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हरिवंशपुराणे
निषिद्धोऽपि बधाद्ररौद्रो रुद्रदत्तोऽवधीन्निजम् । अजं मदीयमप्यन्तं निनाय विनयच्युतः ॥ १०६ ॥ यान मार्यते तावत्पूर्वमेव प्रतीकृतः । मार्यमाणाय चादायि तस्मै पञ्चनमस्कृतिः ॥१०७॥ rai कृत्वा खं मामन्तस्तस्य निधाय सः । प्रविश्य स्वयमन्यस्यां शस्त्रहस्तो व्यवस्थितः ॥ १०८ ॥ भारुण्डैश्चण्डतुण्डाभ्यां भने नीते विहायसा । मखा काणेन मेऽन्यत्र नीत्वा क्षिप्ता क्षितौ ततः ॥ १०९॥ वेगाद्विपाद्यतां भखां निर्गतः स्वर्गसंनिभम् । रत्नरश्मिभिरुद्दीप्तमपश्यं द्वीपमायतम् ॥ ११०॥ पश्यता च दिशो रम्या पर्वताग्रे जिनालयः । प्रेक्षितो मरुदुद्धूर्तपताकाभिरिवानटन् ॥ १११ ॥ तंत्रातापनयोगस्थश्चारणः श्रमणोऽन्तिके । वीक्षितो वीक्ष्य यं प्राप प्रागप्राप्तं परं सुखम् ॥ ११२ ॥ ततः पर्वतमारुह्य त्रिः परीत्य जिनालयम् । वन्दिता जिनचन्द्राणां कृत्रिमाः प्रतिमा मया ॥ ११३ ॥ योगस्थो योगभक्त्याऽसौ वन्दितश्च मुनिर्मया । समाप्तनियमश्चाह दत्त्रासीनस्तदाशिषम् ॥ ११४ ॥ कुशली चारुदत्तात्र कुतः स्वप्न इवागमः । प्राकृतस्य यथा पुंसः सहायरहितस्य ते ॥ ११५ ॥ कुशलं नाथ ! युष्माकं प्रसादादिति वादिना । नत्वा विस्मितचित्तेन मयापृच्छयत सन्मुनिः ॥ ११६॥ प्रत्यभिज्ञा कुतो नाथ तव मद्विषया च ते । अपूर्वदर्शनं मन्ये मान्यमान्यस्य पावनम् ॥ ११७ ॥ इति पृष्टेन तेनोक्तं चम्पायां यस्तदा द्विषा । खेचरोऽमित गत्याख्यः कीलितो मोचित स्वया ॥ ११८ ॥
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उठाकर सुवर्णद्वीपमें डाल देंगे ||१०४ - १०५ ।। रुद्रदत्त बड़ी दुष्ट प्रकृतिका था इसलिए मेरे रोकनेपर भी उसने अपना बकरा मार डाला और विनय से च्युत हो मेरे बकराका भी अन्त कर दिया ॥ १०६ ॥ मेरा बकरा जबतक मारा नहीं गया तबतक मैंने पहले उसके मारनेका पूर्णं प्रतिकार कियारुद्रदत्तको मारनेसे रोका परन्तु जब मारा ही जाने लगा तब मैंने उसे पंचनमस्कार मन्त्र ग्रहण करा दिया ॥ १०७॥ रुद्रदत्त ने मृत बकरोंकी भाथड़ियाँ बनायीं और एकके भीतर छुरी देकर मुझे बैठा दिया तथा दूसरी में वह स्वयं हाथमें छुरी लेकर बैठ गया || १०८॥ तदनन्तर भारुण्ड पक्षी पैनी चोंचोंसे दबाकर दोनों भस्त्राओंको आकाशमें ले गये । मेरी भाथड़ी एक काना भारुण्ड पक्षी ले गया था इसलिए उसने दूसरी जगह ले जाकर पृथिवीपर गिरा दी ॥ १०९ ॥ | मैं वेगसे उस भाथड़ीको चीरकर जब बाहर निकला तो मैंने रत्नोंकी किरणोंसे देदीप्यमान स्वर्गके समान एक विस्तृत द्वीप देखा ॥११०॥ उस द्वीपकी सुन्दर दिशाओंको देखते हुए मैंने पर्वतके अग्रभागपर एक जिनमन्दिर देखा जो हवासे उड़ती हुई पताकाओंसे ऐसा जान पड़ता था मानो नृत्य ही कर रहा हो ॥ १११ ॥ उसी जिनमन्दिर के समीप मैंने आतापन योगसे स्थित एक चारण ऋद्धिधारी मुनिराजको देखा । उन मुनिराजको देखकर मुझे ऐसा उत्तम सुख प्राप्त हुआ जैसा कि पहले कभी प्राप्त नहीं हुआ था ॥ ११२ ॥
तदनन्तर पर्वतपर चढ़कर मैंने जिनमन्दिरकी तीन प्रदक्षिणाएँ दीं और श्री जिनेन्द्र भगवान्को कृत्रिम प्रतिमाओंकी वन्दना की ।। ११३ ॥ प्रतिमाओंकी वन्दना के बाद मैंने ध्यानमें लीन मुनिराजकी भी मुनिभक्ति के कारण वन्दना की । जब मुनिराजका नियम समाप्त हुआ तब वे मेरे लिए आशीर्वाद देकर वहीं बैठ गये और मुझसे कहने लगे कि चारुदत्त ! कुशल तो हो ? यहाँ स्वप्नकी तरह तुम्हारा आगमन कैसे हुआ ? तुम एक साधारण पुरुषकी तरह हो तथा कोई तुम्हारा सहायक भी नहीं दिखाई देता । ११४- ११५ || 'हे नाथ! आपके प्रसादसे कुशल है' यह कहकर मैंने उन्हें नमस्कार किया । तदनन्तर आश्चर्यसे चकित होते हुए मैंने उन उत्तम मुनिराज से पूछा कि हे नाथ! आपको मेरी पहचान कैसे हुई ? हे माननीयोंके माननीय ! मैं तो आपके इस पवित्र दर्शनको अपूर्व ही मानता हूँ ।।११६-११७। इस प्रकार पूछनेपर मुनिराजने कहा कि मैं वही अमितगति नामका विद्याधर हूँ जिसे चम्पापुरीमें उस समय शत्रुने कोल दिया था और तुमने १. सशस्त्रां-म., ग. । २. -दुद्भत म । ३. तत्र तापन म । ४. पुंसां ग ।
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