासायवडिसया । सकस्स णं देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारत्नो इमे देवा आणाउबवायवयणनि- १६० देसे चिटुंति, तंजहा-बेसमणकाइयाति वा समणदेवकाइयाति वा सुवन्नकुमारा सुवनकुमारीओ दीवकुमारा| दीवकुमारीओ दिसाकुमारा दिसाकुमारीओ बाणमंतरा वाणमंतरीओ जे यावन्ने तहप्पगारा सब्वे ते तन्भ-|| |त्तिया जाव चिट्ठति ॥ जंबूदीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स दाहिणणं जाई इमाई समुप्पज्जति, तंजहा-अयागराइ वा तउयागराइ वा तंवयागराइ वा एवं सीसागराइ वा हिरन सुवन्न रयण वपरागराइ वा वसुहाराति | वा हिरन्नवासाति वा सुचन्नवासाति वा रयण बहर आभरण पत्त० पुप्फ० फल०षीय मल्ल वपण चुन्न गंध० वत्थवासाह वा हिरनबुट्ठीइ वा सु०र०व० आ०प० पु०फ०बी०व० चुन्न गंधवुट्ठी वत्थबुट्ठीति वा भायणवुट्ठीति वा खीरखुट्टीति वा सुयालाति वा दुकालाति वा अप्पग्धाति वा महग्धाति वा सुभिक्खाति वा दुभिक्वाति वा कयविकयाति वा सन्निहियाति वा संनिचयाति वा निहीति वा णिहाणाति वा चिरपोराणाई पहीण READARSA SARERainintamatarna वेसमण-लोकपालस्य वर्णनं ~411~ Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१६८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१६८] दीप अनुक्रम [२००] सामियाति वा पहीणसेउयाति वा [पहीणमग्गाणि वा] पहीणगोत्तागाराइ वा पच्छिन्नसामियाति वा उच्छि|| नसेउयाति वा उच्छिन्नगोशागाराति वा सिंघाडगतिगचउक्कचच्चर चउम्मुहमहापहपहेसु नगरनिद्धमणेसु वा2 सुसाणगिरिकंदरसंतिसेलोवहाणभवणगिहेसु संनिक्खित्ताई चिट्ठति, एताई सकस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्समहारन्नो(ण)अण्णायाई अदिहाई असुयाई अविनायाई तेर्सि वा वेसमणकाइयाणं देवाणं, सकस्स देविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारत्नो इमे देवा अहावञ्चाभिन्नाया होत्था, तंजहा-पुन्नभदे माणिभद्दे सालिभद्दे सुमणभद्दे कचके रक्खे पुन्नरक्खे सव्वाणे [पव्वाणे सव्वजसे सव्वकामे समिद्धे अमोहे असंगे, सक्कस्स गंदेविंदस्स देवरन्नो वेसमणस्स महारत्नो दोपलिओवमाणि ठिती पण्णत्ता, अहावच्चाभिण्णायाणं देवाणं एग पलिओवमं ठिती पण्णता, एमहिवीए जाव वेसमणे महाराया। सेवं भंते २॥(सूत्रं १३८)॥ तृतीयशतके सप्तमोद्देशकः समाप्तः ॥३-७॥ 'वसुहाराइ बत्ति तीर्थकर जन्मादिव्वाकाशाद्रव्यवृष्टिः 'हिरण्णवास'त्ति हिरण्य-रूप्यं घटितसुवर्णमित्यन्ये, वर्षोs|ल्पतरो वृष्टिस्तु महतीति वर्षवृश्योर्भेदः, माल्यं तु अधितपुष्पाणि वर्ण:-चन्दनं चूर्णोगन्धद्रव्यसम्बन्धी गन्धाः-कोष्ठर पुटपाकाः 'सुभिक्खाइ वत्ति सुकाले दुष्काले वा भिक्षुकाणां भिक्षासमृद्धयः दुर्भिक्षास्तूक्त विपरीताः 'संनिहियाइ)त्ति घृतगुडादिस्थापनानि 'संनिचय(याइ)त्ति धान्यसञ्चयाः 'निहीइ वत्ति लक्षादिप्रमाणद्रव्यस्थापनानि 'निहाणाई वत्ति भूमिगतसहस्रादिसबद्रव्यस्य सशयाः, किंविधानि इत्याह-'चिरपोराणाईति चिरप्रतिष्ठितत्वेन पुराणानि चिरपुराणानि | | अत एव 'पहीणसामियाई ति स्वल्पीभूतस्वामिकानि 'पहीणसेउयाईति प्रहीणा:-अल्पीभूताः सेक्तार:-सेचका-धन- || 6-44%562-%2-564564564564*496 SAREaratunintamaniana वेसमण-लोकपालस्य वर्णनं ~412~ Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१६८] दीप अनुक्रम [२००] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [१६८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी- १ या वृत्तिः १ ||२००॥ प्रक्षेप्तारो येषां तानि तथा, प्रहीणमार्गाणि वा, 'पहीणगोत्तागाराई'ति प्रहीणं विरलीभूतमानुषं गोत्रागारं तत्स्वामिगोत्रगृहं येषां तानि तथा, 'उच्छिन्नसामियाई' ति निःसत्ता की भूतप्रभूणि 'नगरनिडमणेसु'त्ति 'नगरनिर्द्धमनेषु' नगरजलनिर्गमनेषु 'सुसाणगिरिकन्दरसंति सेलोवद्वाणभवण गिहेसुति गृहशब्दस्य प्रत्येकं सम्बन्धात् श्मशानगृहं पितृ धनगृहं गिरिगृहं पर्वतोपरिगृहं कन्दरगृह- गुहा शान्तिगृहं - शान्तिकर्मस्थानं शैलगृहं पर्वतमुत्कीर्य यत्कृतं उपस्थानगृहंआस्थानमण्डपो भवनगृह-कुटुम्बिवसनगृहमिति ॥ तृतीयशते सप्तमः ॥ ३-७ ॥ रायगिहे नगरे जाव पज्जुवासमाणे एवं वदासी- असुरकुमाराणं भंते! देवाणं कति देवा आहेवचं जाव विहरंति ?, गोयमा ! दस देवा आहेबचं जाव विहरंति, तंजहा चमरे अमुरिंदे असुरराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे बली वइरोयणिंदे वइरोयणराया सोमे जमे वरुणे बेसमणे । नागकुमाराणं भंते! पुच्छा, गोयमा ! दस देवा आहेबचं जाव विहरति, तंजहा-धरणे नागकुमारिंदे नागकुमारराया कालवाले कोलवाले सेलवाले संखवाले भूयाणंदे नागकुमारिंदे नागकुमारराया कालवाले कोलवाले संखवाले सेलवाले, जहा नागकुमारिंदाणं एयाएं वत्तव्ययाए णेपव्वं एवं इमाणं नेयध्वं सुवन्नकुमाराणं वेणुदाली चित्ते विचित्ते चित्तपक्खे विचित्तपत्रस्वे विज्जुकुमाराणं हरिकंत हरिस्सह पभ १ सुम्पन २ पभकत ३ सुप्पभकत ४, अग्गिकुमाराणं | अग्गिसीहे अग्गिमाणव तेउ लेउसीहे ते कंते तेउप्पभे दीवकुमाराणं पुण्णविसिद्धरूयमुख्य रूपकंतरूयप्पभा | उद्दिकुमाराणं जलकंते जलप्पभ जलजलरूयजलकंतजलप्पना, दिसाकुमाराणं अभियगति अभियवाहण Education International अत्र तृतीय शतके सप्तम उद्देशकः समाप्तः अथ तृतीय शतके अष्टम-उद्देशक: आरभ्यते For Pale Only ~413~ ३ शतके उद्देशः ७ शक्रलोकपालीवरुण वैश्रमणी सू १६७१६८ ॥२००॥ p Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१६९] दीप अनुक्रम [२०१ -२०४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [−], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [१६९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Euratom तुरियगति विप्पगति सीहगति सीहविकमगति वाउकुमाराणं वेलंय पभंजण काल महाकाला अंजण रिट्ठा धणियकुमाराणं घोस महाघोस आवत्तवियावत्तनंदियावत्तमहानंदियावत्ता, एवं भाणियत्वं जहा | असुरकुमारा । सो० १ का० २चि० ३० ४ ते ५ रु० ६ ज० ७ तु० ८ का० ९ आ० १० पिसायकुमाराणं पुच्छा, गोयमा ! दो देवा आहेवलं जाव विहनि, तंजहा-काले य महाकाले सुरुवपडिरूव | पुन्नभद्देय । अमरवइ माणिभद्दे भीमे य तहा महाभीमे ॥ १ ॥ किंनरकिंपुरिसे खलु सप्पुरिसे खलु तहा महापुरिसे। अतिकाय महाकाए गीयरती चेव गीयजसे ॥ २ एते वाणमंतराणं देवाणं । जोतिसियाणं देवाणं | दो देवा आहेवचं जाव विहरति, तंजहा - चंदे य सूरे य । सोहम्मीसाणेसु णं भंते ! कप्पेसु कइ देवा आहेवचं | जाव विहरंति ? गोयमा ! दस देवा जाव विहरंति, तंजहा सके देविंदे देवराया सोमे जमे वरुणे बेसमणे, ईसाणे देविंदे देवराया सोमे जमे वरुणे वेसमणे, एसा वक्तव्या सव्वैसुवि कप्पेसु, एए चैव भाणियव्वा, जेध इंदा ते य भाणियन्वा सेवं भंते २ ॥ (सूत्रं १६९ ) ॥ तृतीयशतेऽष्टमोद्देशः ॥ ३-८ ॥ देववक्तव्यताप्रतिबद्ध एवाष्टमोदेशकः, स च सुगम एव, नवरं 'सो १ का २ चि ३ प्प ४ ते ५ रु ६ ज ७ तु ८ का ९ आ १०' इत्यनेनाक्षरदशकेन दक्षिणभवनपतीन्द्राणां प्रथमलोकपालनामानि सूचितानि वाचनान्तरे त्वेतान्येव गाथायां, सा चेयम्-सोमे य १ महाकाले २ चित्त ३ प्पभ ४ ते ५ तह रुए चैत्र ६ । जल तह ७ तुरियगई य ८ काले ९ १- सोमश्च महाकाल चित्रः प्रमस्तेजस्तथा रूपश्चैव । जलस्तथा त्वरितगतिश्च काल आयुक्तो दशानामसुरेन्द्राणां प्रथमाः ॥ १ ॥ लोकपालस्य नाम एवं वर्णनं For Parts Only ~414~ Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [१६९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व्याख्या- प्रज्ञाता या वृत्तिः ॥२०॥ अभयदेवी [१६९] ... दीप आउत्त १० पढमा उ ॥१॥ एवं द्वितीयादयोऽप्यभ्यूह्याः, इह च पुस्तकान्तरेऽयमों दृश्यते-दाक्षिणात्येषु लोकपालेषु ३ शतके प्रतिसूत्रं यौ तृतीयचतुर्थों तावौदीच्येषु चतुर्थतृतीयाविति, एसा वत्तवया सवेसुवि कप्पेसु एए चेव भाणियब'त्ति, एषा सौधर्म- उद्देशः८ शानोक्ता वक्तव्यता सर्वेष्वपि कल्पेषु इन्द्रनिवासभूतेषु भणितव्या-सनत्कुमारादीन्द्रयुग्मेषु पूर्वेन्द्रापेक्षयोत्तरेन्द्रसम्बन्धिनां असुरादीनां लोकपालानां तृतीयचतुर्थयोर्व्यत्ययो वाच्य इत्यर्थः, तथैत एव सोमादयः प्रतिदेवलोकं वाच्या न तु भवनपतीन्द्राणामिया-15 लोकपाला: परापरे, 'जे य इंदा ते य भाणियबा' शक्रादयो दशेन्द्रा वाच्याः, अन्तिमे देवलोकचतुष्टये इन्द्रद्वयभावादिति ।। तृतीयशतेऽष्टमोद्देशकः ॥३-८॥ उद्देश९ | इन्द्रिय देवानां चावधिज्ञानसद्भावेऽपीन्द्रियोपयोगोऽप्यस्तीत्यत इन्द्रियविषयं निरूपयन्नवमोद्देशकमाह सू१७० रायगिहे जाब एवं बदासी-कतिविहे णं भंते ! ते इंदियविसए पण्णते?, गोयमा ! पंचविहे इंदियविसए । पण्णते, तं०-सोतिदियविसए जीवाभिगमे जोतिसियउद्देसो नेयव्यो अपरिसेसो ॥ (सूत्रं १७०) ॥ तृतीय शते नवमोद्देशः ॥३-९॥ Dil 'रायगिहे' इत्यादि, 'जीवाभिगमे जोइसियउद्देसओ णेयबो'त्ति, स चायम्-'सोइदियविसए जाव फासिंदियविसए। ॥२०॥ सोइंदियविसए णं भंते ! पोग्गलपरिणामे कतिविहे पण्णते?, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-सुम्भिसद्दपरिणामे य दुन्भिसहपरिणामे य शुभाशुभशब्दपरिणाम इत्यर्थः । 'चक्खिदियविसए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पन्नते, तंजहा-सुरूवपरि अनुक्रम २०१-२०४] अत्र तृतीय-शतके अष्टम-उद्देशक: समाप्त: अथ तृतीय-शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते लोकपालस्य नाम एवं वर्णनं, पञ्च-इन्द्रिय-विषयस्य वर्णनं ~415~ Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [१७०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [१७०] -- दीप अनुक्रम [२०५] | णाम य दुरूवपरिणामे य, घाणिदियविसए पुच्छा, गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-सुब्भिगंधपरिणामे य दुन्भिगंधपरि णामेय, एवं जिभिदियविसए सुरसपरिणामे य दुरसपरिणामे य, फासिंदियविसए सुहफासपरिणामे य दुहफासपरि| गामे य' इत्यादि, वाचनान्तरे च 'इदियविसए उच्चावयसुभिणोत्ति दृश्यते तत्रेन्द्रियविषयं सूत्रं दर्शितमेव, उच्चावयसूत्रं त्वेवम्-'से णूणं भंते ! उच्चावएहिं सद्दपरिणामेहिं परिणममाणा पोग्गला परिणमंतीति वत्त सिया ?, हंता, गोयमा !' 8| इत्यादि, 'सुभिणोत्ति, इदं सूत्र पुनरेवम्-से णूणं भंते ! सुम्भिसद्दपोग्गला दुब्भिसदत्ताए परिणमंति? हंता गोयमा। इत्यादीति ॥ तृतीयशते नवमः ॥३-९॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुररमो कति परिसाओ पण्णत्ताओ!, गोयमा! तओ परिसाओ पण्णताओ, तंजहा-समिता चंडा जाया, एवं जहाणुपुय्वीए जावऽचुओ कप्पो, | सेवं भंते २॥ (मूत्र १७१ ) ॥ तश्यसए दसमोइसो ततियं सयं समत्तं ॥ ३-१०॥ प्रागिन्द्रियाण्युक्तानि, तद्वन्तश्च देवा इति देववक्तव्यताप्रतिबद्धो दशम उद्देशकः, स च सुगम एव, नवरं 'समिय'त्ति समिका उत्तमत्वेन स्थिरप्रकृतितया समवती, स्वप्रभोर्वा कोपौत्सुक्यादिभावान् शमयत्युपादेयवचनतयेति शमिका शमिता वा-अनुद्धता, 'चंड'त्ति तथाविधमहत्त्वाभावेनेषत्कोपादिभावाच्चण्डा, 'जाय'त्ति प्रकृतिमहत्त्ववर्जितत्वेनास्थानकोपादीनां जातत्वाजाता, एषा च क्रमेणाभ्यन्तरा मध्यमा बाह्या चेति, तत्राभ्यन्तरा समुत्पन्नप्रयोजनेन प्रभुणा गौरवार्हत्वादाकारितैव पार्थे समागच्छति तां चासौ अर्थपदं पृच्छति, मध्यमा तूभयथाऽप्यागच्छति अल्पतरगौरव विषयत्वात् , अभ्य For P OW अत्र तृतीय-शतके नवम-उद्देशकः समाप्त: अथ तृतीय-शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते ~416~ Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [३], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१७१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७१] दीप व्याख्या- तरया चादिष्टमर्थपदं तया सह प्रवभाति-प्रन्थिबन्धं करोतीत्यर्थः, बाह्या वनाकारितवागच्छति अल्पतमगौरव विषय-| शतके प्रज्ञप्तिः त्वात् , तस्याश्चार्थपदं वर्णयत्येव, तत्राद्यायां चतुर्विंशतिर्देवानां सहस्राणि द्वितीयायामष्टाविंशतिः तृतीयायां द्वात्रिंश- उद्देशः १० अभयदेवी-दिति, तथा देवीशतानि क्रमेणाध्युष्टानि त्रीणि सार्दै च द्वे इति, तथा तदेवानामायुः क्रमेणार्द्धतृतीयानि पल्योपमानि द्वे असुरपषदः साई चेति देवीनां तु सार्द्धमेकं तद? चेति, एवं बलेरपि नवरं देवप्रमाणं तदेव चतुश्चतुःसहस्रहीनं, देवीमानं तु शतेन | सू१७१ ॥२०२॥ शतेनाधिकमिति, आयुर्मानमपि तदेव नवरं पल्योपमाधिकमिति, एवमच्युतान्तानामिन्द्राणां प्रत्येकं तिस्रः पर्षदो भवन्ति, || नामतो देवादिप्रमाणतः स्थितिमानतश्च कचित्किश्चिद्भेदेन भेदवत्यस्ताश्च जीवाभिगमादयसेया इति ॥ तृतीयशते दशमः || ॥३-१ ॥ समाप्तं च तृतीयशतम् ॥३॥ श्रीपश्चमाङ्गस्य शतं तृतीय, व्याख्यातमाश्रित्य पुराणवृत्तिम् । शक्तोऽपि गन्तुं भजते हि यानं, पान्थः सुखार्थे किमु ट्र यो न शक्तः ॥१॥ **KXKXKXNXKXLAXXXXXXXXXXKNKKXX इति श्रीभगवतीसूत्रवृत्तौ श्रीमदभयदेवाचार्यांयायां समाप्तं तृतीयं शतकम् X ॥२०॥ अनुक्रम [२०६] अत्र तृतीय-शतके दशम-उद्देशक: समाप्त: तत् समाप्ते तृतीयं शतकं अपि समाप्तं ~417~ Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१-४], मूलं [१७२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२] गाथा ॥ अथ चतुर्थशतकम् ॥ तृतीयशते प्रायेण देवाधिकार उक्तोऽतस्तदधिकारवदेव चतुर्थ शतं, तस्य पुनरुदेशकार्थाधिकारसहाय गाथा चत्तारि विमाणेहिं चत्तारि य होंति रायहाणीहिं । नेरइए लेस्साहि य दस उद्देसा चउत्थसए ॥ १॥ रायमिहे नगरे जाव एवं वयासी-ईसाणस्स णं भंते । देविंदस्स देवरपणो कति लोगपाला पण्णत्ता, गोयमा! चत्तारि लोगपाला पण्णता, तंजहा-सोमे जमे वेसमणे वरुणे । एएसिणं भंते ! लोगपालाणं कति विमाणा पण्णता ?, गोयमा! चत्तारि विमाणा पण्णत्ता, तंजहा-सुमणे सवओभद्दे वग्गू सुबग्गू । कहि णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारन्नो सुमणो नामं महाविमाणे पण्णत्ते ?, गोयमा! जंबूहीवे २ मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरेणं इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए जाव ईसाणे णाम कप्पे पण्णते, तत्व णं जाव पंचवडेंसया पण्णत्ता, तंजहा-अंकवडेंसए फलिहवर्डिसए रयणव.सए जायरूववर्डिसए मझेय तत्थ ईसाणवडेंसए, तस्स गं ईसाणवटेंसयरस महाविमाणस्स पुरच्छिमेणं तिरियमसंखेजाई जोपणसहस्साई वीतिवतित्ता एवणं ईसाणस्स ३ सोमस्स २ सुमणे नामं महाविमाणे पण्णत्ते अद्धतेरसजोयण जहा सकस्स बत्तवया ततियएसए तहा ईसाणस्सचि जाच अचणिया समत्ता । चउण्हवि लोगपालाणं विमाणे २ उद्देसओ, चउसु विमा णेसु चत्तारि उद्देसा अपरिसेसा, नवरं ठितिए नाण-'आदिदुय तिभागूणा पलिया १ घणयस्स होति दो दीप अनुक्रम [२०७-२०९] 9454554:58 CRACTICALS SHRELIEatuninternational अथ चतुर्थ शतकं आरभ्यते | अथ चतुर्थ-शतके १-४ उद्देशका: आरब्धा: ~418~ Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [४], वर्ग -1, अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१-४], मूलं [१७२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७२] ४ शतके उद्देश ४ इशानलोक पालानां विमानराज धान्य: गाथा व्याख्या- चेव । दो सतिभागा वरुणे पलियमहावञ्चदेवाणं ॥१॥ (सूत्रं १७२ ) चउत्थे सए पढमविइयतइयचउत्था प्रज्ञप्तिः४ उद्देसा समत्ता ॥४-४॥ अभयदेवीयाचित्तारीत्यादि व्यक्तार्था 'अचणिय'त्ति सिद्धायतने जिनप्रतिमाधर्चनमभिनवोत्पन्नस्य सोमाख्यलोकपालस्येति ॥ चतुर्थशते चत्वारः॥४-४॥ ॥२०॥ | रायहाणिसुबि चत्तारि उद्देसा भाणियब्वा जाव एवमहिडीए जाव वरुणे महाराया ॥ (सूत्रं १७३) चउत्थे सए पंचमहसत्तमट्ठमा उद्देसा समत्ता ॥४-८॥ __ 'रायहाणीसु चत्तारि उद्देसया भाणियवा' ते चैवम्-'कहिं णं भंते ! ईसाणस्स देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स महारो | सोमानामं रायहाणी पण्णता ?, गोयमा ! सुमणस्स महाविमाणस्स अहे सपक्खि' इत्यादिपूर्वोक्कानुसारेण जीवाभिगमोक्तविजयराजधानीवर्णकानुसारेण चैकैक उद्देशकोऽध्येतव्य इति, नन्वेता राजधान्यः किल सोमादीनां शक्रस्पेशानस्य च सम्बन्धिनां लोकपालानां प्रत्येकं चतन एकादशे कुण्डलवराभिधाने द्वीपे दीपसागरमज्ञस्यां श्रूयन्ते, उक्तं हि | तत्सबहिण्याम्-"कुंडलनगरस अभितरपासे होंति रायहाणीओ । सोलस उत्तरपासे सोलस पुणदक्खिणे पासे ॥१॥ १ कुण्डलनगस्याभ्यन्तरपार्श्वे राजधान्यो भवन्ति । षोडश उत्तरपार्श्वे षोडश पुनर्दक्षिणे पार्श्वे ॥ १ ॥ १७३ दीप अनुक्रम [२०७-२०९] शा॥२०॥ अत्र चतुर्थ-शतके १-४ उद्देशका: समाप्ता: अथ चर्तुथ-शतके ५-८ उद्देशका: आरभ्यते ~419~ Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१७३] दीप अनुक्रम [२१०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [४], वर्ग [−], अंतर् शतक [-] उद्देशक [५-८], मूलं [१७३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः जा उत्तरेण सोलस ताओ ईसाणलोगपालाणं । सक्करस लोगपालाण दक्खिणे सोलस हवंति ॥ २ ॥ एताश्च सोमप्रभयमप्रभवैश्रमणप्रभवरुणप्रभाभिधानानां पर्वतानां प्रत्येकं चतसृषु दिक्षु भवन्ति, तत्र वैश्रमणनगरीरादौ कृत्वाऽभिहितम्--- “मझे होइ चउन्हें वेसमणपभो नगुत्तमो सेलो । रइकश्यपद्ययसमो उवेहुञ्चत्तविक्खंभे ॥ ३ ॥ तस्स य नगुत्तमस्स उ उ| दिसिं होंति रायहाणीओ । जंबूद्दीवसमाओ विक्खंभायामओ ताओ ॥ ४ ॥ पुवेण अयलभद्दा समकसा रायहाणि दाहि| णओ। अवरेण ऊ कुबेरा घणप्पभा उत्तरे पासे ॥ ५ ॥ एएणेव कमेणं वरुणस्सवि होति अवरपासंमि । वरुणप्पभसेलस्सवि चउद्दिसिं रायहाणीओ ॥ ६ ॥ पुत्रेण होइ वरुणा वरुणपभा दक्खिणे दिसीभाए। अवरेण होइ कुमुया उत्तरओ पुंडरगिणीया ॥ ७ ॥ एएणेव कमेणं सोमस्सवि होंति अवरपासंमि । सोमप्पभ सेलरसवि चउद्दिसिं रायहाणीओ ॥ ८ ॥ १- या उत्तरस्यां षोडश ता ईशानलोकपालानां शक्रस्य लोकपालानां दक्षिणस्मिन् पार्श्वे पोडश भवन्ति ॥ २ ॥ चतुणी मध्ये वैश्रमणप्रभो नगोत्तमः शैलो भवति । उद्वेधोचत्वविष्कम्भे रतिकरकपर्वतसमः ॥ ३ ॥ तस्य च नगोत्तमस्यैव चतसृषु दिक्षु राजधान्यो भवन्ति जम्बूद्वीपसमास्ता विष्कम्भायामतः || ४ || पूर्वस्यामचलभद्रा समुत्कर्षा दक्षिणस्यां राजधानी । अपरस्यां तु कुबेरा उत्तरपार्श्वे धनप्रभा ॥ ५ ॥ एतेनैव क्रमेण वरुणस्यापि भवन्त्यपरपार्श्वे । वरुणप्रभशैलस्यापि चतसृषु दिक्षु राजधान्यः ॥ ६ ॥ पूर्वस्यां भवति वरुणा दक्षिणदिग्भागे वरुणप्रभा । अपरस्यां भवति कुमुदा उत्तरतः पुण्डरीकिणी च ॥ ७ ॥ एतेनैव क्रमेण सोमस्यापि भवन्त्यपरपार्श्वे । सोमप्रभशैलस्यापि चतसृषु दिक्षु राजधान्यः ॥ ८ ॥ Ja Eucation International For Penal Use On ~420~ Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५-८], मूलं [१७३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक व्याख्या-5 पुत्रेण होइ सोमा सोमप्पभ दक्खिणे दिसीभाए । सिवपागारा अवरेण होइ नलियाण(य) उत्तरओ ॥९॥ एएणेव कमेणं ४ शतके द अंतकरस्सवि य होति अवरेणं । समवित्तिप्पभसेलस्स चउद्दिसिरायहाणीओ ॥ १०॥ पुत्रेण ऊ विसाला अतिषिसाला उद उद्देशः ९ अभयदेवी दाहिणे पासे । सेजप्पभाऽवरेणं अमुयापुण उत्तरे पासे ॥११॥" इति, इह च अन्धे सौधर्मावतंसकादीशानावतंसकाच्चासङ्ख्यया निश्चयेनना यावृत्तिः१ योजनकोटीय॑तिक्रम्य प्रत्येक पूर्वादिदिक्षु स्थितानि यानि सन्ध्याप्रभादीनि सुमनप्रभृतीनि च विमानानि तेषामधोऽसङ्ख्याता रकोत्पादः ॥२०४॥ योजनकोटीरवगाह्य प्रत्येकमेकैका नगर्युक्ता ततः कथं न विरोधः इति ?, अत्रोच्यते, अन्यास्ता नगर्यो याः कुण्डलेऽभिधीयन्ते एताश्चान्या इति, यथा शकेशानायमहिषीणां नन्दीश्वरद्वीपे कुण्डलद्वीपे चेति ॥ चतुर्थशतेऽष्टमः ॥४-८॥ [१७३] दीप अनुक्रम [२१०] अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ताऽथ वैक्रियशरीरसाधान्नारकवक्तव्यताप्रतिबद्धो नवमोद्देशक उच्यते, तत्रेदमादिसूत्रम्नेरइए णं भंते ! नेरतिएम उववजह अनेरहए नेरइएसु उववजह पन्नवणाए लेस्सापए ततिओ उद्देसओ भाणियच्यो जाव नाणाई (सूत्रं १७४) चउत्थसए नवमो उद्देसो समत्तो ॥४-९॥ 'नरइए ण'मित्यादि, 'लेस्सापए'त्ति सप्तदशपदे 'तइओ उद्देसओ भाणियव्वोत्ति कचिद् द्वितीय इति दृश्यते स १ पूर्वस्यां भवति सोमा सोमप्रभा दक्षिणदिग्भागे । अपरस्पां शिवप्राकारा उत्तरस्यां भवति नलिना च ॥९॥ एतेनैव क्रमेण | यमस्यापि चापरस्पो भवन्ति । समवृत्तिप्रभशैलस्य चतसृषु दिक्षु राजधान्यः ॥ १० ॥ पूर्वस्यां तु विशाला दक्षिणपाई खतिविशाला । अपरस्यां शय्याप्रभा उत्तरे पार्श्वेऽमूका ॥११॥ ।।२०४॥ CR अत्र चतुर्थ-शतके ५-८ उद्देशका: समाप्ता: अथ चर्तुथ-शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते ~421 Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [१७४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७४] चापपाठ इति, स चैवम्-'गोयमा ! नेरइए नेरइपसु उववज्जइ नो अणेरइए नेरइएसु उवषजई' इत्यादि, अयं चास्यार्थःनैरयिको नैरयिकेपूत्पद्यते न पुनरनैरयिका, कथं पुनरेतत् ?, उच्यते, यस्मान्नारकादिभवोपग्राहकमायुरेवातो नारकाद्यायुःप्रथमसमयसंवेदनकाल एव नारकादिव्यपदेशो भवति ऋजुसूत्रनयदर्शनेन, यत उक्तं नवविद्भिजुसूत्रस्वरूपनिरूपणं है कुर्वद्भिः-"पलाल न दहत्यग्निर्भिद्यते न घटः क्वचित् । न शून्यानिर्गमोऽस्तीह, न च शून्यं प्रविश्यते ॥१॥ नारकव्यतिरि-5 कञ्च, नरके नोपपद्यते । नरकान्नारकश्चास्य, न कश्चिद्विप्रमुच्यते ॥२॥" इत्यादीनि, 'जाव नाणाई'ति, अयमुदेशको ज्ञानाधिकारावसानोऽध्येतव्यः, स चायम्-'कण्हलेरसे णं भंते ! जीवे कयरेसु णाणेसु होज्जा!, गोयमा ! दोसुवा तिसु । वा चउसु वा णाणेसु होजा, दोसु होजमाणे आभिणिवोहियमुयणाणेसु होजा' इत्यादि । चतुर्थशते नवमः ॥४-९॥3 Domo दीप अनुक्रम [२११] लेश्याधिकारात्तद्वत एव दशमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्8 से नूर्ण भंते ! कण्हलेस्सा नीललेस्सं पप्प तारुवत्ताए तावण्णत्ताए एवं चउत्थो उद्देसओ पन्नवणाए चेव लेस्सापदे नेयब्बोजाब-परिणामवण्णरसगंधसुद्धअपसस्थसंकिलिहण्हा। गतिपरिणामपदेसोगाहवग्गणाठाण मप्पबहुं ॥१॥सेवं भंते!२त्ति ॥(मूत्रं १७५) चउत्थसए दसमो उद्देसी समत्तो॥४-१०॥ चउत्थं सर्व समतं ॥४॥ IPL 'से नूण'मित्यादि, 'तारूवताए'त्ति तद्वपतया-नीललेश्यास्वभावेन, एतदेव व्यनक्ति-तावण्णत्ताए'त्ति तस्या इव-13 नीललेश्याया इव वर्णो यस्याः सा तद्वी तद्भावस्तत्ता तया तर्णतया, 'एवं चउत्थो उद्देसओ' इत्यादिवचनादेवं द्रष्ट HRIRaitaram.org अत्र चतुर्थ-शतके नवम-उद्देशकः समाप्त: अथ चर्तुथ-शतके दशम-उद्देशक: आरभ्यते ~422~ Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१७५] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७५] गाथा व्याख्या-1व्यम्-'तागंधत्ताए तारसत्ताए ताफासत्ताए भुजोर परिणमति,हता गोयमा!कण्हलेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए ५ भुज्जो शतके प्रज्ञप्तिः ४२ परिणमति' अयमस्य भावार्थः-यदा कृष्णलेश्यापरिणतो जीवो नीललेश्यायोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा कालं करोति तदा ८ उद्देशः१० अभयदेवी- नीललेझ्यापरिणत उत्पद्यते 'जल्लेसाई दवाई परियाइत्ता कालं करेइ तल्लेसे उबवजईत्ति वचनात्, अतः कारणमेव कार्य | शालेश्यानाम या वृत्तिः१|| | भवति, 'कण्हलेसा नीललेसं पप्पे'त्यादि तु कृष्णनीललेश्ययोर्भेदपरमुपचारादुक्तमिति, 'से केणछेणं भंते! एवं बुच्चइ किण्ह लन्योऽन्यप॥२०॥ रिणामः लेसा नीललेसं पप्प तारूवत्ताए ५ भुजो २ परिणमइ ?, गोयमा ! से जहाणामए-खीरे दूसिं पप्प [ तक्रमित्यर्थः] सुद्धे सू१७५ वा वत्थे राग पप्प तारूवत्ताए भुजो २ परिणमइ, से एएणडेणं गोयमा एवं बुच्चइ-कण्हलेसा' इत्यादि, एतेनैवाभिलापेन नीललेश्या कापोती कापोती तैजसी तैजसी पद्मा पद्मा शुक्लां प्राप्य तद्पत्वादिना परिणमतीति वाच्यं, अथ कियहूरमय| मुद्देशको वाच्यः? इत्याह-'जावें'त्यादि परिणाम त्यादिद्वारगाथोक्तद्वारपरिसमाप्तिं यावदित्यर्थः, तत्र परिणामो दर्शित एव, | तथा वन्न'त्ति कृष्णादिलेश्यानांवों वाच्यः, स चैवम्-'कण्हलेसाणंभंते! केरिसिया वन्नेणं पण्णते?" त्यादि, उत्तरं तु कृष्णलेश्या कृष्णा जीमूतादिवत् नीललेश्या नीला भृङ्गादिवत् कापोती कापोतवर्णा खदिरसारादिवत् तैजसी लोहिता शश-॥१ करकादिवत् पद्मा पीता चम्पकादिवत् शुक्ला २ शङ्खादिवदिति, तथा 'रस'त्ति रसस्तासां वाच्यः, तत्र कृष्णा तिक्तरसा [निम्बादिवत् नीला कटुकरसा नागरवत् कापोती कषायरसा अपक्कबदरवत् तेजोलेश्या अम्लमधुरा पक्काबादि फलवत् पालेश्या कटुककषायमधुररसा चन्द्रप्रभासुरादिवत् शुक्ललेश्या मधुररसा गुडादिवत्, 'गंध'त्ति लेश्यानां गन्धो वाच्या, | तत्राद्यास्तिस्रो दुरभिगन्धाः अन्त्यास्तु तदितराः 'सुद्ध'त्ति अन्त्याः शुद्धा आद्यास्त्वितराः 'अप्पसस्थति आधा अप्रशस्ता ACCASCANNOCONCR569व SRASHASABC दीप अनुक्रम [२१२२१४] ॥२०५॥ SARERainintamaraana | लेश्याया: परिणामस्य वर्णनं ~423~ Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [४], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [१७५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७५] गाथा अन्त्यास्तु प्रशस्साः 'संकिलिह'त्ति आद्याः सक्लिष्टा अन्त्यास्त्वितराः 'उण्ह'त्ति अन्त्या उष्णाः स्निग्धाश्च आद्यास्तु शीता | रूक्षाच 'गति'त्ति आद्या दुर्गतिहेतवोऽन्त्यास्तु सुगतिहेतवः 'परिणाम'त्ति लेश्यानां कतिविधः परिणामः ? इति वाच्यं, तत्रासौ जघन्यमध्यमोत्कृष्टभेदात्रिधा उत्पातादिभेदादा त्रिघेति 'पएस'त्ति आसां प्रदेशा बाच्यास्तत्र प्रत्येकमनन्तप्रदेशिका एता इति 'ओगाह'त्ति अवगाहना आसां वाच्या तत्रैता असङ्ख्यातप्रदेशावगाढाः 'वग्गण'त्ति वर्गणा आसां वाच्याः, तत्र वर्गणाः कृष्णलेश्यादियोग्यद्रव्यवर्गणाः, ताश्चानन्ता औदारिकादिवर्गणावत् , 'ठाण'त्ति तारतम्येन विचिबाध्यवसायनिवन्धनानि कृष्णादिद्रव्यवृन्दानि तानि चासोयानि अध्यवसायस्थानानामसमातत्वादिति, 'अप्पवर्तुति लेश्यास्थानानामल्पबहुत्वं वाच्यं, तच्चैवम्-'एएसि णं भंते ! कण्हलेसाठाणाणं जाव सुक्कलेसाठाणाण य जहन्नगाणं दवडयाए ३ कयरेशहितो अप्पा वा ४१, गोयमा ! सबथोवा जहन्नगा काउलेस्साठाणा दवठ्ठयाए जहन्नगा नीललेस्साठाणा | दबठ्याए असंखेज्जगुणा जहन्नगा कण्हलेसाठाणा दबट्टयाए असंखेज्जगुणा जहन्नगा तेउलेसाठाणा दबयाए असंखेज-14 गुणा जहन्नगा पम्हलेसाठाणा दबट्टयाए असंखेज्जगुणा जहन्नगा सुक्कलेस्साठाणा दवड्याए असंखेजगुणा' इत्यादीनि ॥ चतुर्थशते दशमः ॥४-१०॥ चतुर्थ शतं समाप्तम् ॥४॥ स्वतः सुबोधेऽपि शते तुरीये, व्याख्या मया काचिदियं विहब्धा । दुग्धे सदा स्वादुतमे स्वभावात् , क्षेपो न युक्तः किमु शकेरायाः ॥१॥ दीप अनुक्रम [२१२२१४] ४॥ इति श्रीमब्याख्याप्रज्ञप्ती श्रीमदभयदेवाचार्यायवृत्तौ चतुर्थ शतकं समासम् ॥ MaraNPANDIPOEMPIRSANSPONSPSNPISO9APPAPADAPOOR Punaturary.com अत्र चतुर्थ-शतके दशम-उद्देशकः समाप्त: लेश्याया: परिणामस्य वर्णनं तत् समाप्ते चतुर्थं शतकं अपि समाप्तं ~424~ Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा दीप अनुक्रम [२१५ -२१६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [ १७६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ २०६ ॥ ॥ अथ पञ्चमं शतकम् ॥ १ चतुर्थशतान्ते लेश्या उक्ताः, पञ्चमशते तु प्रायो लेश्यावन्तो निरूप्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्योदेशक सङ्ग्रहाय गाथेयम् - चंपरवि १ अनिल २ गंठिय ३ सदे ४ छउमायु ५-६ एयण ७ नियंठे ८ । रायगिहं ९ चंपाचंदिमा १० य | दस पंचमंमि सए ॥ १ ॥ तेणं कालेणं २ चंपानामं नगरी होत्था, वन्नओ, तीसे णं चंपाए नगरीएपुण्णभद्दे नामे चेहए होत्या वण्णओ, सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया । तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इंदभूतीणामं अणगारे गोयमगोत्तेणं जाव एवं वदासी- जंबूद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीणपादीणमुग्गच्छ पादीणदाहिणमागच्छंति, पादीणदाहिणमुग्गच्छ दाहिणपतीणमागच्छंति, दाहिणपडीणमुग्गड पडीणउदीणमागच्छति पदीणउदीण उग्गच्छ उदीचिपादीणमागच्छति ?, हंता ! गोयमा ! जंबूद्दीवे णं दीवे सूरिया उदीचिपाईणमुरगच्छ जाव उदीचिपाईणमागच्छति ॥ ( सूत्रं १७६ ) ॥ 'चंपे 'त्यादि, तत्र चम्पायां रविविषयप्रश्ननिर्णयार्थः प्रथम उद्देशकः १ 'अनिल'सि वायुविषयप्रश्ननिर्णयार्थी द्वितीयः | 'गंठिय'त्ति जालग्रन्थिकाज्ञातज्ञापनीयार्थनिर्णय परस्तृतीयः ३ 'सदेति शब्दविषयप्रश्वनिर्णयार्थश्चतुर्थः ४ 'उम' ति | छद्मस्थवतव्यतार्थः पञ्चमः ५ 'आउ'त्ति आयुषोऽल्पत्वादिप्रतिपादनार्थः षष्ठः ६ 'एयण'त्ति पुद्गलानामेजनाद्यर्थप्रतिपादकः सप्तमः ७ 'नियंटे' त्ति निर्मन्थीपुत्राभिधानानगारविहितवस्तुविचारसारोऽष्टमः ८ 'रायगिति राजगृहनगर विचारणपरो Eaton International अत्र पंचम शतके प्रथम उद्देशक: आरब्धः For Parts Only अथ पंचमं शतकं आरभ्यते ~425~ ४ शतक उद्देशः १ पूर्वोत्तराद्या सु सूर्यभ्रमः १७६ ॥२०६ ॥ nary org Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७६] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७६] गाथा नवमः९ 'चंपाचं दिमा यत्ति चम्पायां नगर्यो च चन्द्रमसो वक्तव्यतार्थो दशमः १०॥ तत्र प्रथमोद्देशके किश्चिलिख्यतेहै। 'सूरिय'त्ति द्वौ सूर्यो, जम्बूद्वीपे द्वयोरेव भावात् 'उदीणपाईणं'ति उदगेव उदीचीनं प्रागेव प्राचीन उदीचीनंच मतदुदीच्या आसन्नत्वात् प्राचीनं च तत्वाच्या प्रत्यासन्नत्वाद् उदीचीनप्राचीन-दिगन्तरं क्षेत्रदिगपेक्षया पूर्वोत्तरदिगि त्यर्थः 'जग्गच्छत्ति उद्गत्य क्रमेण तत्रोद्गमनं कृत्वेत्यर्थः 'पाईणदाहिणं'ति प्राचीनदक्षिणं दिगम्तरं पूर्वदक्षिणमित्यर्थः & 'आगच्छति'त्ति आगच्छतः क्रमेणैवास्तं यात इत्यर्थः, इह चोद्गमनमस्तमयं च द्रष्टलोकविवक्षयाऽवसेयं, तथाहि-येषाममाश्यौ सन्तौ दृश्यौ तौ स्यातां ते तयोरुगमनं व्यवहरन्ति येषां तु दृश्यो सन्तावश्यौ तस्ते तयोरस्तमय व्यवहरन्तीत्य-15 नियतावुदयास्तमयी, आह च-"जह २ समए २ पुरओ संचरइ भक्खरोगयणे । तह तह इओवि नियमा जायइ रयणीय भावस्थो ॥१॥ एवं च सइ नराणं उदयत्थमणाई होतऽनिययाई । सइ देसभेत् कस्सइ किंची ववदिस्सए नियमा ॥२॥ सइ काचेव य निदिहो भद्दमुहुत्तो कमेण सबेसि । केसिंचीदाणिपि य विसयपमाणे रवी जेसिं ॥३॥" इत्यादि, अनेन च सूत्रेण सूर्यस्य चतसृषु दिक्षु गतिरुक्का, ततश्च ये मन्यन्ते सूर्यः पश्चिमसमुद्रं प्रविश्य पातालेन गत्वा पुनः पूर्वसमुद्रमुदेतीत्यादि तन्मतं निषिद्धमिति ॥ इह च सूर्यस्य सर्वतो गमनेऽपि प्रतिनियतत्वात्तत्प्रकाशस्य रात्रिदिवसविभागोऽस्तीतितं क्षेत्रभेदेन दर्शयन्नाह १ यथा यथा समये समये गगने भास्करः पुरतः संचरति तथा तथेतोऽपि नियमाद्रात्रिीयत इति भावार्थः ॥ १॥ एवं च सति XII नराणामुदयास्तमयनावनियती भवतः । सति देशभेदे कस्यचित्किञ्चिद्वयपदिश्यते नियमात् ॥ २॥ सकृयेव सर्वेषां क्रमेण भद्रमों निर्दिष्ट है इति । केषाञ्चिदिदानीमपि च स येषां रविविषयप्रमाणे ॥३॥ दीप अनुक्रम [२१५-२१६] For P OW ~426~ Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] सू १७७ दीप अनुक्रम [२१७] व्याख्या- जयाणं भंते ! जंबूदीवे २ दाहिणद्वे दिवसे भवति तदाणं उत्तरहे दिवसे भवति जदा णं उत्तरहेवि दिवसे । ५ शतके प्रज्ञप्तिः भवति तदा णं जंबूद्दीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपचत्यिमेणं राती भवति ?, हंता गोयमा ! जया गं | उद्देश अभयदेवी || जनहीवे २ दाहिणदेवि दिवसे जाव राती भवति ।जदाणे भंते! जंबू० मंदरस्त पन्वयस्स पुरछिमेणं दिवसे या वृत्तिः१ ला भवति तदा णं पञ्चत्थिमेणवि दिवसे भवति जया णं पञ्चत्थिमेणं दिवसे भवति तदा णं जंबूद्दीवे २ मंदरस्स| SIMITE ॥२०७॥ |पश्चयस्स उत्तरदाहिणणं राती भवति ?, हंता गोयमा! जदा णं जंबू० मंदरपुरच्छिमेणं दिवसे जाव राती | रात्रिमानं काभवति, जदा गंभंते ! जंबूदीचे २ दाहिणढे उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तदाणं उत्तरहेवि उक्कोसए| अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति जदाणं उत्तरद्धे उकोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवति तदा णं जंबूरीवे २ मंदरस्स पुरच्छिमपञ्चस्थिमेणं जहनिया दुवालसमुहत्ता राती भवति ?, हंता गोयमा ! जदा णं जंबू० जावई |दुवालसमुहुत्ता राती भवति । जदा जंबू० मंदरस्स पुरच्छिमेणं उकोसए अट्ठारस जाव तदा णं जंबूदीये २] पचत्थिमेणवि उको अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवति जया णं पचत्थिमेणं उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे | भवति तदाणं भंते । जंबूहीवे २ उत्तर दुवालसमुहत्ता जाव राती भवति,हंता गोयमा! जाव भवति। |जया णं भंते ! जंबू दाहिणढे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे | ॥२०७॥ |भवति जदा णं उत्तरे अट्ठारसमुहुत्ताणंतरे दिवसे भवति तदा णं जंबू० मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमपञ्चस्थिमेणं सातिरेगा दुवालस मुहुत्ता राती भवति ?, हंता गोयमा ! जदाणं जंबू० जाव राती भवति । जदा णं| MEASURINN 5453 जम्बुद्विपे दिवस-रात्री-परिमानं ~427~ Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [२१७] भंते ! जंबूहीवे २ पुरच्छिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदा णं पञ्चत्थिमेणं अट्ठारसमुटुत्ताणतरे 18| दिवसे भवति जदाणं पचस्थिमेणं अट्ठारसमुहुत्ताणतरे दिवसे भवति तदाणं जंबू०२ मंदरस्स पब्वयस्स दाहि-* ताणणं साइरेगा दुबालसमुहुत्ता राती भवति?, हंता गोयमा! जाव भवति ।। एवं एतेणं कमेणं ओसारेयब्वं सत्तरसमुहुत्ते दिवसे तेरसमुहुत्ता राती भवति सत्तरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा तेरसमुहुत्ता राती सोलसमुहुत्ते दिवसे चोद्दसमुहुत्ता राई सोलसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगचोइसमुहुत्ता रांती पन्नरसमुहुत्ते दिवसे पन्नरसमुहुत्ता राती भवति पन्नरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा पन्नरसमुहुत्ता राती चोएस-8 मुहत्ते दिवसे सोलसमुहुत्ता राती चोदसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा सोलसमुहुत्ता राती तेरसमुहुत्ते दिवसे सत्तरसमुहत्ता राती तेरसमुहुत्ताणतरे दिवसे सातिरेगा सत्तरसमुहुत्ताराती। जया णं जंबू दाहिणले जहण्णए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति तया णं उत्तरहृषि, जया णं उत्तरडे तया णं जंबूरीव २ मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं उक्कोसिया अहारसमुहुत्ता राती भवति , हंता गोयमा! एवं चेव उच्चारेयव्वं । जाव राई भवति । जया णं भंते ! जंबू० मंदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवति | तया णं पञ्चत्यिमेणवि० तया णं जंबू० मंदरस्स उत्तरदाहिणेणं उक्कोसिया अट्ठारसमुहत्ता राती भवति,8 नाहंता गोयमा ! जाव राती भवति ।। (सूत्रं १७७)॥. | 'जया ण'मित्यादि, इह सूर्यद्वयभावादेकदैव दिग्द्वये दिवस उक्तः, इह च यद्यपि दक्षिणार्डे तथोत्तरार्द्ध इत्युक्तं SAHASR555 जम्बुद्विपे दिवस-रात्री-परिमानं ~428~ Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [२१७] ब्याख्या- तथाऽपि दक्षिणभागे उत्तरभागे चेति बोद्धव्यं, अर्द्धशब्दस्य भागमात्रार्थत्वात् , यतो यदि दक्षिणा उत्सराः च समन ||2| ५ शतके प्रज्ञप्तिः 18 एव दिवसः स्यात्तदा कथं पूर्वेणापरेण च रात्रिः स्यादिति वक्तुं युज्येत, अर्द्धद्वयग्रहणेन सर्वक्षेत्रस्य गृहीतत्वात् , इतश्च । उद्देशः१ अभयदेवी & दक्षिणार्धादिशब्देन दक्षिणादिदिग्भागमात्रमेवाबसेयं न त्वर्द्ध, अतो यदाऽपि दक्षिणोत्तरयोः सर्वोत्कृष्टो दिवसो भवति । पूर्वपश्चिमोया वृत्तिः१ मतदाऽपि जम्बूद्वीपस्य दशभागत्रयप्रमाणमेव तापक्षेत्रं तयोः प्रत्येक स्थाद, दशभागद्वयमानं च पूर्वपश्चिमयोः प्रत्येकं रात्रि-|| चराक्ष P णार्धेषु दिन ॥२०८॥ क्षेत्र स्यात् , तथाहि-षष्ट्या मुहूः किल सूर्यो मण्डलं पूरयति, उत्कृष्टदिनं चाष्टादशभिर्मुहूत्रुक्त, अष्टादश च षष्टेर्दश रात्रिमानं भागत्रितयरूपा भवन्ति, तथा यदाऽष्टादशमुहत्तों दिवसो भवति तदा रात्रिदशमुहतों भवति, द्वादश च षष्टेदेश-15 सू १७७ भागद्यरूपा भवन्तीति, तत्र च मेरु प्रति नव योजनसहस्राणि चत्वारि शतानि षडशीत्यधिकानि नव च दश भागा|| PM योजनस्वेत्येतत्सर्वोत्कृष्टदिवसे दशभागत्रयरूपं तापक्षेत्रप्रमाणं भवति ९४८६. कथम् !, मन्दरपरिक्षेपस्य किश्चिन्यूनत्रयो || विंशत्युत्तरषट्शताधिकैकत्रिंशद्योजनसहस्रमानस्य ११६-२३ दशभिर्भागे हते यल्लब्धं ३१५२, तस्य विगुणितत्वे एतस्य भावादिति । सथा लवणसमुद्रं प्रति चतुर्नवतिर्योजनानां सहस्राणि अष्टौ शतान्यष्टषष्ठयधिकानि चत्वारश्च दशभागा योजन| स्येत्येतदुत्कृष्टदिने तापक्षेत्रप्रमाणं भवति ९४८५८... कथम् !, जम्बूदीपपरिधेः किश्चिन्यूनाष्टाविंशत्युत्तरशतद्वयाधिकपो- 8 ॥२०॥ &||शसहस्रोपेतयोजनलक्षत्रयमानस्य ३१६२२८ दशभिर्भागे हते यलब्ध तस्य त्रिगुणितत्वे एतस्य भावादिति । जघन्य-| रात्रिक्षेत्रप्रमाणं चाप्येवमेव, नवरं परिघेर्दशभागो द्विगुणः कार्यः, तत्राद्यं पड़ योजनानां सहस्राणि त्रीणि शतानि चतुर्विशत्यधिकानि षट् च दशभागा योजनस्य ६३२४ द्वितीयं तु त्रिषष्टिः सहस्राणि हे पञ्चचत्वारिंशदधिक योजनानां जम्बुद्विपे दिवस-रात्री-परिमानं ~429~ Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१७७] दीप अनुक्रम [२१७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [ १७७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः शते पट् च दशभागा योजनस्य ६३२४५, सर्वलघी च दिवसे ताप क्षेत्रमनन्तरोक्तरात्रिक्षेत्रतुल्यं रात्रिक्षेत्रं त्वनन्तरोकता - पक्षेत्रतुल्यमिति, आयामतस्तु तापक्षेत्रं जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चचत्वारिंशयोजनानां सहस्राणीति, लवणे च त्रयस्त्रिंशत्सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि त्रिभागश्च योजनस्य ३३३३३३, उभयमीलने त्वष्टसप्ततिः सहस्राणि त्रीणि शतानि त्रयस्त्रिंशदधिकानि योजनत्रिभागश्चेति ७८३१२३ । 'उक्कोसए अट्ठारसमुहते दिवसे भवह'त्ति इह किल सूर्यस्य चतुरशीत्यधिकं मण्डलशतं भवति, तत्र किल जम्बूद्वीपमध्ये पञ्चपष्टिर्मण्डलानि भवन्ति, एकोनविंशत्यधिकं च तेषां शतं लवणसमुद्रस्य मध्ये भवति, तत्र च सर्वाभ्यन्तरे मण्डले यदा वर्त्तते सूर्यस्तदाऽष्टादशमुत्तों दिवसो भवति, कथम् ?, यदा सर्ववाये मण्डले वर्त्ततेऽसौ तदा सर्वजघन्यो द्वादशमुहर्त्ता दिवसो भवति, ततश्च द्वितीयमण्डलादारभ्य प्रतिमण्डलं द्वाभ्यां मुहर्त्तेकषष्टिभागाभ्यां दिनस्य वृद्धी व्यशीत्यधिकशततमे मण्डले पट्ट मुहूर्त्ता वर्द्धन्त इत्येवमष्टादशमुहूर्ती दिवसो भवति, अत एव द्वादशमुहूर्त्ता रात्रिर्भवति, त्रिंशन्मुहूर्त्तत्यादहोरात्रस्य । 'अहारसमुहस्ताणंतरेति यदा सर्वाभ्यन्तरमण्डलानन्तरे मण्डले वर्त्तते सूर्यस्तदा मुहूत्तैकपष्टिभागद्वयहीनाष्टादशमुहूत दिवसो भवति, स चाष्टादशमुहूर्त्ताद्दिवसादनन्तरोऽष्टादशमुहूर्त्तानन्तरमिति व्यपदिष्टः, 'सातिरेगा दुवालसमुहुत्ता राहत्ति द्वाभ्यां मुहत्तषष्टिभागाभ्यामधिका द्वादशमुहूर्त्ता 'राई भवइति रात्रिप्रमाणं भवतीत्यर्थः यावता भागेन दिनं हीयते सावता रात्रिर्वर्द्धते, त्रिंशन्मुहूर्त्तत्वादहोरात्रस्येति ॥ 'एवं एएणं कमेणं' एवमित्युपसंहारे 'एतेन' अनन्तरोकेन 'जया णं भंते ! जंबूदीवे २ दाहिणट्टे' इत्यनेनेत्यर्थः, 'ओसा| रेयब्बति दिनमानं स्वीकार्य, तदेव दर्शयति- 'सत्तरसे' त्यादि, तत्र सर्वाभ्यन्तर मण्डलानन्तरमण्डलादारम्यैकत्रिंशतम जम्बुद्विपे दिवस-रात्री - परिमानं For Park Use Only ~ 430~ anurary org Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७७] ॥२०॥ दीप व्याख्या- मण्डलार्डे यदा सूर्यस्तदा सप्तदशमुहत्तों दिवसो भवति, पूर्वोक्तहानिक्रमेण त्रयोदशमुहूर्ता च रात्रिरिति । 'सत्तरस- ५ शतके प्रज्ञप्तिः मुहुत्ताणतरे'त्ति मुहूसेकपष्टिभागद्वयहीनसप्तदशमुहूर्तप्रमाणो दिवसः, अयं च द्वितीयादारभ्य द्वात्रिंशत्तममण्डला ||| उद्दशः१ अभयदेवी है भवति, एवमनन्तरत्वमन्यत्राप्यूह्य, साइरेगतेरसमुहुत्ता राइ'त्ति मुहकपष्टिभागद्वयेन सातिरेकत्वम् , एवं सर्वत्र 'सोल- जम्बूद्वीपरी या वृत्तिः समुहत्ते दिवसे'त्ति द्वितीयादारभ्यैकषष्टितममण्डले पोडशमुहत्तों दिवसोभवति, पारसमुहत्ते दिवसे'त्ति द्विनवतितम-IMLA A MER दिरात्रिप्रभृति मण्डलार्द्ध वर्तमाने सूर्य, चोद्दसमुहुत्ते दिवसे'त्ति द्वाविंशत्युत्तरशततमे मण्डले, 'तेरसमुहुत्ते दिवसे'त्ति सार्धद्विपश्चाशदु-18 त्तरशततमे मण्डले, 'बारसमुहुत्ते दिवसे'त्ति त्र्यशीत्यधिकशततमे मण्डले सर्वबाह्य इत्यर्थः ॥ कालाधिकारादिदमाह- १७८ जया णं भंते ! जंबू० दाहिणहे वासाणं पढमे समए पडिवजातया णं उत्तरहेवि वासाणं पढमे समए पडि- १७९ ४ वजह जया णं उत्तरहेवि वासाणं पढमे समए पडिवजह तया णं जंबूदीवे २ मंदरस्स पव्वयस्स पुरच्छिमपच|स्थिमेणं अर्णतरपुरक्खडसमयंसि वासाणं प० स०प०१,हंता गोयमा ! जया णं जंबू०२ दाहिणहे वासाणं| |प०स०पडिवजह तह चेव जाव पडिवजह । जयाणं भंते! जंबू० मंदरस्स० पुरच्छिमेणं वासाणं पढमे स०पडिवनइ तया णं पचत्थिमेणवि वासाणं पढमे समए पडिवजह, जया णं पञ्चस्थिमणवि वासाणं पढमे समए पडि-15 वजा तया णं जाव मंदरस्स पब्वयस्स उत्तरदाहिणेणं अणंतरपच्छाकडसमयंसि वासाणं प० स० पडिबन्ने || II ॥२०॥ भवति ?, हंता गोयमा! जया णं जंबू० मदरस्स पब्वयस्स पुरच्छिमेणं, एवं चेव उच्चारेयब्वं जाव पडिवन्ने | भवति । एवं जहा समएणं अभिलावो भणिओवासार्ण तहा आवलियाएविरभाणियव्वो, आणापाणुणवि३ अनुक्रम [२१७] 5512560 SNEnirahi जम्बुद्विपे दिवस-रात्री-परिमानं ~431~ Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७८-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८-१७९] +CCESCRICC थोवेणवि४ लवेणवि ५ मुहुत्तेणवि ६ अहोरत्तेणविपक्खणवि ८मासेणवि९उऊणावि१०,एएसि सव्वेसिं जहा & समयस्स अभिलावो तहा भाणियब्वो।जयाणं भंते! जंबू० दाहिणढे हेमंताणं पढमे समए पडिवज्जति जहेब कावासाणं अभिलावोतहेव हेमंताणवि २०गिम्हाणवि ३० भाणियब्यो जाव उऊ, एवं एए तिन्निवि, एएसिं तीस आलावगा भाणियब्वा। जया णं भंते! जंबू० मंदरस्स पब्वयस्स दाहिणड्डे पढ़मे अयणे पडिवजातया णं उत्तरहेवि पढमे अयणे पडिवजा, जहा समएणं अभिलायो तहेव अयणेणवि भाणियब्वोजाव अणंतरपच्छाकडसमयंसि | पढमे अयणे पडिवन्ने भवति,जहा अयणेणं अभिलावो तहा संवच्छरेणविभाणियब्वो, जुएणवि वाससएणवि || ४वाससहस्सेणवि वाससयसहस्सेणवि पुष्वंगेणवि पुब्वेणवि तुड़ियंगेणवि तुडिएणवि, एवं पुब्वे २तुडिए २ अडडे २ अववे २ हङ्कए २ उप्पले २ पउमे २ नलिणे २ अच्छणिउरे २अउए २ णउए २ पउए २ चूलिया २ सीसपहेलिया २ पलिओवमेणवि सागरोवमेणवि भाणियब्वो। जयाणं भंते ! जंबूहीवे २ दाहिणहे पढमाओसप्पिणी|| पडिवजह तयाणं उत्तरदेवि पढमाओसप्पिणी पडिवजह, जयाणं उत्तरहेवि पडिवजह तदा जंबूहीये २ मंद-18 रस्स पब्वयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणवि, वत्थि ओसप्पिणी नेवस्थि उस्सप्पिणी अवट्ठिए णं तस्थ काले पन्नते? समणाउसो!, हंता गोयमा ! तं चेव उचारेयव्वं जाव समणाउसो, जहा ओसप्पिणीए आलावओ भणिओ एवं उस्सपिणीएवि भाणियब्वो॥ (मूबं१७८) लवणेणं भंते ! समुद्दे सूरिया उदीचिपाईणमुग्गच्छ जच्चेच जंग- हीवस्स वत्तव्यया भणिया सच्चेव सव्वा अपरिसेसिया लवणसमुहस्सवि भाणियब्बा, नवरं अभिलायो इमो GARAANEER दीप अनुक्रम २१८-२१९] जम्बुद्विपे दिवस-रात्री-परिमानं ~432~ Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१७८ -१७९] दीप अनुक्रम [२१८ -२१९]] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१७८-१७९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥११०॥ ४ पदवी-जया णं भंते! लवणे समुद्दे दाहिणढे दिवसे भवति तं चैव जाब तदा णं लवणे समुद्दे पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं राई भवति, एएणं अभिलाषेणं नेयव्वं । जदा णं भंते । लचणसमुद्दे दाहिणडे पढमाओस्सप्पिणी | पडिवाइ तदा णं उत्तरदेवि पढमाओस्सप्पिणी पडिवज्जइ, जदा णं उत्तर पढमाओसप्पिणी पडिवजह तदाणं लवणसमुद्दे पुरच्छिमपचस्थिमेणं नेवत्थि ओसप्पिणी २ समणाउसो ! १, हंता गोयमा ! जाव समणाउसो ! ॥ धायईसंडे णं भंते ! दीवे सूरिया उदीचिपादीणमुग्गच्छ जहेब जंबूद्दीवस्स वतव्वया भणिया सदेव | धायइडस्सवि भाणियच्वा, नवरं इमेणं अभिलावेणं सव्वे आलावगा भाणियन्वा । जया णं भंते ! धायइसंडे दीवे दाहिणहे दिवसे भवति तदाणं उत्तरद्वेचि जया णं उत्तरद्वेषि तदाणं घायइसंडे दीवे मंदराणं पव्य| याणं पुरच्छिमपचत्थिमेणं राती भवति ?, हंता गोयमा ! एवं चेव जाव राती भवति । जदा णं भंते ! घायइसंडे दीवे मंदराणं पव्बयाणं पुरच्छिमेण दिवसे भवति तदाणं पचत्थिमेणवि, जदाणं पञ्चत्थिमेणवि तदा णं धायइसंडे दीवे मंदराणं पव्वयाणं उत्तरेणं दाहिणेणं राती भवति ?, हंता गोयमा ! जाव भवति, एवं एएणं अभिलावेणं नेयब्यं जाव जया णं भंते! दाहिणडे पढमाओस्स० तया णं उत्तरडे जया णं उत्तर तथा णं धाय. इसंडे दीवे मंदराणं पञ्चयाणं पुरच्छिमपचत्थिमेणं नत्थि ओस० जाव ? समणाउसो !, हंता गोयमा ! जाब समणाउसो !, जहा लवणसमुदस्स वत्तव्वया तहा कालोदस्सवि भाणियव्था, नवरं कालोदस्स नाम भाणि| यव्वं । अभितरपुक्खर णं भंते ! सुरिया उदीचिपाईणमुरगच्छ जहेब धायइसदस्स वत्तब्वया तहेव अभि Eucatun Intention For Parts Only लवणसमुद्रे- धायईसंडे कालोदसमुद्रे अभ्यंतरपुष्करार्धे दिवस-रात्री-परिमानं ~ 433~ ५ शतके उद्देशः १ जम्बूद्वीपेशे षषुचदिनरात्रिप्रभृति प्रतिपत्तिः सू १७८ १७९ ॥२१०॥ Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [१७८-१७९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१७८-१७९] तरपुक्खर द्धस्सवि भाणियव्वा नवरं अभिलावो जाव जाणेयब्वो जाव तया णं अम्भितरपुक्खरद्धे मंदराणं पुरच्छिमपचत्थिमेणं नेवस्थि ओस० नेवत्थि उस्सप्पिणी अवढिए णं तस्थ काले पन्नत्ते समणाउसो! सेवं 3/ भंते २॥ (सूत्रं १७९) ॥ पंचमसए पढमो उद्देसो समत्तो ॥५-२॥ __ 'जया णं भंते ! जंबूद्दीवे २ दाहिणहे वासाणं पढमे समए पडिवजई' इत्यादि, 'वासाणं'ति चतुर्मासप्रमाणवर्षाकालस्य सम्बन्धी 'प्रथमः' आद्यः 'समयः' क्षणः'प्रतिपद्यते' संपद्यते भवतीत्यर्थः, अणंतरपुरक्खडे समयंसित्ति अनन्तरो-नियवधानो दक्षिणाद्धे वर्षाप्रथमतापेक्षया स चातीतोऽपि स्यादत आह-पुरस्कृतः-पुरोवर्ती भविष्यन्नित्यर्थः, | समयः-प्रतीतः, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयोऽतस्तत्र, 'अणंतरपच्छाकडसमयंसि'त्ति पूर्वापरविदेहवर्षाप्रथमसमयापेक्षया । योऽनन्तरपश्चात्कृतोऽतीतः समयस्तत्र दक्षिणोत्तरयोर्वर्षाकालप्रथमसमयो भवतीति ॥ एवं जहा समएण'मित्यादि, |आवलिकाऽभिलापश्चैवम्-'जया णं भंते ! जंबूद्दीवे २ दाहिणड्ढे वासाणं पढमा आवलिया पडिवज्जति तया णं उत्तरहृवि, जया णं उत्तरतु वासाणं पढमावलिया पडिवजति तया णं जंबूद्दीवे २ मंदरस्स पबयस्स पुरच्छिमपञ्चत्थिमेणं अणंतरपुरक्खडसमयसि वासाणं पढमा आवलिया पडिवजइ ?, हंता गोयमा !, इत्यादि । एवमानप्राणादिपदेष्वपि, आवलिकाद्यर्थः पुनरयम्-आवलिका-असङ्ख्यातसमयात्मिका आनप्राणः-उच्छासनिःश्वासकालः स्तोका-सप्तप्राणप्रमाणः लवस्तु-1 | सप्तस्तोकरूपः मुहूर्तः पुनर्लवसप्तसप्ततिप्रमाणः, ऋतुस्तु मासद्वयमानः, 'हेमंताण'ति शीतकालस्य 'गिम्हाण व'त्ति उष्णकालस्य 'पढमे अयणे'त्ति दक्षिणायनं श्रावणादित्वात्संवत्सरस्य 'जुएणवित्ति युगं-पञ्चसंवत्सरमानं 'पुवंगेणवि' दीप अनुक्रम २१८-२१९] 90 लवणसमुद्रे-धायईसंडे-कालोदसमुद्रे-अभ्यंतरपुष्करार्धे दिवस-रात्री-परिमानं ~434~ Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१७८ -१७९] दीप अनुक्रम [२१८-२१९] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [१७८-१७९] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्ति: अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२११॥ ति पूर्वाङ्गं चतुरशीतिर्वर्षलक्षाणां 'पुव्वेणवि' त्ति पूर्व पूर्वाङ्गमेव चतुरशीतिवर्षलक्षेण गुणितं, एवं चतुरशीति वर्ष लगुणितमुत्तरोत्तरं स्थानं भवति, चतुर्नवत्यधिकं चाङ्कशतमन्तिमे स्थाने भवतीति । 'पढमा ओसप्पिणि'ति क्वसर्पयति | भावानित्येवंशीलाऽवसर्पिणी तस्याः प्रथमो विभागः प्रथमावसर्पिणी 'उस्सप्पिणि'त्ति उत्सर्पयति भावानित्येवंशीला उत्सर्पिणीति ॥ पञ्चमशते प्रथमः ॥ ५१ ॥ प्रथम उद्देशके दिक्षु दिवसादिविभाग उक्तः, द्वितीये तु तास्वेव वातं प्रतिपिपादयिषुर्वातभेदांस्तावदभिधातुमाहरायगिहे नगरे जाव एवं बदासी-अत्थि णं भंते ! ईसिं पुरेवाता पत्थावा० मंदावा० महावा वायंति ? हंता अत्थि, अत्थि णं भंते! पुरच्छि मेणं इसिं पुरेवाया पत्थावाया मंदावाया महावाया वायंति ? हंता अस्थि । एवं पचत्थिमेणं दाहिणेणं उत्तरेणं उत्तरपुरच्छिमेणं पुरच्छिमदाहिणेणं दाहिणपञ्चत्थिमेणं पच्छिमउत्तरेणं ॥ जया णं भंते! पुरच्छिमेणं इसि पुरेवाया पत्थावाया मंदावा० महावा० वायंति तया णं पचत्थिमेणवि ईसि पुरेवाया जया णं पञ्चत्थिमेणं इसि पुरेवाया तया णं पुरच्छिमेणवि ?, हंता गोयमा ! जया णं पुरच्छि | मेणं तया णं पचस्थिमेणवि ईसिं जया णं पञ्चस्थिमेणवि ईसि तया णं पुरच्छिमेणवि ईसिं, एवं दिसासु विदिसासु ॥ अस्थि णं भंते ! दीविचया ईसिं ?, हंता अत्थि । अत्थि णं भंते । सामुद्दया ईसिं ?, हंता अत्थि । । जया णं भंते! दीविचपा ईसिं तया णं सा सामुद्दयाचि ईसिं जया णं सामुद्दया ईसिं तया णं दीबिचयावि Education Interatoma अत्र पंचम शतके प्रथम उद्देशकः समाप्तः अथ पंचम शतके द्वितीय-उद्देशक: आरभ्यते For Parta Use Only ~ 435~ ५ शतके उद्देशः २ दिग्विदिद्वीपसमु द्वेषु वातवानमकारः सू १८० ॥२११॥ Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८०] SAMACHARCORRC दीप अनुक्रम २२०] ईसिं १, णो इणढे समढे । से केणटेणं भंते ! एवं वुचति जया णं दीविचया ईसिं णो णं तया सामुद्दया ईसिं जया णं सामुच्या इसिंणो णं तया दीबिच्चया ईसिं, गोयमा ! तेसि णं वायाणं अन्नमन्नस्स विवञ्चासेणं लवणे समुदे वेलं नातिकमह से तेण?णं जाव वाया वायति ॥ अस्थि णं भंते । ईसिं पुरेवाया पत्थावाया मंदावाया महाषाया वायंति , हंता अस्थि । कया णं भंते ! ईर्सि जाव वायंति', गोयमा ! जया जं चाउयाए अहारियं रियंति तया णं इसिं जाव वायं वायंति । अस्थि णं भंते ! ईसिं०१हंता अस्थि, कया भंते ! ईसिं पुरेवाया पस्था०१, गोयमा जया णं वाज्याए उत्तरकिरियं रिपड तयाणं ईसिं जाव चायति । अस्थि णं भंते ! ईसिं०१, हंता अस्थि, कया णं भंते । ईर्सि पुरेवाया पस्था०?,गोयमा जया णं बाउकुमारा वाउकुमालारीओ वा अप्पणो वा परस्स वा तदुभयस्स वा अट्टाए बाउकार्य उदीरेंति तया णं इसि पुरेवाया जाव वायति ।। वाउकाए णं भंते ! वाउकायं चेव आणमंति पाण. जहा खंदए तहा चत्तारि आलावगा नेयम्वा अणेगसयसहस्स. पुढे उद्दाति चा, ससरीरी निक्खमति ॥ (सूत्र १८०) | 'रायगिहे'इत्यादि, 'अस्थि'त्ति अस्त्ययमों-यदुत वाता वान्तीति योगः, कीदृशाः' इत्याह-ईसिं पुरेवाय'त्ति मनाक् सत्रेहवाताः 'पत्थावाय'त्ति पथ्या वनस्पत्यादिहिता वायवः 'मंदावाय'ति मन्दाः शनैःसंचारिणोऽमहावाता इत्यर्थः 'महावाय'त्ति उद्दण्डवाता अनल्पा इत्यर्थः 'पुरच्छिमेणं'ति सुमेरोः पूर्वस्यां दिशीत्यर्थः, एवमेतानि दिग्विदिगपेक्षयाऽष्टी सूत्राणि ॥ उक्त दिगभेदेन वातानां वानम्, अथ दिशामेव परस्परोपनिवन्धेन तदाह-"जया ण'मि ~436~ Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१८०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: उद्देशः२ अभयदेवी-2 प्रत सूत्रांक [१८०]] सू१८० दीप अनुक्रम २२०] व्याख्या- त्यादि, इच दिक्सूत्रे द्वे विदिक्सूत्रे इति ॥ अथ प्रकारान्तरेण वातस्वरूपनिरूपणसूत्र, तत्र 'दीविचग'त्ति द्वैप्या | |५ शतके प्रज्ञप्तिः द्वीपसम्बन्धिनः 'सामुद्दयत्ति समुद्रस्यैते सामुद्रिकाः 'अन्नमन्नविवच्चासेणं'ति अन्योऽन्यव्यत्यासेन यदैके ईषत्पुरोवाताया वृत्तिःशाल दिविशेषेण वान्ति तदेतरे न तथाविधा वान्तीत्यर्थः, 'वेलं नाइकमह'त्ति तथाविधवातद्रव्यसामर्थ्यावेलायास्तथास्वभाव-|| दिग्विदि. स्वाञ्चेति ॥ अथ वाताना वाने प्रकारान्तरेण वातस्वरूपवयं सूत्रत्रयेण दर्शयन्नाह-'अस्थि 'मित्यादि, इहच प्रथम- द्वीपसमु॥२१॥ वाक्यं प्रस्तावनार्थमिति न पुनरुक्कमित्याशङ्कनीयं, 'अहारियं रियंति'त्ति रीतं रीतिः स्वभाव इत्यर्थः तस्यानतिक्रमण द्रेषु वातयथारीतं 'रीयते' गच्छति यदा स्वाभाविक्या गत्या गच्छतीत्यर्थः, 'उत्तरकिरिय'ति वायुकायस्य हि मूलशरीरमौदारिकमुत्तरं तु वैक्रियमत उत्तरा-उत्तरशरीराश्रया क्रिया गतिलक्षणा यत्र गमने तदुत्तरक्रियं, तद्यथा भवतीत्येवं रीयतेगच्छति, इह चैकसूत्रेणैव वायुवानकारणत्रयस्य वक्तुं शक्यत्वे यत्सूत्रत्रयकरणं तद्विचित्रत्वात्सूत्रगतेरिति मन्तव्य, वाच|नान्तरे त्याचं कारणं महावातवर्जितानां, द्वितीयं तु मन्दवातवर्जितानां, तृतीयं तु चतुर्णामप्युक्तमिति ॥ वायुकायाधिकारादेवेदमाह-वायुकाए ण'मित्यादि, 'जहा खंदए'इत्यादि, तत्र प्रथमो दर्शित एव, 'अणेगे'त्यादिद्धितीयः, स चैवम्-'वाउयाए ण भंते । वाउयाए चेव अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता २ तत्थेव भुजो २ पञ्चायाइ, हंता गोयमा !, 'पुढे उद्दाइ'त्ति तृतीयः, स चैवम्-'से भंते ! किं पुढे उद्दाइ अपुढे उद्दाइ, गोयमा! पुढे उद्दाइ नो अपुढे, 'ससरीरी'त्यादिः ॥२१२॥ चतुर्थः, स चैवम्-'से भंते ! किं ससरीरी निक्खमइ असरीरी (निक्खमइ), गोयमा ! सिय ससरीरी'त्यादि । वायु-टू कायश्चिन्तितः, अथ वनस्पतिकायादीन् शरीरतश्चिन्तयन्नाह ~437~ Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम [२२१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्तिः ) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [२], मूलं [ १८१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः अह भंते ! ओदणे कुम्मासे खुरा एए णं किंसरीराति बत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! ओदणे कुम्मासे सुराए य जे घणे दब्वे एए णं पुब्वभावपन्नवर्ण पडुच्च वणरसहजीवसरीरा तओ पच्छा सस्थातीया सत्यपरिणामिआ | अगणिज्झामिया अगणिज्यूसिया अगणिसेविया अगणिपरिणामिया अगणिजीवसरीरा वक्त्तव्वं सिया, सुराए य जे दवे दब्बे एए णं पुब्वभावपन्नवर्ण पहुंच आउजीवसरीरा, तओ पच्छा सत्धातीया जाव अगणिकायसरीराति वसव्वं सिया । अहनं भंते! अए तंबे तउए सीसए उबले कसहिया एए णं किंसरीराह वक्तव्वं सिया ? गोयमा ! अए तंबे तउए सीसए उबले कसहिया, एए णं पुव्वभावपन्नवणं पहुंच पुढबिजीवसरीरा तओ पच्छा सत्यातीया जाव अगणिजीवसरीराति वक्तव्वं सिया । अहणं भंते ! अट्ठी अद्विज्झामे चम्मे चम्मज्झामे रोमे २ सिंगे २ खुरे २ नखे २ एते णं किंसरीराति वसव्वं सिया ?, गोयमा ! अट्टी चंमे रोमे सिंगे खुरे नहे | एए णं तसपाणजीवसरीरा अद्विज्झामे चम्मज्झामे रोमज्झामे सिंग० खुर० णहज्झामे एए णं पुव्वभावषण्णवणं पडुच तस्पाणजीव सरीरा तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीव०त्ति वक्तव्यं सिया । अह भंते! इंगाले छारिए भुसे गोमए एस णं किंसरीरा वक्त्तव्वं सिया १, गोपमा ! इंगाले छारिए भुसे गोमए एए णं पुव्वभा वपण्णवर्ण पहुच पगिंदिय जीव सरीरप्पओगपरिणामियावि जाव पंचिंदियजीवसरीरप्पओगपरिणामियावि तओ पच्छा सत्थातीया जाव अगणिजीवसरीराति वक्तव्वं सिया ॥ ( सूत्रं १८१ ) 'अहे 'त्यादि, 'एए 'ति एतानि णमित्यलङ्कारे 'किंसरीर'त्ति केषां शरीराणि किंशरीराणि 'सुराए य जे घणे ति For Parts Only ~438~ Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१८१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८१] दीप अनुक्रम २२१] व्याख्या- सुरायां दे द्रव्ये स्यातां-पनद्रव्यं घद्रव्यं च, तत्र यद् घनद्रव्यं 'पुधभावपन्नवर्ण पहुचत्ति अतीतपर्यायप्ररूपणामङ्गी-18|| ५ शतके प्रज्ञप्तिः . कृत्य वनस्पतिशरीराणि, पूर्वं हि ओदनादयो वनस्पतयः, 'तओ पच्छ'त्ति बनस्पतिजीवशरीरवाच्यत्वानन्तरमग्निजीवश- उद्देशः२ अभयदेवी प्रारीराणीति वक्तव्यं स्वादिति सम्बन्धः, किम्भूतानि सन्ति ? इत्याह-सस्थातीय'त्ति शरण-उदूखलमुशलयन्त्रकादिना * ओदनादीया वृत्तिः करणभूतेनातीतानि-अतिकान्तानि पूर्वपर्यायमिति शस्त्रातीतानि 'सस्थपरिणामिय'त्ति शस्त्रेण परिणामितानि-कृतानि(त) मग्निशरी रता ॥२१३॥ नवपर्यायाणि शस्त्रपरिणामितानि, ततश्च 'अगणिज्झामिय'त्ति बहिना ध्यामितानि-श्यामीकृतानि स्वकीयवर्णत्याज-ISM 18 सू१८१ नात्, तथा 'अगणिज्यूसिय'त्ति अग्निना शोषितानि पूर्वस्वभावक्षपणात्, अग्निना सेवितानि वा 'जुषी प्रीतिसेवनयो' | इत्यस्य धातोः प्रयोगात्,'अगणिपरिणामियाई ति संजाताग्निपरिणामानि उष्णयोगादिति, अथवा 'सत्थातीता'इत्यादा शस्त्रमग्निरेव, 'अगणिज्झामिया' इत्यादि तु तद्व्याख्यानमेवेति, उवले'त्ति इह दग्धपाषाणः 'कसहिय'त्ति क(पप)ट्टा 'अहिज्झामिति अस्थि च तयामंच-अग्निना ध्यामलीकृतम्-आपादितपर्यायान्तरमित्यर्थः,'इंगाले इत्यादि, अङ्गार' निज्वलितेन्धनं 'छारिए'त्ति 'क्षारक' भस्म 'भुसे'त्ति बुसं 'गोमय'त्ति छगणम् , इह च बुसगोमयी भूतपयर्यायानुवृत्त्या दग्धावस्थी प्राधौ अन्यथाऽग्निध्यामितादिवक्ष्यमाणविशेषणानामनुपपत्तिः स्यादिति । एते पूर्वभावप्रज्ञापना प्रतीत्यैकेन्द्रियजीवैः शरीरतया प्रयोगेण-स्वब्यापारेण परिणामिता येते तथा एकेन्द्रियशरीराणीत्यर्थः, अपिः' समुचये, यावरकरणान् दीन्द्रिय-IN W ॥२१॥ जीवशरीरप्रयोगपरिणामिता अपीत्यादि दृश्य,द्वीन्द्रियादिजीवशरीरपरिणतत्वं च यथासम्भवमेव न तु सर्वपदेविति, तत्र || पूर्वमङ्गारो भस्म चैकेन्द्रियादिशरीररूपं भवति, एकेन्द्रियादिशरीराणामिन्धनत्वात् , बुसं तु यवगोधूमहरितावस्थायामे-| SAREauratonintenational ~439 Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [२], मूलं [१८२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक ॐ55 केन्द्रियशरीर, गोमयस्तु तृणाद्यवस्थायामेकेन्द्रियशरीरं, दीन्द्रियादीनां तु गवादिभिर्भक्षणे द्वीन्द्रियादिशरीरमिति । 1 पृथिव्यादिकायाधिकारादपकायरूपस्य लवणोदधेः स्वरूपमाहहालवणे भंते । समुद्र केवतियं चकवालविक्खंभेणं पन्नते, एवं नेयव्वं जाय लोगद्विती लोगाणुभावे IPI से भंते ।२ति भगवं जाव विहरह॥ (सूत्रं १८२)॥ पश्चमशते द्वितीयः ॥५-२॥ 'लवणे ण'मित्यादि, एवं यवं ति उक्ताभिलापानुगुणतया नेतव्यं जीवाभिगमोक्तं लवणसमुद्रसूत्र, किमन्तमित्याह'जाव लोगे'त्यादि, तच्चेदम्-'केवइयं परिक्खेवेणं, गोयमा ! दो जोयणसयसहस्साई चक्कवालविक्खंभेणं पण्णरस सय सहस्साई एकासीयं च सहस्साई सयं च इगुणयालं किंचिविसेसूर्ण परिक्खेवेणं पण्णत्ते इत्यादि, एतस्य चान्ते 'कम्हा गं 8 भंते ! लवणसमुद्दे जंबूद्दीवं दीवं नो उबीलेइ'इत्यादौ प्रश्ने 'गोयमा ! जंबूदीये २ भरहेरवएसु वासेसु अरहता चकवट्टी' ट्रा स्यादेहत्तरग्रन्थस्यान्ते 'लोगडिई'इत्यादि द्रष्टव्यमिति ॥ पञ्चमशते द्वितीयः ॥५-२॥ [१८२] RASANKS दीप अनुक्रम [२२२] अनन्तरोक्तं लवणसमुद्रादिकं सत्यं सम्यगज्ञानिप्रतिपादितत्वात्, मिथ्याज्ञानिप्रतिपादितं स्वसत्यमपि स्यादिति | दर्शयंस्तृतीयोद्देशकस्यादिसूत्रमिदमाह अण्णउत्थिया णं भंते । एवमातिक्खंति भा०प० एवं प० से जहानामए जालगंठिया सिया आणुपुब्धिका गहिया अणंतरगडिया परंपरगढिया अन्नमनगढिया अन्नमनगुरुयत्ताए अन्नमनभारियत्साए अनमनगुरुयसं अत्र पंचम-शतके द्वितीय-उद्देशकः समाप्त: अथ पंचम-शतके तृतीय-उद्देशकः आरभ्यते ~440~ Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२२३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्तिः ) शतक [५], वर्ग [−], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञसिः अभर्यदेवीया वृत्तिः १ ॥२१४॥ एक- आयु: वेदनं भारिपतार अण्णमण्णघडत्ताए जाव चिह्नंति, एवामेव बहूणं जीवाणं वसु आजातिसय सहस्से बहुई आउयसहस्साई आणुपुषिगढिपाई जाव चिर्द्धति, एगेऽविय णं जीवे एगेणं समएणं दो आउयाई पडिसवेदयति, तंजहा- भवियाज्यं च परभवियाजयं च जं समयं इहभवियाउयं पडिसंवेदेद्द तं समयं परभ- टू विद्याउयं पडिसंवेदेह जाव से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया तं चैव जाव परभवियाउयं च, जे ते एवमाहसु तं मिच्छा, अहं पुण गोयमा । एवमातिक्खामि जाव परूवेमि अन्नमन्नघडत्ताए चिति, एवामेव एगमेगस्स जीवस्स बहूहिं आजातिसहस्सेहिं बहु आउयसहस्साई आणुपुविंगढि - याई जाव चिह्नंति, एगेऽविय णं जीवे एगेणं समएणं एवं आउयं पडिसंवेदेइ, तंजहा - इहभवियाजयं वा | परभवियाउयं वा, जं समयं इहभवियाजयं पडिसंवेदेश नो तं समयं पर० पडिसंवेदेति जं समयं प० नो तं समयं इहभवियाजयं प०, इहभवियाउयस्स पडिसंवेषणाए नो परभवियाज्यं पडिसंवेदेह परभवियाजयस्स | पडिसंवेयणाए नो इहभवियाउयं पडिसंवेदेति, एवं खलु एगे जीवे एगेणं समएणं एवं आउयं प० तंजहा| इहभ० वा परभ० वा ॥ ( सूत्रं १८३ ) ॥ 'अन्नउत्थिया णमित्यादि, 'जालमंठिय'त्ति जालं - मत्स्यबन्धनं तस्येव ग्रन्थयो यस्यां सा जालग्रन्थिका - जालिका, किस्वरूपा सा ? इत्याह- 'आणुपुब्बिगदिय'त्ति आनुपूर्व्या-परिपाव्या प्रथिता - गुम्फिता आधुचितग्रन्थीनामादौ | विधानाद् अन्तोचितानां क्रमेणान्त एव करणात् एतदेव प्रपञ्चयन्नाह - 'अनंतरगदिय'त्ति प्रथमग्रन्थीनामनन्तरं व्यव For Parts On ~ 441 ~ ५ शतके उद्देशः ३ एकायुर्वेदन सू १८३ ॥२१४॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८३] स्थापितैन्धिभिः सह ग्रथिता अनन्तरग्रथिता, एवं परम्परैः-व्यवहितैः सह प्रथिता परम्परग्रथिता, किमुक्तं भवति ?Pil'अन्नमनगढिय'त्ति अन्योऽन्य-परस्परेण एकेन ग्रन्थिना सहान्यो प्रन्धिरन्येन च सहान्य इत्येवं प्रथिता अन्योऽन्यत्रसाथिता, एवं च 'अन्नमनगरुयत्ताए'त्ति अन्योऽन्येन ग्रन्थनाद् गुरुकता-विस्तीर्णता अन्योऽन्यगुरुकता तया, 'अन्नम नभारियताए'त्ति अन्योऽन्यस्य यो भारः स विद्यते यत्र तदन्योऽन्यभारिकं तद्भावस्तत्ता तया, एतस्यैव प्रत्येकोक्कार्थवयस्य संयोजनेन तयोरेव प्रकर्षमभिधातुमाह-'अन्नमन्नगुरुयसंभारिपत्ताए'त्ति अभ्योऽन्येन गुरुकं यत्सम्भारिकं| च तत्तथा तद्भावस्तत्ता तया, 'अन्नमन्नघडत्ताए'त्ति अन्योऽन्यं घटा-समुदायरचना यत्र तदन्योऽन्यघटं तद्भावस्तत्ता 8 तया 'चिट्ठहत्ति आस्ते, इति दृष्टान्तोऽथ दार्टान्तिक उच्यते-'एवामेव'त्ति अनेनैव न्यायेन बहूनां जीवानां सम्ब न्धीनि 'बहसु आजाइसहस्सेसुत्ति अनेकेषु देवादिजन्मसु प्रतिजीवं क्रमप्रवृत्तेष्वधिकरणभूतेषु बहून्यायुष्कसहस्राणि 18|| तत्स्वामिजीवानामाजातीनां च बहुशतसहस्रसङ्ग्यत्वात् , आनुपूर्वीप्रथितानीत्यादि पूर्ववव्याख्येयं नवरमिह भारिकत्वं कर्मपुद्गलापेक्षया वाच्यम् ।। अधैतेपामायुषां को वेदन विधिः । इत्याह-'एगेऽविये'त्यादि, एकोऽपि च जीव आस्तामनेकः, एकेन समयेनेत्यादि प्रथमशतकवत्, अत्रोत्तर-'जे ते एवमासु'इत्यादि, मिथ्यात्वं चैषामेवम्-यानि हि बहूनां जीवानां बहून्यायूंषि जालपन्थिकावत्तिष्ठन्ति तानि यथास्वं जीवप्रदेशेषु संबद्धानि स्युरसंबद्धानि वा ?, यदि संबद्धानि तदा कथं भिन्नभिन्नजीवस्थितानां तेषां जालग्रन्थिकाकल्पना कल्पयितुं शक्या ?, तथाऽपि तत्कल्पने जीवानामपि जालग्रन्धिकाकल्पत्वं स्यात्तत्संबद्धत्वात् , तथा च सर्वजीवानां सर्वायुःसंवेदनेन सर्वभवभवनप्रसङ्ग इति, अथ जीवानामसंब RSSC-NCRRORSCARDAMOMS* दीप अनुक्रम [२२३] एक-आयु: वेदनं ~442~ Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [१८३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: उद्देशा३ प्रत सूत्रांक [१८३] दीप अनुक्रम [२२३] व्याख्या- द्धाम्यापि तदा तदशादेवादिजन्मेति न स्यादसंबद्धत्वादेवेति, यच्चोक्तमेको जीव एकेन समयेन द्वे आयुषी वेदयति ५ शतके 'प्रज्ञप्तिः अभयदेवी४ तदपि मिथ्या, आयुर्द्वयसंवेदने युगपनवद्वयप्रसङ्गादिति ॥ 'अहं पुण गोयमे'त्यादि, इह पक्षे जालग्रन्थिका-सङ्कलिका-|| SIM * सायुष्को मात्रम्, 'एगमेगस्से त्यादि, एकैकस्य जीवस्य न तु बहूनां बहुधा आजातिसहस्रेषु क्रमवृत्तिष्वतीतकालिकेषु तत्कालापेया वृत्तिः त्पत्तिः क्षया सत्सु बहुम्यायुःसहस्राण्यतीतानि वर्तमानभवान्तानि अन्यभविकमन्यभविकेन प्रतिपद्धमित्येवं सर्वाणि परस्परं| सू १८४ ॥२१५॥ प्रतिवद्धानि भवन्ति न पुनरेकभव एव बहूनि 'इहभवियाउयं वत्ति वर्तमानभवायुः 'परभवियाउयं वत्ति परभ & वप्रायोग्यं यद्वर्तमानभवे निबद्धं तच्च परभवगतो यदा वेदयति तदा व्यपदिश्यते 'परभवियाउयं वत्ति ॥ आयु: प्रस्तावादिदमाह| जीवे णं भंते ! जे भविए नेरइएसु उववजित्तए से णं भंते । किं साउए संकमह मिराउए संकमह. Mगोयमा ! साउए संकमह नो निराउए संकमह । से णं भंते ! आउए कहिं कडे कहिं समाइण्णे ?, गोयमा ! | पुरिमे भवे कडे पुरिमे भवे समाइपणे, एवं जाव वेमाणियाणं दंडओ । से मूर्ण भंते ! जे जंभविए जोणिं उववजित्तए से तमाउयं पकरेइ, तंजहानेरइयाउयं या जाव देवाउयं वा?, हता गोयमा ! जे जंभविए जोणि उववजित्तए से तमाउयं पकरेइ, तंजहा-नेरइयाउयं वा तिरि मणु० देवाउयं वा, नेरइयाउयं पकरे & ॥२१५॥ माणे सत्तविहं पकरेइ, तंजहा-रयणप्पभापुढविनेरइयाउयं वा जाव अहेसत्तमापुडविनेरइयाउयं वा, तिरिक्खजोणियाज्यं पकरेमाणे पंचविहं पकरेड, तंजहा-एगिदियतिरिक्खजोणियाउयं वा, भेदो सब्बो एक-आयु: वेदनं ~443~ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [१८४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: SHREE प्रत सूत्रांक [१८४] भाणियब्बो, मणुस्साउयं दुविह, देवाउयं चउन्विहं, सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ (सूत्रं १८४) ॥ पञ्चमशते 8 तृतीयोद्देशकः ॥५-३॥ 'जीवे णमित्यादि, 'से णं भंते'त्ति अथ तद्भदन्त ! 'कहिं कडे'त्ति व भवे बद्धं 'समाइण्णेत्ति समाचरितं तद्धेतुसमाचरणात् , 'जे जंभविए जोणि उचवज्जित्तए'त्ति विभक्तिपरिणामाद्यो यस्यां योनावुत्पत्तुं योग्य इत्यर्थः 'मणु-| स्साउयं दुविहंति संमूछिमगर्भव्युत्क्रान्तिकभेदाद्विधा 'देवाउयं चउब्विहति भवनपत्यादिभेदादिति ॥ पञ्चमशते | तृतीयः॥५-३॥ अनन्तरोद्देशकेऽन्ययूधिकछास्थमनुष्यवक्तव्यतोक्का, चतुर्थे तु मनुष्याणां छमस्थानां केवलिनां च प्रायः सोच्यते इत्येवंसंबन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् छउमत्थे णं भंते ! मणुस्से आउटिजमाणाई सहाई सुणेह, तंजहा-संखसहाणि वा सिंगस संखियस18 खरमुहिस० पोयास० परिपिरियास. पणवस पडहस भंभास होरंभस भेरिसद्दाणि वा झल्लरिस दुंदुF हिस० तयाणि वा चितयाणि घणाणि वा झुसिराणि वा ?, हंता गोयमा! छउमत्थे णं मणूसे आउडिज|माणाई सहाई सणेइ, तंजहा-संखसहाणि वा जाव मुसिराणि वा । ताई भते । किं पुट्टाई मुणेह अपहाई॥४ सुणेइ , गोयमा! पुट्ठाई सुणेई नो अपुट्ठाई सुणेइ, जाव नियमा छदिसि सुणेइ । छउमत्थे णं मणुस्से किर KICKASCIENC%CECHESCAN दीप अनुक्रम [२२४] REAK अत्र पंचम-शतके तृतीय-उद्देशक: समाप्त: अथ पंचम-शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरभ्यते ~444~ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५]] 94% व्याख्या-15 आरगयाई सहाई सुइ पारगयाई सद्दाई सुणेइ ?, गोयमा ! आरगयाइं सद्दाई मुणेइ नो पारगयाई सद्दाई ५ शतके प्रज्ञप्तिः सुणेइ । जहा भंते ! छउमत्थे मणुस्से आरगयाई सद्दाई सुणेइ नो पारगयाई सद्दाइं सुणेइ तहा णं भंतेल उद्देशः ४ अभयदेवीकेवली मणुस्से किं आरगयाई सद्दाई सुणेइ पारगयाइं सद्दाइं सुणेह, गोयमा ! केवली णं आरगयं वा केवलिनः यावृत्तिः१] पारगर्य वा सब्बदूरमूलमणतियं सई जाणेह पासेह, से केण?णं तं चेव केवली णं आरगयं वा पारगयं वा||४|| सर्वगतशजाव पासह, गोयमा ! केवली णं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ अमियंपि जा० एवं दाहिणणं पचत्थिमेणं | ब्दज्ञानादि उत्तरेणं उडे अहे मियंपि जाणइ अमियपि जा० सव्वं जाणइ केवली सव्वं पासइ केवली सव्वओ जाणइ |पासइ सव्वकालं जापा० सव्वभावे जाणइ केवली सव्वभावे पास केवली ॥ अणंते नाणे केवलिस्स अणंते |दसणे केवलिस्स निब्बुडे नाणे फेवलिस्स निब्बुडे दसणे केवलिस्स से तेणद्वेणं जाव पासह ॥ (सूत्रं १८५) 'छउमत्थे ण'मित्यादि, 'आउडिजमाणाईति 'जुड बन्धने' इतिवचनाद् 'आजोब्यमानेभ्य' आसंबध्यमानेभ्यो || मुखहस्तदण्डादिना सह शङ्खपटहझल्लादिभ्यो वाद्यविशेषेभ्य आकुट्यमानेभ्यो वा एभ्य एव ये जाताः शब्दास्ते आजोग्य-1|3|| ॥२१॥ माना आकुळ्यमाना एव चोच्यन्तेऽतस्तानाजोग्यमानानाकुट्यमानान् वा शब्दान् शृणोति, इह च प्राकृतत्वेन शब्दश-161 ब्दस्य नपुंसकनिर्देशः, अथवा 'आउडिज्जमाणाईति 'आकुट्यमानानि' परस्परेणाभिहन्यमानानि 'सदाहति श-IN |ब्दानि शब्दद्रव्याणि शङ्खादयः प्रतीताः नवरं 'संखिय'त्ति शद्धिका इस्वः शङ्गः 'खरमुहित्ति काला 'पोया' महती| काहला 'परिपिरियत्ति कोलिकपुटकावनद्धमुखो वाद्यविशेषः 'हित्ति देववाद्यविशेष: 'पणव'त्ति भाण्डपटहो। दीप अनुक्रम [२२५] 4% ~445 Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१८५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८५] 5%-2444 दीप अनुक्रम २२५] लघुपटहो वा तदन्यस्तु पटह इति 'भंमत्ति ढका 'होरंभ'त्ति रूढिगम्या 'भेरित्ति महाढका 'झलरिति वलयाकारो वाचविशेषः 'दुंदुहित्ति देववाद्यविशेषा, अथोक्तानुक्तसहद्वारेणाह-'तताणि वे'त्यादि, 'ततानि' वीणादिवाद्यानि तज्ज| नितशब्दा अपि तताः, एवमन्यदपि पदत्रयं, नवरमयं विशेषस्ततादीनाम्-"ततं वीणादिकं ज्ञेयं, विततं पटहादिकम् । धनं तु काश्यतालादि, वंशादि शुषिरं मतम् ॥१॥” इति । 'पुढाई सुणेई' इत्यादि तु प्रथमशते आहाराधिकारवदवसेय| मिति । 'आरगयाईति आरामागस्थितानिन्द्रियगोचरमागतानित्यर्थः 'पारगयाईति इन्द्रियविषयात्परतोऽवस्थितानिति, &ा'सव्वदूरमूलमणतिय'ति सर्वथा दूर-विप्रकृष्ट मूलं च-निकट सर्वदूरमूलं तद्योगाच्छब्दोऽपि सर्वदमूलोऽतस्तम् | अत्यर्थ दूरवर्तिनमत्यन्तास चेत्यर्थः अन्तिकम्-आसन्नं तन्निषेधादनन्तिकम् , नजोऽल्पार्थत्वान्नात्यन्तमन्तिकमदूरासनमित्यर्थः, तद्योगाच्छन्दोऽप्यनन्तिकोऽतस्तम् , अथवा 'सव्व'त्ति अनेन 'सबओ समंता' इत्युपलक्षितं, 'दूरमूलं'ति | अनादिकमितिहृदयम्, 'अणंतिय'ति अनन्तिकमित्यर्थः, 'मियंपित्ति परिमाणवद् गर्भजमनुष्यजीवद्रव्या[दीत्या ] दि, 'अमियंपित्ति अनन्तमसपेयं वा वनस्पतिपृथिवीजीवद्रव्यादि 'सव्वं जाणइ'इत्यादि द्रव्याद्यपेक्षयोक्तम् । अथ कस्मात् सर्व जानाति केवलीत्याधुच्यते ? इत्यत आह-'अर्णते'इत्यादि, अनन्तं ज्ञानमनन्तार्थविषयत्वात् , तथा निव्वुडे नाणे| | केवलिस्स'त्ति 'निवृतं निरावरणं ज्ञानं केवलिनः क्षायिकत्वात् शुद्धमित्यर्थः, वाचनान्तरे तु 'निबुडे वितिमिरे विसुद्धे त्ति विशेषणत्रयं ज्ञानदर्शनयोरभिधीयते, तत्र च 'निवृत' निष्ठागतं 'वितिमिरं क्षीणावरणमत एव विशुद्धमिति ॥ अथ पुनरपि छद्मस्थमनुष्यमेवाश्रित्याह * wwrajastaram.org ~446~ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६] व्याख्या-12 छउमस्ये णं भंते ! मणुस्से हसेज वा उस्सुयाएज वा ?, हंता हसेज वा उस्सुयाएज वा, जहा णं भंते १५ शतके . प्रज्ञासा छउमस्थे मणुसे हसेज जाप उस्मु०सहा णं केवलीवि हसेज वा उस्सुयाएज वा ?, गोपमा ! नो इणड्डे समठे, अभयदेवी बाद से केणटेणं भंते ! जाव नो णं तहा केवली हसेज वा जाव उस्सुयाएज वा, गोयमा ! जणं जीवा चरित्त-PART या वृत्तिः१५ मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं हसति वा उस्सुयायति वा से णं केवलिस्स मस्थि, से तेणद्वेणं जाव नो णं द्यभावः ॥२१७॥ तहा केवली हसेज वा उस्मुयाएज्ज वा । जीवे णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपयडीओ सू १८६ पंधइ ?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अट्टविहबंधए वा, एवं जाव वेमाणिए, पोहत्तिएहिं जीवेगिंदियवजो तियभंगो॥ छउमत्थे णं भंते ! मणूसे निदाएज्ज वा पयलाएज वा!, हंता निदाएज वा पपलाएज वा, जहा हसेज्ज वा सहा नवरं दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स उदएणं निहायंति वा पयलायंति वा, से णं केवलिस्स. नत्थि, अन्नं तं चेव । जीवे णं भंते ! निदायमाणे वा पयलायमाणे वा कति कम्मपयडीओ पंधई, गोयमा। |सत्तविहषंधए वा अट्टबिहबंधए वा, एवं जाव वेमाणिए, पोहत्तिएसु जीवेगिंदियवजो तियभंगो ॥ (सूत्रं १८६) 'छउमत्थे'त्यादि, 'उस्सुयाएजत्ति अनुत्सुक उत्सुको भवेदुत्सुकायत,विषयादानं प्रत्यौत्सुक्यं कुर्यादित्यर्थः, 'जनं जीव'त्ति यस्मात् कारणाजीवः ‘से णं केवलिस्स नस्थिति तत्पुनश्चारित्रमोहनीय कर्म केवलिनो नास्तीत्यर्थः, 'एवं | ॥२१७॥ जाव वेमाणिए'त्ति, एवमिति जीवाभिलापवनारकादिर्दण्डको वाच्यो यावद्वैमानिक इति, स चैवम्-'नेरइए णं भंते ! हसमाणे वा उस्सुयमाणे वा कइ कम्मपबडीओ बंधइ ?, गोयमा ! सत्तविहबंधए वा अविबंधए वा' इत्यादि, इह 55544 दीप अनुक्रम २२६] % A5%3A ~447~ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१८६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८६] ॐ*5*544 दीप अनुक्रम |च पृथिव्यादीनां हासः प्राग्भविकतत्परिणामादवसेय इति, 'पोहत्तिएर्हिति पृथक्त्वसूत्रेषु-बहुवचनसूत्रेषु 'जीवा गं भंते । हसमाणा वा उस्सुयमाणा वा कइ कम्मपयडीओ बंधति ?, गोयमा ! सत्तविहबंधगावि अट्टविहबंधगावि' इत्यादिषु | 2 'जीवेगिदिए'त्यादि जीवपदमेकेन्द्रियपदानि च पृथिव्यादीनि वर्जयित्वाऽन्येष्वेकोनविंशती नारकादिपदेषु 'त्रिकभङ्गः भात्रय वाच्यं, यतो जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहुत्वाज्जीवानां सप्तविधवन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्चेत्येवमेक एव भङ्गको | लभ्यते, नारकादिषु तु त्रयं, तथाहि-सर्व एव सप्तविधबन्धकाः स्युरित्येकः १, अथवा सप्तविधवम्धकाश्चाष्टविधवन्धक-12 |श्चेत्येवं द्वितीयः २, अथवा सप्तबिधवन्धकाश्चाष्टविधबन्धकाश्चेत्येवं तृतीयः ३ इति । अत्रैव छद्मस्थकेवल्यधिकारे इदम-18 परमाह-छउमस्थे'त्यादि, 'णिदाएज बत्ति निद्रां-सुखप्रतिबोधलक्षणां कुर्यात् निद्रायेत 'पयलाएज वत्ति प्रचलाम्-ऊर्द्धस्थितनिद्राकरणलक्षणां कुर्यात् प्रचलायेत् ॥ केवल्यधिकारात्केवलिनो महावीरस्य संविधानकमाश्रित्येदमाह| हरी णं भंते ! हरिणेगमेसी सक्कदूए इस्थीगन्भं संहरणमाणे किं गम्भाओ गम्भं साहरइ १ गम्भाओ जोणिं साहरइ २ जोणीओ गम्भं साहरइ ३ जोणीओ जोणि साहरइ ४१, गोयमा ! नो गम्भाओ गम्भ है। साहरइनो गम्भाओ जोणिं साहरइ नो जोणीओ जोणिं साहरइ परामुसिय २ अब्वाबाहेणं अव्वाचाहं जोणीओ गम्भं साहरइ ॥ पभू णं भंते ! हरिणेगमेसी सकस्स णं दूए इत्थीगन्भं नहसिरंसि वा रोमकूवंसि || वा साहरित्तए वा नीहरित्तए वा', हंता पभू, नो चेव णं तस्स गन्भस्स किंचिवि आबाहं वा विषाहं वा | उपाएज्जा छविच्छेदं पुण करेजा, एसुहुमं च णं साहरिज वा नीहरिज वा ॥ (सूत्रं १८७) [२२६] ACCRA हरीणेगमेषीदेव द्वारा गर्भ-संक्रमण ~448~ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१८७] दीप अनुक्रम [२२७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [−], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१८७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञष्ठिः ॥२१८॥ 'हरी' त्यादि, इह च यद्यपि महावीरसंविधानाभिधायकं पदं न दृश्यते तथाऽपि हरिनैगमेपीति वचनात्तदेवानुमीयते अभयदेवी-हरिनैगमेषिणा भगवतो गर्भान्तरे नयनात्, यदि पुनः सामान्यतो गर्भहरणविवक्षाऽभविष्यत्तदा 'देवे णं भंते !' इत्यया वृत्तिः १ ४ क्ष्यदिति, तत्र हरिः- इन्द्रस्तत्सम्बन्धित्वात् हरिनैगमेपीति नाम, 'सक्कदूए'ति शक्रदूतः शक्रादेशकारी पदात्यनीकाधि| पतिर्येन शक्रादेशाद्भगवान् महावीरो देवानन्दागर्भा त्रिशलागर्भे संहृत इति, 'इत्थीगन्र्भ'ति स्त्रियाः सम्बन्धी गर्भःसजीवपुद्गलपिण्डकः स्त्रीगर्भस्तं 'संहरेमाणे'ति अन्यत्र नयन्, इह चतुर्भङ्गिका, तत्र 'गर्भाद' गर्भाशयादवधेः 'गर्भ' गर्भाशयान्तरं 'संहरति' प्रवेशयति 'गर्भ' सजीवपुद्गलपिण्डलक्षणमिति प्रकृतमित्येकः १, तथा गर्भादवधेः 'योनिं' गर्भ| निर्गमद्वारं संहरति योन्योदरान्तरं प्रवेशयतीत्यर्थः २, तथा 'योनीतो' योनिद्वारेण गर्भ संहरति गर्भाशयं प्रवेशयतीत्यर्थः ३, तथा 'योनीतः' योनेः सकाशाद्योनिं 'संहरति' नयति योग्योदरान्निष्काश्य योनिद्वारेणैवोदरान्तरं प्रवेशयतीत्यर्थः ४, एतेषु शेषनिषेधेन तृतीयमनुजानन्नाह - 'परामुसिए'त्यादि, 'परामृश्य २' तथाविधकरणव्यापारेण संस्पृश्य २ स्त्रीगर्भम् 'अव्याबाधमव्याबाधेन' सुखं सुखेनेत्यर्थः 'योनीतः' योनिद्वारेण निष्काश्य 'गर्भ' गर्भाशयं 'संहरति' गर्भमिति प्रकृतं, | यच्चेह योनीतो निर्गमनं स्त्रीगर्भस्योकं तलोकव्यवहारानुवर्त्तनात्, तथाहि - निष्पन्नोऽनिष्पन्नो वा गर्भः स्वभावाद्योन्यैव निर्ग|च्छतीति । अयं च तस्य गर्भसंहरणे आचार उक्तः, अथ तत्सामर्थ्यं दर्शयन्नाह - 'पभू ण'मित्यादि, 'नहसिरंसि 'ति | नखाग्रे 'साहरितए'ति संहर्तुं प्रवेशयितुं 'नीहरित्तए' ति विभक्तिपरिणामेन नखशिरसो रोमकूपाद्वा 'निहतु' निष्का| शयितुम् 'आवा'ति ईषद्वाधां 'विवाह'ति विशिष्टवाघां 'छविच्छेदं'ति शरीरच्छेदं पुनः कुर्यात्, गर्भस्य हि छवि हरीणेगमेषीदेव द्वारा गर्भ-संक्रमण For Parts Only ~ 449~ ५ शतके उद्देशः ४ हरिर्नंग मै पीगर्भसं क्रामकः सू १८७ ॥२१८॥ Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [१८७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८७]] होछेदमकृत्वा नखाग्रादौ प्रवेशयितुमशक्यत्वात् 'एमुहुमं च णं'ति इतिसूक्ष्ममिति एवं लध्विति ।। अनन्तरं महावीरस्य || * सम्बन्धि गर्भान्तरसङ्क्रमणलक्षणमाश्चर्यमुक्तम् , अथ तच्छिष्यसम्बन्धि तदेव दर्शयितुमाह तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतेवासी अइमुत्ते णामं कुमारसमणे पगतिभदए । जाब विणीए, तए णं से अइमत्ते कुमारसमणे अण्णया कयाइ महाबुहिकायंसि निवयमाणंसि कक्खपडिग्ग-15 लोहरपहरणमायाए बहिया संपढिए विहाराए, तए णं से अइमुत्ते कुमारसमणे चाहयं वहमाणं पासह २ महि याए पालिं बंधइ णाविया मे २ नाविओचिव णावमयं पडिग्गहगं उदगंसि कडु पब्बाहमाणे २ अभिरमह, तं, काच थेरा अक्ख, जेणेव समणे भगवं० तेणेव उवागच्छंति २ एवं वदासी-एवं खलु देवाणप्पियाणं अंतेवासी ४ अतिमुत्ते णाम कुमारसमणे से णं भंते ! अतिमुत्ते कुमारसमणे कतिहिं भवग्गहणेहि सिजिनहिति जाव अंतं || | करेहिति ?, अजो समणे भगवं महावीरे ते धेरे एवं वयासी-एवं खलु अलो! मम अंतेवासी अहमुत्ते णाम कुमारसमणे पगतिभद्दए जाव विणीए से णे अइमुत्ते कुमारसमणे इमेणं चेव भवग्गहणेणं सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति, तं मा णं अजो ! तुम्भे अतिमुत्तं कुमारसमणं हीलेह निंदह खिंसह गरहह अवमन्नह, XII तुम्भे गं देवाणुप्पिया ! अतिमुत्तं कुमारसमणं अगिलाए संगिण्हह अगिलाए उवगिण्हह अगिलाए भत्तेणं द्र & पाणेणं विणयेणं वेयावडियं करेह, अइमत्ते णं कुमारसमणे अंतकरे चेव अंतिमसरीरिए चेव, तए णं ते थेरा है। दीप अनुक्रम २२७] SANGRAGAR अतिमुक्तकुमार-श्रमणस्य कथा ~450~ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [१८८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८८] सू१८० दीप अनुक्रम व्याख्या- भगवंतो समणेणं भगवया म० एवं वुत्ता समाणा समणं भगवं महावीरं वदति नमसंति अइमुत्तं कुमारस- ५ शतके प्रज्ञप्ति मणं अगिलाए संगिण्हंतित्ति जाव वेयावडियं करेंति ॥ (सूत्रं १८८) उद्देशः४ अभयदेवी अतिमुक्तम 'तेण मित्यादि, 'कुमारसमणे'त्ति षड्वर्षजातस्य तस्य प्रबजितत्वात् , आह च-"छबरिसो पवइओ निगथं रोइऊण | या वृत्तिः पावयण"ति, एतदेव चाश्चर्यमिह, अन्यथा वर्षाष्टकादारान्न प्रव्रज्या स्यादिति, 'कक्वपडिग्गहरयहरणमायापत्ति कक्षायां ॥२१९॥ | प्रतिग्रहक रजोहरणं चादायेत्यर्थः 'णाविया मेत्ति 'नौका' द्रोणिका 'में ममेयमिति विकल्पयन्निति गम्यते 'नाविओ। विव नाति नाविक इव-नौवाहक इव 'नावं' द्रोणीम् 'अर्य'ति असावतिमुक्तकमुनिः प्रतिग्रहकं प्रवाहयन्नभिरमते, एवं |च तस्य रमणक्रिया बालावस्थाबलादिति, 'अदक्खुत्ति 'अद्राक्षुः' दृष्टवन्तः, ते च तदीयामत्यन्तानुचितां चेष्टां दृष्ट्वा । | तमुपहसन्त इव भगवन्तं पप्रच्छु, एतदेवाह-एवं खलु इत्यादि, 'हीलेह'त्ति जात्याधुघट्टनतः 'निंदह'त्ति मनसा 'खिंसहत्ति जनसमक्षं 'गरहह'त्ति तत्समक्षम् 'अवमण्णहत्ति तदुचितप्रतिपत्त्यकरणेन 'परिभवह'त्ति क्वचित्पाठस्तत्र परिभवः-समस्तपूर्वोक्तपदाकरणेन 'अगिलाए'त्ति 'अग्लान्या' अखेदेन 'संगिण्हह'त्ति 'सहीत' स्वीकुरुत 'उवगि-18 कण्हह'त्ति 'उपगृहीत' उपष्टम्भं कुरुत, एतदेवाह-वेयावडियंति वैयावृत्त्यं कुरुतास्येति शेषः, 'अंतकरे चेव'त्ति भव च्छेदकरः, स च दूरतरभवेऽपि स्यादत आह-'अंतिमसरीरिए चेव'त्ति चरमशरीर इत्यर्थः । यथाऽयमतिमुक्तको भगव- M ॥२१॥ |च्छिष्योऽन्तिमशरीरोऽभवत् एवमन्येऽपि यावन्तस्तच्छिष्या अन्तिमशरीराः संवृत्तास्तावतो दर्शयितुं प्रस्तावनामाह १ प्रवचनोक्तमथै रोचयित्वा यः पडूवर्षोऽपि प्रश्नजितः नम्रन्थं प्रवचनं ।। [२२८] | अतिमुक्तकुमार-श्रमणस्य कथा ~451~ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९] दीप अनुक्रम २२९] तेणं कालेणं २ महासुकाओ कप्पाओ महासग्गाओ महाविमाणाओ दो देवा महिहीया जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउम्भूया, तए णं ते देवा समर्ण भगवं महावीर मणसा दावंदति नमसंति मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं पुच्छंति-कति णं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई | || सिज्झिहिति जाव अंतं करेहिति, तए णं समणे भगवं महावीरे तेहिं देवहिं मणसा पढे तेसि देवाणं मणसा चेव इमं एतारूवं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवाणुप्पिया! मम सत्स अंतेवासीसयाई सिजिल हिंति जाब अंतं करेहिंति, तए णं ते देवा समणेणं भगवया महावीरेणं मणसा पुढेणं मणसा चेव इर्म एयाहैरूवं वागरणं वागरिया समाणा हहतुट्टा जाव हयहियया समर्ण भगर्व महावीरे वंदंति णर्मसंति २त्ता मणसा ||AII चेव सुस्सूसमाणा णर्मसमाणा अभिमुहा जाव पजुवासंति । तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूतीणामं अणगारे जाव अदूरसामंत उहुंजाणू जाव विहरति, तए णं तस्स भगवओक गोयमस्स झाणंतरियाए वट्टमाणस्स इमेयारूबे अज्झथिए जाव समुप्पवित्था, एवं खलु दो देवा महिहीया |||| | जाव महाणुभागा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं पाउन्भूया तं नो खलु अहं ते देवे जाणामि कय-| राओ कप्पाओ वा सग्गाओ वा बिमाणाओ कस्स वा अत्थस्स अट्टाए इहं हव्यमागया ?, तं गच्छामि णं भगवं महावीरं वदामि णमंसामि जाव पज्जुवासामि इमाई च णं एयारवाई वागरणाई पुच्छिस्सामित्ति कडु एवं संपेहेति २ उहाए उडेति २ जेणेव समणे भगवं महा. जाव पज्जुवासति, गोयमादि समणे भगवं| CAESC450345525-ॐॐ SARAKAKAKARSARAS ~452~ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९] दीप अनुक्रम २२९] व्याख्या- म. भगवं गोयम एवं वदासी-से गूणं तव गोयमा! झाणंतरियाए वहमाणस्स इमेयारूवे अज्झथिए जाव ५ शतके प्रज्ञप्तिः जेणेव मम अंतिए तेणेव हब्वमागए से णूणं गोयमा ! अत्धे समत्थे, हंता अस्थि, तं गच्छाहि गं गोयमा।|| उद्देशः४ अभयदेवी- एए चेव देवा इमाई एयारूवाइं वागरणाई वागरेहिंति, तए णं भगवं गोयमे समणेणं भगवया महावीरेणं मनसा देवया वृत्तिः१ अब्भणुनाए समाणे समणं भगवं महावीरं वंदइ णमंसति २ जेणेव ते देवा तेणेव पहारेत्थ गमणाए, तए णं यो प्रश्नो ते देवा भगवं गोयमं पज्जुवासमाणं पासंति २ हट्टा जाव हयहियया खिप्पामेव अन्भुढेति २खिप्पामेव त्तरौ ॥२२०॥ पञ्चुवागच्छंति २ जेणेच भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छंति २त्ता जाव णमंसित्ता एवं वयासी-एवं खलु || |सू १८९ भंते ! अम्हे महासुकातो कप्पातो महासग्गातो महाविमाणाओ दो देवा महिहिया जाव पाउन्भूता तए णं अम्हे समणं भगवं महावीर वंदामो णमंसामो २ मणसा चेव इमाई एयारूबाई वागरणाई पुच्छामो-कत्ति टणं भंते ! देवाणुप्पियाणं अंतेवासीसयाई सिज्झिहिंति जाव अंतं करेहिंति, तए णं समणे भगवं महा| वीरे अम्हेहिं मणसा पुढे अम्हं मणसा चेव इमं एयारूवं वागरणं वागरेति-एवं खलु देवाणु मम सत्त अंतेवासीसचाई जाव अंतं करेहिं ति, तए णं अम्हे समजेणं भगवया महावीरेणं मणसा चेव पुढेणं मणसा | चेव इमं एयारूवं वागरणं बागरिया समाणा समर्ण भगवं महावीरं वंदामो नमसामोरं जाव पज्जुवासामोत्तिकटु भगवं गोतमं वंदति नमसंति २ जामेव दिसि पाउ० तामेव दिसि प० (सूत्रं १८९) ४ ॥२२०॥ 'तेण'मित्यादि, 'महाशुक्रात्' सप्तमदेवलोकात् 'झाणंतरियाए'त्ति अन्तरस्य-विच्छेदस्य करणमन्तरिका ध्यान A asurary.com ~453~ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [१८९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१८९] -4LOADCA5%ALOCAL दीप अनुक्रम २२९] | स्थान्तरिका ध्यानान्तरिका-आरब्धध्यानस्य समाप्तिरपूर्वस्यानारम्भणमित्यर्थः अतस्तस्यां वर्तमानस्य 'कप्पाओ'त्ति देवलोकात् 'सग्गाओ'त्ति स्वर्गा, देवलोकदेशात्प्रस्तटादित्यर्थः, 'विमाणाओ'त्ति प्रस्तटैकदेशादिति, 'वागरणाईति | व्याक्रियन्त इति व्याकरणाः-प्रश्नार्थाः अधिकृता एव कल्पविमानादिलक्षणाः ॥ देवप्रस्तावादिदमाह| भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं जाय एवं वदासी-देवा णं भंते ! संजयाति वत्तव्य सिया , गोयमा! णो |तिणढे सम?, अभक्खाणमेयं, देवा णं भंते ! असंजताति वत्तव्वं सिया, गोयमा ! णो तिणद्वे, णिहरव४ यणमेयं, देवा णं भंते ! संजयासंजयाति वत्तव्वं सिया ?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, असन्भूयमेयं देवाणं, से किं खाति णं भंते ! देवाति बत्तब्वं सिया?, गोयमा । देवा शं नोसंजयाति वत्तव्वं सिया ॥(सूत्रं १९० देवा णं भंते ! कयराए भासाए भासंति ?, कयरा वा भासा भासिज्जमाणी विसिस्सति, गोयमा! देवाण | अद्धमागहाए भासाए भासंति, सावि य णं अद्भमागहा भासा भासिजमाणी विसिस्सति ॥ (सूत्रं १९१) | 'देवा णमित्यादि, 'से किं खाइणं भंते ! देवाइ वत्तब्बं सिय'त्ति 'से' इति अथार्थः किमिति प्रश्नार्थः णं वाक्यालङ्कारार्थः देवा इति यद्वस्तु तद्वकव्यं स्यादिति । 'नोसंजयाइ वत्तव्वं सिय'त्ति नोसंयता इत्येतद्वक्तव्यं स्यात्, असंयतशब्दपर्यायत्वेऽपि नोसंयतशब्दस्यानिष्ठुरवचनत्वान्मृतशब्दापेक्षया परलोकीभूतशब्दवदिति ॥ देवाधिकारादेवेदमाह-'देवा ण'मित्यादि विसिस्सइ'त्ति विशिष्यते विशिष्टो भवतीत्यर्थः, 'अद्धमागह'त्ति भाषा किल पड्विधा भवति, यदाह-"प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषा च सौरसेनी च । पष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः॥१॥" तत्र NEPARAN 645 ~454~ Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१९०-१९१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत 5 सूत्रांक [१९०-१९१] दीप व्याख्या मागधभाषालक्षणं किश्चित्किञ्चिच्च प्राकृतभाषालक्षणं यस्यामस्ति सार्दू मागध्या इति ब्युत्पत्त्याऽर्द्धमागधीति n केवलि- ५ शतके प्रज्ञप्तिः छद्मस्थस्य वक्तव्यताप्रस्ताव एवेदमाह उद्देश ४ अभयदेवी अन्तकृत्ताकेवली णं भंते ! अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासइ, हंता ! गोयमा ! जाणति पासति । या वृत्तिः१ पासात ज्ञानप्रमाणं जहा णं भंते ! केवली अंतकरं वा अंतिमसरीरियं वा जाणति पासति तहाणं छउमत्थेवि अंतकरं वा अंति- चरमनिर्ज ॥२२॥ मसरीरियं वा जाणति पासति', गोयमा ! णो तिणढे समढे, सोचा जाणति पासति, पमाणतोवा, से किंत राज्ञानक सोचा थे ?, केवलिस्स वा केवलिसावयस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाए वलिमनो वा तप्पक्खेियेस्स वा तप्पक्षियसावगस्स वा तप्पक्खियसाचियाए वा तप्पक्खियउवासगस्स या तप्प-वाज्ञिानसाक्खियउवासियाए वा से तं सोचा।। (सू०१९२)से किंतं पमाणे १.२पमाणे चउब्बिहे पण्णाते, तंजहा-पचक्खे || अनुत्तराणा अणुमाणे ओवम्मे आगमे, जहा अणुओगदारे तहाणेयव्वं पमाणं जाव तेण परं नो अत्तागमे नो अणंतरागमे परंपरागमे ॥ (सू०१९३) केवली भंते!चरिमकम्मवा चरिमणिजरंवा जाणति पासति ?,हता गोयमा जाणति है। पासति । जहा णं भंते! केवली चरिमकम्मंचा जहा णं अंतकरणं आलावगोतहा चरिमकम्मेणवि अपरिसेसिओll यवो।(सू०१९४) केवली णं भंते! पणीयं मणं वा वई वा धारेना ?, हंता धारेज्जा,जहाणं भंते ! केवली पणीयं मणं वा वई वा धारेजा ते णं वेमाणिया देवा जाणति पासंति?, गोयमा ! अस्थगतिया जाणंति पा० अत्धेगतिया न जाणंति न पा०, से केणटेणं जाव ण जाणंतिण पासंति !,गोयमावेमाणिया देवा दुविहा पण्णसा, 3+CCLOCAC% अनुक्रम [२३० -२३१] P ॥२२॥ RELIGuninternational Halwaitaram.org ~455~ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१९२-१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२ CCCCCCCX -१९७] तंजहा-माइमिच्छादिहिउववनगा य अमाइसम्मदिहिउववन्नया य, तस्थ णजे ते माइमिच्छाविट्ठीउववनगा ते न याति न पासंति, तत्थ ण जे ते अमाईसम्मदिट्ठीउववन्नगा ते णं जाणंति पासंति, से केणढणं एवं बु. अमाईसम्मदिट्ठी जाव पा०?, गोयमा ! अमाई सम्मदिही दुविहा पण्णत्ता-अनंतरोववन्नगा य |परंपरोववन्नगा य, तत्थ अणंतरोववन्नगा न जा० परंपरोववन्नगा जाणंति, से केणद्वेणं भंते ! एवं० परंपरोवव नगा जाव जाणंति ?, गोयमा ! परंपरोववन्नगा दुविहा पण्णत्ता-पज्जत्तगा य अपज्जत्तगा य, पजत्ता जा०|3|| * अपजत्ता न जा०, एवं अणंतरपरंपरपजत्तअपज्जत्ता य उवउत्ता अणुउवत्ता, तत्थ ण जे ते उपउत्ता तेजा. पा.