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“અહો ! શ્રુતજ્ઞાનમ્” ગ્રંથ જીર્ણોદ્ધાર ૧૯૦
સંગીત રત્નાકર - ૪
: દ્રવ્ય સહાયક :
શ્રી વલ્લભસૂરિજી મ.સા. સમુદાયના પ્રવર્તિની પૂ. સા. શ્રી સુજ્ઞાનશ્રીજી મ. ની શિષ્યા પૂ. સા. શ્રી સુબુધ્ધિશ્રીજી મ. તથા
પૂ. સા. શ્રી સુકુમાલાશ્રીજી મ. ની પ્રેરણાથી શ્રીવલ્લભસૂરિજી શ્રાવિકા ઉપાશ્રય, રામનગર, સાબરમતિ
જ્ઞાનદ્રવ્યની ઉપજમાંથી
: સંયોજક :
શાહ બાબુલાલ સરેમલ બેડાવાળા શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
શા. વિમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન
હીરાજૈન સોસાયટી, સાબરમતી, અમદાવાદ-૫
(મો.) 9426585904 (ઓ.) 22132543
સંવત ૨૦૭૧
ઈ. ૨૦૧૫
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
પૃષ્ઠ
___84
___810
010
011
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६५ (ई. 2009) सेट नं.-१ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। ક્રમાંક પુસ્તકનું નામ
ता-टी515ार-संपES | 001 | श्री नंदीसूत्र अवचूरी
| पू. विक्रमसूरिजी म.सा.
238 | 002 | श्री उत्तराध्ययन सूत्र चूर्णी
| पू. जिनदासगणि चूर्णीकार
286 003 श्री अर्हद्गीता-भगवद्गीता
प. मेघविजयजी गणि म.सा. 004 | श्री अर्हच्चूडामणि सारसटीकः
पू. भद्रबाहुस्वामी म.सा. | 005 | श्री यूक्ति प्रकाशसूत्रं
पू. पद्मसागरजी गणि म.सा. | 006 | श्री मानतुङ्गशास्त्रम्
| पू. मानतुंगविजयजी म.सा. | 007 | अपराजितपृच्छा
श्री बी. भट्टाचार्य 008 शिल्प स्मृति वास्तु विद्यायाम्
श्री नंदलाल चुनिलाल सोमपुरा 850 | 009 | शिल्परत्नम् भाग-१
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 322 शिल्परत्नम् भाग-२
श्रीकुमार के. सभात्सव शास्त्री 280 प्रासादतिलक
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
162 | 012 | काश्यशिल्पम्
श्री विनायक गणेश आपटे
302 प्रासादमजरी
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
156 014 | राजवल्लभ याने शिल्पशास्त्र
श्री नारायण भारती गोंसाई
352 | शिल्पदीपक
श्री गंगाधरजी प्रणीत
120 | वास्तुसार
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई दीपार्णव उत्तरार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
110 જિનપ્રાસાદ માર્તણ્ડ
શ્રી નંદલાલ ચુનીલાલ સોમપુરા
498 | जैन ग्रंथावली
श्री जैन श्वेताम्बर कोन्फ्रन्स 502 | હીરકલશ જૈન જ્યોતિષ
શ્રી હિમતરામ મહાશંકર જાની 021 न्यायप्रवेशः भाग-१
श्री आनंदशंकर बी. ध्रुव 022 | दीपार्णव पूर्वार्ध
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई 023 अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-१
पू. मुनिचंद्रसूरिजी म.सा.
452 024 | अनेकान्त जयपताकाख्यं भाग-२
श्री एच. आर. कापडीआ
500 025 | प्राकृत व्याकरण भाषांतर सह
श्री बेचरदास जीवराज दोशी
454 026 | तत्त्पोपप्लवसिंहः
| श्री जयराशी भट्ट, बी. भट्टाचार्य
188 | 027 | शक्तिवादादर्शः
| श्री सुदर्शनाचार्य शास्त्री
214 | क्षीरार्णव
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
414 029 | वेधवास्तु प्रभाकर
श्री प्रभाशंकर ओघडभाई
___192
013
454 226 640
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288
30 | શિન્જરત્નાકર
प्रासाद मंडन श्री सिद्धहेम बृहदवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-१ | श्री सिद्धहेम बृहद्वृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-२ श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-३
श्री नर्मदाशंकर शास्त्री | पं. भगवानदास जैन पू. लावण्यसूरिजी म.सा. પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા.
520
034
().
પૂ. ભાવસૂરિ મ.સા.
श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-3 (२)
324
302
196
039.
190
040 | તિલક
202
480
228
60
044
218
036. | श्री सिद्धहेम बृहवृत्ति बृहन्न्यास अध्याय-५ 037 વાસ્તુનિઘંટુ 038
| તિલકમન્નરી ભાગ-૧ તિલકમગ્નરી ભાગ-૨ તિલકમઝરી ભાગ-૩ સખસન્ધાન મહાકાવ્યમ્ સપ્તભફીમિમાંસા ન્યાયાવતાર વ્યુત્પત્તિવાદ ગુઢાર્થતત્ત્વલોક
સામાન્ય નિર્યુક્તિ ગુઢાર્થતત્ત્વાલોક 046 સપ્તભીનયપ્રદીપ બાલબોધિનીવિવૃત્તિઃ
વ્યુત્પત્તિવાદ શાસ્ત્રાર્થકલા ટીકા નયોપદેશ ભાગ-૧ તરષિણીકરણી નયોપદેશ ભાગ-૨ તરકિણીતરણી ન્યાયસમુચ્ચય ચાદ્યાર્થપ્રકાશઃ
દિન શુદ્ધિ પ્રકરણ 053 બૃહદ્ ધારણા યંત્ર 05 | જ્યોતિર્મહોદય
પૂ. ભાવસૂરિની મ.સા. પૂ. ભાવસૂરિન મ.સા. પ્રભાશંકર ઓઘડભાઈ સોમપુરા પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. વિજયઅમૃતસૂરિશ્વરજી પૂ. પં. શિવાનન્દવિજયજી સતિષચંદ્ર વિદ્યાભૂષણ શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) શ્રી ધર્મદત્તસૂરિ (બચ્છા ઝા) પૂ. લાવણ્યસૂરિજી. શ્રીવેણીમાધવ શાસ્ત્રી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. લાવણ્યસૂરિજી પૂ. દર્શનવિજયજી પૂ. દર્શનવિજયજી સ. પૂ. અક્ષયવિજયજી
045
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138
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(04)
210
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286
216
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શ્રી આશાપૂરણ પાર્શ્વનાથ જૈન જ્ઞાનભંડાર
સંયોજક – બાબુલાલ સરેમલ શાહ
શાહ વીમળાબેન સરેમલ જવેરચંદજી બેડાવાળા ભવન हीरान सोसायटी, रामनगर, साबरमती, महावाह - 04.
(मो.) ९४२५५८५८०४ (ख) २२१३२५४३ ( - भेल) ahoshrut.bs@gmail.com
अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ भर्णोद्धार संवत २०५५ (६. २०१०) - सेट नं-२
પ્રાયઃ જીર્ણ અપ્રાપ્ય પુસ્તકોને સ્કેન કરાવીને ડી.વી.ડી. બનાવી તેની યાદી. खा पुस्तो www.ahoshrut.org वेवसाइट परथी पए। डाउनलोड sरी शडाशे. પુસ્તકનું નામ
ईर्त्ता टीडाडार-संचा
ક્રમ
055 | श्री सिद्धम बृहद्वृत्ति बृहद्न्यास अध्याय-६ 056 | विविध तीर्थ कल्प
057
ભારતીય જૈન શ્રમણ સંસ્કૃતિ અને લેખનકળા | 058 सिद्धान्तलक्षगूढार्थ तत्त्वलोकः
059 व्याप्ति पञ्चक विवृत्ति टीका
જૈન સંગીત રાગમાળા
060
061 चतुर्विंशतीप्रबन्ध ( प्रबंध कोश)
062 | व्युत्पत्तिवाद आदर्श व्याख्यया संपूर्ण ६ अध्याय
063 | चन्द्रप्रभा हेमकौमुदी
064 | विवेक विलास
065 | पञ्चशती प्रबोध प्रबंध
066 | सन्मतितत्त्वसोपानम्
ઉપદેશમાલા દોઘટ્ટી ટીકા ગુર્જરાનુવાદ
067
068 मोहराजापराजयम्
069 | क्रियाकोश
-
070 कालिकाचार्यकथासंग्रह
071 सामान्यनिरुक्ति चंद्रकला कलाविलास टीका
072 | जन्मसमुद्रजातक
073 मेघमहोदय वर्षप्रबोध
074
જૈન સામુદ્રિકનાં પાંચ ગ્રંથો
ભાષા
सं
.:
सं
सं
सं
गु.
सं
श्री मांगरोळ जैन संगीत मंडळी
श्री रसिकलाल एच. कापडीआ
श्री सुदर्शनाचार्य
पू. मेघविजयजी गणि
सं/गु. श्री दामोदर गोविंदाचार्य
सं
F
सं
सं
सं
पू. लावण्यसूरिजी म.सा.
पू. जिनविजयजी म.सा.
शुभ.
सं
सं/ हिं
सं.
सं.
सं/हिं
सं/हिं
शुभ.
पू. पूण्यविजयजी म.सा.
| श्री धर्म
श्री धर्मदत्त
पू. मृगेन्द्रविजयजी म.सा.
पू. लब्धिसूरिजी म.सा.
पू. हेमसागरसूरिजी म.सा.
पू. चतुरविजयजी म.सा.
श्री मोहनलाल बांठिया
श्री अंबालाल प्रेमचंद
श्री वामाचरण भट्टाचार्य
श्री भगवानदास जैन
श्री भगवानदास जैन
श्री हिम्मतराम महाशंकर जानी
પૃષ્ઠ
296
160
164
202
48
306
322
668
516
268
456
420
638
192
428
406
308
128
532
376
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'075
374
238
194
192
254
260
| જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૧ 16 | જૈન ચિત્ર કલ્પદ્રુમ ભાગ-૨ 77) સંગીત નાટ્ય રૂપાવલી 13 ભારતનાં જૈન તીર્થો અને તેનું શિલ્પ સ્થાપત્ય 79 | શિલ્પ ચિન્તામણિ ભાગ-૧ 080 | બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૧ 081 બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૨
| બૃહદ્ શિલ્પ શાસ્ત્ર ભાગ-૩ 083. આયુર્વેદના અનુભૂત પ્રયોગો ભાગ-૧
કલ્યાણ કારક 085 | વિનોરન શોર
કથા રત્ન કોશ ભાગ-1
કથા રત્ન કોશ ભાગ-2 088 | હસ્તસગ્નીવનમ
238 260
ગુજ. | | श्री साराभाई नवाब ગુજ. | શ્રી સYTમારું નવાવ ગુજ. | શ્રી વિદ્યા સરમા નવીન ગુજ. | શ્રી સારામારું નવીન ગુજ. | શ્રી મનસુબાન મુવામન ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી નન્નાથ મંવારમ ગુજ. | શ્રી ગગન્નાથ મંવારમ ગુજ. | . વન્તિસાગરની ગુજ. | શ્રી વર્ધમાન પર્વનાથ શત્રી सं./हिं श्री नंदलाल शर्मा ગુજ. | શ્રી લેવલાસ ગીવરાન કોશી ગુજ. | શ્રી લેવલાસ નવરીન લોશી સ. પૂ. મેનિયની સં. પૂ.વિનયની, પૂ.
पुण्यविजयजी आचार्य श्री विजयदर्शनसूरिजी
114
'084.
910
436 336
087
2૩૦
322
(089/
114
એન્દ્રચતુર્વિશતિકા સમ્મતિ તર્ક મહાર્ણવાવતારિકા
560
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
क्रम
272 240
सं.
254
282
466
342
362 134
70
316
224
612
307
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६७ (ई. 2011) सेट नं.-३ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | पुस्तक नाम
कर्ता टीकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक 91 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-१
वादिदेवसूरिजी सं. मोतीलाल लाघाजी पुना 92 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-२
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 93 | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-३
बादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 94 | | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-४
बादिदेवसूरिजी
मोतीलाल लाघाजी पुना | स्याद्वाद रत्नाकर भाग-५
वादिदेवसूरिजी
| मोतीलाल लाघाजी पुना 96 | पवित्र कल्पसूत्र
पुण्यविजयजी
साराभाई नवाब 97 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-१
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 98 | समराङ्गण सूत्रधार भाग-२
भोजदेव
| टी. गणपति शास्त्री 99 | भुवनदीपक
पद्मप्रभसूरिजी
| वेंकटेश प्रेस 100 | गाथासहस्त्री
समयसुंदरजी
सं. | सुखलालजी 101 | भारतीय प्राचीन लिपीमाला
| गौरीशंकर ओझा हिन्दी | मुन्शीराम मनोहरराम 102 | शब्दरत्नाकर
साधुसुन्दरजी
सं. हरगोविन्ददास बेचरदास 103 | सबोधवाणी प्रकाश
न्यायविजयजी ।सं./ग । हेमचंद्राचार्य जैन सभा 104 | लघु प्रबंध संग्रह
जयंत पी. ठाकर सं. ओरीएन्ट इन्स्टीट्युट बरोडा 105 | जैन स्तोत्र संचय-१-२-३
माणिक्यसागरसूरिजी सं, आगमोद्धारक सभा 106 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-१,२,३
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 107 | सन्मति तर्क प्रकरण भाग-४.५
सिद्धसेन दिवाकर
सुखलाल संघवी 108 | न्यायसार - न्यायतात्पर्यदीपिका
सतिषचंद्र विद्याभूषण
एसियाटीक सोसायटी 109 | जैन लेख संग्रह भाग-१
पुरणचंद्र नाहर
| पुरणचंद्र नाहर 110 | जैन लेख संग्रह भाग-२
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि पुरणचंद्र नाहर 111 | जैन लेख संग्रह भाग-३
पुरणचंद्र नाहर
सं./हि । पुरणचंद्र नाहर 112 | | जैन धातु प्रतिमा लेख भाग-१
कांतिविजयजी
सं./हि | जिनदत्तसूरि ज्ञानभंडार 113 | जैन प्रतिमा लेख संग्रह
दौलतसिंह लोढा सं./हि | अरविन्द धामणिया 114 | राधनपुर प्रतिमा लेख संदोह
विशालविजयजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 115 | प्राचिन लेख संग्रह-१
विजयधर्मसूरिजी सं./गु | यशोविजयजी ग्रंथमाळा 116 | बीकानेर जैन लेख संग्रह
अगरचंद नाहटा सं./हि नाहटा ब्रधर्स 117 | प्राचीन जैन लेख संग्रह भाग-१
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 118 | प्राचिन जैन लेख संग्रह भाग-२
जिनविजयजी
सं./हि | जैन आत्मानंद सभा 119 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-१
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्वस गुजराती सभा 120 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-२
गिरजाशंकर शास्त्री सं./गु | फार्बस गुजराती सभा 121 | गुजरातना ऐतिहासिक लेखो-३
गिरजाशंकर शास्त्री
फार्बस गुजराती सभा 122 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-१ | पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 123|| | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-४ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 124 | ऑपरेशन इन सर्च ऑफ संस्कृत मेन्यु. इन मुंबई सर्कल-५ पी. पीटरसन
रॉयल एशियाटीक जर्नल 125 | कलेक्शन ऑफ प्राकृत एन्ड संस्कृत इन्स्क्रीप्शन्स
पी. पीटरसन
| भावनगर आर्चीऑलॉजीकल डिपा. 126 | विजयदेव माहात्म्यम्
| जिनविजयजी
सं. जैन सत्य संशोधक
514
454
354
सं./हि
337 354 372 142 336 364 218 656 122
764 404 404 540 274
सं./गु
414 400
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
754
194
3101
276
69 100 136 266
244
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शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६८ (ई. 2012) सेट नं.-४ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता / संपादक
भाषा | प्रकाशक 127 | महाप्रभाविक नवस्मरण
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 128 | जैन चित्र कल्पलता
साराभाई नवाब गुज. साराभाई नवाब 129 | जैन धर्मनो प्राचीन इतिहास भाग-२
हीरालाल हंसराज गुज. हीरालाल हंसराज 130 | ओपरेशन इन सर्च ओफ सं. मेन्यु. भाग-६
पी. पीटरसन
अंग्रेजी | एशियाटीक सोसायटी 131 | जैन गणित विचार
कुंवरजी आणंदजी गुज. जैन धर्म प्रसारक सभा 132 | दैवज्ञ कामधेनु (प्राचिन ज्योतिष ग्रंथ)
शील खंड
सं. | ब्रज. बी. दास बनारस 133 || | करण प्रकाशः
ब्रह्मदेव
सं./अं. | सुधाकर द्विवेदि 134 | न्यायविशारद महो. यशोविजयजी स्वहस्तलिखित कृति संग्रह | यशोदेवसूरिजी गुज. | यशोभारती प्रकाशन 135 | भौगोलिक कोश-१
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात बर्नाक्युलर सोसायटी 136 | भौगोलिक कोश-२
डाह्याभाई पीतांबरदास गुज. | गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी 137 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-१,२
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 138 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-१ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी । जैन साहित्य संशोधक पुना 139 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-१, २
जिनविजयजी हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 140 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-२ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 141 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-१,२ ।।
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 142 | जैन साहित्य संशोधक वर्ष-३ अंक-३, ४
जिनविजयजी
हिन्दी | जैन साहित्य संशोधक पुना 143 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-१
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 144 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-२
सोमविजयजी
| शाह बाबुलाल सवचंद 145 | नवपदोनी आनुपूर्वी भाग-३
सोमविजयजी
गुज. शाह बाबुलाल सवचंद 146 | भाषवति
शतानंद मारछता सं./हि | एच.बी. गुप्ता एन्ड सन्स बनारस 147 | जैन सिद्धांत कौमुदी (अर्धमागधी व्याकरण)
रत्नचंद्र स्वामी
प्रा./सं. | भैरोदान सेठीया 148 | मंत्रराज गुणकल्प महोदधि
जयदयाल शर्मा हिन्दी | जयदयाल शर्मा 149 | फक्कीका रत्नमंजूषा-१, २
कनकलाल ठाकूर सं. हरिकृष्ण निबंध 150 | अनुभूत सिद्ध विशायंत्र (छ कल्प संग्रह)
मेघविजयजी
सं./गुज | महावीर ग्रंथमाळा 151 | सारावलि
कल्याण वर्धन
सं. पांडुरंग जीवाजी 152 | ज्योतिष सिद्धांत संग्रह
विश्वेश्वरप्रसाद द्विवेदी सं. बीजभूषणदास बनारस 153| ज्ञान प्रदीपिका तथा सामुद्रिक शास्त्रम्
रामव्यास पान्डेय सं. | जैन सिद्धांत भवन नूतन संकलन | आ. चंद्रसागरसूरिजी ज्ञानभंडार - उज्जैन
हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार २ | श्री गुजराती श्वे.मू. जैन संघ-हस्तप्रत भंडार - कलकत्ता | हस्तप्रत सूचीपत्र हिन्दी | श्री आशापुरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
274 168
282
182
गुज.
384 376 387 174
320 286
272
142 260
232
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
| पृष्ठ
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122
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310
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संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह वीमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-05. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०६९ (ई. 2013) सेट नं.-५ प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं। | क्रम | पुस्तक नाम
कर्ता/संपादक विषय | भाषा
संपादक/प्रकाशक 154 | उणादि सूत्रो ओफ हेमचंद्राचार्य | पू. हेमचंद्राचार्य | व्याकरण | संस्कृत
जोहन क्रिष्टे 155 | उणादि गण विवृत्ति | पू. हेमचंद्राचार्य
व्याकरण संस्कृत
पू. मनोहरविजयजी 156 | प्राकृत प्रकाश-सटीक
भामाह व्याकरण प्राकृत
जय कृष्णदास गुप्ता 157 | द्रव्य परिक्षा और धातु उत्पत्ति | ठक्कर फेरू
धातु संस्कृत /हिन्दी | भंवरलाल नाहटा 158 | आरम्भसिध्धि - सटीक पू. उदयप्रभदेवसूरिजी ज्योतीष संस्कृत | पू. जितेन्द्रविजयजी 159 | खंडहरो का वैभव | पू. कान्तीसागरजी शील्प | हिन्दी | भारतीय ज्ञानपीठ 160 | बालभारत पू. अमरचंद्रसूरिजी | काव्य संस्कृत
पं. शीवदत्त 161 | गिरनार माहात्म्य
दौलतचंद परषोत्तमदास तीर्थ संस्कृत /गुजराती | जैन पत्र 162 | गिरनार गल्प
पू. ललितविजयजी | तीर्थ संस्कृत/गुजराती | हंसकविजय फ्री लायब्रेरी 163 | प्रश्नोत्तर सार्ध शतक पू. क्षमाकल्याणविजयजी | प्रकरण हिन्दी
| साध्वीजी विचक्षणाश्रीजी 164 | भारतिय संपादन शास्त्र | मूलराज जैन
साहित्य हिन्दी
जैन विद्याभवन, लाहोर 165 | विभक्त्यर्थ निर्णय गिरिधर झा
संस्कृत
चौखम्बा प्रकाशन 166 | व्योम बती-१
शिवाचार्य
न्याय
संस्कृत संपूर्णानंद संस्कृत युनिवर्सिटी 167 | व्योम वती-२
शिवाचार्य न्याय
संपूर्णानंद संस्कृत विद्यालय | 168 | जैन न्यायखंड खाद्यम् | उपा. यशोविजयजी न्याय संस्कृत /हिन्दी | बद्रीनाथ शुक्ल 169 | हरितकाव्यादि निघंटू | भाव मिथ
आयुर्वेद संस्कृत /हिन्दी | शीव शर्मा 170 | योग चिंतामणि-सटीक पू. हर्षकीर्तिसूरिजी
| संस्कृत/हिन्दी
| लक्ष्मी वेंकटेश प्रेस 171 | वसंतराज शकुनम् पू. भानुचन्द्र गणि टीका | ज्योतिष
खेमराज कृष्णदास 172 | महाविद्या विडंबना
पू. भुवनसुन्दरसूरि टीका | ज्योतिष | संस्कृत सेन्ट्रल लायब्रेरी 173 | ज्योतिर्निबन्ध ।
शिवराज
| ज्योतिष | संस्कृत
आनंद आश्रम 174 | मेघमाला विचार
पू. विजयप्रभसूरिजी ज्योतिष संस्कृत/गुजराती | मेघजी हीरजी 175 | मुहूर्त चिंतामणि-सटीक रामकृत प्रमिताक्षय टीका | ज्योतिष | संस्कृत अनूप मिश्र 176 | मानसोल्लास सटीक-१ भुलाकमल्ल सोमेश्वर ज्योतिष
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 177 | मानसोल्लास सटीक-२ भुलाकमल्ल सोमेश्वर | ज्योतिष संस्कृत
ओरिएन्ट इन्स्टीट्यूट 178 | ज्योतिष सार प्राकृत
भगवानदास जैन
ज्योतिष
प्राकृत/हिन्दी | भगवानदास जैन 179 | मुहूर्त संग्रह
अंबालाल शर्मा
ज्योतिष
| गुजराती | शास्त्री जगन्नाथ परशुराम द्विवेदी 180 | हिन्दु एस्ट्रोलोजी
पिताम्बरदास त्रीभोवनदास | ज्योतिष गुजराती पिताम्बरदास टी. महेता
264 144 256 75 488 | 226 365
न्याय
संस्कृत
190
480 352 596 250 391
114
238 166
संस्कृत
368
88
356
168
Page #9
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543 - ahoshrut.bs@gmail.com
शाह विमळाबेन सरेमल जवेरचंदजी बेडावाळा भवन
हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७१ (ई. 2015) सेट नं.-६
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की स्केन डीवीडी बनाई उसकी सूची। यह पुस्तके www.ahoshrut.org वेबसाइट से भी डाउनलोड कर सकते हैं।
क्रम
| विषय
पहा
पुस्तक नाम काव्यप्रकाश भाग-१
कर्ता/संपादक पूज्य मम्मटाचार्य कृत
| भाषा संस्कृत
181
364
182
काव्यप्रकाश भाग-२
222
183
काव्यप्रकाश उल्लास-२ अने३
संस्कृत संस्कृत संस्कृत
330
संपादक / प्रकाशक पूज्य जिनविजयजी पूज्य जिनविजयजी यशोभारति जैन प्रकाशन समिति श्री रसीकलाल छोटालाल
श्री रसीकलाल छोटालाल | श्री वाचस्पति गैरोभा | श्री सुब्रमण्यम शास्त्री
184 | नृत्यरत्न कोश भाग-१
156
248
पूज्य मम्मटाचार्य कृत उपा. यशोविजयजी श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री कुम्भकर्ण नृपति श्री अशोकमलजी श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव श्री सारंगदेव
संस्कृत संस्कृत /हिन्दी
504
185 | नृत्यरत्न कोश भाग-२ 186 | नृत्याध्याय 187 | संगीरत्नाकर भाग-१ सटीक 188 | संगीरत्नाकर भाग-२ सटीक 189 संगीरनाकर भाग-३ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी
448
440
616
| श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री श्री सुब्रमण्यम शास्त्री | श्री मंगेश रामकृष्ण तेलंग
190
संगीरत्नाकर भाग-४ सटीक
संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत/अंग्रेजी संस्कृत गुजराती
| श्री सारंगदेव
632
नारद
84
191 संगीत मकरन्द
संगीत नृत्य अने नाट्य संबंधी
जैन ग्रंथो 193 | न्यायबिंदु सटीक
192
श्री हीरालाल कापडीया
मुक्ति-कमल-जैन मोहन ग्रंथमाला ।
श्री चंद्रशेखर शास्त्री
220
संस्कृत हिन्दी
194 | शीघ्रबोध भाग-१ थी ५
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
422
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
304
पूज्य धर्मोतराचार्य पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य ज्ञानसुन्दरजी पूज्य गंभीरविजयजी
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
195 | शीघ्रबोध भाग-६ थी १० 196| शीघ्रबोध भाग-११ थी १५ 197 | शीघ्रबोध भाग-१६ थी २० 198 | शीघ्रबोध भाग-२१ थी २५
446
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
| 414
हिन्दी
सुखसागर ज्ञान प्रसारक सभा
409
199 | अध्यात्मसार सटीक
476
एच. डी. वेलनकर
संस्कृत/गुजराती | नरोत्तमदास भानजी संस्कृत सिंघी जैन शास्त्र शिक्षापीठ संस्कृत/गुजराती | ज्ञातपुत्र भगवान महावीर ट्रस्ट
200| छन्दोनुशासन 200 | मग्गानुसारिया
444
श्री डी. एस शाह
146
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श्री आशापूरण पार्श्वनाथ जैन ज्ञानभंडार
संयोजक-शाह बाबुलाल सरेमल - (मो.) 9426585904 (ओ.) 22132543. E-mail : ahoshrut.bs@gmail.com
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हीराजैन सोसायटी, रामनगर, साबरमती, अमदावाद-380005. अहो श्रुतज्ञानम् ग्रंथ जीर्णोद्धार - संवत २०७२ (ई. 201६) सेट नं.-७
प्रायः अप्राप्य प्राचीन पुस्तकों की डिजिटाइझेशन द्वारा डीवीडी बनाई उसकी सूची।
पृष्ठ 285
280
315 307
361
301
263
395
क्रम
पुस्तक नाम 202 | आचारांग सूत्र भाग-१ नियुक्ति+टीका 203 | आचारांग सूत्र भाग-२ नियुक्ति+टीका 204 | आचारांग सूत्र भाग-३ नियुक्ति+टीका 205 | आचारांग सूत्र भाग-४ नियुक्ति+टीका 206 | आचारांग सूत्र भाग-५ नियुक्ति+टीका 207 | सुयगडांग सूत्र भाग-१ सटीक 208 | सुयगडांग सूत्र भाग-२ सटीक 209 | सुयगडांग सूत्र भाग-३ सटीक 210 | सुयगडांग सूत्र भाग-४ सटीक 211 | सुयगडांग सूत्र भाग-५ सटीक 212 | रायपसेणिय सूत्र 213 | प्राचीन तीर्थमाळा भाग-१ 214 | धातु पारायणम् 215 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-१ 216 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-२ 217 | सिद्धहेम शब्दानुशासन लघुवृत्ति भाग-३ 218 | तार्किक रक्षा सार संग्रह
बादार्थ संग्रह भाग-१ (स्फोट तत्त्व निरूपण, स्फोट चन्द्रिका, 219
प्रतिपादिक संज्ञावाद, वाक्यवाद, वाक्यदीपिका)
वादार्थ संग्रह भाग-२ (षट्कारक विवेचन, कारक वादार्थ, 220
| समासवादार्थ, वकारवादार्थ)
| बादार्थ संग्रह भाग-३ (वादसुधाकर, लघुविभक्त्यर्थ निर्णय, 221
__ शाब्दबोधप्रकाशिका) 222 | वादार्थ संग्रह भाग-४ (आख्यात शक्तिवाद छः टीका)
कर्ता / टिकाकार भाषा संपादक/प्रकाशक | श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य गुजराती श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती | श्री माणेक मुनि श्री शीलंकाचार्य | गुजराती श्री माणेक मुनि श्री मलयगिरि | गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ.श्री धर्मसूरि | सं./गुजराती | श्री यशोविजयजी ग्रंथमाळा श्री हेमचंद्राचार्य | संस्कृत आ. श्री मुनिचंद्रसूरि श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती | श्री बेचरदास दोशी श्री हेमचंद्राचार्य | सं./गुजराती श्री बेचरदास दोशी आ. श्री वरदराज संस्कृत राजकीय संस्कृत पुस्तकालय विविध कर्ता
संस्कृत महादेव शर्मा
386
351 260 272
530
648
510
560
427
88
विविध कर्ता
। संस्कृत
| महादेव शर्मा
78
महादेव शर्मा
112
विविध कर्ता संस्कृत रघुनाथ शिरोमणि | संस्कृत
महादेव शर्मा
228
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The Adyar Library Series - No. 86
GENERAL EDITOR:
ALAIN DANIELOU
Director, Adyar Library
SANGITARATNĀKARA OF SĀRÅGADEVA
WITH TWO COMMENTARIES
Vol. IV-Adhyāya 7
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SANGITARATNĀKARA
OF S'ĀRNGADEVA
WITH
KALĀNIDHI OF KALLINĀTHA AND SUDHĀKARA OF SIMHABHŪPĀLA
EDITED BY
PANDIT S. SUBRAHMANYA SASTRI
Vol. IV-Adhyāya 7
THE ADYAR LIBRARY
1953
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Printed by D, V. Syamala Rau, at the Vasaata Press,
The Theosophical Society, Adyar, Madras 20
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FOREWORD
The present fourth volume completes the edition of the “Sangita Ratnākara " of Sārngadeva with its two main commentaries, the "Sudhākara" of Simhabhūpāla and the “Kalānidhi" of Kallinātha. This last and important volume contains only one chapter, the seventh, which deals exclusively with the technique and the art of dancing. This is the most extensive available work on dancing written after the “Abhinava Bhārati," the great commentary of Abhinava Gupta on Bharata's "Nātya S'āstra" which dates from the end of the 10th century.
Sārngadeva lived about the middle of the 13th century. Simhabhūpāla wrote the first commentary very shortly afterwards. Kallinātha wrote his "Kalanidhi" at the end of the 15th century. We have there fore here a survey of the art of dancing and the literature on the dance for more than two centuries in a period where Hindu civilization was still extremely brilliant.
The plan of the present chapter is not essentially different from that of the well known "Abhinaya Darpaņa" of Nandikes'vara. It is however more extensive and contains much additional information. On the
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vi
other hand the treatment of most of the subjects is more brief than in the "Natya Sastra."
About half of the introductory verses of this chapter (up to verse 42) are common with the introductory chapter of Nandikes'vara's "Abhinaya Darpana." The 'Abhinaya Darpana" itself mentions that these verses are the teachings of older authorities.
एतानि पूर्वशास्त्रानुसारेणोक्तानि वै मया । (Abh. Darp. 47.)
Since there seems no reason to doubt the antiquity of the "Abhinaya Darpana", it appears that Sarngadeva borrowed them from this authoritative work unless he had access to the sources of Nandikes'vara himself. The whole chapter also draws most of its material from the Natya Sastra and its commentaries. A number of passages are quoted almost verbatim, such as verses 78 to 89 on the basic positions of the hands corresponding to Natya Sastra 9, 4-17. Even where Sarngadeva appears to have reshaped the definitions, he did not introduce any new element and the substance of the whole chapter is strictly traditional.
The verses of the Sangita Ratnakara were in turn reproduced in most of the later works. I have noted important borrowings in the "Sangita Saroddhara," the "Rasa Kaumudi," the "Abhinava Bharata Sāra Sangraha," etc.
The editing of the text of this volume, like that of the previous ones, is the remarkable work of a renowned scholar, Pandita Subrahmanya S'astri, who had just completed it before his death. Mr. Ramachandra Sarma,
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46
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vii
who is on the staff of the library, and had worked on this text under the direction of Pandita Subrahmanya S'astri, has seen the manuscript through the press. Dr. G. Srinivasa Murti, the Adviser and former Director of the Library, has also helped the Editors with valuable suggestions. On behalf of the Adyar Library I express here our indebtness to Mr. Ramachandra Sarma, Dr. G. Srinivasa Murti, and the Vasanta Press. December, 1953
ALAIN DANIELOU
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व्याख्याद्वयोपेतनर्तनाध्यायस्य विषयानुक्रमः
पुटसंख्या
पुटसंख्या प्रन्थकृन्मङ्गलाचरणम् १, २ ।
अवधूतम् नाटयोत्पत्तिः, तस्य विभागश्च ३, ४ । कम्पितम् नाट्यस्य मोक्षसाधनत्वोपपादनम् ५,६ आकम्पितम् नाट्यादीनां स्वरूपलक्षणम् ७,८ उद्वाहितम् अभिनयस्य भेदाः, तस्येति
परिवाहितम् । कर्तव्यता ९, १० अश्चितम् नृत्यलक्षणम्
निहश्चितम् नृत्तलक्षणम्
१२ परावृत्तम् नृत्यनृत्तयोरवान्तरभेदः
आक्षिप्तम् तत्र मतभेदप्रदर्शनम् १४ अधोमुखम् आङ्गिकाभिनयस्य भेदा: १५ लोलितम् नृत्ताध्यायगतपदार्थसंग्रहः १६, १७ तिर्यङ्नतोन्नतम्
स्कन्धानतम् अङ्गभेदाः (६) १७-९६ आरात्रिकम्
समम् (१) तत्र शिरोभेदाः (१४) १७-२५
पार्वाभिमुखम् धुतम्
१० (२) हस्तभेदाः (६७) २५-२८ आधूतम्
" तत्र शास्त्रसंमतप्रदर्शनम् २९-३२
विधुतम्
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पुटसंख्या ५१-६९ ५१, ५२
हस्तप्रकरणम्
असंयुतहस्ताः पताकः त्रिपताक: अर्धचन्द्रः कर्तरीमुखः अराल: मुष्टिः शिखरः कपित्थः खटकामुखः शुकतुण्डः काङ्गूल: पद्मकोशः अलपल्लव: सूचीमुखः सपशिरा: चतुरः मृगशीर्षः हंसास्यः हंसपक्ष: भ्रमरः मुकुल: ऊणेनाम: संदंश: ताम्रचूडः
पुटसंख्या
३२-८६ संयुतहस्ता: (१३) (२४) ३२-५१ अञ्जलि:
३३ कपोत: ३४, ३५
कर्कट:
स्वस्तिकः ३६, ३७
डोल: पुष्पपुट: उत्सङ्गः खटकावर्धमानक:
गजदन्तः ४०, ४१ अवहित्थः
निषधः ४२ मकरः "
वर्धमानः
३७, ३८
१९-८०
रु
४६
४३, ४४ नृत्तहस्ताः (३०)
चतुरश्रौ उत्तौ तलमुखौ
स्वस्तिको ४७ विप्रकीर्णी ४८ अरालखटकामुखौ
आविद्धवक्त्रो ४९, १० सूच्यास्यौ
५० रेचितौ ५१ अधेरेचितौ
४९
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________________
६६
समम्
७४
पुटसंख्या
पुटसंख्या नितम्बो
अप्रसिद्धहस्तपरिज्ञाने लोकपल्लवौ
प्रमाणकथनम् केशबन्धौ
अभिनये हस्तानामेव प्राधाउत्तानवञ्चितौ
न्यप्रदर्शनम् ८३, ८४ लताकरौ
अभिनयहस्तानामभिनेयार्थाधीनकरिहस्त:
स्थाननियमकथनम् ८४ पक्षवञ्चितौ
हस्तप्रचारस्य विषयभेदेन पक्षप्रद्योतको ७१, ७२ व्यवस्थानिरूपणम् ८५,८६ दण्डपक्षौ गरुडपक्षको
७३ (३) वक्षोभेदा: (१) ८७-८९ ऊर्ध्वमण्डलिनौ पार्श्वमण्डलिनौ
आभुग्नम् उरोमण्डलिनौ
७५ निर्भुग्नम् उर:पार्श्वमण्डलिनौ ७६ प्रकम्पितम् मुष्टिकस्वस्तिको ____७६, ७७ उद्वाहितम् नलिनीपद्मकोशौ अलपल्लवौ
(४) पार्श्वभेदाः (५) ८९, उल्बणौ
विवर्तितम् ललितौ
अपसृतम् वलितो
प्रसारितम् मतान्तरोक्ता हस्ता: (३) ८०, ८१ उन्नतम् निकुञ्चक: (अ) ८० द्विशिखर: (सं) ८०, ८१ (५) कटीभेदा: (१) ९०, ९१ वरदाभयौ ()
८१ कम्पिता ___९०, ९१ हस्तलक्षणोपसंहारः ८२-८६ उद्वाहिता
नतम्
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रेचिता
पुटसंख्या
पुटसंख्या छिन्ना
___९१ (१) ग्रीवाभेदा: (९) ९६-९९ विवृत्ता
समा विवृत्ता
वलिता (६) चरणभेदा: (१३) ९२-९५
रेचिता समः
कुञ्चिता अश्चित:
अश्चिता कुञ्चितः
त्र्यश्रा सूची
नता अग्रतलसंचर:
उन्नता उद्घट्टितः ताडितः
(२) बाहुप्रकरणम् ९९-१२५ घटितोत्सेधः
बाहुभेदाः (१६) ९९-१०४ घट्टितः
ऊर्ध्वस्थः मर्दितः
अधोमुखः अग्रगः
तिर्यग्गत: पाणिगः
अपविद्धः पार्श्वगः
प्रसारित: स्कन्धभेदाः (१) ९५, ९६ अञ्चित: एकोच्ची
मण्डलगतिः कर्णलग्नौ
स्वस्तिकः उच्छ्रितो
उद्वेष्टित: स्रस्तौ
पृष्टानुसारी लोलितो
आविद्धः
कुञ्चितः (२) प्रत्यङ्गभेदाः (६) ९६-१३४ नम्रः
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१०९
११०
पुटसंख्या
पुटसंख्या सरल:
१०४ ललितवर्तनिका आन्दोलितः
वलितवर्तना उत्सारित:
गानवर्तनिका
प्रतिवर्तनिका . वर्तनाः १०५-१२५ वर्तनाभेदा:
१०५ चालकानां लक्षणकथनम् ११०-१२४ पताकवर्तना
१०६ चालकभेदा: (५०) १११,११२ अरालवर्तना
विश्लिष्टवर्तितम् शुकतुण्डवर्तना
वेपथुव्यञ्जकम् अलपद्मवर्तना
अपविद्धम् खटकामुखवर्तना
लहरीचक्रसुन्दरम् मकरवर्तना
वर्तनास्वस्तिकम् ऊर्ध्ववर्तना
संमुखीनरथाङ्गम् आविद्धवर्तना १०७ पुरोदण्डभ्रमम् रेचितवर्तना
त्रिभङ्गोवर्णसरकम् नितम्बवर्तना
डोलम् केशबन्धवर्तना
नीराजितम् फालवर्तनिका (चक्रवर्तनिका),, स्वस्तिकाश्लेषचालनम् कक्षवर्तनिका १०८ मिथ:समीक्ष्यबाह्यम् उरोवर्तनिका
वामदक्षविलासकम् खड्गवर्तनिका
मौलिरेचितकम् पद्मवर्तना
वर्तनाभरणम् दण्डवर्तना
आदिकूर्मावतारम् पल्लववर्तना
१०९ अंसवर्तनकम् अर्धमण्डलवर्तना
मणिबन्धासिकर्षम् घातवर्तनिका (अलपल्लव०) , कलविङ्कविनोदम्
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१२२ १२३
xiv पुटसंख्या
पुटसंख्या चतुष्पत्राब्जम् ११६, ११७ पर्यायगजदन्तम् मण्डलामम्
रथनेमि वालव्यजनचालनम्
स्वस्तिक त्रिकोणम् वीरुधबन्धनम्
लतावेष्टितकम् विशृङ्गाटकबन्धनम्
नवरत्नमुखम् कुण्डलिचारकम्
चालकलक्षणोपसंहारः १२३,१२४ मुरजाडम्बरम्
चालकानां प्रयोगकथनम् द्वारदामविलासकम्
१२४, १२५ धनुराकर्षणम् साधारणम्
" (३) पृष्ठोदरयोर्लक्षणकथनम् १२६ समप्रकोष्ठवलनम्
(४) जठरभेदाः (४) देवोपहारकम् ११८, ११९
क्षामम् तिर्यग्गतस्वस्तिकाग्रम् ,
खल्लम् मणिबन्धगतागतम्
पूर्णम् अलातचक्रकम्
रिक्तपूर्णम् व्यस्तोत्प्लुतनिवर्तकम् उरभ्रसंबाधम्
(५) ऊरुप्रकरणम् १२७, १ तिर्यक्ताण्डवचालनम् , ऊरुभेदाः (१) धनुर्वल्लीविनामकम्
कम्पितः तार्क्ष्यपक्षविलासकम् ,
वलितः कररेचकरत्नम् १२०, १२१ स्तब्धः शरसंधानम्
उद्वर्तितः मण्डलाभरणम् १२२ निवर्तितः अंसपर्यायनिर्गतम् अष्टबन्धविहारम्
" (६) जङ्घाप्रकरणम् १२८-१३१ कर्णयुग्मप्रकीर्णकम् ___, जङ्घा मेदाः (१०) १२८
१२०
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________________
मावर्तिता
नता
क्षिप्ता
उद्वाहिता
परिवर्तिता
निःसृता
परावृत्ता
तिरथ्वीना
बहिर्गता
कम्पिता
चल:
भ्रामित:
समः
(८) जानुप्रकरणम्
जानुभेदाः (७)
संहतम्
कुञ्चितम्
अर्धकुञ्चितम्
पुटसंख्या
१२९
""
नतम्
उन्नतम्
""
""
१३०
""
(७) मणिबन्धप्रकरणम् १३१, १३२
तस्य भेदाः
(५)
१३१
निकुञ्च:
आकुञ्चितः
""
"
१३१
""
""
१३२
"}
XV
""
""
१३३, १३४
१३३
"
"
विवृतम्
समम्
""
१३४
(१) दृष्टिप्रकरणम्
उपाङ्गभेदा: (१२) १३५ - १७७
१३५-१५०
दृष्टिभेदाः (३६) १३५, १३६
१३६ - १३९
१३६
सत्र रसदृष्टयः (८)
कान्तादृष्टिः
हास्या
करुणा
रौद्री
वीरा
भयानका
बीभत्सा
अद्भुता
पुटसंख्या
१३४
स्निग्धा
हृष्टा
दीना
"
कुद्धा
दृप्ता
"
१३७
""
१३७, १३८
""
१३९
स्थायिभावदृष्टयः (८) १३९- १४२
१३९, १४०
"
भयान्विता
जुगुप्सिता
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
"
""
१४१
""
"
ܕܕ
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--------------------------------------------------------------------------
________________
शून्या
मलिना
विस्मिता
व्यभिचारिदृष्टयः (२०) १४२ - १५०
१४२
१४३
श्रान्ता
लज्जिता
शङ्किता
मुकुला
अर्धमुकुला
ग्लाना
जिल्ला
कुञ्चित!
वितर्किता
अभितप्ता
विषण्णा
ललिता
आकेकरा
विकोशा
विभ्रान्ता
विप्लुता
पुटसंख्या
१४२
त्रस्ता
मदिरा
दृष्टिप्रकरणोपसंहारः
""
"
१४४
39
xvi
""
१४५
ܕܙ
१४६
"
"
१४७
19
"
१४८
"
13
१४९
भ्रूभेदा:
सहजा
पतिता
उत्क्षिप्ता
"
१५०
रेचिता
निकुञ्चिता
भ्रुकुटी
चतुरा
(३) पुटप्रकरणम्.
पुटभेदाः
प्रसृतौ
कुञ्चितौ
(७)
स्फुरितौ
पिहितौ
विचालितौ
समौ
पुटसंख्या
१५०
(९)
"
१५१
11
35
१५२
"
१९३
१५३ - १५४
१५३
"
"
उन्मेषितनिमेषितविवर्तिता: १५४
""
(४) तारकाप्रकरणम् १५५ - १५८
तस्याः कर्माणि
१५५
(२)
"
तस्या भेदा: स्वनिष्ठानि ताराकर्माणि (९) १५५
भ्रमणम्
वलनम्
(२) भ्रूप्रकरणम् १५०-१५२ पात:
"
""
33
""
""
"
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
४ ८४
चलनम् प्रवेशनम् विवर्तनम् समुद्वृत्तम् निष्कामः प्राकृतम् विषयनिष्ठानि तारा
कर्माणि (८) समम् साचि अनुवृत्तम् अवलोकितम् विलोकितम् उल्लोकितम् आलोकितम् प्रविलोकितम्
xvii पुटसंख्या
पुटसंख्या १५५ (६) नासाप्रकरणम् १६०, १६१
नासाभेदाः (६) १६० स्वाभाविकी नता मन्दा
१६१ विकृष्टा विकूणिता सोच्छासा (७) अनिलप्रकरणम् १६२-१६६
उच्छासनिःश्वास भेदा:(१९) १६२ तत्र मतान्तरप्रदर्शनम् १६२ अनिलभेदा: (१०) , समः भ्रान्तः विलीनः आन्दोलितः कम्पितः स्तम्भितः उच्छासः निःश्वास: सूत्कृतः सीत्कृतः स्वमतेन भेदाः (९) स्वस्थौ चलौ
(५) कपोलप्रकरणम्
कपोलभेदाः (६) कुञ्चितौ कम्पिती
पूर्णौ
क्षामौ
समो
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
xviii
पुटसंख्या
पुटसंख्या प्रवृद्धः
१६३ निरस्त: उल्लासितः
१६४ विमुक्तः विस्मितः स्खलितः प्रसृतः
१६५ मतान्तरोक्तानां दशविधश्वासानां लक्षणकथनम् १६५,१६९
खण्डनम् छिन्नम् चुक्कितम् ग्रहणम् समम् दष्टम् निष्कर्षणम्
(८) अधरप्रकरणम् १६६-१६९
१५६-१६९ अधरभेदाः (१०) १६६ विवर्तितः कम्पितः
१६७ विसृष्टः विनिगृहितः संदष्टक: समुद्गः उवृत्त: विकासी आयत: रेचितः
(१०) जिह्वाप्रकरणम् १७२, जिह्वाभेदाः (६) ऋज्वी सूक्कानुगा वक्रा उन्नता लोला लेहिनी
(११) चिबुकप्रकरणम् १७३-१७९
चिबुकभेदाः (८) १७३, व्यादीर्णम्
श्वसितम्
(९) दन्तकर्मप्रकरणम् १६९-१७१
दन्तकर्मभेदानि (८) १६९
वक्रम् संहतम् चलसंहतम् स्फुरितम्
कुट्टनम्
चलितम्
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
लोलम्
(१२) वदनप्रकरणम् १७६, १७७
(५) १७६
वदनभेदाः
व्याभुग्नम्
भुग्नम्
·
विधुतम्
विवृतम्
विनिवृत्तम्
उत्क्षिप्ता
पतिता
पुटसंख्या
१७५
पाणिगुल्फकराड्गुलिभेदानां
लक्षणम्
तत्र पाणिभेदाः (८)
उत्क्षिप्तपतिता
अन्तर्गता
बहिर्गता
मिथोयुक्ता
वियुक्ता
19
""
""
१७७
2
""
"
१७८
""
""
"
""
""
""
""
31
""
""
""
xix
""
""
19
वियुक्तौ तत्र कराड्गुलिभेदाः (७)
संयुताः
वियुताः
वक्रा:
वलिता:
पतिताः
कुञ्चन्मूला:
प्रसृताः चरणाङ्गुलिभेदाः (५)
अधः क्षिप्ताः
उत्क्षिप्ताः
कुञ्चिता:
प्रसारिता:
संलग्ना:
चरणतलभेदाः (५)
पतिताम्
उद्धृताप्रम्
भूमिग्नम्
उद्धृतम्
पुटसंख्या
१७८
कुञ्चन्मध्यम् तिरश्चीनम्
मुखरागप्रकरणम्
= = = = =229
""
""
"
"
"
अगुलिसङ्गता
तत्र गुल्फ भेदाः (१)
अङ्गुष्ठसंश्लिष्टौ
अन्तर्यात
बहिर्गतौ
मिथोयुक्तौ
मुखरागस्य लक्षणम्
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
१७९
22:
"
१८०
,,
"
"
""
""
,,
१८०, १८१
१८०
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पुटसंख्या
१८१
तस्य भेदाः (४) स्वाभाविकः प्रसन्नः रक्तः श्यामः
पुटसंख्या अग्रगत:
१८२ अधोगत: पार्श्वगतः संमुखागतः हस्तकरणानां सामान्यलक्षणम् ।
(
"
९८५
तेषां भेदाः आवेष्टितम् उद्वेष्टितम् व्यावर्तितम्
परिवर्तितम् करकर्माणि
धूननम् श्लेष:
१८५-१८८ (२०) १८९
विश्लेषः
हस्तप्रचारभेदाः (१५) १८२,१८३ तत्र भरतमतप्रदर्शनम् (३) उत्तानः
१८२ अधोमुखः पार्श्वत:पाणिः तत्रान्यमतप्रदर्शनम् (२)
उग्रग:
अधस्तल: तत्र स्वमतप्रदर्शनम् (१५)
उत्तानः अधस्तलः पार्श्वगतः अग्रतस्तल: स्वसंमुखतल: ऊर्ध्वमुखः अधोमुखः पराङ्मुखः संमुखः पार्श्वतोमुख: अर्ध्वगः
क्षेपः रक्षणम् मोक्षणम् परिग्रहः निग्रहः उत्कृष्टः आकृष्टिः विक्रष्टिः ताडनम् तोलनम छेदः
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #31
--------------------------------------------------------------------------
________________
xxi
पुटसंख्या
१९७ १९८
YPP
२००
२०२
पुटसंख्या भेदः
१८९ वलितोरु स्फोटनम्
मण्डलस्वस्तिकम् मोटनम्
वक्षःस्वस्तिकम् विसर्जनम्
आक्षिप्तरेचितम् आह्वानम्
अर्धस्वस्तिकम तर्जनम्
दिक्स्वस्तिकम् करक्षेत्राणि (१४)
पृष्ठस्वस्तिकम् पुर:पार्श्वम्
स्वस्तिकम् पश्चात्पार्श्वम्
अञ्चितम् ऊर्ध्वशिरः
अपविद्धम् अध:शिरः
समनखम् ललाटम्
उन्मत्तम्
स्वस्तिकरेचितम् स्कन्धः
निकुट्टकम् उरः
अर्धनिकुट्टकम् नाभिः
कटीच्छिन्नम् कटी
कटीसमम् शीर्षक:
भुजङ्गत्रासितम् ऊरुद्वयम्
अलातम्
विक्षिप्ताक्षिप्तकम् नृत्तकरणप्रकरणम् १९०-२५२
निकुञ्चितम् तस्य सामान्यलक्षणम् १९१ घूर्णितम् तेषामुद्देश: (१०८) १९२, १९४ ।। ऊर्ध्वजानुः तलपुष्पपुटम् १९५, १९६ मधेरेचितम् लीनम्
१९७ मत्तल्लि वर्तितम्
अर्धमत्तल्लि
कौ
२०४
२०५
"
२०६
"
२०७
२०८
२०९
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
xxii
२१२
पुटसंख्या रेचकनिकुट्टकम् ललितम् वलितम् २१०, २११ दण्डपक्षम् पादापविद्धकम् नपुरम् भ्रमरम् চিন্ব
२१२, २१३ भुजङ्गत्रस्तरेचितम् भुजङ्गाञ्चितम् दण्डरेचितम् २१३, २१४ चतुरम् कटिभ्रान्तम् व्यंसितम्
२१५ क्रान्तम् वैशाखरेचितम्
२१६ वृश्चिकम् वृश्चिककुट्टितम् २१६, २१७ वृश्चिकरेचितम् लतावृश्चिकम् आक्षिप्तम् २१७, अर्गलम् तलविलासितम् ललाटतिलकम्
२१९ पार्श्वनिकुट्टकम् चक्रमण्डलम् २१९, २२०
पुटसंख्या उरोमण्डलम् आवर्तम् कुञ्चितम् ___ २२०, २२१ डोलापादम् विवृत्तम् विनिवृत्तम् पार्श्वकान्तम् निशम्भितम् २२२, विद्युभ्रान्तम् अतिक्रान्तम् विवक्षितम् विवर्तितम् गजविक्रीडितम् गण्डसूचि गरुडप्लुतम् तलसंस्फोटितम् २२५, पार्श्वजानु गृध्रावलीनम्
सूचि
"
हरिण
अर्धसूचि सूचीविद्धम् हरिणप्लुतम् परिवृत्तम् दण्डपादम् मयूरललितम् प्रेडोलितम्
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #33
--------------------------------------------------------------------------
________________
संतम्
सर्पितम्
करिहस्तम्
सर्पितम्
अपक्रान्तम्
नितम्बम्
स्खलितम्
सिंहविक्रीडितम्
सिंहाकर्षितम्
अवहित्थकम्
निवेशम्
एडकाकड
जनितम्
उपसृतम्
तलसंघट्टितम्
उद्वृत्तम्
विष्णुक्रान्तम्
लोलितम्
मदस्खलितम्
संभ्रान्तम्
विष्कम्भम्
उद्घट्टितम्
शकटास्यम्
ऊरूवृत्तम्
वृषभीड नागापसर्पितम्
पुटसंख्या
२२९
२३०
19
""
२३१
""
२३१, २३२
""
xxiii
"
२३३
"
२३४
""
"
२३५
""
२३६
""
""
२३७
""
१३८
""
"
२३९
""
गङ्गावतरणम्
करणानामिति कर्तव्यतानिरूपणम्
उत्प्लुतिकरणानि
दण्डप्रणामाञ्चितम् कर्तर्यञ्चितम्
पुटसंख्या
२३९
२४०-२५२
तेषामुद्देशः (३६) २४०, २४१
अञ्चितम्
२४२
एकचरणाञ्चितम्
भैरवाच
अलगम्
कूर्मालम्
ऊर्ध्वाम्
२४०
दर्पण
जलशयनम्
नागबन्धम्
कपालचूर्णनम्
""
""
२४३
""
""
""
२४४
""
अन्तरालगम् लोहडी (लुठितं) कर्तरीलोहडी (कर्तरीलुठितं ),, एकपादलोहडी (एकपादलुठितं)
19
२४५
11
""
पृष्ठम्
मत्स्यकरणम्
करस्पर्शनम्
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
""
२४६
""
31
२४७
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--------------------------------------------------------------------------
________________
xxiv
पुटसंख्या
२४७
पुटसंख्या ।
२५९
एणप्लुतम् तिर्यकरणम् तिर्यगश्चितम् तिर्यक्स्वस्तिकम्
२६०
२४८
२६१
सूच्यन्तानि बाह्यभ्रमरी
२६१, २६२
२६२, २६३
अन्तर्धमरी छत्रभ्रमरी तिरिपभ्रमरी अलगभ्रमरी चक्रभ्रमरी अञ्चितभ्रमरी शिरोभ्रमरी दिग्भ्रमरी समपादाञ्चितम् भ्रान्तपादाञ्चितम् स्कन्धभ्रान्तम्
सूचीविद्धः अपराजित: वैशाखरेचित: पार्श्वस्वस्तिकः भ्रमरः आक्षिप्तकः परिच्छिन्न: मदविलसितः आलीढः आच्छुरितः पार्श्वच्छेदः अपसर्पितः मत्ताक्रीड: विद्युद्धान्तः विष्कम्भापसृतः मत्तस्खलितः गतिमण्डल: अपविद्धः विष्कम्भः उद्घट्टितः आक्षिप्तरेचितः रेचितः अर्धनिकुट्टकः वृश्चिकापसृतः अलातक: परावृत्तः
२६५
२५२
अङ्गहाग: २५२-२७४ तत्र पूर्वरङ्गलक्षणम् २५२-२५४
अङ्गहारलक्षणम् २१५ मातृकादीनां लक्षणम् अङ्गहारविभागः अङ्गहारकरणप्रयोगे कालनियमः ,, स्थिरहस्तः पर्यस्तकः
२५८
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #35
--------------------------------------------------------------------------
________________
परिवृत्त करे चितः
उद्वृत्तकः
संभ्रान्तः
स्वस्तिकरेचित:
अहाराणां प्रयोगनियम:
चकलक्षणम्
चारीणां स्वरूपकथनम् चारीणां विभागः तत्र भौम्यः
आकाशिक्यः
देशीप्रसिद्धाश्चार्यः तत्र भौम्यः
""
भौम्यः
आकाशिक्यः
(१६)
समपादा
स्थितावर्ता
चारीणां सामान्यलक्षणम् २७६ चाप्रयोगे इतिकर्तव्यता २७७
२७८
२७९ अकाशिक्यः
शकटास्या
विच्यवा
अध्यक
चाषगति:
एकाक्रीडिता
समोत्सरितमत्तल्ली
पटसंख्या
२७२
२७३
मत्तल्ली
D
""
२७४
XXV
""
२७५
""
२८१
२८२
""
२८३
२८४
२८५
""
अतिक्रान्ता
"
२८० अपक्रान्ता
पार्श्वकान्ता
""
२८६
उत्स्पन्दिता
अडता
स्पन्दिता
अवस्पन्दिता
""
२८७
बद्धा
जनिता
ऊरूवृत्ता भौमचारीणां विनियोगः
मृगप्लुता
ऊर्ध्वजानुः
अलाता
सूची
नूपुरपादिका
डोलपादा
दण्डपादा
विद्युद्भ्रान्ता
भ्रमरी
भुजङ्गत्रासिता
आक्षिप्ता
आविद्धा
उद्वृत्ता
पुटसंख्या २८७
(१६)
૨૮૮
""
""
२८९
""
२८९, २९०
""
२९१
"
२९२
"
""
२९३
""
""
२९४
""
""
२९५
"
"
२९६
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
आसां विनियोगः हस्ताभिनयचार्योर्गुणप्रधान
देशीचार्य:
भावव्यवस्था
क्षेत्रेषु कट्या एव प्राधान्यप्रदर्शनम् कव्याश्रयनाव्यनृत्ययोर्हस्त
नियम:
(98)
रथचक्रा
परावृत्ततला
नूपुरविद्धा
तिर्यङ्मुखा
मराला
करिहस्ता
कुलीरिका
विश्लिष्टा
कातरा
पाष्णिरेचिता
ऊरुताडिता
ऊरुवेणी
तलवृत्ता
हरिणत्रासिका
अर्धमण्डलका
तिर्यक्कुञ्चिता
पुटसंख्या
२९६
मदालसा तिर्यक्संचारिता
२९७
"
२९८
""
२९९
""
""
३००
"
""
३०१
33
xxvi
""
ܙܙ
३०२
""
""
""
३०३
>>
""
आकुञ्चिता
स्तम्भक्रीडनिका
लङ्घितजङ्घका
स्फुरिता
अवकुञ्चिता
सङ्घट्टिता
खुत्ता
स्वस्तिका
तलदर्शिनी
पुराटिका
मराटिका
सरिका
स्फुरिका
निकुट्टिका
लताक्षेप:
अस्खलितिका
समस्खलितिका
विद्युद्भ्रान्ता
पुरः क्षेपा
विक्षेपा
हरिणप्लुता
अपक्षेपा
डमरी
दण्डपादा
अङ्घ्रिताडिता
जङ्घाङ्घनिका
पुटसंख्या
३०३
३०४
""
""
""
३०५
"
""
31
३०६
"
""
""
३०७
""
""
>>
३०८
""
""
३०९
""
"
""
३१०
""
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #37
--------------------------------------------------------------------------
________________
अलाता
जङ्घार्ता
वेष्टनम्
द्वेष्ट
उत्क्षेपः
पृष्ठोत्क्षेपः
सूची
विद्धा
प्रावृतम्
उल्लोल:
कोहलोक्ता मधुपसंज्ञकाचार्य:
चारीणामुद्देशः
पुरः पश्चात्सरा
पश्चात्पुरःसरा
त्रिकोणचारी
एकपट्टि
पादयकुट्टिता
पाद स्थिति निकुट्टिता
कमपाद निकुट्टिता पार्श्वद्वयचारिणी
कुट्ट
कुट्ट
पुटसंख्या
३१०
"
३११
,,
""
""
३१२
""
""
""
३१३-३१७
३१३, ३१४
""
""
""
"
""
xxvii
"
३१५
"
""
""
""
19
पार्श्वक्षेपनि कुट्टिता
पार्श्वक्षेपाख्य कुट्टिता
चतुष्कोणकुट्टिता
मध्यस्थापनकुट्टा
तिरश्चीनकुट्टा
पृष्ठलुठिता
पुरस्ताल्लुठिता
अनुलोमविलोमा प्रतिलोमानुलोमिका
समपादनि कुट्टिता
चक्रकुट्टनिका
मध्यचक्रा
मध्यलुठिता
वक्त्रकुट्टनिका
स्थानकलक्षणम्
तेषामुद्देश:
तत्र पुरुषस्थानकानि (६)
वैष्णवम्
समपादम्
वैशाखम्
मण्डलम्
आम्
प्रत्यालीढम् स्त्रीस्थानकानि (७)
आयतम्
पुटसंख्या
३१५
""
""
३१६
""
"
"
"
""
""
३१७
"
""
""
३१७-३१९
27
३१९, ३२०
३२१
३२२
३२३
पुरःक्षेपनि कुट्टिता पश्चात्क्षेप निकुट्टिता
३२९, ३२६
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
"
३२४ ३२४, ३२५
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________________
xxviii
पुटसंख्या
سر
س
पुटसंख्या अवहित्यम्
३२७ शैवम् अश्वक्रान्तम्
गारुडम् गतागतम्
३२८ कूर्मासनम् वलितम्
नागबन्धम् मोटितम्
वृषभासनम् विनिवर्तितम्
उपविष्टस्थानकानि (९) देशीस्थानकानि (२३)
स्वस्थम् स्वस्तिकम्
मदालसम् वर्धमानम्
क्रान्तम् नन्द्यावर्तम्
विष्कम्भितम् संहतम्
उत्कटम् समपादम्
स्रस्तालसम् एकपादम्
जानुगतम् पृष्ठोत्तानतलम् ३३१ मुक्तजानु चतुरश्रम्
विमुक्तम् पाणिविद्धम् पाणिपार्श्वगतम्
सुप्तस्थानकानि (६) एकपार्श्वगतम्
समम् एकजानुगतम्
आकुञ्चितम् परावृत्तम्
प्रसारितम् समसूचि
३३३
विवर्तितम् विषमसूचि
उद्यहितम् खण्डसूचि
नतम् ब्राह्मम्
३३४
वृत्तिसामान्यलक्षणम् वेष्णवम्
तस्या विभाग:
३३२
'
"
३४१
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #39
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________________
xxix
पुटसंख्या
३५४
दण्डपादम् क्रान्तम् ललितसंचरम् सूचीविद्धम् वामविद्धम्
३५६
"
-
विचित्रम्
विहृतम् अलातम् ललितम्
३५८ ३५८, ३५९
पुटसंख्या तत्र भारतीवृत्तिः ३४१ सात्वतीवृत्तिः
३४२ आरभटीवृत्ति: कैशिकीवृत्तिः ३४२, ३४३ वृत्तीनामवान्तरभेदा: ३४३,३४४ वृत्तीनां प्रयोजनकथनम् , न्यायसामान्यलक्षणम् ३४५ प्रविचाराणां सामान्यलक्षणम् ,, तेषां वृत्तिषु प्रयोगविधिः
३४६, ३४७ मण्डलानां सामान्यलक्षणम् .. तेषामुद्देशः
३४८ भौममण्डलानि (१०) भ्रमरम्
३४९ आस्कन्दितम् ३४९ आवर्तम् शकटास्यम् अडितम् समोत्सरितम् अध्यर्धम् एडकाक्रीडितम् पिष्टकुट्टम् चाषगतम्
३६४ आकाशिकमण्डलानि (१०) भतिक्रान्तम्
लास्याङ्गानि (१०) ३६०-३६३ तेषामुद्देश: चालि: चालिवडः लढिः सूकम् उरोङ्गणम् धसकः अङ्गहारः
ओयारकः विहसी मनः रेखालक्षणम् श्रमविधिः ३६४, ३६५ पात्रलक्षणम् ३६९, ३६६ पात्रगुणाः
३६७
३५२
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
xxx
पुटसंख्या
पुटसंख्या पात्रदोषाः
३६८ सभासदो लक्षणम् ३९३ पात्रमण्डनानि
३६९ सभापतिलक्षणम् ३९४ उपाध्यायलक्षणम् ३७० सभासंनिवेशः ३९५, ३९६ संप्रदायलक्षणम् ३७२, ३७३
नवरसलक्षणम् ३९७-४४४ संप्रदायगुणदोषाः ३७४ शुद्धपद्धतिः ३७४-३७६ रसस्य प्राधान्यत्वोपपादनम् ३९७ गौण्डलीविधिः ३७७-३८४ तस्य सामान्यलक्षणम् ३९८,३९९ पेरणिलक्षणम् ३८४-३८८ तत्र दृष्टान्तनिरूपणम् ४०० तस्याङ्गानि ३८५ रसविभागः
" तत्र घर्घरलक्षणम्
तत्र मतान्तरप्रदर्शनम् ४०१
स्थायिभावानामुद्देशः , घर्घरभेदाः (६)
स्थायिसंचारिणोविभागः ४०२ पडिवाट:
व्यभिचारिभावाः,तेषामुद्देश: ४०३ अपडपः
सात्त्विकभावाः, तेषामुद्देशः ,, सिरिपट:
रसानां परस्परजन्यजनकअलगपाट:
भावनिरूपणम् ४०४ सिरिहिरः
रसानां वर्णदेवतानिरूपणम् ,, खलुहुल:
रसविशेषलक्षणम् ४०५ विषमाङ्गस्य लक्षणम्
तत्र शृङ्गारः ४०५, ४०६ पेरणिपद्धतिः ३८९, ३९० विभावानां सामान्यलक्षणम् ४०७ आचार्यलक्षणम्
तत्र शृङ्गारविभावः नटलक्षणम्
अनुभावानां लक्षणम् ४०८ नर्तकलक्षणम्
तत्र शृङ्गारानुभाव: ४०९ वैतालिकलक्षणम्
विप्रलम्भलक्षणम् चारणलक्षणम्
विप्रलम्भस्य रसत्वाक्षेपः ४११ कोल्हाटिकलक्षणम् ३९३ तत्र दृष्टान्तः
४१२
३८६
३८८
३९१
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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--------------------------------------------------------------------------
________________
पुटसंख्या
तस्य परिहार: ४१३, ४१४ शृङ्गारे वर्णनीया दशावस्था:
४१४, ४१५
४१५, ४१६
(२) हास्यलक्षणम् तस्य विभावाः
(३) करुणलक्षणम्, तस्य
"
स्मितादीनां लक्षणम् ४१७,४१८
विभावा:
अनुभावा:
विलापन परिदेवनयोः स्वरूप
तस्य संचारिणः
तस्य शङ्कापरिहारः भावानां स्थिरत्वाक्षेपः
स्थायिनो भेदाः
xxxi
""
४१९, ४२०
४२०, ४२१
४२१
निरूपणम् करुणस्य त्रैविध्यम्
४२२
रुदितस्य त्रैविध्यम् ४२२, ४२३ (४) रौद्रलक्षणम्, तस्य विभावा : ४२३
तस्यानुभावा:
४२४
४२५
४२६
४२७
४२८
(५) वीरलक्षणम्, तस्य विभावाः
अनुभावा:
तत्र नयादीनां लक्षणम् ४३०, वीरस्य भेदाः
(६) भयानकः, तस्य विभावाः
अनुभावाः
४२८, ४२९
४३०
४३१
४३२
27
४३३
तस्य भेदा:
(७) बीभत्सः, तस्य विभावादयः बीभत्स भेदा: (८) अद्भुतः, तस्य विभावादयः
पुटसंख्या ४३४, ४३५
तस्य भेदौ (९) शान्त:, तस्य विभावा: अनुभावा:
शान्तस्य स्वरूपलक्षणम् तत्र मतान्तरेण रसान्तर
तत्र निर्वेद:
ग्लानि:
"
_४३५, ४३६
शङ्का
तदूषणम्
भक्त्यादीनां तत्रान्तर्भाव
कथनम् रत्यादिस्थायिभावव्यवस्था
शङ्का
औप्रयम्
दैन्यम्
४३६, ४३७ ४३८
असूया
मदः
श्रमः
व्यभिचारिणां लक्षणम्
""
४३९
४४०
४४१
४४२
""
४४३, ४४४
४४४-४६६
४४४, ४४५
४४५, ४५६
४४६, ४४७
४४७, ४४८
""
""
४४९
४५०
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rrii
पुटसंख्या ४५०
पुटसंख्या व्यभिचारिणां रसोपयोगित्वम्
४६५, ४६६
४५१, ४५२
तत्र चिन्ता
धृतिः स्मृति: ब्रीडा मोहः आलस्यम् चापलम्
४५२,४५३
४५
४५४
४७०
हर्षः
अमर्षः ४५४,४५५ विषादः अपस्मारः४५५,४५६ जडता वितर्कः ४५६.४ सुप्तम् औत्सुक्यम् अवहित्थम्
४५८
४५७
सात्त्विकलक्षणम् ४६६-४७१
मतान्तरेण सत्त्वशब्दार्थः ४६८ सात्त्विकभेदाः, तत्र स्तम्भ: ४६९ स्वेदः रोमाञ्च: स्वरभेदः वेपथुः वैवर्ण्यम् ४७०, ४७१ অপ্ত प्रलयः भावलक्षणनिगमनम् नाटकादिनिर्माणे कविनियमः
४७१, ४७२ ग्रन्थोपसंहारः कवेः सहृदयप्रार्थना ४७३, ४७४ श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४७५-५३३ . उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः
५३४-५४३ विशेषपदानि ५४४-५८४ Recurrences and Parallels
५८५-६००
मतिः
बोधः (विबोध:) ४५९ व्याधिः
४५९,४६० उन्मादः ४६०, ४६१ गर्वः
" आवेगः ४६२, ४६३ मरणम् (मृतिः) ४६३, ४६४ त्रास: ४६४,४६५ निद्रा
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शिवाभ्यां नमः श्री-निःशङ्क-शार्ङ्गदेव-प्रणीतः
संगीतरत्नाकरः चतुरकल्लिनाथ-विरचितया कलानिध्याख्यटीकया सिंहभूपालविरचितया संगीतसुधाकराख्यटीकया च समेतः
सप्तमो नर्तनाध्यायः आङ्गिकं भुवनं यस्य वाचिकं सर्ववाङ्मयम् । आहार्य चन्द्रतारादि तं नुमः सात्त्विकं शिवम् ॥ १॥
कलानिधिः अथ गीतवाद्योपकार्यत्वेनाभेदातिशयोपायभूतं नर्तनं प्रतिपिपादयिषुः शार्ङ्गदेवः प्रकरणादौ तत्परिसमाप्त्यादिफलाकाङ्क्षया समुचितेष्टदेवतां नर्तनस्पृष्टगुणत्वेन स्तौति-आङ्गिकमित्यादिना । भुवनम् ; परिदृश्यमानप्राणिलोकः ; यस्य ; शिवस्य ; आङ्गिकम् ; अङ्गव्यापारो भवति । शिवस्य जगद्रूपत्वादिति भावः । सर्ववाङ्मयम् ; वेदशास्त्रादिसमस्तं शब्दजातं यस्य वाचिकं वाग्व्यापारो भवति । चन्द्रतारादि ; चन्द्रादिज्योतिषां
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संगीतरत्नाकरः शिवप्रसादसंप्राप्तनिःसीमज्ञानसंपदा ।
तन्यते शार्ङ्गदेवेन नर्तनं तापकर्तनम् ॥ २॥ मण्डलं यस्य आहार्य हारकेयूरादिविभूषणं भवति । सात्त्विकं ; सत्त्वगुणप्रधानम् । अत्र शिवशब्देन कूटस्थस्य परशिवस्य विवक्षितत्वात्तत्सात्त्विकं तस्याविरुद्धम् । तं शिवं नुम इति संबन्धः । अत्राङ्गिकादिशिवगुणवाचकैः श्लिष्टशब्दैः प्रकरणप्रतिपाद्यस्य नर्तनस्याभिधानमपि द्रष्टव्यम् । एवमिष्टदेवतां स्तुत्वा प्रकरणस्य विषयादीन् दर्शयति-शिवप्रसादेत्यादिना। शिवप्रसादसंप्रदानिःसीमज्ञानसंपदा शार्ङ्गदेवेन मया तापकर्तनं नर्तनं तन्यत इति संबन्धः । तत्र नर्तनं विषयः । तापकर्तनमित्यनेनाध्यात्मिकादितापत्रयोच्छेदः प्रयोजनं दर्शितम् । तदर्थिन एवाधिकारिण आक्षिप्यन्ते । संबन्धस्तु तापत्रयोच्छेदननर्तनयोः साध्यसाधनभावः । नर्तनस्य ग्रन्थस्य च प्रतिपाद्यप्रतिपादकभावः ॥ १, २ ॥
सुधाकरः गीतवाद्ये उक्ते, अशिष्टं नृत्तं विवक्षुस्तत्सूचक मङ्गलमाचरति-आङ्गिकमिति । तं शिवं शंकरं नुमः वर्णयामः । यस्य सर्व भुवनमानिकम् , अङ्गानां समूह आङ्गिकम् ; पृथिव्याद्यष्टमूर्तित्वात् । सर्वं च वाङ्मयं विद्याजातं यस्य वाचिकम् वाक्समूहः; 'निःश्वसितमस्य वेदाः' इति श्रुतत्वात् । चन्द्रनारदि यस्याहार्य कार्यम् ; सकलजगत्कर्तृकत्वात् । अथवा चन्द्रतारादि यस्याहर्यमलंकरणम् ; चन्द्रमौलित्वात् । सात्त्विकं सत्त्वगुणप्रधानम् ; यद्यपि पुराणादिषु तमोगुणः परमेश्वरः श्रूयते ; तथापि हरिहरयोरभेदविवक्षयोक्तम् । अथवा सत्त्वं सत्ता, तयोपलक्षितः सात्त्विकः, तमित्यर्थः । पक्षे तन्नृत्तं नुमः । यस्य भुवनं सर्वमाङ्गिकमभिनयनम् ; शिवं शुभमित्यर्थः । तथा वाचिकमभिनयनं सर्वसंबन्धाभिर्वाग्भिर्मीयत इति वाङ्मयम् ; तदपि शुभम् । चन्द्रतारादि, आहार्यमभिनयनम् ; चन्द्रशब्देन अङ्गोपलक्षणं मुखं लक्षयित्वा तारकान्वितया तया
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
नाट्यं नृत्यं तथा नृत्तं त्रेधा तदिति कीर्तितम् । नाट्यवेदं ददौ पूर्व भरताय चतुर्मुखः ।। ३ ।। ततश्च भरतः सार्धं गन्धर्वाप्सरसां गणैः । नाट्यं नृत्यं तथा नृत्तमग्रे शंभो: प्रयुक्तवान् ॥ ४॥ प्रयोगमुद्धतं स्मृत्वा स्वप्रयुक्तं ततो हरः । तण्डुना स्वगणाग्रण्या भरताय व्यदीदृशत् ।। ५ । लास्यमस्याग्रतः प्रीत्या पार्वत्या समदीदृशत् । बुद्धाथ ताण्डवं तण्डोर्मयेभ्यो मुनयोऽवदन् || ६ || पार्वती त्वनुशास्ति स्म लास्यं वाणात्मजामुषाम् । तया द्वारवती गोप्यस्ताभिः सौराष्ट्रयोषितः ॥ ७ ॥ ताभिस्तु शिक्षिता नार्यो नानाजनपदाश्रिताः । एवं परंपराप्राप्तमेतल्लोके प्रतिष्ठितम् ॥ ८ ॥
प्रत्यङ्गोपलक्षणम् । ततश्च प्रत्यङ्गक्रियारूपमाहर्यमभिनयनं यस्य शुभम् । तथा सात्त्विकमभिनयनं कम्पादिकं यस्य शुभम् ; तं नर्तनं नुम इति संबन्ध: । एवमुचितं मङ्गलमाचर्य विषयं प्रतिजानीते - शिवप्रसादेति । ईश्वरप्रसादेन प्राप्ता निःसीमा निरवधिका ज्ञानसंपत् येन ; तापकर्तनं संतापनाशकं निर्वापकमित्यर्थः ॥ १, २ ॥
(क०) विषयत्वेनोद्दिष्टं नर्तनं विभजति - नाटयमित्यादिना । तदिति । नर्तनम् । नाट्यादिभेदभिन्नस्य नर्तनस्येह गतिं दर्शयतिनाट्यवेदमित्यारभ्य, एतल्लोके प्रतिष्ठितमित्यन्तेन । नाट्यवेदमिति । वेद्यतेऽनेन धर्मार्थाविति व्युत्पत्या ऋगादिमुख्यवेदमूलत्वेन च चतुर्मुखेण दत्तस्य वेदत्वे सिद्धे तदर्थभूतनाट्यप्रतिपादकभरतमुनिप्रणीतस्य चतुर्विधपुरुषार्थफलस्य शास्त्रस्य वेदमूलत्वेन वैदिकत्वं वेदितव्यम् । अयमेवोपवेदेषु परिगणितश्च ; 'सामवेदस्योपवेदो गान्धर्ववेदः " इति । नाटयंवेद ए
(6
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संगीतरत्नाकरः ऋग्यजुःसामवेदेभ्यो वेदाचाथर्वणः क्रमात् । पाठ्यं चाभिनयान् गीतं रसान् संगृह्य पद्मभूः ॥९॥
न्यरीरचत्रयमिदं धर्मकामार्थमोक्षदम् । गीतप्राधान्यविवक्षया गान्धर्ववेद उच्यते । अभिनयप्राधान्यविवक्षया तु नाट्यवेद इति चोच्यते । तस्य च मुख्यवेदसारसंग्रहत्वं दर्शयितुमाहऋग्यजुरित्यादि । ऋग्वेदात्पाठ्यस्य संग्रहणम् ; तस्य मन्त्ररूपत्वेन शब्दप्रधानत्वादिति मन्तव्यम् । पाट्यं नाम वाचिकामिनेयः । यजुर्वेदादभिनयानां संग्रहमपि ; तस्य पाटाक्षरोद्घाटनं च । सामवेदात् गीतम् ; तस्य नादात्मकत्वादिति मन्तव्यम् । अथर्वणाद्रसानां शृङ्गारादीनां संग्रहणमपि ; तस्य मारणमोहनाद्यभिचारकर्मप्रतिपादकत्वेन रसप्रधानत्वादिति भावः । इदं त्रयमिति । नाट्यनृत्यनृतानीत्यर्थः । धर्मकामार्थमोक्षदमिति । यो यं यं पुरुषार्थमुद्दिश्य प्रयुङ्क्ते स स तस्य सिध्यतीत्यर्थः ॥ ३-९- ।।
(सु०) नर्तनं लक्षयति-नाट्यमिति । नर्तनं त्रिप्रकारम् ; नाटयं नृत्यं नृत्तमिति । एतेषां मूलोत्पत्तिमाह-नाट्यवेद मिति । चतुर्मुखो ब्रह्मा, भरतमुनये नाट्यवेदं वेदतुल्यं नाट्यशास्त्रं ददौ । तमध्यापयदित्यर्थः । तदधीत्य भरत: शंभोरप्रे नाट्यत्रितयं प्रायुनक् ; ततस्तत्प्रयोगदर्शनेनोद्धतं स्वप्रयुक्तं प्रयोगं स्मृत्वा तण्डुनाम्ना स्वगणमुख्येन हरो भरताय दर्शयामास । भरतस्य अग्रतः प्रीत्या पार्वत्याः लास्यम् समदीदृशत् । बुध्देति । तण्डोः सकाशात्ताण्डवं बुद्धा, भरतादयो मुनयो मनुष्येभ्योऽप्यवादिषुः । पार्वती तु बाणात्मजामुषाम् , लास्यम् अनुशास्ति स्म अशिशिक्षित । शास्तिईिकर्मकः । तया; उषया द्वारवतीगोप्यः, ताभिः ; गोपीमि: सौराष्ट्रयोषितः । ताभिः ; सौराष्ट्रनारीभिस्तु नानाजनपदाश्रिता: स्त्रियः शिक्षिताः । इत्थं परंपराप्राप्तमेतन्नाटयं लोके प्रतिष्ठामगमत् । ऋगिति । क्रमादृगादिवेदचतुष्टयात् वाद्यमभिनयं गीतं शृङ्गारादीन् रसांश्च गृहीत्वा इदं त्रयं गीतनृत्तवाद्यप्रतिपादकं शास्त्रं पद्मभूः ब्रह्मा
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
कीर्तिप्रागल्भ्यसौभाग्यवैदग्ध्यानां प्रवर्धनम् ॥ १० ॥ औदार्यस्थैर्यधैर्याणां विलासस्य च कारणम् । दुःखार्तिशोकनिर्वेदखेदविच्छेदकारणम् ॥ ११ ॥ अपि ब्रह्मपरानन्दादिदमभ्यधिकं ध्रुवम् । जहार नारदादीनां चित्तानि कथमन्यथा ॥ १२ ॥ न किंचिद् दृश्यते लोके दृश्यं श्राव्यमतः परम् । सर्वदा कृतकृत्ये नाप्य क्लिष्टेष्टप्रदायके ॥ १३ ॥
व्यरीरचत् । तेनैव रसप्रतिपादन सिद्धेरित्यर्थः । किमर्थमित्यपेक्षायां प्रयोजनं हेतुगर्भैर्चतुभिः विशेषणैराह - धर्मकामार्थेत्यादिना ॥ -३-९-॥
1
(क) नान्तरीयकतया कीर्त्यादयोऽपि रिष्टार्थाः सिध्यन्तीत्याहकीर्तिप्रागल्भ्येत्यादिना । प्रागल्भ्यं प्रौढता ; शास्त्रविषये । वैदग्ध्यं चतुरता ; लोकविषये । स्थैर्ये नाम प्रवृत्ताध्यवसायादचालनम् । धैर्ये तु शोकहर्षयोर्बुद्धेरेकरूपत्वम् । नाट्यादिप्रयोगदर्शनेन दुःखाद्यनिष्ट निवृत्तिरपि भवतीत्याह - दुःखार्तीत्यादि । दुःखं बाह्येन्द्रियपरितापः ; आर्तिर्वाचिकः परिताप: ; शोको मनसः संताप : ; निर्वेद: शून्यचित्तत्वम् ; खेद: कायिकः संताप इति दुखादीनां भेदा द्रष्टव्याः । पूर्वं नाट्यादेर्मोक्षसाधनत्वमुक्तम्, इदानीं तस्यैव मोक्षरूपतामर्थापत्या साधयति — अपि ब्रह्मेत्यादि । ब्रह्मविदामपि तेषां नारदादीनाम त्रासक्त्यतिशयादिति भावः । इदं न केवलं नारदादीनां मनो जहार ; अपि तु सकललोकस्यापीत्यभिप्रायेणाह - न किंचिद् दृश्यत इति । ननु विषयासक्तमनसो लोकस्य मनोहरत्वेनास्य कथमुत्कर्ष इत्याशङ्कयास्योत्कर्षत्वं दर्शयितुं विषय निवृत्तमनसाप्येतदनुसंधेय मित्याह - सर्वदेति । कृतकृत्येन ; कृतमृणत्रयापाकरणादिकृत्यं येन स तथोक्तस्तेन ; तस्यानन्तरमपि संसारप्रवर्तक धर्मसंचिकीर्षया कर्तव्यबुद्धेरभावः । कृतकृत्यशब्देन साधन
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संगीतरत्नाकरः द्रष्टव्ये नाट्यनृत्ये ते पर्वकाले विशेषतः । नृत्तं त्वत्र नरेन्द्राणामभिषेके महोत्सवे ॥ १४ ॥ यात्रायां देवयात्रायां विवाहे प्रियसङ्गमे । नगराणामगाराणां प्रवेशे पुत्रजन्मनि ॥ १५ ॥
ब्रह्मणोक्तं प्रयोक्तव्यं मङ्गल्यं सर्वकर्मसु । चतुष्टयसंपन्नो मुमुक्षुरुच्यते । अलिष्टेष्टप्रदायके इति हेतुगर्मितं विशेषणम् । अक्लिष्टमिष्टं मोक्षः, तस्य प्रदायके यतो नाट्यनृत्ये अतस्ते मुमुक्षुणापि सर्वदा द्रष्टव्ये इति योजना । अयमभिप्रायः--नाट्यनृत्ययोरनुकरणात्मकत्वेनालीकत्वात्तन्निदर्शनेन लोकव्यवहारस्याप्यलीकत्वे भाव्यमाने सच्चिदानन्दस्वभावात्मकविषयं ज्ञानं दृढं भवति । विषयसुखाभिलाषिणस्तु किमुतेत्यपिशब्दार्थः । सर्वदा दर्शनासंभवेऽपि पर्वकाले विशेषतो द्रष्टव्ये इत्याहपर्वकाल इति । पर्वकाल उत्सवकालः ॥ -१०-१३- ॥
(सु०) नाट्यस्यावश्यंभावितया कीर्त्यादयोऽपि सिध्यन्तीत्याह-कीर्तीत्यादिना | कीर्तिः; यशः, प्रगल्भः ; प्रतिभा, तस्य भावः ; सौभाग्यम् ; सुभगत्वम् ; वैदध्यम ; चतुरत्वमेतेषां प्रवर्धनम् । औदार्यम् ; उदारस्वभावः; स्थैर्यम् ; कार्यस्याध्यवसायः ; धैर्यम् ; हर्षशोकयोः समानरूपत्वम् ; एषां विलासस्य च कारणं भवति । दुःखातिशोकनिर्वेदखेदानां विच्छेदकारणं भवति । अपि च ब्रह्मानन्दादप्यधिकमिदं नाटयं श्रेष्ठमित्यर्थः । अत एव नारदादीनां चित्तानि जहार । न किंचिदिति । इत: नाट्यादित्रितयादन्यद् दर्शनीयं श्रोतव्यं च लोके न दृश्यते । सर्वदेति | कृतकृत्येन मुमुक्षुणापि, अक्लिष्टेष्टप्रदायके; दुःखासंपृक्तं यत्सुखं तत्प्रदायके नाट्यनृत्ये द्रष्टव्ये इत्यर्थः । पर्वकाले ; महोत्सवकाले, ते विशेषतो द्रष्टव्य इति ॥ -१०-१३-।।
(क०) नाठ्यनृत्त्ययोः प्रयोगसमयमुक्त्वा नृत्तस्य प्रयोगसमयमाह-- नृत्तं त्विति ॥ -१४, १५- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः नाट्यादित्रितयस्यातः प्रपञ्चमभिदध्महे ॥ १६ ॥ नाट्यशब्दो रसे मुख्यो रसाभिव्यक्तिकारणम् । चतुर्धाभिनयोपेतं लक्षणावृत्तितो बुधैः ॥ १७ ॥ नर्तनं नाट्यमित्युक्तं स त्वत्राभिनयो भवेत् । काव्यबद्धं विभावादि व्यञ्जयन्यो नटे स्थितः ॥ १८ ॥
नृत्तस्य प्रयोगसमयमाह-नृत्तं
(सु०) नाट्यनृत्ययोः कालविशेषमुक्त्वा त्विति । स्पष्टोऽर्थः ॥ -१४, १५ ॥
(क०) नाट्यादीनां स्वरूपं वक्तुमाह-नाटयादीति । तत्र नाट्यशब्दस्य लक्षकतां वक्तुं तस्य मुख्यार्थतां दर्शयति-नाटयशब्दो रसे मुख्य इति । मुख्यः; वाचक इत्यर्थः । तस्य लक्ष्यार्थ दर्शयतिरसाभिव्यक्तीत्यादि । मुख्यार्थस्य रसस्य नर्तनभेदत्वासंभवान्मुख्यार्थबाधे सति, तस्य रसस्य व्यञ्जकत्वेन संबन्धिनश्चतुर्विधाभिनयोपेतस्य नर्तनविशेषस्य लक्ष्यार्थत्वात् तत्र च वर्तमानोऽयं नाट्यशब्दो लाक्षणिक इत्यर्थः । नाट्यविशेषणत्वेन प्रसक्तस्य चतुर्विधस्याभिनयस्य सामान्य लक्षणमाह-स वित्यादि । स इति वक्ष्यमाणः परामृश्यते । काव्यबद्धमिति । अत्र काव्यशब्येन नाटकादीनि रूपकाण्युच्यन्ते । तेषामेव नटाभिनेयार्थत्वात् । तत्र नाटकादौ कविना निबद्धं विभावादि; आदिशब्देन अनुभावसात्त्विकसंचारिस्थायिभावा गृह्यन्ते । विभावादि व्यञ्जयन् ; प्रकाशयन् , सामाजिकानाम् ; प्रेक्षकाणाम् ; निर्विघ्नां रससंविदम् ; निर्विघ्नां निरन्तरायां, तत्र व्यवधानमेवान्तरायः, अव्यवहितामित्यर्थः । रससंविदमानन्दानुभूति जनयन् , नटस्थितः; नटे स्थितो योऽर्थो विद्यते स त्वभिनयो भवेत् । तुशब्दोऽवधारणे, स एवेति । न तु चेष्टामात्रमित्यर्थः । अत्राभिनयव्यङ्ग्य
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संगीतरत्नाकरः सामाजिकानां जनयनिर्विघ्नां रससंविदम् । लक्षणानि विभावादेर्वक्ष्ये रसनिरूपणे ॥ १९ ॥ आङ्गिको वाचिकस्तद्वदाहार्यः सात्त्विकोऽपरः । चतुर्धाभिनयस्तत्राङ्गिकोऽङ्गैर्दर्शितो मतः ॥ २० ॥
वाचा विरचितः काव्यनाटकादिस्तु वाचकः । त्वेन प्रसक्तानां विभावादीनां लक्षणान्यध्यायान्ते रसनिरूपणावसरे वक्ष्यन्त इत्याह-लक्षणानीत्यादि ॥ -१६-१९ ॥
(सु०) नाट्यादीनां स्वरूपं वक्तुं प्रतिजानीते-नाट्यादीति । यतः नाट्यादित्रितयं प्रशस्तमत: कारणात् नाट्यनृत्त्यनृत्तानां प्रपञ्चं लक्षणादिविस्तरं कथ्यते । लक्षणया रसस्य अभिव्यञ्जकत्वेन आङ्गिकादिचतुर्विधाभिनयोपेतं नर्तनमित्युच्यते । अभिनयलक्षणमाह–स त्विति । काव्यनाटकादिरित्यादिशब्देन रूपकाणि विवक्षितानि । तेषामभिनेयार्थत्वात् । तत्र कविना निबद्धं विभावानुभावव्यभिचारादिकं स्थायीभावस्य कारणम् , कार्य सहकार्यादिकं वक्ष्यमाणं व्यञ्जयन् सामाजिकानां प्रेक्षकाणां निर्विघ्नाम् अव्यवहितां यो रससंविदं जनयति सोऽभिनयः । लक्षणानीति । विभावादेर्लक्षणानि अग्रे रसनिरूपणावसरे वक्ष्यन्त इत्यर्थः ॥ १६-१९ ॥
(क०) सामान्येन लक्षितस्याभिनयस्य विशेषानाह-आङ्गिक इत्यादि । बुद्धिविदितपदपदार्थैः अनुकर्तृभिः अङ्गः करचरणादिभिः करणैः दर्शित आङ्गिकः । काव्यनाटकादिस्त्विति । तुशब्दोऽवधारणे । काव्यनाटकादिरेवेत्यर्थः । न तु लोकव्यवहारार्थ शब्दमात्रमित्यर्थः । हारकेयूरेत्यादि । अनुकार्यगताभरणसजातीयत्वेनानुक; धृतं हारादिविभूषणमाहार्याभिनयः । आदिशब्देन धनुराद्यायुधं पुरस्कृतं ध्वजयानादि च विभूषणत्वेन ग्राह्यम् । तस्यापि शोभाहेतुत्वेन विभूषणत्वात् । आहार्यस्यापि अनुकार्य
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सप्तमो नर्तनाध्यायः आहार्यों हारकेयूरकिरीटादिविभूषणम् ॥ २१ ॥ सात्त्विकः सात्त्विकैर्भावैर्भावुकेन विभावितः । इतिकर्तव्यता तस्य द्विविधा परिकीर्तिता ॥ २२ ॥ लोकधर्मी नाट्यधर्मीत्येते च द्विविधे पुनः । चित्तवृत्त्यर्पिका काचिद्वाह्यवस्त्वनुकारिणी ॥ २३ ॥
इति भेदद्वयं प्राहुर्लोकधाः पुरातनाः । ज्ञापकत्वेनाभिनयत्वं द्रष्टव्यम् । सात्त्विकै वैरिति । स्तम्भादिभिरष्ट. भिर्वक्ष्यमाणैर्भावैः । मावुकेन : भावनाव्यापारवता नटेन प्रेक्षकेण च । विमावित इति । स्तम्भादीनां सकलरससाधारणत्वेन दुर्विवेचितत्वेऽपि तत्तद्रसं प्रति नियतत्वेन सूक्ष्मेक्षिकया संभावितः ।। २०, २१- ॥
(१०) अभिनयस्य भेदानाह-आङ्गिक इति । तान् मेदान् लक्षयति-चतुर्धेति । तत्र अझैः शिर आदिभिर्वक्ष्यमाणैः करणैर्दर्शित आङ्गिकः । वाचिकस्तु काव्यनाटकादिद्वारा वाचा अभिनेतव्यः । हारकेयूरकिरीटादिना बाह्यनिमित्तको रचनाविशेष आहार्यः । सात्त्विकैः कम्पादिभिः भावविशेष: भावुकेन विभावितः सात्त्विकः ॥ २०, २१ ॥
(क०) चतुर्विधस्याप्यभिनयस्य प्रथमं तावद् द्विविधामितिकर्तव्यता. माह- इतिकर्तव्यता तस्येत्यादि । इतिकर्तव्यता; प्रकारनियमः । एते च पुनर्द्विविधे इति । एते; लोकधर्मीनाट्यधम्यौं । चित्तवृत्त्यर्पिकेति । चित्तवृत्त्यर्पिकेति लोकधा एको भेदः । बाह्यवस्त्वनुकारिणीति द्वितीयः । उभे अप्यन्वर्थे वेदितव्ये । चित्तवृत्तौ अर्पितस्यार्थस्य प्रदर्शकत्वेन प्रवृत्ता। यथा, "गर्वेऽप्यहमिति तज्ज्ञैर्ललाटदेशोस्थितः कार्यः" इति पताकहस्तविनियोगे मुनिनोक्तम् । तत्र चित्तवृत्त्यर्पितस्य गर्वस्य प्रदर्शनप्रकारः चित्तवृत्त्यर्पिका । बाखवस्त्वनुकारिणीति । बहिःस्थितं पद्मादि वस्त्वनुकरोतीति । यथा पद्मकोशहस्तकमलादिनिरूपणे ॥ २२, २३. ॥
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संगीतरत्नाकरः आश्रित्य कैशिकी वृत्तिमेका नाटयोपयोगिनीम् ॥ २४ ॥ तद्योग्यां लौकिकी शोभां करोत्यावेष्टितादिभिः । अंशेनैवोपजीवन्ती लोकमन्या प्रवर्तते ॥ २५ ॥ नाट्यधा अपि प्राज्ञा भेदद्वन्द्वमिदं जगुः ।
(मु०) तस्य द्विविधेतिकर्तव्यतामाह-इतिकर्तव्यतेति । इतिकर्तव्यता नाम प्रकार नियमविशेषः । सा द्विविधा, लोकधर्मी, नाट्यधर्मी चेति । एते अपि द्विप्रकारे । तदेव द्वैविध्ये लोकधा आह-चित्तवृत्त्येति । लोकधा चित्तवृत्त्यर्पिकेत्येको भेदः, द्वितीयस्तु बाह्यवस्त्वनुकारिणीति ॥ -२२, २३- ॥
(क०) नाट्यधा अपि भेदद्वयमाह-- आश्रित्येत्यादि । तत्रैका नाट्योपयोगिनी कैशकी वृत्तिमाश्रित्य तद्योग्यां लौककी शोभां करोतीत्यन्वयः । कैशिकीमिति;
'वागङ्गाभिनयानां या सौकुमार्येण निर्मिता ।
उल्लमद्गीतनृत्ताव्या शृङ्गाररसनिर्भरा ।
निशङ्कः कशिकी ब्रूत तां सौन्दर्येकजीविताम् ।' इति कैशकीलक्षणं वक्ष्यति । अत एव नाट्योपयोगिनी ; नाट्ये अवस्थानुकरण उपयोगोऽस्या अस्तीति तथोक्ता । पुरुषस्यापि लोके व्यवहारानुकरणदशायां मार्दवमपेक्ष्यत इति भावः । यथा लोके यः कश्चन पुरुषो यं कंचनाहितं पुरुषं लगुडादिना प्रहृनवान, तत्साक्षिभूगोऽन्यस्तमनुकरोति, अनेनैवं प्रहृतमिति । तत्र'नुकरणस्य आरोपितत्वेनार्थक्रियाभावात् मृदुत्वमेव तस्य दृश्यते । अतः सौकुमार्यात्मिका कैशिकी नाट्योपयोगिनी भवति, ताम् आश्रित्य, तद्योग्यां नाटयोपयोगिनी लोकिकी शोभां करोति । अन्यां नाट्यधर्मीमाह-आवेष्टितादिभिरित्यादि । आवेष्टितो
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
आङ्गिकाभिनयैरेव भावानेव व्यनक्ति यत् || २६ ॥ तन्नृच्यं मार्गशब्देन प्रसिद्धं नृत्यवेदिनाम् ।
११
द्वेष्टितव्यावर्तित परिवर्तिताख्यैः चतुर्भिः वक्ष्यमाणैः करणैः उपलक्षिता । अन्या अंशैकदेशेन लोकमुपजीवन्त्येव प्रवर्तत । लोकायत्तस्वभावेत्यर्थः । एवं ;
“हस्तमन्तरितं कृत्वा त्रिपताकं प्रयोक्तृभिः । जनान्तिकं प्रयोक्तव्यमपवारितकं तथा ॥
19
इत्यादि मुनिना यदुक्तं तत्सर्वमपि यथायोगं नाट्य धर्मीद्वये द्रष्टव्यम् । एवमाङ्गकाभिनये धर्मीणां चतुष्टयं दर्शितम् । वाचिकादावपि यथासंभव - मूहनीयम् । वाचिकाभिनयेऽपि केवलवाक्योच्चारणं लोकधर्मी; रागयुक्तवाक्याच्चारणं नाट्यधर्मी । आहार्याभिनयेऽपि हारके यूगदिभूषणं लोकधर्मी; फूकृतं ध्वजयानादिभूषणं नाट्यधर्मी । सात्विकाभिनयेऽपि नटेन भावयित्वा स्वरूपतो दर्शिताः स्तम्भादयो लोकधर्मी; त एव साक्षात्कृता हस्ताभिनयेन दर्शिता नाट्यधर्मी । चित्तवृत्त्यर्पिकादयोऽवान्तरभेदा अपि वाचिकादिषु यथासंभवं मतिमद्भिरुन्नेयाः ॥ २४, २५- ॥
(सु० ) एतयोर्लक्षणमाह-आश्रित्येति । तत्रैका वक्ष्यमाणां कैशिक वृत्ति, तद्योग्यां; नाटयोपयोगिनीमाश्रित्य, लोकिकीं शोभां या करोति सैका चित्तवृत्त्यर्पिका । अन्या आवेष्टितादिभिः वक्ष्यमाणैः चतुर्भिः करणैः, बाह्यवस्त्वनुकारिणीभेदेन अंशैकदेशेन लोकमुपजीवन्त्येव प्रवर्तते । इदमेव लोकधर्म्या भेदद्वयं नाट्यधर्म्यामतिदिशति - नाट्यधर्म्या इति ॥ २४, २५- ॥
(क० ) अथ नृत्यं लक्षयति- आङ्गिकाभिनयैरेवेत्यादि । यव; नर्तनम्, आङ्गिकाभिनयैरेव भावानेव व्यनक्ति, तन्नृत्यमिति संबन्ध: । अत्र आङ्गिकाभिनयैरिति बहुवचनमाङ्गिकावान्तरभेदविवक्षाभावादनुपपद्य
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१२
संगीतरत्नाकरः गात्रविक्षेपमात्रं तु सर्वामिनयवर्जितम् ॥ २७ ॥
आङ्गिकोक्तमकारेण नृत्तं नृत्तविदो विदुः । मानमानिकादिभिरित्यवगमयति । तेन आनिकादिषु चतुर्वपि प्राप्तेषु बहुवचनस्य त्रित्वे पर्यवसानात् त्रय एवेत्यवधारणेन तत्रैको निवर्तनीयः । निवान्तरस्याप्रतीतेः । तत्र वाचिकादिषु कस्य निवृत्तिरित्याकाङ्क्षायां यदि वाचिको निवत्येत, तदा आङ्गिकस्योपजीव्यत्वाभावादप्रवृत्तिरेव स्यात् । अतो यत्राङ्गिकस्तत्र वाचिकोऽभ्युपेयः । सात्त्विकाहार्ययोर्मध्ये सात्त्विकस्यैव आझिके अन्तरङ्गत्वेनोपादेयत्वे पारिशेष्याहिरङ्ग आहार्य एव निवर्तनीयो भवति । भावानेवेत्यवधारणेन रसास्तदाभासाश्च निवर्त्यन्ते । एतदुक्तं भवति-" आहार्याभिनयं मुक्त्वा आङ्गिकवाचिकसात्त्विकैरुपेतमतो भावानामेवाभिव्यञ्जकं यन्नर्तनं तन्नृत्यम्" इति । तथाचोक्तं भावप्रकाशकृता;
" वागङ्गसत्त्वाभिनया भावाः स्युर्नाट्यकर्मणि ।
रसोऽभिनेयो वागङ्गसत्त्वाहार्यसमुच्चयात् ॥" इति । नृत्यवेदिनां मार्गशब्देन प्रसिद्धमिति । ते नृत्यं मार्गशब्देन व्यपदिशन्तीत्यर्थः ॥ -२६, २६ ॥
(सु०) एवं नाटयं लक्षयित्वा नृत्यनृत्ते लक्षयति-आङ्गिकेति । आङ्गिकैरेव अभिनयैः शिर आदिभिः यद् भावान् स्थायिनो व्यभिचारिणो वा व्यनक्ति, तत् नृत्यज्ञैः मार्ग इत्युज्यते ॥ -२६, २६॥
(क०) अथ नृत्तं लक्षयति-गात्रविक्षेपमात्रं त्विति । सर्वाभि नयवर्जितम् ; आङ्गिकादिचतुर्विधाभिनयवर्जितम् । आङ्गिकोक्तमकारेणेति। आलिकाभिनये अङ्गप्रत्यङ्गोपाङ्गानां यः प्रकार उक्तः, तेन प्रकारेण गात्रविक्षेपमात्रं तु नृत्तविदो नृत्तं विदुः । तुशब्दो नृतस्य नाट्यनृताभ्यां वैलक्षण्यद्योतनाय ॥ -२७, २७- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः ताण्डवं लास्यमित्येतद् द्वयं देवा निगद्यते ॥ २८ ॥ वर्धमानासारिताधैर्गीतैस्तत्तद्धृवायुतम् । करणैरङ्गहारैश्च प्राधान्येन प्रवर्तितम् ॥ २९ ॥ तण्डूक्तमुदतपायप्रयोगं ताण्डवं मतम् । लास्यं तु सुकुमाराङ्गं मकरध्वजवर्धनम् ॥ ३० ॥
(सु०) नृत्तलक्षणमाह-गात्रेति । अभिनयं विना केवलगात्रविक्षेपो नृत्तमित्युच्यते ॥ -२७, २७- ॥
(क०) अथ नृत्यनृत्तयोरवान्तरभेदौ दर्शयति-ताण्डवमित्यादि । एतद् द्वयम् ; एतयोः संनिहितयोः नृतनृत्ययोः द्वयम् । तत्र ताण्डवं लक्षयति-वर्धमानेत्यादि । वर्धमानादीनि गीतानि मद्रकादिषूक्तानि द्रष्टव्यानि । तत्तद्धृवायुतमिति । सा सा ध्रवा तत्तद्धृवा प्रावेशिक्यादिका, तया युक्तम् । प्रावेशिक्यादयो ध्रवाश्च भारतीये धुवाध्याये द्रष्टव्याः । करणैः; तलपुष्पपुटादिभिः वक्ष्यमाणैः नृत्तकरणैः; अङ्गहारैः; स्थिरहस्तादिभिश्च । प्राधान्येनेति । क्वचित्करणाङ्गहारक्रमं हित्वापीत्यर्थः । उद्धतप्रायप्रयोगमिति ताण्डवस्यासाधारणं लक्षणम् । इतरस्य तु लक्षणांशस्य साधारण्यसंभवात् । तण्डूक्तमिति संज्ञाप्रवृत्तिनिमित्तकथनम् । लास्यस्यासाधारणं लक्षणमाह-लास्यं त्वित्यादि ॥ -२८-३० ॥
(सु०) नृत्तनृत्ययोरवान्तरभेदो लक्षयति-ताण्डवमिति । एतद् द्वयं नृत्तनृत्ययोर्द्वयम् , ताण्डवलास्यभेदेन द्वधा निगद्यते । तयोर्लक्षणताहवर्धमानेत्यादि । तालाध्यायोक्तैः वर्धमानादिभिः गीतैः, प्रादेशिक्यादिभिः ध्रुवादिभिः संयुक्तैः करणः, अङ्गहारैश्च प्राधान्येन प्रवर्तितं, तण्डुना प्रोक्तम्, उद्धतप्रचुरप्रयोगेण च संयुक्त ताण्डवमित्युच्यते । लास्यं तु सुकुमारैः अङ्गेयुक्तं मकरध्वजवर्धनमिति ॥ -२८-३० ॥
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१४
संगीतरत्नाकर:
विषमं विकटं लध्वित्येतद्भेदत्रयं विदुः । नृत्तस्य तत्र विषमं स्याद्रज्जुभ्रमणादिकम् ॥ ३१ ॥ विरूपवेषावयवव्यापारं विकटं मतम् । उपेतं करणैरल्पैरञ्चिताद्यैर्लघु स्मृतम् ।। ३२ ।। नाटकस्थितवाक्यार्थपदार्थाभिनयात्मकम् । तदाद्यभरतेनोक्तं रसभावसमन्वितम् ॥ ३३ ॥ नाट्यं तन्नाट केष्वेवोपयुक्तं तद्वतानतः । विहाय त्रीनभिनयानाङ्गिकोऽत्राभिधीयते ॥ ३४ ॥
(क०) प्रसङ्गान्नृत्तस्यैवान्यद्भेदत्रयं दर्शयति- विषममित्यादि । अल्पैरञ्चिताद्यैरिति । क्रियावैचित्र्याभावात् अञ्चितादीनि नृत्य करणानि 1 अल्पानि भवन्ति ॥ ३१, ३२ ॥
-
(सु० ) मतान्तरेण नृत्तस्य भेदत्रयं विभज्य लक्षयति – विषममिति । तत्र ऋभ्रमणादिकं विषममुच्यते । विरुद्धरूपवेषावयवक्रियादिभिर्युक्तं विकटम्, यथा पेरण्यादिवत् । अञ्चिताद्यः अल्पै. करणैर्युक्तं लध्वित्युच्यते ; यथा उत्सवादौ ग्राम्ययोषितामिति ॥ ३१, ३२ ॥
(क०) अत्र नृतेषूपयोगित्वेनाङ्गिकाभिनयस्य स्वरूपं प्रपञ्चयिष्यन्नाट - काद्युपयोगित्वमात्रेण नृत्तानुपयोगिनां वाचिकादीनामप्रपञ्चने हेतुं दर्शयति - नाटकस्थितेत्यादि । वाक्यार्थाभिनयो रसाभिनय: ; पदार्थाभिनयो भावाभिनयः । अत्र नाटकशब्दः प्रकरणाद्युपलक्षणम् । तेन ' नाटकेष्वेव ' इत्यत्र नाटकादिविति द्रष्टव्यम् । तद्गतान् अभिनयानिति । तद्गतान् ; नाट्यगतान् वाचिकसात्विकाहार्यान् ॥ ३३, ३४ ॥
(सु०) नाटकेति । नाटके स्थितो यो वाक्यार्थः, पदार्थश्च अभिनयात्मकं रसभावसमन्वितं नाट्यं संगीताद्युपयुक्तमिति, तदुपयुक्तानाहार्याद्यभिनयत्रयं मुक्त्वा आङ्गिकः कर्तव्य इति ॥ ३३, ३४ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः तस्य शाखाङ्कुरो नृत्तं प्रधानं त्रितयं मतम् । तत्र शाखेति विख्याता विचित्रा करवर्तना ॥ ३५ ॥ अङ्कुरो भूतवाक्यार्थमुपजीव्य प्रवर्तितः। वर्तना सा भवेत्सूची भाविवाक्योपजीवनात् ।। ३६ ॥ करणैरङ्गहारैश्च साधितं नृत्तमुच्यते । नात्रोपयोगिनौ सूच्यङ्कुरायुक्तौ प्रसङ्गतः ॥ ३७॥ अङ्गान्यत्र शिरो हस्तौ वक्षः पार्थे कटीतटम् । पादाविति षडुक्तानि स्कन्धावप्यपरे जगुः ॥ ३८ ॥
(क०) आङ्गिकाभिनयम्य भेदान् दर्शयति- तस्य शाखाकुर , प्रधानमिति । आङ्गिकाभिनयोक्ततराङ्गापेक्षया शाखादेः प्राधान्यमित्यर्थः । प्रसङ्गात्सूची लक्षयति- सा भवेत्सूचीति । नृत्तं लक्षयति- करणैरियदि । ननु लक्षितस्यापि नृतस्य पुनर्लक्षणं कथमिति चेत्, उच्यते । पूर्व सर्वाभिनयशून्यमाझिकाभिनयप्रकारेण प्रवर्तितं गात्रविक्षेपमात्रं नृत. मित्युक्तम् । इदानीं त्वाङ्गिकाभिनयस्य आङ्गिकत्वेन मध्ये प्रयोज्यं करणाङ्गहारनिर्वृत्तं नृत्तमुक्तमिति भेदो द्रष्टव्यः ॥ ३५-३७ ॥
(सु०) आङ्गिकस्य भेदान् लक्षयति---तस्येति । तस्य ; आङ्गिकाभिनयस्य शाखाङ्कुरनृत्तानि प्रधानानि । तेषां लक्षणमाह-तत्रेति । विचित्रकरव्यापार: शाखा, भूतवाक्यार्थमुपजीव्य प्रवर्तिता वर्तनाव्यापारोऽङ्कुरः । सैव वर्तना भविष्यद्वाक्योपजीवनात् सूचीत्युच्यते । करणः अङ्गहारैश्च यत्साधितं तन्तृत्तमुच्यते । यद्यपि सूच्याकुरयोरत्रोपयोगौ न स्तः । तथापि, प्रसङ्गत: प्रयोगेणोक्त इति द्रष्टव्यम् ॥ ३५-३७ ॥
(क०) अस्मिन् नृत्ताध्याये संग्राह्मान् पदार्थाननुक्रमेणोद्दिशतिभङ्गान्यत्रेत्यादिना । अङ्गान्तरेष्विति । शिरसो व्यतिरिक्तेषु करणयोरि
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संगीतरत्नाकरः प्रत्यङ्गानि पुनीवा बाहू पृष्ठं तथोदरम् । ऊरू जो षडित्याहुरपरे मणिबन्धकौ ॥ ३९ ॥ जानुनी भूषणानीति त्रयमत्राधिकं जगुः । दृष्टिभ्रूपुटताराश्च कपोलौ नासिकानिलः ॥ ४० ॥ अधरो दशना जिह्वा चिबुकं वदनं तथा । उपाङ्गानि द्वादशेति शिरस्यङ्गान्तरेषु तु ।। ४१॥ पाणिगुल्फो तथाङ्गुल्यः करयोः पादयोस्तले । मुखरागश्च करयोः प्रचाराः करणानि च ॥ ४२ ॥ कर्माणि पाणिक्षेत्राणि करणानि द्विधा ततः । शृद्धान्युत्प्लुतिपूर्वाणि चाङ्गहाराः सरेचकाः ॥ ४३ ॥ चार्यः शुद्धाश्च देशीस्थाः स्थानकान्यथ वृत्तयः । न्यायाः समविचाराश्च मण्डलान्यखिलान्यपि ॥ ४४ ॥ लास्याङ्गानि ततो रेखा श्रमः पात्रस्य लक्षणम् । गुणदोषा मण्डनं च तस्योपाध्यायलक्षणम् ॥ ४५ ॥ संप्रदाया गुणा दोषास्तस्य शुद्धा च पद्धतिः । गौण्डल्याश्च विधिः सम्यग्लक्ष्म पेरणिनस्ततः ॥ ४६ ॥
तत्पद्धतिरथाचार्यों नटनर्तकलक्षणम् । त्यर्थः । पाणिगुरुफकराङ्गुलिपादाङ्गुलिपादतलानि पञ्चोपाङ्गानि ज्ञेयानि । 'तथा अमुल्यः करयोः पादयोस्तले' इत्युद्देशे तु करयोरङ्गुल्य इति योजनीयम् । तले इति तु संनिहितयोः पादयोरेव योजनीयम् । 'करयोस्तले' इति तु तयोः करणप्रचारभेदकत्वेन वक्ष्यमाणत्वादिति भावः । सरेचका इति । रेचकानामङ्गहराङ्गतयैव प्रयोगः, न पार्थक्येनेति द्योतयितुमङ्गहारविशेषणत्वे
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वैतालिकश्चारणश्च कोड्लाटिकसभासदः ॥ ४७॥ सभापतिः सभायाश्च निवेशो रसलक्षणम् ।
भावलक्षणमित्यस्मिन्नध्याये महे कमात् ॥ ४८ ॥ अथ शिरोभेदाःधुतं विधुतमाधूतमवधूतं च कम्पितम् । आकम्पितोद्वाहिते च परिवाहितमश्चितम् ॥ ४९ ॥
निहश्चितं परावृत्तमुक्षिप्ताधोमुखे तथा । नोद्देशो द्रष्टव्यः । एवं, 'न्यायाः सपविचाराश्च' इत्यत्रापि प्रविचाराणां न्यायाङ्गत्वं द्रष्टव्यम् ॥ ३८-४८ ॥
(सु०) अत्र नृत्ताध्याये अभिधेयान् पदार्थान् संगृह्णाति-अङ्गानीति । शरीरादीनि षडङ्गानि भवन्ति । केचित् स्कन्धावपि सप्तमङ्ग कथयन्ति | प्रत्यङ्गानि ग्रीवादीनि षट् । अपरे तु मणिबन्धादीनि त्रीणि प्रत्यङ्गान्याधिकमाहुः । दृष्ट्यादीनि शिर आधुपाङ्गानि द्वादश; अङ्गान्तरेषु तु पाणिगुल्फादीन्यष्टौ करचरणयोरुपाङ्गानि, चत्वारि मुखरागादीनि; करयोः प्रचाराः, करकरणानि ; हस्तक्षोत्राणि ; नृत्तकरणानि ; उत्प्लुतिकरणानि ; सरेचका अङ्गहाराः; शुद्धचार्यः; देशीचार्यः; स्थानकानि; कैशिक्यादयो वृत्तयः; सप्रविचारा न्यायाः; मण्डलानि; चाल्यादीनि लास्याङ्गानि ; रेखालक्षणम् ; श्रमविधिः ; पात्रलक्षणम् ; पात्रगुणा:; पात्रदोषाः; पात्रमण्डनं च ; उपाध्यायलक्षणम् ; संप्रदायनिरूपणम् ; संप्रदायगुणाः, दोषाश्च ; संप्रदायस्य शुद्धपद्धतिः ; गौण्डलीविधिः ; पेरणीलक्षणम् ; पेरणीपद्धतिः ; आचार्यलक्षणम् ; नटनर्तकवैतालिकचारणकोबाटिकसभासदानां लक्षणम् ; सभापतिलक्षणम् ; सभासंनिवेशनिरूपणम् ; नवरसलक्षणम् ; व्यभिचारादिभावानां लक्षणम् ; सात्त्विकादिभावानां निरूपणम् ; नाटकादिनिर्माणे नियमनिरूपणमित्येतानि अस्मिन् नृत्ताध्याये कथयाम इति ॥ ३८-४८ ॥
(क०) तत्राङ्गेषु प्रथमोद्दिष्टस्य शिरसो भेदानुद्दिशति-धुतं विधुतमित्यादि ॥ ४९-५१ ॥
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१८
संगीतरत्नाकरः
ललितं चेति विज्ञेयं चतुर्दशविधं शिरः ॥ ५० ॥ तिर्यङ्नतोन्नतं स्कान्धानतमारात्रिकं समम् । पार्श्वाभिमुखमित्यन्यान् भेदान् पञ्चापरे जगुः ॥ ५१॥ पर्यायेण शनैस्तिर्यग्गतमुक्तं धुतं शिरः । शून्यस्थानस्थितस्यैव पार्श्वदेशावलोकने ॥ ५२ ॥ अनाश्वासे विस्मये च विषादेनीप्सिते तथा । प्रतिषेधे च तस्योक्तः प्रयोगो भरतादिभिः ।। ५३ ॥ इति धुतम् (१)
(सु० ) तत्र प्रथमोद्दिष्टशिरोभेदानाह - धुतमिति । धुतम, विधुतम्, आधूतम्, अवधूतम्, कम्पितम्, आकम्पितम्, उद्वाहितम्, परिवाहितम्, अञ्चितम् निहञ्चितम् परावृत्तम्, उत्क्षिप्तम्, अधोमुखम्, लोलितमिति चतुर्दशविधं शिरः । अपरे तिर्यङ्नतोन्नतम्, स्कन्धानतम् आरात्रिकम्, समम्, पार्श्वाभिमुखमित्यन्यान् पञ्च भेदानादुः ॥ ४९-५१॥
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(क०) यथोद्देशं लक्षणानि सविनियोगमाह - पर्यायेण शनैरित्यादि । संज्ञावाहनयोरपीत्यत्र संज्ञेति गूढार्थसूचिका चेष्टा संज्ञोच्यते । एवं संज्ञोपदेशयोरित्यादावपि द्रष्टव्यम् । वल्लभानुकृताविति । लीलायामित्यर्थः । प्रियानुकरणं लीला" इत्युक्तत्वात् । हनुधारण इति । रुक्चिन्तादिविषयं यद्धस्तेन हनुधारणं तस्मिन् अञ्चितं शिरः कार्यमित्यर्थः । सर्वदिकैरिति । स्वरूपतो भिन्नानामपि शिरोभेदानां यत्र येषु केषु - चिदर्थेषु विनियोगसाम्यं दृश्यते ; तत्र विकल्पविज्ञानादेकेनोचितेन प्रयोगः कर्तव्यः ॥ ५२-७७ ॥
इति भरतोक्तं चतुर्दशविधं शिरः ।
(सु०) तत्र धुतं लक्षयति--पर्यायेणेति । क्रमेण वामदक्षिणयोः शनैः तिर्यक् नम्रीभूतं शिरः धुतमित्युच्यते । तस्य विनियोगमाह - शून्येति । विजनस्थाने
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सप्तमो नर्तनाध्यायः द्रुतगत्या तदेव स्याद्विधुतं तत्पचक्षते । शीतार्ते ज्वरिते भीते सद्यः पीतासवे तथा ॥ ५४ ॥
इति विधुतम् (२) आधूतं तु सकृत्तिर्यगूर्वानीतं शिरो मतम् । गर्वेण स्वाङ्गचीक्षायां पार्श्वस्थो निरीक्षणे ॥ ५५ ॥ शक्तोन्वित्यभिमाने च प्रयोगस्तस्य कीर्तितः ।
इत्याधूतम् (३) यदधः सकृदानीतमवधूतं तदुच्यते ॥५६॥ स्थित्यर्थे देशनिर्देशे संज्ञावाहनयोरपि । आलापे च प्रयोक्तव्यमिदमाहुर्मनीषिणः ॥ ५७ ॥
इत्यवधूतम् (४) स्थितस्य पुरुषस्य, पार्श्वप्रदेशयोरुभयोरीक्षणे, अनाश्वासे, विस्मये, विषादे, अनीप्सिते, अनिच्छायां ; तथा प्रतिषेधे च विनियोगः ॥ ५२, ५३ ॥
इति धुतम् (१) (सु०) विधुतं लक्षयति-द्रुतेति । तदेव धुतं, द्रुतगत्या ; शीघ्रगत्या क्रियमाणं विधुतमित्युच्यते । अस्य विनियोगमाह-शीतेति । शीताते ; शैत्येन पीडिते, ज्वरिते, भीते, तथा सद्य:पीतासवे च विनियोगः ॥ १४ ॥
___ इति विधुतम् (२) (सु०) आधूतं लक्षयति-आधूतमिति । सकृत् ; एकवारं, तिर्यक् ; ऊर्वीकृतं शिर आधूतमित्युच्यते । तस्य विनियोगमाह-गणेति । गण स्वाङ्गविलोकनादिषु, पार्श्वस्थस्य ऊर्ध्वनिरीक्षणे, अहं शक्तोन्वित्यभिमाने च विनियोगः ॥ १५ ॥
इत्याधूतम् (३) (सु०) अवधूतं लक्षयति-यदिति । सकृत् ; एकवारं यद् अधः कृतं शिर
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संगीतरत्नाकरः बहुशो द्रुतमूर्ध्वाधः कम्पनात्कम्पितं शिरः । ज्ञानेऽभ्युपगमे रोषे वितर्के तर्जने तथा ॥ ५८ ॥ त्वरितप्रश्नवाक्ये च प्रयोक्तव्यमिदं शिरः ।
इति कम्पितम (५) आकम्पितं तदेव स्याद् द्विःप्रयुक्तं शनैर्यदि ॥ ५९॥ एतत्पौरस्त्यनिर्देशप्रश्ने संज्ञोपदेशयोः । आवाहने स्वचित्तस्थकथने च प्रयुज्यते ॥ ६ ॥
इत्याकम्पितम् (६) अवधूतमित्युच्यते । तस्य विनियोगमाह-स्थित्यर्थ इति । स्थित्यर्थे ; प्रतिष्ठार्थे, देशनिर्देशे, संज्ञायाम् , आवाहने, आलापे च प्रयोक्तव्यम् ॥ -५६, ५७॥
इत्यवधूतम् (5) (सु०) कम्पितं लक्षयति-बहुश इति । बहुवारं द्रुतं, शीघ्रम् , ऊर्ध्वमधश्च कम्पनात् कम्पितं शिरो भवति । तस्य विनियोगमाह--ज्ञान इति । ज्ञाने; अभ्युपगमे ; अङ्गीकारे, रोपे; कोपे, वितर्के; संशये, तर्जने; भसने, तथा त्वरितप्रश्नवाक्ये च विनियोगः ॥ ५८-॥
इति कम्पितम् (५)
(सु०) आकम्पितं लक्षयति- आकम्पित मिति । तदेव कम्पितं शिरः शनैः यदि द्वि:प्रयुक्तं, तदा आकम्पितम् । एतस्य विनियोगमाह-एतदिति । पौरस्त्यनिर्देशे, प्रश्ने, संज्ञायाम , उपदेशे च, तथा आवाहने, स्वचित्तस्थाभिप्रायावेदने च प्रयुज्यते ॥ -५९, ६० ॥
इत्याकम्पितम् (6)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः सकृदूर्ध्व शिरो नीतमुद्वाहितमुदीरितम् । शक्तोऽहमिति कार्येऽस्मिन्नभिमाने प्रयुज्यते ॥ ६१॥
. इत्युद्वाहितम् (७) परिमण्डलिताकारभ्रामितं परिवाहितम् । लज्जाभरोद्भवे माने वल्लभानुकृतौ तथा ॥ ६२ ॥ विस्मये च स्मिते हर्षामर्षयोरनुमोदने । विचारे च विचारज्ञाः कार्यमाहुरिदं शिरः ॥ ६३ ॥
इति परिवाहितम् (0) शिरः स्यादश्चितं किंचित्पार्धतो नतकंधरम् । रुक्चिन्तामोहमूर्छासु तत्कार्य हनुधारणे ॥ ६४ ।।
___ इत्यश्चितम् (९) (सु०) उद्वाहितं लक्षयति-सकृदिति । एकवारमूर्वीकृतं शिर उद्वाहितं भवति । अस्मिन् कार्ये शक्तोऽहमित्यभिमाने तस्य प्रयोगः ॥ ६१ ॥
___इत्युद्वाहितम् (७) (सु०) परिवाहितं लक्षयति-परिमण्डलितेति । परितो मण्डलाकारेण भ्रामितं शिरः परिवाहितम् । तस्य लज्जाभरोद्भवे; माने ; वल्लभानुकृतौ, विस्मये ; स्मिते; हर्षामर्षयोरनुमोदने ; विचारे च विनियोगः ॥ ६२, ६३ ॥
इति परिवाहितम् (८) ___ (सु०) अञ्चितं लक्षयति-शिर इति । किंचित् अल्पं पार्श्वप्रदेशेन नतमान प्राप्तः कन्धरो यस्य, तथाविधं शिर अञ्चितं भवति । रुक् ; रोगः, चिन्ता ; विचार:, मोह ; विभ्रमः, मूर्छा ; वक्ष्यमाणलक्षणः, हनुधारणे, हनुः मुखाग्रं तस्य धारणे च विनियोगः ॥ ६४ ॥
__ इत्यश्चितम् (१)
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संगीतरत्नाकरः उत्क्षिप्तवाहुशिरसं मनग्रीवं निहश्चितम् । विलासे ललिते गर्वे बिब्बोके किलिकिश्चिते ॥ ६५ ॥ मोहायिते कुट्टमिते माने स्तम्भे च तद्भवेत् । विलासो गमनादिः स्यान्चेष्टाश्लिष्टाङ्गया कृता ॥ ६६ ॥ कान्तायाः सुकुमाराङ्गोपाङ्गत्वं ललितं विदुः । विब्बोकस्त्विष्टलाभेन जाताद्र्वादनादरः ॥ ६७ ॥ हर्षाद्रोदनहास्यादि प्रोच्यते किलिकिश्चितम् । मोहायितं प्रियकथादृष्टयादौ तन्मयात्मता ॥ ६८ ॥ केशादिग्रहजे हर्षे दुःखवद्वेदनं तु यत् । तत्स्यात्कुट्टमितं मानो रोषः प्रणयसंभवः ॥ ६९ ॥ स्यात्तु निष्क्रियता स्तम्भो नवोढाप्रियसङ्गमे ।
इति निश्चितम् (१०) पराङ्मुखीकृतं शीर्ष परावृत्तमुदाहृतम् ॥ ७० ॥
(सु०) निहञ्चितं लक्षयति-उत्क्षिप्तमिति | उत्क्षिप्तम उच्चीकृतं बाहुः शिरा यस्मिन् , मन्ना ग्रीवा यस्मिन् , तथाविधं शिरो निहञ्चितं भवति । तस्य विलासादिषु विनियोगः । विलासादीनां लक्षणमाह-विलास इत्यादिना | आश्लिष्टं सुन्दरमङ्गं यस्याः, तथाविधया नार्या कृता गमनादिचेष्टा विलासः । कान्तायाः सुकुमाराङ्गोपाङ्गत्वं ललितम् । इष्टलाभजगर्वात् अनादरो बिब्बोकः । हर्षेण रुदितहास्यादिकं किलिकिञ्चितम् । प्रियस्य गुणश्रवणे, तस्य दर्शने, तच्चरणविन्यासध्वनिश्रवणादौ वा तन्मयत्वं मोट्टायितम् । हर्ष केशादिग्रहणे जाते सति दु खवद्वेदनं कुट्टमितम् । प्रणयजरोषो मानः । निष्क्रियता स्तम्भ इति ॥ ६५-६९ ॥
इति निहच्चितम् (१०) (सु०) परावृत्तं लक्षयति-पराङ्मुखीकृतमिति । पराङ्मुखीकृतं शिरः
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
तत्कार्य कोपलज्जादिकृते वक्त्रापसारणे । परावृत्तानुकरणे पृष्ठतः प्रेक्षणे तथा ॥ ७१ ॥
इति परामृतम् (११)
ऊर्ध्ववक्त्रं शिरो ज्ञेयमुत्क्षिप्तं तत्प्रयुज्यते । दर्शने तुङ्गवस्तूनां चन्द्रादिव्योमगामिनाम् ।। ७२ ।।
इत्युत्क्षितम् ( १२ )
लज्जादुःखमणामेषु स्यादन्वर्थमधोमुखम् ।
इत्यधोमुखम् (१३)
शिरः स्याल्लोलितं सर्वदिकैः शिथिललोचनैः ॥ ७३ ॥ निद्रागदग्रहावेशमदमूर्च्छासु तन्मतम् ।
इति लोलितम् (१४)
इति भरतोक्तं चतुर्दशविधं शिरः
२३
परावृत्तम् | कोपलज्जादिकृते ; वक्त्रापसरणे ; परावृत्तानुकरणे ; पृष्टत: प्रेक्षणे च तस्य विनियोगः ॥ - ७०, ७१ ॥
इति परावृत्तम् (११)
(सु० ) उत्क्षिप्तं लक्षयति - ऊर्ध्वति । ऊर्ध्ववक्त्रं शिर उत्क्षिप्तम् । तस्य व्योमगामिनां चन्द्रादीनाम्, तुङ्गवस्तूनां दर्शने च विनियोगः ॥ ७२ ॥ इत्युक्षिप्तम् (१२)
(सु० ) अधोमुखं लक्षयति - लज्जेति । अधः मुखं यस्य तत्, अधोमुखमन्वर्थनामकम् । तस्य लज्जादुःखप्रणामेषु विनियोगः ॥ ७२ ॥
इत्यधोमुखम् (१३)
(सु०) लोलितं लक्षयति — शिर इति । सर्वदृक्कैः; सर्वा दिशो येषु तानि
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२४
संगीतरत्नाकरः
तिर्यनतोन्नति प्राप्तं शिरस्तिर्यनतोन्नतम् ॥ ७४ ॥ बिब्बोकादिषु कान्तानां तत्प्रयोगं प्रचक्षते ।
इति तिर्यङ्नतो नतम् (१)
स्कन्धानतं तदाख्यातं स्कन्धे यन्निहितं शिरः ॥ ७५ ॥ तन्निद्रामदमूर्च्छासु चिन्तायां तत्प्रयुज्यते ।
इति स्कन्धानतम् (२)
स्कन्धे तु किंचिदाश्लिष्य भ्रान्तमारात्रिकं स्मृतम् ॥ ७६ ॥ विस्मये दृश्यते तच्च पराभिप्रायवेदने । इत्यारात्रिकम् (३)
सर्वदिक्काणि, तथाविधैः सर्वदिक्कैः शिथिलैः लोचनैर्युक्तं शिरो लोलितं भवति । तस्य निद्रागदप्रहावेशमदमूर्च्छासु विनियोग: ॥ - ७३, ७३- ॥ इति ललितन् (१४)
इति भरतोक्तं चतुर्दशविधं शिरः ।
(सु०) मतान्तरोक्तं पञ्चविधं शिरो लक्षयति- तिर्यगित्यादिना । तिर्यक् पार्श्वतः नतोन्नतिं प्राप्तं शिरो नतोन्नतमित्युच्यते । तस्य कान्तानां बिब्बोकादिषु विनियोगः ॥ - ७४, ७४- ॥
इति नतोन्नतम् (१)
(सु०) स्कन्धानतं लक्षयति — स्कन्धानत मिति । स्कन्धे यन्निहितं शिरः स्कन्धानतमित्युच्यते । तस्य निद्रामदमूर्च्छासु, चिन्तायां च विनियोगः ॥-७५, ७५ ॥ इति स्कन्धानतम् (२)
(सु०) आरात्रिकं लक्षयति-स्कन्धे इति । स्कन्धे तु किंचित् आश्लिष्य,
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सप्रमो नर्तनाध्यायः स्वाभाविकं समं शीर्ष स्वभावामिनये मतम् ॥ ७७ ॥
इति समम् (४) पार्धाभिमुखमन्वर्थ पार्श्वस्थस्यावलोकने ।
इति पार्धाभिमुखम् (५) इति पञ्च शिर:प्रकाराः।
इत्येकोनविंशतिविधं शिरः ।। इस्तभेदानामुद्देश:पताकस्त्रिपताकोऽर्धचन्द्राख्यः कर्तरीमुखः ॥ ७८ ॥ अरालमुष्टिशिखरकपित्थखटकामुखाः । शुकतुण्डश्च काङ्ग्रलः पद्मकोशोऽलपल्लवः ॥ ७९ ॥
सूचीमुखः सर्पशिराश्चतुरो मृगशीर्षकः । शिरः, आरात्रिकं भवति । तस्य विस्मये पराभिप्रायवेदने च विनियोगो दृश्यते ॥ -७६, ७६- ॥
इत्यारात्रिकम् (३) (सु०) समं लक्षयति-स्वाभाविकमिति । स्वाभाविकं विकारहीनं शीर्ष सममुच्यते । तस्य विनियोगः स्वभावाभिनये भवति ॥ -७७ ॥
इति समम् (४) (सु०) पार्वाभिमुखं लक्षयति-पार्वेति । पार्वाभिमुखमित्यन्वर्थ शिरः । तस्य पार्श्वस्थस्यावलोकने विनियोगः ॥ ७७- ॥
इति पाभिमुखम् (५) इति मतान्तरोक्तं पञ्चविधं शिरः ।
आहत्यकोनविंशतिविधं शिरः ।। (क०) अथ हस्तभेदानुद्दिशति-पताक इत्यादिना । अभिनेयव
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२६
संगीतरत्नाकर:
हंसास्यो हंसपक्ष भ्रमरो मुकुलस्तथा ।। ८० ।। ऊर्णनाभश्च संदशस्ताम्रचूडोऽपरः करः । असंयुता मता हस्ताश्चतुर्विंशतिरित्यमी ।। ८१ ।। अभिनेयवशादेषां संयुतत्वमपीष्यते ।
अञ्जलि कपोताख्यः कर्कटः स्वस्तिकस्तथा ॥ ८२ ॥ ste : पुष्पपुटोत्सङ्गौखटकावर्धमानकः । गजदन्तोsaferrer निषधो मकरस्तथा ।। ८३ ।। वर्धमानश्चेति हस्ताः संयुताः स्युत्रयोदश । एतेऽभिनयहस्ता स्युः सप्तत्रिंशन्मुनेर्मताः || ८४ ॥ चतुरश्र तथोदवृत्तौ हस्तौ तलमुखाभिधौ । स्वस्तिकौ विप्रकीर्णाख्यावरालखटकामुखौ || ८५ ।।
तादेषां संयुतत्वमपीष्य इति । अभिनेय: ; अभिनययोग्योऽर्थः I तद्वशात् एतेषां पताकादीनां चतुर्विंशत्यसंयुतहस्तानां संयुतत्वमपीष्यत इति । यथा वक्ष्यति पताकहस्त विनियोगे ; ' उचितौ विच्युतौ कार्यावेतावन्योन्यसंमुखौ' इति । तथा भरतेनाप्युक्तं चतुरहस्तविनियोगे ; “ नयनौपम्यं पद्मदलरूपणं हरिणकरणनिर्देशम् । संयुतकरणेनैव तु चतुरेणैतानि कुर्वीत ॥
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इति । एवं हस्तान्तरेष्वपि द्रष्टव्यम् । ननु त्रयोदशसंयुतहस्तानां त्रिंशन्नृत्तहस्तानां च हस्तद्र्यनिष्पाद्यत्वे समानेऽप्युद्देशेऽञ्जल्यादीनामेकवचनेन निर्देशः । चतुरश्रादीनां द्विवचनेन निर्देशः कथमिति चेत्; उच्यते-अञ्जल्यादीनामभिनयहस्तत्वेनार्थगमकत्वनियमात् संयुतत्वव्यतिरेकेणार्थगमकत्वाभावात् संयुताकारेणैकहस्तत्वम् । तेनैकवचनिर्देश एवोपपन्नस्तेषाम् । चतुरश्रादीनां
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सप्तमो नर्तनाध्यायः आविद्धवक्त्रौ सूच्यास्यौ रेचितावर्धरेचितौ । नितम्बौ पल्लवौ केशवन्धावुत्तानवश्चितौ ।। ८६ ॥ लताख्यौ करिहस्तश्च पक्षवश्चितकाभिधौ । पक्षपद्योतको दण्डपक्षौ गरुडपक्षको ।। ८७ ॥ ऊर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ पार्श्वमण्डलिनावपि । उरोमण्डलिनौ स्यातामुर पार्धिमण्डलौ ॥ ८८ ।। मुष्टिकस्वस्तिकावन्यौ नलिनीपद्मकोशकौ । अलपद्मावुल्वणौ च ललितौ वलिताविति ।। ८९ ॥ नृत्तहस्ता मतास्त्रिंशन्नृत्तमात्रोपयोगिनः ।
एतानभिनयेऽप्याहुः शास्त्रतः संप्रदायतः ।। ९० ।। तु नृत्तहस्तत्वेन शोभामात्रोपयोगित्वात् तस्य चैकेनापि साध्यत्वात् प्रयोगे पृथक्स्वातन्त्र्यं दर्शयितुं तेषां द्विवचवनिर्देश एवोपपन्नः । यद्यप्येवं पृथक् स्वातन्त्र्यम् , तथापि चतुरश्रावित्यादिकयोरेकरूपयोः ‘अरालखटकामुखौ' इत्यादिकयोः भिन्नरूपयोर्वा एकैकहस्तत्वेन परिगणनं तु तयोरन्योन्यापेक्षया मिलितयोरेव शोभातिशयहेतुत्वविवक्षयेति द्रष्टव्यम् ।
ननु च नृत्तप्रस्तावे अभिनयहस्तानामुद्देशलक्षणपरीक्षाभिः कोऽर्थः ? इति चेत् , उच्यते-'आङ्गिकोक्तप्रकारेण नृत्तं नृतविदो विदुः' इति खलूक्तम् । तस्यायमर्थः--आङ्गिकाभिनये शिरोहस्तादिभेदानामावगमकत्वे यो यः प्रकार उक्तः, स एवार्थावगमकत्वं विहाय, नर्तकेच्छया यथाशोभं ताललयानुगतत्वेन प्रयुक्तश्चेत् नृत्तं भवतीति । अतोऽत्राङ्गिकाभिनयप्रकारोऽवश्यमादौ वक्तव्य इत्यचोद्यमेतत् । किंच अभिनयप्रस्तावे नृत्तमप्युपकरोति । आवेष्टितादिभिः अभिनयस्या विच्छिन्नाकारतामपोह्य वाक्यार्थविश्रान्तिप्रतीतिजननात् । यथाह-अभिनवगुप्ताचार्यों भारतीयविवृत्तौ, "एते च
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संगीतरत्नाकरः त्रयोदश संयुताव्यतिरेकेण न स्वार्थस्य गमकाः" ; इत्युक्त्वा, “ एतेषां त्वभिनयहस्तानां छिद्रच्छादनेनैकवर्तनानुप्रवेशादलातचक्रप्रतिमां दर्शयितुं, मसृणोद्धतवर्तनात्मकतया चैकवाक्यार्थवीश्रान्ततां प्रथयितुं, नृत्तस्य च वस्तुभूतत्वेनोक्तस्य स्वरूपमभिधातुं, 'नृत्यन्तौ चेटयौ' इति नृत्तादिविषये च सूच्यङ्कुरादावुपयोगमपि दर्शयितुं नृतशब्देन विशेष्यं निर्दिशति-नृतहस्तानित्यादिना ।" नृतहस्तानधिकृत्य तेनैव, “ संयुतासंयुतरूपोपजीविन एत इत्येकाकिनोऽपि प्रयुज्यन्ते" इति (नाटय० अ०९-१०) अत अञ्जल्यादीनां संयुतरूपतैव । चतुरश्रादीनां तूभयरूपतेति सर्वमवदातम् । अथ कथं चतुरश्रादीनामुद्देशमध्ये, 'करिहस्तश्व' इत्येकवचन निर्देश इत्यत्र ग्रन्थकारः स्वयमेवोपपत्तिं वक्ष्यतीत्यलम् । नृत्तमात्रोपयोगिन इति केषांचिन्मतम् । अन्ये तु एतान् नृत्तहस्तान् शास्त्रतः संप्रदायत अभिनयेऽप्याहुः ॥ -७८-९०॥
(सु०) हस्तभेदानुद्दिशति-पताक इति । पताकादयस्ताम्रचूडान्ता असंयुतहस्ताश्चतुर्विंशतिः; यथा--पताकः, त्रिपताकः, अर्धचन्द्रः, कर्तरीमुख:, अरालः, मुष्टिः, शिखर:, कपित्थः, खटकामुख:, शुकतुण्डः, काशूल:, पद्मकोश:, अलपल्लवः, सूचीमुखः, सर्पशिरा:, चतुरः, मृगशीर्षक:, हंसास्यः, हंसपक्षः, भ्रमरः, मुकुल:, ऊर्णनाभः, संदशः, ताम्रचूड इति । एतेषामभिनयवशात्संयुतत्वमप्यङ्गीक्रियते । अञ्जल्यादयो वर्धमानान्ता संयुतहस्तास्त्रयोदश ; यथा-अञ्जलिः, कपोतः, कर्कटः, स्वस्तिकः, डोलः, पुष्पपुटः, उत्सङ्गः, खटकावर्धमानकः, गजदन्तः, अवहित्थः, निषधः, मकरः, वर्धमान इति । एते सर्वे मिलित्वा सप्तत्रिंशदभिनयहस्ता मुनेरभिमता: । चतुरश्रादयो ललितान्तास्त्रिंशन्नृत्तहस्ताः नृत्तमात्रोपयोगिन एव । यथा-चतुरश्रौ, उद्वृत्तौ, तलमुखौ, स्वस्तिको, विप्रकीर्णो, अरालखटकामुखौ, आविद्धवक्त्रौ, सूच्यास्यौ, रेचितौ, अर्धचितौ, नितम्बौ, पल्लवौ, केशबन्धौ, उत्तानवञ्चितौ, लताकरौ, करिहस्तः, पक्षवञ्चितौ, पक्षप्रद्योतको, दण्डपक्षको, गरुडपक्षको, ऊर्ध्वमण्डलिनौ, पार्श्वमण्डलिनौ, उरोमण्डलिनौ, उर:पार्धिमण्डलिनौ, मुष्टिकस्वस्तिकौ, नलिनी
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सप्तमो नर्तनाध्यायः लताख्यौ हि मुनिर्वक्ति नृत्ताभिनयगोचरौ ।
सूच्यन्तेऽन्ये साहचर्यात्तेनाभिनयगोचराः ॥ ९१ ॥ पनकोशौ, अलपद्मकौ, उल्बणौ, ललितौ, वलिताविति । केचित् एतान् नृत्तहस्तान् अभिनयेऽप्याहुः । कुतः ? शास्त्रात् संप्रदायाचेति ॥ -७८-९०- ॥
(क०) तत्र शास्त्रं तावदर्शयति-लताख्यौ हि मुनिर्वक्ति नृत्ताभिनयगौचराविति । यथाह मुनिः
" तिर्यक्प्रसारितौ चैव पार्श्वसंस्थौ तथैव च ।।
___ लताख्यौ च करौ ज्ञेयौ नृताभिनयनं प्रति ॥" इति । संप्रदायं दर्शयति-सूच्यन्ते साहचर्यात्तेनाभिनयगोचरा इति । अस्यार्थः-नृत्तहस्तेषु लताभिनयहस्तयोरभिनय विषयत्वे मुनिवचनेन शास्त्रेण सिद्धे तेन लताहस्तेन साहचर्यादन्ये नृतहस्ता अभिनयगोचराः सूच्यन्त इति । अयमेव संप्रदायो ज्ञेयः । शास्त्रानुक्तस्यापि शास्त्रेणाभ्यनुज्ञातस्य शास्त्राविरोधिनोऽर्थविशेषस्य आचार्यशिष्यपरंपरया यदुपदेशप्रदानं स संप्रदाय इत्येतल्लक्षणलक्षितत्वात् । तथाचोक्तम्
“यो यत्सम्यग्विजानीते स यद्वदति तत्त्वतः ।
स संप्रदायः कथितो विष्णुना लोकजिष्णुना ॥” इति, " यत्र कुत्रचिदाख्याता संस्थितिश्चानुपूर्वतः ।
स संप्रदायः कथितो यथा स्वर्णविभूषणे ॥" इति च ॥ ९१ ॥
(सु०) ननु भरताशास्त्रे नृत्तहस्तानामभिनये विनियोगो न दृश्यते । तत्कथमुक्तं शास्त्रत इति ? तत्राह-लताख्याविति । मुनिः ; भरतः, लताख्यौ हस्तौ, नृत्ते अभिनये च कथयति । अतः कारणात् अन्येऽपि लताख्यहस्तसाहचर्यात् चतुरश्रादयोऽप्यभिनयविषयाः सूच्यन्ते ज्ञाप्यन्त इति ॥ ९१ ॥
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३०
संगीतरत्नाकरः . युक्तितः संप्रदायाच लोकतोऽत्र विशेषधीः। यथा हि करिहस्तेन हस्ती लोकेऽभिनीयते ॥ ९२ ॥ भट्टाभिनवगुप्तायैरिदमभ्युपगम्यते । सर्वे च मिलिताः सन्तः सप्तषष्टिरिमे कराः ॥ ९३ ॥ चतुःषष्टित्वमेतेषां न युक्त्यागमगोचराः। चतुःषष्टित्वमेवं वा तेषां सूरिभिरूह्यताम् ॥ ९४ ॥
(क०) एवं शास्त्रसंप्रदायाभ्यां नृत्तहस्तानामभिनय विषयत्वमपि विद्यत इति सामान्येनाभिनय विषयत्वे ज्ञाते कुत्र कस्य कथमभिनय इति विशेषजिज्ञासायामाह-- युक्तितः संप्रदायाच लोकतोऽत्र विशेषधीरिति । अत्र नृतहस्तानामभिनयविषयत्वे, विशेषधीः; विशेषज्ञानम् , कचित् युक्तितः; प्रयोक्तुरुपपपत्तिविशेषात् , क्वचित् संप्रदायात् ; आचार्योपदेशपरंपरायाः, क्वचित् लोकतः; लोकचरितात् , एकैकस्मात् द्वाभ्यां त्रिभ्यो वा द्रष्टव्यम् । तत्र लोकतो ज्ञेयमुदाहृत्य दर्शयति --- यथा हि करिहस्तेन हस्ती लोकेऽभिनीयत इति । तदेतदाचार्यैरप्यङ्गीकृतमित्याह-मट्टाभिनवगुप्ताद्यैरिदमभ्युपगम्यत इति । हस्तसंख्यां मिलित्वा दर्शयतिसर्वे चेति । संयुतासंयुतनृत्तहस्ता अत्र सर्वशब्देनोच्यन्ते । लोके तावत्तेषां चतुःषष्टित्वप्रसिद्धिरप्रामाणिकीत्याह-न युक्त्यागमगोचर इति । लोकप्रसिद्धयन्यथानुपपत्त्या चतुःषष्टित्वे युक्तिं ग्रन्थकारः स्वबुद्धया कल्पयतिचतुःषष्टित्वमेवं वेत्यादिना ॥ ९२-९४ ॥
(सु०) कुत्रेत्याकाक्षायामाह-युक्तित इति । प्रयोक्तुरुपपत्तिविशेषात् , आचार्योपदेशपारंपर्यात् , लोकाचाराच द्रष्टव्यम् | लोकाचारमेव दर्शयतियथा हीति । करिहस्तेन गजाभिनयो लोके दृश्यते । भट्टाभिनवगुप्तादयः ; भरतशास्त्रटीकाकाराः, इदम् ; करिहस्ताभिनयम् । अभ्युपागगत् अङ्गयकार्षुः ।
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३१
सप्तमो नर्तनाध्यायः कर्तव्यौ स्वस्तिको हस्तौ विप्रकीर्णविशेषणौ । करौ हि स्वस्तिकीभूय विच्युतौ विप्रकीर्णकौ ।। ९५ ॥ स्वतन्त्रयोरतो नास्ति प्रयोगो विभकीर्णयोः । उरोमण्डलिनावेवं पार्श्वमण्डलिनोरिह ।। ९६ ।। विशेषणे चोल्बणयोः कर्तव्यावलपल्लवौ । विशेषणविशेष्ये च न स्यातां भिन्नगामिनी ॥ ९७॥ नीलमुत्पलमित्यत्र न हीष्टं पङ्कजद्वयम् । प्रसिद्धरुपपत्त्यर्थ युक्तिरेषा मयोदिता ॥ ९८ ॥ आचार्याणां तु सर्वेषां पृथगुद्देशलक्षणे ।
वदतां स्वस्तिकायेषु न विशेषणता मता ॥ १० ॥ एते सर्वेऽपि मिलिता: संयुताः, अंसयुताः, नृत्तहस्ताश्च सप्तषष्टिः। ननु लोके चतुःषष्टिहस्तका इति प्रसिद्धिः, तत्कथमुच्यते सप्तषष्टिरिति ? अत्राह-चतु:पष्टित्वमिति । शास्त्रेण युक्त्या वा न चतुःषष्टित्वं घटते, भरतादिशास्त्रेश्वदृष्टत्वात् । अभिनयार्थमेतेषामवश्यंभावाच्च । अथवा अनेन प्रकारेण सूरिभिः ज्ञातृभिः एतेषां हस्तकानां चतुःषष्टित्वमूहनीयम् ।। -९२-९४- ॥
(क०) स्वस्तिकादीनां विप्रकीर्णादिविशेषणतायुक्तिलोकप्रसिद्धयव. गतचतुःषष्टित्वनिर्वाहायास्मभिरेवोक्ता, न त्वाचार्यसंमेतेत्याह-आचार्याणां त्विति ॥ ९५-९९ ॥
(सु०) तमेव प्रकारमाह- कर्तव्याविति । स्वस्तिको हस्तौ विप्रकीविशेषणौ कर्तव्यो। हि यस्मात् कारणात् पूर्व स्वस्तिको भूत्वा पश्चात् विच्युतौ पृथग्भूतौ विप्रकीर्णावित्युच्यते । अत एव स्वस्तिकाभ्यां पृथग्भूतयोविप्रकीर्णयोर्न प्रयोगः । एवमेव उरोमण्डलिनौ पार्श्वमण्डलिनौ विशेषणम् । इह अलपल्लवौ च उल्बणयोर्विशेषणम् । ननु विशेषणत्वेऽपि भेदो भविष्यति ।
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३२
संगीतरत्नाकरः निकुश्चकमयुक्तेषु करं द्विशिखरं पुनः । युक्तेषु नृत्तहस्तेषु त्वधिको वरदाभयौ ॥ १० ॥ ब्रुवन्तः केचिदाचार्या हस्तसप्ततिमूचिरे । तेषामीपद्विकारेऽपि विनियोगेष्वनन्यता ॥ १०१॥ अथासंयुता हस्ताःतर्जनीमूलसंलग्नाकुञ्जिताङ्गुष्ठको भवेत् । पताकः संहताकारः प्रसारिततलागुलिः ॥१०२॥ वस्तुस्पर्शे चपेटे च पताकालालनादिषु । ज्वालासूर्ध्वगतास्वस्याङ्गुल्यः प्रविरलाश्चलाः ॥ १०३ ॥ धारास्वधोगताः पक्षिपक्षे त्वस्य कटिस्थिते ।
तत्राह-विशेषणेति । विशेषणं विशेष्यं च यस्मात् भिन्नपदार्थाविति न दृष्टम् । अत्र दृष्टान्तमाह-नीलमिति । प्रसिद्धेति । लोकप्रसिद्धयपपादनाय मया एषा युक्तिरुक्ता । आचायांणाम् ; भरतादीनाम् । पृथक्पृथगुद्देशलक्षणं च वदता स्वस्तिकादिषु विशेषणं नाभिमतम् ॥ -९५-९९- ॥
(क०) कैश्चिदाचार्यैरधिकहस्तत्रयाङ्गीकारेण हस्तसप्ततिरुक्तेत्याहनिकुञ्चकमित्यादि । तेषां त्रयाणां स्वेनापरिगणने हेतुमाह-तेषामीषद्विकारेऽपि विनियोगेष्वनन्यतेति ॥ १००, १०१ ॥
(सु०) मतान्तरेण हस्तत्रयमुद्दिशति-निकुश्चकमिति । असंयुतहस्तकेषु निकुञ्चकमेकः, युक्तेषु पुनः, संयुतहस्तेषु शिखरः, नृत्तहस्तेषु वरदाभयाविति केचिदाचार्याः हस्ता: सप्ततिरित्याहुः । तेषां मते अन्येभ्य ईषद्विकृतत्वेऽपि विनियोगे अन्यत्वं नास्ति । तुल्यतवेत्यर्थः ॥ -१००, १०१- ॥
(क०) अथ पताकादीनां यथोद्देशक्रमं सविनियोगानि लक्षणान्याह
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सप्तमो नर्तनाध्यायः ऊर्ध्व गच्छन्नुच्छ्रितेषु पुष्करमहतौ त्वधः ॥ १०४ ॥ ऊर्ध्वं गच्छन्कटिक्षेत्रादुत्क्षेपाभिनये करः। आभिमुख्ये मुखक्षेत्रमागच्छन्निजपार्वतः ॥ १०५ ॥ स्वपार्वे कम्पमानस्तु प्रतिषेधे भवत्यसौ । शीघ्रं घर्षनधिष्ठाय पताकः क्षालने परम् ॥ १०६ ॥ पताकं तु शनैर्घर्षन् मर्दने मार्जने तथा । उत्पाटने धारणे च शिलादिस्थूलवस्तुनः ॥ १० ॥ उचितौ विच्युतौ कार्यावेतावन्योन्यसंमुखौ । अधोगतोच्छ्रितचलागुलियूर्मिवेगयोः ॥ १०८ ॥
इति पताकः (१) तर्जनीमूलेत्यादि । अत्र पताकादीनां हस्तानां पताकाद्याकारवत्वेन पताकादिशब्दाभिधेयत्वम् । पताकादिशब्दानां च स्ववृत्तिनिमित्तपताकाद्यर्थप्रकाशकत्वात् । अत्र तत्तदभिधेयानां हस्तानां तत्तदर्थप्रदर्शकत्वं च क्वचिदनुक्तमप्यनुसंधेयम् । तत्र पताकहस्तविनियोगे चपेटेत्युच्यते । चपेटो नाम प्रसारितनिरन्तराङ्गुलितलेन हस्तेन वटुचेटादीनामस्थाने प्रहारः ॥ १०२-१०८ ॥
इति पताकः (१) (सु०) पताकं सक्षयति-तर्जनीति । तर्जन्या मूले संलग्न आकुञ्चितो. ऽङ्गुष्ठो यस्य तथाविधः, संहताकार: मिलिताकारः, प्रसारिततलागुलिः; आसारिततलागुलिश्च पताक इति । तस्य विनियोगमाह-वस्त्विति । एष पताक: वस्तुस्पर्शे ; चपेटे च ; चपेटो नाम हस्तघात:, पताकालालनादिषु ; पताको ध्वजः, तस्य लालने प्रयोगः । यदा अगुल्य ऊर्ध्वं गताः प्रविरला: चलाश्च भवन्ति, तदा ज्वालासु प्रयोगः । यदा अमुल्य अधोगताः तदा वर्षधारासु प्रयोगः । पक्षिपक्षाभिनये तु कटिस्थितो भवति । ऊर्ध्व गच्छन्
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संगीतरत्नाकरः स एव त्रिपताकः स्याद्वक्रितानामिकाङ्गुलिः । दध्यादिमङ्गलद्रव्यस्पर्शादौ स विधीयते ॥ १०९ ॥ पराङ्मुखः स्यादाहाने लग्नद्वयगुलिकुञ्चनात् । बहिः क्षिप्ताङ्गुलिद्वन्द्वोऽधस्तलोऽनादरोज्झिते ॥ ११० ॥ नमस्कारे त्वसौ कार्यः शिरस्थः पार्वतस्तलः । उत्तानिताङ्गुलिद्वन्द्वो वदनोन्नमने मतः ॥ १११ ॥ संदेहे दधदगुल्यौ क्रमेणैव नतोन्नते ।
अधोमुखः शिरःप्रान्ते भ्रमन्नुष्णीषधारणे ॥ ११२ ॥ पताक: उच्छ्रितेषु उच्चेषु प्रयुज्यते । अधोगच्छन् पुष्करप्रहतौ प्रयुज्यते । कटिक्षेत्रादूर्ध्व गच्छन् उत्क्षेपाभिनये प्रयुज्यते । निजपार्श्वत: ; स्वपार्श्वत: मुखक्षेत्रमागच्छन् आभिमुख्ये भवति । असौ ; पताकस्तु स्वपार्श्वे कम्पमान: सन् प्रतिषेधे विनियुज्यते । शीघ्रमिति । पताकम् अधिष्ठाय शीघ्रं घर्षन क्षालने अभिनयेत् । शनैः घर्षन् कृतः पताकस्तु, मर्दने मार्जने च विनियुज्यते । तथा उत्पाटने, शिलादिस्थूलवस्तुनो धारणे च अन्योन्यसंमुखावेतौ पताको विच्युतौ संलग्नौ कार्यो । अधोगतोच्छूिनचलाङ्गुलिः ; अधोगता उच्छ्रिता चलाश्च अङ्गुलयो यस्य, तथाविधः सन् पताक: वायूमिवेगयोः अभिनये च कार्यः ॥ -१०२-१०८-॥
इति पताक: (१)
(क०) त्रिपताकहस्तविनियोगे-तागेव किरीटस्य धृतौ मूोंप्रदेशग इति । उष्णीषधारणाभिनये, अधोमुखः शिरः प्रान्ते भ्रमन्निति याहगुक्तः, ताहगेव मूर्योर्ध्वदेशगश्चेति । अमयर्थ:--- अधोमुख स्त्रिपताकहस्तः प्रथमं शिरःप्रान्ते भ्रान्त्वा, ततः तदूर्ध्वदेशे पूर्वावृत्यर्धपरिमाणवतया भ्रान्त्या, ततोऽप्यूर्वदेशे तदर्धावृत्तिपरिमाणवत्तया भ्रमन् किरीटस्य धृतौ धारणाभिनये भवति । शिरस उपरिभाग आनुपूर्येण स्थूलमूलसूक्ष्माग्रत्वदर्शने
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
तादृगेव किरीटस्य धृतौ मूर्ध्वदेशगः । अनिष्टे गन्धवाग्घोषे नासास्य श्रोत्रसंवृतिम् ॥ ११३ ॥ अङ्गुलीभ्यां क्रमात्कुर्वन् पक्षिस्रोतोऽनिलेषु तु । क्षुद्रेपूर्ध्वमधस्तिर्यक् क्रमाद्गच्छन् दधत्तथा ॥ ११४ ॥ अधोमुखचला गुल्यौ कटिक्षेत्रगतः करः । असे तन्मार्जने च स्यादधो यान्तीमनामिकाम् ।। ११५ ।। नेत्रक्षेत्रगतां विभ्रत्ति के तु ललाटगम् । अलकस्यापनयने दधत्तामलकान्विताम् ।। ११६ ॥
इति त्रिपताकः (२)
३५
मुकुटप्रतीतिर्भवेदित्यर्थः । अनिष्ट इत्यादि । अङ्गुलीभ्यां तर्जनीमध्यमाभ्यां नासा संवृत्तिं कुर्वत् अनिष्टं गन्धमभिनयंत् । तथा आस्यसंवृत्तिं कुर्वन् अनिष्टां वाचमभिनयेत । तथा श्रोत्रसंवृतिं कुर्वन् अनिष्टं घोषमभिनयेदिति क्रमो द्रष्टव्यः । तथा अधोमुखचलाङ्गुल्यौ दधत् कटिक्षेत्रगत : कर ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्गच्छंस्तु क्रमात् क्षुद्रेषु पक्षिस्रोतोऽनिलेषु भवतीत्यन्वयः ॥१०९-११६॥ इति त्रिपताकः ( २ )
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( मु० ) त्रिपताकं लक्षयति — स एवेति । सः पताक एव वक्रिता अनामिकाङ्गुलिर्यस्मिन् तथाविधः त्रिपताको भवति । स च दध्यादिमङ्गलद्रव्यस्पर्शे विनियुज्यते | लग्नस्य द्व्यङ्गुलादेराकुञ्चनात् पराङ्मुख आह्वाने च विनियुज्यते । बहिः क्षिप्तमङ्गुलिद्वन्द्वं यस्य अधस्तलः तधाविधः करः अनादरे, नमस्कारे च कार्य: । उत्तानिताङ्गुलिद्वन्द्वः पार्श्वतलस्थः वदनोन्नते, क्रमेण अङ्गुल्यौ नतोन्नते दधन् संशये विनियुज्यते । द्वौ अङ्गुलौ अधोमुखशिरः प्रान्ते भ्रमन् उष्णीषधारणे प्रयोज्यः । स एव मूर्धोर्ध्वदेशगः किरीटधारणे प्रयोज्यः । अनिष्टे निषेधे अड्गुलीभ्यां तर्जनीमध्यमाभ्यां नासिका -
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संगीतरत्नाकरः एकतोऽङ्गुलिसंघाते यत्राङ्गुष्ठे स्थितेऽन्यतः । चन्द्रलेखाकृतिर्भाति सोऽर्धचन्द्रोऽभिधीयते ॥ ११७ ॥ उपर्युत्तानितोऽर्धन्दावूर्ध्वगो बालपादपे । पराङ्मुखस्तु खेदे स्यात्कपोलफलकं दधत् ॥ ११८ ॥ प्रयोक्तव्यः कृशे मध्ये बलानिर्वासनादिषु ।
इत्यर्धचन्द्रः (३) अश्लिष्टमध्यमा पृष्ठे संस्थिता तर्जनी यदा ॥ ११९ ॥ संवृतिं कुर्वन् अनिष्टं गन्धमभिनयेत् । तथा आस्यसंवृतिं कुर्वन् अनिष्टां वाचमभिनयेत् । तथैव श्रोत्रसंवृतिं कुर्वन्ननिष्टं घोषमभिनयेदिति क्रमोऽनुसंधेयः । तथा अधोमुखचलाफुल्यौ धारयन् कटिक्षेत्रगतः कर ऊर्ध्वमधस्तिर्यग्गच्छन् क्रमेण क्षुद्रेषु पक्षिस्रोतोऽनिलेष्वपि भवति । तथैव अधोमुखेन च अङ्गुल्यौ कटिक्षेत्रे वर्तमाने अस्रे रक्तस्रावे, तन्मार्जने च स्यात् । अधोगच्छन्तीमनामिकागुली नेत्रप्रदेशे बिभ्रत् धारयन् तिलकविरचने कार्यः । ललाटे वर्तमानामलिकयुक्तामनामिकां दधानो अलकस्य अपनये; अपसारणे विनियुज्यते ॥ १०९-११६ ॥
इति त्रिपताकः (२) (सु०) अर्धचन्द्रं लक्षयति-एकत इति । एकतः प्रदेशे अङ्गुलिसंघाते अगुलिसमूहे, अङ्गुष्ठे च पृष्ठे पृथगन्यत: स्थिते सति, यः कर: चन्द्रलेखाकृतिवद्भाति सोऽर्धचन्द्रः । एष उपरिप्रदेशे उत्तानीकृतश्चेत् तदा अर्धेन्दौ, तदेव ऊर्ध्वगश्चेत् बालपादपे च अभिनयने कार्यः । पराङ्मुखस्तु खेदे; तदेव कपोलफलकं दधत् ; गण्डफलकं धारयन् कृशे, मध्ये, दौवारिककृतबलान्निर्वासने च कार्यः ॥ ११७-१९८-॥
इत्यार्धचन्द्रः (३) (क०) कर्तरीमुखलक्षणे-पृष्ठे अश्लिष्टमध्यमेति समभिव्याहारात्
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
त्रिपातकस्य हस्तस्य तदा स्यात्कर्तरीमुखः । अलक्तकादिना पादरञ्जने पतने पुनः ॥ १२० ॥ मध्यमां तर्जनीस्थाने पुनस्तत्रैव तर्जनीम् । दधानोऽधोगतोऽथाग्रस्थोत्ताने लेख्यवाचने ॥ १२१ ॥ इति कर्तरीमुखः (४)
तर्जन्यादिष्वङ्गुलीषु प्राच्याः माच्याः परा परा । दूरस्थोच्चा मनाग्वका धनुर्वक्रा तु तर्जनी || १२२ ॥ अङ्गुष्ठः कुञ्चितो यत्र तमरालं प्रचक्षते ।
३७
मध्यमायाः पृष्ठमेव गम्यते । पृष्ठं पाश्चात्यो भागः । विनियोगे चमध्यमां तर्जनीस्थान इति । तर्जन्यां मध्यमाङ्गुलिपुरोभागं नीतायां मध्यमा तर्जनीस्थाने स्थिता भवति । पुनस्तत्रैव तर्जनीमित्यनेन तर्जन्या एव व्यापारः, न मध्यमाया इति गम्यते । एवं दधानोऽधोगतः पतने भवतीत्यन्वयः ॥ - ११९- १२१ ॥
इति कर्तरीमुखः (४)
(सु० ) कर्तरीमुखं लक्षयति- अश्लिष्टेति । त्रिपताकहस्तस्य तर्जनी असंलग्ना सती मध्यमाङ्गुलिपृष्ठे यदा तिष्ठति, तदा कर्तरीमुखः । तस्य विनियोगस्तु - अलक्तकादिना, यावकादिना चरणरञ्जने कार्य: । तर्जनीस्थाने मध्यमां, पुनस्तत्रैव तर्जनीं धारयन्, अग्रे अधोगत उत्तानश्च यदि स्यात् तदा पतने, अथ अग्रस्थोत्ताने लिखितवाचने च विनियोगः कार्यः ॥ - ११९ - १२१ ॥ इति कर्तरीमुखः (४)
(क०) अरालहस्तलक्षणे – तर्जन्यादिष्वङ्गुलीषु प्राच्याः प्राच्याः परा परेति । मध्यमापेक्षया तर्जनी प्राची; अनामिकापेक्षया कनीयसी परेति द्रष्टव्यम् । तत्र परा परा मध्यमादिः प्राच्याः प्राच्याः तर्जन्यादेः
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३८
संगीतरत्नाकर: आशीर्वादादिषु प्रोक्तः स पुंसां हृदयस्थितः ॥ १२३ ॥ अधः स्त्रीणां केशबन्धे केशानां च विकीर्णने । द्विस्त्रिः कार्योऽन्यपाङत्तु स्वपार्थे वर्तुलभ्रमः ॥ १२४ ॥ आव्रजन् जनसंघ स्यादाहाने पतदङ्गुलिः । विवाहे त्वङ्गुलाग्रस्थस्वस्तिकाकारयोजितम् ॥ १२५ ॥ प्रदक्षिणं करद्वन्द्वं स्याद्धमत्केवलं पुनः । प्रदक्षिणं भ्रमन् कार्यो देवतानां प्रदक्षिणे ।। १२६ ॥ कस्त्वं कोऽहं क संबन्ध इत्यसंबद्धभाषणे । बहिः पुनः पुनः क्षिप्ताङ्गुलिर्भालस्थितः पुनः ।। १२७ ॥ भालस्वेदापनयने त्रिपताकोदितेषु च ।
इत्यरालः (५) सकाशात् । दूरस्थोचा मनावका कर्तव्येति । पूर्वापूर्वापेक्षया परापरासु दूरस्थत्वाद्याधिक्यं द्रष्टव्यम् ॥ १२२-१२७. ॥
इत्यराल: (५) (सु०) अरालं लक्षयसि-तर्जनीति । तर्जन्यादिपु अङ्गुलीपु, पूर्वस्याः पूर्वस्याः सकाशात् परा परा अङ्गुलीषु दूरस्थोच्चा मनाग्वक्रा वा भवति । तर्जनी तु धनुराकारेण वक्रा ; अङ्गुष्ठः यत्र कुञ्चितो भवेत् तम अरालं प्राहुः । तस्य पुरुषहृदयस्थितस्य आशीर्वादादिषु विनियोगः । अधःस्थित: सन् स्त्रीणां केशबन्ध तथा केशानां च विकीर्णने ; पृथक्करणे च द्विस्त्रिः कृतः सन् प्रयुज्यते । अन्यपार्श्वसकाशात स्वपार्श्व वर्तुलभ्रममावजन् जनसंधे जनसमूहे विनियुज्यते । पतदङ्गुलि: ; पतन्त्य अङ्गुलयो यस्य, तथाविध आह्वाने कार्यः । विवाहे ; विवाहसमये तु अङ्गुल्यग्रयोः स्वस्तिकाकारस्य योजनं यस्य ; तथाविधमरालं करद्वन्द्वं केवलं प्रदक्षिणं भ्रमन् प्रयुज्यते । पुन: प्रदक्षिणं भ्रमन्
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३९
सप्तमो नर्तनाध्यायः तलमध्यस्थितैर्लग्गैरफुल्यौरगोपितैः ॥ १२८ ॥ निपीड्य मध्यमां तिष्ठत्यङ्गुष्ठो मुष्टिरुच्यते । कुन्तनिस्त्रिंशदण्डादिग्रहे विविधयोधने ॥ १२९ ॥ धावने प्राङ्मुखाङ्गुष्ठो मल्लयुद्धे करद्वयम् ।
इति मुष्टिः (६) मुष्टरूर्ध्वकृतोऽङ्गुष्ठः शिखरः संप्रयुज्यते ॥ १३० ॥ शक्तितोमरयोर्मोक्षे धनुर्भल्लाङ्कुशग्रहे । अलकोत्पीडने मुष्टिः कार्यः सोऽप्यस्य लोकतः ॥ १३१ ॥
___ इति शिखर: (७) देवतानां प्रदक्षिणे कार्य: । बहिः ; बहि:प्रदेशे, पुनः पुन: क्षिप्ता अगुलयो यस्मिन् , तथाविधोऽराल: कस्त्वम् ? कोऽहम् ? क: संबन्ध: ? इत्यसंबद्धभाषणे संबन्धाभावभाषणे प्रयुज्यते । भालस्थितः ; भाले निटिले स्थितोऽरालः पुनः भालस्वेदापनयने, त्रिपताकोदितेषु वस्तुषु च प्रयोज्यः ॥ १२२-१२७- ॥
इत्यराल: (५) (सु०) मुष्टिं लक्षयति-तलमध्येति । तलमध्यस्थितैः लग्नैः संश्लिष्टैः अङ्गुलीनामग्रैः अगोपितैः प्रकटै: अङ्गुष्ठो मध्यमां पीडयित्वा तिष्ठति सति मुष्टिर्नामा हस्तकः । स च कुन्तादिग्रहणे विविधयुद्धे विनियुज्यते । तदेव मुष्टिः प्राङ्मुखागुष्ठश्चेत् तदा धावने, शीघ्रगतौ प्रयुज्यते । मलयुद्धे तदेव मुष्टिः करद्वयेन प्रयुज्यते ॥ -१२८, १२९- ॥
इति शिखरः (६) ____ (क०) शिखरहस्तविनियोगे-मुष्टिः कार्य इति । कुन्तग्रहणादावित्यर्थः । सोऽप्यस्य लोकत इति । सः ; मुष्टिः, अस्य शिखरस्य कार्ये लोकतः लोकानुसाराद्भवतीत्यर्थः ।। -१३०, १३१ ॥
इति शिखर: (७)
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संगीतरत्नाकरः
अङ्गुष्ठाग्रेण लग्नाग्रा तर्जनी शिखरस्य चेत् । कपित्थः स्यात्तदा कार्यों धारणे कुन्तवयोः ॥ १३२ ॥ चक्रचापगदादेश्च शराकर्षादिकर्मणि । अन्योन्यकार्यविषयौ कपित्थशिखरौ कचित् ।। १३३ ।
इति कपित्थः ( ८ )
अनामिकाकनीयस्यावुत्क्षिप्ते कुटिलीकृते ।
विरले चेत्कपित्थस्य तदा स्यात्खटकामुखः ।। १३४ ॥
(सु० ) शिखरं लक्षयति- मुष्टेरिति । ऊर्ध्वं उच्चः कृतः अङ्गुष्ठो यस्मिन् तथाविधो मुष्टिरेव शिखरः । तस्य विनियोगस्तु — शक्तितोमरमोक्षणे ; तोमरः कुन्तविशेषः, धनुर्ग्रहणे, 'भल्लादिग्रहणे, अङ्कुशग्रहणे च प्रयुज्यते । अलोकोत्पीडने ; अलकानामुत्पीडने मुष्टिः कार्यः । सोऽप्यस्य शिखरस्य लोकानुसारतः कार्यः ॥ -१३०, १३१- ॥
इति शिखरः ( ७ )
(सु०) कपित्थं लक्षयति — अङ्गुष्ठेति । अङ्गुष्ठाग्रेण ; अङ्गुष्टस्य अ अगुलयो यस्मिन् एवंविधः तर्जनी संश्लिष्टाप्रभाग्भवति चेत्, तदा कपित्थो भवति । तस्य नियोगस्तु - कुन्तस्य, वज्रस्य, हीरकस्य च धारणे, चक्रचापगदादेश्व, शराकर्षणादिव्यापारे च प्रयुज्यते । कपित्थशिखरौ कचित् व्यापारविशेषे परस्परकार्यविषयौ प्रयोक्तव्यौ। शिखरकार्ये कपित्थः प्रयोक्तव्य इत्यर्थः ॥ १३२ - १३३-॥ इति कपित्थ: ( ८ )
(सु० ) खटकामुखं लक्षयति — अनामिकेति । यदा कपित्थ एव अनामिका कनीयस्यौ द्वे अङ्गुली ऊर्ध्वमुत्क्षिप्ते, कुटिलीकृते, विरले च तदा खटकामुखः । तस्य विनियोगस्तु - अयमुत्तानश्चेत् वल्गच्चामरधारणे, कुसुमावशस्त्रविशेष:
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भलः,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः उत्सानस्तुरगादेः स्याद्वल्गाचामरधारणे । कुसुमावचये मुक्तास्रग्दामधरणे तथा ॥ १३५ ॥ शरमन्थाकर्णणे च संमुखो दर्पणग्रहे । कस्तूरिकादिवस्तूनां पेषणेऽधस्तलौ करौ ॥ १३६ ॥ ताम्बूलवीटिकान्तच्छेदनादौ च स स्मृतः ।
इति खटकामुखः (९) अरालस्य यदात्यन्तवक्रे तर्जन्यनामिके ॥ १३७॥ शुकतुण्डस्तदा स स्यात्प्रेमकोपे नवेर्ण्यया । नाहं न त्वं न मे कृत्यं त्वयेति वचने तथा ॥ १३८ ॥ घूताक्षपातनादौ स्यात्सावज्ञे तु विसर्जने । आहाने च बहिश्चान्तः क्रमाक्षिप्ताङ्गुलिर्भवेत् ।। १३९ ॥
इति शुक्रतुण्ड: (१०) . चये, मुक्तास्रग्दामधारणे; तथा शरमन्थाकर्षणे च प्रयुज्यते । अयं संमुखश्चेत् , दर्पणग्रहणे, कस्तूरिकादिवस्तूनां चूर्णीकरणे च प्रयुज्यते । अयमधस्तल: स्थितश्चेत्, ताम्बूलवीटिकावृन्तच्छेदनादौ च प्रयुज्यते ॥ १३४-१३६-॥
इति खटकामुखः (९) (सु०) शुकतुण्डं लक्षयति-अरालस्येति । अरालस्य पूर्वोक्तहस्तकस्य तर्जन्यनामिके द्वे अमुल्यौ यदा अत्यन्तवक्रीकृतौ भवेताम् , तदा शुकतुण्डाख्यो हस्तो भवति । तस्य विनियोगमाह-स इति | स: ; शुकतुण्डः, नवय॑या प्रेमकोपे, प्रीतिकोपे, 'नाहं न त्वम्', 'त्वया न मे कृत्यमस्ति,' इति वचने, द्यूताक्षपातनादौ, सावज्ञविसर्जने च प्रयुज्यते । अयमेव बहिरन्तश्च क्रमात् क्षिप्ता अगुलयो यत्र, तथाविधः शुकतुण्डः आह्वाने विनियुज्यते ॥ -१३७-१३९ ॥
इति शुकतुण्ड: (१०)
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४२
संगीतरत्नाकर:
कालेऽनामिका वा भवेदूर्ध्वा कनीयसी । ऊर्ध्वास्त्रेताग्निसंस्थानास्तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः । १४० ।। फलेऽल्पे च मिते ग्रासे स्याद्विडालपदादिषु । चिकग्रहणे चैव बालकानां विधीयते ॥ १४१ ॥ इति काल : (११)
अङ्गुष्ठाङ्गुलयो यस्मिन्नलग्नाग्रा धनुर्नताः ।
विरलाः पद्मकोशोऽसौ कार्यो देवार्चने बलौ ॥ १४२ ॥ द्विर्वा विप्रकीर्णाः पुष्पाणां प्रकरे करः । फले बिल्वकपित्थादौ स्त्रीणां च कुचकुम्भयोः ॥ १४३ ॥ इति पद्मकोश: ( १२ )
(सु०) काङ्गुलं लक्षयति - काले इति । यत्र अनामिका वक्रा भवेत् । कनियसी च ऊर्ध्वा ऊर्ध्वाकारा उच्चा भवेत् । एतस्मिन्नेव तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः त्रेताग्निवत् त्रिकोणाकाराः स्थिताः, स एव कालः । अस्य विनियोगमाहफले इति । अल्पे फले; लघीयसि फले, परिमितप्रासे, बिडालपदानुकरणादिष्ट, बालकानं चिबुकग्रहणे च विधीयते ॥ १४०, १४१- ॥
इति काल: (११)
(क०) पद्मकोशहस्तलक्षणे – अङ्गुष्ठाङ्गुलय इति । अङ्गुष्ठादयोऽङ्गुलय इत्यर्थः ॥ १४२, १४३ ॥
इति पद्मकोश: ( १२ )
( सु० ) पद्मकोशं लक्षयति- अङ्गुष्ठेति । यस्मिन् अङ्गुष्ठाङ्गुलयः अलग्नाग्राः धनुराकारेण नताः विरलाश्च भवन्ति, स पद्मकोशः । तस्य विनियोगमाह - असौ ; पद्मकोशः, देवार्चनादौ, बलिप्रदाने च कार्य: । अयमेव कर: द्वित्रिर्वा विप्रकीर्णामश्चेत् पुष्पाणां प्रकरे, बिल्वकपित्थादौ फले, स्त्रीणां कुचकुम्भयोः मर्दने च विनियोगः ॥ १४२, १४३ ॥
इति पद्मकोश: (१२)
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४३
सप्तमो नर्तनाध्यायः व्यावर्तिताख्यं करणं कृत्वैव समवस्थिताः । यस्याङ्गुल्यः करतले पार्श्वगाः सोऽलपल्लवः ॥ १४४ ॥ अलपद्मः स एव स्यादगुलीनां च केचन । अस्य व्यावर्तितस्थाने परिवर्तितमूचिरे ॥ १४५ ॥ कस्य त्वमिति नास्तीति वाक्ययोः प्रतिषेधने । तुच्छायुक्तानृतत्वोक्तिष्वेव स्त्रीभिः प्रयुज्यते ॥ १४६ ॥
इत्यलपल्लव: (१३) ऊर्ध्वप्रसारिता यत्र खटकामुखतर्जनी । .हस्तः सूचीमुखः स स्यादभिनेयमिहोच्यते ॥ १४७ ॥
शस्त्रे चक्राभिधे कुम्भकारोपकरणे तथा । रथाङ्गे जनसंघाते भ्रमन्ती तर्जनी भवेत् ।। १४८ ॥
(क०) अलपल्लवलक्षणे-व्यावर्तिताख्यं करणमिति । आवेष्टितप्रक्रियया कनिष्ठाघगुलिकृतया या करवर्तना तद्वयावर्तितं करणम् ॥ १४४-१४६॥
इत्यलपल्लव: (१३) . (सु०) अलपल्लवं लक्षयति-व्यावर्तिताख्यमिति । व्यावर्तिताख्यं करणं कृत्वा, यस्य अशल्यः करतले पार्श्वगाः समवस्थिता: सोऽलपल्लवः । मतान्तरमाह-अलपद्म इति । केचन आचार्याः अस्य अङ्गुलीनां व्यावर्तितमिममेव अलपद्म इत्याहुः । अस्य व्यावर्तितस्थाने परिवर्तितमप्यूचिरे । तस्य विनियोगमाह-कस्येति । कस्य त्वमिति, नास्तीति वाक्ययोः प्रतिषेधने, तुच्छायुक्तानृतत्वोक्तिषु स्त्रीभिः प्रयुज्यते ।। -१४३-१४५- ॥
इत्यलपल्लवः (१३) (सु०) सूचीमुखं लक्षयति-ऊर्वेति । यत्र खटकामुखस्य तर्जनी ऊर्ध्वप्रसारिता, स सूचीमुखाख्यो हस्त: स्यात् । तस्याभिनेयस्तु-चक्राभिधे शस्त्रे,
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४४
संगीतरत्नाकरः ऊर्चवक्त्राधोमुखी च निजपार्श्वगता तथा । पार्थान्तरानिज पार्श्वमायान्ती च क्रमाद्भवेत् ॥ १४९ ॥ पताकायां भवेदूर्वा साधुवादे च दोलिता । एकत्वे तर्जनी चोर्ध्वा नासास्था श्वासवीक्षणे ।। १५० ॥ अधस्तले पार्थयुक्ते संयोगे विरहे पुनः । वियुक्ते च विधातव्ये शाईदेवेन कीर्तिते ॥ १५१ ॥
इति सूचीमुख: (१४) पताको निम्नमध्यो यः स तु सर्पशिराः करः । देवेभ्यस्तोयदानेऽसावुत्तानोऽधोमुखः पुनः ॥ १५२ ॥ भुजङ्गमगतौ स स्यादास्फाले करिकुम्भयोः । भुजास्फोटे च मल्लानां नियुद्धादिषु कीर्तितः ।। १५३ ।।
___इति सर्पशिरा: (१५) कुम्भकारोपकरणे, तथा रथाङ्गे, जनसंघाते च अयं सूचीमुखो भ्रमतर्जनीको भवेत् । तथा अयमेव तर्जनी ऊर्ध्ववक्त्रा, अधोमुखी च निजपार्श्वगता भवेत्, तदा पताकायाम् । साधुवादे; त्वया साधुकृतमित्युक्तौ तु आन्दोलिता तर्जनी ऊर्ध्वा भवेत् । एकत्वे तर्जनी चोर्ध्वा यदि नासास्था भवेत् , तदा श्वासविलोकने प्रयोज्यः । अधस्तले तर्जनीकरः पार्श्वसंयुक्ते सति संयोगेऽभिनेयः । विरहे पुन: तथैव वियुक्तो विधातव्य इति ॥ १४७-१५१ ॥
__इति सूचीमुखः (१४) (सु०) सर्पशिरसं लक्षयति-पताक इति । निम्नमध्यः ; निम्नो नीचो मध्यो यस्य तथाविध: पताक एव करः सर्पशिराः । असौ उत्तानश्चेत् देवेभ्यः तोयदान कार्यः । अयमधो मुखश्चेत्, भुजङ्गमगतौ ; गजकुम्भास्फालने ; मल्लानां भुजास्फोटे ; नियुद्धादिषु च कार्यः ॥ १५२, १५३ ॥
___ इति सर्पशिराः (१५)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अस्याङ्गुष्ठो मध्यमाया मध्यपर्वोदरं श्रितः । ऊर्ध्वा कनीयसी यत्र चतुरं तं करं विदुः ॥ १५४ ॥
अन्ये पताकाङ्गुष्ठस्य मध्यमामूलसंस्थितिम् । ईषच्च पृष्ठतो यान्तीं कनिष्ठां च परे जगुः ।। १५५ ॥ नये वदनदेशस्थो युतौ द्वौ मणिबन्धयोः । विनयेऽथ विचारे स्यात्पार्धगोऽथ हृदि स्थितः ॥ १५६ ॥ ऊहापोहौ च लीलायामुद्वेष्टितयुतः करः । कैतवेऽक्षप्रेरणे च भवेदूर्ध्वतलः समे ॥ १५७ ॥ अङ्गुष्ठमध्यमन्योन्यवन्धनेन तु मार्दवे । चातुर्यवचने त्वेतौ संयुतौ चतुरोदितौ ।। १५८ ।।
इति चतुरः (१६) (सु०) चतुरं लक्षयति-अस्येति । अस्य ; सर्पशिरसोऽङ्गुष्ठः, मध्यमाया अगुल्या मध्यपर्व उदरं श्रितः सन् , कनीयसी ऊर्ध्वा उच्चा यत्र जायते, तं करं चतुराख्यं हस्तकं विदुः । मतान्तरमाह-अन्य इति । अन्ये ; आचार्याः, चतुराख्ये हस्तके पताकाख्यस्य हस्तस्य अङ्गुष्ठस्य मध्यमाया मूले संस्थितिमाहुः । अन्यन्मतान्तरमाह-पर इति । परे तु; आचार्याः, कनिष्ठां च ईषत् किंचित् पृष्ठतः, स्वस्य पृष्ठतो यान्तीं गतामाहुः । अस्य विनियोगस्तु-अयं वदनदेशस्थो यदि भवति, तदा नये नीतिमार्गे विचारणे कार्यः । मणिबन्धयोवेितौ युक्तौ चेत्, तदा विनये कार्य:। अयमेव यदि पार्श्वगतः, तदा विचारे कार्यः । यदि हृदि स्थितश्चेत् , तदा ऊहापोहयो: । यदि उद्वेष्टितयुत: करश्चेत् तदा लीलायां प्रयोज्यः । समे ऊर्ध्वतलश्चेत् तदा कैतवे, अक्षप्रेरणे च कार्यः । अगुष्ठमध्यमयोरन्योन्यं बन्धने कृते सति मार्दवे विनियुज्यते । एतौ द्वौ चतुरोदितौ संयुतौ युक्तौ चेत् , तदा चातुर्यवचने प्रयोज्यौ ॥ २५४-१५८ ॥ .
