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हरिवंशपुराणे
उत्सेधश्चाप्रतिष्ठाने पञ्चचापशतानि सः । निश्चितो निश्चितज्ञानैः सप्तमे नरके च यः ॥३३९॥ सप्तसु प्रतिबोद्धव्यः प्रथितः प्रथमादिषु । अवधेर्विषयस्तासु पृथिवीषु यथाक्रमम् ॥३४॥ योजनं त त्रयः क्रोशाः सार्धा क्रोशत्रयं तथा । साधौं तौ तवयं साधः क्रोशः क्रोशश्च निश्चितः॥३४१॥ क्रोशार्द्ध मृत्तिकागन्धः प्रथमे पटले व्रजेत् । तदधोऽधः क्रोशस्या वर्द्धते पटलं प्रति ॥३४२॥ पृथिव्योराद्ययोर्युक्ता जीवाः कापोतलेश्यया । तृतीयायां तयैवोर्ध्वमधस्तानीललेश्यया ॥३४॥ अधश्चोवं च संबद्धाश्चतुर्थ्यां नीललेश्यया । तयैवोपरि पञ्चम्यामधस्ते कृष्णलेश्यया ॥३४४॥ षष्ट्यां च कृष्णयैवोलमधः परमकृष्णया । सप्तम्यामुमयत्रामी क्लिष्टाः परमकृष्णया ॥३४५॥ स्पर्शनोष्णेन बाध्यन्ते नारका भूचतुष्टये । पञ्चम्यामुष्णशीताभ्यां शीतेनैवान्त्ययोर्भुवोः ॥३४६॥ आकारणोष्ट्रिकाकुम्नीकुस्थलीमुद्गरोपमाः । मृदङ्गनाडिकाकारा निगोदा पृथिवोत्रये ॥३४७॥ गोगजाश्वादिमस्त्राम द्रोण्यब्जपुटसंनिभाः । ते चतुथ्यां च पञ्चम्यां नारकोत्पत्तिभूमयः ॥३४८॥ केदाराकृतयः केचित्झल्लरीमल्लकोपमाः । केचिन्मयूरकाकारा निगोदास्तेऽन्स्ययोर्भुवोः ॥३४९॥ एकद्वित्रिकगव्यूतियोजनव्याससंगताः । शतयोजनविस्तीर्णास्तेषूत्कृष्टास्तु वर्णिताः ॥३५०॥ उच्छ्रायो वस्तुतस्तेषां विस्तारः पञ्चताडितः । निगोदानां समस्तानामिति वस्तुविदो विदुः ॥३५१॥
पृथिवीमें एक ही अप्रतिष्ठान नामका प्रस्तार है तो उसमें सन्देहरहित ज्ञानके धारक आचार्योंने नारकियोंकी ऊँचाई पाँच सौ धनुष प्रमाण निश्चित की है ॥३३२॥
प्रथम पृथिवीको आदि लेकर उन सातों पृथिवियोंमें यथाक्रमसे अवधिज्ञानका विषय इस प्रकार जानना चाहिए ।।३४०।। पहली पृथिवीमें अवधिज्ञानका विषय एक योजन अर्थात् चार कोश, दूसरीमें साढ़े तीन कोश, तीसरीमें तीन कोश, चौथीमें अढ़ाई कोश, पाँचवीं में दो कोश, छठवीं में डेढ़ कोश और सातवीं में एक कोश प्रमाण है ॥३४१॥ प्रथम पृथिवी सम्बन्धी पहले पटलकी मिट्टीकी दुर्गन्ध आध कोश तक जाती है और उसके नीचे प्रत्येक पटलके प्रति आधा-आधा कोश अधिक बढ़ती जाती है ॥३४२।। पहली और दूसरी पथिवीमें रहनेवाले नारकी कापोत लेश्यासे युक्त हैं। तीसरी पृथिवीके ऊध्वं भागमें रहनेवाले कापोत लेश्यासे और अधोभागमें रहनेवाले नील लेश्यासे सहित हैं ॥३४३॥ चौथी पृथिवीके ऊपर-नीचे दोनों स्थानोंपर तथा पांचवीं पृथिवीके ऊपरी भागमें नील लेश्यासे युक्त हैं और अधोभागमें कृष्ण लेश्यासे सहित हैं ॥३४४॥ छठवीं पृथिवीके ऊर्श्वभागमें कृष्ण लेश्यासे, अधोभागमें परमकृष्ण लेश्यासे और सातवीं पृथिवीके ऊपर-नीचे दोनों ही जगह रहनेवाले परमकृष्ण लेश्यासे संक्लिष्ट हैं अर्थात् संक्लेशको प्राप्त होते रहते हैं ॥३४५॥ प्रारम्भकी चार भूमियोंमें रहनेवाले नारकी उष्ण स्पर्शसे, पांचवीं भूमिमें रहनेवाले उष्ण और शीत दोनों स्पर्शोसे तथा अन्तकी दो भूमियोंमें रहनेवाले केवल शीत स्पर्शसे ही पीड़ित रहते हैं ॥३४६।। प्रारम्भकी तीन पृथिवियोंमें नारकियोंके उत्पत्ति-स्थान कुछ तो ऊँटके आकार हैं, कुछ कुम्भी (घड़िया), कुछ कुस्थली, मुद्गर, मृदंग और नाडीके आकार हैं ॥३४७|| चौथी और पांचवीं पृथिवीमें नारकियोंके जन्मस्थान अनेक तो गौके आकार हैं, अनेक हाथी, घोड़े आदि जन्तुओं तथा धोंकनी, नाव और कमलपुटके समान हैं ।।३४८।। अन्तिम दो भूमियोंमें कितने ही खेतके समान, कितने ही झालर और कटोरोंके समान, और कितने ही मयूरोंके आकारवाले हैं ॥३४९॥ वे जन्मस्थान एक कोश, दो कोश, तीन कोश और एक योजन विस्तारसे सहित हैं। उनमें जो उत्कृष्ट स्थान हैं वे सौ योजन तक चौड़े कहे गये हैं ॥३५०।। उन समस्त उत्पत्ति स्थानोंकी ऊँचाई अपने विस्तारसे पंचगुनी है ऐसा वस्तु स्वरूपको जाननेवाले आचार्य जानते हैं ॥३५१।। समस्त इन्द्रक विल तीन द्वारोंसे युक्त तथा तीन कोणोंवाले हैं। इनके सिवाय जो श्रेणीबद्ध और प्रकीर्णक निगोद हैं उनमें कितने ही दो द्वारवाले
१. नारकोत्पत्तिस्थानानि ।
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