से तेणढणं तं चेव । (सूत्र १९५) पभू णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा इहगएणं । | केवलिणा सहिं आलावं वा संलावं वा करेत्तए ?, हंता पभू, से केणडेणं जाव पभू णं अणुत्तरोषवाइया देवा जाव करेत्तए ?, गोयमा ! जपणं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा अटुं वा हेर्ड वा पसिणं वा वागरणं वा कारणं वा पुच्छंति तए णं इहगए केवली अटुं वा जाव वागरणं वा वागरेति से तेणढणं । जन्न Dil भंते ! इहगए व केवली अह वा जाव वागरेति तण्णं अणुत्तरोववाइया देवा तत्थगया चेव समाणा|| जा० पा०, हंता ! जाणंति पासंति, से केणढणं जाव पासंति ?, गोयमा ! तेसिणं देवाणं अणंताओ मणोद| ब्ववग्गणाओ लद्धाओ पसाओ अभिसमन्नागयाओ भवंति से तेणटेणं जपणं इहगए केवली जाव पा०॥ CACANCHA दीप अनुक्रम (२३२ -२३७] ~456~ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१९२-१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२ -१९७] टीप व्याख्या-18(सूत्रं १९६ ) अणुत्तरोववाइया णं भंते ! देवा किं उदिन्नमोहा उवसंतमोहा खीणमोहा?, गोयमा ! नो उदि. ५ शतके प्रज्ञप्तिः नमोहा उचसंतमोहा णो खीणमोहा ।। (सूत्रं १९७) उद्देशः४ अभयदेवी अनुत्तराउप या वृत्तिः | 'केवली'त्यादि, यथा केवली जानाति तथा छद्मस्थो न जानाति, कथञ्चित्पुनर्जामात्यपीति, एतदेव दर्शयन्नाह- शान्तमोहः 'सोचे'त्यादि केवलिस्स'त्ति 'केवलिनः' जिनस्यायमन्तको भविष्यतीत्यादि वचनं श्रुत्वा जानातीति, 'केबलिसाव-| ॥२२२|| गस्स वत्ति जिनस्य समीपे यः श्रवणार्थी सन् शृणोति तद्वाक्यान्यसौ केवलिश्रावकः तस्य वचनं श्रुत्वा जानाति, स8 | हि किल जिनस्य समीपे वाक्यान्तराणि शृण्वन् अयमन्तको भविष्यतीत्यादिकमपि वाक्यं शृणुयात् ततश्च तद्वचनश्रवणाजानातीति, 'केवलिजवासगस्स'त्ति केवलिनमुपास्ते यः श्रवणानाकाही तदुपासनमात्रपरः सनसी केवल्युपासका तस्य || वचः श्रुत्वा जानाति, भावना प्रायः प्राग्वत्, 'तप्पक्खियस्स'त्ति केवलिपाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्येत्यर्थः, इह च श्रुत्वेति ४ वचनेन प्रकीर्णकं वचनमात्र ज्ञाननिमित्ततयाऽवसेयं, न त्वागमरूपं, तस्य प्रमाणग्रहणेन गृहीष्यमाणत्वादिति ॥ 'पमाणे त्ति प्रमीयते येनार्थस्तत्प्रमाणं प्रमितिर्वा प्रमाणं 'पचक्खे'त्ति अक्षं-जीवम् अक्षाणि येन्द्रियाणि प्रति गतं प्रत्यक्षम् 'अणुdमाणे'त्ति अनु-लिङ्गग्रहणसम्बन्धस्मरणादेः पश्चान्मीयतेऽनेनेत्यनुमानम् 'ओवम्मति उपमीयते-सहशतया गृह्यते वस्त्व नयेत्युपमा सेव औपम्यम् 'आगमे'त्ति आगच्छति गुरुपारम्पयेणेत्यागमः, एषां स्वरूपं शास्त्रलाधवार्थमतिदेशत आह-IN । ॥२२॥ 'जहे'त्यादि, एवं चैतत्स्वरूपम्-द्विविधं प्रत्यक्षमिन्द्रियनोइन्द्रियभेदात्, तत्रेन्द्रियप्रत्यक्षं पञ्चधा-श्रोत्रादीन्द्रियभेदात्, | नोइन्द्रियप्रत्यक्षं विधा-अवध्यादिभेदादिति, त्रिविधमनुमान-पूर्ववच्छेषव दृष्टसाधर्म्यवच्चेति, तत्र पूर्ववत् पूर्वोपलब्धा अनुक्रम (२३२ -२३७] ~457~ Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१९२-१९७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९२ -१९७] दीप साधारणलक्षणान्मात्रादि(देः)प्रमातुः पुत्रादिपरिज्ञानं, शेषवत् यत्कार्यादिलिङ्गात्परोक्षार्थज्ञानं यथा मयूरोऽत्र केकायितादिति, दृष्टसाधर्म्यवत् यथैकस्य कार्षापणादेर्दर्शनादन्येऽप्येवंविधा एवेति प्रतिपत्तिरित्यादि, औपम्यं यथा गौर्गवयस्तथे-18 त्यादि, आगमस्तु द्विधा-लौकिकलोकोत्तरभेदात् , त्रिधा वा सूत्रार्थोभयभेदात्, अन्यथा वा त्रिधा-आत्मागमानन्तरागमपरम्परागमभेदात् , तन्त्रात्मागमादयोऽथेतः क्रमेण जिनगणधरतच्छिष्यापेक्षया द्रष्टव्याः, सूत्रतस्तु गणधरतच्छिष्यप्रशिष्यापेक्षयेति, एतस्य प्रकरणस्य सीमां कुर्वन्नाह-'जावेत्यादि, 'तेण परं ति गणधरशिष्याणां सूत्रतोऽनन्तरागमोऽर्थतस्तु परम्परागमः ततः परं प्रशिष्याणामित्यर्थः ॥ केवलीतरप्रस्ताव एवेदमपरमाह-केवली णमित्यादि, चरमकर्म | यच्छैलेशीचरमसमयेऽनुभूयते चरमनिर्जरा तु यत्ततोऽनन्तरसमये जीवप्रदेशेभ्यः परिशटतीति । 'पणीय'न्ति प्रणीतं | शुभतया प्रकृष्टं 'धारेजत्ति धारयेयापारयेदित्यर्थः। एवं अणंतरेत्यादि, अस्थायमर्थ:-यथा वैमानिका द्विविधा उक्ताः मायिमिथ्यादृष्टीनां च ज्ञाननिषेधः, एवममायिसम्यग्दृष्टयोऽनन्तरोपपन्नपरम्परोपपन्नकभेदेन द्विधा वाच्याः, अनन्तरोपपमानकानां च ज्ञाननिषेधः, तथा परम्परोपपन्न का अपि पर्याप्तकापर्याप्तकभेदेन द्विधा वाच्याः, अपर्याप्तकानां च ज्ञाननि-II पेधः, तथा पर्याप्तका उपयुक्तानुपयुक्तभेदेन द्विधा वाच्याः, अनुपयुक्तानां च ज्ञाननिषेधश्चेति । वाचनान्तरे विदं सूत्र | साक्षादेवोपलभ्यते, 'आलावं वत्ति सकृजल्प 'संलावं वत्ति मुहुर्मुहुर्जल्प मानसिकमेवेति 'लद्धाओ'त्ति तदवधेविषय-13 भावं गताः 'पत्ताओ'त्ति तदवधिना सामान्यतःप्राप्ताः परिच्छिन्ना इत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाओं'त्ति विशेषतः परिच्छिन्नाः, यतस्तेषामवधिज्ञानं संभिन्नलोकनाडीविषय, यच्च लोकनाडीग्राहकं तन्मनोवर्गणाग्राहक भवत्येव, यतो योऽपि | - अनुक्रम (२३२ - - -२३७] - ~458~ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१९२ -१९७] दीप अनुक्रम [२३२ -२३७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [४], मूलं [१९२-१९७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः लोकसङ्घधेयभागविषयोऽवधिः सोऽपि मनोद्रव्यग्राही यः पुनः संभिन्नलोकनाडीविषयोऽसौ कथं मनोद्रव्यग्राही न भविव्यति १, इष्यते च लोकसवे य भागाव धेर्मनोदव्यग्राहित्वं यदाह - "संखेज मणोद भागो लोगपलियम्स बोद्धवो "ति ॥ अनुत्तरसुराधिकारादिदमाह – 'अनुत्तरे'त्यादि, 'उदिनमोह'त्ति उत्कटवेदमोहनीयाः 'उवसंतमोह'त्ति अनुरकट वेदमोहनीयाः, परिचारणायाः कथञ्चिदध्यभावात् नतु सर्वथोपशान्तमोहाः, उपशमश्रेणेस्तेषामभावात्, 'नो खीणमोह'त्ति ॥२२३॥ ४ क्षपकश्रेण्या अभावादिति । पूर्वतनसूत्रे केवल्यधिकारादिदमाह - केवली णं भंते ! आयाणेहिं जा० पा० १, गोयमा ! णो तिणट्टे स०, से केणद्वेणं जाव केवली णं आयाणेहिं न जाणइ न पासइ ?, गोयमा ! केवली णं पुरच्छिमेणं मियंपि जाणइ अभियंपि जा० जाव निब्बुडे दंसणे केवलिस्स से तेण० । (सूत्रं १९८) केवली णं भंते! अस्सिं समयंसि जेसु आगा सपदेसेसु हत्थं वा पार्थ वा बाहुं वा उरुं वा ओगाहिताणं चिट्ठति पभू णं भंते! केवली सेयकालंसिवि तेसु वेव आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव ओगाहिता णं चिट्ठित्तए ?, गोयमा ! णो ति०, से केणणं भंते! जाव केवली णं अस्सि समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालंसिवि तेसु चेव आगासपएसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठित्तए ?, गो० ! केवलिस्स णं वीरियसजोगसद्दव्ययाए चलाई उवकरणाई भवंति चलोवगरणट्टयाए व णं केवली अरिंस समयंसि जेसु आगासपदेसेसु हत्थं वा जाव चिट्ठति णो णं पभू केवली सेयकालंसिवि तेसु १ पerer लोकस्य च भागोऽवधिर्मनोद्रव्याणि जानाति ॥ व्याख्याप्रज्ञसि अभयदेवी या वृत्तिः १ Education Intention For Parts Only ~459~ ५ शतके उद्देशः ४ केवलिनो ज्ञानमनादानं प्य तिनतत्प्रदेपुनरारम शावगाहः सू १९८१९९ घटसहस्रकरण सू २०० ॥२२३॥ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [१९८ -२००] दीप अनुक्रम [२३८ -२४०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१९८-२००] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः चैव जाव चिह्नित्तए, से तेणट्टेणं जाव बुचड़ केवली णं अस्सि समयंसि जाब चित्तिए (सूत्रं १९९ ) प णं भंते! चोहसपुथ्वी घटाओ घटसहस्सं पडाओ पडसहस्सं कडाओ २ रहाओ २ छत्ताओ छत्तसहस्सं २ दंडाओ | दंडसहस्सं अभिनिता उवदंसेत्तए ?, हंता पभू, से केणट्टेणं पभू चोदसपुब्बी जाव उवसेत्तए १, गोयमा ! चउदसपुव्विस्स णं अणताई दब्बाई उक्करिया भेएणं भिमाणाई लढाई पत्ताई अभिसमन्नागपाई भवंति, से तेणट्टेणं जाव उवदंसित्तए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ ( सूत्रं २०० ) ॥ पञ्चमशते चतुर्थ उद्देशः ॥ ५-४ ॥ 'केवली' त्यादि, 'आयाणेहिं'ति आदीयते-गृह्यतेऽर्थ एभिरित्यादानानि - इन्द्रियाणि तैर्न जानाति केवलित्वात् । 'अस्सि समयंसि'त्ति अस्मिन् वर्त्तमाने समये 'ओगाहित्ताणं' ति 'अवगाह्य' आक्रम्य 'सेयकालंसिवित्ति एप्यत्कालेऽपि 'वीरियसजोग सद्दव्ययाए 'ति वीर्य वीर्यान्तरायक्षयप्रभवा शक्तिः तत्प्रधानं सयोगं-मानसादिव्यापारयुक्त यत्सद् - विद्यमानं द्रव्यं-जीवद्रव्यं तत्तथा वीर्यसद्भावेऽपि जीवद्रव्यस्य योगान्धिना चलनं न स्यादिति सयोगशब्देन सद्द्रव्यं विशेषितं, सदिति विशेषणं च तस्य सदा सत्तावधारणार्थ, अथवा स्वम्-आत्मा तद्रूपं द्रव्यं स्वद्रव्यं ततः कर्मधा* रयः, अथवा वीर्यप्रधानः सयोगो योगवान् वीर्यसंयोगः स चासौ सद्रव्यश्च - मनःप्रभृतिवर्गेणायुक्तो वीर्यसयोग सद्रव्यस्तस्य भावस्तत्ता तथा हेतुभूतया 'चलाई'ति अस्थिराणि 'उबकरणाई'ति अङ्गानि 'चलोवगरणट्टयाए ति चलोपकरणलक्षणो योऽर्थस्तद्भावश्चलोपकरणार्थता तया चशब्दः पुनरर्थः । केवल्यधिकारात् श्रुतकेवलिनमधिकृत्याह--'घडाओ | घडसहर'ति घटादवधेर्घटं निश्रां कृत्वा घटसहस्रं 'अभिनिवहित्ता' इति योगः 'अभिनिव्वट्टित्ता' विधाय श्रुतसमुत्थल For Pale Only ~ 460~ wor Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [१९८-२००] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [१९८ -२००] व्याख्या- ब्धिविशेषेणोपदर्शयितुं प्रभुरिति प्रश्नः, 'उकरियाभेएणं'ति, [ग्र० ५०००] इह पुद्गलानां भेदः पञ्चधा भवति, खण्डा- ५ शतके प्रज्ञाप्तिः । दिभेदात् , तत्र खण्डभेदः खण्डशो यो भवति लोष्टादेरिव प्रतरभेदोऽभ्रपटलानामिव चूर्णिकाभेदस्तिलादिचूर्णवत् अनु- उद्देशः ५ अभयदेवी- तटिकाभेदोऽवटतटभेदवत् उत्कारिकाभेद एरण्डवीजानामिवेति, तत्रोत्कारिकाभेदेन भिद्यमानानि लद्वाईति लब्धिविशे- छद्मस्थासिया वृत्तिःला पाहणविषयतां गतानि पत्ताईति तत एव गृहीतानि 'अभिसमन्नागयाईति घटादिरूपेण परिणमयितुमारब्धानि, दिद्धि-सू२०१ ततस्तैर्घटसहस्रादि निवर्तयति, आहारकशरीरवत् , निर्वयं च दर्शयति जनानां, इह चोत्कारिकाभेदग्रहणं तद्भिन्नानामेव | एवमनेवभू॥२२४॥ द्रव्याणां विवक्षितघटादिनिष्पादनसामर्थ्यमस्ति नान्येषामितिकृत्वेति ॥ पञ्चमशते चतुर्थः ॥५-४॥ तावदना सू२०२ कुलकराअनन्तरोद्देशके चतुर्दशपूर्वविदो महानुभावतोक्ता, स च महानुभावत्वादेव छद्मस्थोऽपि सेत्स्यतीति कस्याप्याशङ्काद्यासू२०३ | स्यादतस्तदपनोदाय पञ्चमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्-- छउमत्थे णं भंते ! मणूसे तीयमणतं सासयं समयं केवलेणं संजमेणं जहा पढमसए चउत्थु से आलावगा तहा नेयवा जाव अलमत्थुत्ति वत्तव्वं सिया । (सूत्रं २०१) अन्न उत्थिया णं भंते ! एवमातिक्खंति जाव परूवेति सब्वे पाणा सब्वे भूया सव्वे जीचा सवे सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति से कहमेयं भंते ! एवं?,5 गोयमा ! जपणं ते अन्नउत्थिया एवमातिक्खंति जाव वेदेति जे ते एवमासु मिच्छा ते एबमासु, अहं! &। पुण गोयमा ! एवमातिक्खामि जाव परूवेमि अत्यंगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति अत्थे अनुक्रम 555454555 [२३८ ॥२२४॥ -२४०] अत्र पंचम-शतके चतुर्थ-उद्देशक: समाप्त: अथ पंचम-शतके पंचम-उद्देशक: आरभ्यते ~461~ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२०१-२०३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०१ -२०३] गइया पाणा भूया जीवा सत्ता अनेर्वभूयं वेदणं वेदेति, से केणटेणं अत्थेगतिया?तं चेव उचारेय गोयमा ! जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा तहा वेदणं वेदेति ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता एवंभूयं वेदणं वेदेति, जे णं पाणा भूया जीवा सत्ता जहा कडा कम्मा नो तहा वेदणं चेति ते णं पाणा भूया जीवा सत्ता अनेवंभूयं वेदणं वेदंति, सेतेणट्टेणं तहेव । नेरहया णं भंते ! किं एवंभूयं वेदणं वेति अनेवभूयं वेदणं चेदंति ?, गोयमा ! नेरइया गं एवंभूयं वेदणं वेदेति अनेवभूयपि वेदणं वेदंति । से कण टेणं तं चेव, गोपमा ! जे णं नेरइया जहा कडा कम्मा तहा वेयणं वेदेति ते णं नेरइया एवंभूयं वेदणं वेति| ४जेणं नेरतिया जहा कडा कम्माणो तहा वेदणं वेदेति ते णं नेरइया अनेवंभूयं वेदणं वेदेति, से तेणटेणं, एवं जाव दवमाणिया संसारमंडल नेयब्बं । (सूत्रं २०२) जंबूद्दीवे णं भंते ! भारहे वासे इमीसे ओस. कई कुलगरा है। होत्था ?, गोयमा ! सत्त एवं तित्थयरा तित्थयरमायरो पियरो पढमा सिस्सिणीओ चकवट्टीमायरो इस्थिरयणं बलदेवा चासुदेवा वासुदेवमायरो पियरो, एएसिं पडिसत्तू जहा समवाए परिवाडी तहा णेयब्वा, सेवं ४ भंते २ जाव विहरइ ।। (सूत्रं २०३ ) ॥ पंचमसए पंचमुद्देसओ ॥५-५॥ _ 'छउमत्थे 'मित्यादि, 'जहा पढमसए'इत्यादि, तत्र च छद्मस्थः आधोऽवधिकः परमाधोऽवधिकश्च केवलेन संयमा-2 | दिना न सिद्ध्यतीत्याद्यर्थपरं तावन्नेयं यावदुत्पन्नज्ञानादिधरः केवली अलमस्त्विति वक्तव्यं स्यादिति, यञ्चेदं पूर्वाधीतम-1 पीहाधीतं तत्सम्बन्धविशेषात् , स पुनरुद्देशकपातनायामुक्त एवेति ॥ स्वयूथिकवक्तव्यताऽनन्तरमन्ययूथिकवक्तव्यतासूत्र, अनुक्रम [२४१-२४३] ~462~ Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२०१ -२०३] दीप अनुक्रम [२४१ -२४३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२०१-२०३] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥२२५॥ तत्र च 'एवंभूयं वेयणं'ति यथाविधं कर्म निबद्धमेवंप्रकारतयोत्पन्नां 'वेदना' असातादिकमदयं 'वेदयन्ति' अनुभवन्ति, मिथ्यात्वं चैतद्वादिनामेवं न हि यथा वद्धं तथैव सर्वे कर्मानुभूयते, आयुः कर्मणो व्यभिचारात्, तथाहि दीर्घका | लानुभवनीयस्याप्यायुःकर्मणोऽल्पीयसाऽपि कालेनानुभवो भवति, कथमन्यथाऽपमृत्युव्यपदेशः सर्वजनप्रसिद्धः स्यात् ?, कथं वा महासंयुगादी जीवलक्षाणामध्येकदैव मृत्युरुपपद्येतेति ?, 'अणेवंभूयंपि'त्ति यथा वद्धं कर्म नैवंभूता अनेवंभूता अतस्तां श्रूयन्ते ह्यागमे कर्म्मणः स्थितिविघातरसघातादय इति, 'एवं जाव बेमाणिया संसारमंडलं नेयब्वं'ति 'एवम्' उक्तक्रमेण वैमानिकावसानं संसारिजीवचक्रवालं नेतव्यमित्यर्थः अथ चेह स्थाने वाचनान्तरे कुलकरतीर्थकरादिवक्तव्यता | दृश्यते, ततश्च संसारमण्डलशब्देन पारिभाषिकसञ्ज्ञया सेह सूचितेति संभाव्यत इति ॥ पञ्चमशते पञ्चमः ॥ ५-५ ।। अनन्तरोदेशके जीवानां कर्मवेदनोक्ता, पठे तु कर्म्मण एव वन्धनिबन्धनविशेषमाह, तस्य चादिसूत्रमिदम् कहणं भंते ! जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा ! तिहिं ठाणेहिं, तंजहा-पाणे अश्याएता मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिजेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिला भेत्ता, एवं खलु जीवा अप्पाउयत्ताए कम्मं पकरेइ ॥ कहणणं भंते! जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा तिर्हि ठाणेहिं-नो पाणे अतिवाइत्ता नो मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं अस|णपाणखाइमसाइमेणं पडिला भेत्सा एवं खलु जीवा दीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ॥ कहनं भंते ! जीवा असु Education Internationa अत्र पंचम शतके पंचम उद्देशकः समाप्तः अथ पंचम शतके षष्ठं उद्देशक: आरभ्यते | अल्प- दीर्घ-शुभ आयुः For Penal Praise Only ~ 463~ ५ शतके उद्देशः ६ अल्पदीर्घ शुभायूंषि सू २०३ ॥२२५॥ Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] दीप भदीहाउयत्साए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा! पाणे अइवाइत्ता मुसं वइत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा हीलित्ता निंदिता खिसित्ता गरहित्ता अवमन्नित्ता अन्नयरेणं अमणुन्नेणं अपीतिकारेणं असणपाणस्वाइमसा| इमेणं पडिलाभेत्ता एवं खलु जीवा असुभदीहाउयत्ताए कम्मं परैति ॥ कहनं भंते ! जीवा सुभदीहाउय-17 साए कम्मं पकरेंति ?, गोयमा! नो पाणे अइबाइत्ता नो मुसं वहत्ता तहारूवं समणं वा माहणं वा वंदित्ता नमंसित्ता जाव पजुवासित्ता अन्नयरेणं मणुन्नेणं पीइकारएणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेत्ता एवं खल जीवा सुभदीहाउयत्ताए कम्मं पकरेंति ॥ (सूत्रं २०४) 'कहण्णमित्यादि, 'अप्पाउयत्ताए'ति अल्पमायुर्वस्यासावल्पायुष्कस्तस्य भाषस्तत्ता तस्यै अल्पायुष्कतायै अल्पजी-18 वितव्यनिबन्धनमित्यर्थः, अल्पायुष्कतया वा, 'कर्म' आयुष्कलक्षणं 'प्रकुर्वन्ति' बन्नन्ति !, 'पाणे अइवाएत्त'त्ति 'प्राणान् जीवान् 'अतिपात्य' विनाश्य 'मुसं वइत्त'त्ति मृपावादमुक्त्वा 'तहारूवंति तथाविधस्वभावं भक्तिदानोचितपात्र | | मित्यर्थः 'समणं वत्ति श्राम्यते-तपस्यतीति श्रमणोऽतस्तं 'माहणं वत्तिमा हनेत्येवं योऽन्यं प्रति वक्ति स्वयं हनननिवृत्तः सन्नसौ माहनः, ब्रह्म वा ब्रह्मचर्य कुशलानुष्ठानं वाऽस्यास्तीति ब्राह्मणोऽतस्तं, वाशब्दो समुच्चये, 'अफासुएण'तिन प्रगता असवः-असुमन्तो यस्मात्तदनासुकं सजीवमित्यर्थः 'अणेसणिज्जेणं ति एष्यत इत्येषणीयं-कल्प्यं तनिषेधादनपणीयं तेन, ★ अशनादिना-प्रसिद्धेन 'पडिलाभेत्त'त्ति 'प्रतिलभ्य लाभवन्तं कृत्वा, अथ निगमयन्नाह-एवं'मित्यादि, 'एवम् उक्त लक्षणेन क्रियात्रयेणेति, अयमत्र भावार्थ:-अध्यवसायविशेषादेत अयं जघन्यायुःफलं भवति, अथवेहापेक्षिकी अल्पायुष्कता ROSSCRACKERASACANCEK अनुक्रम [२४४] | अल्प-दीर्घ-शुभ आयु: ~464~ Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक शुभायूंपि [२०४] दीप व्याख्या- ग्राह्या, यतः किल जिनागमाभिसंस्कृतमतयो मुनयः प्रथमवयस भोगिनं कश्चन मृतं दृष्ट्वा वक्तारो भवन्ति-नूनमनेन ५ शतके प्रज्ञप्तिः भवान्तरे किश्चिदशुभं प्राणिघातादि वा सेवितमकल्प्यं वा मुनिभ्यो दत्तं येनाय भोग्यप्यल्पायुः संवृत्त इति, अन्ये वाहुः- उद्देशः ६ अभयदेवी- यो जीवो जिनसाधुगुणपक्षपातितया तत्पूजार्थं पृथिव्याद्यारम्भेण स्वभाण्डासत्योस्कर्षणादिनाऽऽधाकादिकरणेन च अल्पदीर्घया हात्तःशाना प्राणातिपातादिषु वर्चते तस्य वधादिविरतिनिरवद्यदाननिमित्तायुष्कापेक्षयेयमल्पायुष्कताऽवसेया, अथ नैवं निर्विशे-III पणत्वात्सूत्रस्य, अल्पायुष्कत्वस्य च क्षुल्लकभवग्रहणरूपस्थापि प्राणातिपातादिहेतुतो युज्यमानत्वाद् अतः कथमभिधीयते ॥२२६॥ सू२०३ | सविशेषणप्राणातिपातादिवती जीव आपेक्षिकी चाल्पायुष्कता इति !, उच्यते, अविशेषणत्वेऽपि सूत्रस्य प्राणातिपाता-15) देविशेषणमवश्यं वाच्यं, यत इतस्तृतीयसूत्रे प्राणातिपातादित एवाशुभदीर्घायुष्कता वक्ष्यति, न हि सामान्यहेतौ कार्यवैषम्यं युज्यते, सर्वत्रानाश्वासप्रसङ्गात्, तथा 'समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं २||3|| असणं ४ पडिलाभेमाणस्स किं कजइ ?,गोयमा! बहुतरिया निजरा कजइ अप्पतरे से पावे कम्मे कजइति वक्ष्यमाणवचनादवसीयते-नैवेयं क्षुलकभवग्रहणरूपाऽल्पायुष्कता, न हि स्वल्पपापबहुनिर्जरानिबन्धनस्यानुष्ठानस्य क्षुल्लकभवग्रहण|निमित्तता संभाव्यते, जिनपूजाद्यनुष्ठानस्यापि तथाप्रसङ्गात्, नन्वेवं धार्थ प्राणातिपातमृपावादापासुकदानं च कसेव्य-18 मापन्नमिति, अत्रोच्यते, आपद्यतां नाम भूमिकापेक्षया को दोषः, यतो यतिधाशक्तस्य गृहस्थस्य द्रव्यस्तबद्वारेण || ॥२२६॥ १-श्रमणोपासकेन भदन्त ! तथारूपं श्रमणं वा प्रासुकेनानेषणीयेनाशनादिना प्रतिलाभयित्वा किं क्रियते !, गौतम ! बहुतरा निर्जरा क्रियते अल्पतरं च पापं कर्म तेन क्रियते ।। अनुक्रम [२४४] CRECORARY ... एते पृष्ठे सूत्र-क्रमांके एक मुद्रण-दोष: दृश्यते (सू.२०३) ---(यहाँ इस पृष्ठ की बायीं तरफ सू.२०३ लिखा है, वहां सू.२०४ होना चाहिए) अल्प-दीर्घ-शुभ आयुः ~465 Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०४] -CPC दीप प्राणातिपातादिकमुक्तमेव प्रवचने, दानाधिकारे श्रूयते-द्विविधाः श्रमणोपासका:-संविग्नभाविता लुब्धकदृष्टान्तभाविताश्च भवन्ति, यथोक्तम्-"'संविग्गभावियाणं लोद्धयदिईतभाबियाणं च । मोत्तण खेत्तकाले भावं च कहिंति सुदूंछ ॥१॥" तत्र लुब्धकदृष्टान्तभाषिता आगमार्थानं भिज्ञत्वाद्यथाकथञ्चिद्ददति, संविग्नभावितास्त्वागमज्ञत्वात्साधुसंयमबाधापरिहारित्वात्तदुपष्टम्भकत्वाचौचित्येन, आगमश्चैवम्-"संघरणमि असुद्धं दोण्हवि गेण्हतदितयाणऽहियं । आउरदिहतेणं तं चेव हियं असंथरणे ॥१॥" तथा-"नायागयाणं कप्पणिजाणं अन्नपाणाईणं दवाण" मित्यादि, अथवेहापासुकदानमल्पायु| कतायां मुख्य कारणं, इतरे तु सहकारिकारणे इति व्याख्येयं, प्राणातिपातनमृषावादनयोनविशेषणत्वात् , तथाहिप्राणानतिपात्याधाकर्मादिकरणतो मृपोक्त्वा यथा भोः साधो! स्वार्थमिदं सिद्धं भक्तादि कल्पनीयं चातो नानेषणीयमिति शङ्का कार्येति, ततः प्रतिलभ्य तथा कर्म कुर्वन्तीति प्रक्रम इति, गम्भीरार्थ चेदं सूत्रमतोऽन्यथाऽपि यथाऽऽगमं भावनीय| मिति ॥ अथ दीर्घायुष्कताकारणान्याह-कहन्न'मित्यादि, भवति हि जीवदयादिमतो दीर्घमायुर्यतोऽत्रापि तथैव भवन्ति दीर्घायुषं दृष्ट्वा वक्तारो-जीवदयादि पूर्व कृतमनेन तेनायं दीर्घायुः संवृत्तः, तथा सिद्धमेव वधादिविरते-घमायुस्तस्य देवगतिहेतुत्वात् , आह च-"अणुवयमहबएहि य बालतवोऽकामनिजराए य । देवाउयं निबंधइ सम्मद्दिही य जो जीवो ॥१॥" १क्षेत्रकाली भायं च मुक्त्वा संविमभावितानां लुब्धकदृष्टान्तभावितानां च शुद्धोऽछ कथयन्ति ॥१॥ २ निर्याहे अशुद्धं ददल| तोहबोरप्यहितं, तदेवानिर्वाहे ग्लानदृष्टान्तेन हितम् ॥ ३-न्यायागतानां कल्पनीयानामन्नपानादीनां द्रव्याणाम् ॥ ४ अणुव्रतैर्महावतै - हालतपसाऽकामनिर्जरया च देवायुर्निबध्नाति यश्च सम्यग्दृष्टिीयः ॥ १ ॥ अनुक्रम [२४४] | अल्प-दीर्घ-शुभ आयु: ~466~ Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२०४] दीप अनुक्रम [२४४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२२७|| Jucatori देवगतौ च विवक्षया दीर्घमेवायुः, दानं चाश्रित्येव वक्ष्यति - "समणोवासयस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा २ फासुएणं २ असण ४ मेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा ! एगंतसो निजरा कजइ "त्ति, यच्च निर्जराकारणं तद्विशिष्टदीर्घायुःकारणतया न विरुद्धं महाव्रतवदिति, व्याख्यानान्तरमपि पूर्ववदेवेति ॥ अथायुप एव दीर्घस्य सूत्रद्वयेनाशुभशु|भत्वकारणान्याह - 'कन्न' मित्यादि, प्राग्वन्नवरं श्रमणादिकं हीलनादिकरणतः प्रतिलभ्येत्यक्षरघटना, तत्र हीलनं जात्यायुद्घट्टनतः कुत्सा निन्दनं मनसा खिंसनं - जनसमक्षं गर्हणं - तत्समक्षम् 'अपमाननं' अनभ्युत्थानादिकरणं 'अन्यतरेण' बहूनामेकतमेन 'अमनोज्ञेन' स्वरूपतोऽशोभनेन कदन्नादिना, अत एवाप्रीतिकारकेण, भक्तिमतस्त्वमनोज्ञं मनोज्ञमेव मनोज्ञफलत्वात् इह च सूत्रेऽशनादि प्रासुकाप्रासुकादिना न विशेषितं, हीलनादिकर्तुः प्रासुकादिविशेषणस्य दानस्य | फलविशेषं प्रत्यकारणत्वेन मत्सरजनितहीलनादिविशेषणानामेव च प्रधानतया तत्कारणत्वेन विवक्षणात्, वाचनान्तरे तु 'अफासुरणं अणेसणिज्जेणं'ति दृश्यते तत्र च प्रासुकदानमपि हीलनादिविशेषितमशुभदीर्घायुः कारणं, अप्रासुकदानं तु विशेषत इत्युपदर्शयता 'अफासुरण' इत्याद्युक्तमिति, प्राणातिपातसृपावादनयोर्दानविशेषणपक्षव्याख्यानमपि घटत एव, अवज्ञादानेऽपि प्राणातिपातादेर्दश्यमानत्यादिति, भवति च प्राणातिपातादेरशुभदीर्घायुः तेषां नरकगतिहेतुत्वात्, | यदाह - "मिच्छदिट्ठिमहारंभपरिग्गहो तिव्रलोभ निस्सीलो । नरयायं निबंध पावमई रोदपरिणामो ॥ १ ॥” नरकगतौ १ श्रमणोपासकेन भदन्त 1 तथारूपं श्रमणं वा माहनं वा प्रालुकेनामासुकेन वाऽशनादिना ४ प्रतिलाभयता किं क्रियते है, गौतम ! एकान्ततो निर्जरा क्रियते ॥ २ मिथ्यादृष्टिर्महारम्भपरिग्रहस्ती लोभो निःशीलः पापमतिः रौद्रपरिणामो नरकायुर्निबध्नाति ॥ १ ॥ For Penal Use Only ५ शतके उद्देशः ६ अल्पदीर्घशुभायूंषि सू २०३ ***एते पृष्ठे सूत्र क्रमांके एक मुद्रण-दोष: दृश्यते (सू.२०३) --- ( यहाँ इस पृष्ठ की बायीं तरफ सू. २०३ लिखा है, वहां सू.२०४ होना चाहिए) | अल्प- दीर्घ-शुभ आयुः ~467~ ॥२२७॥ ayur Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२०४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * % % प्रत सूत्रांक [२०४] % - दीप |च विवक्षया दीर्घमेवायुः ॥ विपर्ययसूत्र प्रागिव, नवरं इहापि प्रासुकापासुकतया दानं न विशेषितं, पूर्वसूत्रविपर्ययत्वाद् अस्य, पूर्वसूत्रस्य चाविशेषणतया प्रवृत्तत्वात् , न च प्रासुकाप्रासुकदानयोः फलं प्रति न विशेषोऽस्ति, पूर्वसूत्रयोस्तस्य प्रतिपादितत्वात्, तस्मादिह प्रासुकैषणीयस्य दानस्य कल्प्याप्राप्तावितरस्य चेदं फलमवसेयं, वाचनान्तरे तु 'फासुएण'मित्यादि दृश्यत एवेति, इह च प्रथममल्पायुःसूत्रं द्वितीयं तद्विपक्षस्तृतीयमशुभदीर्घायुःसूत्रं चतुर्थ तु तद्विपक्ष इति ॥ &अनन्तरं कर्मवन्धक्रियोक्का, अथ क्रियान्तराणां विषयनिरूपणायाह| गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विक्किणमाणस्स केइ भंडं अवहरेज्जा ? तस्स णं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणस्स किं आरंभिया किरिया कज्जइ परिग्गहिया०माया० अप० मिच्छा०, गोयमा ! आरंभिया किरिया कज्जा परिमाया. अपच० मिच्छादसणकिरिया सिय कन्जइ सिय नो कजह ॥ अह से भंडे अभिसमन्नागए भवति, तओ से पच्छा सब्बाओ ताओ पपणुईभवति ॥ गाहावतिस्स गं भंते ! तंभर विकिणमाणस्स। ४|| कतिए भंडे सातिजेजा ?, भंडे य से अणुवणीए सिया, गाहावतिरस ण भंते। ताओ भंडाओ किं आरंभिया|| किरिया कज जाव मिच्छादसणकिरिया कजइ ? कइयरस वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजह जाव मिच्छादसणकिरिया कज्जह ?, गोयमा गाहावइस्स ताओ भंडाओ आरंभिया किरिया कन्जह जाव अपडबवाणिया मिच्छादसणवतिया किरिया सिय कमाइ सिय नो कज्जइ, कतियस्स णं तामो सव्वाओ पयणुई भवति।गाहावतिस्स णं भंते ! भंड विकिणमाणस्स जाच भंडे से उवणीए सिया? कतियस्सणं भंते ! ताओ अनुक्रम [२४४] RRC अल्प-दीर्घ-शुभ आयु: ~468~ Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अनुक्रम [२४५] व्याख्या भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजति, गाहावइस्स वा ताओ भंडाओ किं आरंभिया किरिया कजति ?,5५ शतके प्रज्ञप्तिः द गोयमा कइयस्स ताओ भंडाओ हेडिल्लाओचत्तारि किरिधाओ कजंति मिच्छादसणकिरिया भयणाए गाहा- उद्देशः ६ अभयदेवी वतिस्स णं ताओ सब्बाओ पयणुईभवति । गाहावतिस्स णं भंते ! भंडं जाव धणे य से अणुवणीए सिया ? भाण्डधनाया वृत्तिः१] | एवंपिजहा भंडे उवणीए तहा नेयव्वं चउत्थो आलावगो, धणे से उवणीए सिया जहा पढमो आलावगो भंडे याः सू२०५ ॥२२८||16 |य से अणुवणीए सिया तहा नेपब्वो पढ़मचउत्थाणं एक्को गमो वितियतइयाणं एको गमो ॥ अगणिकाए णंद भंते ! अहुणोजलिते समाणे महाकम्मतराए चेव महाकिरियतराए चेव महासवतराए चेव महावेदणतराए| चेव भवति, अहे णं समए २ वोफसिज्जमाणे २ चरिमकालसमयंसि इंगालभूए मुम्मुरभूते छारियभूए तओ | पच्छा अप्पकम्मतराए चेव अप्पकिरियतराए चेव अप्पासवतराए चेव अप्पवेदणतराए चेव भवति ?, हंता |गोयमा ! अगणिकाएणं अणुज्जलिए समाणे तं चेच ॥ (सूत्रं २०५) | 'गाहावइस्सेत्यादि, गृहपतिः-गृही 'मिच्छादसणकिरया सिय कजई इत्यादि, मिथ्यादर्शनप्रत्यया क्रिया स्यात्-11 कदाचित् क्रियते भवति स्यानो क्रियते-कदाचिन्न भवति, यदा मिथ्या दृष्टिगृहपतिस्तदाऽसी भवति यदा तु सम्यग्दृष्टिस्तदा द्रा न भवतीत्यर्थः ॥ अथ क्रियास्वेव विशेषमाह-'अहे'त्यादि, 'अथेति पक्षान्तरद्योतनार्थः 'से भंडे'त्ति तद्भाण्डं | 3|| 'अभिसमन्नागए'त्ति गेवषयता लब्धं भवति 'तओंति समन्वागमनात् 'से'त्ति तस्य गृहपतेः 'पश्चात् समन्वागमानन्त- ४ ॥२२८॥ | रमेव 'सव्वाओ'त्ति यासां सम्भवोऽस्ति ता आरम्भिक्यादिक्रियाः 'पतणुईभवंति'त्ति 'प्रतनुकीभवन्ति' इस्वीभवन्ति MORE ~469~ Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [६], मूलं [२०५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०५] दीप अपहृतभाण्ड गवेषणकाले हि महत्यस्ता आसन् प्रयलविशेषपरत्वाद्गृहपतेस्तल्लाभकाले तु प्रयत्नविशेषस्योपरतत्वात्ता इस्वीभवन्तीति । कइए भंडं साइजेजति ऋयिको-प्राहको भाण्डं 'स्वादयेत्' सत्यङ्कारदानतः स्वीकुर्यात् 'अणुवणीए सिय'त्ति ऋयिकायासमर्षितत्वात् , कइयस्सणं ताओ सव्वाओ पतणुईभवंति'त्ति अप्राप्तभाण्डत्वेन तद्गतक्रियाणामस्पत्वादिति, | गृहपतेस्तु महत्यो,भाण्डस्य तदीयत्वात् , ऋयिकस्य भाण्डे समर्पिते महत्यस्ताः, गृहपतेस्तु प्रतनुकाः २ । इदं भाण्डस्यानुपनीतोपनीतभेदात्सूत्रद्वयमुक्तम्, एवं धनस्यापि वाच्यं, तत्र प्रथममेवम्-'गाहावइस्सण भंते ! भंडं विकिणमाणस्स कइए भंड साइजेजा धणे य से अणुषणीए सिया, कइयस्स णं भंते! ताओ धणाओ किं आरंभिया किरिया कजई ५१, गाहावइस्स य ताओघणाओ किं आरंभिया किरिया कज्जइ ५?, गोयमा! कइयस्स ताओ धणाओ हेहिलाओ चत्तारि किरियाओ काति, मिच्छादसणकिरिया भयणाए, गाहावतिस्स गं ताओ सबाओ पतणुईभवंति,' धनेऽनुपनीते ऋयिकस्य महत्यस्ता भवन्ति, धनस्य तदीयत्वात् , गृहपतेस्तु तास्तनुकाः, धनस्य तदानीमतदीयत्वात्, एवं द्वितीयसूत्रसमानमिदं तृतीयमत एवाह'एयपि जहा भंडे उवणीए तहा णेयब्बति द्वितीयसूत्रसमतयेत्यर्थः३। चतुर्थ वेवमध्येयम्-'गाहावइस्स णं भंते ! भंडं विकिणमाणस्स कइए भंडं साइजेजा धणे य से उवणीए सिया, गाहावइस्स णं भंते ! ताओ धणाओ किं आरं|भिया किरिया कजइ ५' कइयरस वा ताओ धणाओ किं आरंभिया किरिया कजइ ५१, गोयमा ! गाहावइस्स ताओ | धणाओ आरंभिया ४ मिच्छादसणबत्तिया किरिया सिय कजइ सिय नो कजइ, कइयस्स णं ताओ सबाओ पयणुई5 भवंति' धने उपनीते धनप्रत्ययस्वासासां गृहपतेर्महत्यः, ऋयिकस्य तु प्रतनुकाः, धनस्य तदानीमतदीयत्वात्। एवं चx अनुक्रम [२४५] ~470~ Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२०५ ] दीप अनुक्रम [२४५] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्तिः ) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [ २०५ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्ति: अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२२९॥ प्रथम सूत्रसममिदं चतुर्थमित्येतदनुसारेण च सूत्र पुस्तकाक्षराण्यनुगन्तव्यानि ॥ क्रियाऽधिकारादिदमाह - 'अगणीत्यादि, 'अणोज्जलिए'त्ति 'अधुनोजवलितः' सद्यः प्रदीप्तः 'महाकम्मतराए ति विध्यायमानानलापेक्षयाऽतिशयेन महान्ति कर्माणि - ज्ञानावरणादीनि बन्धमाश्रित्य यस्यासौ महाकर्म्मतरः एवमन्यान्यपि, नवरं क्रिया-दाहरूपा आश्रयो - नवकर्मोंपादानहेतुः वेदना-पीडा भाविनि तत्कर्मजन्या परस्परशरीरसंबाधजन्या वा 'वोकसिजमाणे'त्ति 'व्यवकृष्यमाणः' अपकर्षे गच्छन् 'अप्पकम्मतराए'त्ति अङ्गाराद्यवस्थामाश्रित्य, अल्पशब्दः स्तोकार्थः, [ क्षारावस्थायां त्वभावार्थः ] ॥ क्रियाऽधिकारादेवेदमाह पुरिसे भंते! धणुं परामुसइ घणुं परामुसित्ता उसुं परामुसह २ ठाणं ठाइ ठाणं ठिचा आयतकण्णाययं उसुं | करेंति आययकप्राययं उसुं करेत्ता उहुं वेहा सं उ उच्विहइ २ ततो णं से उसुं उद्धं बेहासं उधिहिए समाणे जाई तत्थ पाणाई भूयाई जीवाई सत्ताई अभिहणइ बन्तेति लेस्सेति संघाइ संघट्टेति परितावे किलामेइ ठाणाओ ठाणं संकामे जीवियाओ ववरोवेद तए णं भंते से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से पुरिसे धणुं परामुसइ २ जाव उब्विहइ तावं च णं से पुरिसे कातियाए जाव पाणातिवायकिरियाए पंचहिं किरियाहिं पुढे, जेर्सिपि य णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए तेऽवि य णं जीवा काइयाए जाव पंचहि किरियाहिं पुढे, एवं धणुपुट्ठे पंचाहिँ किरियाहिं, जीवा पंचहिं, हारू पंचहिं, उसू पंचहिं, सरे पत्तणे फले पहारू पंचहिं, ॥ ( सूत्रं २०६ ) । अहे णं से उसुं अष्पणो गुरुयत्ताए भारियन्ताए गुरुसंभारियत्ताए अहे वीससाए पचो Education Internationa For Parts Only ~ 471~ शतके उद्देशः ६ धनुरादीनां क्रियावस्वं स २०७ ॥२२९॥ Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२०६-२०७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०६-२०७] दीप वयमाणे जाई तत्थ पाणाई जाव जीवियाओ ववरोवेइ तावं च णं से पुरिसे कतिकिरिए ?, गोयमा ! जावं च णं से उसुं अप्पणो गुरुययाए जाव ववरोवेइ तावंच णं से पुरिसे काइयाए जाव चाहिं किरियाहिं पुढे,जेसिपि काय णं जीवाणं सरीरेहिं धणू निव्वत्तिए तेवि जीवा चउहि किरियाहि, धणूपुढे चउहि, जीवा चाउहि, पहास चउहि, उसू पंचहि, सरे पत्रणे फले पहारू पंचहिं, जेचि य से जीवा अहे पचोवयमाणस्स उवग्गहे चिट्ठति तेवि य णं जीवा कातियाए जाव पंचाहिं किरियाहिं पुट्ठा ।। (सूत्रं २०७)। 'पुरिसे णमित्यादि 'परामुसइ'त्ति 'परामृशति' गृह्णाति 'आययकण्णाययंति आयत:-क्षेपाय प्रसारितः कर्णा-118 यतः-कर्ण यावदाकृष्टस्ततः कर्मधारयाद् आयतकर्णायतः अतस्तं, 'इर्षु वाणं 'उहुं येहासंति ऊर्द्धमिति वृक्षशिखरा& द्यपेक्षयाऽपि स्यादत आह-विहायसि' इत्याकाशे 'उब्विहईत्ति ऊर्द्ध विजहाति' ऊ क्षिपतीत्यर्थः, 'अभिहणइ'त्ति। अभिमुखमागच्छतो हन्ति 'वत्सेईत्ति वर्नुलीकरोति शरीरसङ्कोचापादनात् 'लेसेइ'त्ति 'श्लेषयति' आत्मनि श्लिष्टान् ४ करोति 'संघाएइ'त्ति अन्योऽन्यं गात्रैः संहतान् करोति 'संघट्टेइत्ति मनाक् स्पृशति 'परितावेह'त्ति समन्ततः पीडयति 'किलामेइ'त्ति मारणान्तिकादिसमुद्घातं नयति 'ठाणाओ ठाणं संकामेई' स्वस्थानात्स्थानान्तरं नयति 'जीवि-11 याओ ववरोवेह'त्ति फ्युतजीवितान करोतीति, 'किरियाहिं पुढे'त्ति क्रियाभिः स्पृष्टः, क्रियाजन्येन कर्मणा बद्ध इत्यर्थः,8 'धणु'त्ति धनु:-दण्डगुणादिसमुदायः, ननु पुरुषस्य पञ्च क्रिया भवन्तु, कायादिव्यापाराणां तस्य एश्यमानत्वात् , धनुरा-3 |दिनिर्वतकशरीराणां तु जीवानां कथं पञ्च कियाः, कायमात्रस्यापि तदीयस्य तदानीमचेतनत्वात् , अचेतनकायमात्रा अनुक्रम [२४६-२४७] 45555 auremarary.org ~472~ Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२०६ -२०७] दीप अनुक्रम [२४६ -२४७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [२०६-२०७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १) ॥२३०॥ दपि बन्धाभ्युपगमे सिद्धानामपि तत्प्रसङ्गः, तदीयशरीराणामपि प्राणातिपातहेतुत्वेन लोके विपरिवर्त्तमानत्वात्, किश - यथा धनुरादीनि कायिकयादिक्रिया हेतुत्वेन पापकर्मबन्धकारणानि भवन्ति तज्जीवानामेवं पात्रदण्डकादीनि जीवरक्षाहेतुत्वेन पुण्य कर्मनिबन्धनानि स्युः, न्यायस्य समानत्वाद् इति, अत्रोच्यते, अविरतिपरिणामाद् बन्धः, अविरतिपरिणामश्च ४ यथा पुरुषस्यास्ति एवं धनुरादिनिर्वर्त्तकशरीरजीवानामपीति, सिद्धानां तु नास्त्यसाविति न बन्धः, पात्रादिजीवानां तु न पुण्यबन्धहेतुत्वं तद्धेतोर्विवेकादेस्तेष्वभावादिति, किश्च सर्वज्ञवचनप्रामाण्याद्यथोक्तं तत्तथा श्रद्धेयमेवेति, इपुरितिशरपत्रफलादिसमुदायः ॥ 'अहे णं से उस इत्यादि, इह धनुष्मदादीनां यद्यपि सर्वक्रियासु कथञ्चिन्निमित्तभावोऽस्ति तथाऽपि विवक्षितबन्धं प्रत्यमुख्यप्रवृत्तिकतया विवक्षितवधक्रियायास्तैः कृतत्वेनाविवक्षणाच्छेषक्रियाणां च निमित्तभाव| मात्रेणापि तत्कृतत्वेन वित्रक्षणाच्चतस्रस्ता उक्ताः वाणादिजीवशरीराणां तु साक्षाद् वधक्रियायां प्रवृत्तत्वात्पचेति ॥ अथ | सम्यकूप्ररूपणाधिकारान्मिथ्याप्ररूपणानिरासपूर्वकं सम्यक्प्ररूपणामेव दर्शयन्नाह - अण्णउत्थिया णं भंते । एवमातिक्वंति जाब पति से जहानामए-जुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे || गेहेजा चकरस वा नाभी अरगा उत्तासिया एवामेव जाव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमाइने मणुयलोए मणुस्सेहिं, से कहमेयं भंते ! एवं १, गोपमा ! जपणं ते अण्णउस्थिया जाव मणुस्सेहिं ते एबमाहंसु मिच्छा, अहं पुण गोयमा । एवमातिक्खामि जाव एवामेव चत्तारि पंच जोयणसयाई बहुसमा| इष्णे निरयलोए नेरइएहिं ॥ ( सूत्रं २०८ ) ॥ नेरइया णं भंते । किं एगन्तं पभू बिउब्वित्तए पुहुत्तं पभू विउ Education Intentational For Pernal Use Only ~473~ ५. दशतके उद्देशः ६ चतुःपञ्चशतींनारक:णामाकीर्ण ता सू २०८ ॥२३॥ nayor Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२०८ -२१०] दीप अनुक्रम [२४८ -२५०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [६], मूलं [२०८-२१०] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः वित्तए ?, जहा जीवाभिगमे आलावगो तहा नेयब्वो जाव दुरहियासे ॥ ( सूत्रं २०९ ) । आहाकम्मं अणवज्जेत्ति मण पहारेता भवति, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिते कालं करेइ नत्थि तरस आराहणा, | से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिकंते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा, एएणं गमेणं नेयव्वं कीयगर्छ ठवियं रइयं कंतारभत्तं दुभिकखभत्तं वद्दलियाभतं गिलाणभत्तं सेजावरपिंडं रायपिंडं । आहाकम्मं अण बज्जेत्ति बहुजणमज्झे भासित्ता सयमेव परिभुंजित्ता भवति से णं तस्स ठाणरस जाव अत्थि तस्स भराहणा, एयंपि तह चेव जाव रायपिंडं । आहाकम्मं अणवजेति सयं अन्नमन्नस्स अणुप्पदावेत्ता भवति, से णं तस्स एवं तह चैव जाव रायपिंडं । आहाकम्मं णं अणवजेत्ति बहुजणमज्झे पन्नवतित्ता भवति से णं तस्स | जाव अस्थि आराहणा जाव रायपिंडं ॥ ( २१० ) ॥ 'अण्णउथिए'त्यादि, 'बहुसमाइणे'त्ति अत्यन्तमाकीर्ण, मिथ्यात्वं च तद्वचनस्य विभङ्गज्ञानपूर्वकत्वादव सेयमिति । 'नेरइएहिं' इत्युक्तमतो नारकवक्तव्यतासूत्रम् — 'एगतं'ति एकत्वं प्रहरणानां 'पुहतं'ति 'पृथक्त्वं' बहुत्वं प्रह| रणानामेव 'जहा जीवाभिगमे इत्यादि, आलापकश्चैवम् -'गोयमा ! एगत्तंपि पहू विउवित्तए पुहुत्तपि पहू विउबित्तए, एगचं विउद्यमाणे एगं महं मोग्गररूवं वा मुसुंदिरूवं वा' इत्यादि, 'पुहुत्तं विउद्यमाणे मोग्गररूवाणि वा' इत्यादि, ताई संखेजाई नो असंखेज्जाई एवं संबद्धाई २ सरीराई विजयंति विउबित्ता अन्नमन्नस्व कार्य अभिहणमाणा २ वेयणं उदीरंति उज्जलं चिडलं पगाढं ककसं कडुयं फरुसं निछुरं चंडं तिषं दुक्खं दुग्गं दुरहियासं'ति, तत्र 'उलां' विपक्षलेशेनाप्य Education international For Parts Only ~ 474~ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२०८-२१०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२०८-२१० व्याख्या- कललितां 'विपुलां' शरीरव्यापिका 'प्रगाढा' प्रकर्षवतीं 'कर्कशां' कर्कशद्रव्योपमामनिष्टामित्यर्थः, एवं कटुकां परुषां ५ शतके प्रज्ञप्तिः निथुरां चेति 'चण्डा' रौवां 'तीत्रां' झगिति शरीरव्यापिका 'दुःखाम् असुखरूपा 'दुर्गा' दुःखाश्रयणीयाम् , अत एव दुरअभयदेवी ||४|धिसह्यामिति ॥ इयं च घेदना ज्ञानाचाराधनाविरहेण भवतीत्याराधनाऽभावं दर्शयितुमाह-आहाकम्मे'त्यादि, 'अण आचार्यस्खा सिद्धिः या वृत्तिः१ बजेति'अनवय'मिति निर्दोषमिति 'मणं पहारेत्त'त्ति मानसं 'प्रधारयिता' स्थापयिता भवति, 'रइयगंति मोदकचू- अभ्याख्या॥२३१॥ कर्णादि पुनर्मोदकादितया रचितमौद्देशिकभेदरूपं 'कंतारभत्तंति कान्तारम्-अरण्यं तत्र भिक्षुकाणां निर्वाहार्थं यद्विहितं | नफलंच ॐ भक्तं तत्कान्तारभक्तं, एवमन्यान्यपि, नवरं वादलिका-मेघदुर्दिन, 'गिलाणभत्तंति ग्लानस्य नीरोगतार्थं भिक्षुकदानाय || सू २११यत्कृतं भक्तं तद् ग्लानभक्तं, आधाकर्मादीनां सदोषत्वेनागमेऽभिहितानां निर्दोषताकल्पनं तत एव स्वयं भोजनमन्यसा- २१२ धुभ्योऽनुप्रदानं सभायां निदोपताभणनं च विपरीतश्रद्धानादिरूपत्वान्मिथ्यात्वादि, ततश्च ज्ञानादीनां विराधना स्फुटै| वेति ॥ आधाकादीश्च पदार्थानाचार्यादयः सभायां प्रायः प्रज्ञापयन्तीत्याचार्यादीन् फलतो दर्शयन्नाह| आयरियउवज्झाए णं भंते ! सविसयंसि गणं अगिलाए संगिण्हमाणे अगिलाए उवगिण्हमाणे कतिहिं भवग्गहणेहिं सिज्झति जाव अंतं करेति !, गोयमा ! अत्थेगतिए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झति अत्थेगतिए दोघेणं भवग्गहणेणं सिजाति तचं पुण भवग्गहणं णातिकमति ॥ (सूत्रं २११)॥ जे णं भंते ! परं अलिएणं ॥२३॥ हा असम्भूतेणं अग्भक्खाणेणं अभक्खाति तस्स णं कहप्पगारा कम्मा कजति ?, गोयमा ! जे ण पर अलिएणं असंतवयणेणं अभक्खाणणं अभक्खाति तस्सणं तहप्पगारा चेव कम्मा कजंति, जत्थेव णं अभि अनुक्रम [२४८ -२५०] RELIGunintentiaTAHREE ~475 Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२११-२१२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२११-२१२] समागमति तत्थेव णं पडिसंवेदेति ततो से पच्छा वेदेति सेवं भंते २त्ति ॥ (सूत्रं २१२)॥ पंचमशते षष्ठ उद्देशकः ॥५-६॥ 4 'आयरियेत्यादि, 'आयरियउवज्झाए 'ति आचार्येण सहोपाध्याय आचार्योपाध्यायः 'सविसयंसित्ति 'स्वविपये अर्थदानसूत्रदानलक्षणे 'गणं'ति शिष्यवर्ग 'अगिलाए'त्ति अखेदेन संगृहन् 'उपगृहन्' उपष्टम्भयन, द्वितीयः तृतीयश्च भवो मनुष्यभवो देवभवान्तरितो दृश्यः, चारित्रवतोऽनन्तरो देवभव एव भवति न च तत्र सिद्धिरस्तीति । परानुग्रहस्थानन्तरफलमुक्तं, अथ परोपघातस्य तदाह-'जे णमित्यादि, 'अलिएणं'ति 'अलीकेन भूतनिहवरूपेण पालि-10 तब्रह्मचर्यसाधुविषयेऽपि नानेन ब्रह्मचर्यमनुपालितमित्यादिरूपेण 'असन्भूएणं ति अभूतोद्भावनरूपेण अचौरेऽपि चौरो-18 ऽयमित्यादिना, अथवा 'अलीकेन' असत्येन, तच्च द्रव्यतोऽपि भवति लुब्धकादिना मृगादीन् पृष्टस्य जानतोऽपि नाहं| | जानामीत्यादि, अत एवाह-'असद्भूतेन' दुष्टाभिसन्धित्वादशोभनरूपेण अचौरेऽपि चौरोऽयमित्यादिना अभक्खाणे 'ति आभिमुख्येनाख्यान-दोषाविष्करणमभ्याख्यानं तेन 'अभ्याख्याति' ब्रूते 'कहप्पगारत्ति कथंप्रकाराणि किंप्र| काराणीत्यर्थः, 'तहप्पगार'त्ति अभ्याख्यानफलानीत्यर्थः, 'जत्येव ण'मित्यादि, यत्रैव मानुषत्वादी 'अभिसमागच्छति उत्पद्यते तत्रैव प्रतिसंवेदयत्यभ्याख्यानफलं कर्म ततः पश्चाद्वेदयति-निर्जरयतीत्यर्थः । पाश्चमशते षष्ठः ॥५-६॥ दीप अनुक्रम [२५१-२५२] 5940-50* 20 षष्ठोद्देशकान्त्यसूत्रे कर्मपुद्गलनिर्जरोक्का, निर्जरा च चलनमिति सप्तमे पुगलचलनमधिकृत्येदमाह अत्र पंचम-शतके षष्ठं-उद्देशकः समाप्त: अथ पंचम-शतके सप्तम-उद्देशक: आरभ्यते ~476 Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२१३-२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: परमाणुपागल प्रत सूत्रांक [२१३-२१४] दीप व्याख्या-8 परमाणुपोग्गले णं भंते ! एयति वेयति जाव तं तं भावं परिणमति ?, गोयमा ! सिय एयति वेयति जाव प्रज्ञप्तिः परिणमति सिय णो एयति जाव णो परिणमति । दुपदेसिए णं भंते ! खंधे एयति जाव परिणमइ ?, गोयमा उद्देशात अभयदेवी सिय एयति जाव परिणमति सिय णो एयति जाव णो परिणमति, सिय देसे एयति देसे नो एयति । परमाण्वादेया वृत्तिः१ मा तिप्पएसिए णं भंते ! खंधे एयति?, गोयमा ! सिय एयति सिय नो एयति, सिय देसे एयति नो देसोरजनादिअ॥२३२॥ एयति सिय देसे एयति नो देसा एयंति सिय देसा एयंति नो देसे एयति । चउप्पएसिए णं भंते ! वंधे || सिधाराद्यण्यति०१. गोयमा ! सिय एयति सिय नो एयति सिय देसे एयति णो देसे एयति सिय देसे एयति णो| वगाहनादि १३. है देसा एयति सिय देसा एयंति नो देसे एयति सिय देसा एयंति नो देसा एयंति जहा चउप्पदेसिओ, २१४ तहा पंचपदेसिओ तहा जाब अणतपदेसिओ ॥ (सूत्रं २१३) ॥ परमाणुपोग्गले णं भंते ! असिधारं वा खुर धारं वा ओगाहेज्जा ?, हंता ! ओगाहेजा । से णं भंते ! तत्थ छिजेज वा भिजेज वा ?, गोयमा ! णो तिणढे ||६|| | समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति, एवं जाव असंखेजपएसिओ। अणंतपदेसिए णं भंते ! खंधे असिधारं था | ल खुरधारं वा ओगाहेजा ?, हंता ! ओगाहेजा, से णं तत्थ छिज्जेज वा भिजेज वा', गोयमा ! अस्धेगतिए छिज्जेज्ज वा भिज्बेन वा अत्थेगतिए नो छिज्जेज वा नो भिजेज वा, एवं अगणिकायस्स मझमज्झेणं तहिं णवरं | || झियाएजा भाणितचं, एवं पुक्खलसंवदृगस्स महामेहस्स मझमझेणं तहिं उल्ले सिया, एवं गंगाए महा | ॥२३॥ अनुक्रम [२५३-२५४] ~477~ Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२१३-२१४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१३-२१४] Mणदीए पडिसोयं हवमागच्छेजा, तहिं विणिहायमावजेजा, उदगावत्तं वा उदगविंदुं वा ओगाहेजा से गं तत्थ परियावज्जेज्जा ॥ (सूत्रं २१४)॥ X ‘परमाणु'इत्यादि, 'सिय एयइ'त्ति कदाचिदेजते, कादाचित्कत्वात्सर्वपुद्गलेष्वेजनादिधर्माणां । द्विप्रदेशिके वयो||४ है विकल्पा:-स्यादेजनं १ स्यादनेजनं २ स्याद्देशेनैजनं देशेनानेजनं चेति ३, वंशत्वात्तस्येति । त्रिप्रदेशिके पश्च-आद्यास्त्र यस्त एव व्यणुकस्यापि तदीयस्सैकस्यांशस्य तथाविधपरिणामेनैकदेशतया विवक्षितत्वात् , तथा देशस्यैजनं देशयोश्चानेजन| मिति चतुर्थः, तथा देशयोरेजनं देशस्य चानेजनमिति पश्चमः । एवं चतुःप्रदेशिकेऽपि नवरं षट्, तत्र षष्ठो देशयोरेजन देशयोरेव चानेजनमिति ॥ पुद्गलाधिकारादेवेदं सूत्रवृन्दम्-'परमाणु'इत्यादि, 'ओगाहेजति अवगाहेत आश्रयेत छियेत' द्विधाभावं यायात् 'भियेत' विदारणभावमात्रं यायात् , 'नो खलु तत्व सत्वं कमईत्ति परमाणुस्वादन्यथा परमाणुत्वमेव न स्यादिति । 'अस्धेगइए छिज्जेज्जत्ति तथाविधवादरपरिणामत्वात् 'अत्थेगइए नो छिज्जेजत्ति | सूक्ष्मपरिणामत्वात् 'उल्ले सिय'ति आो भवेत् 'विणिहायमावज्जेजत्ति प्रतिस्खलनमापद्येत 'परियावजेजत्ति 'पर्यापद्येत' विनश्येत् ॥ | परमाणुपोग्गले णं भंते ! किं सअहे समझे सपएसे ? उदाहु अणद्वे अमज्झे अपएसे, गोयमा ! अणहे | द अमझे अपएसे नो सअहे नो समझे नो सपएसे ॥ दुपदेसिए णं भंते ! खंधे किं सअद्धे समझे सपदेसे उदाहु अणद्धे अमझे अपदेसे, गोयमा! साडे अमझे सपदेसे णो अणद्धे णो समजले णो अपदेसे ।। CSCORCSCACANCRECAPACIAS दीप अनुक्रम [२५३-२५४] ~478~ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१५] दीप व्याख्या- तिपदेसिए णं भंते ! खंघे पुरुछा, गोयमा ! अणद्धे समझे सपदेसे नो समद्धे णो अमझे णो अपदेसे, जहापातके प्रज्ञप्तिःदुपदेसिओतहा जे समा ते भाणियन्वा, जे विसमा ते जहा तिपएसिओ तहा भाणियबा । संखेजपदेसिए उद्देशः७ राण भंते ! बंधे किं सअट्ठ ३१ पुच्छा, गोयमा। सिय सअद्धे अमज्झे सपदेसे सिय अणहे समझे सपदेसे परमाण्वादेः या वृत्तिः१] जहा संखेजपदेसिओ तहा असंखेजपदेसिओऽवि अणंतपदेसिओऽवि ॥ (सत्र २१५)॥ सार्धादिता ॥२३॥ | 'दुपएसिए'इत्यादि, यस्य स्कन्धस्य समाः प्रदेशाः स साद्धों यस्य तु विषमाः स समध्यः, सझयेयप्रदेशिकादिस्तु देशमशादि चसू २१५स्कन्धः समप्रदेशिकः इतरश्च, तत्र यः समप्रदेशिकः स साझेऽमध्यः, इतरस्तु विपरीत इति ॥ २१६ | परमाणुपोग्गले णं मंते ! परमाणुपोग्गलं फुसमाणे किं देसेणं देसं फुसह १ देसेणं देसे फुसहर देसेणं सर्व फुसइ ३ देसेहिं देसं फुसति ४ देसेहिं देसे फुसइ ५ देसेहिं सव्वं फुसद६ सब्वेर्ण देसं फुस-12 &ाति ७ सम्वेणं देसे फुसति ८ सब्वेणं सव्वं फुसइ ९१, गोयमा! णो देसणं देसं फुसइ णो देसेणं देसे फुसति णो देसेणं सव्वं फसइ णो देसेहिं देसं फुसति नो देसेहिं देसे फुसह नो देसेहिं सव्वं फुसति णो ४ सम्वेणं देसं फुसह णो सब्वेणं देसे फुसति सव्वेणं सव्वं फुसइ, एवं परमाणुपोग्गले दुपदेसियं फुसमाणे || | सत्तमणवमेहिं फुसति, परमाणुपोग्गले तिपएसियं फुसमाणे णिप्पच्छिमएहिं तिहिं फु०, जहा परमाणुपो-|| ग्गले तिपएसियं फसाविओ एवं फसावेयव्योजाव अणंतपएसिओ। दपएसिए णं भंते । खंधे परमाणुपोग्गलं ||| ॥२३३॥ फुसमाणे पुच्छा, ततियनवमेहिं फुसति, दुपदेसियं फुसमाणो पदमतइयसत्तमणवमेहिं फुसह, दुपदेसिओ अनुक्रम [२५५] ~479~ Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१६] SANSAROKAASES दीप तिपदेसिपं कुसमाणो आदिल्लएहिय पच्छिल्लएहि य तिहिं फुसति, मज्झमएहि तिहिं विपडिसेहेयध्वं, दुपदेसिओ जहा तिपदेसियं फुसावितो एवं फुसावेयध्वो जाव अणंतपएसियातिपएसिए मं भंते ! खंधे परमाणुपोग्गलं फुसमाणे पुच्छा, ततियछट्टणवमेहिं फुसति, तिपएसिओ दुपएसियं फुसमाणो पढमएणं ततिएणं |चउत्थछट्ठसत्तमणवमेहिं फुसति, तिपएसिओ तिपएसियं फुसमाणो समुवि ठाणेसु फुसति, जहा तिपएसिओ तिपदेसियं फुसावितो एवं तिपदेसिओ जाव अर्णतपएसिएणं संजोएयब्बो, जहा तिपएसिओ एवं जाव अणंतपएसिओ भाणियव्वो।। (सूत्र २१६)॥ 'परमाणुपोग्गले णं भंते ! इत्यादि, 'कि देसेणं देस'मित्यादयो नव विकल्पाः, तत्र देशेन स्वकीयेन देशं तदीयं ] है स्पृशति, देशेनेत्यनेन देश देशान् सर्वमित्येवं शब्दत्रयपरेण त्रयः, एवं देशैरित्यनेन ३,सर्वेणेत्यनेन च त्रय एवेति ३, स्थापना देशेन | देशैः सर्वेण| अत्र च सर्वेण सर्वमित्येक एव घटते, परमाणोनिरंशत्वेन शेषाणामसम्भवात् , ननु यदि देश | देशं | देशं | सर्वेण सर्व स्पृशतीत्युच्यते तदा परमाण्वोरेकत्वापत्तेः कथमपरापरपरमाणुयोगेन घटादिस्कन्धनि-118) देशान् देशान् देशान् पत्तिः इति, अनोच्यते, सर्वेण सर्व स्पृशतीति कोऽर्थः, स्वात्मना तावन्योऽन्यस्य लगतो, | ३ सर्व सर्व सर्वन पुनर शेन, अर्द्धादिदेशस्य तयोरभावात् , घटाद्यभावापत्तिस्तु तदैव प्रसज्येत यदा तयोरकत्वापत्तिः, न च तयोः सा, स्वरूपभेदात् । 'ससमनवमेहिं फुसहत्ति सर्वेण देशं सर्वेण सर्वमित्येताभ्यामित्यर्थः, तत्र यदा द्विप्रदेशिका प्रदेशब्यावस्थितो भवति तदा तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति, परमाणोस्तदेशस्यैव विषय अनुक्रम [२५६] 30-40% ~480~ Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१६] दीप व्याख्या- त्वात् , यदा तु द्विप्रदेशिका परिणामसौम्यादेकप्रदेशस्थो भवति तदा तं परमाणुः सर्वेण सर्व स्पृशतीत्युच्यते, 'पच्छिम-6/५ शतके प्रज्ञप्तिः द एहिं तिहिं फुसइ'त्ति त्रिप्रदेशिकमसौ स्पृशस्त्रिभिरन्त्यैः स्पृशति, तत्र यदा त्रिप्रदेशिका प्रदेशत्रयस्थितो भवति तदा उद्देशः ५ अभय देवी- तस्य परमाणुः सर्वेण देशं स्पृशति परमाणोस्तद्देशस्यैव विषयत्वात् , यदा तु तस्यैकत्र प्रदेशे द्वी प्रदेशी अन्यत्रकोऽव- परमाण्वादः या वृत्तिः१८ ६ स्थितः स्यात्तदा एकप्रदेशस्थितपरमाणुदयस्य परमाणोः स्पर्शविषयत्वेन सर्वेण देशी स्पृशतीत्युच्यते, ननु द्विप्रदेशिकेऽपि 3 साधांदिता ॥२३४॥ || युक्तोऽयं विकल्पस्तत्रापि प्रदेशद्वयस्य स्पृश्यमानत्वात् १, नैवं, यतस्तत्र द्विप्रदेशमात्र एवावयवीति कस्य देशी स्पृशति ,C त्रिप्रदेशिके तु प्रयापेक्षया द्वयस्पर्शने एकोऽवशिष्यते ततश्च सर्वेण देशौ त्रिप्रदेशिकस्य स्पृशतीति व्यपदेशः साधुः | ४ च सू२१५ | स्यादिति, यदा वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्व स्पृशतीति स्यादिति ।। 'दुपएसिए ण'मित्यादि, 'तइयनवमेहिं फुसइ'त्ति यदा द्विप्रदेशिका द्विप्रदेशस्थस्तदा परमाणु देशेन सर्व स्पृशतीति तृतीयः, यदा त्वेकप्रदेशावगाढोऽसौ तदा सर्वेण सर्वमिति नवमः । 'दुपएसिओ दुपएसिय मित्यादि, यदा द्विप्रदेशिको प्रत्येक द्विप्रदेशावगाढी तदा देशेन व देशमिति प्रथमः, यदा त्वेक एकत्रान्यस्तु द्वयोस्तदा देशेन सर्वमिति तृतीयः, तथा सर्वेण देशमिति सप्तमः, नवमस्तु प्रतीत एवेति, अनया दिशाऽन्येऽपि व्याख्येया इति ।। पुद्गलाधिकारादेव पुद्गलानां द्रव्यक्षेत्रभावान् कालतश्चिन्तयति, तत्रBI परमाणुपोग्गले णं भंते ! कालतो केवचिरं होति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज्ज || G ॥२३४॥ कालं, एवं जाव अर्थतपएसिओ। एगपदेसोगाढे णं भंते ! पोग्गले सेए तम्मि वा ठाणेसु अन्नंमि वा ठाणे ||3|| | कालओ केवचिर होइ?, गोयमा ! जह० एगं समयं उको आवलियाए असंखेजहभागं, एवं जाव असं अनुक्रम [२५६] SANSAR ~481~ Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [२५७] खेजपदेसोगाढे । एगपदेसोगाढे णं भंते ! पोग्गले निरेए कालओ केवचिर होइ, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, एवं जाव असंखेज्वपदेसोगाढे । एगगुकालएण गंभंते ! पोग्गले कालओ केचचिरं होइ?, गोयमा ! जहरू एगं समयं उ० असंखेज्जं कालं एवं जाव अणंतगुणकालए, एवं बन्नगंधरसफास जाव अर्णतगुणलुक्खे, एवं सुहमपरिणए पोग्गले एवं वादरपरिणए पोग्गले । सहपरिणए णं भंते ! पुग्गले कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! ज. एग समयं उ० आवलियाए असंखेजहभागं, असहपरिणए जहा एगगुणकालए ॥ परमाणुपोग्गलस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एग समयं उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं । दुप्पएसियस्स णं भंते ! खंधस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ, गोयमा! जहन्नेणं एगं समयं उकोसेणं अर्णतं कालं, एवं जाव अणंतपएसिओ। एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्ग-1 लस्स सेयस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं असंखेज़ कालं, एवं जाव असंखेजपएसोगा। एगपएसोगाढस्स णं भंते ! पोग्गलस्स निरेयस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ? गोयमा ! जहन्नेणं एगं समय उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजहभागं, एवं जाव असंखेजपएसोगाढे । वन्नगं धरसफासमुहमपरिणयवायरपरिणयाणं एतेसिं जं चेव संचिट्ठणात चेव अंतरंपि भाणियब्बं । सहप-4 ||रिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्कोसेणं असं-1 Heremiarary.org ~482 Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२१७] दीप अनुक्रम [२५७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्तिः ) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [२१७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२३५॥ खेलं कालं । असदपरिणयस्स णं भंते ! पोग्गलस्स अंतरं कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं एवं समयं उक्कोसेणं आवलियाए असंखेजइभागं ॥ ( सू २१७ ) ॥ 'परमाणु' इत्यादि द्रव्यचिन्ता 'उक्कोसेणं असंखेज्जं कालं ति असंख्येयकालात्परः पुद्गलानामेकरूपेण स्थित्यभावात् 'एग |पएसो गाढे णमित्यादि क्षेत्रचिन्ता, 'सेए'त्ति 'सेजः' सकम्पः 'तम्मि ठाणे' ति अधिकृत एव 'अण्णम्मि व'त्ति अधिकृतादन्यत्र 'उकोसेणं आवलियाए असंखेज्जभागंति पुद्गलानामाकस्मिकत्वाञ्चलनस्य न निरेजत्वादीनामिवासेयकालत्वं, 'असंखेज्ज एसोगाढे सि अनन्तप्रदेशावगाढस्यासम्भवादसङ्ख्यातप्रदेशावगाढ इत्युक्तं, 'निरेप'त्ति 'निरेजः' | निष्प्रकम्पः ॥ 'परमाणुपोग्गलस्से त्यादि, परमाणोरपगते परमाणुत्वे यदपरमाणुत्वेन वर्त्तनमापरमाणुत्वपरिणतेः तदन्तरं स्कन्धसम्बन्धकालः, स चोत्कर्षतोऽज्ञात इति । द्विप्रदेशिकस्य तु शेषस्कन्धसम्बन्धकालः परमाणुकालश्चान्तरकालः, स च तेषामनन्तत्वात् प्रत्येकं चोत्कर्षतोऽसयस्थितिकत्वादनन्तः, तथा यो निरेजस्य कालः स सैंजस्यान्तरमि - | तिकृत्वोक्तं सैजस्यान्तरमुत्कर्षतोऽसङ्ख्यातकाल इति, यस्तु सैजस्य कालः स निरेजस्यान्तरमितिकृत्वोक्तं निरेजस्यान्तरमुकर्पत आवलिकाया असङ्ख्यातो भाग इति । एकगुणकालकत्वादीनां चान्तरमेक गुणकालकत्वादिकालसमानमेव, न पुन| द्विगुणकालत्वादीनामनन्तत्वेन तदन्तरस्यानन्तत्वं वचनप्रामाण्यात् । सूक्ष्मादिपरिणतानां त्ववस्थानतुल्यमेवान्तरं यतो यदेवैकस्यावस्थानं तदेवान्यस्यान्तरं तच्चासीयकालमानमिति । 'सदे'त्यादि तु सूत्रसिद्धम् ॥ एयस्स णं भंते ! दव्वद्वाणाउयस्स खेत्तट्ठाणाउयस्स ओगाहणहाणाउयस्स भावद्वाणाउपरस कयरे २ For Parts Only ~ 483~ ५ शतके उद्देशः ७ परमाणुत्वाद्यन्तरं सू २१७ ॥२३५॥ nirary or Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग-८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२१८] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: 4 प्रत सूत्रांक [२१८] + दीप अनुक्रम जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा! सव्वत्थोवे खेत्तहाणाउए ओगाहणट्ठाणाउए असंखेनगुणे दब्वट्ठाणाउए & असंखेजगुणे भावहाणाउए असंखेजगुणे-खेत्तोगाहणब्वे भावहाणाउयं च अप्पबहुं । खेत्ते सव्वत्थोवे | सेसा ठाणा असंखेजा ॥१॥ (सूत्रम् २१८) B 'एयस्स णं भंते ! दवट्ठाणाउयस्स'त्ति द्रव्यं-पुद्गलद्रव्यं तस्य स्थान-भेदः परमाणुद्विप्रदेशिकादि तस्यायु:स्थितिः, अथवा द्रव्यस्थाणुत्वादिभावेन यत्स्थानं तद्रूपमायुः द्रव्यस्थानायुस्तस्य 'खित्तहाणाउयस्स'त्ति क्षेत्रस्य-आकाशस्य स्थान-भेदः पुद्गलावगाहकृतस्तस्यायुः-स्थितिः, अथवा क्षेत्रे-एकप्रदेशादौ स्थान-यत्पुद्गलानामवस्थानं तद्रूपमायुः | क्षेत्रस्थानायुः, एवमवगाहनास्थानायुः भावस्थानायुश्च, नवरमवगाहना-नियतपरिमाणक्षेत्रावगाहित्वं पुद्गलानां भावस्तु| कालत्वादिः, ननु क्षेत्रस्यावगाहनायाश्च को भेदः, उच्यते, क्षेत्रमवगाढमेव, अवगाहना तु विवक्षितक्षेत्रादन्यत्रापि पुद्गलानां तत्परिमाणावगाहित्वमिति । कयरे'इत्यादि कण्ठयं, एषां च परस्परेणाल्पबहुत्वव्याख्या गाथानुसारेण कार्या, ताश्चेमाः-18 खेतोगाहणव्वेभावहाणाउअप्पबहुयत्ते । योवा असंखगुणिया तिन्नि य सेसा कहं णेया ? ॥१॥ खेतामुत्तत्ताओ तेण समं बंधदीपञ्चयाभावा । तो पोग्गलाण थोवो खेत्तावट्ठाणकालो उ ॥ २ ॥ अण्णक्खेत्तगयस्सवि तं चिय माणं चिरंपि संभवइ । ओगाहणनासे || पुण खेत्तण्णवं फुड होइ ।। ३ ॥ ओगाहणावचद्धा खेतद्धा अक्कियायबद्धा य । न उ ओगाहणकालो खेचद्धामेत्तसंबद्धो ॥ ४ ॥ जम्हा तस्थऽणस्थ य सचिय भोगाहणा भवे खेत्ते । तम्हा खेतद्धाओऽवगाहणद्धा असंखगुणा ॥ ५॥ संकोयविकोएण व उवरमियाएऽवगाहणा-14 एवि । तत्तियमेत्ताणं चिय चिरपि दव्याणऽवत्थाणं ॥ ६ ॥ संघायभेयओ वा दब्बोवरमे पुणाइ संखित्ते । नियमा तद्दव्योगाहणाएँ नासो न | [२५८ + -२५९] र द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव अवस्थानस्य अल्प-बह्त्वं ~484~ Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१८] दीप अनुक्रम व्याख्या- संदेहो ॥ ७॥ ओगाहद्धा दब्वे संकोयविकोयओ य अवबद्धा । न उ दवं संकोयणविकोयमितेण संबद्धं ॥ ८ ॥ जम्हा तत्थऽण्णव ५ शतके प्रज्ञप्तिःव दव्वं ओगाहणाएँ तं चेव । दन्बद्धा संखगुणा तम्हा ओगाहण द्वाओ ॥९॥ संघायभेयओ या दव्योवरमेऽवि पज्जवा संति । तं कसिण-* उद्देश ७ | गुणविरामे पुणाइ दम्ब न भोगाहो ॥१०॥ संघायभेययंधाणुवत्तिणी निचमेव दब्बद्धा । न उ गुणकालो संघायभेयमेतऽद्धसंबद्धो ॥११॥ द्रव्याद्यवया वृत्तिः जन्हा तस्थऽण्णत्व य द खेतावगाहणासुं च । ते चेव पळवा संति तो तदद्धा असंखगुणा ॥ १२ ॥ आह अणेगंतोऽयं दव्योवरमे गुणा-द स्थानायुरणऽवत्थाणं । गुणविप्परिणामंमि य दवविसेसो यऽनेगंतो॥१३॥ विप्परिणयंमि दवे कमि गुणपरिणई भवे जुगवं । कम्मिवि पुण तदवत्थे होइन ल्पबहुत्वं ॥२३६॥ सू२१८ पुण गुणा परीणामी ॥ १४ ॥ भवणइ सर्च कि पुण गुणबाहुल्ला न सब्वगुणनासो । दव्वस्स तदण्णत्तेऽवि बहुतराणं गुणाण ठिई ॥ १५॥"| | अयमर्थ:-क्षेत्रस्यामूर्तत्वेन क्षेत्रेण सह पुद्गलानां विशिष्टवन्धप्रत्ययस्य-स्नेहादेरभावान्कत्र ते चिरं तिष्ठन्तीति शेषः, | * यस्मादेवं तत इत्यादि व्यक्त । अथावगाहनायुर्वहत्वं भाव्यते-इह पूर्वार्द्धन क्षेत्राद्धाया अधिका अवगाहनाऽत्युक्तम् । 2 उत्तरार्द्धन ववगाहनाद्धातो नाधिका क्षेत्राद्धेति । कथमेतदिदमिति !, उच्यते, अवगाहनायामगमनक्रियायां च नियता क्षेत्राद्धा-विवक्षितावगाहनासद्भावे एवाक्रियासद्भाव एव च तस्या भावादुक्तव्यतिरेके चाभावात् , अवगाहनाद्धा तु न क्षेत्रमात्रे नियता, क्षेत्राबाया अभावेऽपि तस्या भावादिति अथ निगमनम् ('जम्हे'त्यादि)। अथ द्रव्यायुर्बहुत्वं भाव्यते-सङ्कोचेन विकोचेन चोपरतायामप्यवगाहनायां यावन्ति द्रव्याणि पूर्वमासंस्तावतामेव घिरमपि तेषामवस्थानं संभवति, अनेनाव-15 ।।२३६॥ | गाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्तत इत्युक्तं, अथ द्रव्यनिवृत्तिविशेषेऽवगाहना निवर्तत एवेत्युच्यते--सङ्घातेन पुद्गलानां भेदेन वा तेषामेव यः सजिप्सः-स्तोकावगाहनः स्कन्धो न तु प्राक्तनावगाहनः तत्र यो द्रव्योपरमो-द्रव्यान्यथात्वं तत्र [२५८ -२५९] wrajwaitaram.org द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव अवस्थानस्य अल्प-बह्त्वं ~485 Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: % -% प्रत सूत्रांक [२१८] दीप सति, न च सङ्घातेन न सजिप्सः स्कन्धो भवति, तत्र सति सूक्ष्मतरत्वेनापि तत्परिणतेः श्रवणात् , नियमात्तेषां-द्रव्याणा-| मवगाहनाया नाशो भवति, कस्मादेवमित्यत उच्यते-अवगाहनाद्धा द्रव्येऽवबद्धा-नियतत्वेन संबता, कथं , सङ्कोचा-| द्विकोचाच्च, सङ्कोचविकोचादि परिहत्येत्यर्थः, अवगाहना हि द्रव्ये सङ्कोचविकोचयोरभावे सति भवति तत्सद्भावे च न | भवतीत्येवं द्रव्येऽवगाहनाऽनियतत्वेन संबद्धेत्युच्यते, दुमत्वे खदिरत्वमिवेति । उक्तविपर्ययमाह- पुनद्रव्यं सड्डोच-||| विकोचमात्रे सत्यप्यवगाहनायां नियतत्वेन संबद्धं, सङ्कोचविकोचाभ्यामवगाहनानिवृत्तावपि द्रव्यं न निवर्त्तत इत्यवगाहनायां तन्नियतत्वेनासंबद्धमित्युच्यते, खदिरत्वे दुमत्ववदिति । अथ निगमनम् । अथ भावायुर्षहुत्वं भाव्यते-सङ्कातादिना द्रव्योपरमेऽपि पर्यवाः सन्ति, यथा मृष्टपटे शुक्लादिगुणाः, सकलगुणोपरमे तु न तद्रव्यं न चावगाहनाऽनुवर्तते, अनेन पर्यवाणां चिरं स्थानं द्रव्यस्य त्वचिरमित्युक्तम्, अथ कस्मादेवमिति , उच्यते-सङ्घातभेदलक्षणाभ्यां धर्माभ्यां | यो बन्धः-सम्बन्धस्तदनुवर्तिनी-तदनुसारिणी, सङ्घाताद्यभाव एव द्रव्याद्धायाः सद्भावात्तद्भावे चाभावात्, न पुनर्गु णकालः सङ्घातभेदमात्रकालसंघद्धा, सङ्घातादिभावेऽपि गुणानामनुवर्तनादिति । अथ निगमनम्-'द्रव्यविशेषः' द्रव्यIM परिणामः। ॥ अनन्तरमायुरुक्तम् , अथायुष्मत आरम्भादिना चतुर्विंशतिदण्डकेन प्ररूपयन्नाह नेराया भते । किं सारंभा सपरिग्गहा उदाहु अणारंभा अपरिग्गहा ?, गोयमा ! नेरइया सारंभा सपरिग्गहा नो अणारंभा णो अपरिग्गहा । से केणटेणं जाव अपरिग्गहा, गोयमा 1 नेरइया णं पुढवि-18 कार्य समारंभंति जाव तसकायं समारंभंति सरीरा परिम्गहिया भवंति कम्मा परिग्गहिया भवंति सचित्ता अनुक्रम [२५८-२५९] द्रव्य-क्षेत्र-काळ-भाव अवस्थानस्य अल्प-बह्त्वं ~486~ Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९] दीप अनुक्रम [२६०] व्याख्या- चित्तमीसयाई दवाई परि० भ०, से तेणद्वेणं तं चेव । असुरकुमारा णं भंते ! किं सारंभा ४१ पुच्छा, गोयमा! स्मा! ५शतके प्रज्ञप्तिः असुरकुमारा सारंभा सपरिग्गहा नो अणारंभा अप० । से केणटेणं०१, गोयमा! असुरकुमारा णं पुढविकायं | उद्देश अभयदेवी समारंभंति जाव तसकार्य समारंभंति सरीरा परिग्गहिया भवंति कम्मा परिग्गहिया भवंति भवणा परि० भवंति नारकादीया वृत्तिः देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओ तिरिक्खजोणिया तिरिक्खजोणिणीओ परिग्गहियाओ भवंति आसणसय 18 नांसारम्भ॥२३७॥ | त्वादि Aणभंडमत्तोवगरणा परिग्गहिया भवंति सञ्चित्ताचित्तमीसयाई दवाई परिग्गहियाई भवंति से तेणटेणं तहेव एवं जाव थणियकुमारा। एगिदिया जहा नेरइया।बेइंदियाणं भंते! किंसारंभा सपरिग्गहा तं चेव जाव सरीरा सू२१९ परिग्गहिया भवंति वाहिरिया भंडमत्तोवगरणा परि० भवंति सचित्ताचित्त० जाव भवंति एवं जाव चउरिदिया। पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते ! तं चेव जाव कम्मा परि० भवन्ति टंका कूडा सेला सिहरी पम्भारा परिग्ग-18 |हिया भवंति जलथलबिलगुहालेणा परिग्गहिया भवंति उज्झरनिज्झरचिल्ललपल्ललवप्पिणा परिग्गहिया भवंति अगडतडागदहनदीओ वाविपुक्खरिणीदीहिया गुजालिया सरा सरपंतियाओ सरसरपंतियाओ विलपंतीहै याओ परिग्गहियाओ भवंति आरामुजाणा काणणा वणाई वणसंडाई वणराईओ परिग्गहियाओ भवन्ति देव-18 उलसभापवाथूभाखातियपरिखाओ परिग्गहियाओ भवंति पागारहालगचरियदारगोपुरा परिग्गहिया भवंति R३७॥ | पासादधरसरणलेणआवणा परिग्गहिता भवंति सिंघाडगतिगचउक्कचच्चरचउम्मुहमहापहा परिग्गहिया भवंति सगडरहजाणजुग्गगिल्लिथिल्लिसीयसंदमाणियाओपरिग्गहियाओ भवंति लोहीलोहकटाहकडच्छुया परिग्गहिया ~487~ Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९] दीप अनुक्रम [२६०] ॥ भवंति भवणा परिग्गहिया भवंति देवा देवीओ मणुस्सा मणुस्सीओतिरिक्खजोणिओ तिरिक्खजोणिणीओ आसणसयणखंभभंडसचित्ताचित्तमीसयाई दब्बाई परिग्गहियाई भवंति से तेणटेणं०,(जहा) तिरिक्खजो राणिया तहामणुस्साणवि भाणियचा, वाणमंतरजोतिसवेमाणिया जहा भवणवासी तहा नेयब्वा ।। (सूत्रं २१९)। _ 'नेरहए'त्यादि, भंडमत्तोवगरण'त्ति इह भाण्डानि-मृन्मयभाजनानि मात्राणि-कांस्यभाजनानि उपकरणानि लौहीकटुच्छुकादीनि, एकेन्द्रियाणां परिग्रहोऽप्रत्याख्यानादवसेयः, 'बाहिरया भंडमत्सोवगरण'त्ति उपकारसाधावीइन्द्रियाणां शरीररक्षार्थं तत्कृतगृहकादीन्यवसेयानि 'टंक'त्ति छिन्नटङ्काः 'कुड'त्ति कूदानि शिखराणि वा हस्त्यादिबन्ध-10 नस्थानानि वा 'सेल'त्ति मुण्डपर्वतः 'सिहर'त्ति शिखरिणः-शिखरवन्तो गिरयः 'पन्भार'त्ति ईपदवनता गिरिदेशाः | 'लेण'त्ति उत्कीर्णपर्वतगृहाः 'उज्झर'त्ति अवझरः-पर्वततटादुदकस्याधःपतनं 'निज्झर'त्ति निझर-उदकस्य श्रवणं| 'चिल्लल'त्ति चिक्खल्लमिश्रोदको जलस्थानविशेषः 'पल्लल'त्ति प्रहादनशीलः स एव 'वप्पिण'त्ति केदारवान् तटवान् वा देशः केदार एवेत्यन्ये,'अगड'त्ति कूपः 'चावित्तिवापी चतुरस्रो जलाशयविशेषः 'पुक्खरिणि'त्ति पुष्करिणी वृत्तः स एव पुष्करवान् वा 'दीहिय'त्ति सारिण्यः 'गुंजालिय'त्ति वक्रसारिण्यः 'सर'त्ति सरांसि-स्वयंसंभूतजलाशयविशेषाः 'सरपंतियाओ'त्ति | | सरम्पतयः 'सरसरपंतियाओ'त्ति यासु सरम्पतिषु एकस्मात्सरसोऽन्यस्मिन्नन्यस्मादन्यत्र एवं सञ्चारकपाटकेनोदकं संचरति । ताः सरम्सर पतयः बिलपतयः-प्रतीताः 'आराम'त्ति आरमन्ति येषु माधवीलतादिषु दम्पत्यादीनि ते आरामाः 'उज्जाण'त्ति 'उद्यानानि' पुष्पादिमद्वक्षसमूलानि उत्सवादी बहुजनभोग्यानि 'काणण'त्ति 'काननानि' सामान्यवृक्षसंयुक्तानि । ॐACESS455 ARRECARKARE S itaram.org ~488~ Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [७], मूलं [२१९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२१९] दीप अनुक्रम [२६०] नगरासन्नानि 'वण'त्ति वनानि नगरविप्रकृष्टानि 'वणसंडाईति वनषण्डा:-एकजातीयवृक्षसमूहात्मकाः 'वणराइति ५ शतके प्रज्ञप्तिः वनराजयो-वृक्षपतयः 'खाइय'त्ति 'खातिकाः' उपरिविस्तीर्णाधःसङ्कटखातरूपाः 'परिह'त्ति परिखाः अध उपरिच उद्देशः ७ अभयदेवी-द समखातरूपाः 'अहालगत्ति प्राकारोपर्याश्रयविशेषाः 'चरिय'त्ति 'चरिका गृहप्राकारान्तरो हस्त्यादिप्रचारमार्गः 'दार'त्ति या वृत्तिः१ द्वार खडकिका 'गोउर'त्ति 'गोपुरं' नगरप्रतोली 'पासायत्ति प्रासादादेवानां राज्ञां च भवनानि, अथवा उत्सेधबहुला:- नदर्शना॥२३८॥ प्रासादाः 'घर'त्ति गृहाणि सामान्यजनानां सामान्यानि वा 'सरण'त्ति 'शरणानि' तृणमयावसरिकादीनि 'आवण'त्ति द्धानादि आपणा' हट्टाः शृङ्गाटकं स्थापना त्रिकं स्थापना-चतुष्कं स्थापना+चत्वरं स्थापना * चतुर्मुखं-चतुर्मुखदेवकुलकादि सू२२० 'महापह'त्ति राजमार्गः 'सगडे'त्यादि प्राग्वत् 'लोहि'त्ति 'लौहि' मण्डकादिपचनिका 'लोहकडाहित्ति कवेली 'कडुच्छय'त्ति परिवेषणाद्यों भाजनविशेषः 'भवण'त्ति भवनपतिनिवासः ॥ एते च नारकादयश्छद्मस्थत्वेन हेतुव्यवहार-3 कत्वाद्धेतव उच्यन्ते इति तद्देदान्निरूपयन्नाह| पंच हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-हे जाणइ हेर्ड पासइ हेर्ड बुझाइ हे अभिसमागच्छति हे छउमत्थमरणं है || मरद ॥ पंचेव हेऊ पं०, तंजहा-हेउणा जाणइ जाव हेउणा छउमस्थमरणं मरद ॥ पंच हेऊ पण्णत्ता, तंजहा-हे न जाणइ जाव हेर्ड अन्नाणमरणं मरद ॥ पंच हेऊ पन्नता, तंजहा-हे उणा ण जाणति जावटू काउणा मरणं मरति ॥ पंच अहेक पण्णत्ता, तंजहा-अहे जाणइ जाव अहे केवलिमरणं मरइ ॥ पंच | ॥२३॥ अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-अहेखणा जाणइ जाव अहेउणा केवलिमरणं मरह ॥ पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-51 SARERainintenmarana ~489~ Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२०] दीप 94545344154-550-362 अहे न जाणइ जाव अहे छउमत्यमरणं मरइ ॥ पंच अहेऊ पण्णत्ता, तंजहा-अहेउणा न जाणइ जाव | अहे उणा छउमस्थमरणं मरइ । सेवं भंते २त्ति (सूत्रं २२०)॥ पश्चमशते सप्तमोदेशकः ॥५-७॥ ___ 'पंच हेज'इत्यादि, इह हेतुपु वर्तमानः पुरुषो हेतुरेव तदुपयोगानन्यत्वात् , पञ्चविधत्वं चास्य क्रियाभेदादित्यत आह-15 | 'हेउं जाणइत्ति 'हेतु' साध्याविनाभूतं साध्यनिश्चयार्थं 'जानाति' विशेषतः सम्यगवगच्छति सम्यग्दृष्टित्वात् , अयं| पञ्चविधोऽपि सम्यग्दृष्टिमन्तव्यो मिथ्यादृष्टेः सूत्रद्वयात्परतो वक्ष्यमाणत्वादित्येकः, एवं हेतुं पश्यति सामान्यत एवावबोधादिति द्वितीयः, एवं 'बुध्यते' सम्यक् श्रद्धत्त इति बोधेः सम्यक्श्रद्धानपर्यायत्वादिति तृतीयः, तथा हेतुम् 'अभिसमागच्छति' साध्यसिद्धी व्यापारणतः सम्यक् प्रामोतीति चतुर्थः, तथा 'हेउं छउमत्थे'त्यादि, हेतु:--अध्यवसानादि मरणकारणं तद्योगान्मरणमपि हेतुरतस्तं हेतुमदित्यर्थः छद्मस्थमरणं, न केवलिमरणं, तस्याहेतुकत्वात् , नाप्यज्ञानमरण8 मेतस्य सम्यगज्ञानित्वात् अज्ञानमरणस्य च वक्ष्यमाणत्वात् वियते-करोतीति पञ्चमः ॥ प्रकारान्तरेण हेतूनेवाह-पंचे| त्यादि, 'हेतुना' अनुमानोत्थापकेन जानाति-अनुमेयं सम्यगवगच्छति सम्यग्दृष्टित्वादेका, एवं पश्यतीति द्वितीयः, एवं | | 'बुध्यते' श्रद्धत्त इति तृतीयः, एवम् 'अभिसमागच्छति' प्रामोतीति चतुर्थः, तथाऽकेवलित्वात् 'हेतुना' अध्यवसाना|दिना छद्मस्थमरणं म्रियते इति पञ्चमः ॥ अथ मिथ्यादृष्टिमाश्रित्य हेतूनाह-पंचे'त्यादि, पश्च क्रियाभेदात् हेतवो हेतु-15 व्यवहारित्वात् , तत्र 'हेतुं' लिङ्गं न जानाति, नञः कुत्सार्थत्वादसम्यगवैति मिथ्यादृष्टित्वात् १, एवं न पश्यति २, एवं न बुध्यते ३, एवं नाभिसमागच्छति ४, तथा 'हेतुम्' अध्यवसानादिहेतुयुक्तमज्ञानमरणं 'नियते' करोति मिथ्यादृष्टि अनुक्रम [२६१] ~490~ Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२२०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२० दीप व्याख्या- खेनासम्यगज्ञानत्वादिति ५॥ हेतूनेव प्रकारान्तरेणाह-पंचेत्यादि, 'हेतुना' लिङ्गेन न जानाति-असम्यगवगच्छति, के प्रज्ञप्तिः एवमन्येऽपि चत्वारः ॥ अथोक्तविपक्षभूतानहेतूनाह-पंचे'त्यादि, प्रत्यक्षज्ञानित्वादिनाऽहेतुव्यवहारित्वादहेतवः-केव- उद्देश अभयदेवी-* लिनः, ते च पञ्च क्रियाभेदात् , तद्यथा-'अहेतुं जाणइति अहेतु-न हेतुभावेन सर्वज्ञत्वेनानुमानानपेक्षत्वाडूमादिक हेत्वहेतुज्ञाया वृत्तिः जानाति स्वस्थाननुमानोत्थापकतयेत्यर्थः अतोऽसावहेतुरेव, एवं पश्यतीत्यादि, तथा 'अहेतुं केवलिमरणं मरइ' त्तिनदर्शनश्र॥२३॥|| 'अहेतु' निर्हेतुकं अनुपक्रमत्वात् केवलिमरणं 'नियते' करोतीत्यहेतुरसौ पश्चम इति ॥ प्रकारान्तरेणाहेतूनेवाह-पंचे-15 दानादि | त्यादि तथैव नवरम् 'अहेतुना' हेत्वभावेन केवलित्वाजानाति योऽसावहेतुरेव, एवं पश्यतीत्यादयोऽपि ३, 'अहेउणा सू २२० | केवलिमरणं मरह'त्ति 'अहेतुना' उपक्रमाभावेन केवलिमरणं म्रियते, केवलिनो निर्हेतुकस्यैव तस्य भावादिति । अहेतु| नेव प्रकारान्तरेणाह-पंच अहेऊ इत्यादि, 'अहेतवः' अहेतुव्यवहारिणः, ते च पञ्च ज्ञानादिभेदात् , तद्यथा-'अहेउन जाणइत्ति, 'अहेतुं'न हेतुभावन स्वस्थानुमानानुस्थापकतयेत्यर्थः 'न जानाति' न सर्वथाऽवगच्छति, कथञ्चिदेवावगच्छतीत्यर्थः, नबो देशप्रतिषेधार्थत्वात् ज्ञातुश्चावध्यादिज्ञानवत्त्वात् कथञ्चिज्ज्ञानमुक्तं, सर्वधाज्ञानं तु केवलिन एव स्यादिति, | एवमन्यान्यपि २, तथा 'अहे छउमस्थमरणं मरइ'त्ति अहेतुरध्यवसानादेरुपक्रमकारणस्याभावात् छास्थमरणम-18 केवलित्वात् न त्वज्ञानमरणमवध्यादिज्ञानवत्त्वेन ज्ञानित्वात्तस्येति ॥ अहेतूनेवान्यथाऽऽह-पंचे'त्यादि, तथैव नवरम् | ||२३९॥ |'अहेतुना' हेत्वभावेन न जानाति कथञ्चिदेवाध्यवस्थतीति ॥ गमनिकामात्रमेवेदमष्टानामध्येषां सूत्राणां, भावार्थ तु| दबहुश्रुता विदन्तीति ॥ पञ्चमशते सप्तमोद्देशकः ॥५-७॥ अनुक्रम [२६१] weremiarary.org अत्र पंचम-शतके सप्तम-उद्देशक: समाप्त: ~491~ Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२१] दीप अनुक्रम [२६२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [ २२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः सप्तमे उद्देश के पुद्गलाः स्थितितो निरूपिताः, अष्टमे तु त एव प्रदेशतो निरूप्यन्ते, इत्येवं सम्बन्धस्यास्येदं प्रस्तावनासूत्रम् तेण कालेनं २ जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स ३ जाव अंतेवासी नारयपुत्ते नामं अण| गारे पगतिभदए जाव विहरति, तेणं कालेणं २ समणस्स ३ जाव अंतेवासी नियंठिपुत्ते णामं अण० पगतिभद्दए जाव विहरति, तए णं से नियंठीपुत्ते अण० जेणामेव नारयपुत्ते अणगारे तेणेव उवागच्छइ २ नारयपुत्तं अण० एवं वयासी-सव्वा पोग्गला ते अजो ! किं सअड्डा समज्झा सपएसा उदाहू अणड्डा अमज्झा अपएसा ?, अजोति नारयपुत्ते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं वयासी- सव्यपोग्गला मे अज्जो ! सअड्डा समज्झा सपदेसा नो अण्डा अमज्झा अप्पएसा, तए णं से नियंद्विपुते अणगारे नारयपुत्तं अ० एवं वदासि-जति णं ते अजो ! सव्यपोग्गला सअड्डा समज्झा सपदेसा नो अण्डा अमज्झा अपदेस किं दव्वादेसेणं अजो ! सव्यपोग्गला सअड्डा समज्झा सपदेसा नो अणट्टा अमज्झा अपदेसा ? खेसादेसेणं | अज्जो ! सव्यपोग्गला सअड्डा समज्झा सपएसा तहेव चैव, कालादेसेणं तं चैव, भावादेसेणं अज्जो ! तं चैव, तएणं से नारयपुते अणगारे नियंठिपुत्तं अणगारं एवं बदासी दव्यादेसेणवि मे अजो ! सब्बपोग्गला सअड्डा समज्झा सपदेसा नो अणहा अमज्झा अपदेसा खेत्ताए सेणवि सबै पोग्गला सअड्डा तह चैव कालादेसेणवि, तं चैव भावादेसेण | वि। तए णं से नियंठीपुत्ते अणन्नारयपुत्तं अणगारं एवं क्यासी-जति णं हे अज्जो ! दव्वादेसेणं सञ्चपोग्गला सअड्डा | समज्झा सपएसा नो अण्डा अमज्झा अपएसा, एवं ते परमाणुयोग्गलेवि सअहे समज्झे सपएसे णो अणहे अमज्झे | अथ पंचम शतके अष्टम उद्देशक: आरभ्यते नारदपुत्र अनगारस्य पुद्गलसंबंधी प्रश्न: For Parts Only ~492~ Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२१] दीप अनुक्रम [२६२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [ २२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ २४०॥ अपएसे, जति णं अजो ! खेत्तादेसेणवि सव्यपोग्गला सअ० ३ जाब एवं ते एगवएसोगादेवि पोग्गले सअहे समज्झे सपएसे, जति णं अज्जो ! कालादेसेणं सब्बयोग्गला सअडा० समज्झा सपएसा एवं ते एगसमपठितीएवि पोग्गले ३ तं चेच, जति णं अजो ! भावादेसेणं सव्यपोग्गला सअड्डा समज्झा सपएसा ३, एवं ते एगगुणकालएव पोग्गले सभ० ३ तं चैव, अह ते एवं न भवति तो जं वयसि दव्वादेसेणवि सव्वपोग्गला सभ० ३ नो अणहा अमज्झा अपदेसा एवं खेसादेसेणवि काला० भावादेसेणवि तनं मिच्छा, तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठीपुत्तं अ० एवं वयासी-नो खलु वयं देवा० एयमहं जाणामो पासामो, जति णं देवा० नो गिलायंति परिकहित्तए तं इच्छामि णं देवा० अंतिए एयमहं सोचा निसम्म जाणित्तए, तए णं से नियंठीपुत्ते अणगारे नारयपुत्तं अणगारं एवं वयासी दव्वादेसेणवि मे अज्जो सब्बे पोग्गला सपदेसावि अपदेसावि अनंता खेत्तादेसेणवि एवं चेव कालादेसेणवि भावादेसेणवि एवं चेव ॥ जे दव्वओ अप्पदेसे से खेसओ नियमा अन्पदेसे कालओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे भावओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे । जे स्वेतओ अप्पदेसे से दव्वओ सिय सपदेसे सिय अपदेसे कालओ भयणाए भावओ भय| जाए। जहा खेत्तओ एवं कालओ भावओ ॥ जे दब्बओ सपदेसे से खेत्तओ सिय सपदेसे सिप अपदेसे, | एवं कालओ भावओषि, जे खेत्तओ सपदेसे से दव्यतो नियमा सपदेसे कालओ भगणाए भावओ भयणाए जहा दव्वओ तहा कालओ भावओवि ॥ एएसि णं भंते! पोग्गलाणं दब्वादेसेणं खेत्ता देसेणं काला Educaton Internationa नारदपुत्र अनगारस्य पुद्गलसंबंधी प्रश्न: For Pale Only ~ 493~ ५ शतके उद्देशः ८ पुद्गलानां सार्धादि सू २२० ॥२४० ॥ Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२१] दीप अनुक्रम [२६२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [ २२१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः देसेणं भावादेसेणं सपदेसाण य अपदेसाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, नारयपुक्ता ! सवत्थोवा पोग्गला भावादेसेणं अपदेसा कालादेसेणं अपदेसा असंखेजगुणा दवादेसेणं अपदेसा असंखेज्जगुणा खेत्तादेसेणं अपदेसा असंखेज्जगुणा खेत्तादेसेणं चेव सपदेसा असंखेज्जगुणा दवादेसेणं सपदेसा विसे| साहिया कालादेसेणं सपदेसा बिसेसाहिया भावादेसेणं सपदेसा विसेसाहिया । तए णं से नारयपुत्ते अणगारे नियंठीपुतं अणगारं बंदइ नमसह नियंठिपुत्तं अणगारं वंदित्ता णमंसित्ता एयम सम्मं विणणं | भुखो २ खामेति त्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ ॥ ( सू २२१ ) ॥ 'तेण 'मित्यादि, 'दवादेसेणं'ति द्रव्यप्रकारेण द्रव्यत इत्यर्थः परमाणुत्वाद्याश्रित्येतियावत् 'खेत्तादेसेणं' ति एकप्रदेशावगाढत्वादित्यर्थः 'कालादेसेणं' ति एकादिसमयस्थितिकत्वेन 'भावादेसेणं' ति एकगुणकालकत्वादिना 'सपोग्गला सपएसावी त्यादि, इह च यत्सविपर्ययसार्द्धादिपुद्गलविचारे प्रकान्ते सप्रदेशाप्रदेशा एव ते प्ररूपिताः तत्तेषां प्ररू पणे सार्द्धत्वादि प्ररूपितमेव भवतीतिकृत्वेत्यवसेयं, तथाहि-- सप्रदेशाः सार्द्धाः समध्या वा, इतरे त्वनर्द्धा अमध्याश्चेति, 'अनंत'ति तत्परिमाणज्ञापनपरं तत्स्वरूपाभिधानम् ॥ अथ द्रव्यतोऽप्रदेशस्य क्षेत्राद्याश्चित्याप्रदेशादित्वं निरूपयन्नाह - 'जे दवओ अप्पपसे' इत्यादि, यो द्रव्यतोऽप्रदेशः - परमाणुः स च क्षेत्रतो नियमादप्रदेशो, यस्मादसौ क्षेत्रस्यैकत्रैव प्रदेशेऽवगाहते प्रदेशद्वयाद्यवगाहे तु तस्याप्रदेशत्वमेव न स्यात्, कालतस्तु यद्यसावेकसमय स्थितिकस्तदाऽप्रदेशोऽनेक समयस्थितिकस्तु सप्रदेश इति भावतः पुनर्ययेकगुणकालकादिस्तदाऽप्रदेशोऽनेकगुणकालकादिस्तु नारदपुत्र अनगारस्य पुद्गलसंबंधी प्रश्न: For Palata Use Only ~ 494~ Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक SXS [२२१] दीप व्याख्या- | सप्रदेश इति ॥ निरूपितो द्रव्यतोऽप्रदेशोऽथ क्षेत्रतोऽप्रदेश निरूपयन्नाह जे खेत्तओ अप्पएसे'इत्यादि, यः क्षेत्रतो-४५ शतक प्रज्ञप्तिः |ऽप्रदेशः स द्रव्यतः स्यात्सप्रदेशा, व्यणुकादेरप्येकप्रदेशावगाहित्वात् स्यादप्रदेशः, परमाणोरप्येकप्रदेशावगाहित्वात्, उद्देशः८ अभयदेवी 'कालओ भयणाए'त्ति क्षेत्रतोऽप्रदेशो यः स कालतो भजनयाऽप्रदेशादिर्वाच्यः, तथाहि-एकप्रदेशावगाढः एकसमयस्थि- द्रव्य आदि या वृत्तिः प्रदेशा तिकत्वादप्रदेशोऽपि स्यात् अनेकसमयस्थितिकत्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्यादिति 'भावओ भयणाए'त्ति क्षेत्रतोऽप्रदेशो योऽ-40 शानामल्प॥२४॥ सावेकगुणकालकत्वादप्रदेशोऽपि स्यात् अनेकगुणकालकादित्वाच्च सप्रदेशोऽपि स्यादिति ॥ अथ कालाप्रदेशं भावाप्रदेश से बहुत्वं च निरूपयन्नाह-'जहा खेत्तओ एवं कालओ भावओ'त्ति यथा क्षेत्रतोऽप्रदेश उक्त एवं कालतो भावतश्चासौ सू२२१ |वाच्या, तथाहि-'जे कालओ अप्पएसे से दवओ सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे'। एवं क्षेत्रतो भावतच, तथा-'जे | भावओ अप्पएसे से दवओ सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे' एवं क्षेत्रतः कालतश्चेति ॥ उक्तोऽप्रदेशोऽथ सप्रदेशमाहIT'जे दपओ सप्पएसे'इत्यादि, अयमर्थ-यो द्रव्यतो व्यणुकादित्वेन सप्रदेशः स क्षेत्रतः स्यात्सप्रदेशो यादिप्रदेशावगा-12 [हित्वात् स्यादप्रदेश एकप्रदेशावगाहित्वात् , एवं कालतो भावतश्च, तथा यः क्षेत्रतः सप्रदेशो व्यादिप्रदेशावगाहित्यात् स द्रव्यतः सप्रदेश एव, द्रव्यतोऽप्रदेशस्य व्यादिप्रदेशावगाहित्वाभावात् कालतो भावतशासौ द्विधाऽपि स्यादिति, तथा यः कालतः सप्रदेशः स द्रव्यतः क्षेत्रतो भावतश्च द्विधाऽपि स्यात्, तथा यो भावतः सप्रदेशः स द्रव्यक्षेत्रकालै- ||२४१॥ विधाऽपि स्यादिति सप्रदेशसूत्राणां भावार्थ इति । अथैषामेव द्रव्यादितः सप्रदेशापदेशानामस्पबाखविभागमाहX|| 'एएसि 'मित्यादि सूत्रसिद्धं, नवरमस्यैव सूत्रोकाल्पबहुत्वस्य भावनार्थ गाथाप्रपश्यो वृद्धोकोऽभिधीयते अनुक्रम [२२] नारदपुत्र अनगारस्य पुद्गलसंबंधी प्रश्न:, द्रव्यादि प्रदेशानाम् अल्प-बह्त्वं ~495 Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] 40605454-% दीप वोच्छ अप्पाबहुयं दवेखेतद्धभावको वावि । अपएससप्पएसाण पोमगलाण समासेणं ॥ १॥ दवेणं परमाणू खेतेणेगप्पएसमोगाढा । कालेणेगसमइया अपएसा पोग्गला होति ॥२॥[वर्णादिभिरित्यर्थः] भावेणं अपएसा एगगुणा जे हवंति वण्णाई। ते चिय थोबा जंगुणबाहल पायसो सादखे ॥ ३ ॥ रत्तो कालाएसेण अप्पएसा भवे असंखगुणा । किं कारणं पुण भवे मण्णति परिणामबाहला ॥ ४॥ भावणं अपएसा जे ते | | कालेण हुंति दुविहावि । दुगुणादओवि एवं भावेणं आवणंतगुणा ॥ ५॥ कालापएसयाणं एवं एकेकओ हवति रासी । एकेकगुणट्ठाणम्मि | | एगगुणकालयाईसु ॥ ६ ॥ आहाणंतगुणतणमेवं कालापएसयाणति । जमणंतगुणहाणेसु हाँति रासीवि हु अणंता ॥ ७ ॥ भण्णइ एगगुणा-|| माणवि अणंतभार्गमि जे अणतगुणा । तेणासंखगुण चिय हवंति णाणतगुणियतं ॥ ८॥ एवं ता भावमिणं पहुच कालापएसया सिद्धा । परमा-18 Mणुपोग्गलाइसु दवेवि हु एस चेव गमो ॥ ९ ॥ एमेव होइ खेते एगपएसावगाहणाईसुं । ठाणतरसंकति पहुच कालेण माणया ॥ १०॥ में संकोयविकोयपि हु पहुच ओगाहणाएँ एमेव । तह सुहुमबायरनिरेयसेयसदाइपरिणाम ॥ ११॥ एवं जो सबो चिय परिणामो पुमालाण | भाइह समये । तं तं पडुच एसि कालेणं अप्पएसचं ॥ १२ ॥ कालेण अप्पएसा एवं भावापएसएहितो । होति असंखिजगुणा सिद्धार परिणामबाहल्ला ॥ १३ ॥ एवो दवाएसेण अप्पएसा हवंतिऽसंखगुणा । के पुण ते ! परमाणू कह ते बहुयत्ति ! ते सुणसु ॥ ११ ॥ अणु *१ संखेनपएसिय २ असंख[ गुण ] ३ ऽणतणएसिया चेव । चउरो चिय रासी पोग्गलाण लोए अणताणं ॥ १५॥ तत्यागंतेहितो सुत्तेऽण-|| तप्पएसिएहितो। जेण पएसद्वाए भणिया अणको अणंतगुणा ॥ १६ ॥ संखेजतिमे भागे संखेज्जपएसियाण बटुंति । नवरमसंखेजपए सियाण मागे असंखइमे ॥ १७ ॥ सइवि असंखेजपएसियाण तेसि असंखभागचे । बाहुलं साहिज्जइ फुडमबसेसाहिं रासीहिं ॥ १८ ॥ It|| जेणेकरासिणो थिय असंखभागेण सेसरासीणं । तेणासंखेनगुणा अणवो कालापएसेहिं ॥ १९ ।। एतो असंखगुणिया हवंति खेतापए-|| अनुक्रम [२६२] % % द्रव्यादि प्रदेशानाम् अल्प-बहत्व ~496~ Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] दीप व्याया- सिया समए । जं तो ते सवेवि य अपएसा खेत्तओ अणवो ॥ २० ॥ दुपएसियाइएसुवि पएसपरिवटिएम ठाणेसु । लब्भइ इकिको चिय|४|| ५ शतके प्रज्ञप्तिः रासी खेतापएसाणं ॥ २१ ॥ एतो खेत्ताएसेण चेव सपएसया असंखगुणः । एगपएसोगाढे मोतुं सेसावगाहणया ॥ २२ ॥ ते पुण दुपए- उद्देशः ८ अभयदेवी-15 सोगाहणाइया सबपोग्गला सेसा । ते य असंखेज्जगुणा अवगाहणठाणबाहुला ॥ २३ ॥ वषेण होति एतो सपएसा पोग्गला विरोसहिया || द्रव्यादिसया वृत्तिः | कालेण य भावेण य एमेव भवे बिसेसहिया ॥ २४ ॥ भावाईया वट्टा असंखगुणिया जमप्पएसाणं । तो सप्पएसयाणं खेसाइविसेसप- प्रदेशाप्रदे॥२४२॥ | रिबुड्डी ॥ २५ ॥ मीसाण संकर्म पइ सपएसा खेत्तओ असंखगुणा । भणिया सहाणे पुण थोवञ्चिय ते गहेयवा ॥ २६ ॥ खेत्तेण सप्प- शानामल्प|एमा थोबा दबढभावओ अहिया । सपएसप्पाबहुयं सट्टाणे अत्यओ एवं ॥ २७ ॥ पढम अपएसाणं वीयं पुण होइ सप्पएसाणं । तइयं सू२२१ पुण मीसाणं अप्पबटुं अत्यओ तिणि ॥ २८ ॥ठाणे ठाणे बहुइ भावाईणं जमप्पएसाणं । तं चिय भावाईणं परिभस्सति सप्पएसाणं | ॥ २९ ॥ अहवा खेत्ताईणं जमघ्पएसाग हायए कमसो। तं चिय खेत्ताईणं परिवह सप्पएसाणं ॥ ३०॥ अवरोपरप्पसिद्धा बुट्टी हाणी य होइ दोहपि । अपएससप्पएसाण पोग्गलाणं सलक्खणओ ॥ ३१॥ ते चेव ते चउहिबि जमुवचरिजंति पोग्गला दुविहा । तेण | ट्राउ बुट्टी हाणी तेसिं अण्णोण्णसंसिद्धा ॥ ३२ ॥ एएसिं रासीणं निदरिसणमिणं भणामि पञ्चक्खं । बुड्डी सबपोग्गल जायं तावाण लक्खाओ[8 *]॥ ३३ ॥ एकं च दो य पंच य दस य सहस्साई अप्पएसाणं । भावाईणं कमसो चउहवि जहोबइहाणं ॥ ३४ ॥ णउई पंचाणउई अड्डाउई तहेव नवनबई । एवइयाई सहस्साई सप्पएसाण विवरीयं ॥ ३५ ॥ एएसि जसंभवमस्थोवणयं करिज रासीणं । सम्भावओ य|२|| ॥२४२।। जाणिज ते अणंते जिणाभिहिए ॥ ३६॥ ॐ द्रव्ये प्रायेण व्यादिगुणा अनन्तगुणान्ताः कालकत्वादयो भवन्ति एकगुणकालकादयस्वल्पा इति भावः ॥३॥ अनुक्रम [२२] 6-4-%* द्रव्यादि प्रदेशानाम् अल्प-बहत्व ~497~ Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [८], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] दीप अयमर्थः–यो हि यस्मिन् समये यद्वर्णगन्धरसस्पर्शसङ्घातभेदसूक्ष्मत्ववादरत्वादिपरिणामान्तरमापन्नः स तस्मिन् | समये तदपेक्षया कालतोऽप्रदेश उच्यते, तत्र चैकसमयस्थितिरित्यन्ये, परिणामाश्च बहव इति प्रतिपरिणामं काला प्रदेशसंभवात्तद्बहुत्वमिति ४ ॥ एतदेव भाव्यते-भावतो येऽप्रदेशा एकगुणकालत्वादयो भवन्ति ते कालतो द्विविधा | अपि भवन्ति-सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्यर्थः, तथा भावेन द्विगुणादयोऽप्यनन्तगुणान्ताः, 'एव'मिति द्विविधा अपि भवन्ति, ट्र ततश्च एकगुणकाला द्विगुणकालादिषु गुणस्थानकेषु मध्ये एकैकस्मिन् गुणस्थानके कालाप्रदेशानामेकैको राशिर्भवति, ॥x | ततश्चानन्तरवादू गुणस्थानकराशीनामनन्ता एव कालाप्रदेशराशयो भवन्ति ॥५-६॥ अथ प्रेरका-एवमिति यदि प्रतिगुणस्थानकं कालाप्रदेशराशयोऽभिधीयन्त इति, अत्रोत्तरम्-, अयमभिप्रायः-यद्यप्यनन्तगुणकालत्यादीनामनन्ता राशयस्तथाऽप्येकगुणकालत्वादीनामनन्तभाग एव ते वर्तन्त इति न तद्वारेण कालाप्रदेशानामनन्तगुणत्वं अपि त्वसङ्ख्यातगुणत्वमेवेति ॥७-८॥एवं तावत् 'भावं' वर्णादिपरिणामम् ‘इमं उक्तरूपमेकाद्यनन्तगुणस्थानवर्तिनमित्यर्थः प्रतीत्य कालाप्रदेशिका पुद्गलाः सिद्धाः, कालाप्रदेशता वा पुद्गलानां 'सिद्धा' प्रतिष्ठिता, 'द्रव्येऽपि' द्रव्यपरिणाममप्यङ्गीकृत्य परमाण्वादिषु 'एप एव' भावपरिणामोक्त एव गमः-व्याख्या॥९॥'एक्मेव' द्रव्यपरिणामवद् भवति क्षेत्रे क्षेत्रमधिकृत्य एकप्रदेशावगाढा-18 दिषु पुद्गलभेदेषु स्थानान्तरगमनं प्रतीत्य कालेन कालाप्रदेशानां मार्गणा॥१०॥यथा क्षेत्रतः एवमवगाहनादितोऽपीत्येतदुच्यते-- अवगाहनायाः सङ्कोचं विकोचं च प्रतीत्य कालाप्रदेशाः स्युः, तथा सूक्ष्मवादरस्थिरास्थिरशब्दमनः कर्मादिपरिणामं च प्रती-| त्येति ॥११॥एसिति पुगलानामित्यर्थः॥१२-१३-१४-१५॥ अनन्तेभ्यः अनन्तप्रदेशिकस्कन्धेभ्यः प्रदेशार्थतया परमाणवो अनुक्रम [२६२] aureumstaram.org द्रव्यादि प्रदेशानाम् अल्प-बहत्व ~498~ Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] दीप व्याख्या-3||नन्तगुणाः सूत्र उक्ताः, सूत्रं चेदम् "संपत्थोवाअर्णतपएसिया खंधा दषट्टयाए ते चेय पएसद्वयाए अणतगुणा परमाणुपोग्गला || ५ शतके प्रज्ञप्ति: दवट्ठयाए पएसइयाए अणंतगुणा संखेजपएसिया खंधा दवट्ठयाए संखेजगुणा ते चेव पएसट्टयाए असंखेजगुणा असंखे-16 उद्देशः ८ अभयदेवी जपएसिया खंधा दवठ्ठयाए असंखेज्जगुणा ते चेव पएसहयाए असंखेजगुण"त्ति। सङ्ख्ययत्तमे भागे सङ्ख्यातप्रदेशिकानामस- द्रव्यादिसया वृत्तिः स्वेयतमे चासयातप्रदेशिकानामणवो वर्तन्ते, उक्तसूत्रप्रमाण्यादिति॥१६-१७॥ (रासीहि) सङ्ख्येयप्रदेशिकानन्तप्रदेशकाभिधा-SHAHIRE ॥२४॥ नाभ्याम् , इह च सङ्ख्यातादेशिकराशेः सङ्ख्यातभागवर्तित्वात्तेषां स्वरूपतो बहुत्वमवगम्यते, अन्यथा तस्याप्यसोयभागेऽनन्तभागे वाऽभविष्यनिति॥१८॥'न शेषराश्यो'रिति, अस्थायमर्थ:-अनन्तप्रदेशिकराशेरनन्तगुणास्ते, समयातप्रदेशिकराशेस्तु १ सङ्ख्यातभागे, सङ्ख्यातभागस्य च विवक्षया नात्यन्तमल्पता, कालतः सप्रदेशेष्वप्रदेशेषु च वृत्तिमतामणूनां बहुत्वात् , कालाप्र-15 | देशानां च सामयिकत्वेनात्यन्तमरूपत्वात् कालाप्रदेशेभ्योऽसमातगुणत्वं द्रव्यापदेशानामिति । एतद्भावना च वक्ष्यमा-1 णस्थापनातोऽवसेया॥१९-२०-२१-२२-२३-२४-२५॥ 'मिश्राणा'मित्यप्रदेशसप्रदेशानां मीलितानां सङ्कम प्रति-अप्रदेशेभ्यः | सप्रदेशेष्वल्पबहुत्वविचारे सङ्कमे क्षेत्रतः सप्रदेशा असोयगुणाः क्षेत्रतोऽप्रदेशेभ्यः सकाशात्, स्वस्थाने पुनः केवलसप्रदेशचिन्तायां स्तोका एव ते क्षेत्रतः सप्रदेशा इति ॥२६॥ एतदेवोच्यते-अर्धत इति व्याख्यानापेक्षया अर्थतो-व्याख्यानद्वारेण त्री १-द्रव्यार्थतयाऽनन्तप्रदेशिकाः स्कन्धाः सर्वस्तोकास्त एवं प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणाः, परमाणुपुद्गला व्यार्थतया प्रदेशार्थतयाऽनन्तगुणाः, ॥२४३॥ | सहरूयेयप्रदेशिकाः स्कन्धा द्रव्यार्थतया सहरूयेयगुणाः त एवं प्रदेशार्थतयाऽसयातगुणा असङ्ख्यातादेशिकाः स्कन्धा द्रव्यार्थतया| ऽसयातगुणा त एवं प्रदेशार्थतयाऽसङ्ख्यातगुणाः ॥ अनुक्रम [२२] द्रव्यादि प्रदेशानाम् अल्प-बहत्व ~499~ Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२१] दीप |ण्यल्पबहुत्वानि भवन्ति, सूत्रे त्वेकमेव मिश्रास्पबहुत्वमुक्तमिति॥२७॥ यथा किल कल्पनया लक्षं समस्तपुद्गलास्तेषु भावकाल द्रव्यक्षेत्रतोऽप्रदेशाः क्रमेण एकद्विपश्चदशसहस्रसङ्ख्याः, सप्रदेशास्तु नवनवत्यष्टनवतिनवतिपश्चनवतिसहस्रसङ्ख्याः, ततश्च भावाप्रदेशेभ्यः कालाप्रदेशेषु सहस्र बीते तदेव भावसपदेशेभ्यः कालसप्रदेशेषु हीयत इत्येवमन्यत्रापीति, स्थापना चेयम् भावतः । कालता व्यतः । क्षेत्रतः ॥२८-२९-३०-३१।। चतुभिरिति-भावकालादिभिरुपचयन्तां G अप्र०१००० अप्र० २००० अप्र०५००० अप्र०१०००० इति-विशेष्यन्ते ॥३२॥ कल्पनया यावन्तः सर्वपुद्गलास्तावत सम्र० सप्र० | सप्र० | सप्र. लक्ष इति ॥ ३३ ॥ अनन्तरं पुद्गला निरूपितास्ते च जीवोप९९००० ९८००० ९५००० १००००ग्राहिण इति जीवांश्चिन्तयन्नाह भन्तेत्ति भगवं गोयमे जाव एवं वयासी-जीवाणं भंते ! किं वटुंति हायंति अवडिया ?, गोयमा ! जीवा पणो वहुंति नो हायंति अचट्ठिया। नेरइया णं भंते । किं वहृति हायंति अवट्ठिया, गोयमा ! नेरइया वहृतिवि हायंतिवि अचट्ठियावि, जहा नेरइया एवं जाव चेमाणिया । सिद्धा णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा वटुंति नो हायंति अवट्टियावि ।। जीवाणं भंते ! केवतियं कालं अवडिया [वि] १, सबद्धं । नेरइया गं भंते ! केवतियं कालं वहुंति ?, गोयमा ! ज. एगं समयं उक्को आवलियाए असंखेजतिभागं, एवं हायति,8 नेरइया णं भंते ! केवतियं कालं अवट्ठिया, गोयमा ! जहन्नेणं एगं समयं उक्को चउच्चीसं मुहुत्ता, एवं सत्तमुचि पुढवीसु वहृति हायति भाणियवं, नवरं अवट्टिएम इमं नाणत्तं, तंजहा-रयणप्पभाए पुढवीए अनुक्रम [२६२] ATMasturary.com ~500~ Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] दीप व्याख्या- अडतालीसं मुहुत्ता'सकर चोद्दस रातिदियाणं वालु मासं पंक० दो मासा धूम चत्तारि मासा तमाए अट्ट ५ शतके प्रज्ञप्तिः मासा'तम तमाए वारस मासा । असुरकुमारावि वहुंति हायंति जहा नेरइया, अवडिया जह० एक समपं उको उद्देशः ८. अभयदेवी-| अट्ठचत्तालीसं मुहुत्ता, एवं दसविहावि, एगिंदिया चहुंतिवि हायंतिवि अवद्विपावि, एएहिं तिहिवि जहनेणं एकंजीवादीनां या वृत्तिः१ समयं उक्को आवलियाए असंखेजतिभागं, पेइंदिया वहुंति हायति तहेब, अवडिया ज. एक समयं उको वृद्धिहा१२४४॥ दो अंतोमुटुत्ता, एवं जाव चरिंदिया, अवसेसा सवे वहृति हायंति तहेव, अवट्ठियाणं णाणत्तं इम, तं०- पचयादिच | संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्वजोणियाणं दो अंतोमुहुत्ता, गब्भवतियाणं चउच्चीसं मुहुत्ता, संमुच्छिमम-13/ सू २२२ || गुस्साणं अट्टचत्तालीसं मुहुन्सा, गम्भवतियमणुस्साणं चउच्चीसं मुहुत्ता, वाणमंतरजोतिससोहम्मीसा णेसु अट्ठचत्तालीसं मुष्टुत्ता, सर्णकुमारे अट्ठारस रातिदियाई चत्तालीस यमुहु०, माहिदे चउवीसं रातिंदियाई बीस य मु०, बंभलोए पंचचत्तालीसंरातिदियाई, लंतए नउति रातिदियाई, महामुके सहिरातिंदियसतं, || सहस्सारे दो रातिदियसयाई, आणयपाणयाणं संखेवा मासा, आरणचुयाणं संखेज्जाई वासाई, एवं गेवेजदेवाणं विजयवेजयंतजयंतअपराजियाणं असंखिजाई बाससहस्साई, सबद्दसिद्धे य पलिओवमस्स असंखेजतिभागो, एवं भाणियचं, वहुंति हापंति जह. एक समयंउ० आवलियाए असंखेजतिभागं, अवट्ठियाणं जं भणियं। 8 ॥२४४॥ सिद्धा णं भंते ! केवतियं कालं वटुंति ?, गोयमा ! जह० एकं समयं उको अट्ठ समया, केवतियं कालं अवभट्ठिया?, गोयमा ! जह• एकसमयं उक्कोछम्मासा ॥ जीवा णं भंते ! किं सोवचया सावचया सोवचय अनुक्रम [२६३] COMEDSROGRAMMARCH * ~501~ Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२२] दीप अनुक्रम [२६३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः सावच्या निरुवचयनिरवचया ?, गोयमा ! जीवा णो सोचचया नो सावच्या णो सोवचयसावचया निरुवचयनिरवचया । एगिंदिया ततियपए, सेसा जीवा चउहिवि पदेहिवि भाणियद्या, सिद्धा णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! सिद्धा सोबच्या णो सावच्या णो सोवचयसावचया निरुवचपनिरवचया । जीवा णं भंते । केवतियं कालं निरुवचयनिरवच्या १. गोयमा ! सबद्धं, नेरतिया णं भंते ! केवतियं कालं सोवचया ?, गोयमा ! जह० एकं समयं उ० आवलियाए असंखेजइभागं । केवतियं कालं सावच्या ? एवं चेव । केवतियं कालं सोवचयसावचया?, एवं चैव केवतियं कालं निरुवचयनिरवचया ?, गोपमा ! ज० एकं समयं उक्को० वारसमु० एगिंदिया सबै सोवचयसावच्या सङ्घद्धं सेसा सङ्घे सोवचयावि सावचयावि सोवचयसावचयावि निरुवचपनिरवचयावि जहनेणं एवं समयं उकोसेणं आवलियाए असंखेज्जतिभागं अवट्टिएहिं वकंतिकालो भाणियो सिद्धा णं भंते! केवतियं कालं सोबच्या ?, गोयमा ! जह० एवं समयं उको० अड समया, केवतियं कालं निरुवचय निरचचया ?, जह० एवं उ० छम्मासा । सेवं भंते २ || (सूत्रं २२२ ) ॥ पंचमसए अहमो उद्देसो समत्तो ॥ ५-८ ॥ 'जीवा ण' मित्यादि, 'नेरहया णं भंते! केवतियं कालं अवट्टिया ?, गोयमा ! जहनेणं एकं समयं कोसेणं चडवी समुह 'ति, कथं ?, सप्तस्वपि पृथिवीषु द्वादश मुहर्त्तान् यावन्न कोऽप्युत्पद्यते उद्वर्त्तते वा, उत्कृष्टतो विरहकालस्यैव रूपत्वात् अन्येषु पुनर्द्वादशमुहर्त्तेषु यावन्त उत्पद्यन्ते तावन्त एवोद्वर्त्तन्त इत्येवं चतुर्विंशतिमुहर्त्तान् यावनारकाणामेकपरिमाणत्वादवस्थितत्वं वृद्धिहान्योरभाव इत्यर्थः एवं रलप्रभादिषु यो यत्रोत्पादोद्वर्त्तनाविरह कालचतु For Parts Only ~502~ Mantrary org Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] दीप व्याख्या- विशतिमुहर्तादिको व्युत्क्रान्तिपदेऽभिहितः स तत्र तेषु ततुल्यस्य समसयानामुत्पादोदर्सनाकालस्य मीलनाद् द्विगु- ५ शतक प्रज्ञप्तिःणितः सन्नवस्थितकालोऽष्टचत्वारिंशन्मुहूर्तादिकः सूत्रोक्तो भवति, विरहकालश्च प्रतिपदमवस्थानकालार्द्धभूतः स्वयम-18 उद्देशा८ अभयदेवीया वृत्तिः१ भ्यूह्य इति । 'एगिंदिया वहुंतिवित्ति तेषु विरहाभावेऽपि बहुतराणामुत्पादादल्पतराणां चोद्वर्तनात् , 'हापतिवित्तिलाजावादाना बहुतराणामुद्वर्तनादल्पतराणां चोत्पादात्, 'अवडियावि'त्ति तुल्यानामुत्पादादुद्वर्तनाच्चेति, 'एतेहिं तिहिवित्ति एतेषु || || वृद्धिहा॥२४५॥ | विष्वपि एकेन्द्रियवृद्वयादिचावलिकाया असोयो भागस्ततः परं यथायोग वयादेरभावात, 'दो अंतोमुहत्त'त्ति एक-||3| न्यादि सो पचयादिच & मन्तमुहर्त विरहकालो द्वितीयं तु समानानामुत्पादोद्वर्तनकाल इति । 'आणयपाणयाणं संखेज्जा मासा आरणग्याणंट्री सू२२२ संखेज्जा वास'त्ति, इह विरहकालस्य सङ्ख्यातमासवर्षरूपस्य द्विगुणितत्वेऽपि सङ्ख्यातत्वमेवेत्यतः सङ्ख्याता मासा इत्या धुक्तम्, 'एवं गेवेजदेवाणं ति इह यद्यपि अवेयकाधस्तनत्रये सङ्ख्यातानि वर्षाणां शतानि मध्यमे सहस्राणि उपरिमे | & लक्षाणि विरह उच्यते तथापि द्विगुणितेऽपि च सद्ययातवर्षत्वं न विरुध्यते, विजयादिषु त्वसवातकालो विरहः सच द्विगुणितोऽपि स एव, सर्वार्थसिद्धे पल्योपमसङ्ख्ययभागः सोऽपि द्विगुणितः सङ्ग्येयभाग एव स्यादतएव उक्तं 'विजयवे|जयंतजयंतापराजियाणं असंखेजाई वाससहस्साई'इत्यादीति ॥ जीवादीनेव भगवन्तरेणाह-'जीवाण'मित्यादि, 'सोपचयाः' सवृद्धयः प्राक्तनेष्वन्येपामुत्पादात् 'सापचयाः' प्राक्तनेभ्यः केषाश्चिदुद्वर्तनात्सहानयः 'सोपचयसाप-15 ॥२४५॥ काचयाः' उत्पादोद्वर्तनाभ्यां वृद्धिहान्योर्युगपद्भावात् निरुपचयनिरपचया उत्पादोदर्शनयोरभावेन वृद्धिहान्योरभावात् , || ४ाननूपचयो वृद्धिरपचयस्तु हानिः, युगपदयाभावरूपञ्चावस्थितत्वं, एवं च शब्दभेदण्यतिरेकेण कोऽनयोः सूत्रयोर्भदः 2,1 अनुक्रम [२६३] ~503~ Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२२२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२२] 35-45-45515 ला उच्यते, पूर्व परिणाम(माण)मात्रमभिप्रेतम् , इह तु तदनपेक्षमुत्पादोद्वर्त्तनामात्रं, ततश्चेह तृतीयभङ्गके पूर्वोक्तवृदयादिविक-15 |ल्पानां त्रयमपि स्यात् , तथाहि-बहुतरोत्पादे वृद्धि हुत्तरोद्वत्तने च हानिः, समोत्पादोद्वर्तनयोश्चावस्थितत्वमित्येवं भेद इति । 'एगिदिया तइयपए'त्ति सोपचयसापचया इत्यर्थः, युगपदुत्पादोद्वर्तनाभ्यां वृद्धिहानिभावात् , शेषभङ्गाकेषु तु ते न संभवन्ति, प्रत्येकमुत्पादोद्वर्तनयोस्तद्विरहस्य चाभावादिति । 'अव डिएहिंति निरुपचयनिरपचयेषु 'वर्कतिकालो |भाणियचो'त्ति विरहकालो वाच्यः ।। पश्चम शतेऽष्टमः ।।५-८॥ ASNASEECANSINCRENCES दीप इदं किलार्थजातं गौतमो राजगृहे प्रायः पृष्टवान् बहुशो भगवतस्तत्र विहारादिति राजगृहादिस्वरूपनिर्णयपरसूत्र-15 & प्रपञ्चं नवमोद्देशकमाह तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं बयासी-किमिदं भंते ! नगरं रायगिहंति पवुचइ, किं पुढवी नगरं| रायगिहंति पवुचइ, आऊ नगरं रायगिहंति पवुच्चइ ? जाव वणस्सइ ?, जहा एयणु देसए पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं वत्तचया तहा भाणियचं जाव सचित्ताचित्तमीसयाई दवाई नगरं रायगिहंति पवुचइ ?, गोयमा! पुढचीवि नगरं रायगिहंति पञ्चह जाव सच्चित्ताचित्तमीसियाई दवाई नगरं रायगिहति पश्चइ । से केणBाणं ?, गोयमा ! पुढवी जीवातिय अजीवातिय नगरं रायगिहंति पवुच्चई जाव सचित्ताचित्तमीसियाई| IM दवाइं जीवातिय अजीवातिय नगरं रायगिहंति पवुञ्चति से तेणडेणं तं चेव ॥ (सूत्रं २२३)। अनुक्रम [२६३] अत्र पंचम-शतके अष्टम-उद्देशकः समाप्त: अथ पंचम-शतके नवम-उद्देशक: आरभ्यते ~504~ Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [२२३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२३] हत्वं दीप च्याख्या-1| तेणमित्यादिजहा एयणसति एजनोदेशकोऽस्यैव पञ्चमशतस्य सप्तमः, तत्र पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वक्तव्यता 'टका || ५ शतके प्रज्ञप्तिः द कूडा सेला सिहरी'त्यादिका योक्ता सा इह भणितव्येति, अत्रोत्तर-पुढवीवि नगर'मित्यादि, पृथिव्यादिसमुदायो राज- उद्दश:९ अभयदेवी-8 या वृत्तिःला II गृहं, न पृथिव्यादिसमुदायादते राजगृहशब्दप्रवृत्तिः, 'पुढवी जीचाइय अजीवाइय नगरं रायगिहंति पवुच्चइ'त्ति पृथ्व्यादीजीवाजीवस्वभावं राजगृहमिति प्रतीतं, ततश्च विवक्षिता पृथिवी सचेतनाचेतनत्वेन जीवाश्चाजीवाश्चेति राजगृहमिति नाराजगृ॥२४॥ोच्यत इति । पुद्गलाधिकारादिदमाह सू २२३ | सेनूर्ण भंते ! दिया उज्जोए रातिअंधयारे,हंतागोयमा!जाच अंधयारे। से केणटेणं०?, गोयमा ! दिया सुभा नारकादी का पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे रातिं असुभा पोग्गला असुभे पोग्गलपरिणामे से तेणढणं। नेरइया र्ण भंते ! किना मुद्यो: || उज्जोए अंधयारे?,गोयमा! मेरइयाणं नो उज्जोए अंधयारे सेकेणटेणं०?,गोयमा नेरइया णं असुहा पोग्गला असुभे ४ तान्धकारों पोग्गलपरिणामे से तेण?णं असुरकुमाराणं भंते ! किं उज्जोए अंधयारे?,गोयमा! असुरकुमाराणं उज्जोए नो सूर अंधयारे । से केणटेणं ?, गोयमा! असुरकुमाराणं सुभा पोग्गला सुभे पोग्गलपरिणामे, से तेणटेणं एवं चुचइ, II एवं जाव थणिय कुमाराणं, पुढविकाइया जावतेइंदिया जहानेरइया। चरिंदियाणं भंते !किं उजोए अंधयारे , || * गोयमा ! उज्जोएवि अंधयारेवि, से केणद्वेणं०१,गोयमा! चरिंदियाणं सुभासुभा पोग्गला सुभासुभे पोग्ग ॥२४॥ लपरिणामे, से तेणटेणं एवं जाव मणुस्साणं । वाणमंतरजोतिसवेमाणिया जहा असुरकुमारा ॥ (सूत्रं || |२२४) ॥ अस्थि णं भंते ! नेरहयाणं तत्थगयाणं एवं पन्नायति-समयाति वा आवलियाति या जाच ओस-| अनुक्रम [२६४] कर ~505~ Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२२४-२२५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ॐ प्रत सूत्रांक [२२४-२२५] दीप अनुक्रम [२६५-२६६] HASHASAKARAHERE प्पिणीति वा उस्सप्पिणीति बा, णो तिण? समढे । से केणटेणं जाव समयाति वा आवलियाति वा ओस-1 प्पिणीति चा उस्सप्पिणीति चा, गोयमा ! इहं तेसिं माणं इह तेसिं पमाणं इहं तेसिं पण्णायति, तंजहा& समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा, से तेणटुणं जाव नो एवं पण्णायए, तंजहा-समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा, एवं जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं, अस्थि णं भंते ! मणुस्साणं इहगयाणं एवं पन्नायति, तंजहा-समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति चा?, हंता ! अत्थिं से केण?णं. गोयमा ! इहं, तेसिं माणं इई & चेव तेसिं एवं पण्णापति, तंजहा-समयाति वा जाव उस्सप्पिणीति वा से तेण. वाणमंतरजोतिसवेमाणियाणं जहा नेरझ्याणं ॥ (सूत्रं २२५)॥ 'से गूण'मित्यादि, 'दिवा सुभा पोग्गल'त्ति 'दिवा' दिवसे शुभाः पुद्गला भवन्ति, किमुक्तं भवति ?-शुभः पुद्गलपरिणामः स चार्ककरसम्पर्कात् , 'रतिति रात्री 'नेरइयाणं असुभा पोग्गल'त्ति तरक्षेत्रस्य पुद्गलशुभतानिमित्तभूतरवि-14 * करादिप्रकाशकवस्तुवर्जितत्वात् , 'असुरकुमाराणं सुभा पोग्गल'त्ति तदाश्रयादीनां भास्वरत्वात् । 'पुढविकाइए। इत्यादि, पृथिवीकायिकादयस्त्रीन्द्रियान्ता यथा नैरयिका उक्तास्तथा वाच्याः, एषां हि नास्त्युयोतोऽन्धकार चास्ति, पुद्गलानामशुभत्वात् , इह चेयं भावना-एषामेतत्क्षेत्रे सत्यपि रविकरादिसंपर्क एषां चक्षुरिन्द्रियाभावेन दृश्यवस्तुनो || दर्शनाभावाच्छुभपुद्गलकार्याकरणेनाशुभाः पुद्गला उच्यन्ते ततश्चैषामन्धकारमेवेति । 'चरिदियाणं सुभासुभे पोग्गBाल'सि एषां हि चाम्सनावे रविकरादिसद्भावे दृश्यार्थावबोधहेतुत्वाच्छुभाः पुद्गलाः, रविकरायभावे स्वर्थावबोधाजनक A asaram.org ~506~ Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२४ -२२५] दीप अनुक्रम [२६५ -२६६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२२४-२२५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्यामनसिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२४७॥ त्वादशुभा इति ॥ पुनला द्रव्यमिति तचिन्ताऽनन्तरं कालद्रव्यचिन्तासूत्रम् -'तत्थ गयाणं' ति नरके स्थितैः षष्ठ्यास्तृतीयार्थत्वात्, 'एवं पण्णायति'त्ति एवं हि प्रज्ञायते 'समयाइव'त्ति समया इति वा 'इहं तेसिं' ति 'इह' मानुष्यक्षेत्रे 'तेषां' समयादीनां 'मानं' परिमाणम्, आदित्यगतिसमभिव्यङ्ग्यत्वात्तस्य, आदित्यगतेश्च मनुष्यक्षेत्र एव भावात् नरकादी खभा वादिति, 'इहं तेसिं पमाणं'ति 'इह' मनुष्यक्षेत्रे तेषां समयादीनां प्रमाणं प्रकृष्टं मानं सूक्ष्ममानमित्यर्थः, तत्र मुहूर्त्तस्तावम्मानं तदपेक्षया लवः सूक्ष्मत्वात्प्रमाणं तदपेक्षया स्तोकः प्रमाणं लवस्तु मानमित्येवं नेयं यावत्समय इति, ततश्च 'इहं तेसि'मित्यादि, 'इह' मर्त्यलोके मनुजैस्तेषां समयादीनां सम्बन्धी 'एवं' वक्ष्यमाणस्वरूपं समयत्वाधेव ज्ञायते, तद्यथा-'समया इति वे'त्यादि, इह च समयक्षेत्राद्वहिर्वर्तिनां सर्वेषामपि समयायज्ञानमवसेयं तत्र समयादिकालस्याभावेन सद्व्यवहाराभावात्, तथा पञ्चेन्द्रियतिर्ययो भवन पतिव्यन्तरज्योतिष्काश्च यद्यपि केचित् मनुष्यलोके सन्ति तथापि तेऽल्पाः प्रायस्तदव्यहारिणश्च इतरे तु बहव इति तदपेक्षया ते न जानन्तीत्युच्यत इति ॥ कालनिरूपणाधिकाराद्रात्रिन्दिवलक्षणविशेषकालनिरूपणार्थमिदमाह - तेणं कालेणं २ पासावचिजा [ते] घेरा भगवंतो जेणेव समणें भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छति २ समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिया एवं बदासी से नूणं भंते ! असंखेजे लोए अनंता रार्तिदिया उप्प| जिंसु वा उप्पांति या उप्पनिस्संति वा विगच्छिंसु वा विगच्छंति वा विंगच्छिस्संति वा परित्ता रातिंदिया उप| जिंसु वा ३ विगच्छ वा ३ १, हंता अज्जो ! असंखेज्जे लोए अनंता रातिंदिया तं चैव से केणद्वेणं जाव विगच्छि For Parts Only ~ 507~ ५ शतके उद्देशः ९ नारकादीनां समयाद्यभावः सू २२५ ॥२४७॥ ayor Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२२६-२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६-२२७] संतिया, सेनूर्ण भंते अजो पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवदग्गे परित्ते परिवडे हेडा पिच्छिपणे मझे संखिसे उपि बिसाले अहे पलियंकसंठिए मजो बरबहरविग्गहिते पप्पि उद्धमुह-1 गाकारसंठिए तेसिं च णं सासयंसि लोगंसि अणादियंसि अणवदग्गंसि परिसंसि परिवुडंसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि | जो संखिसि उपि विसालसि अहे पलियंकसंठियंसि मजो वरवहरविग्गहियंसि उपि उद्धमहंगाका-18 रसंठियसि अर्णता जीवघणा उप्पज्जित्सा २ निलीयंति परित्सा जीवघणा उप्पग्जिसा २ निलीयंति से नूर्ण भूए उप्पन्ने विगए परिणए अजीवहिं लोकति पलोकद, जे लोकह से लोए , हंसा भगवं [ते]1 से तेणट्टेणं अज्जो! एवं वुचइ असंखेने तं चेव । सप्पभिर्ति च णं ते पासावञ्चेजा थेरा भगवंतो समर्ण भगवं महावीरं पञ्चभिजाणंति सवन्नू सचदरिसी [अं० ३००० ], तए णं ते थेरा भगवंतो समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति २ एवं वदासिनकछामि णं भंते ! तुम्भं अंतिए चाउचामाओ धम्माओ पंचमहबइयं सप्परिकमणं धम्म उवसंपलिसा णं विहरिसए, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंध करेह, तए णं ते पासावचिजाधेरा भगवंतो जाव चरिमेहिं उस्सासनिस्सासेहिं सिद्धा जाव सबदुक्खप्पहीणा अत्धेगतिया देवा देवलोएसु उववन्ना ॥ (सूत्र २२६)॥ कतिविहा णं भंते ! देवलोगा पण्णत्ता ?, गोयमा ! चविहा देवलोगा पण्णत्ता, तंजहा|भवणवासीवाणमंतरजोतिसियवेमाणियभेदेण, भवणघासी दसविहा वाणमंतरा अट्टविहा जोइसिया पंच|विहा वेमाणिया दुविहा । गाहा-किमियं रायगिहंति य उज्जोए अंधयार समए य। पासंतिवासि पुछा राति-| दीप ॐॐॐॐॐॐ**55 अनुक्रम [२६७-२७०] ~508~ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२६ -२२७] दीप अनुक्रम [२६७ -२७०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२२६-२२७] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५] अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥ २४८ ॥ | दिप देवलोगा य ॥ १ ॥ सेवं भंते ! २ति ॥ (सूत्रं २२७ ) || पंचमे सए नवमो उद्देसो समत्तो ॥ ५-९ ।। 'ते काले 'मित्यादि, तत्र 'असंखेचे लोए'त्ति असङ्ख्यातेऽसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वात् लोके चतुर्दशरजवात्मके क्षेत्र लोके आधारभूते 'अणंता राईदिय ेत्ति अनन्तपरिमाणानि रात्रिन्दिवानि अहोरात्राणि 'उप्पजिंसु वा इत्यादि उत्प | ज्ञानि वा उत्पद्यन्ते वा उत्पत्स्यन्ते वा, पृच्छतामयमभिप्रायः- यदि नामासङ्ख्यातो लोकस्तदा [ कथं ] तत्रानन्तानि तानि कथं भवितुमर्हन्ति ?, अस्पत्वादाधारस्य महत्त्वाच्चाधेयस्येति, तथा 'परिता राईदिय'त्ति परीतानि नियतपरिमाणानि नानन्तानि, इहायमभिप्रायः- यद्यनन्तानि तानि तदा कथं परीत्तानि ? इति विरोधः, अत्र हन्तेत्याद्युत्तरं, अत्र चायम| भिप्राय:- असङ्ख्यातप्रदेशेऽपि लोकेऽनन्ता जीवा वर्त्तते, तथाविधस्वरूपत्वाद्, एकत्राश्रये सहस्रादिसप्रदीपप्रभा इव, १ | ते चैकत्रैव समयादिके कालेऽनन्ता उत्पद्यन्ते विनश्यन्ति च स च समयादिकालस्तेषु साधारणशरीरावस्थायामनन्तेषु प्रत्येकशरीरावस्थायां च परीतेषु प्रत्येकं वर्त्तते, तत्स्थितिलक्षणपर्यायरूपत्वात्तस्य, तथा च कालोऽनन्तः परीतश्च भवतीति, एवं चासयेयेऽपि लोकें रात्रिन्दिवान्यनन्तानि परीतानि च कालत्रयेऽपि युज्यन्त इति ॥ एतदेव प्रश्नपूर्वकं तत्संमतजिनमतेन दर्शयन्नाह-'से नूण' मित्यादि, 'भे'ति भवतां सम्बन्धिना 'अज्जो'त्ति हे आर्याः ! 'पुरिसादाणीएणं ति पुरुषाणां मध्ये आदानीयः- आदेयः पुरुषादानीयस्तेन 'सासए'त्ति प्रतिक्षणस्थायी, स्थिर इत्यर्थः, 'बुइए'त्ति उक्तः, स्थिरश्रोत्पत्तिक्षणादारभ्य स्यादित्यत आह-'अणाइए'ति अनादिकः, स च सान्तोऽपि स्याद्भच्यत्ववदित्याह- 'अनव| यग्गे त्ति अनवदद्मः - अनन्तः 'परितेत्ति परिमितः प्रदेशतः, अनेन लोकस्यासत्येयत्वं पार्श्वजिनस्यापि संमतमिति Educatuny Internationa For Parts Only ६५ शतके ~509~ उद्देशः ९ पार्श्वापत्यप्रक्षोरात्रिन्दिवानन्त्ये देवलो काश्च सू २२६ २२७ ॥२४८॥ nary.org Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [५], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२२६-२२७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२६-२२७] दीप प्रदर्शितम् । तथा 'परिवुडे ति अलोकेन परिवृतः 'हेट्ठा विच्छिन्नेत्ति सप्तरज्जुषिस्तृतत्वात् 'मज्ो संखिसे'त्ति एक-15 &ारजुविस्तारत्वात् 'उपि विसाले'त्ति ब्रह्मलोकदेशस्य पञ्चरजुविस्तारत्वात्, एतदेवोपमानतः प्राह-'अहे पलिपंकसं|ठिए'त्ति उपरिसङ्कीर्णत्वाधोविस्तृतत्वाभ्यां 'मझे घरवहरविग्गहिए'त्ति वरवज्रवद्विग्रहः-शरीरमाकारो मध्यक्षामत्वेन यस्य स तथा, स्वार्थिकश्चेकप्रत्ययः, उप्पि उद्धमुइंगागारसंठिए'त्ति ऊो न तु तिरश्चीनो यो मृदङ्गस्तस्याकारेण संस्थितो यः स तथा, मलकसंपुटाकार इत्यर्थः, 'अणंता जीवघण'त्ति 'अनन्ताः' परिमाणतः सूक्ष्मादिसाधारणशरीराणां विवक्षि| तत्वात् , सन्तत्यपेक्षया वाऽनन्ताः, जीवसन्ततीनामपर्यवसानत्वात्, जीवाश्च ते घनाश्चानन्तपर्यायसमूहरूपत्वादसमेसायप्रदेशपिण्डरूपत्वाच जीवपनाः, किमित्याह-'उप्पज्जितेति उत्पद्योत्पद्य 'विलीयन्ते' विनश्यन्ति, तथा 'परीत्ता' प्रत्ये-10 कशरीरा अनपेक्षितातीतानागतसन्तानतया वा सङ्क्षिप्ता, जीवघना इत्यादि तथैव, अनेन च प्रश्ने यदुक्कम् 'अणंता राई|दिया इत्यादि तस्योत्तरं सूचित, यतोऽनन्तपरीत्तजीवसम्बन्धारकालविशेषा अप्यनन्ताः परीत्ताश्च व्यपदिश्यन्तेऽतो वि-1 |रोधः परिहतो भवतीति । अथ लोकमेव स्वरूपत आह-'से (नूर्ण) भूए'त्ति यत्र जीवघना उत्पद्य २ विलीयन्ते स लोको| भूता-सद्भूतो भवनधर्मयोगात्, स चानुत्पत्तिकोऽपि स्याद् यथा नयमतेनाकाशमत आह-उत्पन्नः, एवंविधश्चानश्वरोऽपि | स्याद् यथा विवक्षितघटाभाव इत्यत आह-विगतः, स चानन्वयोऽपि किल भवतीत्यत आह-परिणतः-पर्यायान्तराणि Bा आपनो न तु निरन्वयनाशेन नष्टः। अथ कथमयमेवंविधो निश्चीयते ? इत्याह-अजीवेडिंति 'अजीवैः' पुद्गलादिभिः सत्तां | विचद्भिरुत्पद्यमानैर्विगच्छद्भिः परिणमभिश्च लोकानन्यभूतैः 'लोक्यते' निश्चीयते 'प्रलोक्यते' प्रकर्षण निश्चीयते, भूतादि अनुक्रम [२६७-२७०] 5555 ~510 Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२६ -२२७, ૨૨૮] दीप अनुक्रम [२६७ -२७०, २७१] [भाग- ८] “भगवती” - अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्तिः ) शतक [५], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [९,१०], मूलं [ २२६-२२७, २२८] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञसिः अभयदेवी या वृत्तिः १ ॥२४९॥ Educati धर्मकोऽयमिति, अत एव यथार्थनामाऽसाविति दर्शयन्नाह 'जे लोक्कर से लोए 'त्ति यो लोक्यते-विलोक्यते प्रमाणेन स ५ शतके | लोको-लोकशब्दवाच्यो भवतीति, एवं लोकस्वरूपाभिधायक पार्श्वजिनय चनसंस्मरणेन स्ववचनं भगवान् समर्थितवानिति । 'सपडिकमणं'ति आदिमान्तिमजिनयोरेवावश्यं करणीयः सप्रतिक्रमणो धर्मोऽन्येषां तु कदाचित्प्रतिक्रमणं, आह च "सपडिकमणो धम्मो पुरिमस्स व पच्छिमस्त य जिणस्स । मज्झिमगाण जिणाणं कारणजाए पडिकमणं ॥ १ ॥ 'ति ॥ अनन्तरं 'देवलोएसु उववन्ना' इत्युक्तमतो देवलोकप्ररूपणसूत्रम् -'कतिविहा ण' मित्यादि । पञ्चमशते नवमोदेशकः ॥५-९॥ उद्देशः १० चन्द्रवकव्यता सू २२८ अनन्तरोद्देशकान्ते देवा उक्ता इति देवविशेषभूतं चन्द्रं समुद्दिश्य दशमोद्देशक्रमाह, तस्य चेदं सूत्रम्लेणं काले लेणं समएणं चंपानामं नयरी जहां पढमिल्लो उद्देसओ तहा नेयचो एसोवि, नवरं बंदिमा भाणिया ।। (सूत्रं २२८ ) । पंचमे सए दसमो उद्देसो समत्तो ।। ५-१० ।। पंचमं सयं समसं ॥ ५ ॥ 'ते काले' मित्यादि, एतच्च चन्द्राभिलापेन पञ्चमशतकप्रथमोदेशक ज्ञेयमिति ॥ पञ्चमशते दशमः ५-१० ॥ श्रीरोहणादेरिव पञ्चमस्य, शतस्य देवानिव साधुशब्दान् । विभिद्य कुश्येव बुधोपदिष्ट्या, प्रकाशिताः सन्मणिवन्मयाऽर्थाः ॥ १ ॥ १ पूर्वस्य पश्चिमस्व च जिनस्य सप्रतिक्रमणो धर्मः, मध्यमानां जिनानां कारणजाते प्रतिक्रमणं ॥ १ ॥ तीर्थ इति गम्यते DESIGNENNA ॥ समासं पश्चमं शतमिति ॥ ५ ॥ अत्र पंचम - शतके नवम उद्देशकः समाप्तः अथ पंचम शतके दशम उद्देशकः HEREIG For Parts Only .......अत्र पंचमं शतकं समाप्तं...... ~511~ ॥२४९॥ rryp Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२२९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: ॥अथ षष्ठं शतकम्।। प्रत सूत्रांक [२२९] गाथा व्याख्यातं विचित्रार्थ पचम शतं, अथावसरायातं तथाविधमेव पष्ठमारभ्यते, तस्य चोदेशकार्थसाहणी गाथेयम् यण १ आहार २ महस्सवे य ३ सपएस ४ तमुए य५। भविए साली ७ पुढवी ८ कम्म ९ अन्नउत्थी १० दस छट्टगंमि सए॥१॥ वेषणेत्यादि, तत्र वेयणत्ति महावेदनो महानिजेर इत्याचप्रतिपादनपरः प्रथमः १ 'आहार'सि आहाराधर्थाभिधायको द्वितीयः २ 'महस्सवे यत्ति महाश्रवस्य पुद्गला वध्यन्ते इत्याद्यर्थाभिधानपरस्तृतीयः ३ 'सपएस'त्ति सम-1 देशो जीवोऽप्रदेशो वा इत्यापर्थाभिधायकश्चतुर्थः ४ 'तमुए यत्ति तमस्कायार्थनिरूपणार्थः पञ्चमः ५'भविए'त्ति भव्योनारकत्वादिनोत्पादस्य योग्यस्तद्वक्तव्यताऽनुगतः षष्ठः ६'सालि'त्ति शाल्यादिधान्यवक्तव्यताऽऽश्रितः सप्तमः ७ 'पुढवि-|| त्ति रत्नप्रभादिपृथिवीवक्तव्यताऽर्थोऽष्टमः ८ 'कम्म'सि कर्मबन्धाभिधायको नवमः ९ 'अन्नउस्थिति अन्ययूथिकवक्तव्यताओं दशमः १० इति । से नूर्ण भंते जे महावयणे से महानिज्जरे जे महानिजरे से महावेदणे, महावेदणस्सय अप्पवेदणस्स य से सेए जे पसत्यनिजराए, हंता गोयमा! जे महावेदणे एवं चेव । छट्ठसत्तमासु णं भंते ! पुढवीसु नेरइया महावेपणा, हंता महायणा, ते ण भंते ! समणेहितो निग्गंधेहिंतो महानिजरतरा?, गोयमा ! णो तिण? KAR दीप अनुक्रम [२७२-२७३] अथ षष्ठं-शतकं आरभ्यते अथ षष्ठं-शतके प्रथम-उद्देशक: आरब्ध: ~512~ Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२२९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: Hशतके प्रत सूत्रांक [२२९] गाथा व्याख्या- सम, से केणडेणं भंते ! एवं बुच्चइ जे महावेदणे जाव पसत्थनिजराए ?, गोयमा! से जहानामए-दुबे वत्था | प्रज्ञप्तिः४/सिया, एगे वत्थे कदमरागरते एगे वत्थे खंजणरागरत्ते, एएसि णं गोयमा ! दोहं वत्थाणं कयरे वत्थे | उद्देशः १ अभयदेवी- धोपतराए व दुवामतराए चेव दुपरिकम्मतराए चेव कयरे वा वत्धे सुधोयतराए चेव सुवामतराए चेव | 8/ वस्त्रदृष्टाया वृत्तिः सपरिकम्मतराए चेव , जे वा से वत्थे कद्दमरागरते जे वा से वस्थे खंजणरागरत्ते, भगवंतस्थ गं जेल शान्तेन महा वेदनाल्प॥२५॥ से वस्थे कदमरागरते से णं वत्थे दुधोयतराए चेव दुवामतराए चेव दुप्परिकम्मतराए चेव, एवामेव गोयमा ! ||2 निर्जरे नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई चिक्कणीकयाई(अ)सिढिलीकयाई खिलीभूयाई भवंति संपगादपि य णं २२९ ते वेदणं वेदेमाणा णो महानिज्जरा णो महापज्जवसाणा भवंति से जहा वा केइ पुरिसे अहिगरणं आकोडे-18| ||माणे महया २ सदेणं महया २ घोसेणं महया २ परंपराधाएणं णो संचाएइ तीसे अहिगरणीए कई अहाबायरे पोग्गले परिसाडित्तए एवामेव गोयमा । नेरइयाणं पावाई कम्माई गाढीकयाई जाव नो महापज्ज-18/ वसाणाहं भवंति, भगवं! तत्थ जे से वत्थे.खंजणरागरत्ते से णं वत्थे सुधोयतराए चेव सुवामतराए चेव |सुपरिकम्मतराए पेच, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंधाणं अहापायराई कम्माई सिढिलीकयाई निहि-॥ दियाई कम्माई विप्परिणामियाई खिप्पामेव विद्धधाई भवंति,जावतियं तावतियंपिणं ते वेदणं वेदेमाणे महा-18| ॥२५॥ निजरा महापजवसाणा भवंति, से जहानामए के पुरिसे सकतणहस्वयं जायतेयंसि पक्खिवेखा से नूर्ण गोयमा ! से सुफे तणहत्थए जायतेयंसि पक्खित्तेसमाणे खिप्पामेव मसमसाविजति?, हंता मसमसाविजति, दीप अनुक्रम [२७२-२७३] ~513~ Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२२९] +$ गाथा दीप अनुक्रम [२७२ -२७३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [१], मूलं [२२९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः एवामेव गोपमा ! समणाणं निग्गंथाणं अहावापराई कम्माई जाव महापज्जवसाणा भवंति से जहानामए | केइ पुरिसे ततंसि अथकवलंसि उद्गबिंदू जाव हंता विद्वंसमागच्छर, एवामेव गोयमा ! समणाणं निग्गंधाणं जाव महापज्जवसाणा भवंति से तेणट्टेणं जे महावेदुणे से महानिज्जरे जाव निजराए । (सूत्रं २२९ ) ॥ 'से नूर्ण भंते ! जे महावेयणे' इत्यादि, 'महावेदन:' उपसर्गादिसमुद्भूतविशिष्टपीडः 'महानिर्जर:' विशिष्टकर्मक्षयः, अनयोश्चान्योऽन्याविनाभूतत्वाविर्भावनाय 'जे महानिज्जरे' इत्यादि प्रत्यावर्त्तनमित्येकः प्रश्नः, तथा महावेदनस्य चाल्पवेदनस्य च मध्ये स श्रेयान् यः 'प्रशस्त निर्जराकः' कल्याणानुबन्धनिर्जर इत्येष च द्वितीयः प्रश्नः प्रश्नता च काकुपाठादवगम्या, हन्तेत्याद्युत्तरं, इह च प्रथमप्रश्नस्योत्तरे महोपसर्गकाले भगवान् महावीरो ज्ञातं द्वितीयस्यापि स | एवोपसर्गानुपसर्गावस्थायामिति । यो महावेदनः स महानिर्जर इति यदुक्तं तत्र व्यभिचारं शङ्कमान आह-'छडी'त्यादि, 'दुधोयतराए'त्ति दुष्करतरधावनप्रक्रियं 'दुवामतराए'त्ति 'दुर्वास्यतरकं' दुस्त्याज्यतरकलङ्कं 'दुप्परिकम्मतराए'त्ति | कष्टकर्त्तव्यतेजो जननभङ्ग करणादिप्रक्रियम्, अनेन च विशेषणत्रयेणापि दुर्विशोध्यमित्युक्तं, 'गाडीकयाई'ति आत्म| प्रदेशैः सह गाढबद्धानि सनसूत्रगाढबद्धसूचीकलापवत् 'चिकणीकयाई'ति सूक्ष्मकर्मस्कन्धानां सरसतया परस्परं गाढसम्बन्धकरणतो दुर्भेदीकृतानि तथाविधमृत्पिण्डवत् '(अ) सिढिली कयाई' ति निधत्तानि सूत्रबद्धाग्नितघलो हशलाकाकलाप - |वत् 'खिलीभूतानि' अनुभूतिव्यतिरिक्तोपायान्तरेण क्षपयितुमशक्यानि निकाचितानीत्यर्थः, विशेषणचतुष्टयेनाप्येतेन दुर्विशोध्यानि भवन्तीत्युक्तं भवति, एवं च 'एवामेवे' त्याद्युपनयवाक्यं सुघटनं स्याद्, यतश्च तानि दुर्विशोध्यानि स्युस्ततः For Parks Use Only ~514~ waryra Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२२९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२२९] गाथा व्याख्या-1 संपगादमित्यादि 'नो महापज्जवसाणा भवंति'ति, अनेन महानिर्जराया अभावस्य निर्वाणाभाक्लक्षणं फलमुक्त-1 शतके प्रज्ञप्तिः मिति नाप्रस्तुतत्त्वमित्याशङ्कनीयमिति । तदेवं यो महावेदनः स महानिर्जर इति विशिष्टजीवापेक्षमवगन्तव्यं न पुनार-1|| उद्देशः १ अभयदेवी कादिक्लिष्टकर्मजीवापेक्षं, यदपि यो महानिर्जरः स महावेदन इत्युक्तं तदपि प्रायिक, यतो भवत्ययोगी महानिर्जरो महा- वस्त्रदृष्टाया वृत्तिः१४ वेदनस्तु भजनयेति । 'अहिगरणित्ति अधिकरणी यत्र लोहकारा अयोधनेन लोहानि कुट्टयन्ति 'आउडेमाणे'सिन्तेिन महा॥२५ ॥ |आकुट्टयन 'सदेणं'ति अयोधनघातप्रभवेण ध्वनिना पुरुषहुकृतिरूपेण वा 'घोसेणं'ति तस्यैवानुनादेन 'परंपराघा-10 वेदनाल्पएणति परम्परा-निरन्तरता तत्प्रधानो घात:-ताडनं परम्पराघातस्तेन उपर्युपरिघातेनेत्यर्थः, 'अहाबायरे'त्ति स्थल-18 निर्जरे सू२२९ | प्रकारान्, 'एवामेत्याधुपनये 'गाढीकयाई इत्यादिविशेषणचतुष्केण दुष्परिशाटनीयानि भवन्तीत्युक्तं भवति. ४'सुधोयतराए'इत्यादि, अनेन सुविशोध्य भवतीत्युक्तं स्यात् , 'अहाबायराईति स्थूलतरस्कन्धान्यसाराणीत्यर्थः 'सिटि-18 &ालीकयाईति श्लधीकृतानि मन्दविपाकीकृतानि 'निट्ठियाई कयाईति निस्सत्ताकानि विहितानि 'विपरिणामियाईति विपरिणामं नीतानि स्थितिघातरसघातादिभिः, तानि च क्षिप्रमेव विश्वस्तानि भवन्ति, एभिश्च विशेषणः सुविशोभ्यानि ॥ भवन्तीत्युक्त स्यात्ततश्च 'जावइय'मित्यादि । अनन्तरं वेदना उक्ता, सा च करणतो भवतीति करणसूत्र, तत्र- . कतिविहे गं भंते ! करणे पन्नत्ते?, गोयमा ! चउबिहे करणे पन्नत्से, तंजहा-मणकरणे वइकरणे कायकरणे | मा॥२५॥ कम्मकरणे । णेरइयाणं भंते ! कतिविहे करणे पन्नत्ते ?, गोयमा! चउबिहे पन्नत्से, तंजहा-मणकरणे वइकरणे ॥ काकायकरणे कम्मकरणे ४ [चउ०], पंचिंदियार्ण ससिं चउबिहे करणे पन्नते। एगिदियाणं दुविहे-कायकरणे य 15 दीप अनुक्रम [२७२-२७३] ~515 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१], मूलं [२३०-२३१] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३०-२३१] दीप ककरणे य, विगलेंदियाणं ३-थइकरणे कायकरणे कम्मकरणे । नेरइयाणं भंते ! किं करणओ असायं यणं चेयंति अकरणओ असायं वेयर्ण वेदेति !, गोयमा ! नेरइयाणं करणओ असायं वेयर्ण वेयंति नो अकसारणओ असायं वेयर्ण वेयंति, से केण?णं. १, गोयमा ! नेरइयाणं चउबिहे करणे पन्नते, तंजहाII मणकरणे चहकरणे कायकरणे कम्मकरणे, इचेएणं चउबिहेणं असुभेणं करणे] नेरहया करणओ असायं| &ायणं वेयंति नो अकरणओ, से तेणद्वेणं । असुरकुमाराणं किं करणओ अकरणओ?, गोयमा ! कर-1 माणओ नो अकरणओ, से केणटेणं० १, गोयमा ! असुरकुमाराणं चउषिहे करणे पण्णत्ते, तंजहा४मणकरणे वयकरणे कापकरणे कम्मकरणे, इच्चेएणं सुभेणं करणेणं असुरकुमाराणं करणओ सायं चेयणं वेयंति नो अकरणओ, एवं जाव थणियकुमाराणं । पुढविकाइयाणं एवामेव पुच्छा, नवरं इच्चेएणं सुभासुभेणं करणेणं पुढविकाइया करणओ घेमायाए वेयणं वेयंति नो अकरणओ, ओरालियसरीरा सवे सुभा सुभेणं वेमायाए । देवा सुभेणं सायं ॥ (मूत्रं २३०)॥ जीवा भंते ! किं महाचेयणा महानिजरा १ महालावेदणा अप्पनिजरा २अप्पवेदणा महानिज्जरा ३ अप्पवेदणा अप्पनिजरा ४?, गोयमा अत्यंगतिया जीचा महा-| | वेदणा महानिजरा १ अत्थेगतिया जीवा महावेयणा अप्पनिजरा २ अत्थेगतिया जीवा अप्पवेदणा महा४ निजरा ३ अत्यंगतिया जीवा अप्पवेदणा अप्पनिजरा ४ । से केणटेणं०१, गोयमा ! पडिमापडिवन्नए अण गारे महावेदणे महानिजरे छहसत्तमासु पुढवीसु नेरइया महावेदणा अप्पनिजरा सेलेसिं पडिवन्नए अण अनुक्रम [२७४-२७५]] SAREILLEGuninternational ~516 Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [१,२], मूलं [२३०-२३१,२३२] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३० -२३२] व्याख्या- 18|गारे अप्पवेदणे महानिजरे अणुत्तरोववाइया देवा अप्पवेदणा अप्पनिजरा, सेवं भंते २ ति॥-महवेदणेय बत्थे | प्रज्ञप्तिः कदमखंजणमए य अहिगरणी । तणहत्थे य कवल्ले करण महावेदणा जीवा ॥१॥ (सूत्र २३१)। सेवं अभयदेवी- भंते ! सेवं भंते ! ति ॥छट्टसयस्स पढमो उद्देसो समत्तो ।। ६-१॥ यात्त 'कम्मकरण ति कर्मविषयं करणं जीववीर्य बन्धनसङ्कमादिनिमित्तभूतं कर्मकरण 'बेमायाए'त्ति विविधमात्रया ॥२५॥ कदाचित्सातां कदाचिदसातामित्यर्थः ॥ 'महावेयणे इत्यादि सङ्ग्रहगाथा गतार्था ॥ षष्ठे शते प्रथमोद्देशकः ॥६-१॥ अनन्तरोदेशके य एते सवेदना जीवा उक्तास्ते आहारका अपि भवन्तीत्याहारोदेशकः रायगिहं नगरं जाव एवं वयासी-आहारुद्देसो जो पन्नवणाए सो सबो निरवसेसो नेयो । सेवं भंते। | सेवं भंते । ति (सर्व २३२) ॥ छठे सए वीओ उद्देसो समसो॥६-२॥ है स च प्रज्ञापनायामिव दृश्या, एवं चासौ-नेरइया णं भंते ! किं सच्चित्ताहारा १ अचित्ताहारा २ मीसाहारा ३१, गोयमा ! नो सञ्चित्ताहारा १ अच्चित्ताहारा २ नो मीसाहारा ३' इत्यादि ॥ षष्ठशते द्वितीयोद्देशकः ॥ ६-२॥ अनन्तरोद्देशके पुनला आहारतश्चिन्तिताः, इह तु बन्धादित इत्येवंसम्बन्धस्य तृतीयोद्देशकस्यादावर्थसहगाथाद्वयम्बहुकम्मवस्थपोग्गलपयोगसावीससा य सादीए । कम्महितीस्थिसंजय सम्मदिही य सन्नी य ॥१॥ भविए दसण पजते भासअपरित्त नाणजोगे य । उवओगाहारगसुटुमचरिमबंधीय अप्पपहुं॥२॥ ६ शतके उद्देशः१ करणं वेदनानिर्जर सू२३०२३१ उद्देशः२ आहारः सू २३२ गाथा दीप अनुक्रम [२७४-२७७]] ॥२५॥ अत्र षष्ठ-शतके प्रथम-उद्देशकः समाप्त: अत्र षष्ठ-शतके द्वितीय-उद्देशक: आरम्भ: एवं समाप्त: अथ षष्ठं-शतके तृतीय-उद्देशक: आरम्भ: ~517~ Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [3], मूलं [२३२...] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३२...] गाथा: 'बहुकम्मे'त्यादि, 'बहुकम्मति महाकर्मणः सर्वतः पुद्गला बध्यन्त इत्यादि मार्य, 'बत्थे पोग्गला पयोगसा वीससा य' ति यथा वखे पुद्गलाः प्रयोगतो विश्रसातश्च हीयन्ते किमेवं जीवानामपीति वाच्यं, 'साइए'ति वस्त्रस्य सादिः पुल-11 दाचया, एवं किं जीवानामयसी' इत्यादि प्रश्नः, उत्सरं च वाच्य-कम्महिह'ति कर्मास्थितिवाच्या, 'धिह'त्ति किं स्त्री पुरुषादि कर्म वनाति । इति वाच्यं, 'संजय'ति किं संबसादिः 'सम्मदिहि'सि किं सम्बग्दष्यादिः?,एवं सज्ञी भव्यो । दर्शनी पर्याप्तको भाषकः परीतो झानी बोगी उपयोगी आहारका सूक्ष्मः घरमा 'बधे यति एतानाश्रित्य बन्धो वाच्यः || 'अप्पपहुँति एषामेव खीप्रभृतीनां कर्मबन्धकानां परस्परेणाल्पबहुविता वाच्येति । तत्र बहकर्माद्वारेhtil से नूर्ण भंते ! महाकम्मस्स महाकिरियस्स महासवस्स महावेदणस्स सपओ पोग्गला यजति सवओला पोग्गला चिजति सपओपोग्गला उवचिजति सया समियं चणं पोग्गला बाति सया समियपोग्गला चिजति सया समियं पोग्गला उबचिजति सया समियं च णं तस्स आया दुरूवत्ताए दुवनसाए दुगंधत्ताए दुरसत्ताए दुफासत्ताए अणिहत्ताए अकंत० अप्पिय असुम० अमणुन्नः अमणामसाए अणिच्छियत्ताए अभिजिमयसाए अहत्ताए नो उहत्ताए दुक्रवत्ताए नो सुहसाए भुजो २ परिणमंति', हेता गोयमा! महाकम्मस्स तं। चेव । से केणद्वेण०१, गोयमा! से जहानामए-वत्थस्स अहयरस वा धोयरस वा तंतुगयरस वा आणुपुधीए| |परिभुजमाणस्स सघओ पोग्गला बजांति सपओ पोग्गला चिजति जाव परिणमंति से तेणढण. 1 से नूणं| भंते ! अप्पासवस्स अप्पकम्मरस अप्पकिरियस्स अप्पवेदणस्स सबओ पोग्गला भिवंति सबभी पोग्गला| दीप अनुक्रम [२७८-२७९] ECORRECASTER ~518~ Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] SASALAS व्याख्या-छिजंति सपओ पोग्गला विडंसंति सबओ पोग्गला परिविद्धंसंति सया समियं पोग्गला भिवंति सवओ६ शतके प्रज्ञप्तिः | पोग्गला छिज्जति विद्धस्संति परिविद्धस्संति सया समियं च णं तस्स आया सुरूवत्ताए पसत्वं नेयचं जाव उद्देशः ३ अभयदेवी- हुत्ताए नो दुक्खसाए भुजो २ परिणमंति?, हंता गोयमा ! जाव परिणमंति । से केणढेणं०१, गोयमा! महाल्पाश्रया वृत्ति-१ से जहानामए-वस्थस्स जल्लियस्स वा पंकियरस वा मइल्लियस्स वा रइल्लियस्स वा आणुपुबीए परिकम्मिज-| वयोः युद्ग लचयबन्धी ॥२५॥ माणस्स सुद्धेणं वारिणा धोवेमाणस्स पोग्गला भिज्जति जाव परिणमंति से तेण?णं०॥ (सून २३३) 'महाकम्मस्से'त्यादि, महाकर्मणः स्थित्याद्यपेक्षया 'महाक्रियस्य अलघुकायिक्यादिक्रियस्य. 'महाश्रवस्य' बृहमिथ्यात्वादिकर्मबन्धहेतुकस्य 'महावेदनस्य' महापीडस्य 'सर्वतः' सर्वासु दिक्षु सर्वान् वा जीवप्रदेशानाश्रित्य वध्यन्ते आसङ्कलनतः चीयन्ते-बन्धनतः उपचीयन्ते-निषेकरचनतः, अथवा बध्यन्ते-बन्धनतः चीयन्ते-निधत्ततः उपचीयन्ते& निकाचनतः 'सया समियं ति 'सदा सर्वदा, सदात्वं च व्यवहारतोऽसातत्येऽपि स्यादित्यत आह-समित' सन्ततं 'तस्स आय'त्ति यस्य जीवस्य पुद्गला बध्यन्ते तस्यात्मा वाह्यात्मा शरीरमित्यर्थः 'अणिढत्साए'त्ति इच्छाया अविषयतया ४'अकंतत्ताए'त्ति असुन्दरतया 'अप्पियत्ताए'त्ति अप्रेमहेतुतया 'असुभत्साए'त्ति अमङ्गल्यतयेत्यर्थः 'अमणुन्नत्ताए'त्ति &न मनसा-भावतो ज्ञायते सुन्दरोऽयमित्यमनोज्ञस्तझावस्तत्ता तया, 'अमणामत्ताए'त्ति न मनसा अम्यते-गम्यते संस्म-18॥२५शा रणतोऽमनोऽम्यस्तद्रावस्तत्ता तया, प्राप्तुमवाञ्छितत्वेन, 'अणिच्छियत्ताए'त्ति अनीप्सिततया प्राप्नुमनभिवान्छितत्वेन |'अज्झियत्ताए'त्ति भिध्या-लोभः सा संजाता यत्र सो भिध्यितो न भिध्यितोऽभिष्यितस्तदावस्तत्ता तया 'अहत्ताएं। । सू२३३ दीप अनुक्रम [२८०] SES ~519~ Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [२३३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३३] दीप अनुक्रम [२८०] त्ति जघन्यतया 'नो उदृत्ताए'त्ति न मुख्यतया 'अहयस्स वत्ति अपरिभुक्तस्य 'धोयस्स वत्ति परिभुज्यापि प्रक्षालितस्य i'तंतुगपस्स 'त्ति तन्त्रात्-तुरीवेमादेरपनीतमात्रस्य, 'बसंती'त्यादिना पदत्रयेणेह पखस्य पुद्गलानां च यथोत्तरं सम्ब न्धप्रकर्ष उक्ता, 'भिजंतित्ति प्राक्तनसम्बन्धविशेषत्यागात् 'विद्धंसंति'त्ति ततोऽधः पातात् 'परिविहंसंति'त्ति निःशे षतया पातात् 'जल्लियस्स'त्ति 'यल्लितस्य' यानलगनधर्मोपेतमलयुक्तस्य 'पंकियस्सत्ति आर्द्रमलोपेतस्य 'मइल्लियस्स'त्ति X कठिनमलयुक्तस्य 'रइल्लियस्स'त्ति रजोयुक्तस्य 'परिकम्मिजमाणस्स'त्ति क्रियमाणशोधनार्थोपक्रमस्य । all वत्थस्स भंते ! पोग्गलोवचए किं पयोगसा वीससा ?, गोयमा! पओगसावि वीससावि । जहा 18 भंते ! वत्थस्स णं पोग्गलोवचए पओगसावि वीससावि तहाणं जीवाणं कम्मोवचए किं पओगसा वीससा?, गोयमा ! पओगसा नो वीससा, से केणटेणं० १, गोयमा ! जीवाणं तिविहे पओगे पण्णत्ते, तंजहा-मणप्प ओगे वह का०, इचेतेणं तिविहेणं पओगेणं जीवाणं कम्मोवचए पओगसा,नो वीससा, एवं सबेसिं पंचेंदिशादियाणं तिविहे पओगे भाणियो, पुढविकाइयाणं एगविहेणं पओगेणं एवं जाव वणस्सइकाइयाणं, विगलिंहै दियाणं दुविहे पओगे पण्णते, तंजहा-वइपओगे य कायप्पओगे य, इचेतेणं दुविहेणं पओगेणं कम्मोवचए |पओगसा नो वीससा,से एएणडेणं जाव नो वीससा एवं जस्स जो पओगो जाव बेमाणियाणं ॥ (सूत्रं २३४)। वस्त्रेत्यादिद्वारे 'पओगसा वीससा यत्ति छान्दसत्वात् 'प्रयोगेण' पुरुषव्यापारेण 'विश्रस[त]या स्वभावेनेति । ||'जीवाणं कम्मोवचए पओगसा णो वीससत्ति प्रयोगेणैव, अन्यथाऽप्रयोगस्यापि बन्धप्रसङ्गः ।। RELIGuninternational ~520~ Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीथा वृत्तिः प्रत सूत्रांक १२३५] ॥२५॥ 1-964- पत्थस्स णं भंते । पोग्गलोवचए किं सादीए सपज्जवसिए१ सादीए अपजवसिते २ अणादीए सपज.३ शतके | अणा०अप०४१, गोयमा ! वस्थस्स णं पोग्गलोवचए सादीए सपजवसिए नो सादीए अप० नो अणा० स० उद्देशः ३ . नो अणा० अप० । जहा णं भंते ! वत्थस्स पोग्गलोवचए सादीए सपन० नो सादीए अप० नो अणा० सप० वस्त्रवत्स नो अणा० अपतहा णं जीवाणं कम्मोवचए पुच्छा, गोयमा ! अत्यगतियाणं जीवाणं कम्मोपचए सादीए करणानां || सपज्जवसिए अत्ये० अणादीए सपज्जवसिए अत्येक अणादीए अपज्जवसिए नो पेय गं जीवाणं कम्मोपचएलषया सादीए अप० से केण०१, गोयमा ! ईरियाबहियायधयस्स कम्मोवचए सादीए सप० भवसिद्धिपस्स कम्मो-12 वस्त्रवत् व|| वचए अणादीए सपजवसिए अभवसिद्धियस्स कम्मोषचए अणादीए अपज्जवसिए, से तेणटेणं गोपमा एवं बुधति अत्थे०जीवाणं कम्मोषचए सादीए मोचेव णं जीवाणं कम्मोवचए सादीए अपज्जवसिए, यत् णं साद्यादिता भंते । किं सादीए सपजवसिए पउभंगो ?, गोयमा । बस्थे सादीए सपजचसिए अवसेसा तिनिधि पडिसे-|| सू २३५ हेयवा । जहा मंते ! बत्थे सादीए सपज्जवसिए नो सादीए अपज नो अणादीए सप० नो अनादीप अपज्जवसिए तहाणं जीवाणं किं सादीया सपज्जवसिया ? बउभंगो पुच्छा, गोयमा । अत्धेगतिया सादीया| सपज्जवसिया पत्तारिवि भाणियवा । से केणटणं.१,गोयमा ! नेरसिया तिरिक्खजोणिया मणुस्सा देवा ॥२५४॥ गतिरागति पहुच सादीया सपज्जवसियासिद्धि(द्धा मार्ति पडसादीया अपज्जवसिया, भवसिद्धिया लर्द्धि पहष भणादीया सपणपसिया अभवसिद्धिया संसारं पडच्च अणादीया अपजवसिया, से तेणर्णः॥(सत्र २३५)। दीप 2 अनुक्रम [२८२] ~521 Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [२३५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३५] दीप अनुक्रम [२८२] सादिद्वारे 'ईरियावहियबंधयस्से'त्यादि, ईर्यापथो-गमनमार्गस्तत्र भवमैर्यापथिकं, केवलयोगप्रयोगप्रत्ययं कर्मेत्यर्थः । तद्वन्धकस्योपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य सयोगिकेवलिनवेत्यर्थः, ऐयापथिककमणो हि अबद्धपूर्वस्य बन्धनात सादिवं, अयोग्यवस्थायां श्रेणिप्रतिपाते वाऽबन्धनात् सपर्ववसितत्वं, 'गतिरागई पडुचत्ति नारकादिगती गमनमाश्रित्य सादय:आगमनमाश्रित्य सपर्यवसिता इत्यर्थः 'सिद्धा गई पडच साइया अपज्जवसियत्ति, इहाक्षेपपरिहारावेवम्-"साईअपजबसिया सिद्धा न य नाम तीयकालंमि । आसि कयाइवि सुण्णा सिद्धी सिद्धेहि सिद्धते ॥१॥ सर्व साइ सरीरं न नामादि मय देहसम्भावो । कालाणाइत्तणओ जहा व राइंदियाईणं ॥२॥ सबो साई सिद्धो न यादिमो विजई तहान च।सिद्धी सिद्धा य सया निदिहा रोहपुच्छाए॥३॥"त्ति, 'तं चति तच सिद्धानादित्वमिष्यते, यतः 'सिद्धी सिद्धाय लत्यादीति। भवसिद्धिया लद्धि'मित्यादि, भवसिद्धिकानां भव्यत्वलब्धिः सिद्धत्वेऽपैतीतिकृत्वाऽनादिः सपर्यवसिता चेति ॥ कति णं भंते । कम्मप्पगडीओ पण्णत्ताओ', गोयमा ! अट्ट कम्मप्पगडीओ पण्णत्ता, तंजहा-णाणावरणिज दरिसणावरणिजं जाव अंतराइयं । नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतियं कालं बंधठिती पण्णत्ता, गोयमा । जह• अंतोमुहुत्तं उक्को तीसं सागरोवमकोडाकोडीओ तिन्नि य वाससहस्साई अवाहा, सिद्धाः साधपर्यवसिता न च नामातीतकाले सिद्धैः शून्या कदाचिसिद्धिः सिद्धान्ते आसीदिल्युक्तम् ॥ १॥ यथा सर्व शरीरं सादि । न च नामादिदेवोद्भवो मतः कालस्यानादित्वाद्यथा बा रात्रिंदिवानां ॥ २ ॥ सर्वः सिद्धः सादिस्तथा नैवादिमो विद्यते सिद्धाना व्यकेरा-100 | दिमत्वेऽपि समुदायस्थानादित्वात् तत् रोहपृच्छायां सिद्धिः सिद्धाश्च शाश्वता निर्दिष्टाः ॥ ३ ॥ | कर्मप्रकृत्तिः, कर्मस्थिति: इत्यादिः ~522~ Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: स्थितिः प्रत सूत्रांक [२३६] दीप अनुक्रम [२८३] व्याख्या-ला अचाहूणिया कम्महिती कम्मनिसेओ, एवं दरिसणावरणिज्जंपि, वेदणिज जह दो समया उको जहा नाणा-|| ६ शतके वरणिज्जं, मोहणिज्ज जह• अंतोमुहत्तं उक्को सत्तरि सागरोवमकोडाकोडीओ, सत्त य वाससहस्साणि-18 अभयदेवी अबाधा, अयाहूणिया कम्मठिई कम्मनिसेगो, आउगं जहन्नेणं अंतोमुहुतं उक्को तेत्तीस सागरोवमाणि पुच्च कर्मप्रकृतिया वृत्तिः कोडितिभागमभहियाणि, (पुचकोडिति भागो अबाहा, अबाहणिया) कम्महितीकम्मनिसेओ, नामगो-|| |सू २३६ ॥२५॥ याणं जह• अट्ठ मुहत्ता उक्कोवीसं सागरोवमकोडाकोडीओ दोणि य वाससहस्साणि अवाहा, अवाह|णिया कम्महिती कम्मनिसेओ, अंतरातियं जहा नाणावरणिज्ज ।। (सूत्र २३६) कर्मस्थितिद्वारे 'तिषिण य वाससहस्साई अबाहा, अयाहाऊणिया कम्मठिई कम्मनिसेगों'त्ति 'बाधृ लोडने' बाधत इति वाधा-कर्मण उदयः न बाधा अबाधा-कर्मणो बन्धस्योदयस्य चान्तरं अबाधया-उक्तलक्षणया अनिका अबाधोनिका कर्मस्थितिः कर्मावस्थानकाल उक्तलक्षणः कर्मनिषेको भवति, तत्र कर्मनिषेको नाम कर्मदलिकस्यानुभ|बनार्थ रचनाविशेषः, तत्र च प्रथमसमये बहुक निषिश्चति द्वितीयसमये विशेषहीनं तृतीयसमये विशेषहीनमेवं यावदु-|| स्कृष्टस्थितिकं कर्मदलिकं तावद्विशेषहीनं निषिञ्चति, तथा चोक्तम्-“मोत्तूण सगमवाहं पढमाह ठिई बहुतरं दई । सेसे | विसेसहीणं जा उकोसंति सबासि ॥१॥" इदमुक्तं भवति-बद्धमपि ज्ञानावरणं कर्म त्रीणि वर्षसहस्राणि यावदवेद्यमान|मास्ते, ततस्तदूनोऽनुभवनकालस्तस्य, स च वर्षसहस्रनयन्यूनविंशत्सागरोपमकोटीकोटीमान इति । अन्ये वाहुः-अबा|धाकालो वर्षसहस्रत्रयमानो, बाधाकालश्च सागरोपमकोटीकोटीत्रिंशल्लक्षणः, तद्वितयमपि च कर्मस्थितिकालः, स चावा- 18 ACCESS ॥२५५ | कर्मप्रकृत्तिः, कर्मस्थिति: इत्यादिः ~523~ Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२३६] दीप अनुक्रम [ २८३] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः नाति स्यान्न बनातीति ॥ 'आउगे णं भंते इत्यादिप्रश्नः, तत्र रूपादित्रयमायुः स्याद्वभाति स्यान्न बध्नाति, बन्धकाले बनाति अबन्धकाले तु न वनांति, आयुषः सकृदेवैकत्र भवे बन्धात् निवृत्तख्यादिवेदस्तु न बनाति, निवृत्तिवादरस|म्परायादिगुणस्थानकेष्वायुर्बन्धस्य व्यवच्छिन्नत्वात् ॥ संयतद्वारे 'णाणावर णिज्ज' मित्यादि, 'संयतः' आद्यसंयमचतुष्टयवृत्तिर्ज्ञानावरणं बध्नाति यथाख्यात संयतस्तूपशान्तमोहादिर्न बनाति अत उकं 'संजए सिये' त्यादि, असंयतो मिथ्यादृष्ट्यादिः संयतासंयतस्तु देशविरतस्तौ च बभीतः निषिद्धसंयमादिभावस्तु सिद्धः, स च न बध्नाति हेत्वभावादित्यर्थः, 'आउगे हेहिल्ला तिन्नि भयणाए त्ति संयतोऽसंयतः संयतासंयतश्चायुर्वन्धकाले बनाति अन्यदा तु नेति भजनयेत्युक्तं, 'उवरिल्ले ण बंधइति संयतादिषूपरितनः सिद्धः स चायुर्न बनाति ॥ सम्यग्दृष्टिद्वारे 'सम्मदिट्ठी सिय'त्ति सम्यग्दृष्टिः वीतरागस्तदितरश्च स्यात्तत्र वीतरागो ज्ञानावरणं न बध्नाति एकविधवन्धकत्वात् इतरश्च बनातीति स्यादित्युक्तं, मिथ्या| दृष्टिमिश्रदृष्टी तु बञ्जीत एवेति, 'आउए हिल्ला दो भयणा एत्ति सम्यग्दृष्टि मिथ्यादृष्टी आयुः स्वाद्वभीत इत्यर्थः, तथाहि सम्यग्दृष्टि र पूर्वकरणादिरायुर्न बध्नाति इतरस्तु आयुर्बन्धकाले तद्वभाति अन्यदा तु न बघ्नाति, एवं मिथ्यादृष्टिरपि, मिश्रदृष्टिस्त्वायुर्न बन्नात्येव तद्बन्धाध्यवसायस्थानाभावादिति ॥ सञ्ज्ञिद्वारे 'सन्नी सिय बंधइति 'सम्झी' मनःपर्याप्तियुक्तः, स च यदि वीतरागस्तदा ज्ञानावरणं न बनाति यदि पुनरितरस्तदा भाति ततः स्यादित्युक्तम्, 'असपणी बंधइ'त्ति मनःपर्याप्तिविकलो बन्नात्येव 'नोसन्नीनोअसन्निति केवली सिद्धश्च न बध्नाति हेत्वभावात्, 'वेय| णिलं हेडिल्ला दो बंधंति'त्ति सम्झी असम्ज्ञी च वेदनीयं वनीतः, अयोगिसिद्धवर्जानां तद्बन्धकत्वात्, 'उवरिल्ले Educatination कर्मप्रकृत्तिः कर्मस्थितिः इत्यादिः For Penal Use Only ~ 524~ Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: शतके प्रत सूत्रांक [२३६] स्थितिः व्याख्या भयणाए'त्ति उपरितनो नोसज्ञीनोअसम्ञी, स च सयोगायोगकेवली सिद्धश्च, तत्र यदि सयोगकेवली तदा वेदनीयं GAबध्नाति यदि पुनरयोगिकेवली सिद्धो वा तदा न बध्नाति अतो भजनयेत्युक्तम् , 'आउगं हेडिल्ला दो भयणाए'त्ति हा उद्देशः३ दि कर्मप्रकृतियापति सम्झी असम्झी चायुः स्वाभीतः, अन्तर्मुहूर्तमेव तद्वन्धनात्, "उचरिल्ले न बंधइत्ति केवली सिद्धश्वायुर्न बना तीति ।। भवसिद्धिकद्वारे "भवसिद्धिए भषणाए'त्ति भवसिद्धिको यो वीतरागः स न बनाति ज्ञानावरणं तदन्यस्तु SITY ॥२५६॥ भव्यो वभातीति भजनयेत्युक्तं 'नो भवसिद्धिएनोअभवसिद्धिए'त्ति सिद्धा, स च न बनाति, 'आउयं दो हेहि. हल्ला भयणाए'त्ति भन्योऽभव्यश्चायुर्वन्धकाले बन्नीतोऽन्यदा तु न वनीत इत्यतो भजनयेत्युक्तम्, 'उवरिल्ले न बंधह'त्ति है सिद्धो न बनातीत्यर्थः ।। दर्शनद्वारे 'हेहिल्ला तिपिण भयणाए'त्ति चक्षुरचक्षुरवधिदर्शनिनो यदि छद्मस्थवीतरागास्तदा जान ज्ञानावरणं बान्ति, वेदनीयस्यैव बन्धकत्वात्तेपा, सरागास्तु बन्नन्ति अतो भजनयेत्युक्तम्, 'उवरिल्ले न बंधईत्ति केकदिलदर्शनी भवतः सिद्धो वा न बनाति, हेत्वभावादित्यर्थः, 'वेयणिज्ज हेडिल्ला तिन्नि बंधति'ति आद्यास्त्रयो दर्शनिन छमस्थवीतरागाः सरामाश्च वेदनीयं बनन्त्येव, 'केवलदसणी भयणाए'त्ति केवलदर्शनी सयोगिकेवली बभ्राति अयोगिकेवली सिद्धश्च वेदनीयं न बनातीति भजनयेत्युक्तम् । पर्याप्तकद्वारे 'पज्जत्तए भयणाए'त्ति पर्याप्तको वीतरागः सरागश्च स्वात्तत्र वीतरागो ज्ञानाचरणं न बनाति सरागस्तु बनाति ततो भजनयेत्युक्तं, 'नोपजत्तएनोअपञ्जत्तए न 18॥२५६॥ पंधईत्ति सिद्धो न बभातीत्यर्थः, 'आउगं हेठिल्ला दो भयणाए'त्ति पर्याप्तकापर्याप्तकावायुस्तद्वन्धकाले बक्षीतोऽन्यदा शानेति भजना, 'उवरिल्ले नेति सिद्धो न बनातीत्यर्थः ॥ भाषकद्वारे 'दोचि भयणाए'त्ति भाषको-भाषालब्धिमांस्तद CE ESXXXSE**** दीप अनुक्रम [२८३] IN सा | कर्मप्रकृत्तिः, कर्मस्थिति: इत्यादिः ~525 Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३६] % % दीप अनुक्रम [२८३] 56464%ACK न्यस्त्वभाषका, तत्र भाषको वीतरागो ज्ञानावरणीयं न वनाति सरागस्तु बध्नाति अभाषकस्स्वयोगी सिद्धच न वनाति पृथिध्यादयो विग्रहगत्यापनाच वनन्तीति 'दोवि भयणाएं' इत्युक्तं, 'बेयणिजं भासए बंधई'त्ति सयोग्यवसानस्यापि | भाषकस्य सद्वेदनीयपम्धकत्वात् 'अभासए भयणाए'त्ति अभाषकस्वयोगी सिद्धच न बनाति पृथिव्यादिकस्तु बनातीति भजना ॥ परीत्तद्वारे 'परीत्ते भयणाए'त्ति 'परीत्तः प्रत्येकशरीरोऽल्पसंसारो वा सच वीतरागोऽपि स्यात्न चासौ ज्ञानावरणीयं बनाति सरागपरीतस्तु बन्नातीति भजना, 'अपरित्ते बंधह'सि 'अपरीत्तः साधारणकायोऽनन्तससारो वा, स च वभाति, नोपरिसेनोअपरित्ते न बंधह'त्ति सिद्धो न बनातीत्यर्थः 'आर्य परीत्तोवि अपरितोषि भयणाए'त्ति प्रत्येकशरीरादिः आयुर्वन्धकाल एवायुबंधातीति न तु सर्वदा ततो भजना, सिद्धस्तु न बनात्येवेत्यत आह-'णो परित्तें'इत्यादि । ज्ञानद्वारे 'हिडिल्ला चत्तारि भयणाए'त्ति आभिनिवोधिकज्ञानिप्रभृतयश्चत्वारो ज्ञानिनो ज्ञानावरणं वीतरागावस्थायां न बनन्तीति सरागावस्थायां तु बनन्तीति भजना, 'वेयणिज्ज़ हेडिल्ला चत्तारिवि बंधति त्ति वीतरागाणामपि छद्मस्थानां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् , 'केवलनाणी भयणाए'ति सयोगिकेवलिना वेदनीयस्य बन्धनादयोगिनां सिद्धानां चाबन्धनाजनेति ॥ योगद्वारे 'हेछिल्ला तिन्नि भयणाए'त्ति मनोवाकाययोगिनो ये उपशान्तमो हक्षीणमोहसयोगिकेवलिनस्ते ज्ञानावरणं न वनन्ति तदन्ये तु बनन्तीति भजना 'अजोगी न बंधह'त्ति अयोगी फेवली | द्र सिद्धश्च न बनातीत्यर्थः, 'पणि हेहिल्ला बंधति'त्ति मनोयोग्यादयो बन्नन्ति सयोगानां वेदनीयस्य बम्धकत्वात्, 'अयोगी ण बंधईत्ति अयोगिनः सर्वकर्मणामबन्धकत्वादिति ॥ उपयोगद्वारे 'अट्ठसुवि भयणाएं सि साकारानाका 65-4544%95 SARERatinintenarama | कर्मप्रकृत्तिः, कर्मस्थिति: इत्यादिः ~5264 Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [२३६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: स्थितिः प्रत सूत्रांक [२३६]] दीप अनुक्रम [२८३] व्याख्या- धाकालवर्जितः कर्मनिषेककालो भवति, एवमन्यकर्मस्वप्यबाधाकालो व्याख्येयो, नवरमायुषि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि ६ शतके प्रज्ञप्तिः निषेकापूर्वकोटी त्रिभागश्चाबाधाकाल इति । 'वेयणिजं जहन्नेणं दो समय'त्ति केवलयोगप्रत्ययवधापेक्षया वेदनीय अभयदेवी- द्विसमयस्थितिकं भवति, एकत्र बध्यते द्वितीये वेद्यते, यच्चोच्यते 'वेयणियस्स जहन्ना वारस नामगोयाण अह(उ)मुहुत्त'त्ति दू कर्मप्रकृतिया वृत्तिः१ तत्सकषायस्थितिबन्धमाश्रित्येति वेदितव्यमिति ॥ सू २३६ ॥२५७॥ नाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ पुरिसो बंधइ नपुंसओ बंधइ ? णोइत्थी नोपुरिसो नोनपुं सओ बंधह, गोयमा ! इत्थीवि बंधद पुरिसोवि बंधइ नपुंसओवि बंधइ नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसओ सिय बंधइ सिय नो बंधइ एवं आउगवजाओ सत्स कम्मप्पगडीओ॥ आउगे भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधा | पुरिसो बंधा नपुंसओ बंधह०१ पुच्छा, गोयमा ! इत्थी सिय बंधह सिय नो बंधह, एवं तिन्निवि भाणियचा, || 2 नोइत्थी नोपुरिसो नोनपुंसओ न बंध ॥णाणावरणिजणं भंते ! कम्मं किं संजए बंधह असंजए एवं संजयासंजए बंधह नोसंजयनोअसंजएनोसंजयासंजए बंधति !, गोयमा। संजए सिय बंधति सिय नो बंधति असंजए बंधह संजयासंजएवि बंधइ नोसंजएनोअसंजएनोसंजयासंजए न बंधति, एवं आउगवजाओ लसत्तवि, आउगे हेडिल्ला तिन्नि भयणाए उवरिल्ले ण बंधइ ।। णाणावरणिज्नं णं भंते ! कम्मं किं सम्मदिट्टी ||२५७॥ बंधद मिच्छद्दिट्टी बंधइ सम्मामिच्छदिट्ठी बंधद, गोयमा ! सम्मदिट्टी सिय बंधइ सिय नो बंधा मिच्छविट्ठी आबंधइ सम्मामिच्छदिट्ठी बंधइ, एवं आउगवजाओ सत्तवि, आऊए हेडिल्ला दो भयणाए सम्मामिच्छदिट्टी M Kil ज्ञानावरणियादि: कर्मन: बंधका: ~527~ Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] न बंधइ ॥णाणावरणिजं किं सपणी बंधइ असन्नी बंधइ नोसण्णीनोअसण्णी बंधह?, गोयमा ! सन्नी सिय 81 |बंधइ सिय नो बंधइ असन्नी बंधइ नोसन्नीनोअसन्नी न बंधइ, एवं वेदणिज्जाउगवजाओ छ कम्मप्पगडीओ, वेदणिजं हेडिल्ला दो बंधंति, उवरिल्ले भयणाए, आउगं हेडिल्ला दो भयणाए, उवरिल्लो न बंधइ ॥णाणाव रणिनं कम्मं किं भवसिद्धीए बंधह अभवसिद्धीए बंधइ नोभवसिद्धीएनोअभवसिहीए बंधति, गोयमा||8 &भवसिद्धीए भयणाए अभवसिद्धीए बंधति नोभवसिडीएनोअभवसिद्धीए न बंधह, एवं आउगवजाओ सत्तवि, आउगं हेडिल्ला दो भयणाए उवरिल्लोन बंधइ॥णाणावरणिनं किं चक्खुदसणी बंधति अचक्खुदंस० ओहिदंस० केवलदं०१, गोयमा! हेहिल्ला तिन्नि भयणाए उवरिल्ले ण बंधइ, एवं वेदणिज्जवजाओ सत्तवि, वेदणिज्नं हेहिल्ला तिन्नि बंधति केवलदसणी भयणाए । णाणावरणिज्जं कम्मं किं पज्जत्तओ बंधह अपज्जत्तओ बंधड नोपज्जत्तएनोअपजत्तए बंधह, गोयमा ! पजत्तए भयणाए, अपजत्तए बंधह, नोपजत्तएनोअपज्जत्तए ४ान बंधइ, एवं आउगवजाओ, आउगं हेडिल्ला दो भयणाए उवरिल्ले ण बंध ॥ नाणावरणिजं किं भासपा बंधइ अभासए.१, गोयमा ! दोचि भयणाए, एवं वेदणियवजाओ सत्त, वेदणिज्ज भासए बंधइ अभासए भयणाए ॥णाणावरणिज्जं किं परिसे बंधइ अपरित्ते बंधइ नोपरित्तेनोअपरित्ते बंधड?, गोयमा ! परित्ते || | भयणाए अपरित्ते बंधा नोपरित्तेनोअपरित्ते न बंधह, एवं आउगवजाओ सत्त कम्मप्पगडीओ, आउए परि-18 सोवि अपरित्तोवि भयणाए, नोपरित्तोनोअपरित्तो न बंधइ ॥णाणावरणिज कम्मं किं आभिणिबोहिय 5454555555 दीप अनुक्रम [२८४] Presumitaram.org ज्ञानावरणियादि: कर्मन: बंधका: ~528~ Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [३], मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३७] ધરપઢા दीप अनुक्रम [२८४] नाणी बंधा सुचनाणी जोहिनाणी मणपज्जवनाणी केवलनाणी पं०?,गोषमा! हेहिल्ला चत्तारि भयणाए केव- शतके दिलनाणी न बंधह, एवं वेदणिजबज्माओ सत्तवि, वेदगिलं हेहिल्ला चत्तारि बंधंति केबलनाणी भयणाए।गाणा-131 उद्देशः३ अभयदेवी- वरणिलं किं मतिअनाणी बंधइ सुय० विभंग, गोयमा ! (सबेचि) आउगवजाओ सत्तघि बंधति, माउस ख्यादीनां यावृत्तिःभयणाए ॥णाणावरणिजं किं मणजोगी बंधइ वय काय अजोगी बंघह, गोयमा! हेडिल्ला तिति भय ज्ञानावर पटणादिबन्ध|णाए अजोगीन पंधह, एवं वेदणिज्जबज्जाओ, वेदखिलं हेडिल्ला बंधति अजोगी न बंधह ॥णाणावरणिज|3|| कतेतरे किं सागारोवउसे बंधइ अणागारोषउत्ते बंधइ', गोयमा ! अट्ठसुषि भयणाए ॥णाणावरणिज्ज किं आहा-IC | सू २३७ रए बंधइ अगाहारए बंधह, गोयमा ! दोवि भयणाए, एवं वेदणिज्जाआउगवजाणं छण्हं, वेदणिज आहारए बंधति अणाहारए भयणाए, आउए आहारए भयणाए, अणाहारए न बंधति ॥णाणावरणिज्ज किं सुष्टुमे बंधड़ पायरे बंधड नोमुहुमेनोषादरे बंधह, गोयमा ! सुहमे बंधइ बायरे भयणाए नोमुहुमेनोबादरेन बंधह, एवं आउगवज्जाओ ससचिव, आउए सुहुमे यायरे भयणाए नोमुहमेनोबायरे ण पंधर।। ॥णाणावरणिकं किं चरिमे अचरिमे बं०१, गोयमा! अढवि भयणाए ॥ (सूत्रं २३७) ॥२५॥ स्त्रीद्वारे 'णाणावरणिणं भंते ! कम्मं किं इत्थी बंधइ'इत्यादि प्रश्नः, तत्र न स्त्री न पुरुषो न नपुंसको वेदोदयरहितः, स चानिवृत्तिवादरसम्परायप्रभृतिगुणस्थानकवत्ती भवति, तत्र चानिवृत्तिबादरसम्परायसूक्ष्मसम्परायी ज्ञानावरणीयस्य बन्धको सतविधषविधवन्धकत्वात् , उपशान्तमोहादिष्व(त्स्व)बन्धक एकविधबन्धकत्वात् , अत उक्तं स्माद्ध MCG ज्ञानावरणियादि: कर्मन: बंधका: ~529~ Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: CSCAR प्रत सूत्रांक [२३७] E5 दीप अनुक्रम [२८४] है नेति भजनेति ॥ आहारकद्वारे 'दोवि भयणाए'त्ति आहारको वीतरागोऽपि भवति न चासौ ज्ञानावरण वनाति सरागस्तु बभातीति आहारको भजनया बनाति, तथाऽनाहारका केवली विग्रहगत्यापन्नश्च स्थाचत्र केवली न बध्नाति इतरस्तु बनातीति अनाहारकोऽपि भजनयेति । 'वेयणिज्ज आहारए बंधह'त्ति अयोगिवर्जानां सर्वेषां वेदनीयस्य बन्धकत्वात् , 'अणाहारए भयणाए'त्ति अनाहारको विग्रहगत्यापन्नः समुद्घातगतकेवली च वनाति अयोगी सिद्धश्चन बनातीति भजना, 'आउए आहारए भयणाए'त्ति आयुर्वन्धकाल एवायुषो बन्धनात् अन्यदा त्वबन्धकत्वानजनेति 'अणाहारए ण बंधति'त्ति विग्रहगतिगतानामप्यायुष्कस्थावन्धकत्वादिति ॥ सूक्ष्मद्वारे 'थायरे भयणाए'त्ति वीतरागवा दराणां ज्ञानावरणस्यावन्धकरवात् सरागबादराणां च बन्धकत्वाइजनेति, सिद्धस्य पुनरवन्धकत्वादाह-'नो सुद्धमेल Cइत्यादि, 'आउए सहमे बापरे भयणाए'त्ति बन्धकाले बन्धनादन्यदा त्वबन्धनाद् भजनेति ।। चरमद्वारे 'अहविग भयणाए'त्ति, इह यस्य चरमो भवो भविष्यतीति स चरमः, यस्य तु नासौ भविष्यति सोऽचरमः, सिद्धश्चाचरमः, शाचरमभवाभावात् , तत्र चरमो यथायोगमष्टापि बनाति अयोगित्वे तु नेत्येवं भजना, अचरमस्तुः संसारी अष्टापि बनाति || सिद्धस्तु नेत्येवमन्त्रापि भजनेति ॥ । एएसिणं भंते । जीवाणं इत्थिचेदगाणं पुरिसवेदगाणं नपुंसगवेदगाणं अवेयगाण य कयरे २ अप्पा वा ४१, गोयमा ! सच्चस्थोवा जीवा पुरिसवेदगा इत्यिवेद्गा संखेज्जगुणा अवेद्गा अर्णतगुणा नपुंसगवेदगा अणंत N CE SAREauratonintothariana ज्ञानावरणियादि: कर्मन: बंधका: ~530~ Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [३], मूलं [२३८] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३८] ॥२५९॥ व्याख्या-12 गुणा ॥ एएसिं सधेसि पदाणं अप्पबहुगाई उच्चारेयवाई जाव सबत्योवा जीवा अचरिमा चरिमा अणतगुणा। ६ शतके प्रज्ञप्तिः । सेवं भंते ! सेवं भंते ! सि (सूत्रं २३८) ॥ छहसए तइओ उद्देसो समत्तो ॥६-३॥ उद्देशः ३ अभयदेवी ४ वेदाद्यल्प या वृत्तिः१] __ अधाल्पबहत्त्वद्वार, तत्र 'इत्थीवेयगा संखेजगुणे ति यतो देवनरतिर्यपुरुषेभ्यः तस्त्रियः क्रमेण द्वात्रिंशत्सप्तविंश सू२३८ तित्रिगुणा द्वात्रिंशत्सप्तविंशतित्रिरूपाधिकाश्च भवन्तीति, 'अवेयगा अणंतगुण'त्ति अनिवृत्तिबादरसम्परायादयः सिद्धाचावेदा अत(द)स्वात् ,() खीवेदेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति, नपुंसगवेयगा अर्णतगुण'त्ति अनन्तकायिकानां सिद्धेभ्योऽनंत- गुणानामिह गणनादिति। एएसिसवेसिमित्यादि, एतेषां' पूर्वोक्तानां संयतादीनां चरमान्तानां चतुर्दशानां द्वाराणां तद्गत-| भेदापेक्षयाऽल्पबहुत्वमुच्चारयितव्यं, तद्यथा-'एएसि णं भंते ! संजयाणं असंजयाणं संजयासंजयाण नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजयाणं कयरे कयरेहितो अप्पा वा बहुया वा ४?, गोयमा सबत्थोवा संजया संजयासंजया असंखेज्जगुणा नोसंजयनो| असंजयनोसंजयासंजया अणंतगुणा असंजया अणतगुणा' इत्यादि प्रज्ञापनानुसारेण वाच्यं यावचरमाचल्पबहुत्वं, एतदेवाह-'जाव सबथोवा जीवा अचरिमे'त्यादि, अत्राचरमा भव्याः चरमाश्च ये भव्याश्चरम भर्व प्राप्स्यन्ति-सेत्स्यन्तीत्यर्थः। ॥२५॥ ते चाचरमेभ्योऽनन्तगुणाः, यस्मादभव्येभ्यः सिद्धा अनन्तगुणा भणिताः, यावन्तश्च सिद्धास्तावन्त एव चरमाः, यस्मायावन्तः सिद्धा अतीताद्धायां तावन्त एव सेत्स्यन्त्यनागताद्धायामिति ॥ षष्ठशते तृतीयः ॥६-३॥ दीप अनुक्रम [२८५] 4000000 अनन्तरोद्देशके जीवो निरूपितोऽथ चतुर्थोद्देशकेऽपि तमेव भजयन्तरेण निरूपयशाह अत्र षष्ठ-शतके तृतीय-उद्देशकः समाप्त: अथ षष्ठ-शतके चतुर्थ-उद्देशक: आरम्भ: ~531~ Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [२८६] जीवे णं भंते ! कालाएसेणं किं सपदेसे अपदेसें ?, गोयमा ! नियमा सपदेसे । नेरतिए णं भंते ! काला-12 | देसेणं किं सपदेसे अपदेसे ?, गोयमा ! सिय सपदेसे सिय अपदेसे, एवं जाव सिद्धे । जीवा णं भंते ! काला|| देसेणं किं सपदेसा अपदेसा, गोयमा! नियमा सपदेसा । नेरइया णं भंते ! कालादेसेणं किं सपदेसा ट्रा अपदेसा?, गोयमा ! सवि ताव होजा सपदेसा १ अहवा सपएसा य अपदेसे य२ अहवा सपदेसा य अपदेसा य ३, एवं जावथणियकुमारा ॥ पुढविकाइया णं भंते ! किंसपदेसा अपदेसा, गोयमा सपदेसावि अपदेसावि, एवं जाव वणप्फइकाइया, सेसा जहा नेरइया तहा जाब सिद्धा॥ आहारगाणं जीवेगेंदियवजो तिय[४|| भंगो, अणाहारगाणं जीवेगिदियवजा उम्भंगा एवं भाणियवा-सपदेसा वा १ अपएसा वा २ अहवा सपदेसे य ★ अप्पदेसे य ३ अहवा सपदेसे य अपदेसाय ४ अहवासपदेसा य अपदेसे य ५ अहवा सपदेसा य अपदेसा य Wils. सिद्धेहि तियभंगो, भवसिद्धिया अभवसिद्धिया [भवसिद्धिया] जहा ओहिया, नोभवसिद्धियनोअभवसि|| द्धिया जीवसिद्धेहिं तियभंगो, सण्णीहि जीवादिओ तियभंगो, असपणीहिं एगिदियवजो तिय भंगो, नेरहय* देवमणुएहि छम्भंगो, नोसन्निनोअसन्निजीवमणुयसिद्धेहिं तियभंगो सलेसा जहा ओहिया ॥ कपहलेस्सानील लेस्सा काउलेस्सा जहा आहारओ नवरं जस्स अस्थि एयाओ, तेउलेस्साए जीवादिओ तियभंगो, नवरं पुढविकाइएसु आउवणप्फतीसु छन्भंगा, पम्हलेसमुक्कलेस्साए जीवादिओहिओ लियभंगो, अलेसीहिं जीवसिद्धेहिं । |तियभंगो मणुस्से उभंगा, सम्मदिद्विहिं जीवाइतियभंगो, विगलिं दिएसु छन्भंगा, मिच्छदिविहिं एगिदिय ॐॐॐॐॐॐॐ ~532~ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२३९] दीप अनुक्रम [२८७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [ २३९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२६०॥ वज्जो तियभंगो सम्मामिच्छदिद्विहिं छन्भंगा, संजएहिं जीवाइओ तियभंगो, असंजपहिं एर्गिदियवज्जो तियभंगो, संजपासंजपहिं तियभंगो जीवादिओ, नोसंजयनोअसंजयनोसंजयासंजय जीवसिद्धेहिं तियभंगो, सकसाईहिं जीवादिओ तियभंगो, एगिंदिएस अभंग, कोहकसाईहिं जीवएगिंदिपवज्जो तियभंगो, | देवेहिं छभंगा, माणक साईमायाकसाई जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरतियदेवेहिं छन्भंगा, लोभकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो, नेरतिएस छन्भंगा, अकसाईजीवमगुएहिं सिद्धेहिं तियभंगो, ओहियनाणे आभिणियोहियनाणे सुचनाणे जीवादिओ तियभंगो विगलिंदिएहिं छन्भंगा, ओहिनाणे मण० केवलनाणे जीवादिओ तियभंगो, ओहिए अन्नाणे मतिअण्णाणे सुयअण्णाणे एर्गिदियवज्जो तियभंगो, विभंगनाणे जीवादिओ तियभंगो, सजोगी जहा ओहिओ, मणजोगी वयजोगी कायजोगी जीवादिओ तियभंगो नवरं कायजोगी एगिंदिया तेसु अभंगकं, अजोगी जहा अलेसा, सागारोवउत्ते अणागारोवउत्ते जीव एगिंदियवज्जो तियभंगो सवेयगा य जहा सकसाई, इत्थिवेयगपुरिसचे यगनपुंसगवेपगेसु जीवादिओ तिथभंगो, नवरं नपुंसगवेदे एर्गिदिएस अभंगयं, अवेयगा जहा अकसाई, ससरीरी जहा ओहिओ, ओरालियवेडधियसरीराणं जीवएगिंदियवज्जो तियभंगो, आहारगसरीरे जीवमणुएस छन्भंगा, तेयगकम्मगाणं जहा ओहिया, असरीरेहिं जीवसिद्धेहिं तियभंगो, आहारपज्जतीए सरीरपज्जत्तीए इंदियपजत्तीए आणापाणुपज्जन्तीए जीवएगिंदियवज्जो तियभंगो, भासमणपातीए जहा सण्णी, आहार अपजत्तीए जहा अणाहारगा, सरीरअपजत्तीए Education International For Parts Only ~533~ ६ शतके उद्देशः जीवादीनां सप्रदेशत्वा दिः सू२३९ ॥२६० ॥ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [२३९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] 000 गाथा | इंदियअपवत्तीए आणापाणअपज्जत्तीए जीवेगिदियवज्जो तियभंगो, नेरइयदेवमणुएहिं छन्भंगा, भासामण अपज्जत्तीए जीवादिओ तियभंगो, णेरड्यदेवमणुएहिं छन्भंगा ॥ गाहा-सपदेसा आहारगभवियसनिलेस्सा |दिही संजयकसाए । णाणे जोगुवओगे वेदे य सरीरपज्जत्ती ॥१॥ (सूत्रं २३९) 'जीवेण' मित्यादि, 'कालाएसेणं'ति कालप्रकारेण कालमाश्रित्येत्यर्थः 'सपएसे'त्ति सविभागः'नियमा सपएसेशि ४ अनादित्वेन जीवस्यानन्तसमयस्थितिकत्वात् सप्रदेशता, यो ोकसमयस्थितिः सोऽप्रदेशः स्यादिसमयस्थितिस्तु सप्रदेशा, इह चानया गाथया भावना कार्या-"जो जस्स पढमसमए बद्दति भावस्स सो उ अपदेसो । अण्णम्मि वट्टमाणो कालाएसेण सपएसो ॥१॥"[यो यस्य प्रथमसमये बचते भावस्य स त्वप्रदेशः । अन्यस्मिन् वर्तमानः कालादेशेन । || सप्रदेशः॥१॥] नारकस्तु यः प्रथमसमयोत्पन्नः सोऽप्रदेशः व्यादिसमयोत्पन्नः पुनः सप्रदेशोऽत उक्तं 'सिय सप्पएसेट। है सिय अप्पएसे' एष तावदेकत्वेन जीवादिः सिद्धावसानः पडूविंशतिदण्डकः कालतः सप्रदेशत्वादिना चिन्तितः, अथाकायमेव तथैव पृथक्त्वेन चिन्त्यते-'सवेवि ताव होज सपएस'त्ति उपपातविरहकालेऽसङ्ख्यातानां पूर्वोत्पन्नानां भावा४ सर्वेऽपि सप्रदेशा भवेयुः, तथा पूर्वोत्पन्नेषु मध्ये यदेकोऽप्यन्यो नारक उत्पद्यते तदा तस्य प्रथमसमयोत्पन्नत्वेनाप्रदेशIM स्वात् शेषाणां च श्यादिसमयोत्पनत्वेन सप्रदेशत्वाद् उच्यते-'सप्पएसा य अपएसे यति, एवं यदा बहव उत्पद्यमाना भवन्ति ते तदोच्यन्ते 'सपएसा य अप्पएसा यत्ति, उत्पद्यन्ते चैकदैकादयो नारकाः, यदाह-"एगो व दो व तिन्नि व संखम-8 संखा व एगसमएणं । उववजन्तेवइया उबटुंतावि एमेव ॥१॥"[एको वा द्वौ वा प्रयो वा संख्याता असंख्याता दीप अनुक्रम [२८६-२८७] ~534~ Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] गाथा वैकसमयेन । उत्पद्यन्त एतावम्त उद्वर्तमाना अप्येवमेव ॥१॥] 'पुढविकाइया ण'मित्यादि. एकेन्द्रियाणां पर्वोत्पन्ना-18. ६ शतके प्रज्ञप्तिः का नामुत्पद्यमानानां च बहूनां सम्भवात् 'सपएसावि अप्पएसावी'त्युच्यते 'सेसा जहा नेरइए'त्यादि, यथा नारका | है। उद्देशः४ अभयदेवी ४|| अभिलापत्रयेणोक्तास्तथा शेषा द्वीन्द्रियादयः सिद्धावसाना वाच्याः, सर्वेषामेषां विरहसद्भावादेकाद्युत्पत्तेश्चेति । एवमाहा-IN या वृत्तिः &ारकानाहारकशब्दविशेपितावेतावेकत्वपृथक्त्वदण्डकावध्येयौ, अध्ययनक्रमश्चायम्-'आहारए णं भंते ! जीवे कालापसेणं किं दिसू२३९ ॥२६॥ | सपएसे २१, गोयमा० सिय सप्पएसे सिय अप्पएसे'इत्यादि स्वधिया वाच्याः, तत्र यदा विग्रहे केवलिसमुद्घाते वाऽनाहारको भूत्वा पुनराहारकत्वं प्रतिपद्यते तदा तत्प्रथमसमयेऽप्रदेशो द्वितीयादिषु तु सप्रदेश इत्यत उच्यते-सिय सप्पएसे । सिय अप्पएसे'त्ति, एवमेकत्वे सर्वेष्वपि सादिभावेषु, अनादिभावेषु तु 'नियमा सप्पएसें'त्ति वाच्यं । पृथक्त्व-15 दण्डके वेवमभिलापो दृश्यः-आहारया णं भंते ! जीवा कालाएसेणं किं सम्पएसा अप्पएसा, गोयमा सप्पए- | साधि अप्पएसाविति तत्र बहूनामाहारकत्वेनावस्थितानां भावात्सप्रदेशत्वं तथा बहूनां विग्रहगतेरनन्तरं प्रथमसमये आहारकत्वसम्भवादप्रदेशत्वमप्याहारकाणां लभ्यत इति सप्रदेशा अपि अप्रदेशा अपीत्युक्तं, एवं पृथिव्यादयोऽप्यध्येयाः, नारकादयः पुनर्विकल्पत्रयेण वाच्याः, तद्यथा-'आहारया [f] भंते !नेरइया णं किं सप्पएसा अप्पएसा, गोयमा ! सबेऽवि ॥२६॥ ताव होज सप्पएसा १ अहवा सप्पएसा य अप्पएसे य २ अहवा सप्पएसा व अप्पएसा येति ३, एतदेवाह-आहारगाणं है। जीवेगिंदियवज्जो तियभंगों' जीवपदमेकेन्द्रियपदपञ्चकं च वर्जयित्वा त्रिकरूपो भङ्गात्रिकभङ्गो-भङ्गत्रयं वायमित्यर्थः, सिद्धपदं त्विह न वाच्यं, तेषामनाहारकत्वात् , अनाहारकदण्डकद्वयमप्येवमनुसरणीयं, तत्रानाहारको विग्रहगल्यापन्नः समु दीप अनुक्रम [२८६-२८७] ~535~ Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] गाथा SO540456456 दातगतकेवली अयोगी सिद्धो वा स्यात् , स चानाहारकत्वप्रथमसमयेऽप्रदेशः द्वितीयादिषु तु सप्रदेशस्तेन स्यात् सप्रदेश इत्याधुच्यते । पृथक्वदण्डके विशेषमाह-'अणाहारगा 'मित्यादि, जीवानेकेन्द्रियांश्च वर्जयन्तीति जीवैकेन्द्रि-13 यवर्जाः, तान वर्जयित्वेत्यर्थः, जीवपदे एकेन्द्रियपदे च 'सपएसा य अप्पएसा येत्येवरूप एक एव भङ्गको, बहूनां 8 विग्रहगत्यापन्नानां सप्रदेशानामप्रदेशानां च लाभात्, नारकादीनां द्वीन्द्रियादीनां च स्तोकतराणामुत्पादः, तत्र चैकल्या| दीनामनाहारकाणां भावात् पइभजिकासम्भवः, तत्र द्वौ बहुवचनान्तौ अन्ये तु चत्वार एकवचनबहुवचनसंयोगात्, | केवलैकवचनभङ्गकाविह न स्तः, पृथक्त्वस्याधिकृतत्वादिति । 'सिद्धेहिं तियभंगो'त्ति सप्रदेशपदस्य बहुवचनान्तस्यैव सम्भ वात् , 'भवसिद्धी य अभवसिद्धी य जहा ओहिय'त्ति, अयमर्थः-औधिकदण्डकवदेषां प्रत्येकं दण्डकद्वयं, तत्र च भव्योॐ भव्यो वा जीवो नियमात्सप्रदेशः, नारकादिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा, बहवस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभङ्ग| वन्तः, एकेन्द्रियाः पुनः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येकभङ्ग एवेति, सिद्धपदं तु न वाच्यं, सिद्धानां भव्याभव्यविशेषणानुप| पत्तेरिति । तथा 'नोभवसिद्धियनोअभवसिद्धियत्ति एतद्विशेषणं जीवादिदण्डकद्वयमध्येयं, तत्र चाभिलाप:-'नोभवसिद्वीएनोअभवसिद्धिए णं भंते ! जीवे सप्पएसे अप्पएसे ?' इत्यादि, एवं पृथक्त्वदण्डकोऽपि, केवलमिह जीवपदं सिद्धपदं चेति द्वयमेव, नारकादिपदानां नोभन्यनोअभव्यविशेषणस्यानुपपत्तेरिति, इह च पृथक्त्वदण्डके पूर्वोतं भङ्गकत्रयमनुसर्त्तव्यमत एवाह-'जीवसिद्धेहि तियभंगोंत्ति । सजिषु यो दण्डको तयोद्धितीयदण्डके जीवादिषदेषु भङ्गत्रयं भवतीत्यत आह-'सपणीहि'इत्यादि, तत्र सम्झिनो जीवाः कालतः सप्रदेशा भवन्ति चिरोत्पन्नानपेक्ष्य उत्पादविरहानन्तरं चैक दीप अनुक्रम [२८६-२८७] 9604 wireluctaram.org ~536~ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२३९] + गाथा दीप अनुक्रम [ २८६ -२८७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [ २३९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञसिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२६२॥ | स्योत्पत्तौ तत्माथम्ये सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्चेति स्यात्, बहूनामुत्पत्तिप्राथम्ये तु सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेति स्यात्, तदेवं भङ्गकत्रय| मिति, एवं सर्वपदेषु, केवलमेतयोर्दण्ड कयोरे केन्द्रियविकलेन्द्रिय सिद्धपदानि न वाध्यानि तेषु सञ्ज्ञिविशेषणस्यासम्भवादिति, 'असन्नी हिं' इत्यादि, अयमर्थः - असज्ञिषु असज्ञिविषये द्वितीयदण्डके पृथिव्यादिपदानि वर्जयित्वा भङ्गकत्रयं प्राग् | दर्शितमेव वाच्यं पृथिव्यादिपदेषु हि सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव, सदा बहूनामुत्पत्त्या तेषामप्रदेश बहुत्वस्यापि सम्भ बातू, नैरयिकादीनां च व्यन्तरान्तानां सम्ज्ञिनामप्यसञ्ज्ञित्वमसञ्ज्ञिभ्य उत्पादाद्भूतभावतयाऽवसेयं, तथा नैरयिकादि- ४ दिः सू२३९ ध्वसञ्ज्ञित्वस्य कादाचित्कत्वेनैकस्य हुत्वसम्भवात्पडू भङ्गा भवन्ति, ते च दर्शिता एव एतदेवाह - 'नेरहयदेवमणुए' इत्यादि, ज्योतिष्क वैमानिकसिद्धास्तु न वाध्यास्तेषामसञ्ज्ञित्वस्यासम्भवात्, तथा नोसञ्ज्ञिनोअसञ्ज्ञिविशेषणदण्ड कयोर्द्वि| तीयदण्डके जीवमनुज सिद्धपदेषूतरूपं भङ्गकत्रयं भवति, तेषु बहूनामवस्थितानां लाभादुत्पद्यमानानां चैकादीनां सम्भवादिति, एतयोश्च दण्डकयो जीवमनुजसिद्धपदान्येव भवन्ति, नारकादिपदानां नोसम्झीनो असभ्ज्ञीति विशेषणस्याघटनादिति, सलेश्यदण्डकद्वये अधिकदण्डकवज्जीवनारकादयो वाथ्याः, सलेश्यतायां जीवत्यवदनादित्वेन विशेषानुत्पादकत्वात् केवलं सिद्धपदं नाधीयते, सिद्धानामलेश्यत्वादिति, कृष्णलेश्या नीललेश्याः कापोतलेश्याश्च जीवनारकादयः प्रत्येकं | दण्डकद्वयेनाहारक जीवादिवदुपयुज्य वाच्याः, केवलं यस्य जीवनारकादेरेताः सन्ति स एव वाच्यः, एतदेवाह - 'कण्हलेसे'त्यादि, एताश्च ज्योतिष्कवैमानिकानां न भवन्ति सिद्धानां तु सर्वा न भवन्तीति तेजोलेश्याद्वितीयदण्डके जीवा| दिपदेषु त एव त्रयो भङ्गाः पृथिव्यबूवनस्पतिषु पुनः षड् भङ्गाः, यत एतेषु तेजोलेश्या एकादयो देवाः पूर्वोत्पन्ना उत्प For Pernal Use On ~ 537~ ६ शतके उद्देशः ४ जीवादीनां सप्रदेशत्वा ॥२६२॥ org Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] गाथा धमानाञ्च लभ्यन्त इति सप्रदेशानामप्रदेशानां चैकत्वबहुत्वसम्भव इति, एतदेवाह-'तेउलेसाए' इत्यादि, इह नारकतेजोवायुविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यानि, तेजोलेश्याथा अभावादिति, पद्मलेश्याशुकलेश्ययोदितीवदण्डके जीवा-IIII दिषु पदेषु त एव त्रयो भङ्गकास्तंदेवाह-'पम्हलेसे त्यादि, इह च पश्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यवैमानिकपदान्येव वाच्यानि, अन्येष्वनयोरभावादिति, अलेश्यदण्डकयो वमनुष्यसिद्धपदान्येवोच्यन्ते, अन्येषामलेश्यत्वस्यासम्भवात् , तत्र च जीवसिद्धयोर्भङ्गकत्रयं तदेव, मनुष्येषु तु षड् भङ्गाः, अलेश्यतां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां मनुष्याणां सम्भवेन सप्रदेशत्वेऽप्रदेशत्वे चैकत्वबहुत्वसम्भवादिति, इदमेवाह-'अलेसीहिं'इत्यादि । सम्यग्दृष्टिदण्डकयोः सम्यग्दर्शनप्रतिपत्तिप्रथमसमयेऽप्रदेशवं द्वितीयादिषु तु सप्रदेशत्वं, तत्र द्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु त्रयो भङ्गाः, तथैव विकले. न्द्रियेषु तु पडू यतस्तेषु सासादनसम्यग्दृष्टय एकादयः पूर्वोत्पन्ना उत्पद्यमानाश्च लभ्यन्तेऽतः सप्रदेशत्वाप्रदेशत्वयोरेक| त्वबहुत्वसम्भव इति, एतदेवाह-सम्मदिहीही त्यादि, इहैकेन्द्रियपदानि न वाच्यानि, तेषु सम्यग्दर्शनाभावादिति, 'मिच्छविडीहिं'इत्यादि, मिथ्यादृष्टिद्वितीयदण्डके जीवादिपदेषु तु त्रयो भङ्गाः-मिथ्यात्वं प्रतिपन्ना बहवः सम्यक्त्वभ्रंशे तत्प्रतिपद्यमानाश्चैकादयः सम्भवन्तीतिकृत्वा, एकेन्द्रियपदेषु पुनः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्वेत्येक एव, तेष्ववस्थितानामुपद्यमानानां च बहूनामेव भावादिति, इह च सिद्धा न वाच्याः, तेषां मिथ्यात्वाभावादिति, सम्यग्मिथ्यादृष्टिबहुत्वदण्डके 'सम्मामिच्छदिडीहिं उन्भंगा' अयमर्थः-सम्यग्मिथ्यादृष्टित्वं प्रतिपन्नकाः प्रतिपद्यमानाश्चैकादयोऽपि लभ्यन्त इत्यतस्तेषु ष भङ्गा भवन्तीति, इह चैकेन्द्रियविकलेन्द्रियसिद्धपदानि न वाच्यान्यसम्भवादिति । 'संजएहिं'इत्यादि, 'संय दीप अनुक्रम [२८६-२८७] SAMACHAR ~538~ Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९]] गाथा व्याख्या- तेषु' संयतशब्दविशेषितेषु जीवादिपदेषु त्रिकभङ्गः, संयमं प्रतिपन्नानां बहूनां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावात् , इह शतके प्रज्ञप्तिः च जीवपदमनुष्यपदे एव वाच्ये, अन्यत्र संयतत्वाभावादिति, असंयतद्वितीयदण्डके-'असंजएही त्यादि, इहासंयतत्वं उद्देशः ४ अभयदेवी प्रतिपन्नाना बहूनां संयतत्वादिप्रतिपातेन तत्प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावाद्भङ्गकत्रयं, एकेन्द्रियाणां तु पूर्वोक्तयुक्त्या जीवादीनां वासप्रदेशाचाप्रदेशाश्चैक एव भङ्गः इति, इह सिद्धपदं नाध्येयमसम्भवादिति । संयतासंयतबहुत्वदण्ड के 'संजयासंजएहि सत्र ॥२५॥ ॥ इत्यादि, इह देशविरतिं प्रतिपन्नानां बहूनां संयमादसंयमाद्वा निवृत्य तां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां भावामङ्गकत्रय-| दिसू२३९ सम्भवः, इह जीवपश्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यपदान्येवाध्येयानि, तदन्यत्र संयतासंयतत्वस्थाभावादिति । 'नोसंजए'त्यादी || सैव भावना, नवरमिह जीवसिद्धपदे एव वाच्ये अत एवोक्तं 'जीवसिद्धेहिं तियभंगो'त्ति । 'सकसाईहिं जीवाइओ तियभंगो'त्ति, अयमर्थः-सकषायाणां सदाऽवस्थितत्वात्ते सप्रदेशा इत्येको भङ्गः, तथोपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानत्वे सकसे पायत्वं प्रतिपद्यमाना एकादयो लभ्यन्ते ततश्च सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्च तथा सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्यपरभङ्गाकद्वयमिति, नार-15 का कादिषु तु प्रतीतमेव भङ्गकत्रयम् , 'एगिदिएसु अभंगयंति अभङ्गक-भङ्गकानामभावोऽभङ्गक सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चे-* ४त्येक एव विकल्प इत्यर्थः, बहूनामवस्थितानामुत्पद्यमानानां च तेषु लाभादिति, इह च सिद्धपदं नाध्येयमकषायित्वात् , ला एवं क्रोधादिदण्डकेष्वपि, 'कोहकसाईहिं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगों'त्ति, अयमर्थ:-क्रोधकपापिद्वितीयदण्डके जीव-1X ॥२६॥ पदे पृथिव्यादिपदेषु च संप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गः शेषेषु त्रयः, ननु सकपायिजीवपदवत्कथमिह भङ्गात्रयं न लभ्यते ?, उच्यते, इह मानमायालोभेभ्यो निवृत्ताः क्रोधं प्रतिपद्यमाना बहव एव लभ्यन्ते, प्रत्येकं तद्राशीनामनन्तत्वात् ,न खेका दीप अनुक्रम [२८६-२८७] SARERainintenarana ~539~ Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] गाथा दयो यथोपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानाः सकषायित्वं प्रतिपत्तार इति । 'देवेहिं छम्भंग'त्ति देवपदेषु त्रयोदशस्वपि षड़ * भङ्गाः, तेषु कोधोदयवतामल्परवेनैकत्वे बहुत्वे च सप्रदेशाप्रदेशत्वयोः सम्भवादिति, मानकषायिमायाकषायिद्वितीयदण्डके कनेरइयदेवेहिं छम्भंग'त्ति नारकाणां देवानां च मध्येऽल्पा एव मानमायोदयवन्तो भवन्तीति पूर्वोक्तन्यायात् All पड भङ्गा भवन्तीति, 'लोहकसाईहिं जीवेगेंदियवज्जो तियभंगों'त्ति एतस्य क्रोधसूत्रवद्भावना, 'मेरइएहि ||४|| छन्भंग'त्ति नारकाणां लोभोदयवतामल्पत्वात्पूर्वोक्ताः षड् भंगा भवन्तीति, आह च-"कोहे 'माणे माया || बोद्धवा सुरगणेहिं छन्भंगा । माणे माया लोभे नेरइएहिंपि छन्भंगा ॥१॥" [१कोधे माने मायाया बोद्धव्याः | | सुरगणेषु पड़ माः । माने मायायां लोभे नैरयिकेष्वपि षड् भनाः ॥ १ ॥ ] देवा लोभप्रचुरा नारकाः क्रोध-| प्रचुरा इति, अकपायिद्वितीयदण्डके जीवमनुष्यसिद्धपदेषु भङ्गत्रयमन्येषामसम्भवात्, एतदेवाह-'अकसाई' इत्यादि । 'ओहियनाणे आभिनिवोहियणाणे सुयनाणे जीवाईओ तियभंगो'त्ति, औधिकज्ञान-मत्यादिभिरविशेपितं तत्र मतिश्रुतज्ञानयोश्च बहुत्वदण्डके जीवादिपदेषु वयो भङ्गाः पूर्वोक्ता भवन्ति, तत्रौधिकज्ञानमतिश्रुतज्ञानिनां सदाऽवस्थितत्वेन सप्रदेशानां भावात्, सप्रदेशा इत्येकः, तथा मिथ्याज्ञानान्मत्यादिज्ञानमात्र मत्यज्ञानान्मतिज्ञानं |श्रुताज्ञानाच श्रुतज्ञानं प्रतिपद्यमानानामेकादीनां लाभात्सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्च तथा सप्रदेशाच अप्रदेशाश्चेति द्वावित्येवं |त्रयमिति । 'विगले दिएहिं छन्भंग'त्ति द्वित्रिचतुरिन्द्रियेषु सासादनसम्यक्त्वसम्भवेनाभिनिबोधिकादिज्ञानिनामेकादीनां & सम्भवात्त एव षडू भङ्गाः, इह च यथायोगं पृथिव्यादयः सिद्धाश्च न वाच्याः, असम्भवादिति, एवमवध्यादिष्वपि भङ्ग CACACADCCCCCRACON 84%AE-%C3%AACCI दीप अनुक्रम [२८६-२८७] SARERatunintamatural ~540~ Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२३९] + गाथा दीप अनुक्रम [ २८६ -२८७] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [ २३९ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवी यावृत्तिः १ ॥२६४|| त्रयभावना, केवलमवधिदण्डकयोरे केन्द्रियविकलेन्द्रियाः सिद्धाश्च न वाच्याः, मनःपर्यायदण्डकयोस्तु जीवा मनुष्याश्च वाच्याः, केवलदण्डकयोस्तु जीवमनुष्यसिद्धा वाच्याः, अत एव वाचनान्तरे दृश्यते 'विष्णेयं जस्स जं अस्थि'ति । 'ओहिए अन्नाणे' इत्यादि, सामान्येऽज्ञाने मत्यज्ञानादिभिरविशेषिते मत्यज्ञाने श्रुताज्ञाने च जीवादिषु त्रिभङ्गी भवति, एते हि सदाऽवस्थितत्वात्सप्रदेशा इत्येकः, यदा तु तदन्ये ज्ञानं विमुध्य मत्यज्ञानादितया परिणमन्ति तदैकादिसम्भवेन सप्रदेशाश्चाप्रदेशश्चेत्यादिभङ्गद्वयमित्येवं भङ्गत्रयमिति, पृथिव्यादिषु तु सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एवेत्यत आह- 'एगिंदियवज्जो तियभंगो'त्ति, इह च त्रयेऽपि सिद्धा न वाच्याः, विभङ्गे तु जीवादिषु भङ्गत्रयं तद्भावना च मत्यज्ञानादिवत्, | केवलमिहै केन्द्रियविकलेन्द्रियाः सिद्धाश्च न वाच्या इति, 'सजोई जहा ओहिओ'त्ति सयोगी जीवादिदण्डकद्वयेऽपि तथा वाच्यो यथौधिको जीवादिः, स चैवम्-सयोगी जीवो नियमात्सप्रदेशो नारकादिस्तु सप्रदेशोऽप्रदेशो वा बहवस्तु जीवाः सप्रदेशा एव, नारकाद्यास्तु त्रिभङ्गवन्तः, एकेन्द्रियाः पुनस्तृतीयभङ्गा इति इह सिद्धपदं नाध्येयं, 'मणजोई' | इत्यादि, मनोयोगिनो योगत्रयवन्तः सञ्ज्ञिन इत्यर्थः, वाम्योगिन एकेन्द्रियवर्जाः, काययोगिनस्तु सर्वेऽप्येकेन्द्रियादयः, एतेषु च जीवादिषु त्रिविधो भङ्गः, तद्भावना च मनोयोग्यादीनामवस्थितत्वे प्रथमः, अमनोयोगित्वादित्यागाच्च मनोयोगित्वाद्युत्पादनाप्रदेशत्व लाभे ऽन्यद्भङ्गकद्वयमिति नवरं काययोगिनो ये एकेन्द्रियास्तेष्वभङ्गकं सप्रदेशा अप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गक इत्यर्थः, एतेषु च योगत्रयदण्डकेषु जीवादिपदानि यथासम्भवमध्येयानि सिद्धपदं च न वाच्यमिति 'अजोगी जहा अलेस' ति दण्डकद्वयेऽप्य लेश्य समव कव्यत्वात्तेषां ततो द्वितीयदण्डकेऽयोगिषु जीवसिद्धपदयोर्भङ्गकत्रयं मनुष्येषु च षड्भङ्गीति ॥ For Parts Only ~541~ ६ शतके उद्देशः ४ जीवादीनां सप्रदेशत्या दिः सू २१९ ॥ २६४ ॥ Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] गाथा M'सागारे'त्यादि साकारोपयुक्तेष्वनाकारोपयुक्तेषु च नारकादिषुत्रयो भङ्गाः,जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेका त्येक एव, तत्र चान्यतरोपयोगादन्यतरगमने प्रथमेतरसमयेष्वप्रदेशत्वसप्रेदशत्वे भावनीय, सिद्धानां त्वेकसमयोपयोगित्वेऽपि ४ साकारस्येतरस्य चोपयोगस्यासकृत्पात्या सप्रदेशत्वं सकृत्प्राप्त्या चाप्रदेशत्वमवसेयम् , एवं चासकृदवाप्तसाकारोपयोगान् बहूहै. नाश्रित्य सप्रदेशा इत्येको भङ्गः, तानेव सकृदवाप्तसाकारोपयोगं चैकमाश्रित्य द्वितीयः, तथा तानेवसकृदवाप्तसाकारोपयोगांश्च Pा बहनधिकृत्य तृतीयः, अनाकारोपयोगे त्वसकृत्माप्तानाकारोपयोगानाश्रित्य प्रथमः, तानेव सकृत्प्राप्तानाकारोपयोगं चकमा-18 ४ नित्य द्वितीयः,उभयेषामप्यनेकत्वे तृतीय इति । सवेयगा जहा सकसाईत्ति सवेदानामपि जीवादिपदेषु भङ्गकत्रयभावात्, एकेन्द्रियेषु चैकभङ्गसद्भावात् , इह च वेदप्रतिपन्नान् बहून् श्रेणिचशे च वेदं प्रतिपद्यमानकादीनपेक्ष्य भङ्गकत्रयं भावनीयम् , 'इत्थीवेयगेत्यादि, इह वेदावेदान्तरसङ्कान्तौ प्रथमे समयेऽप्रदेशत्वमितरेषु च सप्रदेशत्वमवगम्य भङ्गकत्रयं पूर्ववद्योज्यं नपुंसकवेददण्डकयोस्त्वेकेन्द्रियध्वेको भङ्गः सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येवंरूपः प्रागुक्तयुक्तरेवेति, स्त्रीदण्डकपुरुषदण्डकेषु देवपञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्यपदान्येव, नपुंसकदण्डकयोस्तु देववर्जानि वाच्यानि, सिद्धपदं च सर्वेष्वपि न वाच्यमिति 'अवेयगा जहा अकसाह'त्ति जीवमनुष्यसिद्धपदेषु भङ्गकत्रयमकपायिवद्धाच्यमित्यर्थः 'ससरीरी जहा ओहिओ'त्ति औधिकदण्डकवत्सशरीरिदण्डकयो वपदे सप्रदेशतेच वाच्याऽनादित्वात्सशरीरत्वस्य, नारकादिषु तु बहुत्वे भङ्गकत्रयमेकेन्द्रियेषु तृतीयभङ्ग इति, 'ओरालियवेउबियसरीराणं जीवेगिंदियवज्जो तियभंगो'त्ति औदारिकादिशरीरिसत्त्वेषु जीवपदे एकेन्द्रियपदेषु च बहुरखे तृतीयभङ्ग एव, बहूनां प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चानुक्षणं लाभात्,181 दीप अनुक्रम [२८६-२८७] +44- 53453 ~542~ Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९]] स्वादिः सू२३९ गाथा दीप अनुक्रम [२८६-२८७] व्याख्या- शेषेषु भङ्गकत्रयं, चहूनां तेषु प्रतिपन्नानां तथौदारिकवैक्रियत्यागेनौदारिक वैक्रियं च प्रतिपद्यमानानामेकादीनां लाभात, शतके प्रज्ञप्तिः इहौदारिकदण्डकयो रका देवाश्च न वाच्याः, वैक्रियदण्डकयोस्तु पृथिव्यप्तेजोवनस्पतिविकलेन्द्रिया न वाच्याः, उद्देशः४ अभयदेवीयश्च वैक्रियदण्डके एकेन्द्रियपदे तृतीयभङ्गोऽभिधीयते स वायूनामसङ्ख्यातानां प्रतिसमयं वैक्रियकरणमाश्रित्य, तथा नारकादीया वृत्तिः१ 8 यद्यपि पञ्चेन्द्रियतिर्यो मनुष्याश्च वैक्रियलब्धिमन्तोऽल्पे तथाऽपि भङ्गकत्रयवचनसामाद् बहूनां वैक्रियावस्थानस नांसप्रदेश॥२६॥ म्भवः, तथैकादीनां तत्प्रतिपद्यमानता चावसेया, 'आहारगे'त्यादि, आहारकशरीरे जीवमनुष्ययोः षड् भङ्गकाः | पूर्वोक्ता एव, आहारकशरीरिणामल्पत्वात् , शेषजीवानां तु तन्न संभवतीति, 'तेयगे'त्यादि, तैजसकामेणशरीरे समा-2 पश्रित्य जीवादयस्तथा वाच्या यथोषिकास्त एव, तत्र च जीवाः सप्रदेशा एव वाच्याः, अनादित्वात्तैजसादिसंयोगस्य, नारकादयस्तु त्रिभङ्गाः, एकेन्द्रियास्तु तृतीयभङ्गाः, एतेषु च शरीरादिदण्डकेषु सिद्धपदं नाध्येयमिति, 'असरी'त्यादि अशरीरेषु जीवादिषु सप्रदेशतादित्वेन वक्तव्येषु जीवसिद्धपदयोः पूर्वोक्ता त्रिभङ्गी वाच्या, अन्यत्राशरीरत्वस्याभावा-12 | दिति । 'आहारपजत्तीए' इत्यादि, इह च जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च बहूनामाहारादिपर्याप्तीः प्रतिपन्नानां तदपर्या|प्तित्यागेनाहारपर्याप्यादिभिः पर्याप्तिभावं गच्छतां च बहूनामेव लाभात्सप्रदेशाश्चापदेशाश्चेत्येक एव भङ्गः, शेषेषु तु त्रयो | भङ्गा इति, "भासामणे'त्यादि, इह भाषामनसोः पर्याप्तिर्भाषामनःपर्याप्तिः, भाषामनःपयांत्योस्तु बहुश्रुताभिमतेन | | केनापि कारणेनैकरवं विवक्षितं, ततश्च तया पर्याप्तका यथा सज्ञिनस्तथा सपदेशादितया वाच्याः, सर्वेपदेषु भङ्गकत्रय २६५|| | मित्यर्थः, पश्चेन्द्रियपदान्येव चेह घाच्यानि, पर्याप्तीनां चेदं स्वरूपमाहुः-येन करणेन भुक्तमाहारं खलं रसं च कर्त्त समथों ~543~ Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९] गाथा PERSONA335 द भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिराहारपर्याप्तिः, करणं शक्तिरिति पर्यायौ, तथा शरीरपर्याप्तिनाम येन करणेनौदारिकवैक्रि-1 याहारकाणां शरीराणां योग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वौदारिकादिभावेन परिणमयति तस्य करणस्य निर्वृत्तिः शरीरपर्याप्तिरिति, तथा येन करणेनैकादीनामिन्द्रियाणां प्रायोग्याणि द्रव्याणि गृहीत्वाऽऽत्मीयान् विषयान् ज्ञातुं समर्थों भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरिन्द्रियपर्याप्तिः, तथा येन करणेनानप्राणप्रायोग्याणि द्रव्याण्यवलम्ब्यावलम्च्यानप्राणतया निःस्रष्टुं & समर्थों भवति तस्य करणस्य निर्वृत्तिरानप्राणपर्याप्तिरिति, तथा येन करणेन सत्यादिभाषाप्रायोग्याणि द्रव्याण्यवलम्ब्या वलम्ब्य चतुर्विधया भाषया परिणमय्य भाषानिसर्जनसमर्थों भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिर्भाषापर्याप्तिः, तथा येन कररणेन चतुर्विधमनोयोग्यानि द्रव्याणि गृहीत्वा मननसमर्थों भवति तस्य करणस्य निष्पत्तिर्मनःपर्याप्तिरिति । 'आहार पजत्तीए'इत्यादि, इह जीवपदे पृथिव्यादिपदेषु च सप्रदेशाश्चाप्रदेशाश्चेत्येक एव भङ्गकोऽनवरतं विग्रहगतिमतामाहापर्याप्तिमतां बहूनां लाभात् , शेषेषु च षडू भङ्गाः पूर्वोक्ता एवाहारपर्याप्तिमतामल्पत्वात्, 'सरीरअपज्जत्तीए'इत्यादि, इह जीवेष्वेकेन्द्रियेषु चैक एव भङ्गोऽन्यत्र तु त्रयं, शरीराद्यपर्याप्तकानां कालतः सप्रदेशानां सदैव लाभात् अप्रदेशानां च कदाचिदेकादीनां च लाभात्, नारकदेवमनुष्येषु च पडेवेति, 'भासे'त्यादि, भाषामनःपर्याप्याऽपर्याप्तकास्ते येषां जातितो भाषामनोयोग्यत्वे सति तदसिद्धिः, ते च पञ्चेन्द्रिया एव, यदि पुनर्भाषामनसोऽभावमात्रेण तदपर्याप्तका अभ: ४ विध्यंस्तदैकेन्द्रिया अपि तेऽभविष्यस्ततश्च जीवपदे तृतीय एव भङ्गः स्यात्, उच्यते च-'जीवाइओ तियभंगोंत्ति, तत्र | जीवेषु पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु च बहूनां तदपर्याप्ति प्रतिपन्नानां प्रतिपद्यमानानां चैकादीनां लाभात् पूर्वोक्तमेव भङ्गत्रयं, 'नेर दीप अनुक्रम [२८६-२८७] CCCCCG ~544~ Page #545 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [४], मूलं [२३९] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२३९]] गाथा व्याख्या-18इयदेवमणुएसु छम्भंग'त्ति नैरयिकादिषु मनोऽपर्याप्तिकानामल्पतरत्वेन सप्रदेशानामेकादीनां लाभात्त एव पड६ शतके प्रज्ञप्तिः || भङ्गाः, एषु च पर्याप्त्यपर्याप्तिदण्डकेषु सिद्धपदं नाध्येयमसम्भवादिति ॥ पूर्वोक्तद्धाराणां सनहगाथा-'सपएसे'त्यादि, उद्देशः ४ अभयदेवी- सपएस'त्ति कालतो जीवाः सप्रदेशाः इतरे चैकत्वबहुत्वाभ्यामुक्ताः, 'आहारग'त्ति आहारका अनाहारकाश्च तथैव, प्रत्याख्यान या वृत्तिः भविय'त्ति भव्या अभव्या उभयनिषेधाश्च तथैव, सन्नित्ति सजिनोऽसम्झिनो द्वयनिषेधवन्तश्च तथैव, 'लेस'त्ति सलेश्याः | ज्ञानादिः कृष्णादिलेश्या: [ग्रन्थानम् ६०००]६ अलेश्याश्च तथैव, दिहित्ति दृष्टिः सम्यग्दृष्ट्यादिका ३ तद्वन्तस्तथैव 'संजय'त्ति संयता है सू२४० ॥२६६॥ असंयता मिश्रास्त्रयनिषेधिनश्च तथैव, कसाय'त्ति कषायिणः क्रोधादिमन्तः४ अकषायाश्च तथैव, 'नाणेत्ति ज्ञानिनः आभिनिबोधिकादिज्ञानिनः ५ अज्ञानिनो मत्यज्ञानादिमन्तश्च तथैव, 'जोग'त्ति सयोगाः,मनआदियोगिनः अयोगिनश्च तथैव,'उबओगे'त्ति साकारानाकारोपयोगास्तथैव, 'वेद'त्ति सवेदाः स्त्रीवेदादिमन्तः ३ अवेदाश्च तथैव, 'ससरीर'त्ति सशरीरा औदारिकादिमन्तः५ अशरीराश्च तथैव, पजत्ति'त्ति आहारादिपर्याप्तिमन्तः५ तदपर्याप्तकाश्च५तथैवोक्का इति ॥ जीवाधिकारादेवाह || जीवा गं भंते ! किं पचक्खाणी अपञ्चक्खाणी पञ्चक्खाणापञ्चक्खाणी, गोयमा ! जीवा पञ्चक्खाणीवि अपचक्खाणीवि पञ्चक्खाणापचक्खाणीवि । सबजीवाणं एवं पुच्छा, गोयमा ! नेरइया अपचक्खाणी जाव चरिदिया, सेसा दो पडिसे हेयवा, पंचेंदियतिरिक्खजोणिया नो पचक्खाणी अपचक्खाणीवि पञ्चक्खाणा-| पचक्खाणीवि, मणुस्सा तिन्निवि, सेसा जहा नेरतिया ॥ जीवाणं भंते ! किं पचक्खाणं जाणंति अपञ्च- ||२६६॥ क्खाणं जाणंति पचक्खाणापचक्खाणं जाणंति ?, गोयमा! जे पंचेंदिया ते तिन्त्रिवि जाणंति अवसेसा पञ्च दीप अनुक्रम [२८६-२८७] wwrajastaram.org ~545 Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [४], मूलं [२४०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४०] गाथा SINA-NCGANGACASGAR क्खाणं न जाणंति ३ ॥ जीवा गं भंते ! किं पञ्चक्खाणं कुर्वति अपचक्खाणं कुवंति पचक्खाणापचक्खाणं कुचंति ?, जहा ओहिया तहा कुवणा ।। जीवा णं भंते ! किं पचक्खाणनिवत्तियाउया अपचक्खाणणि पञ्चक्खाणापचक्खाणनि०१, गोयमा ! जीवा य वेमाणिया य पचक्खाणणिवसियाज्या तित्रिवि, अवसेसा अपचक्खाणनिवत्तियाउया ॥ पचक्खाणं १ जाणइ २ कुवति ३ तिन्नेव आउनिबत्ती ४ । सपदेसुद्देसंमि य एमए दंडगा चउरो॥१॥ (सूत्र २४०)॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति छठे सए चउत्थो उद्देसो ॥६-४।। | 'जीवा ण'मित्यादि, 'पञ्चक्खाणि'त्ति सर्वविरताः 'अपचक्खाणि'त्ति अविरताः 'पचक्खाणापञ्चक्खाणि'त्ति देशमाविरता इति 'सेसा दो पडिसेहेयधा' प्रत्याख्यानदेशप्रत्याख्याने प्रतिषेधनीये, अविरतत्वाचारकादीनामिति ॥ प्रत्या-18 ख्यानं च तजज्ञाने सति स्यादिति ज्ञानसूत्र, तत्र च 'जे पंचिंदिया ते तिन्निवित्ति नारकादयो दण्डकोक्ताः पञ्चे|न्द्रियाः, समनस्कत्वात् सम्यग्दृष्टित्वे सति ज्ञपरिज्ञया प्रत्याख्यानादित्रयं जानन्तीति, 'अवसेसे'त्यादि, एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाः प्रत्याख्यानादित्रयं न जानन्त्यमनस्कत्वादिति ॥ कृतं च प्रत्याख्यानं भवतीति तत्करणसूत्र, प्रत्याख्यानमायुर्वन्धहेतुरपि भवतीत्यायुःसूत्र, तत्र च 'जीवा येत्यादि, जीवपदे जीवाः प्रत्याख्यानादित्रयनिबद्धायुष्का वाच्याः, वैमानिकपदे च वैमानिका अप्येवं, प्रत्याख्यानादित्रयवतां तेषूत्पादात्, 'अवसेसत्ति नारकादयोऽप्रत्याख्याननिवृत्तायुपो, यतस्तेषु तत्त्वेनाबिरता एवोत्पद्यन्त इति ॥ उक्तार्थसङ्ग्रहगाथा-पचक्याण'मित्यादि, प्रत्याख्यानमित्येतदर्थ दाएको दण्डकः, एवमन्ये त्रयः ॥ षष्ठे शते चतुर्थः॥६-४॥ दीप अनुक्रम [२८८-२९०] L SantaratimliAKAL | अत्र षष्ठं-शतके चतुर्थ-उद्देशकः समाप्त: ~5464 Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती"मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप अनुक्रम [२९१] ६ शतके अनन्तरोदेशके सप्रदेशा जीवा सक्ताः, अध सप्रदेशमेव तमस्कायादिकं प्रतिपादयितुं पश्चमोद्देशकमाहव्याख्या | उद्देशः५ प्रज्ञप्तिः किमियं भंते ! तमुकाएत्ति पवुच्चइ किं पुढवी तमुक्काएत्ति पञ्चति आऊ तमुक्काएत्ति पवुच्चति ? गोयमा ! अभयदेवी नतमस्काय४नो पुढची तमुक्काएत्ति पवुच्चति आऊ तमुकाएत्ति पवुच्चति । से केणटेणं. १, गोयमा ! पुढविकाए णं अत्थे स्व०सू२४१ या वृत्तिः गतिए सुभे देसं पकासेति अत्धेगइए देसं नो पकासेह; से तेणटेणं० । तमुक्काए णं भंते ! कहिं समुट्ठिए कहिं | संनिहिए ?, गोयमा! जंबुद्दीवस्स २ वहिया तिरियमसंखेजे दीवसमुद्दे वीईवतित्ता अरुणवरस्स दीवस्स ॥२६७॥ बाहिरिल्लाओ वेतियन्ताओ अरुणोदयं समुई बायालीसं जोयणसहस्साणि ओगाहित्ता उवरिल्लाओ जलंताओ एकपदेसियाए सेढीए इत्थ णं तमुकाए समुट्ठिए, सत्तरस एकवीसे जोयणसए उहुं उप्पइत्ता तओ पच्छा तिरियं पवित्थरमाणे २ सोहम्मीसाणसणकुमारमाहिदे चत्तारिवि कप्पे आवरित्तार्ण उझुपि य णं जाव 8 साभलोगे कप्पे रिहविमाणपत्थर्ड संपत्ते एस्थ णं तमुक्काए णं संनिहिए ॥ तमुकाएणं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते, गोयमा ! अहे मल्लगमूलसंठिए उपि कुकडगपंजरगसंठिए पण्णत्ते ॥ तमुक्काए णं भंते ! केवतियं विक्वं भेणं केवतियं परिक्खेवेणं पण्णते?, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडे काय, तत्थ णं जे से संखेचवित्थडे से णं संखेजाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं असंखेजाई जोयणसहस्साईट ॥२६७॥ परिक्वेवेणं प०, तत्व णं जे से असंखिज्जवित्थडे से णं असंखेजाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं पण्णत्ताई। तमुक्काए णं भंते ! केमहालए प०१,गोषमा अयं णं जंबुद्दीवे २ सबदी-18 FuParsonarAPIMBUMORN www.janeturary.orm अथ षष्ठ-शतके पंचम-उद्देशक: आरम्भ: तमस्काय-स्वरूप ~547~ Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: --96-4 -- प्रत सूत्रांक [२४१] - - दीप वसमुहाणं सबभंतराए जाव परिक्खेवणं पण्णत्ते ॥ देवे णं महिड्डीए जाव महाणुभावे इणामेव २ तिकट्ठ | केवलकप्पं जंबुद्दीव २ तिहिं अच्छरानिवाएहिं तिसत्तखुत्तो अणुपरियट्टित्ताणं हषमागछिज्जा से णं देवे || ताए उकिटाए तुरियाए जाव देवगईए वीईवयमाणे २ जाव एकाहं वा दुयाहं वा तियाहं वा उकोसेणं छम्मासे वीतीवएज्जा अत्थेगतियं तमुकायं वीतीवएना अत्यंगतियं नो तमुकार्य वीतीवएज्जा, एमहालए णं गोयमा! तमुक्काए पन्नत्ते । अस्थि णं भंते ! तमुकाए गेहाति वा गेहावणाति वा ?, णो तिणडे समढे, अस्थि णं भंते !, तमुकाए गामाति वा जाच संनिवेसाति वा ?, णो तिणढे समझे। अत्थि णं भंते ! तमुकाए ओराला बलाहया संसेयंति संमुच्छंति संवासंति वा ?, हंता अस्थि, तंभंते ! किं देवो पकरेति असुरो पकरेति नागो |पकरेति ?, गोयमा ! देवोवि पकरेति असुरोवि पकरेति णागोचि पकरेति । अस्थि णं भंते ! तमुकाए बादरे| थणियसद्दे थायरे विजुए ?, हंता अस्थि, तं भंते ! किं देवो पकरेति ? ३, तिन्निवि पकरेति ? अस्थि णं भंते ! तमु|काए घायरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए ?, णो तिणढे समढे णण्णस्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं । अत्थि णं| |भंते ! तमुकाए चंदिमसूरियगहगणणवत्ततारारूवा ?, णो तिणढे समढे, पलियस्सतो पुण अस्थि । अस्थि णं भंते! तमुकाए चंदाभाति वा सूराभाति वा?,णो तिणढे समढे, कादूसणिया पुण सा।तमुकाए भंते! केरिसए वनेणं पण्णते?, गोयमा ! काले कालावभासे गंभीरलोमहरिसजणणे भीमे उत्तासणए परमकिण्हे वन्नणं पण्णत्ते, देवेवि णं अत्धेगतिए जे णं तप्पढमयाए पासित्ताक खुभाएजा अहे णं अभिसमागच्छेजा तओ 96AACAREOCOCCANARA अनुक्रम [२९१] तमस्काय-स्वरूप ~548~ Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] शतके उद्देशः ५ तमस्कायस्व०सू२४१ दीप व्याख्या- पच्छा सीहं २ तुरियं २ खिप्पामेव वीतीवएज्जा ॥ तमुकायस्स णं भंते ! कति नामधेजा पण्णता ?, गोयमा! प्रज्ञप्तिः तेरस नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-तमेति वा तमुकाएति वा अंधकारेइ वा महांधकारेइ वा लोगंधकारेइ वा अभयदेवीदवा लोगतमिस्सेइ वा देवंधकारेति वा देवतमिस्सेति वा देवारन्नेति वा देववूहेति वा देवफलिहेति वा देवपडि- क्खोभेति वा अरुणोदएति वा समुद्दे ।। तमुकाए णं भंते । किं पुढवीपरिणामे आउपरिणामे जीवपरिणामे ॥२६॥ पोग्गलपरिणामे ?, गोयमा 1 नो पुढविपरिणाम आउपरिणामेवि जीवपरिणामेचि पोग्गलपरिणामेवि । तमु काए णं भंते ! सधे पाणा भूया जीवा सत्ता पुढविकाइयत्ताए जाव तसकाइयत्ताए उववन्नपुवा, हंता गोयमा असति अदुवा अणंतखुत्तोको चेव णं वादरपुढविकाइयत्ताए बादरअगणिकाइयत्ताए वा (सूत्रं २४१) Mo 'किमिय'मित्यादि, 'तमुक्काए'त्ति तमसा-तमिश्रपुद्गलानां कायो-राशिस्तमस्कायः स च नियत एवेह स्कन्धः कश्चि द्विवक्षितः, स च तादृशः पृथ्वीरजःस्कन्धो वा स्यादुदकरजःस्कन्धो वा न त्वन्यस्तदन्यस्यातादृशत्वादिति पृथिव्यवूविषयसन्देहादाह-'किं पुढवी त्यादि, व्यक्तं, 'पुढविकाए ण'मित्यादि, पृथिवीकायोऽस्त्येककः कश्चिच्छुभो-भास्वरः, यः किं| विधः' इत्याह-देशं विवक्षितक्षेत्रस्य प्रकाशयति भास्वरत्वान्मण्यादिवत्, तथाऽस्त्येकक: पृथवीकायो देश-पृथवीकाया-1 |न्तरं प्रकाश्यमपि न प्रकाशयत्यभास्वरत्वादन्धोपलबत्, नैवं पुनरष्कायस्तस्य सर्वस्याप्यप्रकाशत्वात्, ततश्च तमस्का यस्य सर्वथैवाप्रकाशकत्वादकायपरिणामतैव, 'एगपएसियाए'त्ति एक एव च न व्यादय उत्तराधर्य प्रति प्रदेशो यस्यां |सा तथा तया, समभित्तितयेत्यर्थः, न च वाच्यमेकप्रदेशप्रमाणयेति, असङ्ख्यातप्रदेशावगाहस्वभावत्वेन जीवानां तस्यां SHARECRATC 2- अनुक्रम [२९१] 26- 2 २६८॥ 25%-8 SNEmirathuniNI तमस्काय-स्वरूपं ~549 Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप जीवावगाहाभावप्रसङ्गात्, तमस्कायस्य च स्तिबुकाकाराप्कायिकजीवात्मकत्वात् बाहल्यमानस्य च प्रतिपादयिष्यमाणPात्वादिति, 'इत्थ णति प्रज्ञापकालेख्यलिखितस्यारुणोदसमुद्रादेरधिकरणतोपदर्शनार्थमुक्तत्वात् , 'अहे' इत्यादि, अधः अधस्तान्मलकमूलसंस्थितः-शरावबुधसंस्थानः, समजलान्तस्योपरि सप्तदश योजनशतान्येकर्षिशत्यधिकानि यावद्वलयसं-18 स्थानत्वात् , स्थापना च- 'केवइयं विक्खंभेणं'ति विस्तारेण कचिद् 'आयामविक्खंभेणं'ति दृश्यते, तत्र चायाम उच्चत्वमिति । 'संखेजवित्थडे इत्यादि, सङ्ख्यातयोजनविस्तृतः, आदित आरभ्योई सङ्ख्येययोजनानि यावत्ततोऽसङ्ख्या४ातयोजनविस्तृत उपरि तस्य विस्तारगामित्वेनोकत्वात्, 'असंखेजाई जोयणसहस्साई परिक्खेवेणं'ति सङ्ख्यातयोज-11 नविस्तृतत्वेऽपि तमस्कायस्थासङ्ख्याततमद्वीपपरिक्षेपतो बृहत्तरत्वात्परिक्षेपस्यासङ्ख्यातयोजनसहनप्रमाणत्वम्, आन्तरबहिः परिक्षेपविभागस्तु नोक्तः, उभयस्याप्यसमाततया तुल्यत्वादिति । 'देवे ण'मित्यादि, अथ किंपर्यन्तमिदं देवस्य महा8 दिकं विशेषणम् ? इत्याह-'जाय इणामेवे त्यादि, इह यावच्छब्द ऐदम्पयर्थिः, यतो देवस्य महर्यादिविशेषणानि गम-18 नसामर्थ्यप्रकर्षप्रतिपादनाभिप्रायेणैव प्रतिपादितानि 'इणामेवत्तिकट्ठ' इदं गमनमेवम्-अतिशीघ्रत्वावेदकचप्पुटिकारूप-10 हस्तव्यापारोपदर्शनपरम् , अनुस्वाराश्रवणं व प्राकृतत्वात् द्विवचनं च शीघ्रत्वातिशयोपदर्शनपरमितिः-उपदर्शनार्थः 'कृत्वा' विधायेति 'केवलकप्पति केवलज्ञानकल्पं परिपूर्णमित्यर्थः, वृद्धव्याख्या तु-केवल:-संपूर्णः कल्पत इति कल्पःस्वकार्यकरणसमों वस्तुरूप इतियावत् , केवलश्चासौ कल्पश्चेति केवलकल्पस्तं तिहिं अच्छरानिवाएहि ति तिसृभिश्चप्पुटिकाभिरित्यर्थः 'तिसराखुत्तोति त्रिगुणाः सप्त त्रिसप्त त्रिसप्तवारांखिसप्तकृत्य एकविंशतिवारानित्यर्थः 'हवं ति| 2 अनुक्रम [२९१] Auditurary.com तमस्काय-स्वरूप ~550~ Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप व्याख्या- शीघ्रम् 'अत्धेगइय'मित्यादि, सङ्ख्यातयोजनमानं व्यतिबजेदितरं तु नेति । 'ओराला बलाहयत्ति महान्तो मेघाः शतके प्रज्ञप्तिः संसेयंति'त्ति संविद्यन्ते तजनकपुद्गलस्नेहसम्पत्या, संमूर्च्छन्ति तत्पुनलमीलनात्तदाकारतयोत्पत्तेः। तभंतेत्ति तत् उद्देशः ५ अभयदेवी-& संवेदनं संमूर्छनं वर्षणं च । 'बायरे विजुयारे'त्ति, इह न बादरतेजस्कायिका मन्तव्याः, इहैव तेषां निषेत्स्यमाणत्वात्, तमस्कायः शामा किन्तु देवप्रभावजनिता भास्वराः पुद्गलास्त इति, 'णपणात्य बिग्गहगईसमावन्नेणं'ति न इति योऽयं निषेधो बादर-1 स्व०सू२४१ ॥२६॥ थिवीतेजसोः सोऽन्यत्र विग्रहगतिसमापन्नत्वाद्विग्रहगत्यैव बादरे ते भवतः, पृथिवी हि बादरा रत्नप्रभाधास्वष्टासु पृथि-|| लवीषु गिरिविमानेषु, तेजस्तु मनुजक्षेत्र एवेति, तृतीया चेह पञ्चम्यर्थे प्राकृतत्वादिति, 'पलियस्सओ पुण अस्थिति परिपार्वतः पुनः सन्ति तमस्कायस्य चन्द्रादय इत्यर्थः, 'कासणिया पुण सा'इति ननु तत्पार्वतश्चन्द्रादीनां सद्भावातत्प्रभाऽपि तत्रास्ति ?, सत्यं, केवलं कम्-आत्मानं दूषयति तमस्कायपरिणामेन परिणमनात् कदृषणा सैव कदूषणिका, दीघेता च प्राकृतत्वात् , अतः सत्यप्यसावसतीति, 'काले त्ति कृष्णः 'कालावभासे'त्ति कालोऽपि कश्चित् कुतोऽपि कालो नावभासत इत्यत आह-कालावभासः कालदीप्तिर्वा 'गंभीरलोमहरिसजणणे'त्ति गम्भीरश्वासी भीषणत्वाद्रो3 महर्षजननश्चेति गम्भीररोमहर्षजननः, रोमहर्षजनकत्वे हेतुमाह-भीमेत्ति भीष्मः 'उत्तासणए'त्ति उत्कम्पहेतुः, निगम& यन्नाह- परमे'त्यादि, यत एवमत एवाह-देवेवि ण'मित्यादि, तप्पढमयाए'त्ति दर्शनप्रथमतायां 'खुभाएजत्ति ॥२६९॥ स्किम्नीयात्' क्षुभ्येत् , 'अहे ण'मित्यादि अथ 'एन' तमस्कायम् 'अभिसमागकछेत्' प्रविशेत्ततो भयात् 'सीहति काय-|| ४ गतेरतिधेगेन 'तुरियं तुरिय'ति मनोगतेरतिवेगात्, किमुक्तं भवति ? क्षिप्रमेव, 'बीइवएजत्ति व्यतित्रजेदिति ॥'तमे-|| अनुक्रम [२९१] तमस्काय-स्वरूप ~551~ Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४१] दीप ति धे'त्यादि, तमः अन्धकाररूपत्वात् इत्येतत् 'वा' विकल्पार्थः, तमस्काय इति वाऽन्धकारराशिरूपत्वात् , अन्धकारमिति वा तमोरूपत्वात् , महान्धकारमिति वा महातमोरूपत्वात् , लोकान्धकारमिति वा लोकमध्ये तथाविधस्यान्यस्यान्धकारस्याभावात् , एवं लोकतमिश्रमिति वा, देवान्धकारमिति वा देवानामपि तत्रोद्योताभावेनान्धकारात्मकत्वात् , एवं देवतमिश्रमिति वा, देवारण्य मिति वा, बलवद्देवभयान्नश्यतां देवानां तथाविधारण्यमिव शरणभूतत्वात्, देवव्यूह इति वा देवानां दुर्भदत्वावह इव-चक्रादिव्यूह इव देवव्यूहः, देवपरिष इति वा देवानां भयोत्पादकत्वेन गमनविघातहेतुत्वात्, देवप्रतिक्षोभ इति वा तत्क्षोभहेतुत्वात् , अरुणोदक इति वा समुद्रः, अरुणोदकसमुद्रज| लविकारत्वादिति ॥ पूर्व पृथिव्यादेस्तमस्कायशब्दवाच्यता पृष्टा अथ पृथिव्यपूकायपर्यायां पृधिव्यप्कायौ च जीवपुद्ग लरूपाविति तत्पर्यायतां च प्रश्नयन्नाह-तमुक्काए ण'-मित्यादि, वादरवायुवनस्पतयस्त्रसाश्च तत्रोत्पद्यन्तेऽस्काये| मतदुत्पत्तिस म्भवान्न वितरेऽस्वस्थानत्वात् , अत उक्तं 'नो चेव ण'मित्यादि । तम स्कायसादृश्यात्कृष्णराजिप्रकरणम् कति गंभंते ! फहराईओ पण्णत्ताओ?, गोयमा अट्ट कण्हराईओ पण्णताओ। कहि भंते ! एयाओ अट्ट कण्हराईओ पण्णताओ?, गोयमा ! उपि सणकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं हिट्ठ बंभलोए कप्पे रिट्टे विमाणे | | पत्थडे, एत्य णं अक्खाडगसमचउरंससंठाणसंठियाओ अट्ट कण्हरातीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पुरच्छिमेणं । दो पञ्चस्टिमेणं दो दाहिणणं दो उत्तरेणं दो. पुरच्छिमभंतरा कण्हराई दाहिणं बाहिरं कण्हराति पट्टा दा-15 हिणमंतरा कपहराती पचत्थिमवाहिरं कण्हराई पुट्टा पचत्थिमन्भतरा कण्हराई उत्तरबाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा अनुक्रम [२९१] तमस्काय-स्वरूपं, कृष्णराजी-स्वरूपं ~552~ Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [५], मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम [२९२-२९४] व्याख्या-उत्तरमभंतरा कण्हराती पुरच्छिमबाहिरं कण्हरातिं पुट्ठा, दो पुरच्छिमपचत्थिमाओ याहिराओ कण्हरा-६ शतके प्रज्ञप्तिः तीओ छलसाओ दो उत्तरदाहिणवाहिराओ कण्हरातीओ तंसाओ दो पुरच्छिमपचत्थिमाओ अम्भितराओ | उद्देशः ५ अभयदेवी कण्हरातीओ चउरंसाओ दो उत्तरदाहिणाओ अभितराओ कण्हरातीओ चउरसाओ पवावरा छलंसाकृष्णराजीयावृत्तिःशद तंसा पुण दाहिणुत्तरा बज्झा । अभंतर चउरंसा सबावि य कण्हरातीओ॥१॥ कण्हराईओ र्ण भंते। केवतियं आयामेणं केवतियं विक्खंभेणं केवतियं परिक्खेवेणं पणता ?, गोयमा ! असंखेज्जाई जोयणसह-पद |स्साई आयामेणं असंखेजाई जोयणसहस्साई विक्खंभेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साई परिक्खयेणं पण्ण-IP त्ताओ । कण्हरातीओ णं भंते ! केमहालियाओ पण्णता?, गोयमा ! अयण्णं जंबुद्दीचे २ जाव अद्धमासं वीतीवएजा अस्धेगतियं कण्हरातीं बीतीवएना अत्धेगइयं कण्हरातीं णो वीतीवएजा, एमहालियाओ णं गोयमा! कण्हरातीओ पपणत्ताओ । अस्थि णं भंते ! कण्हरातीसु गेहाति वा गेहावणाति वा?, नो तिणढे ४ समढे । अस्थि णं भंते ! कण्हरातीसु गामाति वा०, णो तिण? समढे। अत्थि णं भंते ! कण्ह ओराला दिपलाहया संमुच्छंति ३१, हंता अस्थि, तंभंते ! किं देवो प०३१, गो० देवो पकरेति नो सुरो नो नागोय । अस्थि गं भंते ! कण्हराईसु बादरे धणियसद्दे जहा ओराला तहा । अस्थि णं भंते ! कण्हराईए पादरे आउकाए| ला॥२७०॥ बादरे अगणिकाए बायरे वणप्फडकाए?,णो तिणढे समढे,णण्णस्य विग्गहगतिसमावन्नएणं अस्थिण चंदिमसू-18 रिय ४ प , णो तिण । अस्थि णं कण्ह० चंदाभाति वा २, णो तिणट्टे समढे । कण्हरातीओ णं भंते ? PROSAGACASCARS JMERuratistial wwrajastaram.org कृष्णराजी-स्वरूपं ~553~ Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४२] CSC9C-% 9C RECORRORM केरिसियाओ वनेणं पन्नताओ?, गोयमा! कालाओ जाव खिप्पामेव वीतीवएज्जा । कण्हरातीओ णं भंते ! कति |मामधेजा पण्णता? गोयमा! अट्ठनामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-कण्हरातित्ति वा मेहरातीति वा मघावती()तिया माघवतीति वा वायफलिहेति वा वायपलिक्खोभेइ वा देवफलिहेड या देवपलिक्खोभेति वा । कण्हरातीओ ॥ण भंते !किं पुढविपरिणामाओ आउपरिणामाओजीवपरिणामाओ पुग्गलपरिणामाओ ?, गोयमा ! पुढवीपरि-19 |णामाओ नो आउपरिणामाओजीवपरिणामाओवि पुग्गलपरिणामाओ पूर्वी |वि। कण्हरातीसुण भंते ! सवे पाणा भूया जीवा सत्ता उववन्नपुवा ?, | हंतागोयमा! असईअदुवा अर्णतखुत्तो नो चेव णं बादर आउकाइयत्साए थादरअगणिकाइयत्ताए वा बादरवणप्फतिकाइयत्ताए वा (सूत्रं २४२) आर्चिमीलि ___ 'कपहराईओ'त्ति कृष्णवर्णपुनलरेखाः 'हर्ष'ति समं किलेति वृत्तिकारः & प्राह 'अक्खाडगे'त्यादि, इहआखाटकः-प्रेक्षास्थाने आसनविशेषलक्षणस्तत्सं स्थिताः, स्थापना चेयम्-'नो असुरों' इत्यादि, असुरनागकुमाराणां तत्र गमनासम्भवादिति ॥ 'कण्हराइति वत्ति पूर्ववत्, मेघराजीति वा काल| मेघरेखातुल्यत्वात्, मति वा तमिश्रतया पठनारकपृथषीतुल्यत्वात्, माघवतीति वा तमिश्रतयैव सप्तमनरकपृथिवीतुल्यत्वात् , 'वायफलिहेइ दीप अनुक्रम [२९२-२९४] I दमप्रतिष्ठान श्वरोचन %E Ureena ५चन्द्रा दधिश ITDHRS धसूराम REST KAMunmurary.orm कृष्णराजी-स्वरूपं ~554~ Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४२] दीप अनुक्रम [२९२-२९४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [ २४२ ] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२७१॥ वति वातोऽत्र वात्या तद्वद्वातमिश्रत्वात् परिघश्च दुर्द्धयत्वात् सा वातपरिघः, 'वायपरिक्खो भेइ व े-ति वातोऽपि वात्या तद्वद्वात मिश्रत्वात् परिक्षोभश्च परिक्षोभहेतुत्वात् सा वातपरिक्षोभ इति, 'देवफलिहेइ व'त्ति | क्षोभयति देवानां परिघेव-अर्गलेव दुर्लवत्वाद्देवपरिघ इति 'देवपलिक्खो भेइ वत्ति देवानां परिक्षोभहेतुत्वादिति ॥ एतेसि णं अहं कण्हराईणं अट्ठसु उवासंतरेसु अट्ठ लोगंतियविमाणा पण्णत्ता, तंजहा- १अची २अचिमाली ३ वइरोयणे ४१ भंकरे५ चंदा भेद सूरा भे७सुक्का भेट सुपतिद्वाभे मज्झे ९ रिट्ठा भे । कहि णं भंते! अच्चीविमाणे १०१, गोयमा! उत्तरपुरच्छिमेणं, कहि णं भंते । अचिमालीविमाणे प० १, गोयमा ! पुरच्छिमेणं, एवं परिवाडीए नेयवं जाव कहि णं भंते! रिहे विमाणे पण्णत्ते ?, गोयमा ! बहुमज्झदेस भागे । एएसु णं असु लोगंतियविमाणेषु अट्ठ| विहा लोगंतियदेवा परिवसंति, तंजहा- सारस्यमाइचा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अधाबाहा | अग्गिचा वेब रिट्ठा य ॥ १ ॥ कहि णं भंते ! सारस्सया देवा परिवसंति?, गोयमा । अचिविमाणे परिवसंति, कहि णं भंते! आदिचा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! अचिमालिविमाणे, एवं नेयवं जहाणुपुबीए जाव कहि णं भंते । रिट्ठा देवा परिवसंति ?, गोयमा ! रिद्वविमाणे ॥ सारस्तयमाइचाणं भंते! देवाणं कति देवा कति देवसया पण्णत्ता ?, गोयमा सन्त देवा सन्त देवसया परिवारो पण्णत्तो, वण्हीवरुणाणं देवाणं चउदस देवा चउद्दस देवसहस्सा परिवारो पण्णत्तो, गद्दतोषतुसियाणं देवाणं सत्त देवा सत्त देवसहस्सा पण्णत्ता, अवसेसाणं नव देवा नव देवसया पण्णत्ता- 'पढमजुगलम्मि सत्त व सपाणि वीर्यमि चोदसस Education International कृष्णराजी स्वरूपं, लोकांतिक- विमानः एवं लोकांतिक- देवा: For Penal Use Only ~555~ ६ शतके उद्देशः ५ कृष्णर। ज्यः सू २४२ लो कान्तिकाः सू २४३ ॥२७१॥ Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३]] दीप अनुक्रम [२९५-२९९] IGहस्सा । तइए सत्तसहस्सा नव चेव सयाणि सेसेसु ॥१॥'लोगंतिगविमाणाणं भंते ! किंपतिटिया पण्णत्ता ?.IN Halगोयमा । बाउपइडिया तदुभयपतिडिया पण्णत्ता, एवं नेयम् ॥ 'विमाणाणं पतिहाणं पाहलचसमेव संठाणं ।' बंभलोयवत्तवया नेयवा [जहा जीवाभिगमे देवुद्देसए] जाव हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतखुत्तो। हनो चेव णं देवित्ताए। लोगंतियबिमाणेसु णं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता, गोयमा ! अट्ट सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता । लोगंतियविमाणेहिंतो णं भंते ! केवतियं अबाहाए लोगंते पण्णत्ते?, गोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई अवाहाए लोगते पणते । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ६-५॥ (सूत्र २४३)॥ 'अहसु उवासंतरसुत्ति द्वयोरन्तरमवकाशान्तरं तत्राभ्यन्तरोत्तरपूर्वयोरेकं पूर्वयोर्द्वितीयं अभ्यन्तरपूर्वदक्षिणयो&स्तृतीयं दक्षिणयोश्चतुर्थ अभ्यन्तरदक्षिणपश्चिमयोः पश्चम पश्चिमयोः पष्ठ अभ्यन्तरपश्चिमोत्तरयोः सप्तमं उत्तरयोरष्टमं, लोगंतियषिमाण'त्ति लोकस्य-ब्रह्मलोकस्यान्ते-समीपे भवानि लोकान्तिकानि तानि च तानि विमानानि चेति समासः, लोकान्तिका बा देवास्तेषां विमानानीति समासः, इह चावकाशान्तरवर्तिष्वष्टासु अधिःप्रभृतिषु विमानेषु वाच्येषु यत् कृष्णराजीनां मध्यभागवर्ति रिठं विमानं नवममुक्तं तद्विमानप्रस्तावादवसेयम् ॥ 'सारस्सयमाइयाण|| मित्यादि, इह सारस्वतादित्ययोः समुदितयोः सप्त देवाः सप्त च देवशतानि परिवार इत्यक्षरानुसारेणावसीयते, एवमु४त्तरत्रापि, 'अवसेसाणं'ति अव्यावाधाग्नेयरिष्ठानाम् एवं नेयवंति पूर्वोक्तप्रश्नोत्तराभिलापेन लोकान्तिकविमानवक& व्यताजातं नेतव्यं, तदेव पूर्वोक्तेन सह दर्शयति-विमाणाण'मित्यादि गाथार्द्ध, तत्र विमानप्रतिष्ठानं दर्शितमेव,वाहल्यं लोकांतिक-विमान: एवं लोकांतिक-देवा: ~556~ Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [५], मूलं [२४३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४३] . . . ... .. A I R४४ा व्याख्या- तु विमानानां पृथिवीवाहल्यं तच पञ्चविंशतिर्योजनशतानि, उच्चत्वं तु सप्त योजनशतानि, संस्थानं पुनरेषां नानाविध-४६ शतके प्रज्ञप्तिःमनावलिकाप्रविष्टत्वात् , आवलिकाप्रविष्टानि हि वृत्तव्यत्रचतुरस्रभेदात् त्रिसंस्थानान्येव भवन्तीति ॥'बंभलोए'इत्यादि, उद्देशः ६ अभयदेवी- ब्रह्मलोके या विमानानां देवानां च जीवाभिगमोक्ता वक्तव्यता सा तेषु 'नेतव्या' अनुसतव्या, कियद्रम् ? इत्यत / पृथ्व्यः या वृत्तिः१४ माह-'जावे'त्यादि, सा चेयं लेशत:-'लोयंतियविमाणा णं भंते ! कतिवण्णा पण्णत्ता, गोयमा ! तिवण्णा पं०-लोहिया | ल हालिद्दा सुकिल्ला, एवं पभाए निचालोया गंधेणं इद्वगंधा एवं इठ्ठफासा एवं सबरयणमया तेसु देवा समचउरसा अल्लम शरणान्तिक | गस्थाहारा| हुगवन्ना पम्हलेसा । लोयंतियविमाणेसु णं भंते ! सचे पाणा ४ पुढविकाइयत्ताए ५ देवत्ताए उबवन्न पुवा', 'हते'त्यादि दिसू २४५ | लिखितमेव, 'केवतिय'ति छान्दसत्वात् कियत्या 'अबाधया' अन्तरेण लोकान्तः प्रज्ञप्त इति ॥ पाठशते पञ्चमः ।।५-५॥ दीप अनुक्रम [२९५-२९९] व्याख्यातो विमानादिवक्तव्यताऽनुगतः पञ्चमोद्देशकः, अथ षष्ठस्तथाविध एव व्याख्यायते, तत्र कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णताओ?, गोयमा ! सत्त पुढवीओ पणत्ताओ, तंजहा रयणप्पभा जाय ||४|| | तमतमा,रयणप्पभादीणं आवासा भाणियचा(जाव)अहेसत्तमाए, एवं जे जत्तिया आवासाते भाणियबा जावट | कति ण भंते ! अणुसरविमाणा पष्णता ?, गोयमा ! पंच अणुत्तरचिमाणा पण्णसा, तंजहा-विजए जाव सबहसिद्धे । (सूत्रं २४४) जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्घाएणं समोहए समोहणित्ता जे भविए इमीसे &ायरणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु अन्नयरसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उववजित्तए ACCASACARRAO ॥२७२॥ SARERIEatinAKIRoma maram.org अत्र षष्ठ-शतके पंचम-उद्देशकः समाप्त: अथ षष्ठं-शतके षष्ठं-उद्देशक: आरम्भ: लोकांतिक-विमान: एवं लोकांतिक-देवा: ~557~ Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४४ -२४५] दीप अनुक्रम [३०० -३०१] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२४४-२४५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः से णं भंते ! तत्थगते चैव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज्जा ?, गोयमा । अत्येगतिए तत्थगए चैत्र आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज वा अत्थेगतिए तओ पडिनियन्तति, ततो पडिनिय त्तित्ता इहमागच्छति २ दोचंपि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणइ २ इमीसे रयणप्पभाए पुढबीए तीसाए | निरयावाससयसहस्सेसु अन्नपरंसि निरयावासंसि नेरइयत्ताए उबवजित्तए, ततो पच्छा आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेजा एवं जाब आहेसत्तमा पुढवी । जीवे णं भंते! मारणंतियस मुग्धा एणं समोहए २ जे भविए चउसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु अन्नपरंसि असुरकुमाराबासंसि असुरकुमारसाए उववजित्तए जहा नेरइया तहा भाणियद्वा जाव धणियकुमारा । जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए २ जे भविए असंखेने पुढविकाइयावाससयस हस्सेसु अण्णयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकायत्ताए उबवत्तिए से णं भंते । मंदरस्स पवयस्स पुरच्छिमेणं केवतियं गच्छेज्जा केवतियं पाडणेला ?, गोयमा ! | लोयंतं गच्छेजा लोयंतं पाउणिज्जा, से णं भंते! तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेन वा सरीरं वा बंधेजा ?, गोषमा ! अत्थेगतिए तत्थगए चेव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा बंधेज अत्थेगतिए तओ पडि| नियन्तति २ ता इह हवमागच्छइ २त्ता दोचंपि मारणंतियसमुग्धाएणं समोहणति २त्ता मंदरस्स पवयस्स पुरच्छि | मेणं अंगुलस्स असंखेज भागमेत्तं वा संखेजति भागमेसं वा वालयं वा वालग्गपुहुत्तं वा एवं लिक्खं जूयं जबअंगुलं जाव जोयणकोटिं वा जोयणकोडाकोडिं वा संखेजेसु वा असंखेज्जेसु वा जोयणसहस्सेसु लोगते वा Education International For Parks Use Only ~558~ Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२४४-२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४४-२४५]] व्याख्या- एगपदेसियं सेढिं मोत्तूण असंखेनेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु अन्नयरंसि पुढविकाइयावासंसि पुढवि-||६|| ६ शतके प्रज्ञप्तिः | |काइयत्ताए उववजेत्ता तओ पच्छा आहारेज चा परिणामेज वा सरीरं चा बंधेजा, जहा पुरच्छिमेणं मंद-I||| उद्देशः ६अभयदेवी सरस्स पचयस्स आलावओ भणिओ एवं दाहिणेणं पचत्थिमेणं उत्तरेणं उढे अहे, जहा पुढविकाइया तहान या दृत्तिः एगिदियाणं सधेसिं, एकेकस्स छ आलावया भाणियवा। जीये गं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं समोहए २त्सा || X कगस्याहा जे भविए असंखेजेसु बेंदियावाससयसहस्सेसु अण्णयरंसि पेंदियावासंसि बेईदियत्ताए उववजित्तए से ॥२७॥ रादिसू२४५ ण भंते । तस्थगए व जहा नेरइया, एवं जाव अणुत्तरोववाइया । जीवे णं भंते ! मारणंतियसमुग्धाएणं| समोहए २जे भविए एवं पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएम महाविमाणेसु अन्नयरंसि अणुत्तरविमाणंसि अणु-18 त्तरोववाइयदेवत्ताए उववजित्तए, से णं भंते ! तत्थगए चेव जाव आहारेज वा परिणामेज वा सरीरं वा| ४ बंधेज ? । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ (सूत्र २४५) ॥ पुढविउद्देसो समत्तो ॥६-६॥ || 'करण'मित्यादि सूत्रम् , इह पृथिव्यो नरकपृथिव्य ईपत्प्रारभाराया अनधिकरिष्यमाणत्वात् , इह च पूर्वोक्तमपि | यत् पृथिव्याधुक्तं तत्तदपेक्षमारणान्तिकसमुद्घातवक्तव्यताऽभिधानार्थमिति न पुनरुक्तता, 'तत्थगए चेव'त्ति नरकाकावासप्राप्त एव 'आहारेज वा' पुद्गलानादद्यात् 'परिणामेज वत्ति तेषामेव खलरसविभागं कुर्यात् 'सरीरं वा बंधेज'|| प्रति तैरेव शरीरं निष्पादयेत् । 'अत्गहए'त्ति यस्तस्मिन्नेव समुद्घाते घियते 'ततो पडिनियसति' ततो-नरकावासा-1 समुद्घाताद्वा 'इह समागच्छ 'त्ति स्वशरीरे केवइयं गच्छे जत्ति कियदूरं गच्छेद ? गमनमाश्रित्य, 'केवइयं पाउ दीप अनुक्रम [३००-३०१] SARERainintenarana ~559~ Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [६], मूलं [२४४-२४५] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: - प्रत सूत्रांक [२४४-२४५]] - * * * जत्ति कियदूरं प्राप्नुयात् ? अवस्थानमानित्य, अंगुलस्स असंखेजहभागमेत्तं वे'त्यादि, इह द्वितीया सप्तम्यर्थे द्रष्टव्या, अङ्गलं इह यावत्करणादिदं दृश्य-विहत्थिं वारयणि वा कुञ्छि वा धणुं वा कोस वा जोयणं वा जोयणसयं वा जोयणसहस्सं वा जोयणसयसहस्सं वा' इति लोगते वे'त्यत्र गत्वेति शेषः, ततश्चायमा-उत्पादस्थानानुसारेणाङ्गलासल्येयभागमात्रादिके क्षेत्रे | समुद्घाततो गत्वा, कथम् ? इत्याह-एगपएसियं सेहिं मोत्तूण'त्ति यद्यष्यसमवेयप्रदेशावगाहस्वभावो जीवस्तथाऽपि नैकप्रदेशश्रेणीवत्र्यसत्यप्रदेशावगाहनन गच्छति तथास्वभावत्वादित्यतस्तां मुक्त्वेत्युक्तमिति ॥ षष्ठशते षष्ठः ॥६-६॥ - - - षष्ठोद्देशके जीववक्तव्यतोका सप्तमे तु जीवविशेषयोनिवक्तव्यतादिरर्थ उच्यते, तब चेदं सूत्रम् अहणं भंते ! सालीणं बीहीणं गोधूमाणं जवाणं जवजवाणं एएसि णं धन्नाणं कोडाउत्ताणं पल्लाउत्ताणं मंचाउत्ताणं मालाउत्साणं उल्लिसाणं लित्ताणं पिहियाणं मुहियाणं लंछियाणं केवतियं काल जोणी संचिढाइ, * गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उकोसेणं तिन्नि संवच्छराई तेण परं जोणी पमिलायद तेण परं जोणि प विद्धंसह तेण पर बीए अबीए भवति तेण परं जोणीवोच्छेदे पन्नते समणाउसो।। अह भंते ! कलायमसूर-| ट्रा तिलमुग्गमासनिफावकुलत्थआलिसंदगसतीणपलिमंधगमादीणं एएसि णं धनाणं जहा सालीणं तहा एया-13 णवि, नवरं पंच संवच्छराई, सेसं तं चेव । अह भंते ! अयसिकुसुंभगकोदवकंगुवरगरालगकोदूसगसणसरिस|वमूलगवीयमादीणं एएसि णं धन्नाणं, एयाणिवि तहेव, नवरं सत्त संबच्छराई, सेसं तं चेव ।। (सूत्रं २४६) - दीप अनुक्रम [३००-३०१] CREARSA अत्र षष्ठ-शतके षष्ठं-उद्देशक: समाप्त: अथ षष्ठं-शतके सप्तम-उद्देशक: आरम्भ: ~560 Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४६] दीप अनुक्रम [३०२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ २४६] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२७४॥ 'अह भंते' इत्यादि, 'साली 'ति कलमादीनां 'वीहीणं'ति सामान्यतः 'जवजवाणं' ति यवविशेषाणाम् 'एतेसिण'मित्यादि, उत्क्तत्वेन प्रत्यक्षाणां, 'कोहाउत्ताण'त्ति कोष्ठे-कुशूले आगुप्तानि तत्प्रक्षेपणेन संरक्षणेन संरक्षितानि कोष्ठागुप्तानि तेषां 'पल्लाउन्ताणं'ति इह पल्यो - वंशादिमयो धान्याधारविशेषः 'मंचा उत्ताणं माला उत्ताण मित्यत्र मञ्चमालयोर्भेद:“अकुड्डे होइ मंचो मालो य घरोवरिं होति” [अभित्तिको मञ्च मालश्च गृहोपरि भवति ] 'ओलित्ताणं' ति द्वारदेशे पिधानेन | सह गोमयादिनाऽवलिप्तानां 'लित्ताणं' ति सर्वतो गोमयादिनैव लिप्तानां 'पिहियाणंति स्थगितानां तथाविधाच्छादनेन 'मुद्दियाणं'ति मृत्तिकादिमुद्रावतां 'लंडियाणं ति रेखादिकृत लान्छनानां, 'जोणि'ति अङ्कुरोत्पत्तिहेतुः 'तेण परं'ति | ततः परं 'पमिलाय'त्ति प्रम्लायति वर्णादिना हीयते 'पविद्धंसद'ति क्षीयते, एवं च बीजमबीजं च भवति-उप्तमपि नाङ्कुरमुत्पादयति, किंमुक्तं भवति ? - 'तेण परं जोणीवोच्छेए पण्णत्ते'ति । 'कलाय'त्ति कलाया वृत्तचनका इत्यन्ये 'मसूर'त्ति भिलङ्गाः चनकिका इत्यन्ये 'निष्फाव'त्ति बल्लाः 'कुलत्थ'त्ति चवलिकाकाराः चिपिटिका भवन्ति 'आलिस| दग'त्ति ववलकप्रकाराः चवलका एवान्ये 'सईण'त्ति तुवरी 'पलिमंथग'त्ति वृत्तचनकाः कालचनका इत्यन्ये 'अयसि त्ति भङ्गी 'कुसुंभग'ति लट्टा 'वरग'ति वरहो, रालग'त्ति विशेषः 'कोदूसग'ति कोद्रवविशेषः 'सण'त्ति त्वमधाननालो धान्यविशेषः 'सरिसव'त्ति सिद्धार्थकाः 'मूलगयीय'त्ति मूलकबीजानि शाकविशेषवीजानीत्यर्थः ॥ अनन्तरं स्थितिरुक्ताऽतः स्थितेरेव विशेषाणां मुहूर्तादीनां स्वरूपाभिधानार्थमाह एगमेगस्स णं भंते! मुत्तस्स केवतिया ऊसासद्धा वियाहिया ?, गोयमा ! असंखेज्जाणं समयाणं समुद Education Internationa काळ-स्वरूपं एवं समु-गणितं For Pass Use Only ~ 561~ ६ शतके उद्देशः ७ धान्ययोनिकालः सू २४६काल प्ररूपणा सू० २४७ ॥ २७४॥ Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४७ -२४८] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०३ -३१२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ २४७ - २४८ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः Jan Education) |यसमितिसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवुच्चइ, संखेज्जा आवलिया ऊसासो संखेजा आवलिया नि| स्सासो- हट्ठस्स अणबगलस्स, निरुवकिस्स जंतुणो । एगे ऊसासनीसासे, एस पाणुक्ति बुच्चति ॥ १ ॥ सन्त पाणि से धोवे, सत्त थोचाई से लवे। लवाणं सत्तह्त्तरिए, एस मुहुत्ते विधाहिए ॥ २ ॥ तिन्नि सहस्सा सप्त व सयाई तेवतरं व ऊसासा। एस मुहतो दिट्ठो सबेहिं अनंतनाणीहिं ॥ ३ ॥ एषणं मुत्तपमाणेणं तीसमुहत्तो अहोरतो, पन्नरस अहोरत्ता पक्खो दो पक्खा मासे दो मासा उऊ तिन्नि उउए अयणे दो अपणे संवच्छरे पंचवच्छरिए जुगे वीसं जुगाई वाससयं दस वाससयाई वाससहस्सं सयं वाससहस्साई | वाससयसहस्सं चउरासीति वासस्यसहस्साणि से एगे पुगे चउरासीती पुवंगसय सहस्साई से एगे पुवे, [ एवं पूब्वे ] २ तुडिए २ अडडे २ अववे २ हुए २ उप्पले २ पउमे २ नलिणे २ अच्छणिउरे २ अए २ पउ य २ नए य २ चूलिया २ सीसपहेलिया २ एताव ताव गणिए एताव ताव गणियस्स विसए, तेण परं ? ओ मिए । से कि तं ओमिए?, २ दुविहे पण्णत्ते तंजहा पलिओवमे य सागरोवमे य, से किं तं पलि ओवमे ? से किं तं सागरोवमे ? | सत्थेण सुतिक्खेणचि छेत्तुं भेत्तुं च जं किर न सका । तं परमाणु सिद्धा वयंति आदि पमाणानं ॥ १ ॥ अनंताणं परमाणुषोग्गलाणं समुदयसमितिसमागमेणं सा एगा उस्सण्हसहियाति वा सण्हसहियाति वा उद्धरेणूति वा तसरेणूति वा रहरेणूति वा वालग्गेइ वा लिक्खाति वा ज्याति वा जवमज्झेति वा अंगुलेति वा, अङ्क उस्सण्हसहियाओ सा एगा सहसहिया अट्ठ सहसहियाओ काळ-स्वरूपं एवं समु-गणितं For Parts Only ~ 562~ janrary or Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४७ २४८] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०३ -३१२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ २४७ - २४८ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२७५॥ सा एगा उहरेणू अट्ट उहुरेणूओ सा एगा तसरेणू अट्ठ तसरेणूओ सा एगा रहरेणू अह रहरेणूओ से एगे देवकुरुउत्तरकुरुगाणं मणूसाणं वालग्गे एवं हरिवासरम्म गहेमवएरन्नवयाणं पुत्रविदेहाणं मणूसाणं अट्ठ वालग्गा सा एगा लिक्खा अट्ठ लिक्खाओ सा एगा ज्या अट्ठ ज्याओ से एगे जबमज्झे अट्ठ जवमज्झाओ से एगे अंगुले, एएणं अंगुलपमाणेणं छ अंगुलाणि पादो वारस अंगुलाई विहस्थी चउद्दीसं अंगुलाई रयणी अडयालीसं अंगुलाई कुच्छी छन्नउति अंगुलाणि से एगे दंडेति वा घणूति वा जूति वा नालियाति वा अवेति वा मुसलेति वा, एएणं धणुप्पमाणेणं दो धणुसहस्साई गाउयं चत्तारि गाडघाई जोयणं, एएणं जोयणप्पमाणेण जे पल्ले जोयणं आयामविक्खंभेणं जोयणं उहूं उच्चतेणं तं तिडणं सविसेसं परिरएणं, से णं | एगाहियवयाहियतेयाहिय उक्कोस सत्तरत्तप्परूढाणं संमट्टे संमिचिए भरिए वालग्गकोडीणं [ते], से णं वालग्गे नो अग्गी दहेजा नो बाऊ हरेजा नो कुत्थेजा नो परिविद्वंसेजा नो प्रतित्ताए हवमागच्छेजा, ततोर्ण वास|सए २ एगमेगं बालगं अवहाय जावतिएणं कालेणं से पल्ले खीणे नीरए निम्मले निट्टिए निल्लेवे अवहडे विसुद्धे भवति, से तं पलिओदमे । गाहा-एएसिं पलाणं कोडाकोडी हवेज दसगुणिया । तं सागरोवमस्स उ एकस्स भवे परिमाणं ॥ १ ॥ एएणं सागरोवमपमाणेणं चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालो |सुसम सुसमा १ तिन्नि सागरो वमकोडाकोडीओ कालो सुसमा २ दो सागरोवमकोटाकोडीओ कालो सुसम दूसमा ३ एगा सागरोयमकोडाकोडी बापालीसाए वाससहस्सेहिं ऊणिया कालो दूसमसुसमा ४ एकवीसं Eaton Internation काळ-स्वरूपं एवं समु-गणितं For Parts Use One ~ 563~ ६ शतक उद्देशः ७ कालस्वरूपं सू २४७ ॥२७५॥ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२४७-२४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: * प्रत सूत्रांक [२४७ 45% -२४८] - - गाथा: वाससहस्साई कालो दूसमा ५ एकवीसं वाससहस्साई कालो दूसमदूसमा ६ । पुणरवि ओसप्पिणीए 8/ | एकवीसं वाससहस्साई कालो दूसमदूसमा १ एकवीसं वाससहस्साई जाव चत्तारि सागरोवमकोडाकोडीओ कालोसुसमसुसमा,दस सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसप्पिणी दस सागरोचमकोडाकोडीओ कालो उस्सप्पिणीवीसं सागरोवमकोडाकोडीओ कालो ओसपिणी य उस्सप्पिणी य॥(सूत्रं २४७)जंबूद्दीवे णं भंते ! &ादीवे इमीसे ओसप्पिणीए सुसमसुसमाए समाए उत्तमट्टपत्ताए भरहस्स वासस्स केरिसए आगारभावपडो-|| यारे होत्था ?, गोयमा! बहुसमरमणिजे भूमिभागे होत्था, से जहानामए-आलिंगपुक्खरेति वा एवं उत्सरकुरुवत्तवया नेयवा जाव आसपंति सयंति, तीसेणं समाए भारहे वासे तत्थर देसे २ तहिं २ बहवे ओराला कुद्दाला जोव कुसविकुसविसुद्धरुक्खमूला जाव छविहा मगुस्सा अणुस जित्था पण्णत्ता, तं०-पम्हगंधा १ मियगंधा २ अममा ३ तेयली ४ सिहासणिं ५ चारि । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं २४८)॥६-७॥ 'ऊसासद्धावियाहिय'त्ति उच्छ्रासाद्धा इति उच्छासप्रमितकालविशेषाः 'व्याख्याता' उक्ता भगवद्भिरिति, अत्रोत्तरम्'असंखेज्जेत्यादि, असञ्जयातानां समयानां सम्बन्धिनो ये समुदाया-वृन्दानि तेषां या समितयो-मीलनानि तासां नया समागमः-संयोगः समुदायसमितिसमागमस्तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सैकाऽऽवलिकेति प्रोच्यते, 'संखेजा आव लिय'ति किल षट्रपञ्चाशदधिकशतद्वयेनावलिकानां क्षुल्लकभवग्रहणं भवति, तानि च सप्तदश सातिरेकाणि उच्छासनिःश्वास& काले, एवं च सङ्ख्याता आवलिका उच्छासकालो भवति ॥'हट्ठस्से त्यादि, हृष्टस्य'तुष्टस्य 'अनवकल्पस्य' जरसाऽनभि - ---- दीप अनुक्रम [३०३-३१२] काळ-स्वरूपं एवं सम्-गणितं ~564~ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२४७-२४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५] अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७ -२४८] गाथा: भूतस्य 'निरुपलिष्टस्य व्याधिना प्राक् साम्प्रतं चानभिभूतस्य 'जन्तोः' मनुष्यादेरेक उच्यासेन सह निःश्वास उच्छासनिः- ६ शतके प्रज्ञप्ति अभयदेवी श्वासः य इति गम्यते एप प्राण इत्युच्यते ॥ 'सत्ते'त्यादि गाथा, 'सत्त पाणू' इति प्राकृतत्वात् सप्त प्राणा उच्छासनिः- उद्देशः ७ यावृत्तिः | श्वासा य इति गम्यते स स्तोक इत्युच्यत इति वर्तते, एवं सप्त स्तोका ये स लवः, लवानां सप्तसप्तत्या एषः-अधिकृतो है मुहूर्तो व्याख्यात इति ॥ 'तिन्नि सहस्सा' गाहा अस्या भावार्थोऽयमू-सप्तभिरुच्छासैः स्तोकः स्तोकाश्च लवे सप्त कारभावा॥२७॥ ट्र ततो लवः सप्तभिर्गुणितो जातकोनपञ्चाशत् , मुहूर्ते च सप्तसप्ततिर्लवा इति सा एकोनपञ्चाशता गुणितेति जातं यथोक्तं त्यवतारश्च सू२४८ * मानमिति । एताव ताव गणियस्स विसए'त्ति एतावान्-शीर्षप्रहेलिकाप्रमेयराशिपरिमाणः तावदिति क्रमार्थः गणितविसापयो-गणितगोचरः गणितप्रमेय इत्यर्थः । 'ओवमिय'त्ति उपमया निवृत्तमौपमिकं उपमामन्तरेण यत् कालप्रमाणमनति- शयिना ग्रहीतुं न शक्यते तदोपमिकमिति भावः ॥ अथ पत्योपमादिप्ररूपणाय परमाण्वादिस्वरूपमभिधिरसुराह-'सत्येणे त्यादि, छेत्तुमिति खदादिना द्विधा क 'भे' सूच्यादिना सच्छिद्रं कर्नु 'या' विकल्पे किलेति लक्षणमेवास्येदम-|| | भिधीयते न पुनस्तं कोऽपि छेत्तं मेन वाऽऽरभत इत्यर्थसंसूचनार्थः, 'सिद्ध'त्ति ज्ञानसिद्धाः केवलिन इत्यर्थः न तु सिद्धाः| सिद्धिंगतास्तेषां वदनस्थासम्भवादिति, 'आदि' प्रथम 'प्रमाणानां वक्ष्यमाणोत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकादीनामिति, यद्यपि च | नैश्चयिकपरमाणोरपीदमेव लक्षणं तथाऽपीह प्रमाणाधिकाराव्यावहारिकपरमाणुलक्षणमिदमवसेयम् ॥ अथ प्रमाणान्तर ॥२७६॥ लक्षणमाह-'अर्णताण'मित्यादि, 'अनन्तानां व्यावहारिकपरमाणुपुद्गलानां समुदयाः-व्यादिसमुदयास्तेषां समितयोमीलनानि तासां समागमः-परिणामवशादेकीभवनं समुदयसमितिसमागमस्तेन या परिमाणमात्रेति गम्यते, सा एकाऽत्य दीप अनुक्रम [३०३-३१२] sures काळ-स्वरूपं एवं सम्-गणितं ~565 Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२४७-२४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: % प्रत सूत्रांक 25 [२४७ -२४८] %ACANCERGa % 5 न्तं लक्ष्णा लक्ष्णश्लक्ष्णा सैव श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका उत्-प्रावल्येन श्लक्ष्णश्लक्षिणका उत्श्लक्ष्णलक्ष्णिका 'इति' उपदर्शने 'वा' समुच्चये, एते च उत्श्लक्ष्णश्लक्ष्णिकादयोऽङ्गुलान्ता दश प्रमाणभेदा यथोत्तरमष्टगुणाः सन्तोऽपि प्रत्येकमनन्तपरमाMणुत्वं न ग्यभिचरन्तीत्यत उक्तम्-'उस्साहसहियाइ 'त्यादि, 'सण्हसहिय'त्ति प्राक्तनप्रमाणापेक्षयाऽष्टगुणत्वाद् उद्धरेण्यपेक्षया त्वष्टमभागत्वात् श्लक्ष्णश्लक्ष्णिका इत्युच्यते, 'उहुरेणु'त्ति अधिस्तियेक्चलनधर्मोपलभ्यो रेणुः उद्धरेणुः |'तसरेणु'त्ति व्यस्यति-पौरस्त्यादिवायुप्रेरितो गच्छति यो रेणुः स त्रसरेणुः 'रहरेणु'त्ति रथगमनोरखातो रेणू रथरेणुः, वालापलिक्षादयः प्रतीताः रियणि'त्ति हस्तः 'नालिय'त्ति यष्टिविशेषः 'अक्खे'त्ति शकटावयबविशेषः तं तिउण सविसेसं परिरएणति तद् योजनं त्रिगुणं सविशेष, वृत्तपरिधेः किश्चिन्यूनषडूभागादिकत्रिगुणत्वात् , 'से णं एकाहियबेहियतेहिय'त्ति षष्ठीबहुवचनलोपाद् एकाहिकद्व्याहिकच्याहिकानाम् 'उकोस'त्ति उत्कर्षतः सप्तरात्रप्ररूढानां भृतो वालाग्रकोटीनामिति सम्बन्धः, तत्रैकाहिक्यो मुण्डिते शिरसि एकेनाला यावत्यो भवन्तीति, एवं शेषास्वपि भावना कार्या, कथम्भूतः इत्याह-संसृष्टः' आकर्णभृतः संनिचितः प्रचयविशेषान्निविडः, किंबहुना ?, एवं भृतोऽसौ येन 'तेणं'ति तानि वालामाणि 'नो कुत्थेज'त्ति न कुथ्येयुः प्रचयविशेषाच्छुपिराभावाद्वायोरसम्भवाच्च नासारतां गच्छेयुरित्यर्थः, 3। अत एव 'नो परिविसेज'त्ति न परिविध्वंसेरन-कतिपयपरिशाटमप्यङ्गीकृत्य न विध्वंसं गच्छेयुः, अत एव च 'नो|| पूइत्ताए रखमागच्छेज'त्ति न पूतितया-न पूतिभावं कदाचिदागच्छेयुः 'तओण'ति तेभ्यो वालाग्रेभ्यः 'एगमेग वालग्गं अवहाय'त्ति एकैकं वालाग्रमपनीय कालो मीयत इति शेषः, ततश्च 'जावइएण'मित्यादि, यावता कालेन गाथा: दीप अनुक्रम [३०३-३१२] PESAKA काळ-स्वरूपं एवं सम्-गणितं ~566~ Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४७ २४८] + गाथा: दीप अनुक्रम [ ३०३ -३१२] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [७], मूलं [ २४७ - २४८ ] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १ ॥२७७॥ स पल्यः 'खीणे'त्ति वालाग्राकर्षणात्क्षयमुपगत आकृष्टधान्यकोष्ठागारवत्, तथा 'नीरए'त्ति निर्गतरजःकल्पसूक्ष्मतरवालामोऽपकृष्टधान्यरजः कोष्ठागारवत्, तथा 'निम्मले 'त्ति विगतमलकल्पसूक्ष्मतरवालाग्रः प्रमार्जनिकाप्रमृष्टकोष्ठागारवत्, तथा 'निट्ठिय'त्ति अपनेयद्रव्यापनयमाश्रित्य निष्ठां गतः विशिष्टप्रयलप्रमार्जितकोष्ठागारवत्, तथा 'निल्लेव'त्ति अत्यन्तसंश्लेषात्तन्मयतां गतः वालाग्रापहारादपनीतभित्त्यादिगतधान्यलेप कोष्ठागारवत्, अथ कस्मान्निर्लेपः ? इत्यत आह'अवहडे' त्ति निःशेषवालाग्रलेपापहारात् अत एव 'विशुद्धे'त्ति रजोमलकल्पवालाग्रविगमकृतशुद्धत्वापेक्षया लेपकल्पवालाग्रापहरणेन विशेषतः शुद्धो विशुद्धः, एकार्थाश्चैते शब्दाः, व्यावहारिकं चेदमद्धापल्योपमं, इदमेव यदाऽसयेयखण्डी| कृतैकैक वालाप्रभृतपल्याद्वर्षशते २ खण्डशोऽपोद्धारः क्रियते तदा सूक्ष्ममुच्यते, समये समयेऽपोद्धारे तु द्विधैयोद्धारपल्योपमं भवति, तथा तैरेव बालायें स्पृष्टाः प्रदेशास्तेषां प्रतिसमयापोद्धारे यः कालस्तद्व्यावहारिकं क्षेत्रपल्योपमं पुनस्तैरेवासये यखण्डीकृतैः स्पृष्टास्पृष्टानां तथैवापोद्धारे यः कालस्तत्सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् ॥ एवं सागरोपममपि विज्ञेयमिति ॥ कालाधिकारादिदमाह-- 'जंबुद्दीवे ण' मित्यादि, 'उत्तमट्टपत्ता एति उत्तमान् तत्कालापेक्षयोत्कृष्टानर्थान् - आयुष्कादीन् प्राप्ता उत्तमार्थप्राप्ता उत्तमकाष्ठां प्राप्ता वा प्रकृष्टावस्थां गता तस्याम् 'आगारभाव पडोयारे' त्ति आकारस्य आकृतेर्भावा:- पर्यायाः, अथवाऽऽकाराश्च भावाश्च आकारभावास्तेषां प्रत्यवतारः - अवतरणमाविर्भाव आकारभावप्रत्यवतारः 'बहुसमरमणि 'ति बहुसमः - अत्यन्तसमोऽत एव रमणीयो यः स तथा, 'आलिंगपुक्खरे' त्ति मुरजमुखपुढं, लाघवाय सूत्रमतिदिशन्नाह - 'एच' मित्यादि, उत्तरकुरुवक्तव्यता च जीवाभिगमोक्तैवं दृश्या 'मुइंगपुक्खरेइ वा सरतलेइ वा' काळ-स्वरूपं एवं समु-गणितं For Parts Only ~ 567~ ६ शतके उद्देशः ७ दिख सू २४८ ॥२७७॥ rryp Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [७], मूलं [२४७-२४८] + गाथा: पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४७ -२४८] | सरस्तलं सर एव 'करतखेइ वा' करतलं करएवेत्यादीति । एवं भूमिसमताया भूमिभागगततृणमणीनां वर्णपञ्चकस्य सुरभिगन्धस्य मृदुस्पर्शस्य शुभशब्दस्य वाप्यादीनां वाप्याद्यनुगतोत्पातपर्वतादीनामुत्पातपर्वताद्याश्रितानां हंसासनादीनां || लतागृहादीनां शिलापट्टकादीनां च वर्णको वाच्यः, तदन्ते चैतद् दृश्यम्-'तत्थ णं बहवे भारया मणुस्सा मणुस्सीओx य आसयंति सयंति चिट्ठति निसीयंति तुयहूंती'त्यादि । 'तत्थ तत्थे'त्यादि, तत्र तत्र भारतस्य खण्डे खण्डे 'देसे देसे || | खण्डांशे खण्डाशे 'तहिं तहिति देशस्यान्ते २, उद्दालकादयो वृक्षविशेषाः यावत्करणात् 'कयमाला णहमाला'इत्यादि दृश्य, 'कुसविकुसविसुद्ध रुक्खमूल'त्ति कुशा:-दर्भाः विकुशा-बल्वजादयः तृणविशेषास्तैर्विशुद्धानि-तदपेतानि वृक्षमूलानि-तदधोभागा येषां ते तथा, यावत्करणात् 'मूलमंतो कंदमंतो इत्यादि दृश्यम्, 'अणुसजिस्थति 'अनुसक्तवन्तः' पूर्वकालात् कालान्तरमनुवृत्तवन्तः 'पम्हगंध'त्ति पद्मसमगन्धयः 'मियगंध'त्ति मृगमदगन्धयः 'अममत्ति ममकाररहिताः 'तेयतलि'त्ति तेजश्च तलं च रूपं येषामस्ति ते तेजस्तलिनः 'सह'त्ति सहिष्णवः समर्थाः 'सर्णिचारे'त्ति || शनैः-मन्दमुत्सुकत्वाभावाचरन्तीत्येवंशीलाः शनैश्चारिणः ॥ षष्ठशते सप्तमोद्देशकः ॥ ६-७ ॥ गाथा: दीप अनुक्रम [३०३-३१२] KISHESE सप्तमोद्देशके भारतस्य स्वरूपमुक्तमष्टमे तु पृथिवीनां तदुच्यते, तत्र चादिसूत्रम्कह णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ पुडवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव इसी१ प्रागाख्याताः पृथ्व्य ईषत्पारभारविकला अत्र तया युता इति विशेषः । अत्र षष्ठ-शतके सप्तम-उद्देशक: समाप्त: अथ षष्ठं-शतके अष्टम-उद्देशक: आरम्भ: ~568~ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२४९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४९] गाथा: ख्या पभारा । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे गेहाति वा गेहावणाति वा, गोयमा! णो तिणढे १ शतके प्रज्ञप्तिः समढे । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए अहे गामाति वा जाव संनिवेसाति वा ? नो तिणढे समझे। उद्देशः ८ अभयदेवी- अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे उराला बलाया संसेयंति संमुच्छति चासं वासंति?. रलपृथ्व्याया वृत्तिः हंता अस्थि, तिन्निवि पकरेंति देवोवि पकरेति असुरोवि प० नागोवि प० । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयण अर्धागृहा॥२७८॥ कवादरे थणियसदे, हंता अत्थि, तित्रिवि पकरेति । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयण अहे वादरे अगणिकाए?. दासू २४९ गोयमा ! नो तिणढे समढे, नन्नत्थ विग्गहगतिसमावन्नएणं । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयण० अहे चंदिम जाव तारारूवा?, नो तिणढे समझे । अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए चंदाभाति वा २१, णो इणढे समढे, एवं दोचाएघि पुढविए भाणियब्वं, एवं तच्चाएवि भाणियब्व, नवरं देवोवि पकरेति असुरोवि |पकरेति णो णागो पकरेति. चउत्थाएवि एवं नवरं देवो एको पकरेति नो असुरोनो नागो पकरेति, एवं || हेडिल्लासु सबासु देवो एको पकरेति । अस्थि णं भंते ! सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं अहे गेहाइ वा २१, नो इणढे समहे । अस्थि णं भंते ! उराला बलाहया ? हंता अत्थि, देवो पकरेति असुरोवि पकरेइ नो नाओ आपकरेइ, एवं थणियसद्देवि । अस्थि णं भंते ! बायरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए !, णो इणद्वे समढे, नपणस्थ || !! विग्गहगतिसमावन्नएणं । अत्थिणं भंते ! चंदिम, णो तिणढे समढे । अस्थि णं भंते ! गामाइ वा , ॥२७८॥ मणो तिणढे सअस्थि णं भंते! चंदाभाति वा?, गोयमा! णो तिणढे समझे । एवं सर्णकुमारमाहिंदेसुद दीप अनुक्रम [३१३-३१४] HIMIRainrary.org ~569~ Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२४९ ] + गाथा: दीप अनुक्रम [३१३ -३१४] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५/१ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर् शतक [ - ], उद्देशक [८], मूलं [२४९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र - [०५], अंगसूत्र- [ ०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः नवरं देवो एगो पकरेति । एवं बंभलोएवि । एवं वंभलोगस्स उवरिं सबहिं देवो पकरेति पुच्छियो प बायरे आउary बायरे अगणिकाए वायरे वणरसहकाए अन्नं तं चेव || गाहा—तमुकाए कप्पपणए अगणी पुढवी य अगणि पुढचीसु । आऊतेऊवणस्सइ कप्पुवरिमकण्हराईसु ॥ १ ॥ सूत्रं २४९ ) ॥ 'कर ण'मित्यादि, 'बादरे अगणिकाएं' इत्यादि, ननु यथा बादराग्नर्मनुष्यक्षेत्र एवं सद्भावान्निषेध इहोच्यते एवं बादरपृथिवीकायस्यापि निषेधो वाच्यः स्यात् पृथिव्यादिष्वेव स्वस्थानेषु तस्य भावादिति, सत्यं, किन्तु नेह यद्यत्र नास्ति तत्तत्र सर्व निषिध्यते मनुष्यादिवद् विचित्रत्वात् सूत्रगतेरतोऽसतोऽपीह पृथिवीकायस्य न निषेध उक्तः, अष्कायवायुवनस्पतीनां त्विह घनोदध्यादिभावेन भावान्निषेधाभावः सुगम एवेति, 'नो नाओ'त्ति नागकुमारस्य तृतीयायाः पृथिव्या अधोगमनं नास्तीत्यत एवानुमीयते 'नो असुरो नो नागो'सि, इहाप्यत एव वचनाच्च चतुर्थ्यादीनामघोऽसुरकुमारनागकुमारयोर्गमनं नास्तीत्यनुमीयते, सौधर्मेशानयोस्त्वधोऽसुरो गच्छति चमरवत् न नागकुमारः अशक्तत्वात्, अत एवाह'देवो पकरेइ' इत्यादि, इह च वादरपृथिवी तेजसोर्निषेधः सुगम एवास्वस्थानत्वात् तथाऽबूवायुवनस्पतीनामनिषेधोऽपि सुगम एव, तयोरुदधिप्रतिष्ठितत्वेनाबूवनस्पति सम्भवाद् वायोश्च सर्वत्र भावादिति । एवं सर्णकुमारमाहिंदेसु'त्ति | इहातिदेशतो वादराबूवनस्पतीनां सम्भवोऽनुमीयते स च तमस्कायसद्भावतोऽवसेय इति । एवं बंभलोयस्स उबरिं सबहिं'ति अच्युतं यावदित्यर्थः परतो देवस्यापि गमो नास्तीति न तत्कृतबलाहकादेर्भावः 'पुच्छियो यति बादरोप्कायोऽझिकायो वनस्पतिकायश्च प्रष्टव्यः, 'अन्नं तं चैव'त्ति वचनान्निषेधश्च यतोऽनेन विशेषोकादन्यत्सर्वं पूर्वोक्त Education International For Parts Only ~570~ Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२४९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२४९] गाथा: व्याख्या- मेव वाच्यमिति सूचितं, तथा अवेयकादीपत्यारभारान्तेषु पूर्वोक्तं सर्व गेहादिकमधिकृतवाचनायामनुक्तमपि निषेधतो-|| उद्देश.८ प्रज्ञप्तिः ध्येयमिति ॥ अथ पृथिव्यादयो ये यत्राध्येतव्यास्तां सूत्रसङ्गहगाथयाऽऽह-तमुकाय'गाहा, 'तमुकाए'त्ति तमस्का-1 अभयदेवी हारनपृथ्व्यायूदवायप्रकरणे प्रागुक्ते 'कप्पपणए'त्ति अनन्तरोकसौधर्मादिदेवलोकपञ्चके 'अगणी पुढवी यत्ति अग्निकायपृथिवीकाया यधोगृहाया वृत्तिः | वध्येतव्यो-'अस्थि णं भंते ! बादरे पुढविकाए बादरे अगणिकाए ?, नो इणडे समठे, नण्णस्थ विग्गहमतिसमावन्नएर्णादिसू २४९ ॥२७९॥ इत्यनेनाभिलापेन । तथा 'अगणित्ति अग्निकायोऽध्येतव्यः 'पुढवीसुत्ति रलप्रभादिपृथिवीसूत्रेषु , 'अस्थि णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए अहे बादरे अगणिकाए'इत्याद्यभिलापेनेति । तथा 'आउतेऊवणस्सईत्ति अप्कायतेजोवनस्पतयोऽध्येतब्या:-'अस्थि णं भंते ! बादरे आउकाए बायरे तेउक्काए बायरे वणस्सइकाए, नो इणढे समहे' इत्यादि-18 नाऽभिलापेन, केषु ? इत्याह-कप्पुवरिम'त्ति कल्पपञ्चकोपरितनकल्पसूत्रेषु, तथा 'कण्हराईसुत्ति प्रागुक्त कृष्णाराजी सूत्र इति, इह च ब्रह्मलोकोपरितनस्थानानामधो योऽवनस्पतिनिषेधः स यान्यवायुप्रतिष्ठितानि तेषामध आनन्तर्येण || &ावायोरेव भावादाकाशप्रतिष्ठितानामाकाशस्यैव भावादवगन्तव्यः, अग्नेस्त्वस्वस्थानादिति ॥ अनन्तरं बादराप्कायादयो|ऽभिहितास्ते चायुर्वन्धे सति भवन्तीत्यायुर्वन्धसूत्रम् ॥२७॥ _कतिविहे णं भंते ! आउयबंधए पन्नत्ता, गोयमा! छबिहा आउयबंधा पन्नत्ता, तंजहा-जातिनामनिहभत्ताउए १ गतिनामनिहत्ताउए २ ठितिनामनिहत्ताउए ३ ओगाहणानामनिहत्ताउए ४ पएसनामनिहत्ताउए ५ अणुभागनामनिहत्ताउए ६ दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ जीवाणं भंते ! किं जाइनामनिहत्ता जाव अणु दीप अनुक्रम [३१३-३१४] ~571~ Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५० दीप भागनिहत्ता ?, गोयमा ! जातिनामनिहत्तावि जाब अणुभागनामनिहतावि, दंडओ जाव वेमाणियाणं । जीवा णं भंते । किंजाइनामनिहत्ताउया जाव अणुभागनामनिहत्ताउया ?, गोयमा ! जाइनामनिहत्ताउयावि जाव अणुभागनामनिहत्ताउयावि, दंडओ जाव बेमाणियाणं । एवं एए दुवालस दंडगा भाणियबा । जीवा णं भंते ! किं जातिनामनिहत्ता १ जाइनामनिहत्ताज्या २१,१२॥ जीवा र्ण भंते ! किंजाइनामनिवत्ता जातिनामनिउत्ताउया ४ जाइगोयनिहत्ता ५ जाइगोयनिहत्ताउया ६ जातिगोपनिउत्ता ७ जाइगोयनिउत्ताउया ८ जाइणामगोयनिहत्ता ९ जाइणामगोयनिहत्ताउया १० जाइणामगोयनिउत्ता ११? जीवा णं भंते ! किं जाइनामगोयनिउत्ताउया १२ जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउया ?, गोयमा ! जाइनामगोयनिउत्ताउयावि जाव अणुभागनामगोयनिउत्ताउयावि दंडओ जाव वेमाणियाणं ॥ (सूत्रं२५०)॥ । तत्र 'जातिनामनिहत्ताउए'त्ति जातिः एकेन्द्रियजात्यादिः पञ्चधा सैव नामेति-नामकर्मण उत्तरप्रकृतिविशेषो जीवपरिणामो वा तेन सह निधत्त-निपिक्तं यदायुस्तजातिनामनिधत्तायुः, निषेकश्च कर्मपुगलानां प्रतिसमयमनुभवनाथं | 8||रचनेति १, 'गतिनामनिधत्ताउए'त्ति गतिः-नरकादिका चतुर्धा शेष तथैव २, 'ठिइनामनिधत्ताउए'त्ति स्थिति| रिति यत्स्थातव्य कचिद्विवक्षितभवे जीवेनायुःकर्मणा वा सैव नाम-परिणामो धर्मः स्थितिनाम तेन विशिष्टं निधत्तं यदायुर्दलिकरूपं तत् स्थितिनामनिधत्तायुः ३, अथवेह सूत्रे जातिनामगतिनामावगाहनानामग्रहणाजातिगत्यवगाहनानां प्रकृतिमात्रमुक्त, स्थितिप्रदेशानुभागनामग्रहणात्तु तासामेव स्थित्यादय उक्तास्ते च जात्यादिनामसम्बन्धित्वान्नाम अनुक्रम [३१५] Nirauasaram.org ~572~ Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५०] दीप व्याख्या- 1 | कर्मरूपा एवेति नामशब्दः सर्वत्र कर्मार्थो घटत इति स्थितिरूपं नाम-नामकर्म स्थितिनाम तेन सह निधत्तं यदायस्तस्थि-||६ शतके प्रज्ञप्तिः तिनामनिधत्तायुरिति ३, 'ओगाहणानामनिधत्ताउएत्ति अवगाहते यस्यां जीवः साऽवगाहना-शरीरं औदारिकादि अभयदा- तस्था नाम-श्रीदारिकादिशरीरनामकम्भेत्यवगाहनानाम अवगाहनारूपो वा नाम-परिणामोऽवगाहनानाम तेन सह काद जातिनामया वृत्तिः१ यन्निधत्तमायुस्तदवगाहनानामनिधत्तायुः ४, 'पएसनामनिहत्ताउए'त्ति प्रदेशानां-आयुःकर्मद्रव्याणां नाम-तथाविधा | सू० २५० ॥२८॥ परिणतिः प्रदेशनाम प्रदेशरूपं वा नाम-कर्मविशेष इत्यर्थः प्रदेशनाम तेन सह निधत्तमायुस्तरप्रदेशनामनिधत्तायुरिति ५, 'अणुभागनामनिधत्ताउए'त्ति अनुभाग--आयुर्द्रव्याणामेव विपाकस्तल्लक्षण एव नाम-परिणामोऽनुभागनाम अनुभागरूपं वा नामकर्म अनुभागनाम तेन सह निधत्तं यदायुस्तदनुभागनामनिधत्तायुरिति । अथ किमर्थं जात्यादिनाम कर्म-16 णाऽऽयुर्विशेष्यते ?, उच्यते, आयुष्कस्य प्राधान्योपदर्शनार्थ यस्मानारकाद्यायुरुदये सति जात्यादिनामकर्मणामुदयो भवति, नारकादिभवोपग्राहकं चायुरेव, यस्मादुक्तमिहैव-'नेरइए णं भंते ! नेरइएसु उववज्जइ अनेरइए नेरइएसु उबवजह?, गोयमा ! नेरइए नेरइएसु उववजइ नो अनेरइए नेरइएसु उपवजईत्ति, एतदुक्तं भवति-नारकायुःप्रथमसमयसंवेदन, एव नारका उच्यन्ते तत्सहचारिणां च पञ्चेन्द्रियजात्यादिनामकर्मणामप्युदय इति, इह चायुर्वन्धस्य पविधत्वे उपक्षिप्ते यदायुपः षडूविधत्वमुक्तं तदायुषो बन्धाव्यतिरेकाद्वद्धस्यैव चायुर्व्यपदेशविषयत्वादिति । 'दंडओत्ति 'नेरइयाणं भंते । कतिविहे आउयबंधे पन्नत्ते' ? इत्यादिवैमानिकान्तश्चतुर्विंशतिदण्डको वाच्योऽत एवाह-'जाव वेमाणियाण'ति ॥ अथ कर्मविशेषाधिकारात्तद्विशेषितानां जीवादिपदानां द्वादश दण्डकानाह-'जीचा णं भंते ! इत्यादि, 'जातिनाम-12 अनुक्रम [३१५] R-6- 256515 SanEairature MIRaitaram.org ~573~ Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५०] दीप निहत्त'त्ति जातिनाम निघत-निषितं विशिष्टबन्धं वा कृतं यैस्ते जातिनामनिधत्ताः १ एवं गतिनामनिधत्ताः २, यावस्करणात् 'ठितिनामनिहत्ता ३ ओगाहणानामनिहत्ता ४ पएसनामनिहत्ता ५ अणुभागनामनिहत्ता ६' इति दृश्य. व्याख्या तथैव, नवरं जात्यादिनानां या स्थितिय च प्रदेशा यश्चानुभागस्तस्थित्यादिनाम अवगाहनानाम शरीरनामेति. | अयमेको दण्डको वैमानिकान्तः १, तथा 'जातिनामनिहत्ताउति जातिनाम्ना सह निधत्तमायुयस्ते जातिनामनिधसायुषः, एवमन्यान्यपि पदानि, अयमन्यो दण्डकः २, एवमेते 'दुवालस दंडग'त्ति अमुना प्रकारेण द्वादश दण्डका भवन्ति, तत्र द्वावाधौ दर्शितावपि सङ्ख्यापूरणार्थं पुनदर्शयति-जातिनामनिधत्ता इत्यादिरेका, 'जाइनामनिहत्ताउया' इत्यादिद्वितीयः२। 'जीवाणं भंते ! किंजाइनामनिउत्ता'इत्यादिस्तृतीयः ३, तत्र जातिनाम नियुक्त-नितरां युक्तPा संबद्धं निकाचितं घेदने वा नियुक्तं पैस्ते जातिनामनियुक्ताः, एवमन्यान्यपि ५, 'जाइनामनिउत्ताउया इत्यादिश्चतर्थः | तत्र जातिनाम्ना सह नियुक्तं-निकाचितं वेदयितुमारब्धं वाऽऽयुथै स्ते तथा, एवमन्यान्यपि ५, 'जाइगोयनिहत्ता' इत्यादिः पञ्चमः, तत्र जाते:-एकेन्द्रियादिकाया यदुचितं गोत्र-नीचैर्गोत्रादि तजातिगोत्रं तन्निधत्तं यैस्ते जातिगोत्रनिधत्ता, एवमन्यान्यपि ५, जाइगोयनिहत्ताउया य इत्यादि षष्ठः, तत्र जातिगोत्रेण सह निधत्तमायुयैस्ते जातिगोत्रनिधत्तायुप। एवमन्यान्यपि ५ 'जाइगोयनिउत्ता'इत्यादिसप्तमः ७ तत्र जातिगोत्रं नियुक्त यैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि ५, | 'जाइगोयनिउत्ताउया इत्यादिरष्टमः ८ तत्र जातिगोत्रेण सह नियुक्तमायुयस्ते तथा, एवमन्यान्यपि ५, 'जातिनामगोयनिहत्ता इत्यादिर्नवमः ९ तत्र जातिनाम गोत्रं च निधत्तं यैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि ५, 'जीवा णं भंते । किं जाइ अनुक्रम [३१५] ************** Ramanand Maanasaram.org ~574~ Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२५०] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५०] सृतोदका दीप व्याख्या l नामगोयनिहत्ताउया ?" इत्यादिर्दशमः १० तत्र जातिनाम्ना गोत्रेण च सह निधत्तमायुयैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि ५, ६ शतके प्रज्ञप्तिः 'जाइनामगोयनिउत्ता'इत्यादिरेकादशः ११ तत्र जातिनाम गोत्रं च नियुक्त यैस्ते तथा, एवमन्यान्यपि ५, 'जीवा णं उद्देशः८ अभयदेवी- भंते ! किं जाइनामगोयनिउत्ताउया इत्यादिदिशः १२, तत्र जातिनाना गोत्रेण च सह नियुक्तमायुयैस्ते तथा, एवम- समुद्राणामु या वृत्तिः१४ न्यान्यपि ५॥ इह च जात्यादिनामगोत्रयोरायुषश्च भवोपग्राहे प्राधान्यख्यापनार्थं यथायोग जीवा विशेषिताः, वाचना|न्तरे चाचा एवाष्टौ दण्डका दृश्यन्त इति । पूर्व जीवाः स्वधर्मतः प्ररूपिताः, अथ लवणसमुद्रं स्वधर्मत एव प्ररूपयन्नाह-13 दिसू २५१ ॥२८॥ | लवणे णं भंते ! समुद्दे किं उस्सिओदए पत्थडोदए खुभियजले अखुभियजले ?, गोयमा ! लवणे णं समुदे || उसिओदए नो पत्थडोदए खुभियजले नो अखुभियजले एत्तो आत्तिं जहा जीवाभिगमे जाव से तेण| गोयमा बाहिरया णं दीवसमुदा पुना पुनप्पमाणा वोलमाणा बोसहमाणा समभरघहत्ताए चिट्ठति है।संठाणओ एगविहिविहाणा वित्धारओ अणेगविहिविहाणा दुगुणादुगुणप्पमाणओ जाव अस्सि तिरियलोए असंखेजा दीवसमुदा सयंभुरमणपज्जवसाणा पन्नत्ता समणाउसो।। दीवसमुद्दा णं भंते ! केवतिया नाम|घे हि पन्नत्ता ?, गोयमा ! जावतिया लोए सुभा नामा सुभा रूवा सुभा गंधा सुभा रसा मुभा फासा एवतिया णं दीवसमुद्दा नामधेजेहिं पन्नत्ता, एवं नेयवा सुभा नामा उद्धारो परिणामो सघजीवा गं । सेवं ॥२८॥ भिंसे ! सेवं भंते ! (सूत्रं २५१)॥६-८॥ छट्ठसयस्स अट्ठमो 'लवणे 'मित्यादि, 'उस्सिओदए'त्ति 'उच्छ्रितोदकः' अर्द्धवृद्धिगतजलः, तद्वृद्धिश्च साधिकषोडशयोजनसहस्राणिsi अनुक्रम [३१५] 6456456-05-5 SARERatunintamarkomal ~575~ Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२५१] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५१] दीप पत्थडोदए'त्ति प्रस्तृतोदक समजल इत्यर्थः 'खुभियजले'त्ति वेलावशात् , बेला च महापातालकलशगतवायुक्षोभादिति, एत्तोआढत्त'मित्यादि, इतः सूत्रादारब्धं तद्यथा जीवाभिगमे तथाऽध्येतन्यं, तच्चेदम्-'जहा णं भंते ! लवणसमुद्दे का उस्सिओदए नो पत्थयोदए खुभियजले नो अखुभियजले तहा गं बाहिरगा समुद्दा किं उस्सिओदगा ४१, गोयमा । बाहिरगा समुद्दा नो उस्सिओदगा पत्थडोदगा नो खुभियजला अखुभियजला पुण्णा पुष्णप्पमाणा वोलट्टमाणा बोसट्ट & माणा समभरघडताए चिट्ठति । अस्थि णं भंते ! लवणसमुद्दे वहवे ओराला बलाया संसेयंति संमुच्छंति वासं वासंति !, हता अस्थि । जहा णं भंते ! लवणे समुद्दे बहवे ओराला ५ तहा णं बाहिरेसुवि समुद्देसु ओराला ५१, नो इणढे समढे । से केणडेणं भंते । एवं चुचइ-बाहिरगा णं समुद्दा पुन्ना जाव घडताए चिट्ठति 1, गोयमा ! बाहिरएसु णं समुद्देसु बहवे | & उदगजोणीया जीवा य पोग्गला य उदगत्ताए वकमंति विउक्कमति चयति उबवज्जति' शेष तु लिखितमेवास्ति, व्यक्त चेदमिति । 'संठाणओ'इत्यादि, एकेन 'विधिना प्रकारेण चक्रवाललक्षणेन विधानं-स्वरूपस्य करणं येषां ते एकविधिविधानाः, विस्तारतोऽनेकविधिविधानाः, कुतः? इत्याह-'दुगुणे'त्यादि, इह यावत्करणादिदंदृश्यम्-'पवित्थरमाणा २ बहुउप्पलपउमकुमुयनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयसमहापुंडरीयसतपत्तसहस्सपत्तकेसरफुल्लोवइया' उत्पलादीनां केशरैः फुल्लैश्चोपपेता इत्यर्थः 'उन्भासमाणवीइय'त्ति,(अवभासमानवीचयः सामान्यवातस्य सर्वत्र भावात् पातालकलशानामन्यत्राभावेऽपि नासंगतिवींचीनां) 'सुभा नाम'त्ति स्वस्तिकश्रीवत्सादीनि 'सुभा रूब'त्ति शुक्लपीतादीनि देवादीनि वा 'मुभा गंध'त्ति सुरभिगन्धभेदाः गन्धषन्तो वा कप्पूरादयः 'सुभा रसत्ति मधुरादयः रसवन्तोवाः शर्करादयः 'सुभा कास'त्ति | अनुक्रम [३१६] ~576~ Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२५१] दीप अनुक्रम [३१६] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [८], मूलं [२५१] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी यावृत्तिः १ ॥२८२ ॥ मृदुप्रभृतयः स्पर्शवन्तो वा नवनीतादय: 'एवं नेयवा सुभानाम'त्ति एवमिति - द्वीपसमुद्राभिधायकतया नेतव्यानि शुभनामानि पूर्वोक्तानि तथा 'उद्धारो' त्ति द्वीपसमुद्रेषूद्धारो नेतव्यः, स चैवम् — 'दीवसमुद्दा णं भंते ! केवइया उद्धारसमएणं पन्नत्ता ?, गोयमा ! जावइया अड्डाइजाणं उद्धारसागरोवमाणं उद्धारसमया एवइया दीवसमुद्दा उद्धारसमएणं | पन्नत्ता' येनैकैकेन समयेन एकैकं वालाग्रमुद्रियतेऽसाबुद्धारसमयोऽतस्तेन । तथा 'परिणामो 'त्ति परिणामो नेतव्यो द्वीपसमुद्रेषु स चैवम्- 'दीवसमुद्दा णं भंते! किं पुढविपरिणामा आउपरिणामा जीवपरिणामा पोग्गलपरिणामा १, ४ गोयमा ! पुढवीपरिणामावि आउपरिणामावि जीवपरिणामावि पोग्गल परिणामावी' त्यादि । तथा 'सङ्घजीवाणं'ति सर्व जीवानां द्वीपसमुद्रेषूत्पादो नेतव्यः, स चैवम्-- ' दीवसमुद्देसु णं भंते ! सबे पाणा ४ पुढविकाइयत्ताए जाब तस्काइयत्ताए उववन्नपुचा ?, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणतखुत्तो 'ति ॥ पष्ठशतेऽष्टमोद्देशकः ॥ ६-७ द्वीपादिषु जीवाः पृथिव्यादित्वेनोत्पन्नपूर्वा इत्यष्टमोदेश के उक्तं, नवमे तूत्पादस्य कर्मबन्धपूर्वकत्वादसावेव प्ररूप्यत इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् - जीवे णं भंते ! णाणावरणिज्जं कम्मं बंधमाणे कति कम्मप्पगडीओ बंधति ?, गोवमा ! सत्तविहबंध वा अविहबंध वा छविबंधए वा, बंधुद्देसो पनवणाए नेो ॥ ( सू० २५२ ) ॥ 'जीवे ण' मित्यादि, 'सत्तविहबंध' आयुरवन्धकाले 'अद्वविध'त्ति आयुर्वन्धकाले 'छविबंध 'ति Education Internation अत्र षष्ठं शतके अष्टम उद्देशकः समाप्तः अथ षष्ठं शतके नवम उद्देशक: आरम्भः For Parks Use Only ६. शतके उद्देशः ८ समुद्राणामु x त्सुतोदका दि सू २५२ ~ 577~ ॥२८२|| Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२५२] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५२] दीप | सूक्ष्मसम्परायावस्थायां मोहायुषोरबन्धकत्वात् । 'बंधुदेसो इत्यादि, बन्धोद्देशक: प्रज्ञापनायाः सम्बन्धी चतुर्विंशति-10 | तमपदात्मकोऽत्र स्थाने 'नेतव्यः' अध्येतव्यः, स चायम्-'नेरइए णं भंते ! णाणावरणिज कम्मं बंधमाणे कइ कम्मपग&डीओ बंधइ, गोयमा ! अविहबंधगे या सत्तविहवंधगे वा एवं जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे इत्यादि । जीवाधिकाराद्देवजीवमधिकृत्याह देवे णं भंते ! महिडीए जाव महाणुभाए बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू एगवन्नं एगरूवं विउवि-18 त्तिए?, गोयमा ! नो तिण? । देवे णं भंते ! बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू, हंता पभू, से णं भंते ! किं इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउष्पति तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुचति अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता ४ विउद्यति ?, गोयमा 1 नो इहगए पोग्गले परियाइत्ता विउवति, तत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विकुवति, नो अन्नत्थगए पोग्गले परियाइत्ता विउधति, एवं एएणं गमेणं जाव एगवन्नं एगरूवं १ एगवणं अणेगरूवं २ |अणेगवन्नं एगरूवं ३ अणेगवन्नं अणेगरूवं ४ चउभंगो । देवे भंते ! महिहीए जाव महाणुभागे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू कालयं पोग्गलं नीलगपोग्गलत्ताए | परिणामेत्तए नीलगं पोग्गलं वा कालगपोग्गलत्ताए परिणामेत्तए ?, गोयमानो तिणढे समढे, परियाइत्ता पभू । से णं भंते ! किं इहगए , पोग्गले तं चेव नवरं परिणामेतित्ति भाणियचं, एवं कालगपोग्गलं ! -SERSE-CLASSIC अनुक्रम [३१७] गंधनो पर्शना Maanasaram.org ~578 Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२५३] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५३]] व्याख्या- अभयदेवीया वृत्तिः ॥२८॥ दीप लोहियपोग्गलसाए, एवं कालगणं जाव सुकिलं, एवं णीलएणं जावं सुकिल्ल, एवं लोहियपोग्गल जाप सुमि- शतके लत्ताए, एवं हालिइएणं ब्राव सुधिलं, तंजहा-एवं एयाए परिवाडीए अंधरसफास. कक्लडफासपोग्गलं त उद्देशः १ मजयफासपीगगलताए २ एवं दो दोगकपलहुय २सीयउसिण २णिहलुक्ख ९, बन्नाइसवस्य परिणामेह, दिवानापुर । आलावगा प दो दो पोग्गले अपरियाइत्ता परियाइत्ता ॥ (सून २५३)॥ | लानादाने पुगल परि'देवे पा'मित्यादि, 'एगवनंति कालायेकवर्णम् 'एकरूपम्' एकविधाकारं स्वशरीरादि, 'इहमए'त्ति प्रज्ञापनपेक्षया ||णामाशक्तिः इहगतान् प्रज्ञापकप्रत्यक्षासन्नक्षेत्रस्थितानित्यर्थः 'तस्थगए'त्ति देवः किल प्रायो देवस्थान एवं वर्तत इति तत्रगतान- सू २५३ देवलोकादिगतान 'अण्णत्वगए'त्ति प्रज्ञापकक्षेत्रादेवस्थानाचापरवस्थितान् , तत्र च खस्थान एवं प्रायो विकुर्वन्ते यतः | कृतोत्तरवैक्रियरूप एवं प्रायोऽन्यत्र गच्छतीति नो इहगतान् पुद्गला पर्यादाय इत्याद्युक्तमिति । 'कालयं पोग्गलं नीलपोग्गलत्ताप'इत्यादी कालनीललोहितहारिद्रशुकुलक्षणानां पञ्चानां वर्णानां दश द्विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि एवं एयाए परिवाडीए गंधरसफास'त्ति इह सुरभिदुरभिलक्षणगन्धद्वयस्यैकमेव, तिक्तकटुकषायाम्लमधुररसलक्षणानां पञ्चानां रसानां दश विकसंयोगसूत्राण्यध्येयानि, अष्टानां च स्पर्शानां चत्वारि सूत्राणि, परस्परविरुद्धेन कर्कशमृदादिना द्वये-४ & नैकैकसूत्रनिष्पादनादिति ॥ देवाधिकारादिदमाह ॥२८३॥ A अविसुद्धले से णं भंते !. देवे असमोहएणं अप्पाणएणं अविमुखलेसं देवं देवि अन्नयरं जाणति पासति ११॥ जो तिणड्डे समढे, एवं अविसुद्धलेसे असमोहएणं अप्पामेणं विसुद्धलेसं देवं ३,२। अविमुम्हलेसे समो-४ अनुक्रम [३१८] ~579~ Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [९], मूलं [२५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५४] दीप अनुक्रम [३१९] हएणं अप्पाणेणं अधिसुद्धलेलं देवं ३, ३। अघिसुद्धलेसे देवे समोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ३, ४॥ || अविसुद्धलेसे समोहयाअसमोहएणं अपाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ३, ५। अविसुद्धलेसे समोहया विसुद्धमालेसं देवं ३, ६॥ विमुद्धलेसे असमो० अविमुखलेसे देवं ३,१। विसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं X||३,२। विसुद्धलेसे गं भंते ! देवे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं ३ जाणइ०?, हंता जाणइ०, एवं विसद्धसमो. & विमुद्धलेसं देवं ३ जाणइ ?, हंता जाणइ ४। विसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अधिसुद्धलेसं देवं ३,५॥ विसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं विसुद्धलेसं देवं ३,६। एवं हेडिल्लएहि अट्टहिं न जाणहन पासह उवरिल्लएहिं। चाहिं जाणइ पासइ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ (मूत्र २५४) छट्ठसए नवमो उद्देसो॥६-९॥ IS 'अविसुरे'त्यादि, 'अविसुद्धलेसे गंति अविसुद्धलेश्यो-विभङ्गज्ञानो देवः 'असमोहएणं अप्पाणेण'ति अनुप युक्तेनात्मना, इहाविशुद्धलेश्या १ असमवहतात्मा देवः २ अविशुद्धलेश्य देवादिकम् २, इत्यस्य पदत्रयस्य द्वादश | विकल्पा भवन्ति, तद्यथा-'अविसुद्धलेसे णं देवे असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेस्सं देवं ३ जाणइ पासइ, नो | इणहे समठे'इत्येको विकल्पः १ । 'अविसुद्धलेसे असम्मोहएणं विसुद्धलेसं देवं नो इण: समडे'इति द्वितीयः२॥ अविसुद्धलेसे समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं० नो इणहे समझे इति तृतीयः ३ । 'अविसुद्धलेसे समोहएणं विसुद्धलेस देवं०, नो इणडे समडे' इति चतुर्थः ४ । 'अविसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ३, णो इणहे समढे' इति पञ्चमः ५। 'अविसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं विसुद्धलेसं देवं ३, नो इणढे समडे'इति षष्ठः ६ । 'विसुद्धलेसे 0 52525 Halasaram.org ~580 Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-1, उद्देशक [९], मूलं [२५४] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक शतके उद्देशः ९ अविशुद्धत यावृत्तिः१४ २५४] देवाद्यनव सू२५४ दीप अनुक्रम [३१९] व्याख्या असमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ३ नो इण्डेत्ति सप्तमः । विसुद्धलेसे असमोहएणं विसुद्धलेसं देवं ३, नो प्रज्ञप्तिः । इणढे समडे'त्ति अष्टमः ८ाएतैरष्टभिर्विकल्पैर्न जानाति, तत्र पद्भिर्मिध्यादृष्टित्वात् द्वाभ्यां त्वनुपयुक्तत्वादिति । 'विसुद्धलेसे अभयदेवी-४ समोहएणं अविसुद्धलेसं देवं ३ जाणइ ?, हता जाणइ'इति नवमः९। विसुद्धलेसे संमोहएणं विसुद्धलेसं देवं ३ जाणइ ? हंता जाणइ'इति दशमः १० । विसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं अविसुद्धलेसं देवं ३ जाणइ २१, हंता जाणइत्ति एकादश ११ । 'विसुद्धलेसे समोहयासमोहएणं अप्पाणेणं विसुद्धलेसं देवं ३ जाणइ २'त्ति द्वादश १२ । एभिः पुन-II | १२८४॥ श्चतुभिर्विकल्पः सम्यग्दृष्टित्वादपयुक्तत्वानुपयुक्तत्वाच्च जानाति, उपयोगानुपयोगपक्षे उपयोगांशस्य सम्यग्ज्ञानहेतुत्वादिति। एतदेवाह-'एवं हेडिल्लेहिं'इत्यादि, वाचनान्तरे तु सर्वमेवेदं साक्षाद् दृश्यत इति ॥ षष्ठशते नवमोदेशकः॥६-९॥ प्रागविशुद्धलेश्यस्य ज्ञानाभाव उक्तः, अथ दशमोद्देशकेऽपि तमेव दर्शयन्निदमाह अन्नउत्थिया णं भंते । एवमाइक्खंति जाव परुति जावतिया रायगिहे नयरे जीचा एवइयाणं जीवाणं नो चकिया केइ सुहं वा दुहं वा जाव कोलट्ठिगमायमवि निष्फावमायमवि कलममायमवि मासमायमपि | मुग्गमायमवि जूयामायमवि लिक्खामायमपि अभिनिवदृत्ता उवदंसित्तए, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा! जन्नं ते अन्नउत्थिया एवमाइक्खंति जाव मिच्छं ते एवमासु, अहं पुण गोयमा! एवमाइक्खामि जाव परूचिमि सवलोएवियणं सहजीवाणं णो चकिया कोई मुहं वा तं चेव जाव उवदंसित्तए। सेकेणट्टेणं, गोयमा!! अयन्नं जंबूदीये २ जाव विसेसाहिए परिक्खेवेणं पन्नत्ते, देवे णं महिहीए जाव महाणुभागे एगं महं सविले ॥२८४॥ अत्र षष्ठ-शतके नवम-उद्देशक: समाप्त: अथ षष्ठ-शतके दशम-उद्देशक: आरम्भ: ~581~ Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) प्रत सूत्रांक [२५५] दीप अनुक्रम [३२०] [भाग- ८] “भगवती”- अंगसूत्र - ५ / १ (मूलं + वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [–], अंतर् शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [२५५] पूज्य आगमोद्धारकश्री संशोधितः मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित.. आगमसूत्र- [ ०५], अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्तिः वर्ण गंधसमुग्गगं महाय तं अवद्दालेति तं अवदालेत्ता जाव इणामेव कट्टु केवलकप्पं जंबुदीव २ तिहिं | अच्छरानिवाएहिं तिसतखुत्तो अणुपरियट्टित्ता णं हवमागच्छेजा से नूणं गोयमा ! से केवलकप्पे जंबुद्दीवे २ तेहिं घाणपोग्गलेहिं फुडे ?, हंता फुडे, चकिया णं गोयमा ! केति तेसिं घाणपोग्गलाणं कोलट्टियामायमवि जाब उवदंसित्तए ?, णो तिणट्टे समड़े से तेणट्टेणं जाव उवदंसे त्तए | ( सू २५५ ) ॥ 'अन्नत्थी' त्यादि, 'नो चक्कियति न शक्नुयात् 'जाव कोलट्ठियमायमवि'त्ति आस्तां बहु बहुतरं वा यावत् कुवलास्थिकमात्रमपि तत्र कुबलास्थिकं बदरकुलकः 'निष्फाव'ति वलः 'कल'त्ति कलायः 'जय'त्ति यूका 'अयन्न' मित्यादिईष्टान्तोपनयः, एवं यथा गन्धपुद्गलानामतिसूक्ष्मत्वेनामूर्त्तकरूपत्वात् कुवास्थिकमात्रादिकं न दर्शयितुं शक्यते एवं सर्वजीवानां सुखस्य दुःखस्य चेति ॥ जीवाधिकारादेवेदमाह जीवे णं भंते । जीवे २ जीवे १, गोयमा ! जीवे ताव नियमा जीवे जीवेवि नियमा जीवे । जीवे णं भंते । नेरइए नेरइए जीवे ?, गोयमा ! नेरइए ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय नेरइए सिय अनेरहए, जीवे णं भंते! असुरकुमारे असुरकुमारे जीवे ?, गोयमा ! असुरकुमारे ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिप असुरकुमारे सिय णो असुरकुमारे, एवं दंडओ भाणियो जाव बेमाणियाणं। जीवति भंते! जीवे जीवे जीवति ?, गोपमा ! जीवति ताव नियमा जीवे जीवे पुण सिय जीवति सिय नो जीवति जीवति भंते! नेरइए २ जीवति ?, गोयमा ! नेरइए ताथ नियमा जीवति २ पुण सिय नेरइए सिय अनेरइए, एवं दंडओ नेयवो जाव वैमाणि Ja Eucation Interation For Parts Only ~ 582~ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [२५६] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५६] 5661 | दिभजना व्याख्या-15पाणं । भवसिद्धीए णं भंते ! नेरहए २ भवसिद्धीए ?, गोयमा ! भवसिद्धीए सिय नेहए शिव अनेरहए ॥ ६ शतके प्रज्ञप्तिः । नेरइएऽविय सिय भवसिद्धीए सिय अभवसिद्धीए, एवं दंडओ जाव वेमाणियाणं ।। (मत्रं १५६)॥ उद्देश:१० अभयदेवी जीवेणं भंते ! जीवे जीवे जीवे?" इह एकेन जीवशब्देन जीव एव गृखते द्वितीयेन च सन्यमिलतः प्रश्नः, उत्तरंट। अन्यकृतमु या वृत्तिः१ पुनर्जीवचैतन्ययोः परस्परेणाविनाभूतत्वाज्जीवश्चैतन्यमेव चैतन्यमपि जीव एवेत्येवमर्थमवगन्तव्यं, नारकादिषु पदेषु पुषजीब-12 खाद्यभावः ॥२८५॥ त्वमव्यभिचारि जीवेषु तु नारकादित्वं व्यभिचारीत्यत आह-'जीवे णं भंते ! मेरइए'इत्यादि । जीवाधिकारादेवाह-8 जीवजीवा'जीवति भंते । जीवे जीवे जीवईत्ति, जीवति-प्राणान् धारयति यः स जीवः उत यो जीवः स जीवति इति प्रश्नः | | पदानिसू उत्तरं तु यो जीवति स तावनियमाजीवः, अजीवस्यायुःकोभावेन जीवनाभावात् , जीवस्तु स्थाजीवति स्थान्न जीवति, २५५-२५६ सिद्धस्य जीवनाभावादिति, नारकादिस्तु नियमाज्जीवति, संसारिणः सर्वस्य प्राणधारणधर्मकत्वात् , जीवतीति पुनः स्थानारकादिः स्यादनारकादिरिति, प्राणधारणस्य सर्वेषां सद्भावादिति॥जीवाधिकारात्तव्रतमेवान्बतीर्थिकवक्तव्यतामाह अन्नउस्थिया णं भंते ! एषमाइक्खंति जाव परूवेति एवं खलु सवे पाणा भूया जीवा ससा एगंतदुक्खं वेषणं घेयंति, से कहमेयं भंते ! एवं ?, मोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया जाव मिच्छं ते एचमाहंसु, अहं पुण|| ॥२८५| गोयमा एवमाइक्खामि जाष परवेमि अत्थेगइया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतहक्लं वेग्रणं बेयंति आहच सायं, अत्धेगतिया पाणा भूया जीवा सत्ता एगंतसायं वेपणं वेयंति आहच अस्सा बेषणं वेयंति, अत्थेIM गइया पाणा भूया जीवा सत्ता बेमायाए वेयणं वेयंति आहच सायमसायं । सेकेण्डेणं०१, मोयमा ! नरहया| दीप अनुक्रम [३२१] SAREauratonintamational ~583~ Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [२५७] पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५७] दीप अनुक्रम || एगत दक्वं वेयणं वेयंति [आहच सायमसायं ] आहच सायं, भवणवइवाणमंतरजोइसवेमाणिया एगंतसायं वेदणं वेयंति आहच असायं, पुढविकाइया जाव मणुस्सा वेमायाए वेयणं वेयंति आहच सायमसार्य, से तेणद्वेणं०॥ (सूत्रं २५७)॥ _ 'अन्नउस्थिया'इत्यादि, 'आहच सायं'ति कदाचित्सातां वेदना, कथम् । इति चेदुच्यते-"उववारण व सायं नेरइओ | देवकम्मुणा वावि"। 'आहच असायंति देवा आहननप्रियविप्रयोगादिष्वसाता वेदनां वेदयन्तीति, 'वेमायाए'त्ति दि विविधया मात्रया कदाचित्साप्तां कदाचिदसातामित्यर्थः ॥ जीवाधिकारादेवेदमाह नेरझ्या भंते । जे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति ते किं आयसरीरखेसोगावे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति अणंतरखेत्तोगाडे पोग्गले अत्तमायाए आहारेंति परंपरखेसोगाढे पोग्मले अत्तमायाए आहारैति?, गोयमा ! आयसरीरखेत्तोमा पोग्गले अत्तमायाए आहारेति नो अणंतरखेत्तोगाढे पोग्गले अत्तमायाए आहारैति नो परंपरखेत्तोगाढे, जहा नेरइया तहा जाव वेमाणियाणे दंडओ। (सूनं २५८) केवली णं १-उत्पादे या सात नैरयिकः देवक्रियया, अपिशब्दातीर्थकरजन्मादिदिनेषु वेदयते । २ आगतमपि सूत्रमिदं छद्मस्थानामधोलोकरस दुरधिगमता प्रतिपादिता शाने इति भविष्यति केवलिनामपि तथेत्यधोलोकोपलक्षितभावेन पृच्छा, आहारपुद्गलानां वा सुसूक्ष्मत्वात् प्रश्नः पुनः, नारकाणामवधिविभङ्गवत्त्वे यत्ते न वगच्छन्ति खकमाहारमिति केवलिनमाश्रित्य प्रश्नः, यदा केवलिनां तत्र ज्ञानभावः कथमि-18 ॥न्द्रियाविषयत्वात्तदाहारपुद्गलानानिति शङ्कायां, अन्यद्वा सुधीभिः कारणमूल्यम् । [३२३ -३२६] SARERainintenasana ~584~ Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम (०५) [भाग- ८] "भगवती"-अंगसूत्र-५/१(मूलं+वृत्ति:) शतक [६], वर्ग [-], अंतर्-शतक [-], उद्देशक [१०], मूलं [२५८-२५९] + गाथा पूज्य आगमोद्धारकरी संशोधित: मुनि दीपरत्नसागरेण संकलित..आगमसूत्र- [०५, अंगसूत्र- [०५] "भगवती मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचिता वृत्ति: प्रत सूत्रांक [२५८-२५९] भिंते ! आयाणेहिं जाणति पासति ?, गोयमा ! नो तिणढे।से केणटेणं ?, गोयमा! केवली णं पुरच्छिमेणं शतके प्रज्ञप्तिः मियंपि जाणइ अमियंपिजाणइ जाव निब्बुडे दसणे केवलिस्स से तेण?णगाहा-जीवाण सुहं दुक्खं जीचे 5 उद्देशः१० अभयदेवी- जीवति तहेव भवियाय । एगंतदुक्खवेयण अत्तमाया यकेवली ॥१॥ सेवं भंते ! सेवं भंते (सूत्र २५९)॥ एकान्तदु:या वृत्तिः ॥६-१०॥ छ8 सयं समत्तं ॥६॥ खादिआहा रग्रहाकेव॥२८॥ । 'नेरहया ण'मित्यादि, अत्तमायाए'त्ति आत्मना आदाय-गृहीत्वेत्यर्थः 'आयसरीरखेसोगाढ़े'त्ति स्वशरीरक्षेत्रेऽवस्थि- लिनोऽना K|| तानित्यर्थः 'अणंतरखेसोगाढे'त्ति आत्मशरीरावगाहक्षेत्रापेक्षया यदनन्तरं क्षेत्रं तत्रावगाढानित्यर्थः, 'परंपरखेसोगारे'त्ति || दानज्ञानं | आत्मक्षेत्रानन्तरक्षेत्राद्यत्परं क्षेत्रं तनावगाढानित्यर्थः। अत्तमायाए इत्युक्तमत आदानसाधात् 'केवलीण'मित्यादि सूत्र, सू २५७| तत्र च 'आयाणेहिंति इन्द्रियैः।दशमोद्देशकार्थसहाय गाथा-'जीवाणमित्यादि गतार्थः ॥षष्ठशते दशमोद्देशकः॥६-१०॥|| २५८-२५९ प्रतीत्य भेदं किल नालिकेर, षष्ठे शतं मन्मतिदन्तमञ्जि । तथापि विद्वत्सभसच्छिलायां, नियोग्य नीतं स्वपरोपयोगम्॥१॥ गाथा दीप अनुक्रम [३२३३२६] षष्ठं शतं विवरणतः समाप्तम् ॥ 5060580000000000000035568800 अत्र षष्ठ-शतके दशम-उद्देशकः समाप्तः तत् समाप्ते षष्ठं शतकं अपि समाप्तं ॥२८६॥ anditurary.com भाग भगवती-अंगसूत्र- (५/१) मूलं एवं अभयदेवसूरिजी रचिता टीका परिसमाप्ता: मूल संशोधकः सम्पादकश्च पूज्य आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज साहेब 8 | किंचित वैशिष्ट्य समर्पितेन सह पुन: संकलनकर्ता मुनि दीपरत्नसागरजी M.Com., M.Ed., Ph.D. श्रुतमहर्षि] ~585~ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग 01 09 सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन-१,२ आगम ०१ आचार मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- ३ से ९, श्रुतस्कन्ध- २ आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ श्रुतस्कन्ध-१, अध्ययन- १ से १३ | आगम ०२ सूत्रकृत मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ श्रुतस्क्न्ध -१, अध्ययन १४ से १६, श्रुतस्कन्ध-२ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ स्थान- १ से ४ आगम ०३ स्थान मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ स्थान- ५ से १० संपूर्ण | आगम ०४ समवाय मुलं एवं वृत्ति. आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-१ शतक-१ से ६ आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-२ शतक-७ से ११ आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ शतक- १२ से २० आगम ०५ भगवती मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ शतक- २१ से ४१ संपूर्ण आगम ०६ ज्ञाताधर्मकथा मूलं एवं वृत्ति. | आगम-6,८,९,१० उपासकदशा, अंतकृतदशा, अन्त्तरोपपातिकदशा, प्रश्नव्याकरण मूलं एवं वृत्ति. आगम-११,१२, विपाक, उववाई मूलं एवं वृत्ति. आगम १३ राजप्रश्नीय मूलं एवं वृत्ति. आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत सूत्र-१ से १३८ । आगम१४ जीवाजीवाभिगम भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. [प्रतिपत्ति-३-अतर्गत] सूत्र- १३९ से प्रतिपत्ती-१० संपूर्ण आगम १५ प्रज्ञापना भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. पद- १ से ५ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. पद-६ से २२ आगम १५ प्रज्ञापना भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. पद- २३ से ३६ संपूर्ण | आगम १६ सूर्यप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. कुलपृष्ठ ३१४ ५८६ ४९८ ३९२ ५९४ ४९४ ३३८ ५९२ ५५२ ५१४ ३८४ ५२२ ५३८ ३८४ ३१४ ४८० ४८८ ૪ર૬ ५१४ ३३६ ६१० 11 12 13 14 20 21 ~586~ Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाग कुलपृष्ठ ६१४ ३७६ ४२६ ३४४ ३१२ ३३० ४६६ 29 ४४२ सवत्तिक-आगम-सत्ताणि भाग १ से ४० में कहां क्या मिलेगा? इस भागमे समाविष्ट आगम के नाम और आगम-क्रम आगम १७ चन्द्रप्रज्ञप्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-१ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- १ एवं २. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-२ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार- ३ एवं ४. आगम१८ जंबूद्विपप्रज्ञप्ति भाग-३ मूलं एवं वृत्ति. वक्षस्कार-५ से ७. आगम १९ थी ३२ निरयावलिका, कल्पवतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका, वृष्णिदशा, चतुःशरण, आतुरपरत्याख्यान, महाप्रत्याख्यान, भक्तपरिज्ञा, तंदुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविदया, देवेन्द्रस्तव मूलं एवं छाया | आगम ३३ थी ३९ मरणसमाधि मूलं एवं छाया, निशीथ, बुहत्कल्प, व्यवहार, दशाश्रुतस्कंध, जीतकल्प/पंचकल्प, महानिशीथ मूलं एव | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, नियुक्ति-१ से १२१ । आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, नियुक्ति- ५२२ से ९५१ आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-३ नियुक्ति- ९५२ से १२७३ अपूर्ण, [अध्ययन- १ से ४ अपूर्ण) | आगम ४० आवश्यक मूलं एवं वृत्ति, भाग-४ नियुक्ति- १२७३ अपूर्ण से १६२३, [अध्ययन- ४ अपूर्ण से ६ संपूर्ण] आगम ४१/१ ओघनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति.. आगम ४१/२ पिंडनियुक्ति मूलं एवं वृत्ति. आगम ४२ दशवैकालिक मूलं एवं वृत्ति. आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-१, अध्ययन- १ से ५ आगम ४३ उत्तराध्यन मूलं एवं वृत्ति, भाग-२, अध्ययन-६ से २१ आगम ४३ उत्तराध्यन मलं एवं वृत्ति, भाग-३, अध्ययन- २२ से ३६ आगम ४४ नन्दिसूत्र मूलं एवं वृत्ति. आगम ४५ अनुयोगद्वार मूलं एवं वृत्ति. | कल्प(बारसा)सूत्र... चतुःशरण, तन्दुलवैचारिक, गच्छाचार मूलं एवं वृत्ति. ४६४ ૪ર૬ Bકર ३७६ ५९० કરશે ४८२ ४६६ ૨૮ ५६० ३९४ 40 ~587 Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नमो नमो निम्मलदंसणस्स पूज्य आनंद-क्षमा-ललित-सुशील-सुधर्मसागर गुरूभ्यो नम: 05/1 पूज्य आगमोध्धारक आचार्य श्री सागरानंदसूरीश्वरेण संशोधित: संपादितश्च “भगवती सूत्र"भाग- १ [मूलं एवं अभयदेवसूरि-रचित वृत्तिः] (किंचित वैशिष्ठ्यं समर्पितेन सह) मुनि दीपरत्नसागरेण पुन: संकलित: "भगवती भाग-१ मूलं एवं वृत्तिः” नामेण परिसमाप्त: “सवृत्तिक-आगम-सुत्ताणि" श्रेणि, भाग-8 ~588~ Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ਸੰਭਾਲ ਲੈ ਕ ਕਸ ਕਸ ਗੁਲ ਮਜੜ ਗੁਰ ਗਲ ਗਲ ਤਾ ਗਲ ਕਰ म आगम C. व . ~589~ Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आजम आजस आगम BUTOTST आजम आजस नमो नमो निम्मलदंसणस्स सवृत्तिक- आगम- सुत्ताणि मूल संशोधक पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराज आजाम अपन BTSTIT आजम अभिनव संकलनकर्ता ~590~ आजम आम BIRO आजम STESTAT आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि ] आजा प्रत-प्राप्ति और पेज-सेटिंग कर्ता : के चेरमन श्री प्रवीणभाई शाह, अमेरिका मुद्रक : नवप्रभात प्रिन्टींग प्रेस अमदाबाद Mo 9825598855 / 9825306275 Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईस प्रोजेक्ट के संपूर्ण-अनुदान-दाता श्री आगम मंदिर - पालिताणा FF J0 ORTIOELHindlisoeli-onsontesta ~591 Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगम आजम आजम आणम आगम मूल संशोधक - पूज्यपाद आगमोद्धारक आचार्य श्री आनंदसागरसूरीश्वरजी महाराजसाहेब आम आजम आगम आगम आगम आगम आ आगम - 05 'भगवति' मूलं एवं वृत्ति: [1] आगम - 05 आजम आज अभिनव-संकलनकर्ता आजम आगम दिवाकर मुनिश्री दीपरत्नसागरजी आगम [M.Com., M.Ed., Ph.D., श्रुतमहर्षि] आगम आगम आजम आगम आणम् आगम आणम् ~592~