इति चतुरः (१६)
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संगीतरत्नाकरः सर्पशीर्षकरस्यो यदाङ्गुष्ठकनिष्ठिके । मृगशीर्षस्तदा हस्तः स त्वधोवदनो भवेत् ॥ १५९ ॥ अद्येहसांप्रतार्थेघूत्तानोद्यूताक्षपातने । गण्डादिक्षेत्रसंस्थस्तु गण्डादिस्वेदमार्जने ॥ १६० ॥
इति मृगशीर्षः (१७) लग्नास्त्रेताग्निसंस्थानास्तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः। शेषे यत्रो विरले हंसास्यः सोऽभिधीयते ॥ १६१ ॥ अयं मृदुनि निःसारे श्लक्ष्णेऽल्पे शिथिले लघौ । मर्दितं मथितं क्षिप्तं दधदग्रं विधूनितम् ॥ १६२ ।। औचित्याचच्युतयुक्तं तु कुसुमावचयादिषु ।
इति हस्यास्यः (१८)
(सु०) मृगशीर्ष लक्षयति--सर्पशीर्षेति । ऊर्वीकृताष्ठकनिष्ठिकः सर्पशीर्ष एव मृगशिर्पः । अस्य विनियोगस्तु-यद्ययमधोवदनो भवेत्, तदा अद्य, इह, सांप्रतमित्यस्मिन्नर्थे कार्यः । अयमुत्तानश्चेत् द्यूते, अक्षपातने च कार्यः । अयं गण्डादिक्षेत्रसंस्थश्चेत्, गण्डादिस्वेदमार्जने योज्यः ॥ १५९, १६० ॥
इति मृगशीर्षः (१७) ___ (क०) हंसास्यहस्तविनियोगे-अयं मृदुनि निःसारे श्लक्ष्णेऽल्पे शिथिले लघौ मर्दितं मथितं क्षिप्तं दधदयं विधूनितमिति । अयं हंसास्यो मर्दितमग्रं दधन्मृदुनि निःसारे च प्रयुज्यते । मथितमग्रं दधत् श्लक्ष्णे विनियुज्यते । क्षिप्तमग्रं दधदल्पे विनियुज्यते। विनितमयं दधत् शिथिले लघौ च विनियुज्यते । एवं योजनीयम् ॥ १६१-१६२- ।।
इति हंस्यास्य: (१८)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः यदि किंचिन्नमन्मूलं तर्जन्याद्यगुलित्रयम् ॥ १६३ ॥ पताकस्य तदा हस्तं हंसपक्षं प्रचक्षते । अयमाचमने कार्यश्चन्दनाद्यनुलेपने ॥ १६४ ।। हनुदेशगतस्तु स्याद् दुःखजे हनुधारणे । मण्डलीकृतबाहू तौ महास्तम्भप्रदर्शने ॥ १६५ ॥ आलिङ्गने च प्रत्यक्षे परोक्षे स्वस्तिकीकृतौ । रोमाञ्चायनुभावस्तु रसेष्वेव यथारसम् ॥ १६६ ॥ अनुभावा रसवशात्कार्या हस्तान्तरेष्वपि ।
इति हंसपक्ष: (१९)
(सु०) हंसास्यं लक्षयति-लग्नेति । यत्र तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः ; त्रेतामिसंस्थानाः; त्रेतग्निवत् त्रिकोणाः संस्थिताः; संलमाः; परस्परं संलग्ना भवन्ति । शेषे ; अनामिकाकनिष्ठिके, ऊर्दू विरले च यत्र भवेत् स हंसास्यः । अस्य विनियोगमाह-अयमिति । अयं हंसास्यः मर्दितमग्रं दधन्मृदुनि, निःसारे च प्रयुज्यते । मथितमग्रं दधत् श्लक्ष्णे विनियुज्यते । क्षिप्तम् उत्क्षिप्तमग्रं दधदल्पे नियुज्यते । विधूनितमग्रं दधत् शिथिले लघौ च विनियुज्यते । कुसुमावचयादिषु अयमौचित्यात् च्युतयुक्तं यथातथा विनियुज्यते ॥ १६१-१६२-॥
इति हंस्यास्यः (१८)
___(क०) हंसपक्षहस्तविनियोगे-परोक्षे स्वस्तिकीकृताविति । अप्रत्यक्षे कृत आलिङ्गने, स्वस्तिकीकृतौ पार्श्वव्यत्यासेन अन्योन्यांसपर्यन्तं प्रापितावित्यर्थः । रोमाञ्चेत्यादि । रोमाञ्चादीनां सात्त्विकत्वेऽपि, अनु पश्चाद्भवतीति व्युत्पत्त्या अनुभावत्वमप्युपपन्नम् । आदिशब्देनानुभावत्वेन
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संगीतरत्नाकरः अगुष्ठमध्यमाङ्गुल्यौ श्लिष्टाने तर्जनी नता ॥ १६७ ॥ यत्रो विरले शेषे स करो भ्रमरो भवेत् । ग्रहणे दीर्घनालानां पुष्पाणामयमिष्यते ॥ १६८ ॥ कर्णपूरे तालपत्रे कण्टकोद्धरणादिषु ।
इति भ्रमर: (२०) प्रसिद्धाः कटाक्षवीक्षणभुजाक्षेपादयो विलासा गृह्यन्ते । यथारसम् ; स्वाभिव्यङ्ग्यं प्रकृतरसमनतिक्रम्येत्यर्थः । रसेषु ; शृङ्गारादिषु ; एषः, हंसपक्षः । प्रयोज्यो भवतीति शेषः । हंसपक्षोक्तं रसव्यञ्जकत्वं हस्तान्तरेष्वपि द्रष्टव्यमित्याह-अनुभावा इति ॥ -१६३-१६६- ।
___ इति हंसपक्षः (१९) (सु०) हंसपक्षं लक्षयति-यदीति । किंचिद् ; अल्पं, नमत् ; नमनं प्राप्तं मूलं यस्य ; तथाविधस्य पताकस्य तर्जन्याद्यलित्रयं यदि स्यात् , तदा हंसपक्षः । अस्य विनियोगमाह--अयमिति । अयं हंसपक्ष: आचमने, चन्दनाद्यनुलेपने हनुदेशगतः कार्यः । दुःखजे तु हनुधारणे । मण्डलीकृतबाहू; मण्डलीकृतौ वर्तुलाकारौ बाहू ययोः, तथाविधौ तौ द्वौ हंसपक्षौ महास्तम्भप्रदर्शने कार्यः । आलिङ्गने; संस्पर्श, स्वस्तिकीकृतौ तौ हंसपक्षौ प्रत्यक्षपरोक्षालिङ्गनयोर्यथायोगं विनियोगः कार्यः । एषः; हंसपक्षस्तु रोमाञ्चाद्यनुभावैः यथारसमभिनेयः । एवं हस्तान्तरेष्वपि रसवशात् अनुभावा: कार्याः ॥ -१६३-१६६- ॥
इति हंसपक्षः (१९) ___ (सु०) भ्रमरं लक्षयति-अङ्गुष्ठेति | अङ्गुष्ठमध्यमावगुल्यौ श्लिष्टे अग्रे तर्जनी यत्र, तद्वत् नम्रीभूतौ शेषे अनामिकाकनिष्ठिके ऊर्ध्व विरले च स्त:, स भ्रमराख्यो हस्तकः । तस्य विनियोगमाह-ग्रहण इति । अयं दीर्घनालकुसुमग्रहणे, कर्णपूरे, तालपत्रे, कण्टकोद्धरणादिषु च विनियुज्यते ॥-१६७, १६८-॥
इति भ्रमरः (२०)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
388 यत्राङ्गुष्ठानलग्नाश्च संहताङ्गुलयोऽखिलाः ॥ १६९ ॥ ऊर्ध्वाश्च मुकुलः स स्यात्पादिमुकुलाकृतौ । बलिकर्मणि देवानां पूजने भोजनादिषु ।। १७० ।। मुंहुर्विकास्य प्रकृति नीतो दाने त्वरान्विते । मुखचुम्बे तु कान्तानां संनिधौ विटचुम्बने ॥ १७१॥ कुचकक्षादिदेशस्थः स्यादाच्छुरितके करः। यदाङ्गुलीपञ्चकेन सशब्दं नखलेखनम् ।। १७२ ।। कुचादौ कामसूत्रज्ञास्तदाच्छुरितकं विदुः ।
इति मुकुल: (२१) पद्मकोशस्य यत्र स्युरगुल्यः पञ्च कुञ्चिताः ॥ १७३ ॥ ऊर्णनाभः स चौर्येण ग्रहे केशग्रहादिषु । शिरःकण्डूयने कार्यश्चिबुकक्षेत्रगौ च तौ ॥ १७४ ॥
(सु०) मुकुलं लक्षयति-यत्रेति । यत्र ; अगुष्ठानलग्नाः; अङ्गुष्टस्य अग्रेण लग्नमग्रं यासां, तथाविधाः, संहताः; मिलिताः, अखिला अप्यङ्गुलयः ऊर्ध्वाकाराश्च सन्ति ; स मुकुलाख्यो हस्तकः । स च, पद्मादिमुकुलाकृतौ; पद्ममुकुलाकारादिषु, बलिकर्मणि, देवानां पूजने, भोजनादिषु च विनियुज्यते । अयमेव मुकुल:, पुनः विकास्य ; विकासं प्राप्य, प्रकृति नीत: ; स्वभावं प्रापितश्चेत्, त्वरान्विते दाने कार्यः । अयमेव करः, कान्तानां संनिधौ मुकुलीकृत्य मुखचुम्बने, अथवा विटचुम्बने, विटाश्चुम्बन्तीति विटचुम्बनं तस्मिन् ; कुचकक्षादिदेशस्थः सन् आच्छुरितके विधीयते । आच्छुरितकलक्षणमाह-यदेति । यदा अगुलीपञ्चकेन कुचकक्षादौ, सशब्दनखलेखनं, तदा आच्छुरितकमिति कामसूत्रज्ञा आहुः ॥ -१६९-१७२- ॥
__ इति मुकुल: (२१) (सु०) ऊर्णनाभं लक्षयति-पद्मकोशस्येति । यत्र पूर्वोक्तपद्मकोशस्य पञ्च अगुल्यः कुञ्चिताः स्युः, स ऊर्णनाभः । तस्य विनियोगमाह- .
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संगीतरत्नाकरः
कार्यौ स्वस्तिक सिंहव्याघ्रादिनखरायुधे । इत्यूर्णनाभ: (२२)
अरालाङ्गुष्ठतर्जन्यौ लग्नाग्रे निम्नतां गतः ।। १७५ ।। किंचिचेत्तलमध्यस्थस्तदा संदेश उच्यते । स त्रेधा स्यादग्रजश्च मुखजः पार्श्वजः क्रमात् ।। १७६ ॥ प्राङ्मुखः संमुखः पार्श्वमुख इत्यस्य लक्षणम् । कण्टकोद्धरणे सूक्ष्मकुसुमावचयादिषु ।। १७७ ।। प्रयोक्तव्योऽग्रदशो धिगित्युक्तौ तु रोषतः । वृन्तात्पुष्पोद्घृतौ वर्तिशलाकाञ्जनपूरणे || १७८ || कर्तव्यो मुखसंदंशः संदंशः पार्श्वजः पुनः । गुणनिक्षेपणे मुक्ताफलानां वेधने तथा ।। १७९ ।। निरूपणे च तत्त्वस्य सद्वितीयोऽथ भाषणे । सरोषे वामहस्तेन किंचिदग्रविवर्तनात् ।। १८० ।। अलक्तकादिनिष्पेषेऽप्येष श्रीशार्ङ्गिणोदितः ।
इति संदंश: (२३)
स इति । सः ; ऊर्णनाभः चौर्येण केशादिषु ग्रहणे, शिरः कण्डूयने च कार्यः । सिंहव्याघ्रादिनखरायुधाभिनये, चिबुकक्षेत्रगौ, चिबुकक्षेत्रवर्तमानौ तौ द्वावूर्णनाभौ स्वस्तिकौ स्वस्तिकसंयुक्तौ कार्यौ ॥ - १७३, १७४- ॥
इत्यूर्णनाभः (२२)
(सु०) संदेशं लक्षयति — अरालेति । यत्र अराल एव अङ्गुष्टतर्जन्यौ परस्परलग्नाग्रे निम्नतां गते, किंचित् तलमध्यस्थे च भवतः, तदा संदेशो भवति । तस्य भेदानाह - स इति । संदशः त्रिविधः ; अग्रजः, मुखजः, पार्श्वज इति । प्राङ्मुख अग्रज: ; संमुखो मुखज: ; पार्श्वमुखः पार्श्वज इति । अस्य विनियोगस्तु — कण्टकोद्धरणे, सूक्ष्मकुसुमावचयादिषु च प्रथमः कार्यः । रोषत: विगित्युक्तौ ; वृन्तात् पुष्पोद्धरणे; वर्तिशलाकाअनपुरणे च द्वितीयः । मुक्ताफ
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सप्तमो नर्तनाध्यायः भ्रमरस्य तलस्थे चेत्कनिष्ठोपकनिष्ठिके ॥ १८१॥ ताम्रचूडस्तदा हस्तो बालाहानेऽथ भर्सने । गीतादितालमाने च शैघ्रयविश्वासनादिषु ॥ १८२ ॥ सशब्दच्युतसंदंशः कार्योऽसौ छोटिकोच्यते । प्रसारितकनिष्ठस्य मुष्टेर्यत्ताम्रचूडताम् ।। १८३ ॥ विनियोगं सहस्रादिसंख्यानिर्देशनेऽस्य च । केऽप्यूचुस्तत्तु निस्शङ्को नैच्छल्लक्ष्येष्वदर्शनात् ॥ १८४ ।।
इति ताम्रचूड: (२४)
इति चतुर्विशतिरसंयुतहस्ताः । अथ संयुतहस्ताः
पताकहस्ततलयोः संश्लोषादञ्जलिर्मतः । लानां गुणनिक्षेपणे, तथा च्छिद्रकरणे च तृतीयः कार्यः । तथा तत्त्वस्य निरूपणे सद्वितीयः, संयुक्तकरणेन कार्यः । एषः; संदशः वामहस्तेन किंचिदप्रविवर्तनात् सरोषभाषणे, अलक्तकादिनि:पेषेऽपि विनियोग इति शाङ्गदेवेन कथितम् ॥ -१७५-१८०- ॥
इति संदंश: (२३) (सु०) ताम्रचूडं लक्षयति-भ्रमरस्येति । भ्रमरस्य ; पूर्वोक्तभ्रमराख्यहस्तकस्य, कनिष्ठोपकनिष्ठिके ; कनिष्ठानामिके द्वे अगुल्यौ करतले यदा भवतः, तदा ताम्रचूडः । तस्य विनियोगमाह-बालेति । बालानामाह्वाने, भर्त्सने, गीतादितालमाने, शीघ्रार्थे, विश्वासने च, असौ ; ताम्रचूड: सशब्दं यथा तथा च्युतसंदशः कार्यः, स च छोटिकेत्युच्यते । मतान्तरमुपन्यस्य दूषयतिप्रसारितेति । प्रसारिता मुक्ता कनिष्ठिका यस्य, तथाविधा मुष्टिरचना ताम्रचूड इति । यद्यपि महाराष्ट्रदेशे, अस्य ताम्रचूडस्य सहस्रादिसंख्यागो निर्देशे प्रयोगे दृश्यते । तथाप्यन्यत्र लक्ष्येष्वदर्शनात् शार्ङ्गदेवो नैच्छत् ॥ -१८१-१८४- ॥
इति ताम्रचूड: (२४)
इति चतुर्विशतिरसंयुतहस्ताः । (सु०) अथ त्रयोदशसंयुतं हस्तकं लक्षयिष्यन् , तेवञ्जलिं लक्षयति
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संगीतरत्नाकरः
देवतागुरुविप्राणां नमस्कारेष्वयं क्रमात् ॥ १८५ ॥ कार्यः शिरोमुखोरस्थो नृभिः स्त्रीभिर्यथेष्टतः ।
इत्यञ्जलिः (१) कपोतोऽसौ करौ यत्र श्लिष्टमूलाग्रपाकौ ॥ १८६ ॥ अस्य कूर्मक इत्यन्यां संज्ञां हस्तविदो विदुः । प्रणामे गुरुसंभाषे विनयाङ्गीकृतौ त्वयम् ॥ १८७ ॥ पाङ्मुखः सशिरःकम्पः स्त्रीकापुरुषयोर्भवेत् ।
इति कपोत: (२) अन्योन्यस्यान्तरैर्यत्रागुल्यो निःसृत्य हस्तयोः ॥ १८८ ।।
अन्तर्वहिश्च दृश्यन्ते कर्कटः सोऽभिधीयते । पताकेति । पताकहस्ततलयोः संयोगात् अञ्जलिः । स च, शिरस्थः देवतानमस्कारे ; मुखस्थः गुरुनमस्कारे ; उरस्थः ब्राह्मणनमस्कारे च नृभिः पुरुषैः क्रमेण कार्यः । स्त्रीभिस्तु स्वेच्छयेति ॥ १८४-, १८५- ॥
इत्यजलि: (१) (क०) संयुतहस्तेषु कपोतलक्षणे-कपोतोऽसौ करौ यत्र श्लिष्टमूलाग्रपार्वकाविति । श्लिष्टमूलाग्रपार्श्वकाविति विशेषकथनात्तलयोर्विश्लिष्टत्वं गम्यते । तेनाञ्जलितोऽस्य वैलक्षण्यं द्रष्टव्यम् ॥ -१८६, १८७- ॥
___ इति कपोत: (२) (सु०) कपोतं लक्षयति-कपोत इति । शिष्टमूलाप्रपार्श्वको ; श्लिष्टं संबद्धं मूलमग्रं पार्श्व ययोः; तथाविधं करद्वयं यत्र, असौ कपोतः । अस्य विनियोगमाह-अस्येति । अस्य; कपोतस्य कूर्मक इत्यन्यां संज्ञां केचिदाहुः । अयं प्राङ्मुखः प्रणामे, गुरुसंभाषणे, विनयाङ्गीकरणे च कार्यः। स एव प्राङ्मुखः सन् यदि सशिरःकम्प: स्यात् , तदा त्रीकापुरुषयोश्च प्रयोज्यः।। १८६, १८७-॥
इति कपोत: (२)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अन्तःस्थितागुलिः कार्यश्चिन्तायामथ मर्षणे ॥ १८९ ॥ ऊर्ध्व पार्थेऽग्रतो वा स्यात्पराङ्मुखतलागुलिः । अङ्गानां मोटने चाथ बृहदेहे स्वसंमुखः ॥ १९० ॥ जठरक्षेत्रगः पृष्ठे त्वङ्गुलीनां हनुं दधत् । खेदे च संकुचत्किचिदन्योन्याभिमुखामुलिः ॥ १९१ ॥ शङ्खस्य धारणे सोऽयं जृम्भादौ वहिरगुलिः ।
इति कर्कटः (३) एकस्य मणिबन्धेऽन्यमणिबन्धस्थितौ करौ ॥ १९२ ।। देहस्य वामपार्थस्थावुत्तानौ स्वस्तिको मतः । अत्रारालौ पताकौ वाभिनये वशगौ करौ ॥ १९३ ।।
(क०) कर्कटहस्तविनियोगे-पराङ्मुखतलाङ्गुलिरिति । अत्र हस्तयोः पराङ्मुखतलागुलित्वं परस्परापेक्षया अभिनेत्रपेक्षया च द्रष्टव्यम् । बृहद्देहे स्वसंमुख इत्यत्र स्वशब्दोपादानादभिनेतृसंमुखत्वमेव ॥ -१८८-१९१-॥
इति कर्कट: (३) (सु०) कर्कटं लक्षयति-अन्योन्येति । यत्र द्वयोर्हस्तयोः अगुल्यः अन्योन्यस्य; परस्परं मध्ये निर्गत्य, अन्तर्वा बहिश्च दृश्यन्ते स कर्कटः । तस्य विनियोगमाह-अन्तरिति । अन्त:स्थितागुलिश्चेत् चिन्तायां, मर्षणे च कार्यः । ऊर्ध्वगो वा पार्श्वगो वा प्राङ्मुखतलागुलि: सन् अङ्गानां मोटने ; स्वसंमुखः सन् बृहदेहे; जठरक्षेत्रगः सन् अगुल्या हनुं धारयन् खेदे ; संकुच्य किंचिदन्योन्याभिमुखाङ्गुलि: सन् शङ्खधारणे ; बहिरङ्गुलि: सन् जृम्भादौ च कार्यः ॥ -१८८-१९१-॥
इति कर्कट: (३) (सु०) स्वस्तिकं लक्षयति–एकस्येति । यत्र एकस्य हस्तस्य मणिबन्धे, अन्यहस्तमणिबन्धस्योपरि स्थिते सति, उभावपि करौ उत्तानो
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संगीतरत्नाकरः विच्युतः स्वस्तिकः स्त्रीभिरेवमस्तीति भाषणे । गगने सागरादौ च विस्तीर्णे संप्रयुज्यते ॥ १९४ ॥
इति स्वस्तिक: (४) लम्बमानौ पताकौ तु श्लयांसौ शिथिलाङ्गुली । डोलो भवेदसौ व्याधौ विषादे मदमूर्छयोः ॥ १९५ ॥ संभ्रमादौ यथायोगं स्तब्धो वा पार्थडोलितः।
इति डोल: (५) सर्पशीर्षो मिलद्वाह्यपार्थः पुष्पपुटो भवेत् ॥ १९६ ॥ धान्यपुष्पफलादीनामपां च ग्रहणेऽर्पणे । कार्यः पुष्पाञ्जलौ चैष प्रोक्तः सोढलसूनुना ॥ १९७ ॥
इति पुष्पपुटः (६) देहस्य सव्यपार्श्वे तिष्ठतः, तदा स्वस्तिकः । अस्य विनियोगमाहअत्रेति । अत्राभिनेतव्यवशात् अरालौ वा पताको वा स्वस्तिको कार्यों । स च विच्युतः सन् स्त्रीभिः एवमस्तीतिभाषणे, गगने, विस्तीर्ण सागरादौ च कार्यः ॥ -१९२-१९४ ॥
__इति स्वस्तिकः (४) ___ (सु०) डोलं लक्षयति-लम्बमानाविति । पताकाख्यौ करौ लम्बमानौ स्रस्तांसौ शिथिलागुली यदा भवेतां, तदा डोलाख्यो हस्तकः । तस्य विनियोगमाह-असाविति । असो; डोल: व्याधौ, विषादे, मदे, मूर्छायाम् , संभ्रमादौ यथायोगं स्तब्धो निश्चलो वा, डोलायमानो वा यथा स्यात्तथा कार्यः ॥ १९५, १९६- ॥
इति डोलः (५) (सु०) पुष्पपुटं लक्षयति-सर्पशीर्ष इति । मिलद् बाह्यं पार्श्व ययोस्तथाविधौ द्वौ सर्पशीर्षों पुष्पपुटाख्यो हस्तकः । अस्य विनियोगमाहधान्येति । अयं च, धान्यपुष्पफलदीनां ग्रहणे, अपाम् अर्पणे, पुष्पाजलौ च कार्यः॥ -१९६-१९७॥
इति पुष्पपुट: (6)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अन्योन्यस्कन्धदेशस्थावरालौ स्वस्तिकीकृतौ । स्वसंमुखौ च विततावुत्सङ्गो गीयते करः ।। १९८ ॥ देहदक्षिणभागस्थं स्वस्तिकं केचिदूचिरे । अधस्तलत्वमप्यन्येऽन्योन्यकक्षानुवेशिनीः ॥ १९९ ॥ अङ्गुलीः करयोः पृष्ठद्वयं पार्श्वमुखं विदुः । करावरालयोः स्थाने सर्पशीर्षावितीतरे ॥ २० ॥ अतिप्रयत्रसाध्येऽर्थे शीतालिङ्गनयोरपि । प्रसाधनानङ्गीकारे लज्जादौ चैव योषिताम् ॥ २०१॥
इत्युत्सङ्गः (७) खटकामुखयोः पाण्योः स्वस्तिके मणिबन्धने । अन्योन्याभिमुखत्वे वा खटकावर्धमानकः ॥ २०२ ॥ ताम्बूलग्रहणादौ स्यात्कामिनां प्रथमे रसे । पुष्पाणां ग्रन्थने सत्यभाषणादौ मतान्तरे २०३ ॥ कुमुदोत्पलकुन्तेषु रूपणे शङ्खधारणे ।
इति खटकावर्धमानकः (८) । (सु०) उत्सङ्गं लक्षयति-अन्योन्येति । अन्योन्यस्कन्धदेशस्थौ अरालौ यत्र स्वस्तिकीकृत्य, स्वसंमुखौ ; स्वस्य पुरस्तात् विततौ चेत्, तदा उत्सङ्गः। मतान्तरमाह-केचिदिति । केचित् देहदक्षिणभागस्थ स्वस्तिकमाहुः । अन्ये तु अधोगततलाङ्गुलित्वमप्याहुः। परे तु पृष्ठद्वयं पार्धाभिमुखं यथा तथा करयोरगुली: अन्योन्यकक्षानुवेशिनी: यदा भवेयुः, तदा, उत्सङ्गमित्याहुः । इतरे अरालयोः स्थाने सर्पशीर्षावित्याहुः । अस्य विनियोगस्तु-अतिप्रयत्नसाध्येऽर्थे ; शीते ; आलिङ्गने, प्रसाधनानङ्गीकारे ; स्त्रीणां लज्जादौ च कार्य: १९८-२०१॥
इत्युत्सङ्गः (७) (क०) खटकावर्धमानम्य विनियोगे-प्रथमे मत इति । मणि
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संगीतरत्नाकरः स्कन्धकूपरयोर्मध्यमन्योन्यस्य यदा करौ ॥ २०४॥ दधाते सर्पशिरसौ गजदन्तस्तदोदितः । आकुश्चत्तूर्परौ स्कन्धदेशस्थौ सर्पशीर्षकौ ॥ २०५ ॥ अन्योन्याभिमुखौ लक्ष्म गजदन्ते जगुः परे । एष शैलशिलोत्पाटे गतागतयुतः करः ।। २०६ ॥ विवाहस्थाननयने स्याद्वधूवरयोरयम् । स्तम्भग्रहेऽतिभारे च श्रीसोढलमुतोदितः ॥ २०७॥
इति गजन्तः (९)
बन्धस्वस्तिकत्वपक्ष इत्यर्थः । मतान्तर इति । अन्योन्यसंमुखत्वपक्ष इत्यर्थः ।। २०२, २०३- ॥
इति खटकावर्धमानः (८) (१०) खटकावर्धमानं लक्षयति-खटकामुखयोरिति । खटकामुखयोः पाण्योः मणिबन्धे स्वस्तिके वा अन्योन्याभिमुखत्वे वा खटकावर्धमानो भवति । अस्य विनियोगस्तु-ताम्बूलग्रहणादौ; कामिनां प्रथमे रसे; शृङ्गाररसप्रयोजकेऽर्थे, पुष्पाणां च प्रथने च कार्यः । मतान्तरे तु सत्यभाषणदौ कुमुदानामुत्पलानां कुन्तानां च रूपणे, शङ्कस्य धारणे च कार्यः ॥२०२, २०३॥
इति खटकावर्धमानः (८) (क०) गजदन्तहस्तविनियोगे- एष इति प्रथमलक्षणलक्षितो निर्दिश्यते । अतः शैलशिलोत्पाटादिषु विनियोगस्तस्यैवेति ज्ञातव्यम् । अत्राभिनयहस्तानां भरतायुक्तासमस्तविनियोगाकथनं नृत्तेऽभिनयहस्तानामप्राधान्यज्ञापनार्थम् । अथ नृत्तहस्तादीनामपि चतुरश्रादीनां सगाद्याकर्षणादभिनय दिवप्रदर्शनम् , “ सूच्यन्तेऽन्ये माहचर्यात्' इति पूर्वोक्त
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वक्षसोऽभिमुखौ सन्तौ शुकतुण्डावधोमुखौ । कृत्वा नीतावधो यत्र सोऽवहित्थोऽभिधीयते ॥ २०८ ॥ दौर्बल्यौत्सुक्यनिःश्वासगावकार्येष्वसौ भवेत् ।
इत्यवहित्थः (१०) मुकुलस्य कपित्थेन वेष्टनानिषधो भवेत् ॥ २०९ ॥
शास्त्रार्थसम्यग्ग्रहणे स स्यान्निष्पेषणे तथा। स्यार्थस्य निर्वाहार्थमभिनये नृत्तस्य संनिपत्योपकारकाङ्गत्वं दर्शयितुं चेति मन्तव्यम् ।। -२०४-२०७ ॥
इति गजदन्तः (९) (सु०) गजदन्तं लक्षयति-स्कन्धेति । यत्र सर्पशिरसौ करौ स्कन्धकूर्पयोः मध्यप्रदेशं यदा दधाते तदा गजदन्तः । मतान्तरमाह-पर इति । परे; आचार्या: आकुञ्चितौ कूर्परौ ययोः, तथाविधौ स्कन्धदेशे वर्तमानौ अन्योन्याभिमुखौ सर्पशीर्षको लक्ष्म जगुः । अस्य विनियोगमाह-एष इति । एषः; गजदन्तः गतागतयुतः सन् शैलोत्पाटने, वधूनां वराणां च विवाहस्थाननयने, स्तम्भग्रहणे, अतिभारे च कार्यः ॥ -२०४-२०७ ॥
____ इति गजदन्तः (९) (सु०) अवहित्थं लक्षयति-वक्षस इति । यत्र शुकतुण्डाख्यौ हस्तो पूर्व वक्षःसंमुखौ, पश्चादधोमुखौ कृत्वा, अधःप्रदेशे च यत्र नीतौ सोऽवहित्थः । अस्य विवियोगस्तु-दौर्बल्ये ; औत्सुक्ये ; नि:श्वासे ; गात्रकार्ये च कार्यः ॥ २०८, २०८-॥
इत्यवहित्थः (१०) (सु०) निषधं लक्षयति-मुकुलस्येति । कपित्थेन संवेष्टनात मुकुल एव निषधो भवति । अस्य विनियोगमाह-शास्त्रार्थेति । सः ; निषधः, शास्त्रार्थादेः
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संगीतरत्नाकरः सम्यक्च रथापिते तथ्यमिदमित्यभिभाषणे ॥ २१० ॥ प्रथमं गजदन्तं तु निषधं केचिदूचिरे । स शौर्यधैर्यगाम्भीर्यगर्वादिषु मतस्तथा ॥ २११ ॥
इति निषधः (११) उपर्युपरि विन्यस्तौ यत्रान्योन्यमधोमुखौ । ऊर्ध्वाङ्गुष्ठौ पताकाख्यौ करौ स मकरः स्मृतः ॥ २१२ ।। स नक्रमकरादीनां क्रव्यादद्वीपिनामपि । सिंहादीनामभिनये नदीपूरस्य चेष्यते ॥ २१३ ॥
इति मकरः (१२) हंसपक्षौ स्वस्तिकत्वं प्राप्तौ यदि पराङ्मुखौ । वर्धमानस्तदा हस्तः कपाटोद्घाटने भवेत् ।। २१४ ॥
सम्यग्ग्रहणे ; निष्पेषणे ; सम्यक्स्थापिते ; इदं तथ्यमित्यभिभाषणे च कार्यः । मतान्तरमाह-केचिदिति । केचित् आचार्याः, प्रथमं तु गजदन्तं निषधमाहुः । स: शौयधैर्यगाम्भीर्यगर्वादिषु प्रयुज्यते ॥ -२०९-२११ ॥
___ इति निषधः (११) (सु०) मकरं लक्षयति-उपरीति । यत्र पताको उपर्युपरि विन्यस्तो अन्योन्यमधोमुखौ ऊर्ध्वाङगुष्ठौ च क्रियेते स मकरः । अस्य विनियोगमाहस इति । स ; मकर: नक्रमकरादीनां जलजन्तूनाम् , क्रव्यादद्वीपिनां सिंहादीनां मांसभक्षिणाम् , नदीपूरस्य वाप्यादेरभिनयप्रदर्शने च कार्यः ॥ २१२, २१३ ॥
इति मकर: (१२) (सु०) वर्धमानं लक्षयति-हंसपक्षाविति । यत्र हंसपक्षौ स्वस्तिकत्वं नीती, करौ च पराङ्मुखौ भवतः, स वर्धमानः । अस्य विनियोगमाह
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सप्तमो नर्तनाध्यायः विच्युतः स्वस्तिकस्तद्वद्वक्षःस्थलविदारणे । सर्पशीर्षों हंसपक्षस्थानेऽस्मिन्नपरे जगुः ॥ २१५ ॥ अपरेऽभ्युपजग्मुस्तं स्वस्तिकेन विना कृतम् ।
___ इति वर्धमानः (१३)
इति त्रयोदशसंयुतहस्ताः । पुरोमुखौ समस्कन्धकूपरौ खटकामुखौ ॥ २१६ ॥ स्थितौ वक्षःपुरोदेशे वक्षसोऽष्टाङ्गुलान्तरे । चतुरश्राविति मोक्तौ स्रगाद्याकर्षणे करौ ॥ २१७ ॥
. इति चतुरश्रौ (१) कपाटेति । एष कपाटोद्धाटने कार्यः । यदा यिच्युतः सन् स्वस्तिकत्वमाप्नोति, तदा वक्षःस्थलविदारणे प्रयुज्यते । मतान्तरमाह-सर्पशीर्ष इति । अपरे आचार्याः, अस्मिन् वर्धमाने हंसपक्षस्थाने सर्पशीर्षमाहुः । परे त्वाचार्याः तं वर्धमानं स्वस्तिकेन विना अभ्युपजग्मुः ॥ २१४, २१५- ॥
इति वर्धमानः (१३)
इति त्रयोदशसंयुतहस्ताः । (क०) नृत्तहस्तेषु चतुरश्रयोर्लक्षणे-पुरोमुखाविति । प्रयोक्ता यदिङ्मुखोहस्तयोरपि तद्दिङ्मुखत्वमेव पुरोमुखत्वं द्रष्टव्यम् । न विन्द्रदिङ्मुखत्वं प्रयोक्तृसंमुखत्वं वा ॥ २१६०, २१७ ॥
इति चतुरश्रौ (१) (सु०) अथ त्रिंशन्नृत्तहस्तान् लक्षयति-पुरोमुखाविति । प्रागभिमुखौ समानस्कन्धकूपरौ पूर्वोक्तखटकामुखौ वक्षसोऽष्टादशाङ्गुलन्तरे वक्षःपुरोदेशे वर्तमानौ चतुरश्राख्यौ करौ भवतः । तयोविनियोगस्तु--स्रगाद्याकर्षणे कार्यों ॥ २१६-, २१७ ॥
इति चतुरश्रौ (१)
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संगीतरत्नाकरः चतुरश्रीकृत्य पाण्योः कृतयोंईसपक्षयोः । उत्तानोऽधो व्रजत्येको वक्षोऽन्यो यात्यधोमुखः ॥ २१८ ॥ यदा स्यातां तदोवृत्तौ तालसन्तनिरूपणे । तावेव तालवृन्ताख्याववदन् नृत्तकोविदाः ॥ २१९ ॥ प्राङ्मुखौ हंसपक्षाख्यौ व्यावृत्तिपरिवर्तितौ । जयशब्दे प्रयोक्तव्यावुद्वृत्तौ मेनिरे परे ॥ २२० ॥
इत्युवृत्तौ (२) भूत्वोवृत्तौ स्थितौ व्यश्री हंसपक्षौ स्वपाईयोः । जातौ मिथः संमुखस्थतलौ तलमुखौ मतौ ॥ २२१ ॥ बुधैरभिदधाते तो मधुरे मर्दलध्वनौ ।
इति तलमुखौ (३) (क०) उद्वृत्तहस्तयोद्वितीयलक्षणे-व्यावृत्तपरिवर्तिताविति । व्यावृत्तोऽन्तर्वर्तितः, परिवर्तितो बहिर्वर्तित इत्यर्थः ॥ २१८-२२० ॥
इत्युदात्तौ (२) (सु०) उवृत्तयोर्लक्षणमाह-चतुरश्रीकृत्येति । द्वौ हस्तौ चतुरश्रीकृत्य, तत: तयोः हंसपक्षीकृतयोः मध्ये एक उत्तान: सन् यद्यधो गच्छति, अपर अधोमुखः सन् वक्षःप्रदेशमागच्छति, तदा उद्वृत्ताख्यौ हस्तौ भवतः । एतौ तालवृन्ताभिनये नियुज्यते । नृत्तकोविदा: तावेव तालवृन्ताख्यावित्यवदन् । मतान्तरमाह-प्राङ्मुखाविति | सव्यापसव्यभ्रमणे व्यावृत्तपरिवर्तितेन त्यक्तौ हंसपक्षौ उवृत्ताविति परे मेनिरे । अनयोविनियोगस्तु-जयशब्दे प्रयोक्तव्याविति ॥ २१८-२२० ॥
इत्युत्तौ (२) (सु०) तलमुखयोर्लक्षणमाह-भूत्वेति । यत्र हस्तौ उदृत्तौ भूत्वा,
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सप्तमो नर्तनाध्याय: अश्लिष्टहंसपक्षाभ्यां स्वस्तिकः स्वस्तिकौ करौ ॥ २२२ ॥
इति स्वस्तिकौ (४) विप्रकीर्णौ तु तावेव सहसा स्वस्तिके च्युते । नीचाग्रावुन्नतायौ वा कुचाभ्यां पुरतः स्थितौ ।। २२३ ।। पराङ्मुखौ हंसपक्षौ विप्रकीरें जगुः परे ।
इति विप्रकीर्णो (५) पताकस्वस्तिकं कृत्वा व्यावृत्तिपरिवर्तने ॥ २२४ ॥ तत: त्र्यश्री विषमौ स्थितौ यौ, तौ हंसपक्षौ परस्परसंमुखतलौ जातौ चेत् , तदा तलमुखौ भवतः । अनयोविनियोगमाह-बुधैरिति । बुधैः, तौ तलमुखौ मधुरे मर्दलध्वनौ ; मृदङ्गनादे प्रयोगमभिदधाते ॥ २२१, २२१- ॥
इति तलमुखौ (३) (सु०) स्वस्तिकयोर्लक्षणमाह--अश्लिष्टेति । अश्लिष्टाभ्याम् असंयुक्तहस्तकाभ्यां पूर्वोक्तः स्वस्तिकः कृतश्चेत्, तदा स्वस्तिकाख्यौ हस्तौ भवतः ॥ -२२२ ॥
इति स्वस्तिकौ (1) (सु०) विप्रकीर्णयोर्लक्षणमाह-विप्रकीर्णाविति । तावैव स्वस्तिको सहसा च्युतौ सन्तौ विप्रकीर्णावित्युच्यते । मतान्तरेणान्यथा लक्षयतिनीचाप्राविति । नीचमनं ययोः, तथाविधौ उन्नतायौ यदा कुचाभ्यां पुरस्तात् विद्यमानौ हंसपक्षौ पराङ्मुखो असंमुखौ चेत्, विप्रकीर्णावित्यन्ये अवादिषुः ॥ २२३, २२३- ॥
इति विप्रकीर्णो (५) । (क०) अरालखटकामुखयोर्लक्षणे- पताकस्वस्तिकं कृत्वेति ।
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संगीतरत्नाकरः ऊर्ध्वास्यौ पद्मकोशौ च व्यात्तिपरिवर्तने । कमात्कृत्वा यत्र वाममुत्तानारालमाचरेत् ॥ २२५ ॥ खटकामुखमन्यं वाधोमुखं चतुरश्रतः । स्वस्तिकेनाथवा यद्वा कृत्वारालौ करावुभौ ॥ २२६ ॥ खटकामुखसंज्ञौ तावरालखटकामुखौ । वणिजां सचिवादीनां वितऽसौ प्रयुज्यते ॥ १२७ ॥ अन्ये त्वाहुरुरोग्रस्थः प्राङ्मुखः खटकामुखः । अरालः पोन्नतापोऽन्यस्तिर्यगीषत्मसारितः ॥ २२८ ॥ पार्श्वव्यत्ययतो यद्वा स्वपार्थे चेत्करौ स्थितौ । तलान्तरौ तदा स्यातामरालखटकामुखौ ।। २२९ ।।
इत्यरालखटकामुखौ (६) पताकहस्तयोः स्वस्तिकमित्यनेन मणिबन्धकृतः स्वस्तिको गम्यते । विशेषानभिधानात् । व्यावृत्तिपरिवर्तने इत्यत्र कृत्वेत्यनुषञ्जनीयम् । ततः पद्मकोशाविति द्विवचनोपादानेन स्वस्तिकत्वं तयोर्नेष्यत इति ज्ञायते । अतस्तयोयावृत्तिपरिवर्तने कमात्कृत्वेत्यन्वयः । अत्रापि पताकस्वस्तिकवदेव पद्मकोशयोरपि स्वस्तिकं कृत्वा व्यावृत्तिपरिवर्तनयोः क्रियमाणयोन चारुतातिशय इति मत्वा, अभिनवगुप्तपादैर्नलिनीपद्मकोशोक्तवर्तना कर्तव्येत्यवधारितम् । सा च यथा
" अन्योन्यसंमुखौ सन्तौ संश्लिष्टमणिबन्धको । पद्मकोशौ पृथक्प्राप्तौ व्यावृत्तिपरिवर्तने ॥
नलिनीपद्मकोशौ स्तः" इति वक्ष्यमाणनलिनीपद्मकोशानुगुणलक्षणानुसारेणात्र पद्मकोशयोावृत्ति
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
भुजाग्रयोः कूर्परयोरंसयोः सविलासयोः ।
सतोः पताकौ व्यावृत्तिं विधाय भवतो द्रुतम् ॥ २३० ॥ अधस्तलौ चेदाविद्धवक्त्रौ हस्तौ तदोदितौ । विक्षेपवलने प्राहुः प्रयोगं कृतिनस्तयोः ।। २३१ ॥ इत्याविद्धत्रस्त्रौ (७)
६३
I
परिवर्तने कर्तव्य इति नाट्याचार्यसंप्रदायोऽवगन्तव्यः । किंचात्र पद्मकोशयोः क्रियायां क्रमादित्युच्यते, तत्र पताकस्वस्तिकस्य पद्मकोशयोश्च वचनक्रमेणैव क्रियाक्रमस्यावगतत्वात्तदर्थमनर्थकं क्रमग्रहणं पद्मकोशयोर्व्यावृत्तिपरिवर्तनक्रियाक्रमस्यापि पाठक्रमेणैवावगतत्वात्तदर्थमप्यनर्थकं सदूर्ध्वस्थयोः पद्मकोशयोरेकस्य व्यावृत्तिमितरस्य परिवृति तथा परिवर्तितस्य व्यावृत्तिमव्यावर्तितस्य परिवर्तनं च क्रमात्कृत्वेतज्ज्ञापयतीति ग्रन्थकाराभिप्रायो वेदितव्यः ॥ -२२४–२२९ ॥
इत्यरालखटकामुखौ (६)
(सु०) मरालखटकामुखयोर्लक्षणमाह-पताकेति । पताकस्वस्तिका - नन्तरं पूर्वोक्तव्यावृत्तिपरिवर्तने, तत ऊर्ध्वायौ ऊर्ध्वमुखौ, पद्मकोशौ च व्यावृत्तिपरिवर्तने क्रमात्कृत्वा, यत्र वामम्; वामहस्तमुत्तानमरालं कुर्यात्, अन्यं खटकामुखं च अधोमुखं कुर्यात् । तत: चतुरश्रः, अथवा स्वस्तिकेन, यद्वा अरालौ करौ कृत्वा, खटकामुखौ द्वौ करौ स्यातां तदा अरालखटकमुखौ । असौ वणिजां, सचिवादीनां वितर्के प्रयुज्यते । मतान्तरमाह - अन्ये त्विति । अन्ये आचार्याः, खटकामुखः करः पूर्वाभिमुख: अग्रे तिष्ठन्, अन्यस्तु कर: अराल: अत्युन्नताप्र: तिर्यक्प्रदेशे किंचित्प्रसारितः, द्वावपि करौ पार्श्वत्र्यत्यासेन स्वपार्श्वे वा वक्ष्यमाणतलान्तरौ स्थितौ सन्तौ मरालखटकामुखौ भवेतामिति ॥ -२२४-२२९ ॥ इत्यरालखटका मुखौ (६)
(क०) आविद्धवक्त्रयोर्विनियोगे - विक्षेपवलन इति । विशेष:
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संगीतरत्नाकरः मध्यमासंगतागुष्ठौ चतुरश्रप्रदेशगौ । सर्पशीर्षों क्रमात्तिर्यक्रसरन्तौ प्रदेशिनीम् ॥ २३२ ॥ बहि प्रसारितां धत्तो यदा सूचीमुखौ तदा । पताको प्रथमं कायौं व्याहत्तपरिवर्तितौ २३३ ॥ भ्रान्त्वा प्रसारणं चात्र विशेष केचिदूचिरे । मध्यप्रसारितागुष्ठौ सर्पशीर्षाकृती करौ॥ २३४ ॥ रेचितस्वस्तिको केचिदूचुः सूच्यास्यलक्षणम् ।
इति सूच्यास्यौ (6) संभ्रमः । तेन वलनं वक्रतया गमनम् ; तस्मिन् ॥ २३०, २३१ ॥
___ इत्याविद्धवक्त्रौ (७) (सु०) आविद्धवक्त्रयोर्लक्षणमाह--भुजाप्रयोरिति । भुजाग्रेषु कूर्परांसेषु सविलासेषु सक्तौ द्वौ पताको करौ व्यावृत्ति विधाय, यदि अधस्तले भवेतां तदा
आविद्धवक्त्रौ हस्तौ उदितौ । कृतिनः नृत्तशास्त्रज्ञाः, तयोः विक्षेपवलने; विक्षेपेण संभ्रमेण कार्यव्यग्रतया वलने गमने प्रयोग इत्याहुः ॥ २३०, २३१ ॥
इत्याविद्धवक्त्रौ (७) (क०) सूच्यास्ययोलणे-चतुरश्रपदेशगाविति । अत्र चतुरश्रयोः प्रदेशो वक्षसोऽष्टाङ्गुलान्तरो वक्षःपुरोदेशः । तत्र गताविति तथोक्तौ । सर्मशीर्षों कमात्स्वयं तिर्यक्प्रसरन्तौ बहिःप्रसारितां प्रदेशिनीं यदा धत्तस्तदा सूचीमुखावित्यन्वयः ॥ २३२-२३४- ।।
___इति सूच्यास्यौ (6) (सु०) सूच्यास्ययोर्लक्षणमाह-मध्यमेति । मध्यमया संगतौ संलग्नौ, अङ्गुष्ठौ ययोः, तथाविधौ चतुरश्रप्रदेशगौ सर्पशीर्षों, क्रमात् तिर्यक् प्रसरन्तौ बहिःप्रसारितां प्रदेशिनी यदा धत्तः, तदा सूच्यास्यौ भवतः । मतान्तरेण
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सप्तमो नर्तनाध्यायः प्रसारितोत्तानतलावुच्येते रेचितौ करौ ॥ २३५ ॥ अथवा रेचितौ प्रोक्तौ हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ । यद्वा रेचितयोर्लक्ष्म लक्षणे मिलिते इमे ॥ २३६ ॥ प्रयोज्यौ तौ नृसिंहस्य दैत्यवक्षोविदारणे ।
इति रेचितौ (९) एकेन चतुरश्रेण तौ स्यातामर्धरेचितौ ॥ २३७ ॥
इत्यर्धरेचितौ (१०) विशेषमाह-पताकाविति । प्रथमं पताको हस्तकौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ विधाय, ततः भ्रान्त्वा प्रसारणं चात्र केचित् विशेषमाहुः । मतान्तरेण अन्यथा लक्षयति-मध्येति | मध्ये प्रसारिते अष्ठे ययोस्तथाविधौ सर्पशीर्षी हस्तौ रेचितस्वस्तिको चेत्तदा सूच्यास्ययोर्लक्षणं केचित्कथयन्ति ॥ २३२-२३४-॥
___ इति सूच्यास्यौ (८) (क०) रेचितयोर्लक्षणे- यद्वा रेचितयोर्लक्ष्म लक्षणे मिलिते इमे इति । इमे पूर्वोक्ते द्वे लक्षणे मिलिते सती रेचितयोर्लक्ष्मेति तृतीयं लक्षणम् । तौ तृतीयलक्षणलक्षितौ रेचितौ । नृसिंहस्य दैत्यवक्षोविदारणे प्रयोज्याविति तयोरेव विनियोगः ।। -२३५, २३६. ॥
इति रेचितौ (९) (सु०) रेचितयोलक्षणमाह-प्रसारितेति । प्रसारितमुत्तानतलं ययोस्तथाविधौ करौ रेचिताविच्युते । अथवा द्रुतभ्रामिती ; शीघ्रं भ्रामितौ हंसपक्षौ रेचिताविति । यद्वा मिलिते इमे लक्षणे रेचितयोर्लक्षणे ज्ञातव्ये । तौ नृसिंहस्य दैत्यवक्षोविदारणे प्रयोज्यौ ॥ -२३५, २३६- ॥
___ इति रेचितौ (९) (सु०) अर्धरेचितयोर्लक्षणमाह-एकेनेति । पूर्वोक्तरेचितहस्तकयोर्मध्ये एककर: चतुरश्चेत्, तदा अर्धरेचितौ ॥ -२३७ ॥
इत्यर्धरेचितौ (१०)
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संगीतरनाकरः उत्तानाधोमुखत्वाभ्यां क्रमेण स्कन्धदेशतः । पताको यदि निष्क्रम्य नितम्बक्षेत्रवर्तिनौ ॥ २३८ ॥ रेचकं कुरुतो हस्तौ नितम्बावुदितौ तदा ।
इति नितम्बौ (११) बाहू व्यावर्तितेनोवं प्रसार्य परिवर्तितः ।। २३९ ॥ स्वस्तिकाकृतितां नीतौ पताको पल्लवौ मतौ । शिथिलौ त्रिपताकौ तु केचिदत्र प्रचक्षते ॥ २४० ।।
(क०) नितम्बयोर्लक्षणे-उत्तानाधोमुखत्वाभ्यां क्रमेणेति । उत्तानाधोमुखत्वे क्रमेण भवतः । नैककालमेवेति मन्तव्यम् । अन्यथा द्वयोरुत्तानत्वं द्वयोरप्यधोमुखत्वं ताभ्यामित्युक्तं क्रमेणेति पदमनर्थकं स्यात् । हस्तयोस्तथाभावस्य विना क्रमेण संभवात् । एवं हि सार्थकत्वं भवति । पूर्व यस्योत्तानत्वं भवति तस्याधोमुखत्वं, यस्याधोमुखत्वं तस्योत्तानत्वमिति ज्ञायमान उत्तानाधोमुखत्वे क्रमेण संभवतः । न हस्तयोर्योगपद्येनोत्तानत्वमधोमुखत्वं चेति व्यवच्छेद्यस्य संभवात् । किंच क्रियावैचित्र्याच्छोभातिशयलाभोऽपि भवति ॥ २३८, २३८- ॥
___ इति नितम्बौ (११) (मु०) नितम्बयोलक्षणमाह-उत्तानेति । पताकहस्तौ क्रमेण उत्तानोऽधोमुखौ स्कन्धप्रदेशात् निःसृत्य, यदि नितम्बक्षेत्रे विद्यमानौ यदा वक्ष्यमाणरेचकं कुरुत:, तदा नितम्बाख्यौ हस्तकौ भवतः ॥ २३८, २३८-॥
इति नितम्बौ (११)
(सु०) पल्लवयोर्लक्षणमाह-बाहू इति । व्यावर्तितेनोपलक्षितौ पताकाख्यौ बाहू ऊर्ध्वं प्रसार्य, परिवर्तितेन स्वस्तिकाकृतितां नीतौ प्रापितौ पताको
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सप्तमो नर्तनाध्यायः नतोनतौ पद्मकोशौ शिथिलौ मणिबन्धयोः । स्वपार्श्वयोः पुरस्ताद्वा पल्लवाववदन्परे ।। २४१ ॥ पद्मकोशकरस्थाने पताकावपरे जगुः ।
इति पल्लवौ (१२) पार्श्वदेशोत्थितौ पार्थमस्पृशन्तौ गतौ शिरः ॥ २४२ ॥ नितम्बवत्केशदेशान्निष्क्रम्य च पुनः पुनः । पृथग्गतागतौ यौ तौ केशबन्धौ करौ मतौ ॥ २४३ ॥
इति केशबन्धौ (१३) पल्लवावित्युच्यते । मतान्तरमाह-शिथिलाविति । अत्र पताकस्थाने शिथिलौ त्रिपताकाविति केचिदाहुः । अन्ये तु पद्मकोशाख्यौ हस्तौ मणिबन्धयो: श्लथत्वेन नतोन्नतौ स्वपार्श्वयोः पुरस्ताद्वर्तमानौ पल्लवावित्याहुः । पद्यकोशस्थाने पताकाविति केचित् ॥ -२३९-२४१- ॥
इति पल्लवौ (१२) (क०) केशबन्धयोर्लक्षणे-नितम्बवदित्यतिदेशेनात्रापि क्रमेणोत्तानाधोमुखत्वाभ्यामित्येतदनुसंधेयम् । एवं पार्श्वदेशाच्छिरःपर्यन्तं गतौ तथा । केशदेशानिष्क्रम्य च पुनः पुनः पृथग्गतागताविति । यदैकः केशदेशानिर्गच्छति, तदा अन्यः केशदेशं प्रत्यागच्छति । एवं पौन:पुन्येन पृथग्गतागतौ यौ हस्तौ तौ केशबन्धाविति संमतौ ॥ -२४२, २४३ ॥
इति केशबन्धौ (१३) (सु०) केशबन्धयोर्लक्षणमाह-पार्श्वदेशेति । यत्र करौ पार्श्वदेशादुत्थाय पार्श्वमस्पृशन्तौ शिरःप्रदेशं गतौ प्राप्तौ, पूर्वोक्तनितम्बहस्तकवत् केशप्रदेशात् निःसृत्य मुहुर्मुहुः प्रत्येकं गतागतौ यौ हस्तौ तौ केशबन्धाविति ॥-२४२,२४३॥
इति केशबन्धौ (१३)
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संगीतरत्नाकरः कपोलांसललाटानां क्षेत्रे त्वन्यतमे स्थितौ । त्रिपताको करौ किंचित्तिर्यश्चौ संमुखौ मिथः ॥ २४४ ॥ अंसकूर्परयोः किंचिञ्चलतोरूर्वतस्तलौ । क्षणं भूत्वा प्रचलितौ ज्ञेयावुत्तानवश्चितौ ।। २४५ ॥ अंसकूपरयोः किंचित्पतनं मन्वते परे ।
____ इत्युत्तानवञ्चितौ (१४) पताको डोलितौ तिर्यक्पसृतौ तौ लताकरौ ॥ २४६ ॥ अनयोः करयोः केशवन्धयोश्च नितम्बयोः । त्रिपताकाकृति केचिदाचार्याः प्रतिजानते ॥ २४७ ॥
इति लताकरौ (१५) (क०) उत्तानवञ्चितयोर्लक्षणे-ऊर्ध्वतस्तलावित्यत्रोत्तानत्वं, प्रचलितावित्यत्र वञ्जितत्वं च द्रष्टव्यम् ॥ २४४, २४५- ॥
इत्युत्तानवञ्चितौ (१४) (सु०) उत्तानवञ्चितयोर्लक्षणमाह-कपोलेति । कपोलादीनामन्यतमे क्षेत्रे स्थितौ त्रिपताको हस्तौ, तिर्यक् गत्वा परस्परसंमुखौ अंसकूर्परयोः किंचित् चलतोः ऊर्ध्वतस्तलौ प्रचलितौ सन्तावुत्तानवञ्चिताख्यौ भवत: । केचित् अंसपरयोः किंचिन्नमनं मन्यन्ते ।। २४४, २४६- ॥
इत्युत्तानवचितौ (१४) (सु०) लताकरयोर्लक्षणमाह-पताकाविति । यत्र पताकाख्यौ हस्तौ, डोलितौ तिर्यक् प्रसृतौ भवतः, तदा लताकरौ स्तः। अनयोः करयो: केशबन्धयोः नितम्बयोश्च त्रिपताकाकृति केचिदाचार्या प्रतिजानते ॥ -२४६, २४७ ॥
इति लताकरौ (१५)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः स्पृशत्करिकराकारः पार्थयोश्चेल्लताकरः। उन्नतो दोलितोऽन्यस्तु कर्णस्थः खटकामुखः॥ २४८ ॥ त्रिपताकोऽथवा यत्र करिहस्तममुं विदुः । नन्वन्यहस्तवत्कस्मानात्र द्विवचनं कृतम् ॥ २४९ ॥ ब्रूमो यत्रैकशब्देन सजातीयावुभौ करौ । उक्तौ तत्र द्विवचनं घटवच्चतुरस्रवत् ॥ २५० ॥ भिन्नशब्दौ विजातीयौ यो वा द्विवचनं तयोः । यथा घटपटौ स्यातामरालखटकामुखौ ॥ २५१ ॥
(क०) करिहस्तस्य लक्षणे-स्पृशत्करिकराकार इति । करिणः करः करिकरः । स्पृशंश्चासौ करिकरश्च, तस्याकार इवाकारो यस्येति बहुव्रीहिः । यथा करी स्वकरेण पार्श्वस्थितद्रुमादि स्पृशति, तदा पार्श्वप्रसारितस्य तत्करस्य य आकारस्तमनुकुर्वाण इत्यर्थः । अत्र चतुराश्रादयो नृत्तहस्ताश्चतुरश्रावित्येवं द्विवचनेनैवोद्दिष्टा । तथैव लक्ष्यन्ते लक्षयिष्यन्ते च नृतहस्तत्वाविशेषेऽप्ययं करिहस्ताविति नोद्दिष्टः । किंतु करिहस्तश्चेत्येकवचनेनोद्दिष्टः । तथैव ‘करिहस्तममुं विदुः' इति लक्ष्यते च । तत्कथमुपपद्यते ? इत्यभिप्रायेण पृच्छति-नन्वन्यहस्तवदिति ।
___ अत्र द्विवचनाश्रयणे सजातीयार्थवाचकयोरेकरूपयोः शब्दयोरेकशेषश्चतुरश्रावित्यादिषु निमित्तत्वेन स्वीकृतः । तथा विजातीयार्थवाचकयोभिन्नरूपयोः शब्दयोस्तु द्वन्द्वः, 'अरालखटकामुखौ' इत्यत्र निमित्तत्वेन स्वीकृतः। करिहस्त इस्यत्र तु द्वन्द्वैकशेषयोरेकतरासंभवाद्विवचनानुपपत्तौ सत्यामेकवचनमेव सम्यगाश्रितमिति प्रतिपादयिष्यन् परिहरति-ब्रमो यत्रेत्यादिना । सजातीयौ चरश्रत्वाद्याकारेण समानजातीयावुभौ करावेकशब्देन चतुरश्रादिकशब्देन यत्रोक्तौ तत्र घटवत् , घटश्च घटश्च घटाविति । यथा चतुरश्रवत् ,
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७०
संगीतरत्नाकरः
करिहस्ताकृतिस्त्वेको दृश्यतेऽत्र लताकरः । इतिकर्तव्यता त्वन्या स्यादेकवचनं ततः ।। २५२ ॥ न चात्र करिहस्तत्वमेकैकत्र घटत्ववत् ।
न चात्रैः करीहस्त शब्दवाच्योऽपरः करः ।। २५३ ।। नैकशेषो न च द्वन्द्वो यतो द्विवचनं भवेत् । आश्रितं चैकवचनं मुनिना सर्वदर्शिना ।। २५४ || इति करिहस्तः (१६)
चतुरश्रश्च चतुरश्राविति यथा तथोद्वृत्तादिषु द्विवचनमेकशेषेण कृतमित्यर्थः । यौ वा करौ विजातीयौ विविधजातीयौ भिन्नशब्दवाच्यावित्यर्थः । तयोः करयोर्घटपटौ यथा स्यातां तथा अरालखटकामुखाविति द्विवचनं द्वन्द्वेन भवेदिति भावः ।
प्रकृते द्वन्द्वैकशेषयोरभावं दर्शयितुमाह- करिहस्ताकृतिस्त्वेक इति । द्वितीयस्य करस्य क उपयोग इत्याकाङ्क्षायामाह - इतिकर्तव्यता त्वन्येति । अन्येति क्रियापरत्वेन स्त्रीलिङ्गत्वम् । अन्या द्वितीया करक्रिया | इतिकर्तयताङ्गमित्यर्थः । एकस्मिन्करे करिहस्ताकृतौ कृते सति ततो द्वितीयस्य खटकामुखस्य त्रिपताकस्य वा कर्णाभ्यर्णस्थितिः करिकर्णानुकरणेन करिहस्तस्यैवोपकारिकेति तदङ्गत्वम् । ततः कारणादेकवचनमेव स्यादिति निगमनम् । एवमनभ्युपगच्छन्तं प्रत्याह-न चात्रेति । प्रतिपादितेऽर्थे संमतिं दर्शयन्नाह - आश्रितमिति । यथाह मुनि:
""
'समुन्नतो लताहस्तः पश्चात्पार्श्वविलोलितः ।
त्रिपताकोऽपरः कर्णे करिहस्तः प्रकीर्तितः ॥
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इति ॥ २४८-२५४ ॥
इति करिहस्तः (१६)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः त्रिपताको कटीशीर्षे न्यस्तायौ पक्षवश्चितौ ।
इति पक्षवचितौ (१७) तौ पार्थाभिमुखाग्रौ तु पक्षप्रयोतको मतौ ॥ २५५ ॥ उत्तानौ केचिदन्ये तूर्ध्वाङ्गुली च पराङ्मुखौ ।
(सु०) करिहस्तस्य लक्षणमाह-स्पृशन्निति । करिकराकारः ; करिहस्तवत् पार्श्वद्वयं स्पृशन् लताकरः, उन्नत्य डोलित: सन् , अन्यस्तु कर्णे वर्तमानः खटकामुखः, अथवा त्रिपताको यत्र विद्यते तदा अमुं करिहस्तमाहुः । आक्षिपति-नन्विति । यथा अन्येषु केशबन्धादिषु हस्तेषु यथा द्विवचनद्योतकं कृतं तथात्र करिहस्ते कस्मान्न कृतम् ? उत्तरमाह-ब्रूम इति । यत्र एकशब्देन समानजातीयौ डोलाकरावित्युच्येते, तत्र द्विवचनम् | यथा घटवत् , चतुरश्रवत् । भिन्नशब्दाविति । यौ वा विजातीयौ करौ भिन्नशब्दौ भिन्नशब्दप्रतिपादको तयोः घटपटावितिवत्स्यात् । यथा-अरालकटमुखौ । अत्र तु करिहस्तके एक एव लाताकरः, करिहस्ताकृति: दृश्यते । तस्य इतिकर्तव्यता तु अन्या स्यात् । तस्मादेकवचनं भवेदिति । द्विवचनप्रदेशवलक्षण्यमाह-न चात्रेति । यथा एकैकत्र घटत्वं तथा करिहस्तत्वमेकैकत्रेति समायातम् । द्विवचनस्येति । इतिकर्तव्यतासहितस्य अन्यस्य करिहस्तत्वात् । न चैकस्य करिहस्तशब्दवाच्यत्वम् , अपरस्य करस्य नैकशेषद्वन्द्वादि विद्यते । येन द्विवचनं स्यात् । भरतेन च एकवचनेनैव निर्देशः कृतः । तस्मादेकवचनमेव न्याप्यमिति ॥ २४८-२५४ ॥
इति करिहस्तः (१६) (सु०) पक्षवञ्चितयोलक्षणमाह-त्रिपताकाविति । एकः करः कटिन्यस्तानः, अन्य: पार्श्व न्यस्ताग्रः, तथाविधौ द्वौ त्रिपताको हस्तौ पक्षवञ्चितौ भवतः ॥ २५४-॥
___इति पक्षवचितौ (१७) (क०) पक्षप्रद्योतकयोर्लक्षणे-शोभते चैतौ प्राग्भ्यामनन्तरमिति ।
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७२
संगीतरत्नाकरः हस्तौ भणन्ति शोभेते चैतौ भाग्भ्यामनन्तरम् ।। २५६ ।।
___ इति पक्षप्रयोतकौ (१८) उपवक्षस्थलं हंसपक्षे गच्छति पार्थतः । सविलासोऽपरस्तिर्यक्प्रसृतश्चेल्लताकरः ॥ २५७ ॥ क्रमादशान्तरेणैवं दण्डपक्षौ तदा करौ । हस्तप्रसारणं त्वत्र युगपन्मेनिरेऽपरे ॥ २५८ ॥
इति दण्डपक्षौ (१९) एतावित्यूर्ध्वाङ्गुली च पराङ्मुखाविति तृतीयपक्षोक्तौ । प्राग्भ्यामित्युत्तानौ केचिदिति द्वितीयपक्षोक्ताभ्याम् । अत्र चकारः प्रारम्भामित्यनेन प्रथमपक्षोक्तयोः समुच्चयाथै योजनीयः प्राग्भ्यां चेति । तेनायमर्थः । कटीशीर्षन्यस्तायौ त्रिपताको प्रथमं पार्थाभिमुखाग्रौ कृत्वा तदनन्तरमुत्तानौ कृत्वा ततः परमूर्ध्वाङ्गुली पराङ्मुखौ च कृतौ चेच्छोभातिशयो भवतीति ॥ -२५५-२५६ ॥
इति पक्षप्रद्योतकौ (१८) (सु०) पक्षप्रद्योकयोर्लक्षणमाह-ताविति । तावेव पक्षवञ्चितौ पार्धाभिमुखाग्रं ययोः, तथाविधौ पक्षप्रद्योतकावित्युच्यते। मतान्तरमाह-उत्तानाविति। केचित्त उत्तानो पक्षवश्चितौ पक्षप्रद्योतकावित्याहुः । केचित् उभंगुली पराङ्मुखौ च हस्तौ पक्षप्रद्योतकाविति भणन्ति । अन्ये च पक्षप्रद्योतको प्रकृताभ्यां वश्चितकाभ्यामनन्तरं शोभां प्राप्नुत इति ॥ -२५५-२५६ ॥
इति पक्षप्रयोतको (१८) (सु०) दण्डपक्षयोर्लक्षणमाह- उपवक्षःस्थलमिति । हंसपक्षे हस्ते पार्श्वप्रदेशात् वक्षःस्थलसमीपं याति, अपरो हस्तो लताकरतामेत्य, सविलासः सन् तिर्यक् प्रसृतश्चेत् , यदा क्रमेण अङ्गान्तरेणाप्येवं भवति, तदा दण्डपक्षको
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अधोमुखौ कटिक्षेत्रे स्थित्वा न्यश्चितकूर्परौ । पताकौ तिर्यगूज़ द्राग्गतौ गरुडपक्षकौ ॥ २५९ ॥ त्रिपताकाविमौ कैश्चिदुक्तौ न तु मुनेर्मतौ ।
इति गरुडपक्षकौ (२०) मालस्थलमुरोदेशात्माप्य तत्पार्धमागतौ ॥ २६० ॥ मण्डलभ्रान्तिविततापूर्ध्वमण्डलिनौ करौ। ललाटप्राप्तिपर्यन्तमन्ये लक्ष्मानयोर्जगुः ॥ २६१ ॥ चक्रवर्तनिकेत्येतौ प्रसिद्धौ नृत्तवेदिनाम् ।
__इत्यूर्ध्वमण्डलिनौ (२१)
हस्तौ भवतः । मतान्तरमाह-हस्तेति । केचित् अत्र समकालमेव हस्तप्रसारणमाहुः ॥ २५७-२५८ ॥
इति दण्डपक्षौ (१९) (सु०) गरुडपक्षकयोर्लक्षणमाह-अधोमुखाविति । पताको हस्तौ अधोमुखौ कटिभागे स्थित्वा, नतकूपरौ विशतौ तिर्यगूज़ च यदि शीघ्रं भवतः तौ गरुडपक्षको । मतान्तरमाह-त्रिपताकाविति । कैश्विदाचार्यैः त्रिपताकाभ्यां गरुडपक्षौ कार्यावित्युक्तौ, तौ मुनिना नाभ्युपगताविति ॥ २५९, २१९- ॥
इति गरुडपक्षकौ (२०) (क०) ऊर्ध्वमण्डलिनोर्लक्षणे---उरोदेशात्पार्श्व प्राप्य भालस्थलमागतावित्यन्वयः । अत्र वक्षोदेशाद्वयावर्तितकरणपूर्वकं वं स्वं पार्श्व प्राप्य ललाटप्रदेशमागतौ । ततो मण्डलवद्वान्त्या प्रसारितावूर्ध्वमण्डलिनाविति केषांचि. न्मतम् । अन्ये तु, अनयोः; ऊर्ध्वमण्डलिनोः । ललाटमाप्तिपर्यन्तं लक्ष्म जगुरिति ; तावतैवोर्ध्वमण्डलित्वस्य च निप्पन्नत्वादिति तेषामभिप्रायः । मण्डल
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संगीतरत्नाकरः तौ पताकाकृती पार्धन्यस्तावन्योन्यसंमुखौ ॥ २६२ ॥ पार्षमण्डलिनावुक्तावन्ये त्वाहुः स्वपार्धयोः । आविद्धभ्रामितभुजौ पार्चमण्डलिनाविति ॥ २६३ ॥ कक्षवर्तनिकेत्येतौ मन्वते नृत्तवेदिनः ।
इति पार्श्वमण्डलिनौ (२२)
भ्रान्तिविततत्वमूर्ध्वमण्डलिनोः स्वरूपमिति च तेषां मतम् । यत ऊर्ध्वमण्डलिनावेव चक्रवर्तनिकेति नृत्तवेदिनां प्रसिद्धौ भवतः ॥ २६०, २६१- ॥
इत्यूर्ध्वमण्डलिनी (२१) (सु०) ऊर्ध्वमण्डलिनोर्लक्षणमाह-भालस्थलमिति । तावुभौ करौ उरःप्रदेशात् भालस्थलमागत्य भालस्थलपार्श्वतां गतौ, मण्डलाकारेण स्थितौ विस्तृतौ च ऊर्ध्वमण्डलिनी करौ भवतः । मतान्तरमाह-ललाटे ति । अन्ये तु ललाटावधिपर्यन्तमनयोर्लक्षणमाहुः । एतौ चक्रवर्तनिकेति नृत्तवेदिनां प्रसिद्धौ भवतः ।। -२६०, २६१-॥
___ इत्यूमण्डलिनी (२१) (क०) पार्श्वमण्डलिनोद्वितीयलक्षणे-आविद्धभ्रामितभुजाविति । अत्राविद्धशब्देनावेष्टितकरणपूर्विका वर्तना गम्यते । तयोः स्वस्वपार्श्वयोओमितभुजावित्यनेन पार्श्वमण्डलिनोरन्वर्थता दर्शिता भवति॥२६२,२६३-॥
इति पार्श्वमण्डलिनी (२२) ___ (सु०) पार्श्वमण्डलिनोलक्षणमाह-ताविति । यत्र तावेव पताकाकृती पार्श्वन्यस्तौ अन्योन्यसंमुखौ पार्श्वमण्डलिनौ भवत: । मनान्तरमाह-अन्ये त्विति । अन्ये तु ; आचार्याः, स्वस्वपार्श्वयो: पूर्वोक्तविधिलक्षणवन्तौ आविद्धभ्रामितौ भुजौ ययोः, तथाविधौ पार्श्वमण्डलिनावित्याहुः । एतौ नृत्यवेदिन: कक्षवर्तिनिकेति मन्वते ॥ २६२, २६३- ॥
इति पार्श्वमण्डलिनौ (२२)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः युगपत्करणे कृत्वोद्वेष्टितं चापवेष्टितम् ॥ २६४ ॥ यातौ स्वपार्थे वक्षस्तो भ्रान्त्या मण्डलवत्क्रमात् । वक्षोऽभिव्युत्क्रमाप्राप्तावुरोमण्डलिनौ करौ ॥ २६५ ॥ अनयोर्धमणं पाहुरन्ये वक्षस्थलस्थयोः । उरोवर्तनिकात्वेन प्रसिद्धौ तद्विदामिमौ ॥ २६६ ॥ हंसपक्षौ परे माहुरूव॑मण्डलिषु त्रिषु ।
इत्युरोमण्डलिनौ (२३) (क०) उरोमण्डलिनोर्लक्षणे-उद्वेष्टितमपवेष्टितं च करणे युगपत्कृत्वेति । एकेन हस्तेनोद्वेष्टितमन्येनापवेष्टितं च कृतं चेत्करणद्वयस्य योगपद्यं संभवति । तथा चैकस्यागमनेऽन्यस्य गमनं कर्तव्यमिति भिन्नरूपाभ्यां वर्तनाभ्यां वक्षस्तो वक्षःप्रदेशात्स्वपार्श्वयोः पार्श्वदेशात्प्रति मण्डलवज्रान्त्या मण्डलाकारभ्रमणेन यातौ गतौ, ततो वक्षो वक्षःस्थलमाभिमुख्येन व्युत्क्रमादुपक्रान्तं क्रममुल्लङ्घय प्राप्तौ। अयमर्थः-उद्वेष्टितोपक्रमेण स्वपार्श्वगतो हस्त आवेष्टितेन वक्षः प्राप्नोति । तथावेष्टितोपक्रमेण स्वपार्श्वगतश्चोद्वेष्टितेन वक्षः प्राप्नोतीति । हंसपक्षौ परे प्राहुरित्यनेन प्रथमं पताकाविति मन्तव्यम् ॥ २६४-२६६- ॥
इत्युरोमण्डलिनी (२३) (सु०) उरोमण्डलिनोर्लक्षणमाह-युगपदिति । यत्र समकालमेवोद्वेष्टितमपवेष्टितं च करणं यातौ गच्छतौ स्वपार्श्वस्थौ मण्डलभ्रमणं कृत्वा, पुनः पुनः वक्षः प्राप्तौ उरोमण्डलिनौ भवतः । मतान्तरमाह-अन्ये इति । अन्ये ; आचार्याः, अनयोः वक्षस्थलस्थयोः भ्रमणं प्राहुः । इमौ नृत्तविदाम्, उरोवर्तनिकात्वेन प्रसिद्धौ । मतान्तरमाह-पर इति । परे; आचार्याः, ऊर्ध्वमण्डलिनमारभ्य त्रिषु हस्तकेषु हंसपक्षावित्याहुः ॥ -२६४-२६६-॥
इत्युरोमण्डलिनी (२३)
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संगीतरत्नाकरः एकत्रोरःस्थितोत्तानेऽन्यस्मिन्पार्श्वप्रसारिते ॥ २६७ ।। व्यावर्तितेनालपनीकृत्वोरस्थो यदा करः। स्वपार्थ नीयतेऽन्यस्तूद्वेष्टितक्रियया करः ॥ २६८ ॥ तदैवारालतां प्राप्य यात्युरो मण्डलाकृतिः । अन्योऽप्येवं कराभ्यासादुरःपार्थार्धमण्डलौ ॥ २६९ ॥
इत्युरःपावधिमण्डलौ (२४) एकं वर्तनयारालं तथान्यमलपल्लवम् । हस्तं मुहुः क्रमात्कृत्वा क्रियते स्वस्तिकाकृती ॥ २७० ॥
(क०) उरःपार्वार्धमण्डलयोर्लक्षणे-एकत्र ; एकस्मिन् हस्त उरःस्थितोत्ताने सति, उरःस्थितश्चासावुत्तानश्चेति समासः । अन्यस्मिन् हस्ते प्रसारिते सति । अत्रानुक्तमप्युत्तान इत्यूहनीयम् । अन्यथा अन्यस्थावेष्टितक्रियया कर इति वक्ष्यमाणावेष्टितक्रियोचितसंनिवेशाभावेनाशोभावहत्वं स्यात् । एवमन्यः करस्तदैवारालतां प्राप्य मण्डलाकृतिः सन् उरो यातीति संबन्धः । तदेवेति । यदोरस्थः करः स्वपार्श्व नीयते पार्श्वप्रसारितोऽपि करस्तत्समसय एवोरो यातीत्यर्थः ।। -२६७-२६९ ॥
इत्युरःपावर्धिमण्डलौ (२४) (सु०) उर:पावर्धिमण्डलयोर्लक्षणमाह-एकत्रेति । एकस्मिन् हस्ते उत्तानाने उर:स्थिते सति, अन्यस्मिन् पावें प्रसारिते सति, यदैक: करो व्यावर्तितेन अलपनं कृत्वा स्वपार्वं प्राप्यते, अपर उद्वेष्टनेन तस्मिन्नेव समये अरालो भूत्वा मण्डलाकृतिर्भवति । अन्योऽप्येवमेव ; एवं रूपकराभ्यासात् उर:पार्धिमण्डलाख्यौ करौ भवतः ॥ -२६७-२६९ ॥
इत्युर:पाधिमण्डलौ (२४) (क०) मुष्टिकस्वस्तिकयोर्लक्षणे-एकं वर्तनयारालमिति । वर्तनया
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
खटकामुखहस्तौ चेन्मुष्टिकस्वस्तिकौ तदा । कपित्थौ शिखरौ मुष्टी चाथ वा स्वस्तिकाकृती ॥ २७१ ॥ इति मुष्टिकस्वस्तिकौ (२५)
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अश्लिष्टस्वस्तिकौ सन्तौ व्यावृत्तक्रियया करौ । मिथः पराङ्मुखौ कृत्वा यौ कृतौ पद्मकोशकौ ।। २७२ ।। नलिनीपद्मकोशौ तावपरे त्वन्यथा जगुः । अन्योन्यसंमुखौ सन्तौ संश्लिष्टमणिबन्धकौ || २७३ ।। पद्मकोशौ पृथक्प्राप्तौ व्यावृत्तिपरिवर्तने । नलिनीपद्मकोशौ स्तः केऽप्याहुः पद्मकोशयोः ।। २७४ ॥ व्यावृत्त्या परिवृत्त्या च जान्वन्तिकगताविमौ । स्कन्धयोः स्तनयोर्यद्वा जानुनोर्निकटं गतौ ।। १७५ ।।
मणिबन्धाकुञ्चनप्रभवया आवेष्टितवर्तनयेत्यर्थः । अरालकरणे तस्याः संगतत्वात् तथान्यमलपल्लवमिति । तथेति, तदुचितवर्तनयेत्यर्थः । अत्राल संगतया मणिबन्धाकुञ्चनप्रभवयोद्वेष्टितवर्तनयेति द्रष्टव्यम् । अत्र खटकामुखादीनां पारंपर्येण मुष्टिप्रभवत्वात्तेष्वन्यतमप्रयोगेऽपि मुष्टिकस्वस्तिकव्यपदेश उपपन्न इति तद्विदां मतम् ॥ २७०, २७१ ॥ इति मुष्टिकस्वस्तिक (२५)
(सु०) मुष्टिकस्वस्तिकयोर्लक्षणमाह-एकमिति । एकं हस्तं वर्तनया सह अरालं कृत्वा, तथा अन्यम् अलपल्लवं मुहुः क्रमात् विधाय, खटकामुखाकृती द्वौ हस्तौ स्वस्तिकाकृती क्रियेते चेत्तदा मुष्टिकस्वस्तिकौ भवतः ॥ २७०, २७१ ॥ इति मुष्टिकस्वस्तिक (२५)
(क०) नलिनीपद्मकोश योर्द्वितीयलक्षणे - व्यावृत्तिपरिवर्तने पृथ
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संगीतरत्नाकरः विवर्तितौ पदकोशौ तल्लक्ष्मेत्यवदन् परे।
___इति नलिनीपयकोशौ (२६) उद्वेष्टितक्रियौ वक्षःक्षेत्रस्थावलपल्लवौ ॥ २७६ ।। स्कन्धान्तिकमथोपेत्य प्रस्तावलपद्मको ।
इत्यलपल्लवौ (२७) प्राप्ताविति । अन्योन्यसंमुखयोः संश्लिष्टमणिबन्धयोः पद्मकोशयोरेको व्यावृत्तिमन्यः परिवर्तनं च युगपदेव पृथक्कुरुत इत्यर्थः ॥ २७२-२७५. ॥
इति नलिनीपद्मकोशौ (२६) (सु०) नलिनीपद्मकोशयोर्लक्षणमाह-अश्लिष्टेति । अश्लिष्टस्वस्तिको : असंयुक्तस्वस्तिको सन्तौ करौ व्यावृत्तक्रियया मिथ: परस्परं पराङ्मुखौ कृत्वा, यावलपल्लवौ क्रियेते, तौ नलिनीपद्मकोशौ भवेताम् । मतान्तरमह-अपरे त्विति । अपरे; आचार्यास्तु अन्योन्यसंमुखौ सन्तौ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां पृथक् गतौ पनकोशावेव नलिनीपाकोशौ स्त इत्याहुः । अन्यन्मतमाहकेऽपीति । केऽपि ; आचार्याः, व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां जानुसमीपगमनात् नलिनीपद्मकोशावित्यूचिरे। मतान्तरमाह-पर इति । परे; स्कन्धयोः, यद्वा जानुनोश्च निकटं गतौ प्राप्तौ विवर्तितौ पद्मकोशौ नलिनीपनकोशयोर्लक्षणं प्राहुः ॥ २७२-२७५-॥
इति नलिनीपनकोशौ (२६) (सु०) अलपल्लवयोर्लक्षणमाह--उद्वेष्टितेति | उद्वेष्टनं व्यावर्तनं सद्यो भ्रमणमिति यावत् । तेन उपलक्षितौ वक्ष:क्षेत्रस्थौ अलपल्लवौ करौ यस्यास्ताम् । ततः स्कन्धसमीपमागत्य यदा प्रसरणं प्राप्तं, तदा अलपल्लवी भवेताम् ॥ -२७६, २७६-॥
इत्यलपल्लवौ (२७)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
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प्रसार्य स्कन्धयोः स्कन्धाभिमुखमचलाङ्गुली || २७७ ॥ वर्तितावलपद्मौ चेदुल्बणौ भणितौ तदा । इत्युवण (२८)
पल्लवौ शीर्षदेशस्थौ ललितौ कलितौ बुधैः ।। २७८ ॥ चतुरश्रीमभञ्जन्तौ शिरस्थावचलौ करौ । ललितावपरे माहुरन्ये तु खटकामुखौ ।। २७९ ।। शनैः प्राप्य शिरोऽन्योन्यलगायौ ललितौ विदुः । इति ललितौ (२९)
कूर्परस्वस्तिकयुतौ लताख्यौ वलितौ मतौ ॥ २८० ॥
(सु०) उल्बणयोर्लक्षणमाह – प्रसार्येति । स्कन्धाभिमुखे प्रचलाः चञ्चलाः अगुलयो ययोः, तथाविधौ करौ स्कन्धयोः प्रसार्य वर्तनायुक्तौ अलपल्लवौ क्रियते चेत्; तदा उल्बणौ भणितौ उक्तौ ॥ - २७७, २७७-॥ इत्युल्बणौ (२८)
(सु०) ललितयोर्लक्षणमाह - पल्लवाविति । शीर्षदेशस्थौ ; शीर्षप्रदेशवर्तमानौ बुधैः ललिताविति कलितौ ज्ञातौ । मतान्तरमाह — चतुरश्रीमिति । चतुरश्रत्वमभजन्तौ अनाश्रयन्तौ शिरस्थानस्थितौ अचलौ करौ ललिता - विति । मतान्तरमाह — अन्ये त्विति । अन्ये तु; आचार्याः खटकामुखौ शनैः मन्दं, शिरः प्राप्य, अन्योन्यलग्नाग्रौ; परस्परमिलिताप्रौ ललितावित्याहुः ॥ -२७८, २७९-॥
इति ललितौ (२९)
(सु० ) वलितयोर्लक्षणमाह -कूर्परेति । लताख्यौ करौ कूर्परस्वस्तिकयुक्तौ वलितावित्युच्येते । मतान्तरमाह - पर इति । परे; आचार्याः,
मूर्ध्नि
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८०
संगीतरत्नाकरः
मुष्टिकस्वस्तिक मूर्ध्नि विवृत्तौ तौ परे विदुः । अन्ये त्वाचक्षतेऽन्योन्यलग्नाग्रैौ खटकामुखौ || २८१ ॥ ऊर्ध्व पृष्ठतो नम्रकूर्परौ वलितौ मतौ । नृत्तहस्तौ क्रमेणापि प्रयोज्यौ सूरयो विदुः ।। २८२ ॥ इति वलितौ (३०)
इति त्रिंशन्नृहस्ताः |
पताको मध्यमामूललग्नाङ्गुष्ठौ निकुञ्चकः । स स्वल्पाभिनये वेदाध्ययने च प्रयुज्यते ॥ २८३ ॥ इति निकुञ्चक: (असंयुतहस्तः ) ( १ )
शिखरद्वन्द्वसंयोगात्करोद्विशिखरो मतः ।
ऊर्ध्वप्रदेशे विवृत्तौ मुष्टिकस्वस्तिकौ वलितावित्याहुः । अन्यन्मतमाह— अन्ये त्विति । अन्ये; आचार्यास्तु एवमाचक्षते -- अन्योन्यसंलग्ना प्रौ खटकामुखौ ऊर्ध्वगौ ऊर्ध्वप्रदेशकृत्तौ पृष्ठतः नम्रकूर्परौ वलितौ भवेतामिति । एतौ नृत्तहस्तौ क्रमशः प्रयोजनीयाविति सूरय आहुः ॥ -२८०-२८२ ॥
इति वलितौ (३०) इति त्रिंशन्नृहस्ताः ।
( सु० ) मतान्तरोक्तानां निकुञ्चकादीनां लक्षणमाह-पताकेति । मध्यमामूललग्नाङ्गुष्ठ: ; मध्यमाया अड्गुलेः मूले लग्न अङ्गुष्ठो यस्य, तथाविधः पताको निकुञ्चक: । अस्य विनियोगस्तु सः; निकुञ्चः, स्वल्पाभिनये वेदाध्ययने च कार्यः ॥ २८३ ॥
इति निकुचक: ( असंयुत हस्त:) (१)
(सु० ) द्विशिखरं लक्षयति-शिखरेति । पूर्वोक्त शिखर द्वन्द्वसंयोगात्
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सप्तमो नर्तनाध्यायः शयनार्थेऽङ्गुलिस्फोटे स्त्रीणामनुनये तथा ॥ २८४ ॥ नास्तीत्यर्थेऽपि संयुज्य वियुक्तं शिखरद्वयम् ।
इति द्विशिखर: (संयुतहस्तः) (२) पृथग्दक्षिणवामौ चेद्वरदाभयदौ करौ ।। २८५ ॥ अरालौ कटिपार्श्वस्थौ तदोक्तौ वरदाभयौ ।
___इति वरदाभयौ (नृत्तहस्तौ) (३)
इति मतान्तरोक्तास्त्रयो हस्ताः । प्रदर्शनार्थमुक्तेयं हस्तानां सप्ततिर्मया ॥ २८६ ।।
आनन्त्यादभिनेयानां सन्त्यनन्ताः परे कराः। द्विशिखर: करो भवति । अस्य विनियोगस्तु-स्वापनार्थे, अङ्गुलिस्फोटे, तथा स्त्रीणामनुनये, नास्तीत्यर्थे च कार्यः ॥ २८४- ॥
इति द्विशिखरः (संयुतहस्तः) (२) (क०) मतान्तरोक्तानां निकुञ्चकादीनां त्रयाणां कराणां लक्षणानि सविनियोगमाह-~-पताको मध्यमामूल इत्यादिना ॥ -२८३-२८५- ।।
___ इति वरदाभयौ (नृत्तहस्तौ) (३)
इति मतान्तरोक्तास्त्रयो हस्ताः । (सु०) वरदाभययोर्लक्षणमाह-पृथगिति । संयुज्य वियुक्तं शिखरद्वयं पृथक् दक्षिणे वामे च स्थितं चेत्, तदा वरदाभयौ भवतः । कटीशीर्षस्थौ अरालावपि वरदाभयाविति ॥ २८५ ॥
इति वरदाभयौ (नृत्तहस्तौ) (३)
इति मतान्तरोक्तास्त्रयो हस्ताः । (क०) निगमयति-प्रदर्शनार्थमिति । अभिनय दिक्प्रदर्शनार्थमियं हस्तानां सप्ततिरुक्तेत्युक्ते सति न साकल्येनोक्ता हस्ता इति प्रतीयते । असाकल्येनोक्तौ सत्यां कति हस्ता इत्याकाङ्क्षायामाह-सन्त्यनन्ताः परे
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संगीतरत्नाकरः करा इति । साकल्येनाकथन आनन्त्यमेव हेतुर्द्रष्टव्यः । आनन्त्यमेव कुत इत्याकाङ्क्षायामाह-आनन्त्यादभिनेयानामिति । अभिनेयानाम् ; जातिक्रियागुणद्रव्यरूपाणां पदार्थानाम् । तेषामानन्त्यमेव हस्तानन्त्ये हेतुरुक्तः । एतेन प्रत्यर्थ हस्तोऽपि भिन्न इत्यभिप्रायः सूचितो भवति । नन्वेवं तर्हि भूयसामप्यर्थानामेकैकेन सूचीमुखादिना भरतादिभिः कृतमभिनयप्रदर्शनं कथमिति चेदुच्यते । न हि तेषामप्येक एव सूचीमुखादिर्बह्वर्थप्रदर्शकोऽभिमतः । किंतु करणकर्मस्थानप्रचारक्रियादिभेदात्प्रत्यर्थ भिन्न एवेत्यमिमतः । एकत्वव्यवहारस्तु संक्षेपार्थ वृक्षादिशब्दवत्प्रकृतिसारूप्याद्रष्टव्यः । यथा वृक्षशब्दे विभक्त्यादिभेदात्प्रत्यर्थ भिन्नेऽपि लौकिकानामेकोऽयमिति व्यवहारः, तथा पताकादावपि प्रकृतिसारूप्यादेकत्वव्यवहारोडवगन्तव्यः । कचिदनेकेष्वप्यर्थेष्वेकरूपकरणस्थानादियुक्तस्य हस्तस्य प्रयोगदर्शनं त्वनेकार्थानामक्षादिशब्दानां प्रयोगवदवगन्तव्यम् । एवं सति हस्तसप्ततिवचनं संक्षेपाभिप्रायं मन्तव्यम् । अयमेवार्थोऽभिनवगुप्तपादैर्भारतीयविवृतौ प्रपञ्चितः ; विवृतश्च संयुतहस्तनिगमनावसरे । यथा-" असंयुतास्तावदेते भवन्ति । न येतेऽसंयुता एव । नाप्येत एव कोहलादिभिरन्येषां दर्शनात्" इत्युपक्रम्य, " तथाहि ; कूपराधी'तत्रिपताकेन पार्श्वे खटकामुखेन च स्त्रीणामभिनय इति, खटकेन कर्णान्तमागच्छता वामेन च कपित्थमुष्टयान्यतरेण बाणमोक्षः" इति च । अत्र स्त्रीदर्शने नैकस्त्रिपताको नैकः खटकामुखो वा । किं तूभयसंनिवेशवानेको हस्तः । तथा बाणमोक्षाभिनये नैकः खटको नापि मुष्टिकपित्थयोरन्यतरः । अपि तु तत्संनिवेशविशेषवानन्यो हस्तः। तथा मुनिनापि ---
" अङ्गाद्यभिनयस्येह यो विशेषः क्वचित् क्वचित् । अनुक्त उच्यते यस्मात्स चित्रोऽभिनयः स्मृतः" ||
इति प्रपश्चितः ॥ २८६. ॥ कूर्पराधिक• इत्यपि पाठो दृश्यते.
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सप्तमो नर्तनाध्यायः लोकवृत्तानुसारात्तेऽप्यूह्यन्तामनया दिशा ॥ २८७ ॥ नेत्रभूमुखरागाद्यैरुपाङ्गैरुपबृंहिताः । प्रत्यङ्गैश्च कराः कार्या रसभावप्रदर्शकाः ॥ २८८ ॥
(क०) एवं हस्तानामानन्त्ये सिद्धे तत्राप्रसिद्धहस्तपरिज्ञाने लोकं प्रमाणयन्नाह-लोकवृत्तानुसारात्तेऽप्यूह्यन्तामनया दिशेति । तथा चाह मुनिः
" नोक्ता ये च मया ह्यत्र लोकाग्राह्यास्तु ते बुधैः । लोको वेदास्तथाध्यात्म प्रमाणं त्रिविधं स्मृतम् ।
तस्मान्नाट्यप्रयोगे तु प्रमाणं लोक इष्यते ।" इति । अत्रेदमुपहरम्-अभिनयानन्त्याद्धस्तानन्त्येऽपि स्वबुद्धया लोकतो वानुक्तहस्तकल्पनायां करणप्रचारादिभिः संयुतत्वेनासंयुतत्वेन वा संनिवेशविशेष एव कल्पनीयः, न तूक्तपताकादिव्यतिरिक्तो हस्तः । उक्तरीत्या कल्पितस्य तावत्येव हस्तान्तरसिद्धः कंचिदप्यर्थ यथा तथा वा धर्मिद्वयाश्रयणेन यथाशोभमभिनीय पताकादिष्वन्यतमे पर्यवस्येदिति । ननु कचिदेकस्याप्यर्थस्य बहवो हस्ताः संभवन्ति, तत्र केनाभिनयः कर्तव्य इति चेदुच्यते । प्रयोगे पूर्वापरसंगतत्वेन यः शोभाकारी करस्तेनाभिनयः कर्तव्य इति मन्तव्यम् । यथाह भरत:
"अर्थस्यैकस्य भूयांसः संभवन्ति यदा कराः ।
शोभाकारी तदा तत्र करः कार्यः प्रयोक्तृभिः" ।। इति ॥ -२८७ ॥
(क०) अभिनये त्वङ्गान्तरापेक्षया हस्तानामेव प्राधान्यं दर्शयितुमाह-नेत्रभ्रूमुखरागाद्यैरिति । अत्राद्यशब्देन तारापुटादीन्युपाङ्गान्त
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८४
संगीतरत्नाकर:
उत्तमेष्वभिनेयेषु ललाटक्षेत्रचारिणः ।
वक्षःस्था मध्यमेषु स्युरधमेषु त्वधो मताः ।। २८९ ॥ अन्यैरुक्ता व्यवस्थेयमुत्तमाद्यभिनेतृषु ।
उत्तमे संनिकृष्टाः स्युर्मध्यमे मध्यसंस्थिताः ।। २९० ॥ अधमे त्वभिनेये स्युर्विप्रकृष्टचराः कराः ।
राणि गृह्णन्ते । मुखे रागस्यानुपाङ्गत्वेऽपि नेत्राद्युपानसाहचर्यादुपाङ्गत्वमुपचर्यते । प्रत्यङ्गैश्चेत्यत्र चकारेणाङ्गान्यपि समुच्चीयन्ते । तेन शिरश्चरणादीन्यप्यङ्गान्यभिनये हस्तानामुपबृंहकत्वादुपसर्जनानि भवन्तीत्यर्थः । हस्तानामप्युपाङ्गाद्युपबृंहितानामेव रसभावप्रदर्शकत्वं भवति, न तु केवलानामिति भावः । कार्या इति प्रयोक्तृविषयो नियमविधिः ॥ २८८ ॥
(क) अथाभिनयहस्तानामभिनेयार्थाधीनं स्थाननियममाह - उत्तमेष्वित्यादि । उत्तमेषु सुवर्णादिष्वर्थेषु, अभिनेयेषु, अभिनेतव्येषु करा ललाटक्षेत्रचारिणः स्युरिति । तथा कर्तव्या इत्यर्थः । मध्यमेषु पुष्पफलाद्यर्थेभिनेतव्येषु वक्षःस्थाः स्युः । अधमेषु पिण्याकादिष्वर्थेषु त्वभिनेतव्येष्वधोगताः स्युः ॥ २८९ ॥
;
(क) इयमर्थकृता व्यवस्थाभिनेतृ विषयत्वेनान्यैरुक्तेत्याह - अन्यैरिति । उत्तमाद्यभिनेतृषु उत्तमा अभिनेतारो राजदेवीप्रभृतय: ; आदिशब्देन, मध्यमा अभिनेतारः सेनापतिपुरोहितप्रभृतयः ; अधमा दौवारिकपरिचारकादयश्च गृह्यन्ते । एतेष्वभिनेतृषु, इयं व्यवस्थोक्तेति । राजादिष्वभिनेतृषु ललाटदेशचारिणः, पुरोहितादिष्वभिनेतृषु वक्षःस्थाः, दौवारिकादिष्वभिनेतृष्वधोगताश्च कर्तव्या इति व्यवस्था | उत्तमाद्यर्थविषयं व्यवस्थान्तरं दर्शयति — उत्तमे संनिकृष्टाः स्युरित्यादि ॥ -२८९,२९० ॥
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सप्तमो नर्तनाध्याय:
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अल्पो हस्तप्रचारः स्यात्प्रत्यक्षे भूरिसात्त्विके ।। २९१ ॥ परोक्षे प्रचुरः स स्यान्मध्यमे मध्यमो मतः । कार्याः सुव्यक्तलक्ष्माणः पात्रैरुत्तममध्यमैः ।। २९२ ।। ससौष्ठवाच नीचैस्तु पाणयस्तद्विलक्षणाः । विषण्णे व्याकुले भीते मूर्च्छिते तन्द्रयान्विते ।। २९३ ॥
( क ० ) अथ हस्तप्रचारस्याल्पमचुरमध्यमत्वव्यवस्थां विषयभेदेन दर्शयति – अल्पो हस्तप्रचारः स्यादित्यादि । प्रत्यक्षे; साक्षादनुभूयमानेऽर्थे, भूरिसात्त्विके प्रभूतसात्त्विके भावे वा अभिनेतव्ये हस्तप्रचारोऽल्पः कर्तव्यः स्यात् । परोक्षे; अप्रत्यक्षेऽर्थेऽभिनेतव्यं, सः; हस्तप्रचारः प्रचुरः कर्तव्यः स्यात् । मध्यमे ; किंचित्प्रत्यक्षत्वेन किंचिदप्रत्यक्षत्वेन च स्थितेऽर्थेऽभिनेतव्ये मध्यमो नात्यल्पो नातिप्रचुरः प्रचारः कर्तव्योऽभिमतः । भूरिसात्त्विक इत्यनेनैवाल्पसात्त्विकेऽप्रचुरः । मध्यमसात्त्विके मध्यमः प्रचार इत्यवगन्तव्यम् ॥ २९०, २९१- ॥
(क०) अभिनेतृविषयामन्यां व्यवस्थां दर्शयति-कार्याः सुव्यक्तलक्ष्माण इति । उत्तममध्यमैः पात्र राजपुरोहिताद्यनुकारकैः पात्रैः । सुव्यक्तलक्ष्माणः ; शास्त्रे यस्य हस्तस्य यल्लक्षणमुक्तं तत्सम्यक्कृतं चेत्सुव्यक्तं भवति । सुव्यक्तं लक्ष्म येषां ते तथोक्ताः । ससौष्ठवाचेति;
'कटी जानुसमा यत्र कूर्परांस शिरः समम् । उरः समुन्नतं सन्नं गात्रं तत्सौष्ठवं भवेत् ' ॥
इति वक्ष्यमाणलक्षणेन सौष्ठवेन सहिताः ससौष्ठवाः । नीचैस्त्विति । दौवारिकादिभिर्नीचपात्रैस्तु, तद्विलक्षणा इति । अव्यक्तलक्षणा असौष्ठ - वाश्चेत्यर्थः । उत्तमादितारतम्येन पात्राणि योजयेदित्यभिप्रायः । केषुचिद
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८६
संगीतरत्नाकर:
जुगुप्साशोकसंत सुप्ते ग्लाने जरार्दिते । रोगशीतार्तनिश्रेष्टसंचितेष्वपि तापसे ।। २९४ ॥ मत्तोन्मत्तप्रमत्तेषु न हस्ताभिनयो भवेत् । सूचयन्त्यान्तरं भावं ये कराः कर्कटादयः ।। २९५ ।। विषण्णादिष्वपि प्रायः प्रयोज्यास्ते सतां मताः ।
इति हस्तप्रकरणम् ।
भिनेयविशेषेषु हस्ताभिनयं निषेधति - विषण्ण इति । किं सर्वत्र एवात्र न हस्ताभिनय इत्याशङ्कय प्रतिप्रसवार्थमाह – सूचयन्तीति ॥
॥ - २९२ - २९५ ॥
इति हस्तप्रकरणम् |
1
(सु०) हस्तलक्षणमुपसंहरति - प्रदर्शनार्थमुक्त मिति । अभिनेयार्थानामानन्त्यात् इयन्तो हस्ता इति वक्तुं ब्रह्मादयोऽपि नेशते । अत एते हस्ताः दिक् प्रदर्शनार्थं मया हस्तसप्ततिरुक्ताः । लोकरीत्या अन्येऽप्यनया दिशा ऊहनीया: । हस्तानां प्राधान्यमाह – नेत्रेति । वक्ष्यमाण नेत्राद्युपाङ्गयुक्ताश्चैते रसभावव्यञ्जकाः कर्तत्र्या: । अभिनयविशेषे तेषां स्थानविशेषमाह-उत्तमेष्विति । उत्तमाभिनये ललाटक्षेत्रे हस्तानां प्रचारः ; मध्यमाभिनये वक्षसि प्रचारः । अधमाभिनये अधोगतः प्रचार इति । अन्यैरियं ललाटादिव्यवस्था उत्तममध्यमाधमस्थाननियमा अभिनेतृविशेषणत्वेनोक्ताः ।
अभिनेयविशेषेणैतेषां संनिकर्षविशेषमाह - उत्तम इति । विशेषेण हस्तप्रचाराणामल्पत्वबाहुल्ये कथयति - अल्प इति । भूरिसात्त्विके प्रत्यक्षे हस्तप्रचारोऽल्पः । परोक्षे प्रचुरः । मध्यमे मध्यमः | अभिनेतृविषयामन्यां व्यवस्थामाह - कार्या इति । उत्तमपात्रैः; मध्यमपात्रैश्च सुयक्तलक्ष्माणः, मुव्यक्तं लक्ष्मा येषां ते तथोक्ताः ; ससौष्ठवा : ; वक्ष्यमाणसौष्ठवलक्षणेन सहिताश्च कार्याः । नीचैस्त्विति । नीचपात्रैस्तु, तद्विलक्षणाः, उत्तमादिविलक्षणा:
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अथ वक्षोभेदाः
स्याद्वक्षः सममाभुग्नं निर्भुनं च प्रकम्पितम् ।। २९६ ॥ उद्वाहितं पञ्चधेति तेषां लक्ष्माभिदध्महे । सौष्ठवाधिष्ठितं वक्षश्चतुरश्राङ्गसंश्रयम् ॥ २९७ ॥ प्रकृतिस्थं समं प्राहुः स्वभावाभिनये च तत् ।
इति समम् (१) असौष्ठवा इत्यर्थः । अत्र उत्तमादितारतम्येन पात्राणि योजयेदिति । हस्ताभिनयस्य केषुचित् स्थानविशेषनिषेधमाह--विषण्णे इति । विषण्णे, व्याकुले, भीते, मूर्छिते, तन्द्रालौ, जुगुप्सायाम् , शोकसंतप्ते, ग्लाने, जरापीडिते, रोगाते, शीतार्ते, निश्चेष्टे, तापसे, मत्ते, उन्मत्ते, प्रमत्ते च हस्ताभिनयो न कार्यः । उत्सर्गेणोक्तस्याभिनयनिषेधस्य क्वचिदपवादमाह-सूचयन्तीति । -२८६-२९५- ॥
इति हस्तप्रकरणम् । (क०) अथ वक्षःप्रभेदानुद्दिश्य लक्षयति-स्याद्वक्ष इत्यादि । तत्र समस्य वक्षसो लक्षणे-सौष्ठवाधिष्ठितमिति । सौष्ठवेन कटीजान्वित्यादिनोक्तलक्षणेनाधिष्ठितम् । चतुरश्राङ्गसंश्रयमिति । चतुरश्रं च तदङ्गं च चतुरश्राङ्गम् । चतुरश्राङ्गं संश्रयो यस्येति तथोक्तम् । ____ वैष्णवं स्थानकं यत्र कटीनाभिचरौ करौ ।
पृथक्समुन्नतं वक्षश्चतुरश्रं तदुच्यते' इति ॥ चतुरश्राङ्गलक्षणं वक्ष्यते । शिष्टं स्पष्टम् ॥ २९६-३०२- ॥
इति पञ्चविधं वक्षः । (सु०) वक्षोभेदान् विभजते-स्यादिति । समादिभेदेन वक्षसः पञ्च भेदाः । समम् , आभुग्नम्, निर्भुग्नम् , प्रकम्पितम् , उद्वाहितमिति । तेषां क्रमेण लक्षणमाह-सौष्ठवेति । सौष्ठवाधिष्ठितम् ; सौष्ठवमवष्टम्भः तेन अधिष्ठितं संयुक्तम् , चतुरश्राङ्गसंश्रयम् , चतुरश्रमायतोन्नतमङ्गं च
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संगीतरत्नाकरः निम्नं शिथिलमाभुग्नं वक्षः स्याद्र्वलज्जयोः ॥ २९८ ॥ शीतहच्छल्ययोः शोके मूर्छाभीसंभ्रमेषु च। . कार्य व्याधौ विषादे च ब्रूते शंकरकिंकरः ॥ २९९ ॥
इत्याभुग्नम् (२) निर्भुग्नं निम्नपृष्ठत्वादुन्नतं स्तब्धमप्युरः । माने च सत्यवचने स्तम्भे विस्मयवीक्षिते ॥ ३०० ॥ 'प्रकृष्टभाषणे गर्वोत्सेके चेदं प्रयुज्यते ।
इति निर्भुमम् (३) प्रकम्पितं कम्पितं स्यादूर्ध्वक्षेपैनिरन्तरैः ॥ ३०१॥ स्यागीहासश्रमश्वासकासहिकासु रोदने ।
___ इति प्रकम्पितम् (४) चतुरश्राङ्गं संश्रय अङ्गविन्यासो यस्य तथाविधं वक्षः प्रकृतिस्थम् , स्वाभाविकं सममित्युच्यते ॥ -२९६, २९७- ॥
इति समम् (१) (सु०) आभुग्नं लक्षयति--निम्नमिति । निम्नमुन्नतम् , शिथिलं वक्ष अभुग्नम् । तच्च गर्वे, लजायाम् , शीते, हृच्छल्ये, शोके, मूर्छाभीतिसंभ्रमादिषु, व्याधौ, विषादे च प्रयुज्यते ॥ -२९८, २९९ ॥
इत्याभुमम् (२) ___ (सु०) निर्भुग्नं लक्षयति—नि ममिति । निम्नपृष्ठत्वात् उन्नतमुरो निर्भुग्नम् । तच्च माने, सत्यवचने, स्तम्भे, विस्मयवीक्षिते, प्रकष्टभाषणे, गर्वाधिक्ये च प्रयुज्यते ॥ ३००, ३००- ॥
इति निर्भुमम् (३) (सु०) प्रकम्पितं लक्षयति-प्रकम्पितमिति । निरन्तरैः ऊर्ध्वप्रक्षेपैः प्रहर्षभाषणे इति पाठः।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अकम्पं सरलोत्क्षिप्तमुद्वाहितमुदीरितम् ॥ ३०२ ।। दीर्घोच्छ्वासे च जृम्भायामुत्तुङ्गालोकने च तत् ।
इत्युद्वाहितम् (५)
इति पञ्चविधं वक्षः । अथ पार्श्वभेदाः
विवर्तितं चापसृतं प्रसारितमथो नतम् ॥ ३०३ ॥ उन्नतं चेति संचख्युः पार्थ पञ्चविधं बुधाः । विवर्तनात् त्रिकस्य स्यात्परावृत्तौ विवर्तितम् ॥ ३०४ ।।
___ इति विवर्तितम् (१) तन्निवृत्त्या त्वपसृतं भवेत्पार्धविवर्तने ।
इत्यपमृतम् (२) अवलम्बितैः कम्पितं वक्षः प्रकम्पितमित्युच्यते । तच्च भये, हासे, श्रमे, श्वासे, कासे, हिक्कायाम् , रोदने च प्रयुज्यते ॥ -३०१, ३०१- ॥
इति प्रकम्पितम् (४) (सु०) उद्वाहितं लक्षयति-अकम्पमिति । सरलोत्क्षिप्तम् , उच्चीकृतम् , अकम्पम् ; कम्पहीनं वक्ष उद्वाहितम् । तच्च दीर्घोच्छासे, जृम्भायाम् , उत्तुङ्गालोकने च प्रयुज्यते ॥ -३०२, ३०२- ॥
___ इत्युद्वाहितम् (५)
इति पञ्चविधं वक्षः । (क० ) पार्श्वभेदानुद्दिश्य लक्षयति'- विवर्तितमित्यादि ॥ -३०३-३०६ ॥
इति पञ्चविधं पार्श्वम् । ___ (सु०) पार्श्वभेदानाह-विवर्तितमिति । विवर्तितम् , अपसृतम् , प्रसारितम् , नतम् , उन्नतमिति बुधाः नृत्तज्ञाः पार्श्व पञ्चधा संचक्ष्युः । अत्र
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संगीतरत्नाकर:
प्रसारितं तूभयतो विस्तारात्स्यान्मुदादिषु ।। ३०५ ॥ इति प्रसारितम् (३)
न्यश्चितांसं नितम्बं तु नतं स्यादपसर्पणे । इति नतम् (४)
पार्श्व तद्विपरीतं तून्नतं स्यादुपसर्पणे ।। ३०६ ।।
इत्युन्नतम् (५) इति पञ्चविधं पार्श्वम् ।
अथ कटीभेदा:
कम्पितोद्वाहिता छिन्ना विवृता रेचिता तथा ।
कटी पञ्चविधेत्युक्ता तल्लक्ष्म व्याहरेऽधुना ॥ ३०७ ॥ द्रुतं गतागते पार्श्वे दधती कम्पिता मता ।
गणशः पञ्चसंख्याङ्कमाहुरित्यर्थः । एतेषां भेदानां क्रमेण लक्षणमाह - विवर्तनादित्यादिना । त्रिकस्य विवर्तनात् परावृत्तौ वक्षो विवर्तितम् । इति विवर्तितम् (१) अपसृतं लक्षयति - तदिति । तस्य विवर्तनस्य निवृत्त्या अपसृतम् । तत्पाविवर्तने प्रयोज्यम् । इत्यपसृतम् (२) प्रसारितं लक्षयति-प्रसारितमिति । उभयतो विस्तृतत्वे प्रसारितम् । तन्मुदादिषु प्रयोज्यम् । इति प्रसारितम् (३) नतं लक्षयति - न्यञ्चितेति । न्यञ्चित अंसो नितम्बो यस्मिन्, तथाविधं पार्श्वनतम् । तदपसर्पणे प्रयोज्यम् (४) उन्नतं लक्षयति - तदिति । तद्विपरीतं पार्श्वमुन्नतम् | तदुपसर्पणे प्रयोज्यम् । इत्युन्नतम् (५) ॥ -३०३-३०६ ॥ इति पञ्चविधं पार्श्वम्
(क०) कीं विभज्य लक्षयति-कम्पितोद्वाहितेत्यादि ॥
इति पञ्चविधा कटी ।
॥ ३०७-३११ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः तां कुब्जवामनादीनां गमने च प्रयोजयेत् ॥ ३०८ ॥
इति कम्पिता (१) शनैरुच्चलिता पार्थद्वयेनोद्वाहिता कटी। स्त्रीणां लीलागतेष्वेषा पीनाङ्गानां गतावपि ॥ ३०९ ॥
इत्युद्वाहिता (२) छिन्ना तिर्यमुखे पार्थे मध्यस्य वलनात्कटी । व्यायामे संभ्रमे चैषा व्यावृत्तप्रेक्षणादिषु ॥ ३१० ॥
इति च्छिन्ना (३) पराङ्मुखेन पाश्रूणाभिमुखं या विवर्तिता । विवृत्ता सा कटी प्रोक्ता विनियोज्या विवर्तने ॥ ३११ ।।
इति विवृत्ता (४) सर्वतो भ्रमणादुक्ता रेचिता भ्रमणे भवेत् ।
इति रेचिता (५) इति पञ्चविधा कटी।
__(सु०) कटी भेदानाह–कम्पितेति । कम्पिता, उद्वाहिता, छिन्ना, विवृता, रेचिता इति पञ्चविधोक्ता । तासां क्रमेण लक्षणमाह-दृतमिति । द्रुतं शीघ्र पार्श्व गतागते दधती कटी कम्पिता । तां कुब्जवामनादीनां गमने च प्रयोजयेत् । इति कम्पिता (१) उद्वाहितां लक्षयति-शनैरिति । पार्श्वद्वयेन शनैः उच्चलिता कटी उद्वाहिता । एषा स्त्रीणां लीलागमने, पीनाङ्गानां गमनेऽपि विनियुज्यते । इत्युद्वाहिता (२) छिन्नां लक्षयति- छिन्ना इति । तिर्यमुखे पार्वे मध्यस्य वलनात् छिन्नाकटी भवति । एषा व्यायामे, संभ्रमे, व्यावृत्त
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संगीतरत्नाकरः अथ चरणभेदाः
समोऽश्चितः कुश्चितश्च सूच्यातलसंचरः ॥ ३१२ ॥ उदघट्टितश्चेति मुनेः षड्विधश्चरणो मतः। ताडितो घटितोत्सेधो घट्टितो मर्दितस्तथा ॥ ११३ ॥ अग्रगः पाणिगः पादः पार्श्वगथापरः परैः । इति सप्तापरे प्रोक्ताः पादास्तल्लक्षणं ब्रुवे ॥ ११४ ।। स्वभावेन स्थितो भूमौ समः पादोऽभिधीयते । स्वभावाभिनये कार्यः स्थिरोऽसौ रेचके चलः ॥ ३१५ ॥
इति सम: (१) भूस्थपाणिः समुत्क्षिप्ताग्रतलः प्रमृताङ्गुलिः । अश्चितः स भवेत्पादो इस्तभ्रमरकादिषु ॥ ३१६ ॥
इत्यञ्चितः (२) प्रेक्षणादिषु च कार्या । इति च्छिन्ना (३) विवृत्तां लक्षयति-पराङ्मुखेनेति । पराङ्मुखेन पार्वेण अभिमुखं विवर्तिता कटी विवृत्ता । सा विवर्तने कार्या । इति विवृत्ता (४) रेचितां लक्षयति-सर्वत इति । सर्वतो भ्रमणात् रेचिता। सा भ्रमणे कार्या । इति रेचिता (६) ३०७-३११- ॥
इति पञ्चविधा कटी। (क०) पादभेदानुद्दिश्य लक्षयति-समोऽश्चित इत्यादि । सविनियोगानि तेषां लक्षणानि स्फुटार्थानि ॥ -३१२-३२५ ॥
___ इति त्रयोदश चरणभेदाः।
(सु०) चरणभेदानाह-सम इति । समः, अश्चित:, कुञ्चितः,सूची, अग्रतलसंचर:, उद्घट्टित इति भरतमतेन चरण: षड्विधः । मतान्तरमाह-ताडित
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सप्तमो नर्तनाध्यायः कुश्चिताङ्गुलिरुत्क्षिप्तपाणिर्मध्ये च कुञ्चितः । कुश्चितः 'स्यादतिश्रान्तगतौ तुङ्गस्य च ग्रहे ।। ११७ ॥
___ इति कुश्चितः (३) वामः स्वाभाविकोऽन्यस्तु भुव्यङ्गुष्ठाग्रसंस्थितः । उत्क्षिप्तेतरभागोऽसौ सूची नूपुरवन्धने ॥ ३१८ ॥
___ इति सूची (४) यस्योत्क्षिप्ता भवेत्पाणिरङ्गुष्ठः प्रसृतस्तथा । अङ्गुल्यो न्यश्चिताः स स्यात्पादोऽग्रतलसंचरः ॥ ३१९ ॥ प्रेरणे कुट्टने स्थाने पीडने भूमिताडने । भूस्थापसारणे स स्याद्रेचके भ्रमणे मदे ।। ३२० ।।
इत्यप्रतलसंचर: (५) इति । ताडितः, घटितोत्सेध:, घट्टितः, मर्दितः, अग्रगः, पाणिगः, पार्श्वग इति सस पादभेदा भवन्ति । एवं त्रयोदश भेदाः । तेषां क्रमेण लक्षणमाहस्वभावेनेति । स्वभावेन प्रकृत्या स्थित: समपाद इत्युच्यते । स च स्वभावाभिनये कार्यः। इति समः (१) अञ्चितं लक्षयति-भूस्थपाणिरिति । भूस्थितपाणिः; भूमौ स्थित: पाणिर्यस्य सः ; समुत्क्षिप्ताग्रतल: ; सम्यक् उत्क्षिप्तमुच्चीकृतं तलाग्रं यस्य तथाविधः; प्रसृताङ्गुलिः ; प्रसृता अगुलयो यस्य, तथाविध अञ्चितो भवति । स च हस्तभ्रमरकादिषु विनियोगः । भ्रमरकं करणविशेषः । इत्यञ्चित: (२) कुञ्चितं लक्षयति-कुञ्चितेति । कुञ्चिता अगुलयो यस्य तथाविधः ; उत्क्षिप्तपाणिमध्ये तु, उत्क्षिप्तः उच्च: पाणिः यस्य, तस्य मध्ये तु संकुचितः, कुञ्चिताख्यश्चरणः । स च अतिश्रान्तगतौ ; अतिश्रान्तस्य बहुमार्गगमनश्रान्तस्य गतौ, तुङ्गस्य ग्रहे च, अत्युच्चपदार्थ
। स्यादतिक्रान्तगतौ इत्यपि पाठ:.
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संगीतरत्नाकरः यदि पादतलाग्रेण स्थित्वा भूमौ निपात्यते । असकृद्धा सकृत्पाणिर्भवेदुद्घट्टितस्तदा ॥ ३२१ ॥
इत्युद्घट्टितः (६) पार्ष्या धरामवष्टभ्य तामग्रेण निहन्ति यः । ताडितश्चरणः स स्यात्प्रयोज्यः क्रोधगर्वयोः ॥ ३२२ ॥
इति ताडित: (७) घ्नन्मुहुर्घटितोत्सेधोऽग्रपाणिभ्यां भुवं क्रमात् ।
___ इति घटितोत्सेध: (८) घट्टितः क्षितिघाती स्यात्पार्ण्यध्रिः प्रेरणेन सः॥ ३२३ ॥
इति घट्टितः (९) यस्तिरचा तलेनोवी प्रमृद्गाति स मर्दितः ।
इति मर्दित: (१०)
ग्रहणे च विनियुज्यते । इति कुञ्चित: (३) सूची लक्षयति-वाम इति । वामः पाद: स्वाभाविकः, अन्यस्तु भूमौ अङ्गुष्ठाग्रेण संस्थितः, उत्क्षिप्तेतरभागो वा भवति, सा सूची । असौ नूपुरबन्धने कार्या । इति सूची (४) अप्रतलसंचरं लक्षयति-यत्रेति । यत्र पाणि: उत्क्षिप्तः, अङ्गुष्ठः प्रसृतः, तथा अगुल्यो न्यञ्चिताः, सोऽप्रतलसंचरः । स च प्रेरणे, कुट्टने, स्थाने, पीडने, भूमिताडने, भूस्थितापसरणे, रेचके, भ्रमणे, मदे च कार्यः । इत्यग्रतलसंचरः (१) उद्घट्टितं लक्षयति-यदीति । यत्र भूमौ पादतलाग्रेण स्थित्वा पाणिः असकृद्वा सकृद्वा निपात्यते, स उद्घट्टितः । इत्युद्धट्टित: (६) ताडितं लक्षयतिपाष्र्या इति । यत्र पार्या भूमिमवष्टभ्य अग्रेण भूमिस्ताड्यते स ताडितः । स च क्रोधगर्वयोः प्रयोज्य: । इति ताडित: (७) घटितोत्सेधं लक्षयति
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इति
सप्तमो नर्तनाध्याय: अग्रगोऽये द्रुतं सर्पन् प्रयोज्यः पङ्किलक्षितौ ।। ३२४ ।।
इत्यागः (११) पृष्ठतोऽपसरन्पार्ष्या पाणिगः पाद उच्यते ।
इति पाणिगः (१२) स्थितः पार्थेऽथवा पार्श्व व्रजन्पार्श्वग इष्यते ॥ ३२५ ॥
इति पार्श्वगः (१३)
इति त्रयोदश चरणभेदाः । अथ स्कन्धभेदाः
एकोचौ कर्णलग्नौ चोच्छ्रितौ स्रस्तौ च लोलितौ । इत्युक्तौ पञ्चधा स्कन्धौ नाम्नाभिव्यक्तलक्षणौ ॥ ३२६ ॥ एकोच्चौ कथितौ स्कन्धौ मुष्टिकुन्तपहारयोः । आश्लेषे शिशिरे चांसौ कर्णलग्नौ मतौ सताम् ।। ३२७ ।। उच्छ्तिौ हर्षगर्वादौ स्रस्तौ दुःखे श्रमे मदे ।
(क०) स्कन्धभेदानां विनियोगं दर्शयति–एकोच्चावित्यादि ।। ॥ ३२६-३२८- ॥
इति पञ्चधा स्कन्धौ। इति सप्ताङ्गानि ।
घ्नन्मुहुरिति । यत्र अग्रपाणिभ्यां भूमि: क्रमात् हन्यते, स घटितोत्सेधः । इति घटितोत्सेधः (८) घट्टितं लक्षयति-घट्टित इति । पार्य ः प्रेरणेन क्षितिं घातयन् घट्टितः । इति घट्टितः (९) मर्दितं लक्षयति–य इति । यः पादः तिर्यक् तलेन उर्वी प्रमृगाति, स मर्दित: । इति मर्दित: (१०) अग्रगं लक्षयति- अग्रग इति । अग्रे द्रुतं शीघ्रं सर्पन् गच्छन् अग्रगः । स च पङ्कि
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९६
संगीतरत्नाकरः मूर्छायां चाथ कर्तव्यौ लोलितौ विटनर्तने ।। ३२८ ॥ नृत्तज्ञैर्गदितौ हास्ये हुडकावाद्यवादने ।
___ इति पञ्चधा स्कन्धौ।
इति सप्ताङ्गानि । अथ ग्रीवाभेदाः
समा निवृत्ता वलिता रेचिता कुश्चिताश्चिता ।। ३२९ ॥ त्र्यश्रा नतौनता चेति ग्रीवा नवविधा भवेत् । समा स्वाभाविकी ध्याने जपे कार्ये स्वभावजे ॥ ३३० ॥
इति समा (१) लक्षितौ प्रयोज्यः । इत्यग्रगः (११) पाणिगं लक्षयति-पृष्ठत इति । पार्या पृष्ठतोऽपसरन् पादः पाणिग: । इति पाणिगः (१२) पार्श्वगं लक्षयति--स्थित इति । पार्वोपरि स्थितः, पार्श्वगामी वा पार्श्वगः । इति पार्श्वगः (१३) ॥ -३१२-३२५ ॥
____ इति त्रयोदश चरणभेदाः । (क०) अथ प्रथमोद्दिष्टाया ग्रीवायाः प्रभेदानुद्दिशति-समा निवृत्तेत्यादि ।। -३२९-३३४- ॥
(सु०) स्कन्धभेदानाह-एकोच्चाविति । एकोच्चौ, कर्णलग्नौ, उच्छितो, स्रस्तौ, लोलिताविति पञ्चविधौ स्कन्धौ । तेषां लक्षणानि नाम्नैव प्रकटीकृतानि । प्रथमो मुष्टिकुन्तप्रहारयोः ; द्वितीय, अश्लेषे, शिशिरे च ; तृतीयो हर्षगर्वादौ; चतुर्थो दुःखे, मदे, मूर्छायां च ; पञ्चमो विटनर्तने, हास्ये, हुडुक्कावादने च प्रयोज्यः ॥ ३२६-३२८- ।।
इति पञ्चधा स्कन्धौ। इति सप्ताङ्गानि ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः ग्रीवा त्वभिमुखीभूय निवर्तेत यदा तदा । निवृत्तेत्युच्यते सा स्यात्स्वस्थानाभिमुखादिषु ॥ ३३१॥
इति निवृत्ता (२) पार्थोन्मुखी तु वलिता ग्रीवा भङ्गे तथेक्षणे ।
इनि वलिता (३) रेचिता विधुतभ्रान्ता वर्तुले मथने तथा ॥ ३३२ ॥
___ इति रेचिता (४)
(सु०) एवं सप्ताङ्गानि निरूप्य प्रत्यङ्गानि निरूपयिषुः प्रथमनिर्दिष्टग्रीवाभेदानाह–समेति । समा, निवृत्ता, वलिता, रेचिता, कुञ्चिता, अञ्चिता, त्र्यश्रा, नता, उन्नता इति नवविधा ग्रीवा । क्रमेण लक्षणमाह-समेति । स्वाभाविकी ग्रीवा समा । सा च ध्याने, जपे, स्वाभाविके कार्ये च प्रयोज्या ॥ -३२९, ३३०॥
इति समा (१) (सु०) निवृत्तां लक्षयति-ग्रीवा इति । यदा ग्रीवा अभिमुखीभूय निवतेत, तदा निवृत्ता भवति । सा स्वस्थानाभिमुखादौ प्रयोज्या ॥ ३३१ ॥
इति निवृत्ता (२) (सु०) वलितां लक्षयति-पाोन्मुखीति । पाश्र्वोन्मुखी ग्रीवा वलिता । सा च भङ्गे, कौटिल्ये, अथवा पलायने, ईक्षणे, पार्श्वपादावलोकने च प्रयोज्या ॥ ३३१-॥
इति वलिता (३) (सु०) रेचितां लक्षयति--रेचिता इधि । विधुता भ्रामिता ग्रीवा रेचिता । सा च वर्तुले, मथने च प्रयोज्या ॥ -३३२ ॥
इति रेचिता (४)
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९८
संगीतरत्नाकरः
आकुञ्चिता कुञ्चिता स्यान्मूर्धभारे स्वगोपने ।
इति कुञ्चिता (५)
अचिता प्रसृता लोला केशाकर्षेऽर्धवीक्षणे ॥ ३३३ ॥ इत्यविता (६)
या पार्श्वगता खेदे पार्श्वेक्षास्कन्धभारयोः । इति ध्यश्रा (७)
Paratम्रालंकारबन्धे कण्ठावलम्बने ।। ३३४ ॥ इति नता (८)
(सु० ) कुञ्चितां लक्षयति-आकुञ्चितेति । आकुञ्चिता ग्रीवा कुचिता । सा च मूर्धभारे, स्वगोपने च प्रयोज्या ॥ ३३२ ॥
इति कुचिता (५)
(सु० ) अञ्चितां लक्षयति - अश्वितेति । लोला चञ्चलाभूत्वा प्रसृता विस्तृता ग्रीवा अविता । सा च केशाकर्षणे, अर्धवीक्षणे च प्रयोज्या ॥ ३३३ ॥ इयश्चिता (६)
(सु०) त्र्यश्रां लक्षयति - त्र्यश्रेति । पार्श्वगा ग्रीवा त्र्यश्रा । सा च खेदे; पार्श्वक्षणे ; स्कन्धभारे च प्रयोज्या ॥ ३३३ ॥
इति व्यश्रा (७)
(सु० ) नतां लक्षयति---नतेति । अवनम्रा ग्रीवा नता । सा च अलंकारबन्धे, कण्ठावलम्बने च प्रयोज्या ॥ - ३३४ ॥
इति नता ( ८ )
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
उन्नतोर्ध्वानता ग्रीवालंकारोर्ध्व प्रदर्शने ।
इत्युन्नता ( ९ )
अथ बाहुभेदा:
ऊर्ध्वस्थोऽधोमुखस्तिर्यगपविद्धः प्रसारितः ।। ३३५ ।। अञ्चितो मण्डलगतिः स्वस्तिको द्वेष्टितावपि । पृष्ठानुसारीत्युदितो बाहुर्दशविधो बुधैः ।। ३३६ ।। आविद्धः कुञ्चितो नम्रः सरलान्दोलितावपि । उत्सारित इति प्राहुर्वाहून्षडपरान्परे ।। ३३७ ।। शीर्षादूर्ध्वं व्रजन्वारूर्ध्वस्थस्तुतदर्शने ।
इत्यूर्ध्वस्थः (१)
(सु०) उन्नतां लक्षयति — उन्नतेति । उर्ध्वानता ग्रीवा उन्नता । सा च अलंकारेण ऊर्ध्वप्रदर्शने प्रयुज्यते ॥ ३३४ - ॥
९९
इत्युत्रता ( ९ ) इति नवविधा ग्रीवा । इति श्रीवाप्रकरणम्
-३३५-३३८- ॥
(क) अथ बाहुभेदानुद्दिशति - ऊर्ध्वस्थोऽधोमुख इत्यादि ॥
(सु०) बाहुभेदानाह - ऊर्ध्वस्थ इति । ऊर्ध्वस्थः, अधोमुख, तिर्यगपविद्ध:, प्रसारितः, अञ्चितः, मण्डलगतिः, स्वस्तिकः, उद्वेष्टितः, पृष्ठानुसारीति दशाविधो बाहु: । मतान्तरमाह - आविद्ध इति । आविद्ध:, कुञ्चितः, नम्रः, सरल:, आन्दोलितः, उत्सारित इत्यन्यदपि बाहुषटकं परे प्रोचुः । क्रमेण लक्षणमाह - शीदिति । शीर्षात् ऊर्ध्वं गतो बाहु: उर्ध्वस्थः । स च तुङ्गदर्शने प्रयोज्यः ॥ - ३३५-३३७- ॥
यूथ : (१)
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संगीतरत्नाकरः अधोमुखो महीश्लेषी
इत्यधोमुखः (२)
तिर्यक्पार्श्वगतो भवेत् ।। ३३८ ॥
इति तिर्यग्गतः (३) बाहुमण्डलवद्गत्या वक्षःक्षेत्राद्विनिर्गतः । अपविद्धः
इत्यपविद्धः (४) (सु०) अधोमुखं लक्षयति-अधोमुख इति । महीश्लेषी ; महीं पृथ्वी श्लिष्यति तया सह संयोग प्राप्नोति ; स अधोमुख इत्युज्यते ॥ -३३८ ॥
___इत्यधोमुखः (२) (१०) तिर्यग्गतं लक्षयति-तिर्यगिति । पार्श्वगतः, पार्श्व प्राप्त: तिर्यगित्युज्यते ॥ -३३८ ॥
इति तिर्यग्गतः (३) (क०) अत्रापविद्धबाहुलक्षणे-मण्डलवद्गत्या वक्षःक्षेत्राद्विनिर्गत इत्यादि । मण्डलमस्या अस्तीति मण्डलवती । सा चासौ गतिश्चेति कर्मधारयः । " पुर्वकर्मधारयजातीयदेशीयेषु (अष्टा० ६.३-४२) इत्यादिना पुंवद्भावे सति मण्डलवद्गतिरिति रूपम् । तच्च मण्डलमत्र बाहोरपविद्धसंज्ञानुसारेण बहिर्मुखमेव मन्तव्यम् । अन्यथा 'वक्षःक्षेत्राद्विनिर्गतः' इत्येतल्लक्षणं नोपपद्यते ॥ ३३८, ३३९- ॥
___इत्यपविद्धः (४) (सु०) अपविद्धं लक्षयति-बाहुरिति । यत्र बाहुः मण्डलवद्गत्या; मण्डलाकारया गत्या वक्ष:क्षेत्रात् विनिर्गतः : सोऽपविद्धः ॥ ३३८-, ३३९ ॥
इत्यपविद्धः (१)
श
". (२)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अथाग्रदेशमनुधावन्प्रसारितः ॥ ३३९ ।।
इति प्रसारित: (५) वक्षःक्षेत्राद्विनिर्गत्य वक्षःप्रत्यागतोऽश्चितः ।
___ इत्यचितः (६) उच्यते मण्डलगतिः सर्वतो भ्रमणाद्भजः ॥ ३४० ॥ खड्गादिभ्रामणे चास्य विनियोगं प्रचक्षते ।
इति मण्डलगतिः (७) स्वस्तिको लग्नयो होः पार्श्वव्यत्यासतः स्थितौ ॥ ३४१ ॥ स स्याद्भानोरुपस्थाने परिरम्भेऽभिवादने ।
इति स्वस्तिः (८) (सु०) अपसारितं लक्षयति-अथेति । ऊर्ध्वदेशमनुधावन् प्रसारितो भवति ॥ -३३९ ॥
इति प्रसारितः (५) (सु०) अञ्चितं लक्षयति-वक्षःक्षेत्रादिति । यत्र बाहुः वक्षःक्षेत्रात् विनिर्गत्य, वक्षःप्रत्यागतश्चेत्, अञ्चितः ॥ -३४० ॥
___ इत्यञ्चितः (६) (सु०) मण्डलगतिं लक्षयति-उच्यत इति । सर्वतो भ्रान्तो भुजः मण्डलगतिः । अस्य च खड्गादिभ्रामणे विनियोग प्रचक्षते ॥ -३४०, ३४०-॥
इति मण्डलगतिः (७) (क०) स्वस्तिकबाहुविनियोगे-स स्याद्भानोरूपस्थाने परिरम्भेऽभिवादन इत्यत्र हस्तप्रचारविशेषानभिधानेऽपि लोकप्रसिद्धभानूपस्थानादिविनियोगवशात्तदुचितः प्रचारो द्रष्टव्यः । तथाहि भानूपस्थाने
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१०२
संगीतरत्नाकर:
निष्क्रामन्मणिबन्धस्थवर्तनामाश्रितो भुजः ।। ३४२ ।।
उद्वेष्टितो भवेत्
इत्युद्वेष्टित: ( ९ )
पृष्ठानुसारी पृष्ठतो गतः । भवेत्तूणशराकर्षे वीटिकाग्रहणे च सः || ३४३ ॥ इति पृष्ठानुसारी (१०)
मस्तकोपरि स्वस्तिकाकार विन्यस्तावत्तानितहस्ततलौ बाहू लोकप्रसिद्धौ । परीरम्भे स्वसंमुखहस्ततलौ स्वस्वपार्श्वात्पार्श्वान्तरगतौ बाहू प्रसिद्धौ । अभिवादने तु तादृशावधोमुखहस्ततलौ बाहू प्रसिद्धौ । एवं हस्ताद्यभिनयेष्वपि प्रचारविशेषानभिधानेऽपि विनियोगवशाद्विशेषो द्रष्टव्यः ॥ ॥ - ३४१, ३४१- ॥
इति स्वस्तिकः ( 2 )
(सु० ) स्वस्तिकं लक्षयति - स्वस्तिक इति । लग्नयोः सङ्गतयोः बाहोः पार्श्वव्यत्यासतः स्थितौ सत्यां स्वस्तिको भवति । स च भानोरुपस्थाने ; परिरम्भे ; अभिवादने च प्रयोज्यः ॥ - ३४१, ३४१- ॥ इति स्वस्तिक : (८)
(सु० ) उद्वेष्ठितं लक्षयति-- निष्क्रामभिति । मणिबन्धस्थां पूर्वोक्तवर्तनामाश्रित्य निष्क्रामन् भुज उद्वेष्टितः ॥ ३४२, ३४२ ॥
इत्युद्वेष्टित: ( ९ )
(सु० ) पृष्ठानुसारिणं लक्षयति--पृष्ठानुसारीति । पृष्टतो गतः पृष्ठानुसारी । स च तूणात् शराकर्षे, वीटिकाग्रहणे च प्रयोज्यः ॥ - ३४२, ३४३ ॥ इति पृष्ठानुसारी (१०)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
आविद्धोऽभ्यन्तराक्षिप्तः
इत्याविद्ध: ( ११ )
कुञ्चतस्तु स उच्यते ।
यस्तीक्ष्णकूर्परं वक्रीकृतः खड्गादिधारणे ।। ३४४ ॥ महारे भोजने पाने प्रोक्तो निःशङ्कसूरिणा ।
इति कुञ्चिल: (१२)
ईषक्रस्तु नम्रोऽसौ स्तुतौ माल्यस्य धारणे ॥ ३४५ ॥ इति नत्र : (१३)
१०३
सरल: पार्श्वयोरूर्ध्वमधस्ताच्च प्रसारितः ।
(क०) आविद्धलक्षणे - अभ्यन्तराक्षिप्त इति । उद्वेष्टितोपक्रान्तया अन्तर्मुखवर्तनयेत्यर्थः ॥ ३४३ ॥
इत्याविद्ध: ( ११ )
(सु० ) आविद्धं लक्षयति-- अभ्यन्तराक्षिप्त आविद्धः ॥ ३४३ ॥ इत्याविद्धः ( ११ )
(सु० ) कुञ्चितं लक्षयति - कुञ्चितस्त्विति । यः तीक्ष्णकूर्परं यथा भवति तथा वकीकृतः संकुचीकृत: कुवितो भवति । स च खड्गादिधारणे, प्रहारे, भोजने, पाने च विनियुज्यते ॥ - ३४४, ३४४ ॥
इति कुञ्चितः (१२)
(सु० ) नम्रं लक्षयति — ईषदिति । ईषद्वक्रीकृतो नम्र इत्युच्यते । असौ स्तुतौ, माल्यस्य धारणे च प्रयुज्यते ॥ - ३४५ ॥
इति नत्र: (१३)
(क०) सरलबाहुलक्षणे – सरलः पार्श्वयोरूर्ध्वमधस्ताच्च प्रसारित
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१०४
संगीतरत्नाकर:
'स्यात्पक्षानुकृतौ माने भूस्थनिर्देशने क्रमात् ।। ३४६ ।।
इति सरलः (१४)
गतावान्दोलितोऽन्वर्थः
इत्यन्दोलित : (१५)
बाहुरुत्सारितः पुनः । स्वपार्श्वमन्यतो गच्छञ्जनतोत्सारणे भवेत् ॥ ३४७ ॥
इत्युत्सारित: (१६)
इति षोडशविधो बाहु: ।
इति । अत्र त्रीणि लक्षणानि द्रष्टव्यानि ; यथा पार्श्वयोः प्रसारितः सरलः ; ऊर्ध्वं प्रसारितः सरलः ; अधस्तात्प्रसारितश्च सरल इति । एकलक्षणत्वे हि; ' स्यात्पक्षानुकृतौ माने भूस्थनिर्देशने क्रमात् ' इति क्रमाद्विनियोगभेदं न ब्रूयात् ॥ ३४६ ॥
इति सरल: (१४)
(सु० ) सरलं लक्षयति - सरल इति । पार्श्वयोरूर्ध्वमधस्ताच्च प्रसारितो बाहुः सरलः । स च प्रज्ञाकृते, माने, भूस्थनिर्देशे च प्रयोज्यः ॥ ३४६ ॥ इति सरल : (१४)
लक्षयति- गताविति । गतौ आन्दोलितो
(सु० ) आन्दोलितं
ऽन्वर्थः ॥ - ३४६ ॥
इत्यन्दोलित : (१५)
(सु० ) उत्सारितं लक्षयति — बाहुरिति । स्वपार्श्वमन्यतो गच्छन् उत्सारितः । स च जनताया उत्सारणे प्रयोज्यः ॥ ३४६-, ३४७ ॥
इत्युत्सारितः (१६) इति षोडशविधो बाहु: ।
1
स स्यात्प्रज्ञाकृते माने इति सुधाकर:.
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अथ वर्तनाः
बाहूनां करणेनाथ समस्तव्यस्तयोजनात् । क्रमाद्रुतादिवैचित्र्याज्जायन्तेऽत्र सहस्रशः ॥ ३४८ ॥ वर्तनाश्चतुरैरूह्यास्ताः शोभाभरसंभृता ।
(क०) वाहूनामित्यादि । बाहूनामुक्तानां षोडशविधानां करणे. नावेष्टितादिपूर्वकव्यापारेण । समस्तव्यस्तयोजनादिति । द्वित्रिप्रभृतीनामेकैकरूपाणां समस्तानां व्यस्तानां वा योजनात् मिश्रणात् । क्रमादद्वतादिवैचियादिति । आदिशब्देन मध्यविलम्बितौ गृह्यते । द्रुतादीनां लयानां वैचित्र्यं नाम यतिविशेषरूपेणावस्थानम् । तस्मात्सहस्रशो वर्तना जायन्ते । वर्तनाः शोभाभरसंभृताः सत्यश्चतुरैरूह्या भवन्ति । अत्रास्माभिर्न प्रपञ्च्यत इत्यर्थः । ग्रन्थकारणानुक्तानामपि तासां स्वरूपपरिज्ञानार्थ कोहलोक्ताः काश्चन वर्तनाः कथ्यन्ते । यथा-अथ वर्तनाः
पताकारालयोः पूर्व शुकतुण्डालपमयोः । वर्तना खटकस्यापि पश्चान्मकरवर्तना ॥ ऊर्ध्ववर्तनिकाविद्धवर्तना रेचिताह्वया । नितम्बकेशबन्धाख्ये फालवर्तनिका ततः ॥ कक्षवर्तनिकोरःस्थवर्तना खड्गवर्तना। पद्मवर्तनिका दण्डवर्तना पल्लवाभिधा ॥ अर्धमण्डलिका घातवर्तना ललिताभिधा । वलिता गात्रपूर्वा च वर्तना प्रतिवर्तना ।।
चतुर्विंशतिरित्युक्ता वर्तना भट्टतण्डुना । गम्येते.
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संगीतरत्नाकरः अथ क्रमाल्लक्षणमुच्यते
सव्यापसव्यव्यत्यासा भ्रान्तिरा मणिबन्धतः ।। क्रियते चेत्पताकस्य सा पताकाख्यवर्तना ।
इति पताकवर्तना (१) तर्जन्याद्यगुलीनां यदन्तरावेष्टनं क्रमात् ॥ आवेष्टितक्रियापूर्व सा प्रोक्तारालवर्तना।
इत्यरालवर्तना (२) अवहित्थः करो वक्षस्याविद्धाधोमुखः कृतः ॥ ऊरुपृष्ठे वर्तितश्चेच्छुकतुण्डाख्यवर्तना ।
___ इति शुकतुण्डवर्तना (३) अभ्यन्तरे कनिष्ठाया वर्तन्तेऽगुलयः क्रमात् ।। व्यावर्तित क्रिया यत्र सालपद्मस्य वर्तना।
इत्यलपद्मवर्तना (1) खटकामुखयो मिक्षेत्रे सव्यापसव्यतः ।। मणिबन्धावधिभ्रान्तिः खटकामुखवर्तना ।
इति खटकामुखवर्तना (५) यदा तु मकरो हस्तः पुरस्तात्पार्श्वयोरपि ॥ व्यावय॑ते बहिश्चान्तस्तदा मकरवर्तना ।
इति मकरवर्तना (६) यदोद्धृतौ नृत्तहस्तादूर्ध्वदेशेन वर्तितौ ।। तदो+वर्तना नाम वर्तनाविद्भिरीरिता ।
इत्यूर्ध्ववर्तना (७)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः आविद्धवक्रयोः पाण्योतते चेद्भुजौ क्रमात् ॥ आविद्धावन्तराक्षिप्तौ सा स्यादाविद्धवर्तना।
इत्याविद्धवर्तना (6) स्वस्तिकाद्विच्युतौ हस्तौ हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ ॥ रेच्येते चेद्वर्तनाभ्यां तदा रेचितवर्तना ।
इति रेचितवर्तना (९) मणिबन्धावधिभ्रान्तौ विश्लिष्टाङ्गुलिपल्लवा ।। नितम्बोक्तप्रकारेण वर्तितौ स्कन्धदेशयोः । पुननितम्बदेशे तु पताको वर्तितौ क्रमात् ।। नितम्बवर्तना नाम
इति नितम्बवर्तना (१०)
केशबन्धोक्तरीतितः । विचित्रवर्तनायोगात्केशदेशाद्विनिर्गतौ ॥ पुनश्च केशदेशे च पर्यायेण विवर्जितौ । पताकावेव चेत्पाहुः केशबन्धाख्यवर्तनाम् ॥
___ इति केशबन्धवर्तना (११) व्यावृत्य वक्षसः फालं प्राप्य तत्पार्श्वमागतौ । ततो मण्डलवद्वान्त्या प्रचालितभुजौ करौ ।। पताकौ चेच्छनैरूव॑मण्डलावेव कोविदैः । चक्रवर्तनिकेत्युक्ता फालवर्तनिकापि च ।।
इति फालवर्तनिका' (१२)
चक्रवर्तनिका इत्यपि व्यवहारः। '
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१०८
संगीतरत्नाकरः पार्श्वमण्डलिनोः पाण्योर्धमणं स्वस्वपार्श्वयोः । क्रमादेकैकपाधै वा कक्षवर्तनिकां जगुः ॥
इति कक्षवर्तनिका (१३) उरोवर्तनिकां विद्यादुरोमण्डलिनोः क्रियाम् ।
___ इत्युरोवर्तनिका (१४) एकस्याकुञ्चितो मुष्टिः खटकास्योऽश्चितः परः ॥ इति कीर्तिधरस्त्वाह मुष्टिकस्वस्तिकौ करौ । खड्गवर्तनिकेत्येतन्नामधेयं त्वकल्पयत् ॥
इति खडगवर्तनिका (१५) पद्मकोशाभिधौ हस्तौ व्यावृत्तादिक्रियान्वितौ । आश्लिष्टौ स्वस्तिको क्षेत्रे व्यावृत्तपरिवर्तितौ ।। मिथः पराङ्मुखौ सन्तौ नलिनीपद्मकोशकौ । एतौ कीर्तिधराचार्याः पद्मवर्तनिकां जगुः ॥
यद्वा
स्वस्तिकाकुश्चितौ हस्तौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ । मिथः पराङ्मुखौ सन्तौ सैषा कमलवर्तना ॥
___ इति पद्मवर्तना (१६) वक्षःक्षेत्रं श्रयत्येको येन कालेन पार्श्वतः । व्यावृत्त्या हंसपक्षाख्यस्तेनैव परिवर्तितः ।। प्रसारितभुजोऽन्यस्तु तिर्यकार्या पराः पुनः । एवमङ्गान्तरेणापि क्रिया स्याद्दण्डपक्षयोः ॥ दण्डवर्तनिकामेनां भट्टतण्डुरभाषत ।
इति दण्डवर्तना (१७)
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१०९
सप्तमो नर्तनाध्यायः पताको मणिबन्धस्थौ शिथिलौ स्वस्तिकौ पुनः ॥ कथितौ पल्लवौ तौ हि ख्याता पल्लववर्तना ।
इति पल्लववर्तना (१८) व्यावर्तितेन हस्तश्चेदलपल्लवशंसिता ॥ स्वपार्श्ववक्षसः प्राप्य प्रसारितभुजो भ्रमन् । अरालं दधदावेष्टकरणेन श्रयन्नरः ॥ तदानीमेव पार्श्व स्वमन्यो गच्छति पूर्ववत् । मण्डलेन ततोऽप्येवमुरःपार्श्वेऽर्धमण्डलौ ॥ तयोर्यैषा क्रिया सा स्यादर्धमण्डलवर्तना ।
इत्यर्धमण्डलवर्तना (१९) उद्वेष्टितेन निष्पन्नौ स्यातां चेदलपल्लवौ ॥ वक्षसः स्कन्धयोरूर्ध्वप्रसारितयुतावुभौ । स्कन्धाभिमुखमाविद्धौ वलितौ चाङगुलीदले ॥ अलपल्लवितौ प्राहुर्घातवर्तनिकां परे' ।
इति घातवर्तनिका (२०) एतावेव चलौ मूर्धक्षेत्रगौ ललिता मता ॥ खटकायौ शिरोदेशे लग्नाग्रौ तां परे जगुः ।
इति ललितवर्तनिका (२१) कूर्परस्वस्तिकाकारवर्तनाद्वलिता मता ॥ अन्ये त्वाचक्षतेऽन्योन्यलमानौ खटकामुखौ । ऊर्ध्वगौ पृष्ठतो नम्रकूर्परौ वलितेति च ॥
__ इति चलितवर्तना (२२) परे आचार्या अलपल्लववर्तनां प्राहुः।
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११०
संगीतरत्नाकर:
ते रेखामनतिक्रम्य भूरिभङ्गिभृतो भुजाः ।। ३४९ ।। रेच्यन्ते यदि लक्ष्यज्ञैश्वालकाः कीर्तितास्तदा ।
व्यावर्तिर्तोऽन्तर्गात्रं चेदलपल्लवहस्तकः । पराङ्मुखोऽपविद्धः स्यात्कथिता गात्रवर्तना ।। इति गात्रवर्तना (२३)
गात्रस्य प्रातिलोम्येन पाणिराक्षिप्य वर्तते । अलपल्लवसंज्ञश्रेत्प्रतिवर्तनिका तदा ॥
इति प्रतिवर्तनिका (२४)
अन्याश्च कथिताः सप्त वर्तना नृत्तवेदिभिः । वर्तना या शिरस्थाद्या द्वितीया तिलकस्य च ॥ वर्तना नागबन्धाख्या स्यात्सिंहमुखवर्तना । वैष्णव्येा तलमुखी सप्तमी कलशामिधा ॥ नाममात्र प्रसिद्धास्तास्तैरेव स्फुटलक्षणाः । इति वर्तनाः ।
प्रकृतमनुसरामः || ३४८, ३४८- ॥
(सु० ) प्रकरणमुपसंहरति - वाहूनामिति । बाहुभेदानां च समस्तव्यस्तयोजनात् क्रमात् शीघ्रमध्यविलम्बितादिवैचित्र्यभेदेन बहवो भेदा भवन्ति । तस्मात् बहवो वर्तनाः शोभाभरसंभृताः सत्यश्चतुरैरूह्याः । रेखामिति । रेखामनतिक्रम्य अन्येन भूरिभङ्गिभृतः बहुचातुरीभूता एते भुजा:, यदि रेच्यन्ते वक्ष्यमाणरेचकयुक्ता भवन्ति, तदा लक्ष्यज्ञे: चालका इत्युच्यन्ते । ॥ ३४८, ३४९- ॥
(क०) ते रेखामित्यादि । ते षोडश भुजा रेखां शोभामनतिक्रम्यापरित्यज्य यदि भूरिभङ्गिभृतः सन्तो रेच्यन्ते चेत्, बहुविधैः प्रकारैश्व
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१११ लनात्मकरित्यर्थः । पृथग्भूताः क्रियन्ते चेत्तदा लक्ष्यज्ञैश्वालका इति कीर्तिताः । तेषां चालनाश्रयत्वाचालकसंज्ञा वेदितव्या । तेषां लक्ष्यप्रसिद्धत्वात्ते तत एवावगन्तव्या इत्यत्र ग्रन्थकारेण नोक्ताः । तेषां केषांचित्स्वरूपपरिज्ञानाय कोहलोक्तानि लक्षणानि लिख्यन्ते । यथा शार्दूलमुनिना पृष्टः कोहल उवाच --
" चालकानां स्वरूपं वै समाहितमनाः शृणु । तत्र क्रिया मनोहारी वाद्ये चालनमुच्यते ॥ अनेन रहितं नृतं निष्प्राणतनुव वम् । विश्लिष्टवर्तितं पूर्व वेपथुव्यञ्जकं तथा ॥ अपविद्धं ततः पश्चालहरीचक्रसुन्दरम् । वर्तनास्वस्तिकं चैव संमुखीनरथाङ्गजम् ।। पुरोदण्डभ्रमाख्यं च त्रिभङ्गीवर्णसारकम् । डोलं नीराजनं चैव स्वस्तिकाश्लेषचालनम् ॥ मीथः सवीक्ष्यबाह्यं च वामदक्षविलासितम् । मौलिरेचितकं चैव वर्तनाभरणं ततः ॥ आदिकूर्मावताराख्यमंसवर्तनकं तथा । मणिबन्धासिकर्षाख्यं कलविङ्कविनोदितम् ।। चतुष्पत्राव्जसंज्ञं च मण्डलामाभिधं तथा । वालव्यजनचालाख्यं तथा वीरुधबन्धनम् ।। विशृङ्गाटकबन्धाख्यं पश्चात्कुण्डलिचारकम् । मुरुजाडम्बरं पश्चाद्वारदामविलासकम् ॥ धनुराकर्षणं चैव साधारणमतः परम् । समप्रकोष्ठवलनं तथा देवोपहारकम् ॥
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११२
संगीतरत्नाकरः तिर्यग्गतस्वस्तिकामं मणिबन्धगतागतम् । अलातचक्रकाख्यं च व्यस्तोत्प्लुतनिवर्तकम् ॥ तथोरभ्रकसंबाधं तिर्यक्ताण्डवचालनम् । धनुर्वल्लीविनामाख्यं तायपक्षविलासितम् ॥ कररेचकरत्नाख्यं शरसंधाननामकम् । मण्डलाभरणं चैवमंसपर्यायनिर्गतम् ।। अष्टबन्धविहारं च कर्णयुग्मप्रकीर्णकम् । पर्यायगजदन्ताख्यं रथनेमिसमाहृयम् ॥ स्यात्स्वस्तिकत्रिकोणं च लतावेष्टितकं तथा । नवरत्नमुखं चेति पञ्चाशद्धव चालकाः ॥ एतेषामेव मुख्यत्वं मुनेत्तकलासु वै। किं त्वमी केचनान्वर्था नामगम्यास्तु केचन ।। केचित्प्रायोगिकास्तद्वदपरे सांप्रदायिकाः । अन्येऽपि बहवः पूर्व प्रयुक्ता भट्टतण्डुना ।। अन्योन्यव्यतिहारेण तिलतण्डुलवर्तना । नृत्तमङ्गलशास्त्रे तु शतं सन्त्येव चालकाः ।। नारदेनापि मुनिना तथा सप्तशतं मुने । देशीनृत्तसमुद्राख्ये कीर्तिताश्चालकाश्च वै ॥ सहस्त्रं चालकास्स्वन्ये ताण्डवे शंभुनोदिताः । अतोऽनन्तत्वमेतेषां तत्तच्छास्त्र विकल्पनात् ॥ किं तु लोके प्रयोक्तृणां कालतोऽल्पधियामिह । तेषु तेषु विशेषेण कररेचकराशिषु ॥ सारसारतरास्त्वेते वेधसा भव्यचेतसा । दनो घृतमिवोदीर्णाः सुबोधाय च चालकाः ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः प्राप्तयोः स्वस्तिकत्वं प्राक्तिर्यगेको विलोलितः । पार्श्वयोमौलिपर्यन्तमूर्ध्वं चाधश्च चालनम् ॥ अन्यस्तु भजते यत्र तत्तु विश्लिष्टवर्तितम् ।
___ इति विश्लिष्टवर्तितम् (१) नाभिक्षेत्रसमीपस्थे तिर्यग्लुठति चैकके ।। स्वस्यापरागवलनं रसवृत्तिसमुज्ज्वलम् । करयोर्यत्तु तत्प्रोक्तं वेपथुव्यञ्जकं पुनः ॥
इति वेपथुव्यजकम् (२) वामदक्षिणभागेन नाभिकण्ठप्रदेशयोः । लुठने मण्डलेनैव त्वपविद्धमिति स्मृतम् ।।
इत्यपविद्धम् (३) नाभिक्षेत्रसमीपस्थे तिर्यग्लुठति चैकके ! अपरं तु पराचीनमान्दोलितककर्मणा ॥ नीत्वा वामांसपर्यन्तं बहिरेव प्रसार्य च । अमुमन्तः समाक्षिप्य मूर्ध्नि सव्यापसव्ययोः ।। विलोड्य पार्श्वयोर्मन्दं विलासेन तु यद्भवेत् । प्रकीर्तितं तु तद्धीरैर्लहरीचक्रसुन्दरम् ।।
इति लहरीचक्रसुन्दरम् (४) एकस्य पार्श्वचलने विद्युद्दामविडम्विनः । आनुगुण्येन हस्तेन योगो विच्युतिपूर्वकः ।। पौनः पुन्येन यस्मात्तु वर्तनास्वस्तिकं मतम् । अथवा तुम्बिखण्डाब्जवर्तनाभिस्तु तद्भवेत् ।।
इति वर्तनास्वस्तिकम् (५)
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संगीतरत्नाकरः
अन्योन्याभिमुखे स्यातां व्यश्रं चलितरेचितौ । पार्श्वगावान्तरावृत्त्या द्विगुणौ तीक्ष्णकूर्परम् ॥ पूर्ववद्वलितौ यत्र करौ सौन्दर्यशालिनौ । संमुखीनरथाङ्गं तन्निर्दिष्टं तपतां वर ॥
इति संमुखीनरथाङ्गम् (६) कृत्वैकं मुष्टिरूपेण तिर्यङ्मुखतयापि च । तस्यैव बहिरन्तश्च लुठितोऽन्यस्य लीलया ॥ पुरो निःसारणं पाण्योः पर्यायेण च यत्र तु । पुरोदण्डभ्रमं तत्तु निर्दिष्टं पूर्वसूरिभिः ।।
___इति पुरोदण्डभ्रमम् (७) पूर्वपार्श्वेण विदिशि तिर्यक्चेन्मण्डलात्मना । या क्रिया जायते पाण्योः पर्यायाधुगपञ्च वा ॥ त्रिभङ्गीवर्णसरकं चालनं चेति सा स्मृता ।
इति त्रिभङ्गीवर्णसरकम् (6) ऊर्ध्वाधोवदनं व्यश्र लुठतो यत्र लीलया ॥ पर्यायण करौ सौम्यं डोलं तत्परिकीर्तितम् ।
इति डोलम् () प्राप्तौ स्वस्तिकतामेव बहिरेव च निःसृतौ ॥ अन्तस्तिर्यक्चक्रभावाच्छीर्षे सव्यापसव्ययोः । लुठतो यत्र युगपत्करौ नीराजितं तु तत् ॥
इति नीराजितम् (१०) करयोः स्वस्तिकाश्लेषसारिणोरंसदेशतः ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वलनं यत्र निर्दिष्टं स्वस्तिकाश्लेषचालनम् ॥
इति स्वस्तिकाश्लेषचालनम् (११) एको हस्तः परस्यांसपर्यन्तं सरलोन्नतः । निवृत्तश्चेत्स्वपार्श्वे स्यात्पर्यायाद्दत्तमण्डलम् ॥ मिथःसमीक्ष्य बाह्यं तद्गदितं नामतो बुधैः ।
___ इति मिथ:समीक्ष्यबाह्यम् (१२) सव्यापसव्ययोस्तिर्यग्लुठनं स्वस्तिकात्मना ।। करयोर्यत्र विद्युत निर्दिष्टं तच्च तण्डुना । वामदक्षतिरश्चीनं तच्चाप्यन्वर्थसंज्ञि तत् ।।
इति वामदक्षविलासितम् (१३) कटीक्षेत्रगतश्चैकः स्यान्चेदन्यः पुरोगतः । अथ तौ केशपर्यन्तं लुठतो यत्र लीलया ॥ मौलिरेचितकं प्रोक्तं तज्ज्ञैर्नयनसुन्दरम् ।
इति मौलिरेचितकम् (१४) कर्णभागगतश्चैकः परश्चेद्वर्तितो भवेत् ॥ उत्सारितोद्वेष्टितकैर्वर्तनाभरणं तु तत् ।
___इति वर्तनाभरणम् (१५) वामदक्षिणकावौं मूनों वा युगपत्क्रमात् ॥ ऊर्ध्वाधोमण्डलाकारभ्रान्तौ स्वस्तिकगौ पुनः । वर्तनास्वस्तिकौ पार्श्वद्वये मण्डलघूर्णितौ ।। अभिमण्डलसंपूर्णी यदा तु लुठतः करौ । आदिकूर्मावतारं तद्रेचकज्ञाः प्रचक्षते ॥
इत्यादिकूर्मावतारम् (१६)
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संगीतरत्नाकरः मणिबन्धप्रकोष्ठांसवर्तनावलितोद्धृतैः । सा च किंचिन्नतशिरःक्षेत्रोपरिविलोडनैः ।। परागधोमुखत्वेन लुठितैर्वा पुरो भुवि । वलितैरार्जवादन्यैः पाण्योः सव्यापसव्ययोः ॥ पार्श्वयोर्योगपद्येन नम्रभावात्क्रमेण वा। भूयते यत्र लुठितमंसवर्तनकं विदुः ।।
इत्यसवर्तनकम् (१७) द्विगुणोदश्चनेनैव क्रमादंसात्तु लोडितौ । पर्यायेण च कृत्वाथ कूपरस्वस्तिकात्मना । विलोड्य तत्रैव बहिः करं मुष्टिस्वरूपतः । अन्तनिवेश्य त्वरया लुठनात् त्र्यश्रभावतः ।। वलमाने तदन्यस्मिन् क्रमशः पार्श्वयोर्द्वयोः । तस्यैव च समुत्क्षेपः क्रियते यत्र लीलया ॥ मणिबन्धासिकर्षाख्यं तद्विदः प्रतिजानते ।
इति मणिबन्धासिकर्षम् (१८) शिरःक्षेत्रोपरिष्टात्तु मध्यादाकाशकस्य वा ।। विलोड्य मण्डलभ्रान्त्या पर्यायेण च पार्श्वयोः । करयोः कल्पते यत्र पतनोत्पतनामिका ।। क्रियासमभिहारेण क्रिया च द्रुतमानतः । कलविङ्कविनोदाख्यं चालनं तत्प्रचक्षते ।।
इति कलविङ्गविनोदम् (१९) पूर्वमूर्व प्रलुठितस्ततो मण्डलवर्तितः । तत्पश्चाच्चतुराशासु करो यत्र विलासतः ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः लुठमाने तदन्यस्मिन्नाभिक्षेत्रसमीपगे । पर्यायाद्वर्तते रम्यं चतुष्पत्राउजमीरितम् ॥
इति चतुष्पत्राब्जम् (२०) मुष्टिरूपस्तु लुठितस्तदूर्ध्व चार्जवात्पुनः । गतागतः पार्श्वयोश्च तत्पश्चादग्रतो गतः ।। चलमाने तदेतस्मिन् पूर्वोक्तस्थानगामिनि । पर्यायेण करो यत्र मण्डलामाभिधं तु तत् ।।
इति मण्डलाग्रम् (२१) उत्प्रकोष्ठं च पर्यायादंसपर्यन्तकान्तरे । लुठितौ च तथाधस्ताद्गामिनौ च प्रभावतः ॥ भवतो यत्र तु करौ वालव्यजनचालनम् ।
इति वालव्यजनचालनम् (२२) यत्र त्रिकोणमर्यादामनुसृत्य प्रलोड्यते ॥ पुरस्तात्पार्श्वयोश्चैव करो मण्डलचारतः । तद्वीरुधबन्धाख्यमुद्दिष्टं भट्टतण्डुना ॥
इति वीरुधबन्धनम् (२३) प्रतिलोमानुलोमाभ्यामस्यैव खलु या क्रिया । विशृङ्गाटकबन्धाख्यं मतङ्गस्तदुवाच ह ।।
इति विशृङ्गाटकबन्धनम् (२४) वामदक्षिणयोर्यत्र करस्थस्य विलोडनम् । कुर्वन् गतागतं दिक्षु व्यर्थ वा वर्तते पुनः ॥. तद्वै कुण्डलिचाराख्यं प्रणीतं प्राच्यसूरिभिः ।
इति कुण्डलिचारकम् (२५)
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संगीतरत्नाकरः आपादिकगतश्चाथ तत्रैवाबद्धमण्डलः ।। सव्यापसव्ययोश्चैव पार्श्वयोर्वर्तन क्रिया । दक्षिणो यत्र हस्तस्तु ततो वामांसमुद्यतः ॥ वेगाद्विदिशि गत्वात्र लुठितः सव्यपार्श्वगः । तदन्यस्मिन् विलुठितो यत्र नाभिसमीपगः ॥ मुरुजाडम्बरं नाम निर्णीतं यमिनां वर ।
इति मुरुजाडम्वरम् (२६) अंसान्तरक्षेत्रगतौ बाहू चेत्पार्श्वयोर्द्वयोः ॥ पतेतां युगपद्यत्र द्वारदामविलासकम् ।
इति द्वारदामविलासकम् (२७) बद्धस्वस्तिकयोः पार्श्वे तिर्यग्वेगात्प्रसर्पतोः ॥ एको निवृत्य सहसा यदि कर्णावतंसकः। धनुराकर्षणाख्यं तन्निर्णीतं भट्टतण्डुना ॥
इति धनुराकर्षणम् (२८) कटीक्षेत्रगतौ चाथ तिर्यद्विगुणचालितौ । अन्तरामण्डलभ्रान्तिकारिणौ बहिरेव वा ।। युगपञ्च करौ यत्र तच्च साधारणं स्मृतम् ।
इति साधारणम् (२९) समप्रकोष्ठवलनमन्वर्थमिह कीर्तितम् ।। अथवाविद्धकेन स्यादपविद्धेन वा च तत् ।
इति समप्रकोष्ठवलनम् (३०) अरालकपरावृत्त्या पार्श्वयोरपि च द्वयोः ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः लुठितः प्रसृतस्याने सदलत्वममुश्चतः । कूपरक्षेत्रमासाद्य लुठत्यन्योऽपि यत्र तु ॥ देवोपहारकं नाम तत्त्वविद्भिनिरूपितम् ।
इति देवोपहारकम् (३१) प्रथमं पार्श्वयोरेव प्रसृतौ द्विगुणौ ततः ॥ अन्योन्याभिमुखौ चैव पश्चात्स्वस्तिकबन्धनौ । प्रधावत: पुरोदेशं यत्र हस्तौ विलासतः ॥ तिर्यग्गतस्वस्तिकाग्रं तदुद्दिष्टं सुमन्तुना ।
इति तिर्यग्गतस्वस्तिकाप्रम् (३२) कस्यचिन्मणिबन्धे तु लुठितोऽन्यस्ततः करः ।। बहिर्मण्डलगः स्थित्वा तथान्तर्मण्डलैरपि । यत्र प्रवर्तते तत्तु मणिबन्धगतागतम् ॥
इति मणिवन्धगतागतम् (३३) अन्तर्बहिश्चक्रचरः कश्चिद्धस्तः पराङ्मुखः । अपरोऽलातचक्रस्य कुरुते च विडम्बनम् ॥ अलातचक्रकाख्यं तत्तद्विदः परिचक्षते ।
इत्यलातचक्रकम् (३४) पूर्व पार्श्वमुखावेव निर्गतौ तत्र वेगतः ॥ तीक्ष्णकूपरकावेव द्विगुणत्वावलम्बिनौ । संश्लिष्टावूर्ववदनौ भूतलाभिमुखौ ततः ॥ यत्र स्यातां करौ तत्तु व्यस्तोत्लतनिवर्तकम् ।
इति व्यस्तोत्प्लुतानिवर्तकम् (३५)
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संगीतरत्नाकरः प्रथमं स्वस्तिकं भूयो बहिरेव विनिर्गतौ ॥ वेगानिवृत्तावन्योन्यं सांमुख्यं भजतः करौ । यत्रोरभ्रकसंबाधं तदुक्तं तपतां वर ॥
__इत्युरभ्रसंबाधम् (३६) तिर्यगूर्व प्रथमतः कृत्वैकं नाभिदेशगम् । तिर्यपान्तिरायातं करमन्यं प्रकल्प्य च ॥ या क्रिया जायते सा तु तिर्यक्ताण्डवचालनम् ।
इति तिर्यक्ताण्डववालनम् (३७) ऊर्ध्वाधोवदनौ कृत्वा पर्यायेण विलासतः ।। तत्रैव मण्डलाकारभ्रान्तौ कृत्वा तु पूर्ववत् । शिरःक्षेने च कट्यां च पार्श्वयोर्गतिपूर्वकम् ।। यत्र स्यातां करौ तत्तु धनुर्वल्लीविनामकम् ।।
____ इति धनुर्वलीविनामकम् (३८) वर्तनास्वन्तिकं कृत्वा युगपत्पार्श्वयोर्द्वयोः ।। यदि स्यातां करौ प्राहुस्तायपक्षविलासकम् ।
इति तार्थ्यपक्षविलासकम् (३९) प्रथमं पार्श्वयोर्गत्वा प्रसार्य च विदिश्यनु ।। निबद्धस्वन्तिको तत्र कटीमौलिगतौ मिथः । वालव्यजनचालाख्यक्रियां पूर्ववदाश्रितौ ।। वर्तनास्वस्तिकं बद्ध्या भूतलाभिमुखौ ततः । समुत्थितौ मण्डलतः स्वस्तिकौ पतितावधः ॥ कृत्वैकं भ्रामितं चांसे तदन्यं रथचक्रवत् ।
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16
सप्तमो नर्तनाध्यायः
भ्रामयित्वा विलासेन तदान्दोलितकर्मणा ॥ सरलात्सारितोद्वेष्टात्प्रसारितकनम्रकैः ।
:
लुठितौ स्वैरमंसान्ते मण्डलोर्ध्वगौ ॥ विश्रमाभिमुखौ चैव पर्यायेण तु यत्र वै । पतितोत्पतितौ बाहुर्मूर्ध्नः कट्यवसानकम् ॥ ततः स्वस्तिकत्रन्धेन कमनीयेषु केषुचित् । अरं तत्र प्रदेशेषु वामदक्षिणघूर्णितौ ॥ अन्तर्बहिश्चक्रभावं सविलासमथाश्रितौ । कूर्परस्वस्तिकेनैव पराचीनप्रलोलितौ ॥ अथवा सरलत्वेन केवलं द्रुतमानतः । वामदक्षिणयोः पश्चात् त्रिकपर्यन्तलोलितौ ॥ एकैकं स्वस्तिकं चाथ नयनानन्ददायकौ । ऊर्ध्वाधोवदनौ त्र्यकरौ यत्र गतौ मुने ॥ कररेचकरत्नाख्यं लक्षितं तत्पुरारिणा । इदं तु कमनीयं वै यत्र यत्र प्रयुज्यते ॥ यक्षा विद्याधाधराः सिद्धाः पद्मभूश्च महर्षयः । तत्र तत्र प्रदेशेषु प्रीतास्तिष्ठन्त्यपेक्षिताः ॥ इन्द्रादिदेवाः प्रीताः स्युः प्रीणाति परमेश्वरः । ग्रन्थविस्तर भीतेन कथ्यते नास्य विस्तरः ॥
इति कररेचरत्नम् (४०) एकस्मिंस्तु पराचीने लठमाने विलासतः । अन्यो हस्तः शिरः क्षेत्र पर्यन्तं चेद्गतागतः ॥ पुनस्तन्मुख एव स्याच्छरसंधाननामकम् । इति शरसंधानम् ( ४१ )
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१२२
संगीतरत्नाकरः
अभ्यन्तरापवेधेन चक्रकान्तिपूर्वकम् ॥ अनुप्रलोड्य डोलावद्या क्रिया पार्श्वयोर्द्वयोः । प्रातिलोम्येन वा स्यात्तु मण्डलाभरणं तु तत् ॥
___इति मण्डलाभरणम् (४२) आदौ तु स्वस्तिकं बद्ध्वा कलासावपरेऽपि च । निष्क्रान्तावंसदेशात्तु पर्यायेण कटीं प्रति ।। स्यातां चेद्यत्र हस्तौ तदंसपर्यायनिर्गतम् ।
इत्यसपर्यायनिर्गतम् (४३) वामदक्षिणपाश्चात्यपुरोभागेषु सर्वतः ।। स्वस्तिकान्मण्डलामाह्याधुगपरक्रमशोऽथवा । अष्टासु दिक्षु स्यातां चेत्करौ विलुठितौ ततः ।। अष्टबन्धविहाराख्यं निरणायि मनीषिभिः ।
इत्यष्टबन्धविहारम् (४४) पर्यायतुष्टौ लुठितौ तिर्यकर्णसमीपतः ॥ पार्वे स्वस्मिन्नुर क्षेत्रपर्यन्तं हि यदा करौ । सुमन्तुना तदुद्दिष्टं कर्णयुग्मप्रकीर्णकम् ॥
इति कर्णयुग्मप्रकीर्णकम् (४५) तिर्यग्लुठति चैकस्मिन्नपरश्चेत्प्रसारितः । क्रमेण यत्र तत्प्रोक्तं पर्यायगजदन्तकम् ।।
इति पर्यायगजदन्तकम् (४९) आदौ मध्ये ऽवसाने च स्वस्तिकाकारधारिणौ । रथचक्राकृती तिर्यग्युगपत्क्रमशोऽथवा ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः लुठितौ चेत्करौ तत्तु रथनेमिसमाह्वयम् ।
इतिरथनेमि (४७) प्रथमं स्वस्तिकी भूत्वा कुञ्चितावूर्ध्वगौ पुनः ।। तथा वामांसपर्यन्तं पर्यायाच्चेद्गतौ करौ । तत्स्वस्तिकत्रिकोणाख्यं क्षेमराजेन लक्षितम् ॥
इति स्वस्तिकत्रिकोणम् (४८) अन्तर्बहिश्चेद्वलितावूर्ध्वप्रोद्वेष्टितौ करौ । पर्यायापार्श्वयोस्तिर्यगेकस्मिन् लुठितोऽपरः ॥ स्याच्चेत्करस्तदुद्दिष्टं लतावेष्टितकाभिधम् ।
इति लतावेष्टितकम् (४९) विशिष्टवर्तिताद्यैश्च नवभिर्दशभिश्च वा ॥ उक्तैः संकरसंसृष्टिरूपेण परिकल्पितैः । आधम्भिल्लसमुत्क्षिप्तैस्ततः स्वस्तिकबन्धनैः ॥ अपराअपरावृत्तौ भूतलाभिमुखौ ततः । मण्डलौ च तिरश्चीनौ साविद्धावपविद्धकौ ॥ युगपत्क्रमशो वाथ तत्कालाई क्रियोचितौ। आन्दोलितक्रियायुक्तौ भवेतां यत्र वै करौ ।। नवरत्नमुखं तत्र प्राह लौहित्यभट्टकः ।
___इति नवरत्नमुखम् (५०) इतीदं तपतांश्रेष्ठ यदादिष्टं स्वयंभुवा ॥ लक्षणं चालकानां वै प्रत्यपादि मयाधुना । एते सौभाग्यविजयप्रस्तारामरभूरुहः ॥ देवानां भूसुराणां च पार्थिवानां प्रियकराः ।
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१२४
संगीतरत्नाकरः ओतावत्सरिगोणीनां पदस्य मलपस्य च ॥ ३५० ।। गजरोपशमस्यान्ते खण्डेऽप्येलादिगामिनि । सालगस्थध्रुवाद्यन्ते यच्च पहरणं भवेत् ॥ ३५१ ॥
अनन्तमङ्गलग्राह्यलीलाविभ्रममण्डनाः ॥ नृत्तलक्ष्यविशेषेण प्राणसर्वस्वमेव च । यथार्ह ते प्रयुक्ताः स्युः कीर्तिमङ्गलदायकाः ।। बहुनात्र किमुक्तेन संध्याकालेषु सर्वदा । नानानृत्तकलोल्लासशालिनोऽपि महेशितुः ।। अलपद्मकसंज्ञास्ते संकीर्णा नेह लक्षिताः । अत्यन्तवल्लभाश्चैव सिद्धानां नाकिनामपि ॥ अतो वियुक्ता युक्ताश्च हस्ता नृत्ताश्रयाः परे । प्रसङ्गानुप्रसङ्गेन कोहलेन मयादिशत् ॥
यथालक्षणमाख्याता मुनिशार्दूल तत्त्वतः ।
इति कोहलशार्दूलसंवादे संगीतमेरौ युक्तायुक्तनृत्तहस्ताश्रयचालकभेदप्रभेदलक्षणं नाम द्वितीयमाहिकं समाप्तम् ।। -३४९-३४९- ॥
(क०) अथैषां चालकानां प्रयोगस्य विषयं दर्शयति-ओतेत्यादि । ओतादयो वाद्यप्रबन्धाः पूर्वमुक्ताः । गजरप्रबन्धाङ्गत्वेन चोपशम उक्तः । एतेषामन्ते खण्डे प्रयोज्या इति वक्ष्यमाणेन संबन्धः । एलादिगामिन्यपीति । एलादीन शुद्धान् गीतप्रबन्धान् गच्छतीत्येलादिगामी तस्मिन् । आत्रदिशब्देनान्त्यखण्डः समुच्चीयते । तथा सालगस्थध्रुवादीनामन्ते खण्ड इत्यनुषङ्गः । यच्च प्रहरणं वाद्यप्रबन्धविशेषः तदन्तखण्डे प्रयोज्याः । मतान्तरमाश्रित्याह
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सप्तमो नर्तनाध्यायः तदन्तखण्डेऽन्यत्रापि प्रोद्धते तुण्डकैशिके । कवितेऽपि प्रयोज्यास्ते नान्यत्रेत्यूचिरे परे ॥ ३५२॥
-अन्यत्रापीति । पर आचार्याः । अन्यत्रेति । धूवादीनामन्तिमखण्डव्यतिरिक्त इत्यर्थः । तुण्डकैशिके प्रोद्धत इति खण्ड इति विशेषपदं प्रकरणादनुषञ्जनीयम् । तुण्डकैशिक इति । तुण्डं मुखं प्रारम्भ इत्यर्थः । तत्र कैशिकं सुकुमारम्। अयमर्थः—यद्गीतखण्डं मुखे प्रारम्भे सुकुमारं भवति, पश्चाद्भागे प्रोद्धतं भवति । यद्वा मुखे प्रथमावृत्तौ सुकुमारं भवति, क्रमात् चरमावृत्तौ प्रोद्धतं भवति, तद्गीतखण्डं तुण्डकैशिकं प्रोद्धतमित्युच्यते । तत्रोद्धतांशे चालकाः प्रयोज्या इत्यर्थः । कवितेऽपीति । कवितं नाम वाद्यप्रबन्धविशेपः । तत्रापि बाहुल्याद्दीप्तं नृत्तमित्युक्तम् । तस्मिन्नशे प्रयोज्या इत्यनेन, यस्तु दीप्तनर्तनस्य विषयः, तत्रैव प्रयोज्य इति मन्तव्यम् । नान्यत्रेति; अन्यत्र सुकुमारप्रयोगविषये न प्रयोज्या इत्यूचिरे इत्यर्थः । कवितेऽपीत्यनेनोचिर इत्यस्य संबन्धः ॥ -३५०-३५२ ॥
इति बाहुप्रकरणम् । इति षोडशविधो बाहुः।
(सु०) संप्रति चालकानां प्रयोगमाह-ओतेति । वाद्याध्यायोक्तानां ओतावत्सरिगोणीनाम् , एलादिगामिनि; तथा सालगस्थध्रुवाद्यन्ते प्रयोज्याः। प्रहरणं वाद्यप्रबन्धविशेष:, तदन्तखण्डे प्रयोज्या इत्यर्थः। अन्यत्रेति । अन्यत्र ध्रुवादीनामन्तिमखण्डव्यतिरिक्त इत्यर्थः । तथा तुण्डकैशिके प्रोद्धते, कवितेऽपि ते प्रयोज्याः । परे आचार्या: नान्यत्रेति ऊचिरे ॥ -३५०-३५२॥
इति बाहुप्रकरणम् । इति षोडशविधो बाहुः ।
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संगीतरत्नाकरः पृष्ठं तु जठरोक्ताभिर्वर्तनाभिर्विवर्तते । अतो न तत्पृथग्वाच्यं जठरं तूच्यतेऽधुना ॥ ३५३ ।। क्षामं खल्लं तथा पूर्ण त्रेधा जठरमिष्यते । क्षामं स्यान्नमनाज्जृम्भाहास्यनिश्वासरोदने ॥ ३५४ ॥
___ इति क्षामम् (१) निम्नं खल्लं क्षुधार्ते स्यादातुरे श्रमकर्शिते । वेतालभृङ्गिरिट्यादिजठराकारधारि तत् ॥ ३५५ ॥ .
इति खल्लम् (२) पूर्ण स्थूलं व्याधिते स्यात्तुन्दिलेऽत्यशिते तथा ।
___इति पूर्णम् (३) अन्येऽन्वर्थ रिक्तपूर्ण श्वासरोगेऽपरं जगुः ॥ ३५६ ॥
इति रिकपूर्णम् (४)
इति चतुक़दरम् । (क०) अथ पृष्ठोदरयोः प्रभेदान् लक्षयितुमाह-पृष्ठं वित्यादि। जठरोक्ताभिवर्तनाभिर्विवर्तत इति । जठरं क्षामं चेपृष्ठमक्षामं भवति । जठरं खलं चेत्पृष्ठं पूर्ण भवति । जठरं पूर्ण चेत् पृष्ठं खलं भवति । जठरस्य रिक्तपूर्णत्वे पृष्ठस्य पूर्णरिक्तत्वमित्यर्थः ॥ ३५३-३५६ ॥
इति रिकपूर्णम् (४)
इति चतुर्धेदरम् । (सु०) पृष्ठोदरयोर्लक्षणमाह-पृष्ठं त्विति । जठरोक्तव्यापारैरेव पृष्ठ विवर्तते, व्यापारवद्भवति । अत: तत् पृथङनोच्यते । अधुना जठरं निरूप्यते । जठरं त्रिविधम् ; क्षामम् , खल्लम् , पूर्णमिति । तेषां लक्षणमाह-क्षामं
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१२७
सप्तमो नर्तनाध्यायः कम्पितो वलितः स्तब्धोद्वर्तितौ च निवर्तितः । इत्यूरुः पञ्चधा तत्र मुहुः पार्थे नतोन्नते ॥ ३५७ ।। यस्यासौ कम्पितो ज्ञेयोऽधमानां गमने च सः ।
इति कम्पित: (१) वलितोऽन्तर्गते जानुन्यूरुः स्वैरगतौ स्त्रियाः ॥ ३५८ ।।
इति वलितः (२) स्यादिति । नमनात् क्षमं भवति । तच्च जृम्भाहास्यनिश्वासरोदने प्रयोज्यम् । इति क्षामम् (१) निम्नं नीचं खलं भवति । तच्च वेतालादि जठरवत्स्यात् । अस्य क्षुधाते, आतुरे, श्रमकर्शिते च प्रयोज्यम् । इति खल्लम् (२) स्थूलं जठरं पूर्णमुज्यते। तुन्दिले, अत्यशिते च प्रयोज्यम् । इति पूर्णम् (३) अन्वर्थनामकं रिक्तपूर्ण केचिदाचार्या जगुः । तत् श्वासरोगे प्रयोज्यम् । इति रिक्तपूर्णम् (४) ॥ ३५१-३५६- ॥
इति चतुर्थोदग्म् ।। (क०) अथोरुजङ्घामणिबन्धजानुभूषणभेदानां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ।। ३५७-३७६- ॥
___ इति कम्पितः (१) (सु०) ऊरुभेदानाह-कम्पित इति । कम्पित:, वलितः, स्तब्धः उद्वर्तितः, निवर्तित इति पञ्चधा ऊरुः । तेषां लक्षणमाह-मुहुरिति । यस्य पार्श्वद्वयं पुनः पुनः नतोन्नतं च भवति स कम्पित: स्यात् । स च अधमगमने विनियोगः ॥ ३५७, ३५७- ॥
इति कम्पिता (१) (सु०) वलितं लक्षयति-वलित इति । जानुनि अन्तर्गते वलितः । स: स्त्रिया स्वैरगतौ विनियोगः ॥ -३५८ ॥
इति वलित: (२)
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१२८
संगीतरत्नाकरः स्तब्धस्तु निष्क्रियः स स्याद्विषादे साध्वसे तथा ।
___ इति स्तब्धः (३) पाणेरन्तर्बहिःक्षेपात्क्षेपादग्रतलस्य च ३५९ ॥ मुहुरुद्वर्तितः स स्याद्वयायामे ताण्डवे तथा ।
इत्युद्वर्तितः (४) निवर्तितोऽन्तर्गतया पार्ष्या स्यात्संभ्रमे श्रमे ।। ३६० ॥
इति निवर्तितः (५)
इति पञ्चधोरुः । आवर्तिता नताक्षिप्तोद्वाहिता परिवर्तिता । इति पञ्चविधा जङ्घा शाहूदेवेन कीर्तिता ।। ३६१ ।।
(सु०) स्तब्धं लक्षयति-स्तब्धस्त्विति । निष्क्रियः क्रियाहीन: स्तब्धः । सः विषादे तथा साध्वसे च विनियोगः ॥ ३५८-॥
इति स्तब्धः (1) (सु०) उद्वर्तितं लक्षयति-पाणेरिति । पाणैः अग्रतलस्य, पादाग्रतलस्य च क्षेपात् मुहुर्मुहुरन्तर्बहिःक्षेपात् उद्वर्तितः । स च व्यायामे, ताण्डवे कार्यः ॥ -३५९, ३६९-॥
इत्युद्वर्तितः (४) __ (सु०) निवर्तितं लक्षयति-निवर्तित इति । पाणिद्वये अन्तर्गते सति निवर्तितः । स च संभ्रमे, श्रमे च कार्यः ॥ -३६० ॥
इति निवर्तितः (५) इति पञ्चधा ऊरुः।
इत्यूरुप्रकरणम् । (सु०) अथ जडाभेदानाह-आवर्तितेति । आवर्तिता, नता, क्षिप्ता,
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१२९
सप्तमो नर्तनाध्याय: निःसृता च परावृत्ता तिरथीना बहिर्मता । कम्पितेत्यपराः पञ्च जङ्घाः संचक्षते परे ॥ ३६२ ॥ वामे दक्षिणतः पादे दक्षिणे वामतः कृते । मुहुरावर्तिता प्रोक्ता विदूषकपरिक्रमे ॥ ३६३ ॥
____ इत्यावर्तिता (१) नमज्जानुर्नता जवा स्थानासनगतादिषु ।
__ इति नता (२) बहिर्विक्षेपतः क्षिप्ता व्यायामे ताण्डवे च सा ॥ ३६४ ॥
इति क्षिप्ता (३) ऊर्ध्व नीतोद्वाहिता स्यादाविष्टगमनादिषु ।
___ इत्युद्वाहिता (४) उद्वाहिता, परिवर्तितेति शार्ङ्गदेवमतेन जङ्घा पञ्चधा। निःसृता, परावृत्ता, तिरश्चीना, बहिर्गता, कम्पितेति परे आचार्याः पञ्चधा आहुः । एवं जङ्घाभेदा दशधा । तेषां क्रमेण लक्षणमाह-वाम इति । मुहुर्मुहुः वामे दक्षिणपादे, दक्षिणे वामपादे च कृते सति आवर्तिताख्या जङ्घा । सा विदूषकपरिक्रमे प्रयोज्या ॥ ३६१-३६३- ॥
__ इत्यावर्तिता (१) (सु०) नतां लक्षयति-नमदिति । नमज्जानुर्जङ्घा नता। सा च स्थानासनगतादिषु प्रयोज्या ॥ ३६३- ॥
___ इति नता (२) (सु०) क्षिप्तां लक्षयति-बहिरिति । बहिः जङ्घाया विक्षेपात् क्षिप्ता | सा च व्यायामे, ताण्डवे च प्रयोज्या ॥ -३६४ ॥
___ इति क्षिप्ता (३) (सु०) उद्वाहितां लक्षयति-ऊर्ध्वमिति । ऊर्ध्वं नीता जङ्घा उद्वाहिता। सा च कुपितगमनादिषु प्रयोज्या ॥ ३६४-॥
इत्युद्वाहिता (४)
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संगीतरत्नाकरः प्रतीपं गच्छतो जङ्घा ताण्डवे परिवर्तिता ।। ३६५ ॥
इति परिवर्तिता (५) पुरःप्रसारिता जङ्घा निःसृता परिकीर्तिता।
इति नि:सृता (६) पश्चाद्रता परापत्ता भूमिलनेन जानुना ।। ३६६ ।। वामेन पितृकार्ये स्यादन्येन सुरकर्मणि ।
इति परावृत्ता (७) भूमिलग्रबहिःपार्धा तिरश्चीनासने मता ॥ ३६७ ।।
इति तिरवीना (6)
(सु०) परिवर्तितां लक्षयति-प्रतीपमिति । प्रतीपं विपरीतं गच्छतः पुरुषस्य जङ्घा परिवर्तिता । सा च ताण्डवे प्रयोज्या ॥ -३६५ ॥
___इति परिवर्तिता (५) (सु०) निःसृतां लक्षयति-पुर इति । पुरःप्रसारिता जङ्घा निःसृता ॥ ३६५- ॥
इति निःसृता (६) (सु०) परावृत्तां लक्षयति-पश्चादिति । भूमिलग्नेन जानुना उपलक्षिता पश्चाद्गता जङ्घा परावृत्ता । सा च वामजानुना चेत् , पितृकार्य; दक्षिणजानुना चेत्, सुरकर्मणि देवकार्ये च प्रयोज्या इति ॥ -३६६, ३६६- ।।
इति परावृत्ता (७) (सु०) तिरश्चीनां लक्षयति-भूमिलानेति । भूमौ लग्नं बहिःपार्श्व यस्याः, सा तिरश्चीना । सा च आसने विनियोज्या ॥ -३६७ ॥
इति तिरश्वीना (८)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः बहिर्गता मता जया नृत्ते पार्थप्रसारिता ।
इति बहिर्गता () कम्पनात्कम्पिता भीतौ कार्या घर्षरिकाध्वनौ ॥ ३६८ ॥
___ इति कम्पिता (१०)
इति दशधा जघा । पञ्चधा मणिबन्धः स्यानिकुञ्चाकुश्चितौ चलः । भ्रामितः सम इत्यत्र निकुञ्चस्तु स उच्यते ॥ ३६९ ॥ यो बहिनिम्नतां नीतः स दानाभयदानयोः ।
- इति निकुश्च: (१)
(सु०) बहिर्गतां लक्षयति-बहिर्गतेति । पार्श्वप्रसारिता जङ्घा बहिर्गता। सा च नृत्ते प्रयोज्या ॥ ३६७- ॥
... इति वहिर्गता (९) (सु०) कम्पितां लक्षयति-कम्पनादिति । जङ्घाया: कम्पनात् कम्पिता । सा च भीती, घर्घरिकाध्वनौ च प्रयोज्या ॥ -३६८ ॥
इति कम्पिता (१०) . इति दशधा जङ्घा ।
इति जवघाप्रकरणम् । ..(सु०) मणिबन्धभेदानाह-पञ्चधेति । निकुञ्चः, आकुञ्चितः, चलः, भ्रामितः, सम इति मणिबन्धस्य पञ्च भेदाः । तेषां लक्षणमाह-निकुञ्च इति । यः मणिबन्ध: बहिःप्रदेशे निम्नो भवति, स निकुञ्च: । स च दाने, अभयदाने च प्रयोज्यः ॥ ३६९, ३६९- ॥
इति निकुचः (१)
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१३२
संगीतरत्नाकरः आकुञ्चितोऽन्तनिम्नोऽसौ कार्योऽपसरणे बुधैः ॥ ३७० ॥
इत्याकुञ्चितः (२) निकुञ्चाकुश्चिताभ्यासाचलमावाहने विदुः।
इति चल: (३) भ्रामितो भ्रमणात्खड्गच्छुरिकाभ्रामणादिषु ॥ ३७१ ॥
___ इति भ्रामितः (४) ऋजुः समः पुस्तकस्य धारणे च प्रतिग्रहे ।
इति समः (५)
इति पञ्चधा मणिबन्धः । (सु०) आकुञ्चितं लक्षयति--आकुञ्चित इति । अन्तर्निम्न आकुञ्चितः । असौ अपसर्पणे कार्यः ॥ -३७० ॥
इत्याकुचित: (२) (सु०) चलं लक्षयति-निकुञ्चेति । निकुञ्चाकुञ्चिताभ्यां संयोगात् चलो भवति । स च आवाहने प्रयोज्य: ॥ ३७०- ॥
इति चल: (3) (सु०) भ्रामितं लक्षयति-भ्रामित इति । भ्रमणात् भ्रामितः । स च खड्गच्छुरिकादिभ्रामणादौ प्रयोज्यः ॥ -३७१ ।।
__ इति भ्रमित: (४) (सु०) समं लक्षयति-ऋजुरिति । ऋजुः समः । स च पुस्तकस्य धारणे, प्रतिग्रहे च प्रयोज्यः ॥ ३७१-॥
__इति समः (५) इति पञ्चधा मणिबन्धः । इति मणिबन्धप्रकरणम्।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः संहतं कुश्चितं चार्धकुश्चितं नतमुन्नतम् ।। ३७२ ॥ विवृतं सममित्यूचे जानु सप्तविधं बुधैः । श्लिष्टान्यज्जानु जानूक्तं हीरोषासु संहतम् ॥ ३७३ ॥
___ इति संहतम् (१) जानु लग्नोरुजचं तु भवेत्कुञ्चितमासने ।
इति कुञ्चितम् (२) नितम्बनमनाजानु त्वर्धकुञ्चितमुच्यते ॥ ३७४ ।।
इत्यर्धकुञ्चितम् (३) महीगतं नतं जानु मतं पाते नमस्कृतौ ।
इति नतम (४) (सु०) अथ जानुभेदानाह–संहतमिति । संहतम् , कुश्चितम् , अर्धकुञ्चितम् , नतम् , उन्नतम् , विवृतम् , सममिति सप्तविधं जानु । तेषां सप्तानां भेदानां क्रमाल्लक्षणमाह-श्लिष्टेति । श्लिष्टं सङ्गतम् , अन्यजानु येन, ताथाविधं जानु संहतमित्युच्यते । तच्च ह्रीरोषासु प्रयोज्यम् ॥ -३७२, ३७३ ॥
___ इति संहतम् (१) (मु०) कुञ्चितं लक्षयति-जान्विति । लग्ने सङ्गते ऊरूजो यस्मिन् , तथाविधं जानु कुञ्चितमित्युच्यते । तच्च आसने प्रयोज्यम् ॥ ३७३- ॥
इति कुच्चितम् (२) (सु०) अर्धकुञ्चितं लक्षयति-नितम्बेति । नितम्बे नमनात् जानु अर्धकुञ्चितमित्युच्यते ॥ -३७४ ॥
___ इत्यर्धकुञ्चितम् (३) (सु०) नतं लक्षयति-महीगतमिति । महीगतं जानु नतमित्युच्यते । तच्च पाते, नमस्कृतौ च प्रयोज्यम् ॥ ३७४- ॥
इति नतम् (४)
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१३४
संगीतरत्नाकरः स्तनक्षेत्रगतं जानून्नतं शैलाधिरोहणे ॥ ३७५ ॥
इत्युन्नतम् (५) गजारोहे तु विवृतं जानुद्वन्द्वं वहिर्गतम् ।
___ इति विवृतम् (६) समं स्वाभाविकं जानु स्वभावावस्थितौ भवेत् ॥ ३७६ ॥
इति समम् (७) तत्तद्देशजुषो भूषा भूषणानीति मन्यते ।
इति सप्तविधं जानु । इति जानुप्रकरणम् । इति नव प्रत्यङ्गानि ।
(सु०) उन्नतं लक्षयति-स्तनक्षेत्रेति । स्तनक्षेत्रप्राप्त जानु उन्नतम् । तच्च शैलाधिरोहणे प्रयोज्यम् ।। - ३७५ ॥
इत्युनतम् (५) (सु०) विवृतं लक्षयति-गजेति । बहिर्गतं जानुद्वन्द्वं विवृतम् । तच्च गजारोहे प्रयोज्यम् ॥ ३७५- ॥
___ इति विवृतम् (६) (सु०) समं लक्षयति-सममिति । स्वाभाविकं जानु समं भवति । तच्च स्वभावाभिनये कार्यम् ॥ -३७६ ॥
इति समम् (७) (सु०) तत्तद्वेशजुष: सर्व तथाविधा भूषा भूषणानि भवन्तीत्याहुः॥३७६-॥
इति सप्तविधं जानु। इति जानुप्रकरणम् । इति नव प्रत्यङ्गानि ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१३५ कान्ता हास्या च करुणा रौद्री वीरा भयानका ॥ ३७७ ॥ बीभत्सा चाद्भुतेत्यष्टौ द्रष्टव्या रसदृष्टयः । स्निग्धा हृष्टा तथा दीना क्रुद्धा दृप्ता भयान्विता ॥ ३७८ ॥ जुगुप्सिता विस्मितेति दृशोऽष्टौ स्थायिभावजाः। स्थायिष्वव्यभिचारित्वं प्राप्तेषु स्थायिदृष्टयः ॥ ३७९ ॥ शून्या च मलिना श्रान्ता लज्जिता शङ्किता तथा । मुकुला चाधेमुकुला ग्लाना जिह्मा च कुञ्चिता ।। ३८० ॥
(क०) अथोपाङ्गेषु प्रथमोद्दिष्टाया दृष्टेभैदानुद्दिशति-कान्ता हास्येस्येत्यादि । स्थायिष्वव्यभिचारित्वं प्राप्तेषु स्थायिदृष्टय इति । स्थायिषु रत्यादिस्थायिभावेषु अव्यभिचारित्वं प्राप्तेष्विति व्यभिचारित्वमप्राप्तेप्वित्यर्थः । रत्यादीनां व्यभिचारित्वप्राप्तिरपि शृङ्गारादिरसपर्यन्ततां विहाय विरुद्धभावान्तरबाध्यत्वेन यदैवंभूता रत्यादयो भवन्ति, तदा स्निग्धादयः स्थायिदृष्टयः । अन्यथा व्यभिचारित्वं प्रापितेष्विति व्यभिचारिदृष्टय एवेत्यर्थः । कान्तादीनां षट्त्रिंशदृष्टीनां लक्षणानि स्पष्टार्थानि ॥ -३७७-४३१- ॥
(सु०) अथोपाङ्गेषु दृष्टिं निरूययति-कान्तेति । कान्ता, हास्या, करुणा, रौद्री, वीरा, भयानका, बीभत्सा, अद्भुतेत्यष्टौ रसदृष्टयः । स्निग्धा, हृष्टा, दीना, कुद्धा, दृप्ता, भयान्विता, जुगुप्सिता, विस्मितेत्यष्टौ स्थायिदृष्टयः । ननु स्थायिभावानामेव रसत्वं तत्कथं रसदृष्टिभ्यः स्थायिदृष्टीनां भेदः ? अत्राहस्थायिष्विति । स्थायिनो यदा सरसतया विपाका भवन्ति, व्यभिचारित्वं प्राप्नुवन्ति; तदा रसदृष्टिभ्यो भिन्ना स्थायिदृष्टयो जायन्ते ॥ -३७७-३७९ ॥
(सु०) व्यभिचारिदृष्टीनां भेदानाह-शून्येति । शून्या, मलिना, श्रान्ता, लज्जिता, शङ्किता, मुकुला, अर्धमुकुला; ग्लाना, जिला, कुश्चिता,
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१३६
संगीतरत्नाकर:
वितर्किताभितप्ता च विषण्णा ललिताभिधा ।
आकेकरा विकोशा च विभ्रान्ता विप्लता परा ।। ३८१ ॥ त्रस्ता च मदिरेत्येता व्यभिचारिषु विंशतिः । सर्वास्ता मिलिताः सत्यः षट्त्रिंशद्दष्टयो मताः ।। ३८२ ॥ आपिबन्ती दृश्यं या सविकासातिनिर्मला । संक्षेपकटाक्षा सा कान्ता मन्मथवर्धिनी ॥ ३८३ || यद्गतागतविश्रान्तिवैचित्र्येण विवर्तनम् ।
तारकायाः कलाभिज्ञास्तं कटाक्षं प्रचक्षते || ३८४ ॥ इति कान्ता ( १ ) किंचिदन्तः समाविष्टविचित्रभ्रान्ततारका ।
आकुञ्चितपुटा मन्दमध्यतीव्रतया क्रमात् ।। ३८५ ।। विस्मापनेऽभिनेतव्ये हास्या दृष्टिः प्रशस्यते ।
इति हास्या (२)
वितर्किता, अभितप्ता, वितप्ता, ललिता, आकेकरा, विशोका, विभ्रान्ता, विप्लुता, त्रस्ता, मदिरेत्येता व्यभिचारिदृष्टयो विंशतिर्भवन्ति । ताः सर्वा मिलिताः षट्त्रिंशत् ॥ ३८०-३८२ ॥
(सु० ) एतासां लक्षणमाह-आपिवन्तीवेति । आसमन्तात् सादरं विलोकनमेव पानम् तच्च दृश्यम् पिबन्तीति च सविकासा अतिनिर्मला, या दृष्टिः भ्रूक्षेपेण कटाक्षेण च युक्ता जायते, मन्मथवर्धिनी च भवति, सा कान्ता । कटाक्षलक्षणमाह-यदिति । यः गतागस्य विभान्तिः स्थिरत्वम्, तत्र यद्वैचित्र्यं सौन्दर्य, तेन सह तारकयो: विवर्तनं चलनं भवति, तं कलाभिज्ञा: कटाक्षं प्रचक्षत इत्यन्वयः ॥ ३८३, ३८४ ॥
इति कान्ता ( १ )
(सु० ) हास्यां लक्षयति--- किंचिदिति । किंचित् अल्पमेव, अन्त:
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सप्तमो नर्तनाध्यायः पतितोर्ध्वपुटा साम्रा शोकमन्थरतारका ॥ ३८६ ॥ नासाग्रमेवानुगता करुणा दृष्टिरुच्यते ।
इति करुणा (३) चकितद्विपुटा स्तब्धतारकात्यन्तलोहिता ॥ ३८७ ॥ रूक्षा भ्रुकुटिभीमोग्रा रौद्री दृष्टिरुदाहृता ।
___ इति रौद्री (४) अचञ्चला विकसिता गम्भीरा समतारका ॥ ३८८ ॥ दीप्ता संकुचितापाङ्गा वीरा धीरैरुदाहृता ।
समाविष्टा प्रविष्टा, विचित्राभ्यां भ्रान्ति प्राप्ता कनीनिका यस्याः; मन्दमध्यतीव्रतया, मन्दत्वेन, मध्यत्वेन, तीव्रत्वेन वा आकुञ्चितौ पुटौ यस्याः, तथाविधा दृष्टिः हास्या । सा च विस्मापने अभिनेया ॥ ३८५, ३८५- ॥
__इति हास्या (२) (सु०) करुणां लक्षयति-पतितेति । पतितं नम्रम् ऊर्ध्व पुटं यस्याः; अस्तुणा सहिता सास्रा; शोकमन्थरतारका, शोकेन मन्थरा स्थिरतारका कनीनिका यस्याः; नासाग्रमेव अनुगता दृष्टि: करुणा ॥ -३८६, ३८६- ॥
____ इति करुणा (३) (सु०) रौद्री लक्षयति-चकितेति । चकित द्विपुटा; चकिते भीते द्वे पुटे यस्याः; स्तब्धतारका ; स्तब्धा निश्चला कनीनिका यस्यामिति । अत्यन्तलोहिता; अत्यन्तमरुणा ; रूक्षा; नि:स्नेहा ; भ्रुकुटिभीमा ; भ्रुकुव्या वक्ष्यमाणलक्षणया, भीमा भयावहा; उग्रा; क्रूरा दृष्टि: रौद्री ॥ -३८७, ३८७- ॥
इति रौद्री () (सु०) वीरां लक्षयति-अचञ्चलेति । अचञ्चला; चञ्चलरहिता; विकसिता; विकास प्राप्ता ; गम्भीरा ; प्रसन्ना ; समतारका; समे तारके यस्याम् ।
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१३८
संगीतरत्नाकर:
औदार्यधैर्यगाम्भीर्यमाधुर्यललितान्यपि ॥ ३८९ ॥ तेजःशोभाविलासाख्यानष्टौ भेदान् विवृण्वती । इति वीरा (५) 'ततोदृत्तपुटात्यन्तचञ्चलोदृष्टत्ततारका ।। ३९० ।। दृश्यात्पलायमाने च भीत्या दृष्टिर्भयानका ।
इति भयानका (६)
दीप्ता ; उज्ज्वला, संकुचितापाङ्गा; संकोचं प्राप्तौ अपाङ्गौ यस्याम्, सा दृष्टि: वीरेति धीरैरुदाहृता । सा च औदार्यधैर्यगाम्भीर्यमाधुर्यललितादिभिर्लक्षितान्, तेज:शोभाविलासादिभिर्लक्षितांश्चाष्टौ भेदान् विवृणोति ॥ - ३८८,३८९ ॥ इति वीरा (५)
(सु०) भयानकां लक्षयति- ततेति । ततोद्वृत्तपुटा, ततं विस्तृतम्, उद्वत्तं परिवृत्तं पुटं यस्याम् । चञ्चलोर्ध्वगतारका ; चञ्चला कम्पिता, ऊर्ध्वगता तारका यस्याम् । दृश्यात्पलायमाने च दर्शनीयादपसरन्त्यौ च, भीत्या, भयान्विता दृष्टिः भयानका ॥ - ३९०, ३९० - ॥
इति भयानका (६)
1 स्तब्ध: .
