________________ संगीतरनाकरः यस्यां पुरोऽधिमुक्षिप्य ललाटस्योपरि द्रुतम् // 1001 // भ्रामयित्वा भुवि न्यस्येद्विद्युभ्रान्ताममूं विदुः / ___ इति विद्युगान्ता (1) अघि कुश्चितमुत्क्षिप्य पुरो विस्तार्य गतः // 1002 // विन्यसेदवनौ यत्र पुरःक्षेपा भवेदसौ / इति पुर:क्षेपा (2) पुरो गगनभागे चेत्प्रसार्य चरणं मुहुः // 1003 // आकुञ्चयेत्तदा चारी विक्षेपा शाहिणोदिता / इति विक्षेपा (3) (क०) विद्युभ्रान्तादीनामेकोनविंशतिचारीणामाकाशिकीत्वमाकाशे व्यापारपाचुर्यादित्यवगन्तव्यम् // 1001-1016 // (सु०) अथाकाशिकी विद्युभ्रान्तां लक्षयति--यस्यामिति / यत्र पुरत: पादमुत्क्षिप्य, ललाटोपरि तूर्णं भ्रामयित्वा भूमौ न्यस्येत ; सा विद्युद्भ्रान्ता // -1001, 1001. // इति विद्युझान्ता (1) (सु०) पुरःक्षेपां लक्षयति-अद्धिमिति / यत्र कुश्चितं पादमुत्क्षिप्य, पुरत: वेगेन विस्तार्य भूमौ विन्यसेत् ; सा पुरःक्षेपा // 1002, 1002- // इति पुरःक्षेपा (2) (सु०) विक्षेपां लक्षयति-पुर इति / यत्र पुरतः गगनप्रदेशे पादं प्रसार्य मुहुराकुञ्चयेत् ; सा विक्षेपा // -1003, 1003- // इति विक्षेपा (3) Scanned by Gitarth Ganga Research Institute