'औदार्यादीनां लक्षणमुकं भावप्रकाशने यथा-प्रियालापस्मितोदारं दानमौदार्यमुच्यते । शुशुमेऽर्थे तद्वै व्यवसायादचालनम् । अविज्ञातेङ्गिताकारो भावो गाम्भीर्यमुच्यते । माधुर्य चेष्टितालाप स्पर्शानां स्पृहणीयता । चेष्टितं यस्य शृङ्गारमयं तललितं भवेत् । अवमानासह त्वं यत्तत्तेजः समुदाहृतम् । स्पर्धाधिक्रियते यत्र सा शोभेति प्रकीर्तिता । वृषयानं * स्मितालापो विलास इति कथ्यते ।
* सगर्वमन्दगमनम् ।
S
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१३९ बीभत्सा स्यान्मिलल्लोलपक्ष्मा तरलतारका ॥ ३९१ ॥ दृश्योद्वेगादपाङ्गौ च निकुश्चितपुटौ श्रिता ।
इति बीभत्सा (७) प्रसन्ना स्निग्धशुक्लांशान्तर्वहिर्गामितारका ॥ ३९२ ॥ ईषत्कुश्चितपक्ष्मायाद्भुतापाङ्गविकासिनी । रसेष्वष्टसु शृङ्गारप्रमुखेषु क्रमादिमाः ॥ ३९३ ॥
___ इत्यद्भुता (८)
इत्यष्टौ रसदृष्टयः। रसदृष्टिर्भवेद्भावदृष्टि वैरनुल्वणैः। विकासिस्निग्धा मधुरा चतुरे बिभ्रती ध्रुवौ ॥ ३९४ ॥
(सु०) बीभत्सां लक्षयति-बीभत्सेति । मिलल्लोलपक्ष्मा ; मिलती लोले चञ्चले पक्ष्मणी यस्याम् | तरलतारका ; तरले विस्तृते तारके यस्याम् । दृश्योद्वेगात् ; दृश्योद्विग्नात् , निकुञ्चितपुटौ; निकुञ्चितौ पुटौ यस्याम् । ते अपाङ्गे श्रिता दधती दृष्टि: बीभत्सा || -३९१, ३९१- ।।
इति बीभत्सा (७) (सु०) अद्भुतां लक्षयति-प्रसन्नेति । प्रसन्ना ; गम्भीरा; स्निग्धः, मसृणः, शुक्ल:, शुभ्रः ; अंश अपाङ्गो यस्याः; अन्तबेहिर्गा मितारका ; अन्तर्बहिश्च, निर्याता तारका यस्याः ; ईषत्कुञ्चितपक्ष्माना ; ईषत् किंचित् कुञ्चितं नमनं प्रापितं पक्ष्मणोरग्रं यस्याः; अपाङ्गविकासिनी ; कटाक्षे विकास प्रापितः यस्याः, तथाविधा दृष्टिः अद्भुता । इमा दृष्टयः क्रमात् शृङ्गारप्रमुखेषु अष्टसु रसेषु प्रयोक्तव्या इति ॥ -३९२, ३९३ ॥
___ इत्यदुता (८)
इत्यष्टौ रसदृष्टयः। (सु०) अथ स्थायिदृष्टीनां लक्षणमाह-रसदृष्टिरिति । पूर्वोक्तरसदृष्टिरेव
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१४०
संगीतरत्नाकरः कटाक्षिणी साभिलाषा दृष्टिः स्निग्धाभिधीयते । अत्रैकभ्रूसमुत्क्षेपमाहुः कीर्तिधरादयः ॥ ३९५ ॥
___ इति स्निग्धा (१) फुल्लगल्ला विशत्तारा किंचिदाकुञ्चिता चला । निमेषिणी स्मिताकारा हृष्टा दृष्टिरुदाहृता ॥ ३९६ ॥
___ इति हृष्टा (२) या त्वर्धपतितोर्ध्वस्थपुटेषदुद्धतारका । सबाष्पा मन्दसंचारा दीना दृष्टिरसौ मता ॥ ३९७ ॥
इति दीना (३) स्थिरोवृत्तपुटां रूक्षां किंचित्तरलतारकाम् । अनुल्बणैः व्यक्तैः भावैः भावदृष्टिर्भवेत् । विकासीति । विकासिनी चासौ स्निग्धा चेति विकासिस्निग्धा ; मधुरा ; चतुरे ; भ्रुवौ ; बिभ्रती बिभ्राणा, साभिलाषा; कटाक्षिणी दृष्टिः स्निग्धा । अत्र एकभ्रूसमुत्क्षेपमपि कीर्तिधरादय आचार्या मन्यन्ते ॥ ३९४, ३९५ ॥
" इति स्निग्धा (१) (सु०) दृष्टां लक्षयति-फुल्लगल्लेति । फुल्लगल्ला ; फुल्लौ विकसितौ गल्लौ कपोलौ यस्याः; विशत्तारा; विशन्ती अन्तःप्रविष्टा तारा यस्याम् | किंचिदाकुञ्चिता; ईषन्नमिता; चला ; चञ्चला च ; निमेषिणी, स्मितांकारा च दृष्टिः हृष्टा ॥ ३९६ ॥
इति हृष्टा (२) (सु०) दीनां लक्षयति-या त्विति । अर्धपतिता ऊर्ध्वस्थपुटिता ईषत् रुद्धतारका, सबाष्पा; बाष्पसहिता, मन्दसंचारा च दृष्टिः दीना ॥३९७॥
इति दीना (३) (सु०) क्रुद्धां लक्षयति-स्थिरेति । स्थिरोवृत्तपुटाम् ; स्थिरौ उद्
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
भ्रुकुटीकुटिलां दृष्टिं क्रुद्धां ब्रूते हरप्रियः ।। ३९८ ।। इति क्रुद्धा (४)
समुद्गरती दृष्टा विकसिता स्थिरा । इति दृप्ता (५) मध्यनिर्गमनोयुक्तौ भावविस्फारितौ पुटौ ।। ३९९ ॥ तारके कम्पिते यस्याः सा स्याद्दृष्टिर्भयान्विता । इति भयान्विता (६)
'अस्पष्टालोकिनी मीलत्तारका संकुचत्पुटा ।। ४०० ॥ दृश्यं दृष्ट्वा समुद्विग्ना दृष्टिरुक्ता जुगुप्सिता । इति जुगुप्सिता (७)
१४१
वृत्तौ पुटौ यस्याम् | रूक्षाम् ; निःस्नेहाम्; किंचित्तरलतारकाम् ; ईषत् तरले लोलिते तारके यस्याम् । भ्रुकुटीकुटिलाम्; भ्रुकुट्या वक्रीकृतां दृष्टि कुद्धामिति हरप्रियः शार्ङ्गदेवो ब्रूते ॥ ३९८ ॥
इति क्रुद्धा (४)
(सु० ) दृप्तां लक्षयति — सत्त्वमिति । संपद्विपदोः चेतसो विकारत्वं सन्त्वम् ; तत् उद्गिरन्ती दृष्टिः दृप्ता ॥ ३९८- ॥
इतिहप्ता (५)
(सु०) भयान्वितां लक्षयति – मध्येति । मध्यनिर्गमनोद्युक्ता ; यस्या मध्यं निर्गमनाय उत्सुकमिव प्रतिभाति । यस्याः पुटौ पक्ष्माणौ, भावविस्फारितौ; भावानां विशेषेण प्रकाशं प्राप्तौ । यस्याः तारके कम्पिते; सा दृष्टिः भयान्विता ॥ - ३९९, ३९९-॥
इति भयान्विता (६)
(सु० ) जुगुप्सितां लक्षयति — अस्पष्टेति । अस्पष्टालोकिनी ;
अप्रकट
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१४२
संगीतरत्नाकरः भरविस्फारिताकारपुटद्वन्द्वविकासिनी ॥ ४०१॥ निश्चला दृष्टिरुत्ततारका विस्मिता स्मृता । दृष्टयोऽष्टासु रत्यादिस्थायिभावेष्विमाः क्रमात् ॥ ४०२॥
____ इति विस्मिता (८)
इत्यष्टौ स्थायिभावदृष्टयः । समतारापुटा दृश्यदृष्टिशून्या विलोकिनी । निष्कम्पा धूसरा शून्या चिन्तायां दृष्टिरिष्यते ॥ ४०३ ॥
इति शून्या (१)
मालोचमाना ; मीलत्तारका ; निमीलिततारका ; संकुचत्पुटा ; संकुचितपक्ष्मा; दृश्यं वस्तु दृष्ट्वा समुद्विमा उद्वेगं प्राप्ता दृष्टि: जुगुप्सिता ॥ -४००, ४००- ॥
इति जुगुप्सिता (७) (सु०) विस्मितां लक्षयति-भरमिति । भरविस्फारिताकारपुटद्वन्द्वविकासिनी; भरं अतिशयं यथातथा, विस्फारितं विस्तृताकारं पुटद्वयं यस्याः, तथाविधा विकासिनी; निश्चला; अचञ्चला ; उद्वृत्तत्तारका ; उद्वृत्ते तारके यस्याः; तथाविधा दृष्टिः विस्मिता । इमा दृष्टयः अष्टसु रत्यादिस्थायिभावेषु क्रमेण प्रयोक्तव्या इति ॥ -४०१, ४०२ ॥
इति विस्मिता (८)
इत्यष्टौ स्थायिभावदृष्टयः । (सु०) अथ विंशति व्यभिचारदृष्टिं लक्षयति—समेति । समतारापुटा; समे तारके कनीनिके पुटे च यस्याः, दृश्यदृष्टिशून्या; दृश्यस्य पदार्थस्य दर्शनशून्यविलोकनं यस्याः, तथाविधा निष्कम्पा; कम्पशून्या, धूसराकारा दृष्टिः शून्या । सा च चिन्तायां प्रयुज्यते ॥ ४०३॥
इति शून्या (१)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
दृश्यादपसृते तारे किंचिन्मुकुलितौ पुटौ । दधत्यपाङ्गौ विच्छायौ पक्ष्माग्रस्पन्दने तथा ।। ४०४ ॥ दृष्टिः स्यान्मलिना स्त्रीणां विहृते सा प्रयुज्यते । प्राप्ते कालेऽप्यसंलापः प्रियेण विहृतं मतम् ।। ४०५ ॥ इति मलिना ( २ )
१४३
अदूरालोकिनी म्लानपुटाप्यलसचारिणी ।
चलत्तारा मनाक् कुञ्चत्प्रान्ता श्रान्ता श्रमे मता ।। ४०६ ।। इति श्रान्ता ( ३ )
मिथोऽभिगामिपक्ष्माग्राप्यधस्ताद्गततारका ।
पतितोर्ध्वपुटा दृष्टिर्लज्जायां लज्जिता मता ।। ४०७ ॥ इति लज्जिता ( ४ )
(सु०) मलिनां लक्षयति — दृश्यादिति । तारकाद्वयं दृश्यादपसृतम् ; पुटद्वयं किंचिन्मुकुलितम् ; अपाङ्गद्वयं विच्छायं प्राप्तम् ; तथा पक्ष्मणोरप्रद्वयं स्पन्दितं च यस्यां भवति सा दृष्टिर्मलिना । सा च स्त्रीणां विहृते प्रयोज्या । विहृतस्य लक्षणमाह - प्राप्तेति । संलापोचिते काले प्राप्ते सत्यपि प्रियेण साकमसंलापो विहृतमित्युच्यते ॥ ४०४, ४०५ ॥
इति मलिना ( २ )
(सु०) श्रान्तां लक्षयति- अदूरेति । अदूरालोकिनी; दूरालोकने असमर्था । म्लानपुटा ; म्लानपक्ष्मा । अलसचारिणी; अलससंचारा । चलत्तारा; चञ्चलतारका । मनाक् कुञ्चत्प्रान्ता ; ईषत् कुञ्चितौ भवनतौ प्रान्तौ यस्याः; तथाविधा दृष्टिः श्रान्ता । सा च श्रमे प्रयोज्या ॥ ४०६ ॥ इति श्रान्ता (३)
(सु०) लज्जितां लक्षयति - मिथ इति । मिथः परस्परम्, अभिगामिपक्ष्मात्रा, अभिमुखगामिनी पक्ष्माग्रे यस्याः, अधस्ताद्गततारका ; अधोगत
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संगीतरत्नाकरः मुहुश्चलस्थिरा पार्धालोकिनी बहिरुन्मुखी । गूढावलोकिनी शीघ्रं विनिवृत्ता विलोकनात् ॥ ४०८ ॥ शङ्कायां शङ्किता दृष्टिरुक्ता निःशङ्कसूरिणा ।
इति शङ्किता (५) स्फुरत्संश्लिष्टपक्ष्माया सुखविश्रान्ततारका ॥ ४०९ ॥ मुकुला दृष्टिरानन्दे हृद्ययोः स्पर्शगन्धयोः ।
इति मुकुला (६) अर्धव्याकोशिते किंचिद् भ्रमन्त्यौ तारके पुटौ ॥ ४१० ॥ यत्रार्धमीलितौ सार्धमुकुलार्थे सुखप्रदे ।
___ इत्यर्धमकुंला (७) तारका, पतितोर्ध्वपुटा ; पतिता चासौ ऊर्ध्वपुटा च तथाविधा दृष्टिः ललिता । सा च लज्जायां प्रयोज्या ॥ ४०७ ॥
इति लजिता (४) (सु०) शङ्कितां लक्षयति-मुहुरिति । मुहुः चलस्थिरा ; क्षणं चञ्चला, क्षणं स्थिरा, पालिोकिनी ; पार्श्वप्रदेशदर्शनीया, बहिरुन्मुखी ; बाह्योन्मुखी, गूढावलोफिनी ; गूढभावेनावलोकयन्ती, विलोकनात् शीघ्रं झटिति विनिवृत्ता दृष्टिः शङ्किता । सा च शङ्कायां प्रयोज्या ॥ ४०८, ४०८-॥
इति शङ्किता (५) (सु०) मुकुलां लक्षयति-स्फुरदिति । स्फुरत्संश्लिष्टपक्ष्माना; स्फुरन्ती संलग्ने पक्ष्माग्रे यस्याः; सुखविश्रान्ततारका ; सुखेन विश्रान्ता तारका कनीनिका यस्याम् ; तथाविधा दृष्टिः मुकुला । सा च आनन्दे ; हृद्यस्पर्शगन्धयोश्च प्रयोज्या ॥ -४०९, ४०९-॥
___ इति मुकुला (६) (सु०) अर्धमुकुलां लक्षयति-अर्धेति । अर्धव्याकोशिते ; ईषद्विकास प्रापिते, किंचिद् भ्रमन्त्यो ; अल्पं भ्रमन्त्यौ, तारके कनीनिके पुटौ च ; यत्र
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सप्तमो नर्तनाध्यायः मज्जत्तारा मन्दचारा शिथिला विकलैरिव ॥ ४११ ॥ पक्ष्मानभूपुटैर्युक्ता ग्लाना ग्लानौ विधीयते ।
इति ग्लाना (6) किंचित्कुञ्चत्पुटा गूढपतत्तारा विलोकने ॥ ४१२ ॥ शनैस्तिर्यनिगूढा या सा जिह्मा विनियुज्यते । असूयायां निगूढार्थे जडतालस्ययोरपि ॥ ४१३ ॥ .
इति जिह्मा (९) किंचिञ्चेत्कुश्चितानि स्युः पक्ष्माग्राणि पुटावपि ।
सम्यक्च कुञ्चिता तारा तदा हक्कुञ्चितोच्यते ॥ ४१४ ॥ अर्धमीलितो; किंचित्संकुचितौ यस्यामू, तथाविधा दृष्टि: अर्धमुकुला । सा च सुखप्रदेऽर्थे प्रयोज्या ॥ -४१०, ४१०-॥
इत्यर्धमुकुला () (सु०) ग्लानां लक्षयति-मजदिति । मज्जत्तारा; मग्ना तारा कनीनिका यस्याः; मन्दचारा; मन्द्रसंचारा; शिथिला विकलैरिव स्थितैः; पक्ष्माप्रभूपुटैः; पुटाग्रभूपुटैः सहिता दृष्टि: ग्लाना। सा च ग्लानौ प्रयोज्या ॥ - ४११, ४११॥
इति ग्लाना (6) ___ (सु०) जिह्मां लक्षयति-किंचिदिति । किंचित् कुञ्चत्पुटा ; ईपन्नमितपक्ष्मा, विलोकने ; वीक्षणे, गूढपतत्तारका, शनैः तिर्यनिगूढा दृष्टिः जिला । सा च असूयायाम् , निगूढार्थे, जाडये, आलस्ये च प्रयोज्या ॥ ॥ -४१२, ४१३ ॥
इति जिमा (९) (सु०) कुचितां लक्षयति-किंचिदिति । यत्र पक्ष्मानपुटाः किंचित्
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१४६
संगीतरत्नाकरः
अनिष्टेऽसूयिते तेजो दुष्पेक्ष्येऽक्षिव्यथासु सा ।
इति कुञ्चिता (१०) उद्भामितपुटोत्फुल्लताराधःसंचरन्त्यपि ॥ ४१५ ॥ वितर्कितोदिता दृष्टिवितर्के साभिधीयते ।
इति वितर्किता (११) विलोकनालसे तारे व्यथाप्रचलितौ पुटौ ॥ ४१६ ॥ यस्याः संभ्रान्तवद्भान्ति साभितप्ताभिधीयते । निर्वेदे घेदितव्या साप्यभिघातोपतापयोः॥ ४१७ ॥
इत्यभितप्ता (१२)
कुश्चितानि; तारा च; कनीनिका च सम्यक् कुञ्चिता सा दृष्टिः कुञ्चिता । सा च अनिष्टे, अनभिप्रेते, असूयायाम् , तेजसा दुष्प्रेक्ष्ये सूर्यादौ ; अक्षिव्यथासु, नेत्रव्यथासु च प्रयोज्या ॥ ४१४, ४१४-॥
इति कुचिता (१०) (सु०) वितर्कितां लक्षयति-उद्भामितेति । उद्भामितपुटा ; उद्भ्रामितौ पुटौ यस्याः ; उत्फुल्लतारा; उत्फुल्ले तारके यस्याः ; अध:संचारिण्यपि विकासितकनीनिका दृष्टि: वितर्किता। सा च वितर्के प्रयोज्या ॥-४१५, ४१५॥
इति वितर्किता (११) (सु०) अभितप्तां लक्षयति-विलोकनेति । विलोकनविषये अलसं कनीनिकाद्वयं यत्र, व्यथया अत्यन्तचञ्चलौ, पुटौ यस्याः संभ्रान्तवत् भान्ति भासमाना सा दृष्टिः अभितप्ता | सा च निवेदे, अभिघाते, उपतापे च प्रयोज्या ॥ -४१६, ४१७ ।।
इत्यमितप्ता (१२)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः या दृष्टिः पतितापाङ्गा विस्तारितपुटद्वया । निमेषिणी स्तब्धतारा विषण्णा सा विषादिनी ॥ ४१८ ॥
इति विषण्णा (१३) मधुरा कुश्चितापाझा सभ्रूक्षेपा स्मितान्वितां । मन्मथोन्मथिता दृष्टिललिता ललिते मता ॥ ४१९ ॥
___ इति ललिता (१४) किंचित्कुश्चत्पुटापाङ्गा दृष्टिरर्धनिमेषिणी । पृथक्पथे चान्यनेत्रान्मुहुस्ताराविवर्तिनी ॥ ४२० ॥ आकेकरा दुरालोके स्याद्विच्छिन्ने च वस्तुनि ।
इत्याकेकरा (१५) (सु०) विषण्णां लक्षयति-या दृष्टिरिति । या दृष्टिः, पतितापड़ा; पतितौ अपाङ्गौ यस्याः, विस्तारितपुटद्वया ; निभेषिणी ; निमेषवती, स्तब्धतारा; निश्चलतारा च सा विषण्णा । सा च विषादे प्रयोज्या ॥ ४१८ ॥
इति विषण्णा (१३) (सु०) ललितां लक्षयति-मधुरेति । माधुर्यवती, कुञ्चितापाङ्गा, भ्रूक्षेपस्मितयुक्ता, मन्मथोन्मथिता; मदनोन्मादिनी दृष्टिः ललिता। सा च ललिते प्रयोज्या ॥ ४१९॥
" इति ललिता (१४) (सु०) आकेकरां लक्षयति-किंचिदिति । किंचित्कुश्चत्पुटापागा; अल्पसंकुचितौ पुटौ अपाङ्गौ यस्याः; अर्धनिमेषवती, अन्यनेत्रापेक्षया पृथक्पथे मार्गे यस्या मुहुः प्रतिक्षणं तारां विवर्तयन्ती दृष्टिः, सा आकेकरा । सा च दुरलोके, विच्छिन्ने वस्तुनि च प्रयोज्या ॥ ४२०, ४२०- ॥
इत्याकेकरा (१५)
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१४८
संगीतरत्नाकरः विकासितपुटद्वन्द्वा विकासिन्यनिमेषिणी ॥ ४२१॥ · अनवस्थिततारा च विकोशा कीर्तिता बुधैः । ज्ञानविज्ञानगर्वे सा स्यादमर्षे विमर्शने ॥ ४२२ ॥
इति विकोशा (१६) या तु कचिदविश्रान्तमविस्रब्धं विलोकने । विस्तीर्णा चञ्चलोत्फुल्लतारा सा दृष्टिरुच्यते ॥ ४२३ ॥ विभ्रान्ता विभ्रमे वेगे संभ्रमे च भवेदसौ।
इति विभ्रान्ता (१७) पुटौ विस्फुरितौ स्तब्धौ यस्याः स्तः पतितौ क्रमात् ॥४२४॥ सा विप्लुतातिदुःखादावुन्मादे चापले तथा ।
इति विप्लुता (१८) (मु०) विकोशां लक्षयति-विकासितेति । विकासितपुटद्वया, विकासवती अनिमेषा, अनवस्थिततारा च दृष्टिः विकोशा । सा च ज्ञानविज्ञानगर्वेषु, अमर्षे, विमर्श च प्रयोज्या ॥ -४२१, ४२२॥
इति विकोशा (१६) (सु०) विभ्रान्तां लक्षयति—या त्विति । या तु दृष्टिः ; अविश्रान्तम् ; अविस्रब्धम् , विलोकने ; विस्तीर्णा ; विस्तारवती, चञ्चलोत्फुल्लतारा ; चञ्चलेन विकसितकनीनिका, तथाविधा दृष्टिः विभ्रान्ता । सा च विभ्रमे, वेगे, ससंभ्रमे च प्रयुज्यते ॥ ४२३, ४२३-॥
इति विभ्रान्ता (१७) (सु०) विप्लुतां लक्षयति-पुटाविति । यत्र क्रमेण पक्ष्माणौ विस्फुरिती स्तब्धौ पतितौ च भवतः, सा विप्लुता । सा च आतिदुःखादौं, उन्मादे, चापले च प्रयोज्या ॥ -४२४-४२४-॥
इति विप्लुता (१८)
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१४९
सप्तमो नर्तनाध्यायः उत्कम्पोत्फुल्लतारा स्यात् त्रासे त्रस्तोद्भमत्पुदा ॥ ४२५ ॥
___इति त्रस्ता (१९) मदिरा त्रिविधा प्रोक्ता तरुणे मध्यमेऽधमे । मदे प्रयोगमहन्ती तत्तल्लक्ष्मसमन्विता ॥ ४२६ ॥ तीवो मदोऽधमोऽत्र स्यादधमे पुरुषे स्थितः । दृष्टिविकसितापाङ्गा क्षामीभूतविलोचना ॥ ४२७ ॥ आघूर्णमानतारा स्यान्मदिरा तरुणे मदे । किंचित्कुञ्चत्पुटा किंचिदनवस्थितचारिणी ॥ ४२८ ॥ दृष्टिः किंचिद्भमत्तारा मदिरा मध्यमे मदे । अधोभागचरी किंचिदृष्टतारा निमेषिणी ॥ ४२९ ।। यत्नेऽप्यसिद्धयदुन्मेषा मदिरा स्यान्मदेऽधमे।।
इति त्रिविधा मदिरा (२०) इति विंशतिव्यभिचारिदृष्टयः ।
(सु०) प्रस्तां लक्षयति-उत्कम्पेति । उत्कम्पितविकासिततारका दृष्टिः त्रस्ता । सा च त्रासे प्रयोज्या ॥ -४२५ ॥
इति त्रस्ता (१९) (सु०) मदिरां लक्षयति-मदिरेति । मदिरादृष्टिः त्रिविधा । सा च उत्तममध्यमाधमभेदात् । वक्ष्यमाणतत्तलक्ष्मभिः सहिता तेष्वेव मदेषु विनियोगमहन्ती । अत्र तीब्रो मदोऽधमः; स च अधमे पुरुषे स्थितो भवति । दृष्टिरिति । विकसितापागा; विकसितौ अपाङ्गौ यस्याः; क्षामीभूतविलोचना ; क्षामीभूते विलोचने यस्याः, आघूर्णमानतारा; आसमन्तात् घूर्णमाने भ्रामिते तारे यस्याम् ; तथाविधा मदिरादृष्टिः तरुणे मदे प्रयोज्या; किंचिन्नमितपुटा ; ईषन्नमितौ पुटौ यस्याः; ईषदनवस्थितसंचारा ; किंचिभ्रमत्तारा; ईषद्भ्रमणं प्रापिते तारे
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१५०
संगीतरत्नाकरः प्रदर्शनार्थमित्युक्ताः षट्त्रिंशदृष्टयो मया ॥ ४३० ॥ अनन्ताः सन्ति संदर्भाद् भूतारापुटकर्मणाम् । दृष्टयस्ता विरिश्चोऽपि प्रत्येकं वक्तुमक्षमः ॥ ४३१॥ लाघवात्तत्मबोधार्थ बमो भ्रूप्रभृतीन्यतः ।
इति दृष्टिप्रकरणम् । सहजा पतितोत्क्षिप्ता रेचिता कुश्चिता तथा ॥ ४३२ ॥ भ्रुकुटी चतुरा चेति प्रोक्ता धूः सप्तधा बुधैः । स्वाभाविकी स्यात्सहजा भावेष्वकुटिलेष्वसौ ॥ ४३३ ॥
इति सहजा (१)
यस्याः; तथाविधा मदिरादृष्टिः मध्यमे मदे प्रयोज्या; अधोभागचारिणी ; किंचिदवलोकिततारका, निमेषवती, यत्ने कृतेऽपि असिद्धोन्मेषा; तथाविधा मदिरादृष्टि: अधमे मदे प्रयोज्येति ॥ ४२६-४२९- ॥
___ इति त्रिविधा मदिरा (२०)
इति विंशतिव्यभिचारिदृष्टयः ।। (सु०) दृष्टिप्रकरणमुपसंहरति-प्रदर्शनार्थमिति । मुग्धपरिज्ञानाय मया षट्त्रिंशदृष्टय उक्ताः । यद्यपि भ्रतारापुटकर्मणां संदर्भा अनन्ता दृष्टयः सन्ति; ता विञ्चिोऽपि प्रत्येकं वक्तुं नेष्टे । तथापि लोकवृत्त्यनुसारेण लाघवात् तत्परिज्ञानार्थम् , अतः परं भूतारादिकर्माणि कथयाम इति ॥-४३०, ४३१-॥
इति दृष्टिप्रकरणम् । (क०) अथ भ्रूभेदान् लक्षयितुमाह-सहजा पतितेत्यादि ॥ -४३२-४३४- ॥
इति सहजा (१) (सु०) अथ भ्रूभेदानाह-सहजेति । सहजा, पतिता, उत्क्षिप्ता,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः पतिता स्यादधो याता सद्वितीयाथवा क्रमात् । उत्क्षेपे विस्मये हर्षे रोषेऽसूयाजुगुप्सयोः ॥ ४३४ ॥ हासे घ्राणे च पतिते विधीयेतामुभे ध्रुवौ ।
इति पतिता (२) उत्क्षिप्ता संमतान्वर्था क्रमेण सह चान्यथा ॥ ४३५ ॥ स्त्रीणां कोपे वितर्के च दर्शने श्रवणे निजे । भ्रूलीलाहेलयोश्चैषा कार्योंक्षिप्ता विचक्षणैः ॥ ४३६ ॥
इत्युत्क्षिप्ता (३) एकैव ललितोत्क्षिप्ता रेचिता नृत्तगोचरा ।
इति रेचिता (४)
रेचिता, कुञ्चिता, भ्रुकुटी, चतुरेति सप्तप्रकारा भ्रूः । क्रमेण लक्षणमाहस्वाभाविकीति । स्वाभाविकी भ्रूः सहजा । असौ अकुटिलेषु ऋजुषु भावेषु प्रयोज्या ॥ -४३२, ४३३ ॥
इति सहजा (१) (सु०) पतितां लक्षयति-पतितेति । अधो याता भ्रूः पतिता । सा च उत्क्षेपे, विस्मये, हर्षे, रोषे, असूयायाम् , जुगुप्सायां च प्रयोज्या । उभे अपि भ्रुवौ हासघ्राणयोर्विधीयते ॥ ४३४, ४३४- ॥
इति पतिता (२) (क०) एकोरिक्षप्ताभ्रूविनियोगे-लीलाहेलयोरिति । तत्र लीला नाम योषितां पुंसां शारीरो भावविशेषः। यथाह तल्लक्षणं भावप्रकाशकारः
" मनो मधुरवागङ्गचेष्टितैः प्रीतियोजितैः । प्रियानुकरणं लीला सा स्यात्स्त्रीपुंसयोरपि" इति ॥ (पृ. ९)
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संगीतरत्नाकरः केवला सद्वितीया वा मृदुभङ्गा निकुञ्चिता ॥ ४३७॥ मोहायिते कुट्टमिते विलासे किलकिश्चिते ।
___ इति निकुचिता (५) आमूलात्सद्वितीया भूरुक्षिप्ता भृकुटी क्रुधि ॥ ४३८ ॥
इति भृकुटी (६) तथा हेला नाम सात्त्विको भावविशेषः । यथा तेनैवोक्तं लक्षणम्
" स एव हावो हेला स्याल्ललिताभिनयात्मिका । नानाप्रकाराभिव्यक्तशृङ्गाराकारचिका" इति (पृ० ८)
॥ -४३५-४३९ ॥ ___ इति सप्तधा भ्रूः।
इति भ्रूप्रकरणम् । (सु०) उत्क्षिप्तां लक्षयति-उत्क्षिप्तेति । ऊर्ध्व नीता उत्क्षिप्ता अन्वर्था । उत्क्षिप्ता च एकस्य वा द्वयोर्वा भवतु । सा च स्त्रीणां कोपे, वितर्के, दर्शने, श्रवणे, लीला, हेलयोश्च प्रयोज्या ॥ -४३५, ४३६ ॥
इत्युरिक्षप्ता (३) (सु०) रेचितां लक्षयति–एकैवेति । एकैव ललितोत्क्षिप्ता भ्रू रेचिता। सा च नृत्तमात्रगोचरा ॥ ४३६-॥
इति रेचिता (४) (सु०) निकुञ्चितां लक्षयति-केवलेति । केवला वा द्वितीयसहिता वा, मृदुभङ्गा; मृदुर्भङ्गो यस्याः, सौकुमार्येण युक्ता भ्रूः निकुञ्चिता। सा च मोट्टामिते, विलासे, किलिकिञ्चिते च प्रयोज्या ।। -४३७, ४३७- ॥
__इति निकुचिता (५) (सु०) भृकुटी लक्षयति -आ मूलादिति । आ मूलात् सद्वितीयं यथातथा उत्क्षिप्ता भ्रूः भृकुटी । सा च कोपे कार्या ॥ -४३८ ॥
इति भृकुटी (६)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः सद्वितीयाल्पकस्पन्दादायता मन्थरा भवेत् । चतुरा रुचिरे स्पर्शे शृङ्गारे ललिते च सा ॥ ४३९ ॥
इति चतुरा (७)
इति सप्तधा भ्रूः। प्रसृतौ कुश्चितौ स्यातामुन्मेषितनिमेषितौ । विवर्तितौ च स्फुरितौ पिहितौ च विताडितौ ॥ ४४० ॥ समौ च नवधेत्युक्तौ पुटौ सोढलसूनुना । आयतौ प्रसृतौ स्यातां वीरे हर्षे च विस्मये ॥ ४४१॥
इति प्रस्तौ (१) . आकुश्चितौ कुश्चितौ स्तो रूपादौ च मनोहरे ।
इति कुश्चितौ (२)
(सु०) चतुरां लक्षयति-सद्वितीयेति । सद्वितीयं यथा तथा अल्पस्पन्दा दीर्घमन्थरा भ्रूश्च चतुरा । सा च रुचिरे, स्पर्श, शृङ्गारे, ललिते च प्रयोज्या ॥ ४३९ ॥
इति चतुरा (७) इति सप्तधा भ्रः । इति भ्रूप्रकरणम् ।
(क०) अथ पुटयोर्भेदान् लक्षयति-प्रस्तावित्यादि॥४४०-४४५-॥
(सु०) पुटयोभैदानाह-प्रसृताविति । प्रसृतौ, कुञ्चितौ, उन्मेषितो, निमेषितो, विवर्तितौ, स्फुटितौ, पिहितौ, विचलितौ, समाविति नवविधौ पुटौ । क्रमेण लक्षणमाह-आयताविति । आयतौ प्रसृतौ वीरे हर्षे विस्मये च
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१५४
संगीतरत्नाकरः उन्मेषितौ तु विश्लेषात्संश्लेषात्तु निमेषितौ ॥ ॥ ४४२ ॥ विवर्तितौ समुदृत्तौ त्रयोऽमी क्रोधगोचराः ।
इत्युन्मेषितनिमेषितविवर्तिताः (३-५) स्फुरितौ स्पन्दितौ स्यातां तावीर्ष्याविषयौ मतौ ॥ ४४३ ॥
___ इति स्फुरितौ (6) अतीव कुश्चितौ लग्नौ पिहितौ तौ दृशो रुजि । सुप्तिमूर्छातिवर्षोष्णधूमवाताञ्जनार्तिषु ॥ ४४४ ॥
इति पिहितौ (७) उत्तरेणाधराघातादभिघाते विचालितौ । आहुरन्ये त्वदृश्यौ ताविति विस्फारणात्पुटौ ॥ ४४५ ॥
इति विचालितौ (८) समौ स्वाभाविकावेतौ स्वभावाभिनये मतौ ।
इति समौ (९)
इति नवधा पुटौ। प्रयोज्यौ । आकुञ्चितौ कुञ्चितौ ; तौ रूपादौ, मनोहरे च प्रयोज्यौ । विश्लेषे उन्मेषितौ ; संश्लेषे निमेषितौ ; समुद्वृत्तौ विवर्तितौ । उन्मेषितनिमेषितविवर्तिता अमी त्रयोऽपि क्रोधे प्रयोज्याः । स्पन्दितौ स्फुरितो, तावीर्ष्यायां प्रयोज्यौ । अतीव परस्परसंलग्नौ पुटौ पिहितौ ; तौ रुजि प्रयोज्यौ, तथा सुप्तिमूर्छातिवर्षोष्णधूमवाताञ्चनार्तिषु च प्रयोज्याविति । उत्तरेण पुटेन, अधरस्य अधःस्थिस्य पुटस्य घातात् विताडितौ । तौ च अभिघाते कार्यो । अतिविस्फारणात् अनवलोकनीयौ पुटौ विताडिताविति केचिदाहुः । स्वाभाविको समौ ; एतौ स्वभावाभिनये प्रयोज्यौ ॥ ४४०-४४५- ॥
इति नवधापुटौ। इति पुटप्रकरणम् ।
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१५५
सप्तमो नर्तनाध्यायः कर्मभिस्तारकाभेदा यैः स्युस्तान्यधुना ब्रुवे ॥ ४४६ ॥ तानि द्वेधा स्वनिष्ठानि विषयाभिमुखानि च । भ्रमणं वलनं पातश्चलनं च प्रवेशनम् ॥ ४४७ ॥ विवर्तनं समुवृत्तं निष्क्रामः माकृतं तथा। स्वनिष्ठानि नवेत्याहुस्ताराकर्माणि सूरयः॥ ४४८ ॥ तारयोर्मण्डलभ्रान्तिः पुटान्तर्धमणं मतम् । वलनं त्र्यश्रगमनं पातस्तु स्यादधोगतिः ॥ ४४९ ॥
(क०) अथ तारकाभेदान् लक्षयितुं तद्भेदकानि कर्माणि वर्णयितुमाह-कर्मभिस्तारकाभेदा इत्यादि । यैः कर्मभिः तारकाभेदा स्युः; तानि कर्माणि अधुना ब्रूम इति । अयमभिप्रायः- नयनगोलकमाश्रितायास्तारकाया हस्तादिवत्स्वरूपगतभेदासंभवाद्भमणादिकर्मभेदादेव ताराभेदोऽवगन्तव्य इति । तानि कर्माणि स्वनिष्ठत्वेन विषयाभिमुखत्वेन च द्वेधा भवन्तीत्याह-तानि द्वेधेति ॥ -४४६, ४४६- ।।
(क०) तत्र स्वनिष्ठान्युद्दिश्य लक्षयति-भ्रमणमित्यादि ॥ -४४७-४५३.॥
इति नव स्वनिष्ठानि ताराकर्माणि । (सु०) तारकाभेदान् वक्तुं प्रथमं तत्कर्मणो भेदानाह-कर्मभिरिति । कर्मविशेषैः यैः तारकाभेदा भवन्ति, तान् अधुना कथयामि । तानि कर्माणि द्विप्रकाराणि ; स्वनिष्ठानि; स्वविषयाभिमुखानि विषयनिष्ठानि ; विषयाभिमुखानीति च । तत्र स्वनिष्ठानि ताराकर्माणि भ्रमणादिभेदेन नवविधानि । तानि यथा-भ्रमणम् ; वलनम्, पातः, चलनम् , प्रवेशनम् , विवर्तनम् , समुद्वृत्तम् , निष्क्रामः, प्राकृतमिति । क्रमेण लक्षणमाह-तारयोरिति । पुटान्तस्तारयोः मण्डलभ्रान्तिभ्रमणम् (१); त्र्यश्रगमनं वलनम् (२); अधोगमन
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• संगीतरत्नाकरः चलनं कम्पनं प्रोक्तमथ ज्ञेयं प्रवेशनम् । प्रवेशः पुटयोरन्तःकटाक्षस्तु विवर्तनम् ॥ ४५० ॥ उद्गतिस्तु समुत्तमन्तरा निर्गमस्तु यः । स निष्कामः प्राकृतं तु स्वभावस्थितिरुच्यते ॥ ४५१॥ समुद्वृत्तं च वलनं भ्रमणं वीररौद्रयोः । पातस्तु करुणे कार्यश्चलनं तु भयानके ।। ४५२ ॥ प्रवेशनं तु बीभत्से हास्ये तु स्याद्विवर्तनम् । शृङ्गारे स्यात्तु निष्कामो वीरे रौद्रे भयानके ॥ ४५३ ॥ अद्भुते च प्राकृतं तु भावेनावेशभागिनि ।
इति नव स्वनिष्टानि ताराकर्माणि । विषयाभिमुखान्यष्टौ ताराकाण्यथ ब्रुवे ॥ ४५४ ॥ समं साच्यनुवृत्तावलोकितानि विलोकितम् । उल्लोकितालोकिते च प्रविलोकितमित्यपि ॥ ४५५ ॥
पातः (३); कम्पनं चलनम् (४); पुटान्तः प्रवेशः प्रवेशनम् (५); कौटिल्यं तु विवर्तनम् (६); उद्गतिः समुवृत्तम् (७); अन्तरानिर्गमः निष्कामः (८); स्वभावस्थिति: प्राकृतम् (९); समुद्वृत्तमण्डलभ्रमणानि वीररौद्रयोः प्रयोज्यानि । पात: करुणे कार्य: । वलनं भयानके कार्यम् । प्रवेशनं बीभत्सहास्ययो: कार्यम्। विवर्तनं शृङ्गारे कार्यम् । निक्रामो वीररौद्रभयानकेषु कार्यः । अद्भुते च प्राकृतं कार्यम् ।। -४४७-४५३-॥
इति नव स्वनिष्ठानि ताराकर्माणि । (क०) विषयामिमुखान्युद्दिश्य लक्षयति--समं साचीत्यादि ।। -४५४-४६०.॥
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१५७
सप्तमो नर्तनाध्यायः एतानि दर्शनान्याहुर्लक्ष्यलक्ष्मविचक्षणाः । सौम्यं मध्यस्थतारं च दर्शनं सममुच्यते ॥ ४५६ ॥
इति समम् (१) साच्युच्यते तिरश्चीनपक्ष्मान्तर्गततारकम् ।
___इति साचि (२) रूपनिर्वर्णनायुक्तमनुवृत्तं मतं मुनेः ॥ ४५७ ।। निर्वर्णना क्रियाकादिद्दक्षातश्विरस्थिरा ।
इत्यनुवृतम् (३) अधस्थदर्शनं यत्तदवलोकितमुच्यते ॥ ४५८ ॥
इत्सवलोकितम् (४) (सु०) विषयाभिमुखान्यष्टविधानि । तानि यथा-समम् , साचि, अनुवृत्तम् , अवलोकितम् , उल्लोकितम् , आलोकितम् , प्रविलोकितम् , विलोकितमित्येतान्यष्टौ दर्शनानीत्युच्यन्ते । तेषां क्रमेण लक्षणमाह-सौम्यमिति । सौम्यम् ; अक्रूरम् , मध्यस्थतारदर्शनं सममित्युच्यते ॥ -४५४, ४५५ ॥
इति समम् (१) (सु०) साचि लक्षयति–साचीति । तिरश्चीनं पक्ष्मान्तर्गततारक कनीनिक साचीत्युच्यते ॥ ४५६-॥
इति साचि (२) (सु०) अनुवृत्तं लक्षयति-रूपमिति । रूपनिर्वर्णनायुक्तम् ; रूपस्य निर्वर्णनया युक्तमवलोकनम् अनुवृत्तम् । केयं निवर्णनेत्यपेक्षायामाह-निवर्णनेति । कात्स्न्य॑दिदृक्षया; कात्स्न्येन साकल्येन दिदृक्षाहेतो: चिरकालं, स्थिरा क्रिया निवर्णनेत्युच्यते ॥ -४५७, ४५७- ॥
___इत्यनुवृत्तम् (३) (सु०) अवलोकितं लक्षयति-अधःस्थेति । अधःस्थस्य दर्शनमवलोकिसम् ॥ -४५८ ॥
इत्यवलोकितम् (४)
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१५८
संगीतरत्नाकरः
पृष्ठतो दर्शनं यत्तद्विलोकितमुदाहृतम् ।
___ इति विलोकितम् (५) उल्लोकितं तदूर्ध्वस्थवस्तुनो यदवेक्षणम् ॥ ४५९ ॥
इत्युल्लोकितम् (६) सहसा दर्शनं यत्तदालोकितमुदीरितम् ।
इत्यालोकितम् (७) पार्श्वस्थदर्शनं मोक्तं कृतिभिः प्रविलोकितम् ।। ४६० ॥
इति प्रविलोकितम् (८) साधारणान्यमून्याहू रसभावेषु तद्विदः।
___ इत्यष्टौ दर्शनानि ।
इत्यष्टौ विषयनिष्ठानि ताराकर्माणि (सु०) विलोकितं लक्षयति-पृष्ठत इति । पृष्ठतो दर्शनं विलोकितमित्युच्यते ॥ ४५८- ॥
इति विलोकितम् (५) (सु०) उल्लोकितं लक्षयति-उल्लोकितमिति । ऊर्ध्वस्थवस्तुनो यदवलोकनं तद् उल्लोकितं भवति ॥ -४५९ ॥
इत्युल्लोकितम् (६) (सु०) आलोकितं लक्षयति-सहसेति । यत् सहसादर्शनम् तद् आलोकितं भवति ॥ ४५९-॥
इत्यालोकितम् (७) (सु०) प्रविलोकितं लक्षयति-पार्श्वस्थेति । पार्श्वस्थदर्शनं प्रविलोकितमिति कृतिभिः प्रोक्तम् । एतानि दर्शनानि रसभावेषु साधारणानी त्याहुः ॥ -४६०, ४६०.॥
___इति प्रविलोकितम् (८)
इत्यष्टौ दर्शनानि । इत्यष्टौ विषयनिष्ठानि ताराकर्माणि |
इति तारकाप्रकरणम् ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१५९ कुञ्चितौ कम्पितौ पूर्णौ क्षामौ फुल्लौ समौ तथा ॥ ४६१ ॥ कपोलौ षड्विधावुक्तौ तल्लक्षणमथोच्यते । संकोचात्कुश्चितौ रोमाञ्चितौ शीतज्वरे भये ।। ४६२ ॥
इति कुञ्चितौ (१) स्फुरितौ कम्पितौ कायौं रोमहर्षेषु सूरिभिः ।
___ इति कम्पिती (२) कपोलावुन्नतौ पूर्णौ तौ गर्वोत्साहगोचरे ॥ ४६३ ॥
इति पूणॆ (३) क्षामौ त्ववनतौ ज्ञेयौ दुःखे कार्याविमौ नटैः ।
इति क्षामौ (४) गण्डौ विकसितौ फुल्लौ प्रहर्षे परिकीर्तितौ ॥ ४६४ ॥
इति फुल्लौ (५) समौ स्वाभाविको भावेष्वनावेशेषु तौ मतौ ।
इति समौ (६)
इति षोढा कपोललक्षणम् । (क०) अथ कपोलयो/दान् लक्षयितुमाह- कुश्चितौ कम्पितौ पूर्णावित्यादि ॥ ४६१-४६४- ॥
(सु०) अथ कपोलयोर्भेदानाह-कुञ्चिताविति । कुञ्चितौ, कम्पितौ, पूर्णी, क्षामौ, फुल्लौ, समाविति षड्विधौ कपोलौ । क्रमेण लक्षणमाहसंकोचेति । संकोचात् कुञ्चितौ । तौ रोमाञ्चितौ शीते, ज्वरे भये च कार्यों । इति कुञ्चितौ (१) स्फुरणात् कम्पितौ । तौ रोमहर्षेषु कार्यों । इति कम्पितौ (२) उन्नतौ पूर्णौ । तौ गर्वोत्साहयो: कार्यों । इति पूर्णी (३) अवनतौ क्षामौ ।
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१६०
संगीतरत्नाकरः
स्वाभाविकी नता मन्दा विकृष्टा च विकूणिता ।। ४६५ ॥ सोच्छासेत्युदिता नासा पड़िधा सूरिशाङ्गिणा । स्वाभाविकी स्यादन्वर्था भावेष्वावेगवर्जिता ।। ४६६ ।। इति स्वाभाविकी (१)
मुहुः संश्लिष्टविश्लिष्टपुटा नासा नता मता । सोच्छ्वासाभिनये मन्दविच्छिन्नरुचिगोचरे ।। ४६७ ॥ इति नता ( २ )
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तौ नटैः दुःखे कार्यों । इति क्षामौ ( ४ ) विकासं प्राप्तौ फुल्लौ । तौ प्रहर्षे कार्यौ । (५) स्वाभाविकौ समौ । तौ अनावेशेषु भावेषु कार्यौ । इति समौ (६) ॥ - ४६१-४६४-॥
इति षोढा कपोललक्षणम् । इति कपोलप्रकरणम् |
(क० ) अथ नासाभेदान् लक्षयितुमाह - स्वाभाविकी नतेत्यादि
॥ - ४६५-४७०- ॥
(सु० ) अथ नासामेदानाह - स्वाभाविकेति । स्वाभाविकी, नता, मन्दा, विकृष्टा, विकूणिता, सोच्छ्वासेति षड्भेदाः । तासां क्रमेण लक्षणमाहस्वाभाविकीति । अन्वर्था स्वभावावस्थिता स्वाभाविकी । सा आवेगवर्जिते भावे कार्या ॥ - ४६५, ४६६ ॥
इति स्वाभविकी (१)
(सु० ) नतां लक्षयति - मुहुरिति । मुहुः प्रतिक्षणं संश्लिष्टौ पुटौ यस्याः, सानता । सा च सोच्छ्रासाभिनये, मन्दविच्छिन्नरुचिरे च कार्या ॥ ४६७ ॥
इति नता ( २ )
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
मन्दा तु मन्दनिःश्वासोच्छ्रासा नासाभिधीयते । सा चिन्तौत्सुक्ययोः शोके निर्वेदे च विधीयते ।। ४६८ ॥
इति मन्दा (३)
विकृष्टात्यन्तमुत्फुल्लपुटा रोषार्तिभीतिषु ।
ऊर्ध्वश्वासे च कर्तव्या घ्रातव्ये भूरिसौरमे ।। ४६९ ॥ इति विश (४) विकूणिता संकुचिता हास्येऽसूयाजुगुप्सयोः ।
इति विणता (५)
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आकृष्टश्वसना नासा सोच्छ्वासा सौरभे भवेत् ।। ४७० ।। निर्वेदादिषु भावेषु दीर्घोच्छ्वासकरेषु च ।
इति सोच्छ्वासा (६)
इति षोढा नासिका । इति नासाप्रकरणम् |
(सु० ) मन्दां लक्षयति- मन्दा त्विति । मन्दनिःश्वासोच्छ्रासा ; अल्पनिःश्वासेन उच्छ्रासा नासा मन्दा । सा च चिन्तायाम्, औत्सुक्ये, शोके, निर्वेदे च प्रयोज्या ॥ ४६८ ॥
इति मन्दा (३)
(सु० ) विकृष्टां लक्षयति - विकृष्टेति । अत्यन्तमुत्फुल्लपुटा ; अतिशयेन उत्फुल्लौ पुटौ यस्या:, तथाविधा नासा विकृष्टा । सा च रोषे, आत, भीते, ऊर्ध्वश्वासे, भूरिसौरभे; बहुपरिमले द्रव्ये घ्रातव्ये च प्रयोज्या ॥ ४६९ ॥ इति विकृश ( ४ )
(सु० ) विकूणितां लक्षयति - विकूणितेति । संकुचिता विकूणिता । साच हास्ये, असूयायाम्, जुगुप्सायां च प्रयोज्या ॥ ४६९-॥
इति विकूणिता (५)
(सु० ) सोच्छ्वासां लक्षयति - आकृष्टेति । आकृष्टश्वसना नासा
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१६२
संगीतरत्नाकरः स्वस्थौ चलौ प्रवृद्धश्च निरस्तोल्लासितावपि ॥ ४७१ ॥ विमुक्तो विस्मितः श्वासः स्खलितः प्रसृतस्तथा । एवमुच्छ्वासनिःश्वासौ नवधा कोहलोदितौ ॥ ४७२ ॥ समो भ्रान्तो विलीनश्चान्दोलितः कम्पितोऽपरः । स्तम्भितोच्छ्वासनिःश्वाससूत्कृतानि च सीत्कृतम् ।। ४७३ ॥ एवं दशविधः प्रोक्तो लक्ष्यज्ञैर्मारुतोऽपरैः । स्वस्थावुच्छासनिःश्वाससंज्ञौ वायू स्वभावजौ ॥ ४७४ ।। स्वस्थक्रियासु कर्तव्यावुक्तौ निःशङ्करिणा ।
____ इति स्वस्थौ (१) सोच्छवासा। सा च सौरभे, निर्वेदादिपु भावेषु दीर्घोच्छासकरेषु च प्रयोज्या ॥ -४७०, ४७०- ॥
__ इति सोच्छासा (6) इति षोढा नासिका।
इति नासाप्रकरणम् । (क०) अथ नासास्यभवाननिलभेदान् लक्षयितुमाह-स्वस्थौ चलावित्यादि ॥ -४७१-४८२ ॥
(सु०) अथ सोछ्वासनिश्वासयोर्भेदानाह-स्वस्थाविति । उच्छासादिभेदेन नवविधो नासास्यभवोऽननिलः । तानाह-स्वस्थौ, चलौ, प्रवृद्धः, निरस्तः, उल्लासित:, विमुक्तः, विस्मितः, स्खलित इति । कोहलमतेन दशविधः । तानाह-समः, भ्रान्तः, विलीनः, आन्दोलितः, कम्पितः, स्तम्भित: उछासः, निःश्वासः, सूत्कृतम् , सीत्कृतमिति । तेषां क्रमेण लक्षणमाह-स्वस्थाविति । उछासनिः श्वाससंज्ञौ वायू स्वभावजौ स्वस्थावित्युच्युते । तौ स्वस्थक्रियायां प्रयोज्यौ ॥ -४७१-४७४- ॥
इति स्वस्थौ (१)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१६३ उष्णौ दीघौं सशब्दौ च तौ मुखेन कृतौ चलौ ॥ ४७५ ॥ कार्यावौत्सुक्यनिर्वेदशोकचिन्तास्विमौ मतौ ।
___ इति चलौ (२) प्रवृद्धः सन्सशब्देन वदनेन विनिर्गतः ॥ ४७६ ॥ निःश्वासः स्यात्मवृद्धाख्यः क्षयव्याध्यादिगोचरः।
इति प्रवृद्धः (३) सशब्दः सन्सकृत्क्षिप्तो निरस्तः कथ्यते मरुत ॥ ४७७ ॥ दुःखान्विते सरोगे च श्रान्ते चैंष विधीयते ।
___ इति निरस्त: (४)
(सु०) चलौ लक्षयति-उष्णाविति । उष्णौ सशब्दौ शब्दसहितौ, दीपों च मुखेन कृतौ वातौ चलौ। तौ औत्सुक्यनिर्वेदशोकचिन्तासु प्रयोज्यौ ॥ -४७५, ४७५- ॥
___ इति चलौ (२) __ (सु०) प्रवृद्धं लक्षयति-प्रवृद्ध इति । सशब्देन वदनेन प्रवृद्धः सन् विनिर्गतो निश्वास: प्रवृद्धः स्यात् । अयं पूर्वयोर्द्वयोरपि भिन्नः । तत्र मिलितयोः उच्छासनिः श्वासयोस्तथाविधसंज्ञित्वात् द्विवचनमुक्तम् । अत्र तु एकैकस्यापि संज्ञासंभवात् द्विवचनानादरः। तस्य विनियोगस्तु-क्षयत्र्याध्यादौ कार्यः ॥ -४७६, ४७६- ॥
इति प्रवृद्धः (३) (सु०) निरस्तं लक्षयति-सशब्द इति । सशब्दः सन् शब्दसहितः सन्, सकृत् एकवारं क्षिप्ते मरुत् वातो निरस्त इति कथ्यते । स च दुःखान्विते, सरोगे, श्रान्ते च प्रयोज्यः ॥ -४७७, ४७७- ॥
इति निरस्त: (४)
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१६४
संगीतरत्नाकर:
चिरान्मन्दं निपीतस्तु घ्राणेनोल्लासितो मरुत् ।। ४७८ ॥ गन्धे विधातव्यः संदिग्धे च विचक्षणैः ।
इत्युला सित: ( ५ )
संयम्य सुचिरं मुक्तो विमुक्तः कथ्यतेऽनिलः || ४७९ ॥ योगे ध्याने च स प्रोक्तः प्राणायामे च सूरिभिः । इति विमुक्त: ( ६ ) चित्तस्यान्यपरत्वेन यः प्रयत्नेन वर्तते ।। ४८० ॥ सविस्मितो विस्मये स्यादद्भुते चार्थचिन्तने ।
इति विस्मित: (७)
महत्त्वादुःखनिष्क्रान्तः कथितः स्खलितोऽनिलः ॥ ४८१ ॥ स्यादशम्यां दशायां स व्याधौ प्रस्खलितेषु च । इति स्खलितः (८)
(सु०) उल्लासितं लक्षयति - चिरादिति । चिरात् चिरकालं मन्दं शनैः शनैः घ्राणेन निपीतो मरुत् वात उल्लासितो भवति । स च हृद्ये गन्धे ; संदिग्धे च कार्यः ॥ - ४७८, ४७८- ॥
इत्यलासितः (५)
(सु० ) विमुक्तं लक्षयति - संयम्येति । सुचिरम् चिरकालम्, संयम्य मुक्त वातो विमुक्तः । स च योगे, ध्याने, प्राणायामे च कार्यः ॥ ४७९, ४७९ ॥ इति विमुक्तः (६)
(सु० ) विस्मितं लक्षयति-चित्तस्येति । चित्तस्य अन्यपरत्वेन अन्यासक्तेन यो वायुः प्रयत्नेन वर्तते स विस्मितः । स च विस्मये, अद्भुते, प्रर्थचिन्तने च कार्यः ॥ ४८०, ४८०- ॥
इति विस्मित: (७)
(सु० ) स्खलितं लक्षयति-महत्वादिति । महत्वात् दुःखेन निःसृतः
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१६५
प्रसृतो दीर्घः सशब्दो निर्गतो मुखात् ॥ ४८२ ॥ इति प्रसृतः ( ९ ) इति नवविधोऽनिलः ।
समोsस्वस्थपर्यायो भ्रान्तोऽन्तभ्रमणान्मरुत् । अन्ये त्वन्वर्थनामानस्तत्र सूत्कृतसीत्कृते ।। ४८३ | शब्दानुकरणे वक्त्रत्याज्यग्राह्येऽनिले क्रमात् । समः स्वाभाविको भ्रान्तः प्रथमे प्रियसङ्गमे ॥ ४८४ ॥ विलीनो मूर्छिते शैलारोहे त्वान्दोलितो मतः । कम्पितः सुरते शस्त्रमोक्षादौ स्तम्भितो भवेत् ।। ४८५ ॥ उच्छ्वासः कुसुमाघ्राणे निःश्वासोऽनुशयादिषु ।
पवनः स्खलित: । सः ; स्खलितः, दशाम्यां दशायाम्, व्याधौ, प्रस्खलितेषु च प्रयोज्यः ॥ - ४८१, ४८१- ॥
इति स्खलित: (८)
( सु० ) प्रसृतं लक्षयति - प्रसुप्त इति । सशब्दं यथा तथा मुखात् विनिर्गतः दीर्घो वातः प्रसृतः । स च निद्राणे प्रयोज्यः ॥ - ४८२ ॥
इति प्रसृत: ( ९ ) इति नवविधोऽनिलः ।
(सु०) मतान्तरेण दशविधं पवनं लक्षयति - सम इति । स्वस्थपर्यायः, अविकृतो मरुत सम: (१) अन्तभ्रंमितो मरुत् भ्रान्त: (२) अन्ये तु अन्वर्थनामान:; नानैवोक्तलक्षणा इत्यर्थः । तेषां विनियोगमाह - तत्रेति । सूत्कृत - सीत्कृते शब्दानुकरणे बोध्ये । क्रमात् मुखात्त्याज्ये वातः सूत्कृतम, मुखे ग्राह्येो वातः सीत्कृतमिति । समः स्वाभाविके प्रयोज्यः । भ्रान्तः प्रथमे प्रियसङ्गमे कार्यः । विलीनो मूर्च्छायाम् । आन्दोलित : शौलारोहे | कम्पितः
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संगीतरत्नाकरः सूत्कृतं वेदनादौ स्याच्छीते क्लेशे तु सीत्कृतम् ॥ ४८६ ॥ नखक्षते मृगाक्षीणां निर्दयाधरचर्वणे । विनियोगान्तराण्यत्र बुध्यतां लोकतो बुधाः ॥ ४९७ ॥
इति मतान्तरेण दशधा श्वसनः ।
इत्यानिलप्रकरणम् । विवर्तितः कम्पितश्च विसृष्टो विनिग्रहितः । संदष्टकः समुद्रश्चेत्यधरः षड्विधो मतः ॥ ४८८ ॥ अन्येऽन्यानूचुरुवृत्तविकास्यायतरेचितान् । ओष्ठयोः संपुटस्तिर्यक्संकोचेन विवर्तितः॥ ४८९ ॥ अवज्ञावेदनासूयाहास्यादिषु विधीयते ।
इति विवर्तितः (१) सुरते । स्तम्भितः शास्त्रमोक्षादौ । उच्छासः कुसुमाघ्राणे | निःश्वास अनुशयादौ । सूत्कृतं वेदनादौ । सीत्कृतं शीते, क्लेशे च प्रगोज्यम् । मृगाक्षीणां सुभ्रुवां निर्दयाधरचर्वणे च विनियोगान्तराण्यपि बुधाः लोकतोऽवगन्तव्याः ॥ ४८३-८४७ ॥
इति मतान्तरेण दशधा श्वसनः ।
___ इत्यनिलप्रकरणम। (क०) अथाधरभेदान् लक्षयितुमाह-विवर्तितः कम्पितश्चेत्यादि ॥ ४८८-४९५. ॥
(सु०) अधरभेदानाह-विवर्तित इति । विवर्तितः, कम्पितः, विसृष्टः, विनिगूहितः, संदष्टकः, समुद्ग इत्यधरः षड्विधः । मतान्तरेण चतुर्विधमधरं लक्षयति - अन्य इति । अन्ये, आचार्याः, उद्वृत्तादिभेदेन अधरस्य चतुरो भेदानाहुः । उद्वत्तः, विकासी, आयतः, रेचित इति । आहत्याधरस्य
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
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व्यथायां कम्पितोऽन्वर्थो भीतौ शीते जपे रुजि ॥ ४९० ॥ इति कम्पितः (२)
विसृष्टः स्याद्विनिष्क्रान्तो रञ्जनेऽलक्तकादिना । स्त्रीणां विलासे विश्व शार्ङ्गिदेवेन कीर्तितः ।। ४९१ ॥ इति विसृष्टः (३)
मुखान्तर्निहितः प्राणसाध्येऽर्थे विनिगूहितः । रोषेर्ष्ययोश्च नारीणां बलाच्चुम्वति वल्लभे ।। ४९२ ॥ इति विनिगूहित: (४)
भेदा दश । तेषां क्रमेण लक्षणमाह-ओष्ठयोरिति । संकोचेनोपलक्षितः संपुटः, तिर्यक्कृत ओष्ठौ विवर्तितः । तस्य अवज्ञायाम्, वेदनायाम् असूयायाम्, हास्ये च विनियोगः ॥ ४८८-४८९- ॥
इति विवर्तित : (१)
(सु० ) कम्पितं लक्षयति - व्यथायामिति । अन्वर्थनामा कम्पितः । स तु भीतौ, शीते, जपे च प्रयोज्यः ॥ - ४९० ॥
इति कम्पित: ( २ )
(सु० ) विसृष्टं लक्षयति - विसृष्ट इति । बहिर्निष्क्रान्तो वातो विसृष्टः । स तु अलक्तकादिना रञ्जने, स्त्रीणां विलासे, बिब्बोके च प्रयोज्यः || ४९१ ।। इति विसृष्टः (३)
(सु० ) विनिगूहितं लक्षयति - मुखान्तरिति । मुखा न्तर्निहितः ; मुखमध्ये क्षिप्तो वातो विनिगूहितः । स च प्राणसाध्येऽर्थे; कोपे, ईर्ष्यायाम्, नायकस्य बलात्कारचुम्बने च प्रयोज्यः ॥ ४९२ ॥
इति विनिगूहितः (४)
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१६८
संगीतरत्नाकरः संदष्टकोऽधरो दन्तैर्दष्टः क्रोधे विधीयते ।
___ इति संदष्टक: (५) समुद्स्तु भवेदोष्ठसंपुटो दधदुन्नतिम् ॥ ४९३ ।। स्यात्फूत्कारेऽनुकम्पायां चुम्बने चाभिनन्दने ।
इति समुद्गः (६) आस्योत्क्षिप्ततयोवृत्तः सोऽवज्ञापरिहासयोः ॥ ४९४ ॥
इत्युद्वृतः (७) ईषदृश्योर्ध्वदशनो विकासी स स्मिते स्मृतः ।
इति विकासी (८) ___ (सु०) संदष्टकं लक्षयति-संदष्टक इति । दन्तैर्दष्टोऽधरः संदष्टकः । स च क्रोधे कार्यः ॥ ४९२- ॥
इति संदकः (५) (सु०) समुद्नं लक्षयति-समुद्गस्त्विति । ओष्टसंपुट उन्नतिं दधत् समुद्गो भवति । स च फूत्कारे, अनुकम्पायाम् , चुम्बने, अभिनन्दने च प्रयोज्य: ।। -४९३, ४९३- ॥
इति समुद्गः (६) (सु०) उद्वृत्तं लक्षयति-आस्येति । आस्येन उत्क्षिप्त उच्चीकृत उद्वृत्तो भवति । स च अवज्ञापरिहासयो: प्रयोज्यः ॥ -४९४ ॥
__ इत्युद्वत्तः (५) (मु०) विकासिनं लक्षयति-ईवदिति । ईषद् दृश्यः ; किंचिद्विलोकनीयः, ऊर्ध्वदशनो यस्मिन् स विकासी । स च स्मिते कार्यः ॥ ४९४-॥
इति विकासी (6)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः स सार्धमुत्तरोष्ठेन ततः स्यादायतः स्मिते ॥ ४९५ ।।
इत्यायत: (९) पर्यन्तवलनादुक्तो विलासे रेचितोऽधरः ।
इति रेचितः (१०) इति दुशविधोऽधरः ।
इत्यधरप्रकरणम्। दन्तकर्माणि वक्ष्यामो दन्तलक्षणसिद्धये ॥ ४९६ ॥ कुट्टनं खण्डनं छिन्नं चुकितं ग्रहणं समम् । दष्टं निष्कर्षणं चेति दन्तकर्माष्टकं जगुः ।। ४९७ ॥ संघर्षणं कुट्टनं स्याच्छीतरूभीजरासु तत् ।
___इति कुट्टनम् (9) (सु०) आयतं लक्षयति-स इति । उत्तरोष्ठेन साकं तत आयतः । स च विस्मये कार्यः ॥ -४९५ ॥
इत्यायत: (९) (सु०) रेचितं लक्षयति-पर्यन्तेति । पर्यन्तवलितोऽधरो रेचितः । स च विलासे कार्यः ॥ ४९५- ॥
इति रेचितः (१०) इति दशविधोऽधरः।
इत्यधरप्रकरणम् । (क०) दन्तकर्माणि लक्षयितुमाह-दन्तकर्माणि वक्ष्याम इत्यादि ॥ -४९६-५०२ ॥
(सु०) प्रतिज्ञाप्रयोजनपूर्वकं दन्तकर्माणि कथयति-दन्तकर्माणीति । कुट्टनम् , खण्डनम्, छिन्नम्, चुक्कितम् , ग्रहणम् , समम् , दष्टम् , निष्कर्षण
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१००
संगीतरनाकरः खण्डनं तु मुहुर्दन्तश्लेषविश्लेषणं मतम् ॥ ४९८ ।। जपाध्ययनसंलापभक्षणेषु भवेदिदम् ।
इति खण्डनम् (२) छिन्नं स्यादाढसंश्लेषो रोदने भीतिशीतयोः ॥ ४९९ ।। व्याधौ च वीटिकाच्छेदव्यायामादिषु कीर्तितम् ।
इति च्छिन्नम् (३) दन्तपङ्क्त्योः स्थितिर्दूरे चुक्तिं जृम्भणादिषु ॥ ५०० ॥
इति चुक्कितम् (४)
मित्यष्टौ दन्तकर्माणि । तेषां लक्षणमाह-संघर्षण मिति । सम्यक् घर्षणं कुट्टनं भवति । तत् शीते, रुजि, भीते, जरासु च योज्यम् ॥ -४९६, ४९७- ।।
इति कुट्टनम् (१) (मु०) खण्डनं लक्षयति-खण्डनं त्विति । मुहुः दन्तश्लेषविश्लेषणं खण्डनम् । तच्च जपे, अध्ययने, संलापे, भक्षणे च प्रयोज्यम् ||-४९८, ४९८-॥
___ इति खण्डनम् (२) __(सु०) छिन्नं लक्षयति-छिन्नमिति । दन्तानां गाढसंश्लेषः छिन्नम् । तच्च रोदने, भीती, शीते, व्याधौ, वीटिकाच्छेदने, व्यायामे च कार्यम् ॥ ॥ -४९९, ४९९- ॥
इति च्छिन्नम् (३) (सु०) चुक्कितं लक्षयति-दन्तेति । दूरे दन्तपङ्क्तयोः स्थिति: चुक्कितम । तच्च जृम्भणादिषु कार्यम् ॥ -५०० ॥
इति चुक्कितम् (४)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
तृणस्य चाङ्गुलैर्दन्तधारणं ग्रहणं भये । इति ग्रहणम् (५)
किंचिच्छ्लेषः समं तच्च स्वभावाभिनये मतम् ।। ५०१ ।।
इति समम् (६)
अधरे दंशनं दन्तैर्दष्टं क्रोधेऽभिधीयते ।
इति दष्टम् (७)
निष्कर्षणं तु निष्कासः कार्य मर्कटरोदने ।। ५०२ ॥
इति निष्कर्षणम् (८) इत्यष्टौ दन्तकर्माणि | इति दन्तकर्मप्रकरणम् |
१७१
(सु० ) ग्रहणं लक्षयति - तृणस्येति । तृणस्य अङ्गुलैव दन्तधारणं ग्रहणं भवति । तच्च भये प्रयोज्यम् ॥ ९०० ॥
इति ग्रहणम् (५)
(सु० ) समं लक्षयति - किंचिदिति । किंचिदेव दन्तपङ्क्त्योः संश्लेषः समम् । तच्च स्वभावाभिनये प्रयोज्यम् ॥ ५०१ ॥
इति समम् ( ६ )
(सु० ) दष्टं लक्षयति - अधर इति । दन्तैः अधरे दंशनं दष्टम् । तच्च क्रोध कार्यम् ॥ १०१ ॥
(सु०) निष्कर्षणं भवति । तच्च मर्कटरोदने
इति दष्टम् (७)
लक्षयति--- निष्कर्षणमिति । निष्कासो निष्कर्षणं प्रयोज्यम् ॥ १०२ ॥
इति निष्कर्षणम् (८) इत्यष्टौ दन्तकर्माणि | इति कर्मप्रकरणम् |
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१७२
संगीतरत्नाकरः ऋची सृकानुगा वक्रोन्नता लोलावलेहिनी । जिहेति षड्विधा तत्र प्रसृतास्ये प्रसारिता ॥ ५०३ ।। ऋज्ची श्रमे पिपासायां श्वापदानां प्रयुज्यते ।
इति ऋज्वी (१) मृकानुगा लीढसृका प्रकोपस्वादुभक्षयोः ॥ ५०४ ॥
___ इति सृकानुगा (२) व्यात्तास्यस्थोन्नताग्रा च वक्रा नृहरिरूपणे ।
इति वक्रा (३)
(क०) अथ जिह्वाभेदान् लक्षयितुमाह-ऋज्वी सूक्कानुगेत्यादि । ॥ ५०३-५०६ ॥
(सु०) जिह्वा भेदानाह-ऋज्वीति । ऋज्वी, सृक्कानुगा, वक्रा, उन्नता, लोला, लेहिनीति षड्धिा जिह्वा । क्रमेण लक्षणमाह-तत्रेति । प्रसृतास्ये; प्रसृते मुखे, प्रसारिता जिह्वा ऋज्वी। सा च श्रमे, श्वापदानां पिपासायां च प्रयोज्या ॥ ५०३, ५०३-॥
इति ऋज्वी (१) (सु०) सृक्कानुगां लक्षयति - मुक्कानुगेति । लीढसृक्त्वं सृकानुगा । सा च प्रकोपे, स्वादुभक्षणे च कार्या || -५०४ ॥
___ इति सृक्कानुगा (२) (सु०) वक्रां लक्षयति-व्यात्तास्येति । व्यावृत्ते मुखे विद्यमाना उन्नतामा च वक्रा । सा च नृहरिरूपणे कार्या ॥ १०४- ॥
इति वका (३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१७३
व्यात्तास्यस्थोन्नतान्वर्था जृम्भास्यान्तस्थवीक्षयोः ॥ ५०५ ॥
इत्युन्नता ( ४ )
व्यात्ते वक्त्रे चला लोला वेतालाभिनये भवेत् । इति लोला (५)
दन्तोष्ठं लिहती जिह्वा लेहिनी संमता मुनेः || ५०६ ॥ इति लेहिनी (६) इति घोढा जिह्वा ।
इति जिह्वाप्रकरणम् |
जिsोष्ठदन्तक्रियया चित्रकं लक्ष्यते ततः ।
उक्तप्रायं सुखार्थे तु वक्ष्ये लक्ष्यानुसारतः ।। ५०७ ।।
(सु०) उन्नतां लक्षयति व्यात्तास्यस्थेति । उन्नता अन्वर्था । सा च जृम्भायाम्, आस्यान्तस्थर्वीक्षणे च कार्या ॥ - ५०५ ॥
इत्युन्नता ( ४ )
(सु० ) लोलां लक्षयति - व्यात्त इति । व्यात्ते वक्त्रे चञ्चला लोला । सा च वेतालाभिनये प्रयोज्या ॥ ९०५ ॥
इति लोला (५)
(सु० ) लेहिनीं लक्षयति-- दन्तोष्ठमिति । दन्तोष्ठं लिहन्ती जिह्वा लेहिनी ॥ - ५०६ ॥
इति लेहिनी (६) इति षोढा जिह्वा । इति जिह्वाप्रकरणम् |
(क) अथ चिबुकभेदान् लक्षयितुमाह - जिहोष्टदन्तक्रिययेति ॥ ॥ ५०७ - ५१२ ॥
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१७४
संगीतरत्नाकरः व्यादीर्ण श्वसितं वक्रं संहतं चलसंहतम् । स्फुरितं वलितं लोलमेवं चिबुकमष्टधा ॥ ५०८ ॥ व्यादीर्ण दूरनिष्क्रान्तं जृम्भालस्यादिषु स्मृतम् ।
इति व्यादीर्णम् (१) एकागुलमधःसस्तं श्वसितं वीक्षणेऽद्भुते ॥ ५०९ ॥
___ इति श्वसितम् (२) वर्क तिर्यङ्नतं तत्तु ग्रहावेशे विधीयते ।
इति वक्रम् (३) निश्चलं मीलितमुखं मौने संहतमिष्यते ॥ ५१० ॥
इति संहतम् (४) (मु०) अथ चिबुकभेदानाह-जिह्वेति । यद्यपि चिबुकं जिलोष्ठदन्तक्रियया लक्षितत्वादुक्तप्रायमेव । तथापि सुखार्थ निरूप्यते । चिबुकमष्टविधम् । यथा-व्यादीर्णम् , श्वसितम्, वक्रम् , संहतम् , चलसंहतम् , स्फुरितम् , चलितम् , लोलमिति । क्रमेण तेषां लक्षणमाह-व्यादीर्णमिति । दूरतो निर्गतं व्यादीर्णम । तच्च जृम्भालस्यादिषु कार्यम् ॥ ५०७, ५०८-॥
इति व्यादीर्णम् (१) (सु०) श्वसितं लक्षयति–एकेति । अङ्गुलपरिमितमधःस्रस्तं श्वसिनम् । तच्च अद्भुते वीक्षणे कार्यम् ॥ -५०९ ॥
इति श्वसितम् (२) (सु०) वक्रं लक्षयति-वक्रमिति । तिर्यङ्नतं वक्रम् । तच ग्रहावेशे कार्यम् ॥ ५०९-॥
___ इति वक्रम् (३) (सु०) संहतं लक्षयति-निश्चलमिति | मीलितं मुखं यस्मिन् ; तथाविधं निश्चलं चञ्चलरहितं संहतम् । तच्च मौने प्रयोज्यम् ॥ -५१० ॥
इति संहतम् (४)
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सप्तमो नर्तनाध्याय: संलगोष्ठं चलं नारीवल्गने चलसंहतम् ।
इति चलसंहतम् (५) कम्पितं स्फुरितं प्राहु ते शीतज्वरे तथा ।। ५११ ।।
इति स्फुरितम् (६) चलितं श्लिष्टविश्लिष्ट वास्तम्भे क्षोभकोपयोः ।
इति चलितम् (७) रोमन्थे केवलावर्ते लोलं तिर्यग्गतागतम् ॥ ५१२॥
इति लोलम् (6) इत्यष्टविधं चिबुकम ।
इति चिबुकप्रकरणम् । (सु०) चलसंहतं लक्षयति-संलग्नेति । संलग्न ओष्ठो यस्मिन् ; तथाविधं चञ्चलं चलसंहतम् । तच्च नारीचुम्बने कार्यम् ॥ ५१०- ॥
इति चलसंहतम् (५) (सु०) स्फुरितं लक्षयति-कम्पितमिति । स्फुरितं कम्पितम् । तच्च भीते, शीतज्वरे च कार्यम् ॥ -५११ ॥
इति स्फुरितम् (६) (सु०) चलितं लक्षयति-चलितमिति । श्लिष्टविश्लिष्टं चलितम् । तच्च वास्तम्भे, क्षोभे कोपे च कार्यम् ॥ ५११- ।।
इति चलितम् (७) (सु०) लोलं लक्षयति-रोमन्थ इति । तिर्यग्गतागतं लोलम् । तच्च रोमन्थे, केवलावर्ते च कार्यम् || -५१२ ॥
इति लोलम् (6) इत्यष्टविधं चिबुकम् । इति चिबुकप्रकरणम ।
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संगीतरत्नाकरः व्याभुग्नं भुग्रमद्वाहि विधुतं विवृतं तथा । विनिवृत्तमिति प्राज्ञाः षडिधं वदनं जगुः ॥ ५१३ ॥ किंचिदायामिवक्त्रं च व्याभुग्नं मुखमुच्यते । निर्वेदौत्सुक्यचिन्तादौ तदुक्तं पूर्वसूरिभिः ।। ५१४ ॥
इति व्याभुमम् (१) अधोमुखं तु भुमं तल्लज्जायां प्रकृतौ यतेः।
इति भुमम् (२) लीलासूक्षिप्तमद्वाहि गर्वानादरतो गतौ ।। ५१५ ॥
इत्युद्वाहि (३) (क०) अथ वदनभेदान् लक्षयितुमाह-व्याभुग्नमित्यादि ।। ॥ ५१३-५१६ ॥
(मु०) अथ वदनभेदानाह-व्याभुमामिति । व्याभुनादीनि वदनस्य षड्भेदानि । तानि यथा-व्याभुग्नम् , भुग्नम् , उद्वाहि, विधुतम् , विवृतम् , विनिवृत्तमिति । क्रमेण तेषां लक्षणमाह-किंचिदिति । किंचित् ईषत् आयामि विस्तृतं वक्त्रं यस्मिन् ; तथाविधं मुखं व्याभुग्नम् । तच्च निवंदे, औत्सुक्ये, चिन्तायां च कार्यमिति पूर्वसूरिभिरुक्तम् ॥ ५१३, ५१४ ॥
__इति व्याभुमम् (१) (मु०) भुग्नं लक्षयति-अधोमुखमिति । अधोमुखं भुग्नम् । तच्च लजायाम् , प्रकृतौ च कार्यम ॥ ५१४- ॥
____ इति भुमम् (२) (सु०) उद्वाहि लक्षयति-लीलेति । उत्क्षिप्तमुद्वाहि । तच्च लीलायाम् , गर्वे, अनादरे गतौ च कार्यम् ॥ -५१५॥
इत्युद्वाहि (३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वारणे नैवमित्युक्तौ विधुतं तिर्यगायतम् ।
इति विधुतम् (४) विश्लिष्टौष्ठं तु विवृतं हास्यशोकभयादिषु ॥ ५१६ ।।
इति विवृतम् (५) विनिवृत्तं परावृत्तं रोषासूयितेषु तत् ।
इति विनिवृत्तम् (६) इति पोढा वदनम् ।
इति वदनप्रकरणम । इति द्वादश शिरोगतान्युपाङ्गानि |
(सु०) विधुतं लक्षयति-वारण इति । तिर्यगायतं विधुतम् । तच्च वारणे; 'विमतं च तत् एतेन कर्तव्यम्' इति वारणार्थे प्रयोज्यम् ॥ ५१५- ॥
इति विधुतम् (४) (सु०) विवृतं लक्षयति-विश्लिष्टेति । विश्लिष्टौ ओष्ठौ यस्मिस्तत् , विवृतम् । तच्च हास्ये, शोके, भये च कार्यम् ॥ -६१६ ॥
इति विकृतम् (५) (सु०) विनिवृत्तं लक्षयति-विनिवृत्तमिति । परावृत्तं, पराङ्मुखं विनिवृत्तम् । तच्च रोषे, ईर्ष्यायाम् , असूयायां च कार्यम् ॥ ५१६- ॥
___ इति विनिवृत्तम् (६) इति षोढा वदनम् ।
इति वदनप्रकरणम् । इति द्वादश शिरोगतान्युपाङ्गानि ।
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संगीतरत्नाकरः उत्क्षिप्ता पतितोक्षिप्तपतितान्तर्गता तथा ॥५१७ ॥ बहिर्गता मिथोयुक्ता वियुक्ताङ्गुलिसङ्गता। पाणिरित्यष्टधा पादचारीस्थानेषु दृश्यते ॥ ५१८ ॥ गुल्फावङ्गुष्ठसंश्लिष्टावन्तर्यातौ बहिर्मुखौ । मिथोयुक्तौ वियुक्तौ च पश्चधा स्थानकादिषु ॥ ५१९ ।। संयुता वियुता वका वलिताः पतितास्तथा । कुञ्चन्मूलाः करेऽगुल्यः प्रसृताश्चेति सप्तधा ।। ५२० ॥ एते पार्ष्यादिभेदाः स्युः संज्ञाविज्ञातलक्षणाः ।
इति पाणिगुल्फकरागुलिभेदाः। (क०) अथ पाणिभेदानाह-उत्क्षिप्तेत्यादि ॥ ५१७,५१८॥
(सु०) अथ पाणिभेदानाह-उत्क्षिप्तेत्यादि । उत्क्षिप्तादय अष्टौ पाणिभेदाः । उत्क्षिप्ता, पतिता, उत्क्षिप्तपतिता, अन्तर्गता, बहिर्गता, मिथोयुक्ता, वियुक्ता, अगुलिसङ्गतेति । तासां भेदानां नाम्नेव लक्षणं स्पष्टम् ॥ -५१७, ५१८ ॥
(क०) अथ गुल्फभेदानाह-गुल्फावित्यदि ।। ५१९ ॥
(सु०) अथ गुल्फभेदानाह-गुल्फाविति । स्थानकादिषु गुल्फो पञ्चप्रकारौ। अद्गुष्टसंश्लिष्टौ, अन्तर्यातौ, बहिर्गतौ, मिथोयुक्तौ, वियुक्ताविति ॥ ५१९ ॥ (क०) कराङ्गुलिभेदानाह- संयुता वियुतेत्यादि । ५२०,५२० ॥
(सु०) कराङ्गुलिभेदानाह-संयुता इति । करामुल्य: संयुतादिभेदेन सप्तविधाः । संयुताः, वियुताः, वक्रा:, वलिताः, पतिता:, कुञ्चन्मूला:, प्रसृता इति । तासां लक्षणानि स्पष्टार्थानि ॥ ५२०, ५२०- ॥
इति पाणिगुल्फकरागुलिमेदाः ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अधःक्षिप्तास्तथोत्क्षिप्ताः कुश्चिताश्च प्रसारिताः ॥५२१ ॥ संलग्नाश्चेति चरणाङ्गुलयः पञ्चधा मताः।। मुहुः पातादधःक्षिप्ता विबोके किलकिश्चिते ॥ ५२२॥ उत्क्षिप्ता मुहुरुत्क्षेपानवोढायास्त्रपाभरे । संकोचात्कुश्चिताः शीतमूर्छात्रासग्रहार्दिते ।। ५२३ ॥ प्रसारिता ऋजुस्तब्धा स्तम्भे स्वापेऽङ्गमोटने । अगुष्ठस्याप्यमी भेदा ज्ञातव्या नृत्तकोविदः ॥ ५२४ ॥ स्वाङ्गुष्ठासु मिथोलग्नाः संलग्ना घर्षणे मताः ।
इति चरणागुलिमेदाः।
(क०) चरणागुलिभेदानाह - अधःक्षिप्ता इत्यादि ॥ ॥ -५२१-५२४. ॥
इति चरणाङ्गुलिमेदाः । (मु०) चरणाङ्गुलिभेदानाह-अधःक्षिप्ता इति । अध:क्षिप्ताः, उत्क्षिप्ताः, कुञ्चिताः, प्रसारिताः, संलग्ना इति पञ्चभेदाः । तासां लक्षणमाहअधःक्षिप्तेति । मुहुः पातात् अधस्तात् क्षिप्ता अधःक्षिप्ताः, ताश्च बिब्बोके, किलिकिंचिते च प्रयोज्याः । इत्यधःक्षिप्ताः (१); मुहुः वारं वारम् , उत्क्षेपात् उत्क्षिप्ताः । ताश्च नवोढाया लजातिशये कार्याः । इत्युत्क्षिप्ताः (२); संकोचात् कुञ्चिताः। ताश्च शीतमू त्रासग्रहार्दिते कार्याः । इति कुञ्चिताः (३); ऋजुस्तब्धाः प्रसारिताः । ताश्च स्तम्भे, स्वापे, अङ्गमोटने च कार्याः । अमी चत्वारो भेदाः अङ्गुष्ठस्यापि भवन्ति । इति प्रसारिताः (४); स्वाम्गुष्ठा मिथोलग्नाः, परस्परसङ्गता: संलग्नाः । ता घर्षणे कार्या: । इति संलग्नाः (५) ॥ -५२१-५२४-॥
इति चरणागुलिभेदाः।
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१८०
संगीतरत्नाकर:
पतितायं चोद्धताग्रं भूमिलग्नमथोद्धृतम् ।। ५२५ ।। कुश्चन्मध्यं तिरश्वीनमिति षोढा तलं विदुः । इति करणगतानि पञ्चाङ्गानि । इति पाणिगुल्फाङ्गुलितलानि करचरणोपाङ्गानि । विवृणोति मनोवृत्ति मुखरागो रसात्मिकाम् ।। ५२६ । अतो रसोपयोगित्वान्मुखरागोऽभिधीयते ।
(क०) चरणतलभेदानाह - पतिताग्रं चेत्यादि ॥ - ५२५,५२५-॥ इति करणगतानि पञ्चाङ्गानि । इति पाणिगुल्फाङ्गुलितलानि करचरणोपाङ्गानि ।
(सु०) चरणतलं लक्षयति - पतिताप्रमिति । पतिताग्रम्, उद्धृताग्रम्, भूमिलग्नम्, उद्धृतम्, कुञ्चन्मध्यम्, तिरश्चीनमिति चरणतलं षडिधमाहुः ॥ - ५२५, ५२५- ॥
इति करणगतानि पञ्चाङ्गानि ।
इति पाष्णिगुल्फाङ्गुलितलानि करचरणोपाङ्गानि ।
(क० ) अथोद्देशक्रमेण मुखरागं लक्षयितुमाह - विवृणोतीति । मुखरागस्य नाटयोपयोगद्वारा नृतेऽप्युपयोगं दर्शयति- रसात्मिकां मनोवृत्ति वितृणोतीति । रसात्मिकां शृङ्गारादिरूपाम् ; अनेन मनोवृत्तिरित्यादि स्थायिस्वरूपत्वं, निर्वेदादिसंचारिभावरूपत्वं चावगन्तव्यम् । तेषामपि रसेव्वन्तर्भावात् । अत एवास्य मुखरागस्य नृत्तेऽप्युपयोगो द्रष्टव्यः । नृतस्याभिनयोपेतत्वाभावेऽपि क्वचिन्नाट्याङ्गतया रसव्यञ्जकत्वाङ्गीकारात् क चित्स्वातन्त्र्येण गीतादिषु प्रयोगेऽपि गीते वाक्यार्थभूतरसव्यञ्जकत्वाच्च नृत्ते - sपि मुखरागस्योपयोगो द्रष्टव्यः । अतोऽत्र नृत्तप्रकरणे मुखरागस्य संगत्यभावो न शङ्कनीयः ॥ -५२६, ५२६- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१८१ स्वाभाविकः प्रसन्नश्च रक्तश्यामोऽपरस्तथा ।। ५२७ ॥ चतुर्धा मुखरागोऽत्रान्वर्थः स्वाभाविको मतः । अनाविष्टेषु भावेषु सुधीभिः स विधीयते ।। ५२८ ॥
___ इति स्वाभाविकः (१) प्रसन्नो निर्मलो हास्ये शृङ्गारे चाद्भुते भवेत् ।
___इति प्रसन: (२) रक्तोऽरुणः स्यात्करुणे रौद्रे वीरेऽद्भुते तथा ॥ ५२९ ॥
इति रक्त: (३) अन्वों भवति श्यामः स वीभत्से भयानके ।
इति श्यामः (v) शशिनेव दिशोऽङ्गानि शोभन्ते मुखरागतः ॥ ५३०॥ रसभावान्तरे नेत्रमन्यदन्यत्क्षणे भवेत् । यथातथोचितः कार्यों मुखरागो रसे रसे ॥ ५३१॥
इति चतुर्धा मुखरागः। इति मुखरागप्रकरणम् ।
(क०) तद्भेदानुद्दिशति-स्वाभाविक इत्यादि ।-५२७-५२९ ।।
(क०) मुखरागस्याङ्गशोभाकारित्वं सदृष्टान्तपाह-शशिनेवेति । अयं मुखरागो रसे रसे यथोतिस्तथा कार्य इति दृष्टिदृष्टान्तेनाहरसभावान्तर इति ॥ -५३०, ५३१ ।।
इति चतुर्धा मुखरागः। इति मुखरागप्रकरणम् ।
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१८२
संगीतरत्नाकरः उत्तानोऽधोमुखः पार्श्वगतः पाणिरिति त्रिधा । प्रचारं भरतो मेने पश्चधा त्वपरे जगुः ।। ५३२ ॥ अग्रगोऽधस्तलश्चेति द्वौ त्रयश्च पुरोदिताः । तत्र त्वग्रग उत्तानोऽधोमुखोऽधस्तलः करः ॥ ५३३ ॥ अन्तर्भूतं वदन्भदृस्त्रित्वमेव समादधे । उत्तानोऽधस्तलः पार्श्वगतो हस्तोऽग्रतस्तलः ॥ ५३४ ॥ स्वसंमुखतलचोर्ध्वमुखोऽधोवदनस्तथा । पराङ्मुखः संमुखश्च हस्तोऽन्यः पार्श्वतोमुखः ॥ ५३५ ॥
(सु०) मुखरागं कथयितुं प्रति जानीते-विवृणोतीति । रसात्मिकां मनोवृत्तिं चित्तवृत्तिव्यञ्जको मुखरागः । अत: रसोपयोगित्वात् मुखरागोऽभिधीयते । तस्य स्वाभाविकादयश्चत्वारो भेदाः । ते यथा-स्वाभाविकः, प्रसन्नः, रक्तः, श्याम इति । तेषां लक्षणमाह-अन्वर्थ इति । अन्वर्थो नाम स्वाभाविकः । स च अनाविष्टेषु भावेषु कार्य: । इति स्वाभाविकः (१); निर्मल: प्रसन्नः । स च हास्ये, शृङ्गारे, अद्भुते च कार्यः । इति प्रसन्नः (२); अरुणो रक्तः । स च करुणे, रौदे, वीरे, तथा अद्भुते च कार्यः । इति रक्तः (३); अन्वर्थः श्यामः । स च बीभत्से, भयानके च कार्यः । शशिनेति | यथा चन्द्रेण दिशो भान्ति, तथा मुखरागेण सर्वाण्यङ्गानि भासन्ते । रसभावान्तरे नयनं यथा प्रतिक्षणमन्यदन्यद्भवेत् , तथा मुखरागोऽपि रसे रसे यथोचितः कार्यः ॥ -५२६-५३१ ॥
इति चतुर्धा मुखरागः।
इति मुखराप्रकरणम् । (क०) अथ भरतादिमतभेदेन करप्रचारान् दर्शयति-उत्तानोऽधोमुख इत्यादिना । तेषामप्यर्था द्रष्टव्याः ॥ ५३२-५३६- ॥
इति पञ्चदश हस्तप्रचाराः ।
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१८३
सप्तमो नर्तनाध्यायः ऊर्ध्वगोऽधोगतः पार्श्वगतो इस्तोऽग्रगोऽपरः । संमुखागत इत्येतान् प्रचारान् दश पञ्च च ।। ५३६॥ लक्ष्यलक्षणतत्त्वज्ञः शार्ङ्गदेवोऽभ्यभाषत ।
इति पञ्चदश हस्तप्रचाराः । निष्पत्तौ निरपेक्षायां करस्याभिनयाय यः ।। ५३७ ॥ क्रियाविशेषः क्रियते तद्धस्तकरणं मतम् । भावेष्टितोद्वेष्टिते च व्यावर्तितमतः परम् ।। ५३८ ॥ परिवर्तितमित्येतच्चतुर्धा सूरिसंमतम् ।
(सु०) अथ पञ्चदश हस्तप्रचारानाह-उत्तान इति । उत्तानः, अधोमुखः, पार्श्वगतःपाणिरिति भरतमतेन करप्रचारत्रिविधः । अपरे आचार्याः, अग्रगः, अधस्तलश्चेति द्वावधिकं जगुः । मिलित्वा करप्रचारा: पञ्च भवन्ति । तत्र अग्रग उत्तानेऽन्तर्भूतः, अधस्तलश्च अधोमुख इति वदन् भट्टनायको भारतीयटीकाकार एवमेवोचितमित्युक्तवान् । शाङ्गदेवस्तु ; उत्तान:, अधस्तल:, पार्श्वगतः, अग्रतस्तलः, स्वसंमुखतलः, ऊर्ध्वमुखः, अधोमुखः, पराङ्मुखः, संमुख:, पार्श्वतोमुखः, ऊर्ध्वगः, अधोगतः, पार्श्वगतः, अग्रगतः, संमुखगत इति पञ्चदश प्रकारान् अभ्यभाषत ॥ ५३२-५३६- ॥
इति पञ्चदश हस्तप्रचाराः। (क०) अथ करणानि लक्षयिष्यन् तेषां सामान्यलक्षणं तावदाह-निप्पत्तावित्यादिना। करस्य पताकादेहस्तस्य निप्पत्तौ तर्जनी मूलसंलग्ना' इत्यादिपूर्वोक्तलक्षणवशेन तत्तत्स्वरूपसिद्धौ निरपेक्षायामावेष्टितादीनि करणान्यनपेक्ष्यैव जातायां सत्यामित्यर्थः । एवंस्थितेऽभिनयाय 'वस्तुस्पर्शे चपेटे च' इत्यादिविनियोगवचनवशाद्वा, युक्तितो वा, संप्रदायाद्वा, लोकतो वा हस्तेनार्थप्रदर्शनाय । अर्थप्रदर्शनं च क्वचिद्धस्तस्योत्तानत्वेन
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१८४
संगीतरत्नाकरः तर्जन्याद्यङ्गुलीनां यद्भवेदावेष्टनं क्रमात् ॥ ५३९ ॥ तलसंमुखमावक्षः करोऽप्यायाति पार्थतः ।
तदावेष्टितमाख्यातं करस्य करणं बुधैः ॥ ५४० ॥ भवति, क्वचिदधस्तलत्वेन, क्वचित्पार्श्वतलत्वेनेत्येवमादिप्रचारयोगेणोचितपदार्थप्रदर्शनायेत्यर्थः । यः क्रियाविशेषः क्रियत इति । पूर्वमुत्तानहस्ताधस्तलत्वे तथाधस्तलस्योत्तानत्वे, तथोत्तानस्य पार्श्वतलत्वे, तथा पार्श्वतलस्याग्रतस्तलत्वे, तथाप्रतस्तलस्य संमुखतलत्वे वा, एवमूर्ध्वमुखत्वादिष्वपि हस्तान्तरकरणे मध्ये मध्ये छिद्राच्छादको यो वर्तनारूपः क्रियाविशेषः क्रियते, तद्धस्तकरणमिति सामान्यलक्षणम् । तस्य करणस्य विशेषान् दर्शयतिआवेष्टितेत्यादि । -५३७, ५३८- ॥
(सु०) हस्तकरणं लक्षयति-निष्पत्ताविति । निष्पत्ती; निष्पत्तिविषये, निरपेक्षायां; अन्यानपेक्षायां सत्यां, य: क्रियाविशेष: कराभिनयार्थ क्रियते, तदेव हस्तकरणम् । तस्य आवेष्टित:, उद्वेष्टित:, व्यावर्तितः, परिवतित इति चत्वारो भेदाः ॥ -५३७, ५३८-॥
(क०) तत्रावेष्टितं लक्षयति-तर्जन्यायगुलीनामिति । अत्रादिशब्देन मध्यमानामिकाकनीयस्योऽमुल्यो गृह्णन्ते । यत्क्रमादावेटनं भवेदिति । ऋजुत्वेन स्थितानां तर्जन्यादीना मगुलीनां मध्ये प्रथम तर्जन्या आवेष्टनं वक्रीकरणम् । तदनु मध्यमायाः, तदन्वनामिकायाः, तदनु कनीयस्या इति क्रमः । अङ्गुलीनां क्रमेण वेष्टनकाल एव करोऽपि तदगुल्याश्रयः पार्श्वतः स्वकीयात्पार्धात्तलसंमुखं हस्ततलमभिनेत्रभिमुखं यथा भवति तथा आवक्षः; वक्षःपर्यन्तमायाति सविलासः सन्नागच्छति चेत्तत्करस्य करणमावेष्टितमिति बुघेराख्यातम् ॥ -५३९, ५४० ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः .
१८५ यत्तु क्रमेण निर्याणमङ्गुलीनां तलादहिः । वक्षःस्थलात्करस्यापि तदुद्वेष्टितमुच्यते ।। ५४१॥ आवेष्टितपक्रियया कार्य व्यावर्तितं करे । उद्वेष्टितेन व्याख्यातं करणं परिवर्तितम् ॥ ५४२ ॥ कित्वेतत्करणद्वन्द्व कनिष्ठाद्यगुलीकृतम् ।
इति चत्वारि काकरणानि । (क०) उद्वेष्टितं लक्षयति-पत्चित्यादि । नलद्धहिः ; हम्ततलावहिः, पराचीनत्वेन तर्जन्यादीनां क्रमेण पूर्वोक्तेन यन्निर्याणं प्रादुर्भावः ; वक्रत्वेन स्थितानामगुलीनां तर्जन्यादिक्रमेण ऋजुकरणमिति यावत् । तस्मिन्नेवाङ्गुलीनिर्गमनकाले । करस्यापीति । तदगुल्याश्रयभूतस्य हस्तम्य । अपिशब्देनानुषङगानिर्याणं समुच्चीयते । वक्षःस्थलात्कारस्यापि यन्निर्माणमिति । तदुद्वेष्टितमुच्यत इति संबन्धः ॥ ५४१ ॥
(क०) व्यावर्तितं लक्षयति-आवेष्टितपक्रिपयेति । प्रकृष्टा क्रिया प्रक्रिया। आवेष्टिता आवृत्तिरूपेत्यर्थः । तया करे व्यावर्तितं कार्यम् । परिवर्तितं लक्षयति-- उद्वेष्टितेनेति । व्याख्यातमिति । उद्वेष्टितेन, उद्धतप्रक्रिययेत्यर्थः ॥ ५४२ ॥
(क०) व्यावर्तितपरितर्तितयोः क्रमादावेष्टितोद्वेष्टिताभ्यां स्वरूपभेदं दर्शयति-- किंस्विति । एतत्करणद्वन्द्वम् ; व्यावर्तितं परिवर्तितं च । कनिष्ठाद्यगुलीकृतमिति । तर्जन्यायगुलीकृतादावेष्टितात्कनिष्ठाद्यगुलीकृतस्य व्यावर्तितस्य स्वरूपभेदः, तथा तर्जन्याद्यगुलीकृतादुद्वेष्टितात्कनिष्ठाद्यगुलीकृतस्य परिवर्तितस्य च स्वरूपभेदो द्रष्टव्य इत्यर्थः । एतेषामुष्टितादीनां चतुर्णा करणानामभिनययोगदर्शनायक नाटकवाक्यमभिनीय दर्शयामः । यथा
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संगीतरत्नाकरः " वेदान्तेषु यमाहुरेकपुरुषं व्याप्य स्थितं रोदसी
यस्मिन्नीश्वर इत्यनन्यविषयः शब्दो यथार्थाक्षरः । अन्तर्यश्च मुमुक्षुभिर्नियमितप्राणादिभिर्मग्यते ___स स्थाणुः स्थिरभक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः ॥"
इति विक्रमोर्वशीये नान्दीश्लोकः । अस्याभिनयप्रकारस्तु-प्रथम तालधरेण सकृत्तालाघातं ' तत्ताधी' इति शब्दे दीयमाने नटी वा, नटो वा सूत्रधारत्वेन प्रविष्टं पात्रं तच्छन्दसमकालमेव मण्डलस्थानकेन सह चतुरश्रौ करौ कृत्वा, गायनीभिः वेदान्तेषु इत्यादिषु पदेषु गीयमानेषु तत्स्वरप्रमाणेन प्रथमं तावद्वेदपदस्याथै निकुश्चितकरणोत्तानेन पराङ्मुखेनाधोगतेनोद्वेष्टितकरणपूर्वकं सविलासमभिनयेत् । अभिनये सर्वत्र दृष्टिं हस्तानुगतां कुर्यात् । ततोऽन्तेष्विति पदस्यार्थ सूचीमुखेनाप्रतस्तलेन पार्श्वमुखेनोर्ध्वगते. नाभिनयेत् । तदा निकुश्चकसूचीमुखयोर्मध्यमावर्तितं करणं भवति । ततो यमिति पदस्याथै व्यावर्तित करणपूर्वकं वामेन सूचीमुखेनाग्रतस्तलेनोर्ध्वमुखेन पार्श्वगतेनाभिनयेत् । तदानीं दक्षिणहस्तोऽपि कट्यां वा नाभिदेशे वा स्थितः कर्तव्यो भवति । अनन्तरमाहुरिति पदस्यार्थमुद्वेष्टितकरणपूर्वक दक्षिणेन हंसायनास्यदेशे किंचित्प्रसारितेनोर्ध्वमुखेनोत्तानेनाभिनयत् । तदानीमेव वामहस्तोऽपि कटीनाभिचरः कर्तव्यो भवति । एवं सर्वत्रासंयुतेन हस्तनाभिनयेत् , तदन्यः कटीनाभिवरः कर्तव्य इति वेदितव्यम् । तत एकति पदस्यार्थमावेष्टितपूर्वकेण दक्षिणेन सूचीमुखेनोर्ध्वमुखेनाग्रतम्तलेनाअगतेनाभिनयेत् । ततः पुरुषमिति पदस्यार्थमुद्वेष्टितकरणपूर्वकं वामेन चतुरेण स्वसंमुखतलेन पार्श्वमुखेन ऊर्ध्वमेवाभिनयेत् । ततो व्याप्येति पदस्योर्ध्वमुद्वेष्टितपूर्वकं दक्षिणेन पताकेनोत्तानेन परामुखेन पार्श्वगतेन स्वयमेकां भ्रमरिकां कृत्वाभिनयेत् । ततः स्थितमिति पदस्यार्थ व्यावर्तितकरणपूर्वकं
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१८७ वामेन शिखरेण स्वसंमुखतलेन पार्श्वमुखेन किंचिदधोगतेनाभिनयेत् । ततो रोदसीति पदग्यार्थमुद्वेष्टितपूर्वकं दक्षिणेन पताकेनोत्तानेनोर्ध्वमुखेनो
गतेन दिवं दर्शयित्वा पश्चातेनैव चाधोमुखेनाधोगतेन भूमि दर्शयित्वाभिनयेत् ।
ततो यस्मिन्निति पदस्याथै बामेन पूर्वोक्तयमिति पदार्थवदभिनयेत्। तत ईश्वर इति पदस्यार्थमुद्वेष्टितकरणपूर्वकं दक्षिणेन चतुरेणोत्तानेनोर्ध्वमुखेनास्यदेशात्कचित्पार्श्वगतेनाभिनयेत् । तत इतिपदस्यार्थमावेष्टितकरणपूर्वकं दक्षिणेन मृगशीर्षणाधस्तलेन पार्श्वमुखेन संमुखागतनाभिनयंत् । ततोऽनन्यविषय इति पदार्थे नमोऽर्थमुद्रेष्टितपूर्वकं वामेन खटकामुखेन मुक्तकटकेनाभिनयेत् । तेनैव सूचीमुखरूपेण पुनरुद्वेष्टितपूर्वकमुत्तानेन पार्श्वगतेनान्यपदस्यार्थमभिनयेत् । ततो विषयपदस्यार्थमुद्वेष्टितपूर्वकं दक्षिणेन चरणेनोतानेन पराङ्मुखेन किंचित्पार्श्वगतेनाभिनयेत् । ततः शब्दपदस्यार्थ त्यावर्तितपूर्वक वामेन सूचीमुखेनाग्रतस्तलेन कर्णरन्ध्राभिमुखेनाभिनयेत् । ततो यथार्थपदस्यार्थमुद्वेष्टितपूर्वकं दक्षिणेन संदंशेनोत्तानितेन किंचिदूर्ध्व गत्वाधोगतेनाभिनयेत् । ततोऽक्षरपदम्यार्थमावेष्टितपूर्वकं दक्षिणेन संदंशेनामतस्तलेनोर्ध्वमुखेन क्रियया पार्श्वगतेनाभिनयेत् ।
ततोऽन्तःपदस्यार्थ व्यावर्तितपूर्वकं दक्षिणेन संदंशेन संमुखेन हृदयनिहितेनाभिनयेत् । ततो य इति पदस्यार्थ पूर्ववदभिनीय, चेतिपदस्याथै तेनैव किंचित्पार्श्वप्रसारितेनाभिनयेत् । ततो मुस्कृभिरिति पदस्यार्थ संमुखागतेन व्यावर्तितपूर्वकं संदंशद्वयनोत्तानितेन नाभिहृद्देशयोरुपयुपरिविन्यस्तेनाभिनयेत् । ततो नियमितपदस्वार्थ व्यावर्तितपूर्वकं वामेन शिखरेण संमुखा. गतेन हृदयदेशे निहितेनाभिनयेत् । ततः प्राणादिभिरिति पदस्यार्थ व्यावर्तितपूर्वकेण दक्षिणेन संदंशेन स्वसंमुखतलेन पार्श्वमुखेन संमुखागतेन
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१८८
संगीतरनाकरः नासादेशे द्विस्त्रि, पतितोत्पतितेनाभिनथेत् । ततो मृग्यत इति पदश्यार्थ तेनैवोद्वेष्टितपूर्वकेण कर्तरीमुखेन पार्श्वतलेन पराङ्मुखेन हृदयदेशे शनैमितेनामिनयेत् ।
___ ततः स इति पदार्थ वामेन यच्छन्दार्थवदभिनयेत् । ततः स्थाणुपदस्यार्थ व्यावर्तितर्वकेण पताकद्वयेन शिरोदेशेऽञ्जलिं बद्धाभिनयेत् । ततः स्थिरपदस्यार्थ परिवर्तितपूर्वकेण संदंशद्वयनोत्तानितेन पराङ्मुखेनोरोदेशे निहितेनाभिनयेत् । ततो भक्तिपदस्यार्थ परिवर्तितपूर्वकेण पताकद्वयेन हृदयेऽञ्जलिं बद्धाभिनयेत । ततो योगपदस्याथै परिवर्तितपूर्वकेण संदंशद्वयनोत्तानितेन मुमुक्षुवदभिनयेत् । किंतु वामहस्तं नाभौ पताकमुत्तानितं कुर्यात् । ततः सुलभपदस्यार्थ व्यावर्तितपूर्वकेण दक्षिणेन चतुरेणोत्तानेन पार्श्वमुखेन हृदयं प्रति संमुखागतेनाभिनयेत् । ततो निःश्रेयसायेति पदस्यार्थ व्यावर्तितपूर्वकेणारालद्वयेनोत्तानितेन पुरोमुखेन संवलनमूर्ध्वगतेनाभिनयेत् । ततोऽस्त्विति पदस्याथै दक्षिणेन परिवर्तितपूर्वकेण पताकेनोत्तानितपार्श्वमुखेन पान्तिरगतेनाभिनयेत् । ततो व इतिपदार्थ परिवर्तितपूर्वकेण पताकद्वयनोत्तानितेन पुरोमुखेनाग्रगेणाभिनयेत् ।
___ एवं सर्वत्र हस्तान्तरालपरिपूरकत्वेन करणप्रयोगो द्रष्टव्यः । अत्र पदार्थानां हम्तैरभिनये विभक्त्यर्थानामपि पृथगभिनयं केचिल्लक्षयन्ति । तेषां वाचिकेनैवावगम्यमानत्वेन पृथङ्मुनिनान भिधानादम्माभिर्न प्रपञ्च्यन्ते । एवं सर्वत्राङ्गिके प्रकृत्यर्थाभिनयनैव प्रत्ययार्थोऽप्यभिनीतप्राय एव द्रष्टव्यः । विधौ हि प्रत्ययार्थस्यैव प्राधान्यात्प्रकृत्यर्थानन्तरं सोऽप्यभिनेयः । निषेधेऽपि नार्थस्य प्राधान्यादभिनेयता। अन्यत्र सिद्धरूपेऽर्थे प्रकृत्यर्थस्यैव प्राधान्यात्स एवाभिनेयो न प्रत्ययार्थः । अयमत्र विशेषः-यत्र प्रत्ययार्थस्य प्राधान्यं, तत्र पूर्व प्रकृत्यर्थोऽभिनीयते पश्चात्प्रत्ययार्थः । यत्र प्रकृत्यर्थस्य
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१८९ धूननं श्लेषविश्लेषौ क्षेपो रक्षणमोक्षणे ॥ ५४३ ॥ परिग्रहो निग्रहश्चोत्कृष्टाकृष्टिविकृष्टयः। ताडनं तोलनं छेदभेदौ स्फोटनमोटने ॥ ५४४ ॥ स्याद्विसर्जनमाहानं तर्जनं चेति विंशतिः । करकर्माणि नृत्तज्ञैरन्वर्थानि वभापिरे ॥ ५४५ ॥
इति विंशतिः करकर्माणि । प्राधान्यं तत्र प्रकृत्यर्थ एवामिनीयते न प्रत्ययार्थ इति । एवं विधिनिषेधानुभवरूपेण हस्ताभिनय क्रिया त्रिविधेति मुनिनोक्तमवगन्तव्यम् ।
एवं कराणां करणयोगादभिनय स्थितिम् । असंदिग्धं मुग्धबुद्धयै कल्लिनाथोऽभ्यभाषत ॥ ५४२- ॥
इति चत्वारि करकरणकानि । (सु०) तेषां लक्षणमाह-तर्जन्यादीति । यत्र तर्जन्यादीनामङ्गुलीनां क्रमात् यदावेष्टनं भवति ; करोऽपि तलाभिमुखः सन् , आवक्षः; वक्षः पर्यन्तं च पार्श्वप्रदेशादागच्छति, तद् आवेष्टिताख्यं करणं भवति । उद्वेष्टितं लक्षयति-रत्विति । अङ्गुलीनां तलतः बाह्यप्रदेशे क्रमेण निर्गमनं, करस्यापि वक्षःस्थलात् बहिनिर्गमनं तद् उ.ष्टिताख्यं करणं भवति । व्यावर्तितं लक्षयतिआवेष्टितेति । आवेष्टितप्रक्रियया; आवृत्तिरूपप्रक्रियया, करे व्यावर्तितं कार्यम् । परिवर्तितं लक्षयति-- उठेष्टितेनेति । उद्वेष्टितेन ; उद्धतप्रक्रियया परिवर्तिताख्यं करणं बोध्यम् । किंत्वत्र कनिष्ठादिभिः अगुलीभिः रेचकं करणद्वयं कर्तव्यमिति । इति व्यावर्तितपरिवर्तिते ॥ -५३९-५४२- ॥
इति चत्वारि करकरणका नि । (क०) अथ करकर्माण्याह-धूननमिति ॥ -५४३-५४५ ॥
इति विंशतिः करकर्माणि ।
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१९०
संगीतरत्नाकरः पार्धद्वयं पुरस्ताच पश्चादूर्ध्वमधः शिरः । ललाटकर्णस्कन्धोरोनाभयः कटिशीर्षके ॥ ५४६ ॥ ऊरुद्वयं च हस्तानां क्षेत्राणीति चतुर्दश ।
इति चतुर्दश हस्तक्षेत्राणि | करणैः करणातीतोऽनङ्गहारोऽङ्गहारकैः ॥ ५४७ ॥ यः स्थाणू रोदसीरङ्गे नृत्यतीशं नमामि तम् ।
(सु०) करकर्माण्याह-धूननमिति । धूननम , श्लेषः, विश्लेषः, कम्पः, रक्षणम् , मोक्षणम् , परिग्रहः, निग्रहः, उत्कर्षः, आकृष्टिः, विकृष्टिः, ताडनम् , लोलनम् , छेदः, भेदः, स्फोटनम् , मोटनम् , विसर्जनम् , आह्वानम् , तर्जन. मिति विंशतिरित्यन्वर्थानि करकर्माणि नृत्तज्ञैः परिभाषितानि ॥ ५४३-५४५॥
इति विंशति: करकर्माणि । (क०) अथ करक्षेत्राण्याह-पार्श्वद्वयमित्यादि ॥५४६, ५४६-॥
_ इति चतुर्दश हस्तक्षेत्राणि । (सु०) हस्तक्षेत्राण्याह-पार्श्वद्वय मिति । पुर:पार्श्वम् , पश्चात्पार्श्वम् , ऊर्ध्वमधः शिरः, ललाटम् , कर्णी, स्कन्धौ, उ':, नाभिः, कटीशीर्षम् , ऊरुद्वयमिति चतुर्दश हस्तक्षेत्राणि, हस्तस्थानानीत्यर्थः ॥ ५४६, ५४६- ॥
इति चतुर्दश हस्तक्षेत्राणि । (क०) अथ नृतकरणानि लक्षयिप्यंस्ताण्डवनृतप्रवर्तकमीशं प्रणमति-करणेरित्यादि । करणातीतः करणानि चक्षुरादीनि तान्यतीत्य वर्तत इति स तथोक्तः । इन्द्रियाणाम विषयभूत इत्यर्थः । अनङ्गहारः ; अनझं कामं हरतीत्यत्रार्थे उद्यमनविवक्षायां "कर्मण्यण " (अष्टाध्यायी ३-२-१) इति सामान्येन.णि कृतेऽनङ्गहार इति भवति तारहार इति यथा । स्थाणुः स्थिरो
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
१९१ स्यात्किया करपादादेविलासेनात्रुटद्रसा ॥ ५४८ ॥ करणं नृत्तकरणं भीमवीमसेनवत् ।
प्रभेदान्करणस्यास्य ब्रूमहे भरतोदितान् ॥ ५४९ ॥ यो रोदसीरङ्गे रोदम्यावेव रङ्गः, तस्मिन् करणैर्वक्ष्यमाणैस्तलपुष्पपुटादिभिः, अङ्गहारकैः स्थिरहम्तादिभिः नृत्यति, तमीशं नमामीति संबन्धः । अत्र करणातीतः करणैरिति, अनङ्गहारोऽङ्गहाररिति स्थाणुन यतीति विरोधालंकारो ध्वन्यते ॥ -५४७, ५४७- ॥
(सु०) एवं नृत्ताभिनयसाधरणीमङ्गमातृकामभिधाय साक्षात् नृत्तोपयोगीनीमङ्गसमुद्रायरूपाणि लिलक्षयिषुर्मङ्गलमाचरति-करणैरिति । तं परमेश्वरं नमामि । य: करणातीतः ; करणैः इन्द्रियैः अतीतः, अतीन्द्रिय इत्यर्थः । इन्द्रियागोचरो वा, अथवा क्रियाक्रिय इत्यर्थः । एवंविधोपकरणैः तलपुष्पपुटादिभिः नृत्यकरणैः; नृत्यकरणातीतोऽपि करणे: नृत्यतीति विरोधाभासः । भनङ्गहारः; अनङ्गं कन्दर्प हरति नाशयतीत्यनङ्गहारः । एवंविधोऽप्यङ्गहारैः वक्ष्यमाणैः करणसमुदायरूपैः नृत्यति । यस्तु अनङ्गहारः अङ्गहारशून्य स अङ्गहारैः नृत्यतीति विरोध: । रोदसीरङ्गे; रोदसी द्यावापृथिव्यौ, ते एव रङ्गो मण्डपः, तत्र स्थाणुः ; स्थिरो नियः, स्थाणुरचेतनोऽपि नृत्यतीति विरोधः । ननु कथमेतद्विरुद्धं संभवति? तत्राह-ईशमिति । कर्तुमकर्तुमन्यथा कर्तुं सार्थः, किं वा न करोतीत्यर्थः ॥ -५४७, ५४७- ॥
__ (क०) करणानां सामान्यलक्षणमाह-स्याक्रियेत्यादि। करपादादेरिति । आदिशब्देन शिरोवक्षःपार्श्वकटीनां बाहुजङ्घादीनां च ग्रहणम् । फिविधा क्रिया ? विलासेन ; अङ्गशोभया, अत्रुटदसा ; अत्रुटन्नच्छिद्यमानो रसः प्रेक्षकप्रीतिर्यस्यां सा तथोक्ता । एवं विशिष्टा करपादादेः क्रिया करणम् । तदेव नृतकरणं म्यात् । व्यपदेशद्वयसद्भावे दृष्टान्तमाहभीमवद्भीमसेनवदिति । संजैकदेशेनापि प्रसिद्धया व्यपदेशो भवतीत्यर्थः ॥ .५४८, ५४९ ॥
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१९२
संगीतरनाकरः तलपुष्पपुटं लीनं वर्तितं वलितोरु च । मण्डलस्वस्तिकं वक्षःस्वस्तिकाक्षिप्तरेचिते ॥ ५५०॥ स्वस्तिकान्यर्धदिक्पृष्ठाद्यानि स्वस्तिकमश्चितम् ।। अपविद्धं समनखोन्मत्ते स्वस्तिकरेचितम् ।। ५५१ ॥ निकुटा निकुट्टे च कटीछिन्नं कटीसमम् । भुजङ्गत्रासितालातविक्षिप्ताक्षिप्तकानि च ।। ५५२ ॥ निकुश्चितं घूर्णितं स्यादूर्ध्वजान्वर्धरेचितम् । मत्तल्लि चार्धमत्तल्लि स्याद्रेचकनिकुट्टकम् ॥ ५५३ ॥ ललितं वलितं दण्डपक्षं पादापविद्धकम् । नूपुरं भ्रमरं छिन्नं भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ।। ५५४ ॥ भुजङ्गाश्चितकं दण्डरेचितं चतुरं ततः । कटिभ्रान्तं व्यंसितं च क्रान्तं वैशाखरेचितम् ।। ५५५ ॥ वृश्चिकं वृश्चिकाये च स्यातां कुट्टितरेचिते । लतादृश्चिकमाक्षिप्तार्गले तलविलासितम् ॥ ५५६ ॥ ललाटतिलकं पार्थनिकुटुं चक्रमण्डलम् । उरोमण्डलमावर्त कुश्चितं डोलपादकम् ॥ ५५७ ॥ विवृत्तं विनिवृत्तं च पार्थक्रान्तं निशुम्भितम् । विद्युड्रान्तमतिक्रान्तं विक्षिप्तं च विवर्तितम् ।। ५५८ ॥
(क०) तद्भेदानुद्दिशति-तलपुष्पपुटमित्यादि । वक्षःस्वस्तिकाक्षिप्तरेचिते इति । वक्षःस्वस्तिकं चाक्षिप्तरेचितं चेति द्वन्द्वः । स्वस्तिकान्यदिक्पृष्ठावानीति । अर्धस्वस्तिकं, दिक्स्वस्तिकं, पृष्ठस्वस्तिकमिति त्रीणि करणानि । वृश्चिकाये कुट्टितरेचिते स्यातामिति । वृश्चिककुट्टितं
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सप्तमो नर्तनाध्यायः गजविक्रीडितं गण्डसूची स्याद्रुडप्लुतम् । तलसंस्फोटितं पार्वजानु गृध्रावलीनकम् ॥ ५५९ ॥ सूच्यर्धसूचिनी सूचीविद्धं च हरिणप्लुतम् । परिवृत्तं दण्डपादं मयूरललितं ततः ।। ५६०॥ प्रेढोलितं संनतं च सर्पितं करिहस्तकम् । प्रसर्पितमपक्रान्तं नितम्बस्खलिते तथा ।। ५६१ ॥ सिंहविक्रीडितं सिंहाकर्षितं चावहित्थकम् । निवेशमेडकाक्रीडननितोपसृतानि च ॥ ५६२ ॥ तलसंघट्टितोत्तविष्णुक्रान्तानि लोलितम् । मदस्खलितसंभ्रान्तविष्कम्भोद्घट्टितानि च ॥ ५६३ ॥ शकटास्योरूद्वत्ताख्ये वृषभक्रीडितं ततः । नागापसर्पितमथो गमावतरणं तथा ॥ ५६४ ॥ इत्यष्टोत्तरमदिष्ट करणानां शतं मया। गतिस्थितिप्रयोगाणामानन्त्यात्करणान्यपि ॥ ५६५ ॥ अनन्तान्यङ्गहारेषु' त्वियत्तां चोपयोगिता।
इति करणानामुद्देशः ।
वृश्चिकरेचितमित्यर्थः । इति करणानामष्टोत्तरशतमुद्दिष्टमित्युक्त्या कथमियन्तीति परिच्छेद इत्याशङ्कां परिहरति-गतिस्थितीत्यादि । गतिस्थितिप्रयोगाणामिति । गतयश्चार्यः; स्थितयः स्थानकानि, तासां प्रयोगाः पौर्वापर्यविपर्ययाभ्यामनन्ता भवन्ति । तेषामानन्त्याद्यद्यपि करणान्यप्यनन्तानि भवन्ति, तथाप्यङ्गहारेषु वक्ष्यमाणेषु स्थिरहस्तादिग्वियतामष्टोत्तरशतकरणा
क्रियन्तामुपयोगिता।
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संगीतरत्नाकरः नामेवोपयोगिता। उपयोगो येषामस्तीत्युपयोगीनि । उपयोगिनां भाव उपयोगिता। अङ्गहारेषूपयोगवशादष्टोत्तरशतं करणान्युद्दिष्टानीत्यर्थः ॥ ॥ ५५०-५६५.॥
इति करणानामुद्देशः । (सु०) करणैः नृत्यतीत्युक्तम् । तत्र किमिदं करणमित्यपेक्षायामाहस्यादिति । करपादादेः अवयवसमूहस्य, विलासेन ; शोभया, अत्रुटद्रसा; अच्छिद्यमानो रसो यस्यां सा, तथाविधा क्रिया करणमित्युच्यते । तदेव करणं नृत्यकरणशब्देनाप्यभिधीयते । अत्र दृष्टान्तमाह-भीमदिति । यथा एक एवं युधिष्ठिरानुजो यदाधिक्येनैव भीमशब्देन भीनसे नशब्देन चोच्यते ; तद्वदित्युर्थः । अस्य करणस्य प्रभेदान् , भरतोदितान् भरतेनोक्तान् वदामः । तलपुष्पपुटमिति । तल पुष्पपुटम् , लीनम् , वर्तितम् , वलितोरु, मण्डलस्वस्तिकम्, वक्ष:स्वस्तिकम् , आक्षितरेचितम् , अर्धस्वस्तिकम् , दिक्स्वस्तिकम् , पृष्ठस्वस्तिकम्, स्वस्तिकम् , अञ्चितम् , अपविद्धम् , समनखम् , उन्मत्तम् , स्वस्तिकोचितम्, निकुष्कर, अर्धनिकुडकर, कटीच्छिन्नम् , कटीसमम् , भुजङ्गत्रासितम् , अलातम्, विक्षिताक्षिप्तकम् , निकुञ्चितम् , घूर्णितम् , ऊर्ध्वजानु, अधरेचितम् , मत्तल्लि, अर्धमत्तलि, रेचकनिकुट्टकम् , ललितम् , वलितम् , दण्डपक्षम् , पादापविद्धकम् , नूपुरम , भ्रमरम्, छिन्नम् , भुजङ्गत्रस्तरेचितम् , भुजङ्गाश्चितम् , दण्डरेचितम् , चतुरम्, कटिभ्रान्तम् , व्यंसितम्, क्रान्तम्, वैशाखरेचितम् , वृश्चिकम, वृश्चिकनिकुट्टकम्, वृश्चिकरेचितम्, लतावृश्चिकम् , आक्षिप्तम् , अर्गलम् , तलविलासितम्, ललाटतिलकम, पार्श्वनिकुट्टकम् , चक्रमण्डलम् , उरोमण्डलम् , आवर्तम् , कुञ्चितम् , डोलापादम् , विवृत्तम् , विनिवृत्तम्, पार्श्वक्रान्तम् , निशुम्भितम् , विद्युभ्रान्तम् , अतिक्रान्तम् , विक्षिप्तम् , विवर्तितम् , गजविक्रीडितम् , गण्डसूचि, गरुडप्लुतम् तलसंस्फोटम् , पाच जानु, गृध्रावलीनकम् , सूचि, अर्धसूचि, सूचीविद्धम , हरिणप्लुतम् , परिवृतम् , दण्डपादम् , मयूरललितम् , प्रेड्खोलितम्, संनतम् , सर्पितम्, करिहस्तम् , प्रसर्पितम्, अपक्रान्तम् , नितम्बम् ,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
अथ लक्षणमेतेषां वक्ष्ये लक्ष्यविदां मतम् ॥ ५६६ ॥ मायशो नर्तनारम्भे समपादौ लताकरौ । चतुरथं भवेद विशेषस्त्वयमुच्यते ॥ ५६७ ॥ चार्याध्यधिकया पादे विनिष्क्रामति दक्षिणे ।
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स्खलितम्, सिंहविक्रीडितम्, सिंहाकर्षितम्, अवहित्थकम्, निवेशकम्, एडकाक्रीडितम् जनितम्, उपसृतम्, तलसंवट्टितम् उद्वृत्तम्, विष्णुक्रान्तम्, लोलितम्, मदस्खलितम्, संभ्रान्तम्, विष्कम्भम्, उद्घट्टितम्, शकटास्यम्, ऊरूवृत्तम्, वृषभक्रीडितम्, नागापसर्पितम्, गङ्गावतरणमित्यष्टोत्तरशतं करणानि भवन्ति ॥ - ५४८-५६९- ॥
इति करणानामुद्देशः ।
(क०) अथोद्देशक्रमेण करणानि लक्षयितुमाह-अथ लक्षणमिति ॥ - ५६६ ॥
(क०) नर्तनादौ सकलकरणसाधारणमङ्गसंनिवेशं तावदाहप्रायश इति । विशेषस्त्वयमुच्यत इति । अयमिति वक्ष्यमाणतलपुष्पपुटकरणस्य संनिवेशः || ५६७ ॥
(सु० ) करणानामियत्तापरिच्छेदव्यवस्थामाह - गतीति । गतिः गमनम्, स्थितिः स्वस्थानं च प्रयोगाणामानन्त्यात् करणान्यप्यपरिमितानि । किंतु अङ्गहारेषु इयतामेवोपयोगः । तेषां लक्षणं प्रतिज्ञाय कथयति - अथेति । प्रायश: ; बाहुल्येन, नर्तनारम्भे ; नर्तनारम्भकाले, समपादौ समौ पादद्वयौ, लताकरौ चतुरश्रम् अङ्गं भवेत् । इदं तु सर्वसाधारणम् । अयम्; अधुना वक्षयमाणतलपुष्पपुटकरणानां संनिवेशविशेषस्तु अभिधीयत इत्यर्थः ॥
॥ -५६६-५६७ ॥
( क ० ) तमेव विशेषमाह – चार्येत्यादि । अत्र करणाङ्गत्वेनोच्य
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संगीतरत्नाकरः व्यावर्तनात्करयुगे दक्षिणं पार्धमागते ॥ ५६८ ॥ परिवर्तनतो वामपार्थ संनतमाश्रिते । तत्कुचक्षेत्रसंविष्टो यस्य पुष्पपुटः करः ॥ ५६९ ॥ तलपुष्पपुटं तत्स्यात्पादेऽग्रतलसंचरे । यद्यनन्तरमेतत्स्यात्करणं करणान्तरात् ॥ ५७० ॥ तदा करक्रिया तत्तत्त्याज्यग्राह्यकरानुगा। एतत्पुष्पाञ्जलिक्षेपे लज्जायां च नियुज्यते ॥ ५७१ ॥
___ इति तलपुष्पपुटम् (१) मानानां चारीणां स्थानानां च स्वरूपं वक्ष्यमाणतत्तल्लक्षणवशाद्विवक्षया अत्र करणेषु योजनीयम् । यद्यनन्तरमिति । एतत्करणं तलपुष्पपुटाख्यं प्रथममप्रयुज्यमानं सद्यदि करणान्तरादनन्तरं स्यात्तदास्य करक्रिया करयोः क्रिया-तत्तत्याज्यग्राह्य करानुगेति । तस्मिंस्तस्मिन्करणे लक्षणवशात्त्याज्ययो ह्ययोर्वा करयोरनुगा अनुसारिणी कर्तव्येत्यर्थः । अयमभिप्रायःइदमेव तलपुष्पपुटं प्रथमं प्रयुज्यते चेदुक्तलक्षणयुक्तमेव प्रयोक्तव्यम् । करणान्तरानन्तरं प्रयुज्यते चेत्तदा तदनुसारेणेति । अयं न्यायः करणान्तरेष्वप्युन्नेयः । करणानां लक्षणाणि ग्रन्थत एव सुबोधानि ॥ ५६८-६४७ ॥
इति तलपुष्पपुटम् (१) (सु०) तलपुष्पपुटाख्यं करणं लक्षयति-चार्या इति । अध्यधिकसंज्ञया वक्ष्यमाणया चार्या, दक्षिणे पादे विनिष्क्रामति सति, करयुगे व्यावर्त्य, दक्षिणं पार्श्वमागत्य, परिवर्तन क्रियया संनतं वामपार्श्वमाश्रिते सति, तस्य वामकुचस्य क्षेत्रे स्थित: पुष्पपुटाख्य: करो यत्र भवति । तत तलपुष्पपुटाख्यं करणम् । यदीति । एतत् करणं यदि करणान्तरात् अनन्तरं स्यात् , तदा अस्य हस्तक्रिया तस्य करणपूर्वस्योक्तस्यैव प्रयोक्तव्यः । त्याज्यग्रहकरानुगा;
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
ऊर्ध्वमण्डलिनौ कृत्वा करौ वक्षः स्थितोऽञ्जलिः । निहञ्चितं चांसकूटं यत्र ग्रीवा नता कृता ।। ५७२ ।। लीनं तत्करणं योज्यं वल्लभाभ्यर्थने बुधैः । इति लीनम् (२)
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आलिष्टौ मणिबन्धस्थस्वस्तिकाभिमुखौ करौ ।। ५७३ ॥ 'कृत्वा वक्षस्येककालं व्यावृत्तपरिवर्तितौ । उत्तानौ पातयेदूर्वोर्यत्र तद्वर्तितं मतम् ।। ५७४ ॥ असूयायां प्रयोगः स्यात्पताकौ यदि पातयेत् । अधोमुख निघृष्टौ तौ क्रोधं सूचयतः करौ ।। ५७५ ।। शुकतुण्डादयोऽप्यन्ये विनियोगवशादिह । इतिवर्तितम् (३)
त्याज्ययोः करयोः अनुगा तदानुगुण्येन कर्तव्या: । एतत् तलपुष्पपुटाख्यं करणम्, पुष्पाञ्जलिविक्षेपे लज्जायां च प्रयोज्यम् ॥ ५६८-५७१ ॥ इति तलपुष्पपुटम् (१)
( मु० ) लीनं लक्षयति – ऊर्ध्वेति । ऊर्ध्वमण्डलिनौ करौ विधाय, वक्षः स्थितोऽञ्जलिः कार्यः । अंसद्वयं निहञ्चितं कृत्वा, यत्र ग्रीवा नता कृता, तत् लीनाख्यं करणम् । तत् वल्लभस्य नायकस्य अभ्यर्थने कार्यम् ॥ १७२, १७२ ॥ इति लीनम् (२)
(सु० ) वर्तितं लक्षयति - आश्रिष्टाविति । यत्र मणिबन्धौ स्वस्तिकसंमुखौ करौ कृत्वा, वक्षसि समकालमेव व्यावृत्तपरिवर्तितौ विधाय, ऊरुद्वये उत्तानौ पातयेत् तद् वर्तिताख्यं करणम् । तस्य असूयायां प्रयोगः । यदि करौ पताकौ कृत्वा अधोमुखौ पात्येते, तदा क्रोधे विनियोगः । इह ; अस्मिन् करणे विनियोगवशात् शुकनुण्डादयोऽप्यन्ये कराः संभवन्ति ॥ - ५७३-५७५ ॥ इति वर्तितम् (३)
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संगीतरत्नाकरः वक्ष क्षेत्रे समं हस्तौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ ॥ ५७६ ॥ विधायाक्षिप्तया चार्या संहतौ परिवर्तनात् । तत्रानीय निधीयेते शुक्रतुण्डावधोमुखौ ।। ५७७ ॥ पद्धया ते स्थितिर्यत्र वलितोरु तदुच्यते । मुग्धस्त्रीव्रीडिते चास्य प्रयोगः शाणिोदितः ॥ ५७८ ॥
इति वलितोह (४) चतुरश्रौ करौ कृत्वा विदधद्विच्यवां ततः। उद्वेष्टितक्रियापूर्वमूर्ध्वमण्डलिनौ करौ ॥ ५७९ ॥ विधाय स्वस्तिकौ कुर्यादत्र स्थानं च मण्डलम् । मण्डलस्वस्तिकं तत्स्यात्मसिद्धार्थावलोकने ॥ ५८० ॥
इति मण्डलस्वस्तिकम् (५)
(सु०) वलितोरु लक्षयति-वक्ष:क्षेत्र इति । यत्र समकालमेव हस्तौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ विधाय, आक्षिप्तया चार्या परिवर्तनात् संहतो कृत्वा, तत्र वक्षसि तावानीय, शुकतुण्डौ अधोमुखौ कृत्वा, बद्धया स्थितिश्च यत्र कल्प्यते, तद् वलितोरु भवति । अस्य मुग्घस्त्रीबीडिते प्रयोगः ॥ -६७६-१७८ ॥
इति वलितोरु (१) __ (सु०) मण्डलस्वस्तिकं लक्षयति-चतुरश्राविति । यत्र पूर्व चतुरश्रौ हस्तौ विधाय विच्यवाख्यां चारी कुर्वन् , उद्वेष्टतक्रियापूर्व करौ ऊर्ध्वमण्डलिनी विधाय स्वस्तिको कुर्यात् । ततो मण्डलाख्ये वक्ष्यमाणे स्थानके यदि तिष्ठति, तदा मण्डलस्वस्तिकाख्यं करणं भवति । तच्च प्रसिद्धार्थावलोकने कार्यम् ॥ ५७९, ५८० ॥
इति मण्डलस्वस्तिकम् (५)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः चतुरश्रौ करौ वक्षःस्थितौ कृत्वाथ रेचितौ । व्यावर्तितेन चानीयाभुग्ने वक्षसि यत्र तौ ॥ ५८१ ॥ स्वस्तिको स्वस्तिको पादौ तद्वक्षःस्वस्तिकं मतम् । अनाभुनांसमेतच्च योज्यं लज्जानुतापयोः ॥ ५८२ ॥
इति वक्षःस्वस्तिकम् (६) हस्तौ हत्क्षेत्रगौ यत्र व्यावृत्योर्ध्वं च पार्श्वयोः । शिकं हंसपक्षं च द्रुतभ्रममधोमुखम् ॥ ५८३ ॥ वक्षः प्राप्यापरं तादृग्भूतं निष्क्रामयेत्ततः । पादावश्चितसूच्यौ च तत्स्यादाक्षिप्तरेचितम् ॥ ५८४ ॥ अनेनाभिनये त्यागपरिग्रहपरम्परा ।
इत्याक्षिप्तरेचितम् (७)
(सु०) वक्षःस्वस्तिकं लक्षयति-चतुरश्राविति । यत्र वक्षःस्थितचतुरश्रानन्तरं रेचितौ करौ, व्यावर्तितेन भुग्ने वक्षसि आनीय स्वस्तिकौ भवतः, पादावपि स्वस्तिको क्रियेते, तत् वक्षःस्वस्तिकम् । एतदेव ईषद्भुनांसं सत् लज्जानुतापयोः प्रयोज्यम् ॥ ५८१, ५८२ ॥
इति वक्षःस्वस्तिकम् (६) (सु०) आक्षिप्तरेचितं लक्षयति-हस्ताविति । हृदयक्षेत्रे वर्तमानौ हस्तौ यत्र ऊर्ध्व व्यावृत्त्य वर्तनयुक्तौ विधाय, पाश्र्वयोः निक्षिप्य, एकं हंसपक्षं द्रुतभ्रमं भ्रामितम् अधोमुखं वक्षो नत्वा, द्वितीयं करं तादृग्भूतं हंसपक्षं भ्रामितमधोमुखं निष्क्रामयेत् । ततः पादौ अञ्चितसूच्यौ च कुर्यात् । तद् आक्षिप्तरेचितं भवति । तत् त्यागपरिग्रहपरंपरायां कार्यम् ॥ ५८३, ९८४- ।।
इत्याक्षिप्तरेचितम् (७)
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संगीतरत्नाकरः दक्षिणः करिहस्तः स्याद्वामस्तु खटकामुखः ।। ५८५ ॥ वक्षस्थः स्वस्तिको पादौ यत्रार्धस्वस्तिकं तु तत् । अन्ये करिकरस्थाने पक्षवश्चितकं परम् ।। ५८६ ॥ पक्षपद्योतकं चार्धचन्द्रं कटिगतं विदुः ।
इत्यर्धस्वस्तिकम् (८) पार्थयोरग्रतः पृष्ठे स्वस्तिकोऽत्र दिशं गतः ॥ ५८७ ।। कराञी रेचितौ यत्र तदिक्स्वस्तिकमुच्यते । तद्गीतपरिवर्तेषु विनियुक्तं पुरातनैः ।। ५८८ ॥ स्वस्तिकप्रक्रियैपा स्यात्स्वस्तिकोक्त्यन्तरेष्वपि ।
इति दिक्स्वस्तिकम् (५) उद्वेष्टितक्रियापूर्व बाहोविक्षिप्यमाणयोः ।। ५८९ ।।
(सु०) अर्धस्वस्तिकं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणः करः करिहस्तः, वाम: करः खटकामुखः, पादौ च वक्षस्थः स्वस्तिकौ भवतः; तद् अर्धस्वस्तिकं भवति । अन्ये आचार्याः; करिकरस्थाने पक्षवञ्चितकं, पक्षप्रद्योतकं चार्धचन्द्रं कटिगतमाहुः ॥ -५८५, ५८६- ।।
इत्यर्धस्वस्तिकम् (6) (सु०) दिक्स्वस्तिकं लक्षयति-पार्वयोरिति । यत्र कराभ्यामङ्घिभ्यां च कृत: स्वस्तिकः, पार्श्वयोः अग्रत: पृष्ठेन यत्र भ्राम्यते, तत् दिक्स्वस्तिकम् । तच भ्रान्तपरिवर्तने प्रयोज्यम् । एषा स्वस्किप्रक्रिया स्वस्तिकान्तरेष्वपि स्यात् ॥-५८७, ५८८-॥
इति दिवस्वस्तिकम् (९) (मु०) पृष्ठस्वस्तिकं लक्षयति-उद्वेष्टितेति । बाह्रोः ; हस्तयो: उद्वेष्टित
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
कृत्वा वामपक्रान्तां क्रियमाणेऽपवेष्टने । रेचयित्वान्यचरणं सूचीस्वस्तिकमाचरेत् ।। ५९० ॥ यत्राङ्घ्रिभ्यां कराभ्यां च तत्पृष्ठस्वस्तिकं भवेत् । एतन्निषेधराभस्यपरान्वेषणभाषणे ।। ५९१ ॥ प्रयुक्तं नाव्यतत्त्वज्ञैरन्यैर्युद्धपरिक्रमे ।
इति पृष्ठस्वस्तिकम् ( 10 )
उद्वेष्टितेन निष्कास्य पाण्योर्व्यावर्तमानयोः ।। ५९२ ।। उत्प्लुत्य युगपद्यत्र कराङ्घ्रिः स्वस्तिकः कृतः । तत्स्वस्तिकं प्रयोक्तव्यं बुधैः पूर्वोकवस्तुनि ॥ ५९३ ॥ इति स्वस्तिकम् (११)
व्यावर्त परिवर्ताभ्यां नासादेशं गतो यदा ।
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क्रियापूर्वं भवति । ततः विक्षिप्यमाणयोः बहोः अपक्रान्तां चारों कृत्वा, अपवेष्टने क्रियमाणे सति, अन्यचरणं रेचयित्वा पादाभ्यां कराभ्यां च सूचितस्वस्तिकं क्रियते, तत्र पृष्ठस्वस्तिकम् । एतच्च निषेधराभस्यपरान्वेषणभाषणयुद्धपरिक्रमेषु प्रयोज्यम् ॥ -५८९-५९१- ॥
इति पृष्ठस्वस्तिकम् ( 10 )
(सु० ) स्वस्तिकं लक्षयति- उद्वेष्टितेनेति । हस्तयोः उद्वेष्टितेन निष्कान्तयोः पश्चाद्वयावर्तनानयोः सतो: उत्पतनं कृत्वा, यत्र करयोः अङ्योश्च स्वस्तिकः क्रियते । तत् स्वस्तिकाख्यं करणम् ॥ ५९२, ५९३ ॥ इति स्वस्तिकम् (११)
(सु० ) अञ्चितं लक्षय ते - व्यावर्तेति । घ्यावतने परिवर्तने च नासिकाप्रदेशं प्राप्तः करिहस्तः, यदा अलपद्मत्वं धत्ते, तदा अञ्चिताख्यं
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संगीतरनाकरः करिहस्तोऽलपद्मत्वं धत्ते स्यादश्चितं तदा ॥ ५९४ ॥ संमुखप्रेक्षणे तच्च योज्यं स्वस्यातिकौतुकात् ।
इत्यश्चितम् (१२) चतुरश्रकरः स्थित्वा हस्तं व्यावर्त्य दक्षिणम् ॥ ५९५ ॥ निष्क्रामयन्भजेचारीमाक्षिप्तामथ दक्षिणम् । शुकतुण्डं करं तस्यैवोरौ तु परिपातयेत् ॥ ५९६ ॥ यत्रापविद्धं तद्वामे वक्षस्थे खटकामुखे । तत्कोपासूययोर्योज्यमुक्तं सोढलसूनुना ॥ ५९७ ॥
इत्यपविद्धम् (१३) देहः स्वाभाविको यत्र पादौ समनखौ युतौ । लताहस्तौ समनखं स्यात्प्रवेशे तदादिमे ॥ ५९८ ॥
इति समनखम् (१४)
करणं भवति । तच्च स्वस्य अतिकौतुकात् संमुखप्रेक्षणे प्रयोज्यम् ॥ ॥ ५९४, १९४-॥
इत्यचितम् (१२) (सु०) अपविद्धं लक्षयति-चतुरश्रकर इति । दक्षिगं हस्तं चतुरश्रानन्तरं व्यावर्तितं विधाय, तस्य निःक्रमणसमये, आक्षिप्तां चारी कुर्यात् । ततः तमेव दक्षिणहरतं शुकतुण्डं वामोरूपरि पातयेत् । वामहरतं च वक्षःस्थितं खटकामुखं च कुर्यात् । तदपविद्धाख्यं करणं भवति । तच्च कोपासूययोर्योज्यम् ॥ ॥ -५९५-५९७॥
इत्यपविद्धम् (१३) (सु०) समनखं टक्षयति-देह इति । यत्र देहः स्वाभाविकोऽविकृतः,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः चार्याविद्धाश्चितपदे पर्यायाचितः करः । यत्रोन्मत्तं तु तद्र्वे सौभाग्यादिसमुद्भवे ॥ ५९९ ॥
इत्युन्मत्तम् (१५) चतुरश्रः स्थितः कृत्वा हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यामधश्वोर्च शिरःस्थलात् ॥ ६०० ॥ आनीयाविद्धवक्रौ चेद्वक्षसि स्वस्तिकौ कृतौ । विप्रकीर्णौ ततः कार्यों पक्षवश्चितको करौ ॥६०१॥ पक्षप्रयोतकौ पश्चाचारी तद्वशगा भवेत् । अन्तेऽवहित्यकं स्थानं तदा स्वस्तिकरेचितम् ॥ ६०२॥ नृत्ताभिनयने तच्च प्रहर्षादौ नियुज्यते ।
इति स्यस्तिकरेचितम् (१६)
पादौ समनखाख्यौ, हरतौ च लतारूपो चेत् ; तदा समनखं करणम् । तच्च नृत्तस्य आदिमे प्रवेशे प्रयोज्यम् ॥ ५९८ ॥
इति समनखम् (१४) __ सु०) उन्मत्तं लक्षयति-चार्येति । आविद्धाख्यां चारी कृत्वा, चरणश्च अञ्चितः, करस्तु क्रमेण रेचितो भवति ; तदुन्मत्तं करणम् । तच्च गर्वे, सौभाग्यादिसमुद्भवे कार्यम् ॥ ५९९ ॥
इत्युन्मत्तम् (१५) ___ (सु०) स्वस्तिकरेचितं लक्षयति-चतुरश्राविति । चतुरधानन्तरं हंसपक्षी करौ व्यावृत्तिभ्यां शीघ्रम् अधश्चोर्ध्व शिरश्च भ्रामयित्वा, पादतलात् वक्षसि आनीय, आविद्धपक्षौ स्वस्किौ च कृत्वा, ततो विप्रकोणों सन्तो पश्चात् कटिप्रदेशे पक्षवञ्चितकौ, पक्षरद्योतकौ च कुर्यात् । चारी च तदनुगता
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संगीतरनाकरः माडलस्थान के कृत्वा चतुरश्रतया स्थितः ।। ६०३ ॥ उद्वेष्टय दक्षिगं हस्तं नीत्वा स्कन्धशिरस्यमुम् । पतनोत्पतनाविष्टकनिष्ठाद्यगुलीद्वयम् ॥ ६०४ ॥ अलग्याकृति कृत्योद्घट्टितेऽयौ च दक्षिणे । आविद्धवक्रतां नीत्वा करेऽत्र चतुरश्रिते ।। ६०५॥ तथैव वामपाण्यध्रि यत्र स्यात्तन्निकुट्टकम् । आत्मसंभावनाख्यानपरे वाक्ये नियुज्यते ॥ ६०६॥
इति निकुटकम् (१७) तदेवार्धनिकुटुं स्यादेकेनाङ्गेन चेत्कृतम् । अमरूदवचःमोक्ते तत्रैवाय नियुज्यते ॥ ६०७॥
इत्यर्धनिद्धाम् (१८) मेव यां कांचिद्विधाय, अन्ते अबाहित्यकं स्थानकं क्रियते चेत् तदा स्वस्ति. करचितम् । तच्च प्रहर्षादौ प्रयोज्यम् ॥ ६००-६०२-॥
इति स्वस्तिकरेचितम् (१६) __(मु०) निकुष्कं लक्षयति-मण्डलस्थानक इति । यत्र मण्डलाख्यस्थानके चतुरश्रायतया तिष्ठन् दक्षिणं हस्तमुद्वेष्टय, अमुं स्कन्धशिरःस्थलं नीत्वा, पतनोत्पत नवत् आविष्टकनिष्ठाद्यालिद्वयमलपद्माकृतिं कृत्वा, दक्षिणाधिश्च उद्घट्टितो भवति । दक्षिणः करः आविद्धवकता लञ्चा चतुरश्रितो भवति । एवमेव वामो हस्तश्चरणश्च यत्र भवेताम् ; तत् निकुट्टकं करणम् । तच आत्मसंभावनायां प्रयोज्यम् ॥ -६०३-६०६ ॥
इति निकम् (१७) ___ (सु०) अर्धनिकुट्टकं लक्षयति--तदेवेति । तदेव ; निक्क मेव, एकेनानेन कृतं चेत् ; अर्धनिकुट्टकं भवति । तच्च अप्ररूढवचसि प्रयोज्यम् ॥ ६०७ ॥
इसनिकम् (10)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः पार्थेन भ्रमरी कृत्वा मण्डलस्थानके स्थितः । कृत्वा छिन्नां कटीमेकां वाहोः शिरसि पल्लवम् ॥ ६०८ ॥ करमझान्तरेणैवं यत्र त्रिचतुराः कृताः । आवृत्तयः कटीछिन्नं तद्विस्मयनिरूपणे ॥ ६०९ ॥
इति कटीछिन्नम् (१९) आक्षिप्तामप्यपक्रान्तां चारी कृत्वा करद्वयम् । स्वस्तिकीकृत्य नाभिस्थो दक्षिणः खटकामुखः ॥ ६१० ॥ कट्यामन्योऽर्धचन्द्रश्च कृतः पार्थ च तन्नतम् । अन्यदुद्वाहितं यत्र वृत्तिरङ्गान्तरैस्तथा ॥ ६११ ॥ तत्कीसममादिष्टं वैष्णवस्थानकान्वितम् । प्रयोज्यं सूत्रधारेण जर्जरस्याभिमन्त्रणे ॥ ६१२ ॥
इति कटीसमम् (२०)
(सु०) कटीच्छिन्नं लक्षयति ---पार्वेनेति । यत्र पार्श्वभ्रमणानन्तरं मण्डलाख्ये स्थाने स्थित: सन् , एकां कटी छिनां विधाय, बाहुशिरसि पल्लवं करं कुर्यात् । एवमन्यर जै: यत्र त्रिचतुर आवृत्तयः क्रियन्ते, तत् कटीच्छिन्नं करणं भवति । तच विस्मयनिरूपणे प्रयोज्यम् ॥ ६०८, ६०९ ॥
इति कटीच्छिन्नम् (१९) - (सु०) कटीसमं लक्षयति -आक्षिप्तामिति । यत्र आक्षिप्ताम् , अपकान्तां च चारी कृत्वा, करद्वयं स्वस्तिकं विधाय, दक्षिणहस्तं नाभौ खटकामुखं क्रियते ; वामश्च कटिप्रदेशे अर्धचन्द्रः, तद्वामपार्श्व नतं भवति । अन्यद् दक्षिगपार्श्वमुदाहितं भवति । तत्र वैष्णवस्थानकयुतं कटीसमं करणमुक्तं भवति । तच्च सूत्रधारेण जर्जरस्याभिमन्त्रणे प्रयोज्यं भवति ॥ ६१०-६१२ ॥
इति कटीसमम् (२०)
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२०६
संगीतरत्नाकरः भुजङ्गात्रासितां चारी कृत्वोत्क्षिप्य च कुश्चितम् । अघिमूरुकटीजानुयश्रं यत्र विवर्तयेत् ॥ ६१३ ॥ व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यामेको डोलाकरोऽपरः । खटकाख्यस्तदन्वर्थ भुजङ्गगत्रासितं मतम् ।। ६१४ ॥
इति भुजंगत्रासितम् (२१) चार्यलाता नितम्बश्च करोऽय चतुरश्रकः । एतदक्षिणतो वाम ऊर्वजानुस्तथैव चेत् ॥ ६१५ ॥ अनान्तरं तदालातं नृत्ते सललिते मतम् ।
इत्यलातम् (२२) हस्ते ब्यावर्तमाने तु सोऽधिविक्षिप्यते बहिः ॥ ६१६ ॥ चतुरश्रः करः पाणिः पूर्वोऽथ परिवर्तने ।
(सु०) भुजङ्गत्रासितं लक्षपति-भुजङ्गत्रासितामिति । यत्र भुजङ्गनासिताख्यां चारी विधाय, कुचितमङ्खिमुत्क्षिप्य ऊरू:, कटी, जानु च त्र्यश्रतया विवर्तितो भवति । एकः व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां डोलाकरो भवति, अन्यः खटको भवति, तद् अन्वर्थ भुजङ्गत्रासिताख्यं करणं भवति ॥ ६१३, ६१४ ॥
इति भुजङ्गवासितम् (२१) __ (सु०) अलातं लक्षयति–चार्येति । यत्र अलाताख्या चारी; नितम्बाख्यः कर: दक्षिगहस्तः चतुरश्रो भवति । वामोऽपि ऊर्ध्वजानुः, अङ्गान्तरं च यदा भवति चेत् , तदा एतदलाताख्यं करणं भवति । तच्च सललिते नृत्ते प्रयोज्यम् ॥ ६१५, ६१५- ॥ |
इत्यलातम् (२२) (सु०) विक्षिप्ताक्षिप्तकं लक्षयति-हस्त इति । यत्र हस्ते व्यावर्तमाने
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सप्तमो नर्तनाध्यायः पाणिराक्षिप्यते चाङ्घियत्राङ्गं चान्यदीदृशम् ॥ ६१७ ॥ विक्षिप्ताक्षिप्तकं तत्स्याद्तागतनिरूपणे । इमं तु नाट्यतत्त्वज्ञा विनियोगं न पन्वते ॥ ६१८ ॥ वाक्यार्थाभिनयस्तत्र यत्राभिनयहस्तकाः। प्राधान्येन विधीयन्ते नृत्तमात्रपरं त्विदम् ॥ ६१९ ॥ अतोऽन्तरालसंधाने गतीनां च परिक्रमे । । तथा युद्धनियुद्धस्थचारीस्थानकसंक्रमे ॥ ६२० ॥ कार्ये तालानुसंधाने योज्यं करणमीदृशम् ।
इति विक्षिप्ताकम् (२३) वृश्चिकं करणं कृत्वा यत्रारालं शिरस्थले ॥ ६२१ ॥ तद्दिकं करमाधाय नासाक्षेत्रार्जवेन तु । कृतो वक्षस्यरालोऽन्यस्तद्वदन्ति निकुश्चितम् ॥ ६२२ ॥ एतदुत्पतनौत्सुक्यवितर्कादौ प्रयुज्यते । मन्ये पताकसूच्यास्यावस्मिन्नासाग्रगौ विदुः ॥ ६२३ ॥
इति निश्चितम् (२४) सति, अघ्रिः बहिविक्षिप्यते । अपरस्तु हस्त: चतुरश्र एव । पूर्वपाणिः परिवृत्त्या आक्षिप्यते, अन्यदप्यङ्गमीदृशं विक्षेपे विक्षिप्तम् , आक्षेपे चाक्षिप्तम् ; तदा विभिप्ताक्षिप्तं करणं भवति । तच्च गतागतनिरूपणे कार्यम् । नाश्यतत्त्वज्ञाः इमं विनियोगं नानुमन्यन्ते । यत्र वाक्यार्थाभिनयः तत्र अभिनयहस्तका: प्राधान्येन नृत्तमात्रत्वेन विधीयन्ते । अत ईदृशं करणम् , अन्तरालसंधाने ; अभिनयान्तरसंबन्धे गतीनां परिक्रमे, तथा युद्धादीनामवस्थितचारीस्थानकसंचारे, तालानुसंधाने च प्रयोज्यमिति ॥ -६१६-६२०-॥
इति विक्षिप्ताक्षिप्तकम् (२३) । (सु०) निकुञ्चितं लक्षयति-वृश्चिकमिति । यत्र वृश्चिकाख्यं करणं कृत्वा, शिरसि अरालं करं तदेशे कृत्वा, नासाक्षेत्राजवेन वक्षसि अन्य अरालः
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संगीतरत्नाकरः ऊर्ध्व व्यावर्तनेनाधः परिवर्तनतः करे । पार्थक्षेत्राद्भ्राम्यमाणे जयास्वस्तिकमाचरेत् ।। ६२४ ।। ततोऽपक्रान्तचारीकस्तद्दिकश्चरणो यदा। घामो डोलाकरः प्रोक्तं करणं घूर्णितं तदा ॥ ६२५ ॥
इति पूजितम् (२५) कुश्चिते चरणे चार्या मूर्बजानौ यदा करः। तदिग्भवोऽलपद्मो वारालश्चोर्ध्वमुखो भवेत् ॥ ६२६ ॥ पक्षवश्चितकौ चोर्ध्व स्तनसाम्यस्थजानुनः । खटकास्योऽपरो वक्षस्यूर्ध्वजानु तदोच्यते ॥ ६२७ ॥
इत्यूर्ध्वजानुः (न) (२६) कृतश्चेत्, तदा निकुञ्चिताख्यं करणं भवति । एतत् उत्पतनौत्सुक्यवितर्कादौ प्रयोज्यम् | अन्ये आचार्याः अस्निन् नासाप्रगौ पताकसूच्यास्यौ जगुः ।। ॥ -६२१-६२३ ॥
इति निश्चितम् (२४) ___ (सु०) घृणितं लक्षयति-ऊर्वमिति । ऊर्ध्वम् उपरि व्यावर्तनेन, अधः; अध:प्रदेशे परिवर्तनेन च पार्श्वक्षेत्रात् हस्ते भ्राम्यमाणे सति जङ्घास्वस्तिकमाचरेत् । वामचरणश्च अपक्रान्ताख्यया चार्या युक्तः सन् तस्य दिगभिमुखो. भवति । चरणश्च डोलाख्यः ; तदा घूर्णितं करणं भवति ॥ ६२४, ६२५ ॥
इति घूर्णितम् (२५) ___ (सु०) ऊर्ध्वजानु लक्षयति-कुञ्चित इति । कुञ्चिते चरणे सति, ऊर्ध्वजानुसंज्ञायां चार्या सत्याम् , तदिग्भवः; तस्यां दिशि जात: करः अलपद्मः, अथवा अरालश्च ऊर्ध्वमुखो भवेत् ; स्तनसाम्ये वर्तमानस्य जानुनः । ऊर्ध्वप्रदेशे पक्षवञ्चितको भवेत् ; अपरस्तु वक्षसि खटकामुखः । तत ऊर्ध्वजान्वाख्यं करणं भवति ॥ ६२६, ६२७ ॥
इत्यूर्ध्वजानु (२६)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२०९ मण्डले स्थानके स्थित्वा वक्षस्थः खटकामुखः । सूचीमुखं चापसार्य यदा तस्यान्तिके कृतः ॥ ६२८ ॥ अघिद्यट्टितः पार्थ संनतं चापसारणे । तदर्धरेचितं योज्यमसमञ्जसचेटने ।। ६२९ ।।
इत्यधरेचितम् (२७) गुल्फयोः स्वस्किं कृत्वा पादयोरपसर्पणे । युगपत्करयोर्यत्रोद्वेष्टनं चापवेष्टनम् ॥ ६३० ॥ कुर्यान्मुहुर्मुट्ठस्तत्तु मत्तल्लि मदवेदकम् ।
____ इति मत्तल (०८) नितम्बकेशवन्धादिवर्तनो दक्षिणः करः ॥ ६३१॥ उद्वेगापमृतौ पादौ वामश्चेद्रेचितः करः। कट्यामर्धस्तदा त्वर्धमत्तल्लि तरुणे मदे ।। ६३२ ॥
इत्यधर्मत्तल (२९) (सु०) अधरेचितं लक्षयति–मण्डलेति । मण्डलाख्ये स्थानके स्थित्वा, एको हस्तः वक्षस्थः खटकामुखो भवति । अन्यश्च तत्समीपे अपसार्य सूचीमुखो भवति । पादश्च उद्भट्टितः । पार्वं च संनतं भवति । तत्र अर्धरेचिनाख्यं करणं भवति । तच अपसारणे, असमञ्चसचेष्टिते च प्रयोज्यम् ॥ ६२८, ६२९ ॥
इयधेरेचितम् (२५) (सु०) मत्तल्लि लक्षयति-गुल्फयोरिति । यत्र गुल्फयो: स्वस्तिकानन्तरं पादापसरणं च, करयो: उद्वेष्टनावेष्टने युगपत् मुहुर्मुहुः क्रियते, तत्र मत्तल्ल्याख्यं करणं भवति । तच्च मदवेदने कार्यम् ॥ ६३०, ६३०- ॥
___ इति मत्तल्लि (२८) (सु०) अर्धमत्तल्लि लक्षयति-नितम्बेति । यत्र दक्षिणः करः नितम्ब
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२१०
संगीतरत्नाकरः रेचितो दक्षिणो हस्तः सोऽनिरुद्धट्टितो भवेत् । यत्र डोलाकरो वामस्तद्रेचकनिकुट्टकम् ॥ ६३३ ॥
इति रेजकनिकुष्टकम् (३०) पूर्वोक्तः करिहस्तोऽन्यः पादचोट्टितस्तथा । मतान्तरं चेल्ललितं तदा नृत्ते विलासिनि ॥ ६३४॥
इति ललितम् (३१) वक्षाक्षेत्रात्करे सूचीमुखसंज्ञेऽपसर्पति । सूचीपादोऽप्यपसृतश्चारी स्याद् भ्रमरी ततः ॥ ६३५ ॥
केशबन्धादिवर्तनः, पादौ उद्वेगापसृतो, वामः कर: कव्यामधरेचितः, तत्रार्धमत्ताल्लि । तच; तरुणे मदे प्रयोज्यम् ॥ -६३१, ६३२ ॥
इत्यर्धमत्तल (२९) __(सु०) रेचकनिकुट्टकं लक्षयति-रेचित इति । यत्र दक्षिणो हस्तो रेचितः, अधिरुट्टितो भवति । वामः डोलाकरो भवति । तत्र रेचकनिकुट्टकं करणं भवति ॥ ६३३॥
इति रेकनिकुट्टकम् (३०) (सु०) ललितं लक्षयति-पूर्वोक्त इति । पूर्वोक्तनितम्बकेशबन्धादिहस्तकव्यापारवान् दक्षिणः करो भवति । अन्यो वाम: करः करिहस्त:, पादश्च उद्घट्टितः, अङ्गान्तरमप्येवं चेत्, तदा ललिताख्यं करणं भवति । तच्च विलासिनीनृत्ते प्रयोज्यम् ॥ ६३४ ॥
इति ललितम् (३१)
(सु०) वलितं लक्षयति-वक्षःक्षेत्रादिति । वक्षःक्षेत्रात् हस्तो सूची
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२११ क्रमादङ्गद्वयेऽप्येवं ललिते वलितं भवेत् ।
___ इति वलितम् (३२) यत्रोर्बजानुश्वारी स्याल्लताहस्तौ करौ कृतौ ॥ ६३६ ॥ तयोरेकं ततो न्यस्येदुपयूलस्थनानुनः। पुनरङ्गान्तरेणैव दण्डपक्षं तदुच्यते ।। ६३७॥
___ इति तण्डपक्षम् (३३) पराङ्मुखौ नाभितटे हस्तौ चेत्खटकामुखौ । सूचीपादोऽधिणान्येन युक्त्वापक्रान्तयान्वितः॥ ६३८ ॥ अघिरन्यस्तथैव स्यात्तदा पादापविद्धकम् ।
इति पादापविद्धकम् (३४) मुखतामेत्य अपसर्पति सति, सूचीपादोऽप्यपसृतो भवति । तत: भ्रमर्याख्या चारी च क्रियते । एवं कमात् अङ्गद्वयेऽप्येवं भवति चेत् , तदा वलिताख्यं करणं भवति । तच्च ललिते प्रयोज्यम् ॥ ६३५, ६३५- ॥
___ इति वलितम् (३२) (सु०) दण्डपक्षं लक्षयति-यत्रेति । यत्र प्रथमम् ऊर्ध्वजान्वाख्या चारी, लतारूपौ करौ। तयोः करयोर्मध्ये एकं करमूर्ध्वरूपस्य जानुन उपरि स्थापयेत् । पुनः अङ्गान्तरेऽप्येवं क्रियते चेत् ; तदा दण्डपक्षाख्यं करणं भवति ॥ -६३६, ६३७ ॥
इति दण्डपक्षम् (३३) (सु०) पादापविद्धं लक्षयति-पराङ्मुखाविति । खटकामुखौ करौ नाभितटप्रदेशे पराङ्मुखौ क्रियेते। सूचीसंज्ञश्च पादः अन्येन अघिणा संयोगं प्राप्य, अपक्रान्तया चार्या अन्धितो भवति । अय अधिः, एवमेव कृतश्चेत्, तदा पादापविद्धाख्यं करणं भवति ॥ ६३८, ६३८-॥
इति पादापविद्धकम् (३४)
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-२१२
संगीतरत्नाकर:
विधाय भ्रमरीं चारों ततो नूपुरपादिकाम् ।। ६३९ ॥ पादेनैकेन तदिकं हस्तं रेचितमाचरेत् ।
द्वितीयं तु लताहस्तं यत्र तन्नूपुरं विदुः ।। ६४० ।। इति नूपुरम् (३५)
पादमाक्षिप्तचारीकं तदैवोद्वेष्टितं करम् ।
त्रिकं च वलितं कृत्वा पादस्वस्तिकमाचरेत् || ६४१ ॥ ततस्तद्वद् द्वितीयाङ्गं युगपचोल्वगौ करौ ।
यत्र तद् भ्रमरं योज्यं तच्चोद्धतपरिक्रमे ।। ६४२ ।। इति नरम् (३६)
अलपद्मौ कटीपार्श्वक्षेत्रे यत्र क्रमात्करौ । कटीछिन्ना च वैशाखं स्थानं तच्छिन्नमुच्यते ।। ६४३ ।।
(मु० ) नूपुरं लक्षयति - विधायेति । भ्रनर्याख्यां चारों कृत्वा, ततो नूपुरपादिकां चारों कुर्यात् । एकेन पादेन तद्दिक्कम् ; तद्दिगवस्थितं कृत्वा, एकेन करेण रेचितं कुर्यात् । द्वितीयं हस्तं तु लतारूपं कुर्यात् । तदा नूपुराख्यं करणं भवति ॥ -६३९, ६४० ॥
इति नूपुरम् (३५)
(सु० ) भ्रमरं लक्षयति - पादमिति । आक्षिप्ताख्या चारी यस्मिन्, तथाविधं पादं कृत्वा, तस्मिन्नेव समये हस्तमुद्वेष्टितं त्रिकं च वलितं विधाय पादस्वस्तिकाचरेत् । अनन्तरं तदेव द्वितीयमङ्गं विधाय, सत्कारमेव उल्बणौ करौ यत्र क्रियेते, तत्र भ्रमराख्यं करणं भवति । तच्च मदोद्धतपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ ६४१, ६४२ ॥
इति नरम् ( ३६ )
(सु० ) च्छिन्नं लक्षपति - अलपद्माविति । कटीपाश्वप्रदेशे च उभौ
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२१३
सप्तमो नर्तनाध्यायः स्यात्तालमञ्जने तच्च तयागमतिसारणे ।
इति च्छिन्नम् (३७) भुजङ्गत्रासिता चारी ततो यत्र च रेचितौ ॥ ६४४ ॥ हस्तौ स्तो वामपाधं तद्भुजङ्गत्रस्तरेचितम् ।
इति भुजमवस्तरेचितम् (३८) चारी चेदक्षिणा ः स्यात्पूर्वोक्ता दक्षिणः करः ॥ ६४५ ॥ रेचितोऽन्यो लताहस्तो भुजज्ञाश्चितकं तदा ।
इति भुजंगाचितम् (३९) चारी चेदण्डपादा स्यादण्डपक्षौ च हस्तकौ ॥ ६४६ ॥
करौ क्रमादलपद्मौ विधाय, कटी च्छिन्नां कृत्वा, वैशाखं स्थानं च करोति ; तच्छिन्नाख्यं करणं भवति । तच्च तालभञ्जने, तथाङ्गप्रतिसारणे च प्रयोज्यम् ॥ ॥ ६४३, ६४३- ॥
इति छिन्नम् (३५) (सु०) भुजङ्गत्रस्तरेवितं लक्षयति-भुनड्रेति । यत्र भुजङ्गत्रासिताख्यां चारी विधाय रेचितौ भवतः ; हस्तौ च वामपाश्र्वे क्रियेते चेत, तदा भुजङ्गत्रस्तरेचिताख्यं करणं भवति ॥ -६४४, ६४४-॥
___ इति भुजयस्तरेचितम् (३०) (मु०) भुजङ्गाञ्चितं लक्षयति-चारीति । यत्र दक्षिगायौ पूर्वोक्ता भुजङ्गात्रासिता चारी । दक्षिणहस्तो रेचितः । अन्यो वाम: करः लतारूप: क्रियते चेत् ; तदा भुजङ्गाञ्चितं करणम् ॥ -६४५, ६४५-॥
इति भुजङ्गाधितम् (३९) (सु०) दण्डरेचितं लक्षयति-चारी चेति । यत्र प्रथमं दण्डपादाख्या
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२१४
संगीतरत्नाकरः प्रमोदनृत्तविषयं तदा स्यादण्डरेचितम् । प्रयोगमपरे प्राहुरस्योदतपरिक्रमे ॥ ६४७ ॥
इति दण्डरेचितम् (४०) वक्षःक्षेत्रस्थयोः पाण्योर्वामश्वेदलपल्लवः । दक्षिणश्चतुरोऽविस्तूद्धट्टिनश्चतुरं तदा ॥ ६४८ ॥ एतद्विस्मयसूयायां वैदूपिक्यां नियुज्यते ।
इति चतुरम् (४१) द्रुतापसारितं वामं सूचीपादं विधाय चेत् ॥ ६४९ ॥ तत्पार्थे दक्षिणं न्यस्येत्तत्कालं रेचयेत्कटिम् । कुर्वन्वा भ्रमरी हस्तौ व्यावृत्तपरिवर्तितौ ।। ६५० ॥ कृत्वान्ते चतुरश्रः स्यात्कटिभ्रान्तं तदा भवेत् । अस्य तालान्तरालेषु यतीनां परिपूरणे ॥ ६५१॥ प्रयोगमाह निःशङ्कस्तथा गतिपरिक्रमे ।
इति कटिश्रान्तम् (४२) चारी, हस्तौ च दण्डपक्षौ भवतः । तत्र दण्डरेचितं करणम् । तच्च प्रमोदनृत्तयोः प्रयोज्यम् । अन्ये उद्धतपरिक्रमे प्रयोज्यमिति प्राहुः ॥ -६४६, ६४७ ॥
इति दण्डरेचितम (..) (सु०) चतुरं लक्षपति-वक्षःक्षेत्रेति । यत्र हस्तयोः वक्षःक्षेत्रस्थयोः सतोः वाम: अलपलवताम् , दक्षिणः चतुरतां च धत्ते । एकोऽङ्घ्रिः उद्घट्टितः, तत्र चतुगख्यं करणं भवति । तच्च विस्मये, असूयायां, वैदूषिक्यां च प्रयोज्यम् ॥ ६४८, ६४८-॥
इति चतुरम् (४१) (सु०) कटिभ्रान्तं लक्षयति-द्रुतेति । यत्र सूचीसंज्ञकं पार्श्व
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सप्तमो नर्तनाध्यायः एक उद्वेष्टितेनाधो विप्रकीर्णः करोऽपरः ॥ ६५२ ॥ ऊच तादृक्परावृत्त्या वक्ष.क्षेत्रगतस्ततः। उत्तानो रेचितश्चैकोऽपरोऽधोमुखरेचितः ॥ ६५३ ॥ आलीढं स्थानकं यत्र तद्वयंसितमुदाहृतम् । प्रयोज्यमाञ्जनेयादिमहाकपिपरिक्रमे ॥ ६५४ ।।
इति व्यंसितम् (४३) चार्यातिक्रान्तया पादं पात्यमानं तु कुश्चयेत् । व्यावर्तितेन तत्कालं करं निष्क्रामयेत्ततः ।। ६५५ ॥ आक्षिप्य परिवर्तेन तं कुर्यात्खटकामुखम् । वक्षस्येवं द्वितीयाङ्गं यत्र तत्कान्तमिष्यते ॥ ६५६ ॥ प्रयोगमाहुराचार्यास्तस्योद्धतपरिक्रमे ।
इति क्रान्तम् (४४) वामपादं द्रुतापसारितं कृत्वा, तस्य वामस्य पार्वे दक्षिणं चरणं न्यसेत् । ततः कटी रेचिता भवति । भ्रमर्याख्यां चारी कुर्वन् , करौ च व्यावृत्तपरिवर्तितौ विधाय, अन्ते चतुरश्रे कृते, तदा कटीभ्रान्ताख्यं करणं भवति । तब तालान्तरालेषु, यतीनां परिपूरणे, गति परिक्रमे च प्रयोज्यम् ॥-६४९-६५१-।।
इति कटीभ्रान्तम् (४२) (सु०) व्यंसितं लक्षयति-एक इति । यत्र एककर उद्वेष्टितेन अधो विप्रकीर्णो भवति । अपरस्तु कर ऊर्ध्वमुद्वेष्टितेन परावृत्त्या उर:क्षेत्रं प्राप्नोति । तत: एक: कर उत्तानरेचित:, अपर अधोमुखरेचित: । तत आलीढम्थानक च भवति, तत् व्यंसिताख्यं करणं भवति । तच्च आञ्जनेयादिमहाकपिपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ -४५२-४५४ ॥
___इति व्यं सितम् (४३) (सु०) आतिक्रान्तं लक्षयति-चार्येति । अतिक्रान्तसंज्ञया चार्या
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संगीतरनाकरः हस्तपादकटिग्रीवं रेचितं स्थानकं पुनः ॥ ६५७ ।। वैशाखं यत्र तज्ज्ञेयं विज्ञैवैशाखरेचितम् ।
इति वैशाखरेचितम् (४५) फरिहस्तौ करौ पादौ पृष्ठे वृश्चिकपुच्छवत् ॥ ६५८ ॥ दूरसंनतपृष्ठं च यत्र तश्चिकं विदुः। एतदैरावणादीनां व्योमयाने नियुज्यते ॥ ६५९ ॥
इति वृश्चिकम् (४६) वृश्चिकं चरणं कृत्वा बाहुशीर्षे यदा क्रमात् ।
अलपद्मौ निकुटयेते तदा वृश्चिककुट्टितम् ॥ ६६० ॥ पात्यमानं पादं कुञ्चितं कुर्यात् । तस्मिन्नेव समये व्यावर्तितेन कर निकामयेत् । ततः आक्षेपेण परिवर्तनेन च तं करं खटका मुखं कुर्यात् ; एवं द्वितीयाङ्गमपि यत्र क्रियते, तद् अतिक्रान्ताख्यं करणं भवति । अस्य प्रयोगं तु आचार्या उद्धतपरिक्रमे प्राहुः ॥ ४५५, ४५६-॥
इति कान्तम् (४४) (मु०) वैशाखरेचितं लक्षयति-हस्तपादेति । हस्तपादादिकं यत्र रेचितं वैशाखं स्थानकं चेत् ; तदा वैशाखरेचिताख्यं करणं भवति ॥ ॥-४५७, ४५७- ॥
इति वैशाखरेचितम् (४५) (सु०) दृश्चिकं लक्षयति-करिहस्ताविति । करिहस्ताख्यौ हरतो, पादौ च पृष्ठे वृश्चिकपुच्छवदाकारं गच्छतः, पृष्ठं च दूरसनतं यत्र, तत् वृश्चिकाख्यं करणं भवति । एतद् ऐरावणादीनां व्योमयाने प्रयोज्यम् ॥ -४५८, ४५९ ॥
इति वृश्चिकम् (४६) (सु०) वृश्चिककुट्टितं लक्षयति-वृश्चिकमिति । वृश्चिकाख्यं करणं
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
सविस्मये व्योमयानवाञ्छादौ विनियुज्यते । इति वृश्चिककुट्टितम् (४७)
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यत्राङ्घ्री वृश्चिकीभूतौ स्वस्तिकौ रेचितौ करौ ।। ६६१ ॥ विच्युतौ चेत्तदाकाशयाने वृश्चिकरेचितम् ।
इति वृश्चिक रेचितम् (४८)
विवरणो यत्र वामहस्तो लताभिधः ।। ६६२ ॥ लतावृश्चिकं योज्यं गगनोत्पतने बुधैः ।
इति लतावृश्चिकम् (४९)
आक्षिप्ता यत्र चारी स्यादाक्षिप्तः खटकामुखः ॥ ६६३ ॥
कृत्वा, अलपद्मौ बाहुशिखरे क्रमात् निकुटयेते, तत्र वृश्चिककुट्टिताख्यं करणम् । तच्च विस्मये व्योमयाने च प्रयोज्यम् ॥ ६६०, ६६० ॥ इति वृश्चिकनिकुट्टकम् (४७)
(सु० ) वृश्चिकरेचितं लक्षयति-यत्रेति । पादे वृश्चिकतां प्राप्ते, करौ स्वस्तिकरेचितौ विच्युतौ च भवतः ; तत्र वृश्चिकरे चिताख्यं करणं भवति । तच्च आकाशयाने प्रयोज्यम् ॥ -६६१, ६६१- ॥ इति वृश्चिक रेचितम् (४८)
(सु० ) लतावृश्चिकं लक्षयति - वृश्चिक इति । यत्र चरणे वृश्चिके सति, वामहस्तो लताकर:; तत्र लतावृश्चितम् । तच्च गमने, उत्पतने च प्रयोज्यम् || -६६२, ६६२- ॥
इति लतावृश्चिकम् (४९)
( सु० ) आक्षिप्तं लक्षयति- आक्षिप्ता इति । यत्र आक्षिप्ताख्या
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संगीतरत्नाकरः चतुरो वा तदाक्षिप्तं विदूषकगतौ मतम् ।
___ इत्याक्षिप्तम् (५०) कनिष्ठाङगुलिभागे चेद्वामा दक्षिणः स्थितः ।। ६६४ ।। स्तब्धजङ्घः सार्धतालद्वितयं स्यात्प्रसारितः । तदैव स्तब्धबाहुः सन्वामपार्थेऽलपल्लवः ।। ६६५ ॥ वामेतरः करः किंचित्प्रसृतायोऽर्गलं तदा । परिक्रमेऽङ्गदादीनां शार्ङ्गदेवेन कीर्तितम् ।। ६६६ ॥
इत्यर्गलम् (५१) ऊर्ध्वमूर्ध्वाङ्गुलितलः पादः पार्थे प्रसारितः । तदग्रयुक्पताकोऽङ्गं यत्रेत्थमपरं क्रमात् ।। ६६७ ॥ सूत्रधारादिविषये तत्स्यात्तलविलासितम् ।
. इति तलविलासितम् (५२) चारी, आक्षिप्तः खटकामुखः, चतुरो वा हस्तो भवति । तदाक्षिप्तम् । तञ्च विदूषकगतौ प्रयोज्यम् ॥ -६६३, ६३३- ॥
____ इत्याक्षिप्तम् (५०) (सु०) अर्गलं लक्षयति-कनिष्ठेति । यत्र वामा ः कनिष्ठागुलिभागे दक्षिण: पाद: स्तब्धजङ्घ सार्धतालद्वयप्रविभागेन प्रसारितो भवति, तेनैव प्रकारेण, वामेतरः कर: दक्षिणो बाहुः स्तब्धः सन , वामपावें अलपल्लवतामेत्य किंचित् प्रसृताग्रो भवति । तदा अर्गलाख्यं करणं भवति । तच्च अङ्गदादीनां परिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ -६६४-६६६ ॥
इत्यर्गलम् (५१) (सु०) तलविलासितं लक्षयति-ऊर्ध्वमिति । यत्र ऊर्ध्वप्रदेशे ऊर्ध्वा अङ्गुलयः तलः यस्य, तथाविधः पादः पार्श्वप्रदेशे प्रसारितो भवति । तस्य
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२१९
सप्तमो नर्तनाध्यायः अङ्गुष्ठो वृश्चिका चेल्ललाटे तिलकं लिखेत् ॥ ६६८ ॥ तदा ललाटतिलकं विद्याधरगतो मतम् ।
इति ललाटतिलकम् (५३) पाण्योः स्वस्तिकयोरूर्ध्वमुखः पार्थ निकुटितः ॥ ६६९ ॥ एकोऽन्योऽधोमुखो यत्र तद्वत्पादो निकुट्टितः । तत्प्रकाशनसंचाराभ्यासे पार्थनिकुट्टकम् ॥ ६७० ॥
इति पार्श्वनियुट्कम् (५४) यत्र कृत्वाडितां चारी डोलाभ्यां चक्रवर्द्रमेत् ।
अन्तर्नतेन गात्रेण तदूचुश्चक्रमण्डलम् ॥ ६७१॥ च अग्रे पताकाख्यः करः संयोगं प्राप्नोति । अन्यदप्येवमेव क्रियेत चेत्. तदा तलविलासिताख्यं करणं भवति । तच्च सूत्रधारादिविषये प्रयोज्यम् ॥ ॥ ६६७, ६६७-॥
इति तलविलासितम् (५२) ___ (सु०) ललाटतिलकं लक्षयति-अगुष्ठ इति । यत्र वृश्चिकाख्यस्य करणस्य अङ्घः अङ्गुष्ठः पश्चादागत्य यदि ललाटे तिलकं करोति ; तदा ललाटतिलकाख्यं करणं भवति । तच्च विद्याधरगतौ प्रयोज्यम् ॥ ६६८,६६८-॥
इति ललाटतिलकम् (५३) (सु०) पार्शनिकुट्टकं लक्षयति-पाण्येति । स्वस्तिकाकारयोः मध्ये एको हस्त ऊर्ध्वमुखः सन् पार्श्व निकुंट्टयति । अन्यस्तु हस्त अधोमुखो भवति । पादश्च यत्र निकुट्टितः, तत् पावनिकुट्टकाख्यं करणं भवति । तच्च प्रकाशनसंवाराभ्यासे प्रयोज्यम् ॥ :६६९, ६७० ॥
___ इति पार्शनिकुटकम् (५४) (सु०) चक्रमण्डलं लक्षयति-यत्रेति । यत्र अद्विताख्यां वक्ष्यमाणां
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२२०
संगीतरत्नाकरः
सुराणां वरिवस्यायां तदुद्धतपरिक्रमे ।
इति चकमण्डलम् (५५)
चार्यौ बद्धास्थितावर्ते उरोमण्डलिनौ करौ ।। ६७२ ।। यत्रोरोमण्डलं तत्तु शिववल्लभभाषितम् । इत्युरोमण्डलम् (५६)
उद्वेष्टेनापवेष्टेन यत्र डोलाभिधौ करौ ।। ६७३ ।। चारी चाषगतिस्तत्स्यादावर्त भयसर्पणे ।
इत्यावर्तम् (५७)
उत्तानो वामपार्श्वस्थोऽलपद्मो दक्षिणः करः ।। ६७४ ।।
चारों विधाय डोलरूपाभ्यां हस्ताभ्यां मध्ये नतं प्राप्तेन गात्रेण शरीरेण यत्र भ्रमणं कुर्यात्, तत् चक्रमण्डलाख्यं करणम् ऊचुः अवादिषुः । तच्च देवानां वरिवस्यायां उद्धतपरिक्रमे च प्रयोज्यम् ॥ ६७१, ६७१-॥
इति चक्रमण्डलम् (५५)
(सु० ) उरोमण्डलं लक्षयति - चार्याविति । बद्धाख्यां स्थितावर्ताख्यां च चारों कृत्वा, उरोमण्डलिनौ करौ यत्र क्रियेते; तत् उरोमण्डलाख्यं करणं भवति ॥ - ६७२, ६७२ - ॥
इत्युरोमण्डलम् (५६)
(सु० ) आवर्त लक्षयति — उद्वेष्टेति । यत्र उद्वेष्टनापवेष्टनाभ्यां हस्तौ डोलायितौ भवतः । ततः चारी च चाषगति:; तत् आवर्ताख्यं करण भवति । तच्च भयसर्पणे प्रयोज्यम् ॥ ६७३, ६७३-॥
इत्यार्वतम् (५७)
(सु० ) कुञ्चितं लक्षयति- - उत्तान इति । यत्र दक्षिणहस्तः वामपार्श्वे
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२२१ यत्र तत्कुश्चितं पादे सव्येऽग्रतलसंचरे । तेन देवानभिनयेल्सदानन्दनिर्भरान् ॥ ६७५ ॥
इति कुश्चितम् (५८) ऊर्ध्वजानोः परं चारी डोलापादा यदा भवेत् । डोलौ हस्तौ तदा प्रोक्तं डोलापादं विदांवरैः ॥ ६७६ ॥
इति डोलापादम् (५९) पादमाक्षिप्तया चार्याक्षिप्याक्षिप्य करावपि । व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां कृत्वा भ्रमरिकां करौ ।। ६७७ ॥ रेचितौ चेद्विवृत्तं स्यात्तच्चोद्धतपरिक्रमे ।
इति विवृत्तम् (६०)
अलपमतां धत्ते, सत्यपादश्च अग्रतलसंचारो भवति । तत्र कुञ्चिताख्यं करणं भवति । तच्च आनन्दनिर्भरेण देवाभिनये प्रयोज्यम् ॥ -६७४, ६७५ ॥
. इति कुच्चितम् (५८) ___(सु०) डोलापादं लक्षयति-ऊर्ध्वजानोरिति । यत्र ऊर्ध्वजानुसंज्ञिको चारी कृत्वा, अनन्तरं डोलापादाख्या चारी क्रियते ; हस्तौ च डोलारूपौ क्रियेते; तदा डोलापादाख्यं करणं भवति ॥ ६७६ ॥
इति डोलापादम् (५९) (सु०) विवृत्तं लक्षयति-पादमिति । यत्र आक्षिप्ताख्यया चार्या, उपलक्षितपादमाक्षिप्य, हस्तावपि व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां भ्रमरिकाकारौ कृत्वा यदा रेचितौ भवतः ; तदा विवृत्ताख्यं करणं भवति । तच्च उद्धतपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ ६७७, ६७७- ॥
इति विवृत्तम् (६०)
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संगीतरत्नाकरः सूच्यज्रिणा द्वितीयाङ्ग्रेः पाणितः स्वस्तिकं भवेत् ॥६७८।। व्यावृत्तिपरिवृत्तिभ्यां वलयित्वैकपार्वतः । त्रिकं बद्धाभिधां चारी कुर्याद्धस्तौ तु रेचितौ ॥ ६७९ ॥ यत्र तद्विनिवृत्तं स्यात्पूर्वोक्तविनियोगभाक् ।
इति विनिवृत्तम् (६१) पार्थक्रान्ता भवेच्चारी करौ पादानुगौ यदा ।। ६८० ॥ पार्थक्रान्तं तदा यद्वाभिनेयवशगौ करौ । तद्योज्यं भीमसेनादे रौद्रमाये परिक्रमे ।। ६८१ ॥
इति पार्श्वकान्तम् (६२) पाष्णिदेशे द्वितीया ः कुश्चितश्चरणो भवेत् । समुन्नतमुरः पाणेः खटकाख्यस्य मध्यमा ।। ६८२ ॥
(सु०) विनिवृत्तं लक्षयति-सूच्यविणेति । यत्र सूचीरूपेण चरणेन सह द्वितीयचरणस्य पार्श्वप्रदेशेन च स्वस्तिकं कुर्यात् । ततो व्यावर्तनेन परिवर्तनेन च वलनं विधाय, एकस्मिन् पार्वे त्रिकं बद्धाख्यां चारी कुर्यात् । हस्तौ च यत्र रेचितौ भवतः ; तत्र विनिवृत्ताख्यं करणं भवति । तच पूर्वोक्तार्थे प्रयोज्यम् || -६७८-६७९-॥
इति विनितम् (६१) (सु०) पार्श्वक्रान्तं लक्षयति-पार्श्वक्रान्तेति । पार्श्वक्रान्ताख्या चारी कृत्वा, हस्तौ पादानुगौ वा अभिनेयवशगौ वा भवतः, तत्र पार्श्वक्रान्ताख्यं करणं भवति । तच्च भीमसेनादीनां रौद्रप्राये परिक्रमे प्रयोज्यम् ॥-६८०, ६८१॥
___ इति पावक्रान्तम् (६२) (सु०) निशुम्भितं लक्षयति-पाणिभाग इति । यत्र द्वितीयचरणः
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
यत्राङ्गुलिस्तिलकयेल्ललाटं तन्निशुम्भितम् ।
यद्वा वृविकहस्तः स्यादभिनेयो महेश्वरः || ६८३ || इति निशुम्भतम् (६३)
पृष्ठतो भ्रामितं पादं सर्वतोमण्डलप्लुतः । भ्रामयेच्चेच्छिरः क्षेत्रे विद्युद्भ्रान्तं तदोच्यते ।। ६८४ ॥ प्रयोगमस्य च प्राहुरुद्धतानां परिक्रमे । इति विद्युद्भ्रान्तम् (६४)
कृत्वा चारीमतिक्रान्तामङ्घ्रिमग्रे प्रसारयेत् ।। ६८५ ॥ यत्र हस्तौ प्रयोगार्हावतिक्रान्तमदो विदुः ।
इत्यतिक्रान्तम् (६५)
२२३
पाणिभागे कुञ्चितो भवति । उरःस्थलं समुन्नतं च भवति, खटका मुखहस्तस्य मध्यमाङ्गुलिः यत्र ललाटे तिलकं कुर्यात् ; तत् निशुम्भिताख्यं करणं भवति । यद्वा वृश्चिकहस्तव्यापारः स्यात् । तच्च महेश्वरस्य अभिनये प्रयोज्यम् ॥ ॥ ६८२, ६८३ ॥
इति निशुम्भितम् (६३)
(सु० ) विद्युद्भ्रान्तं लक्षयति - पृष्ठत इति । यत्र पृष्ठतः पार्श्वतो मण्डलगत्या भ्रामयित्वा पादः शिरः क्षेत्रे भ्राम्यते, तत्र विद्युद्भ्रान्ताख्यं करणं भवति । तच्च उद्धतपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ ६८४, ६८४- ॥
इति विद्युद्भ्रान्तम् (६४)
(सु० ) अतिक्रान्तं लक्षयति - कृत्वेति । यत्र अतिक्रान्तां चारी कृत्वा, अनन्तरं चरणमग्रे प्रसारयेत् । हस्तौ च यत्र प्रयोगानुगुणं भवेताम् । तत्र अतिक्रान्ताख्यं करणं भवति । तच्च अतिक्रान्तमदे प्रयोज्यम् ॥ - ६८९, ६८५-॥
इत्यतिक्रान्तम् (६५)
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२२४
संगीतरत्नाकरः
विद्युद्भ्रान्तादण्डपादे क्रमाच्चायौं विधाय चेत् || ६८६ ॥ उद्वेष्टितापवेष्टाभ्यामेकमार्गगतौ करौ । रेचयन्नग्रतः पृष्ठे पार्श्वयोर्विक्षिपेत्तदा ॥ ६८७ ॥ विक्षिप्तमभिनेतव्यस्तेनोद्धतपरिक्रमः ।
इति विक्षिप्तम् (६६)
करं चरणमाक्षिप्य यत्र त्रिकविवर्तनम् || ६८८ ।। करोऽपरो रेचितश्च तद्वदन्ति विवर्तितम् ।
इति विवर्तितम् (६७)
sोलापादा यदा चारी करिहस्तोऽस्य कर्णगः || ६८९ ॥ क्रियाविष्टः करोऽन्वर्थे गजविक्रीडितं तदा ।
इति गजविक्रीडितम् (६८)
(सु० ) विक्षिप्तं लक्षयति - विद्युदिति । विद्युद्भ्रान्ताख्यां दण्डपादाख्यां च चारीद्वयं कृत्वा, उद्वेष्टितापवेष्टिताभ्यां च हस्तौ एकमार्गवर्तिनौ कुञ्चितौ कुर्वन् अग्रे पृष्ठे पार्श्वद्वये च यदा विक्षिप्येते, तदा विक्षिप्ताख्यं करणं भवति । तच्च उद्धतपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ - ६८६, ६८७- ॥ इति विक्षिप्तम् (६६)
(सु० ) विवर्तितं लक्षयति - करमिति । यत्र करं चरणं चाक्षिप्य त्रिकं विवर्त्यते, अपरो हस्तः रेचितो भवति, तत्र विवर्तिताख्यं करणं भवति ॥ - ६८८, ६८८- ॥
इति विवर्तितम् (६७)
(सु० ) गजविक्रीडितं लक्षयति — डोलेति । यत्र डोला पादाख्यां चारों कृत्वा, करिहस्तः करः कर्णगतः सन् व्यापराविष्टो भवति । तदा अन्वर्थनामकं गजविक्रीडिताख्यं करणं भवति ॥ - ६८९, ६८९-॥
इति गजविक्रीडितम् (६८)
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२२५
सप्तमो नर्तनाध्यायः सूचीपादो नतं पार्श्व वक्षस्थः खटकामुखः ॥ ६९० ॥ वामोऽलपल्लवो गण्डक्षेत्रे चेद्गण्डसूचि तत् । क्षेत्रेऽत्र केचिदिच्छन्ति सूचीपादं परे पुनः ॥ ६९१ ॥ सूचीमुखं नृत्तहस्तमन्येऽभिनयहस्तकम् । करणेनाभिनेतव्या कपोलालंकृतिस्तदा ॥ ६९२ ॥
इति गण्डसूची(वि) (६९) लतारेचितको हस्तौ दृश्चिकाघ्रिः समुन्नतम् । उरो यत्र तदन्वर्थाभिधानं गरुडप्लुतम् ॥ ६९३ ॥
इति गहडप्लुतम् (७०) दण्डपादाख्यया चार्या यद्वातिक्रान्तया द्रुतम् । उत्क्षिप्य पात्यमानेऽङ्घ्रावग्रे चेत्तालिकां करौ ॥ ६९४ ॥
(सु०) गण्डसूचि लक्षयति-सूचीति । यत्र सूच्याख्यश्चरणः, पार्श्व नतम् , वक्षसि दक्षिणहस्तः खटकामुखः, वामश्च गण्डक्षेत्रे अलपल्लवो भवति ; तदा गण्डसूच्याख्यं करणं भवति । अत्र केचित् गण्डक्षेत्रे सूचीपादमिच्छन्ति । परे पुनः सूचीमुखं नृत्तहस्तमिच्छन्ति । अन्ये अभिनयहस्तकमिच्छन्ति । तच कपोलालंकृतौ प्रयोज्यम् ॥ -६९०-६९२ ॥
___ इति गण्डसूचि (६९) (सु०) गरुडप्लुतं लक्षयति-लतारेचितकाविति । यत्र हस्तौ लतारेचितकौ ; पादौ च वृश्चिकः ; उर: समुन्नतन् ; तत्र अन्वर्थाभिधानं गरुडप्लुतं भवति ॥ ६९३ ॥
इति गरुडप्लुतम् (७०) (सु०) तलसंस्फोटितं लक्षयति-दण्डपादेति । यत्र दण्डपाढाख्यया चार्या वा, अतिक्रान्ताख्यया चार्या वा उपलक्षिते, मघौ तूर्णमुत्क्षिप्य
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२२६
संगीतरत्नाकरः सशब्दां कुरुतोऽन्वर्थ तलसंस्फोटितं तदा ।
इति तलसंस्फोटितम् (७१) समपादस्तु पृष्ठे चेन्निहितश्चरणोऽपरः ॥ ६९५ ॥ मुष्टिवक्ष.स्थितो हस्तोऽप्यर्धचन्द्रः कटीतटे । पार्वजानु तदा ज्ञेयं योज्यं युद्धनियुद्धयोः ॥ ६९६ ॥
इति पार्श्वजानु (७२) पृष्ठेऽद्धिः प्रसृतो भूमिश्लिष्टाङ्गुष्ठौ लताकरौ । यदा तदा महापक्षियुद्धे गृध्रावलीनकम् ॥ ६९७ ॥
इति गृध्रावलीनकम् (७३) पात्यमाने सति, अग्रे यदि हस्तौ सशब्दां तालिकां विदधाते ; तदा तलसंस्फोटिताख्यं करणं भवति ॥ ६९४, ६९४- ॥
इति तलसंस्फोटितम् (०१)
(सु०) पार्श्वजानु लक्षयति-समपादेति । यत्र समपादोरूकं यथा तथा पृष्ठे पादौ निहितो भवति । एको हस्तो मुष्टितामेत्य वक्षसि वर्तते । अन्योऽपि अर्धचन्द्रीभूय कटीतटे संतिष्ठते ; तत्र पार्श्वजान्वाख्यं करणं भवति । तच्च युद्धनियुद्धयोः प्रयोज्यम् ॥ -६९५, ६९६ ॥
इति पार्श्वजानु (७२)
__(मु०) गृध्रावलीनकं लक्षयति-पृष्ठ इति । यत्र पृष्ठप्रदेशे चरणः प्रसरति ; भूमिं श्लिष्टः श्रित अङ्गुष्टो ययोः, तथाविधौ लताकरौ भवतः; तदा गृध्रावलीनकाख्यं करणं भवति । तच्च महापक्षियुद्धे प्रयोज्यम् ॥ ६९७ ॥
इति गृध्रावलीनकम् (७३)
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२२७
सप्तमो नर्तनाध्यायः उत्क्षिप्य कुश्चितः पादः पात्यते भूमिमस्पृशन् । खटकाख्यश्च तदिको हस्तो वक्षस्यथापरः ।। ६९८ ।। अलपद्मः शिरोदेशे तथैवाङ्गान्तरं क्रमात् । यत्र तच्छाईदेवेन गदितं सूचि विस्मये ॥ ६९९ ।।
इति सूचि (७४) सूच्येवैकाङ्गरचितमर्धसूचि प्रचक्षते ।
इत्यर्धसूचि (७५) पक्षवश्चितको वार्धचन्द्रो हस्तः कटीगतः ॥ ७०० ॥ खटकाख्योऽपरो वक्षस्यन्यपाणिस्थितोऽपरः । सूच्यधिश्चेत्तदा सूची विद्धं चिन्तादिगोचरम् ।। ७०१ ॥
इति सूचीविद्धम् (७६) (सु०) सूचि लक्षयति-उत्क्षिप्येति । यत्र चरणमूर्ध्वमुत्क्षिप्य भूमिस्पर्शनं विनैव कुञ्चितं च कुर्यात् । तदिशि वर्तमानो हस्त: खटकामुखो वक्षसि भवति । अथ अपरः करः अलपद्मतामेत्य शिरःप्रदेशगतो भवति । एवमेव अङ्गान्तरमपि कृतं चेत् ; तदा सूच्याख्यं करणं भवति । तच्च विस्मये प्रयोज्यम् ॥ ६९८, ६९९ ॥
इति सूचि (७४) (सु०) अर्धसूचि लक्षयति-सूचीति । एकाङ्गरचितं सूच्येव अर्धसूच्याख्यं करणं भवति ॥ ६९९-॥
___ इत्यर्धसूचि (७५) __ (सु०) सूचीविद्धं लक्षयति-पक्षवञ्चितक इति । यत्र एक: करः पक्षवञ्चितको वा अर्धचन्द्रो वा कटीगामी भवति ; वक्षसि अन्यः करः खटकामुको भवति । अन्यचरणस्य पाणिप्रदेशे अन्यः चरणः सूची भवति
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२२८
संगीतरत्नाकरः हरिणप्लुनया चार्या डोलाखटकहस्तकम् । हरिणप्लुतमाख्यातं नामोक्तविनियोगकम् ॥ ७०२ ॥
___ इति हरिणक्रुतम् (७७) ऊर्चमण्डलिनौ हस्तौ सूच्यधिर्यत्र बद्धया। विवृत्तोऽथ भ्रमरिका परिवृत्तं तदुच्यते ।। ७०३ ॥
इति परिवृत्तम् (७८) चारीनूपुरपादोऽथ दण्डपादाद् द्रुतः करः। दण्डवन्यस्यते यत्र दण्डपादं तदुच्यते ।। ७०४ ।। सूरयो विनियुञ्जन्ति तत्साटोपपरिक्रमे ।
इति दण्डपादम् (७९)
चेत् , तदा सूचीविद्धाख्यं करणं भवति । तच्च चिन्तादिगोचरे प्रयोज्यम् ॥ ॥ -७००, ७०१ ॥
इत्यर्थसूचि (७६) (सु०) हरिणप्लुतं लक्षयति-हरिणेति । यत्र हरिणप्लुताख्यां चारों कृत्वा, हस्तौ च क्रमात् डोलाखटकामुखौ भवतः । तदा हरिणप्लुताख्यं करणं भवति । तस्य विनियोगस्तु नाम्नैव बोध्यः ॥ ७०२ ॥
इति हरिणप्लुतम् (७७) (सु०) परिवृत्तं लक्षयति-ऊर्खेति । हस्तौ ऊर्ध्वमण्डलिनौ यत्र अधिश्च सूची; बद्धया चार्या यत्र विवर्तनेन भ्रमरिका ; तत् परिवृत्ताख्यं करणं भवति ॥ ७०३ ॥
इति परिवृत्तम् (७८) (१०) दण्डपादं लक्षयति–चारीति । यत्र प्रथमं नूपुरपादाख्या
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२२९ हस्तौ चेद्रेचिताकारौ वृश्चिकाघि निकुञ्च्य च ॥ ७०५ ॥ भ्रमरी क्रियतेऽन्वर्थ मयूरललितं तदा ।
इति मयूरललितम् (८०) डोलापादाख्यचारीकादङ्ग्रेन्याघ्रिणा यदा ॥ ७०६ ॥ उत्प्लुत्य भ्रमरी कुर्याद्भवेत्प्रेखोलितं तदा ।
इति प्रेडोलितम् (८१) कृत्वा मृगप्लुतां चारी कृतोऽधिः स्वस्तिकोऽग्रतः ॥७०७॥ डोलौ हस्तौ संनतं तदधमापसृतौ भवेत् ।
इति संनतम् (८२) चारी; ततो दण्डपादाख्या ; हस्तश्च शीघ्रं दण्डवत् न्यस्यते, तत् दण्डपादाख्यं करणं भवति । तच्च साटोपपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥ ७०४, ७०४-॥
इति दण्डपादम् (७९) (सु०) मयूरललितं लक्षयति-हस्ताविति । यत्र हस्तौ रेचितौ विधाय, वृश्चिकपादं निकुञ्च्य संकोच्य, भ्रमरी चारी च यत्र क्रियते ; तत्र अन्वर्थनामकं मयूरललिताख्यं करणं भवति ॥ -७०५, ७०५- ॥
__इति मयूरललितम् (८०) (सु०) प्रेखोलितं लक्षयति-डोलेति । एकाघिणा दोलापादाख्या चारी यस्मिन् , तथाविधात् अङ्ग्रेः अन्येन चरणेन यदा उत्प्लुत्य भ्रमरी क्रियते ; तदा प्रेखोलिताख्यं करणं भवति ॥ -७०६, ७०६-॥
इति प्रलोलितम् (८१) ___(मु०) संनतं लक्षयति-कृत्वे ति । यत्र मृगप्लुताख्यां चारी कृत्वा, अप्रतः अघिः स्वस्तिकः क्रियते, हस्तौ च डोलाख्यौ क्रियेते, तदा संनताख्यं करणं भवति । तच्च अधमापसृतौ प्रयोज्यम् || -७०७, ७०७- ॥
इति संनतम् (८२)
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२३०
संगीतरत्नाकरः
अञ्चितेऽपसरत्यङ्घावन्यार्नामितं शिरः ।। ७०८ । तस्मिन्पार्श्वे करोऽप्येष रेचितोऽङ्गान्तरं तथा । यत्र तत्सर्पितं मत्तस्योपसर्पापसर्पणे ।। ७०९ ।। इति सर्पितम् (८३) वामत्खको वक्षस्युद्वेष्टिततया परः । त्रिपताकः करः कर्णे तद्दिकचरणोऽञ्चितः ।। ७१० ॥ निष्क्रम्यते यदा प्रोक्तं करिहस्तं तदा बुधैः ।
इति करिहस्तम (८४)
हस्तो यो रेचितस्तदिक्पादयेद्भूमिघर्षणात् ।। ७११ ॥ चरेत्पादान्तरान्मन्दं मन्दमन्यो लताकरः ।
तदा खेचरसंचारगोचरं स्यात्प्रसर्पितम् ।। ७१२ ।। इति प्रसर्पितम् (८५)
( सु० ) सर्पितं लक्षयति - अश्वित इति । यत्र एकाङ्घ्रौ अञ्चितीभूय, अन्याः अपसरति सति, शिरो नम्यते । तत्पार्श्व एव करोऽप्येष रेचितो यदि भवति ; तथा अङ्गान्तरमप्येवं क्रियते चेत्, तत् सर्पिताख्यं करणं भवति । तच्च मत्तस्य उपसर्पणे, अपसर्पणे च प्रयोज्यम् ॥ - ७०८, ७०९ ॥ इति सर्पितम् (८३)
(सु० ) करिहस्तं लक्षयति- - वाम इति । यत्र वामहस्तः खटकामुखतामेत्य वक्षसि भवति । अन्यो हस्तः उद्वेष्टितक्रियया त्रिपताकीभूय कर्णगतो भवति । तद्दिगवस्थितः चरणोऽञ्चितः सन् निष्क्रम्यते ; तत्र करिहस्ताख्यं करणं भवति ॥ ७१०, ७१०- ॥
इति करिहस्तम् (८४)
(सु० ) प्रसर्पितं लक्षयति- हस्त इति । यत्र एको हस्तो रेचितो
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२३१
सप्तमो नर्तनाध्यायः बद्धापक्रान्तयोश्चार्योः कृतयोईस्तयोः पुनः । तत्तत्प्रयोगानुगयोरपक्रान्तमुदाहृतम् ।। ७१३ ॥
इत्यपकान्तम् (८६) अधोमुखागुली हस्तौ पताको चेच्छिरःस्थलम् । भानीय परिवृत्तेन निष्क्रम्योर्चासयोस्तयोः ॥ ७१४ ॥ मिथोमुखाववस्थाप्य स्वदेहाभिमुखाङ्गुली । नितम्बाख्यौ विधीयेते नितम्बं करणं तदा ॥ ७१५ ।।
इति नितम्बम् (८७) होलापादाद्भिगमनागमने हंसपक्षकः ।
भवति । तदिगवस्थित एकश्चरणो भूमिं घर्षयेत्, अन्यश्चरणो मन्दं मन्दं चार्यते, अन्यो हस्तो लताकरो भवति । तत्र प्रसर्पिताख्यं करणं भवति । तच्च खेचरसंचारे कार्यम् ॥ -७११, ७१२ ॥
इति प्रर्पितम् (८५) (सु०) अपक्रान्तं लक्षयति-बिद्धेति । बद्धापक्रान्ताख्यचारीद्वयं यत्र क्रियते, हस्तद्वयमपि तत्प्रयोगानुसारि भवति, तत्र अपक्रान्ताख्यं करणं भवति ॥ ७१३ ॥
इत्यपक्रान्तम् (८६) (सु०) नितम्बं लक्षयति-अधोमुखेति । यत्र अधोमुखा अङ्गुलयो ययोः, तथाविधौ पताकाख्यौ करौ शिरःप्रदेशं प्राप्य, परिवृत्तेन अंसयोरूर्व निष्क्रम्य मिथोमुखमवस्थाप्य, तदेव स्वदेहाभिमुखालीकं नितम्बीक्रियते, तत् नितम्बाख्यं करणं भवति ॥ ७१४, ७१५ ॥
इति नितम्बम् (८५) (सु०) स्खलितं लक्षयति-डोलेति । यत्र डोलापादाख्या चारी ।
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२३२
संगीतरत्नाकरः
अभ्येत्याथेत्थमन्याङ्गं यत्र तत्स्खलितं मतम् ।। ७१६ ॥
इति स्खलितम् (८८)
कृत्वालातां पुरोऽङ्घ्रि चेद् द्रुतं न्यस्य चपेटवत् । कृतो हस्तस्तथान्याङ्गं सिंहविक्रीडितं तदा ।। ७१७ ॥ एतद्रौद्रगतौ योज्यं ब्रूते श्रीकरणाग्रणीः ।
इति सिंहविक्रीडितम् (८९)
वृश्चिकोऽङ्घ्रिः पद्मकोशौ वोर्णनाभौ यदा करौ ॥ ७१८ ॥ अन्याङ्घ्रौ वृश्चिके पाञ्चौ भङ्क्त्वा तौ तादृशौ पुनः । कृतौ सिंहाभिनयने सिंहाकर्षितकं तदा ।। ७१९ ।।
इति सिंहाकर्षितम् (९०)
;
अङ्घ्रिणा गमनागमने हंसपक्षाख्यः करः चरणानुगतो भवति तदा स्खलिताख्यं करणं भवति ॥ ७१६ ॥
इति स्खलितम् (८८)
(सु० ) सिंहविक्रीडितं लक्षयति-- कृत्वेति । यत्र अलाताख्यां चा कृत्वा, अङ्घ्रिः पुरःप्रदेशे द्रुतं न्यस्यते, हस्तः चपेटाकारः कृतो भवति ; तथा अन्याङ्गमप्येवं क्रियते, तत्र सिंहविक्रीडिताख्यं करणं भवति । तच्च रौद्रगतौ योज्यम् ॥ ७१७, ७१७- ॥
इति सिंहविक्रीडितम् (८९)
(सु० ) सिंहाकर्षितं लक्षयति- वृश्चिक इति । यत्र वृश्चिकाख्यश्चरणः, करौ पद्मकोशौ ऊर्णनाभौ वा भवतः । अन्याङ्घ्रौ वृश्चिके सति, पूर्वकृतौ करो भङ्क्त्वा, पुनस्तादृशावेव करौ क्रियेते; तदा सिंहाकर्षिताख्यं करणं भवति । तच सिंहाभिनयने प्रयोज्यम् ॥ - ७१८, ७१९ ॥
इति सिंहाकर्षितम् (९०)
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२३३
सप्तमो नर्तनाध्यायः विधाय जनितां चारी यद्यरालालपल्लवौ । ललाटवक्षःक्षेत्रस्थौ हस्तावभिमुखागुली ॥ ७२० ॥ क्रमात्कृत्वोद्वेष्टितेन व्यावृत्त्या पार्श्वगौ ततः । वाक्षोदेशेऽपवेप्टेन परिवृत्या च तादृशौ ।। ७२१ ॥ मिथोमुखौ निधीयेते तदा स्यादवहित्थकम् । गोपनप्रायवाक्यार्थाभिनये तन्नियुज्यते ।। ७२२ ॥ अन्येऽवहित्थहस्तेन युक्तत्वादवहित्थकम् । वदन्ति चिन्तादौर्बल्यप्रभृत्यभिनयक्षमम् ॥ ७२३ ॥
___ इत्यवहिस्थकम् (९१) यत्र वक्षसि निर्भुग्ने निहितौ खटकामुखौ। मण्डलस्थानकं तत्तु निवेशं गजवाहने ॥ ७२४ ॥
इति निवेशम् (९२) (सु०) अवहित्थकं लक्षयति---विधायेति । यत्र जनितां चरी कृत्वा, हस्तो अरालालपल्लवतामेत्य, अभिमुखागुलीभूय, ललाटवक्ष:क्षेत्रस्थौ कमात् भवतः । तत उद्वेष्टितव्यावृत्तिभ्यां पार्श्वमागम्य, अपवेष्टितपरिवृत्तिभ्यां पार्श्वमागम्य, अपवेष्टितपरिवृत्तिभ्यां वक्षःस्थले तादृशावेव मिथोमुखौ क्रियेते; तत् अवहित्थकाख्यं करणं भवति । तच्च गोपनप्रायवाक्यार्थाभिनये कार्यम् । अन्ये तु अवहित्थहस्तयुक्तमाहुः । तच्च चिन्तादौर्बल्यप्रभृतावपि कार्यमाहुः॥ ॥ ७२०-७२३ ॥
इत्यवहित्यकम् (९१) (सु०) निवेशं लक्षयति-यत्रेति । यत्र निर्भुग्ने वक्षःस्थले खटकामुखौ हस्तौ निधीयेते, मण्डलस्थानकं च यत्र क्रियते ; तत् निवेशाख्यं करणं भवति । तच्च गजवाहने कार्यम् ॥ ७२४ ॥
इति निवेशम् (५२)
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२३४
संगीतरनाकरः एडकाक्रीडिता चारी चेडोलाखटकौ करौ । संनतं वलितं गात्रमेडकाक्रीडितं तदा ॥ ७२५ ॥ अधमप्रकृतिमाणिगतिगोचरमिष्यते ।
इत्येडकाक्रीडितम् (११) चारी चेजनिता मुष्टिवक्षस्थोऽन्यो लताकरः ॥ ७२६ ॥ यदा तदा क्रियारम्भाभिनये नितं भवेत् ।
इति जनितम् (९४) भाक्षिप्तां वामतधारी व्यावृत्तपरिवर्तितम् ॥ ७२७ ॥ करं कृत्वा नते पार्चे दक्षिणेऽरालतां नयेत् । यत्र तत्स्यादुपसृतं विनयेनोपसर्पणे ॥ ७२८ ॥
इत्युपसृतम् (९५)
(सु०) एडकाक्रीडितं लक्षयति-एडकेति । यत्र प्रथमम् एडकाक्रीडिता चारी क्रियते; ततो डोलाखटकौ हस्ती, गात्रं संनतं वलितं च भवति । तत् एडकाक्रीडिताख्यं करणं भवति । तच्च अधमप्रकृतिप्राणिगतिगोचरे कार्यम् ॥ ७२५, ७२५- ॥
इत्येडकाकोडितम् (९३) (सु०) जनितं लक्षयति-चारीति । यत्र जतिता चारी, एको हस्तो मुष्टितामेत्य वक्षःस्थो भवति, अन्यो हस्त: लताकरो भवति ; तत् जनिताख्यं करणं भवति । तच्च क्रियारम्भाभिनये प्रयोज्यम् ॥ -७२६, ७२६- ॥
इति जनितम् (९४) (सु०) उपसृतं लक्षयति-आक्षिप्तामिति । यत्र वामे आक्षिप्ता चारी क्रियते; ततो हस्त: व्यावृत्तपरिवर्तितो भूत्वा आस्ते, दक्षिणापावें
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२३५
सप्तमो नर्तनाध्यायः डोलापादां भजचारी संघट्टिततलौ करौ। पताको रेचयित्वा चेद्वैष्णवे स्थानके स्थितः ॥ ७२९ ।। कटिस्थं दक्षिगं हस्तं वामं रेचितमाचरेत् । अनुकम्पाविधाने स्यात्तलसंघट्टितं तदा ॥ ७३० ॥
इति तलसंघट्टितम् (९६)
पत्र प्रसारितानीतं हस्तपादं विधीयते । गात्रमुत्तचारीकं तद्द्वृत्तं विदुर्बुधाः ।। ७३१ ॥
इत्युदृत्तम् (९५)
नम्रीभूते सति, भरालं यत्र कुर्यात्, तत्र उपसूताख्यं करणं भवति । तच उपसर्पणे कार्यम् ॥ -७२७, ७२८ ॥
इत्युपसृतम् (९५)
(सु०) तलसंवहितं लक्षयति-डोलापादामिति । यत्र डोलापादाख्या चारी; ततः, संवट्टिततलौ हस्तौ पताको रेचितौ विधाय, ततो वैष्णवाख्ये स्थानके स्थित: सन्, दक्षिणहस्तं कव्यां स्थापयित्वा, वामहस्तो रेचितश्च भवति; तत् तलसंघट्टिताख्यं करणं भवति । तच्च अनुकम्पाविधाने कार्यम् ॥ ॥ ७२९, ७३०॥
इति तलसंघठितम् (१६)
(सु०) उद्वृत्तं लक्षयति-योति । यत्र हस्तपादं प्रसारितानीतम् , गात्रं च उद्वृत्ताख्यचारीकं च क्रियते, तत्र उवृत्तं नाम करणं भवति ॥
इत्युपृत्तम् ()
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संगीतरत्नाकर:
कुञ्चितः प्रसरत्यङ्घ्रिरग्रे यत्रोद्गमोन्मुखः ।
करौ च रेचितौ विष्णुक्रान्तं तत्क्रमणे हरेः ।। ७३२ ॥ इति विष्णुकान्तम् (९८)
रेचितः पाणिरेकः स्याद्वक्षस्यन्योऽलपल्लवः । लोलितं शीर्षमुभयोर्विश्रान्तं पार्श्वयोरपि ।। ७३३ ।। वैष्णवं स्थानकं यत्र तदाहुललितं बुधाः । इति ललितम् (९९)
स्वस्तिकापतौ पादौ क्रमेण परिवाहितम् || ७३४ | शिरो डोलौ यदा हस्तौ मदस्खातकं तदा । एतन्मध्यमदे योज्यं भाषते भववल्लभः ।। ७३५ ।। इति मदस्खलितम् (१००)
(सु०) विष्णुकान्तं लक्षयति - कुश्चित इति । यत्र उद्गमनाय उन्मुखः चरणः अग्रे कुञ्चितः प्रसरति, करौ च रेचितौ । तत् विष्णुक्रान्ताख्यं करणं भवति । तच्च तत्क्रमणे कार्यम् ॥ ७३२ ॥
इति विष्णुकान्तम् (९८ )
(सु० ) लोलितं लक्षयति-- रेचित इति । यत्र एको हस्तो वक्षसि रेचित:, अन्य अलपल्लवः शीर्ष पार्श्वद्वये लोलितं विश्रान्तं च, ततो वैष्णवस्थानकं च भवति । तत् लोलिताख्यं करणं भवति ॥ ७३३, ७३३ ॥ इति लोलितम् (९९)
(सु० ) मदस्खलितं लक्षयति - स्वस्तिकेति । यत्र पादौ क्रमेण स्वस्तिकापसृतौ; शिरश्च परिवाहितं भवति ; यदा हस्तौ च डोलौ भवतः । तत्र मदस्खलिताख्यं करणं भवति । तच्च मध्यमदे कार्यम् ॥ - ७३४, ७३९५ ॥ इति मदस्खलितम् (१००)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
भाविद्धां विदधच्चारीं व्यावृत्तपरिवर्तितम् । अलपद्मकरं न्यस्येदूरुपृष्ठे यदा तदा ।। ७३६ ।। संभ्रान्तं तत्प्रयोक्तव्यं ससंभ्रमपरिक्रमे ।
इति संभ्रान्तम् (१०१ )
अपेत्योपमृजेद्वामं दक्षिणो नृत्तहस्तकः ।। ७३७ ।। सूचीमुखो निकुथेत साधिर्वामकरो हृदि । तद्वदङ्गान्तरं कृत्वा सूचीपादश्च दक्षिणः ।। ७३८ ॥ हस्तोऽसावलपद्मः स्याद्वामहस्तस्तु पूर्ववत् । एवं पुनः पुनर्यत्र विष्कम्भं तद्वभाषिरे ।। ७३९ ।। इति विष्कम्भम् (१०२)
उद्घट्टितोऽङ्घ्रिः पार्श्वे तत्संनतं तालिकोयतौ ।
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"
(सु० ) संभ्रान्तं लक्षयति - आविद्धामिति । यत्र आविद्वाख्यां चारी विधाय, व्यावृत्तपरिवर्तनानन्तरम् अलपद्माख्यं करमूरुपृष्ठे यदा क्षिपेत् तदा संभ्रान्ताख्यं करणं भवति । तच्च ससंभ्रमपरिक्रमे प्रयोज्यम् ॥७३६, ७३६-॥ इति संभ्रान्तम् (१०१ )
(सु० ) विष्कम्भं लक्षयति — अपेत्येति । यत्र वाममपेत्य दक्षिणः सूचीमुखात् नृत्तहस्त उपमृज्य, वामहस्तसमीपं गच्छेत्, दक्षिणो निकुट्ठितो भवति, वामहस्तश्च हृदये स्थाप्यः । एवमङ्गान्तरेऽपि कृत्वा, दक्षिणः पादः सूची, दक्षिणो हस्त अलपद्म:, वामस्तु पूर्ववत्; एवं पुन: पुनरावृत्तौ विष्कम्भाख्यं करणं भवति ॥ - ७३७-७३९ ॥
इति विष्कम्भम् (१०२)
(सु० ) उद्घट्टितं लक्षयति — उद्घट्टित इति । यत्र उद्वद्वितः चरणः,
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संगीतरनाकरः हस्तौ यत्रोद्घट्टितं तदात्ता प्रमोदकम् ।। ७४० ॥
इत्युद्घट्टितम् (१०३) शकटास्या भवेचारी प्रसार्येताघ्रिणा सह । एको हस्तो द्वितीयस्तु वक्षस्थः खटकामुखः ॥ ७४१ ॥ पत्र तच्छकटास्यं स्यात्तादृशे बालखेलने ।
इति शकटास्यम् (१०४) सहोरूवृत्तया चार्या यत्र व्यावर्तनान्वितौ ॥ ७४२ ॥ अरालखटकौ हस्तौ निदध्यादृरुपृष्ठयोः । ऊरूद्वृत्तं तदीया॑यां प्रार्थनाप्रेमकोपयोः ॥ ७४३ ॥
इत्यूरूद्धृत्तम् (१.५) पार्श्व च संनतम् । हस्तौ तालिकोद्यतौ भवतः, तत् आवृत्ताङ्गमुद्घट्टिताख्यं करणं भवति । तच्च प्रमोदे प्रयोज्यम् ॥ ७४०॥
___ इत्युद्घट्टितम् (१०३) __ (सु०) शकटास्यं लक्षयति-शकटास्येति । यत्र शकटास्या चारी, चरणेन सह एको हस्त: प्रसारित:; द्वितीयस्तु खटकामुखीभूय वक्षःस्थो भवति; तत् शकटास्याख्यं करणं भवति । तच तादृशे बालखेलने कार्यम् ।। ॥ ७४१, ७४१-॥
इति शकटास्यम् (१०४) (सु०) ऊरूवृत्तं लक्षयति-सहेति । यत्र उरूद्वृत्तया चार्या सह, ध्यावर्तनेनोपलक्षितौ अरालखटकामुखौ हस्तौ ऊरुपृष्ठयोः निधीयेते; तत् अरूद्वृत्ताख्यं करणं भवति । तच्च ईर्ष्यायाम् , प्रार्थनायाम् , प्रेम्णि, कोपे च प्रयोज्यम् ॥ ·७४२, ७४३ ॥
इत्यूरूदत्तम् (१.५)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अलातां विदधच्चारी हस्तौ कुर्वीत रेचितौ । व्यात्या कुश्चितौ कृत्वालपद्मौ बाहुशीर्षयोः ॥ ७४४ ॥ न्यस्येते यत्र तद्धीरा वृषभक्रीडितं जगुः ।
___इति वृषभक्रीडितम् (१०६) हस्तौ चेद्रेचितौ स्यातां शिरस्तु परिवाहितम् ॥ ७४५ ॥ स्वस्तिकापस्तौ पादौ तदा नागापसर्पितम् । माहुः प्रयोगमेतस्य सूरयस्तरुणे मदे ।। ७४६ ॥
इति नागापसर्पितम् (१०७) अ रुक्षेपनिक्षेपावनु प्रोन्नतिसंनती । मजेतां त्रिपताको चेदेवमेव शिरस्तदा ।। ७४७ ॥ गङ्गावतरणं गङ्गावतारे शाङ्गिणोदितम् ।
इति गङ्गावतरणम् (१.८)
(सु०) वृषभक्रीडितं लक्षयति-अलातामिति । यत्र अलाताख्या चारीकरणसमये हस्तौ रेचितौ विदध्यात् । ततो व्यावर्तनं कृत्वा कुञ्चितो अलपद्माख्यौ करौ क्रमेण बाहशीर्षयोः भवक्षिप्येते; तदा वृषभक्रीडितास्यं करणं भवति ॥ ७४४, ७४४-॥
इति वृषकीडितम् (१०६) (सु०) नागापसर्पितं लक्षयति-हस्ताविति । यत्र हस्तौ रेचितौ भवतः ; शिरस्तु परिवाहितं भवति ; पादौ स्वस्तिकापसृतौ भवतः, तत् नागापसर्पिताख्यं करणं भवति । तच्च तरुणे मदे प्रयोज्यम् ॥ ७४५, ७४६ ॥
इति नागापसर्पितम् (१०७) (सु०) गङ्गावतरणं लक्षयति-अप्रेति । यत्र चरणस्य उत्क्षेपविक्षेपो,
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२४०
संगीतरनाकरः कर्तव्यः करणे प्रायो वामो वक्षःस्थितः करः ।। ७४८ ॥ पाणिस्तु दक्षिणस्तत्र स्यात्तत्तत्करणानुगः।
इत्यष्टोत्तरशतं करणानि । अथ देश्यनुसारेण देशे देशे लसद्यशाः ॥ ७४९ ॥ वदत्युत्प्लुतिपूर्वाणि करणानि हरमियः । अश्चितं चैकचरणाश्चितं स्याटैरवाश्चितम् ॥ ७५० ॥ दण्डप्रणामाश्चितं च कर्तर्यश्चितकं ततः । अलगं त्रीणि कूर्मोर्ध्वान्तरपूर्वालगानि च ॥ ७५१ ॥
तत: उन्नतसंनती च त्रिपताकहस्तौ भवतः ; शिरश्चैवमेव भवति; तदा गङ्गावतरणाख्यं करणं भवति । तच्च गङ्गावतारे प्रयोज्यम् ॥ ७४७, ७४७- ॥
इति गङ्गावतरणम् (१०८) (क०) सकलकरणसाधारणीमितिकर्तव्यतामाह-कर्तव्यः करणे प्राय इति । प्राय इत्यनेन यत्र लक्षणे वामहस्तस्य पृथक्रिया नाभिहिता, तत्रेत्यवगन्तव्यम् ॥ -७४८, ४४८- ॥
इत्यष्टोत्तरशतं करणानि । (सु०) एवं करणानां लक्षणमुक्त्वा सर्वलक्षणसाधारणं करणसाधारणं करविन्यासमाह-कर्तव्य इति । करणे कर्तव्ये सति, वाम: करः प्राय: बाहुल्येन वक्षसि स्थिते, दक्षिणः पाणिस्तु तत्तत्करणानुगतत्वमुपगच्छतीति ॥ ॥ ७४८, ७४८-॥
इत्यष्टोत्तरशतं करणानि । (क०) अथोप्लुतिकरणानि लक्षयितुमाह-अथ देश्यनुसारेणेति । एतेषां भरताद्यनुक्तत्वाच्छुद्धकरणवल्लक्षणनियमो नाद्रियत इत्यर्थः ।
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२४१
सप्तमो नर्तनाध्यायः
२४१ लोहडी कर्तरीलोहडयेकपादादिलोहडी । ततः स्यादर्पसरणं शयनं जलपूर्वकम् ॥ ७५२ ॥ नागबन्धं कपालायं चूर्णनं नतपृष्ठकम् । स्यान्मत्स्यकरणं चाथ करस्पर्शनसंज्ञकम् ॥ ७५३ ॥ एणप्लुतं ततस्तियकरणं तिर्यगश्चितम् । तिर्यक्स्वस्तिकसंज्ञं च सूच्यन्तमथ कीर्तितम् ।। ७५४ ॥ बाह्यान्तश्छत्रतिरिपालगचक्रेऽश्चितादिमाः । सप्त भ्रमर्यो भ्रमरी शिरःपूर्वा दिगादिमा ॥ ७५५ ॥ समपादाश्चितं भ्रान्तपादाश्चितमतः परम् । स्कन्धभ्रान्तं च षट्त्रिंशदिति सोढलनन्दनः ॥ ७५६ ॥
संक्षिप्योत्प्लुतिपूर्वाणि करणानि समादिशत् । तानुद्दिशति-अश्चितमित्यादि । कूर्मोर्चान्तरपूर्वालगानीति । कूर्मालगमूर्ध्वालगमन्तरालगमिति त्रीणि । कर्तरीलोहडीत्येकं पदम् । जलपूर्वकं शयनं जलशयनमित्येकम् । कपालाद्यं चूर्णनम् । सूच्यन्तमित्युद्देशे स्वतन्त्रमेकम् । शिरःपूर्वा भ्रमरी शिरोभ्रमरी। दिगादिमा भ्रमरीत्यनुषङ्गः, दिग्भ्रमरीति ॥ -७४९-७५६ ॥ ___ (सु०) एवं नृत्यकरणान्युक्त्वा, उत्प्लुतिकरणानि वक्तुं प्रतिजानीतेअथेति । हरप्रिय इति साभिप्रयायं विशेषणम् । ईश्वरो हि ताण्डवे उत्प्लुतिपूर्वकैः करणैः नृत्यति । ततः तत्प्रीतये तानि कथयतीत्यर्थः । तानि षट्त्रिंशद्विधानि । यथा-अञ्चितम् , एकचरणाञ्चितम् , भैरवाञ्चितम् , दण्ड-, प्रणामाञ्चितम् , कर्तर्यञ्चितम् , अलगम्, कूर्मालगम् , ऊर्ध्वालगम्, अन्तरालगम्, लोहडी, कर्तरीलोहडी, एकपादलोहडी, दर्पसरणम् , जलशयनम् , नागबन्धम्, कपालचूर्णनम् , नतपृष्ठम् , मत्स्यकरणम् , करस्पर्शनम् ,
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२४२
संगीतरत्नाकरः अश्चितं समपादेन स्थित्वोत्तानोत्प्लुतौ भवेत् ॥ ७५७ ॥
इत्यश्चितम् (१) एकपादाश्चितं तत्स्यादेकपादविनिर्मितम् ।
___ इत्येकचरणाम्चितम् (२) ऊरुपृष्ठस्थितैका रुत्प्लुतौ भैरवाञ्चितम् ॥ ७५८ ॥
इति मैरवाञ्चितम् (३)
एणप्लुतम् , तिर्यकरणम् , तिर्यगञ्चितम् , तिर्यक्स्वस्तिकम् , सूच्यन्तानि, बाह्यभ्रमरी, अन्तर्धमरी, छत्रभ्रमरी, तिरिपमभ्रमरी, अलगभ्रमरी, चक्रभ्रमरी, अञ्चितभ्रमरी, शिरोभ्रमरी, दिग्भ्रमरी, समपादाञ्चितम् , भ्रान्तपादाश्चितम् , स्कन्धभ्रान्तमिति ॥ -७४९-७५६- ॥
(सु०) तेषां क्रमेण लक्षणमाह-अश्चितमिति । समपादेन ; समचरणेन स्थित्वा उत्तानोत्प्लुतौ क्रियमाणायाम् ; अश्चिताख्यं करणं भवति ॥ ॥-७५७॥
इत्यश्चितम् (१) (क०) अश्चितमिति । एतेषां लक्षणानि स्पष्टार्थानि||-७५७-७९१॥
(सु०) एकचरणाञ्चितं लक्षयति--एकेति । एकपादविनिर्मितम् , एकेन पादेन कल्पितम् , एकपादाञ्चिताख्यं करणं भवति ॥ ७५७- ॥
इत्येकचरणाश्चितम् (२) (१०) भैरवाञ्चितं लक्षयति-ऊर्विति । ऊरूपृष्ठस्थितेकाङ्ग्रेः, ऊरूपृष्ठस्थैकचरणस्य, उत्प्लुतो, उत्प्नुवने भैरवाञ्चिताख्यं करणं भवति ॥-७५८ ॥
इति भैरवाचितम् (३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः उत्प्लुत्याश्चितवयत्र निपतेइण्डवद्भुवि । दण्डमणामाश्चितं तद्वदितं नृत्तवेदिमिः ॥ ७५९ ॥
___ इति दण्डप्रणामाञ्चितम् (४) अञ्चितं स्वस्तिकानिभ्यां कर्तर्यश्चितमुच्यते ।
इति कर्तर्यश्चितम् (५) अधोमुखोत्प्लुतोऽग्रे च पतित्वा कुक्कुटासनम् ।। ७६० ॥ षधीयाद्यत्र सत्मोक्तमलगं सूरिशाङ्गिणा ।
इत्यलगम् (6) कूर्मासनं यद्यलगे भवेत्कूर्मालगं तदा ॥ ७६१ ॥
इति कूर्मालगम् (७) (सु०) दण्डप्रणामाञ्चितं लक्षयति-उत्प्लुत्येति । अञ्चितवत् पूर्वोक्ताश्चितकरणवत्, यत्र भुवि दण्डवनिपतने दण्डप्रणामाञ्चिताख्यं करणं
___ इति दण्डप्रणामाश्चिम् (४) (सु०) कर्तर्यश्चितं लक्षयति-अञ्चितमिति । अञ्चितस्वस्तिकचरणाभ्यां कृतं कर्तर्यञ्चिताख्यं करणं भवति ॥ ७५९- ॥
____ इति कर्तर्यश्चितम् (५) __ (सु०) अलगं लक्षयति-अधोमुखेति । अधोमुखमुत्प्लवनं विधाय अग्रे पतित्वा यत्र कुक्कुटासनं बध्नाति, तत् अलगाख्यं करणं भवति ॥ ॥ -७६०, ७६०.॥
इत्यलगम् (६) (सु०) कूर्मालगं लक्षयति- कूर्मासनमिति । यदा पूर्वोक्तालगे कूर्मासनं बध्यते चेत्, तदा कूर्मालगाख्यं करणं भवति ॥ -७६१ ॥
इति कर्मालगम् (५)
भवति ॥ ७१९॥
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संगीतरनाकरः ऊर्ध्वालगं तत्पतित्वा समा रूख़संस्थितौ ।
इत्यूलिगम् (८) कृतालगो निपत्योामुत्तानोरःस्थलस्थितः ॥ ७६२ ।। पृष्ठतः श्रोणिसंस्पर्शि शिरः स्यादन्तरालगे ।
इत्यन्तरालगम् (९) समपादस्थितो यत्र विवर्त्य त्रिकमुत्प्लुतः ॥ ७६३ ॥ तिर्यक्पाते लोहडी तल्लुठितं चोच्यते बुधैः ।
इति लोहडी, लठितं वा (१०) वस्तिकाघ्रिकृता सैव कर्तरीलोहडी मता ॥ ७६४ ॥
इति कर्तरीलोहडी, कर्तरी ठितं वा (११) (सु०) ऊर्ध्वालगं लक्षयति-ऊोलगमिति । यत्र पतित्वा समचरणस्य ऊर्ध्वसंस्थितिः क्रियते, तदा ऊर्ध्वालगाख्यं करणं भवति ॥ ७६१-॥
___ इत्यूलिगम् (८) (सु०) अन्तरालगं लक्षयति-कृतालग इति । कृतम् अलगं येन, तथाविधम् उा पतित्वा उत्तानम् उरःस्थलं यस्य, तथाविधः स्थितः पृष्ठतः श्रोणी स्पृशति शिरो यस्य, तथाविधो यदि भवेत् ; तदा अन्तरालगाख्यं करणं भवति ॥ -७६२, ७६२-॥
इत्यन्तरालगम् (९) ___ (सु०) लोहडी लक्षयति-समपादेति । समपादस्थितः, समाभ्यां पादाभ्यां स्थितः सन् , त्रिकं विवर्त्य उत्प्लुत्य यत्र तिर्यक्पतेत् सा लोहडी; तदेव बुधैः लुठितमित्युच्यते ॥ -७६३, ७६३-॥
___ इति लोहडी, लठितं वा (१०) (सु०) कर्तरीलोहडी लक्षयति-स्वस्तिकेति । यत्र स्वस्तिकचरणकल्पिता लोहडयेव कर्तरीलोहडी भवति || -७६४ ॥
इति कर्तरीलोहटी, कर्तरीलठितं वा (११)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः एकाध्रिजा त्वेकपादलोहडी संमता सताम् ।
इत्येकपादलोहडी, एकपादठितं वा (१२) वैष्णवे स्थानके स्थित्वा पतेत्पार्थेन चेद्भुवि ॥ ७६५ ॥ करणं दर्पसरणं तदाह करणाधिपः ।
इति दर्पसरणम् (१३) तदेव जलशय्याख्यमासने जलशायिवत् ।। ७६६ ॥
इति जलशयनम् (१४) नागबन्धं तदेव स्यानागवन्धवदासने ।
इति नागबन्धम् (१५)
(सु०) एकपादलोहडी लक्षयति–एकेति । एकचरणोद्भवा लोहडी एकपादलोहडी भवति ॥ ७६४.॥
इत्येकपादालोहडी, एकपादलुठितं वा (१२) (सु०) दर्पसरणं लक्षयति-वैष्णव इति । यत्र वैष्णवाख्ये स्थानके स्थित्वा, यदि भुवि पार्श्वन पतेत् ; तत् दर्पसरणाख्यं करणं भवति ॥ ।। -७६५, ७६५- ॥
___इति दर्पसरणम् (१३) (सु०) जलशयनं लक्षयति-तदेवेति । तदेव दर्पसरणमेव यत्र जलशायिवत् आसने क्रियमाणे सति ; जलशयनाख्यं करणं भवति ॥ -७६६ ॥
इति जलशयनम् (१४) (सु०) नागबन्धं लक्षयति-नागबन्धमिति । तदेव दर्पसरणमेव यत्र नागबन्धासने क्रियमाणे सति ; नागबन्धाख्यं करणं भवति ॥ ७६६ ॥
इति नागबन्धम् (१५)
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२४६
संगीतरनाकरः समपादस्थितो यत्र संस्पृश्य शिरसा भुवम् ॥ ७६७ ॥ परावृत्तस्तत्कपालचूर्णनं वर्णितं बुधैः ।
इति कपालचूर्णनम् (१६) कपालचूर्णनं कृत्वोत्तानं वक्षश्चलासनम् ॥ ७६८ ॥ यत्रोक्त नतपृष्ठं तद्वकोलमपरैरिदम् ।
इति नतपृष्ठम् (१७) उत्प्लुत्य मध्यमावर्त्य वामपार्श्वन मत्स्यवत् ।। ७६९ ॥ परिवर्तेत चेन्मत्स्यकरणं वर्णितं तदा ।
इति मत्स्यकरणम् (१८) अलगं करणं कृत्वा हस्तेनाश्रित्य च क्षितिम् ॥ ७७० ॥
(सु०) कपालचूर्ण लक्षयति-समपादेति । यत्र समाभ्यां पादाभ्यां स्थितं सत् शिरसा भूमिं स्पृशन् परावृत्तो भवति, तत् कपालचूर्णाख्यं करणं भवति ॥ -७६७, ७६७- ॥
इति कपालचूर्गणम् (१६) (सु०) नतपृष्ठं लक्षयति-कपालेति । यत्र कपालचूर्णनं कृत्वा वक्षसि चलासनं क्रियते, तत् नतपृष्ठाख्यं करणं भवति । तदेव वङ्कोलमित्युच्यते ॥ ॥ -७६८, ७६८-॥
इति नतपृष्ठम् (१७) (सु०) मत्स्यपृष्ठं लक्षयति-उत्प्लुत्येति । यत्र उत्प्लुत्य मध्यमावर्त्य मत्स्यवत् वामपार्श्वन परिवर्तते, तत् मत्स्यकरणं भवति ॥ -७६९, ७६९- ॥
इति मत्स्यकरणम् (१०) (सु०) करस्पर्शनं लक्षयति-अलगमिति । यत्र अलगं करणं कृत्वा,
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२४७
सप्तमो नर्तनाध्यायः परिवर्तेत यत्राधः करस्पर्शनमूचिरे ।
इति करस्पर्शनम् (१९) उत्प्लुत्यान्यतमां सूची खे कृत्वा भजते क्षितौ ॥ ७७१ ।। यदोत्कटासनं चोर्ध्वस्थानमेणप्लुतं तदा ।
इत्येणप्लुतम् (२०) तिर्यगेकेन पादेन समुत्प्लुत्य निपत्य चेत् ॥ ७७२ ।। तिष्ठे व्यघ्रिणान्येन स्यात्तिर्यकरणं तदा ।
___इति तिर्यकरणम् (२१) समपादात्परं तिर्युगुत्प्लुतौ तिर्यगश्चितम् ॥ ७७३ ॥
___इति तिर्यगश्चितम् (२२) हस्तेन भूमिमाश्रित्य, अध: परिवर्तने कृते सति ; करस्पर्शनाख्यं करणं भवति ॥-७७०, ७७०-॥
इति करस्पर्शनम् (१९) (सु०) एणप्लुतं लक्षयति-उत्प्लुत्येति । यत्र उत्प्लवनं विधाय, यां कांचित् सूर्ची गगने कृत्वा, यदि भूमौ ऊर्ध्वस्थानमुत्कटासनं क्रियते; तत् एणप्लुताख्यं करणं भवति ॥ ७७१, ७७१- ॥
___ इत्येणप्लुतम् (२०) (सु०) तिर्यकरणं लक्षयति-तिर्यगिति । एकेन पादेन तिर्यगुत्प्लुत्य, अन्येन चरणेन भूमौ यदि तिष्ठति, तदा तिर्यक्करणम् ॥ -७७२, ७७२- ॥
इति तिर्थक्करणम् (२१) (सु०) तिर्यगश्चितं लक्षयति-समपादेति । समपादेन स्थित्वा, तिर्यगुत्प्लवने, तिर्यगञ्चिताख्यं करणं भवति ॥ -७७३ ॥
इति तिर्यगवितम् (२२)
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२४८
संगीतरत्नाकरः
स्यात्तिर्यक्स्वस्तिकं कृत्वा स्वस्तिकं तिर्यगुत्प्लुतौ । इति तिर्यक्स्वस्तिकम् (२३)
समाद्यन्यतमां सूचीं दधते निधने यदि ।। ७७४ ॥ करणानि तदा प्राचि सूच्यन्तानि प्रचक्षते । इति सूच्यन्तानि (२४)
दक्षिणेनाङ्घ्रिणा स्थित्वा वाममङ्घ्रि तु कुञ्चयेत् ।। ७७५ ।। araran भवेद्यत्र सा बाह्यभ्रमरी मता ।
इति वाह्यभ्रमरी (२५)
एतस्यास्तु विपर्यासादन्तर्भ्रमरिका भवेत् || ७७६ || इत्यन्तमरी (२६)
(सु० ) तिर्यक्स्वस्तिकं लक्षयति- स्यादिति । स्वस्तिकं कृत्वा तिर्यगुत्प्लुतौ तिर्यक्स्वस्तिकाख्यं करणं भवति || ७७३-||
इति तिर्यक्रुतिकम् (२३)
(सु० ) सूच्यन्तानि लक्षयति - समादीति । यत्र समाद्यन्यतमां सूच भजन्ते यदि पूर्वोक्तानि करणानि धारयति, तदा सूच्यन्ताख्यं करणं भवति ॥ - ७७४, ७७४- ॥
,
इति सूच्यन्तानि (२४)
(सु०) बाह्यभ्रमरी लक्षयति - दक्षिणेनेति । यत्र दक्षिणेन चरणेन वामचरणं निकुञ्च्य, अन्यत्र वामावर्ता भ्रामयेत्; सा बाह्यभ्रमरी ॥ ॥ -७७९, ७७९- ॥
इति बाह्यभ्रमरी (२५)
(सु० ) अन्तर्भ्रमरी लक्षयति - एतस्या इति । एतस्याः बाह्यभ्रमर्या विपर्यासे; अन्तर्भमरिका भवेत् ॥ -७७६ ॥
इत्यन्तमरिका (२६)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
त्रिविक्रमाकारधारी स्थानमास्थाय यत्र तु । वामावर्तभ्रमादाद्दुस्तां छत्रभ्रमरी युधाः ॥ ७७७ ।।
इति च्छत्रभ्रमरी (२७)
तिरिपभ्रमरी तिर्यग्भ्रमेऽङ्घ्रिस्वस्तिकात्परम् ।
इति तिरिपभ्रमरी (२८)
वैष्णवस्थानके स्थित्वा यदा वामाङ्घ्रिणा स्थितः ॥ ७७८ ।। देहं भ्रामयते तिर्यगलग भ्रमरी तदा ।
इत्यगभ्रमरी (२९)
२४९
भ्रमरिका खण्डसूच्यर्धे चक्रवभ्रमात् ।। ७७९ ।। इति चक्रभ्रमरी (३०)
( सु०) छत्रभ्रमरी लक्षयति – त्रिविक्रमेति । यत्र एकं चरणं भूमौ निधाय, त्रिविक्रमाकारः सन् वामावर्त भ्रमति, सा छत्रभ्रमरी || ७७७ ॥ इति च्छत्रभ्रमरी (२७)
(सु० ) तिरिपभ्रमरी लक्षयति - तिरिपेति । चरणस्य स्वस्तिकानन्तरं तिर्यक् भ्रमे क्रियमाणे ; तिरिपभ्रमरी || ७७७- ॥
इति तिरिपत्रमरी (२८)
(सु० ) अलगभ्रमरी लक्षयति--- वैष्णवेति । वैष्णवस्थनके स्थित्वा ततो वामचरणेन स्थितः सन् देहं तिर्यक् भ्रामयति चेत्, तदा अलग भ्रमरी भवति ॥ - ७७८, ७७८- ॥
32
इलगभ्रमरी (२९)
(सु० ) चक्रत्रतरी लक्षयति - चक्रभ्रमरिकेति । यत्र खण्ड सूच्याख्यस्य करणस्य अर्धचक्राकार भ्रमणयुक्तं क्रियते ; तदा चक्रभ्रमरी भवति ॥ ७७९ ॥ इति चक्रभ्रमरी (३०)
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२५०
संगीतरत्नाकरः
समपादानन्तरं चेत्तिरवीं भ्रामयेत्तनुम् । उचितभ्रमरी प्राह तदा शंकरवल्लभः ॥ ७८० ॥ इत्यतिभ्रमरी (३१)
शिरसैव भुवि स्थित्वोवकृतौ चरणौ दधत् । परिभ्रमति यत्र त्रिः सा शिरोभ्रमरी मता ।। ७८१ ॥ इति शिरोभ्रमरी (३२)
प्राग्वत्सकृत्सकृद्भ्रान्त्वा हस्तभ्रान्त्या घृतक्षितिः । दिक्चतुष्के क्रमात्तिष्ठेद्यदा दिग्भ्रमरी तदा ।। ७८२ ॥ इति दिग्भ्रमरी (३३)
समपादाञ्चितं कृत्वा स्कन्धेनैकेन भूस्थितः ।
(सु० ) अञ्चितभ्रमरी लक्षयति- समपादेति । समपादां चारों विधाय यदा तिर्यक् देहं भ्रामयेत्; तदा अश्वितभ्रमरी ॥ ७८० ॥
इत्युचितभ्रमरी (३१)
(सु०) शिरोभ्रमरी लक्षयति - शिरसैवेति । शिरसा भूमौ स्थित्वा, ऊर्ध्वकृतौ चरणौ कृत्वा, यत्र त्रिवारं परिभ्रमति ; तदा शिरोभ्रमरी ॥ ७८१ ॥ इति शिरोभ्रमरी (३२)
(सु० ) दिग्भ्रमरी लक्षयति - प्राग्वदिति । पूर्ववत् सकृत् भ्रान्त्वा च एकस्यां दिशि तिष्ठति । पुनः सकृत् भ्रान्त्वा अन्यस्यां दिशि एवं च तत्तद्दिक्षु हस्तेन क्षितिमवलम्ब्य भ्रान्त्वा तिष्ठति चेत्, तदा दिग्भ्रमरी ॥ ॥ ७८२ ॥
इतिदिग्भ्रमरी (३३)
(सु० ) समपादाञ्चितं लक्षयति- समपादेति । समपादः सन् अश्चि
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२५१ परिवृत्य च तिर्यक्चेत्पादावुल्लोलयेत्तदा ॥ ७८३ ॥ समपादाञ्चितं प्राह सूरिः श्रीकरणाग्रणीः ।
इति समपादाचितम् (३४) भ्रामयित्वा दक्षिणाधिं तदीयतलपृष्ठतः ॥ ७८४ ॥ जङ्घामध्यमवष्टभ्य वामा रश्चितं पदम् । विधाय तिर्यक्स्कन्धाभ्यामधिष्ठाय विवृत्य च ॥ ७८५ ॥ पादावुल्लोलयेत्सोक्तं भ्रान्तपादाश्चितं तदा ।
इति भ्रान्तपादाचितम् (३५) उत्कटासनमास्थायाश्चितं कृत्वा सयुग्मतः ॥ ७८६ ॥ स्थित्वा भुवि व्योम्नि कृत्वाङ्गान्तराणि ततो भुवम् । अवष्टभ्य कराभ्यां चेद् भ्रान्त्वा भ्रान्त्वा च पूर्ववत् ।। ७८७॥
तिष्ठेमतिदिशं प्रोक्तं स्कन्धभ्रान्तं तदा बुधैः। ताख्यं करणं कृत्वा, स्कन्धप्रदेशेन भूमौ स्थितः सन् , परिवर्त्य तिर्यक्पार्श्वप्रदेशे यदा उल्लोलयेत्, तदा समपादाञ्चिताख्यं करणं भवति ॥७८३,७८३-॥
इति समपादाश्चितम् (३४) (मु०) भ्रान्तपादाचितं लक्षयति-भ्रामयित्वेति । दक्षिणचरणं भ्रामयित्वा, दक्षिणाङ्गुलितलपृष्ठेन वामचरणस्य जङ्घामवष्टभ्य, अश्चिताख्यं करणं विधाय, तत्तत्स्कन्धाभ्यां भूमिमवलम्ब्य विवृत्य यदा चरणौ उल्लोलयेत्। सदा भ्रान्तपादाञ्चिताख्यं करणं भवति ॥ -७८४, ७८५- ॥
इति भ्रान्तपादश्चितम् (३५) __ (सु०) स्कन्धभ्रान्तं लक्षयति-उत्कटेति । उत्कटासने स्थित्वा अश्चिताख्यं करणं कृत्वा, स्कन्धयुग्मेन भूमौ स्थित्वा, अङ्गान्तराणि आकाशे
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२५२
संगीतरत्नाकर:
विद्यन्तेऽन्येऽपि भूयांसो भेदाः करणसंश्रयाः ।। ७८८ ॥ न ते श्रीशार्ङ्गिणा प्रोक्ता ग्रन्थप्रथिमभीरुणा | इति स्कन्धभ्रान्तम् (३६) इति षट् त्रिंशदुत्प्लुतिकरणानि ।
पूर्वरङ्गे प्रयोक्तव्यान् दृष्टादृष्टफलानपि ।। ७८९ ।। अङ्गहारान् प्रवक्ष्यामि नामतो लक्ष्मतस्तथा । अङ्गानामुचिते देशे हरणं सविलासकम् ।। ७९० ।। मातृकोत्करसंपाद्यमङ्गहारोऽभिधीयते ।
यद्वा हारो हरस्यायं प्रयोगोऽङ्गैरिति स्मृतः ॥ ७९१ ॥
विधाय, ततो हस्ताभ्यां भुवं धृत्वा भ्रमणानन्तरं दिग्भ्रमरीवत् दिक्षु चतुष्टये यदा तिष्ठेत् तदा स्कन्धभ्रान्ताख्यं करणं भवति । एवं करणसंश्रया अन्येऽपि भेदा बहवो विद्यन्ते । न ते ग्रन्थविस्तर भीरुणा शार्ङ्ग देवेनोक्ताः ॥ - ७८६-७८८- ॥ इति स्कन्धभ्रान्तम् (३६) इति षट्त्रिंशदुत्प्लुतिकरणानि ।
(क० ) अथ करणसमुदायरूपान् अङ्गहारान् लक्षयितुमादौ तेषां प्रयोगस्थलं फलं सनिर्वचनं स्वरूपं चाह -- पूर्वरङ्ग इत्यादि । पूर्वरङ्गो नाम नाटकादिषु रूपकेषु प्रथमं नाटकादिवस्तुसूचकत्वेन 'प्रत्याहारादिभिर्द्वाविंश
1
तत्र भावप्रकाशने पूर्वराजमुकम् ; तद्यथाप्रत्याहारोऽवतरणमारम्भानावणे अपि । वक्त्रपाणिस्ततस्तत्र भवेत्तु परिवहना । संघट्टना ततो मार्गासारितं च ततो भवेत । पटकं तनोत्थापनं परिवर्तनं ।
नान्दीप्ररोचना तत्र त्रिगतासारिते अपि । गीतं त्रा त्रिसाम स्याङ्गद्वारमतः परम् । एतान्यज्ञानि कथ्यन्ते पूर्वरङ्गस्य सूरिभि: । ( पृ० १९५ )
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२५३ त्यङ्गैर्युक्तो नान्दीप्रभृतिः कविना निबद्धः संदर्भविशेषः । यथाह भावप्रकाशकारः, तस्य सनिरुक्तिकं लक्षणम् ---
" नटो गीतेन नाटयेन' नृतेनाभिनयेन च । रो रामाद्यवस्थाभिरनुकार्याभिरजसा ॥ रामादितादात्म्यापत्तेः प्रेक्षकान् रसयिष्यति । सभापतिः सभा सभ्या गायका वादका अपि । नटी नटाश्च मोदन्ते यत्रान्योन्यानुरञ्जनात् । अतो रग इति ज्ञेयः पूर्व 'यस्तु प्रयुज्यते ॥ तस्मादयं पूर्वरङ्ग इति विद्वद्भिरुच्यते । कलापाताः पादभागाः परिवर्ताश्च सूरिभिः ।। पूर्व क्रियन्ते यद्रले पूर्वरङ्गो भवेदतः" इति ।
(भावप्रकाशनम् , पृ० १९४) तस्मिन्पूर्वरङ्गे । तत्र द्वाविंशत्यङ्गेषु मार्गासारितादौ तथा त्रिसामोऽ'नन्तररङ्गद्वाराख्येऽले;
"देवस्तुत्याश्रयकृतं यदङ्गं यत्र दृश्यते ।
माहेश्वरैरङ्गहारैरुद्धतैस्तत्प्रयोजयेत् ॥ वाघेन.
'यत्स प्रकल्पते. 'त्रिसाम्रो लक्षणमुक्तं सत्रैव भावप्रकाशनेत्रिसाम स्यात् त्रिवृत्तं च त्रिलयं च त्रिपाणि सत् । वागसत्याभिनयस्त्रित्तमभिधीयते । (पृ० १९८) स्थानमुक्तं लयस्त्रेधा द्रुतं मध्यं विलम्बितम् । (पृ० १९१) त्रिलयं नाम-दुतमध्यविलम्बितयोगात् । त्रिपाणिक नाम-समपाणिः, अवरपाणिः. उपरिपाणिवेति ।
(नाट्यशास्त्रम् -३४.१७.)
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२५४
संगीतरनाकरः यत्र शृङ्गारसंबन्धं गानं स्त्रीपुरुषाश्रयम् । देव्या कृतैरङ्गहारैललितैस्तत्प्रयोजयेत्" ।
(भावप्रकाशनम् , पृ० १९८) इत्यादिवचनवशादङ्गहारास्तत्र प्रयोक्तव्या इत्यर्थः । सम्यक्प्रयोगेदृष्टं फलं तावदीतश्रवणेन नृतदर्शनेन च जनित आनन्दः । अदृष्टं फलं तु देवताप्रीतिजनकत्वेनापूर्वसाध्यं लोकान्तरसुखम् ; तदुभयमप्यतैः सिध्यतीत्युक्तम् -दृष्टादृष्टफलानपीति ।
तथाचोक्तम् --- "एवं यः पूर्वरङ्गं तु विधिना संप्रयोजयेत् । नाशुभं प्राप्नुयादत्र पश्चात्स्वर्ग स गच्छति" इति ॥
(भावप्रकाशनम् , पृ० १९९) अङ्गानामिति । करचरणादीनाम् । उचिते देश इति । पूर्वोक्तेषु पार्थादि. त्रयोदशसु पाणिक्षेत्रादिषु यत्रोचितो देशस्तस्मिन्निति । तथा पादयोर्यस्यां चार्यो य उचितो देशस्तस्मिन्निति । एवं शिरःप्रभृतीनामप्युचितो देशो द्रष्टव्यः । तत्र हरणं हारो देशान्तरात्प्रापणमित्यर्थः । एतावत्येवाङ्ग. हारलक्षणेऽभिहिते लौकिकाङ्गक्रियाणामप्यङ्गहारत्वं प्रसज्येत । तद्वयवच्छेदार्थ सविलासकमित्युक्तम् । तथापि नृतकरणेप्वतिव्याप्तिर्भवतीति तत्परिहाराय मातृकोत्करसंपाद्यमित्युक्तम् । मातृका नाम करणद्वयनिप्पाद्या क्रिया। तथा वक्ष्यति-"करणाभ्यां मातृका स्यात्" इति । तासामुत्करः समूहः । तेन संपाद्यः । एवं विशिष्टमङ्गानां हरणमङ्गहार इति सनिरुक्तिकं लक्षणम् । निरुक्त्यन्तरं दर्शयति-यद्वेति । हरस्यायं हार इति प्रयोगविशेषणम् । सोऽपि प्रयोगोऽनिवर्तित इत्यारोऽहार इत्यर्थः ॥ -७८९-७९१ ॥
(सु०) एवं करणान्युक्त्वा , करणसंदर्भरूपान् अङ्गहारान् नाम्ना लक्षणेन च कथयति-पूर्वरङ्ग इति । पूर्वरने प्रयोक्तव्या दृष्टफला अङ्गहार
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सप्तमो नर्तनाध्यायः करणाभ्यां मातृका स्यात्कलापः करणैत्रिभिः । चतुर्भिः खण्डको ज्ञेयः संघातः पञ्चभिर्मतः ।। ७९२ ॥ इति संघविशेषेण संज्ञाभेदान् परे जगुः । करणन्यूनताधिक्यं तेपां मेने मुनिः स्वयम् ॥ ७९३ ॥ द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वेत्येतद्वाशब्दसूचितम् ।
इति कथ्यन्ते । तेषां निरुक्तिद्वारा सामान्यलक्षणमाह-अङ्गानामिति । अङ्गानाम् ; शिर आदीनाम् , हार उचिते देशे सविलासं प्रापणम् ; मातृफोत्करसंपाद्यम् ; मातृकापूर्वो शिर आद्यङ्गप्रत्यङ्गपात्रसमुदायः, तस्य उत्करः समूहः, तेन संपाद्यो विधेय अङ्गहार उच्यते । अन्यथा निर्वक्ति-यद्वेति । अझैः कृत: हरस्य ईश्वस्य संबन्धी यो अङ्गहार इति ॥ -७८९-७९१ ॥
(क०) 'मातृकोत्करसंपाद्यम्', इत्यङ्गहारलक्षणे प्रसक्ताया मातृकाया लक्षणप्रसङ्गात्करणसंघातविशेषाणां संज्ञा दर्शयति-करणाभ्यामित्यादि । करणाभ्यामवयवभूताभ्याम् । मातृकेत्यवयविसंज्ञा वेदितव्या । तथा त्रिभिः करणैः अवयवैः कलापो नामावयवी, चतुभिः करणैः खण्डकं नाम रागावयवी, पञ्चभिः करणैः संघात इति । करणन्यूनताधिक्यमिति । अङ्गहारेषु करणानां न्यूनता चाधिक्यं च । कचिदुक्तेपु न्यूनता, कचिदुक्तेभ्य आधिक्य मिति । तेषामहाराणां तत्कुतोऽवगन्तव्यमित्याकाङ्क्षायामाह-वाशब्दमूचितमिति । द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिरिति मातृकाविशेषणम् ॥ ७९२-७९३- ।।
___ (सु०) तस्य भेदानाह-करणाभ्यामिति । करणद्वयेन कृत अङ्गहारो मातृका; करणत्रयेण कलापः; करणचतुष्टयेन खण्डकः ; करणपञ्चकेन संघात इति करणविशेषाणां संज्ञाविविशेषान् आचार्या आहुः । भरतमुनिस्तु तेषां मातृकादीनां भेदानां करणेषु न्यूनत्वमाधिक्यत्वं च मेने । ननु कुत्र भरतेनैवमुक्तम् ? तत्राह-द्वाभ्यामिति । "द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा (नाट्य
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संगीतरत्नाकरः स्थिरहस्तोऽथ पर्यस्तः सूचीविद्धोऽपराजितः ।। ७९४ ।। वैशाखरेचितः पार्थस्वस्तिको भ्रमरोऽपरः । आक्षिप्तकः परिच्छिन्नो मदाद्विलसितस्ततः ।। ७९५ ।। आलीढाच्छुरितौ पार्थच्छेदसंज्ञोऽपसर्पितः । मत्ताक्रीडस्तथा विद्युभ्रान्तोऽमी षोडशोदिताः ॥ ७९६ ।। चतुरश्रेण मानेनाङ्गहारा मुनिसंमताः। विष्कम्भापमृतो मत्तस्खलितो गतिमण्डलः ॥ ७९७ ॥ अपविद्धश्च विष्कम्भोट्टिताक्षिप्तरेचिताः । रेचितोऽर्धनिकुट्टश्च वृश्चिकापमृतस्ततः ॥ ७९८ ।। अलातकः परावृत्ताः परिवृत्तादिरेचितः । उत्तकश्च संभ्रान्तसंज्ञः स्वस्तिकरेचितः ।। ७९९ ॥ षोडशेति व्यश्रमाना द्वात्रिंशदुभये मताः । करणवातसंदर्भानन्त्यात्तेपामनन्तता ॥ ८०० ॥ द्वात्रिंशत्ते तथाप्युक्ताः प्राधान्यविनियोगतः ।
शास्त्रम् , ४-३१)" इत्यस्मिन् श्लोके “वाशब्देन नियमः सूचितः" इति व्याख्यातमभिनवगुप्तादिभिः ॥ ७९२, ७९३- ॥
(क०) अथाङ्गहारानुद्दिशति-स्थिरहस्त इत्यादि पदाद्विलसित इति । मदविलसित इत्यर्थः । चतुरश्रेण मानेनेति । चतुरश्रश्वञ्चत्पुटः, तस्य मानं प्रमाणं समसंख्याकलात्मकं चतुरश्रमित्युच्यते । तेनेत्यर्थः । अतः स्थिरहस्तादीनां षोडशानामेकैकगुरुकलाप्रयोज्यत्वेन वक्ष्यमाणानां करणानां समसंख्यया चतुरश्रत्वमवगन्तव्यम् । ननु सूचीविद्धादिकेपु केषुचिदाहारेषु करणन्यूनताधिक्यस्य दृष्टत्वात्कथं करणानां समसंख्यात्वं कथं च
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सप्तमो नर्तनाध्यायः एकैकं करणं कार्य कलया गुरुरूपया ।। ८०१॥ सर्वेषामङ्गहाराणामित्याह करणाग्रणीः।
तेषामङ्गहाराणां चतुरश्रत्वमिति चेत् , उच्यते-तत्र करणस्थाने रेचकैः पूरणः कर्तव्यमिति संप्रदायो वेदितव्यः। अत एव ग्रन्थकारणापि''अङ्गहारा: सरेचकाः' इत्युदिशता रेचकानामङ्गहाराङ्गत्वं सूचितम् । तथा गतिमण्डलादिषु व्यश्राङ्गहारेषु रेचकैः करणानां विषमसंख्या संपादनीयेत्यवगन्तव्यम् ।। ७९४-८००- ॥ __(सु०) अङ्गहारान् विभजते-स्थिरहस्त इत्यादिना। स्थिरहस्तः, पर्यस्तकः, सूचीविद्धः, अपराजितः, वैशाखरेचितः, पार्श्वस्वस्तिकः, भ्रमरकः, आक्षिप्तः, परिच्छिन्नः, मदविलसितः, आलीटः, छुरितकः, पार्श्वच्छेदः, अपसर्पितः, मत्ताक्रीडः, विद्युभ्रान्त इति चतुरश्रमानेन षोडशाङ्गहाराः; विष्कम्भापसृतः, मत्तस्खलितः; गतिमण्डलः, अपविद्धः, विष्कम्भः, उद्घ हितः, आक्षिप्तरेचितः, रेचितः, अर्धनिकुट्टः, वृश्चिकापसृतः, अलातः, परावृत्तः, परिवृत्तरेचितः, उवृत्तः, संभ्रान्तः, स्वस्तिकरेचित इति त्र्यश्रमानेन षोडशाङ्गहाराः; सर्वे मिलिता द्वात्रिंशदङ्गहारा भवन्ति । करणसमूहानां रचनाविशेषाणामङ्गहारा अनेकविधाः, तथापि मुख्यत्वेन द्वात्रिंशदुक्ताः ॥ ॥ ७९४-८००. ॥
(क०) अङ्गहाराङ्गाणां करणानां प्रयोगे कालप्रमाणमाह-एकैकं करणं कार्य कलया गुरुरूपयेति । कलाशब्दस्य लघुपर्यायत्वेन प्रसिद्वत्वादत्र गुरुरूपयेति विशेषणम् ।। ८०१-८०१ ॥
(सु०) करणानां प्रयोगे कालप्रमाणमाह-एकैकमिति । सर्वेष्वङ्गहारेषु एकैकं करणं च गुरुरूपया कलया कार्यम् ॥ -८०१-८९१- ॥
प्रबन्धकारेणापि.
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२५८
संगीतरत्नाकरः लीनं समनखं कृत्वा व्यंसितं चात्र विच्युतौ ॥ ८०२ ॥ करौ कृत्वोज्झितालीढः प्रत्यालीढं व्रजेत्ततः । निकुट्टकोरूद्वत्ताख्यस्वस्तिकाक्षिप्तकान्यथ ।। ८०३ ॥ नितम्ब करिहस्तं च कटीच्छिन्नमिति क्रमात् । करणैः स्थिरहस्तः स्यादशभिः शिववल्लभः ।। ८०४ ॥ अङ्गहारेषु सर्वेषु प्रत्यालीढान्तमादितः । प्रयोक्तव्यमिति प्राहुः केचिन्नाव्यविशारदाः ।। ८०५ ॥
इति स्थिरहस्तः (१) तलपुष्पपुटं पूर्वमपविद्धं च वर्तितम् । निकुट्टकोरूवृत्ताख्याक्षिप्तोरोमण्डलान्यथ ।। ८०६ ॥ नितम्ब करिहस्तं च कटीछिन्नमिति क्रमात् । दशभिः करणैरेभिः प्रोक्त पर्यस्तको बुधैः ।। ८०७ ।।
___ इति पर्यस्तकः (२) (क०) अङ्गहाराणां विशेषलक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ॥ ॥ ८०२-८९१ ॥ .
(मु०) स्थिरहस्तस्य लक्षगमाह-लीनमिति । लीनं, समनखं, व्यंसितं च कृत्वा हस्तौ विच्युतौ कुर्यात् । आलीढं स्थानकं कृत्वा, प्रत्यालीढं व्रजेत् । ततः निकुट्टकम् , ऊरूवृत्तम् , स्वस्तिकम् , आक्षिप्तकम , नितम्बम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति क्रमात् दशभिः करणैर्युक: स्थिरहस्ताख्योऽङ्गहारः। केचित् आचार्याः सर्वेषु अङ्गहारेषु आदित: प्रत्यालीढान्तं प्रयोक्तव्यमित्याहुः ॥ -८०२-८०५ ॥
इति स्थिरहस्तः (१) (सु०) पर्यस्तकं लक्षयति-तलपुष्पपुटमिति । तलपुष्पपुटम् , अप
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२५९
सप्तमो नर्तनाध्यायः अर्धसूच्यथ विक्षिप्तमावर्तं च निकुट्टकम् । ऊरूवृत्तमथाक्षिप्तमुरोमण्डलसंज्ञकम् ।। ८०८॥ फरिहस्तं कटीछिन्नं नवभिः करणैरिति । सूचीविद्धाभिधः प्रोक्तोऽङ्गहारो भरतादिभिः ।। ८०९ ॥
__ इति सूचीविद्ध: (३) दण्डपादं व्यंसितं च प्रसर्पितकसंज्ञकम् । निकुटा निकुट्टे चाक्षितोरोमण्डले ततः ॥ ८१० ॥ करिहस्तं कटीछिन्नमिति लक्ष्मापराजिते । नवभिः करणैर्युक्तमुक्तं निःशङ्कसूरिणा ॥ ८११॥
इत्यपराजितः (४) विद्धम , वर्तितम् , निकुट्टकम , ऊरूवृत्तम् , आक्षिप्तम् , उरोमण्डलम् , नितम्बम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति करणदशकैयुक्तं पर्यस्तकाख्योऽङ्गहारः ॥ ८०६, ८०७ ॥
इति पर्यस्तकः (२) (सु०) सूचीविद्धं लक्षयति-अर्धसूचीति । अर्धसूचि, विक्षितम् , आवर्तम् , निकुट्टकम् , ऊरूवृत्तम् , आक्षिप्तम् , उरोमण्डलम् , करिहस्तम्, कटीच्छिन्नमिति क्रमेण नवभिः करणैर्युक्तः सूचीविद्धो भवति ॥ ८०८,८०९॥
___सूचीविद्ध: (३) (सु०) अपराजितं लक्षयति-दण्डपादमिति । यत्र दण्डपादम् , व्यंसितम् , प्रसर्पितम् , निकुट्टकम् , अर्धनिकुट्टकम् , आक्षिप्तम् , उरोपण्डलम् , करिहस्तम्, कटीच्छिन्नमिति क्रमेण नवभिः करणैर्युक्त: अपराजिताख्योऽङ्गहारो भवति ॥ ८१०, ८११ ॥
अपराजित: (४)
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२६०
संगीतरत्नाकरः
वैशाखरेचितं द्वाभ्यामनाभ्यामय नूपुरम् । भुजङ्गत्रासितोन्मत्तमण्डलस्वस्तिकान्यथ ।। ८१२ ॥ निकुट्टकोरूद्वृत्ताख्याक्षिप्तोरोमण्डलानि च । करिहस्तं कटीछिन्नमित्येकादशभिः क्रमात् ॥ ८१३ ।। करणैरङ्गहारः स्यानाम्ना वैशाखरेचितः ।
इति वैशाखरेचितः (५) दिक्स्वस्तिकं ततश्चाङ्गेनैकेनार्धनिकुट्टकम् ॥ ८१४ ॥ पुनर्दिक्स्वस्तिकमथान्याङ्गेनार्धनिकुट्टकम् । अपविदोख्दवृत्ताख्ये तथाक्षिप्तं नितम्बकम् ।। ८९५ ॥ फरिहस्तं कटीछिन्नमष्टभिः करणैरिति । स्यात्पार्धस्वस्तिकोऽभ्यासात्त्वाद्ययोर्दशभिर्भवेत् ॥ ८१६ ॥
इति पार्श्वस्वस्तिकः (६) (सु०) वैशाखरेचितं लक्षयति-वैशाखेति । यत्र अङ्गद्वयेन वैशाखरेचितम् , ततो नूपुरम् , भुजङ्गत्रासितम् , उन्मत्तम , मण्डलस्वस्तिकम् , निकुट्टकम् , ऊरूवृत्तम् , आक्षिप्तम् , उरोमण्डलम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमित्येकादशभिः करणैर्युक्तो वैशाखरेचिताख्योऽङ्गहारो भवति ॥ ८१२, ८१३- ॥
वैशाखरेचित: (५) (सु०) पार्श्वस्वस्तिकं लक्षयति-दिक्स्वस्तिकमिति । यत्र दिवस्वस्तिकम् , तत एकेनाङ्गेन कृतमर्धनिकुट्टकम् , पुनः दिक्स्वस्तिकम्, ततोऽन्याड्रेन कृतमर्धनिकुट्टकम् , अपविद्धम् , ऊरूवृत्तम् , आक्षिप्तम् , नितम्बकम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमित्यष्टभिः, आद्ययोरभ्यासेन दशत्वं गतः करणैरुपलक्षितः पार्श्वस्वस्तिकाख्योऽङ्गहारो भवति ॥ -८१४-८१६ ॥
पास्वस्तिकः (6)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः नूपुराक्षिप्तकच्छिन्नसूचीन्यथ नितम्बकम् । करिहस्तं च करणमुरोमण्डलकं ततः ॥ ८१७ ॥ फटीछिममिति प्रोक्तः करणैर्भमरोऽष्टभिः ।
__ इति भ्रमरः (७) कृत्या नूपुरविक्षिप्तालातान्याक्षिप्तकं ततः ।। ८१८ ॥ उरोमण्डलसंज्ञं च नितम्ब करिहस्तकम् । कटीछिन्नं च करणैरेभिराक्षिप्तकोऽष्टभिः ॥ ८१९ ॥ विक्षिप्तालातकाक्षिप्तप्रयोगं द्विः परे जगुः ।
इस्याक्षिप्तकः (८) कृत्वा समनखं छिन्नं संभ्रान्तमय वामतः ॥ ८२० ॥ भ्रमरं वामपार्धिसूच्यविक्रान्तसंज्ञकम् ।
(सु०) भ्रमरं लक्षयति-नूपुरेति । यत्र नपुरम् , आक्षिप्तम् , छिन्नम् , सूचि, नितम्बम् , करिहस्तम् , उरोमण्डलम् , कटीच्छिन्नमित्यष्टभिः करणैः क्रमादुपलक्षितो भ्रमरो भवति ॥ ८१७, ८१७-॥
इति भ्रमर: (७) (सु०) आक्षिप्तकं लक्षयति-कृत्वेति । यत्र नपुरम् , विक्षिप्तम् , अलातम् , आक्षिप्तम् , सत उरोमण्डलम् , नितम्बम् , करिहस्तकम् , कटीच्छिन्नमिति करणाष्टकं क्रमेण वर्तते, स आक्षिप्तकः । अत्र विक्षिप्तमलातमाक्षिप्तं च करणं द्विःप्रयोज्यमिति केचिदाहुः ॥ -८१८, ८१९-॥
इत्याक्षिप्तकः (6) (सु०) परिच्छिन्नं लक्षयति-कृत्वेति । यत्र प्रथमतः समनखम् , ततः छिन्नम् , संभ्रान्तम् , वामतो भ्रमरम्, वामतैवार्धसूचि, अतिक्रान्तम् ,
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२६२
संगीतरत्नाकरः भुजङ्गवासितादूर्ध्व करिहस्तं विधीयते ॥ ८२१ ॥ फटीछिन्नं परिच्छिन्नो नवभिः करणैरिति ।
इति परिच्छिन्नः (१) मदस्खलितमत्तल्लितलसंस्फोटितानि च ॥ ८२२ ॥ बहुशश्चित्रगुम्फानि निकुट्टकमतः परम् । ऊरूवृत्तं च करणं करिहस्तसमाहृयम् ।। ८२३ ॥ कटीछिन्नं च सप्तेति मदाद्विलसिते जगुः । करणानि त्रयाणां तु त्रिरभ्यासात्त्रयोदश ॥ ८२४ ॥ अभ्यासांस्त्रिषु वाञ्छन्ति चतुष्पश्चादिकानपि ।
इति मदविलसित: (१०) व्यंसितं सनिकुटुं स्यान्नूपुरं वामतोऽधितः ॥ ८२५ ॥
अन्यतोऽलातकाक्षिते उरोमण्डलकं ततः । भुजङ्गत्रासितम्, करिहस्तम्, कटीच्छिन्नं च क्रमात् कल्प्यते, स नवभिः करणैर्युक्तः परिच्छिनख्योऽाङ्गहारो भवति ॥ -८२०, ८२१- ॥
इति परिच्छिन्नः (९) (सु०) मदविलसितं लक्षयति-यत्र मदस्खलितमत्तल्लिनलसंस्फोटितानि बहुशः चित्रगुम्फानि क्रियन्ते ; ततः निकुट्टकम् , ऊरूवृत्तम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नं च क्रियते, स मदविलसित: । अत्राद्यस्य करणत्रयस्य त्रिरावृत्या सप्तापि करणानि त्रयोदश भवन्ति ॥ -८२२-८२४-॥
इति मदविलसितः (10) (सु०) आलीढं लक्षयति-व्यंसितमिति । यत्र व्यंसितम् , निकुट्टकम् , वामाधिकृतं नूपुरम् , दक्षिगाधिकृते अलातकाक्षित, उरोमण्डलम् , करि
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
२६३ । करिहस्तं कटीछिन्नमित्येभिः करणैः क्रमात् ॥ ८२६ ॥ भवेदष्टभिरालीढोऽङ्गहारो मुनिसंमतः ।
इत्यालीढ: (११) नपुरं भ्रमरं चाथ व्यंसितालातके ततः ।। ८२७ ॥ नितम्बं सूचिसंज्ञं च करिहस्तमतः परम् । कटीछिन्नं च करणान्यष्टेत्याच्छरिते विदुः ।। २९८ ॥
इत्याच्छुरितः (१२) वृश्चिकाद्यं कुट्टितं स्यादुर्घजानु ततः परम् । आक्षिप्तस्वस्तिकं कृत्वा त्रिकस्य परिवर्तनम् ॥ ८२९ ।। उरोमण्डलसंज्ञं च नितम्बं करिहस्तकम् । कटीछिन्नं च करणं पार्थच्छेदेऽष्टमं मतम् ॥ ८३० ॥
इति पार्श्वच्छेदः (१३) हस्तम् , कटीच्छिन्नं च क्रमात् कल्प्यते, स करणाष्टकवान् आलीढः ॥ ॥ -८२५, ८२६- ॥
इत्यालीढः (११) (सु०) आच्छुरितं लक्षयति-नूपुरमिति । नपुरम् , भ्रमरम् , व्यंसि. तम्, अलातम् , नितम्बम , सूचि, करिहस्तम् , कटिच्छिन्नमिति करणाष्टकं यत्र क्रमेण भवति । स आच्छुरित: ॥ -८२७, ८२८ ॥
इत्याछुरितक: (१२) (सु०) पार्श्वछेदं लक्षयति-वृश्चिकाद्यमिति । वृश्चिककुट्टितम , ऊर्ध्वजानु, आक्षिप्तम् , स्वस्तिकम , त्रिकपरिवर्तनोत्तरमुरोमण्डलम् , नितम्बम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति करणाष्टकं यत्र क्रमाद् भवति, स पार्श्वच्छेदः ।। ॥ ८२९, ८३०॥
इति पार्श्वच्छेदः (१३)
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२६४
संगीतरनाकरः अपक्रान्तं व्यंसितस्य केवलं करयोः क्रिया। करिहस्तं चार्धसूचि विक्षिप्ताख्यं कटीयुतम् ॥ ८३१॥ छिनमूरूवृत्तसंज्ञमाक्षिप्तं करिहस्तकम् । कटीछिन्नं च सप्लेति करणान्यपसर्पिते ॥ ८३२ ॥ सार्थानि द्विः कटीछिन्नकरिहस्तकृतेर्नव ।
इस्यपसर्पितः (१४) भ्रमरं नूपुराख्यं च भुजङ्गात्रासिताभिधम् ।। ८३३॥ दक्षिणाङ्गेनैव कृत्वा कुर्यादशौखरेचितम् । आक्षिप्तच्छिन्नकरणे भ्रमरव्यंसिते ततः ॥ ८३४ ।। उरोमण्डलसंज्ञं च नितम्ब करिहस्तकम् । फटीछिन्नं च करणैरेभिर्वादशभिः क्रमात् ।। ८३५ ॥ एकादशभिरभ्यासाद्गणना भ्रमरस्य तु । मत्ताक्रीडाभिधानः स्यादङ्गहारो हरप्रियः ।। ८३६ ।।
इति मत्ताकोड: (१५)
(सु०) अपसर्पितं लक्षयति-अपक्रान्तमिति । अपक्रान्तम , व्यंसितस्य हस्तक्रियामात्रम् , करिहस्तम् , अर्धसूचि, विक्षिप्तम् , कटिच्छिन्नम्, ऊरूवृत्तम् , आक्षिप्तम् , करिहस्तकम् , कटीच्छिन्नमिति करणसप्तकं यत्र क्रमाद् भवति ; सोऽपसर्पित: ॥ ८३१, ८३२- ॥
इत्यपसर्पितः (१४)
(सु०) मत्ताक्रीडितं लक्षयति-भ्रमरमिति । यत्र भ्रमरम् , नूपुरम् , भुजङ्गत्रासितं च दक्षिणानेन कृत्वा, ततो वैशाखरेचितम् , आक्षिप्तच्छिन्नम् , भ्रमरं च वामाझेन कृत्वा, तत उरोमण्डलम्, नितम्बम् , करिहस्तम् ,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वामाङ्गेनार्धसूचि स्याद्विद्युभ्रान्तं तु दक्षिणे । पुनरङ्गविपर्यासाद् द्वयं छिन्नमतः परम् ।। ८३७ ।। अतिक्रान्तं वामतोऽथ लतावृश्चिकमाचरेत् । कटीछिन्नं च षडिति द्वयोरभ्यासतः पुनः॥ ८३८ ॥ फरणान्यष्टसंख्यानि विद्युभ्रान्ते विदुर्बुधाः ।
___इति विद्युद्धान्त: (१६)
इति चतुरश्रमानेन षोडशाङ्गहाराः । निकुट्टकाख्यं करणं विधायाधुनिकुटकम् ॥ ८३९ ।। भुजङ्गत्रासितादूर्ध्व भुजङ्गगत्रस्तरेचितम् । आक्षिप्तोरोमण्डले च क्रमात्कृत्वा लताफरम् ॥ ८४० ॥ फटीछिन्नं सप्तमं तु विष्कम्भापमृते भवेत् ।
इति विष्कम्भापमृत: (१) कटीच्छिन्नमिति करणदशकं यत्र क्रमेण भवति ; स मत्ताक्रीडः । अत्र भ्रमराभ्यां गणने एकादशकरणानि भवन्ति ॥ -८३३-८३६ ॥
इति मत्ताकोड: (१५) (मु०) विद्युभ्रान्त लक्षयति-वामानेनेति । यत्र वामाझेन अर्धसूचि, दक्षिणाधिणा विद्युभ्रान्तम्, पुनरपि अङ्गव्यत्यासेन तवयम् , ततः छिन्नम् , अतिक्रान्तं च, वामाङ्गेन लतावृश्चिकम् , कटीच्छिन्नं च क्रियते ; स विद्युभ्रान्तः ॥ ८३७, ८३८- ॥
इति विद्युद्धान्तः (१६)
इति चतुरश्रमानेन षोडशाङ्गहाराः । (सु०) अथ त्र्यश्रमानेन षोडशाङ्गहारान् लक्षयति-निफुट्टकाख्यमिति । यत्र निकुटम् , अर्धनिकुट्टम् , भुजङ्गत्रस्तरेचितम् , आक्षिप्तम , उरोमण्डलम् ,
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संगीतरनाकरः मत्तल्लिगण्डसूच्याख्ये लीनमप्यपविद्धकम् ॥ ८४१ ॥ तद्रुतत्वेन कर्तव्यं तलसंस्फोटितं ततः । करिहस्तं कटीछिन्नं करणानि क्रमादिति ॥ ८४२ ॥ सप्ताङ्गहारे प्रोक्तानि मत्तस्खलितसंज्ञके ।
___ इति मत्तस्खलितः (२) मण्डलस्वस्तिकादूर्ध्व निवेशोन्मत्तसंज्ञके ॥ ८४३ ।। उद्घट्टिताख्यं मत्तल्लि स्यादाक्षिप्तमतः परम् । उरोमण्डलकं छिन्नं कव्यादि गतिमण्डले ॥ ८४४ ॥ इत्यष्टौ फरणानि स्युरिति निःशङ्कभाषितम् ।
इति गतिमण्डल: (३) अपविद्धं प्रथमतः सूचीविद्धमथो करौ ॥ ८४५ ॥ लतावृश्चिकम् , कटीच्छिन्नमिति करणसप्तकं क्रमाद्भवति ; स विष्कम्भापमृताख्योऽमहारः ॥ -८३९, ८४०-॥
इति विष्कम्भापमृत: (१) (सु०) मत्तस्खलिसं लक्षयति-मत्तल्लीति । यत्र मत्तल्लि, गण्डसूचि, लीनम् , अपविद्धमेतत्रितयं द्रुतम् , ततः तलसंस्फोटितम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति करणाष्टकं क्रमेण भवति, स मत्तस्खलितः ।। -८४१,८४२-॥
इति मत्तस्खलितः (२) (सु०) गतिमण्डलं लक्षयति-मण्डलेति । मण्डलस्वस्तिकम् , निवेशम् , उन्नतम् , उद्घट्टितम् , मत्तलि, आक्षिप्तम् , उरोमण्डलम् , कटीच्छिन्नमिति करणाष्टकं यत्र क्रमेण भवति ; स गतिमण्डलः ॥ -८४३, ८४४- ।।
इति गतिमण्डल: (३) (सु०) अपविद्धं लक्षयति-- यत्र प्रथममपविद्धम् , तत: सूचीविद्धम् , ततः
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सप्तमो नर्तनाध्यायः उद्वेष्टिते समं चार्या बद्धया वलयेत्त्रिकम् । ऊरूवृत्तं च करणमुरोमण्डलकं ततः ॥ ८४६ ॥ कटीछिन्नं पञ्चमं चेदपविद्धस्तदा भवेत् ।
___इत्यपविद्धः (1) निकुट्टकाख्यं करणं स्यानिकुञ्चितमश्चितम् ॥ ८४७ ।। उरूवृत्तं ततोऽप्यनिकुट्टकरणं ततः। भुजङ्गत्रासितं हस्तोद्वेष्टने भ्रमरं ततः ॥ ८४८ ॥ करिहस्तं कटीछिन्नं विष्कम्भे नवमं भवेत् ।
इति विष्कम्भः (५) उद्घट्टिते निकुटाख्यमुरोमण्डलकं ततः ॥ ८४९ ॥ नितम्बं करिहस्तं स्यात्कटीछिन्नं च पश्चमम् ।
___इत्युद्घट्टितः (६) करे उद्वेष्टिते, ततः बद्धाख्यया चार्या त्रिकवलनम् , तत ऊरूवृत्तम् , उरोमण्डलम् , कटीच्छिन्नं च कमात् क्रियते ; सोऽपविद्धः ॥ -८४५, ८४६-॥
इत्यपविद्धः (४) (सु०) विष्कम्भं लक्षयति-निकुटकेति । यत्र निकुट्टम, कुचितम् , अञ्चितम् , उरूवृत्तम्, अर्धनिकुट्टम् , भुजङ्गत्रासितम् , करोद्वेष्टनेन भ्रमरम् , करिहस्तम् कटीच्छिन्नमिति करणनवकं विष्कम्भं भवति ॥ -८४७, ८४८-॥
इति विष्कम्भः (५) (सु०) उद्घट्टितं लक्षयति-उद्घट्टित इति । निकुट्टम् , उरोमण्डलम्, नितम्बम् , करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति करणपञ्चकम् उद्घट्टितो भवति ॥ ॥-८४९,८४९-॥
इत्युद्घट्टितः (६)
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२६८
संगीतरत्नाकरः स्वस्तिकाद्यं रचितं स्यात्पृष्ठस्वस्तिकसंज्ञकम् ॥ ८५० ॥ दिक्स्वस्तिकं कटीछिन्नं समं घूर्णितनामकम् । भ्रमरं वृश्चिकाद्यं च रेचितं पार्थपूर्वकम् ।। ८५१ ॥ निकुट्टकमुरःपूर्व मण्डलं संनतं ततः। सिंहाकर्षितकं नागापसर्पितसमाह्वयम् ॥ ८५२ ॥ अथ वक्षःस्वस्तिकं तु केचिदिच्छन्ति सूरयः। दण्डपक्षं च करणं ललाटतिलकाह्वयम् ।। ८५३ ॥ वृश्चिकं तु लताद्यं च भवेदथ निशुम्भितम् । विद्युभ्रान्ताभिधादूर्ध्व गजविक्रीडितं ततः ॥ ८५४ ।। नितम्बविष्णुक्रान्ताख्योरूवृत्ताक्षिप्तकानि च । उरोमण्डलसंज्ञं च नितम्ब करिहस्तकम् ।। ८५५ ।। वैकल्पिकं कीछिन्नमिच्छन्त्याक्षिप्तरेचिते । पञ्चविंशतिसंख्यानि करणानि पुरातनाः ॥ ८५६ ।। नितम्बोरोमण्डलयोस्त्वावृत्त्या सप्तविंशतिः । ये वक्षःस्वस्तिकं नात्र कटीछिन्नं च मन्यते ॥ ८५७ ॥ पञ्चविंशतिरेव स्यादासत्तावपि तन्मते ।
इत्याप्तरेचितः (७)
(सु०) आक्षिप्तरेचितं लक्षयति-स्वस्तिकाद्यमिति । यत्र स्वस्तिकरेचितम् , पृष्ठस्वस्तिकम् , दिक्स्वस्तिकम् , कटीसमम् , पूर्णितम् , भ्रमरम् , वृश्चिकरेचितम्, पार्श्वनिकुट्टकम् , उरोमण्डलम् , संनतम् , सिंहाकर्षितम् , नागापसर्पितम् , वक्षःस्वस्तिकम् , दण्डपक्षम् , ललाटतिलकम् , लतावृश्चिकम् , विद्युभ्रान्तम् , गजविक्रीडितम्, नितम्बम् , विष्णुकान्तम्, ऊरूवृत्तम्,
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सप्तमो नर्तनाध्याय:
२६९ स्वस्तिकाद्यं रेचितं स्यादर्धरेचितकं ततः ॥ ८५८ ॥ वक्षःस्वस्तिकमुन्मत्तसंज्ञमाक्षिप्तरेचितम् । अर्धमत्तल्लिकरणं स्याद्रेचकनिकुट्टकम् ।। ८५९ ॥ भुजङ्गत्रस्तपूर्व च रेचितं नूपुरं सतः। वैशाखरेचितं कृत्वा भुजङ्गाञ्चितमाचरेत् ॥ ८६० ॥ दण्डरेचितकं चक्रमण्डलं वृश्चिकादिमम् । रेचितं वृश्चिकादूर्ध्व वित्तविनिवृत्तके ।। ८६१ ॥ विवर्तितं च गरुडप्लुतकं ललितं भवेत् । मयूराचं सर्पितं च स्खलिताख्यं प्रसर्पितम् ॥ ८६२ ।। तलसंघट्टितमथो वृषभक्रीडितं ततः । लोलितं षड्विंशतिर्या करणानामितीरिता ॥ ८६३ ॥ तां कृत्वा विषमैर्भागेश्चतुर्धा दिक्चतुष्टये । परिवृत्तिप्रकारेण प्रयुज्यान्ते समाचरेत् ।। ८६४ ॥ उरोमण्डलकं यत्र कटीछिन्नं सरेचितः।
इति रेचितः (6) आक्षिप्तम् , उरोमण्डलम् , नितम्बम् , कटीच्छिन्नमिति पञ्चविंशतिकरणानि यत्र सन्ति ; तदाक्षिप्तरेचित : ॥ -८९०-८५७- ॥
इत्याक्षिप्तरेचितः (७) (सु०) रेचितं लक्षयति-स्वस्तिकायमिति । स्वस्तिकरेचितम् , अर्धरेचितम्, वक्षःस्वस्तिकम् , उन्मत्तम् , आक्षिप्तरेचितम् , अर्धमत्तल्लि, रेचकनिकुट्टकम् , भुजङ्गत्रस्तरेचितम् , नपुरम्, वैशाखरेचितम्, भुजङ्गाञ्चितम् , दण्डरेचितम्, चक्रमण्डलम्, वृश्चिकरेचितम्, विवृत्तम्, निवृत्तम् , विवर्तितम् , गरुडप्लुतम् , ललितम् , मयूरललितम् , सर्पितम् , स्खलितम् ,
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संगीतरत्नाकरः नूपुराख्यं विवृत्तं च निकुटानिकुट्टके ॥ ८६५ ॥ अर्धरेचितकादूर्ध्व स्याद्रेचकनिकुट्टकम् । ललिताख्यं च वैशाखरेचितं चतुरं ततः ॥ ८६६ ।। दण्डरेचितकादूर्ध्व भवेवृश्चिककुट्टितम् । निकुट्टकं पार्चपूर्व संभ्रान्तोद्वट्टिते ततः ॥ ८६७ ॥ उरोमण्डलकादूर्ध्व करिहस्तसमाह्वयम् । कटीछिन्नं सप्तदश भवेदनिकुट्टके ॥ ८६८ ॥
इत्यर्धनिकुट्टकः (९) लतावृश्चिकमादौ स्यानिकुश्चितमतः परम् । मत्तल्लि च नितम्बाख्यं करणं करिहस्तकम् ॥ ८६९ ॥
कटीछिन्नं स्मृतं षष्ठं वृश्चिकापसृते बुधैः। प्रसर्पितम् , तलसंघट्टितम् वृषभक्रीडितम्, लोलितमिति षड़िशतिकरणानि विषमभागैः दिक्चतुष्टये चतुर्धा कृत्वा परिवृत्तिप्रकारेण उरोमण्डलं कटीच्छिन्नं च यत्र क्रियते ; स रेचित: ॥ -८५८-८६४-॥
इति रेचित: (७) - (सु०) अर्धनिकुट्टकं लक्षयति-नूपुराख्यमिति । नपुरम् , विवृत्तम् , निकुट्टम् , अर्धनिकुट्टम् , अधेरेचितम् , रेचकनिकुथम् , ललितम् , वैशाखरेचितम् , चतुरम् , दण्डरेचितम् , वृश्चिककुट्टितम् , निकुट्टकम् , पार्श्वसंभ्रान्तम् , उद्घट्टितम् , उरोमण्डलम्, करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति सप्तदश करणानि यत्र क्रमेण भवन्ति ; सोऽर्धनिकुट्टकः ॥ -८६५-८६८ ॥
इत्यर्धनिकुटक: (९) (सु०) वृश्चिकापसृतं लक्षयति-लतावृश्चिकमिति । लतावृश्चिकम् , निकुश्चितम् , मत्तल्लि, नितम्बम्, करिहस्तम् , कटीच्छिन्नमिति षट्करणानि
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अत्र स्थाने नितम्बस्य भ्रमरं केचिदूचिरे ॥ ८७० ॥
इति वृश्चिकापमत: (१०) त्वस्तिकं व्यंसितं द्विरलाताख्योर्ध्वजानुनी । निकुश्चितार्धसूच्याख्यविक्षिप्तोवृत्तकान्यथ ॥ ८७१ ॥ आक्षिप्तं करिहस्तं स्यात्कटीछिन्नमलातके । एकादश स्युः करणान्ये द्वियंसितेऽधिकम् ॥ ८७२ ॥
इत्यलातकः (११) दक्षिणाङ्गेन जनितं शकटास्यमलातकम् । भ्रमरं वाममङ्गं च निकुट्टितकरान्वितम् ॥ ८७३ ॥ करिहस्तं फटीछिन्नं करणानि क्रमादिति । परावृत्ते षडुक्तानि श्रीमत्सोढलसूनुना ॥ ८७४ ।। नमनोभमनं तज्ज्ञैरङ्गस्योक्तं निकुट्टकम् ।
इति परवृत्तः (१२)
यत्र सन्ति ; स वृश्चिकापसृतः । अत्र नितम्बस्थाने भ्रमरमपि केचिदिच्छन्ति ॥ ॥ ८६९, ८७० ॥
इति वृश्चिकापसृतः (१०) ___ (सु०) अलातकं लक्षयति-स्वस्तिकमिति । स्वस्तिकम् , व्यंसितम् , अलातम्, ऊर्ध्वजानु, निकुञ्चितम् , अर्धसूचि, विक्षिप्तम् , उत्तम् , आक्षिप्तम् , कटीच्छिन्नमित्येकादशकरणाश्रित अलातकः ॥ ८७१, ८७२ ॥
___ इत्यरालः (११) (सु०) परावृत्तं लक्षयति-दक्षिणेति । दक्षिणाङ्गेन जनितं कृत्वा, शकटास्यम् , अलातकम् , वामाङ्गकृतं भ्रमरम् , निकुट्टकयुतकरिहस्तम् , कटी
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२७२
संगीतरनाकरः नितम्ब करणं कृत्वा कुर्यात्स्वस्तिकरेचितम् ॥ ८७५ ॥ विक्षिप्ताक्षिप्तकमथो लतावृश्चिकसंज्ञकम् । उन्मत्तं करिहस्तं च भुजङ्गत्रासितं ततः॥ ८७६ ॥ आक्षिप्तकं नितम्बं च नितम्बान्तान्यमून्यथ । नव भ्रमरकाख्येण परिवृत्तं समाचरेत् ।। ८७७ ॥ दिगन्तरमुखे कृत्वा व्यावत्य परयोर्दिशोः । करिहस्तकटीछिन्ने कुर्यादाद्यदिशि स्थितः ।। ८७८ ॥ यत्र तं प्राहुराचार्याः परिवृत्तकरेचितम् । परिवृत्तविधिश्चायं त्यक्त्वान्त्यं करणद्वयम् ॥ ८७९ ।। सर्वेषामङ्गहाराणां शादेवेन सूरिणा । भट्टाभिनयगुप्तादिमतज्ञेन निगद्यते ॥ ८८० ॥
इति परिवृत्तकरेचितः (१३)
च्छिन्नमिति षट्करणानि क्रमेण यत्र भवति । स परावृत्तः । अङ्गस्य नमनोन्नमनमेव निकुट्टकमित्युच्यते ।। ८७३, ८७४- ।।
इति परावृत्तः (१२) (सु०) परिवृत्तकरेचितं लक्षयति-नितम्बमिति । नितम्बम् , स्वस्तिकरेचितम्, विक्षिप्ताक्षिप्तकम् , लतावृश्चिङ्गम्, उन्मत्तम् , करिहस्तम् , भुजङ्गात्रासितम् , आक्षिप्तकम् , नितम्बमेतानि नव भ्रमरीयुक्तां यदा कुर्यात् , दिगन्तराभिमुखः स्थित्वा, अन्यदिशोरावृत्त्या, आद्यदिशि करिहस्तं कटीच्छिन्नं च कुर्यात् ; तदा परिवृत्तरेचितम् । अत्र अन्त्यकरणद्वयं त्यक्त्वा अयं परिवृत्तविधिः सर्वेष्वङ्गहारेषु आवश्यक एवेति ॥ -८७५-८८० ॥
इति परिवृत्तकरेषितः (१३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
नूपुरात्करणादूर्ध्व भुजङ्गाश्चितमाचरेत् । गृधावलीनकं द्वे च विक्षिप्ते पृथगङ्गजे ।। ८८१ ॥ उद्वृत्तमध्येर सूच्याख्यं नितम्बमथ वृश्चिकम् । लतापूर्व कटीछिन्नं नवभिः करणैरिति ।। ८८२ ।। दत्तको द्विर्विक्षिप्तोदवृत्ताख्यमधिकं द्वयम् ।
इत्युद्वृत्तकः (१४)
विक्षिप्तमञ्चितं गण्डसूचीचि सर्वान्तिमं ततः ।। ८८३ ॥ अर्धसूचि ततो दण्डपादं वामाङ्गसाधितम् । चतुरं भ्रमरं चाथ नूपुराक्षिप्तनामके || ८८४ ।। अर्धस्वस्विकसंज्ञं च नितम्बं करिहस्तकम् । उरोमण्डलसंज्ञं च कटीछिन्नमिति क्रमात् ।। ८८५ ॥ करणैः पञ्चदशभिः संभ्रान्तमभणन्बुधाः । इति संभ्रान्त: (१५)
२७३
( सु० ) उद्वृत्तकं लक्षयति- नूपुरादिति । अत्र नूपुरम् भुजङ्गाचि - तम् गृध्रावलीनकम्, विक्षिप्तम्, उद्वृत्तम्, उद्घट्टितम्, नितम्बम्, लतावृश्चिकम्, कटीच्छिन्नमिति नवभिः करणैः उदवृत्तः कार्यः ॥८८१, ८८२ - ॥ इत्युद्वृत्तकः (१४)
(सु०) संभ्रान्तं लक्षयति--विक्षिप्तमिति । अत्र विक्षिप्तम्, अश्चितम् गण्डसूचि, गङ्गावतरणम्, अर्धसूचि, दण्डपादम्, चतुरम्, भ्रमरम्, नूपुरम्, आक्षिप्तम्, अर्धस्वस्तिकम्, नितम्बम्, करिहस्तम्, उरोमण्डलम्, कटीच्छिन्नमिति क्रमेण पञ्चदशभिः करणैः संभ्रान्तः कार्यः ॥ -८८३-८८५-॥ इति संभ्रान्त: (१५)
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संगीतरत्नाकरः वैशाखरेचितादूर्ध्व वृश्चिकं द्विरिदं द्वयम् ।। ८८६ ।। निकुट्टकाभिधादूर्ध्व क्रमावाप्तलताकरम् । कटीछिन्नं चतुर्थ चेत्तदा स्वस्तिकरेचितम् ।। ८८७ ॥ ज्ञेयमाद्यद्वयाभ्यासादधिकं करणद्वयम् ।
इति स्वस्तिकरेचित: (१६) ___ इति व्यश्रमानेन षोडशाङ्गहाराः । मृदङ्गोमुखैभम्भाभेरीपटइडिण्डिमैः ।। ८८८ ।। पणवैर्द१राद्यैश्च वाद्यैस्ताललयानुगैः । वर्धमानासारितेषु पाणिकागीतकादिषु ॥ ८८९ ।। पूर्वरङ्गस्य चाङ्गेषु धीरैरुत्थापनादिषु । अङ्गहाराः प्रयोक्तव्याः श्रेयः परमभीप्सुभिः ॥ ८९० ॥ विनियोगोऽङ्गहारेषु करणानामितीरितः । आहुः पृथक्मयोगेऽपि करणानां महत्फलम् ।। ८९१ ।।
इति द्वात्रिंशदङ्गहारलभणम । (सु०) स्वस्तिकरेचितं लक्षयति-वैशाग्वेति । वैशाखरेचितं वृश्चिकम् , वैशाखरेचितं वृश्चिकम् , निकुट्टकं लताकरयुक्तम् , कटीच्छिन्नं यत्र वर्तते ; स स्वस्तिकरेचितः ॥ -८८६, ८८७- ॥
____ इति स्वस्तिकरेचितः (१६)
इति त्र्यश्रमानेन षोडशाङ्गहागः । (क०) पूर्वरङ्गाङ्गेषु केषुचिद्यथोचितमङ्गहारा: सवाद्यं प्रयोक्तव्या इत्याह-मृदङ्गैरित्यादि ॥ -८८८-८९१ ॥
इति द्वात्रिंशदङ्गहारलक्षणम् ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः रेचकानथ वक्ष्यामश्चतुरो भरतोदितान् । पादयोः करयोः कट्या ग्रीवायाश्च भवन्ति ते ॥ ८९२ ॥ पायेगुष्ठाग्रयोरन्तर्बहिश्च सततं गतिः । नमनोन्नमनोपेता प्रोच्यते पादरेचकः ॥ ८९३ ॥ परितो भ्रमणं तूर्ण हस्तयोईसपक्षयोः । यत्पर्यायेण रचितं स भवेत्कररेचकः ॥ ८९४ ॥ विरलममृताङ्गुष्ठाङ्गुलेस्तिर्यग्भ्रमेण च । सर्वतो भ्रमणं कटयाः कटीरेचकमूचिरे ॥ ८९५ ॥ ग्रीवाया विधुतभ्रान्तिः कथ्यते कण्ठरेचकः । अङ्गहाराङ्गमप्येते जनयन्ति पृथक् फलम् ॥ ८९६ ॥
इति रेचकलक्षणम् । (सु०) पूर्वरङ्गाङ्गेश्वङ्गहाराणां प्रयोगनियममाह-मृदङ्गैरित्यादिना । ताललयानुसारिमृदङ्गगोमुखभम्भा भेरीपटहडिण्डिमपणवदर्दुरादिवाद्यैः, वर्धमानासारितेषु, पाणिकागीतिकादिषु पूर्वरङ्गाङ्गेषु, धीरैः उत्थापनादिषु च श्रेयोऽभिलाषिभिः अङ्गहाराः प्रयोक्तव्याः । प्रत्येकं करणप्रयोगेऽपि महाफलद एव ॥ -८८८-८९१ ॥
इति द्वात्रिंशदङ्गहारलक्षणम् । (क०) अङ्गहारोपयोगिनो रेचकान् लक्षयितुमाह-रेचकानथेत्यादि । तत्र पादरेचकं लक्षयति-पार्ण्यङ्गुष्ठाग्रयोरित्यादि । नमनोन्ममनोपेतान्तर्बहिश्च सततं गतिरिति । यदा पाण्योर्नमनोपेतान्तर्गतिस्तदा अङ्गुष्ठानस्य नमनोपेता अन्तर्गतिर्भवति। एवं यदा अङ्गुष्ठाग्रस्योन्नमनोपेता बहिर्गतिर्भवति, तदा पायोरुन्नमनोपेता बहिर्गतिर्भवतीति द्रष्टव्यम् । कररेचकं लक्षयति-परितो भ्रमणमित्यादि । हंसपक्षयोर्हस्तयोः
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संगीतरत्नाकर:
विचित्रमङ्घ्रिजङ्घोरुफटीकर्म समं कृतम् ।
चारी स्यात्करणे ङीष चरेरिञ्प्रत्ययान्ततः ।। ८९७ ॥
I
पर्यायेण रचितं तूर्णं परितो परिभ्रमणमन्तर्बहिश्चेत्यर्थः । वामदक्षिणहस्तयोरेकस्मिन् हंस पक्षेऽन्तर्भ्रमणं कुर्वति, तदन्यो बहिभ्रमणं करोति । एवं पर्यायेण क्रियते चेत्स कररेचको भवेत् । कटीरेचकं लक्षयति - सर्वतो भ्रमणमिति । तत्तु भ्रमरीभेदेष्वनुगतं द्रष्टव्यम् । कण्ठरेचकं लक्षयति-ग्रीवाया इति ।। ८९२ - ८९६ ॥
इति रेचकलक्षणम् |
(सु० ) करादीनां रेचकं पूर्वमुक्तम्, तत्र कोऽयं रेचक इत्यपेक्षायां प्रतिज्ञाय विभागपूर्वकं रेचकं लक्षयति- रेचकानिति । पादादीनां चत्वारो रेचका भवन्ति । यथा - पादरेचकाः; कररेचकाः, कटीरेचकाः ; ग्रीवारेचका इति । तेषां क्रमेण लक्षणमाह - पाणिरिति । पाष्णिद्वयस्य अङ्गुष्ठद्वयस्य च बाह्याभ्यन्तरयोः नतोन्नतयोः संततं या गतिः स पादरेचकः । हंसपक्षतां प्राप्तयोः हस्तयोः पर्यायेण कृतं त्वरितं परितो भ्रमणं कररेचकः । कव्यां सर्वतो भ्रमणं कटीरंचकः । विरलप्रसृताङ्गुलैः तिर्यग्भ्रमणेन या ग्रीवाया विधुतभ्रान्तिः सा ग्रीवारेचकः । एते रेचका अङ्गहारानं फलमपि जनयन्ति उत्पादयन्ति । ननु ' द्रव्यसंस्कारकर्मसु परार्थत्वात्, फलश्रुतिरर्थवादः स्यात् ” इत्युक्तत्वात् कथमङ्गस्य पृथक्फलत्वम् ? दतेन्द्रियकरणन्यायेन गुणफलसंबन्धेन भविष्यति ।। ८९२-८९६ ।।
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इति रेचलक्षणम |
(क० ) अथ चारीणां सामान्यलक्षणमाह-- विचित्रमित्यादि । विचित्रमङ्घ्रिजङ्घोरुकटीकर्म चारी स्यादित्येतावत्युच्यमाने प्रत्येकमङ्घ्रयादिकृतानां कर्मणामपि चारीत्वप्रतीतिः स्यात्; अत उक्तं समं कृतमिति । समं सह युगपदिति यावत् । एकस्मिन्कालेऽङ्घ्रयादिभिः कृत
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सप्तम नर्तनाध्यायः
हस्तो वाभिनये गत्यां चरणो यो यदेप्सितः | तत्संपच्युचिता चारी कार्या तदुचिता परा ।। ८९८ ॥ एवमन्योन्यनियमात्सैव व्यायाम उच्यते । चारी च करणं खण्डो मण्डलं चेति तद्भिदाः || ८९९ ॥
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" चर
मित्यर्थः । एवमपि लौकिके कर्मण्यतिव्याप्तिः स्यादित्युक्तं विचित्रमिति । वैचित्र्यापादनं नर्तन एव क्रियत इति न कुत्राप्यतिव्याप्तिः । चारीशब्दस्य व्युत्पत्ति दर्शयति - करणे ङीपि चरेरिज्प्रत्ययान्तत इति । गतिभक्षणयोः" इत्येतस्माद्वत्यर्थे वर्तमानाच्चार्यतेऽनयेति करणार्थे विवक्षिते, ' इञ्वपादिभ्यः " इत्यौणादिक इति वार्तिकेने ञ्प्रत्यये सति ' चारि' इति स्थिते " कृदिकारादक्तिनो वा ङीष्वक्तव्यः" इति पक्षे ङीषि कृतं चारीति रुपं सिद्धम् || ८९७ ॥
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(सु०) चारों लक्षयति - विचित्रेति । वक्ष्यमाणविशेषयुक्ता समकालकृतसंघातादिकर्मचरणादितद्विशेषहेतोः चारीत्युच्यते । चारीशब्द निष्पत्तिमाहचारी स्यादिति । चरधातोः इञ् करणे, भावे वा, " कृदिकारादक्तिन: " इति ङीष चारीशब्दनिष्पत्तिः ॥ ८९७ ॥
(क०) चारीप्रयोग इतिकर्तव्यतामाह - हस्तो वेत्यादि । अत्र वाशब्द उपमाने । अभिनये हस्तो वा हस्त इव । गत्यां गत्यनुकारे यदा यश्वरोऽञ्चितादिषु पादभेदेष्वीप्सितो व्यापारयितुमिष्टः । तत्संपच्युचिता ; तस्य चरणस्य संपत्तिः, तस्या उचिता । समादिचरणसंपादनयोग्येत्यर्थः । चारी, अङ्घ्रिजङ्घोरुकटीक्रिया कार्या कर्तव्या । परा ; तदितरा पादादिक्रिया; तदुचिता ; प्रथमचार्युचिता कार्या । द्वितीया चारी प्रथमचार्य - सारिणी कर्तव्येत्यर्थः । एवमन्योन्यनियमादिति । द्वितीयादिचार्यनुसारेण तृतीयादयश्चार्यः कृताश्चेदित्यर्थः । सैव ; चार्येव व्यायाम इत्युच्यते ।
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संगीतरत्नाकरः तत्रैकपादनिष्पाद्या चारी चार्येव कीर्तिता । पादद्वयेन करणं तन्नृत्तकरणात्पृथक् ॥ ९००॥ करणैः स्यात्रिभिः खण्डो मण्डलं खण्डकैत्रिभिः ।
चतुर्भिर्वा क्रमात्ताले ज्यश्रे च चतुरश्रके ॥ ९०१॥ सेति जातिपरतयैकवचनम् । तस्य व्यायामस्य भेदानाह-चारी चेत्यादि । तद्भिदाः; व्यायमभेदाः ।। ८९८, ८९९ ।।
(सु०) चारीणामितिकर्तव्यतामाह-हस्त इति । अभिनये हस्तो वा, गत्यां पादो वा यदा ईप्सित: गत्यनुकारेण व्यापारयितुमिष्टः, तदनुगुणा चारी प्रधानम् । तत्संपत्त्युचिता; तस्य पादस्य संपत्तिः रूपनिष्पत्तिः उचिता । अङ्घ्रिजचोरुकटीकर्मचारी कार्येत्यर्थः। परा इतरा चरणादिक्रिया तदुचिता प्रथमचार्युचिता कार्या । एवं करणचरणयोः परस्परनियमेन क्रियमाणा चारी व्यायाम इत्युच्यते । तस्य भेदाश्चतुर्विधः, चारी, करणम् , खण्डः, मण्डलं चेति ॥ ८९८, ८९९ ॥
(क०) क्रमेण तेषां स्वरूपमाह-तत्रेत्यादि । एकपादनिष्पाद्या; वामेन दक्षिणेन वैकेन पादेन निवर्तयितव्या । अत्र प्राधान्यात्पादग्रहणम् । पादादिनेत्यर्थः । चार्येव ; पूर्वोक्ता चार्येव चारी कीर्तिता । व्यायामभेदत्वेनोक्ता चारीति कथिता। पादद्वयेन निप्पाद्या चार्येव करणम् । व्यायामभेदत्वेनोक्तं करणं भवति । अत्र तलपुष्पपुटादिभिः सांकर्यशङ्कां परिहरति-तन्नृत्तकरणात्पृथगिति । करपादादिक्रियात्मकं नृत्तकरणम् । केवलपादादिक्रियस्मिका चारीति भेदोऽवगन्तव्य इत्यमिप्रायः । तैस्त्रिभिः करणैनिप्पाद्या चार्येव खण्डः; व्यायामभेदत्वेनोक्तः खण्डो भवेत् । तैत्रिभिः खण्डैः व्यश्रे ताले चतुर्मिरेव खण्डकैश्चतुरश्रे ताले चेति क्रमाद्विषयव्यवस्थया विकल्पो द्रष्टव्यः । एवं च व्यश्रे ताले चाचत्पुटे त्रिभिः खण्डकैः,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः भौमी चाकाशिकीत्येषा द्वेधा भौम्योऽत्र षोडश । समपादा स्थितावर्ता शकटास्या च विच्यवा ।। ९०२॥ अध्यर्धिका चाषगतिरेडकाक्रीडिता तथा । समोत्सरितमत्तल्ली मत्तल्ल्युत्स्पन्दिताड्डिता ॥ ९०३ ॥ स्यन्दितावस्यन्दिताख्या बद्धा च जनिताभिधा । अरूद्वत्तेत्यथ ब्रूमः षोडशाकाशिकीरिमाः ॥ ९०४ ॥
इति भैम्यः । चतुरश्रे ताले चच्चत्पुटे चतुर्भिः खण्डकैर्वा क्रमान्निष्पाद्या चार्येव व्यायामभेदो मण्डलमित्युच्यत इति योजनीयम् ।। ९००, ९०१ ॥
(सु०) तेषां स्वरूपमाह-तत्रेति । एकपादनिष्पाद्या चारी पूर्वोक्ता चार्येव चारी भवति । पादद्वयेन करणं भवति । नत् ; करणम् । नृत्तकरणात्; करचरणादिक्रियात्मकात् पृथगिति वेदितव्यम् । त्रिभिः करणैः निष्पाद्या चारी खण्डो भवति । त्रिभिः खण्डै: मण्डलं भवति ॥ ९००, ९०१ ॥
(क०) चारीविभागमाह---भौमीत्यादि । एषेत्येकपादनिप्पाचा प्रकृता चारी निर्दिश्यते । एषा चारी भौमी भूमिसंबन्धिनी, आकाशिकी आकाशसंबन्धिनी चेति द्विधा । अत्र आसु मध्ये भौम्यश्चार्यः षोडश। ता उद्दिशति-समपादेत्यादि ॥ ९०२-९०४ ॥
इति भैम्यः । (सु०) चारीविभागमाह-भौमीति । चारी द्विविधा, भौमी, आकाशिकी चेति । समपादेति । अत्र आसु मध्ये भौम्यश्चार्यः षोडश । यथा-समपादा, स्थितावर्ता, शकटास्या, विच्यवा, अध्यधिका, चाषगतिः, एडकाक्रीडिता, समोत्सरितमत्तल्ली, मत्तल्ली, उत्स्पन्दिता, अडिता, स्पन्दिता, अवस्पन्दिता, बद्धा, जनिता, ऊरूवृत्तेति ॥ ९०२-९०४ ॥
इति भौम्यः।
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२८०
संगीतरत्नाकरः अतिक्रान्ताप्यपक्रान्ता पार्श्वक्रान्ता मृगप्लुता । ऊर्ध्वजानुरलाता च सूची नूपुरपादिका ॥ ९०५ ॥ डोलापादा दण्डपादा विद्युभ्रान्ता भ्रमर्यपि । भुजङ्गत्रासिताक्षिप्ता विद्धोद्वृत्तेति कीर्तिताः ॥ ९०६ ॥ भरताभिमताश्चार्यों द्वात्रिंशन्मिलितास्तु ताः । देशीप्रसिद्धाः सन्त्यन्यास्ताः संप्रत्यभिदध्महे ।। ९०७ ।।
इत्याकाशिक्याः । रथचका परावृत्ततला नूपुरविद्धका । । तिर्यङ्मुखा मराला च करिहस्ता कुलीरिका ॥ ९०८ ॥ विश्लिष्टा कातरा पाणिरेचिताप्यूरुताडिता। ऊरुवेणी तलोत्ता हरिणत्रासिका परा ।। ९०९ ॥
(क०) अथाकाशिकीरुद्दिशति-अतिक्रान्तेत्यादि । एवं द्वेधा मार्गचार्यों द्वात्रिंशत् ।। ९०५-९०७ ॥
__ इत्याकाशिक्यः । (सु०) आकाशिकीमाह-अतिक्रान्तेति । अतिक्रान्ता, अपक्रान्ता, पार्श्वक्रान्ता, मृगप्लुता, ऊर्ध्वजानुः, अलाता, सूची, नूपुरपादिका, डोलापादा, दण्डपादा, विद्युभ्रान्ता, भ्रमरी, भुजङ्गत्रासिता, आक्षिप्ता, विद्धा, उद्धृत्तेति षोडश भवन्ति । भरतामिमता: ताः सर्वाः चार्यों मिलिता द्वात्रिंशत् ॥ ॥९०५-९०७॥
इत्याकाशियः । (क०) अथ देशीचारीषु भौमीरुद्दिशति-रथचक्रेत्यादि । विद्युभ्रान्तेत्यादि । ९०८-९१२. ॥
इति देशीचारीषु भौम्यः ।।
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२८१
सप्तमो नर्तनाध्यायः
२८१ अर्धमण्डलिका तिर्यक्कुञ्चिता च मदालसा । संचारितोत्कुश्चिता च स्तम्भक्रीडनिका ततः ॥ ९१० ॥ चारी लघितजङ्घाख्या स्फुरिताप्यवकुचिता । अपि संघट्टिता खुत्ता स्वस्तिका तलदर्शिनी ॥ ९११ ॥ पुराटयर्धपुराटी च सरिका स्फुरिका ततः । निकुट्टिका लताक्षेपाप्यस्खलितिका परा ॥ ९१२ ॥ समस्खलितिका भौम्यः पञ्चविंशदितीरिताः ।
इति देशीचारीषु भौम्यः । विद्युभ्रान्ता पुरःक्षेपा विक्षेपा हरिणप्लुता ।। ९१३ ।। अपक्षेपा च डमरी दण्डपादाद्धिताडिता । जङ्घालङ्घनिकालाता जङ्घावर्ता च वेष्टनम् ॥ ९१४ ॥
(सु०) देशी लक्षयति--देशीप्रसिद्धा अन्याश्चार्यः सन्ति । तत्र भौमीचार्यः पञ्चत्रिंशद्विधाः । ता उद्दिशति-रथचक्रेति । रथचक्रा, परावृत्ततला, नूपुरविद्धका, तिर्यङ्मुखा, मराला, करिहस्ता, कुलीरिका, विश्लिष्टा, कातरा, पाणिरेचिता, ऊरुताडिता, ऊरुवेणी, तलोवृत्ता, हरिणत्रासिका, अर्धमण्डलिका, तिर्यक्कुञ्चिता, मदालसा, संचारिता, उत्कुञ्चिता, स्तम्भकीडनिका, लचितजविका, स्फुरिता, अवकुञ्चिता, संघट्टिता, खुत्ता, स्वस्तिका, तलदर्शिनी, पुराटी, अर्धपुराटी, सरिका, स्फुरिका, निकुट्टिका, लताक्षेपिका, अइस्खलितिका, समस्खलितिकेति ॥ ९०८-९१२ ॥
इति देशीचारीषु भौम्यः । (क०) आकाशिकीरुद्दिशति- विद्युदभ्रान्तेत्यादि । एता अप्युभयाश्चतुष्पश्चशत् ।। ९१३-९१६ ॥
इति देशीचारीप्वाफाशिक्यः ।
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२८२
संगीतरनाकरः उद्वेष्टनमथोत्क्षेपः पृष्ठोत्क्षेपश्च सूचिका । विद्धा प्रातमुल्लोल इत्यत्रैकोनविंशतिः ।। ९१५ ।। व्योमगा उभयास्तु स्याचतुष्पञ्चाशदूचिरे । मार्गदेशीगताश्चार्यः षडशीतिरिमा मताः ॥ ९१६ ॥
इति देशीचारीप्वाकाशिक्य: । अय भौम्यः
लक्षणानि क्रमात्तासां चारीणामभिदध्महे । निरन्तरौ समनखौ पादौ कृत्वा स्थितो यदा ।। ९१७ ।। स्थानेन समपादेन समपादा तदोदिता । प्रचारयोग्यतामात्राचारी स्थानेऽप्यसौ मता ॥ ९१८ ॥
इति समपादा (१) (सु०) देशीषु आकाशिक्यश्चार्य एकोनविंशतिः । ता उद्दिशतिविद्युदिति । विद्युद्भ्रान्ता, पुरःक्षेपा, विक्षेपा, हरिणप्लुता, अपक्षेपा, डमरी, दण्डपादा, अध्रिताडिता, जङ्घालवनिका, अलाता, जवावर्ता, वेष्टनम् , उद्वेष्टनम् , उत्क्षेपः, पृष्ठोत्क्षेपः, सूचिका, विद्धा, प्रावृतम् , उल्लोल इति । उभयगता: सर्वे मिलिताः चतुष्पञ्चाशचार्यों भवन्ति । एवं मार्गदेशीगताः चार्यः षडशीतिः ॥ ९१३-९१६ ॥
इति देशीचारीष्वाकाशिक्यः (क०) तासां सर्वासां प्रत्येकं लक्षणान्यभिधातुमाह -- लक्षणानीति । तत्र समपादां लक्षयति-निरन्तरावित्यादि । यदा पादौ निरन्तरौ परस्परं श्लिष्टौ। समनखौ ; समा नखा ययोस्तौ । समाग्रपाणिभागावित्यर्थः । प्रथम तादृशौ कृत्वा, समपादेन स्थानेन स्थितश्चेत्.। पादयोर्वितस्त्यन्तरस्थित्या समपादं नाम स्थानकं वक्ष्यते । तत्र वितस्तिर्नाम देशाश्रयः परिमाणविशेषो
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
चरणान्तरपार्श्व चेद्रत्वाग्रतलसंचरः ।
अन्तर्जानुः स्वस्तिकत्वं प्राप्तः पादस्तथेतरः ।। ९१९ ॥ विश्लिष्य पार्श्व स्वनीतः स्थितावर्ता तदोच्यते ।
इति स्थितावर्ता (२)
२८३
द्वादशाङ्गुलात्मकः । यथोक्तंवितस्तिर्द्वादशाङ्गुलः " ( नामलिङ्गानुशासनम् २-६-८४) इति । तेन समपादस्थानकेन यदा स्थितो भवति, तदा समपादा नाम चार्युदिता । अत्र स्थित इति पुंलिङ्ग निर्देशेन नर्तकपरत्वे नर्तक्या अप्युपलक्षणं द्रष्टव्यम् । अत्र कृत्वा स्थित इति क्रियाद्वयश्रवणात्पूर्वे पादयोर्वैरन्तर्य क्रियानन्तरं समपादस्थान स्थितिक्रियेति पौर्वापर्य द्रष्टव्यम् । प्रचारेत्यादि । समपादाया गतिरूपताभावेऽपि प्रचारयोग्यतामात्रात्प्रचारस्य गतेर्योग्यतामात्राच्चारीत्युपचर्यत इत्यर्थः । वस्तुतस्तु, स्थाने; स्थानकेऽप्यसौ समपादा मता । रूपद्वयमप्यस्यां संभवतीत्यर्थः ॥ ९१७, ९१८ ॥
इति समपादा (१)
(सु०) तासां प्रत्येकं लक्षणानि वक्तुमुपक्रमते - लक्षणानीति । तत्र समपादां लक्षयति- निरन्तराविति । निरन्तरौ समनखौ पादौ विधाय, यदा समपादेन स्थानेन स्थितौ चेत्, तदा समपादा भवति । सा च प्रचारयोग्यस्थितावपि भवति ॥ ९१७, ९१८ ॥
इति समपादा (१)
(क०) अथ स्थितावर्ती लक्षयति — चरणान्तरेत्यादि । अग्रतलसंचरः पादः | चरणान्तरपार्श्वम् ; अग्रतलसंचारादन्यश्चरणश्चरणान्तरम् । तस्य पार्श्व बहिर्भागप्रदेशं गत्वा, अन्तर्जानुः स्वस्तिकत्वं प्राप्तश्चेदिति । अनेन चरणान्तरस्य पाणिभागेन गमनं गम्यपार्श्वदेशावधिश्व गम्यते ।
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२८४
संगीतरत्नाकरः यत्र धृत्वा पूर्वकायं पादोऽग्रतलसंचरः ॥ ९२० ॥ प्रसार्योद्वाहितमुरः शकटास्या तदा भवेत् । आस्यं क्षेप्यं हि शकटं चारीमेनामुपाश्रितैः ॥ ९२१ ।।
इति शकटास्या (३) ।
तथेतर इति । इतरः स्थितः पादः । तथेति । अग्रतलसंचरो भूत्वेत्यर्थः । विश्लिष्य स्वस्तिकं कृत्वा ; पार्श्व नीत इति । चरणान्तरामुल्यप्रभागेन स्वकीयं पार्श्व नीतश्चेत् ; तदा स्थितावर्ता नाम चारी भवेत् ।। ॥ ९१९, ९१९- ॥
इति स्थितावर्ता (२)
___(सु०) स्थितावर्ती लक्षयति-चरणेति । यत्र चरणान्तरपार्श्व भ्रान्त्वा, एकः पादः अग्रतलसञ्चारी भूय, अन्तर्जानुः स्वस्तिकत्वमाप्नोति । इतरस्तथैव विश्लिष्य स्वपार्श्व नीयते, सा स्थितावर्ता चारी भवति ।। ९१९, ९१९- ॥
इति स्थितावर्ता (२)
(क०) शकटास्यायाम्-आस्यं क्षेप्यमिति। क्षेप्यमित्यास्यमित्यस्य प्रतिपदम् । अनेनास्या अन्वर्थता दर्शिता भवति । एवं सर्वत्र चारीणां प्रायेणान्वर्थता द्रष्टव्या ॥ -९२०-९२७ ॥
इति शकटास्या (३)
(सु०) शकटास्यां लक्षयति--यदेति | यदा पूर्वकायं यत्नात् धृत्वा, उद्वाहितमुरः प्रसार्य, अग्रतलसंचरः क्रियते, तदा शकटास्या भवति । ॥ -९२०, ९२१ ॥
इति शकटास्या (३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः उद्धृत्य समपादायाः पादौ यदि तलाग्रतः । निकुट्टयेतां धरणीमुच्यते विच्यवा तदा ॥ ९२२ ॥
इति विच्यवा (४) दक्षिणा ः पाणिंदेशे वामः पादो निधीयते । दक्षिणस्त्वपमृत्य स्वे पार्षे त्र्यश्रतया स्थितः ॥ ९२३ ।। सार्धतालान्तरत्वेन दक्षिणोऽप्येवमेव चेत् । वामपाष्णो स च व्यश्रो भवेदध्यर्धिका तदा ।। ९२४ ॥
इत्यध्यर्धिका (५) तालमात्रं पुरः कृत्वा द्वितालं पृष्ठतो गते । दक्षिणेऽङ्घौ समं पादौ किंचिदुप्लुतिपूर्वकम् ।। ९२५ ॥ उपमृत्यापसपैतामपमृत्योपसर्पतः । यत्र सत्रासगत्यादौ सैषा चाषगतिर्मता ॥ ९२६ ॥
इति चाषगतिः (6) (सु०) विच्यवां लक्षयति-उद्धृत्येति । यत्र समपादायां पादा उद्धृत्य तलाग्रेण भूमिनिकुव्यते ; सा विच्यवा भवति । निकुट्टनं पूर्वमुक्तम् ॥ ९२२ ॥
इति विच्यवा (४) (सु०) अध्यधिकां लक्षतति-दक्षिणा रिति । दक्षिणचरणस्य पाणिप्रदेशे यदा वामः पादो विन्यस्यते । ततो दक्षिणस्तु त्र्यश्रः सन् स्वापार्श्व अपसृत्य वर्तते, दक्षिणोऽपि सार्धतालान्तरत्वेन, एवमेव वामपाणिदेशे स्थितो भवति, स च त्र्यश्रो भवति ; सा अध्यर्धिका भवति ॥ ९२३, ९२४ ॥
इत्यध्यर्धिका (५) (सु०) चाषगति लक्षयति-तालमात्रमिति । सालप्रमाणलक्षणं स्थान
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सगीतरत्नाकरः किंचिदुप्लुत्य चरणौ यत्राग्रतलसंचरौ । पर्यायशो निपततः सैडकाक्रीडिता मता ॥ ९२७ ॥
___ इत्येडकाक्रीडिता (७) अभ्यन्तरेऽऽरन्यस्य पादेऽग्रतलसंचरे । सजधास्वस्तिकेऽथान्यपादेऽग्रतलसंचरे ॥ ९२८ ॥ कृतेऽङ्घयोऽर्णतोर्यत्रापमृतिश्चोपसर्पणम् । समोत्सरितमत्तल्ली सा भवेन्मध्यमे मदे ॥ ९२९ ॥
इति समोत्सरितमत्तल्ली (6) प्रकरणे वक्ष्यति । यत्र पुरः तालमात्रं कृत्वा, दक्षिणपादे पृष्ठतः तालद्वयं गते सति, पादौ सममेव किंचिदुपसृत्य अपसर्पतः, अपसृत्य उपसर्पतश्च भवति ; सा चाषगतिः । एषा सत्रासगत्यादौ प्रयोज्या ॥ ९२५, ९२६ ॥
इति चाषगतिः (६) (सु०) एडकाक्रीडितां लक्षयति-कचिदिति । उभौ चरणावग्रतलसंचारौ किंचिदुत्प्लवनं विधाय पर्यायश: क्रमशः निपततः, तदा 'एडकाक्रीडिता भवति ॥ ९२७ ॥
इत्येडकाक्रीडिता (५) (क०) समोत्सरितमत्तल्लीति संज्ञायां समप्रसतेत्यत्र समोत्सरितेति प्राकृतपदं मुनिना प्रयुक्तं द्रष्टव्यम् । मत्तचेष्टितत्वान्मत्तल्ली इति संज्ञा दष्टव्या ॥ ९२८-९३८. ॥
(सु०) समोत्सरितमत्तल्ली लक्षयति-अभ्यन्तर इति । एकपादाभ्यन्तरे अन्यपादे अप्रतलसंचरे सति, तत्पादे च आघूर्णिते अपसरण उपसरणे समं क्रियते, सा समोत्सरितमत्तल्ली । सा मध्यमे मदे प्रयोज्या ॥ ९२८, ९२९ ॥
इति समोत्सरितमत्तल्ली (0) अजिकागतितुल्यस्वादेडकाक्रीडिता इत्यभिनवगुधपादाः ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
भूमिश्लिष्टाखिलतलौ जङ्घास्वस्तिकसंयुतौ । भयौ यदा पादौ घूर्णन्तौ वोपसर्पतः ।। ९३० ॥ यद्वापसर्पतः सा स्यान्मत्तल्ली तरुणे मदे । इति मत्री (९)
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कनिष्ठाङ्गुलिभागेनाङ्गुष्ठभागेन च क्रमात् ।। ९३१ ॥ रेचकस्यानुकारेण शनैरङ्घ्रिर्गतागतम् । कुरुते यत्र सा चारी बुधैरुत्स्पन्दितोदिता ।। ९३२ ॥ औदासीन्याधश्च्युतिस्तु स्पन्द इत्यभिधीयते । रेचितं नृत्तहस्तं च केचिदत्र प्रचक्षते ॥ ९३३ ॥ इत्यु स्पन्दिता (१०)
समाङ्घ्ररग्रपृष्ठाभ्यामन्यो ऽग्रतलसंचरः । निघृष्टश्चरणो यत्र क्रमात्तामडितां विदुः ।। ९३४ ॥
इयता ( ११ )
( सु० ) मत्तलीं लक्षयति - भूमीति । यत्र भूमिश्लिष्टाखिलतलौ, जङ्घा स्वस्तिकसंयुतौ, यदा पादौ अर्धत्र्यश्रौ, घूर्णन्तौ वा उपसर्पतः, यद्वा अपसर्पतः ; सा मत्तली; एषा तरुणे मदे प्रयोज्या || ९३०, ९३० - ॥
इति मतल्ली ( ९ )
(सु०) उत्स्पन्दितां लक्षयति - कनिष्ठेति । यत्र कनिष्ठाङ्गुलिभागेन अङ्गुष्ठभागेन च रेचकानुसारेण पादः क्रमात् शनैः गतागतं कुरुते, सा 'उत्स्पन्दिता । औदासीन्येन अधश्च्युतिः स्पन्दः । अत्र केचिदाचार्या रेचित नृत्तहस्तमपि भणन्ति ॥ -९३१-९३३ ॥
इत्युत्स्पन्दिता (१०)
(सु० ) अडितां लक्षयति - समेति । यत्र समपादस्य अग्रपृष्ठाभ्याम् अन्य: अग्रतलसंचरः पादः निघृष्यते ; सा अडिता ॥ ९३४ ॥
इत्यविता] ( ११ )
, यथाः प्रत्यावर्तनरूपस्पन्दितकृत् तत्तुल्यत्वात् उत्स्पन्दितेत्यभिनवगुप्तपादाः ।
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संगीतरत्नाकर:
निषण्णोरुः समो वामो दक्षिणोऽङ्घ्रिः प्रसारितः । पञ्चतालान्तरं तिर्यग्यस्यां सा स्पन्दिता मता ।। ९३५ ।। इति स्पषन्दिता ( १२ )
अङ्घ्रिचारविपर्यासात्सैवावस्पन्दिता मता ।
इत्यवस्पन्दिता (१३)
ऊरुद्वयस्य वलनं जङ्घास्वस्तिकसंयुतम् ।। ९३६ ॥ भङ्क्त्वा वा स्वस्तिकं पादतलाग्रे मण्डलभ्रमम् | कृत्वा पार्श्व गते स्वं स्वं यत्र बद्धेति सा मता ।। ९३७ ॥ इति बद्धा (१४)
चारी सा जनिता यस्यां पादोऽग्रतलसंचरः ।
(सु०) स्पन्दितं लक्षयति-निषण्ण इति । यत्र निषण्णोरुः, वामपादः समः, दक्षिणपादः पञ्चतालान्तरं तिर्यक् प्रसारितो भवति ; सा स्पन्दिता ॥ ९३५ ॥
इति स्पन्दिता ( १२ )
(सु०) भवस्पन्दितां लक्षयति - अङ्घ्रीति । यत्र अङ्घ्रिचारविमर्यासात् ; पादचारव्यत्यासात्; सेव ; स्पन्दितैव अवस्स्पन्दिता भवति ॥ ९३५ ॥ इत्यवस्पन्दिता (१३)
(सु०) बद्धां लक्षयति – ऊरुद्वयस्येति । यत्र ऊरुद्वयस्य वलनम् ; प्रत्येकं जङ्घा स्वस्तिकसंयुतं वा कृत्वा, पादतलेन अग्रे मण्डलभ्रमं विधाय स्वस्वपार्श्व गच्छतः ; सा बद्धा ॥ -९३६, ९३७ ॥
इति बद्धा (१४)
(सु० ) जनितां लक्षयति - चारीति । यत्र पादः अप्रतलसंचरो भवति ;
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः 289 मुष्टिवक्षसि हस्तोऽन्यो यथाशोभं प्रवर्तते // 938 // अधिक्रिया प्रधानं स्यादितिकर्तव्यतेतरा / इति जनिता (15) पाणिः पादस्य चेदग्रतलसंचरसंज्ञितः // 939 // अन्याङ्क्रिपृष्ठाभिमुखी विपर्यासोऽथवा भवेत् / अभ्यन्यजङ्घ वलिता जङ्घा चेन्नतजानुका // 940 // ऊरूद्वत्ता तदा चारी लज्जादौ नियुज्यते / ___ इत्यूरूवृत्ता (16) नियुद्धे चाङ्गहारेषु नाटये चैताः प्रतिष्ठिताः / / 941 // वक्षसि मुष्टीभूतो हस्त: यथाशोभं प्रवर्तते ; सा जनिता / अत्र इतरा इतिकर्तव्यता अधिक्रिया प्रधानं स्यात् // 938, 938- // इति अनिता (15) (क०) जनितायां 'मुष्टिर्वक्षस्थः (श्लो० 726)' इत्युक्तम् , तल्लक्षणत्वेन न ग्राह्यमित्याह-अघ्रिक्रियेति / अन्यथा चारीकरणयोः सांकर्य स्यादिति भावः / एवमन्यत्रापि चारीषु करव्यापारवचने द्रष्टव्यम् // -939, 940. // __(सु०) ऊरूवृत्तां लक्षयति-पाणिरिति / यत्र अग्रतलसंचरपादस्य पाणिः अन्यपादपृष्ठाभिमुखी भवति, तद्वयत्यासो वा भवति / नतजानुका एका जङ्घा अन्यजङ्घाभिमुखं वलिता भवति / सा ऊरूवृत्ता भवति / एषा ईर्ष्यालज्जादौ प्रयुज्यते // -939, 940- // ___ इत्यूरूवृत्ता (16) (क०) भौमचारीणां साधारणविनियोगमाह-नियुद्धे चेत्यादि / 37 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 290 संगीतरनाकरः अनादिवेदमूलेन नाव्यवेदेन कीर्तिताः / इति षोडश भौम्यचार्यः / अयाकाशिक्यः गुल्फक्षेत्रेऽन्यपादस्योढत्याधिं कुञ्चितं पुरः // 942 // किंचित्प्रसार्य चोक्षिप्य यथाप्रकृति लोकवत् / चतुस्तालाद्यन्तरेण ततोऽग्रेण निपातयेत् // 943 / / यत्र चारीमतिकान्तां निःशङ्कस्तामकीर्तयत् / इत्यतिकान्ता (1) नियुद्धं मुष्टियुद्धम् / अङ्गहार इत्यनेन नृत्तं गृह्यते। नाट्ये चेत्यत्र चकारेण नृत्यमपि गृह्यत इत्यवगन्तव्यम् / नियुद्धादिषु यथोचितं भौम्यश्चार्य: प्रयोक्तव्या इत्यर्थः / एतासामनादित्वं दर्शयति-अनादिवेमूलेनेति / अनादयो वेदा ऋग्वेदादयश्चत्वारः // .941, 941- // ____ इति षोडश भौम्यश्चार्यः / (सु०) भौमचारीणां विनियोगमाह--नियुद्ध इति / अनादिवेदमूलनाव्यनिगमप्रतिपादिताः, नियुद्धे ; मुष्टियुद्धे, अङ्गहारेषु नाटये च प्रयोज्या एताश्चार्यः // -941, 941 // ___ इति षोडश भौम्यश्चार्यः। (क०) अथाकाशिकीनां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि // -942-965- // ___ इति षोडश आकाशिक्यश्चार्यः / (सु०) अयाकाशिकी लक्षयति-अथाकाशिक्य इति / तत्रातिक्रान्तां Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 291 सप्तमो नर्तनाध्यायः बद्धां विधाय चारी चेदुवृत्याधिं च कुश्चितम् // 944 / / पार्थे विनिक्षिपेचारीमपक्रान्तां तदादिशेत् / इत्यपकान्ता (2) नीत्वोपरि स्वपार्थेन कुश्चितं चरणं ततः // 945 // पार्ष्या चेत्पातयेद्भूमौ पार्थक्रान्ता तदोच्यते / सा पार्थदण्डपादेति प्रसिद्धा लोकवर्त्मनि // 946 / / भन्योरुक्षेत्रपर्यन्तमुक्षिप्य चरणं ततः / उद्घट्टितं भुवि न्यस्येदस्यामित्यपरे जगुः // 947 // इति पार्यकान्ता (3) लक्षयति-गुल्मक्षेत्रेति / यत्र गुल्मक्षेत्रे अन्यपादोवृत्त्या कुञ्चितः पुरः पाद किंचित्प्रसार्य उत्क्षिप्य चतुस्तालाद्यन्तरेण अग्रेण निपातयेत् / सा अतिफ्रान्ता // -942, 943- // इत्यतिकान्ता (1) (सु०) अपक्रान्तां लक्षयति-बद्धामिति / यत्र बद्धां चारी विधाय, उद्धृत्या कुञ्चितः पादः पार्श्वे विनिक्षिप्यते ; सा अपक्रान्ता // -944,944- // इत्यपकान्ता (2) (सु०) पार्श्वक्रान्तां लक्षयति-नीत्वेति / यत्र पार्श्वे कुञ्चितं पादं पार्या भूमौ पातयेत् ; सा पार्श्वक्रान्ता / सा च पार्श्वदण्डपादेति प्रसिद्धा / अन्योरुक्षेत्रपर्यन्तं पादमुत्क्षिप्य उद्घट्टितं यदा भूमौ न्यस्येत् ; तदा पार्श्वक्रान्ता इत्यपरे प्राहुः // -945-947 // इति पार्थकाम्ता (3) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 292 संगीतरनाकरः कुश्चितं पादमुत्क्षिप्योत्प्लुत्य भूमौ निपात्य तम् / अन्याश्चिताधिजयां च पश्चाद्देशे क्षिपेद्यदा / / 948 // तदा मृगप्लुता ज्ञेया सा विदूषककर्तृका / इति मृगप्लुता (4) कुश्चितोरिक्षप्तपादस्य जानुस्तनसमं यदा // 949 / / न्यस्य स्तब्धीकृतोऽन्योऽङ्घ्रिरूर्वजानुस्तदा भवेत् / इत्यूर्ध्वजानुः (5) पृष्ठप्रसारितोऽङ्घ्रिश्चेदन्योर्वभिमुखं तलम् / / 950 // कृत्वा पाणिः स्वपार्थे मान्यस्तालाता तदोदिता / इत्यलाता () (सु०) मृगप्लुतां लक्षयति-कुञ्चितमिति / यत्र कुश्चितं पादमुत्क्षिप्य, तमपि भूमौ निपात्य, अन्याञ्चितपादजङ्घा यदा पश्चाद्देशे निक्षिप्यते, तदा मृगप्लुता / सा च विदूषकेन कार्या // 948, 948- // इति मृगप्लुता (4) - (सु०) ऊर्ध्वजार्नु लक्षयति-कुञ्चितेति / यत्र कुश्चितोत्क्षिप्तजानू स्तनसमं विन्यस्य, अन्यपादः स्तब्धीक्रियते ; स ऊर्ध्वजानुः // -949, 949- // इत्यूर्ध्वजानु: (5) (सु०) अलाता लक्षयति-पृष्टेति / यत्र अधिः पृष्ठतः प्रसार्य तत्तलमन्योर्वभिमुखं विधाय पाणिः स्वपार्श्वभूमि न्यस्यते ; सा अलाता // // -950, 950- // इत्यलाता (6) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः 293 उत्क्षिप्य कुश्चितं पादं जङ्घामस्य प्रसार्य च // 951 // जान्वन्तां वोरुपर्यन्तामग्रयोगे नतं भुवि / चरणं पातयेद्यस्यां सा सूचीति निगद्यते // 952 // ___ इति सूची (7) पश्चान्नीत्वाश्चितं पादं तस्य पार्ष्या स्फिजं स्पृशेत् / तं ततोऽश्चितजथं च भूमावग्रतलेन चेत् // 953 // निपातयेत्तदा चारी मोक्ता नूपुरपादिका / इति नूपुरपादिका (8) पादं कुश्चितमुद्धत्य डोलयित्वा च पार्श्वयोः // 954 / / न्यस्येत्पार्ष्या स्वपार्थे चेड्डोलापादा तदोच्यते / इति डोलापादा (7) (सु०) सूची लक्षयति-उत्क्षिप्येति / यत्र कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य तजङ्घा जान्वन्तरम् ऊरुपर्यन्तां वा प्रसार्य, अग्रेण तं पादं भुवि पातयेत् ; सा सूची // -951, 952 // इति सूची (7) ___ (सु०) नूपुरपादिकां लक्षयति-पश्चादिति / यत्र अश्चितं पादं पश्वान्नीत्वा, पाया: 'स्फिरप्रदेशमुत्स्पृशति अञ्चितजङ्घ तमेव पादमयतलेन भूमौ निपातयेत् ; सा नूपुरपादिका // 953, 953- // ___ इति नूपुरपादिका (8) (सु०) डोलापादां लक्षयति-पादमिति / यत्र कुञ्चितं पादं पार्श्वयोः उद्वृत्तं डोलयित्वा पार्या पार्श्वे न्यस्येत् ; सा डोलापादा // 954, 954- // इति डोलापादा (9) "स्त्रियो स्फिचौ कटिप्रोथौ” (2.2.75) इत्यमरः / Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 294 संगीतरत्नाकरः नूपुरश्चरणेऽन्यस्य पाष्णिदेशे विधाय चेत् // 955 // स्वदेहक्षेत्राभिमुखं जान्वग्रत्वेन वेगतः / अग्रे प्रसार्यते चारी दण्डपादा तदोदिता / / 956 // इति दण्डपादा (10) पृष्ठतो वलितं स्पृष्ट्वा शिरो भ्रान्त्वा च सर्वतः / प्रसृतश्चरणो यत्र विद्युभ्रान्ता भवेदसौ // 957 // इति विद्युभ्रान्ता (11) अतिक्रान्तागतं पादं व्यश्रस्योरोविवर्तनम् / कृत्वा पादान्तरतलभ्रमेण भ्राम्यते तनुः / / 958 / / यत्र सा भ्रमरी चारी शार्ङ्गदेवेन कीर्तिता / इति भ्रमरी (12) (सु०) दण्डपादां लक्षयति-नूपुर इति / यत्र चरणे पाणिदेशे च नपुर निधाय, स्वदेहक्षेत्राभिमुखजान्वरत्वेन वेगात् प्रसारयति ; सा दण्डपादा // -995, 996 // इति दण्डपादा (10) (सु०) विद्युभ्रान्तां लक्षयति-पृष्ठत इति / यत्र पृष्टतो वलितं शिरः संस्पृश्य सर्वतों भ्रमणेन चरणः प्रसार्यते ; सा विद्युद्धान्ता // 997 // इति विद्युद्धान्ता (11) __(मु०) भ्रमरी लक्षयति-अतिक्रान्तेति / यत्र अतिक्रान्तागत पाद त्र्यश्रस्य उरोविवर्तनं कृत्वा, पादान्तरतलभ्रमणेन तनुः भ्राम्यते ; सा भ्रमरी // 958,959- / / इति भ्रमरी (12) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 295 सप्तमो नर्तनाध्यायः अन्योरुमूलक्षेत्रान्तं पादमुक्षिप्य कुश्चितम् // 959 // नितम्बाभिमुखी पाणिः कुर्याज्जानु स्वपार्श्वगम् / यत्रोत्तानं पादतलं कटीजानुविवर्तनात् / / 960 // भुजङ्गत्रासिता सा स्याद् भुङ्गवाससूचिका / इति भुजङ्गत्रासिता (13) तालत्रयान्तरोक्षिप्तं कुश्चितं पादमानयेत् // 961 // पार्थान्तरं ततो जवां स्वस्तिकीकृत्य पातयेत् / धरण्यां पाणिमागेन यत्राक्षिप्ताममू विदुः // 962 // इन्याक्षिप्ता (14) विश्लिष्टजङ्घयोः कृत्वा स्वस्तिकं तस्य कुञ्चितः। पादः प्रसारितो वक्रः स्वपार्श्वस्थोऽथ पात्यते // 963 // पार्ष्या पाष्र्ण्यन्तरक्षेत्रे यत्राविद्धा भवत्यसौ। इत्याविद्धा (15) ___ (सु०) भुजङ्गत्रासितां लक्षयति-अन्योरुमूलेति / यत्र अन्योरुमूलक्षेत्रपर्यन्तं कुश्चितं पादमुत्क्षिप्य, पाणिः नितम्बाभिमुखी, जानु स्वपार्श्वगतं कटीजानुविवर्तनेन पादतलमुत्तानं च क्रियते ; सा भुजङ्गत्रासिता // // -959-560- // इति भुजावासिता (13) (सु०) आक्षिप्तां लक्षयति-तालत्रयेति / यत्र तालत्रयान्तरमुत्क्षिप्तः कुञ्चितः पादः पार्थान्तरमानीयते, ततो जयां स्वस्तिकीकृत्य, पाणिभागेन भूमौ पात्यते ; सा आक्षिप्ता // -961, 962 // इत्याक्षिप्ता (14) (सु०) आविद्धां लक्षयति-विश्लिष्टेति / यत्र विलिष्टजङ्घयोः स्वस्तिकं Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 296 संगीतरत्नाकरः विद्धापादमन्योरुमदेशस्थास्नुपाणिकम् / / 964 // कृत्वोत्प्लुत्य भ्रमरकं दत्वा यत्र निपातयेत् / तथान्यं पादमुत्य सोत्ताशेषरूपिणी // 965 // ___ इत्युत्ता (16) इति षोडश आकाशिक्यश्चार्यः / ललिताङ्गक्रियासाध्याश्चार्यो युद्धनियुद्धयोः / नृत्ते नाटये गतौ चैताः प्रयोक्तव्या मनीषिभिः // 966 // विधाय, प्रसारित: वक्र: स्वपार्श्वस्थ: तत्पाद: पाणिभागेन पार्यन्तरक्षेत्रे पात्यते ; सा आविद्धा // 963, 963- // इत्याविद्धा (15) (सु०) उद्वृत्तां लक्षयति-आविद्धेति / यत्र आविद्धापादम् अन्योरुप्रदेशस्थपाष्णिकं कृत्वा उत्प्लुल्य, भ्रमरकं दत्वा निपातयेत् , तथा अन्यं पादमुद्धृत्य एवं क्रियते चेत् ; सा उद्वृत्ता // -964, 965 // (सु०) आसां साधारणं विनियोगमाह-ललितेति / ललिताङ्गक्रियासाध्या एताश्चार्यः, युद्धनियुद्धयोः, नृत्ते, नाटये च मनीषिभिः प्रयोक्नव्या इत्यर्थः // 966 // इत्युत्ता (16) इति षोडश आकाशिक्यश्चार्यः / (क०) आकाशिकीनामपि साधारणं विनियोगं दर्शयति-युद्धनियुद्धयोरित्यादि / ललिताङ्गक्रियासाध्या इति तासां द्विविधानामपि स्वरूपकथनम् / अत्र गताविति नाटयात्पृथगुपादानाद्धस्ताभिनयवर्जितं गमनमात्रानुकरणं गम्यते / / 966 // Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः 297 प्रधानं यो यदा यत्र हस्तः पादोऽथवा भवेत् / सोऽग्रे तदनुगोऽन्यः स्यात्साम्ये तु समकालता // 967 // यतः पादस्ततो इस्तो यतो हस्तस्ततस्त्रिकः। चरणानुचराण्याहुरङ्गोपाङ्गानि सूरयः / / 968 / / एवं चारीप्रधानत्वे स्यादङ्गविनियोजनम् / प्राधान्ये हस्तकानां तु हस्तमङ्गान्युपासते // 969 / / चारं चारं यथा चार्या चरणः श्रयते महीम् / कारं कारं करस्तद्वद्विश्राम्यति कटीतटे / / 970 / / (क०) हस्ताभिनयचार्योर्गुणप्रधानभावं विषयव्यवस्थया दर्शयतिप्रधानमित्यादि / यत्र नाटये वा नृते वा, यदा नाटयेऽर्थवशाद्गत्यनुकरणावसरे, नृत्ते वा प्रयोगवशाद्धस्तक्रियावसरे, यो हस्तः पादो वा प्रधानं भवेत् / सोऽग्र इति / स हस्तः पादो वा अग्रे प्रथमं प्रयोक्तव्य इत्यर्थः / अन्यः; प्रथमप्रयुक्तादन्यः, तदनुगः; तस्य प्रथमप्रयुक्तस्यानुगोऽनुसारी भवेत् / साम्ये विति। नाटये वा नृते वा हस्तपादयोः समप्राधान्ये विषयभूत इत्यर्थः / समकालता; हस्तपादयोरेककालता; हस्तपादयोगेककालप्रयोज्यत्वमित्यर्थः // 967 // (क०) हस्तपादयोरेकतरप्राधान्ये तदितरेषामङ्गभूतानां प्रवृत्तिनियममाह-यतः पाद इत्यादि // 968, 969 // (क०) करक्षेत्राणां त्रयोदशानामुक्तत्वेऽपि तेषु कट्या एव प्राधान्यं दर्शयितुं सदृष्टान्तमाह-चारं चारमिति / चरणश्चार्यो चारं चारं चरित्वा चरित्वा यथा महीं श्रयते / तत्र स्थानान्तरस्यानुक्तत्वादसंभवाचेति भावः / तद्वत्तथा करः, कारं कारं, कृत्वा कृत्वा कटीतटे विश्राम्यतीति / पार्श्वद्वया 38 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 298 संगीतरनाकरः अर्धचन्द्रः करो नाटये संश्रयेत कटीतटम् / पक्षवश्चितको नृत्ते पक्षप्रद्योतकोऽथवा // 971 // चतुरश्रं समाश्रित्य भूलग्नौ चेत् सर्पतः / पुरतः पृष्ठतो वाञ्जी रथचका तदोच्यते / / 972 // इति रथचका (1) दिक्तेषु स्थानान्तरेषु सत्स्वपि कटीतटे विश्राम्यतीति वचनं प्राचुर्याभिप्रायेणेति मन्तव्यम् / / 970 // (क०) तत्र कट्याश्रयणे नाट्यनृत्तयोर्व्यवस्थया हस्तनियममाहअर्धचन्द्र इत्यादि / एतासामपि मार्गत्यं / ट्यवेदोक्तत्वेनेति पूर्वोक्तमनुसंधेयम् // 971 // इति द्वात्रिंशधारीलक्षणम / (सु०) हस्ताभिनयचार्याणां गुणप्रधानभावमाह-प्रधानमिति / यत्र हस्तो वा पादो वा यः प्रधानं भवति स प्रथमः / अन्यस्तदनुगो भवति / उभयोः साम्ये समकालता। यतश्चरणः, ततः करः, यतः करः, ततस्त्रिकं भवति / अङ्गोपाङ्गानि पादानुचराणीत्याहुः / यथा पादः चार्यो चारं चारं भूमि भजते, तथा हस्तः कारं कारं फटीप्रदेशे विश्रान्तो भवति / नाटये अर्धचन्द्रहस्त: कटीतटगतो भवति / नृत्ते पक्षवञ्चितको वा, पक्षप्रद्योतको वा भवति // 966-971 // इति द्वात्रिंशचारीलमणम। (सु०) अथ देशीचारी लक्षयति-चतुरश्रमिति / यत्र चतुरश्रमासाद्य भूलग्नौ पादौ पृष्ठतो वा प्रसर्पत: ; सा रथचक्रा // 972 // ___ इति रथचका (1) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ मनमो नर्तनाध्यायः पश्चादुसानिततलश्चरणः प्रमृतो बहिः / यस्यां परावृत्ततला शाह्नदेवेन सोदिता / / 973 // इति परावृत्ततला (2) स्थित्वा स्वस्तिकबन्धेन पार्योः प्रपदयोस्तथा / . रेचितौ चरणौ यत्र सोक्ता नूपुरविद्धका // 974 / / इति नूपुरविद्धा (3) वर्धमाने स्थितो स्थाने वामदक्षिणतो यदा / सरतो द्रुतमानेन पादौ तिर्यङ्मुखा तदा / / 975 // इति तियङ्मुखा (4) __(मु०) परावृत्ततलां लक्षयति-पश्चादिति / यत्र पश्चादुत्तानिततल: बहिः प्रसृतश्च चरणो भवति ; सा परावृत्ततला // 973 // इति परावृत्तातला (2) (सु०) नूपुरविद्धां लक्षयति-स्थित्वेति / यत्र स्वस्तिकबन्धे स्थित्वा पार्योः पादौ रेचितौ भवतः ; सा नूपुरविद्धा // 974 // इति नपुरविद्धा (3) (क०) अथ देशीचारीपु भौमीधु प्रथमोद्दिष्टायां रथचक्रायां चतुरश्रं समाश्रित्य भूलनौ चेदित्युक्तम् / अत्र चतुश्रशब्देन वक्ष्यमाणदेशीस्थानकमुच्यते / न तु वैष्णवस्थानकोक्ताङ्गसंनिवेशविशेषः / प्रसिद्धाप्रसिद्धयोः सिद्धस्यैव ग्राह्यत्वात् ; देशीत्वसंबन्धाच्च / पादयोkलमत्वेन प्रसर्पणमेव लोके निःसरणमित्युच्यते / परावृत्ततलादीनां लक्षणानि तु ग्रन्थत एव सुबोधानि / तत्र तत्रोक्तस्थानकानां लक्षणं तत्तल्लक्षणादवगन्तव्यम् / Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 300 संगीतरत्नाकरः नन्यावर्तस्थितौ पादौ पाणिपादाग्ररेचितौ / पुरः प्रसारितौ यस्यां सा मरालाभिधीयते // 976 // इति मराला (5) संहतस्थानके स्थित्वा पार्थाभ्यां घर्षतः क्षितिम् / चरणौ यत्र सा चारी करिहस्ता प्रकीर्तिता // 977 / / इति करिहस्ता (6) नन्यावर्तस्थयोरञ्ज्योस्तिर्यक्सृत्वा कुलीरिका / इति कुलीरिका (7) रथचक्रादीनां पञ्चत्रिंशचारीणां भौमीत्वं प्रायेण भूतलसंबन्धानपायादित्यव. गन्तव्यम् // 975-1000- // इति पञ्चत्रिंशद्रोमचार्यः / (सु०) तिर्यङ्मुखां लक्षयति--वर्धमाने इति / यत्र वर्धमानस्थितौ पादौ द्रुतमानेन वामतो दक्षिणतश्च चरत: ; सा तिर्यमुखा // 975 // इति तिर्यमुखा (4) (सु०) मरालां लक्षयति-नन्द्यावर्तेति / यत्र नन्द्यावर्तस्थौ पादौ पाणिपादापरेचितौ, पुरः प्रसारितौ च यथा भवतः ; सा मराला // 976 // इति मराला (5) (सु०) करिहस्तां लक्षयति-संहतेति / यत्र संहतस्थानस्थौ पादौ पार्श्वदेशाभ्यां भूमिं घर्षतः ; सा करिहस्ता // 977 // इति करिहस्ता (6) (सु०) कुलीरिकां लक्षयति-नन्द्यावर्तेति / नन्द्यावर्तस्थौ पादौ यत्र तिर्यक् सरत: ; सा कुलीरिका || 977- // इति कुलीरिका (7) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः पाणिविद्धस्थितौ पादौ चेद्विश्लिष्योपसर्पतः / / 978 // यदापसर्पतः मोक्ता सा विश्लिष्टाभिधा बुधैः / इति विश्लिष्टा (6) नन्द्यावर्तस्थपादाभ्यां पश्चात्सृत्वा तु कातरा // 979 / / इति कातरा (9) पाणिपार्श्वगते स्थाने स्थित्वा चेद्रेचिता कृता। पाणिस्तदोदिता चारी निष्णातैः पाणिरेचिता // 980 // इति पाणिरेचिता (10) एकपादे स्थितः स्थाने भूस्थेन चरणेन चेत् / ऊरुं ताडयति प्रोक्ता तदा चार्गुरुताडिता / / 981 // ___इत्यूरुताडिता (11) (10) विश्लिष्टां लक्षयति-पाणिरिति / यत्र पाणिविद्धस्थानस्थौ पादौ विश्लिष्य उपसर्पतः, अथवा प्रसर्पतः ; सा विश्लिष्टा // .978,978- // ___ इति विश्लिष्टा (8) (सु०) कातरां लक्षयति-नन्द्यावर्तेति / यत्र नन्द्यावर्तस्थौ पादौ पश्चात् सरतः ; सा कातरा // -979 // इति कातरा (9) (सु०) पाणिरेचितां लक्षयति-पाणीति / यत्र पाणिपार्श्वगते स्थाने स्थित्वा पाणि: रेचिता क्रियते ; सा पाणिरेचिना // 980 // इति पाणिरेचिता (10) (सु०) ऊरुताडितां लक्षयति-एकपादे •इति / यत्र एकपादे स्थाने स्थित्वा, भूगतेन पादेन ऊरुः ताडयति ; सा ऊरुताडिता // 981 // इत्यूकताडिता (11) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 302 संगीतरनाकरः उरुस्थस्वस्तिकाकारावधी संघर्षतो भुवम् / पार्धाभ्यां यत्र तामाहुरूरवेणी मनीषिणः / / 982 // इत्यूरुवेणी (12) अगुलीपृष्ठभागेन पुरतः सरतो द्रुतम् / प्रपदे यत्र सा चारी तलोवृत्ता मता सताम् / / 983 / / ___इति तलोवृत्ता (13) कुश्चिते स्वस्तिकीकृत्य वलितान्ते तले यदा / अङ्मयोरुत्प्लुत्य निपतेद्धरिणत्रासिका तदा / / 984 // इति हरिणत्रासिका (14) भृमिघृष्टया बहिर्नीतावावर्तेते शनैः क्रमात् / चरणौ यत्र तामाहुरर्धमण्डलिकां बुधाः / / 985 // ___ इत्यर्धमण्डलिका (15) (10) ऊरुवेणी लक्षयति-ऊरुस्थति / यत्र पादौ ऊरुस्वस्किमालम्ब्य पार्वाभ्यां भूमि घर्षयतः ; सा ऊरुवेणी // 982 / / इत्यूरुवेणी (12) (सु०) तलोवृत्तां लक्षयति-अगुलीति / यत्र पादाने अशुलिपृष्ठभागेन द्रुतं पुरतो गच्छत: ; सा तलोद्वत्ता // 983 // इति तलोदात्ता (13) (10) हरिणत्रासिका लक्षयति-कुश्चिते इति / यत्र कुचिते स्वस्तिकीभूय वलितान्ते पादतले उत्प्लुत्य पतिता; सा हरिणत्रासिता // 984 // ___ इति हरिणत्रासिका (14) (सु०) अर्धमण्डलिकां लक्षयति-भूमीति / यत्र पादौ भूमिं घृष्ट्वा बहिनीता क्रमेण शनैरावत्यैते ; सा अर्धमण्डलिका // 985 // इस्यर्धमण्डलिका (15) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः यत्राकुञ्च्य तिरश्चीनं चरणं प्रक्षिपेन्मुहुः / तां तिर्यक्कुश्चितां चारीमाह श्रीकरणेश्वरः // 986 / / इति तिर्यक्कुञ्चिता (16) इतस्ततश्च चरणौ स्थापयेत विसंस्थुलौ / मत्तपद्यत्र तामाहुश्चारी धीरा मदालसाम् // 987 // __ इति मदालसा (15) भाकुञ्चितोऽनिरुक्षिप्योत्क्षिप्यान्येनाध्रिणा यदा / युज्यतेऽन्यस्तु संसपेत्तिर्यक्संचारिता तदा // 988 / / इति तिर्यक्संचारिता (18) उत्क्षिप्य कुश्चितौ पादौ न्यस्येदेकैकमग्रतः / यस्यां सोत्कुश्चिता चारी प्रोक्ता सोढलसूनुना / / 989 // ___ इत्युत्कुचिता (19) (सु०) तिर्यक्कुञ्चितां लक्षयति-यत्रेति / यत्र तिरश्चीनं पादमाकुञ्चप मुहुः प्रक्षिपति ; सा तिर्यक्कुचिता // 986 // इति तिर्यक्कुञ्चिता (16) (सु०) मदालसां लक्षयति-इतस्ततश्चेति / यत्र भूसंस्थितौ पादौ इतस्ततो मत्तवत् स्थापयेत् ; सा मदालसा // 987 // इति मदालसा (17) ___ (सु०) तिर्यक्संचारितां लक्षयति-यत्रेति यत्र आकुञ्चिता एकपाद: उत्क्षिप्योत्क्षिप्य अन्यपादेन युज्यते, अन्यश्च संसर्पति ; सा तिर्यकसंचारिता // 988 // इति तिर्यक्संचारिता (18) (सु०) उत्कुञ्चितां लक्षयति --उत्क्षिप्येति / यत्र कुञ्चितौ पादौ एकैकतोऽप्रतो न्यस्येत् ; सा उत्कुञ्चिता / / 989 // इत्युत्कषिता (19) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 304 संगीतरत्नाकरः तिर्यप्रसारितैकाघि पार्श्वमन्यत्तलेन चेत् / मुहुः संयोजयेदुक्ता स्तम्भक्रीडनिका तदा / / 990 / / ___इति स्वम्भकीडनिका (20) स्थानेऽधिः खण्डसूच्याख्ये तिष्ठन्नाकृष्य गतः / लध्यतेऽन्याज्रिणा थत्र सोक्ता लडितजयिका / / 991 // इति ललितजलिका (21) स्फुरिताने मृतौ वेगास्पृशोः पादपार्श्वयोः / ___ इति स्फुरिता (22) क्रमादाकृश्चिताघिभ्यां पश्चाद्त्यावकुश्चिता // 992 // इत्यवकुचिता (23) (सु०) स्तम्भकीडनिकां लक्षयति-तिर्य गिति / यत्र तिर्यक् प्रसारितैकचरणः, अन्यपादतलेन पार्श्व संयोजयति ; सा स्नम्भक्रीडनिका // 990 // इति स्तम्भनक्रीडनिका (20) (सु०) लडितजद्धिका लक्षयति-स्थान इति / यत्र खण्डसूचिस्थानस्थः एक: पादः अन्यपादेन आकृष्य वेगेन लङ्घयते ; सा लड़ितजचिका // 991 // इति लखितजातिका (21) (सु०) स्फुरितां लक्षयति-स्फुरितेति / यत्र पादौ पृष्ठयोः पादपार्श्वयोश्च अग्रे वेगात् सरतः ; सा स्फुरिता // 991- // इति स्फुरिता (22) (सु०) अवकुञ्चिता लक्षयति-क्रमादिति / यत्र आकुचितौ पादौ क्रमात् पश्चात् गच्छतः; सा अवकुञ्चिता // *992 // इत्यवकुचिता (23) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 305 सप्तमो नर्तनाध्यायः स्थाने विषमसूच्याख्ये स्थित्वोत्प्लुत्य पतन्भुवि / अशी संघट्टयेद्यत्र सोक्ता संघट्टिताभिधा // 993 / / इति संघट्टिता (24) धरण्यां चरणाग्रेण घातः खुत्ता निगद्यते / इति खुत्ता (25) घरणः स्वस्तिकाकारकारितः स्वस्तिका भवेत् // 994 // इति स्वस्तिका (26) यत्राशी संहतस्थाने स्थित्वा तिर्यक्पृथक्कृतौ / स्पृशतो बागपार्धाभ्यां भुवं सा तलदर्शिनी // 995 / / इति तलदर्शिनी (25) (सु०) संघट्टितां लक्षयति-स्थान इति / यत्र विषमसूचीस्थाने स्थित्वा, उत्प्लुत्य भूमौ पतन् पादः संघव्यते ; सा संघट्टिता // 993 // ___ इति संघट्टिता (24) (सु०) खुत्तां लक्षयति-धरण्यामिति / यत्र भूमौ पादामेण ताड्यते ; सा खुत्ता // 993- // ___ इति खुत्ता (25) (सु०) स्वस्तिकां लक्षयति-चरण इति / यत्र चरणः स्वस्तिकाकार गतः, सा स्वस्तिका // -994 // इति स्वस्तिका (26) (सु०) तलदर्शिनी लक्षयति-योति / यत्र पादौ संहतस्थाने स्थित्वा, तिर्यगेव पृथग्गत्वा, बाह्यपार्वाभ्यां भूमि स्पृशत: ; सा तलदर्शिनी // 995 // ___इति तलदर्शिनी (20) 39 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ संगीतरत्नाकरः निकुट्टनान्मियोऽधिभ्यामुद्धताभ्यां पुराटिका / इति पुराटिका (28) उत्तेन निकुट्टेन चरणेन निकुट्टनम् // 996 // उत्तस्यान्यपादस्य यत्र सार्धपुराटिका / ___ इत्यर्धपुराटिका (29) घरणोऽग्रे सरत्येको यत्र सा सरिका मता // 997 / / इति सरिका (30) पुरःसरणमधिभ्यां समाभ्यां स्फुरिका भवेत् / इति स्फुरिका (31) (सु०) पुराटिकां लक्षयति-निकुट्टनादिति / यत्र उदृत्तौ पादौ मिथो निकुटयेते ; सा पुराटिका // 995- // इति पुराटिका (28) (सु०) अर्धपुराटिकां लक्षयति-उवृत्तेनेति / यत्र उवृत्तेन निकुठून चरणेन, उद्वृत्तस्य अन्यचरणस्य निकुट्टनं क्रियते; सा अर्धपुराटिका // 996, 996- // इत्यर्धपुराटिका (29) (सु०) सरिकां लक्षयति-चरण इति / यत्र एकः पादः अग्रे सरति ; सा सरिका || -997 // इति सरिका (30) (मु०) स्फुरिकां लक्षयति-पुर इति / यत्र समाभ्यां चरणाभ्यां पुरतो सरणं क्रियते ; सा स्फुरिका // 997- // इति स्फरिका (11) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः स्थितिस्तु चरणाग्रेण कुश्चितेन निकुट्टिका / / 998 / / इति निकुट्टिका (32) पश्चान्यस्य पुरस्ताच्च प्रसार्य चरणं यदि / निकुट्टयेद्भुवं तेन लताक्षेपस्तदोदितः / / 999 / / इति लताक्षेपः (33) स्खलिते चरणे तिर्यगहुस्खलितिका भवेत् / इत्यस्खलितिका (34) पुरतः पृष्ठतस्तिर्यक्चरणौ युगपयदा // 1000 // स्खलतः प्रोच्यते चारी समस्खलितिका तदा / इति समस्खलितिका (35) इति पश्चत्रिंशद्रोमचार्यः / (सु०) निकुट्टिकां लक्षयति-स्थितिस्त्विति / यत्र कुश्चितेन चरणाग्रेण स्थितिः क्रियते ; सा निकुट्टिका // -998 // इति निकुट्टिका (32) __ (सु०) लताक्षेपं लक्षयति-पश्वादिति / यत्र चरणं पश्चात् न्यस्य, पुरस्ताच्च प्रसार्य, तेन चरणेन यदि भूमि निकुव्यते ; स लताक्षेपः // 999 // इति लताक्षेपाः (33) (सु०) अइस्खलितिकां लक्षयति-स्खलिते इति / यत्र पादः तिर्यक् स्खलितः ; सा अहस्खलितिका // 999- // __ इत्यहस्खलितिका (34) (सु०) समस्खलितिका लक्षयति-पुरत इति / यत्र चरणद्वयं पुरतः पृष्ठतश्च युगपत् स्खलति ; सा समस्खलितिका // -1000, 1000- // इति समस्खलितिका (35) इति पञ्चत्रिंशदौमचार्य: Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ संगीतरनाकरः यस्यां पुरोऽधिमुक्षिप्य ललाटस्योपरि द्रुतम् // 1001 // भ्रामयित्वा भुवि न्यस्येद्विद्युभ्रान्ताममूं विदुः / ___ इति विद्युगान्ता (1) अघि कुश्चितमुत्क्षिप्य पुरो विस्तार्य गतः // 1002 // विन्यसेदवनौ यत्र पुरःक्षेपा भवेदसौ / इति पुर:क्षेपा (2) पुरो गगनभागे चेत्प्रसार्य चरणं मुहुः // 1003 // आकुञ्चयेत्तदा चारी विक्षेपा शाहिणोदिता / इति विक्षेपा (3) (क०) विद्युभ्रान्तादीनामेकोनविंशतिचारीणामाकाशिकीत्वमाकाशे व्यापारपाचुर्यादित्यवगन्तव्यम् // 1001-1016 // (सु०) अथाकाशिकी विद्युभ्रान्तां लक्षयति--यस्यामिति / यत्र पुरत: पादमुत्क्षिप्य, ललाटोपरि तूर्णं भ्रामयित्वा भूमौ न्यस्येत ; सा विद्युद्भ्रान्ता // -1001, 1001. // इति विद्युझान्ता (1) (सु०) पुरःक्षेपां लक्षयति-अद्धिमिति / यत्र कुश्चितं पादमुत्क्षिप्य, पुरत: वेगेन विस्तार्य भूमौ विन्यसेत् ; सा पुरःक्षेपा // 1002, 1002- // इति पुरःक्षेपा (2) (सु०) विक्षेपां लक्षयति-पुर इति / यत्र पुरतः गगनप्रदेशे पादं प्रसार्य मुहुराकुञ्चयेत् ; सा विक्षेपा // -1003, 1003- // इति विक्षेपा (3) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ सप्तमो नर्तनाध्यायः नता रुत्प्लुत्याभीक्ष्णं निपाताद्धरिणप्लुता // 1004 // ___ इति हरिणता (4) पायपार्थेन यत्रोरोः पृष्ठं स्पृष्ठेतरत्पदम् / नितम्बनिकटं याति सापक्षेपा प्रकीर्तिता 1005 // इत्यपझेपा (5) उमर्याकुश्चितस्याऽर्वामदक्षिणतो भ्रमात् / इति डमरी (6) यत्र स्वस्तिकमावर्त्य प्रोत्क्षिपेत्तिर्यगूलतः // 1006 // चरणौ दण्डपादा सा चारी निःशङ्ककीर्तिता / इति दण्डपादा (7) (सु०) हरिणप्लुतां लक्षयति-नतेति / यत्र पादौ अभीक्ष्णं यथातथा उत्प्लुत्य भूमौ निपातयेत् ; सा हरिणप्लुता // -1004 // इति हरिणता (4) (सु०) अपक्षेपां लक्षयति-बाह्येति / यत्र ऊरो: बाह्यपृष्ठं पार्श्वन स्पृष्टा, इतरत्पदं नितम्बसमीपं गच्छति ; सा अपक्षेपा // 1005 // इत्यपक्षेपा (5) (सु०) डमरी लक्षयति-डमयेति / यत्र आकुचितपाद: वामलो दक्षिणत: क्रमात् क्षिप्यते ; सा डमरी // 1005- // इति उमरी (6) (सु०) दण्डपादां लक्षयति--यति / यत्र पादौ स्वस्तिकमावत्यं तिर्यगूज़ च प्रोत्क्षिप्येते ; सा दण्डपादा || -1006, 1006- // इति दण्डपादा (7)
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________________ 310 ४क्षपधाद / सगीतरनाकरः विस्तार्याधी प्लुतं कृत्वा गमनं ताइयेन्मिथः / / 1007 // यदा पादतलद्वन्द्वं तदा चार्यघ्रिताडिता / इत्यङ्घ्रिताडिता (8) किंचिदाकुञ्चितं पादमधिणान्येन लङ्घयेत् // 1008 / / गगने चेसदा चारी जङ्घालवनिका मता / इति जकालनिका (7) अलाताङ्ग्रौ पृष्ठगते शीघ्रमन्याङ्ग्रिलविते // 1009 / / इत्यलाता (10) सलमन्तर्धमस्याऽर्जानुपृष्ठे क्षिपेद्यदि / बहिर्कामस्य तत्पार्थे जङ्घावर्ता तदा भवेत् / / 1010 / / इति जवावर्ता (11) (सु०) अनिताडिकां लक्षयति-विस्तार्याधीति / यत्र पादं विस्तीर्य प्लुति कृत्वा आकाशे पादतलद्वयं परस्परं ताडयेत् ; सा अघ्रिताडिका || -1007, 1007- // ___इत्यघ्रिताटिका (8) (सु०) जवालङ्घनिकां लक्षयति—किंचिदिति / यत्र ईषदाकुश्चितं चरणम् अन्येन पादेन आकाशे लङ्घयेत् ; सा जङ्घालङ्घनिका // -1008, 1008- // इति जवालकनिका (1) (सु०) अलाता लक्षयति-अलातेति / यत्र पृष्ठगतः पादः, अन्यपादेन . तूर्ण लभ्यते ; सा अलाता || - 1009 // ___ इत्यलाता (10) (सु०) जङ्घावर्ती लक्षयति-तलमिति / यत्र अन्तर्धान्तपादतलं जानुपृष्ठे बहिन्तिपादतलं तत्पार्श्व निक्षिप्यते ; सा जङ्घावर्ता // 1010 // इति जलावर्ता (19) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________ 311 सप्तमो नर्तनाध्यायः अघिणैकेन वेदन्यं वेष्टयेद्वेष्टनं तदा / तदेव वलनं केचिदवदन्नृत्तकोविदाः // 1011 // इति वेष्टनम् (12) उद्वेष्टनं घेष्टयित्वा पृष्ठतोऽङ्ग्रौ प्रसारिते। __इत्युद्वेष्टनम् (13) आकुश्चितस्य पादस्य पुरतः पृष्ठतस्तथा // 1012 // उत्क्षेपो जानुपर्यन्तमुत्क्षेपः कथ्यते बुधैः / इत्युत्क्षेपः (14) स चेत्पृष्ठत एव स्यात्पृष्ठोत्क्षेपममुं विदुः / / 1013 // इति पृष्ठोत्क्षेपः (15) (सु.) वेष्टनं लक्षयति-अज्रिणेति / यत्र एकपादेन अपरपादं वेष्टयति ; तद् वेष्टनम / तदेव वलनमिति केचिद्वदन्ति // 1011 // इति वेष्टनम् (12) (सु०) उद्वेष्टनं लक्षयति----उद्वेष्टन मिति / यत्र पाद: पृष्ठतो वेष्टयित्वा, पुतर: प्रसार्यते ; तद् उद्वेष्टनम् // 1011- // ___इत्युद्वेष्टनम् (13) (सु०) उत्क्षेपं लक्षयति-आकुञ्चितस्येति / यत्र आकुश्चित: पाद: पुरत: पृष्ठतश्च जानुपर्यन्तमुत्क्षिप्यते; स उत्क्षेपः // -1012, 1012 // ___ इत्युत्क्षेपः (14) __(मु०) पृष्ठोत्क्षेपं लक्षयति--स इति / स एवं ; उत्क्षेप एव, पृष्ठमात्रे उस्क्षिप्तश्चेत् ; तदा पृष्ठोत्क्षेपः // 1013 // इति पृष्ठोक्षेपः (15) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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संगीतम्बाकरः उरः पार्थेन विन्यस्य पदं यत्र प्रसारयेत् । तीक्ष्णाग्रीकृत्य तामाह सूची श्रीकण्ठवल्लभः ॥ १०१४ ।।
इति सूची (१६) पादयोः स्वस्तिकेऽस्यैकः किंचिदान्दोलितः पुरः । कुश्चितश्चरणो यत्र सा विद्धा बोधिता बुधैः ॥ १०१५ ॥
इति विद्धा (१७) ललिता दलिता मूर्तिरुत्तश्चरणो भवेत् । यत्र तत्मावृतं ज्ञेयं मकरध्वजजीवनम् ।। १०१६ ॥
इति प्रावतम् (१८) उल्लोलः स्याचरणयोः क्रमेणोल्लालनादिवि ।
इत्युल्लोल: (१९) इत्योकनविंशत्याकाशचार्यः ।
इति षडशीतिर्मागेदेशीचार्यः । (सु०) सूर्ची लक्षयति-उर इति । यत्र उर: पार्वन विन्यस्य, पादः तीक्ष्णाग्रीकृत्य प्रसार्यते ; सा सूची ॥ १०१४ ॥
इति सूची (१६) __(सु०) विद्धां लक्षयति-पादयोरिति । यत्र एकः पादः स्वस्तिकीभूय किंचिद् आन्दोल्यते, अन्यश्च कुञ्चितो भवति ; सा विद्धा ॥ १०१५ ॥
इति विदा (१७) ___ 'सु०) प्रावृतं लक्षयति-ललितेति । यत्र मूर्तिः वलिता; पादौ उद्धृत्तौ भवत: ; तत् पश्चशरजीवनं प्रावृतं ज्ञेयम् ॥ १०१६ ॥
इति प्रावृतम् (१८) (सु०) उल्लोलं लक्षयति-उल्लोल इति । यत्र पादयोः क्रमेण आकाशे उल्लोलनं क्रियते ; स उल्लोलः ॥ १०१६॥
इत्युलोलः (१९) इस्योफनविंशत्याकाशचार्यः । इति षडशीतिर्मार्गदेशीचार्यः ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३१३ (क०) एतासां चतुष्पश्चाशञ्चारीणां देशीत्वं भरतानुक्तत्वे सति कोहलाद्युक्तत्वाद् द्रष्टव्यम् । लोके मधुपसंज्ञकाश्चारीविशेषा देशीचारीष्वे. वान्तर्भूता मन्तव्याः । ता अप्यत्र व्याख्याने कोहलोक्ताः प्रदर्श्यन्ते । यथा
" अथ पादनिकुट्टाख्यचारीणां लक्षणं ब्रुवे । पादकुट्टनचारी तु लोके मधुपसंज्ञिका ॥ तस्याश्च बहवो भेदा दिङ्मात्रं चोच्यते मया । सव्यापसव्यचलनं पादचारीषु मोच्यते ॥ निकुट्टनं तु पादेन ताडनं स्यान्महीतले ।. उद्देशः क्रियतेऽन्वर्थश्चारीणां स्वोचितो मतः ॥ पुर:पश्चात्सरा चारी तथा पश्चात्पुरःसरा । त्रिकोणचारी पश्वाच्च तथैकपदकुट्टिता ।। पादद्वयनिकुट्टाख्या पादस्थितिनिकुट्टिता । क्रमपादनिकुट्टा च पार्श्वद्वयचरी तथा ।। चारी डमरुकुट्टाख्या डमरुद्वयकुट्टिता । पुरःक्षेपनिकुट्टा च पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता ॥ पार्श्वक्षेपनिकुट्टा च चतुष्कोणाख्यकुट्टिता । मध्यस्थापनकुट्टा च तिरश्चीनाख्यकुट्टिता ॥ चारी च पृष्ठलुठिता पुरस्ताल्लुठिता तथा । अनुलोम विलोमा च प्रतिलोमानुलोमिका ।। समपादनिकुट्टा च चक्रकुट्टनिका ततः । मध्यचक्रा ततो मध्यलुठिता वक्त्रकुट्टिता ॥ पञ्चविंशतिसंख्याश्च कीर्तिता ह्यर्थयोगतः ।
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संगीतरत्नाकरः एवमन्याश्च कर्तव्याश्चार्यश्चान्वर्थलक्षणाः ॥ इति चारीणामुद्देशः ।
पादशिक्षासु कर्तव्याः करव्यापारनर्तनैः । निकुठ्य च तलेनादौ पुरःपश्चान्निधीयते ॥ पादश्चाङ्गुलिपृष्ठेन स्वस्थाने चापि कुट्टितः । पुरःपश्चात्सरा नाम सान्वर्था परिकीर्तिता ॥
इति पुरःपश्चात्सरा (१) सैव पश्चात्पुरःक्षेपात्रोक्ता पश्चात्पुरःसरा ।
• इति पश्चात्पुरःसरा (२) निवेशिताभिधः पादः स्थापितोऽगुलिपृष्ठतः । निकुट्टितः पुरस्ताच्च पार्श्वे पृष्ठे निवेशितः ॥ चरणागुलिपृष्ठेन पुनः स्थाने च कुट्टितः । त्रिकोणचारी सोद्दिष्टा चारी चान्वर्थसंज्ञिका ॥
इति त्रिकोणचारी (३) कुट्टितश्च स्वपार्श्वे च स्थापितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । पुनर्निकुट्टितस्थाने सा चैकपदकुट्टिता ।।
___ इत्येकपदकुट्टिता (४) एवं पादद्वयकृता सा पादद्वयकुट्टिता।
इति पादद्वयकुट्टिता (५) कुट्टितः प्रथमं पादः स्थितश्चाङ्गुलिपृष्ठतः । अन्यस्ततः कुट्टितश्चेत्पादस्थितिनिकुट्टिता।।
इति पादस्थितिनिट्टिता (८)
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३१५
सप्तमो नर्तनाध्यायः पादद्वयकृता सैव क्रमपादनिकुट्टिता ।
इति क्रमपादनिकुट्टिता (७) कुट्टितोऽङ्गुलिपृष्ठे च स्थितः पादोऽपरः स्थितः । स्वस्तिकस्थापितः पूर्वः स्वपार्श्वे स्थलकुट्टितः ।। एवं पादद्वयेनापि सा पार्श्वद्वयचारिणी ।
इति पार्श्वद्वयचारिणी (6) कुट्टितश्वरणः पूर्व लुठितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । पश्चान्निकुट्टितस्थाने भवेड्डमरुकुट्टिता ।
इति डमरुकुट्टिता (९) पादद्वयकृता सा चेडुमरुद्वयकुट्टिता ।
इति डमरुद्वयकुहिता (१०) कुट्टितश्चरणः पूर्व पुरतोऽङ्गुलिपृष्ठतः । स्थापितः कुट्टितस्थाने पुरःक्षेपनिकुट्टिता ॥
इति पुरःक्षेपनिकुहिता (११) पश्चारक्षेपाच्च सा प्रोक्ता पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता ।
इति पश्चात्क्षेपनिकुट्टिता (१२) पार्श्वतश्च पुनः क्षेपात्पार्श्वक्षेपाख्यकुट्टिता ।
इति पार्श्वक्षेपाख्यकुठ्ठिता (१३) कुट्टितश्चरणः पूर्व पुरः पश्चान्निवेशितः । व्यश्रभावात्पुनश्चापि पुरः पश्चात्तदन्यथा ॥ कुट्टितश्च ततः स्थाने चतुष्कोणाख्यकुट्टिता ।
इति चतुष्कोणकुट्टिता (१४)
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३१६
संगीतरनाकरः कुट्टितः प्रथमं पादः पुरः पश्चान्निवेशितः । मध्ये निवेशितश्चायं पुनस्तत्रैव कुट्टितः ॥ मध्यस्थापनकुट्टाख्या चारी चान्वर्थलक्षणा ।
इति मध्यस्थापनकुटा (१५) कुट्टितश्चरणः पूर्व स्वपार्श्वेऽप्यन्यपार्श्वके । निक्षिप्तश्चापि मध्ये च तत्रापि च निकुट्टितः ॥ सा तिरश्वीनकुट्टाख्या प्रोक्ता सार्थप्रचारिका ।
इति तिरधीनकुहिता (१६) कुट्टितश्चरणः पृष्ठे लुठितोऽङ्गुलिपृष्ठतः । पुनश्च कुट्टितस्थाने सा पृष्ठलुठिताभिधा ॥
इति पृष्ठलुठिता (१५) पुरस्ताच कृता सैव पुरस्ताल्लुठिताभिधा ।
इति पुरस्ताल्लुठिता (१८) त्रिकोणचारी या चारी त्वनुलोमविलोमगा । स्वस्थाने स्थापितपदा ततस्तत्रापि कुट्टिता ॥ सानुलोमविलोमाख्या चारीयं परिकीर्तिता ।
इत्यनुलोमविलोमा (१९) विपरीतप्रचारा सा प्रतिलोमानुलोमिका ।
इति प्रतिलोमानुलोमिका (२०) निकुट्टितौ समौ पादौ स्थितौ चाङ्गुलिपृष्ठयोः । समपादनिकुट्टा च कीर्तितान्वर्थलक्षणा ॥
इति समपादनिकुट्टिता (२१)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः स्थानं स्थितिर्गतिश्चारी स्थानमाद्यन्तयोर्गतेः ॥ १०१७ ॥
कुट्टितं चरणं पश्चाद् भ्रामयित्वा च विन्यसेत् । कुट्टयेच्च ततः स्थाने चक्रकुट्टनिका मता ॥
इति चक्रकुदृनिका (२२) कुदृयित्वा च विन्यस्य भ्रामयित्वा न्यसेत्ततः । निकुट्टयेत्ततः स्थाने मध्यचक्रा प्रकीर्तिता ॥
- इति मध्यचक्रा (२३) कुट्टयित्वा च विन्यस्य लुठितश्च निकुट्टितः । सा मध्यलुठिता चेति कीर्तितान्वर्थनामिका ॥
___ इति मध्यलुठिता (२४) कुट्टयित्वा च विन्यस्य भ्रामितो लठितस्ततः । कुट्टितश्च पुनः स्थाने वक्त्रकुट्टनिकाभिधा ॥
इति वक्त्रकुटनिका (२५) एवं प्रकीर्तिताश्चार्यः पञ्चविंशतिसंख्यया ।
एवमन्याश्च विज्ञेयाश्चार्यो बुद्धया मनीषिभिः" ॥ इति । प्रसङ्गान्मधुपसंज्ञाश्चार्यो दर्शिताः । प्रकृतमनुसरामः ॥ १०१६- ॥
इत्येकोनविंशतिराका शिक्यश्चार्यः । इत्युभय्यश्चतुष्पञ्चाशद्देशीचार्यः ।
इति षडशीतिर्मार्गदेशीचार्य: । (क०) अथ चारीणामनन्तरं स्थानकानां लक्षणे संगति दर्शयितुमाह-स्थानं स्थितिरित्यादि । स्थीयतेऽस्मिन्निति व्युत्पत्त्या अधिकरण
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३१८
संगीतरत्नाकरः स्थित्वा गच्छति गत्वा च तिष्ठतीत्यविनाकृताः ।
चार्यः स्थानेन ताभ्योऽतोऽनन्तरं स्थानमुच्यते ॥ १०१८ ॥ साधनत्वं मा विज्ञायीतेति स्थानशब्दस्य भावसाधनतां दर्शयति-स्थानं स्थितिरिति । चर्यतेऽनयेति व्युत्पत्त्या गतिरेव चारीशब्दोनोच्यत इत्याह-गतिश्चारीति । तच्च स्थानं गतेरादावन्ते च नियमेन भवतीत्याह-स्थानमाधन्तयोर्गतेरिति । अमुमेवार्थ लोकसंमत्या द्रढयतिस्थित्वा गच्छति गत्वा च तिष्ठतीति । तत्र स्थित्वा गच्छतीति स्थिते. रादिभावनियमो दर्शितः । गत्वा च तिष्ठतीति स्थितेरन्त्यभाव नियमश्च । अत्र धूमाम्योरिख व्याप्तिनियमो द्रष्टव्यः । ततो गतिरेव स्थानेन व्याप्ता । न तु स्थानं गत्येति । यथामिना धूमो व्याप्तः । नतु धूमेनामिरितिवत् । इतीत्यादि । इत्युक्तप्रकारेण चार्यः स्थानेनाविनाकृता व्याप्ताः । यतोऽत इत्यध्याहर्तव्यम् । ताभ्यश्चारीभ्योऽनन्तरमव्यवधानेन स्थानकमुच्यत इति संगतिप्रदर्शनम् । स्थानकानां सामान्यलक्षणमाह-संनिवेशविशेष इत्यादि। निश्चलश्चलनरहितः । अङ्गे शरीरे संनिवेशविशेषः । अत्र विशेषशब्देन बुद्धिपूर्व कृत इत्यवगन्तव्यम् । तेन लौकिकादङ्गसंनिवेशाद्वयावृत्तिद्रष्टव्या ॥ १०१७, १०१८-॥
(सु०) अथ चारीनिरूपणानन्तरं स्थानकानां लक्षणं वक्तुमारभतेस्थानमिति । स्थितिः स्थानमित्युच्यते । गतिः चारीत्युच्यते । स्थित्वा गच्छति, गत्वा च तिष्ठति ; अतः तद् द्वयमप्यविनाभूतम् । स्थानेन चा[पलक्षितः । इदानीं स्थानं कथ्यते । अङ्गे निश्चल: संनिवेशविशेषः स्थानम् । तच्च द्विविधम् , पुंस्थानम् ; स्त्रीस्थानमिति । आद्यं षडिधम् , वैष्णवम् , समपादम् , वैशाखम् , मण्डलम् , प्रत्यालीढम् , आलीढमिति । द्वितीयं सप्तविधम् ; आयतम् , अवहित्थम् , क्रान्तम् , गतागतम् , वलितम् , मोटितम् , विनिवर्तितमिति ॥ -१०१७-१०२१- ।।
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३१९
सप्तमो नर्तनाध्यायः संनिवेशविशेषोऽङ्गे निश्चलः स्थानमुच्यते । वैष्णवं समपादं च वैशाखं मण्डलं तथा ॥ १०१९ ॥ आलीढप्रत्यालिडे च स्थानानीति नरेषु षट् । अथ स्थानानि वक्ष्यामस्त्रीणि स्त्रीणां मुनेर्मतात् ॥ १०२० ॥ आयताख्यावहित्थाश्वक्रान्तान्यन्यच्चतुष्टयम् । अथापि चेति वदता मुनिना सूचितं ब्रुवे ।। १०२१ ।। गतागतं च वलितं मोटितं विनिवर्तितम् । अथ देशीस्थानकानां त्रयोविंशतिरुच्यते ।। १०२२ ॥ स्वस्तिकं वर्धमानाख्यं नन्द्यावर्त च संहतम् । समपादं चैकपादं पृष्ठोत्तानतलं तथा ॥ १०२३ ।। चतुरश्रं पाणिविद्धं पाणिपार्श्वगतं तथा । एकपार्श्वगतं च स्यादेकजानुनताभिधम् ।। १०२४ ।। परावृत्ताहयं सूचि समादि विषमाद्यपि । खण्डसूचि ततो ब्राह्म वैष्णवं शैवगारुडे ।। १०२५ ॥ कूर्मासनं नागबन्धं वृषभासनमित्यपि । स्वस्थ मदालसं क्रान्तं स्याद्विष्कम्भितमुत्कटम् ॥ १०२६ ॥ स्रस्तालसं जानुगतं मुक्तजानु विमुक्तकम् । उपविष्टस्थानकानि नवेति भरतोऽब्रवीत् ॥ १०२७ ।। सममाकुश्चितं स्थानं प्रसारितविवर्तिते । उद्वाहितं नतं चेति सुप्तस्थानानि सन्ति षट् ॥ १०२८ ।। इति स्थानानि षट्पुंसां स्त्रीणां सप्तापराण्यपि ।
(क०) तद्भेदानुद्दिशति-वैष्णवमित्यादि । वैष्णवादिष्वेकपश्चा
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३२०
संगीतरत्नाकर:
त्रयोविंशतिरुक्तानि नव स्थानानि चासने ।। १०२९ ।। सुप्तस्थानानि षट् तानि सर्वाणि मिलितानि तु । एकपञ्चाशदाचष्ट निःशङ्कः करणाग्रणीः ।। १०३०॥ सर्वेषां वच्मि लक्ष्मैषामिदानीं तद्विदां मतम् । एकः समस्थितः पादस्त्र्यत्रः पक्षस्थितोऽपरः सार्धद्वितालान्तरालो जङ्घा किंचिन्नता भवेत् । सौष्ठवं यत्र तज्ज्ञेयं वैष्णवं विष्णुदैवतम् ।। १०३२ ॥ प्रकृतिस्थस्य संलापे नानाकार्यान्तरान्विते । प्रयोज्यं तन्मुनिः प्राह नृभिरुत्तममध्यमैः || १०३३ ॥
१०३१ ॥
शत्स्थानकेषु मध्ये, स्वस्तिकादीनि त्रयोविंशतिः स्थानकानि देशीस्थानकानि । देशीमार्गविवेकश्च चार्युक्तप्रकारेण द्रष्टव्यः ॥ १०१९-१०३०- ॥
(सु० ) अथ देशीस्थानानि लक्षयति - अथेति । देशीस्थानानि त्रयोविंशतिविधानि—स्वस्तिकम्, वर्धमानम्, नन्द्यावर्तम्, संहतम्, समपादम्, एकपादम्, पृष्ठोत्तानतलम्, चतुरश्रम्, पाष्णिविद्धम्, पाष्णिपार्श्वगतम्, एकपार्श्वगतम्, एकजानुगतम्, परावृत्तम्, समसूचि, विषमसूचि, खण्डसूचि, ब्राह्मम्, वैष्णवम्, शैवम्, गारुडम्, कूर्मासनम्, नागबन्धम्, वृषभासनमिति । उपविष्टस्थानकान्याह - स्वस्थ मिति । स्वस्थम्, मदालसम्, क्रान्तम्, विष्कम्भम्, उत्कटम्, स्रस्तालसम्, जानुगतम्, मुक्तजानु, विमुक्तमिति नव उपविष्टस्थानकानि । सुप्तस्थानकान्याह - सममिति । समम्, आकुञ्चितम् प्रसारितम्, विवर्तितम्, उद्वाहितम्, नतमिति षट् सुप्तस्थानकानि । आहत्यैकपञ्चाशत्स्थानकानि भवन्ति । तत्र स्वस्तिकादीनि त्रयोविंशतिः देशीस्थानकानि । देशीमार्गविभागस्तु चार्युक्तप्रकारेण बोध्यः ॥ -१०२२-१०३०- ॥
(क०) तत्र वैष्णवस्थानकस्य लक्षणम् - एकः समस्थित इत्यादि ।
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३२१
सप्तमो नर्तनाध्यायः विष्णुवेषधरेणैव नटेनेत्यपरे जगुः । सूत्रधारादिना नाट्यस्थितिकति चापरे ।। १०३४ ॥ पक्षस्थितोऽसौ चरणो यः पार्थाभिमुखागुलिः । त्र्यश्रः स एव किंचिच्चेत्पुरोदेशाभिमुख्यभाक् ॥ १०३५ ॥ अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुल्यौ ये हस्तस्य प्रसारिते । तदग्रयोरन्तरालं तालमाहुर्मनीषिणः ।। १०३६ ।। कटी जानुसमा यत्र कूर्परांसशिरःसमम् । उरः समुन्नतं सन्नं गात्रं तत्सौष्ठवं भवेत् ॥ १०३७॥ संत्रं स्वस्थानविश्रान्तं निषण्णं त्वचलस्थिति । चलपादमनत्युच्चमचञ्चलमकुब्जकम् ॥ १०३८ ।। सौष्ठवेऽङ्गं भवेत्तच्च कार्यमुत्तममध्यमैः । एतच्च वैष्णवं स्थानं चतुरश्रस्य जीवनम् ॥ १०३९ ॥ वैष्णवं स्थानकं यत्र कटीनाभिचरौ करौ। पृथक्समुन्नतं वक्षश्चतुरश्रं तदुच्यते ॥ १०४० ॥
इति वैष्णवम् (१) तत्र पक्षस्थितस्य पादस्य लक्षणमाह-यः पार्थाभिमुखामुलिरिति । व्यश्रस्य लक्षणमाह-व्यश्रः स एवेति । पक्षस्थित एव किंचित्पुरोदेशाभिमुख्यभाक्चेत् , व्यश्रो भवति । अत्र तालशब्देन रेखाशास्त्राश्रयः परिमाणभेद उच्यते । तस्य तालस्य लक्षणमाह-अगुष्ठमध्यमाङ्गुल्यावित्यादि । इदमेवादेशपरिमाणम् - " तालान्तरौ तदा स्यातामतालखटकामुखौ" इत्यादिषु द्रष्टव्यम् । न तु प्रसिद्ध कालपरिमाणं तद्वयञ्जको घनवाद्यभेदो वा । सौष्ठवस्य लक्षणमाह-कटी जानुसमेत्यादि । कूर्परांसशिर इति । कूर्परौ चांसौ च शिरश्चेति प्राण्यङ्गत्वादेकवद्भावः । तानि कूर्परादीनि सौष्ठवे मिथः समानि कर्तव्यानि भवन्ति । प्रसङ्गात्सन्ननिषण्णशब्दयोरर्थमाह
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३२२
संगीतरत्नाकरः प्रधानं सौष्ठवं पादावेकतालान्तरौ समौ । यत्र तत्समपादं स्याच्चतुराननदैवतम् ॥ १०४१ ॥ एतच्च विप्रदत्ताशीःस्वीकारेऽथ निरीक्षणे । मध्यमानां विहङ्गानां कन्यावरकुतूहले ॥ १०४२ ।। लिङ्गिवतिविमानस्थस्यन्दनस्थेषु चेष्यते ।
इति समपादम् (२) सन्नं स्वस्थानविश्रान्तं निषण्णं त्वचलस्थितीति । सौष्ठवे शरीरस्य स्थितिविशेषमाह-चलपादमित्यादि । चतुरश्रस्य जीवनमित्येतेन प्रसक्तस्य चतुरश्रस्य लक्षणमाह-वैष्णवं स्थानकं यत्रेत्यादि । १०३१-१०४०॥
___ इति वैष्णवम् (१) (सु०) तत्र वैष्णवस्थानकं लक्षयति- एक इति । यत्र एक: पाद: समः, अन्यः त्र्यश्रीभूय वक्षसि वर्तते ; जङ्घा च सार्धतालद्वयान्तराले किंचिन्नता भवति । तत्सौष्ठवं विष्णुदेवतासंबन्धि वैष्णवं स्थानं भवति । तच्च प्रकृतिस्थस्य नानाकार्यान्तरलंसापे उत्तमैः मध्यमैश्च पुरुषैः प्रयोज्यमिति मुनेर्मतम् । अपरे तु विष्णुवेषधारिणेव नटेनेत्याहुः । अन्ये नाट्यस्थितिका सूत्रधारादिना प्रयोज्यमित्याहुः । पक्षस्थित इति । यश्चरणः पार्धाभिमुखामुलिर्भवति, असौ पक्षस्थितः । अङ्गुष्ठेति । हस्तस्य प्रसारित अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुल्यग्रान्तरालं ताल इत्युच्यते । कटीति | यत्र कटीकूर्परजानुशिरःसमं वक्षः समुन्नतं, गात्रं च सन्नं तत्सौष्ठवम् । सौष्ठवे अङ्गं सन्नं स्वस्थानविश्रान्तं निषण्णं, समपादं, अनत्युच्चम् , अचञ्चलम् , अकुब्जं च भवति । एतदेव चतरश्रजीवनं वैष्णवं स्थानम् । यत्र हस्तकटी नाभिचारिणौ, वक्षः समुन्नतं च भवति, तत् चतुरश्रमित्युच्यते ॥ -१०३१-१०४०- ॥
इति वैष्णवम् (१) (क०) अतः परं समपादादीनि स्थानकानि ग्रन्थत एव व्यक्तलक्षणानि ॥ १०४१-१०५३ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३२३ भूमेरूद्धनिषण्णौ चेत्सार्धतालत्रयान्तरे ॥ १०४३ ॥ नभस्यूरू चरणयोस्तावदेवान्तरं भुवि । ज्यश्रपक्षस्थयोः स्थानं वैशाखं कथितं तदा ॥ १०४४ ॥ विशाखदैवतं तच्च स्थूलपक्षीक्षणे भवेत् । युद्धादौ प्रेरणेऽश्वानां वेगदाने च वाहने ॥ १०४५ ।।
इति वैशाखम् (३) पक्षस्थौ चरणौ व्यश्रावकतालान्तरौ भुवि । कटीजानुसमौ व्योम्नि सार्धतालद्वयान्तरे ।। १०४६ ॥ ऊरू यत्र निषण्णौ तन्मण्डलं शक्रदैवतम् । धनुर्वजादिशस्त्राणां प्रयोगे गजवाहने ॥ १०४७ ।। वीक्षणे गरुडादीनामिदं मुनिरुपादिशत् । चतुस्तालान्तरौ पादौ मण्डलेऽन्ये प्रचक्षते ॥ १०४८ ॥
इति मण्डलम् (४) (सु०) समपादं लक्षयति-प्रधानमिति । यत्र पूर्वोक्तं सौष्ठवं प्रधानम् , एकतालान्तरे पादौ च समौ भवतः ; तद् ब्रह्मदेवताकं समपादं भवति । तच्च विप्रार्पिताशीर्वचनस्वीकरणे, मध्यविहङ्गनिरीक्षणे, कन्यावरकौतुके, लिङ्गिनि, व्रतिनि, विमानस्थे, स्यन्दनस्थे च प्रयोज्यम् ॥ १०४१-१०५२- ॥
इति समपादम् (२) (सु०) वैशाखं लक्षयति-भूमेरिति । यत्र भूमेः ऊर्ध्वं सार्धतालत्रयान्तराले आकाशे ऊरू निषण्णौ भवतः, तावदेव अन्तराले भूतले चरणौ त्र्यश्रपक्षस्थौ भवतः, तत् वैशाखं भवति। तच्च विशाखदेवताकम् । स्थूलपक्षीक्षणे, युद्धादौ, अश्वानां प्रेरणे, वेगदाने, वाहने च प्रयोज्यम् ॥ -१०४३, १०४५- ॥
इति वैशाकम् (३) (सु०) मण्डलं लक्षयति--पक्षस्थाविति । यत्र पादौ एकतालान्तरौ
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३२४
संगीतरत्नाकरः वामो यत्र निषण्णोरुरम्बरे पूर्वमानतः । दक्षिणश्चरणश्चाग्रे पश्चतालं प्रसारितः ॥ १०४९ ॥ त्र्यौ द्वावपि तद्विद्यादालीढं रुद्रदैवतम् । ईर्ष्याक्रोधकृतो जल्पः कार्यस्तेनोत्तरोत्तरः ॥ १०५० ॥ वीररौद्रकृतं मल्लसंघर्षास्फोटनादिकम् । तथा संधाय शस्त्राणि प्रत्यालीढं समाश्रयेत् ॥ १०५१ ॥
इत्यालीढम् (५) आलीढाङ्गविपर्यासात्मत्यालीढमुदीरितम् । आलीढकृतसंधानशस्त्रमेतेन मोक्षयेत् ॥ १०५२ ।। रुद्रं च दैवतं तत्र भापते शंभुवल्लभः । एषामाद्यानि चत्वारि दृश्यन्ते नाट्यनृत्तयोः ।। १०५३ ॥
भूमौ त्र्यश्रौ भवतः, कटीजानुसमं सार्धतालद्वयान्तरे नभसि ऊरू निषण्णौ भवतः, तत् शक्रदेवताकं मण्डलं स्थानं भवति । तच्च धनुर्वमादिशस्त्रप्रयोगे, गजवाहने, गरुडादिवीक्षणे च प्रयोज्यम् । अन्ये आचार्याः, अत्र मण्डलस्थानके चतुस्तालान्तरालौ प्रचक्षते ॥ १०४६-१०४८ ॥
इति मण्डलम् (४)
(सु०) आलीढं लक्षयति-वाम इति । यत्र वामः पादः आकाशे प्रथममानत: दक्षिणपादश्च अग्रे तालपञ्चकान्तराले प्रसारितो भवति, पादद्वयमपि त्र्यनं भवति ; तद् रुद्रदेवताकमालीढं स्थानं भवति । तच्च ईर्ष्याक्रोधकृते जल्पे, वीररौद्रकृते मल्लसंवर्षास्फोटनादिके शस्त्रसंधाने च कार्यम् ॥ १०४९१०५१॥
इत्यालीढम् (५)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३२५ प्रयोगस्त्वन्त्ययोस्तज्ज्ञैरिष्टो नाटयैकगोचरः । अन्ये पश्चविधेऽप्याहुर्नर्तने स्थानकानि षट् ॥ १०५४ ॥
___ इति प्रत्यालीढम् (६)
इति षट्पुरुषस्थानकानि । वामस्तालान्तरस्यश्रो दक्षिणश्वरणः समः । प्रसन्न वदनं वक्षः समुन्नतमनुन्नता ॥ १०५५ ॥ कटीनितम्बगो हस्तो दक्षिणोऽन्यो लताकरः। यत्रायतं तदाख्यातं कमला चात्र देवता ॥ १०५६ ॥
(क०) अत्र पुरुषकर्तृकाणां षण्णां स्थानकानां साधारण विनियोगप्रदर्शनावसरे पञ्चविधे नर्तन इत्युक्तम् । तत्र नाट्यनृत्यनृत्तलास्यताण्डवभेदेन नर्तनस्य पूर्वोक्तं पञ्चविधत्वमनुसंधेयम् ॥ १०५४ ॥
___ इति प्रत्यालीढम् (६)
इति षट्पुरुषस्थानकानि । (सु०) प्रत्यालीढं लक्षयति-आलीटेति । आलीढाङ्गव्यत्यासात्प्रत्यालीढं भवति । आलीढे संधीयमानशस्त्रस्यात्र मोक्षणं कार्यम् । अत्रापि रुद्रदैवतं, शंभुवल्लभः ; शार्ङ्गदेवो भाषते । अत्र आद्यस्थानचतुष्टयं नाव्यनृत्तयोः प्रयुज्यते । अन्यद् द्वयं नाव्यमात्रगोचरं भवति । अन्ये पञ्चविधेऽप्याहुः ॥ १०५२१०५४ ॥
इति प्रत्यालीढम् (६)
इति षट्पुरुषस्थानकानि । (क०) आयतस्थानविनियोगे-रङ्गावतरणारम्भ इत्युक्तम् ? रङ्गावतरणं नाम पात्रस्य रङ्गप्रवेशोपक्रमः ॥ १०५५-१०६२ ॥
इत्यायतम् (१)
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३२६
संगीतरत्नाकर: स्थानं चिकीर्षितासु स्यात्क्षतासु च गतिष्विदम् । आभाषणे च कर्तव्ये सखीप्रियतमादिभिः ॥ १०५७ ॥ रङ्गावतरणारम्भे पुष्पाञ्जलिविसर्जने । अमर्षे चाभिलाषाप्रभवेऽङ्गुलिमोटने ॥ १०५८ ॥ तर्जने प्रतिषेधे च कार्य मानावलम्बने । गर्वगाम्भीर्यमौने स्यादावाहनविसर्जने ॥ १०५९ ॥ पूर्वरङ्गे स्त्रीभिरेव प्रयोज्यं केचिदूचिरे । । नरो नार्योऽथवा कुर्युः प्रवेशे स्थानकं स्त्रियाः ॥ १०६० ॥ स्थानं यथाभिनेयं स्यात्प्रविष्टेष्विति चापरे । आयतानन्तरं कार्या रङ्गावतरणादयः ।। १०६१ ।। हस्तपादप्रचारस्तु तेषु ज्ञेयो यथोचितम् । भट्टाभिनवगुप्तस्य मतमेतदुदीरितम् ॥ १०६२ ॥
इत्यायतम् (१) (सु०) अथ स्त्रीस्थानकानि लक्षयति–वाम इति । यत्र वामः पादः तालान्तरे त्र्यश्रः, दक्षिणः पादः समः, मुखं प्रसन्नम् , वक्ष: समुन्नतं च, कटी चोन्नता, वामहस्तो लताकरः, दक्षिणहस्तो नितम्बगतश्च भवति, तत् कमलादेवताकम् आयतं स्थानं भवति । इदं स्थानं चिकीर्षितासु क्षतासु गतिषु प्रयुज्यते । सखीप्रियतमाद्याभाषणे, रङ्गावतरणारम्भे; पुष्पाञ्जलिविसर्जने, अमर्षे, अभिलाषाप्रभवे, अङ्गुलिमोटने, गर्वगाम्भीर्यमौने, आवाहनविसर्जने, पूर्वरङ्गे च स्त्रीभिरेव प्रयोज्यमिति केचिदाचार्या ऊचिरे । नरो वा नार्यो वा प्रवेशे स्थानकं कुर्युः । प्रविष्टेष्वपि स्थानमभिनेतव्यमित्यपरे । आयतानन्तरं रङ्गावतरणादिकं कार्यम् । तत्र हस्तपादप्रचाराः यथोचितं ज्ञेया इति भट्टाभिनवगुप्तस्य मतम् ॥ १०५५-१०६२ ॥
इत्यायतम् (१)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
अवहित्थं तदेव स्याद्विपर्यासेन पादयोः । चिन्तावितर्कयोस्तोषे संलापे च निसर्गजे ।। १०६३ ॥ विस्मये भूरिसौभाग्यगर्वजे स्वाङ्गवीक्षणे । लीलाविलास लावण्यवरमार्गविलोकने ।। १०६४ | कार्यं दौर्गमिदं स्थानमवहित्थस्य सूचकम् । इत्यवहित्थम् (२)
३२७
समस्यैकस्य पादस्य पाष्णिदेशगतोऽपरः ।। १०६५ ॥ सूचीपादः स्वपार्श्वे वा समस्तालान्तरे स्थितः । यत्राश्वारोहणारम्भे तदश्वक्रान्तमुच्यते ।। १०६६ ॥ स्खलिते विगलद्वस्त्रधारणे गोप्यगोपने । प्रसून स्तवकादाने तरुशाखावलम्बने ।। १०६७ ।। नैसर्गिके च संलापे विभ्रमे ललिते तथा । प्रयोक्तव्यमिदं स्थानं भारती चात्र देवता ।। १०६८ ॥ इत्यश्वक्रान्तम् (३)
(सु०) अवहित्थं लक्षयति - अवहित्थमिति । यत्र पादयोर्विपर्यासेन रचितं तदेव अवहित्थम् । तच्च चिन्तावितर्कतोपसंलापेषु, नैसर्गिकविस्मये, भूरिसौभाग्यगर्वेण स्वाङ्गावलोकने, लीलाविलासलावण्यवर मार्गविलोकने च प्रयोज्यम् । इदं तु दुर्गादेवताकम् ॥ १०६३, १०६४- ॥ इत्यवहित्थम् (२)
(सु० ) अवक्रान्तं लक्षयति - समस्येति । यत्र समैकपादपाणिदेशगतः, सूत्रिपादोऽपरः, स्वपार्श्वे वा समात् तालान्तरे वा तिष्ठति, तद् भारतीदेवतात्मकम् अश्वक्रान्तं भवति । तच्च अश्वारोहणारम्भे, स्खलिते, विगलद्वस्त्रधारणे, गोप्यगोपने, पुष्पस्तबकादाने, वृक्षशाखावलम्बने, नैसर्गिकसंलापे, विभ्रमे, ललिते च प्रयोज्यम् ॥ - १०६५-१०६८ ॥
इत्यश्वक्रान्तम् (३)
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३२८
संगीतरत्नाकरः गत्युन्मुखी च यत्रैक पदमुद्धृत्य नर्तकी । उदास्ते तद्गतिस्थित्योनिरोधात्स्याद्गतागतम् ॥ १०६९ ॥
इति गतागतम् (४) शरीरमीषदलितं पादो वलितदिग्भवः । कनिष्ठाश्लिष्टभूरन्यो भूलनाङ्गुष्ठको यदा ।। १०७० ।। तदा वलितमाख्यातं साभिलाषविलोकने ।
___इति वलितम् (५) एकः समोऽधिरन्यस्तु कुश्चितोऽर्धतलागुलिः॥ १०७१॥ अग्रे यदोर्ध्वगौ इस्तौ कर्कटौ मोटितं तदा । कामावस्थासु सर्वासु विनियोगोऽस्य कीर्तितः॥ १०७२ ॥
___ इति मोटितम् (६) (सु०) गतागतं लक्षयति-गतीति । यत्र नर्तकी एकं चरणमुद्धृत्य गत्युन्मुखी वर्तते, गतिस्थितिनिरोधयुक्तं तद् गतागतं भवति ॥ १०६९ ॥
__ इति गतागतम् (४) (सु०) वलितं लक्षयति--शरीरमिति । यत्र शरीरमीषद्वलितं भवति । एकः पादः कनिष्ठाश्लिष्टभूमिः, अन्यो भूमिलग्नाङ्गुष्ठश्च भवति ; तद्वलितम् । तञ्च साभिलाषविलोकने प्रयोज्यम् ॥ १०७०- ॥
इति वलितम् (५) (सु०) मोटितं लक्षयति-एक इति । यत्र एकः पादः समः, अन्यः कुञ्चितः, अर्धतलागुलिश्च भवति ; अग्रेकर्कटहस्तौ ऊर्ध्व गच्छतः, तन्मोटितम्। तच्च सर्वास्वपि कामावस्थासु विनियुज्यते ॥ -१०७१, १०७२ ॥
इति मोटितम् (६)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३२९ पृष्ठतोऽङ्गपरावृत्त्या तदेव विनिवर्तितम् ।
इति विनिवर्तितम् (७)
इति सप्त स्त्रीस्थानकानि । स्वस्तिको हंसकस्थाने चरणौ कुश्चितौ यदा ॥ १०७३ ॥ मिथः श्लिष्टकनिष्ठौ च तदाहुः स्वस्तिकं बुधाः ।
इति स्वस्तिकम् (१) वर्धमाने तु चरणौ तिर्यश्चौ पाणिसंगतौ ॥ १०७४ ॥
___ इति वर्धमानम् (२) (क०) अवहित्थस्थानकविनियोगे—अवहित्थस्य सूचकमित्युक्तम् । तत्रावहित्थं नामेङ्गिताकारगोपनात्मकः संचारिभावः। तस्येत्यर्थः ॥ ॥ १०६३-१०७२- ॥
इति सप्त स्त्रीस्थानकानि । (क०) स्वस्तिकादीनां लक्षणानि स्पष्टार्थानि ॥-१०७३-१०८३ ॥
(सु०) विनिवर्तितं लक्षयति-पृष्ठत इति । पृष्ठत अङ्गपरावृत्तियुक्त तदेव, मोटितमेव विनिवर्तितम् ॥ १०७२- ॥
इति विनिवर्तितम् (७)
इति सप्त स्त्रीस्थानकानि । (सु०) अथ देशीस्थानानि लक्षयति-स्वस्तिक इति । यत्र पादौ स्वस्तिको कुञ्चितौ परस्परश्लिष्टकनिष्ठौ च भवतः; तत् स्वस्तिकम् ॥-१०७३, १०७३- ॥
इति स्वस्तिकम् (१) (सु०) वर्धमानं लक्षयति-वर्धमान इति । यत्र पादौ तिर्यचौ पाणिसंगतौ च भवतः ; तद् वर्धमानम् ॥ -१०७४ ॥
इति वर्धमानम् (२)
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३३०
संगीतरत्नाकरः अस्यैव चेचरणयोरन्तरं स्यात्षडगुलम् । वितस्तिमात्रमथवा नन्द्यावर्त तदोदितम् ॥ १०७५ ॥ .
इति नन्यावर्तम् (३) देहः स्वाभाविकोऽङ्गुष्ठौ पादयोथेन्मिथो युतौ । गुल्फौ च संहतं तत्स्यात्पुष्पाञ्जलिविसर्जने ॥ १०७६ ॥
इति संहतम् (१) वपुः स्वाभाविकं पादौ वितस्त्यन्तरिताउजू । यत्र तत्समपादाख्यं शाईदेवः समादिशत् ॥ १०७७ ॥
इति समपादम् (५) समस्याऽस्तु जानूवं बाह्यपाधं यदीतरः । बाह्यपाधैन लमोऽघिरेकपादं तदोच्यते ॥ १०७८ ॥
इत्येकपादम् (५) (सु०) नन्द्यावर्त लक्षयति-अस्यैवेति । अस्मिन्नेव पादयोरन्तरालं षडङ्गुलं वा वितस्तिमात्रं वा भवति ; तदा नन्द्यावर्तम् ॥ १०७५ ॥
इति नन्यावर्तम् (३) (सु०) संहतं लक्षयति-देह इति । यत्र देहः स्वाभाविकः, पादाङ्गुष्ठौ गुल्फो च मिथः संयुतौ भवतः; तद् संहतम् । तत्पुष्पाञ्जलिविसर्जने कार्यम् ॥ १०७६ ॥
" इति संहतम् (४) (सु.) समपादं लक्षयति-वपुरिति । यत्र शरीरं स्वाभाविकम् ; पादौ वितस्त्यन्तरालगतौ ऋजू भवतः ; तत् समपादम् ॥ १०७७ ॥
इति समपादम् (५) (सु०) एकपादं लक्षयति-समस्येति । यत्र एकः समपादः, जानू स्वबाह्यपार्श्वगतः, इतरो बाह्यपार्श्वलग्नः ; तद् एकपादम् ॥ १०७८ ॥
इत्येकपादम् (६)
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३३१
सप्तमो नर्तनाध्यायः भूलनाङ्गुलिपृष्ठोऽघिः पश्चादेकोऽपरः पुरः । समो यत्र तदादिष्टं पृष्ठोत्तानतलं बुधैः ॥ १०७९ ॥
इति पृष्ठोतानतलम् (७) नन्द्यावर्तस्य चेदङ्घयोर्भवेदष्टादशाङ्गुलम् । अन्तरं चतुरैः स्थानं चतुरनं तदोदितम् ॥ १०८० ॥
इति चतुरश्रम् (८) पाणिरगुष्ठसंश्लिष्टा पाणिविद्धे विधीयते ।
इति पाणिविद्धम् (९) पाणिपार्श्वगते पाणिरन्तः पार्थान्तरस्थितः ।। १०८१ ।।
इति पाणिपार्श्वगतम् (१०)
(सु०) पृष्ठोत्तानतलं लक्षयति-भूलनेति । यत्रएक: पाद: पश्चाद् भूमिलग्नाशुलिपृष्ठः, अन्यः पुरः समश्च भवति । तत् पृष्ठोत्तानतलम् ।। १०७९ ॥
इति पृष्ठोत्तानतलम् (७) ___ (सु०) चतुरनं लक्षयति-नन्द्यावर्तेति । यदा नन्द्यावर्त एव पादयोरन्तरम् अष्टादशाङ्गुलं भवति । तदा चमुरश्रम् ॥ १०८० ॥
इति चतुरश्रम् (0) (सु०) पाणिविद्धं लक्षयति-पाणिरिति । यत्र पाणि: अड्गुष्ठसंश्लिष्टा ; तत् पाष्णिविद्धम् ॥ १०८०- ॥
इति पाणिविद्धम् (९) (सु०) पाणिपार्श्वगतं लक्षयति-पाणीति । यत्र पाणिः, पाणिपार्श्वगता ; तत् पाणिपार्श्वगतम् ॥ -१०८१ ॥
इति पाणिपार्श्वगतम् (१०)
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३३२
संगीतरत्नाकरैः
समस्याङ्घ्रः पुरः किंचिदपरश्चरणो यदा । स्याद्वाह्यपार्श्वगस्तिर्यगेकपार्श्वगतं तदा ।। १०८२ ।। इत्येकपार्श्वगतम् (११)
एकः समोऽङ्घ्रिरन्यचेदन्तरे चतुरङ्गुले । तिर्यक्कुञ्चितजानुः स्यादेकजानुनतं तदा ।। १०८३ । इत्येकजानुनतम् (१२)
परावृत्ते समे स्यातां पार्ल्याङ्गुष्ठकनिष्ठिके ।
इति परावृत्तम् (१३)
(सु० ) एकपार्श्वगतं लक्षयति – समस्येति । यत्र समपादस्य पुरतः, अपरः पादः बाह्यपार्श्वे किंचित् तिर्यग्भवति ; तद् एकपार्श्वगतम् ॥ १०८२ ॥ इत्येकपार्श्वगतम् (११)
(सु० ) एकजानुनतं लक्षयति - एक इति । यत्र एकः पादः समः, अन्यः चतुरङ्गुलान्तरे तिर्यक् कुञ्चितजानुर्भवति ; तद् एकजानुनतम् ॥ १०८३ ॥ इत्येकजानुनतम् (१२)
(क० ) परावृत्ताख्यस्य स्थानकस्य लक्षणे – अङ्गुष्ठकनिष्टिके पाय समे स्यातामित्युच्यते । तस्यायमर्थोऽवगन्तव्यः । द्वयोः पादयोकस्याङ्गुष्ठ इतरस्य कनिष्ठिका चेत्यङ्गुष्ठकनिष्ठिकेति द्वन्द्वः । ते पाय समे स्यातामिति । वामाङ्गुष्ठो दक्षिणपार्थ्या समः ; दक्षिणकनिष्ठिका वामपार्ष्या समा; यद्वा दक्षिणाङ्गुष्ठो वामपार्ण्या समः ; वामकनिष्ठिका दक्षिणपाय समेति । अत्र समत्वमेकदेशस्थितत्वमवगन्तव्यम् । अन्यथैकपादस्याङ्गुष्ठकनिष्ठयोस्तदीयपाय समत्वं न संभवति । एवं पादान्तरपाय समत्वं तूक्तप्रकारेण संभवति । पादान्तरपाणिपश्चाद्भागस्थित्या
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३३३ पाणिजङ्घोरुसंलग्नधरणी चरणौ यदा ॥ १०८४ ॥ तिर्यप्रसारितौ स्यातां समसूचि तदोच्यते ।
इति समसूचि (१४) सूचीपादौ पृथग्यत्र पुरः पश्चात्प्रसारितौ ।। १०८५ ॥ युगपद्गदितं तज्ज्ञैः स्थानं विषमसूचि तत् । भूलनजानुगुल्फौ तौ चरणौ केचिदूचिरे ॥ १०८६ ॥
इति विषमसूचि (१५) एकोऽधिः कुञ्चितोऽन्यस्तु भूसंलग्नोरुपाष्णिकः । तिर्यप्रसारितो यत्र खण्डसूचि तदोच्यते ।। १०८७ ।।
___ इति खण्डसूचि (१६) समत्वे विवक्षिते त्वङ्गुष्ठकनिष्ठिकाग्रहणमनर्थकं स्यात् । पादग्रहणेनैव गतार्थत्वादिति ॥ १०८३ - ॥ |
___ इति त्रयोविंशतिर्देशीस्थानानि । (सु०) परावृत्तं लक्षयति-परावृत्त इति । यत्र अङ्गुष्ठकनिष्ठिके पार्यो परावृत्ते समे च भवतः ; तत् परावृत्तम् ॥ १०८३- ॥
इति परावृत्तम् (१३) (सु०) समसूचि लक्षयति-पाणीति । यत्र पाणिजबोरुभूलग्नं पादौ च तिर्यक्प्रसारितौ भवतः ; तत् समसूचि ॥ -१०८४, १०८४- ॥
इति समसूचि (१४) (सु०) विषमसूचि लक्षयति-सूचीपादाविति । यत्र सूचीपादौ पुरः पश्चाच्च पृथगेव युगपत्प्रसारितौ च भवतः; तद् विषमसूचि । केचित् तौ चरणौ भूलग्नजानुगुल्फो वदन्ति ॥ -१०८५, १०८६ ॥
इति विषमसूचि (१५) (सु०) खण्डसूचि लक्षयति-एक इति । यत्र एकः पादः कुञ्चितः,
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३३४
संगीतरत्नाकरः
एकः समोऽङ्घ्रिरन्यश्चेत्कुञ्चितीकृत्य पृष्ठतः । जानुसंधिसमत्वेनोत्क्षिप्तो ब्राह्मं तदुच्यते ।। १०८८ ॥ इति ब्राह्मम् (१७)
सममेकं विधायाङ्घ्रिमन्यश्चेत्कुञ्चितो मनाक् । पुरः प्रसारितस्तिर्यक्पदं स्याद्वैष्णवं तदा ।। १०८९ ॥ इति वैष्णवम् (१८)
अङ्घ्रः समस्य वामस्य जानुशीर्षसमोऽपरः । उद्धृतः कुञ्चिताकारो यत्र शैवं तदुच्यते ।। १०९० ।। इति शैवम् (१९)
अन्यः भूलग्नपार्णिकं तिर्यक्प्रसारितश्च भवति ; तत् खण्डसूचि ॥ १०८७ ॥ इति खण्डसूचि (१६)
(सु० ) ब्राह्मं लक्षयति - एक इति । यत्र एकः पादः समः, अन्यः पृष्ठतः कुञ्चितो भूत्वा जानुसंधिसमत्वे नोत्क्षिप्यते ; तद् ब्राह्मम् ॥ १०८८ ॥ इति ब्राह्मम् (१७)
(सु० ) वैष्णवं लक्षयति - सममिति । यत्र एकं पादं समं विधाय, अन्य ईषत्कुञ्चितः पुनः तिर्यक्प्रसारितश्च भवति ; तद् वैष्णवम् ॥ १०८९ ॥ इति वैष्णवम् (१८)
(सु०) शैवं लक्षयति - अङ्ग्रेरिति । यत्र वामपादः जानुशीर्षसमः, अपर: पाद उद्वृत्तः कुञ्चिताकारश्च भवति ; तत् शैवम् ॥ १०९० ॥
इतिशेवम् (१९)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३३५ आकुञ्चितः पुरो वामः पश्चादन्यस्तु जानुना । भुवं गतौ यदा पादौ गारुडं गदितं तदा ॥ १०९१॥
इति गारुडम् (२०) दक्षिणश्चरणो जानुबाह्यगुल्फमिलक्षितिः । वामः समो भवेद्यत्र कूर्मासनमदो विदुः ॥ १०९२ ॥
इति कूर्मासनम् (२१) यदोपविश्य वामोरोः पृष्ठे न्यस्यति दक्षिणाम् । जवां तदा नागबन्धमभ्यधात्करणाग्रणीः ।। १०९३ ।।
इति नागबन्धम् (२२) वियुते संयुते वा चेन्जानुनी संस्थिते क्षितौ । वृषभासनमाख्यातं सौष्ठवाधिष्ठितं तदा ॥ १०९४ ॥
इति वृषभासनम् (२३)
इति त्रयोविंशतिर्देशीस्थानानि । (सु०) गारुडं लक्षयति-आकुञ्चित इति । यत्र वामः पादः पुरः कुञ्चितः, अन्य: पाद: जानुभूमिगतो भवति ; तद गारुडम् ॥ १०९१ ॥
___ इति गारुडम् (२०) (सु०) कूर्मासनं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणः पादः जानुबाह्यगुल्फमिलितभूमिः, वामश्च समो भवति ; तत् कूर्मासनम् ॥ १०९२ ॥
इति कूर्मासनम् (२१) (सु०) नागबन्धं लक्षयति-यदेदि । यदा उपविश्य वामोरुपृष्ठे दक्षिणजङ्घाध्यस्यते ; तदा नागबन्धम् ॥ १०९३ ॥
___ इति नागबन्धम् (२२) (सु०) वृषभासनं लक्षयति-वियुत इति । यत्र जानुनी संयुज्य, वियुज्य वा भूस्थिते भवतः ; तत् सौष्ठवाधिष्ठितं वृषभासनं भवति ॥ १०९४ ॥
इति वृषभासनम् (२३) इति त्रयोविंशतिर्देशीस्थानानि ।
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संगीतरत्नाकरः विस्तारिताश्चितावधी यत्रोरः किंचिदुन्नतम् । करावूरुकटिन्यस्तौ स्वस्थं स्थानं तदुच्यते ॥ १०९५ ॥
इति स्वस्थम् (१) एकः प्रसारितः किंचिदन्योऽङ्घ्रिस्त्वासनाश्रितः । शिरःपार्श्वगतं यत्र तन्मदालसमिष्यते ॥ १०९६ ॥ मदे विपदि निर्वेदेऽप्यौत्सुक्ये विरहे भवेत् ।
इति मदालसम् (२) इस्तौ चिबुकविन्यस्तौ बाहुशीर्षश्रितं शिरः ॥ १०९७ ॥ ईषद्बाष्पे च नयने यत्र क्रान्तमुदाहृतम् । निर्जने निगृहीते च शोकग्लाने भवेदिदम् ॥ १०९८ ॥
इति क्रान्तम् (३) (सु०) अथोपविष्टस्थानकानि लक्षयति-विस्तारितेति । यत्र पादौ विस्तारिताञ्चितौ, उर ईषदुनतम् , हस्तौ ऊरुकटीन्यस्तौ च भवतः ; तत् स्वस्थम् ॥ १०९५ ॥
इति स्वस्थम् (१) (सु०) मदालसं लक्षयति--एक इति । यत्र एकः पादः किंचित् प्रसारितः, अन्यश्च तथा शिर:पार्श्वगतं च भवति ; तत् मदालसम् । तच्च मदे, विपदि, निवेदे, औत्सुक्ये, विरहे च कार्यम् ॥ १०९६, १०९६- ॥
इति मदालसम् (२) (सु०) क्रान्तं लक्षयति-- हस्ताविति । यत्र हस्तौ चिबुकन्यस्तौ, शिरः बाहशीर्षगतं भवति ; नयने च ईषद्बाष्पयुते भवतः ; तत् क्रान्तम् । इदं निर्नने, निगृहीते, शोकग्लाने च कार्यम् ॥ -१९०७, १०९८ ॥
इति कान्तम् (३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३३७ ऊरू विस्तारितौ बाहू पादौ विस्तारिताश्चितौ । यदा निमीलिते नेत्रे विष्कम्भं भणितं तदा ॥ १०९९ ॥ योगे ध्याने भवेदेतत्स्वभावेन यदासने ।
इति विष्कम्भितम् (४) समे पाणी सह स्फिग्भ्यां भूतले चरणौ समौ ॥ ११०० ॥ यदा तदोत्कटं योगध्यानसंध्याजपादिषु ।
इत्युत्कटम् (५) हस्तौ स्रस्तौ विमुक्तौ च शरीरमलसं यदा ॥ ११०१॥ लोचने मन्थराकारधरे स्रस्तालसं तदा । हानिग्लानिमदव्याधिमूर्छाभीतिषु तद्भवेत् ॥ ११०२॥
इति सस्तालसम् (६) (सु०) विकम्भितं लक्षयति-ऊर्विति । यत्र ऊरू विस्तारितौ ; बाहू पादौ च अञ्चितौ भवतः ; नेत्रे निमीलिते च भवतः ; तद् विष्कम्भितम् । तच्च योगे, ध्याने, स्वभावासने च कार्यम् ॥ १०९९, १०९९-॥
इति निष्कम्भितम् (४) (सु०) उत्कटं लक्षयति-समे इति । यत्र पाणी समे ; पादौ भूतले समौ च भवतः ; तद् उत्कटम् । तच्च योगध्यानसंध्याजपादिषु प्रयोज्यम् ॥ ११००, ११००- ॥
इत्युत्कटम् (५) (सु०) स्रस्तालसं लक्षयति-हस्ताविति । यत्र हस्तौ स्रस्तौ विमुक्तौ च भवतः ; शरीरमलसं, लोचने मन्थराकारधरे च भवतः ; तत् स्रस्तालसम् । तच्च हानिग्लानिमदव्याधिमूर्छाभीतिषु प्रयोज्यम् ॥ ११०१, ११०२ ॥
इति प्रस्तालसम् (६)
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संगीतरत्नाकरः जानुभ्यां भूमिसंस्थाभ्यां स्थानं जानुगतं मतम् । होमे देवार्चने दीनयाचने मृगदर्शने ॥ ११०३ ॥ कुसत्त्ववासने चेदं भवेत्क्रुद्धप्रसादने ।
इति जानुगतम् (७) उत्कटस्यैव जान्वैकं धरापृष्ठमधिष्ठितम् ॥ ११०४ ॥ यत्रैतन्मुक्तजानु स्यान्मानिनीनां प्रसादने । हवने सज्जनानां च सान्त्वने साधुकरीके ॥ ११०५ ॥
इति मुक्तजानु (८) विमुक्तं भूप्रपतनं हावक्रन्दादिषु स्मृतम् ।
___ इति विमुक्तम् (९)
इति नवोपविष्टस्थानकानि । (सु०) जानुगतं लक्षयति-जानुभ्यामिति । यत्र भूमिसंस्थाभ्यां स्थीयते, तत् जानुगतम् । तच्च होमे, देवार्चने, कुसत्त्वत्रासने, कुद्धप्रसादने च प्रयोज्यम् ॥ -११०२, ११०३.॥
___ इति जानुगतम् (७) (सु०) मुक्तजानु लक्षयति-उत्कटस्येति । उत्कट एव एकजानु धरापृष्ठगतं चेत् ; तत् मुक्तजानु । तच्च मानिनीनां प्रसादने, हवने, साधुकृतसजनानां सान्त्वने च प्रयोज्यम् ॥ -११०४, ११०५॥
इति भुक्तजानु (८) (सु०) विमुक्तं लक्षयति-विमुक्तमिति । यत्र भूपतनं तत् विमुक्तम् । तञ्च हावक्रन्दादिषु प्रयोज्यम् ॥ ११०५- ॥
इति विमुक्तम् (९) इति नवोपविष्टस्थानकानि |
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३३९ सुप्तमुत्तानवक्त्रं च स्रस्तमुक्तकरं समम् ॥ ११०६ ॥
इति समम् (१) आकुचिताङ्गमाविद्धजान्वाकुश्चितमुच्यते । प्रयोगस्तस्य शीतार्ताभिनये शाङ्गिणोदितः ॥ ११०७ ॥
इत्याकुञ्चितम् (२) उपधाय भुजामेकां यत्प्रसारितजानुकम् । सुप्तं प्रसारितं स्थानं सुखसुप्ते तदिष्यते ॥ ११०८ ॥
इति प्रसारितम् (३) विवर्तितमधोवक्त्रं सुप्तं शस्त्रक्षतादिषु ।
इति विवर्तितम् (४) (सु०) सुप्तस्थानकानि लक्षयति-सुप्तमिति । यत्र उत्तानवक्त्रं, स्रस्तमुक्तकरं सुप्तम् ; सत् समम् ॥ -११०६ ॥
___इति समम् (१) (सु०) आकुञ्चितं लक्षयति-आकुञ्चिताङ्गमिति । यत्र आविद्धजान्वा आकुञ्चिताङ्गं भवति ; तद् आकुञ्चितम् । तच्च शीतार्ताभिनये कार्यम् ॥११०७॥
इत्याकुञ्चितम् (२) (सु०) प्रसारितं लक्षयति-उपधायेति । यत्र एकां भुजामुपधाय, प्रसारितजानुकं सुप्तम् ; तत् प्रसारितम् । तच्च सुखसुप्ते प्रयोज्यम् ॥ ११०८ ॥
___ इति प्रसारितम् (३) (सु०) विवर्तित लक्षयति-विवर्तितमिति । यत्र अधोवक्त्रं सुप्तम् ; तद्विवर्तितम् । तच्च शस्त्रक्षतादिषु प्रयोज्यम् ॥ ११०८-॥
इति विवर्तितम् (४)
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३४०
संगीतरत्नाकर:
स्कन्धन्यस्तशिरः सुप्तं कूर्पराधिष्ठितक्षिति ।। ११०९ ॥ यत्तदुद्वाहितं प्रोक्तं लीलयावस्थितौ प्रभोः ।
इत्युद्वाहितम् (५)
ईषत्प्रसृतजङ्घ यत्सुप्तं स्रस्तकरद्वयम् ॥ १११० ॥ तन्नतं स्थानकं खेदश्रमालस्यादिषु स्मृतम् ।
इति नतम् (६)
इति षट्सुप्तस्थानकानि । इत्येकपञ्चाशत्स्थानप्रकरणम् ।
वाङ्मनःकायजा चेष्टा पुरुषार्थोपयोगिनी ॥ ११११ ॥ वृत्तिः सा भारती सान्त्व त्यारभव्यथ कैशिकी |
(सु०) उद्वाहितं लक्षयति-स्कन्धन्यस्तेति । यत्र स्कन्धन्यस्तशिरः कूर्परप्राप्तभूतलं सुप्तम्, तद् उद्वाहितम् । तच लीलया अवस्थितौ प्रभोः पुरतः प्रयोज्यम् ॥ - ११०९, ११०९-॥
इत्युद्रा हितम् (५)
(सु० ) नतं लक्षयति - ईषदिति । यत्र ईषत् प्रसृतजङ्घम्, त्रस्तकरद्वयं यत् सुप्तम् ; तद् नतम् | तच्च खेदश्रमालस्यादिषु प्रयोज्यम् ॥ १११०,१११० - ॥ इति नतम् (६)
इति षट् सुप्तस्थानकानि । इत्येकपञ्चाशत्स्थानप्रकरणम् ।
(क०) अथोद्देशक्रमेण वृत्तीर्लक्षयितुं तासां सामान्यलक्षणमाहवाङ्मन: कायजेत्यादि । वाङ्मनः कायेभ्यो जायत इति तथोक्ता । पुरुषार्थोपयोगिनी; अत्र पुरुषार्थशब्देन धर्मार्थकामा गृह्यन्ते, न मोक्षः
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
चतुर्विधेति विज्ञेया तासामुत्पत्तिरुच्यते ॥ १११२ ॥ ऋग्वेदाद्भारती जाता यजुर्वेदात्तु सात्त्वती । अथर्वणादारभटी सामवेदात्तु कैशिकी ।। १११३ ॥ वृत्तिः संस्कृतवाक्यैकप्रधाना भरतैर्नृभिः । प्रयुज्यमाना वाग्वृत्तिः प्राधान्याद्भारती मता ।। १११४ ॥
३४१
तं प्रत्यासामुपयोगाभावात् । तेषु धर्मादिषूपयोगोऽस्या अस्तीति पुरुषार्थोपयोगिनीत्युक्तम् । चेष्टा ; व्यापारो वृतिरुच्यते । सा वृत्तिर्भास्तीत्यादिभेदेन चतुर्विधेति विज्ञेयेति संबन्धः । तासां ऋगादिवेदेभ्य उत्पत्तिं दर्शयतितासामिति ॥ - ११११-१११३- ॥
(सु० ) अथ क्रमप्राप्ता वृत्तीर्लक्षयति--- वाङ्मनः कायजेति । वाङ्मन:कायजा ; वाङ्मन: कायभवा, पुरुषार्थोपयुक्ता चेष्टा व्यापारो वृत्तिरिति कथ्यते । सा; वृत्तिः, चतुर्विधा - भारती, सात्त्वती, आरभटी, कैशिकीति । वृत्तीनामुत्पत्तिमाह — तासामिति । ऋग्वेदात् भारती जाता ; यजुर्वेदात्तु सात्त्वती जाता ; अथर्वणात् आरभटी जाता ; सामवेदात्तु कैशिकी जातेति ॥-११११-१११३-॥
(क०) तत्र च भारतीं वृत्तिं लक्षयति- वृत्तिः संस्कृतेत्यादि । संस्कृतवाक्यमेव प्रधानं यस्याः सा तथोक्ता । अत्र वाग्व्यापारस्यैकस्य प्राधान्यम् । मनः कायव्यापारयोस्त्वप्राधान्य मित्यर्थः । अत एव वाग्वृत्तिरित्युच्यते । भरतैर्नृभिः प्राधान्यात्प्रयुज्यमानेति भारतीशब्दस्य व्युत्पत्ति - दर्शिता । नाटकार्थाभिनेतारः सूत्रधारादयो भरता इत्युच्यन्ते ॥ १११४ ॥
( सु० ) तत्र भारतीमाह -- वृत्तिरिति । वृत्तिः ; भारतीवृत्ति:, संस्कृतवाक्यप्रधाना; अत एव भरतैः नृभिः प्राधान्यात् प्रयुज्यमाना भवति । अत्र भरतशब्देन नाटकाभिनेतारः सूत्रधारादयो विवक्षिताः ॥ १११४ ॥
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३४३
संगीतरत्नाकर:
सत्त्वप्रकाशकं यत्स्यात्तद्युक्तं सत्त्वमुच्यते । मनस्तत्प्रभवा हर्षशौर्यत्यागास्तु साचताः ।। १११५ ॥ तत्प्रधाना सात्त्वती स्याद्वीररौद्राद्भुतोत्कटा । हीना शृङ्गारनिर्वेदकरुणैरुद्धताश्रयात् ।। १११६ ॥ आरादुत्साहिनो ये स्युर्भटास्तत्कायसंभवा । भवेदारभटी वृत्ती रौद्रादावुद्धते रसे ॥ १११७ ॥ मायेन्द्रजालबहुला चित्रयुद्धमवर्धिनी । वागङ्गाभिनयानां या सौकुमार्येण निर्मिता ॥ १११८ ॥ उल्लसद्गीतनृत्ताढ्या शृङ्गाररसनिर्भरा ।
(क०) सात्त्वत्या निरुक्तिपूर्वकं लक्षणमाह - सच्चप्रकाशकं यत्स्यादित्यादि । एतेनास्या मनोव्यापारप्रधानत्वं दर्शितं भवति ॥ १११५, १११६ ॥
(सु०) सात्त्वती माह — सत्त्वप्रकाशकमिति । सत्त्वप्रकाशकं यत्, तद्युक्तं सत्त्वं मनः, तद्भवा हर्षशौर्यत्यागादयः सात्त्वताः, तत्प्रधाना वृत्तिः सात्वती । सा च वीररौद्राद्भुतवती शृङ्गारनिर्वेद करुणरहिता भवति ॥ १११५, १११६॥
(क०) अथारभट्या लक्षणं सनिरुक्तिकमाह - आरादित्यादि । तत्कायसंभवात्तेषां भटानां शरीरसंभवेत्यनेन चारभट्याः कार्यव्यापारप्रधानत्वं दर्शितम् ॥ १११७, १११७- ॥
(सु० ) आरभटीमाह - आरादिति । आरात् उत्साहिनो ये भटाः स्युः, तेषां कायसंभवा, शरीरव्यापारजा वृतिः, सा अरभटी । सा च रौद्राद्युद्धतरसोदिता, मायेन्द्रजालबहुला, चित्रयुद्धप्रवर्धिनी च भवति ॥ १११७, १९१७-॥ (क०) अथ कैशिक्या लक्षणमाह - वागङ्गाभिनयानामित्यादि । एतेन कैशिक्यां वाङ्मन: कायव्यापाराणां समप्राधान्यमुक्तं भवति । अत्र
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
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निःशङ्कः कैशिकीं ब्रूते तां सौन्दर्यैकजीविताम् ॥ १११९ ॥ सौन्दर्य सौकुमार्याभ्यां रौद्रादावप्यसौ भवेत् । आमुखं च प्रहसनं तथा वीथी प्ररोचना ।। ११२० ॥ अंशाः स्युरिति चत्वारो ये भारत्या मुनेर्मताः । उद्घात्यकावलगिते कथोद्घातः प्रवर्तकम् ।। ११२१ ॥ प्रयोगातिशयश्चेति भेदाः पञ्चामुखस्य ये । उत्थापकाभिधो भेदः सात्त्वत्याः परिवर्तकः ।। ११२२ ॥ संलापकश्चतुर्थस्तु यः संघात्यकसंज्ञकः ।
संक्षिप्तकं चावपातः स्याद्वस्तूत्थापनं तथा ।। ११२३ ।। कैशिकीशब्दो रूढो द्रष्टव्यः । यद्वा केशानां समूहः कैशिकम् । कैशिकवन्मृदुत्वात्सुमनोभिर्विचित्रत्वाच्च कैशिकीयोगोऽपि द्रष्टव्यः ॥ १११८,१११९-॥
(सु०) कैशिकीमाह - वागङ्गेति । वागङ्गाभिनयानां या समप्राधान्यं भवति। या च गीतनृत्ताढ्या, शृङ्गाररसनिर्भरा, सौन्दर्यैकजीविता उल्लद्वृत्ति:, सा कैशिकी। इयं सौन्दर्यसौकुमार्याभ्यां रौद्रादावपि भवति ॥ १११८, १११९-॥ (क० ) अथ भारत्यादीनामवान्तर भेदान्परिगणयति - आमुखं चेत्यादिना ॥ - ११२०-११२५ ॥
इति वृत्तिलक्षणम् ।
(सु०) भारतीवृत्तेर्भेदानाह - आमुखमिति । आमुखम्, प्रहसनम्, वीथी, प्ररोचनेति । तत्रामुखं पञ्चविधम् । उद्वात्यकम्, अवलगितम्, कथोद्धात', प्रवर्तकः, प्रयोगातिशयश्चेति ॥ - ११२०, ११२१- ॥
(सु०) सात्त्वतेर्भेदानाह— उत्थापकेति । उत्थापकः, परिवर्तकः, संलापकः, संघातक इति सात्त्वतीभेदाश्चत्वारः । आरभटीभेदानाह - संक्षिप्तकमिति । संक्षिप्तकम्, अवपातः, वस्तूत्थापनम्, संफेट इत्यारभव्या भेदाश्व
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३४४
संगीतरत्नाकरः
संफेटवार भव्यां यदिति भेदचतुष्टयम् ।
कैशिक्यां यन्मतं नर्म नर्मस्पुञ्जस्तथापरः || १९२४ ॥ नर्मस्फोटो नर्मगर्भति भेदचतुष्टयम् ।
परिचित्ताक्षेपकं च परोपालम्भकं तथा ।। १२२५ ॥ रोषेयसूचकं चेति नर्मभेदास्त्रयश्च ये । सोदाहरणलक्ष्मणस्तेऽमी नाटकगोचराः ।। ११२६ ॥ विस्तरत्रस्तचित्तेन निःशङ्केन न तेनिरे ।
काव्यं गीतं तथा नृत्तं वृत्तिहीनं न शोभते ॥ ११२७ ॥ अतो वृत्तीर्विजानीयादेता भरतभाषिताः । इति वृत्तिलक्षणम् ।
I
त्वारः । कैशिकी भेदानाह — कैशिक्यामिति । कैशिक्यां नर्म, नर्मस्पुअद:, नर्मस्फोटः, नर्मगर्भ इति चत्वारो भेदाः । परचित्ताक्षेपकम्, परोपालम्भकम्, रोषेर्ष्या सूचकमिति नर्मभेदास्त्रयः । एतेषां लक्षणानि विस्तरभीत्या न प्रतिपाद्यते । काव्यगीतनृत्तानि वृत्तिहीनानि न शोभते ॥ - ११२२ - १९२९- ॥
-
(क०) तेषां लक्षणानभिधाने हेतुमाह — सोदाहरणेत्यादिना । नाटकगोचरास्तेऽमी वृत्तिभेदा विस्तरत्रस्तच्चित्तेन निःशङ्केन सोदाहरणलक्ष्माणो न तेनिर इति संबन्धः । तेषां नाटकगोचरत्वेन नृते नातीवोपयोग इति भावः ॥ - ११२६, ११२६- ॥
(क० ) तर्हि नृत्तप्रकरणे वृत्तिकथनं कथमित्यत आह-काव्यं गीतमित्यादि । वृत्तिहीनं न शोभत इति । यद्यपि वृत्तिहीनत्वेन काव्यादीनां न स्वरूपनिष्पत्तिः तथापि निष्पन्नस्य नृत्तादेः शोभातिशयाधानहेतुत्वेन वृत्तीनामप्युपयोगो विद्यत इत्यत्र प्रकरणे तत्कार्यमिति भावः ॥-११२७,११२७-॥ इति वृत्तिलक्षणम् ।
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सप्तमो नर्तनाध्याय: युद्धे परात्मशस्त्राणां क्रमाद्रक्षणपातने ॥ ११२८ ॥ विधातुमुचिता गात्रवर्तना न्याय उच्यते । भारतः सात्वतो वार्षगण्यः कैशिकसंज्ञकः ।। ११२९ ।। भेदास्तस्येति चत्वारः क्रमाद् वृत्तिचतुष्टये । तेषां लक्षणसिद्धयर्थ प्रविचारान् Qवेऽधुना ।। ११३० ॥ याः प्रकृष्टा विचित्राश्च गतयस्ते परिक्रमाः। त एव प्रविचाराः स्युः शस्त्रमोक्षणगोचराः ॥११३१॥
(क०) अथ वृत्त्यनुषक्तान् सविचारान् न्यायालक्षयितुं न्यायसामान्यलक्षणं तावदाह-युद्ध इत्यादि । परात्मशस्त्राणां क्रमाद्रक्षणपातने इति । परशस्त्राणां रक्षणं नाम शत्रुप्रहरणानि यथा स्वदेहे न निपतन्ति, तथा फलकादिना स्वदेहसंरक्षणमित्यर्थः ; आत्मशस्त्रपातनं नाम शत्रशरीरे स्वप्रहरणानि यथा फलकादिनिवारणं वञ्चयित्वा निपतन्ति, तथा स्वहस्तलाघवादिना शस्त्रपातनम् ; ते विधातुमुचिता नाटयोचितेत्यर्थः । गात्रवर्तना न्याय उच्यत इति संबन्धः । क्रमात्तिचतुष्टय इति । भारत्यां भारतः । सावत्यां सात्वतः । आरभव्यां वार्षगण्यः । वृषगणो नाम कश्चिद्भटवरः । तत्संबन्धादयं व्यपदेशो द्रष्टव्यः। कैशिक्यां कैशिक इति क्रमः ।। ।। -११२८-११३०- ॥
__ (सु०) न्यायलक्षणमाह-युद्धे इति । युद्धे परशस्त्राणां च्यावनपातनविधानोचिता गात्रवर्तना न्यायीत्युच्यते । स चतुर्विधः । भारतः, सात्त्वतः, वार्षगण्यः, कैशिक इति ॥ -११२८, ११३० ॥
(क०) प्रविचाराणां सामान्यस्वरूपमाह-याः प्रकष्टा इत्यादि । शस्त्रमोक्षणगोचरा इति । स्वदेहरक्षणे कर्तव्येऽपि प्रविचाराणां शस्त्रमोक्षणप्रवणत्वमेवेत्यर्थः ॥ ११३१ ॥
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संगीतरत्नाकरः फलकं वामहस्तेन खङ्ग दक्षिणपाणिना । गृहीत्वापसृतौ कृत्वा करावाक्षिप्य तौ ततः ।। ११३२॥ फलकभ्रामणं कृत्वा पार्श्वयोरुभयोरथ । परितः शिरसः शस्त्रं भ्रामयित्वा तु खड्गिनम् ॥ ११३३ ॥ करं शिरःकपोलान्तरुद्वेष्टय मणिबन्धतः । फलकस्याप्युपशिरः परिभ्रमणमाचरेत् ॥ ११३४ ॥ विधिरेष सकृत्कटयां शस्त्रपातश्च भारते । सात्वतेऽप्येवमेव स्याच्छवभ्रान्तिस्तु पृष्ठतः ॥ ११३५ ।। कर्तव्यः शस्त्रपातस्तु पादयोरिह तद्विदा । प्रविचारः सात्वतवद्वार्षगण्ये विधीयते ॥ ११३६ ॥ पृष्ठतः फलकस्यापि भ्रमणं स्यादिहाधिकम् । स्कन्धे वक्षसि वा शस्त्रहस्तस्योद्वेष्टनं तथा ॥ ११३७ ॥
(सु०) तेषां लक्षणसिध्यर्थं प्रविचार: कथ्यते-या इति । प्रकृष्टा विचित्राश्च गतयः प्रविचारा इत्युच्यन्ते । वामहस्तेन फलकं, दक्षिणहस्तेन खडगं गृहीत्वा प्रसृतौ हस्तौ कृत्वा, तौ आक्षिप्य पार्श्वद्वयेऽपि फलकभ्रमणं कृत्वा शिरसः परितः शस्त्रं भ्रामयित्वा, खड्गिनं हस्तं शिरः कपोलान्ते उद्वेष्टय शिर:समीपे फलकभ्रमणं कुर्यात् । एष विधि: भारते कठ्यां सकृच्छत्रपातश्च भवति । सात्त्वतेऽप्येवमेव । शस्त्रभ्रमणं तु पृष्ठतः कार्यम् | पादयोः शस्त्रपातः, पृष्ठत: फलकभ्रमणं च वार्षगण्ये कार्यम् । स्कन्धे वक्षसि वा शस्त्रं, शस्त्रोद्वेष्टनं च वक्षःस्थले प्रहारः पातनं चात्र भवति । कैशिके तु भारतवत्सर्वम् । शस्त्रपातस्तु शिरसि बोध्यः ॥ ११३१ ।।
___ (क०) सप्रविचाराणां भारतादीनां पृथक्स्वरूपमाह-फलकं वामहस्तेनेत्यादिना ॥ ११३२-११३८ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः महारपातनं चात्र वक्षस्थलगतं मतम् । कैशिके स्याद्भारतवच्छत्रपातस्तु मूर्धनि ॥ ११३८ ॥ शक्तिकुन्तादिशस्त्राणि धनुर्वजादिकान्यपि । न्यायेष्वेषु प्रयुञ्जीत सौष्ठवेन समन्वितः ॥ ११३९ ॥ प्रविचारा न शोभन्ते सौष्ठवेन विना कृताः। संज्ञामात्रेण कर्तव्यः प्रहारो न तु वास्तवः ॥११४०॥ मायेन्द्रजालैरथवा पहारमिव दर्शयेत् । एते न्यायाः प्रयोक्तव्याचारीभिः शस्त्रमोक्षणे ॥ ११४१ ॥
इति न्यायलक्षणम् । चारीचयविशेषः प्राङ्मण्डलं प्रतिपादितम् । तद्भेदानधुना धीमान्वक्ति श्रीकरणाग्रणीः ॥ ११४२ ॥
(क०) नर्तने न्यायोपयोगमाह-शक्तिकुन्तेत्यादि । प्रहारमिवेति। यथा वास्तवः प्रहारो न भवति, तथा कुर्यादित्यर्थः ॥ ११३९-११४१॥
इति न्यायलक्षणम् । (सु०) न्यायोपयोगमाह-शक्तीति । अत्र न्यायेषु शक्तिकुन्तधनुर्वजादीनि ससौष्ठवः सन् प्रयुञ्जीत । संज्ञामात्रेण प्रहारः कार्यः । न तु वास्तवः । अथवा मायेन्द्रजालैः प्रहारमिव दर्शयेत् । एते न्यायाः चारिभिः शस्त्रमोक्षणे प्रयोज्याः ॥ ११३९-११४१ ॥
___ इति न्यायलक्षणम् । (क०) उद्देशक्रमेण मण्डलानि लक्षयिष्यन् पूर्व चारीणां लक्षणावसरे प्रसङ्गादुक्तं तत्सामान्यलक्षणमनुस्मारयति-चारीचयविशेषः प्राङ्मण्डलं प्रतिपादितमिति । चारीचयविशेष इति । मण्डलखण्डकैस्त्रिभिश्चतुर्भिर्वेति पूर्वोक्तमित्यर्थः ॥ ११४२ ॥
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३४८
संगीतरत्नाकरः भ्रमरास्कन्दितावर्तशकटास्यानि चाडितम् । समोत्सरितमध्यर्धमेडकाक्रीडितं ततः ॥ ११४३ ॥ पिष्टकुटुं चापगतं भौमानीति दशावदन् । अतिक्रान्तं दण्डपादं क्रान्तं ललितसंचरम् ॥ ११४४ ॥ सूचीविद्धं वामविद्धं विचित्रं विहृतं ततः । अलातं ललितं चेति व्योमजानि दशाब्रुवन् ॥ ११४५ ।। भौमाकाशिकचारीणां प्राचुर्यान्मण्डलान्यपि । भौमान्याकाशिकानीति व्यपदेशं प्रपेदिरे ॥ ११४६ ॥ एतेषां विनियोगश्च विज्ञेयः शस्त्रमोक्षणे । नभोभवानां प्राधान्यं बोध्यं युद्धपरिक्रमे ॥ ११४७ ॥ चारीनाम्नात्र चरणं वक्ष्ये चारीविवक्षया । चारीणां न्यूनताधिक्यं न दूषयति मण्डलम् ।। ११४८ ।।
(सु०) प्रसङ्गान्मण्डलानां सामान्यलक्षणमाह-चारीति । चारीविशेषो मण्डलम् । तद् द्विविधम् । भौमम् , आकाशिकं चेति । भौमचारीप्राधान्ये भौमम् ; आकाशचारीप्राचुर्य आकाशिकम् । तत्र भौमस्य भेदानाह-भ्रमरेति । भ्रमरम् , आस्कन्दितम् , आवर्तम् , शकटास्यम् , अड्डितम् , समोत्सरितम् , अध्यर्धम् , एडकाक्रीडितम्, पिष्टकुटम् , चाषगतमिति भौममण्डलानि दश ॥ ११४२ ॥
(क०) तद्भेदान्दर्शयति-भ्रमरास्कन्दितेत्यादि। चारीणां न्यूनताधिक्यं न दृषयति मण्डलमिति । चतुरश्रव्यश्रमितेष्वङ्गहारेषु करणानां न्यूनताधिक्यमिव चतुरश्रव्यश्रमानमितेषु मण्डलेषु चारीणां न्यूनताधिक्यं मण्डलं न दूषयति । तत्राङ्गहारेषु यथा रेचकैः पूरणं कृतं तथात्रापि मण्डलेषु पादरेचकैश्चारीसंख्यापूरणे कृते सति चतुरश्रव्यश्रत्वयोः संभवाददोष इति भावः ॥ -११४३-११४८- ॥
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३४९
सप्तमो नर्तनाध्याय: दक्षिणो जनितो वामः स्पन्दितो दक्षिणः पुनः । शकटास्यस्तथा वामः पादोऽवस्पन्दितोऽथवा ॥ ११४९ ॥ दक्षिणो भ्रमरो वामः स्यन्दितोऽघ्रिरथेतरः । शकटास्यश्चाषगतिर्वामोऽन्यो भ्रमरो भवेत् ॥ ११५० ॥ वामान्ते स्पन्दितो यत्र तदूचे भ्रमरं बुधैः।
इति भ्रमरम् (१) दक्षिणो भ्रमरो वामोऽडितोऽथ भ्रमरः स चेत् ॥ ११५१ ॥ दक्षिणः शकटास्यत्वं गत्वोरुत्ततां गतः ।
(सु०) आकाशिकस्य भेदानाह-अतिक्रान्तमिति । अतिक्रान्तम् , दण्डपादम् , क्रान्तम् , ललितसंचरम् , सूचीविद्धम् , वामविद्धम् , विचित्रम् , विहृतम् , अलातम् , ललितमित्याकाशमण्डलानि दश । भौमाकाशिकानां चारीणां प्राचुर्यात् मण्डलान्यपि भौमानि आकाशिकानीति व्यपदेशः । एतेषां विनियोगस्तु शस्त्रमोक्षणे विज्ञेयः । नभोभवानां युद्धपरिक्रमे प्राधान्यं बोध्यम् , मण्डलचारीणां न्यूनताधिक्ये न दोषाय ॥ ११४३-११४८ ॥
(क०) मण्डलानां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ॥ -११४९, ११७३ ॥
(सु०) भ्रमरं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणः पादो जनितः, वामपाद: स्पन्दितः, पुनर्दक्षिणः शकटास्यः, पुनर्वामः स्पन्दितः ; यद्वा दक्षिणो भ्रमरः, वाम: स्पन्दितः, पुनर्दक्षिणः शकटास्यः, पुनर्वाम: चाषगतिः, पुनर्दक्षिणो भ्रमरः, अन्ते वामः स्पन्दितश्च भवति । तद् भ्रमरमित्युच्यते ॥ ॥ ११४९-११५०-॥
___ इति भ्रमरम् (१) (सु०) आस्कन्दितं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणो भ्रमरः,
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३५०
संगीतरत्नाकरः वामो वाध्यधिकीभूय भ्रमरौ दक्षिणः पुनः ॥ ११५२ ॥ स्पन्दितः शकटास्यस्तु वामस्तेनैव भूतलम् । स्फुटमास्फोटितं धीरैस्तदास्कन्दितमिष्यते ॥ ११५३ ॥
इत्यास्कन्दितम् (२) दक्षिणो जनितो वामः स्थितावर्तस्ततः परम् । शकटास्यो भवेत्पश्चादेडकाक्रीडिताहयः ॥ ११५४ ॥ उरूद्वत्तोऽड्डितचारी जनितामाश्रितस्ततः । समोत्सरितमत्तल्लिः क्रमादङ्घ्रिस्तु दक्षिणः ।। ११५५ ॥ शकटास्यः क्रमादूरूवृत्तश्च स्यादथेतरः। पादचापगतिःि स्यादक्षिणः स्पन्दितस्ततः ॥ ११५६ ॥ वामाज्रिः शकटास्यः स्यादन्योऽधिभ्रमरस्ततः । वामश्चाषगतिर्यत्र तदावर्तमवादिषुः ॥ ११५७ ॥
इत्यावर्तम् (३) वामोऽडितः, पुनर्दक्षिणो भ्रमरः, वामोऽडितः, पुनर्दक्षिणः शकटास्यतामासाद्य, ऊरूवृत्तः, वामोऽध्यर्धकतामासाद्य भ्रमरः, पुनर्दक्षिण: स्पन्दितः, वामस्तु शकटास्यश्च भवति । अन्ते तादृशेन वामहस्तेन भूतलं स्फुटमास्फोव्यते च; तद् आस्कन्दितम् ॥ -११५१-११५३ ॥
इत्यास्कन्दितम् (२) (सु०) आवतै लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणो जनितः, वामः स्थितावर्तः, तत: शकटास्यः, तत एडकाक्रीडितः, तत ऊरूवृत्तः, ततोऽडितः, ततो जनितश्च भवति । पुनर्दक्षिणः क्रमात् शकटास्यः, ऊरूवृत्तश्च, पुनर्वामः चाषगतिः, पुनर्दक्षिणः द्वि:स्पन्दितः, वामः शकटास्यः, पुनर्दक्षिणो द्विर्धमरः, वामश्चाषगतिश्च भवति ; तद् आवर्तम् ॥ ११९४-११५७- ॥
इत्यावर्तम् (३)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः जनितः सप्तपूर्वोक्तस्थितावादिभेदभाक् । क्रमेण शकटास्यश्च दक्षिणः स्पन्दितोऽपरः ॥ ११५८ ।। शकटास्यस्ततः पादो यावन्मण्डलपूरणम् । क्रमेण यत्र तज्ज्ञेयं शकटास्याभिधं बुधैः ॥ ११५९ ॥
___इति शकटास्यम (१) उद्घट्टितस्ततो बद्धः समोत्सरितपूर्वकः । मत्तल्लिरर्धमत्तल्लिरपक्रान्तश्च दक्षिणः ॥ ११६० ॥ उत्तो विद्युद्धान्तश्च भ्रमरः स्पन्दितश्च सः । वामस्तु शकटास्योऽन्यो द्विः स्याचापगतिस्ततः॥ ११६१ ॥ वामोऽडितोऽभ्यधिकस्तु क्रमाच्चापगतिः परः। समोत्सरितमत्तल्लिमत्तल्लिभ्रमरस्तथा ॥ ११६२ ॥ वामोऽथ स्पन्दितो भूत्वा भूतटास्फोटनं यदा । कुरुते पक्षिणः प्राहुरडितं मण्डलं तदा ॥ ११६३ ॥
इत्यङ्गितम् (५)
(सु०) शकटास्यं लक्षयति-जनित इति । यत्र प्रथममावतोंक्ताः सप्त भेदाः, ततो दक्षिणः शकटास्यः, वामः स्पन्दितः, पुनर्दक्षिणः शकटास्यो भवति । तत् शकटास्यम् ॥ ११५८, ११५९- ॥
इति शकटास्यम् (४) (सु०) अद्वितं लक्षयति-उद्घट्टित इति । यत्र दक्षिण उद्घट्टितः, ततो बद्धः, समोत्सरितमत्तलिः, अर्धमत्तल्लिः, अपक्रान्तश्च, वामस्तु उद्वृत्तः, विद्युद्भ्रान्तः, भ्रमरः, स्पन्दितश्च ; पुनर्दक्षिणः शकटास्यः, चाषगतिश्च, वामोऽद्वितः अध्यर्धकश्व, पुनर्दक्षिणश्चाषगतिः, समोत्सरितमत्तल्लिः, मत्तल्लिः, भ्रमरश्च भवति ।
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३५२
संगीतरत्नाकर:
स्थानेन समपादेन स्थित्वा हस्तौ प्रसारयेत् । निरन्तरावूर्ध्व कृतावावेष्टयोद्वेष्टय च क्षिपेत् ॥ ११६४ ॥ कटीतटे ततः पादौ भ्रामयेदक्षिणे ततः । क्रमेणानन्तरं वामं पुनः पादं प्रसारयेत् || १९६५ ॥ एवं भ्रान्त्वा क्रमाद्यत्र मण्डलभ्रमणं भवेत् । चतुर्दिकं तदाख्यातं समोत्सरितसंज्ञकम् ।। ११६६ ॥
इति समोत्सरितम् (६)
क्रमेण दक्षिणः पादो जनित: स्पन्दितस्ततः । अड्डितोक्ता चतुर्भेदा वामस्याध्यधिकादिका ।। ११६७ ॥ दक्षिणः शकटास्यः स्याद्यत्रान्ते दिक्चतुष्टये | मण्डलभ्रमणं तत्तु नियुद्धेऽध्यर्धमण्डलम् ।। ११६८ ॥ इत्यध्यर्धम् (७)
वामः स्पन्दितो भूत्वा, भूतटे आस्फोटनं कुरुते ; तत् अडितम् ॥ ११६०११६३ ॥ इत्यडितम् ( ५ )
(सु० ) समोत्सरितं लक्षयति-स्थानेनेति । यत्र समपादस्थानेन स्थित्वा हस्तौ प्रसार्य, ऊर्ध्वकल्पितौ निरन्तरौ तावेव आवेष्ट्य, उद्वेष्टय च कटीतटे क्षिप्येते; ततो दक्षिणवामपादौ क्रमेण भ्राम्येते, ततो वामपादः प्रसार्यते । एवं भ्रान्त्वा दिक्चतुष्टयेऽपि मण्डलभ्रमणं क्रियते ; तत् समोत्सरितम् ॥ ११६४-१९६६ ॥
इति समोत्सरितम् (६)
(सु० ) अध्यर्धे लक्षयति - क्रमेणेति । यत्र दक्षिणो जनितः, स्पन्दितश्च,
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३५३
सप्तमो नर्तनाध्यायः भूयुक्तैश्चरणैः सूचीविद्धं करणमाश्रितैः । सूचीविद्धाभिधे चावेडकाक्रीडितैरय ॥ ११६९ ॥ संपूर्णैमरैः प्राग्वत्सूचीविद्धाधिभिस्ततः । आक्षिप्तैर्मण्डलभ्रान्त्या दिक्चतुष्टययुक्तया ॥ ११७० ॥ अन्ते रचितया ज्ञेयमेडकाक्रीडिताहयम् ।
इत्येलकाक्रीडितम् (८) सूची दक्षिणपादः स्याद्वामोऽपकान्तकस्ततः ॥ ११७१ ॥ सन्यवामौ च बहुशो भुजङ्गत्रासितौ क्रमात् । यत्रान्ते मण्डलभ्रान्तिः पिष्टकुटुं तदुच्यते ॥ ११७२ ।।
इति पिष्टकुटम् (९)
वामस्तु अडितोक्तभेदचतुष्टयवान् , अध्यर्धकश्च । पुनर्दक्षिणः शकटास्यः, अन्ते दिक्चतुष्टये मण्डलभ्रमणं च भवति ; तद् अर्ध्यर्धम् ॥ ११६७, ११६८॥
___ इत्यध्यर्थम् (७) (सु०) एडकाक्रीडितं लक्षयति-भूयुक्तैरिति । यत्र भूसङ्गतैः सूचीविद्धकरणसङ्गतैः सूचीविद्धाख्यचार्याश्रितैः, ततो भ्रमरैः पादैः, तत आक्षिप्तैः सूचीविद्धाङ्घिभिश्च दिक्चतुष्टये मण्डलभ्रान्त्या अन्ते रेचितया च एडकाक्रीडितं भवति ॥ ११६९, ११७०- ॥
इत्येडकाक्रीडितम् (८) (सु०) पिष्टकुटुं लक्षयति-सूचीति । यत्र दक्षिणः सूची, वामोऽपक्रान्त:, सव्यवामौ क्रमाद् बहुशो भुजङ्गत्रासितौ, अन्ते मण्डलभ्रान्तिश्च भवति ; तत् पिष्टकुट्टम् ॥ -११७१, ११७२ ॥
इति पिटकुटम् (९).
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३५४
संगीतरत्नाकरः चरणैश्चाषगतिभिः समस्तैर्मण्डलभ्रमम् । अन्ते दधच्चापगतं नियुद्धविषयं भवेत् ॥ ११७३ ।।
इति चाषगतम् (१०) ____ इति दश भौममण्डलानि । जनितः शकटास्यश्च दक्षिणश्चरणः क्रमात् । वामोऽलातो दक्षिणस्तु पार्थक्रान्तस्ततोऽपरः ॥ ११७४ ॥ सूची स एव भ्रमर उट्टत्तो दक्षिणो भवेत् । वामस्त्वलातको वाड्री छिन्नाख्यकरणाश्रयौ ॥ ११७५ ॥ बाह्यभ्रमरकं यत्र वामाङ्गं रेचितं भवेत् । अतिक्रान्तस्ततो वामो दण्डपादस्तु दक्षिणः ॥ ११७६ ॥ अवोचत्तदतिक्रान्तं मण्डलं शंकरप्रियः ।
__इत्यतिक्रान्तम् (१) (सु०) चाषगतं लक्षयति-चरणैरिति । यत्र समस्तैः चरणैः चाषगतिभिः मण्डलभ्रमणम्, अन्ते चाषगतिश्च भवति; तत् चाषगतम् । तच्च मुष्टियुद्धे प्रयोज्यम् ॥ ११७३ ॥
इति चाषगत्तम् (१०)
इति दश भौममण्डलानि । (सु०) आकाशिकेष्वतिक्रान्तं लक्षयति-जनित इति । यत्र दक्षिणश्चरणः क्रमात् जनितः, शकटास्यश्च, वामोऽलात:, दक्षिणस्तु पार्श्वक्रान्त:, ततः सूची भ्रमर उद्वृत्तश्च, ततो वामोऽलातः, पादद्वयं छिन्नाख्यकरणयुक्तं वामाङ्गकृतं बाह्यभ्रमरकं यत्र रेचितं भवेत् । तत: वामोऽतिक्रान्तः, दक्षिणस्तु दण्डपादो भवति ; तद् अतिक्रान्तम् ॥ ११७४-११७६- ॥
इत्यातिकान्तम् (१)
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सप्तमौ नर्तनाध्यायः दक्षिणो जनितो भूत्वा दण्डपादो भवेदय ॥ ११७७ ॥ सूची च भ्रमरो वाम उत्तो दक्षिणस्ततः । अलातो वामचरणः पार्थक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥ ११७८ ॥ भुजङ्गत्रासितश्चासौ वामोऽतिकान्ततां गतः । दक्षिणो दण्डपादोऽथ सूची च भ्रमरोऽपरः ॥ ११७९ ॥ यत्र तद्दण्डपादाख्यं मण्डलं भणितं बुधैः ।
इति दण्डपादम् (२) दक्षिणः सूच्यपक्रान्तो वामोऽध्रिदक्षिणस्ततः ॥ ११८० ॥ पार्थक्रान्तस्तथा वामः समन्तान्मण्डलभ्रमः । सूची यत्राथ वामः स्यादपक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥ ११८१॥ तदुक्तं कृतिभिः क्रान्तं स्वभावगतिगोचरम् ।
____ इति क्रान्तम् (३)
(सु०) दण्डपादं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणो जनितो भूत्वा, तत: दण्डपादो भवेत् , वामः सूची भ्रमरश्च भवति । ततो दक्षिण उवृत्तो भवति । वामोऽलातः, दक्षिणस्तु पार्श्वक्रान्तः, भुजङ्गत्रासितश्च । पुनर्वामोऽतिकान्त:, दक्षिणो दण्डपादः, अथ अपरो वाम: सूची, भ्रमरश्च भवति ; तद् दण्डपादम् ॥ -११७७-११७९-॥
इति दरुडपादम् (२) (सु०) क्रान्सं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणः सूची, वामोऽपक्रान्तः, पुनर्दक्षिणः पार्श्वक्रान्तः, वामः समन्तात् मण्डलभ्रान्तः, सूची वा, पुनर्दक्षिणोऽपक्रान्तश्च भववि ; तद् स्वभावगतिगोचरं क्रान्तं भवति ॥ ॥ -१९८०-१९८१-॥
इति क्रान्तम् (३)
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३५६
संगीतरत्नाकरः ऊर्ध्वजानुस्तथा सूची दक्षिणश्वरणः क्रमात् ॥ ११८२ ॥ । वामपादस्त्वपक्रान्तः पार्थक्रान्तस्तु दक्षिणः । क्रमात्सूची भ्रमरको वामः पादोऽथ दक्षिणः ॥ ११८३ ॥ पार्थक्रान्तस्ततो वामोऽतिक्रान्तो दक्षिणः पुनः । सूच्यपक्रान्तको वामः पार्थक्रान्तोऽपरस्ततः ।। ११८३ ॥ स्याद्वामाघिरतिक्रान्तश्चरणद्वितयी ततः। स्याच्छिन्नकरणोक्ता चेद्वामाविरचितं श्रिता ॥ ११८५ ॥ बाह्यभ्रमरकं विद्यात्तदा ललितसंचरम् ।
इति ललितसंचरम् (४) दक्षिणवरणः सूची भ्रमरश्च भवेत्ततः ॥ ११८६ ॥ पार्थक्रान्तोऽथ वामाधिरपक्रान्तोऽथ दक्षिणः । सूची वामस्त्वपक्रान्तः पार्थक्रान्तस्तु दक्षिणः ॥ ११८७ ॥ यत्र तन्मण्डलं प्रोक्तं सूचीविद्धं पुरातनैः ।
इति सूचीविद्धम् (५) (सू०) ललितसंचरं लक्षयति-ऊर्ध्वजानुरिति । यत्र दक्षिण ऊर्ध्वजानुः, सूची च, वामोऽपक्रान्त:, पार्श्वक्रान्तः, वामोऽतिक्रान्तः, पुनर्दक्षिणः सूची, अपक्रान्तश्च, वामः पार्श्वक्रान्तः, अतिक्रान्तश्च ; पादद्वये छिनकरणं, वामपादरचितं बाह्यभ्रमरकं च वर्तते । तत् ललितसंचरम् ॥-१९८२-१९८५-॥
इति ललितसंचरम् (४) (सु०) सूचीविद्धं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणः सूची भ्रमरश्च; वाम: पार्श्वक्रान्त: अपक्रान्तश्च ; अथ दक्षिणः सूची, वामस्त्वपक्रान्तः, दक्षिणस्तु पार्श्वक्रान्तो भवति ; तत् सूचीविद्धम् ।। -१९८६, १९८७- ॥
इति सूचीविद्धम् (५)
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म नर्तनाध्यायः
३५७
सूच्यङ्घ्रिर्दक्षिणो वामस्त्वपक्रान्तोऽथ दक्षिणः ।। ११८८ । दण्डपादोऽथ सूची स्याद्वामो भ्रमरकच सः । पार्श्वक्रान्तो दक्षिणः स्यादाक्षिप्तो दक्षिणेतरः ।। ११८९ ॥ दक्षिणो दण्डपादः स्याद्वरूद्वत्तोऽप्यनन्तरम् । वामश्च सूची भ्रमरोऽलातश्च क्रमतो भवेत् ।। ११९० ॥ पार्श्वक्रान्तो दक्षिणः स्याद्वामोऽतिक्रान्ततां व्रजेत् । यत्र तद्वामविद्धाख्यं मण्डलं शार्ङ्गिणोदितम् ।। ११९१ ॥ इति वाम विद्धम् (६)
दक्षिणो जनितोऽङ्घ्रिः स्यादूरूद्द्वृत्तश्च विच्यवः । ततः सप्तस्थितावर्तोद्वयावर्तोदित भेदभाक् ।। ११९२ ॥ स्पन्दितो वामपादः स्यात्पार्श्वक्रान्तस्तु दक्षिणः । भुजङ्गत्रासितो वामोऽतिक्रान्तो दक्षिणो भवेत् ॥ ११९३ ॥ उद्वृत्तश्चैव वामस्तु स्यादलातोऽथ दक्षिणः । पार्श्वक्रान्तोऽथवा सूची वामो विक्षिप्य दक्षिणम् ॥ ११९४ ॥ वामपक्रान्ततां नीतस्तद्विचित्रं प्रचक्षते । इति विचित्रम् (७)
(सु०) वामविद्धं लक्षयति -- सूच्यङ्घ्रिरिति । यत्र दक्षिणः सूची, वामस्त्वपक्रान्तः, दक्षिणो दण्डपादः, वामः सूची भ्रमरश्व, दक्षिणः पार्श्व - क्रान्तः, वाम आक्षिप्तः, दक्षिणो दण्डपादः ऊरूवृत्तश्च वामः सूची, भ्रमरोऽलातश्च क्रमशो भवेत् । पुनर्दक्षिणः पार्श्वक्रान्तः, वामोऽतिक्रान्तो भवति ; तद् वाम विद्धम् ॥ - १९८८ - ११९१ ॥
इति वामविद्धम् (६)
(सु० ) विचित्रं लक्षयति - दक्षिण इति । यत्र दक्षिणश्चरणो जनितः,
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३५८
संगीतरत्नाकरः दक्षिणो विच्यवो भूत्वा स्पन्दितोऽनन्तरं भवेत् ॥ ११९५ ॥ पार्थक्रान्तो दक्षिणोऽनिर्वामस्तु स्पन्दितस्ततः । उत्तो दक्षिणोऽलातो वामः सूची तु दक्षिणः ॥ ११९६ ॥ पार्थक्रान्तस्तु वामाज्रिराक्षिप्तीभूय दक्षिणः । भ्रान्त्वा सव्यापसव्येन दण्डपादत्वमागतः ॥ ११९७ ।। वामः क्रमेण सूची स्याद् भ्रमरश्चाथ दक्षिणः । भुजङ्गत्रासितो वामोऽतिक्रान्तो विहृताभिधे ॥ ११९८ ॥
इति विहृतम् (८) सूची च भ्रमरी वामे क्रमात्पादे तु दक्षिणे । भुजङ्गत्रासितां चारीमलातां दक्षिणेतरे ।। ११९९ ॥
ऊरूद्वृत्तः विच्यवश्व । ततः स्थितावर्तीद्वयावतॊक्तभेदसप्तकम् । ततो वामः, स्पन्दित:, दक्षिण: पार्श्वक्रान्तः, वामो भुजङ्गत्रासितः, दक्षिणोऽतिक्रान्त:, वाम उद्वृत्तः, दक्षिणोऽलातः, पुनर्वाम: पार्श्वक्रान्त: सूची दक्षिणं विक्षिप्य अपक्रान्तत्वं नीयते ; तद् विचित्रम् ॥ ११९२-११९४-॥
____ इति विचित्रम् (७) (सु०) विहृतं लक्षयति-दक्षिण इति । यत्र दक्षिणो विच्यवो भूत्वा, अनन्तरं स्पन्दितः पार्श्वक्रान्तश्च । ततो वाम: स्पन्दितः, उद्वृत्तश्च ; ततो दक्षिणोऽलातः, वामः सूची, पुनर्दक्षिणः पार्थक्रान्तः, वाम आक्षिप्तः, दक्षिणः सव्यापसव्येन भ्रान्त्वा दण्डपादत्वं गच्छति ; पुनर्वामः क्रमेण सूची भ्रमरश्च; दक्षिणो भुजङ्गत्रासित:, वामोऽतिक्रान्तश्च भवति । तद् विहृतम् ॥ ।। -११९५-११९८ ॥
इति विहृतम् (८) (सु०) अलातं लक्षयति-सूचीमिति । यत्र वामः सूची भ्रमरी कुरुते,
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३५९
सप्तमो नर्तनाध्यायः षट्कृत्वः सप्तकृत्वो वा कृत्वा चारीरिमाः क्रमात् । चतुर्दिक्षु द्रुतं भ्रान्त्वा परिमण्डलिताकृतिः ॥ १२०० ॥ दक्षिणाङ्घावपक्रान्तां वामे तु चरणे क्रमाव । अतिक्रान्ता भ्रमरिके ललितैश्चरणक्रमैः ॥ १२०१ ॥ करोति यत्र तत्माहरलातं मण्डलं बुधाः ।
इत्यलातम् (९) सूच्यधिदक्षिणो वामस्त्वपक्रान्तोऽथ दक्षिणः ॥ १२०२ ।। पार्थक्रान्तत्वमागत्य भुजङ्गत्रासितो भवेत् । अतिक्रान्तस्तु वामाज्रिराक्षिप्तो दक्षिणस्ततः ॥ १२०३ ॥ वामोऽतिक्रान्तता नीत्वोरूवृत्तोऽलातकः क्रमात् । पार्थक्रान्तो दक्षिणः स्याद्वामः सूच्यथ दक्षिणः ॥ १२०४ ॥ अपक्रान्तो वामपादस्त्वतिक्रान्तीकृतो यदा । ललितं संचरेदुक्तं ललितं मण्डलं तदा ॥ १२०५ ॥
इति ललितम् (१०) इति दशाकाशिकमण्डलानि ।
इति मण्डललक्षणम् । दक्षिणो भुजङ्गत्रासितामलातां च चारी तनुते । एवं षद्कृत्वो वा, सप्तकृत्वो वा एताश्वारीः कृत्वा, ततो दिक्चतुष्टये द्रुतं भ्रान्त्वा, परिमण्डलिताकारः दक्षिणोऽपक्रान्तां चारी, ततो वामोऽतिक्रान्तां भ्रमरीं च तनुते; तद् अलातम् ॥ ११९९-१२०१- ॥
इत्यलातम् (९) (१०) ललितं लक्षयति-सूच्यविरिति । यत्र दक्षिणः सूची, वामोऽपक्रान्तः, पुनर्दक्षिणः पार्श्वक्रान्तो भुजङ्गत्रासितश्च ; वामोऽतिक्रान्तः, ततो
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३६०
संगीतरत्नाकरः चालिश्चालिवडश्चाथ लढिः सूकमुरोङ्गणम् । धसकश्चाङ्गहारः स्यादोयारो विहसी मनः ॥ १२०६ ॥ लास्याङ्गानि दशैतानि देश्यां देशीविदो विदुः । कोमलं सविलासं च मधुरं ताललास्ययुक् ।। १२०७ ॥ नातिद्रुतं नातिमन्दं व्यश्रताप्रचुरं तथा । पादोरुकटिबाहूनां योगपद्येन चालनम् ।। १२०८ ॥
इति चालि: (१) दक्षिण आक्षिप्तः, वामोऽतिकान्तः, ऊरूवृत्तः, अलातश्च ; ततो दक्षिणः पार्श्वक्रान्तः, वामः सूची, पुनर्दक्षिणोऽपक्रान्तः, वामोऽतिक्रान्तश्च भवति; तत् ललितम् ॥ -१२०२-१२०५ ॥
इति ललितम् (१०) इति दशाकाशिकमण्डलानि ।
इति मण्डललक्षणम् । (क०) अथ देशीलास्याङ्गानि लक्षयितुं तान्युद्दिशति-चालिशालिवड इत्यादि । चालिवडस्य लक्षणांशे-सांमुख्यपायेति । मध्यलयव्यश्रताभ्यां प्रचुरो भवति । इतरत्तु द्वयोरपि समानमित्यर्थः ॥ १२०६-१२०८ ॥
___ इति चालिः (१) (सु.) अथ लास्याङ्गानि लक्षयति-चालिरिति । चाल्यादीनि दश लास्याङ्गानि भवन्ति । यथा-चालिः, चालिवडः, लढिः, सूकम् , उरोङ्गणम् , धसकः, अङ्गहार: ओयारः, विहसी, मन इति । तेषां क्रमेण लक्षणमाहकोमलमिति । यत्र कोमलं सविलासतालसाम्ययुक्तं मधुरं नातिद्रुतं नातिमन्दं त्र्यश्रताप्रचुरं, यौगपद्येन पादोरुकटिबाहुचलनं क्रियते, सा चालिः ॥ ॥ १२०६-१२०८ ॥
इति चालि: (१)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः चालिः सा शैध्यसांमुख्यमाया चालिवडो भवेत् ।
इति चालिवडः (२) सुकुमारं तिरश्चीनं विलासरसिकं च यत् ॥ १२०९ ।। युगपत्कटिबाहूनां चालनं सा लढिर्मतः ।
___इति लढिः (३) कर्णयोविबहुलं लसल्लीलावतंसयोः ॥ १२१० ॥ विलम्वेनाविलम्बेन सूकं तल्लयचालनम् ।
इति सूकम् (४) (सु०) चालिवडं लक्षयति-सेति । शीघ्रसांमुख्यप्राया सा चालिरेव चालिवडः ॥ -१२०८ ॥
इति चालिवड: (२) (क०) लढिलक्षणे-कटिवाहूनामिति । कटिश्च बाहू च कटिबाहव इति बहुप्रकृतिको द्वन्द्वः । प्रतिपार्श्व कटिबाहोरेव चालनं लढिरित्यर्थः ॥ -१२०९, १२०९- ॥
इति लढिः (३) (सु०) लढिं लक्षयति-सुकुमारमिति । सुकुमारं तिरश्चीनं यद् विलासरसिकं युगपत् कटिबाहूनां चालनं क्रियते ; सा लढिः ॥ -१२०९, १२०९-॥
___ इनि लढिः (३) (क०) सूकलक्षणे-हावबहुलमिति । हावो नाम स्त्रीणां विलासविशेषः । यथोक्तं भावप्रकाशे
" हेलाहेतुः स शृङ्गारो भावात्किंचित्प्रकर्षवान् ।
सग्रीवारेचको हावो नासाक्षिभूविकासकृत्" ॥ इति । तेन हावेन प्रचुरम् ।। -१२१०, १२११- ॥
इति सूकम् (१)
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३६२
संगीतरनाकरः विलम्बेनाविलम्बन कुचयोर्भुजशीर्षयोः ॥ १२११॥ ललितं चालनं तिर्यतज्ज्ञाः माहुरुरोङ्गणम् ।
इत्युरोङ्गणम् (५) घसकः स्यात्सुललितं स्तनाधोनमनं लयात् ॥ १२१२ ॥
इत्युरोङ्गणम् (६)
(सु०) सूकं लक्षयति-कर्णयोरिति । यत्र लीलावतंसयोः कर्णयोः लसत् हावबहुलं विलम्बन अविलम्बेन वा लयचालनं क्रियते, तत् सूकम् ॥ ॥ -१२१०, १२१०-॥
इति सूकम् (४) (मु०) उरोङ्गणं लक्षयति-विलम्बेनेति । यत्र विलम्बाविलम्बाभ्यां कुचयोः भुजशीर्षयोश्च ललितं चालनं तिर्यक् क्रियते; तद् उरोङ्गणम् ।। ॥ -१२११, १२११- ॥
इत्युरोङ्गणम् (५) (क०) धसकलक्षणे-लयात्स्तनाधोनयनमिति । स्वभावेन स्थिताया नर्तक्यास्ताललयानुकरणक्रमेणैव स्थित्वा हस्वीभाव इत्यर्थः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ -१२११–१२१५ ॥
इति घसकः (६) इति दश लास्याङ्गानि ।
(सु०) धसकं लक्षयति-धसक इति । सुललितं स्तनाधोनमनं धसक इत्युच्यते ॥ -१२१२ ॥
इति पसः (१)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः सतालललितोपेता क्रमात्कयाईयोर्नतिः । धनुर्वदङ्गहारः स्यादिति निःशङ्कभाषितम् ॥ १२१३॥
इत्यारहार: (७) किंचित्तिर्यगधो मूनों गतिरोयारको मतः ।
___ इत्योयारकः (6) स्मितं स्याद्विहसी यस्तु शृङ्गाररसनिर्भरः ॥ १२१४ ।। अभ्यस्तादन्य एवातिसूक्ष्मप्रत्यग्रभङ्गिभाक् ।
___ इति विहसी (९) गीतादेरागतः स्थायस्तल्लयात्तन्मनो मतम् ॥ १२१५ ॥
___ इति मनः (१०) (सु०) अङ्गहारं लक्षयति-सतालेति । यत्र सतालललितोपेता, धनुर्वत् कायार्धयोर्नतिः, स अङ्गहारः ॥ १२१३ ॥
इत्याहार: (७) (सु०) ओयारकं लक्षयति-किंचिदिति । यत्र मूर्धः किंचित् तिर्यगधोगतिः क्रियते, स ओयारक इत्युच्यते ॥ १२१३- ॥
इत्योयारकः (८) (सु०) विहीं लक्षयति-स्मितमिति । यत्र शृङ्गाररसनिर्भरः, अभ्यस्तात् अन्य एव अतिसूक्ष्मप्रत्यग्रभङ्गिभांक् स्मितं क्रियते, सा विहसी ॥ ।। -१२१४, १२१४-॥
इति विहसी (s) (सु०) मनो लक्षयति-गीतादेरिति । यत्र गीतादिस्थायलयो वर्तते, तद् मनः ॥ -१२१५॥
इति मनः (१०) इति दश लास्याङ्गानि ।
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३६४
संगीतरत्नाकरः शिरोनेत्रकरादीनामङ्गानां मेलने सति । कायस्थितिर्मनोनेत्रहारी रेखा प्रकीर्तिता ॥ १२१६ ॥
इति रेखालक्षणम् । अथ श्रमविधिः
विघ्नेशं भारती देवीं ब्रह्मविष्णुमहेश्वरान् । रङ्गं तदेवतास्तालवाद्यभाण्डानि च क्रमात् ॥ १२१७ ॥ उपाध्यायं नृत्तकन्याः स्तम्भयुग्मं च दण्डिकाम् । कस्तूरिकाचन्दनायैः सामोदैरनुलेपनैः ॥ १२१८ ॥ शुभैः सुगन्धिभिः पुष्पैयूंपैरारात्रिकैरपि । नैवेद्यैर्विविधैर्वस्त्रैस्ताम्बूलैर्बलिभिस्तथा ॥ १२१९ ॥ अर्चयित्वा शुभे लग्ने प्रारभेत श्रमं सुधीः । स्तम्भद्वयोपरिन्यस्येत्कन्या हृदयसंमिताम् ॥ १२२० ॥ हस्तग्राह्यां तिरश्चीनामवष्टम्भाय दण्डिकाम् । वसित्वा वसनं शुभ्रं दृढमादाय कञ्चकम् ॥ १२२१ ॥
(क०) अथ रेखां लक्षयति-शिरोनेत्रेत्यादि । मनांसि नेत्राणि च हरतीत्यर्थे, हरतेरौणादिक इन्पत्यये ङीषि हारीति रूपं वेदिव्यम् ॥ १२१६ ॥
इति रेखालक्षणम् । (सु०) अथ रेखालक्षणमाह-शिरोनेत्रेति । शिरोनेत्रकराद्यङ्गमेलने मनोनेत्रहारिणी कायस्थिति:, रेखेत्युच्यते ॥ १२१६ ॥
इति रेखालक्षणम् । (क०) अथ श्रमविधिमाह-विघ्नेशमित्यादि । अङ्गविवर्तनमिति
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तो नर्तनाध्यायः
दण्डिकालम्बिनी कन्याभ्यस्येदङ्ग विवर्तनम् ।
वलनं स्थापनं रेखां तालसाम्यं लयानपि ॥। १२२२ ॥ अङ्गादीनि पुरोक्तानि लास्याङ्गान्यखिलान्यपि । गीतवाद्यानुगमनं शिक्षेत सुमनाः सती ।। १२२३ ॥ इति श्रमविधिः ।
३६५
पात्रं स्यान्नर्तनाधारो नृत्ते प्रायेण नर्तकी ।
मुग्धं मध्यं प्रगल्भं च पात्रं त्रेधेति कीर्तितम् ।। १२२४ ॥ मुग्धादेर्लक्षणं प्रोक्तं यौवनत्रितयं क्रमात् । लीनाधरस्तनाभोगकपोलजघनोरुकम् ।। १२२५ ।।
सामान्यवचनम् ; वलनमित्यादि तु विशेषवचनम् । श्रमो नाम नर्तन शिक्षाभ्यास उच्यते ॥ १२१७–१२२३ ॥
इति श्रमविधिः ।
(सु० ) अथ श्रमविधिं लक्षयति - विघ्नेशमिति । विघ्नेश, भारती, देवीं, ब्रह्मविष्णुमहेशान्, रङ्ग, रङ्गदेवताः, तालवाद्यभाण्डानि च क्रमात् उपाध्यायं, नृत्तकन्याः, स्तम्भयुग्मं, दण्डिकां च, कस्तूरिका चन्दनसुगन्धिपुष्पधूपदीपनैवेद्यवस्त्रताम्बूलादिभिः समभ्यर्च्य, शुभे लग्ने श्रमः कार्यः । स्तम्भयोरुपरि हृदयसंमितां हस्तग्राह्यां तिरश्चीनां दण्डिकावष्टम्भाय कापि कन्या न्यस्तव्या । तद्दण्डिकावलम्बिनी धवलवस्त्रपरिष्कृता, दृढकञ्चुकवती कन्या अङ्गविवर्तनं, वलनं, स्थापनं, रेखां, तालसाम्यं लयान् प्रागुक्तान्यङ्गहारादीनि सकलानि लास्याङ्गानि चाभ्यस्येत् । गीतवाद्यानुगमनं च शिक्षेत ॥ १२१७-१२२३॥ इति श्रमविधिः ।
(क०) अथ पात्रस्य लक्षणमाह - पात्रं स्यादित्यादि । नर्तनाधारो नर्तकी नृते प्रायेण पात्रं स्यादिति योजना | नर्तकस्यापि नर्त
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३६६
संगीतरत्नाकरः सुरतं प्रति सोत्साहं प्रथमं यौवनं मतम् । पीनोरुजघनं पीनकठिनोचघनस्तनम् ॥ १२२६ ॥ जीवितं मन्मथस्योक्तं द्वितीयं यौवनं बुधैः । उन्मादकं श्रिया जुष्टं संपन्नरतिनैपुणम् ॥ १२२७ ॥ कामशिक्षितभावं च तृतीयं यौवनं विदुः । यौवनं तुर्यमप्यस्ति मन्दोत्साहमनो भवेत् ॥ १२२८ ।। म्लानाधरस्तनाभोगकपोलजघनं च तत् । अतिप्रगल्भमेतस्माद्यौवनात्पात्रमुच्यते ॥ १२२९ ॥ तज्जराभिमुखं शोभाविकलं नादृतं बुधैः । बालं मनोविहीनत्वान्न पात्रं तज्ज्ञरञ्जकम् ॥ १२३० ॥
___ इति पात्रलक्षणम् । नाधारत्वाविशेषेऽपि नृत्तविषये नर्तक्येव लोके पात्रमित्युच्यते ; न नर्तक इत्यर्थः । तत्पात्रं मुग्धं मध्यं प्रगल्भं चेति त्रेधा कीर्तितम् । मुग्धादेः पात्रस्य लक्षणम्-यौवनत्रितयं क्रमादिति । योवनानां वक्ष्यमाणानां प्रथमद्वितीयतृतीयानां त्रितयं तस्य क्रमादिति । प्रथमयौवनयुक्तं मुग्धं पात्रम् । द्वितीययौवनयुक्तं मध्यमं पात्रम् । तृतीययौवनयुक्तं प्रगल्भं पात्रमिति क्रमः । तेषां यौवनानां लक्षणमाह-लीनेत्यादि । १२२४-१२३० ॥
इति पात्रलक्षणम् । (सु०) अथ पात्रं लक्षयति-पात्रमिति । नर्तनाधारः पात्रम् , नृत्तपात्रं नर्तकीत्युच्यते । तत्पात्रं त्रिविधम् ; मुग्धम् , मध्यम् , प्रगल्भमिति । मुग्धादिलक्षणं तु यौवनत्रितयक्रमेण बोध्यम् । लीनाधरस्तनाभोगकपोलजघनोरुकं सुरतं प्रति सोत्साहं यद्यौवनं तत्प्रथमम् । पीनोरुजघनकठिनातिवनस्तनमन्मथजीवितं यद्यौवनं तद् द्वितीयम् । उन्मादकशोभया समन्वितं रतिनैपुण
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३६७
सप्तमो नर्तनाध्यायः सौष्ठवं रूपसंपत्तिश्चारुविस्तीर्णवक्त्रता । विशालनेत्रता विम्बाधरता कान्तदन्तता ॥ १२३१ ॥ मुकम्बुकण्ठता वेल्लल्लतासरलबाहुता । तनुमध्योन्नतिस्थूलनितम्बकरभोरुता ।। १२३२ ॥ अत्युच्चखर्वपीनत्वराहित्यमशिरालता। लावण्यकान्तिमाधुयेधैर्योदार्यप्रगल्भता ॥ १२३३ ।। गौरता श्यामता वेति तज्ज्ञैः पात्रगुणा मताः । यत्पात्रं गात्रविक्षेपैः कोमलैविलसल्लयैः ।। १२३४ ॥ सुतालैरक्षराणीव प्रोद्रिगीतवाद्ययोः । गीतवाद्यध्वनि चाङ्गैश्वाक्षुषत्वमिवानयत् ॥ १२३५ ॥ सुमनांसीव गात्राणि रसपूर्णतया दधत् । नृत्यत्युत्तममाचष्ट तदिदं करणाग्रणीः ॥ १२३६ ॥
इति पात्रगुणाः । संपन्नं कामशिक्षितभावं यद्यौवनं तत् तृतीयम् | सुरते मन्दोत्साहमनस्कं म्लानस्तनाभोगकपोलजघनं यद्यौवनं तचतुर्थम् ; एतच्च जराभिमुखत्वात् शोभावैकल्याच्च बुधैर्नादृतम् । बालं मनोविहीनत्वान्न चतुरं जनाय ॥१२२४-१२३०॥
इति पात्रलक्षणम् । (क०) पात्रगुणानाह-सौष्ठवमित्यादि । सौष्ठवं नामानानां शोभनत्वम् । वैष्णवस्थानकोक्ताङ्गसंनिवेशो वा। रूमसंपत्तिरित्यस्यैव प्रपञ्चः, चारुविस्तीर्णवक्त्रतेत्यादि लावण्यादिप्रगल्भतेत्यन्तो बहूनां द्वन्द्वः । गौरता श्यामता वेति । कृष्णता पात्रस्य गुण इत्यर्थः ॥ १२३११२३६ ॥
इति पात्रगुणाः।
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३६८
संगीतरत्नाकरः ध्यस्तानां वा समस्तानामेषां दोषो विपर्ययः । गुणदोषौ परीक्षेत पात्रे नृत्तस्य सिद्धये ॥ १२३७ ॥ 'मार्कण्डेयपुराणोक्ता नृत्ते पात्रैकतन्त्रता । नृत्तेनामलरूपेण सिद्धिर्नान्येन रूपतः ॥ २२३८ ।। चार्वधिष्ठानवन्नृत्तं नृत्तमन्यविडम्बना ।
___ इति पात्रदोषाः। (सु०) अथ पात्रगुणान् लक्षयति-सौष्टवमिति । सौष्ठवम् ; अङ्गानां शोभावहत्वम् । रूपसंपत्ति: चारुविस्तीर्ण वक्त्रम् । विशालनयनत्वं बिम्बफलतुलिताधरत्वं, मज्जुलरदनत्वं, कम्बुकण्ठत्वं, चलल्लतोपमबाहुत्वं, तनुमध्यत्वं, नातिस्थूलनिताम्बत्वं, करभोरूत्वं, अत्युच्चपीनखर्वत्वराहित्यं लावण्यं, कान्ति:, माधुर्यम् , प्रागल्भ्यम् , गौरत्वम् , श्यामत्वमित्येते पात्रगुणाः । लयविलसितैः सतालै: कोमलै: रसभरितैः गात्रविक्षेपैः यत्पात्रम् , गीतावाद्ययोः अक्षराणि प्रोगिरदिव भासते तदुत्तमम् ॥ १२३१-१२३६ ॥
इति पात्रगुणाः । (क०) पात्रस्य दोषानाह-व्यस्तानां वेत्यादि । व्यस्तानां सौष्ठवादिष्वेकैकगुणानां समस्तानां समवेतानामेषां गुणानां विपर्ययोऽभावो दोषः । पात्रस्य गुणदोषपरीक्षणे प्रयोजनमाह-नृत्तस्य सिद्धय इति । नृतसिद्धेः पात्रैकतन्त्रतामभियुक्तसंमतिपूर्वकं दर्शयति-मार्कण्डेयेत्यादि । ॥ १२३७, १२३८- ॥
इति पात्रदोषाः। (शु०) अथ पात्रदोषान् लक्षयति-व्यवस्तानामिति । एषां व्यत्यासेन वा सामस्त्येन वा अभावो दोषः ॥ १२३७, १२३८- ॥
इति पात्रदोषाः । मुद्रितमार्कण्डेयपुराणे, अयं विषयो नोपलभ्यते। अपितु विष्णुधर्मोत्तरे तृतीयखणे रश्यते।
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३६९
सप्तमो नर्तनाध्यायः सुनीलस्निग्धविस्तीर्णकेशपाशनिवेशितः ।। १२३९ ।। प्रन्थिविलुलितः पृष्ठे लसत्पुष्पावतंसकः । वेणी वा सरला दीर्घा मुक्ताजालविराजितैः ।। १२४० ॥ कलितं कुन्तलैर्भालं कस्तूरीचन्दनादिना । रचितं चित्रकं भाले नेत्रे तन्वञ्जनाश्चिते ।। १२४१ ॥ उल्लसत्कान्तिवलये तालपत्रे च कर्णयोः । दन्तपङ्क्तिः प्रभाजालपोज्ज्वलीकृतर भू ॥ १२४२ ।। क तूरीपत्रभङ्गाङ्कौ कपौलौ कण्ठलम्बिता । ताराहारावली ग्थूलमौक्तिका स्तनमण्डना ॥ १२४३ ॥ प्रकोष्ठौ न्यस्तसदन्नसौवर्णवलयान्वितौ । अगुल्यो धृतमाणिक्यनीलवज्रादिमुद्रिकाः ॥ १२४४ ॥ चन्दनै—सरं गात्रं यद्वा कुङ्कुमरञ्जितम् । कीरोदकं दुकूलादि वस्त्रं कूर्पासकस्तनुः ।। १२४५ ॥ सकञ्चुकं वा चलनं तत्तद्देशानुसारतः । एतन्मण्डनमन्यद्वा पात्रयोः श्यामगौरयोः ॥ १२४६ ॥ यथोचितं विधातव्यमित्याह शिववल्लभः ।
___ इति पात्रमण्डनानि ।
(क०) तस्य पात्रस्य मण्डनमाह-सुनील स्निग्धेत्यादि ॥ -१२३९-१२४६- ॥
इति पात्रमण्डनानि। (सु०) अथ पात्रमण्डनानि लक्षयति-सुनीलेति । पृष्ठे, सुनीलस्निग्धविस्तीर्णकेशपाशनिवेशित: पुष्पालंकृतः विलुलितः प्रन्थिः ; मुक्तामालामनो
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३७०
संगीतरत्नाकर:
रूपवान्नृत्ततत्त्वज्ञो ग्रहमोक्षविचक्षणः ।। १२४७ ।। समादिग्रहविज्ञश्च वाद्यवादनवेदिता । संप्रदायागतज्ञानो ध्वनिमाधुर्यतत्त्ववित् ।। १२४८ ॥ स्थायाधिक्योनताभिज्ञः कुशलो लयतालयोः । वाद्यप्रबन्धनिर्माता मुखवाद्येषु कोविदः ।। १२४९ । उत्ता नूनभङ्गीनां शिष्यशिक्षणदक्षिणः । प्रतिष्ठापयिता नृत्तगीतवाद्यव्यवस्थितेः ।। १२५० ॥ प्रविष्टो हृदयं यद्वा पात्रस्य हृदि च स्वयम् । रञ्जकः स्यादुपाध्यायो नृत्तदोषविधानवित् ।। १२५१ ॥ इत्युपाध्यायलक्षणम् ।
हारिणी दीर्घा वा सरला वा वेणी ; कुन्तलाधिष्ठितं भालम् ; तत्र कस्तूरीचन्दनादिकल्पितं तिलकम्; अञ्जनमञ्जुलं नयनयुगलम् ; कान्तिसंततिदन्तुरतालपत्रपरिष्कृतं श्रवणयुगलम् ; रङ्गतटप्रोन्मेषघटनापटुप्रभापटलजटिलं दन्तमण्डलम् ; कस्तूरीपत्रभङ्गकोमलौ कपोलौ ; तारावलीपरिष्कृतः कण्ठः ; स्थूलमौक्तिकदाम कुचयुगलम् ; लसद्रत्नकनकवलयकमनीयं प्रकोष्ठद्वयम् ; माणिक्यवज्रमौक्तिकमेदुरा अङ्गुलय: ; चन्दनचर्चितं गात्रं, कुङ्कुमरञ्जितं वा ; दुकूलादिकं वसनम् ; सूक्ष्मं कूर्पासकं वा कञ्चुकं तत्तद्देशानुसारेण अन्यदपि वा मण्डनं ज्ञेयम् ॥ - १२३९-१२४६- ॥
इति पात्रमण्डनानि ।
(क०) लक्षणमाह - रूपवानित्यादि । उपाध्यायो नामात्र भरतादिशास्त्राभिज्ञोऽभिनयोपदेष्टा विद्वानभिधीयते । नृत्ततवज्ञ इति । नृत्तस्य गात्रविक्षेपमात्रं त्वित्यादिनोक्तलक्षणस्य तत्त्वं स्वरूपं ताललयाश्रयत्वादिकं जानातीति तथोक्तः । ग्रहमोक्षविचक्षण इति ।
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उपाध्यायस्य
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सप्तम नर्तनाध्यायः
३७१
गीतवाद्ययोरुपक्रमोपसंहारवेदिता । समादिग्रहविज्ञश्चेति । ताने ये महा समातीतानागताश्च त्रय उक्तास्तान्विशेषेण जानातीति तथोक्तः । वाद्यवादनवेदितेति । वाद्यानां ततादीनां वादनप्रकाराभिज्ञः । संप्रदायागतेति । शास्त्रे तत्र तत्र रहस्येषु गुरूपदेशात्परंपरायातपरिज्ञानवान् । ध्वनिमाधुर्यतत्त्वविदिति । ध्वनेर्नादस्य माधुर्यमिति । यस्य रागस्य यस्मिन्नादविशेषे क्रियमाणे रक्तिविशेषः, तद्ध्वनिमाधुर्यमित्युच्यते; तस्य तत्त्वं स्वरूपं वेतीति तथोक्तः । स्थायाधिक्योनताभिज्ञ इति । स्थायानां रागावयवानामाधिक्यमूनता च तयोरभिज्ञ इति तथोक्तः । लोके यथा करचरणादीनामवयवानामाधिक्योनते पश्यत्येवं रागेषु स्थायाधिक्योनते जानातीत्यर्थः । कुशलो लयतालयोरिति । लयो द्रुतादिः ; तालश्च चत्पुटादिः ; तयोः कुशलत्वं नाम वर्तमाने लये लयान्तरकरणं, वर्तमाने ताले तालान्तरकरणं चेत्यर्थः । वाद्यप्रबन्ध निर्मातेति । वाद्यप्रबन्धाः पूर्वोक्ता यत्यादयः । ता निर्मातुं शक्त इत्यर्थः । मुखवाद्येषु कोविद इति । मुरजादिवाद्योद्भवा वर्ण संघाता एव तालधरेणोच्चारिता मुखवाद्यानीत्युच्यन्ते तेषु कोविदः ; तद्गुणदोषाभिज्ञः । उद्भेत्ता नृत्नभङ्गीनामिति । तूर्यत्रयेऽपि नूतन प्रकाराणामुत्पादकः । शिष्य शिक्षणदक्षिण इति । शिष्याणां शिक्षणे सम्यग्वियासंक्रमणे समर्थः । नृत्तगीतवाद्यव्यवस्थितेः प्रतिष्ठापयितेति । तेन देशीमार्गविभागेन तूर्यत्रयव्यवस्थायाः प्रतिष्ठापकः । प्रविष्टो हृदयमिति । पात्रेण स्वहृदयं प्रविष्ट इति कर्मणि निष्ठा । यद्वा पात्रस्य हृदि स्वयं प्रविष्टश्वेत्यत्र कर्तरि निष्ठा । उपाध्यायपात्रहृदययोरेकीभावेन भवितव्यमित्यर्थः । अन्यथा सात्त्विकाभिनयोपदेशग्रहणेऽस्य न संभव इति भावः । रञ्जक इति । अभिनयोपदेशादिषु शास्त्र गोष्ठीषु च जनचित्ताकर्षकः । वृत्तदोषविधानविदिति । नृतस्य दोषं विधानं च वेतीति तथोक्तः । एवंविशिष्ट उपाध्यायः स्यात् । एतदुक्तं भवति - ' उपाध्यायेन
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३७२
संगीतरत्नाकरः यत्रको मुखरी श्रेष्ठस्तथा प्रतिमुखर्यपि ।
द्वावावजधरावड्डावजौ च करटाधरौ ॥ १२५२ ॥ नृतादिषु सर्वेषु लक्ष्येषु तत्त्वज्ञेन भवितव्यम् । न तु तत्तत्कर्मका' इति ॥ -१२४७-१२५१ ॥
इत्युपाध्यायलक्षणम् । (सु०) उपाध्ययं लक्षयति-रूपवानिति | रूपवान् ; गम्भीराकृतियुक्तः, कोहलभरतादिशास्त्रतत्त्वज्ञः, अभिनयोपदेष्टा उपाध्याय इत्युच्यते । नृत्ततत्त्वज्ञ: ; गात्रविक्षेपमात्रलक्षणस्य तत्त्वं तालादि जानातीति तथोकः ; प्रहमोक्षविचअण: ; गीतवाद्ययोरुपक्रमोपसंहारे कुशल: ; समादिग्रहविज्ञश्च ; तानोक्ता समातीतानागता ये ग्रहा:; तान् विशेषतो जानातीति तथोक्तः ; वाद्यवादनवेदिता; ततादिवाद्यानां वादनविषये समर्थः; संप्रदयागतज्ञान: ; गुरूपदेशपरंपरायातज्ञानसंपन्नः ; ध्वनिमाधुर्यतत्त्ववित् ; ध्वने: नादस्य माधुर्यमर्मवित् ; स्थायाधिक्योनताभिज्ञ: ; स्थायाः, रागावयवाः, तेषां न्यूनाधिक मर्मज्ञः ; लयतालयो: कुशल: ; लयतालेषु समर्थः ; वाद्यप्रबन्धनिर्माता, पूर्वोक्तवाद्यप्रबन्धानां निर्माणे कुशल: ; मुखबायेषु कोविद ; मुरजादिवायेषु पण्डितः; नूनभङ्गीनामुद्देत्ता; तौर्यत्रयेषु नूतनप्रकाराणामुत्पादकः; शिष्यशिक्षणदक्षिण ; शिष्याणां शिक्षणे अभ्यासविषये समर्थः ; नृत्तगीतवाद्य यवस्थिते: प्रतिष्ठापयिता; नृत्तगीतवाद्यानां व्यवस्थायाः प्रतिष्ठापक ; हृदयं प्रविष्ट ; नतकेन स्वहृदयं प्रविष्ट इत्यर्थः; यद्वा पात्रस्य हृदि स्वयं प्रविष्टश्चेति ; उपाध्यायपात्रहृदययोरेकीभावेन भवितव्यमित्यर्थः । रञ्जकः ; जनचित्ताकर्षक: ; नृत्तदोपविधानवित् ; अभिनयस्य दोषज्ञः ; एवंगुणविशिष्ट उपाध्यायः स्यादित्यर्थः ॥ -१२४७-१२५१ ॥
__ इत्युपाध्यायलक्षणम् । (क०) अथ संपदायं लक्षयति-यत्रैक इत्यादि । अत्र नर्तनो
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सप्तमो नर्तनाध्यायः द्वात्रिंशन्मर्दलधरा वरास्तालधरद्वयम् । कांस्यतालधरास्त्वष्टाविष्टाः काहलिकद्वयम् ।। १२५३ ॥ वांशिकौ रसिकौ व्यक्तसुरक्तमचुरध्वनी । चत्वारो मधुरध्वाना भवन्त्येते वरास्तयोः ॥ १२५४ ॥ द्वौ मुख्यगायनौ सार्धमष्टभिः सह गायनैः । मुख्यगायनिके चाष्टौ सहगायनिकास्तयोः ॥ १२५५ ॥ संप्रदायसमुल्लासि पात्रमेकं गुणान्वितम् । सर्वेऽमी रूपवन्तः म्युश्चित्रालंकरणान्विताः ॥ १२५६ ॥ गीतादिसाम्यनिपुणाः प्रहर्षोत्फुल्लचेतसः । उत्तमः संप्रदायोऽसौ लोके कुटिलमुच्यते ।। १२५७ ।। तदर्ध मध्यमो न्यूनोऽस्मात्कनिष्ठो निगद्यते ।
___इति संप्रदायलक्षणम् पयोगिनां वादकगायकानां बृन्दं संप्रदाय इति लोकरूढ्या उच्यते । ॥ १२५७- ॥
___ इति संप्रदायलक्षणम् । (सु०) संप्रदाय लक्षयति -- यत्रेति । यत्र एको मुखरी; प्रतिमुखरी चैकः ; द्वावावजधरौ ; द्वावड्डावजौ ; द्वौ करटधारिणौ ; द्वात्रिंशन्मदलधराः ; द्वौ तालधरौ; अष्टौ कांस्यतालधराः ; द्वौ काहलवादको ; वांशिकाश्चत्वारः ; अष्टभिर्गायनैः सह द्वौ मुख्यगायनौ ; अष्टौ गायनीयुक्ते द्वे मुख्यगायन्यौ ; तयोर्मध्ये एकं गुणान्वितं संप्रदायसमुल्लासि पात्रम् , सर्वेऽपि चित्रालंकरणान्विता रूपशालिनः ; गीतादिसाम्यपटवः; संतोषविकसितमनसश्च भवन्ति ; स उत्तमः संप्रदायः, तदर्धे मध्यमः संप्रदायः, तद्राहित्ये कनिष्ठः ॥ १२५२-१२५७- ॥
इति संप्रदायलक्षणम् ।
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૨૪
संगीतरत्नाकरः
अनुवृत्तिर्मुखरिण तल्लयोर्न्यूनपूरणम् ।। १२५८ ॥ तालानुवृत्तिरित्येते चत्वारः कुटिले गुणाः । संप्रदायस्य दोषः स्यादेतद्गुणविपर्ययः ।। १२५९ ॥ इति संप्रदायगुणदोषाः ।
अथ शुद्धपद्धति :
संगीतज्ञैर्बुधैः सार्धं नायके प्रेक्षके स्थिते ।
प्रविश्य रङ्गभूमिं ते तिष्ठन्तः सांप्रदायिकाः ।। १२६० ।। वाद्यानां नादसाम्यं च कृत्वावस्थितमानसाः । मेलापकं वादयेयुः प्रबन्धं गजरं ततः ।। १२६१ ॥ ततो जवनिकान्तर्धौ दधानं कुसुमाञ्जलिम् । पात्रं तिष्ठेदधिष्ठाय स्थानकं सौष्ठवान्वितम् ।। १२६२ । ततश्वोपसमारम्भेऽन्तर्धाने चापसारिते । सभाजनमनोहारि पात्रं रङ्गभुवं विशेत् ।। १२६३ ।।
(क०) संप्रदायस्य गुणानाह - अनुवृत्तिर्मुखरिण इत्यादि । संप्रदायस्य दोषानाह – एतद्गुणविपर्यय इति ॥ १२५८, १२५९ ॥ इति संप्रदायगुणदोषाः ।
(सु०) संप्रदायगुणदोषान् लक्षयति - अनुवृत्तिरिति । मुखरिणोऽनुवृत्तिः, तस्य लय:, न्यूनपूरणम्, तारानुवृत्तिरित्येते चत्वारः संप्रदायगुणा: ; एतद्गुणविपर्यये दोषाः स्युः ॥ -१२५८, १२५९ ॥
इति संप्रदाय गुणदोषाः |
(क०) संप्रदायस्य शुद्धपद्धतिमाह - संगीतज्ञैर्बुधैः सार्धमित्यादि । मेलापकं वादयेयुरित्यादि । मेलापकादयो वाद्यप्रबन्धाः पूर्वोक्तलक्षणा
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वाधमाने प्रबन्धे चोपशमादौ च वादकैः। सुभङ्गि रङ्गपीठस्य मध्ये पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत ॥ १२६४ ॥ यतः स्वयं सुरज्येष्ठो मध्येरङ्गमधिष्ठितः। ततः प्रहर्षसंपन्नं नृत्ताङ्गैरेव केवलै ॥ १२६५ ॥ वाद्येनोपशमेनात्र नृत्येत्पात्रं मनोन्वितम् । पदमोना च कवितं मलपावत्सकावपि ।। १२६६ ॥ रिगोणी तुडुकेत्येभिः प्रवन्धैर्नियतक्रमैः । स्वेच्छाकृतक्रमैर्यद्वा वाद्यमानैः समन्ततः ।। १२६७ ॥ सपाङ्गैर्विषमाङ्गोभयैर्वा नृत्तमाचरेत् । ततः शुद्धप्रबन्धैश्च गीयमानैर्निजेच्छया ॥ १२६८ ॥ पात्रं विधाय त्रिविधं नर्तनं स्थानमाचरेत् । गजरानन्तरं नास्ति यदोपशमवादनम् ।। १२६९ ॥ पात्रं तदा तदारम्भे प्रविशेदिति तद्विदः । इति पद्धतिरुक्तेयं प्रोक्ता परिविडिर्जने ॥ १२७० ॥ वादनं समहस्तस्य प्राक्प्रवेशात्परे जगुः । समहस्तादिभिः पाटैः सुवृत्तैः पृष्ठसौष्ठवैः १२७१ ॥ स्थितेन समपादेन प्रवेशं ते प्रचक्षते । केचिदाहुः केवलयोः प्रयोगं गीतवाद्ययोः ॥ १२७२ ॥ एकैकशः प्रयोगोऽपि गीतादेः कैश्चिदिष्यते ।
इति शुद्धपद्धतिः । अनुसंधेयाः । समाविषमाङ्गैर्योभयैर्वा वृत्तमाचरेदिति । समाज्ञैश्चतुरश्राश्रितैः, विषमाङ्गः, व्यश्रताश्रितैः, उभयैरुभयाश्रितैर्वाङ्गनृत्तं कुर्यात् । शुद्ध
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३७६
संगीतरनाकरः प्रबन्धैः, एलादिभिः । निजेच्छया गीयमानैरिति । सूडक्रमं विहाय चेत्यर्थः । त्रिविधं नर्तनमिति । समविषमोभयात्मकमित्यर्थः । अथवा नाट्यनृत्यनृतभेदेन त्रिविषं नर्तनं विधायेति । अयमर्थः- यदा रसाश्रयत्वेन गीतार्थाभिनयः क्रियते, तदा नाट्यम् । यदा भावाश्रयत्वेन गीतार्थोऽभिनीयते तदा, नृत्यम् । यदा गात्रविक्षेपमात्रेण गीतमात्रमनुक्रियते, तदा नृत्तमिति । पात्रप्रवेशस्य पाक्षिकं कालमाह-गजरेति । गजरानन्तरमुपशमवादनं यदा नास्ति, तदा पात्रं, तदारम्भे गजरारम्भे प्रविशेदिति तद्विद आहुः । यदा गजरानन्तरमुपशमवादनमस्ति, तदोपशमारम्भ एव पूर्वोक्तप्रकारेण पात्रप्रवेशः कर्तव्य इति । इयं पद्धतिलोंके जनैः परिविडिरित्युक्ता । समहस्तादिभिरिति । समहस्तादयः पाटा वाद्याध्यायोक्ता द्रष्टव्याः । केवलयोगीतवाद्ययोः प्रयोगमिति । गीतवाद्ययोः केवलत्वं समहस्तादिपाटराहित्येन द्रष्टव्यम् । अत्र वाद्यशब्देन मुखवाद्यमुच्यते । तेन तत्प्रबन्धा यत्यादयोऽवगन्तव्याः । अत्रायमर्थः-एलादयो गीतप्रबन्धाः, यत्यादयो वाद्यप्रबन्धाः स्वस्वोपरखकमुरजादिवादनरहिता अपि नर्तने प्रयोक्तव्या इति केषांचिन्मतम् । अपरेषां मतमाह-एकैकश इति । केवलं गीतप्रबन्धानां केवलं वाद्यप्रबन्धानां वा प्रयोग इत्यर्थः ॥ १२६०-१२७२- ॥
इति शुद्धपद्धतिः । (सु०) संप्रदायस्य शुद्धपद्धतिं लक्षयति-संगीतज्ञैरिति । यत्र संगीतज्ञैः साकं प्रेक्षमाणे सति, रङ्गभूमिं प्रविष्टे तु सांप्रदायिके वाद्यनादसाम्यं कृत्वा, अवस्थितमनाः सन्तः, मेलापकं पूर्वोक्तलक्षणलक्षितं प्रबन्धं, ततो गजरं वादयत्सु सत्सु, यवनिकान्तरितं सकुसुमाञ्जलिकं पात्रं सौष्ठवाश्रितस्थानकमालम्ब्य, यवनिकापसरणानन्तरं रङ्गभुवं प्रविश्य, वादके प्रबन्धैर्वाद्यमाने, रङ्गपीठमध्ये पुष्पाञ्जलिं विकिरेत् । तत: नृत्तानेः मनोहरं नृत्येत् । तत: पदमोता च कवितं, मलपावत्सकावपि, रिगोणीतुडुकाद्यैः नियतकमैर्वा स्वेच्छाकृतक्रमै
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अथ गौण्डलीविधिः
वाद्यप्रबन्धैः कठिनैस्त्यक्तमेलादिभिस्तथा ॥ १२७३ ॥ गीतैः सालगसूडस्थैः प्रबन्धैर्यद् ध्रुवादिभिः । लास्याङ्गैः केवलैरङ्गैः कोमलैश्चैव नृत्यति ॥ १२७४ ।। स्वयं गायति वाद्यं च त्रिवली वादयेत्स्वयम् । तत्पात्रं गौण्डली केचिद्वादनं नात्र मन्वते ॥ १२७५ ॥ त्रिवलीधारणं स्कन्धे ग्राम्यत्वं कुरुते स्त्रियाः । अगायन्ती त्वशारीरा सैव स्यान्मूकगौण्डली ॥ १२७६ ॥ गौण्डल्या मण्डलं प्रोक्तं तज्ज्ञैः कर्णाटदेशजम् । तस्याश्च नर्तनं पाहु\ण्डली लक्षणाश्रयात् ।। १२७७ ॥
प्रबन्धैः समाङ्गैः विषमाङ्गैः, उभयैर्वा नृत्यं कुर्यात् ; अन्ये प्रवेशात् प्राक् समहस्तस्य वादनं प्राहुः । तन्मते समपादस्थानेनैव पात्रप्रवेशः; अन्ये तु गीतवाद्यमानं प्राहुः ।। १२६०-१२७२- ॥
इति शुद्धपद्धतिः।
(क०) अथ गौण्डल्या विधिमाह-वाद्यपबन्धैरित्यादि । कठिनैर्वाद्यप्रबन्धैर्दीतनर्तनप्रयोज्यैरोताकवितादिभिस्त्यक्तं वर्जितम् । एलादिभिगीतस्तथेति । वर्जितमित्यर्थः । सालगमूडम्यैर्भुवादिभिः; प्रबन्धैः, लास्याङ्ग, चार्यादिभिः । केवलैः कोपलैरिति । किंचिदप्यनुद्धतैः । उक्तैर्धवादिभिरेव नान्यरित्यर्थः । यत्पात्रमेतैरेव नृत्यति । स्वयं गायति स्वयं त्रिवली वाद्यं वादयेदिति । तूर्यत्रयमप्येकाश्रयं कर्तव्यमिति भावः । तत्सात्रं गौण्डलीत्युच्यते । तस्याश्चेति । तस्या गौण्डल्या नर्तनं च लक्षणाश्रयात् लक्षणाया वृत्तेराश्रयात् गौण्डली प्राहुः । यथा गङ्गायां घोष इत्यत्र
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संगीतरत्नाकरः तत्रत्यां पद्धर्ति पाहुस्तद्विदो गौण्डलीविधिम् । सा देशीपद्धतिस्तूक्ता तल्लक्ष्म महेऽधुना ॥ १२७८ ॥ कर्णाटमण्डलैर्युक्तास्तत्र स्युः सांप्रदायिकाः । पूर्ववत्समनादत्वमातोद्यानां विधीयते ॥ १२७९ ॥ मेलापकं वादयेयुरेकताल्या समाहिताः । येन केनापि तालेन गजरे वादिते सति ॥ १२८० ॥ निःसारणैकताल्या वारब्धस्योपशमे सति । पात्रं प्रविश्य रङ्गस्य मध्ये पुष्पाञ्जलिं क्षिपेत् ॥ १२८१ ॥ आविष्कुर्वत्सव्यवामपुरोगाण्यथ नृत्यतः । गजरोपशमेनैव ततः सर्वाङ्गनर्तनम् ॥ १२८२ ॥ अहतालं निसारं चैकतालीं श्रितया ततः । रिगोण्या तालनियमरहिताभ्यामतः परः ॥ १२८३ ॥
अवत्सकविताभ्यां च क्रमानर्तनमाचरेत् । गङ्गाशब्देन तटवद्गौण्डल्या नर्तनमाश्रयाश्रयिभावेन गौण्डलीत्युपचर्यत इत्यर्थः । तत्रत्यामिति । तत्र गौण्डल्यां भवां पद्धर्ति गौण्डलीविधि प्राहुः । सा तु; गौण्डलीभवा पद्धतिस्तु देशीपद्धतिरुक्ता । अत्र तुशब्देन शुद्धपद्धतेरुपचारतो मार्गत्वं द्योतितं भवति । आरब्धस्योपशमे सतीति । अस्य गजरस्योपशम उपशमाख्ये खण्ड उपक्रान्ते सति । सव्यवामपुरोगाण्याविष्कुर्वदिति । सव्यानानि सव्यभागप्रवर्तितानि; वामानानि वामभागप्रवर्तितानि; द्विविधानि तानि विषमाझाणीत्युच्यन्ते । पुरोगाणि पुरोभागप्रवर्तितानि समाजानीत्युच्यन्ते । आविष्कुर्वत्प्रकाशयत्पार्थक्येन दर्शयत् । सर्वाङ्गनर्तनमिति । सव्यवामपुरोगाणां मिश्राणां नर्तनमित्यर्थः ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः नानाविधं पुनर्नृत्येद्रिगोण्योहवणात्मना ॥ १२८४ ॥ निवारितेषु वाघेषु दत्ते स्थानेऽय वांशिकैः। सह गायति संयुक्तस्तैः सार्धमय गौण्डली ॥ १२८५ ॥ उच्चार्य स्थायिनं कुर्याद्रागालतिं चतुर्विधाम् । अन्या वा गायनी मुख्या विविधालप्तिमाचरेत् ॥ १२८६ ॥ मण्ठकात्मतिमण्ठाच्च तालेनान्येन संयुतम् ।
सकलं ध्रुवकं गीत्वा जकया वाद्यमानया ॥ १२८७ ॥ उदृवणात्मनेति । रिगोण्यामप्यादौ वैकल्पिकस्योदृवणस्योक्तत्वादत्रापि रिगोण्यादौ ललितमुट्टवणं प्रयोक्तव्यमित्यर्थः । तेन रिगोण्युट्टवणात्मा भवति । उट्टवणलक्षणमपि
'निजैर्या तद्धिथोंदेभिर्व्यापकैरक्षरैस्तथा । पाटेर्वा रचिता किंचिद्विलम्बितलयाश्रया ।
देंकारालंकृतायन्ता वदन्युट्टवणाममूम् ' ॥ इति पूर्वोक्तमनुसंधेयम् । उदृवण इव चोवणम् । अथवा प्रवन्धान्तरस्याङ्ग तया तदादौ वाद्यमाना यतिरेवोट्टवणमित्युच्यते । यथोक्तं प्राक् -
'आदौ वाद्यप्रबन्धस्य कस्याप्यतया यदा ।
तद्विदो वादयन्त्येतां वदन्त्युट्टवणं तदा' ॥ इति । तदात्मता वा ज्ञेया । अथ वांशिकैः स्थाने दत्त इति । स्थान नास मन्द्रादिष्वेकतमम् । चतुर्विधां रागालप्तिमिति । स्वस्थानचतुष्टययुक्तामित्यर्थः । विविधालप्तिमिति । भञ्जनीप्रतिग्रहणकादिनानाभेदयुक्तां रूपकालप्तिं रागालप्तिं चेत्यर्थः । मण्ठकात्मतिमण्ठाच्चान्येन तालेनेति । मण्ठकप्रतिमण्ठकव्यतिरिक्तेन देशीतालेष्वन्यतमेनेत्यर्थः । श्लक्ष्णं मृदु यथा
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संगीतरत्नाकरः श्लक्ष्णं ध्रुवाख्यखण्डेन गीयमानेन संततम् । गायनैर्मेलकोपेतैर्मनोव्यक्तिमनोहरम् ॥ १२८८ ॥ नृत्तं किंचिद्विधायाथ शान्तयोर्गीतवाद्ययोः ।
विधाय विविधस्थायान्मुहुर्धवपदं ब्रजेत् ॥ १२८९ ॥ भवति तथा । वाद्यमानया जकयेति । जक्का नाम यतिरेवोच्यते । 'यतिर्जका च सा' इति प्रागुक्तत्वात् । तया जक्कया सह मेलापकोपेतैर्गायनैः संततं गीयमानेन ध्रुवाख्यखण्डेन ध्रुवकस्य गीतस्य मध्यखण्डेनोपलक्षितम् । मनोव्यक्तिमनोहरमिति । मनो नाम प्रागुक्तलक्षणं लास्याङ्गम् । तस्याभिव्यक्त्या मनोहरं नृत्तम् किंचिद्विधाय ; अल्पमेव कृत्वा । अथ ; अन. न्तरम् , गीतवाद्ययोः; शान्तयोः सतोः, विविधस्थायान् ; बहुप्रकारान् रागावयवान् विधाय । ध्रुवपदं मुहुर्बजेदिति । नर्तकीकर्तृकत्वेन विधानान्मध्ये मध्ये विविधस्थायानां नर्तनं कृत्वा मुहुर्मुहुर्बुवपदस्यापि नर्तनं कुर्यादित्यर्थः ॥ -१२७३-१२८९ ॥
(सु०) गौण्डल्या विधिं लक्षयति-वाद्यप्रबन्धैरिति । कठिनैः वाद्यप्रबन्धैः, एलादिभिः प्रबन्धैश्च त्यैक्तैः, गीतैः तत्तद्धवाश्रितैः, सालगसूडस्थप्रबन्धैः, केवललास्याङ्गैः, कोमलाङ्गैश्च यत् पात्रं नृत्यति, स्वयं गायति, त्रिवलीवायं च वादयति, तद् गौण्डलीत्युच्यते । अत्र त्रिवलीवाद्यवादनं नास्तीति केचित् । यत्र स्कन्धे त्रिवलीं कृत्वा, अशारीरेण स्त्रियो गायन्ति, सा मूकगौण्डली । भत्र कर्णाटदेशमण्डनं गौण्डल्या कार्यम् । तत्पद्धति: गौण्डलीविधिरित्युच्यते । यत्र कर्णाटमण्डलमण्डिता: सांप्रदायिका: प्रथममेकताल्या मेलापकं वादयन्ति, तत: येन केनापि तालेन गजरे वाद्यमाने सति, नि:सारुणा वा, एकताल्या वा उपशमे प्रारभ्यमाणे सति, पात्रं रङ्गमध्यं प्रविश्य, तत्र पुष्पाञ्जलिं प्रक्षिप्य, नर्तनं कुर्यात् । तत: गजरोपशमेनैव सर्वाङ्गनर्तनं कार्यम् । अतालनिःसार्वेकतालीयुक्तया रिगोण्या, ततः तालनियमविहीनाभ्यामवत्सकविताभ्यां क्रमात्
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
कांश्चिद्गीतस्य तालेन गीततालाक्षरैः परान् । नातिदीर्घान्नातिनी चान्माधुर्यमौढिपेशलान् ।। १२९० । रक्तियुक्तान्विना तालं यदि वादौ विधाय तान् । सुतालकलितमान्तान् ध्रुवखण्डे कलासयेत् ।। १२९१ ॥ कलासे वाद्यघातं च कुर्युः साम्येन वादकाः । कलासेषु भवेत्पात्रं लीनं चित्रार्पितं यथा ।। १२९२ ॥ एवं कुर्वत्प्रक्रियायां कृतायां पूर्ववत्पुनः ।
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नर्तनं कुर्यात् । ततः रिगोण्या उट्टवणात्मना नानाविधं नर्तनं कुर्यात् । ततः गायनसंयुक्तैः वांशिकैः वाद्येषु वाद्यमानेषु स्थाने च दत्ते, गौण्डली स्थायिनमुच्चार्य चतुर्विधरागालप्तिं कुर्यात् । अन्या वा मुख्यगायनी रागालप्तिं कुर्यात् ॥ - १२७३ - १२८९ ॥
;
( क ० ) मध्ये मध्ये विधेयान् स्थायान् विशेषाद्दर्शयति — कांश्चिदित्यादि । गीतस्य तालेनेति । गीते यस्तालः तन्मात्रायुक्तान् गीताक्षर रहितानित्यर्थः । परान्; अन्यान्, गीततालाक्षरैः युक्तान् । पक्षान्तरमाहयदि वेति । तान् ; स्थायान्, आदौ प्राग्भागे, तालं विना ; ततः सुतालकलितप्रान्तांश्चरमभागे शोभनतालयुक्तान्विधाय, ध्रुवखण्डे; कलासयेत् ; नर्तनं समापयेदित्यर्थः । कलासे; कला सावरे | वादकाच; मुरजादिवादकाश्च, साम्येन; कालसाम्येनैककालमित्यर्थः । वाद्यद्यातं स्वस्ववद्यानां घातं ताडनं कुर्युः । एतेन तस्मिन् कलासे तालस्य घातकाले प्राप्तेऽपि तत्राघातः कर्तव्य इति विहितो भवति । तस्यापि घनवाद्यत्वेन वाद्यत्वाविशेषात् । किं च, कलासेषु पात्रं चित्रार्पितं ; यथा चित्रलिखितमिव लीनं निश्चलं भवेत् । एवं कुर्वदिति । उक्तप्रकारेण कलासं कुर्वत् । पुनः प्रक्रियायां कृतायां सत्यामिति । मध्ये मध्ये स्थायेषु प्रयुक्तेषु
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संगीतरत्नाकर:
नृत्तं समाचरेत्पात्रं गीयमाने ध्रुवांशके ।। १२९३ || आभोगेनाथ नृत्येच वाद्यमानेन वादकैः । गौण्डल्य जोविता सा स्याच्यागे संनिहिते सति ॥ १२९४ ॥ नानाविधपौढचारीचालकं नृत्तमाचरेत् ।
अत्र प्रहरणं वाद्यमाभोगेऽप्येतदिष्यते ।। १२९५ ।। कृत्वाथ वाद्यसाम्येन त्यागं विश्रान्तिमाचरेत् । कृत्वा नृत्तं ध्रुवेणैवं ध्रुववन्पण्ठकादिभिः ।। १२९६ ।। क्रमान्नृत्येद्विशेषस्तु तेषामेषोऽभिधीयते ।
सत्वित्यर्थः । ध्रुवांशके ध्रुवस्यांशभूते भुवाख्ये खण्डे, गीयमाने सति नृतं समाचरेत् । अथ अनन्तरं वादकैः वाद्यमानेन आभोगेन ध्रुवान्त्यखण्डेन नृत्येत् । त्यागे गीतसमाप्तौ संनिहिते सति सा गौण्डली नर्तकी, ओजोन्विता बलयुक्ता स्यात् । तदा तथाभूता सती, नानाविधप्रौढचारीचालकम् ; चार्यश्च चालकाश्चेति द्वन्द्वः, प्रौढाच ते चारीचालकाश्चेति कर्मधारयः । नानाविधाः प्रौढचारीचालका यस्मिन्निति बहुव्रीहिः । तादृशं नृत्तमाचरेत् । अत्राभोगेऽप्येतत्प्रहरणं वाद्यमिष्यत इति । अत्रापिशब्देन ध्रुवखण्डान्तेऽपि प्रहरणं वाद्यप्रयोगो द्योत्यते । अथ वाद्यसाम्येन त्यागं कृत्वा विश्रान्तिमाचरेत् || १२९०-१२९५- ॥
(सु० ) कांश्चिदिति । मण्ठप्रतिमण्ठादि तालयुक्तं सकलं ध्रुवकं गीत्वा, वाद्यमानया जक्कया श्लक्ष्णं गीयमानध्रुवखण्डयुक्तं मेलापकोपेतै: गायकैः ईषद्वधक्तीकृतं नृत्तं किंचित् कृत्वा, गीतवाद्यशान्त्यनन्तरं नानास्थायान् कृत्वा, मुदुर्ध्रुवपदं गीत्वा, नर्तनं कुर्यात् ॥ १२९०-१२९५- ॥
(क०) ध्रुवोक्तं मण्ठादिष्वतिदिशति - भुववन्मण्ठकादिभिः क्रमाScanned by Gitarth Ganga Research Institute
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
मण्ठादेधुर्वखण्डेन केवलं नर्तनं भवेत् ।। १२९७ ।। मण्ठे तु मण्ठतालेन प्रारम्भे नर्तनं मतम् । ततः स्यादेकताल्यैव मण्ठनृत्तं क्रमात्क्रमात् ।। १२९८ ॥ नर्तनं प्रतिमण्ठादौ स्वतालेनैव कीर्तितम् । एषु सालगगीतेषु नृत्तं द्रुतलयाश्रयम् ।। १२९९ ॥ विलम्बितो लयस्तुक्तस्ताण्डवे पण्डितैः सदा । रूपकैरेकताल्यन्तैरेवं सालगसूडगैः ।। १३०० ।। नर्तित्वा क्रियते त्यागो यत्रासौ गौण्डलीविधिः । इति गौण्डली विधि: ।
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नृत्येदिति । मण्ठादिषु विशेषं वक्तुमाह – विशेषस्त्विति । मण्ठादेर्ध्रुवखण्डेन केवलं नर्तनं भवेदिति । ध्रुवखण्डवत्स्थायप्रयोगो न कर्तव्य इत्यर्थः । अयं च निषेधो यत्र ध्रुवमारभ्य सूडक्रमेण नर्तनं क्रियते तत्रैव द्रष्टव्यः । यत्र तु मण्ठादिष्वन्यतममारभ्य वा मण्ठादेरेकैकस्य वा प्राधान्येन नर्तनं क्रियते, तत्रारब्धे मण्ठादौ स्वतन्त्रे वा मण्ठादौ स्थायप्रयोगः कर्तव्य एवेति संप्रदायोऽवगन्तव्यः । प्रतिपण्ठादौ स्वतालेनैति मण्ठ| द्वैषम्योक्तिः । सालगगीतेषु द्रुतलयाश्रयं नृतमिति । एषु सालगगीतेषु उक्तस्य नृत्तस्य लास्यप्रायत्वेन मृदुत्वादस्य विलम्बलययोगे सत्यत्यन्त मृदुत्वप्रतीत्या सामाजिकानां प्रीतिं न जनयति । द्रुतलययोगे तु लास्यगतसौकुमार्यस्य परभागाच्छोभा भवति ; तथा -- ताण्डवे तु विलम्बितलय इति । ताण्डवस्योद्धतत्वेन तस्य द्रुतलययोगे सत्युद्धततमत्वप्रतीतेः पूर्वोक्त एव दोषः । विलम्बलययोगे तु पूर्ववत्परभागसंभवाद्द्द्द्श्यत्वं भवतीत्यभिप्रायः । यथा लोके नीलवस्त्रे निक्षिप्तं मुक्ताफलं शुभ्रांशुके वा निहितमिन्द्रनीलं नितरां शोभते तथेत्यर्थः । रूपकैरिति । एवमुक्तप्रकारेणैकताल्यन्तेः सालगसूड गै
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संगीतरत्नाकरः मस्मादिश्वेतलिप्ताङ्गो विभ्रन्मुण्डं शिरः शिखाम् ॥ १३०१॥
भ्राजद्धर्षरिकाजालजङ्घः शारीरपेशलः । · पञ्चाङ्गकुशलस्तालकलालयविचक्षणः ॥ १३०२ ॥ रूपकैटुंतादिभिः सप्तभिर्यत्र गीते नर्तित्वा त्यागः क्रियतेऽसौ गौण्डलीविधिः ।। -१२९६-१३००- ।।
इति गौण्डलीविधिः । ___ (सु०) अतिदेशमाह-ध्रुववदिति । गीततालेन कांश्चित् गीततालाक्षरैतिदीर्धान् , नातिनीचान् , माधुर्यप्रौढिपेशलान्, रक्तियुक्तान् कांश्चित् विधाय, आदौ तालं विना, ततः सुतालकलितप्रान्तान् ध्रुवखण्डे कलासयेत् , नर्तनस्य समाप्तिं कुर्यादित्यर्थः । कलासे वादका वाद्ययातं साम्येन कालसाम्येन कुर्युः । तदा पात्रं चित्रार्पितमिव तिष्ठेत् । एवमुक्तप्रकारेण ध्रुवांशके गीयमाने पात्रं नृत्तं समाचरेत् । अथ वादकैः वाद्यमानेन आभोगेन नृत्येत् । गीतसमाप्तौ सत्यां गौण्डली ओजोन्विता स्यात् । तदा नानाविधप्रौढचारीचालकं नृत्तमाचरेत् । अत्रापि ध्रुवखण्डान्तेऽपि प्रहरणमिण्यते । अथ वाद्यसाम्येन त्यागं कृत्वा विश्रान्तिमाचरेत् । एवं ध्रुवेण नृत्तं कृत्वा, ध्रुववत् मण्ठकादिष्वपि कर्तव्यम्। तत्र विशेषमाह-विशेषस्त्विति | मण्ठादेः ध्रुवखण्डेन केवलं नर्तनं भवेत् । मण्ठे मण्ठतालेन प्रारम्भे नर्तनं कार्यम् । तत एकताल्या क्रमात् प्रतिमण्ठादौ स्वतालेनैव नर्तनं कार्यम् , एषु सालगगीतेषु द्रुतलयाश्रयं नृत्तमुक्तम् । ताण्डवे तु विलम्बितलय उक्तः । एवमुक्तपकारेण एकताल्यन्तैः सालगसूडगै रूपकैः द्रुतादिभिः यत्र गीते नर्तित्वा त्यागः क्रियतेऽसौ गौण्डलीविधिः ॥ -१२९६-१३००- ॥
इति गौण्डलीविधि: ___ (क०) अथ पेरणिनो लक्षणमाह-भस्मादीत्यादि । भस्मादिना श्वेतवर्णकद्रव्येण लिप्ताङ्गो मुण्डं व्यपरोपितकेशं शिरः शिखां च बिभ्रत् । भ्राजर्षरिकाजालजङ्घ इति । पेरणिनो नर्तनस्य चारीप्रधानत्वेन चारी
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
सभाजनमनोहारी यो नृत्यति स पेरणी ।
घर्घरो विषमं भावाश्रयश्च कविचारकः ।। १३०३ ।। गीतं चेति समाचष्ट पञ्चाङ्गानि हरप्रियः । तत्र घर्घरिकावाद्ये वहनिर्घर्घरो मतः ।। १३०४ ॥ पडिवाटचापडपः सिरिपाटो लगादिमः ।
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पाटः सिरिहिराख्यश्च ततः खलुहुलाह्वयः ।। १३०५ ।। इति घर्घरभेदाः स्युः षडमी तद्विदां मताः ।
करणप्रयत्नेनैव वादनीया जङ्घयोर्बद्धा घनवाद्यभेदः किङ्किणी घर्घरिकेत्युच्यते । तस्या एकस्या एव नादव्यक्तेरभावान्नादपुष्टयै ता बहवो ग्राह्याः । अतो जालमित्युक्तम् । | घर्धरिकाणां जालं भ्राजत्स्वाकारेण नादेन च शोभमानं घर्घरिकाजालं ययोस्ते भ्राजद्धर्घरिकाजाले, तादृशे जङ्घे यस्य स तथोक्तः । शारीरपेशल इति । सुशारीर इत्यर्थः । एतेन पेरणिनैवावश्यं गातव्यमित्युक्तं भवति । पञ्चाङ्गकुशल इति । घर्घरादीनि पञ्चाङ्गान्यनुपदमेव वक्ष्यते । तेषु कुशलः ॥ - १३०१-१३०३ ॥
(सु०) अथ पेरणिनं लक्षयति - भस्मेति । भस्मादिश्वेतलिप्ताङ्गः, मुण्डं शिरः, शिखां च बिभ्रत् भ्राजत् घर्घरिकाजालजङ्घः, जङ्घयोर्बद्धा घनवाद्य मेदः किङ्किणी घर्घरिकेत्युच्यते । शारीरप्रेशल: ; सुशारीरयुक्तः, पञ्चाङ्गकुशल: ; वक्ष्यमाणेषु पञ्चाङ्गेषु समर्थः तालकलालयविचक्षणः यः सभ्यजनमनोहरं नृत्यति ; स पेरणी । पेरणिनोऽङ्गान्याह – घर्घर इति । घर्घर: ; विषमम् ; भावाश्रयः ; कविचारकः ; गीतमिति पञ्चाङ्गानि हरप्रिय: समाचष्ट ॥ ॥ - १३०१-१३०३- ॥
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(क०) तत्र घर्घरं लक्षयति — घर्घरिकावाद्ये वहनिरिति । बनि
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संगीतरनाकरः भूमिलग्नाप्रयोरथ्योः पर्यायामिकुट्टनम् ।। १३०६ ॥ पाणिद्वयेन पाा वैकया स्यात्पडिवाटकः ।
इति पडिवाटः (१) भवेचापडपः पादतलेनावनिकुट्टनम् ।। १३०७ ॥
इत्यपडपः (२)
रभ्यासविशेषः । तस्य घर्घरस्य षड्भेदानाह-पडिवाट इत्यादि । अल गादिमः पाटोऽलगपाट इत्येकः । पडिवाटादयः संज्ञा देशीप्रसिद्धत्वेन रूढा द्रष्टव्याः ॥ -१३०४, १३०५- ।।
(सु०) तत्र घर्धरस्य लक्षणमाह-तत्रेति । घरिकाया: वहनि: अभ्यासविशेषः, घर्घर इत्युच्यते । तस्य भेदानाह-पडिवाट इति । पडिवाटः, अपडपः; सिरिपाटः; अलगपाट:; सिरिहिरः; खलहुल इति ॥ ॥ -१३०४-१३०५-॥
(क०) भूमीति । एतेषां लक्षणानि ग्रन्थत एव सुबोधानि ॥ -१३०६-१३१३- ॥
इति पेरणिलक्षणम् । __(सु०) पडिवाटस्य लक्षणमाह-भूमिलनेति । यत्र भूमिलग्नाप्रयोः पाष्णिद्वयेन वा, एकपाष्र्या वा क्रमेण भूमिकुट्टनम् , स: पडिवाटः ॥ ॥ १३०६, १३०६- ॥
इति पहिवाटः (१) (सु०) अपडपं लक्षयति-भवेदिति । यत्र पादतलेन भूमिकुट्टनं, सोऽपडपः ॥ -१३०७॥
इत्यपटप: (२)
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सप्तमो नर्तनाध्यायः तलेन भूमिलनेन पादस्य सरणं पुरः । तथापसरणं पश्चान्मुहुः सिरिपटो भवेत् ।। १३०८ ॥
इति सिरिपटः (३) द्वयोश्चरणयोयोनि पर्यायेण प्रकम्पनम् । यत्कृतं कोमलं सोऽत्रालगपाटः प्रकीर्तितः ॥ १३०९ ।।
इत्यलगपाटः (४) सत्येकस्मिन्समे पादेऽनिः पुरः प्रेरितो भवेत् । यस्तस्य जपया कम्पः प्रोक्तः सिरिहिरो बुधैः ।। १३१० ॥ यद्वा द्वयोः स्वभावेन तिष्ठतोः पादयोर्भुवि । जङ्घयोः कम्पनं पाहु/राः सिरिहिरं तदा ॥ १३११ ॥
इति सिरिहिर: (५) (सु०) सिरिपटं लक्षयति-तलेनेति । यत्र भूमिलग्नेन पादतलेन मुहुः पुरः सरणं, तथा अपसरणं च क्रियते ; स सिरिपटः ॥ १३०८ ॥
इति सिरिपट: (३) (सु०) अलगपाट लक्षयति-द्वयोरिति । यत्र द्वयोः चरणयोः माकाशे पर्यायेण कोमलं चलनं कृतं भवेत् ; सोऽलापाटः ॥ १३०९ ॥
इत्यलगपाटः (४) (सु०) सिरिहिरं लक्षयति-सत्येति । यत्र एकस्मिन् पादे समे, अधिः पुरः प्रेरितो भवेत् । अन्यस्य न्यस्ते जङ्घयोः कम्पन ; स सिरिहिरः । मतान्तरमाह-यद्वेति । यदा द्वयोः पादयोः स्वभावेन भुवि तिष्ठतोः यत्र जङ्घयोः कम्पनं क्रियते ; तदा सिरिहिरो भवति ॥ १३१०, १३११ ॥
इति सिरिहिरः (५)
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ફ્૮૮
संगीतरत्नाकरः
भूलग्नाग्रस्य वामाङ्घ्रः पाष्य यद्धमिकुट्टनम् ।
भूलग्नाग्रस्य चान्यस्य भ्रमः सव्यापसव्यतः ॥ १३१२ ॥ isit खहुः प्रोक्तो घर्घरो नृत्तकोविदैः । दिशानया परेऽप्यूह्या घर्घराः शोभयान्विताः ।। १३१३ ॥ सर्वे घर्घर भेदास्ते कार्यास्तालानुगामिनः ।
इति खलुहुल: ( ६ )
अत्र चोत्लुतिपूर्वं स्यात्करणं विषमाभिधम् ।। १३१४ ॥ विकृतार्थानुकारस्तु बुधैर्भावाश्रयो मतः । कविचारो भवेदत्रोत्तमनायकवर्णनम् ॥ १३१५ ॥ अत्र स्यात्सालगं गीतं यदुक्तं गौण्डलीविधौ । इति पेरणिलक्षणम् |
(सु०) खल्लुहुलं लक्षयति — भूलनामेति । यत्र भूलग्नाग्रस्य वामाङ्घ्र: पायद् भूमिकुट्टनम् ; भूलग्नाग्रस्य अन्यस्य दक्षिणपादस्य सव्यापसव्यतो भ्रमणं खलुहुल: । अनया दिशा अपरे घर्घरा अप्यूह्या: । ते सर्वे घर्घर भेदाः शोभया अन्विताः तालानुगामिनश्च कार्याः ॥ १३१२, १३१३- ॥ इति खलहुलः (६)
विषमाख्यमङ्गमाह – अत्र चेति । उत्प्लुतिपूर्वं करणं पूर्वोक्तमश्चितादिषट् त्रिंशद्भेदभिन्नम् भावाश्रयाख्यमङ्गं लक्षयति — विकृतार्थानुकार इति । पेरणिना सामाजिकानां हास्योत्पादनाय क्रियमाणं विकृतपदार्थानुकरणं यद्विद्यते स भावा श्रयः । कविचारं लक्षयति - उत्तमनायक वर्णन - मिति । गीताख्यमङ्गमाह - अत्र स्यात्सालगं गीतमिति । सालगं गीतं द्रुतादिकम् ॥ - १३१४-१३१५- ॥
इति पेरणिलक्षणम् ।
(सु० ) विषमाख्यमङ्गं लक्षयति - अत्रेति । उत्पल्लुतिपूर्व करणं विषम
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अथ पेरणीपद्धति:
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३८९
गौण्डलीविधिवच्चात्र रङ्गस्था: सांप्रदायिकाः ।। १३१६ ॥ कुर्युर्गम्भीरमातोद्यध्वनि धिधिधिधीति । ततो विलम्वितप्राये रिगोण्युट्टवणाश्रये ।। १३१७ ॥ पादत्रये वाद्यमाने द्विर्द्विर्निःसारुतालतः । विशेद्विकृतवाग्वेषभूषो रङ्गेऽट्टबोडकः ।। १३१८ ।। तस्मिन्नृत्यति हास्यैकरसे विशति पेरणी । रिगोण्युपशमेनैष प्रविष्टो नृत्तमाचरेत् ।। १३१९ ॥ प्रशान्ते वाघसंघाते ततस्तालधरैः समम् । वाद्यमाने सुनिपुणं ताले गारुगिसंज्ञके ।। १३२० । यद्वा सरस्वतीकण्ठाभरणे वादकैस्तथा । क्रियमाणे मर्दलादेर्मन्द्रं तालसमध्वनौ ॥ १३२१ ॥
मित्यभिधीयते । भावाश्रयं लक्षयति - विकृतेति । विकृतार्थानुकरणं भावाश्रयः । कविचारं लक्षयति - कविचार इति । उत्तमनायकवर्तनं कविचारः । गीताख्यं लक्षयति- अत्रेति । सालगं गीतमित्युच्यते । तच्च द्रुतादिकम् ॥ -१३१४, १३१५-॥
इति पेरणिलक्षणम् |
(क०) अथ पेरणिनः पद्धतिमाह – गौण्डली विधिवच्चात्रेत्यादि । अत्रातिदेशेन वादकानां नादसाम्यकरणं गृह्यते । रिगोण्युट्टवणाश्रय इति । रिगोण्युट्टवणं पूर्वोक्तमनुसंधेयम् । अट्टवोडक इति सकल शिरोमुण्डिताभिधायी देशीशब्दः । संज्ञके ताल इति । " गारुगिस्तु चतुर्द्रुता । विरामान्ता" इति पूर्वोक्तं तल्लक्षणमनुसंधेयम् । यद्वेति पक्षान्तरम् | सरस्वतीकण्ठाभरण
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संगीतरत्नाकरः पेरणी घर्घरान्कुर्यान्नाना चापडपादिकान् । ततः कूटनिबद्धेन यद्वा वर्णसरात्मना ॥ १३२२ ॥ कवितेनैष विषमं नृत्येन्निःसारुतालतः । ततः सालगसूडेन नृत्ते तत्र च दर्शयेत् ॥ १३२३ ॥ रेखां च स्थापनां हृद्या वहनीगीतनर्तनम् । विषमं च प्रहरणानुगमाभोगवादने ॥ १३२४ ॥ कविचारांस्तथा भावाश्रयान्पेरणिपद्धतौ ।
इति पेरणीपद्धतिः।
इति । 'द्वौ गुरू द्वौ लघुद्रुतौ । ताले सरस्वतीकण्ठाभरणे शाङ्गिसंमतौ' इति लक्षणमप्यनुसंघेयम् । अपडपादिकान् नाना कुर्यादि तिसंबन्धः । हृद्या वहनीरिति । हृदयंगमान् घर्घरिकावाद्यवादनप्रकारानित्यर्थः । प्रहरणं वाघप्रबन्धानां विशेषः । तदनुगच्छत्यनुकरोतीति तथोक्तम् । विषमं पूर्वोक्तमुत्प्लुतिकरणम् ॥ -१३१६-१३२४- ॥
इति पेरणीपद्धतिः। (सु०) अथ पेरणिनः पद्धतिं लक्षयति-गौण्डलीति । यत्र गौण्डलीविधाविव रङ्गस्थाः सांप्रदायिका: गम्भीरमातोद्यध्वनि कुर्युः । ततः विधिविधीति पादत्रये विलम्बितप्राये रिगोण्युट्टवणाश्रये निःसरुतालेन द्विद्यिमाने सति, विशिष्टवाग्वेषभूषणे हास्यैकरसे नटे नृत्यति सति, रिगोण्युपशमानन्तरं पेरणी रङ्गं प्रविश्य नृत्येत् । ततो वाद्यसंघाते प्रशान्ते सति, अनन्तरं तालधरः पेरणी गारुगिताले वाद्यमाने सुनिपुणं कुर्यात् । यद्वा-सरस्वतीकण्ठाभरणे क्रियमाणे वादकैः क्रियमाणे मर्दलादेः तालसमे मन्द्रध्वनौ च सति अपडपादीन् घर्घरान् कूटनिबद्धेन वा वर्णसरात्मना वा कवितेन वा कृत्वा, एष पेरणी निःसारुतालतः विषमं नृत्येत् । तत: सालगसूडेन नृत्ते रेखां स्थापनां च
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३९१ तौर्यत्रये लक्ष्यलक्ष्मवेद्याचार्यः प्रकीर्तितः ॥ १३२५ ॥ वाग्मी सुरूपवेषोऽसौ सरसस्तुतिकोविदः । समासु परिहासज्ञो भवेद्वादनवाद्यवित् ॥ १३२६ ॥
इत्याचार्यः । चतुर्धाभिनयाभिज्ञो नटो भाणादिभेदवित् ।
इति नटः। हृद्या वहनी: गीतनतर्ने विषमं च प्रहरणानुगमनम् , आभोगवादनं, कविचारान् , भावाश्रयांश्च दर्शयेत् ; सा पेरणीपद्धतिः ॥ -१३१६-१३२४- ॥
__ इति पेरणीपद्धतिः। (क०) अथाचार्य लक्षयति-तौर्यत्रय इत्यादि ।।-१३२५,२६॥
इत्याचार्यः । (सु०) आचार्यलक्षणमाह-तौर्यत्रय इति । तौर्यत्रये लक्ष्यलक्षणज्ञः, वाग्मी, शोभनरूपवेषभाक् , सरसः, स्तोत्रपटुः, सभासु परिहासवित्, मुखवाद्यज्ञः यः, स आचार्य इत्युच्यते ॥ -१३२५, १३२६ ॥
इत्याचार्यः । (क०) नटं लक्षयति-चतुर्धेत्यादि । भाणादिभेदविदिति । भाणो नाम नाटकादिषु रसाश्रयेषु दशरूपकेष्वेको रूपकभेदः । आदिशब्देन प्रहसनादीनि रूपकाणि गृह्यन्ते ॥ १३२६ ॥
___ इति नट:। (सु०) नटलक्षणमाह-चतुर्धेति । चतुर्विधाभिनयवेत्ता, भाणादिभेदवित् ; भाणो नाम दशरूपके वेको भेदः । अत्रादिशब्देन प्रहसनादीनां प्रहणम् । एतादृशगुणयुक्तो नट इत्युच्यते ॥ १३२६- ॥
इति नटः ।
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३९२
संगीतरत्नाकरः नर्तकः सूरिभिः प्रोक्तो मार्गनृत्ते कृतश्रमः ।। १३२७ ।।
- इति नर्तकः । सर्वभाषाविशेषज्ञो जनानां नर्मकर्मदः । पटुः परापवादेषु स्मृतो वैतालिको बुधैः ॥ १३२८ ।।
इति वैतालिकः । किङ्किणीवाद्यवेदी च वृत्तो विकटनर्तकैः । मर्मज्ञः सर्वरागेषु चतुरश्चारणो मतः ॥ १३२९ ॥
इति चारणः।। (क०) नर्तकं लक्षयति-मार्गनृत्ते कृतश्रम इति । मार्गनृत्तं करणाङ्गहाराद्यात्मकं नृत्तम् । तत्र कृताभ्यासः ॥ -१३२७ ॥
इति नर्तकः । (सु०) अथ नर्तकं लक्षयति-नर्तक इति । मार्गनृत्ते कृतश्रमः, मार्गनृत्तं नाम करणाङ्गहारात्मकं नृत्तम् । तत्र कृत अभ्यासो येन स नर्तक इत्युच्यते ॥ -१३२७॥
इति नर्तकः । (क०) वैतालिकं लक्षयति-सर्वभाषेत्यादि । -१३२८ ॥
इति वैतालिकः । (सु०) अथ वैतालिकं लक्षयति-सर्वभाषेति । सर्वभाषासु विशेषज्ञानसंपन्नः, सभ्यजनानां नर्मकारी, परापवादेषु समर्थः, एतादृशगुणयुक्तो वैतालिक इत्युच्यते ॥ -१३२८ ॥
इति वैतालिकः । (क.) चारणं लक्षयति-किङ्किणीत्यादि ॥ १३२९ ॥
इति चारणः ।
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३९३
सप्तमो नर्तनाध्यायः भारस्य भूयसो वोढा प्रौढो भ्रमरिकादिषु । रज्जुसंचारचतुरश्छुरिकानर्तने कृती ॥ १३३० ॥ शस्त्रसंकटसंपातपटुः कोहाटिको मतः ।
इति कोल्हाटिकलक्षणम् । मध्यस्थाः सावधानाश्च वाग्मिनो न्यायवेदिनः॥ १३३१॥ त्रुटितात्रुटिताभिज्ञा विनयानम्रकंधराः। अगर्वा रसभावशास्तौर्यत्रितयकोविदाः ॥ १३३२॥ असद्वादनिषेद्धारश्चतुरा मन्सरच्छिदः । अमन्दरसनिष्यन्दिहृदयाः स्युः सभासदः ॥ १३३३ ॥
___ इति सभासदो लक्षणम् । __ (सु०) अथ चारणं लक्षयति-किङ्किणीवाद्यवेदीति । किङ्किणीवाद्यज्ञः, विकटनर्तकैः वृतः, सर्वरागेषु मर्मज्ञः, चतुरः यः, स चारण इत्युच्यते ॥ ॥ १३२९ ॥
__इति चारणः। (क०) कोहाटिकं लक्षयति-भारस्येत्यादि ॥१३३०,१३३०॥
इति कोल्हाटिकलक्षणम् । (मु०) अथ कोल्हाटिकं लक्षयति-भारस्येति । बहुभारवोढा, भ्रमरकादिषु प्रौढः, समर्थः ; रज्जुसंचारे चतुरः, चणः ; छुरिकानर्तने पटुः; शस्त्रसंकटपाते पटुः दक्षः ; एवंविधगुणोपेतः कोल्हाटिक इत्युच्यते ॥ १३३०, १३३०-॥
इति कोल्हाटिकलक्षणम् । (क०) सभासदो लक्षयति-मध्यस्था इत्यादि ।।-१३३१-३३॥
इति सभासदो लक्षणम् ।
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३९४
संगीतरत्नाकरः शृङ्गारी भूरिदो मान्यो गात्रपात्रविवेचकः । श्रीमान्गुणलवस्यापि ग्राहकः कौतुके रतः ॥ १३३४ ॥ वाग्मी निर्मत्सरो नर्मनिर्माणनिपुणः सुधीः । गम्भीरभावः कुशलः सकलासु कलासु च ॥ १९३५ ॥ समस्तशास्त्रविज्ञानसंपन्नः कीर्तिलोलुपः । प्रियवाक्परचित्तज्ञो मेधावी धारणान्वितः ॥ १३३६ ॥ तूर्यत्रयविशेषज्ञः पारितोषिकदानवित् । सर्वोपकरणोपेतो देशीमार्गविभागवित् ॥ १३३७ ॥ हीनाधिकविवेकज्ञः प्राज्ञो मध्यस्थधीरधीः । स्वाधीनपरिवारश्च भावको रसनिर्भरः ॥ १३३८ ॥ सत्यवादी कुलीनश्च प्रसन्नवदनोत्तरः । स्थिरमेमा कृतज्ञश्च करुणावरुणालयः ॥ १३३९ ॥ धर्मिष्ठः पापभीरुश्च विद्वद्वन्धुः सभापतिः ।
इति सभापतिलक्षणम् | (सु०) अथ सभासदं लक्षयति--मध्यस्था इति । मध्यस्थाः ; अवहिताः, वाग्मिनः, न्यायवेदिनः, त्रुटितात्रुटिताभिज्ञाः, विनयेन आनम्रकन्धरा:, गर्वरहिताः, रसभावज्ञा:. तौर्यत्रितयकोविदाः, असद्वादनिषेद्धारः, चतुराः, मत्सरमिदाः, अमन्दरसनियन्दिहृदयाः सभासद इत्युच्यन्ते ।। -१३३१-१३३३ ।।
इति सभासदो लक्षणम् । (क०) सभापति लक्षयति-शृङ्गारीत्यादि ॥१३३४-१३३९.॥
इति सभापतिलक्षणम् । (सु०) अथ सभापति लक्षयति-शृङ्गारीति । शृङ्गारी, बहुदाता,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
३९५ विचित्रा नृत्यशाला स्यात्पुष्पपकरशोभिता ।। १९४० ।। नानावितानसंपन्ना रत्नस्तम्भविभूषिता । सस्यां सिंहासनं रम्यमध्यासीनः सभापतिः ।। १३४१ ॥ वामतोऽन्तःपुराणि स्युः प्रधाना दक्षिणेन तम् । पृष्ठभागे प्रधानानां कोणः श्रीकरणाधिपः ॥ १३४२ ॥ तत्संनिधौ तु विद्वांसो लोकवेदविशारदाः । रसिकाः कवयोऽप्यत्र चतुराः सर्वरीतिषु ॥ १३४३ ।। मान्याज्योतिर्विदो वैद्यान्विद्वन्मध्ये निवेशयेत् । स्याद्वामेतरभागे तु मत्रिणां परिमण्डलम् ।। १३४४ ।। तत्रैव सैन्यमान्यानामन्येषामुपवेशनम् । विलासिनो विलासिन्यः परितोऽन्तःपुराणि च ।। १३४५ ॥
पुरतोऽपि नृपस्य स्युः पृष्ठभागे तु भूपतेः । माननीयः, गात्रपात्रविवेचकः, श्रीमान् , गुणलेशस्यापि गृहीता, कौतुकासक्तः, वाग्मी, मत्सरशून्यः, नर्मनिर्माणपटुः, सुधीः, गम्भीरभावयुक्तः, सकलकालासु समर्थः, समस्तशास्त्रविज्ञानसंपन्नः, कीर्तिषु लोलुपः, प्रियवादी, पराभिप्रायज्ञः, मेधावी बुद्धिमान् ; धारणायुक्तः, तूर्यत्रयविशेषज्ञः, पारितोषिकदानवित् , सर्वोपकरणवान्, देशीमार्गविभागवित्, हीनाधिकविशेषज्ञः, प्राज्ञः, मध्यस्थेषु धीरः, स्वायत्तपरिवारः, भावकः, रसनिर्भरः, सत्यवादी, कुलीनः, प्रसन्नवदनः, स्थिरप्रीतिः, कारुण्यवान् , धर्मिष्ठः, पापभीरुः, विद्वद्वन्धुः, इत्येवंगुणोपेतः सभापतिरित्युच्यते ॥ १३३४-१३३९- ॥
इति सभापतिलक्षणम् । (क०) अथ सभास्थानं तत्र सामाजिकानां संनिवेशं चाह-~विचित्रेत्यादि । एवमिति । उक्तप्रकारेण सभां सामाजिकसमूहं संनिवेश्य
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३९६
संगीतरत्नाकरः चारुचामरधारिण्यो रूपयौवनसंभृताः ॥ १३४६ ॥ स्वकङ्कणझणत्कारनिर्वाणजनमानसाः । आसीना वामभागे स्युरने वाग्गेयकारकाः॥ १३४७॥ कथका बन्दिनश्चात्र विद्यावन्तः प्रियंवदाः । प्रशंसाकुशलाश्चान्ये चतुराः सर्वमातुषु ॥ १३४८ ॥ ततः परं च परितः परिवारोपवेशनम् । अधिष्ठितं सदः कार्य दक्षैत्रधरैर्नरैः ।। १३४९ ॥ अङ्गरक्षास्तु तिष्ठेयुः सर्वतः शस्त्रपाणयः । संनिवेश्म सभामेवं नेता संगीतमीक्षते ॥ १३५० ॥
इति सभासंनिवेशः ।। यथासंस्थानं स्थापयित्वा, नेता ; नायक उक्तगुणः सभापतिः । संगीतम् : आनन्दातिशयोत्पादसाधनं तूर्यत्रयं गीतवाद्यनृत्यानां मेलनमित्यर्थः । ईक्षते; अवहितमना भूत्वा विलोकयेदिति नियमोऽनुसंधेयः ।। -१३४०-१३५०॥
इति सभासंनिवेशः। (सु०) सभासंनिवेशं लक्षयति-विचित्रा इति । रत्नस्तम्भालंकृतायां, पुष्पशोभितायां, नानाविधविभावविलसितायां नृत्याशालायां सिंहासने सभापतिस्तिष्ठेत् । तद्वामे अन्तःपुराणि ; तद्दक्षिणे प्रधानाः; प्रधानपृष्ठभागे कोशाद्यधिपाः; तत्संनिधौ लोकवेदसमर्था विद्वांसः ; रसिकाः कवयः ; तन्मध्ये ज्योतिर्विदः वैद्याश्च ; तदक्षिणे मन्त्रिणः, तत्रैव सेनापतयश्च तिष्ठेयुः । अन्त:पुरस्य परितो विलासिन्यः ; सभापतेः परितो विलासिनश्च उपविशेयुः । राज्ञः पृष्ठभागे चारुचामरधारिण्यः, रूपयौवनशालिन्यः स्वङ्कणझणत्कारतोषितमनस: उपविशेयुः । राज्ञो वामभागे वाग्गेयकारकाः, कथकाः, बन्दिनः, विद्यावन्तः, प्रियंवदाः, प्रशंसाकुशलाः, सर्वमातुषु चतुरश्च, अन्येऽपि
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
अथ नवरसलक्षणम् -
रसप्रधानमिच्छन्ति तौर्यत्रिकमिदं विदः । तत्सामान्यविशेषाभ्यामधुनाभिदधे रसम् ॥ १३५१॥
उपविशेयुः। ततः परं परितः परिवारा उपविशेयुः । सदसि दक्षाः वेत्रधारिणः, शस्त्रपाणयः, अङ्गरक्षकाश्च सर्वत: तिष्ठेयुः । एवं सभां संनिवेश्य नेता संगीतं पश्येत् ॥ -१३४०-१३५० ॥
इति सभासंनिवेशः। अथ नवरसलक्षणम्
(क०) एवं संगीतस्वरूपनिरूपणानन्तरं रसनिरूपणसंगतिं दर्शयन् रसप्रकरणमारभते-रसप्रधानमित्यादि । विदः; विद्वांसः इदम् । तौर्यत्रयं संनिहितपूर्वकालमेवोक्तलक्षणत्वात् बुद्धिस्थितस्य तूर्यत्रयस्येदमा प्रत्यक्षविषयेण निर्देश उपपन्न एव । रसमधानमिच्छन्तीति । रसो नाम विभावैरित्यादिना वक्ष्यमाणलक्षणो धीविशेष इच्छाविशेषो वा, स प्रधानं यस्य स तत्तथोक्तम् । तौर्यत्रिकस्य रसाविर्भावसाधनत्वेनाङ्गत्वम् । रसस्य तत्साधनत्वेनाङ्गित्वमित्यर्थः । यत एवं तत्तस्मात्कारणात् रसं तत्सामान्यविशेषाभ्यामभिदध इति । रसशब्दाभिधेयस्य स्वरूपनिरूपणं सामान्येनाभिधानं शृङ्गारादिशब्दानां स्वरूपनिरूपणं विशेषाभिधानम् ॥ १३५१ ॥
(सु०) अथ रसप्रकरणमारभते-रसप्रधानमिति । विदः; विद्वांसः, इदं तौर्यत्रिकं रसप्रधानमिच्छन्ति । तस्मात् सामान्यविशेषाभ्यामधुना रसस्य लक्षणमभिदध इत्यन्वयः । अत्र रसस्य स्वरूपनिरूपणं सामान्येन ; शृङ्गारादीनां तु विशेषेणेत्यवगन्तव्यम् । तत्र रसस्य सामान्यलक्षणमाह-विभावैरिति । नटस्थितैः विभावानुभावव्यभिचारिसात्त्विकैः स्वादुतया · नीयमानः स्थायी रस इत्युच्यते । स नवविधः-शृङ्गारः, हास्यः, करुणः, रौद्रः, वीरः, भयानकः,
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संगीतरत्नाकरः विभावैरनुभावश्च नटस्थैर्व्यभिचारिभिः । जनितात्मपरामित्रमित्राद्याश्रयतां विना ।। १३५२ ।। अवस्थादेशकालादिभेदसंभेदवर्जितम् । केवलं रतिहासादिस्थायिरूपं प्रगृह्णती ॥ १२५३ ॥
बीभत्सः, अद्भुतः, शान्तश्चेति । शान्तस्य शमसाध्यत्वात् तस्य च नटेऽसंभवात् अष्टावेव-रस इति केचिदाहुः । तन मनोहरम् । न हि नटस्तावत् कंचन रसं स्वदते; परं तु सभास्ताराः । तथाच सति शुद्धहृदयाः सभ्याः स्वविभावविभावितं शान्तरसमनुभवतीति संजाघटत एव । स्थाय्यपि नवविध:-रतिः, हास:, शोकः, क्रोधः, उत्साहः, भयम् , जुगुप्सा, विस्मयः, निर्वेद इति ॥ १३५१-१३६१- ॥.
(क०) तत्र सामान्यलक्षणमाह--विभावैरित्यादि । विभावा नाम लोके स्थाय्यादिभावानां, 'दृष्टा ये जन्महेतवः' इत्यादिना वक्ष्यमाणलक्षणाः। अनुभावा नाम, ‘भावानां यानि कार्याणि ' इत्यादिना वक्ष्यमाणलक्षणाः । व्यभिचारिणोऽपि, 'स्तोकैर्विभावैरुत्पन्नाः' इत्यादिना वक्ष्यमाणलक्षणाः । नटस्थैरिति विभावादीनां विशेषणम् । तेन लौकिकरसो व्यावय॑ते । जनितेति। उक्तैर्विभावादिभिः जनिता सामाजिकेषूत्पादिता; आत्मा अहमिति प्रत्ययविषयः ; परः अन्यः, अन्यस्मिन्नप्ययममित्र इदं मित्रमिति, आदिशब्देनायमुदासीन इत्युदासीनो गृह्यते । एवमात्मादिराश्रयो विषयो यस्याः सा आत्मपरामित्रमित्राद्याश्रया, तस्या भावस्ततेति वक्ष्यमाणायाः संविदो धर्मः। तां विना । अवस्थेत्यादि । अवस्थाभेदा जाग्रत्स्वमसुषुप्तयः; देशभेदाः पुरमामादयः; कालभेदा अहोरात्रादयः; आदिशब्देन ब्राह्मणादयो वर्णभेदा गृहस्थत्वादय आश्रमभेदाः पाचकपाठकादयोऽन्येऽपि गृह्यन्ते । है संभेदः संपर्कः । तेन वर्जितम् । अत एव केवलं रतिहासादिस्थायि
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
अतो निरन्तरायत्वात्परां विश्रान्तिमाश्रिता । प्रतिभानुभवस्मृत्याद्यन्यबोधविलक्षणा ।। १३५४ ।। ब्रह्मसंविद्विसदृशी नानारत्यादिसङ्गमात् । सुखरूपा स्वसंवेद्या संविदास्वादनाभिधा ।। १३५५ ॥ रसः स्यादथवा स्थायी रसस्तद्गोचरीभवन् ।
३९९
रूपम् । रतिः शृङ्गाररसस्य स्थायिभावो वक्ष्यते । हासो हास्यरसस्य ; आदिशब्देन करुणस्य शोक इत्यादिकं द्रष्टव्यम् । एवंविधं स्थायिरूपं प्रगृह्णती स्वीकुर्वती । अत इति । उक्तकारणात्; निरन्तरायत्वात् ; विनरहितत्वात् पराम् ; उत्कृष्टां विश्रान्ति विस्रम्भमाश्रिता । प्रतिभेत्यादि । प्रतिभा नाम सूक्ष्मसूक्ष्मार्थग्राहकं भविष्यद्वस्तुविषयकं ज्ञानम् । अनुभवो नाम वर्तमानवस्तुविषयं ज्ञानम्; स्मृतिर्नामातीतवस्तुविषयं ज्ञानम् ; आदिशब्देन संशयविपर्ययौ गृह्येते । प्रतिभादिष्वन्योऽन्यतमो बोधो ज्ञानं तद्विलक्षणा । प्रतिभादिबोधेष्वन्यतमस्यापि न सदृशीत्यर्थः । प्रतिभादिवैलक्षण्यं ब्रह्मसंविदोऽपि विद्यत इति तया सादृश्यमाशङ्क्य तस्या अपि वैलक्षण्यं सहेतुकं दर्शयति — ब्रह्मसंविद्विसदृशीति । नानारत्या तिसङ्गमाद्बहुधाभूतरत्यादिस्थायिभावसंबन्घाद्धेतोः ब्रह्मसंविदो वैसासादृश्यमुक्त्वा, अंशान्तरे सच्चिदानन्दरूपैः तत्सादृश्यमाप्याह - सुखरूपेत्यादि । सुखरूपेत्यनेन आनन्दरूपता, स्वसंवेद्येत्यनेन चिद्रूपता, आस्वादनाभिघेत्यनेन सरूपता च दर्शितेत्यवगन्तव्यम् । एवंविधा संविद्रसः स्यादित्यन्वयः । कैश्चित, “स्थायी भावो रसः स्मृतः इत्युक्तत्वात् तन्मतमनुस्मृत्याह – अथवेति । तद्बोचरी भवन्; तस्या उक्तरूपाया: संविदो गोचरीभवन् विषयत्वेन प्रतीयमानः स्थायी रत्यादिको भाव एव रसः स्यात् ।। १३५२ - १३५५- ॥
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संगीतरत्नाकरः दध्यादिव्यञ्जनैश्चैव हरिद्रादिभिरौषधैः ॥ १३५६ ॥ मधुरादिरसोपेतैर्यद्वद् द्रव्यैर्मुडादिभिः । युक्तैः पाकविशेषेण पाडवाख्यापरो रसः ॥ १३५७ ।। उत्पाद्यते विभावाद्यैः प्रयोगेण तथा रसः । शृङ्गारहास्यौ करुणो रौद्रो वीरो भयानकः ॥ १३५८ ॥ बीभत्सश्चाद्भुतः शान्तो नवधेति रसो मतः । शान्तस्य शमसाध्यत्वानटे च तदसंभवात् ॥१३५९ ॥ अष्टावेव रसा नाटयेष्विति केचिदचूचुदन् ।
(क०) " विभानुभावव्यभिचारिसंयोगाद्रसनिष्पत्तिः" इत्यस्य भरतसूत्रस्यार्थमनुसंधाय लोकसिद्धभोजनरसदृष्टान्तपूर्वकमाह-दध्यादिव्यञ्जनैरित्यादिना । अत्र विभावा दध्यादिस्थानीयाः; संचारिणः चिञ्चाहरिद्राद्यौषधस्थानीयाः; अनुभावाः गुडादिद्रव्यस्थानीया इति मन्तव्याः । पाकविशेषस्थानीयोऽपरोऽन्य उत्कृष्टश्च । मधुरादिभ्यः षड्भ्योऽन्यः तेषां संसर्गरूपत्वात् । अत एव तेभ्य उत्कृष्टश्च । पाडवाख्य इति । षड्भिमधुरादिभिः निर्वृत्तः षाडवः । षाडव इत्याख्या यस्य स तथोक्तः । अत्रापि रत्यादिभ्योऽन्य उत्कृष्टश्च शृङ्गारादिको रसो द्रष्टव्यः ।। १३५६-१३५७ ॥
(क०) एवं सामान्येन रसमभिधाय तद्विशेषानुद्दिशति-शृङ्गारहास्यावित्यदि । अत्र कैश्चित् शान्तव्यतिरिक्ताः शृङ्गारादयोऽष्टावेव नाट्यरसत्वेनोक्ताः । शान्तेन सह कथं नवधेत्युद्देश उपपन्न इति चोचं परिजिहीर्षुरादौ तन्मतमनुभाषते-शान्तस्येत्यदि । शमो नाम सर्वेन्द्रियव्यापारोपरमात्मकः शान्तस्य स्थायी । नटे च तदसंभवादिति । नट ईषञ्चलनयुक्ते तु तस्य शमस्य, आस्वाद्यमानत्वासंभवादित्यर्थः । अनेनाष्टावेवेत्यत्रोपपत्तिर्दर्शिता भवति । -१३५८, १३५९- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
तदचोद्यं यतः किंचिन्न रसं स्वदते नटः ।। १३६० ॥ सामाजिकास्तु लिहते रसान् पात्रं नटो मतः । ते शुद्धहृदयाः शान्तं स्वविभावविभावितम् ।। १३६१ ॥ एकाग्रचेतसः सन्तोऽनुभवन्तीति युज्यते । रतिहासशुचः क्रोधोत्साहौ भयजुगुप्सने ।। १३६२ ।। विस्मयचाथ निर्वेद: स्थायिभावा नवेत्यमी । जुगुप्सां स्थायिभावं तु शान्ते केचिद्वभाषिरे ।। १३६३ ।।
४०१
(क० ) तदूदूषयति - तदचोद्यमिति । यतः कारणात् नटो रसं किंचिदपि न स्वदते । नटस्य स्वकार्याभिनय विहितत्वेनाल्पोऽपि रसस्यास्वादः तस्य नास्तीत्यर्थः । सामाजिकास्त्विति । तेषां कार्यान्तरानुसंधानाभावत्ते तूतरूपान् रसान् स्वदन्ते । अतः कारणात् नटः पात्रं रसस्याधारमात्रम् । अयमर्थ:: - यथा लोके पानकादिरसस्य चषकादिकमाधारत्वेन पात्रं, न तु तदास्वादज्ञातृत्वेन ।. एवं नटोऽपि रसास्वदको न भवति । अतः शान्तरसस्य न नाट्यरसत्वनिषेध इति । त इत्यादि । ते; सामाजिकाः, शुद्धहृदयाः; कार्यान्तरेव्वनासक्तचित्ता इत्यर्थः । एकाग्रचेतसः; नाट्यदर्शन एवावहितमनस इत्यर्थः । एवंविधाः सन्तः स्वविभावविभावितम् ; स्वविभावा वक्ष्यमाणाः संसारभीरुतादयः, तैर्विभावितं निष्पादितं शान्तमनुभवन्ति । इति युज्यत इति । शृङ्गारादिवत् सामाजिकास्वद्यमानत्वात् शान्तस्यापि नाट्यरसत्वमुपपन्नमित्यर्थः ॥ - १३६०, १३६१- ॥
(क०) अथ रसोपादानभूतान् स्थायिभावानुद्दिशति - रतिहासशुच इत्यादि । शान्तस्य स्थायिभावविकल्पं मतभेदेन दर्शयति — जुगुप्सामि - त्यादि । सर्वान्परे विदुरिति । सर्वान् निर्वेदजुगुप्सोत्साहशमान् । शान्ते निर्वेदस्य तावत्स्थायित्वं मयातीतेषु जन्मान्तरेषु मोक्षेद्योगो न कृत इति तत्त्व
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संगीतरत्नाकरः उत्साहमाहुरन्येऽन्ये शमं सर्वान्परे जगुः । उद्दिश्य स्थायिनः प्राप्ते समये व्यभिचारिणाम् ॥ १३६४ ॥ अमङ्गलमपि ब्रूते पूर्व निर्वेदमेव यत् ।। मुनिर्मेनेऽस्य तन्नूनं स्थायिताव्यभिचारिते ॥ १३६५ ॥ पूर्वापरान्वयो यस्य मध्यस्थस्यानुषङ्गतः । स्थायी स्याद्विषयेष्वेव तत्त्वज्ञानोद्भवो यदि ॥ १३६६ ॥ इष्टानिष्टवियोगाप्तिकृतास्तु व्यभिचार्यसौ ।
बोधजितस्य भावविशेषस्यानुस्यूतत्वात् द्रष्टव्यम् । जुगुप्सायास्तुस्थायित्वमनुभूयमानविषयहेयत्वदर्शनानुम्यूत्या द्रष्टव्यम् । उत्साहस्य तु स्थायित्वं साधनचतुष्टयसंपत्त्यर्थं मानसप्रयत्नानुस्यूत्या द्रष्टव्यम् । शमस्यापि स्थायित्वं सर्वेन्द्रियव्यापारोपरतेरभ्यासाद्दष्टव्यम् । एवं समवेतानामपि निर्वेदादीनां शान्तं प्रति स्थायित्वमनुसंधेयम् । उद्दिश्येत्यादि । स्थायिनो रत्यादिभावानुद्दिश्य व्याभिचारिणां निदादीनां समयेऽवसरे । प्राप्त इति । स्थायिप्रतिद्वन्द्वित्वेन व्यभिचारिणां बुद्धयपारूढतया संगतत्वादिति भावः । अमङ्गलमित्यादि । यत् । यस्मात् कारणात् मुनिः भरतर्षिः अमङ्गलमपि निर्वेदमेव पूर्व ब्रूते, तत्तस्मात् कारणात् अस्य निर्वेदस्य स्थायिताव्यभिचारिता मेने । नूनमिति मुनेरभिप्राय उत्प्रेक्ष्यते । एवं सति मध्यस्थस्य निर्वेदस्यानुषङ्गतो देहलीप्रदीपन्यायेनोभयत्र संबन्धात् पूर्वापरान्वयो भवति । हि प्रसिद्धौ । पूर्वैः स्थायिभिः परैः व्यभिचारिभिश्चान्वययोजना ॥ ।। -१३६२-१३६६- ॥
(क०) स्थायिसंचारितयोविभागमाह-स्थायी स्यादित्यादि । एष निर्वेदो यदि विषयेषु तत्त्वज्ञानोद्भवो भवेत्, तदा स्थायी स्यात् ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
४०३ निर्वेदग्लानिशङ्कौय्यदैन्यासूयामदश्रमाः ॥ १३६७ ॥ चिन्ता धृतिः स्मृतिौडामोहालस्यानि चापलम् । हर्षामर्षविषादाश्चापस्मारो जडता तथा ॥ १३६८ ॥ वितर्कसुप्तमौत्सुक्यमवहित्थं तथा मतिः । विबोधो व्याधिरुन्मादो गर्वावेगौ मृतिस्तथा ।। १३६९ ।। त्रासो निद्रा त्रयस्त्रिंशदिति स्तुर्व्यभिचारिणः । स्तम्भः स्वेदोऽथ रोमाश्चः स्वरभेदोऽथ वेपथुः ॥ १३७० ॥
वैवर्ण्यमश्रु प्रलयोऽष्टौ भावाः सात्त्विका इति । असौ: निर्वेदः, इटानिष्टवियोगाप्तिकतास्तु : इष्टवियोगकृतोऽनिष्टावाप्तिकृतो वा भवति चेत्तदा व्याभचारी स्यात् ॥ -१३६७ ।।
(क०) व्यभिचारिण उद्दिशति-निर्वेद इत्यादि ॥ - १३६७१३६९- ॥
(सु०) व्यभिचारिणो लक्षयति-निर्वेदेति । निर्वेदः, ग्लानि:, शङ्का, औग्र्यम् , दैन्यम् , असूया, मदः, श्रमः, चिन्ता, धृतिः, स्मृतिः, ब्रीडा, मोहः, आलस्यम् , चावलम् , हर्षः, अमर्षः, विषादः, अपस्मारः, जडता, वितर्कः, सुप्तिः, औत्सुक्यम् , अवहित्यम् , मतिः, विबोध:, व्याधि', उन्मादः, गर्वः, आवेगः, मृतिः, त्रासः, निद्रेति त्रयस्त्रिंशद्वयभिचारिभावाः ।। -१३६७-१३६९- ॥
(क०) सात्किानुद्दिशति-स्तम्भ इत्यादि । -१३७०,१३७० - ।। ___ (सु०) अथ सात्त्विकभावान् लक्षयति-स्तम्भ इति । स्तम्भः, स्वेदः, रोमाञ्चः, स्वरभेदः, वेपथुः, वैवर्ण्यम् , अश्रु, प्रलय इत्यष्टौ सात्विकभावाः ॥ -१३७०, १३७०- ॥
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४०४
संगीतरत्नाकरः विभावाद्यैरनुचितः स्थानत्वाद्विकृतिं गतैः ॥ १३७१ ।। शृङ्गारादिरसाभासाः कृता हास्यस्य हेतवः । फलं बन्धुवधो रौद्रे विभावः करुणे च सः ॥ १३७२ ॥ जगदुस्तद्विदो रौद्रमतः करुणकारणम् । रौद्रं भयानके हेतुमत एव प्रचक्षते ॥ १३७३ ॥ शृङ्गाराद्विमलम्भाख्यात्करुणोत्पत्तिरिष्यते । भयानकेऽद्भुते हेतुं वीरं धीरा बभाषिरे ॥ १३७४ । विदूषकस्य हासस्तु नायके हास्यकारणम् । साम्याद्रुधिरमोहादिविभावाद्वयभिचारिणाम् ॥ १३७५ ॥ बीभत्से सति भीरूणामुत्पद्येत भयानकः । अन्योन्यजन्यजनका भवन्त्येवमिमे रसाः ॥ १३७६ ।। श्यामः सितो धूसरश्च रक्तो गौरोऽसितस्तथा । नीलः पीतस्तत: श्वेतो रसवर्णाः क्रमादिमे ॥ १३७७ ॥ विष्णुमन्मथकीनाशरुद्रेन्द्राः कालसंज्ञकः । महाकाल: क्रमाद् ब्रह्मा बुधश्च रसदेवताः ॥ १३७८ ॥ शृङ्गारे देवतामाहुरपरे मकरध्वजम् ।
(क०) रसानामन्योन्यजन्यजनकभावमाह-विभावाद्यैरित्यादि । ॥ -१३७१-१३७६ ॥
(सु०) रसानां परस्परजन्यजनकभावं लक्षयति--विभावाद्यैरिति ॥-१३७१-१३७६ ॥
(क०) शृङ्गारादीनां क्रमेण वर्णान् देवतांश्चाह-श्याम इति । तत्र शृङ्गारः श्यामवर्णः, विष्णुदैवतः । हासः श्वेतवर्णः, मन्मथदैवतः । करुणो
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वक्ष्ये विशेषलक्ष्याणि रसादेरधुना क्रमात् ॥ १३७९ ॥ विभावैर्वरकान्तायैः स्वकाव्ये कविगुम्फितैः।। साक्षात्कारमिवानीतैर्नटेन स्वप्रयोगतः ॥ १३८० ॥ नीतो रतिस्थायिभावः सदस्यरसनीयताम् ।
नटेन कान्तदृष्टयाधैरनुभावैः प्रदर्शितैः ॥ १३८१॥ धूसरवर्णः, यमदैवतः । रौद्रो रक्तवर्णः, रुद्रदैवतः । वीरो गौरवर्णः, इन्द्रदेवतः । भयानकः कृष्णवर्णः, कालदैवतः । बीभत्सो नीलवर्णः, महाकालदेवतः । अद्भुतः पीतवर्णः, ब्रह्मदैवतः । शान्तः श्वेतवर्णः, बुधदैवत इति क्रमो द्रष्टव्यः ॥ १३७७, १३७८- ॥
(सु०) शृङ्गारादिरसानां वर्णान् देवतांश्च लक्षयति-श्याम इति । श्यामः, सित:, धूसरः, रक्तः, गौरः, असितः, नीलः, पीतः, श्वेत इति क्रमादेते रसवर्णा भवन्ति । विष्णुः, मन्मथः, कीनाशः, रुद्रः, इन्द्रः, काल:, महाकालः, ब्रह्मा, बुध इति क्रमादेते रसदेवता भवन्ति । केचित् शृङ्गारे मकरध्वज इति वदन्ति ॥ १३७७, १३७८-॥
__ (क०) रसादेविशेषलक्षणानि वक्तं प्रतिजानीते-वक्ष्य इत्यादि । रसादेरित्यत्र आदिशब्देन स्थायिव्यभिचारिसात्त्विका गृह्यन्ते । एतेषां समुदायविवक्षया रसादेरित्येकवचन निर्देशः । विशेषलक्ष्माणीति । समुदायिनां शृङ्गारादीनां प्रत्येकं लक्षणानीत्यर्थः । तत्र शृङ्गारं लक्षयतिविभावैरित्यादि । वरकान्तथैरिति । वरश्च कान्ता च वरकान्ते आलम्बनविभावौ । आद्यशब्देन चन्द्रचन्दनमन्दानिलादय उद्दीपनविभावा गृह्यन्ते । स्वकाव्य इति । स्वशब्देन कविरुच्यते । कविगुम्फैरिति । कविना निबद्धैः, अनन्तरं नटेन स्वपयोगतः स्वकीयात् चतुर्विधामिनयप्रयोगात् , साक्षात्कारमानीतैरिव स्थितैः विभावैः । सदस्यरसनीयतां सदस्यैः सामाजिक
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४०६
संगीतरत्नाकरः आवेशातिशयं नीतश्चित्रितो व्यभिचारिभिः । हर्षचिन्तादिभिः प्रोक्तः शृङ्गारः सूरिशाङ्गिणा ।। १३८२ ॥ संभोगविप्रलम्भौ वावस्थे द्वे तस्य कीर्तिते । कान्तासंयोगविरही लक्षणे च तयोः क्रमात् ।। १३८३ ।। स्त्रीपुंसयोरुत्तमयोऍनोः पूर्णसुखोदया । प्रारम्भात्फलपर्यन्तव्यापिनी स्मरसंभृता ।। १३८४ ॥
संविदोरैक्यसंपत्या क्रीडात्र स्थायिनी रतिः । रसनीयतामास्वायमानतां नीतः प्रापितः । नटेन अनुका प्रदर्शितैः कान्तादृष्टयायैः अनुभावैः आवेशातिशयं सामाजिकमनःस्वभिमानातिशय नीतः प्रापितः । हर्षचिन्ताद्यैः व्याभिचारिभिः चित्रितः शवलितः रतिस्थायिभावः ; रत्याख्यः स्थायिभावो यस्य सः । मरिशाङ्गिणा शृङ्गारः प्रोक्त इति संबन्धः। संभोगेत्यादि । तयोश्च कान्तासंयोगविरहौ क्रमाल्लक्षणे इति । कान्तासंयोगः संभोगशृङ्गारस्य लक्षणम् । कान्ताविरहो विप्रलम्भशृङ्गरास्य लक्षणमिति क्रमः ।। -१३७९-१३८३ ॥
(सु०) अथ शृङ्गारं लक्षयति-विभावेरिति । कविना निबद्धैः, नटेन अभिनीतैः, विभावाद्यैः सदस्यैः रसनीयता नीतः रतिस्थायिभावः, नटेन प्रदर्शितैः कान्तादृष्टयाद्यैः अनुभावै: आवेशातिशयं सदस्यानां मनःस्वभिमानातिशयं नीतः, हर्षचिन्तादिभिः चित्रितः ; रत्याख्यः स्थायिभावो शृङ्गारः । स द्विविध: ; संभोगशृङ्गारः, कान्ताविरहस्तु विप्रलम्भ इति ॥-१३७९-१३८३ ॥
.. (क०) रतिं लक्षयति-स्त्रीपुंसयोरित्यादि । संविदोरैक्थसंपत्येति । स्त्रीपुंससंबन्धिन्योः बुद्धयोरत्यन्तमेकरूपतया क्रीडा केलिः । अत्र स्थायिनी रतिरिति । अन्यत्र देवादिविषया संचारिणी रतिरित्यर्थः ॥ १३८४, १३८४- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः लोके स्थाय्यादिभावानां दृष्टा ये जन्महेतवः ।। १३८५ ॥ उपनीताः कविवरैर्नटैः साक्षात्कृता इव । रसान्प्रसुन्वते ते म्युर्विभावास्तद्विभावनात् ॥ १३८६ ।। कान्तौ तीव्रस्मराक्रान्तौ द्वतीसख्यादयो जनाः।। तत्तद्योग्योऽप्यलंकारः किरीटकटकादिकः ॥ १३८७ ॥ समयोऽपि वसन्तादिविषयाश्चन्दनादयः । गीतादयश्च देशोऽपि रम्यह→वनादिकः ॥ १३८८ ॥ कान्तानुकरणं हंसयुग्मचित्रादिदर्शनम् । जलकेलीत्येवमाद्याः श्रुता यद्वा विलोकिताः॥ १३८९ ॥ विभावत्वेन विख्याता रसे शृङ्गारनामनि ।
(सु०) रतिं लक्षयति-स्त्रीपुंसयोरिति । उत्तमयोः स्त्रीपुंसयोः पूर्णसुखोदया ; प्रारम्भात्फलपर्यन्तव्यापिनीस्मरसंभृता, संविदोः ऐक्यसंपत्त्या यत्र क्रीडा, सा स्थायिनी रतिरित्युच्यते ॥ १३८४, १३८४-॥
(क) विभावानां सामान्यलक्षणमाह-लोक इत्यादि । स्थाय्यादीत्यत्र आदिशब्देन संचारिणो गृह्यन्ते । तद्विभावनादिति । तेषां रसानां विभावनादुत्पादनात् । एतेन विभावशब्दस्य व्युत्पत्तिर्दर्शिता ॥ ॥ -१३८५, १३८६ ॥
(सु०) विभावानां सामान्यलक्षणं लक्षयति-लोक इति । अत्रादिशब्देन संचारिणो गृह्यन्ते । तेषाम् ; रसानाम् ॥ -१३८५, १३८६ ॥
(क०) तत्र शृङ्गारस्य विभावानाह-कान्तावित्यादि । कान्ता च कान्तश्च कान्तौ । “पुमांस्त्रिया" इत्येकशेषः । अत्र तयोरालम्बनविभावत्वं रत्यादीनामितरेषामुद्दीपनविभावत्वम् ॥ १३८७-१३८९ ॥
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४०८
संगीतरत्नाकरः भावानां यानि कार्याणि नाट्यन्ते कुशलैनटैः ।। १३९० ॥ अनुभावा हेतवस्ते स्वहेत्वनुभवे यतः। ते भावानाभिमुख्येन नयन्ति गमयन्ति हि ॥ १३९१ ॥ अतोऽभिनयशब्देनाप्युच्यन्ते कृत्रिमा नटैः।
(सु०) शृङ्गारस्य विभावान् लक्षयति-कान्ताविति । कान्ता च कान्तश्चेति एकशेषसमासः। अत्र कान्तयोः स्त्रीपुंसयोः आलम्बनविभावत्वं, रत्यादीनामितरेषामुद्दीपनविभावत्वमिति ॥ १३८७-१३८९ ॥
(क०) अनुभावानां सामान्यलक्षणमाह-भावानामित्यादि । भावानां स्थायिनां संचारिणां च यानि कार्याणि कटाक्षभुजाक्षेपप्रभृतीनि कुशलैः नटैः नाट्यन्ते अनुक्रियन्ते, ते यतः कारणात् स्वहेत्वनुभवे स्वेषां हेतवः स्थायिनः संचारिणश्च तेषामनुभवोऽत्रानुमानम् । तत्र हेतवो लिङ्गानि । अतस्तेऽनुभावा इति सिंहावलोकनन्यायेन योजनीयम् । एतेन अनुभावयन्तीत्यनुभावा इति व्युत्पत्तिर्दर्शिता भवति । तेष्वभिनयशब्दप्रवृत्तौ निमित्तं दर्शयति-ते भावानित्यादि । हि यस्मात्कारणात् तेऽनुभावाः भावान् पदार्थान् आभिमुख्येन । नयन्तीत्यस्य व्याख्यानं गमयन्तीति ; ज्ञापयन्तीत्यर्थः । अतः नटैः कृत्रिमा अनुकाररूपेण नट आरोपिता वर्तमानाः सन्तोऽभिनयशब्देनाप्युच्यन्ते । अनुकार्यनिष्ठत्वेनानुभावव्यपदेशः । कटाक्षादय एवानुकर्तृनिष्ठत्वेनाभिनया उच्यन्त इत्यर्थः।-१३९०, १३९१-।।
(सु०) अनुभावानां सामान्यलक्षणं लक्षयति-भावानामिति । भावानां स्थायिनां संचारिणां च यानि कार्याणि कटाक्षादीनि, कुशलैः नटैः नाव्यन्ते अनुक्रियन्ते, ते अनुभावाः । ते यत: स्वहेत्वनुभवे हेतवः स्युः ।। -१३९०, १३९१-॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः कान्ता दृष्टिः कटाक्षाख्यं तारकाकर्म शर्मकृत् ।। १३९२ ।। चतुरे च भ्रुवौ चारुगोचरा मधुरा गिरः। रोमाञ्चमुखरागादिरचितः सात्त्विकोत्करः ॥ १३९३ ॥ अनुभावा भवन्त्येते शृङ्गाररसपोषिणः । आलस्यौग्यजुगुप्साभ्योऽन्येऽत्र स्युर्व्यभिचारिणः ॥१३९४ ॥ आलस्यादित्रयं वयं स्वविभावैकगोचरम् । एष संभोगशृङ्गारगतः परिकरो मतः ॥ १३९५ ।। विप्रलम्भे नानुभावः कान्तदृष्टयादिरिष्यते ।
(क०) तत्र शृङ्गारानुभावानाह-कान्तादृष्टिरित्यादि । रोमाञ्चमुखरागादिरचित इत्यादि । तत्र मुखरागशब्देन वैवर्ण्यमुच्यते । आदिशब्देन स्वरभेदादयो ग्राह्याः; रोमाश्चमुखरागादिरूपेण रचित इत्यर्थः । लौकिकरसवत्स्वयमेव न जातः । अपि तु नटेन स्वस्मिन्नारोपित इत्यर्थः । सात्विकोत्कर इति । स्तम्भादयोऽष्टावपीत्यर्थः । स्तम्भादीनामनुभावत्वेऽपि सात्त्विकव्यपदेशो मन आरब्धत्वादिति मन्तव्यम् । आलस्येत्यादि । अत्र: संभोगशृङ्गारे । आलस्यौग्यजुगुप्साभ्योऽन्य इति । निर्वेदादय एकत्रिंशदपीत्यर्थः । जुगुप्साया बीभत्सशान्तौ प्रति स्थायित्वेऽपि रसान्तरं प्रति संचारित्वात् तेषु परिगणनमविरुद्धम् । एवमेकत्र रसे स्थायिनोऽपि रत्यादेरन्यत्र संचारित्वं द्रष्टव्यम् । तथा आलस्यादित्रयमपि स्वविभावैकगोचरमेव संभोगशृङ्गारे वर्ण्य मित्याह-आलस्येत्यादि स्वविभावैकगोचरमिति । केवलैरेव वृत्त्यादिभिः वक्ष्यमाणैः स्वविभावैरुत्पन्नमित्यर्थः । एतेन विभावान्तरगोचरं चेद् ग्राह्यमित्युक्तं भवति । विप्रलम्भ इति । विरहशृङ्गारे कान्तादृष्टयादिरनुभावो नेष्यते । तस्य दुःखात्मकत्वादिति भावः ॥ ॥ -१३९२-१३९५. ॥
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संगीतरत्नाकरः चिन्तासूयाश्रमौत्सुक्यनिर्वेदग्लानिमृत्यवः ॥ १३९६ ॥ उन्मादव्याध्यपस्मारविवोधजडतास्तथा । दैन्यं निद्रा तथा स्वमसुप्तचिन्तादयश्च ये ॥ १३९७ ॥ तदीयैरनुभावस्तु विप्रलम्भोऽभिनीयते । उन्मदादिदशां चातिकृष्टां नात्र प्रदर्शयेत् ॥ १३९८ ॥ न चात्र मरणं साक्षाद्दर्शयेत्तस्य सूचिकाम् । तदनन्तरजातां तु दर्शयेत्सुखिनी दशाम् ॥ १३९९ ॥ 'वाचा वाभिनयं तस्य सूचयेत्कृत्रिमं वदेत् ।
(सु०) शृङ्गारस्यानुभावं लक्षयति-कान्तेति । यत्र कान्ताख्या दृष्टिः ; कटाक्षाख्यं तारकाकर्म ; चतुरे भ्रुवौ ; मधुरा गिरः; पुलकमुखरागादिसूचित: सात्विकोत्कर इत्याद्याः शृङ्गारपोषका भवन्ति । आलस्यौग्यजुगुप्सावर्ज व्यभिचारिणश्च शृङ्गारे भवन्ति । इति संभोगचारपरिकरः ॥-१३९२-१३९५-॥
(क०) विप्रलम्भोचितान् संचारिण आह-चिन्ताम्येत्यादि। तदीयैरनुभावैरिति । चिन्तासूयादिसंबन्धिभिर्वक्ष्यमाणैरनुभावैः । वाचा वेत्यादि । तस्य ; मरणस्य, कृत्रिमम् अभिनयं वाचा सूचयेत् । वाग्रूपेण सूच्यभिनयेन वा वदेत् । आङ्गिकसात्त्विकाहार्यमरणं नैवाभिनयेदित्यर्थः ॥ ॥ -१३९६-१३९९- ॥
(मु०) विप्रलम्भं लक्षयति-चिन्तेति । विप्रलम्भशृङ्गारे तु कान्तादृष्टयाद्यनुभावो न भवति । शङ्कासूयाश्रमौत्सुक्यनिर्वेदग्लानिमरणोन्मादव्याध्यपस्मारविबोधजाड्यदैन्यनिद्रास्वप्नसुषुप्तिभिः, चिन्ताद्यैश्च तदीयैरनुभावैविप्रलम्भोऽभिनेयः । अत्र ; विप्रलम्भे, उन्मादादेः अतिकष्टा द्वशा न प्रदर्शनीया ।
दशां वा भाविनिधर्ना सूचयेन त्विमा वदेत् । इति सुधाकरसंमतः पाठः ।
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सप्तमौ नर्तनाध्यायः
४११ ननु दुःखात्मकः कस्माद्विपलम्भो रसो मतः ॥ १४०० ॥ मैवं रत्यनुसंधानं विप्रलम्भेऽपि दृश्यते । विप्रलम्भोद्भवा शङ्का संभोगे दुस्त्यजा ध्रुवम् ॥ १४०१॥
इतरेतरचित्रत्वाद्रसत्वं सुलभं तयोः । मरणं च साक्षान्न प्रदर्शनीयम् । भाविनी दशां तत्र तत्र दर्शयेत् ॥ -१३९६१३९९-॥
(क०) विप्रलम्भस्य रसत्वमाक्षिपति-न विति । दुःखात्मक इति हेतुगर्भितं विशेषणम् । दुःखात्मकत्वात् विप्रलम्भः कथं रस इत्याक्षेपः । परिहरति-मैवमिति । विप्रलम्भेऽपि रत्यनुसंधानं दृश्यत इत्यत्रापिशब्देन संभोगे रत्यनुसंधानं सिद्धमेवेत्युक्तं भवति । एवमनभ्युभगच्छन्तं प्रत्याह
-बिप्रलम्भोद्भवा शङ्का संभोगेऽपि ध्रुवं दुस्त्यजेति । अयमर्थःसंभोगसमयेऽपि भाविविरहभीरुत्वस्यावश्यंभावात्तस्यापि दुःखात्मकत्वसंभवात्संभोगसंमिन्नत्वाच्चित्रत्वम् । विप्रलम्भस्य दुःखात्मकत्वेऽपि भाविसमागमाशोत्पन्नसुखसंमिन्नत्वाच्चित्रत्वम् । अतः कारणत्तयोः संभोगविप्रलम्भयो रसत्वमास्वाद्यमानत्वं सुलभम् । अनेकरूपतया घोषयितुं शक्यमित्यर्थः ।। ॥ -१४००, १४०१-॥
___ (सु०) अत्र विप्रलम्भे रसत्वमाक्षिपति-नन्विति । ननु दुःखात्मको विप्रलम्भः कथं तस्य शृङ्गारता इति चेन्न, विप्रलम्भे रत्यनुसंधानस्य दृष्टत्वात् रत्यनालिङ्गितस्यैव करुणत्वात् विप्रलम्भस्य शृङ्गारता युज्यत एव । कामसूत्रे च शृङ्गारस्य दशावस्था: प्रतिपादिताः । ता यथा-अभिलाष: चिन्ता, अनुस्मृतिः, गुणकीर्तनम् , उद्वेगः, विलासः, उन्मादः, जाड्यम् , व्याधिः, मरणमिति । अत्र भोक्तैव प्रधानम् , भोग्या तूपसर्जनीभूता । अतः स्त्रिया: नरान्तरासक्तिः रसभञ्जिका । पुंसस्तु स्वातन्त्र्यात् स्त्र्यन्तरासक्तिन रसभञ्जिका ।
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संगीतरत्नाकर:
नैकरूपे चिरास्वाद्यः शर्करावद्भवेदसौ ।। १४०२ । संभोगेऽपि न निद्रास्ति नन्वन्योन्याभिलाषिणोः । विबोधस्त्वस्त्यसौ कस्माद्विप्रलम्भैकगोचरः ।। १४०३ ॥ नैतन्निद्राविनाशो हि विबोधस्तामृते कुतः । रतिश्रमकृता निद्रा संभोगेऽप्यस्ति चेन्न तत् || १४०४ ॥ शृङ्गारस्तु वाङनेपथ्याङ्गचेष्टाभिस्त्रिविधः । रमादिव्यञ्जकनटवेषो नैपथ्यमित्युज्यते ॥ - १४००-१४१५॥
४१२
इति शृङ्गारः
(क०) एवंरूपे तस्मिन् दोषो नास्तीति सदृष्टान्तमाह — नैकरूप इति । असौ रस एकरूपे सति शर्करावत् चिरास्वाद्यो न भवेत् । यथा शर्करा अतिमधुरतया आम्रादिभिरनन्तरिता सती चिरमास्वाद्या न भवति । एवं सुखात्मको हि संभोगो निर्वेदादिभिरनन्तरितश्चेत्सामाजिकैरास्वद्यो न भवति । एकरूपत्वे शीघ्रमेव तृप्तिजननात्पर्यवस्येत् । निर्वेदादिभिरनन्तरितत्वादनेकरूपत्वेऽप्याम्लाद्यन्तशर्करावत् चिरास्वाद्यो भवतीत्यर्थः । पूर्वं संभोगशृङ्गारे, 'आलस्यौम्य जुगुप्साभ्योऽन्येऽत्र स्युर्व्यभिचारिणः ' इति वचनात् निद्राविबोधौ भवत इत्यर्थादुक्तम् । तौ संभोगे न संभवत इत्याक्षिपति - नन्विति । तत्र हेतुकथनम् — अन्योन्याभिलाषिणोरिति । यूनोः परस्परं निरन्तराभिलाषित्वादित्यर्थः । संभोगेऽपीत्यत्र अपिशब्दो भिन्नक्रमः । संभोगे निद्रापि नास्तीति योजनीयम् । निद्रापूर्वकत्वे नियतस्वरूपलाभो विबोधः सुतरां नास्तीत्यपिशब्दार्थः । तमेवार्थे विस्पष्टमाह - विबोधस्तु कस्मादस्तीति । अतः कारणादसौ विबोधो विप्रलम्भैकगोचरो वक्तव्य इत्याक्षेपार्थः ॥ -१४०२, १४०३ ॥
(क०) परिहरति---नैतदिति । हि यस्मात्कारणात् विबोधो नाम Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
४१३ भवन्त्यपि न सोद्भाव्या रत्युक्तर्षविरोधिनी । करुणे विप्रलम्भे च चिन्तादिव्यभिचारिणाम् ॥ १४०५ ॥ साधारण्यात्तयो दो नास्ति चेत्तदसांप्रतम् । शोको हि करुणे स्थायी विप्रलम्भे रतिर्मता ॥ १४०६ ॥ स्थायिभेदाद्विभागोऽतस्तयोरुत्तमपुरुषे । ननु नीचे तु माल्यादिविभावानामसंभवात् ।। १४०७ ।। रत्यभावे विप्रलम्भः शृङ्गारो जायते कथम् । अतः स्यात्करुणः स्पष्टस्तत्रेष्टविरहोद्भवः ॥ १४०८ ॥
माल्याद्यसंभवानीचे संभोगासंभवेऽपि चेत् । निद्राविनाशः । तेजोऽभावस्तम इतिवन्निद्राया अभावो विबोध इत्यर्थः । अतस्तामृते निद्रां विनापि संभोगे विबोधः कुत इति परिहारः । पुनः पूर्वपक्षी शङ्कते--रतिश्रमकृता निद्रा संभोगेऽप्यस्ति चेदिति । पुनः परिहरतिन तदिति । सा निद्रा भवन्त्यपि संभोगे रतिश्रमकृता विद्यमानापि नोद्भाव्या । तत्र हेतुमाह-रत्युत्कर्षविरोधिनीति । यतो रत्युत्कर्षविरोधो भवति, अतः कविभिर्निद्रा न वर्णनीयेत्यर्थः । इदानीं करुणविप्रलम्भयोरभेदं शङ्कते-करुण इत्यादि । तत्र हेतुमाह-चिन्तादिव्यभिचारिणांसाधारण्यादिति । तदूषयति-तदसांप्रतमिति । हि; यस्मात्कारणात् करुणे शोकः स्थायी विप्रलम्भे रतिर्मता स्थायित्वेन संमता । अतः कारणात् तयोः करुणविप्रलम्भयोः स्थायिभेदात् विभागः सिद्ध इत्यर्थः । इदानीं विषय विशेषे स्थायिभेदसंभवात् करुणविप्रलम्भयोविभागमङ्गीकृत्य विषयान्तरे स्थायिभेदाभावेन तत्र तयोरभेदं शङ्कतेउत्तमपूरुष इत्यादि । उत्तमपुरुषे कुलधनादिना संपन्ने करुणविप्रलम्भभेदाभावो न । तत्र तयोः विभागोऽस्त्वित्यर्थः। नीचे तु; कुलधनहीने तु,
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४१४
संगीतरत्नाकरः तन्न नीचरतिर्यस्मानारीमात्रविभावजा ॥ १४०९ ॥ वियोगेऽपि तथा माल्याद्यभावेन कथं रतिः ।
आशाबन्धश्लथीभूतचिन्तादिव्यभिचारिकः ॥ १४१० ॥ विरहः करुणाद्भिन्नः प्रियनैराश्यकारितम् । कामशास्त्रे च शृङ्गारे दशावस्थः प्रकीर्तितः ॥ १४११ ॥
माल्यादिविभावानाम् ; उद्दीपनविभावानामसंभवाद्धेतो रत्यभावे सति तन्निष्ठो विप्रलम्भः कथं शृङ्गारो जायते । शृङ्गार एव न भवतीत्यर्थः । अतः कारणात् तदानीं च विषय इष्टविरहोद्भवः करुणः स्पष्टः स्यादित्यभेदप्रतिपादनम् । इदानीं संभोगप्रतिबन्धा विप्रलम्भस्य करुणाद्भेदं साधयतिमाल्याद्यसंभवादित्यादि । चेत् , यदि नीचे माल्याद्यसंभवाद्धेतोः संभोगसंभवेऽपि प्रतिपाद्यते । तन्न । तत्प्रतिपादयितुं न शक्यमित्यर्थः । यस्मात्कारणात् नीचरतिः नारीमात्रविभावजा माल्याद्यनपेक्ष्यैव संभोगप्रवर्तिता दृश्यत इत्यर्थः । वियोगेऽपीति । यथा संभोगे माल्याद्यभावेऽपि रतिरङ्गी कृता, तथा वियोगेऽपि माल्याद्यभावेऽपि रतिः कथं न कस्मानाङ्गी क्रियते । अवश्यमङ्गीकर्तव्येत्यर्थः । करुणविरहौ स्वरूपेणापि परस्परभिन्नावित्याह- आशावन्धेत्यादि । आशाबन्धश्लथीभूतचिन्तादिव्यभिचारिक इति । आशाया बन्धः प्रियसङ्गमो भविष्यतीत्येवंरूपः, तेन श्लथीभूताः चिन्तादयो व्यभिचारिणो यस्मिन्निति स तथोक्तः । एवंरूपो विरहः प्रियनैराश्यकारितात : प्रिय इष्टजने नैराश्यं निर्गता आशा यस्मात् स निराशः, तस्य भावस्तत्त्वम् । तेन कारितात् उत्पादितात् करुणाद्भिन्नः पृथग्भूतः ॥ १४०४-१४१०० ॥
(क०) अथ शृङ्गारे कविभिर्वर्णनीया दशावस्था दर्शयति
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, सप्तमो नर्तनाध्यायः
४१५ अभिलापस्ततश्चिन्तानुस्मृतिर्गुणकीर्तनम् । उद्वेगोऽथ विलापः स्यादुन्मादो व्याधिसंभवः ॥ १४१२ ।। जडता मरणं चेति दशावस्थाः प्रकीर्तिताः । भोक्ता प्रधानो भोग्या तु कान्ता तदुपसर्जनम् ॥ १४१३ ॥ अतो नरान्तरासक्तिस्तस्याः शृङ्गारभङ्गकृत् । भोक्तुस्त्वपरतन्त्रत्वात्कान्तान्तरमभञ्जकम् ॥ १४१४ ।। वाङ्नेपथ्याङ्गचेष्टाभिः शृङ्गारस्त्रिविधो मतः । रामादिव्यञ्जको वेषो नटे नेपथ्यमिष्यते ॥ १४१५ ॥
इति शृङ्गारः वेषालंकारगमनगदितानां विकारिता। एतेषां च परस्थानामनुकारो विलज्जता ॥ १४१६ ॥
विषयेऽरुचिता दृष्टयाप्यसंगतविभाषणम् । कामशास्त्र इत्यादि । कामशास्त्रे ; वात्स्यायनादौ । शृङ्गारे ; अपिलापादयो दशावस्था उक्ताः स्त्रीपुरुषयोरन्योन्यालम्बनत्वाविशेषेऽपि प्रधानोपसर्जनभावकृतं वैषम्याह-भोक्तेत्यादि । शृङ्गारभङ्गकदिति । कान्तायाः पुरुषान्तरासक्तौ रसाभासो भवतीत्यर्थः । कान्तान्तरमभञ्जकमिति । पुरुषे स्वकान्तान्तरासक्तावपि रसाभासो न भवतीत्यर्थः । शृङ्गारस्य त्रैविध्यमाह-वाङ्नेपथ्येत्यादि । नेपथ्यस्वरूपमाह-रामादिव्यञ्जक इत्यादि ॥ -१४११-१४१५ ॥
इति शृङ्गारः (क०) अथ हास्यं लक्षयितुं तस्य विभावादीन् दर्शयतिवेषालंकारेत्यादि । विकारितेति । स्वगतानां वेषादीनां स्वभावात्
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संगीतरत्नाकरः हासनीयस्य कक्षादिसंस्पर्शः कुहनावहः ।। १४१७ ॥ इत्यादयो विभावाः स्युरनुभावास्तु नेत्रयोः । कपोलयोरोष्ठयोश्च स्पन्दो दृष्टयोर्विकासनम् ॥ १४६८ ॥ अत्यन्तमीलनं किंचित्कुश्चनं पार्श्वपीडनम् । प्रस्वेदमुखरागाद्या यस्याथ व्यभिचारिणः ॥ १४१९ ॥ स्वमोऽवहित्थमालस्यनिद्रातन्द्रादयोऽपरे । एते स्मितादिभेदेषु यथायोगं व्यवस्थिताः ॥ १४२० ॥ स्थायिभावश्च हासः स्यादसौ हास्यः प्रकीर्तितः । आत्मस्थः परसंस्थश्चेत्यस्य भेदद्वयं मतम् ॥ १४२१ ॥ आत्मस्थो द्रष्टुरुत्पन्नो विभावेक्षणमात्रतः । हसन्तमपरं दृष्ट्वा विभावांश्चोपजायते ॥ १४२२ ।। योऽसौ हास्यरसस्तज्ज्ञैः परस्थः परिकीर्तितः । उत्तमानां मध्ममानां नीचानामप्यसौ भवेत् ।। १४२३ ॥ व्यवस्थः कथितस्तस्य षड्भेदाः सन्ति चापरे । स्मितं च हसितं प्रोक्तमुत्तमे पुरुषे बुधैः ॥ १४२४ ।। भवेद्विहसितं चोपहसितं मध्यमे नरे। नीचेऽपहसितं चातिहसितं परिकीर्तितम् ।। १४२५ ।।
विकृतत्वं हास्यस्य विभावो भवति । एतेषां वेषादीनां परस्थानामविकृतानामपि परस्वभावभूतानामनुकारोऽस्य हास्यस्य विभावो भवति । हासनीयस्य ; हासयितुमिष्टस्य जनस्य । कुहनावहः ; कुहनां कपटमावहतीति तथोक्तः । एवंहासयामीति कपटेन परस्य कक्षादिसंस्पर्शश्च तद्धासकरणं भवति । कक्षादीत्यादिशब्देन पार्श्वप्रदेशादि गृह्यते । इत्यादय इति । लोके हास्य
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४१५
सप्तमो नर्तनाध्यायः ईपत्फुल्लकपोलाभ्यां कटाक्षैरप्यनुल्वणैः । अदृश्यदशनो हास्यो मन्थरस्मितमुच्यते ॥ १४२६ ॥ वक्त्रनेत्रकपोलैश्चेदुत्फुल्लैरुपलक्षितः ।
किंचिल्लक्षितदन्तश्च तदा हसितमिष्यते ॥ १४२७ ।। कारणत्वेन येऽर्था दृष्टास्ते ग्राह्याः । यस्य अनुभावास्त्विति व्यवहितैरपि संबन्धः । अथ व्यभिचारिण इत्यत्र स्थायिभावश्च हासः स्यात् इत्यत्रापि यस्येत्यनुसंधेयम् । असौ हास्य इति । पूर्ववाक्येषु यस्येति यच्छब्देन योऽभिहितः सोऽसाविति परामृश्यते । विभावेक्षणमात्रत इति । आत्मस्थस्य हास्यस्य तावतैवोत्पत्तिदर्शनात् । परस्थो हास्यस्तु हसन्तमपरं विभावांश्च दृष्टोपजायते । व्यवस्थ इति । उत्तमो मध्यमो नीच इत्यर्थः । तेषामेव प्रत्येकं भेदद्वयमाह-स्मितं चेत्यादि ॥ १४१६-१४२५ ॥
(सु०) हास्यं लक्षयति-वेपेति । यत्र वेषालंकारगमनवचसां विकारित्वं, परस्थानां वेषादीनामनुकारश्च, विलजत्वम् , विषयतृष्णा, असंगतभाषणमित्याद्या विभावा भवन्ति । नासिकयोः, कपोलयोः, ओष्ठयोश्च स्पन्दः; दृष्टयोविकसनम् ; अत्यन्तमीलनं च ; ईषत्कुञ्चनम् , पार्श्वपीडनम् , प्रस्वेदमुखरागादयश्चानुभावा भवन्ति । स्वप्नावहित्थालस्यनिद्रातन्द्रादयः, अन्ये च स्मितादिभेदव्यवस्थिता व्यभिचारिणो भवन्ति । हासश्च स्थायी भवति, तत्र हास्यः । स द्विविधः, आत्मस्थः, परस्थ इति । अन्यदीयविभावेक्षणमात्रज आत्मस्थः; हसन्तमन्यं दृष्ट्वा यत्र विभावांश्चोपजायते, असौ परसंस्थः । असौ हास्यः उत्तममध्यमनीचभेदेन व्यवस्थो भवति । तस्य षड्भेदाः सन्ति । उत्तमे पुरुषे, स्मितं हसितं च भवति । मध्यमे पुरुष, विहसितम् , उपहसितं च भवति। नीचे पुरुष, अपहसितम् , अतिहसितं च भवतीति ॥ १४१६-१४२५ ॥
(क०) स्मितादीनां प्रत्येकं लक्षणमाह-ईपत्फुल्लेति । पूर्वाणीति।
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४१८
संगीतरत्नाकरः
सशब्दं मधुरं कालागतं वदनरागवत् । माकुञ्चिताशिगण्डं च विदुर्विहसितं बुधाः || १४२८ ॥ निकुञ्चितांसशीर्षश्च जिह्मदृष्टिविलोकनः ।
उत्फुल्लनासिको हास्यो नाम्नोपहसितं मतः ।। १४२९ ॥ अस्थानजः सादृष्टिराकम्प कन्धमूर्धकः । शार्ङ्गदेवेन गदितो हास्योऽपहसिताहयः ।। १४३० ॥ स्थूलकर्णः कटुध्वानो बाप्पपुरप्लुतेक्षणः । करोपगूढपार्श्वश्व हास्योऽति हसितं मतः ॥ १४३१ ॥ पूर्वाणि स्वसमुत्थानि स्मितादियुगलत्रये । पराणि त्वपरस्थानि हास्योऽविहसितं मतः ।। १४३२ ॥ हास्यरौद्रावपि त्रेधा वाङ्नेपथ्याङ्गचेष्टितैः ।
उपलक्षणमेतत्तु तेषां सर्वेषु संभवात् || १४३३ ॥ इति हास्य : (२)
स्मितादियुगलत्रये पूर्वाणि स्मितविहसितापहसितानि स्वसमुत्थानि । पराणि त्विति । हसितोपहसितातिह सितानि त्वपरस्थानि । तत्र हेतुमाहपूर्वसंक्रान्तिजवत इति । परेषां हसितादीनां स्मितादिसंक्रान्त्या जातत्वात्परोत्थस्त्रं द्रष्टव्यम् । अयमर्थः - उत्तमपुरुषनिष्ठं स्मितं दृष्ट्टा उत्तमपुरुषान्तरस्य हसितं जायते । तथा मध्यमपुरुषनिष्ठं विहसितं दृष्ट्रा मध्यमपुरुषान्तरस्योपहसितं जायते । तथा नीचपुरुषनिष्ठमपहसितं दृष्टा नीच पुरुषान्तरस्यापहसितं जायते । एवं स्मितादियुगलत्रये परेषां परस्थत्वं पूर्वेषामात्मस्थत्वं द्रष्टव्यमिति । एतदुक्तं भवति "आत्मस्थापेक्षया परस्याधिक्यं भवति" इति । हासस्य पुनस्त्रैविध्यमाह - हास्यरौद्रावपीत्यादि । हास्यरौद्रावित्येतदुपलक्षणम् । यतस्तेषां सर्वेषु संभवादिति ।
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४१९
सप्तमो नर्तनाध्यायः इष्टबन्धुवियोगश्च श्रीनाशो वधबन्धने । व्यसनप्रभवोऽनर्थः सुतादिनिधनं तथा ॥ १४३४ ॥ देशभ्रंशादयश्चैते श्रुता यद्वा विलोकिताः । विभावाः संमताः पुंसामुत्तमानां पराश्रिताः ॥ १४३५॥
मध्यमाधमपुंसां तु ते स्युरात्मैक्यगोचराः। तेषां वाङ्नेपथ्याङ्गचेष्टितानां त्रयाणां भेदानां सर्वेषु रसेषु संभवात् विद्यमानत्वादिति ॥ १४२६-१४३३ ॥
इति हास्यः (२) (सु०) स्मितादीनां षण्णां प्रत्येकं लक्षणमाह-ईषदिति । यत्र ईषद्विकसितौ कपोलौ ; अनुल्बणौ कटाक्षौ ; दशनोऽदृश्यः, मन्थरो हास्यो भवति, तद् स्मितम् । यत्र वक्त्रनेत्रकपोलानि विकसितानि भवन्ति ; दन्तांश्च ईषल्लक्षितानि ; तद् हसितम् । एवमन्येऽपि ॥ १४२६-१४३३ ॥
इति हास्यः (२) (क०) अथ करुणं लक्षयितुं तस्य विभावनाह–इष्टबन्धुवियोगश्चेत्यिादि । श्रीनाशः; श्रियः संपदो नाशः । व्यसनप्रभवोऽनर्थ इति । द्यूतमद्यादिव्यसनर्जतोऽनर्थः । उत्तमानां पुंसां स्वगताः पराश्रिताश्च यत्र विभावा भवन्तीत्यन्वयः । आत्मैकगोचरा इति । मध्यमाधमपुंसां तु पराश्रिता न विभावा इत्यर्थः ॥ १४३४-१४३५- ॥
(सु०) अथ करुणं लक्षयति-इष्टेति । यत्र इष्टबन्धुवियोगश्च, संपदो नाशः, वधबन्धने, चूतमद्यादिश्यसनजातोऽनर्थः, तथा सुतादिनिधनम् , देशभ्रंशादयश्च श्रुताः; अथवा विलोकिता वेत्याद्या विभावा भवन्ति । एते उत्तमानां पुंसां स्वगताः पराश्रिता भवन्ति । मध्यमाधमपुंसां तु ते विभावा आत्मैकगोचरा भवन्ति ॥ १४३४-१४३५- ॥
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४२०
संगीतरत्नाकरः अश्रुपातो मुखे शोषो विलापः परिदेवनम् ॥ १४३६ ॥ स्तम्भो विवर्णता स्रस्तगात्रता प्रलयस्तथा । श्वासोच्छासौ देहपातघातोरस्ताडनादयः ॥ १४३७ ।। एते यत्रानुभावास्युरथ ग्लानिः श्रमो भयम् । मोहो विषादनिर्वेदौ चिन्तौत्सुक्ये च दीनता ॥ १४३८ ॥ जडताव्याधिरुन्मादालस्यापस्मारमृत्यवः । स्तम्भकम्पाशुवैवर्ण्यस्वरभङ्गादयस्तथा ॥ १४३९ ॥ यत्र संचारिणः स्थायी शोकः स करुणो मतः । व्यवस्थात्रानुभावानां योग्यत्वादुत्तमादिवु ॥ १४४० ॥
(क०) अनुभावानाह-अश्रुपात इत्यादि । संचारिण आहअथ ग्लनिरिरित्यादि ।। ननु स्तम्भादीनां सात्त्विकानामप्यनुभावलक्षण युक्तत्वेन तेषु परिगणनमस्तु ॥ -१४३६-१४३९. ।।
(सु०) अस्यानुभावं लक्षयति--अश्रुपात इति । यत्र अश्रुपातमुखशोषविलापपरिदेवनस्तम्भविवर्णतास्रस्तगात्रताप्रलयश्वासोच्छासदेहपातघातोरस्ताड - नादय अनुभावा भवन्ति । यत्र ग्लानिश्रमभयमोहविषादनिर्वेदचिन्तौत्सुक्यदैन्यजाड्यन्याध्युन्मादालस्यापस्मारमृत्यवः, तथा स्तम्भकम्पाश्रुवैवर्ण्यस्वरभङ्गादयो व्यभिचारिणो भवन्ति । यत्र शोकः स्थायी भवति ; स करुण इत्यभिधीयते ॥ -१४३६-१४३९- ॥
(क०) संचारिषु कथं तेषां परिगणन मिति चेदुच्यते । सत्त्वप्राधान्येन प्रवृत्तानामपि स्तम्मादीनां
"भावानां यानि कार्याणि नाट्यन्ते कुशलैनटैः । तेन भावा हेतवस्ते स्वहेत्वनुभवे यतः ॥"
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
४२१ विलापो रोदनं शोच्यगुणस्तवपुरःसरम् । स्यादेवात्मपराणां यदुपालम्भेन रोदनम् ॥ १४४१॥
परिदेवनमित्युक्तं तदिदं शब्दकोविदैः । इति लक्षणयोगेन यथानुभावत्वमुपपन्नं तथा—“विशेषादाभिमुख्येन चरन्तो व्यभिचारिणः" इत्यस्थिरत्वलक्षणयोगेन संचारित्वमुपपन्नमेवेति । एवमुक्ता ग्लान्यादयः संचारिणो यत्र भवन्ति । यत्र शोकः स्थायी भवति स करुणो मतः । व्यवस्थेत्यादि । अत्र करुण उत्तमादीनामुत्तममध्यमाधमानां पुंसां योग्यत्वात्तत्तत्मकृत्युचितत्वेनानुभावानां पूर्वोक्तानामश्रुपातादीनां व्यवस्था नियमः कर्तव्यः ॥ -१४४० ॥
(सु०) अनुभावानां व्यवस्थामाह-व्यवस्थेति । उत्तमादिषु, उत्तममध्यमाधमपात्रेषु योग्यत्वात् ; तत्तत्प्रकृतिगुणोचितत्वेन पूर्वोक्तानुभावानां व्यवस्था कर्तव्या । विलापपरिदेवनयोः स्वरूपं लक्षयति-विलाप इति । विलापो नाम कृतस्य कर्मणोऽनुचितत्वधियानुतापः । परिदेवनं नामानुशोचनोक्तिः । करुणस्य त्रैविध्यं लक्षयति-धर्मेति । धर्मोपघातजः, वित्तनाशजः, बन्धुनाशज इति । तत्र पूर्वज उत्तमेष्वेव । अपरौ त्वनियम इति । रुदितस्य त्रैविध्यं लक्षयति-त्रेधा इति । रुदितं त्रिविधम् , आनन्दाीाभेदात् । उत्तमस्य आनन्दो हेतुः, अन्यस्य आतिहेतुः, अपरस्य ईध्येति । तत्रानन्दजं लक्षयति-दुःखेति । दुःखस्मरणपूर्वकात् यत्र विकसितकपोलकम् , रोमाश्चमपाङ्गस्थबाष्पं यत्र भवति, तदानन्द जम् । आतिजं लक्षयति-उच्चैरिति । ईर्ष्याकृतं लक्षयति-शिर इति ॥ -१४४०-१४४७ ॥
इति करुण: (क०) विलापनपरिदेवनयोः स्वरूपमाह-विलाप इत्यादि । शोच्यगुणस्तवपुरःसरं रोदनं विलाप: स्यात् । दैवात्मपराणामुपालम्भेन
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४२२
संगीतरत्नाकरः धर्मोपघातजो वित्तनाशजो बन्धुनाशनः ॥ १४४२॥ करुणस्त्रिविधस्तेषामुत्तमेष्वेव पूर्वजः । वेधा रुदितमानन्दाीाहेतुकृतं भवेत् ॥ १४४३ ॥ दुःखस्मृतियुतानन्दाज्जातं फुल्लकपोलकम् । सरोमाश्चमपाङ्गस्थवाष्पमानन्दजं मतम् ॥ १४४४ ॥ उच्चैः स्वरविलापं च सभ्रूपान्तविवर्तितम् ।
स्रुताश्रुधारमस्वस्थचेष्टाङ्गं चार्तिजं मतम् ॥ १४४५ ॥ यद्रोदनं विद्यते, तदिदं रोदनं शब्दकोविदैः परिदेवनमित्युक्तम् ॥ १४४११४४१-॥
(क०) करुणस्य त्रैविध्यमाह-धर्मोपघातन इत्यादि । उत्तमेष्वेव ; उत्तमप्रकृतिप्वेव भवतीति नियमः । तेन वित्तनाशजबन्धुनाशजयोरुत्तमादिष्वनियमो द्रष्टव्यः ॥ -१४४२-१४४२- ॥
(क०) रुदितस्य त्रैविध्यमाह-आनन्दातीतिकृतमिति । एकस्य रुदितस्यानन्दो हेतुः। अन्यस्यार्तिहेतुः । अपरस्या हेतुरित्यर्थः ॥ -१४४३ ॥
(क०) दुःखस्मृतियुतानन्दाजातमिति । दुःखस्मरणपूर्वको य आनन्दस्तस्माज्जातं रुदितं लक्षयति-पुल्लकपोलकमिति । केवलानन्दाज्जातं लक्षयति-सरोमाञ्चमित्यादि ॥ १४४४ ॥
(क०) केवलदुःखाज्जातं लक्षयति-उच्चैः स्वरविलापमित्यादि । सभ्रपान्तविवर्तितम् ; भ्रूपान्तविवर्तिताभ्यां सहितम् । सुताश्रुधारम् ; सुता अवारा यस्मिन्निति तथोक्तम् । अस्वस्थचेष्टाङ्गम् ; स्वस्था चेष्टा न विद्यते येषां तान्यस्वस्थचेष्टानि तादृशान्यजानि यस्मिन्निति तथोक्तम् ॥ १४४५ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
शिरःकल्पितनिश्वासं स्फुरदोष्ठकपोलकम् ।
कटाक्ष भ्रुकुटीवक्रं स्त्रीणामीयकृतं भवेत् ।। १४४६ ।। धैर्यादुत्तममध्यानां नाश्रु स्वव्यसने स्रवेत् । परस्थे तु स्रवेन्नारीनीचानां तूभयत्र तत् ।। १४४७ ॥ इन्दप्रकृतयो रक्षोदैत्याद्यन्यायकारिणः । युद्धं क्रोधोऽनृतं वाक्यं परदारादिधर्षणम् ।। १४४८ । देशजातिकुलाचारविद्यानिन्दा परस्य च । वधान्यदारयात्रादिप्रतिज्ञापरुषोक्तयः ॥। १४४९ ॥ गृहादिभञ्जनं राज्यहरणं मत्सरस्तथा । जिघांसाद्याश्च यत्र स्युर्विभावाः परिकीर्तिताः १४५० ॥
४२३
(क० ) ईर्ष्याकृतं लक्षयति - शिरः कम्पितनिश्वासमित्यादि । उत्तममध्यानां पुंसामश्रु स्वव्यसन आत्मदुःखे न स्रवेत् । परस्थे व्यसने तु त्रेत् । नारीनीचानां तु तद्रुदितम् । उभयत्र स्वपरव्यसनयोरित्यर्थः ॥ १४४६ १४४७ ॥
इति करुणः
(To) अथ रौद्रं लक्षयितुं प्रथमं तद्विभावानाह - हन्तृप्रकृतय इत्यादि । हन्तृप्रकृतयः ; हन्तृत्वं प्रकृतिर्येषां ते ; हननस्वभावा इत्यर्थः । ते च रक्षोदैत्याद्यन्यायकारिणः । आदिशब्देन चोरादयो गृह्यन्ते । क्रोध इति । अन्यकृतः क्रोधोऽन्यरौद्रस्य विभावो भवति । परदारादिधर्षणमिति । अत्रादिशब्देन क्षेत्रवित्ताद्यपहरणं गृह्यते । अन्यदारयात्रादिप्रतिज्ञा परस्त्रीगमनप्रतिज्ञा । आदिशब्देन तदपहरणादिप्रतिज्ञा गृह्यते ॥ १४४८
१४५० ॥
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४२४
संगीतरनाकरः भृकुटीनेत्ररक्तत्वं कपोलस्फुरणं तथा। दन्तोष्ठपीडनं हस्तनिष्पेपोऽथान्यविग्रहे ॥ १४५१॥ तलायैस्ताडनं छेदो मर्दः पाटनमोटने । शस्त्राणां ग्रहणं पातः प्रहारो रुधिरसुतिः ॥ १४५२ ॥ एतेऽनुभावास्तेषां तु कर्म यत्ताडनादिकम् । न तत्साक्षात्प्रयोक्तव्यं कीर्तनीयं परं नटैः ॥ १४५६ ॥
(सु०) अथ रौद्रस्य विभावानाह-हन्तृप्रकृतय इति । हन्तप्रकृतयः हननस्वभावा इत्यर्थः । अत्रादिशब्देन चोरादयो विवक्षिताः । अन्यकृतः क्रोधोऽन्यस्य विभावो भवति । तत्र हेतु:-परदारेति । आदिशब्देन क्षेत्रवित्तादयो गृह्यन्ते । तथा परस्य देशजाति कुलाचारविद्यानिन्दाः; वधनिमित्तकान्यदारयात्रादिप्रतिज्ञायां परुषोक्तिः, गृहादिभञ्जनम् , राज्यस्य हरणम् , तथा मत्सरश्च, एवमादयो यत्र विभावा भवन्ति ॥ १४४८-१४५० ॥
(क०) रौद्रस्यानुभावानाह-भृकुटीत्यादि। अथान्यविग्रह इति। पूर्वोक्ता भृकुटीनेत्ररक्तत्वादयः स्वविग्रह आत्मनः शरीरे भवन्ति । वक्ष्यमाणास्तलायैस्ताडनादयोऽन्य विग्रहे परस्य रौद्रालम्बन विभावम्य विग्रहे शरीरे स्वेन रौद्राधिष्ठानभूतेन कृता भवन्ति । तलायैरिति । अत्र तलशब्देन हस्तपादतलमुच्यते । आदिशब्देन मुष्टयादयो ग्राह्याः । तैस्ताडनं रौद्रानुभावः । छेदः; नखादिभिः कृतः । मर्दः; भीत्यादि. संश्लेषेणाङ्गमर्दनम् । पाटनमोटने इति । पाटनं नाम स्वकराभ्यामन्यस्य कराद्यवयवं गृहीत्वा तस्य द्वेधीकरणम् । मोटनं नाम पूर्व गृहीत्वा तदङ्गानां भञ्जनम् । शस्त्राणां छुरिकादीनां ग्रहणम् । पात:; गृहीतानां शस्त्राणां पराङ्गं प्रति प्रवणीकरणम् । प्रहारः; प्रवणैः शनैः कृता क्षतिः । रुधिरसूतिः; प्रहारोत्पन्नस्य रुधिरस्य स्रावः । तेषां मध्ये यत् त्रोटनादिकं कर्म
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
४२५ उत्साहसम्यग्बोधौ चामर्षावेगौग्यचापलम् । स्वेदवेपथुरोमाञ्चगद्दस्वरतादयः॥ १४५४ ॥ भावाः संचारिणः स्थायी क्रोधो रौद्राभिधो रसः । साक्षात्स्वेदोऽभिनेयो वा व्यजनग्रहणादिना ॥ १४५५ ॥
उत्साहस्त्वत्र संचारी न चास्माद्वीरसंकरः। विद्यते, तत्साक्षान्न प्रयोक्तव्यम् । किंतु नटैः परं केवलं कीर्तनीयम् ॥ ॥ १४५१-१४५३ ॥ __(सु०) अथानुभावानाह-भृकुटीति । भृकुट्यादयः पूर्वमुक्ताः । अत्र तलशब्देन हस्तपादतलं विवक्षितम् । छेदः नखादीनां कर्म । मर्द: भयादिना अङ्गमर्दः । पाटनं नाम स्वकराभ्यामन्यस्यावयवस्य द्वैधीकरणम् । मोटनम् ; अङ्गानां भञ्जनम् | छुरिकादीनां ग्रहणम् | पातः पराङ्गं प्रति शस्त्रादीनां प्रवणीकरणम् | प्रहारः क्षतिः । रुधिरजुतिः रुधिरस्य स्रावः, एवमादयोऽन्येऽप्यत्रानुभावत्वेन विवक्षिताः । तेषां मध्ये छुरिकादीनां कर्म न साक्षात्प्रयोक्तव्यमिति ॥ १४५१-१४५३ ॥
(क०) अथ संचारिण अह-उत्साहेत्यादि । यत्र क्रोधः स्थायी भवति, स रौद्राभिधो रसः। तत्र स्वेदः साक्षादेवाभिनेयः। ताडनादिवत्सूचनीय एव न भवतीत्यर्थः । वेति । अथवा स्वेदः साक्षादभिनेतुमशक्यश्चेत्तदा व्यजनग्रहणादिना सोऽभिनेयो भवति । ननूत्साहस्यात्राप्यनुप्रवेशाद्वीरेणास्य संकरः प्रसज्येतेत्याशङ्कयाह---उत्साहस्त्वित्यादि । अत्र रौद्र उक्तः, उत्साहस्तु यतः संचारी न स्थायीत्यर्थः । अस्मात्कारणाद्वीरसंकरश्च न । वीररौद्ररसयोरुत्साहसद्भावस्याविशेषेऽपि वीरे स्थायित्वेन रौद्रे संचारित्वेनोसाहस्य भिन्नस्य भिन्नरूपत्वाद्वीररौद्रयोर्न सांकर्यमित्यर्थः ॥ १४५४, १४५५.॥
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४२६
संगीतरत्नाकरः ननु चाव्यभिचारेण भावस्य स्थायिता मता ॥ १४५६ ॥ स्थायी तत्कथमुत्साहो वीरेऽप्येष भविष्यति । मैवं क्षणिकविद्योता विद्युद्वयभिचारिणः ॥ १४५७ ।। स्थिराः स्युः स्थायिनस्तेन द्विरूपोऽयं रसद्वये ।
(सु०) अथ संचारिणं लक्षयति--उत्साह इति । यत्र क्रोधः स्थायी, स रौद्रो रसः । तत्र स्वेदः साक्षादभिनेयः । वेति पक्षान्तरे । अथवा स्वेदः साक्षादभिनेतुमशक्यश्चेत् व्यजनादिना अभिनेय इति । अत्र वीरस्य संकरमाशङ्कते-उत्साहस्त्विति ॥ १४५४, १४५५- ।।
(क०) एवं तङ्केकस्यैव भावस्य व्यभिचारित्वं स्थायित्वं च मिथो विरोधादुभयं न संगच्छत इति शङ्कते-ननु चेति । भावस्योत्साहादेरव्यभिचारेण । व्यभिचारोऽत्रानयत्यं विवक्षितम् । तदभावश्चाव्यभिचारः । एकैकरसप्रतिनियतत्वमित्यर्थः । तेनाव्यभिचारेण स्थायिता मता दृष्टा । तत्तस्मात्कारणादेष उत्साहो वीरस्थायी कथं भविष्यति । रौद्रानुप्रवेशाद्व्यभिचारी भवन्नयमुत्साहो वीरनैयत्याभावात्तत्र स्थाय्येव न भवतीत्याक्षेपार्थः ।। -१४५६, १४५६- ॥
(क) परिहरति-मैवमिति । व्यभिचारिणो भावा विद्युद्वत: तडिदिव क्षणिक विद्योताः; क्षणकालप्रकाशा अस्थिरा यतो भवन्ति, अतस्तेषां व्यभिचारित्वं न त्वनैयत्येनेति भावः । स्थायिनः स्थिराः स्युरिति । स्थिरा अक्षणिका यतोऽत एव तेषां स्थायित्वं न त्वेकैकरसं प्रति नियतत्वेनेति भावः । तेन कारणेनायमुत्साहो रसद्वये वीररौद्रयोविरूपः । वीरे स्थायी रौद्रे व्यभिचारीति रसयोर्न सांकर्यमित्यर्थः ॥ -१४५७, १४५७- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
४२७
ननु स्थाय्यपि भावत्वान्निसर्गात्क्षणिको भवेत् ।। १४५८ ॥ सत्यं किंतु स संस्काररूपेण स्थायितां गतः । तत्तिरस्कृतसंस्कारास्त्वन्ये तत्स्थैर्ययोगिनः ।। १४५९ ।। आविर्भावतिरोभावधर्माणश्चात्र यन्त्रिताः ।
(क०) भावानां स्थिरत्वमाक्षिपति - नन्विति । स्थाय्यपीति । भवतः स्थायित्वेनाभिमतो रत्यादिरपीत्यर्थः । भावत्वादिति । मनोवि - कारत्वात् । निसर्गात्क्षणिकः; स्वभावेन क्षणिकः । क्षणिकत्वं नाम त्रिक्षणावस्थायित्वम् । यथोक्तम् - " शब्दबुद्धिकर्मणां त्रिक्षणावस्थायित्वम् " इति । भावमात्रस्य क्षणिकत्वाद्व्यभिचारित्वमेवेति भावः । अर्धाङ्गीकारेण परिहरति — सत्यमिति । स रसस्याविर्भावः संस्काररूपेण भावनाख्यसंस्कारात्मना न स्थायितां गतः स्थैर्ये प्राप्तः । अत्र क्षणिकत्वाङ्गीकादर्धाङ्गीकारः । संस्कारस्य स्थायित्वोक्तेः परिहारः ॥ - १४५८, १४५८- ॥
(क) एवं तर्हि संस्काररूपत्वाविशेषेण निर्वेदादयोऽपि कथं न स्थायिन इत्यत आह--- तत्तिरस्कृत संस्कारा इति । तेन स्थायिना प्रबलेन रत्यादिना तिरस्कृतसंस्कारा अभिभूतभावनाः । तेषां दुर्बलत्वाद्वयवहितसंस्काराः सन्तः । अन्ये तु निर्वेदादयस्तु स्थैर्ययोगिनः स्थायिनो न भवन्ति । एतदुक्तं भवति - " संस्काररूपेणापि यः प्रबलः स स्थायी, यो दुर्बल: स व्यभिचारी ” इति । तदेवाह - आविर्भावेत्यादि । अत्र स्थायिसंचारि - त्वविषय आविर्भावधर्मेण स्थायी, तिरोभावधर्मेण संचारीति यन्त्रिता नियन्त्रिता ज्ञेयाः ॥ - १४५९, १४५९-॥
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४२८
संगीतरत्नाकरः गुरौ प्रिये रिपौ भृत्ये भवेत्क्रोधश्चतुर्विधः ॥ १४६० ॥ गुरावव्यक्तचेष्टः स्यात्क्रोधो विनययन्त्रितः । अपाङ्गनिर्गताल्पास्रो भ्रुकुटीकुटिलाननः ॥ १४६१ ॥ स्फुरितोष्ठो मृगाक्षीणां कोपः प्रणयजः पिये। दष्टोष्ठो हस्तनिष्पेषी विकटभृकुटीपुटः ॥ १४६२ ॥ स्वभुजप्रेक्षणैः शत्रौ भवेत्क्रोधो निरर्गलः। विकृतप्रेक्षणैरक्षिविस्तारै रिभर्त्सनैः ॥ १४६३ ॥ भृत्ये कार्यवशात्कोपः कृत्रिमः क्रूरतोज्झितः। . अविस्मयादसंमोहादविषादाच यः सताम् ॥ १४६४ ॥ धर्माद्यर्थविशेषेषु कार्यतत्त्वविनिश्चयः । नयश्च विनयः कीर्तिः पराक्रमणशक्तता ।। १४६५ ॥ प्रतापः प्रभुशक्तिश्च दुर्धर्षप्रौढसैन्यता। मन्त्रशक्तिश्च संपन्नधनाभिजनमन्त्रिता ॥ १४६६ ॥ इत्यादयो विभावाः स्युर्नटे काव्यसमन्विताः।
(क०) अत्र स्थायिनः क्रोधस्य विषयभेदाचातुर्विध्यमाह-गुरावित्यादि । सुबोधमन्यत् ॥ -१४६०-१४६३- ।।
इति रौद्रः
(सु०) अथ स्थायिनश्चातुर्विध्यं लक्षयति-गुराविति । स्पष्टोऽर्थः ॥ ॥ -१४६०-१४६३- ॥
इति रौद्रः (क०) अथ वीरं लक्षयितुं तद्विभावानाह-अविस्मयादित्यादि। सतां धर्माद्यर्थविशेषेष्विति । आदिशब्देनार्थकामौ गृह्यते । अर्थविशेषाः
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४२९
सप्तमो नर्तनाध्यायः सामादीनामुपायानां यथास्वं विनियोजने ॥ १४६७ ॥ विज्ञत्वं स्थैर्यधैर्ये च शौर्य त्यागो यथोचितम् । भाषणं भावगम्भीरवाक्यस्येत्येवमादयः ॥ १४६८ ॥ सर्वे गर्वानुभावाश्चानुभावाः स्युरथ स्मृतिः ।
औग्यमावेगरोमाश्चावमर्शश्च धृतिर्मतिः ॥ १४६९ ।। एवंप्रभृतयो भावा यत्र स्युर्व्यभिचारिणः । उत्साहःस्थायिभावश्च धीरा वीरं तमूचिरे ॥ १४७० ॥ उत्तमप्रकृतिष्वेव पुरुषेष्वेष जायते ।
पुरुषार्थाः, तेषु । विस्मयो गर्वस्तदभावात् , संमोहश्चाज्ञानं तदभावात् , विषादो दुःखं तदभावाच्च हेतोर्यः कार्यतत्त्वविनिश्चयः, स वीरस्य विभावो भवति । एतेन विस्मयादियुक्तस्य कार्यतत्त्वविनिश्चयो न जायत इत्युक्तं भवति । इत्यादय इति । आदिशब्देन लोके वीरोत्पादकत्वेन येऽन्ये दृष्टास्ते ग्राह्याः । नटे काव्यसमन्विता इति । काव्यशब्देन वाचिकाभिनय उच्यते । तेन सह नटैरभिनीता इत्यर्थः ॥ -१४६४-१४६६-॥
(सु०) वीरस्य विभावान् लक्षयति-अविस्मयादीति । गर्वाभावोऽविस्मयः, तस्मात् ; अज्ञानं संमोहः, तस्मात् ; दुःखाभावोऽविषादः, तस्मात् हेतोः सतां धर्मार्थकामेषु यः कार्यतत्त्वविनिश्चयः । नयः, विनयः, कीर्तिः, पराक्रमणशक्तता, प्रतापः, प्रभुशक्तिश्च, दुर्धर्षप्रौढसैन्यता, मन्त्रशक्तिश्च, संपन्नधनाभिजनमन्त्रिता इत्येवमादयो वीरस्य विभावा भवन्ति । अत्रादिशब्देन लोके वीरोत्पादकत्वेन येऽन्ये दृष्टास्ते ग्राह्या भवन्ति ॥ -१४६४-१४६६-॥
(क०) वीरस्यानुभावानाह—सामादीनामित्यादि । सर्वे गर्वानुभावाश्चेति । व्यभिचारिभावस्य गर्वस्य येऽनुभावा वक्ष्यन्ते, ते सर्वेऽपि
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४३०
संगीतरत्नाकरः सम्यग्विज्ञाय पाड्गुण्यप्रयोगो गीयते नयः ॥ १४७१ ॥ संधिश्र विग्रहो यानमासनं संश्रयस्तथा । द्वैधीभाव इति प्रोक्ता नीतिशास्त्रेषु षड्गुणाः ॥ १४७२ ॥
इन्द्रियाणां जयं प्राह विनयं शंकरपियः । वीरानुभावा भवन्तीत्यर्थः । व्यभिचारिण आह-अथ स्मृतिरित्यादि । यत्र चोत्साहः स्थायिभावो भवति धीरा विद्वांसस्तं वीरमूचिरे । उत्तमप्रकृतिध्वेवेति । मध्यमाधमपुरुषयोर्वीरो न जायत इत्यर्थः ।।-१४६७-१४७०-॥
(सु०) अथानुभावानाह-सामादीनामिति । सामादीनां चतुर्णामुपायानां विनियोगविषये, स्थैर्यधैर्ये च विज्ञत्वम् , यथोचितं शौर्यत्यागौ, भावगम्भीरं भाषणमित्येवमादयः सर्वे गर्वानुभावाः, गर्वस्य येऽनुभावाः, तेऽप्यत्र स्युः । व्यभिचारिण उदिशति-अथ स्मृतिरिति । औग्रयमावेगरोमाश्चावमर्शधृतिमतीत्येवमादयो भावा अत्र संचारिणो भवन्ति ॥ -१४६७-१४६९- ॥
(क०) वीरविभावत्वेनोक्तस्य नयस्य स्वरूपमाह-सम्यग्विज्ञायेत्यादि । षड्गुणा एव षाड्गुण्यम् ॥ -१४७१ ॥
(क०) प्रसङ्गात् षड्गुणानाह—संधिश्वेत्यादि ॥ १४७२ ॥ __(सु०) स्थायिनमाह-उत्साह इति । यत्र उत्साहः स्थायी भवति, तं पण्डिता वीरमित्याहुः । स च वीरोऽपि उत्तमप्रकृतिवेव जायते । न तु मध्यमाधमपुरुषयोः । वीरविभावितं नयं लक्षयति-सम्यगिति । षड्गुणा एव षाड्गुण्यम् । गुणान् लक्षयति-संधिश्चेति । संधिः, विग्रहः, यानम् , आसनम् , तथा संश्रयः, द्वैधीभाव इत्येते नीतिशास्त्रोक्ताः षड्गुणा भवन्ति ॥ -१४७०१४७२ ॥
(क०) विनयस्वरूपमाह-इन्द्रियाणामित्यादि ॥ १४७२- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
प्रतापः पौरुषोद्भूता प्रसिद्धिः शत्रुतापिनी ।। १४७३ ।। कीर्तिः सुहृदुदासीनजनानन्दपदं यशः । सामदाने भेददण्डावित्युपायचतुष्टयम् || १४७४ ॥ स्थैर्यं त्वचलचित्तत्वं धैर्य गाम्भीर्यशालिता । शौर्य भवेदनुद्भूतभयं युद्धप्रवर्तनम् ।। १४७५ ।। वीरः स्यादुचिते युद्धे रौद्रस्त्वनुचिते भवेत् ।
४३१
(सु० ) विनयस्य स्वरूपमाह - इन्द्रियाणामिति । प्रतापस्य लक्षणमाह - प्रताप इत्यादि । कीर्ति लक्षयति- कीर्तिरिति । स्थैर्यधैर्ये लक्षयतिस्थैर्यमिति । स्थैर्य नाम चित्तस्याचालनत्वम्; धैर्यं तु गाम्भीर्यमिति । शौर्य लक्षयति-- शौर्यमिति । अनुद्रुतभयं यथातथा युद्धे प्रवर्तनं शौर्यमित्युच्यते । वीरं लक्षयति-वीर इति । यत्र नायकप्रतिनायकौ समबलौ स्याताम् ; तत्र वीरो भवति ; यथा रामरावणयोः । यत्र विषमबलौ भवेताम् ; तत्र रौद्रो भवति ; यथा भीमदुःशासनयोरिति विवेकः । वीरस्य त्रैविध्यं लक्षयति-दानवीरेति । दानवीरः, धर्मवीरः, युद्धवीर इति । तत्र विभावानाह - वीर इति । अन्यत्सुगमम् || १४७३-१४७७ ॥
इति वीर:
( क ० ) प्रतापस्य लक्षणमाह
-
- प्रताप इत्यादि ॥ - १४७३ ॥ (क०) कीर्तिलक्षणमाह- कीर्तिरित्यादि । सामादीनामित्यत्रादिशब्देन ग्राह्यानाह - सामेत्यादि || १४७४ ॥
(क०) स्थैर्यधैर्ययोर्लक्षणमाह - स्थैर्ये त्वचलचित्तत्वं धैर्य गाम्भीर्यशालितेति । शौर्यस्य लक्षणमाह - शैर्यं भवेदिति । उचिते युद्धे वीरः स्यादिति । यत्र नायकप्रतिनायकौ तुल्यबलौ तदुचितं युद्धम् । यथा
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४३२
संगीतरत्नाकरः दानवीरो धर्मवीरो युद्धवीर इति त्रिधा ॥ १४७६ ॥ वीरो दानादयस्तत्र विभावाः प्रतिनायके । नायके त्वनुभावाः स्युर्वीरस्येति विदां मतम् ॥ १४७७ ।। रक्षःपिशाचभल्लूकप्रभृतेर्भाषणाकृतेः । दर्शनं श्रवणं शून्यागारारण्यप्रवेशयोः ।। १४७८ ।। विकृतस्य ध्वनेत्रासोद्वेगयोः परसंस्थोः। श्रवणं चानुसंधानं बन्धूनां वधबन्धयोः ॥ १४७९ ॥ एवमाया विभावाः स्युरथ नेत्रकराज्रिणः ।
मध्ये मध्ये स्तम्भकम्पो रोमाञ्चनिचयस्तथा ॥ १४८० ॥ रामरावणयोस्तत्र वीर एव । रौद्रस्त्वनुचिते भवेदिति । यत्र त्वेकः प्रबलोऽन्यो दुर्बलस्तदनुचितं युद्धम् । यथा भीमदुःशासनयोस्तत्र रौद्र एव ॥ ॥ १४७५, १४७५- ॥
(क०) वीरस्य त्रैविध्यमाह-दानवीर इत्यादि । तत्र त्रिविधे वीरे । प्रतिनायके दानादयो विभावा इति । प्रतिनायकेन कृतं दानं नायकाश्रयस्य दानवीरस्य विभावः । प्रतिनायककृतो धमों नायकाश्रयस्य धर्मवीरस्य विभावः । तथा प्रतिनायककृतं युद्धं नायकाश्रयस्य युद्धवीरस्य विभावो भवतीत्यर्थः । नायके त्वनुभावाः स्युरिति । नायककृतानि दानधर्मयुद्धानि तु वीरस्य नायकनिष्ठवीरस्यानुभावा भवेयुरिति विदां विदुषां मतं संमतम् ॥ -१४७६, १४७७ ॥
इति वीरः (क०) अथ भयानकं लक्षयितुं तद्विभावानाह- रक्षःपिशाचभल्लकमभृतेरित्यादि । शून्यागारारण्यप्रवेशयोरित्यादीनां यथायोगं दर्शन
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सप्तमो नर्तनाध्यायः शुष्कोष्ठतालुता कम्पहृदयत्वं विवर्णता । मुखस्य स्वरभेदश्च गात्रसंसो विलक्षता ॥ १४८१ ॥ कांदिशीकतया दृष्टेरनुभावा भवन्त्यमी । अथ स्तम्भादयोऽप्यष्टौ दैन्यमावेगचापले ॥ १४८२॥ शङ्कामोहावपि त्रासापस्मारमरणादयः । यत्र संचारिणः स्थायि भयं स स्याद्भयानकः ॥ १४८३ ।। वास्तवं कृत्रिमं चेति भयं द्वेधा निगद्यते ।
श्रवणानुसंधानैः संबन्धः कर्तव्यः । अनुभावानाह-अथ नेत्रकराघिण इत्यादि । प्राण्यङ्गत्वाद् द्वन्द्वैकवद्भावः । मुखस्य विवर्णतेत्यन्वयः । संचारिण आह-अथ स्तम्भादय इत्यादि । यत्र भयं स्थायि भवति, स भयानकः स्यात् ॥ १४७८-१४८३ ॥
___ (सु०) भयानकस्य विभावादीनाह-रक्ष इति । यत्र शून्यागारारण्यप्रवेशयोः विकृतध्वनेः परत्रासोद्वेगयोः श्रवणम् ; बन्धूनां वधबन्धयो: अनुसंधानमित्येवमाद्या विभावाः । मध्ये मध्ये नेत्रयोः, करयोः, अघ्रिणोश्च स्तम्भकम्पाः; तथा रोमाञ्चनिचयः; शुष्कोष्ठतालुत्वम् ; हृदयस्य कम्पत्वम् ; मुखस्य विवर्णत्वम् ; स्वरभेदश्च, गात्रसंसः; दृष्टेः कांदिशीकतया विलक्षत्वमित्येवमादयोऽनुभावाः स्युः । स्तम्भाद्यष्टकम् , दैन्यावेगचापलशङ्कामोहत्रासापस्मारस्मरणादयश्च व्यभिचारिणः । भयं च स्थायी भवति । तत्र भयानकम् ॥ १४७८-१४८३ ॥
(क०) तस्य भयस्य द्वैविध्यमाह-वास्तवमित्यादि ॥१४८३ ।।
(सु०) भयस्य द्वैविध्यं लक्षयति-वास्तवमिति । तच्च भयानक वास्तवं कृत्रिमं चेति द्विविधं भवति । स्त्रीणां कृत्रिमम् , पुंसस्तु वास्तवम् । तत्र
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४३४
संगीतरत्नाकरः
स्त्रीणां च नीच प्रकृतेः पुंसः स्याद्वास्तवं भयम् ॥ १४८४ ॥ मध्यमे चोत्तमे पुंसि कृत्रिमं तदुदाहृतम् । स्वभावादभयौ तौ हि स्वामिनं च गुरुं प्रति ।। १४८५ ।। भयं विनयबोधाय दर्शयेता मताविकम् । नीचैः स्वभावबोधार्थ तत्कार्य मृदुचेष्टितैः || १४८६ ॥
मध्यमे उत्तमे च कृत्रिममपि भवति । गुरुसमीपे विनयबोधाय, कचिन्नीचत्वबोधाय च तत्कल्पनात् ॥ १४८४-१४९३-॥
इति भयानकः
(क०) वास्तवस्याश्रयमाह - स्त्रीणामित्यादि । कृत्रिमस्याश्रयमाह - मध्यमे चेत्यादि ॥ - १४८४, १४८४- ॥
( क ० ) मध्यमोत्तमाश्रयस्य भयस्य कृत्रिमत्वं प्रतिपादयतिस्वभावादभयावित्यादि । तौ मध्यमोत्तमौ । नीचैरिति । तदतात्त्विकं भयं नीचैः कर्तृभिर्मृदुचेष्टितैः करणैः स्वभावबोधार्थं नीचत्वप्रकाशनाय कदाचित्कार्यम् ॥ - १४८५-१४८६॥
(सु० ) अथ बीभत्सस्य विभावानाह - स्वभावादिति । यत्र स्वभावात् इन्द्रियाणां दोषाद्वा, वस्तुनोऽत्यन्ताप्रियात्मकत्वम्, निषिद्धमतितृप्तेश्चारुचिरं मलमिश्रितत्वम्, अनिष्टफलदानेन मुहुरुद्वेगदायकत्वमित्येते विभावाः ; हृत्कम्पगात्रघूननमुखनासोष्ठहनुकुञ्चनष्ठीवना नियतपादन्यासनासादृपिधानानीत्येते अनुभावा: । मोहः, आवेगः, अपस्मारः, मृत्युः, व्याधिश्वेत्येते व्यभिचारिण: ; जुगुप्सोपलक्षितबीभत्सः स्थायी भवति ; स बीभत्स: । स च त्रैविध्यं भवति — शुद्ध:, मशुद्ध:, अत्यन्तशुद्ध इति । आद्यो रुधिरादिलक्षितः शुद्धः ; मध्यो विष्ठादिलक्षितोऽशुद्धः ; अन्त्यो शुद्धधर्मोद्भवोऽत्यन्तशुद्धः, स च हेयत्वेन संसारगोचरो भवति ॥ - १४८५- १४९३- ॥
इति बीभत्सः
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नर्तनाध्यायः
स्वहेतूत्थः कृत्रिमश्च वित्रासितकमित्यपि ।
भयानक स्त्रिधा तत्र प्रथमोऽन्वर्थनामकः ।। १४८७ ॥ कृत्रिमस्तूत्तमकृतो गुर्वादीन् प्रत्यवास्तवः । विभीषिकार्थी बालादेर्वित्रासितकमिष्यते ।। १४८८ ॥ स्वभावाद्धातुदोषाद्वा वस्त्वत्यन्तामियात्मकम् । निषिद्धमतितृप्तेश्चारुचिरं मलमिश्रितम् ।। १४८९ ।। अनिष्टफलदानेन मुहुरुद्वेगदायकम् । स्याद्विभावोऽथानुभावा उत्कम्पो गात्रधूननम् ।। १४९० ।। संकोचनं च नासोष्ठहनूनां ष्ठीवनं तथा । पदन्यासोऽप्यनियतः पिधानं नासयोर्हशोः ।। १४९१ ॥ अथ संचारिणो मोहावेगापस्मारमृत्यवः । व्याधिश्व यत्र वीभत्सः स स्थायिन्या जुगुप्सया ।। १४९२ शुद्ध शुद्धोऽत्यन्तशुद्धो वीभत्सस्त्रिविधो मतः । आद्यौ रुधिरविष्ठादिशुद्धाशुद्धविभावजौ ।। १४९३ ॥
४३५
(क०) भयानकस्य त्रैविध्यमाह - स्वहेतूत्थ इत्यादि । विभीषिकार्य इति । बालादीन्प्रति भीषयितुं प्रयुक्तः ॥ १४८७-१४८८ ॥
(क०) अथ बीभत्सं लक्षयितुं तद्विभावानाह - स्वभावादित्यादि । अनुभावानाह — उत्कम्प इत्यादि । संचारिण आह— मोहेत्यादि । यत्रैते विभावादयो भवन्ति स स्थायिन्या जुगुप्सयोपलक्षितो बीभत्सो भवति ॥ १४८९ - १४९२ ॥
I
(क०) तस्य त्रेविध्यमाह — शुद्धोऽशुद्ध इत्यादि । आद्यौ शुद्धाशुद्धौ । रुधिर विष्ठादिशुद्धाशुद्धविभावजाविति । रुधिरादिः शुद्धो
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संगीतरत्नाकरः शुद्धधर्मोद्भवोऽत्यन्तशुद्धः संसारगोचरः । दुर्लभाभीष्टसंप्राप्तिः खेचराणां विलोकनम् ॥ १४९४ ॥ विमानानां च मायानामिन्द्रजालस्य दर्शनम् । प्रासादोपवनादेरप्यपूर्वस्यातिशायिनः ॥ १४९५ ॥ दृष्ट्वा तु पुरुषं विद्याशिल्पाद्यतिशयान्वितम् । एते यत्र विभावाः स्युरनुभावास्तु नेत्रयोः ।। १४९६ ।। विस्तारणं निर्निमेषमीक्षणं पुलकोद्गमः । साधुवादोल्लुकसने चानन्दाद्धारवस्तथा ॥ १४९७ ॥ गद्गदं वचनं स्वेदवेपथू हर्षगोचरौ। स्पर्शग्रहाश्रिताश्चानुभावाः संचारिणात्वमी ॥ १४९८ ॥ स्तम्भः स्वेदश्च रोमाञ्चः प्रलयो गद्गदं वचः । आवेगसंभ्रमौ जाड्यमिति यत्राथ विस्मयः ॥ १४९९ ॥ स्थायी तमद्भुतं प्राह श्रीमत्सोढलनन्दनः ।
विभावः । तस्माज्जातः शुद्धः । विष्ठादिरशुद्धो विभावः । तस्माज्जातो. ऽशद्धः । शुद्धधर्मोद्भव इति । शुद्धधर्मो निवृत्तिधर्मः । तत उद्तः । संसारगोचरः; हेयत्वेन संसारो विषयो यस्य स तथोक्तः । सोऽत्यन्तशुद्धो बीभत्सः ॥ १४९३, १४९३- ॥
इति बीभत्स: (क०) अथाद्भुतं लक्षयितुं तद्विभावानाह-दुर्लभाभीष्टसंपाप्तिरित्यादि । दुर्लभस्याभीष्टस्य वस्तुनः संप्राप्तिः । अनुभावानाह-नेत्रयोविस्तारणमित्यादि । साधुवादोल्लुकसने इति । साधुवादश्चोल्लुकसनं च ॥ -१४९४-१४९९- ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः माया मिथ्याप्रकटितं रूपादिपरिवर्तनम् ॥ १५०० ॥ असंभाव्यस्य सत्त्वस्य दर्शनं विविधौषधैः । हस्तलाघवतो मन्त्रैरिन्द्रजालं प्रकीर्तितम् ॥ १५०१ ॥ गात्रोभूननमालादादत्रोल्लुकसनं मतम् ।
(सु०) अथाद्भुतस्य विभावानाह-दुर्लभेति । यत्र दुर्लभाभीष्टसंप्राप्तिः, खेचरणां विमानानां च विलोकनम् , मायानामिन्द्रजालस्य दर्शनम् , प्रासादोपवनादेरप्यपूर्वातिशायिनो दर्शनम् ; विद्याशिल्पाद्यतिशयितस्य पुरुषस्य दर्शनमित्येते विभावाः; नेत्रयोः विस्तारणम् , पुलकोद्गमः, हाहारवः, गद्गदं वचनं मुखे, हर्षगौचरौ स्वेदवेपथू, स्पर्शग्रहणमित्येते अनुभावाः; स्तम्भः; स्वेदः, रोमाञ्चः, प्रलयः, गद्गदं वचः, आवेगसंभ्रमौ, जाड्यमित्येते संचारिणः; विस्मयः स्थायी च भवति । तत्राद्भुतः ॥ -१४९४-१४९९- ॥
(क०) मायाया लक्षणमाह-मायेत्यादि ॥ -१५०० ॥
(१०) मायां लक्षयति-मायेति | मिथ्याप्रकाशितरूपादिपरिवर्तनं मायेत्युच्यते । इन्द्रजालं लक्षयति-असंभाव्येति । यत्र विविधैः औषधैः हस्तलाघवेन मन्त्रैश्च असंभाव्यस्य सत्त्वस्य दर्शनं क्रियते, तदिन्द्रजालम् । गात्रोभूननमिति । आह्वादात् गात्रोभूननमुलकसनं भवति । किंचिदाकुञ्चिते नेत्रे स्पर्शः, स्कन्धकपोलयोः भ्रूक्षेपणम् । अनुभावास्तु नूना अभिनवा: स्पर्शग्रहाश्रिता भवन्ति । अद्भुतस्य द्वैविध्यं लक्षयति-आनन्दज इति । आनन्दजः, दिव्य इति । तत्र मनोरथावाप्त्या आनन्दजो भवति । दिव्यवस्तूद्भवेन दिव्यो भवति ॥ -१५००-१५०३- ॥
इत्यद्भुतः
(क०) इन्द्रजालस्य लक्षणमाह-असंभाव्यस्येत्यादि ॥१५०१॥
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४३८
संगीतरत्नाकरः किंचिदाकुञ्चिते नेत्रे स्पर्शः स्कन्धकपोलयोः ॥ १५०२ ॥ भ्रूक्षेपणं चानुभावा नूत्ना स्पर्शग्रहाश्रिताः । आनन्दजस्तथा दिव्यो द्विविधोऽभिदधेऽद्भुतः ॥ १५०३ ॥ आद्यो मनोरथावाप्तेर्दिव्यवस्तूद्भवोऽपरः । संसारभीरता दोषदर्शनं विषयेषु च ॥ १५०४ ।। योगिसङ्गो मुनीनां च श्रुताः शमदमक्षमाः । अध्यात्मविषया गोष्ठी तापसास्तापसाश्रमाः ॥ १५०५ ।। भूरिनिर्झरज्ञांकारि वारि तीर्थानि तैर्थिकाः । सरितः पुण्यपयसो नीवाराङ्कितसैकताः ॥ १५०६ ॥ शैवं च वैष्णवं क्षेत्रं विजनानि वनानि च । भक्ता भक्तिरसोन्मत्ताः शंकरस्य हरेरपि ॥ १५०७॥ विष्णुभक्तिमभावाद्या विभावा यत्र संमताः ।
(क०) उल्लुकसनस्य स्वरूपमाह-गात्रोद्भूननमित्यादि । स्पर्शग्रहाश्रितानुभावानाह-किंचिदाकुचिते इत्यादि । नूना अभिनवा रसान्तरेवण्यातयामा इत्यर्थः ॥ १५०२, १५०२ - ॥
(क०) अद्भुतस्य द्वैविध्यमाह-आनन्दज इत्यादि ॥ -१५०३, १५०३.॥
इत्यद्भुतः
(क०) अथ शान्तरसस्य विभावानाह-संसारभीरुतेत्यादि । श्रुता मुनीनां शमदमक्षमा यत्र विभावा इति वक्ष्यमाणेन संबन्धः । भूरिभिरिझांकारीति । भूरिश्वासौ निर्झरश्च तस्य झांकारः । झांकार
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सप्तमो नर्तनाध्यायः मन्दस्पन्दो बहिश्चित्तमानन्दाश्रुप्लुते दृशौ ॥ १५०८ ॥ रोमाञ्चकञ्चुका मूर्तिर्मोक्षशास्त्रार्थचिन्तनम् । ब्रह्मविद्योपदेशश्च संवादस्तत्त्वगोचरः ॥ १५०९ ॥ नासाग्रानुगते नेत्रे ज्ञानमुद्राप्रदर्शनम् । इत्यादयोऽनुभावाः स्युरिमे तु व्यभिचारिणः ।। १५१० ॥ उन्मादः परमानन्दरसपानसमुद्भवः । हर्षी धृतिः समीचीनो विवोधश्च स्मृतिर्मतिः॥ १५११॥ निर्वेदस्तत्त्ववोधोत्थः स्थायी शान्तो भवेदसौ ।
इत्यनुकरणम् । सोऽस्यास्तीति वारिणो विशेषणम् । भूरीति पृथक्पदं वा वारिविशेषणम् ॥ -१५०४-१५०७- ॥
(सु०) अथ शान्तस्य विभावानाह-संसारेति । यत्र संसारभीरुत्वम् ; विषयेषु दोषदर्शनम् , योगितङ्गः, शमदमक्षमाः, आध्यात्मविषयगोष्ठी:, तापसा:, तापसाश्रमाः, भूरिनिर्झरझांकारि वारि, तीर्थानि, तैर्थिकाः, परिशुद्धजलानि, नीवाराङ्कितसैकताः सरित:, शैवं वैष्णवं च क्षेत्रम् , विजनानि काननानि, विष्णुरुद्रभक्तियुक्ता जनाः, विष्णुभक्तिप्रभावाद्या विभावाः । अनुभावानाह-मन्देति । यत्र मन्दस्पन्दो बहिश्चित्तम् , आनन्दाश्रुपूर्ण नयने, रोमाञ्चसंचयकञ्चुका तनुः, मोक्षशास्त्रार्थचिन्तनम् , ब्रह्मविद्योपदेशनम् , तत्त्वविषयकसंवादः, नासाग्रन्यस्तनयनत्वम् , ज्ञानमुद्राप्रदर्शनमित्यादयोऽनुभावा: । व्यभिचारिण आह-- उन्माद इति । यत्र परमानन्दपरीवाहपानज उन्माद:, हर्षः, धृतिः, समीचीनविबोध:, स्मृतिः, मतिः, निर्वेद इत्येते व्याभिचारिणः । यत्र तत्त्वज्ञानजो निर्वेदश्च स्थायी भवति ; स शान्तः । मतान्तरेण स्थाय्यन्तरमाहअथवेति ॥ -१५०४-१५१२- ॥
(क०) अनुभावानाह-मन्दस्पन्द इत्यादि । व्यभिचारिण
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४४०
संगीतरत्नाकर:
रत्यादिभेदविधुरो विषयोपप्लवोज्झितः ।। १५१२ ॥ परानन्दघनैकात्मनिर्भासः शान्त उच्यते ।
स्वतो विषयवैमुख्यं शमः स्थाय्यथवा भवेत् ।। १५१३ ।। नाट्यनिर्वाहको मध्ये मध्ये संचारिसंभवः ।
आह- उन्माद इत्यादि । रसान्तरोन्मादादस्य वैलक्षण्यमाह -परमानन्दरसपानसमुद्भव इति । समोचीनो विवोध इति । विबोधस्य समीचीनत्वमात्मविषयत्वम् । स्मृतिमत्योरप्यत्र तादृशत्वं मन्तव्यम् । यत्र तत्त्वबोधोत्थो निर्वेदः स्थायी भवति, असौ शान्तो भवेत् ॥ - १५०८१५११- ॥
(क०) शान्तरसस्य स्वरूपमाह - रत्यादिभेदविधुर इत्यादि । तस्य बाह्यविषयालम्बनत्वाभावाद्रत्यादिभेदविधुरत्वं द्रष्टव्यम् । विषयोपलोज्झित इति । विषयकृत उपप्लवः परिच्छिन्नत्वादिकं तेनोज्झितः । अत एव परानन्दघनैकात्मा; परमानन्देन घनो निबिडः, एकोऽभिन्न आत्मा स्वरूपं यस्येति स तथोक्तः । निर्मासो ज्ञानम् ॥ - १५१२, १५१२- ॥
माह-
(क०) मतान्तरेण स्थाय्यन्तरमाह - अथ वेति । शमस्य स्वरूप- स्वतो विषयवैमुख्यमिति । स्वत इति । तात्कालिका तितृप्त्यादिनिमित्तान्तरराहित्येनेत्यर्थ । केवलशमस्या भिन्नरूपत्वादभिनय भेदाभावे कथं नाट्यरसत्वमित्यत्राह - नाट्यनिर्वाहक इत्यादि ॥-१५१३, १५१३-॥
(सु०) शमस्य स्वरूपमाह - स्वत इति । शान्तोचितानभिमयान् लक्षयति – स्वभाव इति । यस्मादेवं तस्मात् शान्तो नामात्मनः प्रकृति: स्वभाव इति । शान्तस्य स्वभावमाह - विहायेति ॥ - १९१३, १९१३ - ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः स्वभावाभिनयाः पूर्वमाङ्गिका ये निरूपिताः ॥ १५१४ ।। ते शान्तविषया यस्माच्छान्तः प्रकृतिरात्मनः। विहाय विषयौन्मुख्यं निजानन्दस्थितियतः ॥ १५१५ ॥ आत्मनः कथ्यते शान्तः स्वभावोऽसौ मतस्ततः। भक्ति स्नेहं तथा लौल्यं केचित्त्रीन् मन्वते रसान् ॥१५१६॥ श्रद्धार्द्रताभिलापांश्च स्थायिनस्तेषु ते विदुः ।
(क०) शान्तोचितानभिनयानाह– स्वभावाभिनयाः पूर्वमित्यादि। यस्मादेवमतः शान्तो नामात्मनः प्रकृतिः स्वभावः ॥-१५१४-१५१४॥
(क०) शान्तस्य स्वभावत्वं प्रतिपादयति-विहायेत्यादि । ॥ -१५१५-१५१५- ॥
इति शान्त: (क०) मतान्तरेण रसान्तराणि शङ्कते-भक्तिमित्यादि। श्रद्धाताभिलापानिति । भक्तिरसे श्रद्धा स्थायिनी । स्नेहरस आर्द्रता स्थायिनी। लौल्यरसेऽभिलाषः स्थायीति यथासंख्यं द्रष्टव्यम् || -१५१६-१५१६-॥
(सु०) मतान्तरेण शङ्कामाह-भक्तिमिति । भक्तिम् , स्नेहम् , लौल्यमिति त्रीन् रसान् केचिद् भेणु: । आहुश्च तेषां क्रमेण श्रद्धा, आर्द्रता, अभिलाषश्च स्थायीति । तदूषयति-तदसदिति । हि यस्मात् भक्तिस्नेहौ नृगोचरौ । तयोः स्थायित्वमाह-नृनार्योरिति । नृनार्योः स्त्रीपुंसयोः, परस्परविषयत्वे भक्तिस्नेहयो रतिभेदत्वेनात्र शृङ्गार एव स्थायिनौ मतौ । अतो भक्तिस्नेहयोरपि रतावन्तर्भावान्न पृथग्रसत्वमिति । लौल्यस्य हासेऽन्तर्भावमाह-अयुक्तेति । अयुक्तविषया असंभाव्यमानवस्तुविषया तृष्णा लौल्यमित्युच्यते । तद् हास्यकारणं भवति । अतो रसा नवैवेति भरतमुनिना संप्रधारितम् ॥ -१५१६-१५१८-॥
इति शान्तः
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४४२
संगीतरनाकरः तदसदतिभेदौ हि भक्तिस्नेहौ नृगोचरौ ॥ १५१७ ॥ व्यभिचारित्वमनयोनार्योः स्थायिनौ तु तौ । अयुक्तविषया तृष्णा लौल्यं तद्धास्यकारणम् ॥ १५१८ ॥ अतो रसा नवैवेति मुनिना संप्रधारितम् ।
(क०) तद्रूषयति-तदसदित्यादि । हि यस्मात्कारणानगोचरौ केवलपुरुषविषयौ परस्परं पुरुषविषयावित्यर्थः । तादृशौ । भक्तिस्नेही रतिभेदाविति । तयोर्भावत्वमेवेत्यर्थः । भावत्वेऽपि स्थायित्वमिति यावत् । किं त्वनयोर्भक्तिस्नेहयो रतिभेदत्वेऽपि व्यभिचारित्वमेव । यथाह काव्यप्रकाशकार:-" रतिर्देवादिविषया व्यभिचारी तथाञ्जितः । भावः प्रोक्तः" (काव्य०प्र०४-३५) इति । तर्हि भक्तिस्नेहयोः कुत्र स्थायित्वमित्याकाङ्क्षायामाह-नृनार्योरिति । ना च नारी च नृनायौं । तयोः परस्परविषयत्वे भक्तिनेहयो रतिभेदत्वेन शृङ्गार एव स्थायिनौ मतौ। यथा रामभद्रे सीताया भक्तिः । तस्यां च तस्य स्नेहश्च वर्ण्यते कविभिः । अतः तौ तयोः स्थायिनावेव रतिभेदतया मन्तव्यौ । अतो भक्तिस्नेहयोरपि रतावन्तर्भावान्न पृथप्रसत्वमिति भावः ।। -१५१७, १५१७. ॥
(क०) लौल्यस्यापि हासेऽन्तर्भाव वक्तुं तत्स्वरूपमाह-अयुक्तविषयेत्यादि । अयुक्तविषया; असंभाव्यमानवस्तुविषया तृष्णा लौल्यमित्युच्यते । तत् । लौल्यं हास्यकारणं हास्यस्य विभावो भवति । यथा सीताविषया रावणस्य तृष्णा कविभिर्वर्णिता सती श्रोतृणां हास्यं जनयति । अतः तस्या न पृथग्रसत्वमिति भावः । निगमयति-अतो रसा नवैवेति । तत्राचार्यसंमतिमाह-इति मुनिना संधारितमिति ॥ -१५१८, १५१८॥
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aar नर्तनाध्याय:
४४३
रत्यादयः स्थायिनश्चेत्स्युर्भूयिष्ठविभावजाः ।। १५१९ ॥ स्तोकैर्विभावैरुत्पन्नास्त एव व्यभिचारिणः । रसान्तरेष्वपि तदा यथायोगं भवन्ति ते ।। १५२० ॥ यथा हि हासः शृङ्गारे रतिः शान्ते च दृश्यते । वीरे क्रोधो भयं शोके जुगुप्सा च भयानके ।। १५२१ ॥
( क ० ) रत्यादीनां स्थायित्वे संचारित्वे च व्यवस्थापकं कारणभेदं दर्शयति — रत्यादय इत्यादि । रत्यादयो नवापि । भूयिष्ठविभावजाचेदिति । भूयिष्ठाश्च ते विभावाश्च आलम्बनोद्दीपनरूपाः । तैर्जाताश्चेस्थायिनः स्युः । दृढसंस्कारवत्तया स्थिरा भवन्ति । त एव रत्यादयः स्तोकैरल्पैर्विभावैरुत्पन्नाश्चेत् । अभिभूत संस्कारवत्तया व्यभिचारिणो भवन्ति । क्षणिका भवन्तीत्यर्थः । रसान्तरेष्वित्यादि । ते रत्यादयः । तदा अल्पविभावजत्वेन व्यभिचारित्वे । रसान्तरेषु रत्यादीनां स्थायित्वे प्रतिनियतेभ्यः शृङ्गारादिभ्योऽन्येषु । यथायोगं योगमनतिक्रम्येत्यर्थः । यस्मिन् रसे रत्यादिषु यः संचारी भवितुं योग्यः, स एव तत्र वर्णनीय इत्यर्थः ॥ ॥ - १५१९, १५२० ॥
(सु० ) रत्यादीनां स्थायित्वे संचारित्वे च व्यवस्थापकमाह - रत्यादय इति । भूयिष्ठाः विभावा आलम्बनोद्दीपनरूपाः, तैर्जाताश्चेत् स्थायिनो भवन्ति । तएव रत्यादयः स्तोकः अल्पैः विभावैर्जाताश्चेत् व्यभिचारिणो भवन्ति । ते रत्यादयः रसान्तरेष्वपि यथायोगं भवन्ति । उक्तमर्थं विवृणोति - यथा हीति । अन्यत्सुगमम् ॥ - १५१९ - १५२२ ॥
इति नवरसलक्षणम्
(क) यथायोगशब्देनोक्तमर्थं विवृणोति -- यथा हीत्यादि उत्साहविस्मयौ सर्वरसेषु व्यभिचारिणविति । उत्साहस्य वीर एव स्थायित्वम् ।
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४४४
संगीतरत्नाकरः उत्साहविस्मयौ सर्वरसेषु व्यभिचारिणौ । शमः सर्वरसेष्वस्ति स्थैर्याचव्यभिचार्यसौ ॥ १५२२ ॥ अथ व्यभिचारिणां निर्वेदादीनां हि लक्षणम् । आक्रोशनमधिक्षेपो व्याधिक्रोधौ च ताडनम् ॥ १५२३ ॥ दारिद्रयमिष्टविरहः परद्धेश्च दर्शनम् । नीचेष्विति विभावाः स्युरुत्तमे स्वपमाननम् ॥ १५२४ ॥ तत्त्वबोधश्च यत्र स्यादनुभावास्तु रोदनम् ।
इतरेष्वष्टसु योग्यतया व्यभिचारित्वम् । तथा विस्मयस्याभूत एव स्थायिस्वमितरेषु व्यभिचारित्वमिति सर्वशब्दार्थः संकोचनीयः । शमः सर्वरसेष्वस्तीति । अयमर्थः-लोके शृङ्गारादिप्वष्टसु मध्ये यं कंचन रसमनुभवत एव पुंसो जन्मान्तरसुकृत विशेषवशाच्छम उत्पद्यत इति तत्तद्रससंबन्धाच्छ. मस्य सर्वरसेप्वस्तित्वमिति । ततः शान्ते शमः स्थायी भवतु । अन्यत्र व्यभिचारी भवत्वित्याशङ्कायामाह-स्थैर्याचव्यभिचार्यसाविति । असौ शमस्तु स्वतो विषयवैमुख्यात्मकः सन्नुत्पन्नः स्थैर्यात्पुनर्विषयाभिलाषाभावेन वासनायाः स्थिरत्वात्कदाचिदव्यभिचार्येव । शान्ते नित्यं स्थाय्यवेत्यर्थः । यस्तु प्रथममुत्पन्नोऽपि पुनरपि मनसो विषयाभिमुखतया निवर्तते, स तूक्तलक्षणः शम एव न भवति । किं तु शमाभास एव । अत्र स्वरूपसत एव रत्यादेः स्थायित्वं संचारित्वं च विचार्यते, न स्वाभासस्येति सर्वमवदातम् ॥ १५२१, १५२२ ।।
इति नवरसलक्षणम्
(क०) पूर्व रसलक्षणे रसं प्रति निमित्तकारणत्वेन विभावा उक्ताः। रसस्य कार्यत्वेनानुभावा अप्युक्ताः । रसोपादानकारणत्वेन स्थायि
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सप्तमो नर्तनाध्यायः निश्वासोच्छसिते दीनमुखता संधारणम् ॥ १५२५ ॥ इत्यादयः स निर्वेदो भावः सूरिभिरिष्यते ।
___इति निर्वेदः व्याधिर्वान्तिविरेकश्वोपवासो नियमस्तपः ॥ १५२६ ॥ मनस्तापोरतिपानातिव्यायामसुरतानि च ।
निद्राछेदोऽध्वगमनं क्षुत्पिपासादयस्तथा ॥ १५२७ ॥ नोऽपि लक्षिताः । संचारिणस्तु रससहकारितया नाममात्रेणोद्दिष्टाः ; न तु प्रत्येकं लक्षिता इतीदानी निर्वेदादीनां विशेषलक्षणानि वक्तुमाह-अथेति । निर्वेदादीनां भावानां रसवन्मनोविकारविशेषरूपतया तत्त द्विभावानुभावकथा नपूर्वकं लक्षयति-'आक्रोशनमधिक्षेपः' इत्यारभ्य 'सस्तगात्रताक्षिनिमीलनम्' (१६४२) इत्यन्तेन ग्रन्थसंदर्भेण ॥ १५२३, १५२४- ।।
(सु०) अथ व्यभिचारिणो लक्ष्यति---.अथेति । तत्र निर्वेदं लक्षयतिआक्रोशनमिति । यत्र आक्रोशनम् , अधिक्षेप ; व्याधिः, क्रोधः, ताडनम् , दारिद्रयम् , इष्टवियोगः, परकीयवृद्धिदर्शनमित्येते नीचेषु विभावाः । उत्तमे तु अवमाननतत्त्वबोधौ विभावौ, रोदनम् , नि:श्वासोसिते, दीनमुखत्वम् , संप्रधारणमित्याद्या अनुभावाश्च भवन्ति, स निवेदः ॥ १५२३-१५२५- ॥
इति निर्वेदः (१) (क०) निर्वेदानुभावेपु-संप्रधारणमिति । इत्यादय इत्यत्रादिशब्देन लोकसिद्धा अन्येऽप्यनुभावा ग्राह्याः ॥ -१५२५, १५२५- ॥
इति निर्वेदः
(सु०) ग्लानिं लक्षयति-व्याधिरिति । यत्र व्याधिः, वान्तिः, विरेकः, उपवासः, नियमः, तपः, मनस्तापः, अतिपानातिव्यायामसुरतानि, निद्राच्छेदः,
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संगीतरत्नाकरः विभावाः स्युरथ सस्ताधरनेत्रकपोलता । मन्दावुत्क्षेपनिक्षेपौ पादयोस्तनुगात्रता ॥ १५२८ । विवर्णशिथिलाङ्गत्वं कम्पानुत्साहतादयः । यत्र भावेऽनुभावाः स्युः सा ग्लानिरभिधीयते ॥ १५२९ ॥
इति ग्लानिः चौर्यराजापराधादेरकार्याद्ग्रहणं नृणाम् । अन्येषु तत्सहायेषु विभावश्चेदथात्मनः ।। १५३० ।। अन्येनादर्शने यत्र पार्श्वयोर्मुहुरीक्षणम् । कण्ठोष्ठमुखशोषश्च जिह्वायाः परिलेहनम् ।। १५३१ ।। वेपथुर्मुखवैवर्ण्य गुरुविहलजिह्वता । उन्मुखेक्षणमित्यादिरनुभावगणो यदा ।। १५३२ ॥ नीचेषूत्तममध्येषु नरेषु मृदुचेष्टितैः ।
अध्वगमनम् , क्षुत्पिपासादयश्च विभावा स्युः । तथा स्रस्ताधरनेत्रकपोलता, पादोत्क्षेपविक्षेपो, विवर्णशिथिलगत्वम् , कम्पः, अनुत्साह इत्याद्या अनुभावा भवन्ति, स ग्लानिः ॥ -१५२६-१५२९ ॥
इति ग्लानि: (२) (क०) शङ्कालक्षणे-चौर्येत्यादि । चौर्यराजापराधादेरकार्याखेतोः नणां चौर्यादिकर्तृणां ग्रहणं तत्सहायेप्वन्येषत्पद्यमानायाः शङ्काया विभावश्वेत्तदा । तन्निष्ठानुभावानाह–अथात्मन इत्यादि । यदैवमादिरनुभावगणो भवति, तदानीं तेष्वसंदेहरूपा शङ्का भवेदित्यन्वयः। सोत्तमानामिति । सा शङ्कोत्तमानां पुंसां स्त्रीणामपि भीरुत्वाद्भीरुस्वभावतया । भयकृदिति । भयानकस्य विभावो भवतीत्यर्थः । शिष्टं स्पष्टम् ॥ १५३०-१५३३ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायः सोत्तमानामपि स्त्रीणां भीरुत्वाद्भयकृद्भवेत् ॥ १५३३ ॥ प्रियविप्रियजा शङ्का शृङ्गारे शाह्मिणोदिता। चौर्यराजापराधादिप्रभवा तु भयानके ॥ १५३४ ॥ परस्था स्वसमुत्था च द्वेधा शङ्का निगद्यते । नृषु भीरुस्वभवेषु तरलालोकनादिभिः ॥ १५३५ ।। सापराधत्वशङ्का यान्येषां सा परसंस्थिता । स्वसमुस्था परे ज्ञास्यन्त्यपराधं ममेत्यसौ ॥ १५३६ ॥ स्वशङ्कायां परज्ञानशङ्का या स्वसमुत्थिता। . सहभावोऽवहित्थेन शङ्काया दृश्यते रसे ।। १५३७ ॥
इति शहा नृपापराधोऽसदोषकीर्तनं चोपधारणम् । विभावाः स्युरथो बन्धो वधस्ताउनभर्त्सने ॥ १५३८ ॥
(सु०) शंका लक्षयति—प्रियेति । यत्र चौर्यराजापराधादिकार्येण ग्रहणं विभावः, परैः तस्या दर्शने यत्नः, पार्श्वद्वये मुहुर्वीक्षणम् , कण्ठोष्ठमुखशोषणम् , जिह्वापरिलेहनम् , वेपथुः, मुखवैवर्ण्यम् , गुरुविह्वलजिह्वता, उन्मुखेक्षणमित्याद्या अनुभावा भवन्ति । सा शङ्का । नीचे अनर्थभावा शङ्का उत्तमानां स्त्रीणामपि सा भवत्येव । शृङ्गारे प्रियविप्रियशङ्का । भयानके चौर्यराजापराधजा। शङ्का द्विविधा । परस्था स्वसमुत्था चेति । भीरुस्वभावेषु मानुषेषु तरलोद्वीक्षणादिना सापराधत्वशङ्कया परेषां जाता शङ्का परस्था । ममापराधमन्ये ज्ञास्यन्तीति या स्वसमुत्थिता शङ्का सा द्वितीया ॥ १५३०-१५३७ ॥
इति शङ्का (३)
(सु०) औन्यं लक्षयति-नृपेति । यत्र राजापराध:, असदोषकीर्तनम् ,
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संगीतरनाकरः एते यत्रानुभावास्तदौम्यं निर्दयतात्मकम् ।
इत्यौम्यम् (४) चिन्तौत्सुक्यान्मनस्तापादौर्गत्याच्च विभावतः ॥ १५३९ ॥ अनुभावात्तु शिरसो व्यारत्तेर्गात्रगौरवात् । देहोपस्करणत्यागादैन्यं भावं विभावयेत् ॥ १५४० ॥
इति तैन्यम् (५) नानापराधो विद्वेषः परस्यैश्वर्यसंपदाम् । सौभाग्यमेधाविद्यादेर्दर्शनं च विभावकम् ॥ १५४१ ॥ अनुभावास्त्वमादिदोपोक्तिर्गुणनिहवः । गुणस्य दोपीकरणमप्रेक्षणमधोमुखम् ।। १५४२ ॥ अवज्ञाभुकुटीत्याद्या यत्रासूयाम विदुः ।
इत्यस्या (६) चोरधारणमित्येते विभावाः । बन्धः, वधः, ताडनम् , भर्त्सनमित्येते अनुभावा भवन्ति, तदौम्यम् ॥ १५३८, १५३८- ॥
इत्यौग्यम् (४) (सु०) दैन्यं लक्षयति-चिन्तेति । यत्र चिन्तीत्सुक्यमनस्तापदौर्गत्यानि विभावाः, शिरो व्यावर्तनगात्रगौरवदेहोपस्करणत्यागा इत्येते अनुभावा भवन्ति, तदन्यम् ॥ -१५३९, १५४० ॥
इति देव्यम् (५) (सु०) असूयां लक्षयति-नानापराध इति । यत्र नानापराधः, विद्वेषः परैश्वर्यसंपत्सौभाग्यविद्यामेधादिदर्शनं च विभावः । अमर्षादिदोषेणोक्तगुणानां निवः, गुणस्य दोषीकरणम , अप्रेक्षणम् , अवज्ञाभ्रुकुटी इत्याद्या अनुभावा भवन्ति, सा असूया ॥ १५४१-१५४२- ॥
इत्यस्या (६) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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सप्तमो नर्तनाध्यायः मद्यपानं विभावोऽयानुभावाः पञ्च येत्र च ॥ १५४३ ॥ शयनं हसनं गानं रोदनं परुवोक्तयः। उत्तमे पुरुषे स्वापो हासगाने तु मध्यमे ॥ १५४४ ॥ रोदनं परुषोक्तिश्च भवतः पुरुषेऽधमे । स स्यान्मदः स च त्रेधा तरुणो मध्यमोऽधमः ।। १५४५ ।। तरुणोऽल्पोऽधमस्त्वत्र प्रद्धोऽधमसंश्रयात् । सर्वेषां तरुणः प्रोक्तो मध्यमो मध्यनीचयोः ॥ १५४६ ॥ पुमांसोऽधमसत्त्वा ये तेषामेवाघमो मदः। अव्यक्तासंगतैर्वाक्यै रोमाञ्चनिचयैस्तनोः ॥ १५४७ ॥ सुकुमारस्खलद्गत्याभिनयेत्तरुणं मदम् । सस्तव्याकुलविक्षिप्तौ भुजौ स्खलितपूर्णिते ॥ १५४८ ॥ नेत्रे गतिश्च कुटिलानुभावा मध्यमे मदे। गतिभङ्गः स्मृते शो हिका छर्दिः कफस्नुतिः ॥ १५४९ ॥ गुर्वी चिहा ष्ठीवनं चानुभावाः स्युर्मदेऽधमे । रङ्गे विधाय पानं तु नाटयेन्मदवर्धनम् ।। १५५० ॥ पीत्वा रङ्गप्रवेशे तु मदर॑ण्याय बुद्धिमान् । हर्षशोकभयोपायान्युगपदर्शयेदहून् ॥ १५५१ ।।
इति मदः (७) (सु०) मदं लक्षयति-मद्यपानमिति । यत्र मद्यपानं विभावः, शयनं, हसनं, गानं, रोदनं, परुषोक्तिरित्येते उत्तमपुरुषेऽनुभावा: ; स्वापः, हास:, गानं च मध्यमपुरुषेऽनुभावाः; रोदनं, परुषोक्तिश्च अधमे पुरुषेऽनुभावौ भवतः, स मदः । सोऽपि त्रिविधः । तरुणः, मध्यमः, अधम इति । तरुणोऽल्प: अधमस्त्वत्र अधमसंश्रयो प्रवृद्धः । सर्वेषां तरुणः प्रोक्तः । मध्यनीचयोः मध्यमः ।
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संगीतरत्नाकर:
अध्वव्यायामसेवाद्यैर्विभावैरनुभावकैः । गात्रसंवाहनैरास्यसंकोचैरङ्गमोटनैः ।। १५५२ ।। विश्वासैर्नृम्भितैर्मन्दैः पादक्षेपैः श्रमो यतः ।
इति श्रमः (८) विभावा यत्र दारिद्र्यमैश्वर्य भ्रंशनं तथा ।। १५५३ ॥ इष्टार्थापतिश्चाथ श्वासोच्छ्रासावधोमुखम् । संतापः स्मरणं ध्यानं कायै देहानुपस्कृतिः ।। १५५४ ॥ अधृतिश्वानुभावाः स्युः सा चिन्ता परिकीर्तिता । वितर्कोऽस्याः क्षणे पूर्वे पाश्चात्ये वोपजायते ।। १५५५ ।। इति चिन्ता ( ९ )
अधमसत्त्वा ये पुमांस:, तेषामेवाधमो मदः । अव्यक्तासङ्गतैः वाक्यैः, तनोः रोमाञ्चनिचयैः, सुकुमारेण स्खलद्गतिरित्याद्या तरुणे मदेऽनुभावा भवन्ति । स्रस्तौ व्याकुलौ, विक्षिप्तौ स्खलितौ, घूर्णितौ भुजौ, कुटिले नेत्रे, कुटिला गतिश्चेत्याद्या मध्यममदेऽनुभावा भवन्ति । गतिभङ्गः, स्मृतिनाश:, छर्दिः, जिह्वाष्ठीवनमित्याद्या अधमे मदेऽनुभावा भवन्ति । मदवर्धनं मधु पीत्वा रऽभिनयेत् । ततो रङ्गं प्रविश्य मदक्षयाय हर्षशोकभयोपायान् युगपत्प्रदर्शयेत् ॥ ॥ -१५४३-१५५१ ॥
इति मदः (७)
(सु० ) श्रमं लक्षयति - अध्वेति । यत्र अध्वव्यायामसेवादिकं विभावः । गात्रसंवाहनं, मुखसंकोचनम्, अङ्गमोटनं, नि:श्वास:, जृम्भा, पादोत्क्षेप इत्येते अनुभावाः, स श्रमः ॥ १५५२, १५५२- ॥
इति श्रमः (८)
(सु० ) चिन्तां लक्षयति-विभावा इति । यत्र दारिद्रयम्, ऐश्वर्यभ्रंशनम्, इष्टार्थापहरणम्, निःश्वासोच्छ्वासावित्येते विभावा: ; संतापः, स्मरणं,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः विवेकः श्रुतिसंपत्तिगुरुभक्तिस्तपस्विता । एते विषयभावेन करणत्वेन च स्थिताः ॥ १५५६ ॥ इष्टाधिकानामिष्टानां लाभस्तु विषयत्वतः । क्रीडाकरणभावेन विभावा यत्र संमताः ॥ १५५७ ॥ प्राप्तभाग्योपभोगस्य त्वप्राप्तातीतभोगयोः । जीर्णे नष्टे चाविषादो न तु शोचनमित्यपि ॥ १५५८ ॥ अनुभावद्वयं यत्र धृति तां ब्रवते बुधाः।
इति धतिः (१०) पश्चिमाहरे रात्रः स्वास्थ्यं निद्राक्षयस्तथा ॥ १५५९ ॥ ध्यानं च मुहुरभ्यासः सदृशः श्रुतिदर्शने । एते यत्र विभावाः स्युरनुभावास्तु कम्पितम् ॥ १५६० ॥
उद्वाहितं च शीर्षस्यासदृशस्यावलोकनम् । ध्यानं, कार्य, देहानुपस्कृतिः, अतिरित्याद्या अनुभावाः ; सा चिन्ता । अस्याः चिन्तायाः वितर्कः पूर्वक्षणे उत्तरक्षणे वा उपजायते ॥ -१९५३-१५५५ ॥
___ इति चिन्ता (९) (१०) धृति लक्षयति-विवेक इति । यत्र विवेकः श्रुतिसंपत्तिः, गुरुभक्तिः, तपस्वित्वमित्येते विषयत्वेन, करुणत्वेन च वर्तन्ते । इष्टलाभस्तु विषयत्वेन क्रीडाकरणत्वेन च विभावा भवन्ति । प्राप्तभोग्योपभोगस्य अप्राप्तातीतभोगयोः अविषादेन स्थितिरित्याद्या: अनुभावाः; सा धृतिः ॥ १५५६-१९५८-॥
___इति धृतिः (१०) (सु०) स्मृति लक्षयति-यत्र, रात्रे: पश्चिमाहरे स्वास्थ्यं यथातथा निद्राक्षयः, तथा ध्यानम् , मुहुर्मुहुरभ्यासश्च, सदृशः श्रुतिदर्शन च इत्येते विभावाः । कम्पितमुद्वाहितं च शिरः, तादृशावलोकनम्, भ्रूनमनं, स्मरणं
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४५२
संगीतरत्नोकरः धूनतिश्च स्मृतिः सा स्यात्सुखदुःखप्रदायिनाम् ।। १५६१ ॥ चिरविस्मृतवस्तूनां स्मरणं स्मृतिरुच्यते ।
इति स्मृतिः (११) गुरुव्यतिक्रमोऽवज्ञा कृते त्यागेऽनुतापिता ॥ १५६२ ॥ प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहो विभावैरेभिरुद्गता । मुखावनमनं गूढवचनं च विचिन्तनम् ॥ १५६३ ॥ वस्त्राङ्गुलीयकस्पर्शो नखानां कर्तनं मुहुः । भुवि लेखनामित्याद्यैर्वीडाभावोऽनुभाव्यते ॥ १५६४ ॥ वीडानुतापशुचिभिदृष्टा कार्ये कृते सति ।
इति ब्रीडा (१२) देवजोपबादेहपीडेटविरहादिकम् ॥ १५६५ ।।
मर्मप्रहारोऽप्यस्थाने घोरचोरादिजं भयम् । चानुभावः, सा स्मृतिः । अथवा सुखदुःखप्रदायिनां चिरविस्मृतवस्तूनां स्मरण स्मृतिरिति ॥-१९९९-१५६१- ॥
इति स्मृति: (११) (१०) ब्रीडां लक्षयति-गुर्विति । यत्र, गुरुव्यतिक्रमणम् , अवज्ञात्यागानन्तरमनुतापः, प्रतिज्ञातानिर्वहणमित्येते विभावाः; मुखावनतिः, गूढवचनम् , विचिन्तनं च, वस्त्रागुलीयकस्पर्शनम् , मुहुर्नखकर्तनम् , भुवि लेखनमित्याद्या अनुभावाः ; सा ब्रीडा ॥ -१५६२-१५६४-॥
इति ग्रीडा (१२) (सु०) मोहं लक्षयति-देवजेति । यत्र, दैवतोपहवः, देहपीडा, इष्टविरहादिकम् , मर्मप्रहरणम् , अस्थाने घोरचोरादिजा भीतिः ; तत्प्रतीकार
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
तत्प्रतीकारशून्यस्य वैरानुस्मरणादयः ।। १५६६ ।। विभावाः सन्ति यत्राथ पतनं देहघूर्णनम् । हृदयस्यानवस्थानमिन्द्रियाणामचेष्टता ।। १५६७ ।। इत्यादयोऽनुभावास्तं मोहमाहुर्मनीषिणः । पश्यतो भीतिहेतुं तत्प्रतीकारमपश्यतः ।। १५६८ ॥ कार्यानिश्चयिनी चित्तवृत्तिर्मोहोऽभिधीयते ।
इति मोहः (१३)
अतितृप्तिः स्वभावश्च गर्भव्याधिश्रमादयः ।। १५६९ ॥ विभावा अनुभावास्तु निद्वातन्द्रासनाशनात् । ऋते सर्वक्रियाद्वेषो यत्रालस्यं तदुच्यते ।। १५७० ॥
४५३
इत्यालस्यम् (१४)
अमर्षप्रातिकूल्येर्ण्यारागद्वेषाश्च मत्सरः ।'
इति यत्र विभावाः स्युरनुभावास्तु भर्त्सनम् ।। १५७१ ॥ वाक्पारुष्यं प्रहारश्च ताडनं वधबन्धने ।
शून्यस्य वैरस्मरणादिरित्येते विभावाः; पतनं, देहघूर्णनं, हृदयानवस्थिति:, इन्द्रियाणां निश्चेष्टत्वमित्याद्या अनुभावा भवन्ति ; स मोहः ॥ - १९६९ - १९६८-॥ इति मोह : (१३)
(सु० ) आलस्यं लक्षयति - अतितृप्तिरिति । यत्र, अतितृप्तिस्वभावगर्भव्याधिश्रमाद्याः विभावाः, निद्रातन्द्रासर्व क्रियाद्वेषादयोऽनुभावाश्च भवन्ति ; तदालस्यम् ॥ - १९६९, १५६- ॥
इत्यालस्यम् (१४)
(सु०) चापलं लक्षयति- अमर्षेति । यत्र, अमर्षः, प्रातिकूल्यं,
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४५४
संगीतरनाकरः तचापलमनालोच्याकार्यकारित्वमिष्यते ॥ १५७२ ॥
इति चापलम् (१५) देवभर्तृगुरुस्वामिप्रसादः प्रियसंगमः । मनोरथाप्तिरपाप्यमनोरथधनागमः ॥ १५७३ ॥ समुत्पत्तिश्च पुत्रादेविभावो यत्र जायते । नेत्रवक्त्रप्रसादश्च प्रियोक्तिः पुलकोद्गमः ।। १५७४ ।। अश्रुस्वेदादयश्चानुभावा हर्ष तमादिशेत् ।
इति हर्षः (१६) विद्याधनबलैश्वर्याधिकैर्मध्येसभं नृभिः ॥ १५७५ ॥ अधिक्षेपादपर्षः स्यात्मतीकारस्पृहात्मकः । नृणामुत्साहिनामेव स स्यात्तस्यानुभावकः ॥ १५७६ ॥
स्वेदोऽधोमुखता मूर्धकम्पो निर्लक्षचित्तता। रागद्वेषमत्सराश्च विभावा भवन्ति ; भत्सनवाक्पारुष्यप्रहारताडनवधबन्धनान्यनुभावाश्च भवन्ति ; तच्चापलम् ।। १५७१, १५७२ ॥
इति चापलम् (१५) (मु०) हर्षे लक्षयति--देवेति । यत्र, देवभर्तृगुरुस्वामिप्रसादसंपत्तिः, प्रियसङ्गमः, मनोरथप्राप्तिः, अप्राप्यधनप्राप्तिः, पुत्रादिना हर्षोत्पत्तिश्च विभावाः; नयनमुखप्रसादः, प्रियवचनम् , पुलकोत्पत्तिः, अश्रुस्वेदादिकं चानुभावाश्च भवन्ति; स हर्षः ॥ १५७३-१९७४- ॥
इति हर्षः (१६) (१०) अमर्ष लक्षयति-विद्येति । यत्र, विद्याधनैश्वर्याधिकैः अधिक्षेपादमर्षो भवति । स तु प्रतीकारस्पृहात्मकः, उत्साहिनां नृणामेव विभावको
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सप्तमो नर्तनाध्यायः उपायान्वेषणं चित्तोत्साहस्तस्यानुमावकाः १५७७ ॥
इत्यमर्ष: (१७) सत्युपायेऽपि कार्यस्यासिद्धिदुर्दैवकारिता । नृपापराधश्चौर्यादिग्रहणं च विभावकाः ॥ १५७८ ।। सहायान्वेषणोपायचिन्तने विमनस्कता । उत्तमे मध्यमे चानुभावाश्चोत्साहसंश्रयाः ॥ १५७९ ।। अधमे धावनं ध्यानं मुखशोपविलोकने । निद्रा निःश्वसितं सकलेहनं चानुभावकाः ।। १५८० ।। सन्ति यत्र विषादोऽसौ भावो भावविदां मतः ।
____ इति विषादः (१८) देव गैस्तथा यक्षैः पिशाचैर्ब्रह्मराक्षसैः ॥ १५८१ ॥ भूनाद्यैश्च ग्रहैरुपैरावेशस्तत्स्मृतिस्तथा । अशुचेश्चिरसंस्थानं शून्यागारस्य सेवनम् ।। १५८२ ॥
भवति । स्वेदः, अधोमुखता, मूर्धकम्पः, निर्लक्षचित्तता, उपायान्वेषणम्, चित्तोत्साहनमित्येते अनुभावा भवन्ति ; सोऽमर्षः ॥ -१९७५-१५७७ ॥
इत्यमर्षः (१७) (सु०) विषादं लक्षयति-सत्युपायेति । यत्र, उपाये सत्यप कार्यसिद्धिः, नृपापराध इत्याद्या विभावाः । सहायान्वेषणम , उपायचिन्तनमित्याद्या उत्तममध्यमयोरनुभावः ; धावनं मुखशोषणं ध्यानं विलोकनं निद्रा नि:श्वसित सक्कलेहनं चेत्येते अनुभावा अधमे भवन्ति ; स विषादः ॥ १५७८-१५८० ॥
इति विषादः (१८) (सु०) अपस्मार लक्षयति-देवैरिति । यत्र, देवनागयक्षपिशाचब्रह्म
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संगीतरत्नाकर:
धातुवैषम्यमित्याद्यैर्विभावैरनुभावकैः । स्पन्दनं कम्पनिःश्वासौ धावनं पतनं भुवि ।। १५८३ ॥ जिह्वाया लेहनं स्वेद: स्तम्भो वक्त्रं च फेनिलम् । निःसंज्ञतेत्यादिभिश्वापस्मारमुपलक्षयेत् ।। १५८४ ॥
इत्यपस्मारः (१९)
कार्याविवेक जडता पश्यतः शृण्वतोऽपि वा । तद्विभावाः प्रियानिष्टदर्शनश्रवणे रुजा ।। १५८५ । अनुभावास्तु चैवास्याः प्रतिवादावभाषणे । इष्टानिष्टापरिज्ञानं चानिमेषेक्षणादयः ।। १५८६ ।। सा पूर्व परतो वा स्यान्मोहादिति विदां मतम् । इति जडता ( २० )
यत्र विप्रतिपत्तिः स्यात्संशयोऽपि विमर्शनम् ।। १५८७ ॥
राक्षसभूतायुप्रप्रहावेशः, तत्स्मृतिः, शून्यागारस्य सेवनम, धातूनामिन्द्रियाणां वैषम्यमित्याद्या विभावाः; स्पन्दनं, कम्पनिःश्वासौ, धावनम्, भुवि पतनम्, जिह्वाया लेहनम्, स्वेदः, स्तम्भः, फेनिलं वक्त्रं च, निःसंज्ञतेत्याद्या अनुभावा: ; सोऽपस्मारः ॥ - १५८१-१५८४ ॥
इत्यपस्मार : (१९)
(मु०) जडतां लक्षयति - कार्याविवेक इति । पश्यतः, शृण्वतोऽपि कार्याविवेकता, जाड्यम्, प्रियानिष्टदर्शनश्रवणादयो विभावा यत्र भवन्ति ; इष्टानिष्टपरिज्ञाननिर्निमेषप्रेक्षणाद्या अनुभावाः; सा जडता । सापि मोहात् पूर्वे परतो वा स्यादिति । १९८५ - १९८६- ॥
इति जडता (२०)
( सु० ) वितर्क लक्षयति-यत्रेति । यत्र, विप्रतिपत्तिविमर्शनसाधक
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सप्तमो नर्तनाध्यायः पक्षयोरुभयोरुक्ते माने साधकबाधके । विभावाः स्युरिमे चानुभावाः शीर्पस्य कम्पनम् ॥ १५८८ ॥ भ्रक्षेपश्चतुरो हस्तस्तं वितर्क प्रचक्षते । यो वितर्कान्वितस्थायी सोऽवहित्थेन युज्यते ॥ १५८९ ।।
इति वितर्कः (२१) निद्राविभावजं सुप्तं सुप्तावस्थात्मकं मतम् । तस्यानुभावा निभृतं गानं नेत्रनिमीलितम् ॥ १५९० ॥ स्वमालापनं श्वासोच्छासौ बाह्याक्षलीनता ।
__इति सुप्तम् (२२) संजातमिष्टविरहादुद्दीप्तं प्रियसंस्मृतेः ॥ १५९१ ॥ निद्रया तन्द्रया गात्रगौरवेण च चिन्तया । अनुभावितमाख्यातमौत्सुक्यं भावकोविदः ॥ १५९२ ॥
इत्यौत्सुक्यम् (२३)
बाधके माने विभावौ ; शीर्षकम्पनभ्रूक्षेपाचा अनुभावा भवन्ति ; स वितर्कः । यत्र चतुरहस्तेन भ्रूक्षेपं दर्शयति, तं वितर्के प्रचक्षते । यो वितर्कान्वितस्थायी, सोऽवहित्थेन युज्यते ॥ -१९८७-१९८९ ॥
इति वितर्क: (२१) (सु०) सुप्तं लक्षयति-निद्रेति । निद्रा विभावसंभवा, स्वप्नावस्था सुप्तमित्युच्यते । तत्रानुभावाः निभृतगात्रनेत्रनिमीलनश्वासोच्छ्रासादयोऽनुभावा इति ॥ १५९०, १५९०-॥ ..
इति निदा (२२) (सु०) औत्सुक्यं लक्षयति-संजातेति । यत्र, निदातन्द्रापात्र
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संगीतरनाकरः अनुभावपिधानार्थोऽवहित्थं भाव उच्यते । तद्विभाव्यं भयत्रीडापाष्टर्यकौटिल्यगौरवैः ॥ १५९३ ॥ गदिगणनेनापि तस्येते स्वनुभावकाः । प्रियादिगोचरकथाभङ्गो धैर्य च कृत्रिमम् ।। १५९४ ।। अन्यथाकथनं तद्वदन्यथा वेक्षणादयः ।
इत्यवहित्यम् (२४) अपूर्वप्रतिभानं स्यान्मतिस्तां तु विभावयेन् ॥ १५९५ ॥ अन्वयव्यतिरेकोत्थैः प्रत्ययैः शास्त्रचिन्तनैः। ऊहापोहैश्च विविधैरथ तामनुभावयेत् ॥ १५९६ ॥ संदंशचतुराद्यैश्च करैरुत्क्षेपणैर्भुवोः। नानाशास्त्रार्थविपयैः शिष्याणामुपदेशनैः ॥ १५९७ ॥ ताख्यौ प्रत्ययावहापोहौ विधिनिषेधयोः ।
___इति मतिः (२५) गौरवं चिन्ताचानुभावाः; तदिष्टवैकल्यसंभूतप्रियसंस्मरणात्मकमौत्सुक्यमित्युच्यते ॥ -१५९१, १९९२ ॥
इत्यौत्सुकम् (२३) (मु०) अवहित्यं लक्षयति-अनुभावेति । यत्र, भयवीडादाढर्यकौटिल्यगौरवाणि, गर्वादगणं च विभावाः ; प्रियादिविषयकव.थाभङ्गः, ध्यं च, वृहिम्म, अन्यथोक्तिः, अन्यथाप्रेक्षणादिकं च अनुभाया भवन्ति । तदहित्थम् ॥ ॥ १५९३-१५९४- ॥
इत्यवहित्यम् (२४) (मु०) मतिं लक्षयति-अपूर्वेति । अपूर्वप्रतिभानात्मिका मतिः । तत्र चान्वयव्यतिरेकजाः प्रत्ययाः शास्त्रचिन्तनानि, ऊहापोहौ च विभावाः ; संदंश
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सप्तमो नर्तनाध्यायः स्वमान्तनिद्राछेदाभ्यामाहारपरिणामतः ॥ १५९८ ॥ शब्दस्पर्शादिभिः स्वभैः स्मृतैर्वा जाग्रति स्थितैः । विभाव्यतेऽथ जृम्भाक्षिमर्दनैः शयनोद्गमैः ।। १५९९ ॥ अगुलित्रोटनैरङ्गवलनैर्योऽनुभाव्यते । भुजविक्षेपणैः श्वासै विवोधप्रतिबोधनम् ॥ १६०० ॥ सम्यग्बोधोऽथवा लोकात्तद्विभावानुभावधीः ।
इति बोध: (वियोध:) (२६) एकैकशो द्वन्द्वशो वा त्रयाणां वा प्रकोपतः ॥ १६०१॥ वातपित्तकफानां स्युाधयो ये ज्वरादयः । इह तत्पभवो भावो व्याधिरित्यभिधीयते ॥ १६०२॥ स्तम्भाङ्गसंसविक्षिप्तगात्रसंकुचिताननैः।
उत्क्रोशकम्पस्तनितैश्वाभिनेयो ज्वरः पुनः ॥ १६०३ ॥ चतुरादिहस्ताः भूलताक्षेपाः, नानाशास्त्रस्थनिश्चया शिष्योपदेशाः, विधिनिषेधयोः ऊहापोहयोः अनुभावा भवन्ति ; सा मतिः ॥-१५९५-१५९७ ॥
___ इति मतिः (२५) ___ (सु०) बोधं लक्षयति-स्वप्नान्तेति । यत्र, स्वप्नान्तरनिद्राच्छेदाहारपरिणामाः स्वप्नगता वा जाग्रद्गता वा शब्दस्पर्शादयो विभावाः । जम्भाक्षिमर्दनाङ्गुलिकोटनाङ्गचलनानि भूविक्षेपः श्वासश्चानुभावा भवन्ति ; स बोधः ॥ ॥-१५९८-१६००-॥
इति योध: (२६) ___(मु०) व्याधि लक्षयति–एकैकश इति । त्रयाणां वातपित्तकफानाम् , एकैकशः द्वन्द्वशो वा ये ज्वरादित्र्याधयः, तत्संभवो भावः व्याधिरित्युच्यते । संकुचिताननैः उत्क्रोशकम्पस्तिमितैः, विक्षिप्तगात्रः ज्यरोऽभिनेयः। काम
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संगीतरनाकरः कामजोऽप्यस्ति स द्वेधा शीतदाहमवर्तनात् । हनुचालेन सर्वाङ्गकम्पेन मुखशोषतः ॥ १६०४ ॥ परिदेक्नरोमाञ्चमुखसंकोचनादिभिः । शीतज्वरोऽभिनेयोऽथ दाहकोऽम्युपिपासया ॥ १६०५ ॥ फराङ्गगात्रविक्षेपाद् भूमिशय्याभिलापतः । शीतानुलेपनाकाङ्क्षाविकृष्टपरिदेवनैः ॥ १६०५॥
इति व्याधिः (२७) उत्तमानां विप्रलम्भे भवेत्प्रियवियोगतः। नीचानां विभवभ्रंशात्सर्वेषां संनिपाततः ॥ १६०७॥ अभिघातात्तथोन्मादस्तमेभिरनुभावयेत् । विना निमित्तं हसितं रुदितं पठितं तथा ।। १६०८ ॥ नृत्तं गीतं च शयनोपवेशोत्थानधावनम् । असंबद्धप्रलपनं चोवृत्तिधूलिभस्मनोः ॥ १६०९ ॥ कपालचीरनिर्माल्याद्यलंकरणमित्यपि । उन्मादः पृथगुक्तोऽयं व्याधिष्वन्तर्भवन्नपि ॥ १६१० ॥
जोऽप्यस्ति; ज्वरो द्विविधः, शीतज्वरः, दाहज्वर इति । हनुचालनसर्वाङ्गकम्पनमुखकोपनपरिदेवनरोमाञ्चमुखसंकोचनादिभिः प्रथमोऽभिनेयः । जलपिपासया कराङ्गगात्रविक्षेपैः भूमिशयनाभिभाषणेन शीतानुलेपनाकाङ्क्षाजनितपरिरोदनेन द्वितीयोऽभिनेयः ।। -१६०१-१६०५ ॥
इति व्याधिः (२७) (सु०) उन्मादं लक्षयति-उत्तमानामिति । उत्तमानां विप्रलम्भशृङ्गारे प्रियवियोगविभाव्यः, नीचानां तु विभवभ्रंशविभाव्यः । अनैमितिकहसितरुदित
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सप्तमो नर्तनाध्यायः अयं हि विमलम्भादौ वैचित्र्यं कुरुतेतमाम् । अपस्मारोऽप्येवमेव वीभत्से च भयानके ।। १६११ ॥
___इत्युन्माद: (२८) कुलरूपवलैश्चर्यविद्याद्रविणयौवनैः। नीचानां जायते गर्वः प्राधान्येन मुहुर्मुहुः ॥ १६१२ ॥ विशुद्वदुत्तमानां तु बाहुल्यावेप योपिताम् । उद्ग्रीवावेक्षणावज्ञासूयानुत्तरदानतः ॥ १६१३ ॥ अभापणादमांच पारुष्याद्विभ्रमादपि । अङ्गनेत्रविकाराच्चाधिक्षेपातिक्रमाद्गुरोः ॥ १६१४ ॥ तस्याभिनयनं कार्यमित्याह करणाग्रणीः । वागङ्गसात्विकाहार्यक्रियाव्यत्यासनं भवेत् ॥ १६१५ ॥ विभ्रमो योपितां हर्षानुरागमदगर्वनः ।
___ इति गर्वः (२९) नृत्तगीतशयनोपवेशोत्थानधावनासंबन्धप्रलापधूलिभस्मोद्भूलनकपालनिर्माल्याद्य - लंकरणान्यनुभावा अत्र भवन्ति । उन्मादः व्याधावन्तभूतोऽपि विप्रलम्भादिरसेषु वैचित्र्यकारित्वात् पृथगुक्त इति ॥ १६०७-१६११ ॥
इत्युन्मादः (२८) (सु०) गर्व लक्षयति-कुलरूपेति । कुलरूपबलैश्वर्यधनविद्यायौवनैः नीचानां मुहुर्मुहुः गर्वो जायते । उत्तमानां तु विद्युत् क्षणिको भवति । स्त्रीणां तु बहुलरूपतया जायते । उद्ग्रीवालोकनम् , अवज्ञा, अस्या, अनुत्तरदानम्, अभाषणम् , अमर्षः, पारुण्यम्, विभ्रमः, अङ्गविकारः, नेत्रविकारः, गुर्वधिक्षेपातिकमावित्येतैरयमभिनेयः ॥ -१६१२-१६१५- ॥
इति गर्वः (२९)
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संगीतरत्नाकरः
अधीराणां जातमात्रे शोकेऽनन्तरमुद्भवेत् ॥ १६१६ ॥ आवेगः पत्रोऽयं तु धीरैर्यान्निरूप्यते । असौ प्रतिविभावं च पृथक्वित्रानुभावभाक् ।। १६१७ ॥ अतो विभावरूपानां हेतूनां भेदतोऽष्टधा । उत्पातवातवर्षाग्निकुञ्जरभ्रमणानि च ।। १६९८ ।। प्रियाप्रियश्रुतिर्वैरिव्यसनं चेति हेतवः । forgeकानिपाताभ्यां निघताभिकम्पनात् ।। १६१९ ॥ सूर्यचन्द्रोपरागाभ्यामावेगः केतुदर्शनात् ।
उत्पातजोsस्यानुभावो वैवर्ण्य वस्तगात्रता ॥ १६२० ॥ विपादविस्मयगतानुभावाचेह संपताः ।
वातजे त्वत्र वस्त्रेण पिधानं नेत्रमर्दनम् ॥ १६२१ ॥ त्वरितागमनं चानुभावाः स्युर्वर्पजे पुनः ।
सर्वाङ्गपीडनं गेहायाश्रयः शीघ्रधावनम् ।। १६२२ ।। अनिजे धृतिरङ्गानां धूमाकुलितनेत्रता । चार्यातिक्रान्तया चापकान्तया चरणं भवेत् ।। १६२३ ।। कुञ्जराणां निरवधिभ्रमणाद्यस्तु जायते । सरणापती तत्र त्वरिते भयवेपथुः || १६२४ ॥
(मु० ) आवेगं लक्षयति - अधीराणामिति । यत्र शोकजननमात्रेण अधीराणामावेगो जायते । उत्तमास्तु जातमप्यावेगं धैर्यान्निरुन्धते । विभावरूपहेतुभेदेन सोऽष्टविधः । उत्पातजः, वातजः, वर्षज:, अग्निजः, कुञ्जरभ्रमणज, त्रियश्रवणजः, अप्रियश्रवणजः, वैरित्र्यसनज इति । उत्पातजो विनिपातेन, निर्वातेन भूकम्पनेन, सूर्यचन्द्रोपरागाभ्यां केतुदर्शनेन चावेगः । अत्र च वैवर्ण्य स्त्रस्तगात्रत्वम्, विषादविस्मयगतभावाश्च अनुभावा भवन्ति ।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः विस्मयो वीक्षणं पश्चात्मियश्रवणजे पुनः । वस्त्राभरणदानं चाभ्युत्थानं परिरम्भणम् ॥ १६२५ ॥ कथायामश्रुरोमाञ्चाश्चाप्रियश्रुतिजे त्वमी । विलापः पतनं भूमौ चलनं परिवर्तनम् ।। १६२६ ॥ परिभावनमित्याद्या वैरिव्यसनजे त्वमी । सहसापसृतिः शस्त्रचर्मवर्मादिधारणम् ॥ १६२७ ।। गजानां तुरगाणां चारोहणं संप्रधारणम् । पृथगित्यनुभावाः स्युरावेगे संभ्रमात्मके ॥ १६२८ ॥
इत्यावेगः (३०) मरणं द्विविधं प्रोक्तं व्याधिजं चापयातनम् । दोपवैपम्यजैर्गण्डज्वराद्यैर्व्याधिजं भवेत् १६२९ ॥ वातपित्तकफा दृष्टा दोपत्वेनेह संमताः । शस्त्रादि विपतोयेभ्यः श्वापदात्तुरगाद्नात् ॥ १६३० ॥ अग्न्युच्चपतनादिभ्यो जातं स्यादभिघातनम् ।
निश्चेष्टप्रसृतैरङ्गैमीलनेन च नेत्रयोः ॥ १६३१ ॥ वातजे वस्त्रेण छादनं, नयनमर्दनं, शीघ्रगमनमित्येते अनुभावा भवन्ति । वर्षजे तु सर्वाङ्गपीडनं, शीघ्रधारणम् , गृहाद्याश्रयश्चानुभावा: । अग्निजे अङ्गधूननं धूमव्याकुलनेत्रता, क्रान्तापक्रान्ताख्यचारीद्वयचटुलचरणत्वं चानुभावाः । वैरिव्यसनजे शस्त्रधर्मादिधारणं गजतुरगाद्यारोहणमित्याद्या अनुभावाः ।। १६१६-१६२८ ॥
इत्यावेग: (३०) __(मु०) मरणं लक्षयति-- मरगमिति । मरणं द्विविधम् , व्यधिजमपघातजमिति । दोषवैषम्यजज्वरायैः व्याविजं भवति । वातपित्तकफोष्णा: दोषा
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संगीतरनाकरः हिकोर्ध्वश्वासवमनजनतापरिवारणैः। - अव्यक्ताक्षरभाषायैाधिजस्यानुभावनम् ॥ १६३२॥ शस्त्रजे सहसा भूमौ पतनं च विकम्पनम् । स्फुरणादि प्रयोक्तव्यमथाहिविपपानजे ॥ १६३३ ॥ अनुभावा भवन्त्यष्टौ विपवेगात्क्रमादिमे । कायॆवेपथुदाहाश्च हिकाफेनश्च पञ्चमः ॥ १६३४ ॥ स्कन्धभङ्गश्च जडता मरणं चेति संमताः । अभिघातान्तरोद्भतेऽनुभावाः शस्त्रजातवत् ॥ १६३५ ॥ व्याध्यादेरनिवर्त्यत्वानिश्चिते मरणे सति । अत्र मानिधनाञ्चित्तवृत्तिमरणमिप्यते ॥ १६३६ ॥
___इति मरणम् (मृतिः) (३१) गात्रोत्कम्पी चमत्कारः सहसा त्रास उच्यते । तस्योत्पाताद्घोरनादश्रुतेभीषणदर्शनात् ॥ १६३७ ।। उत्पत्तिरनुभावास्तु गात्रसंकोचकम्पने ।
स्तम्भो गद्गदशब्दश्च रोमाञ्चाः सस्तगात्रता ॥ १६३८ ॥ इत्युच्यन्ते । शस्त्राहिविपतोयश्वापदतुरङ्गजाग्न्युत्पतनसंभूतमग्निजमित्युच्यते । निश्चेष्टप्रसृताङ्गत्वं नेत्रनिमीलनम् उच्छ्सनं वमनमित्याद्या व्याधिजे अनुभावाः । शस्त्रजापघातजे त्वरितं भूपतनं विकम्पनं स्फुरणादिकं चानुभावाः । विषपानजे कार्य वेपथुः दाहः हिक्का फेनः स्कन्धभङ्गः जाडयं मरणमित्यष्टौ अनुभावाः । अन्यत्स्पष्टम् ॥ १६२९-१६३६ ॥
इति मरणम् (३१) (मु०) त्रासं लक्षयति--गात्रोत्फम्पीति । घोरनादश्रवणात् भीषणदर्शनात् उत्पाताच त्रास उत्पद्यते । अत्र गात्रसंकोचनकम्पने स्तम्भः,
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
निमीलनं लोचनयोः प्रलयश्चेति कीर्तिताः । पूर्वापरविचारोत्थं भयं त्रासात्पृथग्भवेत् ।। १६३९ ।। इति त्रासः (३२)
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निद्रेन्द्रियाणां प्रथमा निवृत्तिः स्वस्वगोचरात् ।
अत्याहारः स्वभावश्व चिन्तालस्ये मदः क्लमः ।। १६४० ॥ व्याख्यानादिप्रयासेन वैलक्षण्यं च हेतवः । निद्रायामनुभावाः स्युर्नृम्भावदनगौरवम् ।। १६४१ ।। शरीरलोलनं नेत्रघूर्णनं गात्रमोटनम् । निःश्वासोच्छ्वसिते स्रस्तगात्रताक्षिनिमीलनम् ।। १६४२ ॥ इति निद्रा (३३)
त्रयस्त्रिंशद्विचित्रत्वकारित्वात्स्थायिनं रसम् ।
कुर्वन्तीति मया प्रोक्ताः सन्ति त्वन्ये सहस्रः || १६४३ ॥
गद्गद स्वरत्वम्, रोमाञ्चः, स्रस्ताङ्गत्वं, नेत्रनिमीलनं, प्रलय इत्येते अनुभावाः । पूर्वापर विचारोत्थभीतिरपि त्रास एव ॥ ९६३७- १६३९ ॥
इति त्रास : (३२)
(सु० ) निद्रां लक्षयति - निद्रेन्द्रियाणामिति । इन्द्रियाणां प्रथमं स्वस्वविषयेभ्यो निवृत्तिः निद्रेत्युच्यते । अत्याहारस्वभावचिन्तालस्यमदक्कमादिना स च जायते । जृम्भावदनगौरवशरीरलोलनगात्रमोटननिश्वासोच्छ्रासस्रस्तगात्रता नेत्रनिमीलनान्यनुभावाः ॥ १६४० - १६४२ ॥
इति निश (३३)
(क० ) व्यभिचारिभिः क्रियमाणं रसोपकारमाह - त्रयस्त्रिंशदिइतः परं सुधाकरव्याख्या त्रुटिता ।
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संगीतरत्नाकरः अन्तर्भावोऽस्ति केषांचिदभिलाषाय वा रतौ । अवहित्थे तु दम्भस्य ग्लानौ क्षुत्तृष्णयोर्यथा ॥ १६४४ ॥ उद्वेगस्य तु निर्वेदेऽन्येषामप्येवमूद्यताम् ।
इति त्रयस्त्रिंशद्वषभिचारिभावाः । अथ सात्त्विकलक्षणम् -
उक्तै रत्यादिभिर्भावैः संविद्विक्रियते यदा ॥ १६४५ ॥ प्राणेऽध्यस्यति सात्मानं देहं माणस्तनोति सः।
तदा स्तम्भादयो देहे विकाराः प्रभवन्त्यमी ॥ १६४६ ॥ त्यादि । रसं स्थायिनं कुर्वन्तीति । अत्र हेतुः-विचित्र कारित्वादिति । यस्य कस्यापि रसस्य सहकारित्वेनोत्पन्ना निर्वेदादयो भावा एकरूपं तं स्वानुप्रवेशान्नानारूपं कृत्वा पश्चातस्मिन्नेवान्तर्भूनाः सन्तः कल्लोलाः ललिल. निधिमिव तमेव रसं स्थायित्वेन पुष्णन्तीति व्यभिचारिकृतो रसोपकारो द्रष्टव्यः। मनोवृत्तीनामनन्तत्वादियन्त एवेति निर्धारणं कुत इत्यत आह -सन्ति वन्य इति । ॥ १६४३ ॥
(क०) तहिं ते कुतो न कथिता इत्यत्राह–अन्तर्भाव इति । तमेवान्तर्भाव दिङ्मात्रेण दर्शयति-अभिलापस्येत्यादि । अन्येपामप्येवमूह्यतामिति । अन्येषामनुक्तानां भावान्तराणामप्येवमुक्तप्रकारेण यथायोगं निर्वेदादिप्वन्तर्भाव ऊह्मतां बुद्धया परिकल्प्यताम् ॥ १६५७ - १६५८ ॥
इति त्रयस्त्रिंशद्वषभिचारिभावाः। (क०) अथ सात्त्विकभावालँक्षयितुमाह-अथेत्यादिना । उक्तरित्यादि । रत्यादिभिर्भावैः स्थायिभावैः संविद्विषयानभिमुखं ज्ञानं यदा
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सप्तमो नर्तनाध्यायः एवं सति स्वाद्यमानरत्यादिस्व विभावकैः। विभाविता देहसंस्थैः स्तम्भायैरनुभाविताः ॥ १६४७ ॥ अध्यस्तसंविदि पाणे प्रकाशन्तेऽन्तरे भवाः । एते स्युः सात्त्विका भावाः सत्त्वप्राणप्रकाशनाव ॥१६४८॥
विक्रियते विषयविशेषाभिमुखीक्रियते। सा विक्रियमाणा संवित्प्राणे शरीरान्तश्चरे जीवननिमित्ते वायुविशेष आत्मानं स्वसंविदाकारमित्यर्थः । अध्यस्यति आरोपयति । स प्राणो देहं स्थूलदेहम् । आत्मानं तनोति ; अध्यस्तसंविदाकारं करोति । देह आत्मबुद्धि जनयतीत्यर्थः । अत्रात्मानमिति पूर्ववाक्यस्थं पदमावृत्त्यास्मिन्वाक्ये योजनीयम् । अन्यथात्र विधेयाभावादसंगतिः स्यात् । तनोते: करोत्यर्थाश्रयणत्व एवं व्याख्यानम् । विस्तारार्थत्वे त्वर्थावृत्तिनं करणीया। स प्राणो देहं तनोतीति योजना । देहं तनोति विस्तारयति प्राणाकारेण वृद्धिं करोति । देह आत्मबुद्धिं जनयतीति स एव फलितोऽर्थोऽवगन्तव्यः । तदा स्तम्भादय इति । यदैवैवं परम्परया देहे चात्माध्यासो. भवति तदा स्तम्भादयोऽमी देहे विकाराः प्रभवन्तीति सात्विकोत्पत्तौ सामग्री दर्शिता । देहे विकार इत्यनेन बाह्यानां स्तम्भादीनां रत्यायनुभावत्वमपि दर्शितं भवति । आन्तराणां तु स्तम्भादीनां सात्त्विकत्वमेवेत्यवगन्तव्यम् ॥ १६४५,. १६४६ ॥
(क०) एव सतीत्यादि । एवं सत्युक्तप्रकारेण देहे स्तम्भादिषु विकारेषूत्पन्नेषु । स्वायमानरत्यादिस्वैरिति । स्वाद्यमानाश्च ते रत्यादयश्च तेषां स्वैः संबन्धिभिः । रत्यादीनां प्रतिनियसै रित्यर्थः । विभावकै ललनोद्यानादिभिर्विभाविता उत्पादिताः । देहसंस्थैः स्तम्भाधैर्विकारैरनुभाषिता
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संगीतरत्नाकरः सांख्योक्तो वा गुणः सत्त्वं साधुत्वं वा तदुच्यते । निर्मलप्राणदेहत्वं साधुत्वमिह संमतम् ॥ १६४९ ॥ तत्र सत्वे भवा भावाः सात्त्विकाः संमताः सताम् । चत्वारि मादिभूतानि प्राधान्येनावलम्बते ॥ १६५० ॥ कदाचित्स्वप्रधानः सन्देहे प्राणश्वरत्ययम् । यदाध्यास्ते धरां स्तम्भं भावं भावयते तदा ॥ १६५१ ॥ माणाज्जलस्थादणि तेजःस्थात्तु विवर्णता । स्वेदश्चाकाशनिष्ठात्तु प्रलयो जायते ततः ।। १६५२ ॥ स्वतन्त्रोऽसौ क्रमान्मन्दमध्यतीव्रत्वभेदभाक् ।
रोमाञ्चं वेपथुमथ स्वरभेदं च भावयेत् ॥ १६५३ ॥ अनुभाव्यत्वं प्रापिताः । प्रकाशिता इत्यर्थः । अध्यस्तसंविदीति । अध्यस्ता संविद्यस्मिन्निति तथोक्तस्तस्मिन् । प्राणे प्रकाशन्त इति । प्राणमाश्रित्य प्रतिभासन्त इत्यर्थः । अन्तरे भवा इति । उक्तप्रकारेणान्तरेऽन्तरात्मनि भवाः संभूताः । एते भावाः सत्त्वप्राणप्रकाशनात्सत्त्वाख्ये प्राणे प्रकाशनात्सात्त्विकाः स्युः ॥ १६४७, १६४८ ॥
(क०) मतान्तराश्रयणेन सत्त्वशब्दस्यार्थान्तरं दर्शयति-सांख्योत्तो वेत्यादि । तत्रेति । त्रिषु पक्षेषु । चत्वारीत्यादि। अयं प्राणो वायुरूपश्चत्वारि क्ष्मादिभूतानि पृथिव्यप्तेजआकाशानि पर्यायेण । कदाचित्स्वप्रधानः स्वात्मा वायुरेव प्रधानः सन् देहे चरतीति संबन्धः ॥ १६४९, १६५०- ॥
(क०) तत्र प्राणस्य पृथिव्यायवलम्बने स्तस्मादिभावोद्भावनमाह -~यदाध्यास्त इत्यादि । जलस्थादश्रूणीति । जायन्त इत्यध्याहार्यम् । तेजस्थात्पाणाद्विवर्णता स्वेदश्च जायत इति संबन्धः । आकाशनिष्ठात्प्राणातु
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सप्तमो नर्तनाध्यायः
४६९ बाह्याः स्तम्भादयो देहे नृणां देहात्ममानिनाम् । मुलभा दुर्लभास्त्वेते सतामनभिमानिनाम् ॥ १६५४ ॥ . हर्षादागाद्भयादुःखाद्विषादाद्विस्मयाद्रुषः । विक्षेपाच्च भवेत्स्तम्भोऽनुभावा जाड्यशून्यते ॥ १६५५ ॥ निःसंज्ञस्तब्धगात्रत्वे निश्चेष्टत्वाप्रकम्पने ।
इति स्तम्भः (१) प्रलयो जायते । ततोऽनन्तरमसौ प्राणो वायुः स्वतन्त्रः पृथिव्याघवलम्ब्य स्वप्राधान्येन वर्तमानः । क्रमान्मन्दमध्यतीव्रत्वभेदभागिति । मन्दः प्राणवायू रोमाञ्चं भावयेत् । मध्यो वायुर्वेपथु भावयेत् । अथ तीब्रो वायु: स्वरभेदं च भावयेदिति क्रमो द्रष्टव्यः । बाह्या इत्यादि । उक्तप्रकारेण स्तम्भादयः सात्त्विका आभ्यन्तरा एव । तद्विकारत्वेनानुभावा बाह्याः स्तम्भादयः । देहात्ममानिनां देहमेवात्मानं मन्यन्त इति तथोक्ताः। पामरा इत्यर्थः । तेषां नृणां देहे सुलभाः। विभावसद्भावमात्रेण शीघ्र प्रादुर्भवन्तीत्यर्थः । एते बाह्याः स्तम्भादयोऽनभिमानिनां सतां देहेन्द्रियादिव्यतिरिक्तात्मदर्शिनां देहे तु दुर्लभाः। विभावसद्भावमात्रानोद्भवन्तीस्यर्थः ॥ -१६५१-१६५४ ॥
(क०) अथ सात्त्विकभेदान् स्तम्भादीन् प्रत्येक प्रातिस्विकैविभा. यानुभावैर्लक्षयति-हद्रिागादित्यादि । अत्र स्तम्भादीनां सात्त्विकानां लक्षणेषु तत्तदनुभावत्वेन स्तब्धगात्रता स्वेदोऽपीत्यादिभिः स्तम्भादय एवोक्ता दृश्यन्ते । तत्रैवं विवेचनीयम् । पूर्व सात्त्विकशब्दवाच्यत्वेनोक्त अन्तरे भवा ये स्तम्भादयो भावास्त एवात्र लक्ष्यन्ते, ये देहसंस्था बाह्या स्तम्भादयस्ते तु तदनुभावत्वेन लक्षणतयोक्ता इति ॥ १६५५, १६५५।
इति स्तम्भः (१)
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४७०
संगीतरत्नाकर:
मनस्तापो रुजा हर्षो लज्जा क्रोधो भयं श्रमः ॥ १६५६ ॥ पीडाघातातपौ मोहव्यायामौ च विभावकाः । व्यजनग्रहणं स्वेदोऽप्यरालो भालमार्जकः ।। १६५७ ॥ इत्येतेऽभिनया यत्र तं स्वेदं जगदुबुधाः । इति स्वेद: (२)
आलिङ्गनाच्छुरितके शीतहर्ष भयकुधः ॥ १६५८ ॥ विभावयन्ति रोमाञ्चं व्यक्तस्याभिनयास्त्वमी । गात्रस्पर्शोल्लुक्कुसने मुहुः कण्टकिता तनुः ।। १६५९ ।। इति रोमाञ्चः (३)
औम्यरोगजराक्रोधभयहर्षमदादयः ।
विभावा विस्वरो भिन्नो गद्गदश्च ध्वनिर्भवेत् ॥ १६६० ॥ अनुभावस्तदा भावः स्वरभेदोऽभिधीयते ।
स्थानभ्रष्टो विस्वरः स्याद्विच्छिन्नो भिन्नसंज्ञकः ।। १६६१ ।। अव्यवस्थिततानोच्चनीच भावस्तु गद्गदः ।
इति स्वरभेदः (४)
आलिङ्गनाच्छुरितके हर्षो रोपो भयं जरा ।। १६६२ ॥ विभावाः शीतरोगौ च यत्रैते त्वनुभावकाः । वेपनं स्फुरणं कम्पो वेपथुं कथयन्ति तम् ।। १६६३ ॥ घेपनाद्याः कम्पभेदाः पूर्वात्सातिशयः परः ।
इति वेपथुः (५)
रोगमोहभयक्रोधशीततापथमै र्भवेत् ।। १६६४ ।।
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सप्तमो नर्तनाध्यायः वैवर्ण्यमस्याभिनयो नाडीपीडनयोगतः । सिन्दुरायेन वा वर्णान्तरसंचारणं मुखे ॥ १६६५ ॥
इति वैवर्ण्यम् (६) हर्षामर्षाञ्जनामाद्भयाच्छोकाच्च जृम्भणात् । अनिमेषेक्षणाच्छीताद्रोगाद्भावोऽश्रु जायते ।। १६६६ ।। तं चानुभावयेदश्रुस्रवगैर्नेत्रमार्जनैः ।
इत्याश्रु (७) मदमूर्जाभिघातेभ्यो निद्रामोहश्रमादिभिः ॥ १६६७ ॥ मलयः स्यादभिनयेन्मही निपतनेन तम् ।
इति प्रलयः (०) इत्युक्तास्त्रिविधा भावाः स्थायिनो व्यभिचारिणः॥१६६८॥ साविकाच रसेषु स्युः सर्वे सर्वेषु सात्त्विकाः । एकः कार्यो रसः स्थायी रसानां नाटके सदा ॥ १६६९ ॥ रसास्तदनुयायित्वादन्ये तु व्यभिचारिणः।
(क०) भावलक्षणं नियमयति–इन्युक्तास्त्रिविधा भावा इति । त्रिविधेष्वपि भावेषु सात्त्विकानां विशेषमाह-रसेषु स्युः सर्वे सर्वेषु साचिका इति । सर्वे सात्त्विकाः स्तम्भादयोऽष्टावपि सर्वेषु रसेषु शृङ्गारादिनवस्वपि साधारण्येन भवन्तीत्यर्थः ।। -१६६८, १६६८॥
(क०) नाटकादिनिर्माणे कवेनियममाह-एकः कार्य इत्यादि। नाटक इत्युपलक्षणम् । नाटकादिषु रूपके प्वित्यर्थः । रसानामिति निर्धारणे षष्ठी । शृङ्गारादीनां नवानां रसानां मध्य एको रसो नाटकादिषु यत्र यस्य प्राधान्यं भरतादिभिरुक्तम् " एको रसोऽङ्गी कर्तव्यो वीरः शृङ्गार
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४७२
संगीतरत्नाकरः
विरोधिनो रसास्तेषु संदर्भ्यः पृथगाश्रयः || १६७० ॥ गुम्भचित्रो रसानां स्यानाटये कुसुमगुम्भवत् । स्थायी तु सूत्रस्थानीयो रसो रसविदां मतः ।। १६७१ ॥ सूरिश्रीशार्ङ्गदेवेन नाट्यवेदाम्बुधेरिदम् । समस्तमुद्धृतं सारं धीरैरातृप्ति सेव्यताम् ।। १६७२ ।।
एव वा" इत्यादिना स रसः सदा प्रबन्धस्यादिमध्यावसानेष्वित्यर्थः । कार्यः कर्तव्यः । अन्ये रसास्तु तदनुयायित्वात्स्थायिरसानुसारित्वाद्वद्यभिचारिणः । कर्तव्या इति शेषः । तथा चोक्तं भरतमुनिना - सर्वेषां समवेतानां रूपं यस्य भवेद्वहु ।
66
समन्तव्यो रसः स्थायी शेषाः संचारिणो मताः ॥
99
इति ॥ - १६६९, १६६९- ॥
(क० ) विरोधिन इत्यादि । यथा शृङ्गारस्य बीभत्सः । वीरस्य भयानकः । रौद्रस्य करुणः । अद्भुतस्य हास्यः । शृङ्गारादीनामष्टनामपि शान्तः । तथा बीभत्सस्य शृङ्गारः । भयानकस्य वीरः । करुणस्य रौद्रः । हास्यस्याद्भुतः । शान्तस्य शृङ्गारादयोऽष्टाविति परस्परविरोधिनो रसा ज्ञेयाः । तेषु संचारिषु ये विरोधिनो रसा विद्यन्ते तेषु विरोधिषु विषये पृथगाश्रयो भिन्नाश्रयः संदर्भ: कार्य इति । अयमर्थ:- शृङ्गारबीभत्सादीनामेकाश्रयत्वे विरोधो दुर्निवार एव । भिन्नाश्रयत्वे तु विरोधो नास्तीति । गुम्भ इत्यादि । एवं भिन्नाश्रयत्वेन विरोधिना संदर्भे क्रियमाणे सति
ये नाटका रूप । रसानां गुम्भो मालाकुसुमगुम्भवच्चित्रः स्यान्नानावर्णगन्धवद्भिः पुष्पैर्निर्मिता मालेव नानाविकारात्मकै रसैरद्भुतो भवति । स्थायी त्रिति । संचारिरसगुम्भे स्थायी रसस्तेषामाघारत्वात्सूत्रस्थानीयो मतः ॥ १६७०, १६७१ ॥
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सप्तमो नर्तनाध्यायाः
४७३ ग्रन्थे मदीये यदि कश्चिदस्ति
गुणस्ततस्तस्य परिग्रहाय । नाभ्यर्थये वः सुधियः परेषां
गुणोऽणुरप्यद्रिसमो भवत्सु ॥ १६७३ ।। सावद्यता वा निरवद्यतास्तु
ग्रन्थे मयात्र ग्रथिते तया किम् । आराधने वः प्रवणा मतिमें
सन्तो गुणः कं ननु नातिशेते ॥ १६७४ ॥ युष्मरक्षोदक्षम वस्तु किमत्रास्ति जगत्त्रये । किं तु मत्प्रेमतः सन्तः पुरस्कुरुत मे कृतिम् ॥ १६७५ ॥ यद्वा पुराणं पन्थानं मुनीनामहमन्वगाम् । स्निह्यन्ति च निसर्गेण सन्तः सन्मार्गगामिनि ॥ १६७६ ॥ आरिराधयिषोः साधून किं प्रज्ञाविभवेन मे । राममानन्दयन्ति स्म तिर्यञ्चोऽपि कपीश्वराः ॥ १६७७ ॥ न विद्यादर्पतो ग्रन्थप्रवृत्तिर्मम किं त्विदम् । विद्वन्मानसवासाय गन्तुं पाथेयमास्थितम् ॥ १६७८ ॥ इति श्रीमदनवद्यविद्याविनोदश्रीकरणाधिपतिश्रीसोढलदेव___ नन्दननिःशङ्कश्रीशार्ङ्गदेवविरचिते संगीतरत्माकरे
सप्तमो नर्तनाध्याय: समाप्तः ॥ ७ ॥
(क०) ग्रन्थमुपसंहरन् ग्रन्थकारः स्वकीयग्रन्थस्य प्रचयगमनाय सहदयान् विपश्चितः सविनयं प्रार्थयते—मूरिश्रीशाङ्गदेवेनेत्यादिना । तदिदं निगदव्याख्यातम् ॥ १६७२-१६७८ ॥
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४७४
संगीतरत्नाकरः सुधिया कल्लिनाथेन रत्नाकरकलानिधौ । विवृतं रसभावादि विद्वद्भिस्तत्परीक्ष्यताम् ॥ १ ॥ शैवादिस्थिरभक्त्यवाप्तविभवः कर्ता ततः संसृते
राहर्ता करणान्यनुप्रतिकलं तन्मातृकाशोभिनाम् । अङ्गानामथ तत्त्वगोचरधिया भावार्थमभ्यानय
नत्ताध्यायविवेचनं व्यतनुत श्रीकल्लिनाथः सुधीः ॥ २ ॥ सप्ताध्याय्युदधिं श्रिया विलसितं संगीतरत्नाकर
सम्यग्लक्षणलक्ष्य विस्तृतधिया मन्थेन निर्मथ्य ताम् । तत्रार्थोश्च जिघृक्षुदृष्टयभिमुखान्कुर्वन्तमात्मोदया.
द्विद्वद्भावनया कलानिधिमिमं श्रीकल्लिनाथो व्यधात् ॥ ३ ॥ नदी तद्पतामेति प्रविष्टाम्बुनिधि यथा । ज्ञानलेशो मयाप्येवं सर्वज्ञेषु निवेदितः ॥ ४ ॥ । यथाकाशो महान्भूमीरेणूनामवकाशदः । तथा मज्ज्ञानलेशानां सर्वज्ञा यूयमाश्रयाः ॥ ५ ॥ एवं रत्नाकरोन्नीतं शुक्तिमुक्ताफलं मया । सर्वज्ञाः स्वगुणैरेतद्भषयन्तु कृपान्विताः ॥ ६ ॥ एवं समृद्धसंगीतरत्नाकरकलानिधौ ।
सुधास्वादेन सुधियामानन्दश्विरमेधते ॥ ७ ॥ इति श्रीमदभिनवभरताचार्यरायवयकारतोडरमलश्रीलक्ष्मणाचार्यनन्दन
चतुरकल्लिनाथविरचिते संगीतरत्नाकरकलानिधौ
नर्तनाध्याय: सप्तम: समाप्तः ।।
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अ
अंशाः स्युरिति चत्वारः अंशेनैवोपजीवन्ती अंसकूर्परयोः किंचित् अकम्पं सरलोत्क्षिप्तं
अगर्वा रसभावज्ञा
अगायन्ती त्वशारीरा
अभिजे धूतिरज्ञानां
अग्न्युच्चपतनादिभ्यः अप्रगः पाणिगः पादः
गो अग्रतोऽधस्तलचेति अ प्रसार्यते चारी अयदोर्ध्वगौ हस्तौ अङ्कुरो भूतवाक्यार्थम्
नेत्रविकाराच
अमरक्षास्तु तिष्ठेयुः
अङ्गहाराः प्रयोक्तव्याः
अङ्गहाराजमप्येते
अहारान् प्रवक्ष्यामि
अङ्गहारेषु सर्वेषु
अङ्गादीनि पुरोकानि
APPENDIX I
श्लोकानामनुक्रमणिका
पटसंख्या
अज्ञानां मोटने चाथ
३४३ अङ्गानामुचिते देशे
१०
अङ्गान्तरं चेल्ललितं
६८ अज्ञान्तरं तदालातं
८९
३९३ अङ्गुलित्रोटनै रङ्ग •
३७७
४६२
४६३
९२
९५
अङ्गान्यत्र शिरो हस्तौ
३२८
१५
अङ्गुलीः करयोः पृष्ठ०
अङ्गुलीपृष्ठभागेन
अङ्गुलीभ्यां क्रमात्कुर्वन्
अङ्गुल्यो घृतमाणिक्य •
अङ्गुल्यो न्यश्चिताः स स्यात्
१८२ अङ्गुष्ठः कुचितो यन
२९४ अङ्गुष्ठमण्यमन्योन्य •
अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुल्यौ
अङ्गुष्ठस्याप्यमी भेदा:
अङ्गुष्ठाग्रेण लम्माग्रा
अङ्गुष्ठाङ्गुलयो यस्मिन्
४६१
३९६
२७४ अनुष्ठो वृश्विकाघ्रेश्चेत्
२७५ अङ्घ्रिकुचितमुत्क्षिप्य
२५२ अङ्घ्रिक्रिया प्रधानं स्यात्
२५८ अङ्घ्रिचारविपर्यासात् ३६५ अङ्घ्रिणैकेन वेदन्यं
पुटसंख्या
५३
२५२
२१०
२०६
१५
४५९
५५
३०२
३५
३६९
९३
३७
४५
४८, ३२१
१७९
४०
४२
२१९
३०८
२८९
२८८
३११
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४७६
संगीतरत्नाकरः
३९९
२०७
९८
पुटसंख्या
पुटसंख्या अङ्घ्रिमूरुकटीजानु० २०६ अतीव कुञ्चितौ लगौ
१५४ अधिन्यस्तथैव स्यात् २११ अतो न तत्पृथग्वाच्यं
१२६ अङ्घ्रिद्घट्टित: पार्श्व २०९ अतो नरान्तरासक्तिः
४१५ अङ्ग्री संघट्टयेद्यत्र
३०५ अतो निरन्तरायत्वात् अने: समस्य वामस्य
३३४ अतोऽन्तरालसंधाने अञ्जुरुत्क्षेपनिक्षपौ
२३९ अतोऽभिनयशब्देन अछ्योरुत्पुलुत्य निपतेत् ३०२ अतो रसा नवैवेति
४४२ अचञ्चला विकसिता १३७ अतो रसोपयोगित्वात्
१८० अञ्चितं चैकचरण. २४० अतो विभावरूपानां
४६२ अचितं समपादेन २४२ अतो वृत्तीविजानीयात्
३४४ अञ्चितं स्वस्तिकाद्मिभ्यां २४३ अत्यन्तमीलनं किंचित् अञ्चितः स भवेत्पादः ___ अत्याहार: स्वभावश्च
४६५ अञ्चिता प्रसृता लोला
अत्युच्चखर्वपीनत्व०
३६७ अञ्चितेऽपसरत्यौ २३. अब चोत्पलुतिपूर्व स्यात् ३८८ अचितो मण्डलगतिः ९९ अत्र प्रहरणं वाचं
३८२ अञ्जलिश्व कपोताख्यः
२६ अत्र प्रानिधनाच्चित्त. अहतालं निसारंच ३७८ अब स्थाने नितम्बस्य
२७१ जड़ितोक्ता चतुर्भेदा ३५२ अब स्यात्सालगं गीतं
३८८ अत: स्यात्करुणः स्पष्टः ४१३ अवारालौ पताको वा अतिकान्तं दण्डपादं ३४८ अकभ्रूममुत्क्षेपात्
१४० अतिक्रान्तं वामतोऽथ २६५ अथ देशीस्थानकानां अतिकान्तस्ततो वामः ३५४ अथ देश्यनुसारेण
२४० . अतिक्रान्तस्तु वामाधिः ३५९ अथर्वणादारभटी अतिकान्तगतं पादं २९४ अथ लक्षणमेतेषां
१९५ अतिक्रान्ता भ्रमरिके
३५९ अथ वक्षः स्वस्तिकं तु २६८ अतिक्रान्ताप्यपक्रान्ता
२९० अथवा रेचितौ प्रोक्तो अतितृप्तिः स्वभावश्च
४५३ अथ व्यभिचारिणां नि० अतिप्रगल्भमेतस्मात्
३६६ अथ संचारिणो मोह. . ४३५ अतिप्रयत्नसाध्येऽर्थे
५५ अथ स्तम्भादयोऽप्यष्टौ ४३३ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
३१९
६५
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४७७
पुटसंख्या
१००
२७९
४३० ४५०
१५०
१९३
२९०
अथ स्थानानि वक्ष्याम: अथापि चेति वदता अदूरालोकिनी म्लान. अदृश्यदशनो हास्यः अद्भुते च प्राकृतं तु अद्येहसांप्रतार्थेषु अधःक्षिप्तास्तथोत्क्षिप्ता: अधः स्त्रीणां केशबन्धे अधमप्रकृतिप्राणि अधमे त्वभिनेये स्युः अधमे धावनं ध्यानं अधरे दंशनं दन्तः अधरो दशना जिह्वा अधस्तलत्वमप्यन्ये अधस्तले पार्श्वयुक्त अधस्तलौ चेदाविद्ध अधस्थदर्शनं यत्तद् अधिक्षेपादमर्षः स्यात् अधिष्ठितं सदः कार्य अधीराणां जातमात्रे अधृतिश्चानुभावाः स्युः अधोगतोच्छितचल. अधोभागचरी किंचिद् अधोमुखं तु भुमं तत् अधोमुखः शिरः प्रान्ते अधोमुखचलाङ्गुल्यौ अधोमुखनिघृष्टौ तौ अधोमुखानुली हस्तौ अधोमुखोत्प्लुतोऽप्रेच
पुटसंख्या ३१९ अधोमुखो महीश्लेषी
, अधोमुखौ कटिक्षेत्रे १४३ अध्यधिका चाषगतिः ४१७ अध्यस्तसंविदिं प्राणे १४६ अध्यात्मविषयागोष्टी
४६ अण्वव्यायामसेवाये: १७९ अनन्ता: सन्ति संदर्भान्
३८ अनन्तान्याहारेषु २३४ अनयोः करयोः केश.
अनयोभ्रमणं प्राहुः
अनवस्थिततारा च १७१ अनादिवेदमलेन
अनाभुप्रासमेतच ५५ अनामिकाकनीयस्य ४३ अनाविष्टेषु भावेषु ६३ अनाश्वासे विस्मये च १५७ अनिमेषेक्षणाच्छीतात् ४५४ अनिष्टफलदानेन ३९६ अनिष्टे गन्धवाग्घोषे ४६२ अनिष्टेऽसूयिते तेज: ४५० अनुकम्पाविधाने स्यात्
३३ अनुभावद्वयं यत्र १४९ अनुभावपिधानार्थः १७६ अनुभावस्तदा भावः ३४ अनुभावात्तु शिरस: ३५ अनुभावा भवन्त्यष्टो १९७ अनुभावा भवन्त्येते २३१ अनुभावा रसवशात् २४३ अनुभावा हेतवस्ते
१८१
१८
४७१
४३५ ३५
१४६ २३५ ४५१ ४५८
४४८
४६४
४०९
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________________
४७८
संगीतरनाकरः
३२५
४
.
पुटसंख्या
पुटसंख्या अनुभावास्तु चैवास्याः ४५६ अन्ये पश्चविधेऽप्याहुः अनुभावास्त्वमर्षादि. ४४८ अन्ये पताकसूच्यास्यौ २०७ अनुभावितमाख्यातं
४५७ अन्ये पताकाष्ठस्य अनुवृत्तिर्मुखरिणः
३७४ अन्येऽवहित्यहस्तेन अनेनाभिनये त्याग
१९९ अन्येषु तत्सहायेषु अन्त:स्थिताङ्गुलि: कार्य: ५३ अन्यैरुक्का व्यवस्थेयं अन्तरं चतुरैः स्थान
३३१ अन्योन्यकार्यविषयौ अन्तर्जानुः स्वस्तिकत्वं २८३ अन्योन्यजन्यजनकाः
४०४ अन्तर्नतेन गात्रेण
२१९ अन्येन्यसंमुखौ सन्तो अन्तर्बहिश्च दृश्यन्ते
५२ अन्योन्यस्कन्धदेशस्थौ अन्तर्भावोऽस्ति केषांचित् ४६६ अन्योन्यस्यान्तरैर्यत्र अन्तर्भूतं वदन भट्टः
१८२ अन्योन्याभिमुखत्वे वा अन्ते दधच्चाषगतं
३५४ अन्योन्याभिमुखौ लक्ष्म अन्ते रचितया क्षेयं
३५३ अन्योऽप्येवं कराभ्यासात् अन्तेऽवहित्थकं स्थान
२०३ अन्योरुक्षेत्रपर्यन्तं अन्यतोऽलातकाक्षिप्ते २६२ अन्योरुमूलक्षेत्रान्तं
२९५ अन्यथाकथनं तद्वत् ४५८ अन्वयव्यतिरेकोत्थैः
४५८ अन्यदुद्वाहितं यत्र २०५ अन्वर्थों भवति श्याम:
१८१ अन्यायौ वृश्चिके प्राची २३२ अपकान्तं व्यंसितस्य
२६४ अन्याध्रिपृष्ठाभिमुखी २८९ अपक्रान्तो वामपाद: अन्याञ्चिताघ्रिजङ्घा च २९२ अपक्षेपाच डमरी
२८१ अन्या वा गायनी मुख्या ३७९ अपरेऽभ्युपजग्मुस्तं अन्ये करिकरस्थाने
२०. अपविद्धं प्रथमत: अन्ये त्वन्वर्थनामान: १६५ अपविद्धं समनख:
१९२ अन्ये त्वाचक्षतेऽन्योन्य. ८. अपविद्धश्च विष्कम्भ. अन्ये त्वाहुरोग्रस्थ: ६२ अपविद्धोऽथाप्रदेश
१०१ अन्येनादर्शने यत्र ४४६ अपविद्धोरूद्वत्ताख्ये
२६० अन्येऽन्यानूचुरुवृत्त.
१६६ अपस्मारोऽप्येवमेव अन्येऽन्वर्थ रिक्तपूर्ण १२६ अपाङ्ग निर्गताल्पाम:
४२८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
२९१
२५६
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
३६४ २९८ २८७ २८१
२६९
२७० १४४
२७३
२५९
२७३
अपि ब्रह्मपरानन्द. अपि संघट्टिता खुत्ता अपूर्वप्रतिभानं स्यात् अपेत्योपस्जेद्वाम अप्ररूढवचःप्रोके आभाषणादमर्षाच्च अभिघातात्तथोन्मादः अभिघातान्तरोद्भूते अभिलापस्ततश्चिन्ता अभिनेयवशादेषां अभ्यन्तरेऽऽरन्यस्य अभ्यन्यनहुं वलिता अभ्यस्तादन्य एवाति. अभ्यासांस्त्रिषु वाम्छन्ति अभ्येत्यायेत्थमन्या अमलमपि ब्रूते अमन्दरसनिष्यन्दि. अमर्षप्रातिकूल्येा . अमर्षे चाभिलाषा अयं मृदुनि निःसारे अयं हि विप्रलम्भादौ अयमाचमने कार्य: अयुक्तविषया तृष्णा अरालः प्रोन्नतापोऽन्यः अरालखटकौ हस्तौ अरालमुष्टिशिखर. अरालस्य यदात्यन्त. अरालाङ्गुष्ठतर्जन्यौ भरालौ कटिपार्श्वस्थौ
पुटसंख्या
५ अर्चयित्वा शुमे लमे २८१ अर्धचन्द्रः करो नाटये ४५८ अर्धव्यश्री यदा पादौ २३७ अर्धमण्डलिका तिर्यक २०४ अर्धमत्तल्लिकरणं ४६१ अर्धरेचितकार्य ४६. अर्धव्याकोशिते किंचित् ४६४ अर्धसूचि ततो दण्ड. ४१५ अर्धसूच्यथ विक्षिप्त
२६ अर्धस्वस्तिकसंज्ञं च २८६ अलकस्यापनयने २८९ अलकोत्पीडने मुष्टिः ३६३ अलतकादिना पाद. २६२ अलतकादिनिष्पेषे २३२ अलगं करणं कृत्वा ४०२ अलगं त्रीणि कूर्मोल. ३९३ अलपद्मः शिरोदेशे ४५३ अलपमः स एव स्यात ३२६ अलपमकरं न्यस्येत्
४६ अलपद्माकृतिं कृत्वा.. ४६१ अलपद्मावुल्बणौ च ___४७ अलपद्मौ कटीपार्श्व. ४४२ अलपद्मौ निकुटयेते
६२ अलातं ललितं चेति २३८ अलातकः परावृत्ताः २५ अलातां विदधचारी ४१ अलाताघ्रौ पृष्ठगते ५. अलातो वामचरणः ८१ अल्पो हस्तप्रचारः स्यात्
२४० २२७
२३७
२१६
३४८
२५६ २३९ ३१० ३५५
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
४८०
संगीतरनाकरः
पुटसंख्या
आ
"
६
पुटसंख्या अवज्ञा भ्रकुटीत्वाचा
४४८ अस्य कूर्मक इत्यस्या अवज्ञा वेदनासूया. १६६ अस्य तालान्तरालेषु
२१४ अवत्सकविताभ्यां च
३७८ अस्य व्यावर्तितस्थाने अवष्टभ्य कराभ्यां चेत्
२५१ अस्याङ्गुष्ठो मध्यमाया अवस्था देशकालादि. ३९८ अस्यैव चेचरणयोः
३३० अवहित्थं तदेव स्यात्
३२७ अने तन्मार्जने च स्यात् अवहित्थे तु दम्भस्य अविस्मयादसंमोहात्
४२८ अवोचत्तदतिक्रान्तं
३५४ आकम्पितं तदेव स्यात् अव्यकाक्षरभाषायेः
आकम्पितोद्वाहिते च अव्यक्तासंगतैक्यिः ४४९ आकुचस्कूपरौ स्कन्ध. अव्यवस्थिततानोच. ४७. आकुञ्चयेत्तदा चारी
३०८ अशुश्विरसंस्थान
४५५ आकुश्चित: पुरो वामः अश्रुपातो मुखे शोषः ४२. आकुचितपुटामन्द. अश्रुस्वेदादयश्वानु० ४५४ आकुञ्चितस्य पादस्य
३११ अश्लिष्टमध्यमा पृष्ठे
३६ अकुच्चिता कुचिता स्यात् अश्लिष्टस्वस्तिको सन्तो
आकुच्चिताक्षिगण्डं च
४१८ अश्लिष्टहंसपक्षाभ्यां
आकुचिताङ्गमाविद्ध. अष्टावेव रसा नाटथे. ४०० आकुचितोऽघ्रिरुत्क्षिप्य ३०३ असकृद्वा सकृत्पाणिः
आकुञ्चितोऽन्तर्निनोऽसौ १३२ असद्वादनिषेद्धारः
३९३ आकुचितौ कुञ्चितौ स्त: १५३ असंबद्धप्रलपनं ४६. आकृष्टश्वसना नासा
१६१ असंभाव्यस्य सत्त्वस्य ४३७ आकोकरा दुरालोके
१४७ असंयुता मता हस्ताः
२६ आकेकरा विशोका च असूयायां निगूढार्थे १४५ आकोशनमधिोपः
४४४ असूयायां प्रयोगः स्यात् १९७ आक्षिप्तं करिहस्तं स्यात् असौप्रति विभावंच ४६२ आक्षिप्तकं नितम्बंच
२७२ अस्थानजः साश्रुदृष्टि:
४१८ आक्षिप्तक: परिच्छिन्नः अस्पष्टालोकिनी मीलतू १४१ आक्षिप्तछिनकरणे
२६४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
२७१
२५६
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________________
४८१
पुटसंख्या
१५२ ३१९ ३२६ १५३
३४२
४७३
१९
४७०
२१५
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या
२६३ आमूलात्सद्वितीया भ्रः २३४ आयताख्यावहित्थाश्व. २०५ आयतानन्तरं कार्या २१७ आयतो प्रस्तौ स्यातां ३५३ आरादुत्साहिनो ये स्युः २६५ आराधने वः प्रवणा २१५ आरिराधयिषोः साधून १४९ आलापे च प्रयोकव्यम्
१ आलस्यादित्रयं वर्दी ८ आलस्यौम्यजुगुप्साभ्य: ११ आलिङ्गनाच्छुरितके १२ आलिङ्गने च प्रत्यक्षे ३१ आलीढं स्थानकं यत्र ४४१ आलीढकृतसंधान २०४ आलीढप्रत्यालीढे च ४१६ आलीढाझविपर्यासात्
, आलीढाच्छुरिती पार्श्व० ४३८ आवर्तिता नताक्षिप्ता. ४३५ आवाहने स्वचित्तस्थ. १९ आविद्धः कुञ्चितो नमः ८१ आविद्धभ्रामितभुजौ ४३८ आविद्धवक्त्रता नीत्वा २३१ आविद्धवक्त्रौ सूच्याख्यो २०३ आविद्धां विदधच्चारी १३६ आविद्धापादामन्योरु. ३२६ आविद्धोऽभ्यन्तराक्षिप्त:
३३ आविर्भावतिरोभाव. ३८२ आविष्कुर्वत्सव्यवाम० ३४३ आवृत्तयः कटीच्छन्नं
आक्षिप्तस्वस्तिकं कृत्वा आक्षिप्त वामतवारी आक्षिप्तामप्यपक्रान्तां आक्षिप्ता यत्र चारी स्यात् आक्षिप्तमण्डलभ्रान्त्या आक्षिप्तोरोमण्डले च आक्षिप्य परिवर्तेन आधूर्णमानतारा स्यात् आङ्गिक भुवनं यस्य आङ्गिको वाचिकस्तद्वत् आनिकाभिनयैरेव आङ्गिकोक्कप्रकारेण आचार्याणां तु सर्वेषां आत्मन: कथ्यते शान्त: आत्मसंभावनाख्यान आत्मस्थः परसंस्थधेत् आत्मस्थो द्रष्टुरुत्पन्नः आयो मनोरथावाप्तेः आयौ रुधिरविष्ठादि. आधुतं तु सकृत्तिर्यक् आनन्यादभिनेयानां आनन्दजस्तथा दिव्यः आनीय परिवृत्तेन आनीयाविद्धषको चेत् आपिबन्तीव दृश्यं या आभाषणे च कर्तव्ये आभिमुख्ये मुखक्षेत्रम् आभोगेनाथ नृत्येच्च श्रामुखं च प्रहसनं
३२४
३१९ ३२४
२३७
४२७
३७८
२.५
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
Page #524
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________________
४८२
संगीतरनाकरः
३१९
१०
पुटसंख्या
पुटसंख्या आवेगः प्रबलोऽयं तु
४६२ इति भेदद्वयं प्राहुः आवेगसंभ्रमी जाडयं
४३६ इति यत्र विभावा: स्युः आवेशातिशयं नीतः ४०६ इति संघविशेषेण
२५५ आवेष्टितप्रक्रियया
१८५ इति सप्तापरे प्रोक्का: आवेष्टितोद्वेष्टिते च
१८३ इति स्थानानि षट्पुंसां आव्रजन् जनसंघे स्यात्
इत्यष्टोत्तरमुद्दिष्टं आशाबन्धलथीभूत. ४१४ इत्यष्टौ करणानि स्युः
२६६ आशीर्वादादिषु प्रोतः ३८ इत्यादयः स निर्वेदः
४४५ आश्रितं चैकवचनं
७. इत्यादयोऽनुभावा: स्युः माश्रित्य कैशिकी वृत्ति
इत्यादयोऽनुभावास्तं आश्लेषे शिशिरे चासो
९५ इत्यादयो विभावाः स्युः ४२८ आश्लिष्टौ मणिबन्धस्थ. १९७ इत्युक्तास्त्रिविधा भावाः आसीना वामभागे स्युः ३९६ इत्युक्तौ पञ्चधा स्कन्धौ आस्यं क्षेप्यं हि शकट. २८४ इत्यूहः पञ्चधा तत्र
१२७ आस्योत्क्षिप्ततयोद्त्तः १६८ इत्येतेऽभिनया यत्र आहार्य चन्द्रतारादि १ इन्द्रियाणां जयं प्राह
४३. आहार्यो हारकेयूर.
९ इमं तु नाव्यतत्त्वज्ञा: आहुः पृथक्प्रयोगेऽपि २७४ इटबन्धुवियोगश्व
४१९ आहुरन्ये त्वदृश्यौ तो
१५४ इष्टाधिकानामिष्टाना आहाने च बहिश्चान्तः
४१ इष्टानिष्टवियोगाप्ति.
इटानिष्टापरिज्ञानं
इष्टार्थापहृतिश्चाथ इतरेतरचित्रत्वात्
४११ इह तत्प्रभवो भावः इतस्ततश्च चरणो
३०३ इति पद्धतिरुत्तेयं इतिकर्तव्यता तस्य ९ ईर्ष्याक्रोधकृतो जल्पः
३२४ इतिकर्तव्यता त्वन्या
७० ईषच्च पृष्ठतो यान्ती इति घर्घरभेदाः स्युः ३८५ ईषत्कुश्चितपक्षमाप्रात्
१३९ इति पञ्चविधा जडा १२८ ईषत्प्रस्तजवं यत्
३४. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
३७५
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४८३
पुटसंख्या
१५१
३११
ईषत्फुल्लकपोलाभ्यो ईषद् दृश्योर्ध्वदशनः ईषद्वाष्पे च नयने ईषदकस्तु नम्रोऽसौ
४२९
१५
३४
१८२
पुटसख्या
४१७ उत्क्षेपे विस्मये हर्षे १६८ उत्क्षेपो जानुपर्यन्तम् ३३६ उत्तमः संप्रदायोऽसौ १०३ उत्तमप्रकृतिष्वेव
उत्तमानां मध्यमानां
उत्तमानां विप्रलम्भे १७३ उत्तमे पुरुषे स्वाप: ४६६ उत्तमे मध्यमे चानु०
६९ उत्तमेष्वभिनेयेषु २५. उत्तमे संनिकृष्टाः स्युः
३३ उत्तरेणाधराघाताद् ३७९ उत्तानस्तुरगादेः ४२२ उतानितालिद्वन्द्वः १.१ उत्तानोऽघस्तलः पार्श्व.
९५ उत्तानोऽधोमुखः पार्थ. १६५ उत्तनोऽधोमुखत्वाभ्यां ३३८ उत्तानोऽधो व्रजत्येक: २५१ उत्तानो रेवितश्चैकः १४९ उत्तानो वामपार्श्वस्थ: ४५९ उत्तानो केचिदन्ये तु
२२ उत्तानो पातयेदूर्वो: १७८ उत्थापकाभिधो भेदः १७९ उत्पत्तिरनुभावास्तु १५. उत्पाटने धारणेच
९३ उत्पातजोऽस्यानुभाव: २९३ उत्पातवातवर्षानि. २२७ उत्पाद्यते विभावाद्यः ३०३ उत्प्लुत्य भ्रमरी कुर्यात् २२५ उत्प्लुत्य मध्यमावर्त्य
उक्तप्रायं सुखार्थे तु उक्कै रत्यादिभिर्भावः उक्तौ तत्र द्विवचनं उचितभ्रमरी प्राह उचितौ विच्युतौ कार्यों उच्चार्य स्थायिनं कुर्यात उच्चैः स्वरविलापं च उच्यते मण्डलगतिः उच्छ्रितौ हर्षगर्वादौ उच्छास: कुसुमाघ्राणे उत्कटस्यैव जान्वक उत्कटासनमास्थाय उत्कम्पोत्फुलतारा स्यात् उत्क्रोशकम्पस्तनितः उक्षिप्तबाहुशिखरं उत्क्षिप्ता पतितोरिक्षप्त. उत्क्षिप्ता मुहुरुक्षेपात् उत्क्षिप्ता संमतान्वर्या उत्क्षिप्तेतरभागोऽसौ उत्क्षिप्य कुचितं पादं उत्क्षिप्य कुञ्चितः पादः उरिक्षप्य कुचितौ पादौ उत्क्षिप्य पात्यमानेऽङ्ग्रौ
१८२
२२०
१९७
४६४
२१९
२४६
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________________
४८४
उत्प्लुत्य युगपद्यत्र उत्प्लुत्याचितवद्यत्र
उत्प्लुत्यान्यतमां सूचीं
उत्फुल्लनासिको हास्यः
उत्सारित इति प्राहुः उत्साह: स्थायिभावश्च
उत्साहमाहुरन्येऽन्ये उत्साह विस्मयौ सर्व •
उत्साहसम्यग्बोधौ च
उत्साहस्त्वत्र संचारी उदास्ते तद्गतिस्थित्योः उद्गतिस्तु समुहृत्तम्
उद्ग्रीवा वेक्षणावज्ञ •
उद्घट्टितं भुवि न्यस्येत्
उद्घट्टितश्चेति मुनेः
उद्घट्टितस्ततो बद्धः
उद्घट्टिताख्यं मत्तल्लि
उद्घट्टिते निकुहाख्यम् उद्घट्टितोऽङ्घ्रिः पार्श्व तत्
उद्घात्यकावलगिते
उद्दिश्य स्थायिन: प्राप्ते
उद्धृत: कुञ्चिताकारः
उद्धृत्य समपादाया:
उद्भेत्ता नूनभङ्गीनां
उद्भामित पुटोत्फुल्ल • उद्वाहितं च शीर्षस्य
उद्वाहितं नतं चेति
उद्वाहितं पञ्चधेति
उद्वृत्तश्च संभ्रान्त.
संगीतरत्नाकर:
पुटसंख्या
२०१
२४३
२४७
४१८
९९
४२९
४०२
४४४
४२५
उत्तको द्विर्विक्षिप्त •
उद्वृत्तश्चैव वामस्तु
उत्तमध्ये रसूच्याख्यं
९२
३५१
उदुत्तस्यान्यपादस्य
उत्तेन निकुट्टेन
उत्तो दक्षिणोऽलात:
उद्धत्तो विद्युद्धान्तश्व
उद्वेगस्य तु निर्वेदे
उद्वेगापतौ पादौ
उद्वेगोऽथ विलापः स्यात्
"1
३२८ उद्वेष्टनं वेटयित्वा
१५६ उद्वेष्टनमथोत्क्षेपः ४६१
२९१
उद्वेष्टेनापवेष्टेन
उद्वेष्टितक्रिया पूर्व •
उद्वेष्टित किया पूर्व
उद्वेष्टितकियों वक्ष •
२६६ उद्वेष्टितापवेष्टाभ्याम्
२६७
२३७
उद्वेष्टितेन निष्कास्य
उद्वेष्टितेन व्याख्यातं
उद्वेष्टिते समं चार्या
३४३
४०२
उद्वेष्टितो भवेत्पृष्ठ •
३३४ उद्वेष्टय दक्षिणं हस्तं
२८५ उन्नतं करिहस्तं च
३७०
उन्नतं चेति संचख्युः
१४६
उन्नतोदोलितोऽन्यस्तु
४५१
उन्नतोर्ध्वानिता ग्रीवा •
३१९
पुटसंख्या
२७३
३५७
२७३
३०६
"
३५८
३५१
४६६
२०९
४१५
३११
२८२
२२०
१९८
२००
७८
२२४
२०१
१८५
२६७
१०२
२०४
२७२
८९
६९
९९
उन्मादः परमानन्दः
४३९
ev
उन्मादः पृथगुकोऽयं
४६०
२५६ उन्मादकं श्रिया जुष्टं
३६६
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४८५
पुटसंख्या
३४२ ३१२ १५८
१६३
A
पुटसंख्या उन्मादव्याध्यपस्मार.
४१० उल्लसद्गीतनृत्ताव्या उन्मादादिदशां चाति.
उल्लोल: स्याच्चरणयोः उन्मुखेक्षणमित्यादि.
४४६ उल्लोकितं तदूर्ध्वस्थ. उन्मेषितौ तु विश्लेषात् १५४ उल्लोलितालोकिते च उपधाय भुजामेकां
३३९ उष्णो दीक़ सशन्दौ च उपनीता: कविवरः
४०७ उपर्युत्तनितोऽर्धेन्दौ
३६ उपर्युपरि विन्यस्तो
५८ ऊरुं ताडयति प्रोता उपलक्षणमेतत्तु
४१८ ऊरुद्वयं च हस्तानां उपवक्षस्थलं हंस.
७२ ऊरुद्वयस्य, वलनं उपविष्टस्थानकानि
३१९ ऊपृष्ठस्थितेका ः उपमृत्यापसतां
२८५ ऊरवेणी तलोद्त्ता उपाङ्गानि द्वादशेति
१६ ऊरुस्थस्वस्तिकाकारी उपाध्यायं नृतकन्या:
३६४ ऊरू जड़े षडित्याहुः उपायान्वेषणं चित्त.
४५५ ऊद्वृत्तं च करणम् उपेतं करणैरल्पैः
१४ ऊरूदत्तं तदायां उरः पार्श्वन विन्यस्य
३१२ ऊरूद्वत्तमथाक्षिप्त उर: समुन्नतं सन्नं
३२१ ऊरूदत्ता तदा चारी उरो यत्र तदन्वर्थ.
२२५ ऊरूद्धृत्तेत्यथ ब्रूमः उरोमण्डलकं छिन्नं
२६६ ऊरूद्धृतोऽहितवारी उरोमण्डलकं यत्र
२६९ ऊरू यत्र निषण्णौ तत् उरोमण्डलकादूर्व
२७० ऊरू विस्तारितौ बाहू उरोमण्डलमावर्त
१९२ ऊर्णनाभः स चौर्येण उरोमण्डलसंज्ञ च २६१, २६३, २६४, ऊर्णनाभश्व संदंशः
____२६८, २७३ ऊर्व गच्छन् कटिक्षेत्रात् उरोमण्डलिनावे
३१ अर्व गच्छन्नुच्छितेषु उरोमण्डलिनौ स्याताम्
२७ ऊर्ध्व तादृक्परावृत्या उरोवर्तनिकात्वेन
__ ७५ ऊर्व नीतोद्वाहिता स्यात् उल्लसत्कान्तिवलये
३६९ ऊर्ध्व पार्श्वेऽप्रतो वा स्यात्
१९० २८८ २४२ २८. ३०२
१६ २६२, २६७
२३८ २५९ २८९
३५० ३२३
३३०
१२९
५३
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________________
४८६
संगीतरत्नाकरः
७६
३२८
Sm.
»
M.
पुटसंख्या
पुटसंख्या ऊर्ध्व व्यावर्तितोनाथ २०८ ऋते सर्वक्रियाद्वेषः ऊर्ध्वगोऽधोगतः पार्श्व. १८३ ऊर्ध्वगौ पृष्ठतो नम्र ऊर्ध्वजानुरलाताच
२८. एकं वर्तनयारालं ऊर्वजानुस्तथा सूची ३५६ एकः कार्यो रसः स्थायी ऊर्वजानोः परं चारी २२१ एकः प्रसारित: किंचित् ऊर्वप्रसारिता यत्र
४३ एकः समस्थितः पादः ३२. ऊर्ध्वमण्डलिनौ कृत्वा १९७ एकः समोऽङ्घ्रिरन्यश्चेत् ३३२, ३३४ ऊर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ २५, २२८ एक: समोऽघ्रिरन्यस्तु ऊर्ध्वमूर्खालितलः २१८ एक उद्वेष्टितेनाध:
२१५ ऊर्ध्ववक्त्रं शिरो शेयम्
२३ एकतोऽनुलिसंघाते ऊर्चवक्त्राधोमुखी च
४४ एकत्रोर:स्थितोत्ताने ऊर्वश्वासे च कर्तव्या १६१ एकत्वे तर्जनी चोर्धा कार्यस्थोऽधोमुखस्तिर्यक् ९९ एकपश्चाशदाचष्ट ऊर्ध्वा कनीयसी यत्र ४५ एकपादाचितं तत्स्यात्
२४२ ऊर्ध्वाङ्गुष्ठौ पताकाख्यौ ५८ एकपादे स्थितः स्थाने
३०१ ऊर्ध्वालगं तत्पतित्वा
२४४ एकपार्श्वगतं च स्यात् ऊश्चि मुकुलः स स्यात् ४९ एकस्य मणिबन्धेऽन्य. ऊस्त्रेितामिसंस्थान ४२ एकाप्रचेतसः सन्तः
४०१ ऊर्धास्यौ पद्मकोशौ च
६२ एकाकुलमध:स्तं ऊहापोहेश्च विविधैः
४५८ एकाघ्रिजा त्वेकपाद• कापोहोच लीलायाम्
४५ एकादश स्युः करणा. एकादशाभिरभ्यासात्
२६४
एकेन चतुरश्रेण ऋग्यजुः सामवेदेभ्यः ४ एकैकं करणं कार्य
२५० ऋग्वेदादारती जाता
३४१ एकैकश: प्रयोगोऽपि ऋजुः समः पुस्तकस्य १३२ एकैकशो द्वन्द्वशो वा
४५९ ऋग्वी श्रमे पिपासायां १७२ एकैव ललितोरिक्षप्ता
१५१ ऋग्वी सकानुगा वका १७२ एकोऽधिः कुचितोऽन्यस्तु
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३१९
२४५
३३३
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४८७
पुटसंख्या
४१५ १४० ४१६ ४६७ ३८१ २९७ १६२
पुटसंख्या
१५ एतेषां च परस्थानां ९५ एतेषां विनियोगव २१९ एते स्मितादिभेदेषु २३८ एते स्युः सात्त्विका भावाः २३४ एवं कुर्वत्प्रकियायां २४१ एवं चारीप्रधानत्वे ३२२ एवं दशविधः प्रोकः ३२१ एवं परंपराप्राप्त १९३ एवं पुन: पुनयंत्र।
२० एवंप्रभतयो भावाः २०७ एवं भ्रान्त्वा क्रमाद्यत्र २९६ एवं सति खाद्यमान. २०६ एवमाद्या विभावाः स्युः २४८ एवमन्योऽन्यनियमात् २३२ एवमुच्छासनिःश्वासौ २१४ एष संभोगङ्गार. २०१ एष स्पर्शे चपेटे च ३६९ एष शैलशिलोत्पाटे २३६ एषामाद्यानि चत्वारि २७ एषु सालगगीतेषु
२३७ ४२९
३५२
एकोछौ कथितौ स्कन्धी एकोचौ कर्णलौ च एकोऽन्योऽधोमुखो यत्र एको हस्तो द्वितीयस्तु एडकाक्रीडिता चारी एणप्लुतं ततस्तिर्यक् एतच्च विप्रदत्ताशी: एतच वैष्णवं स्थान एतत्पुष्पाञ्जलिक्षेपे एतत्पौरस्त्यनिर्देशे एतदुत्पतनौत्सुक्य. एतदैरावणादीनां एतद्दक्षिणतो वाम एतस्यास्तु विपर्यासात् एतद्रौद्रगतं योग्य एतद्विस्मयसूयायां एतनिषेधराभस्य. एतन्मण्डनमन्यद्वा एतन्मध्यमदे योज्यं एतानभिनयेऽप्याहुः एतानि दर्शनान्याहुः एतेऽनुभावास्तेषां तु एते न्यायाः प्रयोक्तव्याः एते पाादिभेदा: स्युः एतेऽभिनयहस्ता: स्युः एते यत्र विभावाः स्युः एते यत्रानुभावा: स्युः एते यत्रानुभावास्तत् एवे विषयभावेन
४६७ ४३२ २७७
ओ ४२४ ३४७ ओतावत्सरिगोणीनां १७८ भोष्ठयोः संपुटस्तिर्यक
४३६, ४५१
४२. औग्यूमावेगरोमाश्च. ४४८ औग्यूरोगजराक्रोध. ४५१ औचित्याच्च्युतयुक्तं तु
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________________
४८८
संगीतरनाकरः
२४६
पुटसंख्या
पुटसंख्या औदार्यधैर्यगाम्भीर्य
१३८ कय्यामधस्तदा त्वर्ध. २०९ औदार्यस्थैर्यधैर्याणां
कण्टकोद्धरणे सूक्ष्म औदासीन्याधश्च्युतिस्तु
कण्ठोष्ठमुखशोषश्च कथका बन्दिनश्चात्र
कथायामश्रुरोमाश्चाः कक्षवर्तनिकेत्येतो
कदचित्स्वप्रधानः सन् कटाक्षत्रुकुटीवर्क ४२३ कनिष्ठाङ्गुलिभागे चेत्
२१८ कटाक्षिणी साभिलाषा १४. कनिष्ठाइलिभागेन
२८७ कटिभ्रान्तं व्यंसितंच १९२ कनिष्ठाश्लिष्टभूरन्य:
३२८ कटिस्थं दक्षिणं हस्तं २३५ कपालचीरनिर्माल्य.
४६० कटीच्छिन्नं च करणा. २६३ कपालचूर्णनं कृत्वा कटीच्छिन्नं च करणं
कपित्थ: स्यात्तदा कार्यः कटीच्छिन्नं च करणैः २६१, २६४ कपित्थौ शिखरौ मुष्टी कटीच्छिन्नं चतुर्थ चेत् २७४ कपोतोऽसौ करौ यत्र कटीच्छिन्नं च षडिति
२६५ कपोलयोरोष्ठयोश्च कटीच्छिन्नं च सप्तेति २६२,२६४ कपोलांसललाटानां कटीच्छिन्नं पञ्चमंच
२६७ कपोलावुनतौ पूर्गों कटीच्छिन्नं परिच्छिन्नः
२६२ कपोलौ षड्विधायुक्तो कटीच्छिन्नं सप्तदश
२७० कम्पनात्कम्पिता भीती कटीच्छिन्नं सप्तमं तु
२६५ कम्पितं स्फुरितं प्राहुः १७५ कटीच्छिन्नं स्मृतं षष्ठं २७० कम्पित: सुरते शास्त्र.
१६५ कटीच्छिन्नमिति प्रोक्तः २६१ कम्पितेत्यपरा: पञ्च
१२९ कटीच्छिन्ना च वैशाख
२१२ कम्पितोद्वाहिता च्छिन्ना कटी जानुसमा यत्र
३११ काम्पितो वलित: स्तब्ध. १२७ कटी जानुसमौ व्योनि
३२३ करं कृत्वा नते पाढे कटीतटे तत: पादौ ३५२ करं चरणमाक्षिप्य
२२४ कटोनितम्बगो हस्तः ३२५ करं शिर:कपोलान्तः
३४६ कटी पञ्चविधेत्युत्युक्ता ९. करकर्माणि नृतज्ञैः कट्यामन्योऽर्धचन्द्रश्व २०५ करणं दर्पसरणं
२४५ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
४१६
१८९
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४८९
पुटसंख्या
४१८ २२४ २५८
२३६
३७८
२४.
३४३
पुटसंख्या करणं नृत्तकरणं
१९१ करोति यत्र तत्प्राहुः करणन्यूनताधिक्यं
२५५ फरोपगूढपार्श्वश्व करणवातसंदर्भ
२५६ करोडपरो रेचितश्च करणानि तदा प्राचि
२४८ करौ कृत्वोज्झितालीढः करणानि त्रयाणां तु
२६२ करौ च रेचितौ विष्णु. करणान्यष्टसंख्यानि
२६५ करौ हि स्वस्तिकीभूय करणाभ्यां मातृका स्यात् २५५ कर्णपुरे तालपत्रे करणेनाभिनेतव्या
२२५ कर्णयोहावबहुलं करणे: करणातीतः
१९० कर्णाटमण्डलेयुक्ताः करणे: पञ्चदशभिः
२७३ कर्तव्य: करणे प्रायः करण: स्थिरहस्त: स्यात् २५८ कर्तव्यः शास्रपातस्तु करणः स्थात्त्रिभिः खण्डः २७८ कर्तव्यो मुखसंदंशः करणेरजहार: स्यात्
२६० कर्तव्यो स्वस्तिको हस्तो करणगङ्गहारेश्व
१३, १५ कर्मभिस्तारकाभेदा: करमान्तरेणवं
२०५ कर्माणि पाणिक्षेत्राणि कराङ्गगावविक्षेपात्
४६. कलासे वाद्य घातं च कराज्री रेचितौ यत्र
२०० कलासेषु भवेत्पा करावरालयोः स्थाने
५५ कलितं कुन्तल लं करावूरु काटिन्यस्तो
३३६ कविचारांस्तथा भाव. फरिहस्तं कटीच्छिन्नं २५९, २६०, कवचारो भवेदत्र
२६३, २६६, २६७, २७१ कवितेनेव विषम करिहस्तं च करणं
२६१ कवितेऽपि प्रयोज्यास्ते करिहस्तं चार्धसूचि
२६४ कस्तूरिकादिवस्तूनां करिहस्तकटीच्छिन्ने
२७२ कस्तूरिकाचन्दनाये: करिहस्ताकृतिस्त्वेकः
७. कस्तूरीपत्रभङ्गाको करिहस्तोऽलपनत्वं
२०२ कस्त्वं कोऽहं व संबन्धः करिहस्तौ करौ पादौ
२१६ कस्य त्वमिति नास्तीति करुणस्त्रिविधस्तेषा
४२२ कांदिशीकतया दृष्टः करुणे विप्रलम्मे च
४१३ कांश्चिद्गीतस्य तालेन
३८१ ३८१
३८८
१२५
३६४
३८
४३३
३८१
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________________
४९०
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
१७६
पुटसंख्या कांस्यतालधरास्त्वाष्टौ ३७३ किंचिच्चेत्कुञ्चितानि स्युः १४५ काङ्गलेऽनामिका वक्रा ४२ किंचिच्छलेषः समं तच्च १७१ कान्तादृष्टि: कटाक्षाख्यं ४०९ किंचित्कुश्चत्पुटा किंचित् १४९ कन्तानुकरणं हंस०
४०७ किंचित्कुञ्चत्पुटा गूढ० १४५ कान्तायाः सुकुमाराङ्ग.
किंचित्कुश्चत्पुटापाझा
१४७ कान्तासंयोगविरही
४०६ किंचित्तिर्यगधो मः कान्ता हास्या च करुणा १३५ किंचित्प्रसार्य चोरिक्षप्य
२९० कान्तौ तीवस्मराकान्तौ ४०७ किंचिदन्तः समाविष्ट.
१३६ कामजोऽप्यस्ति स द्वेधा ४६. किंचिदाकुञ्चिते नेत्रे कामशास्त्रे च शहारे
४१४ किंचिदायामिवक्त्रं च कामशिक्षितभावं च ३६६ किंचिदुत्प्लुत्य चरणौ
२८६ कामवस्थासु सर्वासु ३२८ किंचिल्लक्षितदन्तश्च
४१७ कायस्थितिमनोनेत्र. ३६४ किं तु मत्प्रेमत: सन्तः
४७३ कारं कारं करस्तद्वत् २९७ किं त्वेतत्करणद्वन्द्व
१८५ कार्य दौर्गमिदं स्थानम् ३२७ कीर्तिः सुहृदुदासीन.
४३१ कार्य व्याधौ विषादे च ८८ कीर्तिप्रागल्भ्यसौभाग्य कार्य: पुष्पाजली चेष.
५४ कुट्टनं खण्डनं छिन्नं कार्यः शिरोमुखोरस्थ:
५२ कुचकक्षादिदेशस्थः कार्यः सुव्यक्तलक्ष्माणः
८५ कुचादौ कामसूत्रज्ञा: कार्यानिश्चयिनी चित्त
४५३ कुञ्चन्मध्यं तिरधीनम् कार्याविवेको जडता ४५६ कुश्चन्मूला: करेऽल्यः
१७८ कार्यावौत्सुक्यनिर्वेद. १६३ कुञ्चितं पादमुत्क्षिप्य कार्ये तालानुसंधाने २०७ कुञ्चित: प्रसरत्यध्रिः
२३६ कार्यो स्वस्तिको सिंह.
५० कुच्चित: स्यादतिश्रान्त. कार्यवेपथुदाहाश्च
४६४ कुचितश्चरणो यत्र काव्यं गीतं तथा नृत्तं
३४४ कुञ्चिताङ्गुलिरुत्क्षिप्त. काव्यबद्धं विभावादि ___कुञ्चिते चरणे चार्या किङ्किणीवाद्यवेदीच
३९२ कुञ्चिते स्वस्तिकीकृत्य किंचिचेत्तलमध्यस्थ: ५. कुचितोत्क्षिप्तपादस्य
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.
.
१८०
२९२
2
Ad
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श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४९१
पुटसंख्या
पुटसंख्या
२१४ २९४ २८८ २९२ २२९ २३५
२६१
३९८ १५२
कुचितौ कम्पितौ पूर्णौ कुञ्जराणां निरवधि. कुन्तनिस्त्रिशदण्डादि. कुमुदोत्पलकुन्तेषु कुरुते पक्षिण: प्राहुः कुरुते यत्र सा चारी कुर्यान्मुहुर्मुहुस्तत्तु कुर्युगम्भीरमातोद्य. कुर्वन्तीति मया प्रोकाः कुर्वन्वा भ्रमरी हस्तौ कुलरूपबलेश्वर्य कुसत्त्ववासने चेदं कुसुमावचये मुक्का. कूपरस्वस्तिकयुतौ कूर्मासनं नागबन्धं कूर्मासनं यद्यलगे कृतालगो निपत्योाम् कृतेऽध्योपूंर्णतो यत्र कृतो वक्षस्यरालोऽन्यः कृतो इस्तस्तथान्याङ्गं कृतो सिंहाभिनयने कृत्रिमस्तूतानकृतः कृत्वा चारीमतिक्रान्तां कृत्वा चारीमपक्रान्तां कृत्वा च्छिन्नां कटीमेकां कृस्वाथ वाद्यसाम्येन कृत्वानीतावधो यत्र कृत्वा नूपुरविक्षिप्ता. कृत्वा तृत्तं ध्रवेणैवं
१५९ कृत्वान्ते चतुरश्रः स्यात् ४६२ कृत्वा पादान्तरतल. ३९ कृत्वा पार्श्व गते स्वं स्वं ५५ कृत्वा पाणि: स्वपार्चे मा० ३५१ कृत्वा मृगप्लुतां चारी २८७ कृत्वालातां पुरोऽप्रिं चेत् २०९ कृत्वा वक्षस्येककालं ३८९ कृत्वा समनखं छिन्नं ४६५ कृत्वोत्लुत्य भ्रमरकं २१४ केचिदाहुः केवलयोः ४६१ केऽप्यूचुस्तत्तु निःशङ्कः ३३८ केवलं रतिहासादि. ४१ केवला सद्वितीया वा ७९ केशादिग्रहजे हर्षे ३१९ केतवेऽक्षप्रेरणेच २४३ केशिके स्याद्भारतवत् २४४ कैशिक्यां यन्मतं नर्म० २८६ कोमलं सविलासं च २०७ कमात्कृत्वा यत्र वामम् २३२ कमात्कृत्वोदेष्टितेन
" कमात्सूची भ्रमरक: ४३५ क्रमादद्वयेऽप्येवं २२३ क्रमादङ्गान्तरेणेवं २०१ क्रमादाकुञ्चिताघ्रिभ्यां २०५ क्रमाद् तुतादिवैचित्र्यात् ३८२ क्रमानृत्येद्विशेषस्तु
५७ क्रमेण तत्र तज्ज्ञेयं २६१ क्रमेण दक्षिणः पादः ३८२ क्रमेण शकटास्यक्ष
३४७ ३४४
२२३
२११
३०४
१.५ ३८२ ३५१ ३५२
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________________
४९२
क्रमेणानन्तरं वामं
क्रियमाणे मर्दलादेः क्रियाविशेषः क्रियते
क्रियाविष्ट: करोऽन्वर्थ
क्रीडाकरणभावेन
क्ष
क्षणं भूत्वा प्रचलितौ
क्षामं खलं तथा पूर्ण
क्षामं स्यानमनाज्जृम्भा क्षामत्ववत ज्ञेय
क्षिप्तै हंसपक्षं च
क्षीरोदकं दुकूलादि
क्षुद्रे पूर्व मधस्तिर्यक्
क्षेत्रेऽत्र केचिदिच्छन्ति
खटकाख्यश्च तद्दिकः खटकाख्यस्तदन्वर्थे
相
खटकामुखमन्यं वा
खटकामुखयो: पाण्योः
खटकामुखद्दस्तौ चेत्
खटकास्योपरो वक्ष • खड्गादिश्रामणे चास्य खण्डनं तुमुहुर्द • खण्डसूचि ततो बाह्यं वेदे च संकुचरित्र चित्
་
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
३५२ गगने सागरादौ च
३८९ गङ्गावतरणं गङ्गा
१८३ गजदन्तश्वावहित्य:
२२४ गजरानन्तरं नास्ति
४५१
६८
१२६
33
१५९
१९९ गतागतं च वलितं
३६९ गतावान्दोलितोऽन्वर्थः
गतिभङ्गः स्मृतेर्नाश:
३५
२२५
२२७
२०६
६२
५५
७७
२०८, २२७
१०१
ܚܪ
गजरोपशमस्यान्ते
गजरोपशमेनैव
गजविक्रीडितं गण्ड●
गजानां तुरगाणां च
गजारोहे तु विवृतं
गण्डादि क्षेत्रसंस्थस्तु
गण्डौ विकसितौ फुल्छौ
३१९
५३
गतिस्थितिप्रयोगाणां
गत्युन्मुखी च यत्रैकं
गद्गदं वचनं स्वेद०
गम्भीरभाव: कुशल:
गर्वगाम्भीर्यमौ स्यात्
गर्वादगणनेनापि
गर्वेण स्वाङ्गवीक्षायां
गात्रमुत्तचारीक
गात्रविक्षेपमात्रं तु
गावाने स्य
गाव स्पर्शोल्लुकु
गात्रोत्कम्पी चमत्कारः
गात्रोद्धूननमाहादात् गायने में कोपेतैः
३१० गीतं चेति समाचष्ट
पुटसंख्या
५४
२३९
२६
३७५
१२४
३७८
१९३
૪૬૨
१३४
४६
१५९
३१९
१०४
४४९
१९३
३२८
४३६
३९४
३२६
४५८
१९
२३५
१२
४५०
४७०
૪૬૪
४३७
३८०
३८५
गगने चेतदा चारी
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________________
४९३
पुटसंख्या
२७५
९४
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या गीतादयश्च देशोऽपि
४०७ गौरता श्यामता वेति गीतादितालमाने च
५१ प्रन्थे मदीये यदि गीतादिसाम्यनिपुणाः
३७३ प्रहणे दीर्घनालानां गीतादेरागतः स्थाय:
३६३ प्रन्थिविलुलित: पृष्ठे गीतवाद्यध्वनि चारैः
३६७ ग्रीवा त्वभिमुखीभूय गीतवाद्यानुगमनं
३६५ ग्रीवाया विधुतभ्रान्ति: गीतेः सालगसूडस्थैः गुणदोषा मण्डनं च गुणदोषौ परीक्षेत
३६८ घट्टितः क्षितिघाती स्यात् गुणनिक्षेपणे मुक्ता.
५० घर्घरो विषमं भाव. गुणस्य दोषीकरण.
४८ मन्मुहुर्घटितोत्सेघः गुम्भीश्चत्रो रसानां स्यात् ४७२ गुरावश्यकचेष्टः स्यात्
४२८ गुरुव्यतिकमोऽवज्ञा
४५२ चकितद्विपुटा स्तब्ध. गुरौ प्रिये रिपो मृत्ये
४२८ चक्रचापगदादेव गुर्वी जिह्वा टीवनं च
४४९ चक्रभ्रमरिका खण्ड. गुल्मक्षेत्रेऽन्यपादस्य
२९. चक्रवर्तनिकेत्येतो गुल्फयोः स्वस्तिकं कृत्वा २०९ चतुःषष्टित्वमेतेषां गुल्फावष्टसंलियौ
१७८ चतुःषष्टित्वमेवं वा गुल्फो च संहतं तत्स्यात् ३३० चतुरं भ्रमरं चाथ गूडावलोकिनी शीघ्र
१४४ चतुरनं पाणिविद्धं गृध्रावलीनकं द्वे च
२७३ चतुरयं भवेदङ्गं गृहादिभजनं राज्य.
४२३ चतुरचं समाश्रित्य गृहीत्वापसृतौ कृत्वा
३४६ चतुरश्रः कर: पाणिः गोपनप्रायवाक्यार्थ.
२३३ चतुरश्रः स्थितः कृत्वा गोण्डलीविधिवच्चात्र
३८९ चतुरश्रकरः स्थित्वा गोण्डल्याश्च विधि: सम्यक्
१६ चतुरश्राविति प्रोतः गोण्डल्या मण्डलं प्रोक ३७७ चतुरश्रीकृत्य पाण्योः गौण्डल्योजोन्विता सा स्यात् ३८२ चतुरश्रीमभजन्तौ
१३७
२७३
२९०
२०३
२०२
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________________
१४३ १५६
३२१
४९४
संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या
पुटसंख्या चतुरश्रेण मानेन २५६ चरणौ यत्र तामाहुः
३०२ चतुरश्रौ करौ कृत्वा
१९८ चरणौ यत्र सा चारी चतुरश्रौ करौ वक्षः १९९ चरेत्पादान्तरान्मन्दं
२३० चतुरश्रौ तथ द्वृत्ती
२६ चलत्तारा मनाक्कुञ्चन चतुरा रुचिरे स्पर्श
१५३ चलनं कम्पनं प्रोकम् चतुरे च भ्रुवो चारु.
४.९ चलपादमनत्युच्चम् चतुरो वा तदाक्षिप्त
२१८ चलितं श्लिष्टविश्लिष्टं चतुर्दिकं तदाख्यातं
३५२ चातुर्यवचने त्वेतो चतुर्दिक्षु तं भ्रान्त्वा ३५९ चारं चारं यथा चार्यो चतुर्धाभिनयस्तत्र
८ चारी च करणं खण्ड: चतुर्धाभिनयाभिज्ञः ३९ चारी चयविशेषः प्राङ्
३४७ चतुर्धाभिनयोपेतं
७ चारी चाषगतिस्तस्यात् २२. चतुर्धा मुखरागोऽत्र
१८१ चारी चेन्जनिता मुष्टिः चतुर्भिः खण्डको ज्ञेयः २५५ चारी चेदक्षिणा : स्यात चतुर्भिर्वा कमात्ताले
२७८ चारी चेद्दण्डपादा स्यात् २१३ चतुर्विधेति विज्ञेया ३४१ चारीणां न्यूनताधिक्यं
૨૪૮ चतुस्तालाद्यन्तरेण
२९. चारी नानात्र चरणं चतुस्तालान्तरौ पादौ ३२३ चारी नूपुरपादोऽथ
२२८ चत्वारि क्ष्मादिभूतानि ४६८ चारी लडितजङ्घाख्या
२८१ चत्वारो मधुरध्वानाः ३७३ चारी सा जनिता यस्यां
२८८ चन्दन सरं गात्रं ३६१ चारी स्यात्करणे डीषि
२७६ चन्द्रलेखाकृति ति ३६ चारुचामरधारिण्यः
३६९ चरणं पातयेद्यस्यां २९३ चार्यः शुद्धाश्च देशीस्थाः
१६ चरण: स्वस्तिकाकार. ३०५ चार्यः स्थानेन ताभ्योऽतः ३१८ चरणानुचराण्याहुः
२९७ चार्यलाता नितम्बश्च चरणान्तरपार्श्व स्यात्
२८३ चार्यातिकान्तया चाप० ४६२ चरणेश्चाषगतिभिः ३५४ चायतिक्रान्तया पादं
२१५ चरणोऽग्रे सरत्येकः ३०६ चार्याध्यधिकया पादे
१९५ चरणौ दण्डपादा सा
३०९ चार्याविद्धाञ्चितपदे Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
२३४ २१३
"
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________________
चाय बद्धास्थितावर्ते चार्वधिष्ठानवन्नृतं
चालिः सा शैध्यसां मुख्य •
चालिचालिवडचाथ
चित्तवत्यर्पिका काचित्
चित्तस्यान्यपरत्वेन
चिन्ता धृतिः स्मृतिव्रीडा
चिन्तावितर्कयोस्तो
चिन्तासूयाश्रमौत्सुक्य • चिन्तौत्सुक्यान्मनस्तापात्
चिकणे चैव
चिरविस्मृतवस्तूनां चिरान्मन्दं निपीतस्तु चौर्य राजापराधादि
चौर्य राजापराधादेः
छ
छिन्नं स्याद्वादसंश्लेषः छिन्नमूरुद्वृत्तसंज्ञ छिन्ना तिर्यङ्मुखे पार्श्वे
जठरक्षेत्रगः पृष्ठे जडता मरणं चेति
ज
जगदुतद्विदो रौद्रं जङ्घयोः कम्पनं प्राहु:
जङ्घां तदा नागबन्धं
जङ्घा मध्यमवष्टभ्य जङ्घालङ्घनिकालाता
श्लोकार्थानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
२२०
जडताव्याधिहन्माद •
३६८
जनितः शकटास्यश्च
३६१
जनित: सप्त पूर्वोक०
३६० जनितात्मपरामित्र ०
९ जपाध्ययनसंलाप०
१६४
जयशब्दे प्रयोक्तव्यौ
४०३ जल केलीत्येवमाद्याः
३२७ जहार नारदादीनां
४१० जातौ मिथः संमुखस्थ • ४४८
जानुनी भूषणानीति
४२ जानुभ्यां भूमिसंस्थाभ्यां
४५२ जानु लमोरुज तु
१६४ जानुसंधिसमत्वेन
४४७ जान्वन्तां वोरुपर्यन्तां
४४६ जिघांसाद्याथ यत्र स्युः
जिह्वाया लेहनं स्वेदः
जिह्वेति षड़िधा तत्र
१७०
२६४
९१
जिह्वोष्टदन्तक्रियया
जीर्णे नष्टे चाविषादः
जीवितं मन्मथस्योक्तं
जुगुप्सां स्थायिभावं तु जुगुप्सा शोकसंतप्ते
जुगुप्सिता विस्मितेति
४०४
३८७ ज्वालासूर्ध्वगतास्वस्य •
३३५
२५१
२८१ ज्ञानविज्ञानगर्वे सा
ज्ञानेऽभ्युपगमे रोषे
ज्ञ
५३
४१५ ज्ञेयमाद्य द्वयाभ्यासात्
४९५
पुटसंख्या
४२०
३५४
३५१
३९८
१७०
६०
४०७
५
६०
१६
३३८
१३३
३३४
२९३
४२३
४५६
१७२
१७३
४५१
३६६
४०१
८६
१३५
३२
१४८
२०
२०४
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________________
४९६
संगीतरनाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
ततश्च भरतः सार्ध डमर्याकुश्चितस्याङ्ग्रेः ३०९ ततश्चोपशमारम्भे
३७४ डोल: पुष्पपुटोत्सा २६ ततस्तद्वद् द्वितीयाङ्गं
२१२ डोलो भवेदसौ व्याधौ ५४ ततो जवनिकान्तों डोलापादाख्यचारीकाद् २२९ ततवृत्तपुटात्यन्त.
१३८ डोलापादाघ्रिगमना. २३१ ततोऽपक्रान्तचारीक:
२०८ डोलापादा दण्डादा २८. ततो विलम्बितप्राये
३८९ डोलापादा यदा चारी २२४ तत्कटी सममादिष्टं
२.५ डोलापादां भवारी
२३५ तत्कार्य कोपलज्जादि डोलौ हस्तौ तदा प्रोक्तं २२१ तस्कुचक्षेत्र संविष्टः
१९३ डोलौ हस्तौ संनतं तद् २२९ तत्कोपासूययोयोग्यम्
२०२ तत्तत्प्रयोगानुगयोः
२३१ तत्तयोग्योऽप्यलंकारः
४०७ तं चानुभावयेदश्रु
४७. तप्तदशजुषो भूषा तं ततोऽचितजईच
२९३ तत्तिरस्कृतसंस्कारा: त एवं प्रविवारा: स्युः ३४५ तस्वबोधश्च यत्र स्यात्
४४४ तच्चारलमनालोच्य
४५४ तत्पद्धतिरथाचार्य: तज्जराभिमुखं शोभा०
३६६ तत्पात्रं गौण्डली केचित् तण्डुना खगणाग्रण्या ३ तत्या दक्षिणं न्यस्येत्
२१४ तण्डूकमुदतप्राय.
१२ तत्प्रकाशनसंचार. तत: कूटनिवद्धन
३९. तत्प्रतीकारशून्यस्य ततः परं च परितः
३९६ तत्प्रधाना सात्वती स्यात् ३४२ तत: प्रहर्षसंपन्न ३७५ तत्र घर्षरिकावाये
३८५ ततः शुद्धरवन्धेश्व ३७५ तत्रत्या पद्धतं प्राहुः
३७८ ततः सप्त स्थितावर्त. ३५७ तत्र त्वग्रग उत्तान:
१८२ तत: सालगसूडेन
३९० तव शाखेति विख्याता ततः स्यादेकताल्यैव ३८३ तत्र सत्वे भवे भावा:
४६८ ततः स्यादपसरणं २४१ तत्रानीय निधीयेते
१९८ ततः स्वयं सुरज्येष्ठः ३७५ तत्रैकपादनिष्पाद्या
२७८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
तत्रैव सैन्यमान्यानां
तत्संनिधौ तु विद्वांसः
तत्संपरयुचिता चारी
तत्सामान्यविशेषाभ्यां
तत्स्यात्कुट्टमितं मानः
तत्स्वास्तिकं प्रयोक्तव्यं
तथान्यं पादमुत्य
तथा पसरणं पश्चात्
तथा युद्ध नियुद्धस्थ •
तथा संधाय शस्त्राणि
तथैव वामपाण्य
तदप्रयुक्वताकोऽङ्गं
तदग्रयोरन्तरालं
तदचोद्यं यतः किंचिद्
तदनन्तरजातां तु तदन्तखण्डेऽन्यत्रापि
तदर्ध मध्यमो न्यूनः तदर्धरेचितं योज्यं
तदसद्रतिभेदौ हि तदा करक्रिया तत्तत्
तदा खेचर संचार•
तदायभरतेनोकं
तदा मृगप्लुता ज्ञेया
तदा ललाटतिलकम्
तदा वलितमाख्यातं
तदावेष्टितमाख्यातं
तदा स्तम्भादयो देहे तदनुभावस्तु
तदुक्तं कृतिभिः क्रान्तं
63
श्लोकार्थानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
३९५ तदेव जलशय्याख्य •
३९५
तदेव वलनं केचित्
२७७
तदेवार्धनिकु स्यात्
३९७
तदेव स्तब्धबाहुः सन्
२२
२०१
२९६ तद्दिकं करमाधाय
३८७
तद्दिग्भवोऽलपद्मो वा
२०७
तद्द्भुतत्वेन कर्तव्यं
३२४ तद्भेदानधुना धीमान्
तदेवारालतां प्राप्य
तद्गीतपरिवर्तेषु
२०४ तद्योज्यं भीमसेनादे:
२१८ तद्योग्यां लौकिकीं शोभां
३२१ तद्वदङ्गान्तरं कृत्वा
४०१
४१०
१२५ तनुमध्योन्नतिस्थूल •
३७३
तन्नतं स्थानकं खेद०
२३०
१५
तद्विभावा: प्रियानिष्ट०
तद्विभाव्यं भयव्रीडा
२०९ तन नीचरतिर्यस्मात्
४४२ तन्निद्रामदमूर्च्छासु
१९६ तन्निवृत्या त्वपस्तं
४६६
४१०
३५९
तन्नृत्तं मार्गशब्देन
तन्यते शार्ङ्गदेवेन
२९२
तया द्वारवती गोप्यः
२१४ तयोरेकं ततो न्यस्येत्
३२८ तरुणोऽल्पोऽधमस्तत्र
१८४ तर्काख्यौ प्रत्यया वूह•
तर्जनी मूल संलग्नः
तर्जने प्रतिषेधे च
तर्जन्यादिष्वङ्गुलीषु
४९७
सल्या
२४५
३११
२०४
२१८
७६
२००
२०७
२०८
२६६
३४७
२२२
१०
२३७
४५६
४५८
३६७
३४०
४१४
२४
८९
११
२
३
२११
४४९
४५८
३२
३२६
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३७
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________________
४९८
संगीतरवाकरः
१५५
२१७
६.
पुटसंख्या
पुटसंख्या तर्जन्यायकुलीनां यद् १८४ तागेव किरीटस्य तलपुष्पपुटं तत्स्यात्
१९६ तानि द्वेधा स्वनिष्ठानि १५५ तलपुष्पपुटं पूर्व
२५८ ताभिस्तु शिक्षिता नार्यः तलपुष्पपुटं लीनं
१९२ ताम्बूलग्रहणादौ स्यात् तलमध्यस्थितैर्लग्गैः
३९ ताम्बूलवीटिकावृन्त. तलमन्तर्धमस्या ः ३१. ताम्रचूडस्तदा हस्तः तलसंघट्टितोवृत्त. १९३ तारकायाः कलाभिज्ञाः
१३६ तलसंघट्टितमथो २६९ तारके कम्पिते यस्याः
१४१ तलसंमुखमावक्षः
१८४ तारयोर्मण्डलभ्रान्ति: तलसंस्फोटितं पार्श्व. १९३ ताराहारावली स्थूल. तलायेस्ताडनं छेदः ४२४ तालवयान्तरोत्क्षिप्तं
२९५ तलान्तरौ तदा स्याताम् ६२ तालमा पुरः कृत्वा
२८५ तलेन भूमिलनेन ३८७ तालानुवृत्तिरित्येते
३७४ तलतावृश्चिकं योग्यं
तावेव तालवृन्ताख्यौ तस्मिन्नत्यति हास्यैक. ३८९ तिरिपभ्रमरी तिर्यक् तस्मिन् पार्श्वे करोऽप्येष २३० तिर्यक्कुञ्चितजानु: स्यात् ३३२ तस्य शाखाकुरो नृत्तं
१५ तिर्यक् च ते लोहडी स्यात् २४४ तस्यानुभावा निभृतं ४५७ तिर्यप्रसारितकाघ्रि
३०४ तस्याभिनयनं कार्य ४६१ तिर्यप्रसारितो यत्र
३३३ तस्यां सिंहासनं रम्यं ३९५ तिर्यक् प्रसारितौ स्याताम् तस्याश्च नर्तनं प्राहुः ३७७ तिर्यस्वस्तिकसंज्ञं च
२४१ तस्योत्पाताद्धोरनाद. ४६४ तिर्यगेकेन पादेन
२४७ तां कुब्जवामनादीनां
९१ तिर्यड्नतोन्नतं स्कन्ध० तां कृत्वा विषमैर्भाग: २६९ तिर्यड्नतोन्नति प्राप्त तां तिर्यक् कुञ्चितां चारी ३०३ तिर्यमुखा मराला व ताडनं तोलनं छेद.
तिष्ठेत्प्रतिदिशं प्रोकं
२५१ ताडितश्चरण: स स्यात्
९४ तिष्टे व्यघ्रिणान्येन ताडितो घटितोत्सेधः १२ तीक्ष्णाग्रीकृत्य तामाह
३१२ ताण्डवं लास्यमित्येततू
१३ तीवो मदोऽधमोऽत्र स्यात् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
२४९
२८०
१९
१४९
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श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
४९९
पुटसंख्या
४३ त्रुटितात्रुटिताभिज्ञा ३९४ त्रेधा रुदितमानन्द. १७१ व्यवस्थ: कथितस्तस्य १३८ व्यश्रः स एव किंचिञ्चेत् २२१ ज्यश्रपक्षस्थयो: स्थानं ४०८ ध्यश्रा नतोनता चेति १. या पार्श्वगता खेदे ४४१ ज्यश्री द्वावपि तद्विद्यात् ४०१ त्वरितप्रश्नवाक्ये च ३४५ त्वरितागमनं चानु.
पुटसंख्या
३९३ ४२२ ४१६ ३२१ ३२३
३२४
२.
४६२
तुच्छायुकानृतत्वोकि. तूर्यत्रयविशेषतः तृणस्य चाडलैर्दन्त. तेजः शोभाविलासाख्यान् तेन देवानभिनयेत् ते भावानाभिमुख्येन ते रेखामनतिक्रम्य ते शान्तविषया यस्मात ते शुद्धहृदया: शान्तं तेषां लक्षणसिद्धयर्थं तेषामीषद्विकारेऽपि तौ पताकाकृती पार्श्व. तौ पाभिर्मुखाग्रौतु तौर्यत्रये लक्ष्यलक्ष्म. त्रयास्त्रिंशद्विचित्रल. त्रयोविंशतिरुक्कानि प्रस्ता च मदिरेत्येता त्रासो निद्रा त्रयस्त्रिंशत् त्रिकं च वलितं कृत्वा त्रिक बद्धाभिधां चारी विपताकः करः कर्णे त्रिपताकस्य हस्तस्य त्रिपताकाकृति केचित् त्रिपताकाविमौ कैश्चित त्रिपताकोऽथवा यत्र त्रिपताको कटीशीर्षे त्रिपताको करौ किंचित् त्रिवलीधारणं स्कन्धे त्रिविक्रमाकारधारी
३५२ ३४९ ३५५ २१४
७. दक्षिणः करिहस्त: स्यात् ३९१ दक्षिणः शकटास्य: स्यात् ४६५ दक्षिण: शकटास्यत्वं ३२० दक्षिणः सूच्यपक्रान्तः १३६ दक्षिणश्चतुरोऽध्रिस्तु ४०३ दक्षिणश्वरणः सूची २१२ दक्षिणश्चरणश्चाग्रे २२२ दक्षिणश्चरणो जानु० २३. दक्षिणस्त्वपमृत्य स्वे . ३० दक्षिणाझेन जनितं ६८ दक्षिणाङ्गेनैव कृत्वा ७३ दक्षिणाघावपक्रान्ती ६९ दक्षिणा ः पाणिदेशे ७. दक्षिणेऽनौ समं पादौ ६८ दक्षिणेनाघ्रिणा स्थित्वा ३७७ दक्षिणो जनितोऽद्धिः स्यात् २४९ दक्षिणो ननितो भूत्वा
३२४ ३३५ २८५ २७१
३५९ २८५
२४८ ३५७
१५५
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________________
५००
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
८९
पुटसंख्या दक्षिणो जनितो वामः ३४९, ३५० दष्टं निष्कर्षणं चेति दक्षिणो दण्डपाद: स्यात् ३५७ दष्टोष्ठो हस्तनिष्पेषी
४२८ दक्षिणो दण्डपादोऽय
३५५ दानवीरो धर्मवीरः दक्षिणो भ्रमरो वामः ३४९ दारिद्यमिष्टविरहः
४४४ दक्षिगो विच्यवो भूत्वा ३५८ दिक्चतुष्के कमातिष्ठेत्
२५० दण्डपक्षं च करणं
२६८ दिक्स्वस्तिकं कटीच्छिन्नं २६८ दण्डपादं व्यंसितंच २५९ दिक्स्वस्तिकं ततश्चाङ्गे.
२६. दण्डपादाख्यया चार्या २२५ दिगन्तरमुख कृत्वा
२७२ दण्डादोऽथ सूची स्यात् ३५७ दिशानया परेऽप्यूयाः
३८८ दण्डप्रणामाञ्चितंच २४० दीप्ता संकुचितापागा
१३७ दण्डप्रणामाञ्चितं तद्
२४३ दीर्घोच्छासे च जृम्भायाम् दण्डरेचितकं चक्र. . २६९ दुःखस्मृतियुतानन्दात्
४२२ दण्डरेचितकादूर्व
२७० दु:खान्विते सरोगे च दण्डवन्न्यस्यते यत्र २२८ दुःखार्तिशोकनिवेद. दण्डिकालम्बिनी कन्या
दुर्लभाभीष्टसंप्राप्तिः दधत्यपाङ्गौ विच्छायौ १४३ दूरसंनतपृष्ठं च
२१६ दधाते सर्पशिरसौ
५६ दूरस्थोच्चा मनाग्वक्त्रा दधानोऽधोगतोऽथान. ३७ दृश्यं दृष्ट्वा समुद्विमा
१४१ दष्यादिमालद्रव्य. ३४ दृश्यात्पलायमाने च
१३८ दध्यादिव्यञ्जनेश्चैव ४०० दृश्यादपसते तारे
१४३ दन्तकर्माणि वक्ष्यामः १६९ श्योद्वेगादपाह्रौ च दन्तपतिः प्रभाजाल. ३६९ दृष्टयस्ता विरिचोऽपि
१५० दन्तपङ्कयो: स्थितिथूरे १७० दृष्टयोऽष्टासु रत्यादि
१४२ दन्तोष्ठं लिहती जिह्वा १७३ दृष्टिः किंचिद्रमतारा
१४९ दन्तोष्ठपीडनं हस्त.
४२४ दृष्टिः स्यान्मलिना स्त्रीणां दर्शनं श्रवणं शून्य.
४३२ दृष्टिभ्रूत्पुटताराश्च दर्शने तुझवस्तूनां २३ दृष्टिविकासितापाशा
१४९ दशभिः करणरेभिः
२५८ दृष्ट्वा तु पुरुषं विद्या. दशा वा भाविनिधनां ४१. देवजोपद्रवाहि.
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
३६५
१४३
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श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या
५२ द्वैधीभाव इति प्रोक्का ४५४ द्वौ मुख्यगायनौ सार्ध.
पुटसंख्या
३७३
३२३ ३६३ ३०५ २९५ ४२८
४२२ ३६२
देवतागुरुविप्राणां देवभर्तृगुरुस्वामि० देवेभ्यस्तोयदानेऽसौ देवै गैस्तथा यक्षः देशजातिकुलाचार. देशीप्रसिद्धाः सन्त्यन्याः देशभ्रंशादयश्चेते देहं भ्रामयते तिर्यक देहः स्वाभाविकोऽहुष्टी देहः स्वाभाविको यत्र देहदक्षिणभागस्थं देहस्य वामपार्श्वस्थौ देहोपस्करणत्यागात् दैन्यं निद्रा तथा स्वप्न दोषवैषम्यजैर्गण्ड. दौर्बल्यौत्सुक्यनि:श्वासः घूनाक्षगतनादौ स्यात् द्रष्टव्ये नाट्यनृत्ये ते द्वतं गतागते पार्श्वे द्रुतगत्या तदेव स्यात् तापसारितं वाम द्वयोश्चरणयोयोनि द्वात्रिंशत्ते तथाप्युक्ताः द्वात्रिंशन्मदलधराः द्वाभ्यां विभिश्चतुभिर्वा द्वावावजधरावही द्वितीयं तु लताहस्तं द्विस्त्रि: कार्योऽन्यपाश्चात्तु द्विनिर्वा विप्रकीर्णाप्रः
३२
४२३ धनुर्वजादिशस्त्राणां २८. धनुर्वदशहार: स्यात् ४१९ घरण्यां चरणाग्रेण २४९ घरण्यां पाणिभागेन ३३० धर्माद्यर्थविशेषेषु २०२ धर्मिष्ठः पापभीरुश्च ५५ धर्मोपघातजो वित्त. ५३ घसकः स्यात्सुललितं ४४८ घसकथाङ्गहारः स्यात ४१० धातुवैषम्यमित्यायः ४६३ धान्यपुष्पफलादीनां ५७ धारास्वधोगता: पक्षि. ४१ धावने प्राङ्मुखाङ्गुष्ठः ६ धुतं विधुतमाधूतम्
धूननं श्लेषविश्लेषौ १९ धैर्यादुत्तममध्यानां २१४ ध्यानं च मुहुरभ्यासः ३८७ २५६ ३७३ न किंचिद् दृश्यते लोके २५५ नखक्षते मृगाक्षीणां ३७२ नगराणामगाराणां २१२ न चात्र करिहस्तत्वं ३८ न चात्र मरणं साक्षात् ४२ न चात्रैक: करीहस्त.
१८९
४५१
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________________
५०२
नटेन कान्तदृष्टायैः नताङ्घ्ररुत्प्लुत्याभीक्ष्णं तावनघालंकारः
न ते श्रीशार्ङ्गिणा प्रोका:
न तत्साक्षात्प्रयोक्तव्यं
ततौ पद्मकोश
ननु चाव्यभिचारेण
ननु दुःखात्मकः कस्मात्
ननु नीचे तु माल्यादि
ननु स्थाय्यपि भावत्वात्
नन्द्यावर्तस्थपादाभ्यां
नन्द्यावर्तस्थयोग्ड्र्योः नन्द्यावर्त स्थित पादौ
नन्वन्यहस्तवत्कस्मात्
नन्द्यावर्तस्य चेदढ्यो: नमस्यूरू चरणयोः
नभोभवानां प्राधान्यं
ताजा
नमनोन्नमनं तज्ज्ञैः
नमनोन्मनोपेता
नमस्कारे त्वसौ कार्य:
नयश्च विनयः कीर्तिः
नये वदनदेशस्थः
न नार्योऽथवा कुर्युः नर्तकः सूरिभिः प्रोक्त: नर्तनं नाव्यमित्युकं
नर्तनं प्रतिमण्ठादौ नर्तित्वा क्रियते त्यागः नर्मस्फोटो नर्मगर्भः
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
४०५ नलिनी पद्मकोशौ तौ
३०९ नलिनीपद्मकोशौ स्तः
९८ नवभिः करणैर्युक्त
२५२
नव भ्रमरकाख्येण
न विद्यादर्पतो ग्रन्थ •
४२४
६७ नागबन्धं कपालाद्यं
४२६ नागबन्धं तदेव स्यात्
४११
नागापसर्पितमथो
४१३
नाटक स्थितवाक्यार्थ •
४२७
नाटयं तन्नाटकेष्वेव
३०१ नाट्यं नृत्यं तथा नृत्तं
३००
नाव्यधर्म्या अपि प्राज्ञा नाट्यनिर्वाहको मध्ये
"
६९ नाव्यवेदं ददौ पूर्व
३३१
३२३
३४८
नातिदीर्घान्नातिनीचात्
१२९
नातिद्रुतं नातिमन्दं
२७१ नात्रोपयोगिनों सूची
२७५
नानापराधो विद्वेषः
३४ नानावितानसंपन्ना
४२८ नानाविधं पुनर्नृत्येत् ४५ नानाविधप्रौढचारी •
नानाशास्त्रार्थविषयैः
नाभ्यर्थये वः सुधियः
नायके त्वनुभावाः स्युः
३२६
३९२
नाट्यशब्दो रसे मुख्यः
नाव्यादि त्रितयस्यातः
७
पुटसंख्या
७७
39
२५९
२७२
४७३
२४१
२४६
१९३
१४
11
३
१०
૪૪.
३८१
३६०
१५
૪૪.
३९५
३७९
३८२
४५८
४७३
४३२
३८३ नासाप्रमेवानुगता
नासाग्रानुगते ने
"
३४४ नास्तीत्यर्थेऽपि संयुज्य
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१३७
४३९
८१
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
५०३
पुटसंख्या २०९ १३३
२६८
२३१
२९५
२६८
नाहं न त्वं न मे कृत्यं निःशङ्कः केशिकी ब्रूते नि:श्वासः स्यात्प्रवृद्धाख्यः निःश्वासोच्छ्रसिते दीन. निःश्वासोच्छ्रसिते प्रस्त. निःसंज्ञवेत्यादिभिव निःसंज्ञस्तब्धगात्रत्वे निःसारणकताल्या वा नि:सृता च परावृत्ता निकुश्चकमयुक्तेषु निकुञ्चाकुञ्चिताभ्यासात् निकुचितं घूर्णितं स्यात् निकुञ्चितांसशीर्षश्च निकुञ्चितार्धसूच्याख्य. निकुट्टकं पार्श्वपूर्व निकुट्टकमुरः पूर्व निकुटकाख्यं करणं निकुट्टकाभिधादू - निकुट्टकोरुदृत्ताख्य. निकुट्नान्मियोऽध्रिभ्यां निकुट्टयेतां धरणीम् निकुहयेदभुवं तेन निकुट्टार्धनिकुट्टे च निकुट्टिका लताक्षेप. निवृष्टश्चरणो यत्र नितम्बं करणं कृत्वा निता करिहस्तं च नितम्ब करिहस्तं स्यात् नितम्बं सचिसंच
पुटसंख्या
१ नितम्बकेशबन्धादि ३४३ नितम्बनमनाज्जानु १६३ नितम्बनिकटं याति ४४५ नितम्बवत्केशदेशात् ४६५ नितम्ब विष्णुकान्ताख्य. ४५६ नितम्बाख्यौ विधीयेते ४६९ नितम्बाभिमुखी पाणि: ३७८ नितम्बोरोमण्डलयोः १२९ नितम्बौ पल्लवौ केश.
३२ निद्रया तन्द्रया गात्र. १३२ निद्रागदप्रहावेश. १९२ निद्राच्छेदोऽध्वगमनं ४१८ निद्रा नि:श्वसितं मुक्क. २७१ निद्रायामनुभावाः स्युः २७० निद्राविभावजं सुप्तं
२६८ निन्द्रियाणां प्रथमा २६५, २६७ निपातयेत्तदां चारी
२७४ निपीड्य मध्यमां तिष्ठ. २५८, २६. निमीलनं लोचनयोः
३०६ निमेषिणी स्तब्धतारा २८५ निमेषिणी स्मिताकारा ३०७ निम्नं खल्लं क्षुधा स्यात् , २५९ निनं शिथिलमाभुमं २८१ नियुद्धे चाहारेषु २८७ निरन्तरावूर्वकृती २७२ निरन्तरौ समनखौ २५८ निरूपणे च तत्त्वस्य २६७ निर्जने निगृहीते च २६३ निर्भुमं निन्नपृष्ठत्वात्
६५
२९३
३९
४६५ १४७
८
२८९
३५२
२८२
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________________
५०४
संगीतरत्नाकरः
४०५
२७३
पुटसंख्या
पुटसंख्या निर्मलप्राणदेहत्वं
४६८ नीचेष्विति विभावाः स्युः ४४४ निवर्णना कियाकाय. १५. नीचैः स्वभावबोधार्थ निर्वेदग्लानिशकोग्य. ४०३ नीतो रतिस्थायिभावः निर्वेदस्तत्त्वबोधोत्यः ४३९ नीत्वोपरि स्वपार्श्वन
२९१ निर्वेदादिषु भावेषु
१६१ नीलः पीतस्तत: श्वेत: ४०४ निवेदे वेदितव्यासा १४६ नीलमुत्पलमित्यत्र
३१ निर्वेदौत्सुक्यचिन्तादौ १७६ नपुरं भ्रमरं चाथ निवर्तितोऽन्तर्गतया १२८ नूपुरं भ्रमरं छिन्नं
१९२ निवारितेषु वायेषु
३७९ नूपुरश्चरणेऽन्यस्य निवृत्तेत्युच्यते सा स्यात् ९७ नूपुराख्यं विवृत्तं च
२७० निवेशमेडकाकीड. १९३ नपुराक्षिप्तकच्छिन्नं
२६१ निश्चलं मीलितमुख
१७४ नूपुरात्करणादूर्ध्व निश्चला दृष्टिदृत्त.
१४२ नृणामुत्साहिनामेव निधेटप्रसृतैरङ्गः ४६३ नृत्तं किंचिद्विधायाथ
३८. निषण्णोः समो वाम: २८८ नृतं गीतं च शयन निषिद्धमतितृप्तेश्व
४३५ नृतं त्वत्र नरेन्द्राणां निष्कम्पा धूसरा शुन्या १४२ नृत्तं समाचरेत्पात्र निष्कर्षणं तु निष्कासः १७१ नृत्त गदितौ हास्ये निष्कम्यते यदा प्रोकं
२३० नृत्तस्य तत्र विषम निष्कामन्मणिबन्धस्थ. १०२ नृतहस्ता मतास्त्रिंशत् निष्कामयन् भजेचारीम्
२०२ नृतहस्तौ क्रमेणापि निष्पत्ती निरपेक्षायां
१८३ नृत्ताभिनयने तच्च निहञ्चितं चांसकूटं
१९७ नृते नाटये गतौ चैता: २९६ निश्चितं परावृत्तम् १७ नृत्तेनामलरूपेण
३६८ नीचाग्रावुनताप्रो वा ६१ नृत्यत्युत्तममाचष्ट
३६७ नीचानां जप्यते गर्वः ४६१ नृपापराधश्चौर्यादि
४५५ नीचानां विभवभ्रंशात् ४६. नृपापराधोऽसदोषः
४४७ नीचेऽपहसितं चाति.
४१६ नृषु भीरुस्वभावेषु नाचेषत्तममध्येषु
४४६ नेत्रक्षेत्रगतां विभ्रत् Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
४६.
८
.
2
३५
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लोकार्धानामनुक्रमणिका
५०५
पुटसंख्या
२६०
२८४
३९२ २८५
२०४
नेत्रभ्रूमुखरागाद्यैः नेत्रवक्त्रप्रसादच नेत्रे गतिश्च कुटिल. नैकरूपे चिरास्वाय: नैकशेषो न च द्वन्द्वः नेतन्निदाविनाशोहि नैवेद्यविविधर्वस्त्रैः नैसर्गिके च संलापे न्यवितासं नितम्बंतु न्यस्य स्तम्चीकृतोऽन्योऽद्धिः न्यस्येते यत्र तद्धीराः न्यस्येत्पाा स्वपाधं चेत् न्यायाः सप्रविचाराध न्यायेष्वेषु प्रयुजीत
पुटसंख्या
८३ पञ्चविंशतिसंख्यानि ४५४ पसाशलस्ताल. ४४९ पटुः परापवादेषु ४१२ पडिवाटवापडपः
७. पणवेर्द१राद्यैश्च ४१२ पतनोत्पतनाविष्ट. ३६४ पताकं तु शनैर्वन् ३२७ पताक: संहताकार:
९. पताकस्निपताकोऽर्ध. २९२ पताकहस्ततलयोः २३९ पताकस्य तदा इस्तं २९३ पताकस्वस्तिकं कृत्वा
१६ पताकायां भवेदूर्वा ३४७ पताको निम्नमध्यो यः
पताको मध्यमामूल
पताको डोलितौ तिर्यक २.. पताको तिर्यगूध्वौ बार २०३ पताको प्रथमं कार्यों
२७ पताको यदि निष्क्रम्य ४५७ पताको रेचयित्वा चेत् २९८ पतिताग्रं चोद्धता २२७ पतिता स्यादधो याता २०८ पतितोर्ध्वपुटा दृष्टिः ३२३ पतितोर्ध्वपुटा साना ३२१ पदन्यासोऽप्यनियमः १४५ पदमोता च कवितं २८८ पद्मकोशकरस्थाने १३, पद्मकोशस्य यत्र स्युः २६८ पदकोशौ पृथकप्राप्तौ ।
२३५
१८.
पक्षप्रद्योतकं चार्ध पक्षप्रद्योतको पश्चात् पक्षप्रद्योतको दण्ड. पक्षयोरुभयारुके पक्षवश्चितको नृत्ते पक्षवश्चितको वार्ध. पक्षवश्चितको चोर्य पक्षस्थौ चरणौ त्र्यश्री पक्षस्थितोऽसौ चरण: पक्ष्मानपुटैर्युका पश्चतालान्तरं तिर्यक् पञ्चधा मणिबन्ध: स्यात् पञ्चविंशतिरेव स्यात्
१४३
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________________
५०६
संगीतरनाकरः
पुटसंख्या
२४७ १९३ २७२ २६९ २५१
१६९
७९
२९९
१३०
२९३
परस्था स्वसमुत्था च परस्थे तु सवेमारी. पराङ्मुख: संमुखव पराङ्मुखस्तु खेदे स्यात् पराङ्मुखः स्यादाहाने पराङ्मुखीकृतं शीर्ष पराङ्मुखेन पावेन पराङ्मुखौ नाभितटे पराङ्मुखो हंसपक्षौ पराणि स्वपरस्थानि परानन्दघनैकात्म. परावृत्तस्तत्कपाल. परावृत्तानुकरणे परावृत्ताइयं सूचि परावृत्ते बहुक्कानि परापते समे स्याता परिक्रमेतादादीना परिग्रहो निग्रहश्च परिचिताक्षेपकं च परित: शिरस: शस्त्रं परितो भ्रमणं तूर्ण परिदेवनमित्युकं परिदेवनरोमाष. परिभावनमित्याचा परिश्रमति यत्र त्रिः परिमण्डलिताकार. परिवर्तनतो वाम. परिवर्तितमित्येतत् परिवर्तेत चेन्मत्स्य.
पुटसंख्या ४४७ परिवर्तेत यत्राय: ४२३ परिवृत्तं दण्डपाद १८२ परिवृत्तविधिश्चायं ३६ परिकृत्तिप्रकारेण ३४ परिकृत्य च तिर्यक् चेत् २२ परोक्षे प्रचुर: स स्यात् ११ पर्यन्तवलनादुक्तः २१ पर्यायशो निपतत:
" पर्यायेण शनैस्तिर्यक् १८ पाचवा शीर्षदेशस्थौ ४४.
पवादुतानिततलः
पथाद्रता परावृत्ता २२ पचान्नीत्वाचितं पादं ३१९ पचान्न्यस्य पुरस्ताव २१ पश्चिमाहरे रात्रेः १३२ पश्यतो भीतिहेतुं तत् २१८ पाटः सिरिहिराख्यश्च १८१ पाठयं चाभिनयान् गीतं ३४४ पाणिराक्षिप्यते चाहिः ३४६ पाणिस्तु दक्षिणस्तव २७५ पाण्योः स्वस्तिकयोरूर्ष. ४२. पातस्तु कपणे कार्य: ४६. पात्रं तदा तदारम्भे ४३ पात्रं तिष्ठेदधिष्ठाय २५. पात्रं प्रविश्य रहस्य
२१ पात्रं विधाय विविधं १९६ पात्रं स्यापर्तनाधारः १०३ पाद: प्रसारितो वकः २४६ पादं कृश्चितमुदत्य
३८५
२०. २४० २१५
१५६ ३७५ ३७४
३७५ ३६५
२९५
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________________
५०७
पुटसंख्या
१५०
२९५
२०५ २९१
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या पादत्रये वाद्यमाने
३८९ पार्श्वयोरयत: पृष्ठे पादद्वयेन करणं
२७८ पार्श्वव्यत्ययतो या पादमाक्षिप्तचारी
२१२ पार्श्वस्थदर्शनं प्रोकं पादमाक्षिप्तया चार्या
२२१ पावन्तिरं ततो जहां पादयोः करयोः कय्या २७५ पान्तिरान्निजं पार्श्वम् पादयो: स्वस्तिकेऽस्यैकः ३१२ पाचर्वाभिमुखमन्वर्थ पादश्चाषगतिःि स्यात् ३५. पार्वाभिमुखमित्यन्यान् पादावञ्चितसूच्यौ च
१९९ पाभ्यां यत्र तामाहुः पादाविति षडुक्कानि
१५ पार्श्वन भ्रमरी कृत्वा पादावुल्लोलयेत्प्रोक्तं
पाचे विनिक्षिपेचारीम् पादेनकेन तद्दिकं
२१२ पाश्वोन्मुखी तु वलिता पादोरुकटिबाहुन
३६. पाणिः पादस्य चेदप्र. पार्वती त्वनुशास्ति स्म
पाणिगुल्फो तथाल्य. पार्श्व तद्विपरीतं तु
पाणिजलोसंलम. पार्श्वकान्तं तदा यता
२२२ पाणिदेशे द्वितीया ः पार्श्वकान्तत्वमागत्य
३५९ पाणिद्वयेन पावे. पार्श्वकान्तस्ततो वामः ३५६ पाणिपार्श्वगते पाणिः पार्श्वकान्तस्तथा वाम: ३५५ पाणिपार्श्वगते स्थाने पार्श्वकान्तस्तु वामाशिः ३५८ पाणिरष्ठसंश्लिष्टा पार्श्वकान्ता भवेच्चारी
२२२ पाणिरित्यष्टधा पाद पार्श्वकान्तोऽथ वामाशिः ३५६ पाणिविद्धस्थितौ पादौ पार्श्वकान्तोऽथवा सूची ३५७ पाणिस्तदोदिता चारी पार्श्वकान्तो दक्षिणः स्यात् ३५७, ३५९ पाणेर-तर्बहिः क्षेपात पार्श्वक्रान्तो दक्षिणोऽङ्घ्रिः ३५८ पाjष्ठाग्रयोरन्त: पार्यक्षेत्राब्राम्यमाणे २०८ पाया चेत्पातयेद्भमौ पार्श्वजानु तदा क्षेयं
२२६ पाठा धरामवष्टभ्य पार्श्वदेशोस्थिती पार्श्व
६. पायर्या पाय॑न्तरक्षेत्रे पार्श्वद्वयं पुरस्ताच
१९. पिटकुठं चाषगतं पार्श्वमण्डलिनावुको
७. पीडाघातातपो मोह.
२१२
१०५
१
३३१
१२.
२९५
३४०
..
..
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________________
५०८
संगीतरनाकरः
१२९
पुटसंख्या
पुटसंख्या पीत्वा प्रवेशे तु
४९ पृथगित्यनुभावाः स्युः पीनोरुजघनं पीन.
३६६ पृथग्गतागतौ यौ तौ पुटौ विस्फुरितौ स्तब्धौ १४८ पृथग्दक्षिणवामौ चेत् पुनराविपर्यासात्
२६५ पृष्ठं तु जठरोकाभिः पुनरान्तरेणैव २१ पृष्ठतः फलकस्यापि
१४६ पुनर्दिवस्वस्तिकमय २६. पृष्ठतः श्रेणिसंस्पर्शि
२४४ पुमांसोऽधमसत्वा ये ४४९ पृष्ठतो दर्शनं यत्तद्
१५८ पुर: प्रसारितस्तिर्यक् ३३४ पृष्ठतो भ्रामितं पादं पुरः प्रसारिता जहा १३. पृष्ठतोऽपरावृत्त्या
३२९ पुरः प्रसारितौ यस्यां ३०. पृष्ठतोऽपसरन्पाया पुरः सरणमघ्रिभ्यां
३०६ पृष्ठतो वलितं स्पृष्टा पुरत: पृष्ठतस्तिर्यक ३०७ पृष्ठप्रसारितोऽङ्घ्रिश्चेत्
२९२ पुरतः पृष्ठतो वाघी
२९८ पृष्ठभागे प्रधानानी पुरतोऽपि नृपस्य स्युः ३९५ पृष्टानुसारीत्युदित: पुराव्यर्धपुराटी व
२८१ पृष्ठेऽध्रिः प्रस्तो भूमि. २२६ पुरो गगनभागे चेत्
३०८ पेरणी घर्घरान्कुर्यात् पुरोमुखौ समस्कन्ध
५९ प्रकम्पितं कम्पितं स्यात पुष्पाणां प्रथने सत्य. ५५ प्रकृतिस्थं समं प्राहुः
८७ पूर्ण स्थूलं व्यधिते स्यात् १२६ प्रकृतिस्थस्य संलापे
३२. पूर्वरणस्य चानेषु . २७४ प्रकृष्टभाषणे गर्व. पूर्व प्रयोकव्यान् २५२ प्रकोष्ठौ न्यस्तसदन
३६९ पूर्वरने स्त्रीभिरेव
३२६ प्रचारं भरतो मेने पूर्ववत्समनादत्वम्
३७८ प्रचारयोग्यतामात्रात् पूर्वाणि स्वसमुत्थानि
४१८ प्रणामे गुरुसंभाषे पूर्वापरविचारोत्यं
४६५ प्रताप: पौरुषोद्भता पूर्वापरान्वयोऽवस्य ४०२ प्रताप: प्रभुशक्तिश्च
४२८ पूर्वोक: करिहस्तोऽन्यः २१. प्रतिज्ञातार्थनिर्वाहः
४५२ पृषपये चान्यनेत्रात् १४७ प्रतिभानुभवस्मृत्या. पृथक्समुलतं वक्षः
३२१ प्रतिषेधे च तस्योकः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
३९.
८८
૧૮૨ २८२
१८
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श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
२१५
३७४
१६३ १५६
१२५
प्रतिष्ठापयिता नृत्त. प्रतीपं गच्छतो जहा प्रत्यहानि पुनप्रीवा प्रत्याश्च करा: कार्या प्रथमं गजदन्तंतु प्रदक्षिणं करद्वन्द्वं प्रदक्षिणं भ्रमन् कार्य: प्रदर्शनार्थमित्युकाः प्रदर्शनार्थमुक्केयं प्रधानं यो यदा यत्र प्रधानं सौष्ठवं पादौ प्रपदे यत्र सा चारी प्रभेदान् करणस्यास्य प्रमोदनृत्तविषयं प्रयुकं नाव्यतत्त्वहः प्रयुज्यमाना वाग्मत्तिः प्रयोक्तम्यः कृशो मध्ये प्रयोक्तव्यमिति प्राहुः प्रयोक्तव्यमिदं स्थानं प्रयोक्तव्योऽपसंदंशः प्रयोगमपरे प्राहुः प्रयोगमस्य च प्राहुः प्रयोगमाह नि:शः प्रयोगमाहुराचार्या: प्रयोगमुद्धतं स्मृत्वा प्रयोगस्तस्य शीतात. प्रयोगस्त्वन्त्ययोस्ती: प्रयोगातिशयश्चेति प्रयोज्यं तन्मुनिःप्राह
पुटसंख्या
३७. प्रयोज्यं सूत्रधारेण १३. प्रयोज्यमाञ्जनेयादि १६ प्रयोज्यौ तौ नृसिंहस्य ८३ प्रलयः स्यादभिनयेत् ५८ प्रविचार: सास्वतवत् ३८ प्रविचास न शोभन्ते ३८ प्रविश्य रणभूमि ते १५. प्रविष्टो हृदयं यद्वा ८१ प्रवृद्धः सन् सशब्देन
प्रवेश: पुरयोरन्तः ३२२ प्रवेशनं तु वीभत्से ३०२ प्रशंसाकुशलाश्चान्ये १९१ प्रशान्ते वाद्यसंघाते २१४ प्रसन्न वदनं वक्षः २०१ प्रसन्नाः स्निग्धशुक्राश. ३४. प्रसन्नो निर्मलो हास्ये
३६ प्रसर्पितमपक्रान्तं १५८ प्रसाधनानङ्गीकारे ३२७ प्रसारितंतूमयत:
५. प्रसारित कनिष्ठस्य २१४ प्रसारिता ऋजुप्तब्धा २२३ प्रसारितोत्तानतलौ २१४ प्रसार्य स्कन्धयोः स्कन्ध. २१५ प्रसार्योद्वाहितमुरः
३ प्रसिद्धरुपपत्त्यर्थ ३३९ प्रसुप्ते प्रसृतो दीर्घः ३२५ प्रसूनस्तबकादाने ३४३ प्रस्तश्चरणो यत्र ३२. प्रसूतौ कृश्चितौ स्याताम्
११
१६५
२९४ १५३
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५१०
प्रस्वेदमुखरागाद्या
प्रहारपातनं चात्र प्रहारे भोजने पाने
प्राग्वत्सकृत्सकृद्भान्त्वा प्राङ्मुखः संमुखः पार्श्व •
प्राङ्मुखः सशिरः कम्पः
प्राड्मुख इंसपक्षाख्यौ
प्राणाजलस्यादणि
प्राणेऽध्यस्यति सात्मानं
प्राधान्येन विधीयन्ते
प्राधान्ये हस्तकानां तु
प्राप्त भाग्योपभोग्यस्य
प्राप्ते कालेऽप्यसंलापः
प्रायशो नर्तनारम्भे
प्रारम्भात्फलपर्यन्त • प्रासादोपवनादेः प्राहुः प्रयोगमेतस्य
प्रियवाक्परचितज्ञः
प्रियविप्रियजा शङ्का
प्रियादिगोचरकथा
प्रियाप्रियश्रुतिर्वैरि
प्रेङ्खोलितं संगतं च प्रेरणे कुट्टने स्थाने
फलं बन्धुवध
फलकं वामहस्तेन
फलक भ्रमणं कृत्वा
फलकस्याप्युपशिरः
फ
संगीतरत्नाकर:
पुटसंख्या
४१६
३४७
१०३
२५०
५०
५२
६०
४६८
४६६
२०७
फले बिल्वकपित्थादौ
फल्लेऽल्पे च मिते ग्रासे
फुल्ल गल्ला विशत्तारा
बद्धया ते स्थितिर्यत्र
बद्धां विधाय चारों चेत्
बद्धापक्रान्तयोश्चार्योः
बध्नीयाद्यत्र तत्प्रोकं
बलिकर्मणि देवानां
२९७
बहिः क्षिप्ताङ्गुलिद्वन्द्वे
४५१
बहि: पुन: पुन: क्षिप्त •
१४३
बहिः प्रसारितं धत्तः
१९५ बहिर्गता मता जङ्घा ४०६
बहिर्गता मिथोयुक्ता
४३६ बहिर्विक्षेपतः क्षिप्ता
"
२३९ बहुशचित्र गुम्फानि
३९४ बहुशो द्रुतमूर्ध्वाधः ४४७ बाल मनोविहीनत्वात्
४५८ वाहुर्मण्डलवद्दत्या
४६२ बाहूनां करणेनाथ
१९३
बाहूव्यावर्तितेनोर्ध्व
९३ बाह्यपार्श्वेन लभोऽङ्घ्रिः
बाह्यभ्रमरकं यत्र
बाभ्रमरकं विद्यात्
४०४
बाह्याः स्तम्भादयो देहे
३४६ बाह्यान्तरछत्र तिरिप०
बिब्बोक स्त्विष्टलाभेन
बिम्बकादिषु कान्तानां
पुटसंख्या
४२
४२
१४०
१९८
२९१
२३१
२४३
४९
૪
३८
૬૪
१३१
१७८
१२९
२६२
२०
३६६
१००
१०५
६६
३३०
३५४
३५६
४६९
२४१
२२
२४
"1
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श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
२८४ ३४५ ३९३
बीभत्सवामृत: शान्तः बीभत्सा चाद्भवेत्यष्टौ बीभत्सा स्यान्मिलल्लोल. बीभत्से सति भीरूणां बुद्धाथ ताण्डवं तण्डोः बुधेरभिदधाते तो ब्रह्मणोकं प्रयोक्तव्यं ब्रह्मविद्योपदेशश्च ब्रह्मसंविद्विसदृशी अवन्तः केचिदाचार्याः बूमो यत्रैकदेशेन
४२५
४२९
पुटसंख्या
४०. भवेदारभटी वृत्ती १३५ भवेद्विहसितं चोप. १३९ मस्मादिश्वेतलिप्ताः ४.४ भारत: सात्वतो वार्ष.
३ भारस्य भूयसो वोढा ६. भालस्थलमुरोदेशात्
६ भालस्वेदापनयने ४३९ भावलक्षणमित्यस्मिन् ३९९ भावाः संचारिण: स्थायी ३२ भावानां यानि कार्याणि ९ भाषणं भावगम्भीर
भिन्नशब्दौ विजातीयौ
भुजङ्गरस्तपूर्व च ४३८ भुवनासितं हस्त. ४४१ भुजगत्रासितश्चासौ २८८ भुजावासितां चारी ३१६ भुजङ्गवासिताक्षिप्ता २७२ भुजङ्गत्रासिता चारी
३. भुजङ्गवासितादूर्ध्व २३९ भुजङ्गात्रासितालात. ४३४ भुजावासिता सा स्यात् ४३५ भुजात्रासितोन्मत्त. ४०४ भुजङ्गवासितो वामः २८. भुजङ्गमगतो स: स्यात् १४२ भुजङ्गविक्षेपणेः श्वासैः ४१३ भुजङ्गाञ्चितकं दण्ड. २८६ भुजविक्षेपणैः श्वासः १०२ भुजाग्रयो: कूपरयोः २६३ भुजास्फोटे च मलानां
२०६, ३५०
२८.
२१३ २६२, २६५
भका भक्तिरसोन्मत्ताः भक्ति स्नेहं तथा लौल्यं भक्त्वा वा स्वस्तिकं पाद. भट्टाभिनवगुप्तस्य भट्टाभिनवगुप्तादि. भट्टाभिनवगुप्ताद्यैः भजेता त्रिपताको चेत् भयं विनयबोधाय भयानकस्त्रिधा तब भयानकेऽहते हेतुं भरताभिमताश्चार्यः भरविस्फारिताकार. भवन्त्यपि न सोद्भाव्या भवेचापडपः पाद. भवेत्तूणशराकर्षे भवेदष्टभिरालीढः
१९२
२६.
१९२
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________________
५१२
भुवं गतौ यदा पादौ भुवि लेखनामित्यायैः
भूताथैश्व ग्रहैरुयैः भूत्वद्वृत्तौ स्थितौ श्रौ
भूमिघृष्टया बहिन तो
भूमि बहिः पार्श्व
भूमिलग्नाग्रयोरन्योः भूमिश्लिष्टाखिलतलौ भूमेरूर्ध्वनिषण्णौ चेत्
भूयुक्तेश्वरणैः सूची भूरिनिर्झरझर
भूल जानुगुल्फौ तौ
भूल प्राङ्गुलिपृष्ठोऽङ्घ्रि:
भूलनाप्रस्य चान्यस्य
भूलग्नामस्य वामाङ्घ्र:
भूस्थावसरणे सः स्यात् मृत्ये कार्यवशात्कोपः
मेदास्तस्येति चत्वारः
भोका प्रधानो भोग्या तु
भोक्तुस्त्वपरतन्त्रत्वात् भौमाकाशिकचारीणां
भौमान्य काशिकानीति भौमी चाकाशिकीत्येषा
भ्रमणं वलनं पातः
अमरं नूपुराख्यं च
भ्रमरं वामपार्श्वार्ध •
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
३३५ भ्रमरास्कान्दितावर्त -
४५२
भ्रमरी क्रियतेऽन्वर्थं
४५५
६०
भ्राजद्धर्घरिकाजाल -
भ्रान्त्वा प्रसारणं चात्र •
३०२
भ्रान्त्वा सव्यापसव्येन
१३०
भ्रामये च्चेच्छिरः क्षेत्रे
३८६ भ्रामयित्वा दक्षिणाङ्घ्रि •
२८७
भ्रामयित्वा भुवि न्यस्येत्
३२३
३५३
४३८
३३३
३३१
भ्रामित: सम इत्यत्र
भ्रमितो भ्रमणात्खङ्ग •
भ्रुकुटी कुटिलां दृष्टिं
भ्रुकुटी चतुरा चेति
भ्रुकुटीनेत्ररकत्वं
३८८
३८८
९३
४२८
३४५
४१५
४१५
३४८ मज्जतारा मन्दचारा
३४८
२७९ मण्ठादेर्ध्रुव खण्डेन
१५५ मण्ठे तु मण्ठताळेन
मण्डलभ्रमणं तत्तु
मण्डभ्रान्तिविततौ
१६४
२६१
भ्रूक्षेपणं चानुभावा
भ्रूक्षेपश्चतुरो हस्त
भ्रूनतिश्च स्मृतिः सा स्यात्
भ्रूलला हेलयोश्चैषा
स्थपाणि: समुत्क्षिप्त •
म
मण्ठकात्प्रतिमण्ठाश्च
पटसंख्या
૪૮
२२९
૨૮૪
*
३५८
२२३
२५१
***
१३१
१३२
१४१
१५०
૪૪
४३८
४५७
४५२
१५१
९२
१४५
३७९
३८३
३८३
३५२
७३
२३३
१०४
१९८
भ्रमरं वामम च
२७१
मण्डलस्थानकं तत्तु
भ्रमरं वृश्चिकाद्यं च
२६८ मण्डलस्थानके कृत्वा
भ्रमरस्य तलस्थे चेत्
५१ मण्डलस्वस्तिकं तत्स्यात्
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
५१३
पुटसंख्या
३४२
१६१
१४७
२६९
पुटसंख्या
१९२ मध्ये मध्ये स्तम्भकम्पो २६६ मनस्तत्प्रभवा हर्ष.
४७ मनस्तापोऽतिपानाति. २०९ मनस्तापो रुजा हर्ष: २६६ मनोरथाप्तिरप्राप्य २७० मन्त्रशक्तिश्च संपन्न. १९२ मन्दस्पन्दो बहिश्चित्तं ३५१ मन्दा तु मन्दनिःश्वास. ३०३ मन्दावुत्क्षेपनिक्षेपो २५६ मन्मथोन्मथिता दृष्टिः २६४ मयूराद्यं सर्पितंच ८३ मरणं द्विविधं प्रोकं ४७१ मर्दितं मथितं क्षिप्त २६२ मर्मज्ञः सर्वरागेषु १९३ मर्मप्रहारोऽप्यस्थाने १४९ महत्त्वादुःखनिष्क्रान्तः १४९ महाकाल: क्रमाद्ब्रह्मा ३३६ महीगतं नतं जानु ४४९ मातृकोत्करसंपाद्यं १४७ मार्कण्डेयपुराणोक्ता ४०० मार्गदेशीगताचार्य: १४१ माल्याद्यसंभवानीचे ६४ मायामिथ्याप्रकटितं ३७ मान्यान् ज्योतिर्विदो वैद्यान् ४१९ माने च सत्यवचने ३२२ मायेन्द्रजालबहुला
६४ मायेन्द्रजालैरथवा ४३४ मियः पराङ्मुखौ कृत्वा ३९३ मियः विष्टकनिष्ठौच
मण्डलस्वस्तिकं वक्षः मण्डलस्वस्तिकावं मण्डलीकृतबाहू तो मण्डले स्थानके स्थित्वा मत्तल्लिगण्डसूच्याख्ये मत्तल्लि च नितम्बाख्यं मत्तल्लि चार्धमत्ताल्लि मत्तल्लिरर्धमत्तल्लिः मतपद्यत्र तामाहुः मत्ताकीडस्तथा विद्युत् मत्ताक्रीडाभिधान: स्यात् मत्तोन्मत्तप्रमत्तेषु मदमूर्छाभिघातेभ्यः मदस्खलितमत्तल्लि. मदस्त्वलितसंभ्रान्त. मदिरा त्रिविधा प्रोक्ता मदे प्रयोगमहन्ती मदे विपदि निदे मद्यपानं विभावोऽय मधुरा कुञ्चितापाङ्गा मधुरादिरसोपेतैः मध्यनिर्गमनोद्युक्तो मध्यप्रसारिताङ्गुष्ठौ मध्यमां तर्जनीस्थाने मध्यमाधमपुंसां तु मध्यमानां विहङ्गानां मध्यमासंगताङ्गुष्ठौ मध्यमे चोत्तमे पुंसि मध्यस्था: सावधानाच
३९२
४०४
१३३
३६८
२८२ ४१२
४३७
३९५
८८
65
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________________
२२ १५२
२२,
१६
५१४
संगीतरवाकरः पुटसंख्या
पुटसंख्या मिथोऽभिगामिपक्ष्मान. १४३ मूर्छायां चाथ कर्तव्यो ९३ मिथोमुखाववस्थाप्य
२३१ मृगशीर्षस्तदा हस्त: मिथोमुखौ निधीयेते २३३ मृदङ्गोमुखैभम्भा०
२७४ मियोयुक्तौ वियुक्तौ च १७८ मेलापकं वादयेयुः
३७४, ३७८ मुकुलस्य कपित्थेन ५७ मैवं क्षणिक विद्योता
४२६ मुकुला चार्धमुकुला
१३५ मैवं रत्यनुसंधान मुकुला दृष्टिरानन्दे
१४४ मोडायितं प्रियकथा मुखचुम्बे तु कान्तानां
मोट्टायिते कुमिते मुखरागश्च करयो:
मोहो विषादनिवेदो
४२० मुखस्य स्वरभेदश्च ४३३ म्लानाधरस्तनाभोग.
३६६ मुखान्तर्निहितः प्राण.
१६७ मुखावनमनं गूढ० मुख्यगायनिके चाटी
३७३ य: स्थाणू रोदसीरने मुग्धं मध्यं प्रगल्भं च ३६५ यतः पादस्ततो हस्तः
२९७ मुग्धस्त्रीव्रीडिते चास्य १९८ यत्कृतं कोमलं सोऽत्र
३८७ मुग्धादेर्लक्षणं प्रोकं ३६५ यत्तदुद्वहितं प्रोकं
३४. मुनिमेंनेऽस्य तन्ननं ४०२ यत्तु क्रमेण निर्याणम्
१८५ मुष्टिकस्वस्तिकावन्यौ २७ यत्नेऽप्यसिद्धयुयुन्मेषा
१४९ मुष्टिकस्वस्तिको मुनि
८. यत्पर्यायेण रचितं मुष्टिवक्ष:स्थितो हस्तः २२६ यत्पात्रं गात्रविक्षेपः मुष्टिवक्षसि हस्तेऽन्यः २८९ यत्र कृत्वाहितां चारी २१९ मुष्टविकास्य प्रकृति
४९ यत्र चारीमतिकान्तां २९० मुहुः पातादधःक्षिप्ता १७९ यत्र डोलाकरो वामः २१० मुहुः संयोजयेदुक्ता
३०४ यत्र तं प्राहुराचार्याः २७२ मुहुः संश्लिष्टविश्लिष्ट. १६० यत्र तत्कुचितं पादे
२२१ मुहुरावर्तिता प्रोक्ता
१२९ यत्र तच्छकटास्यं स्यात् २३० मुहुरुद्वर्तितः स स्यात् १२८ यत्र तच्छा देवेन
२२७ मुष्टरूर्वकृतोऽष्ठः ३४ यत्र तत्प्रावृतं क्षेयं
३१२ मुहुश्चलस्थिरा पार्श्व.
१४४ यत्र तत्समपादं स्यात् ३२२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
२७५
३६७
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________________
यत्र तत्समपादाख्यं
यत्र तत्सर्पितं मत
यत्र तत्स्यादुपसृतं
यत्र तद्दण्डपादाख्यं
यत्र तद् भ्रमरं योज्यं
यत्र तद्वाम विद्धाख्यं
यत्र तद्विनिवृत्तं स्यात्
यत्र तन्मण्डलं प्रोकं
यत्र धृत्वा पूर्वकायम्
यत्र प्रसारितानीतं
यत्र भावेऽनुभावाः स्युः
यत्र विप्रतिपत्तिः स्यात्
यत्र वक्षसि निर्भु
यत्र संचारिणः स्थायि
यत्र संचारिणः स्थायी
यत्र सत्रासगत्यादौ
यत्र सा भ्रमरी चारी
यत्र हस्तौ प्रयोगा
यत्राकुच्य तिरश्चीनं
यत्राङ्गुलस्तिलक येत् यत्राङ्गुलीपञ्चकेन
यत्र कुत्रः प्रलमाच यत्राङ्घ्रिभ्यां कराभ्यां च
यत्राङ्घ्री वृश्चिकीभूतौ
यत्राच्छ्री संहतस्थाने
यत्रान्ते मण्डलभ्रान्ति:
यत्रापविद्धं तद्वामे
यत्रायतं तदाख्यातं यत्रा मीलितौ सार्ध •
श्लोकार्थानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
३३०
२३०
२३४
यत्राश्वारोहणारम्भे
यत्रैको मुखरी श्रेष्ठः
यत्रैतन्मुक जानु स्यात्
यत्रोक्तं नतपृष्ठं तत्
यत्रोत्तानं पादतलं
यत्रोन्मत्तं तु तद्भवें
यत्रोरोमण्डलं तत्तु
यत्रोर्ध्वजानुश्वारी स्यात्
३५५
२१२
३५७
२२२
३५६
२८४ यत्रोर्ध्वविरले शेषे
२३५ यथा घटपटौ स्याताम्
४४६
यथा तथोचितः कार्यः
४५६
यथा हि करिहस्तेन
२३३
यथा हि हासः शृङ्गारे
४३३
यथोचितं विधातव्यं
४२०
यदधः सकृदानीतम्
२८५ यदाङ्गुलीपचकेन
२९४
यदा तदा क्रियारम्भ०
यदा तदा महापक्षि०
यदा तदोत्कटं योग०
२२३
३०३
२२३
४९
४९
२०१
२७७ यदि किंचिन्नमन्मूलं ३०५
यदि पादतलाग्रेण
३५३
२०२
यदाध्यास्ते घरां स्तम्भं
यदा निमीलिते नेत्रे
यदा पादतलद्वन्द्वं
यदास्यातां तदोतौ
यदोत्कटासनं चोर्ध्व •
यदोपविश्य वामोरो:
३२५
यद्यनन्तरमेतत्स्यात्
१४४ यद्गतागतविश्रान्ति ०
५१५
पुटसंख्या
३२७
३७२
३३८
२४६
२९५
२०३
२२०
२११
४८
६९
१८१
३०
૪૪૨
३६९
१९
४९
२३४
२२६
३३७
४६८
३३७
३१०
६०
४७
९४
२४७
३३५
१९६
१३६
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________________
५१६
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या यद्वा द्वयोः स्वभावेन
३८७ युगपत्करयोर्यत्र यद्वापसर्पतः प्रोक्का
३०१ युगपद्गदितं तज्ज्ञैः यद्वापसर्पतः सा स्यात् २८७ युज्यतेऽन्यस्तु संसर्प यद्वा पुराणं पन्थानं ४७३ युद्धं क्रोधोऽनृतं वाक्यं
४२३ यद्वा रेचितयोर्लक्ष्म ६५ युद्धादौ प्रेरणेऽश्वानां
३२३ यद्वा वृश्चिकहस्तः स्यात् २२३ युद्धे परात्मशस्त्राणां
३४५ यद्वा सरस्वतीकण्ठा.
३८९ युष्मत्क्षोदक्षम वस्तु यद्वा हारो हरस्यायं २५२ येन केनापि तालेन
३७४ यस्तस्य जङ्घया कम्प: ३८७ ये वक्षःस्वस्तिकं नात्र
२६८ यस्तिरश्चा तलेनोवी
९४ योगिसङ्गो मुनीनां च यस्तीक्ष्णकूपरं वक्री.
१०३ योगे ध्याने च स प्रोतः यस्यां परावृत्ततला. २९९ योगे ध्याने भवेदेतत्
३३७ यस्यां पुरोऽधिमुत्क्षिप्य ३०८ यो बहिनिम्नतां नीतः
१३१ यस्यां सोत्कुञ्चिता चारी
३०३ यो वितर्कान्वितस्थायी यस्याः संभ्रान्तवद्धाति
१४६ योऽसौ खलुहुल: प्रोक्तः ३८८ यस्याहुल्यः करतले
४३ योऽसौ हास्यरसस्तज्ज्ञैः ४१६ यस्यासौ कम्पितो आय: १२५ यौवनं तुर्यमप्यस्ति यस्योत्क्षिप्ता भवेत्पाष्णि. या: प्रकृष्टा विचित्राश्च
३४५ या तु क्वचिदविश्रान्तम् १४८ रक्षः पिशाचभल्लूक.
४३२ यातौ स्वपा वक्षस्तः
रक्तियुक्तान्विना तालं
३८१ यात्रायां देवयात्रायां ६ रक्कोऽरुण: स्यात्करुणे
१८१ या वर्धपतितोर्ध्वस्थ. १४० रङ्गं तद्देवतास्ताल. या दृष्टि: पतितापाडा १४७ रनावतारणारम्मे
३२६ युक्तित: संप्रदायाच ३० रहे विधाय पानं तु
४४९ युक्कैः पाकविशेषेण
४०० रचितं चित्रकं भाले युकेषु नृत्तहस्तेषु
३२ रज्जुसंचारचतुरः युगपत्कटिबाहुना ३६१ रजकः स्यादुपाध्यायः
३७० युगपत्करणे कृत्वा ७५ रतिश्रमकृता निदा
४१२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
३९३
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________________
पुटसंख्या
२२४ २०१ २८७
२३६ ६४
.
२१३
२५६ २९९
२२१
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या ४०१ रेचयनप्रतः पृछे ४१३ रेचयित्वान्यचरणं ४४. रेचितं नृत्तहस्तं च ४४३ रेचितं वृश्चिकादूर्घ २८. रेचितः पाणिरेक: स्यात् ४३ रेचितस्वस्तिकौ केचित् ३९९ रेचिता विधुतभ्रान्ता १३९ रेचितो दक्षिणो हस्तः ३९७ रेचितोऽन्यो लताहस्त: १८१ रेचितोऽर्धनिकुदृश्च ४.३ रेचितौ चरणौ यत्र ४०७ रेचितौ चेद्विवृतं स्यात् ४७१ रेच्यन्ते यदि लक्ष्य: ३९५ रोगमोहमयकोध. १३९ रोगशीतार्तनिश्चेष्ट. ४७३ रोदनं पुरुषोक्तिश्च ४१५ रोमाञ्चं वेपथुमथ ३७५ रोमन्थे केवलावर्ते ३८९ रोमाञ्चकन्चुका मूर्तिः ३७८ रोमाञ्चमुखरागादि
२१ रोमाञ्चाद्यनुभावस्तु १३७ रोषेर्ययोश्च नारीणां १५७ रोषासूचकं चेति ३८३ रौद्रं भयानके हेतुं ३७० ३९०
६६ लक्षणानि कमात्तासां २८७ लक्षणानि विभावादे: २७५ लक्ष्यलक्षणतत्त्वज्ञः
रतिहासशुचः क्रोध रस्त्यभावे विप्रलम्भः रत्यादिभेदविधुरः रत्यादयः स्थायिनश्चेत् रथचका परावृत्त. रथाङ्गे जनसंघाते रस: स्यादथवा स्थायी रसदृष्टिर्भवेद्भाव. रसप्रधानमिच्छन्ति रसभावान्तरे नेत्रम् रसान्तरेष्वपि तदा रसान् प्रसुन्वते ते स्युः रसास्तदनुयायित्वात् रसिका: कवयोऽप्यत्र रसेष्वष्टसु शृङ्गार. राममानन्दयन्ति स्म रामादिव्यजको वेषः रिगोणी तुडुकेत्येभिः रिगोण्युपशमेनेष रिगोण्या तालनियम. रुचिन्तामोहमूर्छासु रूक्षा भ्रुकुटिभीमोग्रा रूपनिर्वर्णनायुक्तम् रूपकैरेकताल्यन्तैः रूपवान् वृत्ततत्त्वज्ञः रेखां च स्थापनां हृद्या रेचकं कुरुते हस्तौ रेचकस्यानुकारेण रेचकानथ वक्ष्याम
११. ४७०
४६८ १७५ ४३९
३४४ ४०४
२८२
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________________
५१८
संगीतरत्नाकरः
३२७
३
२३६
पुटसंख्या
पुटसंख्या लमास्त्रेतामिसंस्थानात् ४६ लास्याङ्गैः केवलैरङ्गैः लध्यतेऽन्याघ्रिणा यत्र ३०४ लिङ्गिवतिविमानस्थ.
३२२ लज्जादु:खप्रणामेषु २३ लीनं तत्करणं योज्यं
१९७ लज्जाभरोद्भवे माने २१ लीनं समनखं कृत्वा
२५८ लताख्यौ करिहस्तश्व
२७ लीनाधरस्तनाभोग. लताख्यौ हि मुनिक्ति २९ लीलाविलासलावण्य. लतापूर्व कटीच्छिन्नं २७३ लीलासूत्क्षिप्तमुदाहि
१७६ लतारेचितको हस्तौ
२२५ लोकधर्मी नाव्यधमी लतावृश्चिकमाक्षिप्त
१९२ लोकवृत्तानुसारात्ते लतावृश्चिकमादौ स्यात् २७० लोके स्थाप्यादिभावानां
४०७ लताहस्तौ समनखं
२०२ लोचने मन्थराकार लम्बमानौ पताको तु ५४ लोलितं चेति विज्ञेयं
१८ ललाटकर्णस्कन्धोरो. १९. लोलितं शीर्षमुभयोः ललाटतिलकं पार्श्व १९२ लोलितं षडिंशतिर्या
२६९ ललाटप्राप्तिपर्यन्तं
७३ लोहडी कर्तरीलोह. ललाटवक्ष: क्षेत्रस्थौ
२३३ ललितं चालनं तिर्यक्
३६२ ललितं वलितं दण्ड. १९२ वक्र तिर्यङ्नतं तत्तु
१७४ ललितं संचरेदुकं ३५९ वक्त्रनेत्रकपोलैश्चेत् ।
४१७ ललिताख्यं च वैशाख. २७० वक्ष:क्षेत्रस्थयोः पाण्योः
२१४ ललिताङ्गक्रियासाध्याः २९६ वक्ष क्षेत्रात्करे सूची
२१० ललितावपरे प्राहुः ७९ वक्ष:क्षेत्राद्विनिर्गत्य.
१०१ ललिता वलिता मूर्तिः ३१२ वक्ष:क्षेत्रे समं हस्तौ
१९८ लाघवात्तत्प्रबोधार्थ १५. वक्षः प्राप्यापरं ताम्
१९९ लावण्यकान्तिमाधुर्य
३६७ वक्षःस्थ: स्वस्तिको पादौ लास्यं तु सुकुमाराङ्ग
१३ वक्षःस्थलात्करस्यापि लास्यमस्याप्रतः प्रीत्या
३ वक्षःस्था मध्यमेषु स्युः लास्याङ्गानि ततो रेखा
१३ वक्षःस्वस्तिकमुन्मत. २६९ लास्यानानि दशैतानि ३६. वक्षसोऽभिमुखौ सन्तो
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२४१
१८५
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________________
वक्षस्येवं द्वितीयाङ्गं
वक्ष्ये विशेषलक्ष्माणि
वक्षोदेशो ऽपवेन
वणिजा सचिवादीनां
वदतां स्वस्तिकाद्येषु वदत्युत्प्लुतिपूर्वाणि
वदन्ति चिन्ता दौर्बल्य ० वधान्यदारयात्रादि
वपु: स्वाभाविकं पादौ
वर्तनाश्चतुरे रूयाः वर्तना सा भवेत्सूची
वर्तितालपद्मौ चेत्
वर्धमानश्चेति हस्ताः स्युः
वर्धमानस्तदा हस्तः वर्धमानसारिताद्यैः
वर्धमानासारितेषु
वर्धमाने स्थितौ स्थाने
वर्धमाने तु चरणैः
वलनं व्यश्रगमनं
वलनं स्थापनं रेखां वलितोऽन्तर्गते जानु• सित्वा वसनं शुभ्रं वस्त्राङ्गुलीयकस्पर्श: वस्त्राभरणदानं च
वांशिकौ रसिकौ व्यक्त०
वाक्पारुष्यं प्रहारव वाक्यार्थाभिनयस्तत्र
वागङ्गसात्विकाहार्य •
वागङ्गाभिनयानी या
•
श्लोकार्थानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
२१५ वाग्मी निर्मत्सरो नर्म •
४०५ वाग्मी सुरूपवेषोऽसौ
२३३
६२
३१
२४०
२३३ वातजे त्वत्र वस्त्रेण
वाड्नेपथ्याङ्गचेष्टाभिः
वाङ्मनः कायजा चेष्टा
वाचा वाभिनयं तस्य
वाचा विरचित काव्य ०
४२३
३३०
१०५ वादनं समहस्तस्य
१५ वाद्य प्रबन्धनिर्माता
७९
२६
५८
१३
२७४
२९९
३२९
१५५
वाम: स्वाभाविकोऽन्यस्तु
३६५ वामतोऽन्तः पुराणि स्युः
१२७
वामश्च सूची भ्रमरः वामपादस्त्वपक्रान्तः
३६४
४५२ वामपार्थौ स च श्यश्रः
वातपित्तकफा दुष्टाः
वातपित्तकपानां स्युः
४५३
२०७
४६१
३४२
वाद्यप्रबन्धः कठिनैः
वाद्यमाने प्रबन्धे च
वाद्यमाने सुनिपुणं
वाद्यानां नादसाम्यं च
वाद्येनोपशमेनात्र
वामः क्रमेण सूची स्यात्
वामः समो भवेद्यत्र
४६३ वामश्वाषगतिर्यत्र
३७३
वामश्चेत्खटको वक्षः
वामस्तालान्तरस्त्रयश्रः
वामस्तु शकटास्योऽन्यः
वामस्त्वलातको वाघ्री
वामाङ्गेनार्धसूचि स्थात्
५१९
पुटसंख्या
३९४
३९१
४१५
३४०
४१०
८
४६२
૪૨
४५९
३७५
३७०
३७७
३७५
३८९
३७४
३७५
३५८
३३५
९३
३९५
३५७
३५६
२८५
३५०
२३०
३२५
३५१
३५४
२६५
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________________
५२०
वामाङ्घ्रिः शकटास्यः स्यात्
वामान्ते स्पन्दितो यत्र वामार्तभ्रमादाहुः
वामावर्ती भवेद्यत्र
वामेतरः करः किंचित्
वामे दक्षिणतः पादे
वामेन पितृकार्ये स्यात्
वाम डोलाकरः प्रोकं
मोsssस्तु वामोऽतिक्रान्ततां नीत्वा
वामोऽथ स्पन्दितो भूत्वा
वामोऽपक्रान्ततां नीतः
वामोऽलपल्लवो गण्ड०
वामोऽलातो दक्षिणस्तु
वामो यत्र निषण्णोरु:
वामो वाध्यर्धकीभूय
वारणेनैवमित्युक्त
वास्तवं कृत्रिमं चेति
विकसित
विकासिनिग्धा मधुरा
विकूणिता संकुचिता
विकृत प्रेक्षणेरक्षि० विकृतस्य ध्वनेस्त्रास ०
संगीतरत्नाकर:
विकृतार्थानुकारस्तु
विकृष्टात्यन्तमुत्फुल्ल •
विक्षिप्तमञ्चितं गण्ड०
विक्षिप्तमभिनेतव्यः
विक्षिप्ताक्षिप्तकं तत्स्यात्
विक्षिप्ताक्षिप्तको
पुटसंख्या
३५० विक्षिप्तालातकाङ्क्षिप्त •
३४९ विक्षेपवलने प्राहुः
२४९ विक्षेपाच्च भवेत्स्तम्भः
२४८
विघ्नेशं भारतीं देवीं
विचारे च विचारज्ञा:
२१८
१२९ विचित्रमङ्घ्रिजङ्घोरु०
१३०
विचित्रा नृत्यशाला स्यात्
विच्युतः स्वस्तिकस्तद्वत्
विच्युत: स्वास्तिक स्त्रीभिः
विच्युतौ चेत्तदाकाश०
विज्ञत्वं स्थैर्यधैर्ये च
वितर्कसुमौत्सुक्यम्
२०८
३५१
३५९
३५१
३५७
२२५ वितर्कितोदिता दृष्टि:
३५४
वितर्किताभितप्ता च
३२४
वितर्कोऽस्याः क्षणे पूर्वे
३५०
वितस्तिमात्रमथवा
१७७
४३३
१४८
१३९
१६१
४२८
विदूषकस्य हासस्तु
विद्धा प्रावृतमुल्लोल:
विद्यन्तेऽन्येऽपि भूयांसः
विद्याधन बलैश्वर्य • •
विद्युदुल्का निपाताभ्यां
विद्युद्वान्तमतिक्रान्तं
विद्युद्रान्ता दण्डपादे
विद्युद्रान्ता पुरः क्षेपा
विद्युद्भान्ताभिधादूर्ध्वं
पुटसंख्या
२६१
૬૨
४६९
३६४
२१
२७६
३९५
५९
५४
२१७
४२९
४०३
१४६
१३६
४५०
३३०
४०४
२८२
२५२
४५४
४६२
१९२
२२४
२८१
२६८
४६१
४७३
३४५
२३३
४३२
३८८
१६१
२७३ विद्युद्वदुत्तमानां तु
२२४
विद्वन्मानसवासाय
२०७
विधातुमुचिता गात्र •
२७२
विधाय जनितां चारी
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--------------------------------------------------------------------------
________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
५२१
पुटसंख्या
३९८
४३५
१४८
३३० ४३
विधाय तिर्यक् स्कन्धाभ्यां विधाय भ्रमरी चारी विधाय विविधस्थायात् विधाय खस्तिको कुर्यात् विधायाक्षिप्तया चार्या विधिरेष सत्कव्या विनयेऽथ विचारे स्यात् विना निमित्तं हसितं विनियोगं सहनादि विनियोगान्तराण्यत्र विनियोगोऽजहारेषु विनिवृत्तं परावृत्तं विनिवृत्तमिति प्राक्ष: विन्यसेदवनौ यत्र विप्रकीर्णो तत: कार्यों विप्रकीर्णी तु तावेव विप्रलम्मे नानुभावः विप्रलम्भोद्भवा शङ्का विबोधस्त्वस्त्यसौ कस्मात् विबोधो व्याधिरुन्मादः विभावत्वेन विख्याता विभावयन्ति रोमाचं विभावा अनुभावास्तु विभावायरनुचितः विभावा यत्र दारिद्रय विमावा विस्वरो मिनः विभावा: शीतरोगौच विभावा: संमताः पुंसां विभावा: सन्ति यत्राथ
पुटसंख्या
२५१ विभावा: स्फुरथ प्रस्त. २१२ विभावाः स्फुरथो बन्धः ३८. विभावाः स्युरिमे चानु. १९८ विभाविता देहसंस्थैः
विभावरनुभावैश्व ३४६ विभावैर्वरकान्ताये:
४५ विभाव्यतेऽय जृम्भाक्षि. ४६. विभीषिकार्थो बालादे:
५१ विभ्रमो योषितां हर्ष. १६६ विभ्रान्ता विभ्रमे वेगे २७४ विमानानां च मायानां १७७ विमुक्तं भूप्रपतनं १७६ वियुक्ते च विधातव्ये ३०८ विमुक्तो विस्मितः श्वास: २०३ वियुते संयुते वा चेत् ६१ वियोगेऽपि तथा माल्या. ४.९ विरलप्रसृताङ्गुष्ठ. ४११ विरलाः पद्मकोशोऽसौ ४१२ विरले चेत्कपित्थस्य ४०३ विरहः करुणाद्भिन्नः ४०७ विरूपवेषावयव. ४७. विरोधिनो रसास्तेषु १५३ विलम्बेनाविलम्बेन ४०४ विलम्बितो लयस्तूक्तः ४५. विलापः पतनं भूमौ ४७. विलापो रोदनं शोच्य.
विलासिनो विलासिन्यः ४१९ विलासे ललिते गर्वे ४५३ विलासो गमानादि स्यात्
२७५
४१४
४७२ ३६१,३६२
३८३
४२१
३९५
२२
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५२२
विलीनो मूच्छिते शैला० विलोकनाल से तारे
विवर्णशिथिलाङ्गत्वं
विवर्तनं समुद्धतं
विवर्तना त्रिकस्य स्यात्
विवर्तितं च गरुड०
विवर्तितं चापसृतं
विवर्तितः कम्पितच
विवर्तित मधोव
विवर्तितौ च स्फुरितौ
विवर्तितौ पद्मकोश
विवर्तितौ समुतौ
विवाह स्थाननयने
विवाहे त्वाप्रस्थ विवृणोति मनोवृत्तिः
विवृतं सममित्यूचे
विश्वतं विनिवृतं च विवृत्ता सा कटी प्रोका
विवृत्तोऽथ भ्रमरिका
विवेकः श्रुतिसंपत्ति: विशाखदेवतं तच्च विशालनेत्रता बिम्ब०
विशेद्विकृतवाग्वेष
विशेषणविशेष्ये च
विशेषणे चोल्वणयोः
संगीतरत्नाकरः
विश्लिष्टजयोः कृत्वा
विश्विष्टा कातरा पाणि ०
विश्लिष्टौष्ठं तु वि
विश्विय पार्श्व स्वनीतः
पुटसंख्या
१६५ विश्वासैर्जुभिम्भितैर्मन्देः विषण्णादिष्वपि प्राय:
१४६
विषण्णे व्याकुळे भीते
विषमं च प्रहरण०
४४६
१५५
९८
२६९
८९ विषयेऽरुचिता दृष्टया •
विषादविस्मयगत •
विष्कम्भापसृतो मत्तः
विष्णुभक्तिप्रभावाद्या
१६६
३३९
१५३
विषमं विकटं लध्वि •
विषयाभिमुखान्यष्टौ
७८
विष्णुमन्मथ की नाश •
विष्णुवेषधरेणैव
विसृष्टः स्याद्विनिष्क्रान्तः
१५४
५६
३८ विस्तरत्रस्तचित्तेन
१८० विस्तारणं निर्निमेषं
१३३ विस्तारिताञ्चितावङ्घ्री
१९२
९१
२२८
४५१
३२३
३६७
३८९
विस्तीर्णा चञ्चलोत्फुल्ल •
विस्मयाय निर्वेद:
विस्मये च स्मिते हर्ष ०
विस्मये दृश्यते तच
विस्मये भूरिसौभाग्य •
विस्मयो वीक्षणं पश्चात्
विस्मापनेऽभिनेतव्ये
३१ विहाय त्रीनभिनयान्
विहाय विषयन्मुख्यं
वीक्षणे गरुडादीनां
वीरः स्यादुचिते युद्धे
पुटसंख्या
४५०
८६
८५
वीररौद्रकृतं मल्ल •
वीरे क्रोधो भयं शोके
३९०
१४
१५६
४१५
४६२
२५६
४३८
४०४
३२१
१६७
૪૪
४३६
३३६
१४८
४०१
२१
२४
३२७
४६३
"
२९५
२००
१७७
२८३
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१३६
१४
४४१
३१३
४३१
३२४
xx
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--------------------------------------------------------------------------
________________
वीरो दानादयस्तत्र
वृत्तिः संस्कृतवाक्यै •
वृत्तिः सा भारती सात्त्व •
तात्पुष्पोद्धृतौ वर्ति •
वृश्चिकं करणं कृत्वा
वृश्चिकं चरणं कृत्वा
पृथ्विकं तु लतायं च विकं वृधिका
वृश्विकरणो यत्र
वृश्चिकायं कुट्टितं स्यात् वृथ्विकोऽङ्घ्रिः पद्मकोशौ
वृषभासनमाख्यातं
वेणी वा सरला दीर्घा वेतालभृङ्गिरिय्यादि
वेपथुर्मुखवैवर्ण्य •
वेपनं स्फुरणं कम्प:
बेपनाया: कम्पभेदाः
वेषालंकारगमन •
वैकल्पिकं कटी छिन्नं
वैतालिकचारणश्च
वैवर्ण्यमश्रु प्रलय:
वैवर्ण्यमस्याभिनयः
वैशाखं यत्र तज्ज्ञेयं
वैशाखरेचितं कृत्वा
वैशाखरेचितं द्वाभ्यां
वैशाखरेचितः पार्श्व •
वैशाखरेचितादूर्ध्व •
वैष्णवं समपादं च वैष्णवं स्थानकं यत्र
लोकानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
४३२ वैष्णवस्थानके स्थित्वा
३४१ वैष्णवे स्थानके स्थित्वा
३४०
व्यंसितं सनिकुट्टं स्यात्
५०
२०७
२१६
व्यजनप्रहणं स्वेद:
व्यथायां कम्पितोऽन्वर्थ:
२६८ व्यरचत्त्रयमिदं
१९२ व्यवस्थात्रानुभावानां
२१७
व्यसनप्रभवोऽनर्थः
व्यभिचारित्वमनयोः
११६
२६९
२६०
२५६
२७४
२६३
२३२ व्याख्यानादिप्रयासेन
३३५ व्यात्तास्यस्थोन्नताप्रा च
३६९ व्यातास्यस्थोन्नतान्वर्था १२६ व्याते वक्त्रे चला लोला
४४६ व्यादीर्ण दूरनिष्क्रान्तं ४७. व्यादीर्णं श्वसितं वकं
३१९
२३६, ३२१
व्यस्तानां वा समस्तानी
व्याधिर्वान्तिर्विरेकच
"
४१५ व्याधिव यत्र बीभत्स:
२६८ व्याधौ च वीटिकाच्छे३०
१७ व्याध्यादेरनिवर्तित्वात्
४०३
४७१
व्याभुमं भुममुद्वाहि
व्यायामे संभ्रमे चेषा
५२३
पुटसंख्या
२४९
१४५
२६२
४७०
व्यावर्तनात्करयुगे
व्यावर्त परिवर्ताभ्यां
व्यावर्तिताख्यं करणं
व्यावर्तितेन चानीय
व्यावर्तितेन तत्कालं
व्यावर्तिते नालपद्मी •
१६७
४४२
*
४२०
४१९
३६८
४६५
१७२
१७३
"
१७४
33
४६४
१७६
९१
१९६
२०१
૪
१९९
२१५
७६
यात्रुतिपरिवृतिभ्यां २०३,२०६, २११,२२२
४४५
४३५
१७०
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________________
५२४
संगीतरत्नाकरः
.
.
.
.
पुटसंख्या
पुटसंख्या व्यावृत्या कुञ्चितौ कृत्वा २३९ शरीरमीषद्वलितं
३२८ व्यावृत्या परिवृत्या च
७७ शरीरलोलनं नेत्र व्योमगा उभयास्तु स्यात् २८२ शशिनेव दिशोऽशानि
१८१ बीढानुतापशुचिभिः
४५२ शस्त्रजे सहसा भूमौ
शस्त्रसंकटसंपात. शस्त्राणां ग्रहणं पात:
४२४ शकटास्य: क्रमादूरुः
३५. शस्त्रादिविषतोयेभ्यः शकटास्यस्तत: पाद:
३५१ शस्ने चकाभिधे कुम्भ. शकटास्यस्तथा वाम:
३४९ शाङ्गदेवेन गदितः शकटास्यश्चाषगति:
, शान्तस्य शमसाध्यत्वात् शकटास्या भवेच्चारी
२३७ शास्रार्थसम्यग्ग्रहणे शकटास्यो भवेत्पश्चात्
३५. शिखरद्वन्द्वसंयोगात् शकटास्योरूदत्ताख्ये
१९३ शिथिलौ त्रिपताको तु शक्तिकुन्तादिशस्त्राणि
३४७ शिर: कण्ड्यने कार्यः शक्तितोमरयोर्मोक्षे ३९ शिरः कल्पितनि:श्वास
४२३ शकोन्वित्यभिमानेच
१९ शिरः पार्श्वगतं यत्र शकोऽहमिह कार्येऽस्मिन् २१ शिरः स्यादश्चितं किंचित् शक्कामोहावपि त्रास
४३३ शिरः स्यालोलितं सर्व० शङ्कायां शङ्किता दृष्टिः १४४ शिरसैव भुवि स्थित्वा शवस्य धारणे सोऽयं ५३ शिरो होलौ यदाह स्तो
२३६ शनैः प्राप्य शिरोऽन्योन्य. ७९ शिरोनेत्रकरादीनां शनैरुच्चालिता पार्श्व.
९१ शिवप्रसादसंप्राप्त शनैस्तिर्यनिगूढा या
१४५ शीघ्रं घर्षनधिष्ठाय शब्दस्पर्शादिभिः स्वः ४५९ शीतज्वरोऽभिनेयोऽथ
४६. शब्दानुकरणे वक्त्र.
१६५ शीतहृच्छल्ययोः शोके शम: सर्वरसेश्वस्ति
४४४ शीतानुलेपनाकाक्षा शयनं हसनं गानं
४९ शीतार्ते ज्वरिते भीते शयानार्थेऽलिस्फोटे
८१ शीर्ष व्रजवाहुः शरमन्थाकर्षणे च ४१ शुक्रतुण्डं करं तस्यै.
२०२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
२५.
३३
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________________
५२५
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या
२५ षोडशेति ग्यश्रमाना
पुटसंख्या
२५६
१७९ १५९
२४१ ३७४
४००
२८१
शुकतुण्डश्व काङ्गूल: शुकतुण्डस्तदा स स्यात् शुक्रतुण्डादयोऽप्यन्ये शुद्धान्युत्प्लुतिपूर्वाणि शुद्धथमोद्भवोऽत्यन्त. शुद्धोऽशुद्धोऽत्यन्तशुद्धः शुभ्रः सुगन्धिभिः पुष्पैः शुष्कोष्ठतालुता कम्प. शून्यस्थानस्थितस्येव शून्यात्र मलिना श्रान्ता शहारहास्यकरुणौ शुकारादिरसामासाः शृङ्गाराद्विप्रलम्भाख्यात् शुजारी भूरिदो मान्य: शृङ्गारे स्यात्तु निष्काम: शहारे देवतामाहुः शेषे यत्रोविरले शैवं च वैष्णवं क्षेत्र शोको हि करुणे स्थायी शौर्य भवेदनुद्भूत. श्यामः सितो धूसरश्व धद्धार्दताभिलाषांश्च श्रवणं चानुसंधानं श्रीमान् गुणलवस्यापि लक्ष्णं धुवाख्यखण्डेन श्लिष्टान्यज्जानु जानूकं श्वासोच्छासौ देहपात.
३४७ ४५० ४५८
१९७ १६. संकोचनं च नासोष्ठ. ४३६ संकोचात्कुञ्चिताः शीत. ४३५ संकोचात्कुचितौ रोमा. ३६४ संक्षिप्तकं चावपातः ४३३ संक्षिप्योत्प्लुविपूर्वाणि
१८ संगीतबुधः सार्ध १३५ संघर्षणं कुट्टनं स्यात्
संचारितोत्कुचिता च ४०४ संजातमिष्टविरहात्
संज्ञामात्रेण कर्तव्यः ३९४ संतापः स्मरणं ध्यानं १५६ संदेशचतुराधेश्व ४०४ संदष्टक: समुद्रश्च
४६ संदष्टकोऽधरो दन्तः ४३८ संदेहे दधदगुल्यो ४१३ संधिश्च विग्रहो यानं ४३१ संनतं वलितं गात्रम् ४०४
सन्नं स्वस्थानविश्रान्तं ४४१
संनिवेशविशेषोऽङ्गे
संनिवेश्य सभामेवं ३९४
संपूर्णभ्रमरैः प्राग्वत् संप्रदायसमुलासि संप्रदायस्य दोष: स्यात् संप्रदाया गुणा दोषाः
संप्रदायागतज्ञान: ३५९ संफेटवारभव्यां यत्
१६८
४३. २३४ ३२१
३१९
४३२
३७४
३७०
षट्कृस्वा सप्तकृत्वो वा
।
३४४
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
५२६
संगीतरत्नाकरः
२४१
३७४
१७
पुटसंख्या
पुटसंख्या संभोगेऽपि न निद्रास्ति ४१२ सत्रेधा स्यादप्रजश्व संभोगविप्रलम्भौ वा ४०६ सत्वमुद्रिती दृष्टिः
१४१ संभ्रमादौ यथायोगं ४५१ सद्वितीयाल्पकस्सन्दात्
१५३ संभ्रान्तं तत्प्रयोकध्यं
२३७ सनकमकरादीनां संमुखप्रेक्षणे तश्च २०२ स निष्काम: प्राकृतं तु
१५६ संमुखागत इत्येतान् १८३ सन्ति यत्र विषादोऽसौ
४५५ संयम्य सुचिरं मुक्तः
१६४ सप्त भ्रमर्यो भ्रमरी संयुता वियुता वक्त्रा
१७८ सप्ताङ्गहारे प्रोकानि संलमाश्चेति वरण. १७९ सबाष्या मन्दसंचारा
१४. संलगोष्ठं चलं नारी.
१७५ सभाजनमनोहारि संलापकश्चतुर्थस्तु ३४३ सभाजनमनोहारी
३८५ संविदोरक्संपत्या
४०६ सभापति: सभायाश्च संसारभीरता दोष.
४३८ सभासु परिहासज्ञः संहतं कुचितं चार्ध. १३३ सभ्रूक्षेपकटाक्षा सा
१३६ संहतस्थानके स्थित्वा
३०. समं साच्यनुवृत्ती स एव त्रिपताकः स्यात् ३४ समं स्वाभाविकं जानु. सकचुकं वा चलनं
३६९ समः स्वाभाविको भ्रान्तः १६५ सकलं धुवकं गीत्वा ३७९ समतारपुटा दृश्य.
१४२ सकपूर्व शिरो नीतम्
२१ समपादं चैकपादं सचेत्पृष्ठत एव स्यात् ३११ समपादस्तु पृष्ठे चेत्
२२६ स जास्वस्तिकेऽथान्य २८६ समपादाचितं कृत्वा
२५० सतालललितोपेता ३६३ समपादाचितं प्राह
२५१ सतो: पताको व्यावृत्ति ६३ समपादाचितं भ्रान्त.
२४१ सरवप्रकाशकं यत्स्यात् ३४२ समपादानन्तरं चेत्
१५. सत्यं किं तु स संस्कार ४२७ समपादा स्थिता वर्ता
२७९ सत्यवादी कुलीनश्च ३९४ समपादस्थितो यत्र
२४४, २४६ सत्युपायोऽपि कार्यस्य ४५५ समपादात्परं तिर्यक्
२४७ सत्येकस्मिन् समे पादे ३८७ सममाकुचितं स्थानं सत्युपायेऽपि कार्यस्य
४५५ सममेकं विधायाध्रि. २५४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
५२७
पुटसंख्या
१४५
४३. ४६२
१०३
४२२
३७०
समयोऽपि वसन्तादिः समस्खलितिका भौम्यः समस्तमुद्धतं सारं समस्तशास्त्रविज्ञान समस्या ः पुरः किंचित् समस्या स्तु जानूर्व. समस्यैकस्य पादस्य समहस्तादिभिः पाटः समाविषमाङ्ग समा रग्रपृष्ठाभ्यां समादिग्रहविज्ञश्व समायन्यतमा सूची समा निवृत्ता वलिता समा स्वाभाविकी ध्याने समुद्गस्तु भवेदोष्ठ. समुत्पत्तिश्च पुत्रादे: समुदतं च वलनं समुलततर: पाणे: समे पाणी सह स्फिग्भ्यां समोऽश्चित: कुचितश्व समोऽत्र स्वस्थपर्यायः समोत्सरितमत्सलिः समोत्सरितमत्तली समोत्सरितमध्य समो भ्रान्तो विलीनश्च समो यत्र तदादिष्टं समौ च नवघेत्युको समौ स्वाभाविकावेतौ समौ स्वाभाविको भावे.
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या
४०७ सम्यक् च कुञ्चिता तारा २८१ सम्यक् स्थापिते तथ्य. ४७२ सम्यग्बोधोऽथवा लोकात् ३९४ सम्यग्विज्ञाय षाड्गुण्यं ३३२ सरणापमृती तत्र ३३. सरतो नमानेन ३२७ सरल: पार्श्वयोरूर्वम् ३७५ सरितः पुण्यपयसः
सरोमाश्चमपाङ्गस्थ. २८७ सरोषे वामहस्तेन
सर्पशीर्षकरस्योचे २४८ सर्पशीर्षो मिलद्वाह्य. ५६ सर्पशीर्षों हंसपक्षः
सर्पशीर्षों क्रमात्तिर्यक १६८ सर्वतो भ्रमणं कठ्याः
सर्वतो भ्रमणादुका १५६ सर्वदा कृतकृत्येन २२२ सर्वभाषा विशेषज्ञः ३३७ सर्वाङ्गपीडनं गेह.
९२ सर्वास्ता मिलिताः सत्य:
१६५ सर्वे गर्वानुभावाच ३५०, ३५१ सर्वे घर्घरमेदास्ते २७९, २८६ सर्वे च मिलिता: सन्त:
३४८ सर्वेऽमी रूपवन्त: स्युः १६२ सर्वेषां तरुणः प्रोक्तः ३३१ सर्वेषां वच्मि लक्ष्मषा १५३ सर्वेषामङ्गहाराणां १५४ सर्वोपकरणोपेतः १५९ सविलासोऽपरस्तिय
.
४२९
३८८
३२. २५७, २७२
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________________
५२८
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या
सविस्मये व्योमयान० २१७ सा द्वितीयाल्पकस्पन्दाद्
१५३ स विस्मितो विस्मये स्यात् १६४ साधारणान्यमून्याहुः
१५८ सव्यवामौ च बहुश: ३५३ साधारण्यात्तयोर्भेद:
४१३ सशब्दं मधुरं काला.
४१८ साधुवादोल्लुकसने सशब्दच्युतसंदंश:
५१ सापराधत्वशङ्का या सशब्दां कुरुतोऽन्वर्थ २२६ सा पार्श्वदण्डयादेति
२९१ सशब्दः सन्सकृत्क्षिप्तः १६३ सा पूर्व परतो वा स्यात् स शौर्यधैर्यगाम्भीर्य ५८ सामदाने भेददण्डौ
४३१ स सार्धमुत्तरोष्ठेन
१६९ सामाजिकानां जनयन् ससौष्ठवाश्च नीचैस्तु
८५ सामाजिकास्तु लिहते स स्याद्भानोरुपस्थाने १०१ सामादीनामुपायानां स स्यान्मदः स च त्रेधा ४४९ साम्यानुधिरमोहादि
४.४ स स्वल्पाभिनये वेद. ७. सार्धतालान्तरत्वेन
२८५ सह गायति संयुक्तैः ३७९ सार्धद्वितालन्तरालः
३२. सहजा पतितोत्क्षिप्ता
१५० सार्धानि द्विः कटीच्छिन्न. सहभावोऽवहित्येन ४४७ सालगस्थधुवायन्ते
१२४ सहसा दर्शनं यत्तद्
१५८ सावद्यता वा निवद्य. सहसापसति: शास्त्र.
सा विप्लुतातिदुःखादौ
१४८ सहायान्वेषणोपाय. ४५५ सिंहविक्रीडितं सिंह.
१९३ सहोरुद्वृत्तया चार्या २३८ सिंहाकर्षितकं नाग.
२६८ साक्षात्कारमिवानीतैः ४०५ सिंहादीनामभिनये साक्षात्स्वेदोऽभिनेयः
४२५ सिन्दूराघेन वा वर्णाः सांख्योक्तो वा गुणः सत्त्वं ४६८ सुकम्बुकण्ठतावेल्लत् सा चिन्तौत्सुक्ययोः शोके १६१ सुकुमारं तिरश्चीनं साच्युच्यते तिरश्चीन. १५७ सुकुमारस्खलगत्या.
४४९ सात्वतेऽप्येवमेव स्यात् ३४६ सुखरूपा स्वसंवेद्या सात्त्विकैः सात्त्विक वैः ९ सुतालकलितप्रान्तान्
३८१ सात्त्विकाच रसेषु स्युः ४७१ सुतालरक्षराणीव
३६५ सा देशी पद्धतिस्तुका
३७८ सुनील स्निग्धविस्तीर्ण. Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
५२९
पुटसंख्या
२२७ २२२ २८
३५६
१९३ २२७ १६६
३२१
२१८ २२८ ४७२
१७२ २९७
पुटसंख्या सुप्तं प्रसारितं स्थान
३३९ सूच्यधिश्वेत्तदा सूची. सुप्तमुत्तानवक्त्रं च
सूच्यघ्रिणा द्वितीयाङ्ग्रेः सुप्तस्थानानि षट्तानि
३२० सूच्यन्तेऽन्ये साहचर्यात् सुप्तिमूर्छातिवर्षोंष्ण. १५४ सूच्यपकान्तको वामः सुभगिरगपीठस्य
३७५ सूच्यर्धसूचिनी सूची. सुमनांसीव गात्राणि
सच्येवैकाङ्गरचित. सुरतं प्रति सोत्साह
३६६ सूत्कृतं वेदनादौ स्यात् सुराणां वरिवस्यायां
२२० सूत्रधारादिना नाट्य. सुलभा दुर्लभारत्वेते
४६९ सूत्रधारादिविषये सूचयन्त्यान्तरं भावं
सरयो विनियुञ्जन्ति सूचीं च भ्रमरो वाम ३५५ सूरिश्रीशाहदेवेन सूची च भ्रमरी वामे
३५८ सूर्यचन्द्रोपरागाभ्यां सूची दक्षिणपादः स्यात् ३५७ सृकानुगा लीढसक्का सूचीपाद: स्वपार्श्वे वा
३२७ सोऽग्रे तदनुगोऽन्यः स्यात् सूचीपादोऽघ्रिणान्येन २११ सोच्छासाभिनये मन्द. सूचीपादो नतं पार्क २२५ सोच्छासेत्युदिता नासा सूचीपादोऽप्यपसृतः
२१० सोत्तमानामपि स्त्रीणां सूचीपादौ पृथग्यत्र
३३३ सोदाहरणलक्ष्माण: सूचीमुखं चापसार्य
२०९ सौन्दर्यसौकुमार्याभ्यां सूचीमुखं नृत्तहस्त.
२२० सौभाग्यमेधाविद्यादेः सूचीमुखः सर्पशिरा:
५ सौम्यं मध्यस्थतारं च सूचीमुखो निकुटपेत
२३७ सौष्ठवं यत्र तज्ज्ञेयं सूची यत्राथ वाम: स्यात् ३५५ सौष्ठवं रूपसंपत्ति: सूची वामस्त्वपक्रान्त:
३५६ सौष्टवाधिष्ठितं वक्षः सूचीविद्धं वामविद्धं
३४८ सौष्ठवेऽहं भवेत्तच्च सूचीविद्धाभिधः प्रोक्तः
२५९ स्कन्धकूर्परयोर्मध्यम् सूचीविद्धाभिधे चार्या
३५३ स्कन्धन्यस्तशिर: सुप्तं सूची स एव भ्रमरः
३५४ स्कन्धभङ्गश्च जडता सूच्याध्रिदक्षिणे वामः ३५७, ३५९ स्कन्धभ्रान्तं च षट्त्रिंशत्
67
३४३ ४४८ १५७ ३२.
३६७ ८७
३२१
५६ ३४०
४६४ २४१
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________________
५३०
स्कन्धयोः स्तनयोर्यद्वा स्कन्धानतं तदाख्यातं
स्कन्धान्तिकमथोपेत्य
स्कन्धे तु किंचिदाश्लिष्य
स्कन्धे वक्षसि वा शस्त्र ०
स्खलतः प्रोच्यते चारी
स्खलिते चरणे तिर्यक्
स्खलिते विगलद्वस्त्र •
स्तनक्षेत्रगत जानु • स्तब्धजङ्घः सार्धताल •
स्तब्धस्तु निष्क्रियः स स्यात्
स्तम्भ: स्वेदश्व रोमाञ्चः
स्तम्भ: स्वेदोऽथ रोमाश्च:
स्तम्भकम्पाश्रुवैवर्ण्य •
स्तम्भग्रहेऽतिभारे च
स्तम्भद्वयोपरि न्यस्येत्
स्तम्भाङ्गसविक्षिप्त • स्तम्भितोच्छ्रासनिःश्वास स्तम्भो गद्गदशब्दव स्तम्भो विवर्णता त्रस्त • स्तोकैर्विभावेरुत्पन्नाः
स्त्रीणां कोपे वितर्के च
О
स्त्रीणां च नीचप्रकृतेः
स्त्रीणां लीलागतेष्वेषा atri विलासे बिब्बोके
स्त्रीपुंसयोरुत्तमयोः स्थानं चिकीर्षितासु स्यात्
स्थानं यथाभिनेयं स्यात्
स्थानं स्थितिर्गतिवारी
संगीतरत्नाकर:
पुटसंख्या
७७
स्थानभ्रष्टो विस्वरः स्यात्
२४ स्थानेऽङ्घ्रिः खण्ड सूच्याख्ये
७८
२४
३४६
३०७ स्थायिभावश्व हासः स्यात
स्थायिभेदाद्विभागोऽतः
23
३२७ स्थायिष्वव्यभिचारित्वं
१३४ स्थायी तत्कथमुत्साहः २१८
स्थायी तमद्भुतं प्राह
१२८
स्थायी तु सूत्रस्थानीयः
४३६
स्थायी स्याद्विषयेष्वेव
स्थित पार्श्वेऽथवा पार्श्व
४०३
४२०
५६
स्थानेन समपादेन
स्थाने विषमसूच्याख्ये
स्थायाधिक्योनताभिज्ञः
३६४
४५९
१६२
४६४
४२०
४४३
१५१
४३४
९१
१६७
४०६
३२६
स्थितिस्तु चरणाप्रेण
स्थितेन समपादेन
स्थितौ वक्षः पुरोदेशे
स्थित्यर्थे देशनिर्देशे
स्थित्वा गच्छति गत्वा च
स्थित्वा भुवि व्योम्नि कृत्वा
स्थित्वा स्वस्तिकबन्धेन
स्थिरप्रेम्णा कृतज्ञश्च
स्थिरहस्तोऽथ पर्यस्त:
स्थिरा: स्यु: स्थायिनस्तेन
स्थिरोत्तपुट रूक्षं
स्थूलकर्णः कटुध्वानः
स्थैर्य त्वचलचित्तत्वं
स्निग्धा हृष्टा तथा दीना
त्रिद्यन्ति च निसर्गेण
पुटसंख्या
४७०
३०४
२८२, ३५२
३०५
३७०
४१६
४१३
१३५
४२६
४३६
४७२
४०२
९५
३०७
३७५
५९
१९
३१८
२५१
२९९
३९४
२५६
४२६
१४१
४१८
४३१
१३५
४७३
४५६
33
३१७ स्पन्दनं कम्पनिःश्वासौ
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________________
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका
पुटसंख्या
१८९
८८ २४१
३११ ४२२ ३९६
२९४
१५५
स्पन्दित: शकटास्यस्तु स्पन्दितो वामपादः स्यात् स्पर्शग्रहाश्रिताश्वानु स्पृशतो बाह्यपाश्र्वाभ्यां स्पृशत्करिकराकारः स्फुटमास्फोटितं धीरैः स्फुरणादि प्रयोकव्यं स्फुरितं वलितं लोलम् स्फुरिताग्रे मृतौ वेगात् स्फुरितोष्ठो मृगाक्षीणां स्फुरितौ कम्पितौ कार्यों स्फुरितो स्पन्दितौ स्याता स्फुरत्संश्लिष्टपक्षमाया स्मितं च हसितं प्रोक्तं स्मितं स्याद्विहसी यस्तु स्थन्दितावस्यन्दिताख्या स्याच्छिन्त्रकरणोक्का चेत् स्यात्तालभञ्जने तच स्यात्तिर्यस्वस्तिकं कृत्वा स्यात्तु निष्क्रियता स्तम्भः स्यात्पक्षानुकृतौ माने स्यात्फूत्कारेऽनुकम्पायां स्यात्किया करपादादेः स्यात्पार्श्वस्वस्तिकोऽभ्यासात् स्याद्दशम्यां दशायां स: स्थाद्देवात्मपराणां यत् स्याद्वाह्यपार्श्वगस्तिर्यक् स्याद्वक्ष: सममाभुमं स्यादामाज्रितिक्रान्त:
पुटसंख्या ३५० स्याद्वामेतरभागे तु ३५७ स्याद्विभावोऽथानुभावा: ४३६ स्याद्विसर्जनमाह्वान ३०५ स्याद्रीहासश्रमस्वास.
६९ स्यान्मत्स्यकरणं चाय ३५. सस्तव्याकुलविक्षिप्तौ ४६४ प्रस्तालासं जानुगतं १७४ सुताश्रुधारमखस्थ. ३०४ स्वकङ्कणझणत्कार. ४२८ स्वतन्त्रयोरतो नास्ति १५९ स्वतन्त्रोऽसौ क्रमान्मन्द. १५४ स्वतो विषयवैमुख्यं १४ स्वदेहक्षेत्राभिमुखं ४१६ स्वनिष्ठानि नवेत्याहुः ३६३ स्वपार्श्व नीयतेऽन्यस्तु २७९ स्वपार्श्वमन्यतो गच्छन ३५६ स्वपार्श्वयोः पुरस्ताद्वा २१३ स्वपार्वे कम्पमानस्तु २४८ स्वपप्रलापनं श्वास.
२२ स्वप्रान्तनिद्राच्छेदाभ्यां १०४ स्वप्नोऽवहित्थसालस्य. १६८ स्वभावादभयौ तौ हि १९१ स्वभावाद्धातुदोषाद्वा २६. स्वभावाभिनया: पूर्वम् १६४ स्वभावाभिनये कार्याः ४२१ स्वभावेन स्थितो भूमौ ३३२ स्वभुजप्रेक्षणैः शत्रौ
८७ स्वयं गायति वायं च ३५६ स्वशङ्कायां परज्ञान
६७
३३
४५७
४३४
४४१ ९२
४२८
४४७
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________________
५३२
संगीतरत्नाकरः
२०.
4
२२८
०
८
पुटसंख्या
पुटसंख्या स्वसंमुखतलचोर्ध्व.
१८२ स्वेदश्चाकाशनिष्ठात्तु स्वसंमुखौ च विततो ५५ स्वेदवेपथुरोमाश्च०
४२५ स्वसमुत्था परे ज्ञस्य. ४४७ स्वेदोऽधोमुखता मूर्ध.
४५४ स्वस्तिकं वर्धमानाख्यं स्वस्तिकं व्यंसितं तु द्वि. २७१ स्वस्तिकप्रक्रियैषा स्यात्
हंसपक्षौ परे प्राहुः स्वस्तिकाकृतिता नीती
६६ सपक्षौ स्वस्तिकत्वं स्वस्तिकाविकृता सैव २४४ हंसास्यो हंसपक्षश्च
तकाद्य रचित स्यात् २६८, २६९ हनुचालेन सर्वाङ्ग. स्वस्तिकान्यर्धदिक्पृष्ठ
१९२ हनुदेशगतस्तु स्याद् स्वस्तिकापसृतौ पादौ २३६, २३९ हन्तृप्रकृतयो रक्ष. स्वस्तिकीकृत्य नाभिस्थ: _____ २०५ हरिणप्लुतमारुपातं स्वस्तिको लमयो होः
१०१ हरिणप्लुतया चार्या स्वस्तिको हंसकस्थाने
चिन्तादिभिः प्रोक्तः खस्तिको विप्रकीर्णाख्यौ २६ हर्षमर्षाञ्जनाद्धमात् खस्तिको खस्तिको पादौ १९९ हर्षशोकभयोपायान् खस्थ मदालसं कान्तं ३१९ हर्षाद्रागाद्भयाहु:खात् स्वस्थक्रियासु कर्तव्यो १६२ हर्षाद्रोदनहास्यादि खस्थावुच्छासनि:श्वास. , हर्षामर्षविषादाश्च खस्थौ चलौ प्रद्धव
हर्षी धृतिः समीचीन: खहेतूत्थ: कृत्रिमश्च ४३५ हवने सज्जनानां च
३३८ खाङ्गुष्ठामु मिथो लमाः १७९ हसन्तमपरं दृष्ट्वा
४१६ स्वाधीनपरिवारश्च
३९४ हस्तं मुहुः क्रमात्कृत्वा स्वाभाविकं समं शीर्ष
२५ हस्त: सूचीमुखः स स्यात् स्वाभाविक: प्रसन्नश्च
१८१ हस्तप्रायां तिरश्चीनां स्वाभाविकी स्यात्सहजा १५. हस्तपादकटिग्रीवं
२१६ स्वाभाविकी स्यादन्वर्था
१६. हस्तपादप्रचारस्तु स्वाभाविकी नता मन्दा , हस्तप्रसारणं त्वत्र
७२ स्वेच्छाकृतकमर्यद्वा
३७५ हस्तलाघवतो मन्त्रैः Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
"
७६
<
३२६
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--------------------------------------------------------------------------
________________
५३३
पुटसंख्या
१९९
श्लोकार्धानामनुक्रमणिका पुटसंख्या
२०६ हस्तौ हृत्क्षेत्रगौ यत्र २३. हानिग्लानिमदव्याधि० २७७ हासनीयस्य कक्षादि. २३७ हासे घ्रोणे च पतिते ३३६ हास्यरौदावपि त्रेधा २२९ हिको श्वासवमन. २३९ हीनाधिकविवेकज्ञ: ७२ हीना गारनिर्वेद. २३८ हृदयस्यानवस्थानं २१३ हृद्ये गन्धे विधातव्यः ३३७ होमे देवार्चने दीन०
हस्ते व्यावर्तमाने तु हस्तो यो रेचितस्तद्दिक् हस्तो वाभिनये गत्यां हस्तोऽसावलपद्मः स्यात् हस्तौ चित्रुकविन्यस्तो हस्तौ चेद्रेचिताकारी हस्तौ चेदेचितौ स्याता हस्तौ भणन्ति शोभेते हस्तौ यत्रोद्धहितं तत हस्तौ स्तो वामपार्श्वे तद् इसौ वस्तौ विमुक्तौ च
४१६ १५१ ४१८
३४२
४५३ १६४ ३३८
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________________
APPENDIX II
उदाहृतवाक्यानामनुकमः
पुटसंख्या
१२१
१२३ १८६
११०
११२
अंसान्तरक्षेत्रगती अङ्गाधभिनयस्येह अतोऽनन्तत्वमेतेषां अतो र इति शेयः अतो विमुक्ता युक्ताश्च अत्यन्तवल्लभाश्चैव अथ तो केशपर्यन्तं अथ पादनिकुद्याख्य. अथवा तुम्बिखण्डाज. अथवाविद्धकेन स्यात् अथवा सरलत्वेन अनन्तमालपाह्य. अनुक्त उच्यते यस्मात् अनुप्रलोच्य डोलावत् अनुलोमविलोमा च अनेन रहितं नृत्तं अन्तरामण्डलम्रान्ति. अन्तर्निवेश्य त्वरया अन्तर्बहियक्रचर:
पुटसंख्या
अन्तर्बहिश्वकभावं ११८ अन्तर्बहिश्चेदलितो
८२ अन्तर्यश्व मुमुक्षुभिः ११२ अन्तस्तिर्यक्चकभावात् २५३ अन्यस्तत: कुहितश्चेत् १२४ अन्यस्तु भजते यत्र १२४ अन्याश्च कथिता: सप्त ११५ अन्ये त्वाचक्षतेऽन्योन्य. ३१३ अन्येऽपि बहवः पूर्व ११३ अन्योन्यव्यतिहारेण ११८ अन्योन्यसंमुखौ सन्तो १२१ अन्योन्याभिमुखे स्यातां १२४ अन्योन्याभिमुखौ चैव
८२ अन्यो हस्तः शिर: क्षेत्र १२२ अपरं तु पराचीनम् ३१३ अपराजपरावृत्ती १११ अपरोऽलातचक्रस्य ११८ अपविद्धं ततः पश्चात् ११६ अभिमण्डलसंपूर्णौ ११९ अभ्यन्तरापवेधेन
६२
११४
१२१ ११३
१२३
११९ १११ ११५ १२२
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________________
उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः
५३५
पुटसंख्या
१०७
पुटसंख्या
१०६ आविद्धवक्रयोः पाण्योः ११३ आविद्धावन्तराक्षिप्तौ १२१ आवेष्टितक्रियापूर्व
आश्लिष्टौ स्वस्तिको क्षेत्र ११८ आहार्याभियं मुक्त्वा ८३
१०८
har
अभ्यन्तरे कनिष्ठाया अमुमन्तः समाक्षिप्य अरं तत्र प्रदेशेषु अरालं दधदावेष्ट. अरालकपरावृत्या अर्थस्यैकस्य भूयांस: अर्धमण्डलिका घात. अलपद्मकसंज्ञास्ते अलपल्लवसंज्ञाश्चेत् अलपल्लवितौ प्राहुः अलातचक्रकाख्यं च अलातचक्रकाख्यं तत् अवहित्थः करो वक्ष. अष्टवन्धविहारं च अष्टबन्धविहाराख्यं अष्टासु दिक्षु स्यातां चेत् असंयुतास्तावदेते
१०८ १२३
१२१
१२३
१२४ इन्चपादिभ्यः ११. इति कीर्तिधरस्वाह १.९ इतीदं तपतांश्रेष्ठ ११२ इदं तु कमनीयं वे ११९ इन्द्रादिदेवाः प्रीता: स्युः १०६ ११२ १२२ उकैः संकरसंसृष्टि १२२ उचितौ विच्युतौ कार्यों ८२ उत्प्रकोष्ठं च पर्यायात्
उत्सारितोद्वेष्टितकैः
उद्देशः क्रियतेऽन्वर्थः ४१८ उद्वेष्टितेन निष्पन्नौ ११५ उरः समुन्नतं सनं १११ उरोवर्तनिका विद्यात् १२२ उल्लसदीतनृत्ताच्या
आ
११५ ३१३
मात्मस्थापेक्षया परस्य. आदिकूर्मावतारं तद् आदिकूर्मावताराख्यम् आदौ तु स्वस्तिकं बद्धा आदौ मध्येऽवसाने च आदौ वायप्रबन्धस्य आनुगुण्येन हस्तेन आन्दोलितकियायुक्ती आधम्मिल्लसमुत्क्षिपैः भापादिकगतश्चाथ.
१.
१०
११३ ऊरुपृष्ठे वर्तितश्चेत् १२३ ऊर्ध्वगौ पृष्ठतो नम्र
ऊर्ध्ववर्तनिकाविद्ध ११८ ऊर्ध्वाधोमण्डलाकार.
१०५ ११५
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________________
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या ऊर्ध्वाधो वदनं त्र्यनं ११४ कटीक्षेत्रगतश्चैक०
११५ अधिो वदनौ कृत्वा १२० कटीक्षेत्रगतौ चाथ
११८ ऊध्वोधौ वदनौ व्यश्र. १२१ कटीजानुसमा यत्र
कथितौ पल्लवौ तौ हि
१०९ करयोः कल्पते यत्र
११६ एकस्मिंस्तु पराचीने १२१ करयोर्यत्तु तत्प्रोक्त
११३ एकस्य पार्श्वचलने ११३ करयोर्यत्र विद्युत
११५ एकस्याकुञ्चितो मुष्टिः १०८ करयोः स्वस्तिकाश्लेष.
११४ एकैकं स्वस्तिकं चाथ
१२१ कररेचकरनाख्यं ११२, १२१ एकैकलुठितौ स्वैरम् १२१ कर्णभागगतश्चैक.
११५ एको रसोऽङ्गीकर्तव्यः ४७१ कलविङ्कविनोदाख्यं
११६ एको निवृत्य सहसा ११८ कलापाता: पादभागा:
२५३ एको हस्त: परस्यांस० ११५ कस्यचिन्मणिबन्धे तु
११९ एतावेव चलौ मूर्ध. १.९ किंतु लोके प्रयोक्तणां
११२ एते च त्रयोदश
२८ किं त्वमी केचनान्वर्या एतेषां त्वभिनय.
, फुटयित्वा च विन्यस्य एतेषामेव मुख्यत्वं
११२ कुट्टयेश्च तत: स्थाने एते सौभाग्य विजय.
१२३ कुट्टितं चरणं पश्चात् एतौ कीर्तिधराचार्याः १०८ कुट्टितः प्रथमं पाद: ३१४, ३१६ एवं पादद्वयकृता
३१४ कुट्टितश्च तत: स्थाने एवं पादद्वयेनापि
३१५ कुट्टितश्च पुन: स्थाने एवं प्रकीर्तितश्चार्यः
३१७ कुट्टितश्चरण: पूर्व एवं यः पूर्वरङ्ग तु २५४ कुट्टितवरणः पृष्ठे
३१६ एवमङ्गान्तरेणापि १०८ कुट्टितश्च स्वपार्श्वे च
३१४ एवमन्याश्च कर्तव्याः ३१४ कुट्टितोऽङ्गुलिपृष्ठे व
३१५ एवमन्याश्च विज्ञेयाः ३१७ कुर्वन् गतागतं दिक्षु
११७ परक्षेत्रमासाद्य
११९ कूपरस्वस्तिकाकार.
१०९ कक्षवर्तनिकोरस्थ. १०५ कूपरस्वस्तिकेनैव
१२१ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः
पुटसंख्या
१११ ११७
कृत्वैकं भ्रामितं चांसे कृत्वैकं मुष्टिरूपेण कृदिकारादक्तिनः केचित्प्रायोगिकास्तद्वद् क्रमपादनिकुट्टा च क्रमादेकैकपाश्वे वा क्रमेण यत्र तत्प्रोक्तं कियते चेत्पताकस्य कियासमभिहारेण
पुटसंख्या १२. चालकानां स्वरूपं वै ११४ चलमाने तदेतस्मिन् २७७ ११२ ३१३ जनान्तिकं प्रयोक्तव्यं १०८
१२२
१११
१०६ डोलं नीराजनं चैव ११६
१२१ १०७
खटकायौ शिरोदेशे खटकामुखयो भि. खड्गवर्तनिकेत्येतत्
१११ १२१ १२० १२३
गतागतः पार्श्वयोश्च गर्वेऽप्यहमिति तज्ज्ञः ग्रन्थविस्तरभीतेन गावस्य प्रातिलोम्येन
ततः स्वस्तिकबन्धेन १०९ ततो मण्डलवत्भ्रान्त्या १०६ तत्पश्चाच्चतुराशासु १०८ .तत्र क्रिया मनोहारी
तत्र तत्र प्रदेशेषु
तत्रैव मण्डलाकार ११७ तत्स्वस्तिकत्रिकोणाख्यं
तथा वामांसपर्यन्तं १२१ तथाहि कूपराधीत.
तथोरभ्रकसंबाधं तदन्यस्मिन् विलठितः
तदानीमेव पार्श्व स्वम् १०७ तयोर्यषा किया सा स्यात् १०५ तदोर्ध्ववर्तना नाम १११ तद्विदो वादयन्त्वेता २२७ तद्वीरुधबन्धाख्यम् ३१४ तद्वै कुण्डलिचाराख्यं
तर्जन्यायकुलीनां , तस्मादयं पूर्वरङ्गः
११८ १०९
१०६
३७९ ११७
चक्रवर्तनिकेत्त्युक्ता चतुर्विंशतिरित्युक्ता चतुष्पत्राब्जसंज्ञं च चरगतिभक्षणयोः चरणाङ्गुलिपृष्ठेन चारी च पृष्ठलठिता चारी डमरुकुट्टाख्या
68
"
१०६ २५३
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________________
५३८
संगीतरत्नाकरः
पुटसंख्या
पुटसंख्या तस्मान्नाट्यप्रयोगे तु
८३ द्रव्यसंस्कारकर्मसु तस्याश्च बहवो भेदाः ३१३ द्वाभ्यां त्रिभिश्चतुर्भिर्वा २५५ तस्यैव बहिरन्तश्च ११४ द्विगुणोदश्चनेनैव
११६ तस्यैव च समुत्क्षेपः तिर्यगूर्व प्रथमतः
१२० तिर्यपान्तिरायातं
धनुराकर्षणं चैत्र तिर्यक्प्रप्तारितौ चैव
धनुराकर्षणाख्यं तत्
११८ तिर्यग्गतस्वस्तिका ११२, ११९ धनुर्वल्लीविनामाख्यं
११२ तिर्यग्लुठति चैकस्मिन्
१२२ तीक्ष्णकूर्पूरकावेव
११९ तेन भावा हेतवस्ते ४२. नटी नटाश्च मोदन्ते
२५३ तेषु तेषु विशेषेण
११२ नटो गीतेन नाटयेन त्रिकोणवारी पश्चाच्च
३१३ नयनौपम्यं पद्मदल. त्रिकोणवारी या चारी ३१६ नलिनीपाकोशौ स्तः त्रिकोणचारी सोद्दिष्टा ३१४ नवरत्नमुखं चेति
११२ त्रिपताकोऽपर: कर्णे
नवरत्नमुखं तत्र
१२३ त्रिभङ्गीवर्णसरकं ११४ नानानृत्तकलोल्लास.
१२४ ग्यश्रभावात्पुनश्चापि ३१५ नानाप्रकाराभिव्यक्त.
१५२ नाभिक्षेत्रसमीपस्थे
११३ नारदेनापि मुनिना
११२ दक्षिणो यत्र हस्तस्तु ११८ नाममात्र प्रसिद्धास्ता:
११० दण्डवर्तनिकामेनां १०८ नाशुभं प्राप्नुयादत्र
२५४ दनो घृतमिवोदीः
११२ नि:शङ्क: कैशिकी ब्रूते देकारालंकृताद्यन्ता
३७९ नि:श्वसितमस्य वेदाः देवस्तुत्याश्रयकृतं २५३ निकुट्टनं तु पादेन
३१३ देवानां भूसुराणांच १२३ निकुट्टयेत्ततः स्थाने
३१७ देवोपहारकं नाम ११९ निकुट्टितः पुरस्ताच
३१४ देशीनृतसमुद्राख्ये
११२ निकुटितौ समौ पादौ देव्या कृतैराहारः २५४ निकुट्य च तलेनादौ
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१०
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________________
निक्षिप्तश्चापि मध्ये च निजैर्या तद्धियोंदेभिः
नितम्ब केशबन्धाख्ये
नितम्बवर्तना नाम
नितम्बोक्तप्रकारेण
निबद्धस्वस्तिकौ तत्र
निवृत्तचेत्स्वपार्श्वे स्यात्
निवेशिताभिधः पादः
निष्क्रान्तावंसदेशात्तु
नीत्वा वामां सपर्यन्तं
नृत्यलक्ष्य विशेषेण
नृत्तमङ्गलशास्त्रे तु नोका ये च मया यत्र
प
पश्चविंशतिसंख्याश्च
पताकालयोः पूर्व
पताकावेव चेत्प्राहुः
पताकौ चेच्छनैरूर्ध्व ०
पताकौ मणिबन्धस्थ
पतितोत्पतितौ बाहुः
पततां युगपद्यत्र पद्मकोशाभिधौ हस्तौ
पृथ
पद्मवर्तनिका दण्ड
परागधोमुखत्वेन
पराङ्मुखोऽपविद्धः स्यात्
पर्याय गजदन्ताख्यं पर्यायष्टौ लुठितौ
उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः
पुटसंख्या
३१६ पर्यायात्पार्श्वयोस्तिर्यक्
३७९ पर्यायाद्वर्तते रम्यं
१०५
१०७
"
१२०
११५
३१४
१२२
११३
१२४
११२
८३
३१३
१०५
१०७
पर्यायेण करो यत्र
पर्यायेण करौ सौम्यं
पर्यायेण कृत्वाथ
पश्चात्क्षेपाश्च सा प्रोका
११६
११०
११२
१२२
पश्चान्निकुट्टितस्थाने
पाटैर्वा रचिता किंचित्
पादकुट्टनचारी तु
पादद्वयकृता सा चेत्
पादद्वयकृता सेव
पादद्वय निकुट्टाख्या
पादशिक्षासु कर्तव्याः
पादाङ्गुष्टेन
पार्श्वक्षेपनि कुट्टा च
पार्श्वगावान्तरानृत्या
पार्श्वतश्च पुनः क्षेपात्
पाश्र्श्वमण्डलिनो: पाण्योः
पार्श्वयोमलिपर्यन्तम्
31
१०९ पार्श्वयोर्यौगपद्येन
१२१ पार्श्वे स्वस्मिन्नुरः क्षेत्र •
११८ पुनर्निकुट्टितस्थाने
१०८
६२
१०५
पुनर्नितम्ब देशे तु
पुनश्च कुट्टितस्थाने
पुनश्च केशदेशे च
पुनस्तन्मुख एव स्यात्
पुरःक्षेप निकुट्टा च
पुरः पश्चात्सरा चारी
पुरः पश्चात्सरा नाम
५३९
पुटसंख्या
१२३
११७
"
११४
११६
३१५
३१५
३७९
३१३
३१५
"
३१३
३१४
',
३१३
११४
३१५
१०८
११३
११६
१२२
३१४
१०७
३१६
१०७
१२१
३१३
11
३१४
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________________
५४०
संगीतरत्नाकरः
१२४
२५३
पुटसंख्या
पुटसंख्या पुरस्ताच कृता सैव पुरस्तात्पार्श्वयोश्चैव ११७ बद्धस्वस्तिकयोः पार्श्वे
११८ पुरो दण्डभ्रमं तत्तु ११४ बहिर्मण्डलगः स्थित्वा
११९ पुरो दण्डभ्रमाख्यं च
१११
बहुनात्र किमुफेन पुरो नि:सारणं पाण्योः
११४ पूर्व क्रियन्ते यद्रथे पूर्व पार्श्वमुखावेव ११९ भवतो यत्र तु करौ
११७ पूर्वपार्श्वण विदिशि ११४ भावानां यानि कार्याणि
४२० पूर्वमूर्ध्व लुठितः
११६ भूयते यत्र लुठितम् पूर्ववद्वलितौ यत्र ११४ भ्रामयित्वा विलासेन
१२१ पृथक्समुन्नतं वक्षः पौन:पुन्येन यस्मात्तु
११३ प्रकीर्तितं तु तद्धीरैः
मणिबन्धप्रकोष्ठांस. प्रतिलोमानुलोमाभ्यां ११७ मणिबन्धावधिभ्रान्तिः
१०६ प्रथमं पार्श्वयोरेत्र ११९ माणिबन्धावधिप्रान्ती
१०७ प्रथमं पार्श्वयोर्गत्वा १२० मणिबन्धासिकर्षाख्यं
१११, ११६ प्रथमं स्वस्तिकी भूत्वा १२३ मण्डलाभरणं चैव प्रथमं स्वस्तिकीं भूयः १२० मण्डलेन ततोऽप्येवं
१०९ प्रधावत: पुरोदेशं ११९ मण्डलौ च तिरश्चीनौ
१२३ प्रसङ्गानुप्रसङ्गेन
१२४ मध्यचका ततो मध्य. प्रसारितभुजोऽन्यस्तु
१०८ मध्यस्थापनकुटाख्या प्राप्तयोः स्वस्तिकत्वं प्राक् ११३ मध्यस्थापनकुटा च
३१३ प्राप्तौ स्वस्तिकतामेव ११४ मध्ये निवेशितश्चायं प्रातिलोम्येन वा स्यात्तु १२२ मनो मधुरवागा.
१५१ प्रियानुकरणं लीला १८, १५१ माहेश्वरैरजहारैः
२५३ मिथ: पराङ्मुखौ सन्तो १०८ मिय:समीक्ष्यबाह्यं च
१११ मिथःसमीक्ष्यबाह्यं तद्
११५ फलश्रुतिरर्थवाद: स्यात् २७६ मुरजाडम्बरे नाम
११८ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
११२
३१३ ३१६
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उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः
पुटसंख्या
२५३
मुरजाडम्बरं पश्चात् मुष्टिरूपस्तु लठितः मौलिरेचितकं चैव मौलिरेचितकं प्रोक्तं
१२३
२९
११४ ११३
११७
२३
यक्षा विद्याधरा सिद्धाः यत्र कुत्रचिदाख्याता यत्र त्रिकोणमर्यादाम् यत्र प्रवर्तते तत्तु यत्र शुभारसंबद्धं यत्र स्यातां करौ ततु यत्रोरभ्रकसंबा, यथार्ह ते प्रयुक्ताः स्युः यथालक्षणमाख्याताः यदा तु मकरो हस्त: यदि स्यातां करौ प्राहुः यदोद्धतौ नृत्तहस्तौ या किया जायते पाण्योः या क्रिया जायते सा तु युगपत्क्रमशो वाथ युगपञ्च करौ यत्र यो यत्सम्यग्विजानीते
पुटसंख्या
१११ रामादितादात्म्यापत्ते: ११७ १११ ११५ लक्षणं चालकानां वै
लताख्यौ च करौ आयो
लुठतो यत्र युगपत् १२१ लुटने मण्डलेनैव
२९ लुठमाने तदन्यस्मिन् ११७ लठितः प्रसृतस्या ११९ लुठितौ च तथाधस्तात् २५४ लुठितो चेत्करी तत्त १२० लोको वेदस्तथाध्यात्म १२० १२४
वक्ष:क्षेत्रं श्रयत्येकः १०८ वक्षस: स्कन्धयोरूल. १२. वर्तना खटकस्यापि
वर्तना नागवन्धाख्या ११४ वर्तना या शिरस्याद्या १२० वर्तनास्वस्तिकं कृत्वा १२३ वर्तनास्वस्तिकं चैव ११६ वर्तनास्वस्तिकं बध्वा २९ वर्तनास्वस्तिको पार्श्व.
वलनं यत्र निर्दिष्टं
वलमाने तदन्यस्मिन् २५३ वलिता गात्रपूर्वा च ४४२ वलितैरार्जवादन्यैः १२२ वागङ्गासत्त्वामिनयाः १२ वागङ्गाभिनयानां या
१०८
-
-
-
११० १२०
१२०
११५ ११५
११६
११६
रङ्गे रामाद्यवस्थाभिः रतिर्देवादिविषया रथचक्राकृती तिर्यक् . रसोऽभिनेयो वागा.
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________________
१२०
८३
५४२
संगीतरत्नाकरः पुटसंख्या
पुटसंख्या वामदक्षतिरश्चीनं ११५ व्यावत्या हंसपक्षाख्यः
१०८ वामदक्षिणकावर्ती वामदक्षिणभागेन
११३ वामदक्षिणयोः पश्चात्
१२१ शिर:क्षेत्रे च कट्यां च वामदक्षिणयोर्यत्र ११७ शिर:क्षेत्रोपरिष्टात्तु
११६ वालव्यजनवालाख्यं
१११ शोभाकरी तदा यत्र वालव्यजनचालाख्य.
१२० विचित्रवर्तनायोगात् वितस्तिदिशाङ्गुलः २८३ संमुखीनरथाङ्गं तत्
११४ विपरीतप्रचारा सा
३१६ संयुतकरणेनैव विभावानुभाव.
४०० संयुतासंयुतरूपोप० विलोड्य तत्रैव बहिः ११६ संश्लिष्टालवदनौ
११९ विलोड्य पार्श्वयोर्मन्दं
११३ स एव हावो हेला स्यात् १५२ विलोड्य मण्डलभ्रान्त्या ११६ सभापतिः सभा सभ्या
२५३ विशिष्टवर्तितायैश्च १२३ स मन्तव्यो रस: स्थायी
४७२ विशेषादाभिमुख्येन ४२१ समपादनिकुट्टा च
३१३,३१६ विशाटकवधाख्यं १११, ११७ समप्रकोष्ठवलनं
१११, ११८ विश्रामाभिमुखौ चैव
१२१ समुत्थितौ मण्डलतः विश्लिष्टवर्तितं पूर्व
१११ समुन्नतो लताहस्तः वेगाद्विदिशि गत्वात्र ११८ सरलात्सारितोद्वेष्ट.
१२१ वेगानिवृत्तावन्योन्यं
१२. सर्वेषां समवेतानां वेदान्तेषु यमाहुरेक. १८६ सव्यापसव्यचलनं
३१३ वैष्णवं स्थानकं यत्र
सव्यापसव्ययोस्तिर्यक्
११५ वैष्णव्येका तलमुखी ११० सव्यापसव्ययोश्चैव
११८ व्यावर्तितक्रिया यत्र १०६ सव्यापसव्यव्यात्यासा
१०६ व्यावर्तितेन हस्तश्चेत्
१०९ स संप्रदाय: काथितः व्यावर्तिते बहिश्वान्तः १०६ सहक्षं चालकास्त्वन्ये
११२ व्यावर्तितोऽन्तर्गानं चेत ११० सा च किंचिन्नतशिरः
११६ व्यावृत्य वक्षस: फालं
१०७ सा तिरश्चीनकुहाख्या Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
१२०
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________________
उदाहृतवाक्यानामनुक्रमः
५४३
पुटसंख्या
११२ ३१५
सानुलोमविलोमाख्या सा मध्यठिता चेति सामवेदस्योपवेदः सारसारतरास्त्वेते सुमन्तुना तदुद्दिष्टं सैव पश्चात्पुरःक्षेपात् स्कन्धाभिमुखमाविद्धौ स्थापितः कुहितस्थाने स्याचेत्करस्तदुद्दिष्टं स्यातां चेद्यत्र हस्तौ तत्
पुटसंख्या ३१६ स्यात्स्वस्तिकत्रिकोणं च ३१७ स्वस्तिकस्थापितः पूर्वः
३ स्वस्तिकाकुञ्चिती हस्ती ११२ स्वस्तिकाद्विच्युतौ हस्तौ १२२ स्वस्तिकान्मण्डलाग्राह्या. ३१४ स्वस्थाने स्थापितपदा १०९ स्वस्यापरागवलनं ३१५ १२३ १२२ हस्तमन्तरितं कृत्वा
१०७ १२२ ३१६ ११३
no
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________________
APPENDIX III
विशेषपादानि
__अ अंश, ३४३ अंस, ६८ अंसकूट, १९७ अंसपर्यायरनं, ११२, १२२ अंसवर्तनक, १११, ११६ अंसवर्तना, ११६ अकम्पं, ८९ अकार्यकारित्व, ४५४ अकुटिल, १५० अकुब्जक, ३२१ अक्लिए, ५ अक्षपात:, ४१ अक्षपातन, ४६ अक्षप्रेरणं, ४५ अक्षमः, १५० अक्षिनिमीलन, ४६५ अक्षिमर्द, ४५९ अक्षिलीन, ४५७ अक्षिविस्तारः, ४२८ अक्षिव्यथा, १४६
अगणनं, ४५८ अगायन्ती, ३७७ अगाराणि, ६ अगोपितः, ३९ अग्रगः, ९२, १८२, १८३ अमिः, ४६२ अग्निजः, ४६२ अग्रजः, ५० अप्रतलः, ९२, २९३ अप्रतस्तलः, १८२ अग्रतलसंचरः, ९२, ९३, १९३, २२१,
२८३, २८४, २८६, २८७, २८८,
२८९ अप्रपार्श्वः, ५२ अप्रविवर्तन, ५० अग्रसंदंश: ५० अङ्कुशः, ३९ अङ्कुरः, १५ अझानि, १५ अङ्गकम्प, ४६० अङ्गक्रिया, २९६
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________________
विशेषपादानि
अधिस्वस्तिक, २४९ अचञ्चल, ३११ अचल, ७९ अचलचित्तत्व, ४३१ अचलस्थिति, ३२१ अचेष्टा, ४५३ अश्चित १४, १७, २१, ९२, ९६, ९८,
९९, १०१, १९२, १९९, २०१, २.३, २३०, २४०, २४३, २४३, २५०, २५१, २६५, २७३, २९२,
अगद, २१८ अपीडन, ४६२ अप्रतिसारण, २१३ अगमोटन, १७९,४५० अगरक्षा, ३९६ अवलन, ४५९ अङ्गविपर्यास, २६५ अङ्गविवर्तन, ३६५ भाहार, १३, १५, १६, २५२, २५६,
२५७, २५८, २५९, २६०, २६३, २१४, २६५, २७२, २७४, २७५,
२८९, ३६०, ३६३ भाहारक, १९. अगलंस, ४५९ भानि, १५ अङ्गान्तर, १६ भाल, १७१ अलि, १६ अहुलिकुञ्चन, ३४ अङ्गुलिमोटन, ३२६ अङ्गुलिकोटन, ४५९ अङ्गुलिसङ्गता, १७८ अङ्गुलिस्फोटन, ८१ अजुलीः, ५५ अहुष्ठः ३७, ३९, ४०, ४५, ४६, ५. अष्ठमध्यमा, ४२, ४६ अष्टसंश्लिष्ट, १७८ अङ्गोपाङ्ग, २९७ अधिः , ९४ अष्प्रिताडिता, २८१, ३.
अश्चितभ्रमरी, २४१ अश्चितादिः, १४ अजन, १५४, ४७१ अञ्जलिः, २६, १९७ अबोधक, ३८९ अताल, ३७८ अहस्खलितिका, २८१, ३०० अहावज, ३५ अहित २१९, २७९, १८७, ३४८, ३४९,
३५०, ३५१, ३५२ अतात्विक, ४३४ अतिकौतुक, २०२ अतिक्रम, ४६१ अतिक्रान्त १९२, १९४, २१५, २२३, २२५, २६१, २८०, २९०, २९४, ३४८, ३५४, ३५५, ३५६, ३५५, ३५८, ३५९,४६२ अतिकान्तमद, २२३ अतितृप्ति, ४५३
69
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________________
५४६
संगीतरनाकरः
अतिद्वतम् , ३६.
अधिक्षेप, ४४४,४५४,४६१ अतिनिर्मला, १३६
अधीरा, ४६२ अतिपान, ४४५
अधृति, ४५० अतिप्रयत्न, ५५
अधोगत, ३७, १८३ अतिभार, ५६
अधोगतिः, १५५ अतिभोग, ४५१
अधोनमनं, ३६२ अतिमन्द, ३६०
अधोभागचरी, १४९ अतिवर्ष, १५४
अधोमुख १७, २३, ३४, ४४, ५. अतिव्यायाम, ४४५
५८, ६०, ६२, ६६, ७३, १००, अतिशायी, ४३६
१७६,१८२ अतिभ्रान्त, ९३
अधोमुखी, ४ अतिश्रान्तगति, ९३
अधोवदन, ४६, १८२ अतिहसित, ४१६, ४१८
अध्ययन, १७० अत्यन्तशुद्ध, ४३५, ४३६
अध्यध, ३४८ अत्यशित, १२६, १२०
अभ्यर्धमण्डल, ३५२ अत्याहार, ४६५
अध्यधिकः, ३५१ अथर्वण, ३४१
अभ्यर्षिका, २७९, २८५, ३५२ अश्यदशन, ४१७
अभ्यर्थिकी, ३५० अदुत १३५, १३९,१५६, १६४, १७४, अध्यात्मविषया, ४३८
१८१,३४२,४००,४०४,४३६,४३८ अध्वगमन, ४४५ अध:क्षिप्ता, १७९
अध्वव्यायाम, ४५० अधःसस्ता, १४
अनमहार, १९० अधम, ८४, १४९, २२९,४१९,४९, अनङ्गीकार, ५५
अनत्युच, ३२१ अधमप्रकृति, २३४
अनभिमानिन् , ४६९ अधमसत्व, ४४९
अनर्थः, ४१८ अधर, १६, १५४
अनवस्थान, ४५३ अधरचर्वण, १६६
अनवस्थित, १४८, १४९ अधश्च्युति, २८७
अनादरः, २२, ३४, १७६ अधस्तल, ३४, ४१, ५५, ६३, १८२ अनाभम, १९९
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________________
अनामिका, ३४, ३५, ४०, ४१, ४२ अनाविष्ट, १८१
अनवेश, १५९
अनिमेषेक्षण, ४५६, ४७१ अनिमेषिणी, १४८
अनिल, ३५, १६४
अनिश्चयिनी, ४५३
अनिष्ट, १४६
अनिष्टगन्ध, ३५
अनिष्ट घोष, ३५
अनिष्टदर्शन, ४५६
afgफल, ४३५
अनिष्टवाक, ३५
अनुकम्पा १, ६८
अनुकम्पाविधान, २३५
अनुकार, ४१५
अनुचित, ४०४, ४३१
विशेषपादानि
अनुताप, १९९, ४५२
अनुतापिता ४५२
अनुत्तरदान, ४६१
अनुद्भूतभय, ४३१
अनुनय, ८१
अनुन्नता, ३२५
अनुभाव, ४७, ३९८, ३९९,४०५, ४०८, ४०९, ४१०, ४१६, ४२०, ४२४, ४२९, ४३३, ४३५, ४३६, ४३८, ४३९, ४४४, ४४६, ४४८, ४४९, ४५०, ४५३, ४५४, ४५५, ४५६, ४५७, ४६०, ४६२, ४६३, ४६४, ४६५, ४६९, ४७०
५४७
अनुभावक, ४५०, ४५४, ४५५, ४५८,
४५६
अनुभावित, ४५७ आनुमोदनं, २१
अनुराग, ४६१ अनुलेपन, ४६, ३६४ अनुलोम, ११७ अनुलोमविलोम, ३१६
अनुल्बण, १३९, ४१७
अनुवृत्त, १५६, १५७
अनुवृति, ३७४
अनुशय, १६५
अनुसंधानं, ४३२
अनुस्मरण, ४५३
अनुस्मृति, ४१५
अनृत, ४३, ४२३
अन्तराल, २०७
अन्तरालग, २४०, २४४ अन्तरालताल, ३२१ अन्तर्गत, १७८
अन्तत, २१९
अन्तर्निहित, १६७
अन्तर्भ्रमण, १५५, १६५.
अन्तर्भ्रमरिका, २४८
अन्तर्भ्रमरी, २४१ अन्तर्यात, १७८
अन्तस्यवीक्ष, १७३
अन्यथाकथन, ४५८
अन्यदार, ४२३
अन्यपरत्व, १६४
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________________
संगीतरत्नाकरः
अन्यविग्रह, ४२४
अपसर्पित, २५६ अन्यायकारिन् , ४२३
अपसारण, २०९ अन्योन्याभिलाषी, ४१२
अपसारित, २१४, ३७४ अन्ये, ७३, ४, ८०
अपमृत, ८९, १४३, २०९, २१०, अन्यः , ८४
२२९, २३६, २३९ अन्वेष, २०१
अपसृति, २८६, ४६२, ४६३ अन्वयव्पतिरेकोस्थ, ४५८
अपस्मार, ४०३, ४१०, ४३३, ४३५, अपक्रान्त: १९३, १९४, २०५, २०८,
२११, २३१, २४१. २६४, २८०, अपहसितं, ४१६, ४१८ ३५१, ३५३, ३५६, ३५७, ३५९, अपांग्रहणं, ५४
अपाङ्ग, १३५, ४२८ अपक्षेप, २८१, ३०९
अप्ररूढवचः, २०४ अपघातज, ४६३
अप्रसिद्धार्थ, १९८ अपडपः,३८५, ३८६,३९.
अप्रिय, ४६२ अपनयन, ३५, ४४९
अप्रियात्मक, ४३५ अपरतन्त्रत्व, ४१५
अप्रेक्षण, ४४० अपरस्थानि, ४१८
अभजक, ४१५ अपराजित, २५६
अभयदान, १३१ अपराध, ४७
अभाषण, ४६१ अपरे, १५, १६, ७२, ७७, ७९, ९२ अभिघात, १४६, १५४, ४६०, ४६४, अपविद्धः, १९, १००, १०३, १०९,
११०, १११, १११, ११८, १२३, अभिचारकर्म, ४ १९४, २०२, २५६, २५८, २६०, अभिजन, ४२८ । २६६, २६५
अभितप्ता, १३६, १४६ अपवेध, १२२
अभिनन्दन, १६८ अपवेष्टन, २०१, २०९, २२० अभिनयः, ४, , ८, १२, १४, १९, अपवेष्टित, ७५, २२४
५३,५८, ३४२, ४०० अपसरन् , ९५
अभिनयहस्त,२६, २२५ अपसरण, १३, १३२, ३४७
अभिनवगुप्त, २७२, ३२६ भपसर्पण, ९०, २०९, २३०, २३४, २०७ अभिनेता, ८४
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
विशेषपादानि
५४९ अभिनेयः, २६, ४३, ८१, ८४, ३२६, अरालवर्तना, १०६
अरुचिता, ४१५ अभिमन्त्रण, २०५
अरुचिर, ४३५ अभिमुख, ५३, ५५, १,७९, ९१ अरुण, १८१ अभिमुखीभूय, ९७
अर्गल, १९२, १९४, २१८ अभिलाप:, ४१५
अर्थः, ४, १६७ अभिलाष, १४०, ३२६, ४४१, ४६० अर्थचिन्तन, १६४ अभिलाषविलोकन, ३२८
अर्थनिर्वाह, ३५२ अभिवादन, १०१
अर्थप्रचारिका, ३१६ अभिषेकः, ६
अर्धकुञ्चित, १३३ अमीक्ष्ण, ३०९
अर्धचन्द्रः, २५, ३६, २००, २०५, अभीष्टसंप्राप्ति, ४३६
२२६, २२७, २९८ अभ्यन्तराक्षिप्त, १०३
अर्धतल, ३२८ अभ्युत्थान,४६३
अर्धताल, ३२३ अभ्युपगमः, २०
अर्धयश्र, २८७ अमाल, ४०२
अर्धनिकुट्टक, १९२, १९४, २०४, २५६, अमरभूह, १२३
२६०, २६५, २६५, २७० अमर्श, १४८
अर्धनिमेषिणी, १४७ अमर्ष, २१, ३२६, ४०३, ४२५, ४४८, अर्धपतिता, १४०
४५३, ४५४,४६१,४७१ अर्धपुराटिका, ३०६ अम्बर, ३२४
अर्धपुराटी, २८१ अयुक्त, ४३
अर्धमण्डल, १०९ अयुक्तविषया, ४२
अर्धमण्डलिन् , २७ अरण्यप्रवेश, ४३२
अर्धमण्डलवर्तना, १०९ अराल, २५, २६, ३५, ४१,५०, ५३, अर्धमण्डलिका, २८१, ३०२
५५, ६२, ८१, १०९, २०७, २०८, अर्धमत्तल्लि, १९२,१९४,२०९,२६९,३५१
२३३, २३४, २३८, ४७. अर्धमीलित, १४४ अरालक, ११८
अर्धमुकुल, १३५, १४४ अरालखटकामुख, ६२,६९
अधरचित, २५, ६५, १९२, १९४,२०९, अरालता, ७६
२६९, २७.
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________________
५५०
संगीतरत्नाकरः अर्धवीक्षण, ९८
अलातक, २६२, २६३, २०१, ३५४, अर्धव्याकोश, १४४
३५९ अर्धसूचि, १९३, १९४, २२७, २६४, अलातचक्रक, ११२, ११९ २६५
अल्प, ४२, ४६ अर्धसूची, २५९, २६१, २७१, २७३ अल्पान, ४२८ अर्धस्वस्तिक, १९२, १९४, २००, २५३ अलस, १४६, ३३५ अर्धेन्दु, ३६
अवकुञ्चित, २८१, ३०४ अर्पण, ५४
अवज्ञा, १६६,१६८,४४८,४५२,४६१ अलंकार, ९९, ४०७
अवत्स, १२४, ३२८, ३७५ अलंकारवन्ध, ९८
अवधूतं, १७, १९ अलक, ३५, ३९
अवनत, १५९ अलक्तक, ३५, ५०, १६७
अवनमन, ४५२ अलग, २४०, २४३, २४४, २४६ अवनम्र, ९८ अलगपाट:, ३८५, ३८७
अवनिकुटन, ३८६ अलगभ्रमरी, २४१, २४९
अवपात, ३४३ अलम, ८.
अवभाषण, ४५६ अलमान, ४२
अवमर्श, ४२९ अलपन, २७, ४३, ७६, ७९, २०२, अवयवव्यापार, १४
२०८, २१२, २१६, २२०, २२७, अवलगित, ३४३ २३७, २३९
अवलेहिनी, १७२ अलपद्मक, ७८, १२४
अवलोकन, १९० अलपद्मवर्तना, १०६
अवलोकित, १५७ अलपद्माकृति, २०४
अवस्था, ४५७ अलपालवः, २५, ३१, ४३, ७६, ७८, अवस्पन्दित, २७९, २८८, ३४९
१०९, ११०, २१४, २१८, २२५, अवहित्य, २३, २६, ५५, १०६, २०३, २३३, २३६
३१९, ३२५, ४०३, ४१६, ४४५, अलात, १९२, १९४, २०६, २३२, ४५७, ४५८, ४६६ २३९, २५६, २६१, २७१, २८०, अवहित्यक, १९३, १९५, २३३ २८१, २९२, ३१०, ३५५, ३५७, अवास्तव, ४३५ ३५८, ३५९
अविलम्ब, ३६१, ३६२ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
विशेषपादानि
५५१
अविवाद, ४५१ अविवेक, ४५६ अविश्रान्त, १४८ अविषाद, ४२८ अविस्मय, ४२८ अविस्रब्ध, १४८ अवेक्षण, १५८ अव्यक्त, ४४९ अव्यक्तचेष्ट, ४२८ अव्यकाक्षर, ४६४ अन्यभिचार, ४२६ अव्यभिचारी, ४४४ अवकुञ्चित, २८१,३०४ अवज्ञा, १६६, १६८, ४४८, ४५२, ४६१ अशन, ४५३ अशुद्ध, ४३५ अश्रु, ४०३, ४२०, ४२३, ४५४, ४६३ अश्रुधारा, ४२२ अश्रुशत, ४२० अश्रुतवण, ४७१ अभूणि, ४६८ अश्लिष्ट, ३६, ६१, ७७ अश्वकान्त, ३१९, ३२७ अश्वारोहण, ३२७ अष्टबन्धविहार, ११२, १२२ असंगत, ४४९ असंबद्धप्रलपन, ४६० असंबद्भाषण, ३८ असंभाव्य, ४३७ असंलाप, १४३
असंमोह, ४२८ असंयुतः, २६ असहश, ४५१ असद्दोष, ४४७ असद्वाद, ३९३ असित:, ४०४ असूया, १४५, १५१, १६१, १६६, १९७, २०२, २१४, ४०३, ४१०,
४४०,४६१,४६२ असूयित, १४६, १७७ असमनसचेष्टन, २०९ अक्ष, ३९ अस्थान, ४५२ अस्थानज, ४१८ अस्पष्टालोकिनी, १४१ अस्वस्थचेष्ट, ४२२
आ
आकम्पः, ४१८ आकम्पित, १५, २० आकर्षण, ५९ आकाशयान, २१७ आकाशिक, ३४८ आकाशिकी, २७९ आकेकरा, १४७ आकुश्चत् , ५६, ३०८ आकुञ्चित, ९८, १०८, १३१, १३२,
१४०, १५३, ३०३, ३०४, ३०९, ३१०, ३११, ३१९, ३३५, ३३९, ४१८,४३०
Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
५५२
आकुचितपुटा, १३२ आकृष्ट, १८९
आकेकरा, १३६
आक्रोशन, ४४४ आक्षिप्ता, १२८, १९२, १९४, १९८
संगीतरत्नाकरः
२५६, २६९ आक्षिप्ती, ३५८
आगम, ३०
आघात, १५४
आघूर्णमान, १४९
आङ्गिक, १, ८, १२, १४, ४४१ आङ्गिकाभिनय:, ११, १५
२०२, २१७, २१८, २२१, २३४, २५६, २५८, २५९, २६०, २६१, २६३, २६४, २६५, २६८, २७१, २७२, २७३, २८०, २९५, ३५३, ३५७, ३५९
आनन्दप्रद, ४३१
आक्षिप्तचारी, २१२ आक्षिप्तरचित, १९२, १९४, १९९, आनन्दाश्रु, ४३९
आचमन, ४६
आचार्य, १६, ६८, १२५, २७२, ३९१ आच्छुरितक, ४९, २५६ २६३४७० आजनेय, २१५
आतप, ४७०
आतुर, १२६
आतोय, ३७८
आत्मसंभावना, २०४
आत्मस्थः, ४१६ आत्मैक्यगोचर, ४१९ आथर्वण, ४
आदिकूर्मावतार, १११, ११५
आय भरत, १४
आधूत, १७, १९
आनन्द, ५, १४४, ४२२ आनन्दज, ४२२, ४३८ आनन्दनिर्भर, २२१
आन्तर, ८६
आन्दोलित, ९९, १०४, ११३, १२१,
१२३, १६२, १३५, ३१२
आपात, ३२५
आपादिक, ११८
आपिबन्ती, १३६
आबद्धमण्डल, ११८
आभरणदान, ४६३
आभाषण, ३२६
आमिमुख्य, ३३
आभुम, ८७, ८८, १९९
आभोग, ३८२, ३९०
आमुख, ३४३
आयत, १५३, १६६, १६९, ३१९, ३२६ आयामिवक्त्र, ३७६
आतोयध्वनि, ३८९
आत्मनिन्, ४६९
आत्मनिर्भास, ४४०
आरभटी, ३४०, ३४१, ३४२, ३४४ आरात्रिकं, १८, २४, ३६४ आरिराधयिषु, ४७३
आत्मपर, ४२१
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________________
विशेषपादानि आति, ५, १४१, १५४, १६१, ४२२ आवेष्टितक्रिया, १०६ भार्तिज, ४२२
आशीःस्वीकार, ३२२ आर्द्रता, ४४१
आश्लिष्ट, १९७ आलस्य, १४५, १५४, ३४०, ४०३, आश्लेष, ९५
४०९, ४१६, ४५३, ४६५ आसन, १३३, ३३६, ३३७, ४३०,४५३ आलापः, १९
आस्कन्दित, ३४८, ३५० आलिङ्गन, ४५, ५५, ४७०
आस्फोटित, ३५० आलीढ, २१५, २५६, २५८,२६३,३१९, आस्य, १६८, २८४
आस्वाद, ३९९ आलोकित, १५६, १५८
आहार्य, १, २, ८, ९, ४६१ आलोकिनी, १४४
आहाद,४३७ आवजघर, ३७२
आह्वान, ३४, ३८, ४१, १८९ भावर्त, १९२, १९४, १७५, २२०,२५९,
३४८, ३५० आवर्तिता, १२८, १२९
इन्द्रः, ४०४ आवाहन, १९, २०, १३२, ३२६ इन्द्रजाल, ३४२, ३४७, ४३६, ४३७ आविद्ध, ७४, ९९, १०३, १०६, १२३, इष्टानिष्परिहारज्ञानं, ४५६
२०३, २३७, २९५, २९६, ३३९ इष्टार्थापहृतिः, ४५० आविद्धक, ११८ आविद्धवक्त्र, २७, ६३, १०७, २०४ आविद्धवर्तना, १०५, १०७ ईर्ष्या, १३३, १५४, १६७, १७७, २३८, आविष्टगमन, १२९
२८९, ३२४, ३२६, ४५३ आवृत्तान, २३८
ईषत्फुल्ल, ४१७ आवेग, १६०,४०३,४२५, ४२९, ४३३, ईषदृश्य, १६८
ईषद्वक्रः, १०३ आवेश, ४०६, ४५५ आवेशमाक्, १५६ आवेष्ट करण, १०९
उचितभ्रमरी, २५० आवेटन, १८४
उच्चपतन, ४६३ आवेष्टित,१०,१८३, १८४, १८५ उच्चलिता, ९१
cho
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________________
५५४
उच्छ्रित, ३३, ९५ उच्छ्रसित, ४४५, ४६५
उच्छ्रास, १६२, १६५
उट्टवण, ३७९, ३८९
उत्कट, ३१९, ३३७, ३३८ उत्कटासन, २४७, २५१, ३३७
उत्कम्प, १४९, ४३५
उत्कुचित, २८१, ३०३
उत्कृष्ट, १८९
उत्कोश, ४५९
उत्क्षिप्त, १७, २३, ४०, ८९, ९२, ९३, १५०, १५१, १५२, १६८, १७६, १७८, १७९
उत्क्षिप्तपतिता १७८
उत्क्षिप्तपाणि, ९३
संगीतरत्नाकर:
उत्क्षेप, २८२, ३११ उत्क्षेपाभिनय, ३३
उत्तम, (नायकादि) ८४, ३७३,४१६,४१९, ४२०, ४२२, ४२३, ४३४, ४४४, ४४७, ४४९, ४५५, ४६०, ४६१
उत्तान, ३७, ४१, ४४, ४६, ६०, ६२,
६६,७१,७६, १८२,१९७, २२०, २९५ उतानतल, ६५
उत्तानवश्चित, २७, ६८
उत्तानवक्त्र, ३३९
उत्थापक, ३४३
उत्थापन, २७४
उत्पतन, २०४, २०७, २१७
उत्पात, ४६२
उत्पीडन, ३९
उत्प्लुति, १६ उत्प्लुतिकरणानि, २४१ उत्प्लुतिपूर्व, २४०, २८५, ३८८
उत्फुल्ल, १६१, ४१७, ४१८ उत्फुल्लतारा, १४६, १४८, १४९ उत्सङ्ग, २६, ५५
उत्सारित, ९९, १०४, ११५, १५९
उत्साह, ४२५, ४२६, ४२९, ४०१,
४०२, ४४४, ४४६ उत्साहसंश्रय, ४५५ उत्सेध, ९२
उत्स्पन्दित. २१९, २८७
उदश्वन, ११६
उदर, १६, १२६ उद्भीव, ४६१
उद्घट्टित, ९२, ९४, १९३, १९५, २०४, २०९, २१०, २१४, २३७, २३८, २५६, २६६, २६७,२७०,२९१,३५१ उद्घाटन, ५८
उद्धात्यक, ३४३ उद्दीप्त, ४५७
उद्धताश्रय, ३४२
उद्धृता, १८०
उन्द्रम, १४९ उद्भामित, १४६
उद्वर्तित, १२७, १२८ उद्वाहि, १७६
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उद्धत, ३, ४, १३, १८०, ३४२ उद्धतपरिक्रम २१२, २१४, २१५, २२०,
२२१, २२३, २२४
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--------------------------------------------------------------------------
________________
विशेषपादानि
उद्वाहित, १७ २१, ८७, ८९, ९०, ९१, १२८, १२९, २०५, २८४, ३१९, ३४०, ४५१
उत्त, २६, ६०, १६६, १६८, १९३, १९५, २३५, २७३, २८०, २९३, ३०६, ३१२, ३५१, ३५४, ३५५, ३५७, ३५८
उद्वृत्तक, २५६, २७१, २७३ उद्वृत्तवारी, २३५.
उद्धततारका, १३८, १४२
उत्तपुटा, १३८, १४०
उद्वृति, ४६० उद्वेग, १३९, २०९, ४१५, ४३२, ४६६ उद्वेष्टन, १२१, २०९, २२०, २६७,
२८२, ३११, ३४६ उद्वेष्टित, ७५, ७६, ७८, ९९, १०२, १०९, ११२, १८३, १८५, १९८. २००, २०१, २१२, २१५, २२४, २३०, २३३, २६७ उत, ( जान्वादि ) ८८, ८९, ९०, ९६,
उन्माद, १४८, ४०३, ४१०, ४१५,
४३९, ४६०
उन्मादक, ३६६ उन्मेषित, १५३, १५४
उपविष्टस्थानक, ३१९ उपवेशन, ४६०
उपशम, १२४, ३७४, ३७५, ३७८, ३८९ उपसृत, १९५, १९६, २३४ उपहसित, ४१६, ४१८
उपाङ्ग, १६
उपाध्याय, १६, ३६४, ३७०
उपाय चतुष्टय, ४३१ उपायचिन्तन, ४५५
उल्लुकसन, ४३६, ४७०, ४३७ उल्लोकित, १५६, १५८
९९, १३३, १३४, १७२, १७३ उन्नता, ६१, १७२
उल्लोल, २५१, २८२, ३१२ उल्का, ४६२
उक्षमन, ३४
उन्मत्त, ८६, १९२, १९४, २०३, उल्बण, २७, ३१, ७९, २१२ २६०, २६९, २७२
उषा, ३, ४ उष्णीषधारण, ३४
उन्मथित, १४७
उर: पार्श्वार्धमण्डल, २७, ७६, १०९ संबाध, ११२, १२०
उरोङ्गण, ३६०, ३६२ उरोमण्डल, २७, ३१, ७५, १०८, १९२, १९४, २२०, २५८, २५९, २६०, २६१, २६२, २६३, २६४, २६५, २६६, २६७, २६८,२६९, २७०, २७३ उरोवर्तनिका, ७५, १०५, १०८ उल्लालन, ३१२
उल्लासित, १६२, १६४
५५५
க
ऊरु, १२७, १९० ऊरुताडिता, २८०, ३०१
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________________
संगीतरत्नाकरः अरुवेणी, २८०, ३०२
एकजानुनत, ३१९, ३३२ ऊरूद्धृत्त, १९३, १९५, २३८,२५८,२५९, एकताल, ३२२, ३२३
२६०,२६१,२६२,२६४,२६७,२६८, एकताली, ३७८, ३८३
२६९,२८९, ३४९,३५०,३५७,३५९ एकपाद, ३१९, ३३० ऊर्णनाभ, २६, ५०, २३२
एकपदकुट्टित, ३१३, ३१४ ऊर्ध्वग, १८३
एकपादलुठित, २४५ ऊर्ध्वजानु, १९२,१९४,२०६,२०८,२११, एकपादलोहडी, २४१, २४५
२२१, २६३,२६७,२८०,२९२,३५६ एकपादाञ्चित, २४२ ऊर्ध्वदशन, १६८
एकपार्श्वगत, ३१९, ३३२ ऊर्ध्वदेश, ३५
एकभ्रूसमुत्क्षेप, १४० ऊर्ध्वपुटा, १३७, १४३
एकाहरचित, २२७ ऊर्ध्वप्रदर्शन, ९९
एकोच्च, ९५ ऊर्वप्रसारित, ४३
एडकाकोडित, १९३, १९५, २३४,२७९, ऊर्ध्वमण्डल, २५, ७३,७५, १०७,१९६, २८६, ३४८, ३५०, ३५३ १९८, २२०
एणप्लुत, २४१, २४७ ऊर्ध्वमुख, १८२, २०८
एलादि, १२४, ३७६, ३७७ ऊर्ववर्तना, १०५, १०६ ऊर्ध्वश्वास, १६१, ४६४ ऊर्वस्थ, ९९
ऐरावण, २१६ ऊर्ध्वाडली, १ ऊर्ध्वालग, २४०, २४४ ऊहापोह, ४५, ४५८
ओता, १२४, ३७५ ओयारः, ३६०, ३६३
ऋग्वेद, ४, ३४१ ऋजुभ्रमणादि, १४
औघ्य, ४०३, ४०९, ४२९, ४४८, ज्वी, १७२
औत्सुक्य, ५५, १६१, १६३, १७६,
२०७, ३३६, ४०३, ४१०, ४२०, एकचरणाश्चित, २४०, २४२
४४८, ४५७ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
विशेषपादानि
औदार्य, ५, १३८
कम्पः, ३८७,४२०,४३२, ४५६, ४५७
४५९, ४६४, ४७०
कम्पन, १५६ कक्षवर्तनिका, ७४, १०५.१०८ कम्पभेदाः, ४७० कटाक्ष, १३६, १५६, ४०९, ४१६ कम्पित, १७,२०,८८,९०,९१, १२७, कटिक्षेत्र, ७३
१२९, १३१, १४१, १५९, १६२, कटिभ्रान्त, १९२, १९४, २१४
१६५, १६६, १६५, १७५, ४५१ कटीच्छिन्न, १९२, १९४, २०५, २१२, करकर्म, १८९
२५७, २५९, २६०, २६१, २६२, करक्रिया, १९६ २६३, २६४, २६५, २६६, २६५, करटाधर, ३७२
२६८,२६९,२७०,२७१,२७३,२७४ करण, १३, १४, १५, १६, ७५,१०५, कटीतट, १५
१४०, १८४, १८५, १९०, १९१, कटीरेचक, २७५
१९६, २०८, २२५, २४०, २४८, कटोसम, १९२, १९४, २०५
२५५, २५५, २५८, २५९, २६०, कटुवान, ४१८
२६१,२६२,२६३,२६४,२६६,२६८, कण्टकित, ४७०
२६९, २७२, २७३, २७४, २७७, कण्टकोद्धरण, ४८,५०
२७८, ४१२ कण्ठरेचक, २७५
करणवात, २५६ कथकाः, ३९६
करणसंश्रय, २५२ कथाभन, ४५८
करणाप्रणी:, २५७, ४६१, ३२०, ३३५, कथोद्धात, ३४३ कनिष्ठ, ३७३
करणाधिप, २४५ कपालचूर्णन, २४१, २४६
करणानुग, २४० कपित्थ, २५, ४०, ४२, ५७, ७७ कररेचक, ११२, २७५ कपीश्वराः, ४७३
कररेचकरन, ११२, १२१ कपोतः, २६, ५२
करवर्तना, १५ कपोल, १६,६८, १५९
करव्यापार, ३१४ कपोलालंकृति, २२५
करस्पर्शन, २४१, २४७ कमलवर्तना, १०८
करिकर, ६९, २०० कमला, ३२५
करिकुम्भ, ४
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________________
५५८
संगीतरत्राकरः करिहस्त, २७, ३०, ६९, ७०, १९३, कविवर, ४०७
१९४, २००, २०२, २१०, २१६, कांदिशीकता, ४३३ २२४, २३०, २५८, २६०, २६१, कांस्यतालधर, ३७३ २६२, २६३, २६४, २६६, २६५, काङ्ग्रल, २५, ४२ २६८, २७०, २७१, २७२, २७३, कातरा, २८०, ३०१ २८०, ३००
कान्ता, २२, २४, १३५, १३६, ४१५ करुण, १३५,१३७,१५६, १८१, ३४२, कान्तादृष्टि, ४०५, ४०९
४००, ४०४,४१३,४१४,४२०,४२२ कान्तानुकरण, ४०७ करोपगूढ, ४१८
कान्तासंयोग, ४०६ कर्कट, २६, ५२, ५३, ८६, ३२८ कापुरुष, ५२ कर्ण, १९०
कामशास्त्र, ४१४ कर्णपूर, ४८
कामसूत्रज्ञाः, ४९ कर्णयुग्मप्रकीर्णक, ११२, १२२ कामावस्था, ३२८ कर्णलग्न, ९५
कार्यतत्त्वविनिश्चय, ४२५ कर्णाटदेशज, ३७७
कार्यासिद्धि, ४५५ कर्णाटमण्डल, ३७८
काल, ४०४ कर्णावतंसक, ११८
काव्यबद्ध, ७ कर्तरीमुख, २५, ३०
काहलिक, ३७३ कर्तरीलठित, २४४
किङ्किणीवाद्य, ३९२ कर्तरीलोहडी, २४१, २४४
किरीट, ९, ३५ कर्तर्यश्चित, २४०, २४३
किलिकिञ्चित, २२, १५२, १५५ कलविकृविनोद, १११, ११६
कीनाशः, ४०४ कलशवर्तना, ११०
कीर्ति, ५, ४२८, ४३१ कला, २५०
कीर्तिधर, १०८, १४० फलाभिज्ञाः, १३६
कुक्कुटासन, २४३ कलाप, २५५
कुचित, ३५, ४९, ९२, ९३, ९६, १८, कलास, १२२, ३८१
७९, १०३, १२३, १३३, १३८, कवयः, ३९५
१३९, १४६, १४७, १५०, १५३, कविचार, ३८५, ३९०
१५४, १५०, १७९, १९२, १९४, कवित, १२५, ३७५, ३७८, ३९० २०६,२०८,२२१,२२२,२२७,२३६,
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________________
विशेषपादानि
२३९, २९०, २९१, २९२, २९३, केशदेश, १०७ २९५, ३०२, ३०३, ३०७, ३०८, केशबन्ध, २७, ३८, ६५, ६८,२०९ ३१२, ३२२, ३२८, ३३४ केशबन्धवर्तना, १०५, १०७
कैशिक, १०, १२५, ३४५, ३४७ कुटिल, १४१, ३७३, ३७४, ४२८, ४४९ कैशिकी, १०, ३४०, ३४१, ३४३,३४४ कुट्टन, १३, १६९
कोप, २३, ४१, १५१, १७५, २०२, कुटमित, २२, १५२
२३८, ४२८ कुट्टित, ३१४, ३१५, ३१६, ३१७ कोमल, ३६०, ३६७, ३७७, ३४७ कुण्डलिचार, १११,११७
कोहल, १०५, १११, १२४, १६२,३१३ कुलीरिका, २८०, ३००
कोहाटिक, १७, ३९३ कुसुमगुम्म, ४७२
कौटिल्य, ४५८ कुसुमघ्राण, १६५
क्रमपादनिकुट्टित, ३१३, ३१५ कुशल, ३९४, ४०८
क्रव्याद, ५८ कुसत्त्ववासन, ३३८
कान्त, १९२, २१५, ३१९, ३३६,३४८, कुसुमाञ्जलि, ३७४ कुसुमावचय, ४१,४६,५०
क्रुद्धा, १३५, १४० कुहनावह, ४१६
क्रोध, ९४, १५४, १६८, १७१, १९७, कूटनिबद्ध, ३९०
३२४, ४०१, ४२३, ४२५, ४२८, कूपर, ५६, ६३, ६८, ७३, ७९, १०३, ४४३, ४४, ४७० ३२१, ३४०
क्षाम, १२६, १२५, १५१, १५९ कूर्परक्षेत्र, ११९
क्षिप्त, ४६ कूपरस्वस्तिक, १०९, ११६, १२१ क्षिप्ता, १२८, १२९ कूर्पासक, ३६९
क्षेप, १८९ कूर्मक, ५२ कूर्मालग, २४०, २४३ कूर्मासन, २४३, ३१९, ३३५ खटकामुख, २५, २६, ४०, ४३,५५, ५९, कृतिनः, १५८
६२,६९,७७,७९,८०,१०६,१०९, कृत्रिम, ४२८, ४३३, ४३४, ४३५, ४५८ २००,२०२,२०५,२०६,२०९,२११, केतुदर्शन, ४६२
२१५, २१५, २२२, २२५, २२७, केशग्रह, ४९
२२८, २३०, २३३, २३४, २३८
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________________
५६०
संगीतरनाकरः
खटकामुखवर्तना, १०५, १०६ गर्व, १९, २२, ५८, ८८, ९४, ९५, खटकावर्धमान, २६, ५५
१४८, १५९, १७६, २०३, ३२६, खटकास्य, १०८, २०८
४०३, ४२९, ४५८ खड्गवर्तनिका, १०५, १०८
गर्वज, ३२५, ४६१ खड्गादिभ्रमण, १०१
गर्वोत्सेक, ८८ खण्ड, १२४, २५५, २७७, २७८ गाढसंश्लेष, १७० खण्डन, १६९, १७०
गात्रकार्य, ५७ खण्डसूची, २४९, ३०४, ३१९, ३३३ गात्रगौरव, ४५७ खलुहुल:, ३८५, ३८८
गावधूनन, ४३५, ४३७ खल्ल, १२६
गात्रमोटन, ४६५ खुत्ता, २८१,३०५
गात्रवर्तना, १०५, ११०, ३४५ गात्रविक्षेप, १२, ३६७, ४६.
गात्रसंवाहन, ४५० गङ्गावतरण, १९३, १९५
गात्रस्पर्श, ४७० गडावतार, २३९
गात्रसंकोचक, ४६४ गजदन्त, २६, ५६, ५८
गावतंस, ४३३ गजर, १२४, ३७४, ३७५, ३७८ गात्रोत्कम्पी, ४६४ गजविक्रीडित, १९३, १९४, २२४, २६८ गान, ४९ गण्डसूचि, १९३,१९४,२२५,२६६,२७३ गान्धर्ववेदः, ३, ४ गतागत, ३१९,३२८
गाम्भीर्य, ५८, १३८, ३२६, ४३१ गति, ३१७
गारुगि, ३८९, ३९० गतिमा, ४४९
गारुड, ३१९, ३३५ गतिमण्डल, २५६, २६६
गीत, ४, १३, २००, ३४४, ४०५,४६० गदा, ४०
गीतक, २४ गद्गद, ४२५, ४३६, ४६४, ४७० गुणकीर्तन, ४१५ गन्ध, १४४, १६४
गुणदोष, १६, ३६८ गन्धर्वाप्सरा:, ३
गुणनिक्षेपण, ५० गम्भीरभाव, ३९४
गुणनिहव, ४४८ गरुडपक्षक, २७,७३
गुरु, ४२८ गरुडप्लुत, १९३, १९४, २२५, २५९ गुरुभक्ति, ४५१
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________________
गुरुव्यतिक्रम, ४५२ गुरुसंभाष, ५२ गुर्वी, ४४९
गुरुफ, १६, १७८ गूढावलोकिनी, १४४
गूढवचन, ४५२
गृध्रावलीनक, १९३, १९४, २१६, २७३
गृहादिभजन, ४२३
गोपनोपाय, २३३
गोपी, ३, ४ गोप्यगोपन, ३२७ गोमुख, २७४
गोष्ठी, ४३८
गौण्डली, १६, ३७७, ३७८, ३७९, ३८२, ३८३, ३८८, ३८९
गौर:, ४०४
ग्रहण, १६९, १७१
हार्दित, १७९
ग्रहावेश, २३, १७४
ग्राम्यत्वं, ३७७
ग्रीवा, १६, ९६
विशेषपादानि
घ
घटितोत्सेध, ९२, ९४ घर्घर, ३८५, ३८८, ३९०
घर्घरिका, १३१
घर्धरिकाजाल, ३८४
71
धरिकावाथ, ३८५
घर्षण, १७९
घातवर्तनिका, १०५, १०९
घूर्णित, ११५, १९२, १९४, २०८,
२६८, ४४९, ४६४
च
चक्रकभ्रान्ति, १२२ चककुनिका ३१३, ३१७
चक्रभ्रमरिका, २४१, २४९
चतुरश्रकर, २०२ चतुरश्रमान, २६५
चतुरहस्त, ४५७
ग्लाना, ८६, १३५, १४५ ग्लानि, १४५, ३३६, ३३७, ४०३, चतुरश्री, ७९
४१०, ४२०, ४४६, ४६६
५६१
चक्रमण्डल, १९२, ९९४, २१९, १६९ चक्रवर्तनिका, ७३
चतुर, २५, ४५, १३९, १५० १५३, १९२, १९४, २१४, २१८, २७०, २७३, ३३१,३९३,३९५, ३९६, ४५८ चतुर, २६, ५९, ६०, ६२, ६४, ६५
६९, ८७, १९८, १९९, २०३, १०४, २०६, २१४, २५६, २७८, ३२१, ३१९, ३३०
चतुरानन, ३२२ चतुर्मुख:, ३ चतुष्कोणकुट्टिता, ३१३, ३१५ चतुष्पत्राब्ज, १११, ११७ चतुस्ताल, २९०, ३२३ चन्द्रोपराग, ४६२ चरण, ३४८
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________________
५६२
संगीतरनाकरः
चल, १३१, १३२, १४०, १४४, १६२, चिन्ता, २१, २४, ५३, १४२, १६१, १६३, १४३, १७४
१६३, १७६, २२७, २३३, ३२५, चलन, १५५, १५६, ४६३
४०३, ४०६, ४१०, ४१३, ४१४, चलसंहत, १७४, १७५
४१५,४२०,४४८,४५०,४५७,४६५ चलासन, २४६
चिबुक, १६, ४९, ३३६ चलित, ११४, १७५
चुक्कित, १६९, १७० चापल, १४८, ४०३, ४२५, ४३३,४५४ चामरधारण, ४१ चामरधारिन् , ३९६
छत्रभ्रमरी, २४१, २४९ चारण, १७, ३९२
छिन्न, ९०, ९१, १६९, १७०, १९२, चारी, १६, १९८, २०२, २०३, २०५, १९४, २०५, २१२, २६१, २६४,
२०६, २०७, २०८, २११, २१३, २६५, २६६, ३५४, ३५६ २१५, २१९, २२२, २२४, २२५, छुरिकानर्तन, ३९३ २२८, २२९, २३३, २३४, २३५, छेद, १८९, ४२४ २३५, २३८, २३९, २७६, २७७, २७८,२८२,२८४,२८७,२८८,२८९, २९१,२९६,२९७,३०३,३१३,३१४, जक्का, ३७९
३१७,३१८,३४७,३४८,३५०,३८२ जवा, १६, १२८ चालक, ११०, ११२, १२३, १२४, जङ्घालवनिका, २८१, ३१० १२५, ३८२
जवास्वस्तिक, २०८, २८६, २८७ चालन, १११, ११३, ११४, ३६०, ३६१, जङ्घावती, २८१
जङ्घावर्ता, ३१० चालि:, ३६०
जठर, ५३, १२६ चालिवडः, ३६०,३६१
जडता, १४५, ४०३, ४१०, ४१५, चाषगत, ३४८, ३५४ चाषगति, २२०, २७९, २८५, ३४९, जनान्तिक, ११ ३५०, ३५१, ३५४
जनित, १९३, १९५, २३३, २३४,२७१, चित्तपत्त्यर्पिका, ९
२७९, २८८, ३४९, ३५०, ३५१, चित्तोत्साह, ४५५
३५२, ३५४, ३५५, ३५७ चित्रयुद्ध, ३४२
जन्यजनक, ४०४ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
विशेषपादानि
५६३
जयशब्द, ६. जरा, १६९, ४७०
तण्डः , ३, ४, १४, ११५ जर्जर, २०५
तरुण, १४९. २०९, ४९ जलशयन, २४१, २४५
तरुणमद, २३९ जलशय्यासन, २४५
तर्जन, २०, २८९, ३२० जवनिका, ३७४
तल, १८०,१८५ जाध्य, ४३६, ४६९
तलदर्शिनी, २८१, ३०५ जानु, १६, १३३, १३४
तलपुष्पपुट, १९२, १९४, १९६, २५८ जानुनत, ३१९, ३२०, ३३८
तलमुखः, २६, ६० जिमा, १३५, १४५
तलमुखवर्तना, ११० जिला, १६, १७२, १७३
तलविलासित, १९२, १९४, २१८ जुगुप्सा, ८६, १५१,१६१,४०१,४०९,
तलसंघट्टित, १९३, १९५, २३५, २६९
तलसंस्फोटित, १९३, १९४, २६२, २२६, जुगुप्सिता, १३५, १४१ जृम्भण, १७०, ४७१
तलोवृत्त, २८०, ३०२ जम्भा, ५३, ८९, १२६, १२७, १७४, ताडन, १८९,३१३, ४२४,४४,४५३
ताडित, ८२, ९४ ज्योतिर्विदः, ३९५
ताण्डव, ३, ४, १३, ११२, १२८,
१२९, १३०, ३८३
ताम्रचुडः, २६,५१ हमरी, २०१, ३०९
तारकाकमे, ४०१ डमरुकुहिता, ३१३,३१५
तारकाभेदाः, १५५ डमरुद्वयकुहिता, ३१३, ३१५
तारा, १६, १६३, १३५, १४०, १४१, डिण्डिम, २७४
१४३, १४४,१४५,१४७,१४८,१५७ डोल:, २६, ५४,१११,११४,१२२,२१९, ताराकर्म, १५५, १५६
२२०,२२१, २२८,२२९,२३४,२३६ ता_पक्षविलासक, ११२, १२० डोलापाद, १९२, १९४, २२१, २२४, ताल, २७४, २५८
२२९, २३१, २३५, २८०, २९३ तालत्रय, २९५ डोलाकर, २०६, २०८, २१.. तालधर, ३७३, ३८९ दोलित, ६८
तालमात्र, २८५
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________________
संगीतरत्नाकरः तालमान, ५१
तिलकवर्तना, ११० ताललास्ययुक्, ३६.
तिलतण्डुलवर्तना, ११२ तालवृन्त, ६.
तीक्ष्णकूपर, ११४, ११९ तालानुसंधान, २०७
तीव्रमदः, १४९ तालानुवृत्ति, ३७४
तुडुका, ३७५ तालान्तर, ३२७
तुण्डकैशिक, १२५ तालान्तराल, २१४
तृष्णा, ४४२, ४६६ तालिका, २२५, २३५
तैर्थिकाः, ४३८ तिरश्चीन, १२३, १२९, १३०, १५५, तोमर, ३९ १८., ३६१, ३६४
तोलन, १८९ तिरश्चीनकुहित, ३१३, ३१६ तौर्यत्रय, ३९१ तिरिपभ्रमरी, २४१, २४९
तौर्यत्रिक, ३९७ तिरोभाव, ४२७
त्रस्ता, १३६, १४९ तिर्यक्, ६२, ६४, ६८, ७२, ५३, १४५, त्रास, १४९, १७९, ४०३, ४३२, ४३३,
१६६, ३०९, ३६२, ३६३ ___४६४, ४६५ तिर्यकरण, २४१, २४७
त्रिक, ८९, २१२, २२१, २४४ तिर्यकृश्चित, २८१, ३०३ त्रिकपरिवर्तन, २६३ तिर्यक्ताण्डवचालन, ११२, १२०
त्रिकपर्यन्त, १२१ तिर्यप्रसारित, ३०३, ३०४, ३३३ त्रिकवलन, २६७ तिर्यक्स्वस्तिक, २४१, २४८ त्रिकविवर्तन, २२४ तिर्यगचित, २४१, २४७
त्रिकोणचारी, ३१३, ३१४ तिर्यगायत, १७७
त्रिकोणमर्यादा, ११७ तिर्यग्गत, १००
त्रिपताकः, २५, ३४, ३५, ३८, ६६, तिर्यग्गतस्वस्तिकाग्र, ११२, ११९ ६८, ६९, ७१, ७३, २३०, २३९, तिर्यग्गतागत, १७५
त्रिभङ्गीवर्णसरक, १११, ११४ तिर्यग्नम, २४९
विवली, ३७७ तिर्यग्भ्रमण, २७५
त्र्यश्र, ६०, ९६, ११४, २७८, २९४, तिर्यङ्नत, १७४
____३२०, ३२१, ३२३, ३२४, ३२५ तिर्यनतोमत, १८, २४
भ्यश्रकर, १२१ तिर्यमुख, ११, ११४, २८०, २९९ ग्यश्रगमन, १५५
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________________
विशेषपादानि
५६५
भ्यश्रता, २८५, ३६०
दृश्य, ५ त्र्यश्रपक्ष, ३२३
दृष्टि, १६, १५. भ्यश्रभाव, ११६, ३१५
देवा, ४५५ त्र्यश्रमान, २५६
देवार्चन, ४२, ३३८ देवोपहारक, १११, ११९
देशी, १६, २४०, २८२, ३६. दण्डपक्षः, २७, ७२, १९२, १९३,२११, देशीचारी, २८०, ३१३ २१३, २६८
देशीनृतसमुद्र, ११२ दण्डपाद, १९२, १९४, २१३, २२५, देशीपद्धति, ३७८
२२८, २५९, २७३, २८०, २८१, देशीविदः, ३६० २९४, ३०९, ३४८, ३५४, ३५५,
दैत्याः , ४२३ ३५७,३५८
दैन्य, ४०३, ४१०,४३३, ४४० दण्डप्रणामाञ्चित, २४०, २४२ दोलित, ४४, ६९ दण्डरेचित,१९२,१९४,२१४,२६९,२७० द्वतभ्रम, ६५, १०७, १९९, २०३ दण्डवर्तना, १०५, १०८
द्वतमान, ११६, १२१, २९९ दन्तकर्म, १६९
द्वतलय, ३८३ दर्दुर, २५४
द्वारदामविलासक, १११, ११८ दसरण, २४१, २४५
द्वारवती, ३ दशन, १६
द्विताल, २८५ दशमीदशा, १६४
द्वितालान्तराल, ३२० दशावस्था, ४१४, ४१५
द्विशिखर, ३२, ८० दष्ट, १६८, १६९, ११ दानवीर, ४३२ दिक्स्वस्तिक, १९१, २६०, २६८ धनुराकर्षण, १११, ११८ दिग्भ्रमरी, २४१, २५०
धनुर्वल्लीविनाम, ११२, १२० दीना, १३५, १४०
धर्मवीर, ४३२ दुःख, ५, २२, २३, ४७,९५,१४८,१५९, धसक, ३६०, ३६२
१६३, १६४, ४१४, ४२२, ४६९ ।। धुत, १७, १८ दूती, ४००
धूनन, १८९ हप्ता, १३५, १४१
धृति, ४०३, ४२९, ४३९, ४५१
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________________
संगीतरत्नाकरः धैर्य, ५, ५८, १३५, ४२९, ४३१,४५८, नर्मस्फुञ्ज, ३४४
नर्मस्फोट, ३४४ ध्यान,९६,१६४,३३५,४५०,४५१,४५५ नलिनीपाकोशक, २७, ७७, १.८ ध्रुवक, ३७९
नवरत्नमुख, ११२, १२३ ध्रुवखण्ड, ३८१, ३८३
नवोढा, २२, १७९ ध्रुवपद, ३८०
नागबन्ध, २४१, २४५, ३१९, ३३५ ध्रुवा, १३, १२४, ३७७, ३८२ नागबन्धवर्तना, ११० ध्रुवांशक, ३८२
नागबन्धासन, २४५ ध्रुवाखण्ड, ३८०
नागा:, ४५५ नागापसर्पित, १९३, १९५, २३९
नाटक, ८, १४, ४७१ नगराणि,६
नाटकगोचर, ३४४ नट, ७, १६, १५९, ३२१, ३९८,४० नाव्य, ३, ६, ७, १४, २९६, ३२४ नत, ४२, ६७, ८९, ९०,९६,९८, नाव्यतत्त्वज्ञ, २०१, २०७
१२८, १३३, १६०, २०५, २२५, नाट्यधर्मी, ९, १० ३१९, ३४०
नाट्यनिर्वाहक, ४४० नतजानुक, २८९
नाट्यविशारद, २५८ नतपृष्ठ, २४१, २४६
नाट्यवेद, ३, ४, २९०, ४७२ नतोन्नत, ३४, १२६
नाट्यस्थितिकर्ता, ३२१ नन्द्यावर्त, ३००,३०१,३१९,३३०,३३१ नाटयकगोचर, ३२५ नय, ४५, ४२८
नाटयोपयोगिनी, १० नर्तक, १६, ३९२
नाडीपीडन, ४७१ नर्तकी, ३२८, ३६५
नाभि, १९० नर्तन, २, ७, ३२५
नारद, ५, ११२ नर्तनाधार, ३६५
नासिकानिल, १६ नर्म, ३४४
नि:शक, ५१, १०३, १४४, १६२, नर्मकर्म, ३९२
२५९, २६६, २९०, ३०९, ३२०, नर्मगर्भ, ३४४
३४३, ३४४, ३६३ नर्मनिर्माणनिपुण, ३९४
नि:श्वास, ५५, १६२, १६५, ४४५, नर्मभेदाः, ३४४
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________________
विशेषपादानि
५६७ निःसारताल, ३८९, ३९०
निवेशक, १९३, १९५, २३३ नि:सृता, १२९, १३०
निशुम्भित, १९२, १९४, २२३, २६८ निकुञ्च, ८०, १३१, १३२
निषध, २६, ५७,५८ निश्चित, १३९, १५२, १९४, २०७, निष्कर्षण, १६९, १७१
२२९, २६७, २७०,२७१, ४१८ निष्काम,१५५, १५६,१९९,२०२,२१५ निकुट, १९२, १९४, २०४, २५८,२५९, निसारु, ३७८
२६०, २६२, २६५, २६७, २७०, निश्चित, १७, २२, १९६ २७४, ३०६
नीच, ४१६,४२३, ४३४, ४४४, ४४६, •निकुट्टित, २१९, २७१, २८१, ३१४, ४६०, ४६१ ३१५,३१६
नीराजन, १११ नितम्ब, २५, ६६, ९०, १३३, १९३, नीराजित, ११४
१९४, २०६, २०९, २३१, २५८, नूपुर, १९२, १९४, २१२, २६०,२६१, २६१, २६३, २६४, २६५, २६८, २६२, २६३, २६४, २६९, २७०,
२७०, २७१,२७२,२७३,२९५,३०९ २७३, २९४ नितम्बक, २६०
नूपुरपाद, २२८ नितम्बवर्तना, १०५, १०७
नूपुरपादिका २१२, २८०, २९३ निद्रा, २३, २४, ४०३, ४१०, ४१२, नूपुरबन्धन, ९२, ९३
४१६, ४५३,४५५,४५७,४६५,४७१ नूपुरविद्धका, २८०, २९९ निबद्धस्वस्तिक, १२.
नृगोचर, ४४१ निमेषित, १५३, १५४
नृत्त, ३, ६, १२, १४, १५, २९, २९६, निमेषिणी, १४०, १४७, १४९
३२४, ३४४, ४६० नियुद्ध, ४४, २०७, २२६, २९६, नृतकन्या, ३६४ ३५२, ३५४
नृत्तकरण, १३, १९१, २७८ निरस्त, १६२, १६३
नृत्तकला, ११२ निर्भुम, ८७,८८
नृत्तकोविद, ६०, १७९, ३११ निवंद, ५, १४६, १६१,१६३,१७३, नृत्तगोचर, १५१
१७६,३३६,३४२,४.१,४०२,४०३, नृत्तज्ञाः, ९६
४१०,४२०,४३९,४४४,४४५,४६६ नृत्ततत्त्वज्ञ, ३७० निवर्तित, १२५, १२८
नृत्तमङ्गलशास्त्र, ११२ निवृत्त, ९३, ९५
वृत्तविदः, १२
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________________
५६८
नृतवेदिन्, ११, ७३, ७४, २४३ नृत्तहस्त, २७, ३२, ८०, १०६, २२५
२३७, २८७
नृत्ताढ्य, ३४२ नृताभिनय, २०३ नृत्ताश्रय, १२४
नृत्य, ३, ६, ११
नृत्यशाला, ३९५
न्यश्चित, ७३, ९०, ९३
न्याय, १६, ३४५, ३४७ न्यायवेदी, ३९३
संगीतरत्नाकर:
प
पक्षप्रद्योतक, २७, ७१, २००, २०३, २९८ पक्षवचितक, २७, ७१, २००, २०३, २०८, २२७, २२७, २९८ पक्षस्थित, ३२०, ३२१ पक्षानुकृत, १०४
पक्ष्माप्र, १३९, १४३, १४४, १४५ पश्चताल, २८८, ३२४
पश्चाङ्ग, ३८५
पश्चाङ्गकुशल, ३८४
पटह, २७४
पडिवाट, ३८५, ३८६
पणव, २७४
पण्डित, ३८३
पताक, २५, ३२, ३३, ४४, ४७, ५३, ५४, ५८, ६१, ६३, ६४, ६६, ६७, ६८, ७३, ७४, ८०, १०७, १०९, १९७, २०७, २१८, २३१, २३५
पताकवर्तना, १०५, १०६ पतिता, १५०, १५१, १७८ पतिताय, १८०
पद, ३७५
पदार्थाभिनय, १४
पद्धति, ३७५, ३७८
पद्मकोश, २५, ४२, ४९, ६२, ६७, ७७,
७८, १०८, २३२
पद्मभूः, ४, १२१ पद्मवर्तना, १०८
पद्मवर्तनिका, १०५
पराङ्मुख, ३४, ३६, ५८, ६१, ७१, ७७, ११, ११९, १८२, २११ परावृत्त, १७, २३, ८९, १३०, १७७, २४६, २५६, २७१, ३१९, ३२२ परावृत्ततल, २८०, २९९ परावृति, ११८, ३२९
पराश्रित, ४१९
परिग्रह, १८९, १९९
परिच्छिन्न, २५६, २६२
परिदेवन, ४२०, ४२१, ४६० परिवर्तन, ६१, ७७, १९६, २०६,
२०८, ४३७, ४६३
परिवर्तित, ४३, ६०, ६४, ६६, १२८,
१३०, १८३, १८५, १९७, १९८, २१४, २३४, २३७ परिवाहित, १७, २१, २३६, २३९ परिविडि, ३७५
परिवृत्त, १९२, १९४, २०२, २२८, २३१, २७२
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________________
विशेषपदानि
५६९ परिवृत्तरेचित, २५६, २७२
पार्श्वजानु, १९३, १९४, २२६ परिवृत्ति, २०३, २१५, २२१, २२२,
पार्श्वतोमुख, १८२ २२८, २३३, २६९
पार्श्वदण्डपादा, २९१ पर्यस्त, २५६, २५७
पार्श्वद्वयवरी, ३१३ पर्यायगजदन्त, ११०, १२२
पार्श्वद्वयचारिणी, ३१५ पल्लव, २७, ६६, ६५,७९, २०५ पार्शनिकुट्टक, १९०, १९४, २१९, २६८ पल्लववर्तना, १०५, १०९
पार्श्वमण्डलिन् , २७, ३१, ७४ पश्चारक्षेपनिकुट्टिता, ३१३, ३१५
पार्श्वमुख, ५०,५५ पश्चात्पुर:सरा ३१३, ३१४,
पार्श्वव्यत्यास, १०१ पाट, ३७५, ३८५
पार्श्वसंभ्रान्त, २७० पाव्य,४
पार्श्वस्वस्तिक, २५६, २६० पाणिका, २७४
पाणि, १६, ९२, ९३, ९४, ९५ पात:, १५५, १५६
पाणिग, ९२, ९५ पादद्वयकुहिता, ३१३, ३१४
पाणिपार्थ, ३१९, ३३१ पादरजन, ३७
पाणिरेचित, २८०, ३०१ पादरेचक, २७५
पाणिविद्ध, ३०१, ३३१, ३१९, १२९ पादापविद्ध, २११
पिष्टकट, ३४८, ३५३ पादस्वस्तिक, २१२
पिहित, १५३, १५४ पापस्थितिनिकुट्टिता, ३१३, ३१४ पीत, ४०४ पादापविद्ध, १९१, १९४
पुत्रजन्म, ६ पार्वती, ३, ४
पुर:क्षेपनिकुट्टिता, ३१३, ३१५ पार्श्व, १५, ८९
पुरःक्षेपा, २८१ पार्श्वक्रान्ता, १९२, १९४, २२२, २८०, पुरःपश्चात्सरा, ३१३, ३१४
२९१, ३५४, ३५५, ३५५, ३५६, पुरस्ताल्लुठित, ३१३, ३१६ ३५७, ३५८, ३५९
पुराटिका, ३०६ पार्श्वक्षेपाख्यकुट्टिता, ३१३, ३१५ पुराटी, २८१ पार्श्वग, ४५, ९२, ९५
पुरारिन् , १२१ १८२, १८३
पुरोदण्डभ्रम, १११, ११४ पार्श्वच्छेद, २५६, २६३
पुलकोदम, ४३६, ४५४ पार्श्वज, ५०
पुष्पपुट, २६, ५४, १९६
12
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________________
५७०
संगीतरनाकरः
१७८
पुष्पाजलि, ५४, ३३०, ३७५, ३४८ प्रलय, ४०३, ४०५, ४२०,४३६, ४६८, पुष्पाञ्जलिक्षेप, १९६
४७१ पुष्पाञ्जलिविसर्जन, ३२६
प्रविचार, ३४५, ३४६, ३४७ पुष्पावतंसक, ३६९
प्रविलोकित, १५६ पूर्ण, १२६, १५९
प्रवृद्ध, १६२, १६३ पूर्वरङ्ग, २५२, २७४, ३२६
प्रवेशन, १५५, १५९ पृष्ठ, १६, १२६
प्रसन्न, १८१ पृष्ठलुठित, ३१३, ३१६
प्रसर्पित, १९३, १९४, २३०, २५९, पृष्ठसौष्ठव, ३७५
२६९ पृष्ठस्वस्तिक, १९२, २०१, २६८ प्रसारित, ३२, ६२, ६५, ७६, ८९,९०, पृष्ठानुसारी, ९९, १०२
९९, १०१, १०३, १०९, १२१, पृष्टोत्क्षेप, २८२, ३११
१२२, १७२, १७५, १७९, २८८, पृष्ठोत्तान, ३१९
३१९, ३३३, ३३४, ३३६, ३३९ पृष्ठोत्तानतल, ३३०
प्रसृत, ९३, ९८, १६२, १५३, १६५, पेरणी, १४, १६, ३८५, ३८९,
प्रहरण, १२४, ३८२, ३९० प्रकम्पन, ३८७, ४६९
प्रहसन, ३४३ प्रकम्पित, ८७,८८
प्रहार, ९५, १०३, ३४७, ४२४, ४५३ प्रचार, १६, १८२, १८३
प्राकृत, १५५, १५६ प्रताप, ४२८,४३१
प्रावेशिकी, १३ प्रतिमण्ठ, ३७९, ३८३
प्रेक्षण, ८१ प्रतिमुखरी, ३७२
प्रेक्षक, ३७४ प्रतिवर्तनिका, १०५, ११०
प्रेड्डोलित, १९३, १९४, २२९ प्रत्या, १६, १७, १३४ प्रत्याभङ्गि, ३६३ प्रत्यालीढ, २५८, ३१९, ३२४ प्रबन्ध, ३७४, ३७५, ३७७
फालवर्तनिका, १०५, १०७ प्रमोदनृत्त, २१४
फुल्ल, १५९ प्रयोगातिशय, ३४३
फुल्लकपोल, ४२२ प्ररोचना, ३४३
फूत्कार, १६० Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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________________
व
भववल्लभ, २३६
बद्धा, १९८, २२०, २२२, २२८, २३१, भाण, ३९१ भारतीय, १३
२६७, २७९, २८८, २९१
बद्धस्वस्तिक, ११८ बन्दिन:, ३९६ बहिर्गता, १३१, १७८
बाणः ३
बाहु, १६
बाह्यपार्श्वग, ३३२
बह्यभ्रमरक, ३५४, ३५६
बाह्यभ्रमरी, २४१, २४८
बाह्यवस्त्वनुकारिणी, ९
विशेषपदानि
बिब्बोक, २२, २४, १६७, १७९ बीभत्स, १३५, १३९, १५६, १८१,
४००, ४०४, ४३५, ४६१ ब्रह्मा, ६, ४०४
भ
भट्ट, १८२, ३२६
भट्टतण्डु, १०८, ११२, ११७, ११८ भय, १५९, १७१, १७७, २२०, ४०१, ४२०, ४३३, ४३४, ४४३, ४४९, ४५२, ४५८, ४६२, ४६५, ४६९, ४७०, ४७१
भयानक, १३५, १३८, १५६, १८१, ४००, ४०४, ४३५,४४३, ४४७, ४६१ भयान्विता, १३५, १४१ भरत, ३, ४, १८, १९१, १८२, २५९, २७४, २८०, ३१३, ३४१, ३४४ भर्त्सन, ५१, ४२८, ४५३
भारत, ३४५, ३४६, ३४७
भारती, ३२७, ३४०, ३४१, ३४३
भावदृष्टि, १३९
भावलक्षण, १७
भावा:, ९, ११, १५०, ४०३, ४०७
४०८, ४२५, ४२९, ४६८, ४७१ भावाभिनय, १४
५७१
मावाश्रय, ३८५, ३८८, ३९०
भावुक, ९
भी ८८, १६९
भीत, ८५, १३८, १६१, १६७, १७० १७५, ३३७
भीमसेन, १९१, २२२ भु, १७६
भुजङ्गत्रस्तरेचित, १९२, १९४,२१३, २६९ भुजङ्गत्रासित, १९२, १९४, २०६, २१३, २६०, २६२, २६४, २६५, २६७, २७२, २८०, २९५, ३५५, ३५३, ३५७, ३५८, ३५९ भुजङ्गाचित,
१९२, १९४, २१३,
२६९, २७३ भूतवाक्यार्थ, १५
भूमिकुट्टन, ३८६, ३८८ भूमितान, ९३ भूमिलन, १८०
भूषण, १६, १३४
भेद, १८९
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________________
५७२
संगीतरत्नाकरः
मेरी, २७४
मदस्खलित, १९३, १९४, २३६ भैरवाञ्चित, २४०, २४२
मदालप, २८१, ३०३, ३१९, ३३६ भौमी, २७९, २८१
मदिरा, १३६, १४९ भ्रमण, ७५, ८१, ९१, १३, १०१, मध्य, ३३५
१५५, १५६, २७५, ४६२ मध्यचक्रा, ३१३, ३१७ भ्रमर, ४८, ५१, १९२, १९४, २१२, मध्यलुठित, ३१३, ३१७
२५६, २६१, २६३, २६४, २६५, मध्यस्थापनकुट्टिता, ३१३, ३१६ २६८, २७१, २७२, २७३, ३४८, मन्दा, १६०, १६१ ३४९, ३५०, ३५१, ३५३, ३५४, मलिना, १३५, १४६ ३५५, ३५०
मातुः, ३९६ भ्रमरक, ९२, २९६, ३५६, ३५५, ३९३ मातृका, २५५ भ्रमरिका, २२१, ३५९
मातृकोत्कर, २५२ भ्रमरी, २०५, २१०, २१२, २१४, २२९, माधुर्य, १३८, ३६७, ३८१ २८०, २९४, ३५८
मान, २२, ८८, १०४, ४५७ भ्रान्त, १६२, १६५
मानावलम्बन, ३२६ भ्रान्तपादाचित, २४१, २५२
मानिनी, ३३८ भ्रामित, १३१, १३२, २२३, ३१७ माया, ३६२, ४६३, ४३५ श्रृकुटी, १५०, १५२, ४२८ मार्कण्डेयपुराण, ३६८ भूपुट, १६, १४५
मार्ग, ११, २८२ मृजिरिटि, १२६
मार्गनृत्त, ३९२ मिथ:समीक्ष्यबाह्यं, १११, ११५
मिथोयुक्त १७८ मकरवर्तना, १०५, १०६
मियोलग्न, १७९ मणिबन्धगतागतं, ११२, ११९ मुकुल:, ४९, ५७ मणिबन्धासिकर्ष, १११, ११६ मुकुला, १३५, १४४ मण्डल, ३१९, ३२९
मुक्तजानु, ३१९, ३३० मण्डलभ्रान्ति, ३५३
मुखराग,१६,८३,१८०,१८१,४०९,४१६ मण्डलाय, ११५, ११८
मुखरी, ३७२ मण्डलाभरण, ११२, १२२
मुखवैवर्ण्य, ४४६ मत्तलि, १९२, १९४, २०९, २७९, २८७ मुखशोष, ४४६, ४५५, ४६.
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________________
विशेषपदानि
मुखसंकोच, ४६०
यजुर्वेद ४,३४१ मुखसंदंश, ५०
यति: २१४ मुख्यगायन, ३७३
युद्ध, २०७, २२६, २९६, ३२३ मुग्ध, ३६५
युद्धपरिक्रम, २०१, ३४८ मुनिः, ३, ११,२६,७०,७३,९२,११२, युद्धप्रवर्तन, ४३१
१५७,१५३,२५५,२५६,२६३,३१९, युद्धवीर, ४३२
३२०, ३२३,३४३,४०२,४३८,४४२ यौवनत्रितय, ३६५ मुरजाडम्बर, १११, ११८ मुष्टि,२५,३९,७७,९५,२२६,२३४,२२९ मुष्टिकस्वस्तिक, २७, ७७, ८०, १०८ रक्त, १८१ मुष्टिरूप, ११६, ११७
रा, १९०, ३७८, ४४९ मूकगौण्डली, ३७७
रङ्गपीठ, ३७५ मूर्छा, २१, २३, २४, ५४, ८८, ९३, रङ्गप्रवेश, ४४९
१५४, १७९, ३३५, ४७१ रङ्गभुव, ३७४ मृति, ४०३
रङ्गभूमि, ३७४ मृत्यु, ४१०, ४३२
रङ्गस्था:, ३८९ मृगशीर्षक, २५, ४६
रजावतरण, ३२६ मृगप्लुता २२९, २८०, २९२ रज्जुभ्रमण, १४ मृदा, २७४
रज्जुसंचार, ३९३ मेलापक, ३७४, ३७८
रजक, ३७० मोक्षण, १८९
रति, १४२, ४०६, ४१०,४१३, ४१४, मोटन, ५३, १८९, ४२४
४४०, ४४३, ४६६, ४६७ मोटित, ३१९, ३२८
रतिनैपुण, ३६६ मोट्टायित, २२, १५२
रतिभेद, ४४२ मोह, २१, ४०३, ४२०, ४३३, ४३५, रतिश्रम, ४१२
४५३, ४५६, ४७०, ४७१ रथचक, १२०, १२२, २८०, २९८ मौलिरेचितक, १११, ११५
रथनेमि, ११२, १२३
स्थान, ४३ य
रस, ७, ३९५, ३९९, ४०० यक्ष, १२, १५
रसदृष्टि, १३५, १३९
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५७४
संगीतरत्नाकरः
रसदेवता, ४०४
२००, २०३, २०९, २१०, २१२, रसनिर्भर, ३४२
२१३, २१५, २१६, २१५, २२१, रसनीयता, ४०५
२२२, २२४, २२५, २२९, २३०, रसभाव, १८१
२३४, २३६, २३९, २६८, २६९, रसभावज्ञाः, ३९३
२८६, २८७, २९९, ३०१, ३५४ रसभावाः, १५९
रेचितवर्तना, १०५, १०७ , रसवर्णाः, ४०४
रेचितस्वस्तिक, ६४ रसविदः, ४७२
रोदसी, १९० रसवृत्ति, ११३
रोमन्थ, १७५ रससंविद् , ७, ८
रोमहर्षण, १५९ रसा:, ४,४०४,४७२
रोमाञ्च, ४५, १५९, ४०३, ४०९, ४२५, रसात्मिका, १८०
__ ४२९, ४३९, ४४९, ४६३, ४६४, रसादिः, ४०५
४६८, ४७०,४८६ रसाभासाः, ४०४
रोमाञ्चनिचय, ४३२ रसाभिनय, १४
रोषः, २०, २२, ५०, १३३,१५१,१६१, रसाभिव्यक्ति, ७
१६७, १७७, ३४४, ४७० राग, ४५३, ४६९
रौद, १५६, १८१, २३२, ३२४, ३४२, रागालप्ति, ३७९
३४३, ४००,४०४,४१८,४२५,४३१ रिकपूर्ण, १२६
रौद्रप्राय, २२२ रिंगोणी, १२४, ३७५, ३७८, ३७९, रौद्री, १३५, १३७
३८९ रुर, ३२४,४०४ रुद्रदेवत, ३२४
लक्षणावृत्तिः, ७ रूपक, ३८३
लम, ३४, ४०, ४६, ५० रेखा, १६, ११०, ३६४, ३६५ लचितजङ्घा, २८१, ३०४ रेचक, १६,६६, ९२, ९३, २७५ लज्जा, २३, ५५, ८८, १४३, १७६, रेचकनिकुट्टक, १९३, १९४, २१०,२६९, १९६, १९९, २८९, ४७० २७०
लज्जाभर, २१ रेचित, २५, ६५, ९०, ९१, ९६,११४, लजिता, १३५, १४३ १५०, १५१, १६६, १६९, १९९, लढि, ३६०, ३६ ॥
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________________
विशेषपदानि
५७५
लता, २५, २१५, २२५
लेहनी, १७३ लताकर, २९,६८,६९,७०, ७२, ७९, लोकधर्मी, ९
२२६, २३०, २३४,२६५,२७४,३२५ लोलित, १८, २३, ९५, १६, १९३, लताक्षेप, २८१, ३०७
१९५, २६९, २३६ लतावृश्चिक, १९२, १९४, २१५, २६५, लोल, ९८, १७२, १५३, १७४, १७५
२६८, २७०, २७२, २७३ लौहडी, २४१, २४४ लतावेष्टितक, ११२, १२३
लौल्य, ४४१, ४४२ लताहस्त, २०२, २१०, २१२, २१३ लौहित्यभट्ट, १२३ लय, ३६२, ३६३, ३६५, ३६७, ३७४,
लयचालन, ३६१
वक्र, ३७,४२, १७२, १७४, १७८ लयानुग, २७४
वक्त्रकुट्टनिका, ३१७ ललाटतिलक, १९२, १९४, २१९, २६८ वक्त्रकुट्टिता, ३१३ ललित, २२, २७, ७९, १३६, १३८, वक्षः, १५, ८४,८७,८९
१४७, १५१, १५३, १९२, १९४, वक्षःस्वस्तिक, १९२, १९४, १९९,२६८, २०६, २१०, २११, २६९, २७०, २६९
२९६, ३१२,३४८,३५९,३६२,३६३ वकोल, २४६ ललितवर्तना, १०५, १०९
वदन, १६, १७६ ललितसंचर, ३४८, ३५६
वर्णसर, ३९० लहरीचक्र, १११
वर्तन किया, ११८ लहरीचक्रसुन्दर, ११३
वर्तना, १५, १०२, १०५, १२६, २०९ लास्य, ३, १३
वर्तनाभरण, १११, ११५ लास्याङ्ग, १६, ३६०, ३६५, ३७७ वर्तनास्वस्तिक, ११, ११३, ११५, १२० लीढसक्क, १७२
वर्तित, ७९, १२३, १९२, १९४, लीन, १९२, १९४, १९७, २५८, २६६, १९७, २५८
वर्धमान, २६, ५८, २९९, ३१९, ३२९, लीला, ४५, १५१, १७६, ३२७, ३४० ३२० लुठित, ११९, १२२, १२३,२४४,३१५, ३१६,३१७
वलन, ९१, १५५, १५६, २८८, ३११, लेहन, ४५५
३८१
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५७६
वलित, २७, ७९, ८०, ९६, ९७, १०९, १२७, १७४, १७८, १९२, १९४, २११, २१२, २३४, २८९, २९४, ३०२, ३१२, ३१९, ३२८ वलितवर्तना, १०५, १०९ वलितो६, १९२, १९४, १९८ वस्तूत्थापन, ३४३ वह नि:, ३८५
वांशिक, ३७३, ३७९
संगीतरत्नाकर:
वाक्पारुष्य, ४५३
वाक्यार्थाभिनय, १४, २०७, २३३ वाक्यैकप्रधान, ३४१
वाग्गेयकारक, ३९३
वाङ्नेपथ्य, ४१५, ४१८
वाचिक, १, ८, १४
वाचिकादि १२ वाचिकाभिनय, ११
वाद्यघात, ३८१
वाद्यप्रबन्ध, ३७७
वाद्यभाण्डानि, ३६४
वायसंघात, ३८९
वामदक्षतिरश्चीन, ११५
वामदक्ष विलासित, १११, ११५
वाम विद्ध, ३४८, ३५७
वामावर्त, २४८
वामावर्तभ्रम, २४९
वार्षगण्य:, ३४५, ३४६
विकूणिता, १६०, १६१ विकृष्टा, १६०, १६१
विकृष्टि, १८९
विकोशा, १३६, १४८
विक्षिप्त, १९२, १९४, २२४, २५९,
२६१, २६४, २७१, २७२, २७३, ४४४, ४५९ विक्षिप्ताक्षिप्तक, १९४, २०७
विक्षेपा, २८१, ३०८
विचालित, १५३, १५४ विचित्रवर्तना, १०७
विच्यव, १९८, २७९, २८५, ३५७, ३५८
विच्युत, ५४, ५९, २१७, २५८ विच्छिन्न, १४७, १६०, ४७० विटनर्तन, ९३
विडम्बन, ११९, ३६८
वितत, ५५, ७३
वितर्क, २०, ६२, १४६, १५१, २०७,
३२७, ४०३, ४५०, ४५७
वितर्किता, १३६, १४६
वितस्ति, ३३०
विताडित, १५३, १५४
विदूषक, २१८, २९२, ४०४
विद्याधर, १२१
विद्याधरगति, २१९
विद्युद्धान्त, १९२, १९४, २२३, २२४, २५६, २६५, २६८, २७५, २८०, २८१, २९४, ३०८, ३५१
वालव्यजनचालन, १११, ११७, १२० विकट, १४
विद्धा, २८०, २८२, ३१२ विधुत, १७, १७६, १७७
विकासी, १६६, १६८
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________________
विशेषपदानि
विलाप, ४१५, ४२०, ४२१, ४६३
विधुतभ्रान्ता, १७ विधूनित, ४६
विलम्ब, ३६१, ३६२
विलम्बित, ३८३
विनय, ४५, ५२, ४२८, ४६० विनिगूहित, १६६, १६७
विलम्बितप्राय, ३८९
विनिवृत्त, १४४, १७६, १७७, १९२, विलास, ५, २२, १३८, १५२, १६७,
१९४, ३१९, ३२९
विप्रकीर्ण, २६, ३१, ४२, ६१, २०३, २१५ विप्रलम्भ, ४०४, ४०६, ४०९, ४१०, ४११, ४१३, ४६०, ४६१ विप्लुता, १३६, १४८, विबोध, ४०३, ४१०, ४१२, ४३९, ४५९ विभावाः, ७, ८, ३९८, ४००, ४०४, ४०५, ४०७, ४१३, ४१४, ४१६, ४१९, ४२३, ४२४, ४३२, ४३५, ४३६, ४३८, ४४३, ४४४, ४४६, ४४७, ४४८८, ४४९, ४५०, ४५१, ४५२, ४५३, ४५६,४६७, ४५७, ४७० विभावैकगोचर, ४०९
विभ्रम, १४८, ३२७, ४६१
विभ्रान्ता, १३६, १४८
विमुक्त, १६२, १६४, ३३७, ३३८, ३१९ विश्वङ्गाटकबन्ध, १११, ११७
वियुक्त, ८१, १२४, १७८
वियोग, ४१४
१६९, १९१, ३२७, ३९० विलासिन:, ३९५ विलासिनीनृत्त, २१०
विलासिन्यः, ३९५
५७७
विलीन, १६२, १६५ विलोकन, १४६, १४८ विलोकित, १५६, १५८ विवर्तन, १५५, १५६, २९५ विवर्तित, ७८, ८९, ९१, १५३, १५४, १६६, १९२, १९४,२२४,२६९,३१९, ३३९
विवृत, ९०, १३३, १३४, १७७ विवृत्त, ८०, ९१, १७६, १९२, १९४, २२१, २२८, २६९, २७० विशाखदैवत, ३२३
विश्विष्ट, १६०, १७५, १७७, २८०, ३०१ विश्ठिष्टवर्तित १११, ११३
विरल, ४०, ४२
विश्लेष, १५४, १८९
विरह, ४४, ३३१, ४०६, ४१४, ४५७ विषण्णा, १३६, १४७,
विरिश्वः, १५०
विरूपवेष, १४
विरेक, ४४५
विलक्षत, ४३३
विलज्जता, ४१५
73
विषम, १४, ३१९, ३८५, ३८८, ३९० विषमसूची, ३०५, ३३३
विषमाङ्ग, ३७५
विषयभाव, ४५१
विषयवैमुख्य, ४४०
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५७८
संगीतम्नाकरः
विषयाभिमुख, १५५, १५६
वृत्ति, १६,३४०,३४१,३४२,३४४,३४५ विषयोपप्लव, ४४०
वृश्चिक, १९२, १९४, २०७, २१६, २३२, विषयोन्मुख्य, ४४१
२६८,२७४ विषाद, ८८, १२८, ४०३, ४२०, वृश्चिककुट्टित, १९२, १९४, २१६, २६३,
२७० विष्कम्भ, १९३, १९५, २३५, २५६, वृश्चिकरेचित, १९२, १९४, २१७, २६८. २६७, ३३७
२६९ विष्कम्भापमृत, २५६, २६५ वृश्चिकाधि, २१९, २२५, २२९ विष्कम्भित, ३१९
वृश्चिकहस्त, २२३ विष्णु, ४०४
वृश्चिकापसृत, २५६, २७१ विष्णुक्रान्त, १९३, १९५, २३६, २६८ वृषभक्रीडित, १९३, १९५, २३९, २६९ विष्णुदैवत, ३२०
वृषभासन, ३१९, ३३५ विष्णुभक्ति, ४३०
वेताल, १२६, १२७ विष्णुवेषधर, ३२१
वेतालाभिनय, १७३ विसंस्थुल, ३०३
वेत्रधर, ३९६ विसर्जन, ४१, १८९
वेद, ४ विसष्ट, १६६, १६७
वेदाध्ययन, . विस्मय, २१, २४, ८८, १५१, १५३, वेपथु, ४०३, ४२५, ४३६, ४४६,४६२,
१६४, २१४, २१७, २६५, ३२७, ४६४, ४६८, ४७०
४०१,४३६, ४४४,४६२,४६३, ४६९ वेपथुव्यजक, १११, ११३ विस्मित, १३५, १४२, १६२, १६४ वेटन
वेटन, २८१, ३११ विहसित, ४१६, ४१८
वैतालिक, १७, ३९२ वीटिकाप्रहण, १०२
वैदूषिकी, २१४ वीथी, ३४३
वैवर्ण्य, ४०३, ४२०, ४६२, ४७१ वीर, १३५, १३७, १३८, १५३, १५६, वैशाख, २१२, २१६, ३१८, ३१९, ३२३
१८१, ३२४, ३४२, ४००, ४०४, वैशाखरेचित, १९२, १९४, २१६, २५६,
४२६, ४२९, ४३१, ४३२, ४४३ ___ २६०, २६४, २६९, २७०, २७४ वीरसंकर, ४२५
वैष्णव, २३४, २३६, २४५,३१८,३१९, वीरा, १३५, १३८
३२०, ३२१, ३३४, ४३८ वीरुधबन्धन, १११, ११५
वैष्णवस्थान, २०५, २४९ Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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वैष्णवीवर्तना, ११०
व्यंसित, १९२, १९४, २१५, २५८,
२५९, २६२, २६३, २६४, २७१ व्यञ्जक, ४१५ व्यभिचारि, ८४, १३६, ३९८, ४०४, ४०६, ४१३, ४०२, ४०३, ४०९, ४१६, ४२६, ४२९, ४३९, ४४३, ४४४, ४७१ व्यस्तोत्प्लुतनिवर्तक, ११२, ११९ व्यादीर्ण, १७४
व्याधि, ५४, ८८, १२६, १६३, १६४,
१७०, ३३७, ३४५, ४०३, ४१०, ४१५, ४४४, ४४५, ४५३, ४६०, ४६३, ४६४ व्याभुम, १७६
विशेषपदा
१८५, १९९, २१५ व्यावर्तितक्रिया, १०६
व्यावृत्त, ६४, ७७, १०८, १९७, १९८, २१४, २३४, २३७
व्यावृत्त प्रेक्षण, ९१
व्यावृत्ति, ६०, ६१, ६२, ६३, ७७, २०३, २०६, २२१, २२२, २३३, २३९
घोडा, ४०३, ४५२, ४५८
व्योमग, २८२
व्योमज, ३४८ व्योमयान, २१७
शंकर, ४३८
शंकर किंकर, ८८
शंकरप्रिय, ३५४, ४३० शंकरवल्लभ, २५०, ३२४ शंभु, ११२
शकट, २४८
व्यायाम ९१, १२८, १७०, २७७, ४७० शाखा, १५ व्यावर्त, २०१, २०६
व्यावर्तन, १९६, २०८, २३८ व्यावर्तित, ४३, ६६, ७६, १०९, १८३,
कटास्य, २, १९३, १९५, २३८, २४८, २७१, २८४, ३४८, ३४९, ३५०, ३५१, ३५२, ३५४ शक्रदेवत, ३२३
शङ्का, १४४, ४०३, ४११, ४३३,४४७ शङ्किता, १३५, १४४
शब्दानुकरण, १६५ शरसंधान, ११२, १२१
५७९
शाखाडुर, १५
शान्त, ४००, ४०१, ४३९, ४४०, ४४१, ४४३
शार्ङ्गदेव, २, ४४, १२८, १६७, १८३,
२१८, २२७, २७२, २९४, २९९, ३३०, ४१८, ४७२
शार्ङ्गिन्, १९८, २३९, २५२, ३०४,
३३९, ३५७, ४४७ शार्दूलमुनि:, ११०, १२४
शिखर, २५, ३९, ४०, ७७, ८०, ८१ शिथिल, ४६, ५४,६६, ६७, ८८, १४५ शिरस्, १५
शिरोभ्रमरी, २४१, २५० शिरोवर्तना, ११०
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________________
५८०
शिलोत्पाट, ५६
शिल्पादि ४३६
शिववल्लभ, २२०, २५८, ३६९ शुकतुण्ड, २५, ४१, ५७, १३९, १९८, श्वेत, ४०४
२०२
शुकतुण्डवर्तना, १०६
शुद्धपद्धति, ३७४
शुद्ध प्रबन्ध, ३७५
संगीतरत्नाकर:
शून्या, १३५, १४२
शृङ्गार, १३९, १५३, १५६, १८१, ३४२, ३४३, ४००, ४०४, ४०६, ४०७, ४०९, ४१३, ४१४, ४१५, ४४३, ४४७
शोक, ५, ४४, ८६, १३७, १६१,
१६३, १७७, ३३६, ४१३, ४२०,
४४३, ४४९, ४६२, ४७१ शोभा, १०, १३८ शोष, ४२०
शौर्य, ७१, ३४२, ४२९, ४३१
श्याम, १८१, ३६७, ४०४
श्रम, १६, ८८, ५५, १७२, ३४०,
३६४, ४०३, ४१०, ४२०, ४५०,
४५३, ४७०, ४७१
श्रान्ता, १३५, १४३
श्राव्य, ५
श्रीकरणाप्रणीः, २३२, २५१, ३९५,
३०३, ३४७ श्रीसोडलसुत, ५६
श्रीवल्लभ, ३१२
श्लेष, १८९
श्वसित, १७४
श्वास, १६२
श्वासरोग, १२६, १२७
संक्षिप्तक, ३४३ संगीतमेरु, १२४
स
संगीतज्ञ, ३७४
संघट्टित, २३५, २८१, ३०५
संघात, २५५
संघर्षण, १६९
संघात्यक, ३४३
संचारिणः, ४२०, ४२५, संचारिता, ३२८ संचारिसंभव, ४४० संचारी, ४२५
संदेश, २६, ५०, ४५८ संदष्टक, १६६, १६८
संनत, १९३, १९४, १९६, २०९, २२९,
२३४, २३७, २३९, २६८ संप्रदाय, १६, ३७३, ३७४ संफेट, ३४४
४३६
संभ्रान्त, १४६, १९३, १९५, २३७,
२५६, २६१, २७३
संमुख, ४१, ५०, ६८, ७७, १८१ मुखप्रेक्षण, २०२
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संभोगशृङ्गार, ४०९.
संभ्रम, ५४, ८८, ९१, १२८, १४८, ४३६४६३
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________________
विशेषपदानि
५८१
संमुखस्थल, ६०
समुद्, १६, ६, १६८ संमुखागत, १८३
समुदत्त, १५०, १५४, १५५ संमुखीनरथाज, १११, ११४
समोत्सरित, ३४८, ३५२ संयुत, २६, ४५, १७८, ३३५ समोत्सरितमत्तल्लि, २७९, २८६, ३५०, संलम, १७५, १७९
३५१ संलाप, १७०, ३२७, ३४३
सरस्वतीकण्ठाभरण, ३८९ संलापक, ३४३
सरिका, २८१, ३०६ संहत, १३३, १७४, १९८, ३१९, ३३० सर्पशिराः, २५, ४४, ५६ संहतस्थानक, ३००, ३०५
सर्पशीर्ष, ४६, ५४, ५५, ५९, ६४, १९३, सप्रविचार, १६ सभापति, १७, ३९४, ३९५
सर्पित, १९३, १९४, २३०, २६९ सभासदः,३९३
सर्वतोमण्डल, २२३
सर्वाङ्गनर्तन, ३७८ १३३, १३४, १५३, १५४, १५६, ससंभ्रमपरिक्रम, २३७ १५७, १५९, १६२, १६५, १६९, १७१, २४८, ३१९, ३२५, ३२७, सविलासक, २५२ ३३१, ३३४, ३३७, ३३९
सहायान्वेषण, ४५५ समनख, १९२, १९४, २०२, २५८, सांख्य, ४६८ २६१,०८२
साचि, १५६, १५७ समपाद, २२६, २४२, २४४, २४६, साटोपपरिक्रम, २१८
२५०, २७९, २८२, २८५, ३१६, सास्वत, ३४२, ३४५, ३४५
३१९, ३२२, ३३०, ३५२, ३७५ सात्वती, ३४०, ३४१, ३४३ समपादाचित, २४१, २५०, २५१ सात्त्विक, १, २,८,९, १२, १४,४०३, समप्रकोष्ठ, ११८
४६१, ४६७, ४६८, ४७१ समप्रकोष्ठवलन, १११, ११४
सात्त्विकोत्कर, ४०९ समसूची, ३३३
साधारण, १११, ११० समस्खलितिका, २८१, ३०७
साम, ४,४३१ समहस्त, ३७५
सामवेद, ४, ३४१ समाज, ३७५
सामाजिक,८ समाधि, २४४
सालग, १२४, ३८८
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५८२
सालगगीत, ३८३
सालगसूड, ३७७, ३८३, ३९० सित, ४०४
सिरिपाट, ३८५, ३८७
सिरिहिर, ३८५, ३८७
सिंहमुखवर्तना, ११०
सिंहविक्रीडित, १९३, १९५, २३२
सिंहाकर्षित, १९३, १९५, २३२ सिंहाभिनय, २३२
सुमन्तु, १२२
सुरज्येष्ठ, ३७५
संगीतरत्नाकरे:
सूक, ३६०, ३६१
सूचि, १९३, १९४, २२७, ३१९ सूचिका, २८२
सीत्कृत, १६२, १६५, १६६
३४७, ३६७, ३७४
सुप्त, ८६, ३३९,३४०,४०३, ४१०, ४५७ सौष्ठवाधिष्ठित, ३३५
सुप्तस्थान, ३१९, ३२०
सूची, १५, ९२, १३, १९९, २०१, २२२, २२७, २४७, २४८, २६३, २७३, २८०, २१२, ३१२, ३५३, ३५४, ३५५, ३५६, ३५७, ३५८, ३५९ सूचीपाद, २१०, २११, २१४, २२५,
२३७, ३२७, ३३३
सूच्यास्य, २७, ६४, २०७
सूत्कृत, १६२, १६५, १६६ सूत्रधार, २०५, २१८, ३२१ सूरिशार्ङ्गिन्, १६०, २४३, ४०६ कानुगा, १७२
सोच्छ्रासा, १६०, १६१ सोढलनन्दन, २४१, ४३६
सोढलसूनु, ५४, १५३, २०२, २७१, ३०३ सौष्ठव, ८५, ८७, ३२०, ३२१, ३२२,
सूचीविद्ध, १९३, १९४, २२७, २५६, २५९, २६०, ३४८, ३५३, ३५६
सूच्यङ्घ्रि, २२७, २२८ सूच्यन्त, २४१ सूच्यन्तानि २४८
स्कन्ध, १५, ५६, ६६, १९०
स्कन्धभङ्ग, ४६४
स्कन्धभ्रान्त, २४१, २५१
स्कन्धानत, १८, २४
स्खलित, १६२, १६४, १९३, १९५, २३२, २६९, ३०७, ३२७, ४४९ स्तब्ध, १२७, १२८
स्तम्भ, ८८, १७९, ४०३, ४२०, ४३२, ४३६, ४५६, ४५९, ४६४, ४६६, ४६७, ४६८, ४६९ स्तम्भक्रीडनिका, २८१, ३०४ स्थलकुट्टित, ३१५
सूचीमुख, २५, ४३, ६४, २०९, २१०, स्थान, १९८, २१२, ३१७, ३२७, ३३३
२२५, २३७
३३८, ३३९, ३७५
स्थानक, १६, ३२६, ३७४ स्थानका दि, १७८, २०९, २१५, २१६, ३४० स्थानकानि, ३२५
स्थानानि, ३२०
स्थापन, ३६५
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विशेषपदानि
५८३ स्थाय, ३६॥
स्फुरित, १५३, १५४, १५९, १७४, १७५ स्थायि, ४३३
स्पोटन, १८९ स्थायिता, ४२६
स्मित, २१, १४७, १६८, १६९, स्थायिदृष्टयः, १३५ स्थायिनः, ४०२, ४२६, ४४१, ४४२, स्मृति, ४०३, ४२९, ४३९, ४५२,४५५ ४४३, ४६५, ४७१
स्मृतिनाश, ४४९ स्थायिभाव, ४०१, ४०५, ४१६, ४२९ जस्तालम, ३१९, ३३० स्थायिभावज, १३५
स्वनिष्ठानि, १५५ स्थायिभेद, ४१३
स्वप्न, ४१०, ४१६, ४५५, ४५९ स्थायिरूप, ३९८
स्वभावाभिनय,८७,९२,१५४,१७१,४४१ स्थायिनी, ४०६, ४३५
स्वरभा, ४२०, ४२२ स्थायी, ३७९,३९९,४०२,४१३,४२०, स्वरभेद, ४०३, ४३३, ४६८, ४७. ४२५, ४२६, ४२०, ४३६, ४३९, स्वल्पाभिनय, ८. ४४०, ४५५, ४७२
स्वसंमुखतल, १८२ स्थाय्यादि, ४०७
स्वसमुत्था, ४१८, ४७ स्थितावर्त, २२०, २७९, २८३, ३५०, स्वस्तिक, २६, ३१, ५०, ५३, ५४, ३५१, ३५७
५५, ५८,५९,६१,६२, ६३, ६६, स्थिति, ३१७
७६, ७७ ७९,९९,१०१,१०७, स्थिरहस्त, २५६, २५०
१०८, १०९, ११३, ११४, ११५, स्थूलकर्ण, ४१८
१२०, १२१, १२२, १२३, १९२, स्थैर्य, ५, ४२९, ४३१, ४४४ १९४, १९७, १९८, १९९, २००, स्थर्ययोगिनः, ४२७
२०१, २०३, २०५, २०९, २१५, स्निग्धा, १३५, १४०
२१९, २२२, २२९, २३९, २३६, स्नेह, ४१
२४८, २५८, २६३, २६८, २७१, स्पन्द, १५३, २८७,४१६
२८१, २८३, २८८, २९५, ३०२, स्पन्दन, १४३, ४५६
३०५, ३०९, ३१५, ३१९, ३२९ स्पन्दित, १९४, ३४९, ३५०, ३५१, स्वस्तिकत्रिकोण, ११२, १२३ ३५२, ३५७, ३५८
स्वस्तिकबन्धन, ११९, १२१, १२३, २९९ स्पन्दिता, २७९, २८८
स्वस्तिकरेचित, १९२, १९४, २०३, स्फुरिका, २८१, ३०४
२५३, २६९, २७२, २७४
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संगीतरत्नाकर:
हर्ष,
२१, २२, ९५, १५१, १५३, ३४२, ४०३, ४०३, ४३९, ४४९, ४५४, ४६९, ४६१, ४७०, ४७१
हर्षगोचर, ४३६
स्वाप, १७९, ४४९
स्वाभाविक, २५, ९२, १५१, १५४, हसित, ४१६ ४१७, ४२०
हस्त,
१५
५८४
स्वास्तिकाङ्घ्रि, २४३ स्वस्तिकाश्लेषचालनम, १११, ११४, ११५
स्वस्थ, १६२, ३१९, ३३६
स्वहेतुत्थ, ४३५
१५९, १६५, १८०
स्वाभाविकी, १५०, १६१
स्वेद, ४०३, ४२५, ४३६, ४४१, ४५४,
४५६, ४६८, ४७०
द
स्थान, ३२९
हंसपक्ष, २६, ४७, ५८, ५९, ६०, ६१, ६५, ७२, ७५, १०७, १०८, १९९, २०३, २३१, २७५
हंसयुग्म, ४०७
हंसास्य, २६, ४६
हस्तकरण, १८३
हस्तपादप्रचारी, ३२६
हस्तप्रचार, ८५
हस्तप्रसारण, ७२
हस्ताभिनय, ८६
हास, ८८, १५१, ४०४, ४१६, ४४३, ४४९
हासनीय, ४१६
हास्य, २२, ९६, १२६, १२७,
१५६, १६१, १७७, १८१, ३८९, ४००, ४०४, ४१६, ४१७, ४१८, ४४२
हनुचालन, ४६० इनुदेश, ४७
हनुधारण, २१, ४७
हर, ३, ४
हरप्रिय, १४०, २६४, २८५
हरिणत्रासिका, २८०
हरिणप्लुत, १९३, १९४, २२८, २८१, हेला, १५१
३०२३०९
क्षेमराज, १२३
हास्यरस, ४१६
हास्या, १३५, १३६, १६६
हिका, ८८, ४४९, ४६४
हुडुक्कावाय, ९६
हृष्टा, १३५, १४०
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RECURRENCES AND PARALLELS
A number of verses in the Sangitaratnākara chapter 7 are also found in other works. We are giving here the references as regards to important books considered older than the Sargitaratnākara. These would therefore be borrowings.
SR NS
stands for Sangita Ratnākara
The Natya Sastra The Abhinaya Darpaņa of Nandikes vara The Visqu Dharmottara
AD VD
, ,
AD
1
AD 3
AD 3
AD
4
आङ्गिकं भुवनं यस्य वाचिकं सर्ववाङ्मयम् । आहार्य चन्द्रतारादि तं नुमः सात्त्विकं शिवम् ॥ sR 1 नाटयं नृत्यं तथा नृत्तं त्रेधा तदिति कीर्तितम् । SR 4
, नृत्तं , नृत्यमग्रे शंभोः प्रयुक्तवान् । प्रयोगमुद्धतं स्मृत्वा स्वप्रयुकं ततो हरः । तण्डना स्वगणाग्रण्या भरताय न्यदीशत् । SR 5
" " " , न्यदीदिशत् । लास्यमस्याग्रतः प्रीत्या पार्वत्या समदीदशत् । SR 6
" " " " समदीदिशत् । बुद्धाथ ताण्डवं तण्डोर्मत्येभ्यो मुनयोऽवदन् । SR 6 पार्वती स्वनुशास्ति स्म लास्य बाणात्मजामुशाम् । SR 7 तया द्वारवतीगोप्यस्ताभि: सौराष्ट्रयोषितः। SR 7 ताभिस्तु शिक्षिता नार्यों नानाजनपदाश्रिताः। SR 8
, तत्तद्देशीयास्तदशिष्यन्त योषितः ।
AD 4
AD 5 AD 6
AD 6
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५८६
SANGITARATNĀKARA एवं परंपराप्राप्तमेतल्लोके प्रतिष्ठितम् । SR 8 ऋग्यजु:सामवेदेभ्यो वेदाचाथर्वण: क्रमात् । sR 9
AD 7 AD 7
AD
8
AD 8
पाठयं चाभिनयान् गीतं रसान संगृह्य पद्मभः। SR9
, चाभिनयं , , , पङ्कजः । व्यरीरचत्त्रयमिदं धर्मकामार्थमोक्षदम् । sR 10 व्यरीरचच्छास्त्रमिदं , , । कीर्तिप्रागल्भ्यसौभाग्यवैदग्ध्यानां प्रवर्धनम् । औदार्यस्थैर्यधैर्याणां विलासस्य च कारणम् ॥ SR 11 दु:खार्तिशोकनिवेदखेदविच्छेदकारणम् ।। SR 11 अपि ब्रह्मपरानन्दादिदमभ्यधिक ध्रुवम् ॥
" " " , मतम् । द्रष्टव्ये नाट्यनृत्ये ते पर्वकाले विशेषतः ।
AD 9 AD 10
AD 10
AD 12
SR
14
AD 12
नृत्तं त्वत्र नरेन्द्राणामभिषेके महोत्सवे। यात्रायां देवयात्रायां विवाहे प्रियसङ्गमे । नगराणामगाराणां प्रवेशे पुत्रजन्मनि ॥
SR
15
AD 13, 14
AD 14 AD 38
ब्रह्मणोकं प्रयोक्तव्यं मगल्यं सर्वकर्मसु । आङ्गिको वाचिकस्तद्ववाहार्यः सात्विकोऽपरः।। चतुर्धाभिनयस्तवाङ्गिकोऽदर्शितो मतः ॥ SR
" , " जैर्निदर्शितः । वाचा विरचितः काव्यनाटकादिषु वाचिकः। SR आहार्यो हारकेयूरकिरीटादिविभूषणम् । SR
वेषादिभिरलंकृतिः।
AD 38
AD 39
21 21
AD 40
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RECURRENCES AND PARALLELS
५८७
सात्त्विक: सात्त्विक वर्भावुकेन विभांवितः। SR 22 सात्त्विक: सात्त्विक भौवर्भावक्षेन विभावितः ।
AD 40
AD 42
अमान्यत्र शिरो हस्तौ वक्ष: पावें कटीतटम् । sR 38 __ " " " , पार्टी कटीतटौ। पादाविति षडुक्कानि स्कन्धावप्यपरे जगुः। SR
, , ग्रीवामप्यपरे ,, । प्रत्यङ्गानि पुनींवा बाहू पृष्ठं तथोदरम् । SR प्रत्यङ्गान्यथ च स्कन्धौ , , ऊरू जो षडित्याहरपरे मणिबन्धको ।
39
AD 43
AD 43
AD 44
AD 44
AD 45
AD 46
42
AD 47
जानुनी भूषणानीति त्रयमत्राधिकं जगुः ।
, कूपरावेतत् , , दृष्टिभूपुटताराश्च कपोलो नासिकानिलः । • , , , नासिकाहन् ।
अधरो दशना जिह्वा चिबुकं वदनं तथा। पाणिगुल्फो तथाकुल्यः करयोः पादयोस्तले। निश्चितं परावृत्तमुत्क्षिप्ताधोमुखे तथा ।
" , मुक्षिप्तं चाप्यधोमुखम् । लोलितं चेति विज्ञेयं चतुर्दशविधं शिरः ।
, , , त्रयोदशविधं ,, । यदधः सकृदानीतमवधूतं तदुध्यते ।
, सकृदाक्षिप्त ,, तदिष्यते। शिरः स्यादश्चितं किंचित्पार्श्वतो नतकंधरम् । किंचित्पावनतग्रीवं शिरो विवेयमच्चितम् ।
NS 8-18
NS 8-18
NS 8-28
sR 64
VD 3.24.8
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५८८
उत्क्षिप्त बाहुशिखरं ममग्रीवं निहञ्चितम् । उत्क्षिप्त बाहुशिखरं निश्चित शिरोधरम् । तथाचितशिरोधरम् ।
"
دو
19
ور
पताकस्त्रिपात कोऽर्धचन्द्राख्यः कर्तरीमुखः । SR 78
त्रिपताकश्च तथा वै कर्तरीमुखः । पिताकोsपताकः कर्तरीमुखः ।
11
SANGITARATNAKARA
हंसास्यो हंसपक्षश्च भ्रमरो मुकुलस्तथा । संदेशो मुकुलस्तथा ।
"
39
SR 65
अञ्जलि कपोताख्यः कर्कटः स्वस्तिकस्तथा ॥ SR 82 अञ्जलिa कपोतच
NS 9-8
"
SR 80
NS 9-7
डोल: पुष्पपुटोत्सङ्गौखटकावर्धमानकः । गजदन्तोऽवहित्थव निषधो मकरस्तथा ॥ वर्धमानश्चेति हस्ता: संयुताः स्युखयोदश । SR 83-84
NS 9-9
चतुरश्रौ तथोत्तौ हस्तौ तलमुखाभिधौ । चतुरश्रौ तथोत्तौ तथा तलमुखौ स्मृतौ । चतुरस्तथात्तौ तथा तलमुखौ स्मृतौ ।
दोलः पुष्पपुटश्चैव तथा मकर एव च । गजदन्तोऽवहित्थच वर्धमानस्तथैव च । एते वै संयुक्ता हस्ताः मया प्रोक्तास्त्रयोदश । Ns 9-10
NS 9-9
SR 85
स्वस्तिकौ विप्रकीर्णाख्यावरालखटकामुखौ । SR 85 स्वस्तिकौ विप्रकोण चाप्यरा लखटका मुखौ । आविद्धवक्त्रौ सूच्यायौ रेचितावर्धरेचितौ । SR 86
INS 8-30
VD 3-24-9
SR 86
NS 4 VD 3-26-1
AD 89
VD 3-26-3
VD 3-26-5
VD 3-26-6
VD 3-26-6
VD 3-26-7
NS 9-11
VD 3-26-8
NS 9-11
NS 9-12 VD 3-26-9
नितम्बौ पल्लव केशबन्धावुत्तानवचितौ । उत्तानवचितौ चैव पलत्रौ च तथा करौ । नितम्बावपि विज्ञेयौ केशबन्धौ तथैव च ।
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NS 12-13
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________________
RECURRENCES AND PARALLELS
लताख्यौ करिहस्तश्च पक्षवञ्चितकाभिधौ । SR 87 लताख्यौ च तथा प्रोक्तौ करिहस्तौ तथैव च । लताख्यौ करिहस्तौ च पक्षद्योतावहित्थकौ । पक्षप्रद्योतको दण्डपक्षौ गहडपक्षकौ । पक्षवचितकौ चैव पक्षप्रद्योतकौ तथा । ऊर्ध्वमण्डलिनौ हस्तौ पार्श्वमण्डलिनावपि । उरोमण्डलिनौ स्यातामुरःपाश्वार्धमण्डले ॥ ऊर्ध्वमण्डलिनौ चैव पार्श्वमण्डलिनौ तथा । उरोमण्डलिनौ चैव उर: पार्श्वार्धमण्डले ॥
SR 88
SR 89
मण्डलजौ चैव पार्श्वमण्डलजावपि । पार्श्वार्धमण्डौ चैव उरोमण्डलको तथा ॥ मुष्टिकस्वस्तिकान्यौ नलिनी पद्मकोशकौ । अलपद्म वुल्बणौ च ललितौ वलितावपि ॥ मुष्टिकः स्वस्तिकश्वापि नलिनीपद्मकोशकौ । अलपल्लवोल्बणौ च ललितौ वलितौ तथा ॥ इष्ट (मुष्टि: स्वस्तिकान्यौ तथा वै पद्मकोशकौ । आल (अल) पल्लवसंज्ञौ च तथा चोल्बणसंज्ञितौ ॥ भालस्वेदापनयने त्रिपताकोदितेषु च । स्वेदस्य चापनयने शेषे चैष करो भवेत् । तलमध्यस्थितैर्लमैरङ्गुल|ग्रैरगोपिते: । अङ्गुल्यो यस्य हस्तस्य तलमध्येऽग्रसंस्थिताः । मुष्टेरूर्ध्वकृतोऽङ्गुष्ठः शिखरः संप्रयुज्यते । SR 128 ऊर्ध्वाङ्गुष्टोऽयमेव स्यात्करः शिखरसंज्ञितः ।
SR 127
SR 128
SR 87
कानामिका वा भवेदूर्ध्वा कनीयसी । SR 140 कालेऽनामिका वा तथा चोर्ध्वा कनीयसी ।
SR 147
ऊर्ध्वप्रसारिता यत्र खटकामुखतर्जनी । प्रसृता तर्जनी चात्र यदा सूचीमुखस्तदा ।
NS 13
VD 3-26-10
NS 14
Ns 15
VD 3-26-11
NS 9-16
VD 3-26-12
VD 3-26-25
VD 3-26-27
VD 3-26-29
VD 3-26-38
VD 3-26-33
५८९
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५९०.
SANGĪTARATNĀKARA
लमास्नेताग्निसंस्थानास्तर्जन्यङ्गुष्ठमध्यमाः। SR 161 तर्जनीमध्यमाङ्गुष्ठा त्रेतामिस्था निरन्तरम् । भवेयुर्हसवक्त्रस्य शेषा ह्यन्याः प्रसारिताः ।
VD3.26.45,46
अयं मृदुनि निःसारे श्लक्ष्णे ऽल्पे शिथिले लघौ ।SR 162 श्लक्ष्णलाघवनिःसारमार्दवेषु प्रयोजयेत् ।
vD 3.26-46
अङ्गुष्ठमध्यमाङ्गुल्यौ श्लिष्टाने तर्जनी नता। SR 167 मध्यमाष्ठसंदेशो वका चैव प्रदेशिनी । ऊर्ध्वमन्या: प्रकीर्णाश्च भ्रमरश्च तदा भवेत् ॥
VD 3.26-44
अरालाङ्गुष्ठतर्जन्यौ लग्नाग्रे निम्नतां गतः । किंचिच्चेत्तलमध्यस्थस्तदा संदंश उच्यते । स त्रेधा स्यादप्रजश्च मुखज: पार्श्वज: क्रमात् ॥ SR 175, 176 तर्जन्यकुष्ठसंदंशस्त्वरालस्य यदा भवेत् । निभुमतलमध्यश्च स संदंश इति स्मृतः। संदंशत्रिविधो आयस्त्वग्रजो मुखजस्तथा । तथा पाचकृतश्चैव . . . . .।
VD 3-26-49,50
एकस्य मणिबन्धेऽन्यमणिबन्धस्थितौ करौ। देहस्य वामपार्श्वस्थावुतानौ स्वस्तिको मतः। SR 192, 193 मणिबन्धनविन्यस्तावरालौ वर्धमानकः । उत्तानो नतपार्श्वस्थौ स्वस्तिकः परिकीर्तितः।
VD 3-26-57
गगने सागरादौ च विस्तीर्णे संप्रयुज्यते । SR 194 विस्तीर्ण सर्वमेतेन ऋतवो गगनं घनम् । समुद्रश्चाभिनेयः स्यात् . . . .
VD 3.26-58
लम्बमानौ पताकौ तु श्लथांसौ शिथिलागुली। डोलो भवेत् . . . . . .I SR 195 पताको लम्बितौ हस्तौ दोति परिकीर्तितः। Vo 3.26-62
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RECURRENCES AND PARALLELS
मुकुलस्य कपित्थेन वेटनानिषधो भवेत्। SR 209 मुकुलं तु यदा हस्तं कपित्थं परिवेष्टयेत् ।
VD 3-26-61
उपर्युपरिविन्यस्तौ यत्रान्योन्यमधोमुखौ ।। ऊर्वाङगुष्ठौ पताकाख्यौ करौ स मकरः स्मृतः ॥ स नकमकरादीनां कव्यादद्वीपिनामपि। सिंहादीनामभिनये नदीपूरस्य चेष्यते ॥ SR 212, 213 पताकौ तु यदा हस्तौ मूर्त (ऊर्ध्व) हस्तावधोमुखौ । उपर्युपरि विन्यस्तौ तदा स मकरः करः । सिंहव्याघ्रमृगाद्यानां कर्तव्येऽभिनये भवेत् ॥
VD 3-26-64,65
इंसपक्षौ स्वस्तिकत्वं प्राप्तौ यदि पराङ्मुखौ। SR 214 यो वै वर्धमानस्तु हंसपक्षौ पराङ्मुखौ ।
VD 3.26.68 पुरोमुखौ समस्कन्धकूपरौ खटकामुखौ । स्थितौ वक्ष:पुरोदेशे वक्षसोऽष्टालान्तरे । चतुरश्राविति प्रोकौ गाद्याकर्षणे करौ। SR 216, 217 वक्षसोऽष्टालस्थौ तु प्राङ्मुखौ खटकामुखौ। समानकूर्परांसौ तु चतुरौ प्रकीर्तितौ ।
VD3.26-71 प्रसारितोत्तानतलावुच्येते रेचितौ करौ । अथवा रेचितौ प्रोक्तो हंसपक्षौ द्रुतभ्रमौ। SR 235 रेचितौ चापि विज्ञेयो हंसपक्षौ द्वतश्रमौ । प्रसारितोत्तानतलो रेचितावेव संज्ञितौ ॥
VD 3-26-77 नतोन्नती पद्मकोशौ शिथिलौ मणिबन्धयोः । SR 241 मणिबन्धननिर्मुक्तौ शिथिलौ पल्लवौ स्मृतौ ।
VD3-26-80 पताको डोलितौ तिर्यप्रसृतौ तौ लताकरौ । अनयोः करयोः केशबन्धयोश्च नितम्बयोः । त्रिपताकाकृति केचिदाचार्याः प्रतिजानते । SR 246, 247 तिर्यप्रसारितावेव पार्श्वसंस्थौ तथैव च । लताख्यौ तु करौ ज्ञेयौ मृत्ताभिनयनं प्रति ।
VD 3.26-82
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५९२
SANGĪTARATNĀKARA विपताको कटीशीर्षे न्यस्ताग्रौ पक्षवचिती । SR 255 कटीशीर्षनिविष्टायौ त्रिपताको यदा करो। पक्षवञ्चितकौ . . . . . . .।
VD3.26-84 पल्लवी शीर्षदेशस्थौ ललितौ कलितौ बुधैः । SR 278 पल्लवौ तु शिरोदेशे संप्राप्ती ललिताविति ।
VD 3.26-90 निर्भुमं निम्नष्टत्वादुमतं स्तब्धमप्युरः। SR 300 स्तब्धं च निम्नष्ठं च निर्भुनं नाम तत्स्मृतम् ।
VD 3-24-27 माने च सत्यवचने स्तम्भे विस्मयवीक्षिते । SR 300 स्तम्भे सविस्मये माने विषादे च तथेष्यते॥
VD 3.24.28
स्याद्वक्षः सममाभुनं निर्भुमं च प्रकम्पितम् । उद्वाहितं पश्चधेति तेषां लक्ष्माभिदध्महे ॥ SR 296, 297 आभुममय निर्भुमं तथा चैव प्रकम्पितम् । उद्वाहितं समं चैव पञ्चधोरः प्रकीर्तितम् ।
VD 3.24-25,26 कम्पितोद्वाहिता छिन्ना विकृता रेचिता तथा। कटी पञ्चविधेत्युक्का तलक्ष्म व्याहरेऽधुना || SR 307 प्रकम्पिता च छिन्ता च निवृत्ता रेचिता तथा। उद्वाहिता चैव कटिनूते पञ्चविधा स्मृता ॥
VD3-24-38 द्रुतं गतागते पार्षं दधती कम्पिता मता। तां कुब्जवामनादीनां गमने च प्रयोजयेत् ॥ SR 308 तिर्यग्गतागते क्षिप्रं विलेया च प्रकम्पिता।
VD 3.24.39 नीचवामनकुब्जानां गतौ कार्या प्रकम्पिता।
VD 3-24.41 छिन्ना तिर्यमुखे पार्वे मध्यस्य वलनात्कटी । SR 310 मध्यस्य वलनाचैव छिन्ना संपरिकीर्तिता।
VD 3-24-39 व्यायामे संभ्रमे चैषा व्यावृत्तप्रेक्षणादिषु। SR 310 व्यायामे त्वथ संप्राप्ते व्यावृत्तप्रेक्षितेषु च ।
VD 3-24.42 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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सर्वतोभ्रमणादुक्का रेचिता भ्रमणे भवेत् । SR 312 सर्वतोभ्रमणाचैव रेचितेत्यभिधीयते ।
समा निरृत्ता वलिता रेचिता कुचिताश्चिता ।
त्रयश्रा नतोन्नता चेति ग्रीवा नवविधा भवेत् ।
समा स्वाभाविकी ध्याने जपे कार्ये स्वभावजे । SR 329, 330
समा नतोता श्यश्रा रेचिता कुञ्चिताचिता ।
वलिता च निवृत्ता च प्रीवा नवविधार्थतः । समा स्वाभाविकी ध्यानस्वभावजपकर्मसु ।
निवृत्तेत्युच्यते सा स्यात्स्वस्थानाभिमुखादिषु । SR 331 निवृत्ताभिमुखीभूता स्वस्थानाभिमुखादिषु ।
पार्श्वन्मुखी स्वाद्वलिता श्रीवाभङ्गे तथेक्षणे । SR 332 च वीक्षणे ।
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RECURRENCES AND PARALLELS
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33
39
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रेचिता विधुतभ्रान्ता वर्तुले मथने तथा । हावे मथनवृत्तयोः ।
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आकुचिता कुञ्चिता स्यान्मूर्धभारे स्वगोपने । SR 333 कुचिताकुचिते मूर्ध्नि घारिते गलरक्षणे ।
अचिता प्रसृता लोला केशाकर्षेऽर्धवीक्षणे । अञ्चितापसृतोद्बन्ध केशाकर्षोच्चदर्शने ।
SR 332
नतावनम्रालंकारबन्धे कण्ठावलम्बने । नता नतस्यालंकारबन्धे कण्ठावलम्बने ।
SR 333
या पार्श्वगता खेदे पार्श्वेक्षास्कन्धभारयोः । SR 334 या पार्श्वगता चैव स्कन्धभारे च दुःखिते ।
SR 334
क्षामं खल्लं तथा पूर्ण कथितं कुञ्चितं समम् । SR 354 क्षामं फुलं च पूर्ण च कथितं कुञ्चितं समम् ।
75
VD 3-24-40
NS 8-167, 168
NS 8-172
NS 8-171
NS 8-170
INS 8-171
NS 8-171
INS 8-169
NS 8-168
NS 8-133
५९३
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५९४
SANGĪTARATNĀKARA
VD 3-24.43,44
VD 3-24-50
VD 3-24-51
VD 3-24.51
कम्पितो वलितः स्तब्धोद्वर्तितौ च निवर्तितः । SR 357 कम्पनं वलनं चैव स्तम्भनोद्वर्तने तथा । विवर्तनं च पञ्चैव . . . . .। आवर्तिता नता क्षिप्तोद्वाहिता परिवर्तिता। SR 361 आवर्तितं नतं क्षिप्तं चोद्वाहितमथापि च।। परिवृत्तं तथा पञ्च . . . . . .। वामे दक्षिणत: पादे दक्षिणे वामतः कृते । मुहुरावर्तिता प्रोक्ता . . . . . SR 363 आवर्तितं तु व्यत्यासाद्वामदक्षिणजङ्घयोः । नमज्जानुर्नता जङ्घा स्थानासनगतादिषु। SR 364 जान्धोराकुश्चनाश्चैव नतं ज्ञेयं प्रयोक्तृभिः । बहिर्विक्षेपत: क्षिप्ता व्यायामे ताण्डवे च सा ISR 364 विक्षेपाच्चैव जङ्घाया: क्षिप्तमित्यभिधीयते । प्रतीपं गच्छतो जङ्घा ताण्डवे परिवर्तिता। SR 365 प्रतीपनयनं यत्र परिवृत्तं तदिष्यते । सत्त्वमुद्रिती दृष्टिीप्ता विकसिता स्थिरा। SR 398 सत्त्वमुद्रिती हप्ता दृष्टित्साहसंभवा । आकेकरा दुरालोके स्याद्विच्छिन्ने च वस्तुनि । SR 421 आकेकरा दुरालोके विच्छेदप्रेक्षितेषु च । अनवस्थिततारा च विकोशा कीर्तिता बुधैः । SR 422 अनवस्थिततारा च विकोशा दृष्टिरिष्यते। दृष्टिविकसितापाङ्गा क्षामीभूतविलोचना। SR 427 दृष्टिविकसितापागा मदिरा तरुणे मदे।
VD3-24-52
VD 3-24-53
NS 8.57
NS 92
NS 8-79
Ns 8.82
भ्रमणं वलनं पातश्चलनं च प्रवेशनम् । निवर्तनं समुदत्तं निष्कामः प्राकृतं तथा। SR 447,448 भ्रमणं वलनं पातश्चलनं संप्रवेशनम्। निवर्तनं समुदत्तं निष्कामः प्राकृतं तथा।
NS 8-95
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चलनं कम्पनं प्रोक्तमथ ज्ञेयं प्रवेशनम् । चलनं कम्पनं ज्ञेयं प्रवेशोऽन्तःप्रवेशनम् ।
RECURRENCES AND PARALLELS
समं साच्यनुवृत्तावलोकितानि विलोकितम् । SR 455 समं साच्यनुवृत्ते च ह्यालोकितविलोकिते ।
उल्लोकितालोकिते च प्रविलोकितमित्यपि । प्रलोकितोल्लोकिते वाप्यवलोकितमेव च ।
रूप निर्वर्णनायुक्तमनुद्धतं मतं मुनेः । रूपनिर्वर्णनायुक्त मनुवृत्तमिति स्मृतम् ।
सहसा दर्शनं यत्तदालोकितमुदीरितम् । सहसा दर्शनं यत्स्यात्तदालोकितमुच्यते ।
11 "1
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SR 450
12
SR 455
विवर्तित: कम्पितच विसृष्टो विनिगूहितः । संदष्टकः समुद्गश्वेत्यधरः षड्विधो मतः ॥ विवर्तनं कम्पनं च विसर्गो विनिगूहनम् । संदष्टकं समुद्रश्च षट्कर्माण्यधरस्य तु । विवर्तनं तथा कम्पो विमर्शोऽथ विगूहनम् । संदष्टश्च समुद्रश्च कर्माण्यधरजानि च ।
SR 457
SR 460
स्वाभाविकी नता मन्दा विकृष्टा च विकूणिता । SR 465 सोच्छ्रासेत्युदिता
.1
।
नता मन्दा विकृष्टा च सोच्छ्रासा च विघूर्णिता । स्वाभाविकी चेति. नता मन्दा विकृष्टा च सोच्छ्रासा कूणितानता । स्वाभाविके च
SR 488
NS 8-97
NS 8-103
NS 8-103
NS 8-105
NS 8-105
VD 3-25-50
NS 8-126
VD 3-25-62,63
NS 8-138
५९५
VD 3-25-69, 70
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SANGĪTARATNĀKARA
समुद्स्तु भवेदोष्ठसंपुटो दधदुन्नतिम् । स्यात्फूत्कारेऽनुकम्पायां चुम्बने चाभिनन्दने । SR 493,494 समुद्रस्त्वनुकम्पायां चुम्बने चाभिनन्दने।
NS 143
कुट्टनं खण्डनं छिन्नं चुक्कितं ग्रहणं समम् । दष्टं निष्कर्षणं चेति दन्तकर्माष्टकं जगुः। SR 497 कुटनं खण्डनं छिन्नं चिकितं लेहनं समम् । दष्टं च दन्तक्रियया . . . . .। तलपुष्पपुटं लीनं वर्तितं वलितोरु च। SR 550 तलपुष्पपुटं पूर्व वलितं वलितोहच।
NS 8-144
NS 4.34
अपविद्धं समनखोन्मत्ते स्वस्तिकरेचितम् । SR 551 अपविद्धं समनखं लीनं स्वस्तिकरेचितम् ।
NS 4.35
मत्तल्लि चार्धमत्तलि स्यादेचकनिकुट्टकम् । sR 553 मत्तल्ली वर्धमतली स्यादेचकनिकुट्टकम् ।
VD 3-20.44
ललाटतिलकं पार्शनिकुठं चक्रमण्डलम् । SR 557 ललाटतिलकं कान्तं कुच्चितं चक्रमण्डलम् ।
NS 4-44 ललाटतिलकं चैव कुण्डलं (कुचित)चक्रमण्डलम्।
VD 3:20.47 विवृत्तं विनिवृत्तं च पार्श्वक्रान्तं निशुम्भितम् । SR 558 Ns 4.46 परिवृत्तं नित्तं च पार्श्वक्रान्तं निकुञ्चितम् ।
VD 3-20-49 विद्यद्धान्तमतिकान्तं विक्षिप्तं च विवर्तितम् । SR 558 " ,, विवर्तितकमेव च ।
NS 4.46 प्रेहोलितं संनतं च सर्पितं करिहस्तकम् । SR 561 प्रेड्डोलितं नितम्बं च स्खलितं प(क)रि हस्तकम् INS 4.50 VD 3.20-52
NS 4.66
देहः स्वाभाविको यत्र पादौ समनखौ युतौ । SR 598 देहः स्वाभविको यत्र भवेत्समनखं तु तत् ।
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RECURRENCES AND PARALLELS
५९७
समपादा स्थितावर्ता शकटास्या च विच्यवा। SR 902 समपादा स्थितावर्ता शकटास्या तथैव च ।
NS 10-8
अध्यधिका चाषगतिरेडकाक्रीडिता तथा। SR 903 अध्यधिका चाषगतिर्विच्यवा च तथापरा ।
NS 10-8
अतिक्रान्ताप्यपक्रान्ता पार्श्वकान्ता मृगप्लुता। ऊर्ध्वजानुरलाता च सूची नपुरपादिका। SR 905 अतिक्रान्ता पक्रान्ता पार्श्वकान्ता तथैव च । ऊर्ध्वजानुश्च सूची च तथा नूपुरपादिका ॥
NS 10.11
वैष्णवं समपादं च वैशाख मण्डलं तथा । आलीढप्रत्यालीढेच स्थानानीति नरेषु षट् । SR 1019 वैष्णवं समपादं च वैशाख मण्डलं तथा । प्रत्यालीढं तथालीढं स्थानान्येतानि षण्नृणाम् । वैष्णवं समपादं च वैशाख मण्डलं तथा । प्रत्यालीढमथालीढं षट् पुंसां स्थानकानि तु ।
NS 50
VD 3-23.1
एक: समस्थिता पादस्यश्रः पक्षस्थितोऽपरः । साद्वितालान्तरालो जला किंचिन्त्रता भवेत् । सौष्ठवं यत्र तोयं वैष्णवं विष्णुदेवतम् । प्रकृतिस्थस्य संलापे नानाकार्यान्तरान्विते । SR 1031, 1032, 1033
द्वौ तालावर्धतालश्च पादयोरन्तरं भवेत् । तयोः समुत्थितस्त्वेकस्यश्रपादस्थितोऽपरः । किंचिदधितगडं च सौष्ठवाशपुरस्कृतम् । वैष्णवस्थानमेतद्धि विष्णुरेवाधिदैवतम् । स्थानेनानेन कर्तव्यः संलापस्तु स्वभावतः । NS 10-51. 52.53 स्वभावसंश्रित: पादत्र्यंश: पक्षगतोऽपरः । किंचिदश्चितजश्व वैष्णवं स्थानमुच्यते। स्थानेनानेन कर्तव्यः संलापस्तु स्वभावतः।
VD 3.23.2,3
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५९८
SANGĪTARATNĀKARA प्रधानं सौष्ठवं पादावेकतालान्तरौ समौ । यत्र तत्समपाद स्याच्चतुराननदैवतम्। sR 1041 समपादे समौ पादौ तालमात्रान्तरस्थितौ । स्वभावसौष्ठवोपेतौ ब्रह्म चात्राधिदेवतम् ।
NS 10-57,58 समपादं तु विज्ञेयं समस्तालान्तरः पदैः । स्वभावसौष्ठवोपेतं कब्रह्माधिदैवतम् ।
VD 3-24-3,4 धनुर्वघ्रादिशनाणां प्रयोगे गजवाहने। - SR 1047 धनुर्वजाणि शस्त्राणि मण्डलेन प्रयोजयेत् ।
NS 10-65 धनुर्वञप्रहरणं मण्डलेन प्रयोजयेत् ।।
VD 3-24.10
वामो यत्र निषण्णोरम्बरे पूर्वमानतः । दक्षिणवरणवाग्रे पश्चतालं प्रसारित: । यौ द्वावपि तद्विद्यादालीढं रुद्रदेवतम् । SR 1049, 1050 अस्यैव दक्षिणं पादं पचतालान् प्रसार्य च । आलीढं स्थानकं कुर्याद्वद्रश्वात्राधिदेवतम् ।
NS 10-66,67 आदौ च दक्षिणं पादं पञ्चतालं प्रसारयेत् । आलीढं नाम तत्स्थानं रुद्रकाल्यत्र देवतम्।
VD 3-24.11 मालीढाझविपर्यासात्प्रत्यालीढमुदीरितम् । SR 1052 आलीढपरिवर्तस्तु प्रत्यालीडमिति स्मृतम् ।
NS 10-69 आलीढं परिवर्तन्ते प्रत्यालीढमिति स्मृतम् ।
VD3-24.16 धामस्तलान्तरस्यश्री दक्षिणश्वरण: समः । प्रसभं वदनं वक्षः समुन्नतमनुस्मता । कटीनितम्बगो हस्तो दक्षिणोऽन्यो लताकरः। SR 1055, 1056 तालमात्रान्तरन्यस्तस्यत्र:(व)क्षगतोऽपरः । प्रसन्नमाननमुर: समं यत्र समुन्नतम् ।
VD 3-24.19, 20 लतानितम्बगौ हस्तौ स्थानं ज्ञेयं तदायतम् । रगावतरणारम्भे पुष्पाञ्जलिविसर्जने। SR 1058 रसावतरणे ह्येतत्तथा पुष्पाजलौ भवेत् ।
D 3-24-20 Scanned by Gitarth Ganga Research Institute
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RECURRENCES AND PARALLELS
५९९
भारतः सात्वतो वार्षगण्य: कैशिकसंज्ञकः। SR 1125 भारतः सात्वतश्चैव वार्षगण्योऽथ कैशिकः ।
NS 10-71
भ्रमरास्कन्दितावर्तशकटास्यानि चाहितम् । समोत्सरिमध्यर्धमेडकाक्रीडितं ततः। पिटकुट्ट चाषगतं भौमानीति दशावदन् । SR 1143, 1144 भ्रमरास्कन्दिते स्यातां मार्दवं च ततः परम् । समासरितमित्याहुरेडकाक्रीडितं तथा । पिष्टकुटुं च विज्ञेयं तथा चाषगतं पुनः। VD 3-20-26, 27, 28
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