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हरिवंशपुराणे
सद्योजातं पिता न मुक्तवानिति स क्रुधा । वरीत्वा मधुरां लब्ध्वा सर्वसाधनसंगतः ॥२५॥ कंसः कालिन्दसेनाया सुतया सह निर्घृणः । गत्वा युद्धे विनिर्जित्य बबन्ध पितरं व्रतम् ॥ २६ ॥ महोग्रो भग्नसंचारमुग्रसेनं निगृह्य सः । अतिष्ठिपत् कनिष्ठाशः स्वपुरद्वारगोचरे ||२७|| वसुदेवोपकारेण हृतः प्रत्युपकारधीः । न वेत्ति किं करोमीति किंकरत्वमुपागतः ||२८|| अभ्यर्थ्य गुरुमानीय मथुरां पृथुभक्तितः । स्वसारं प्रददौ तस्मै देवकीं गुरुदक्षिणाम् ॥ २९|| आस्ते कंसोपरोधेन मथुरायां ततो यदुः । प्रदीव्य दिव्यदीप्त्यासौ देवक्या हारिवाक्यया ||३०|| सूरसेनमहाराष्ट्रराजधानीं द्विषंतपः । शशास मथुरां कंसो जरासन्धातिवल्लभः ||३१|| जातुचिन्मुनि वेलायामतिमुक्तकमागतम् । कंसज्येष्ठं मुनिं नवा पुरः स्थित्वा सविभ्रमम् ||३२|| सन्ती नर्मभावेन जगौ जीवद्यशा इति । आनन्दवखमेतत्ते देवक्याः स्वसुरीक्ष्यताम् ॥३३॥ तस्या निर्बन्धचित्ताया प्रमत्ताया निवृत्तये । वचोगुप्तिमसौ भित्त्वा संसारस्थितिविजगौ ॥ ३४ ॥ अहो क्रीडनशीलायास्तवेयमतिमूढता । शोकस्थाने प्रपन्नासि यदानन्दमनन्दिनि ॥ ३५ ॥ मविता यो हि देवक्या गर्भेऽवश्यमसौ शिशुः । पत्युः पितुश्च ते मृत्युरितीयं भवितव्यता ॥३६॥ ततो मीतमतिर्मुक्त्वा मुनिं साश्रुनिरीक्षणा । गत्वा न्यवेदयत्पत्ये सत्यं हि यतिभाषितम् ॥३७॥
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गुणरूपी सम्पदा से सम्पन्न अपनी जीवद्यशा पुत्री दे दी ||२४|| पिताने मुझे उत्पन्न होते ही नदी में छोड़ दिया था । यह जानकर कंसको बड़ा क्रोध आया इसलिए उसने जरासन्धसे मथुराका राज्य मांगा और जरासन्धने दे भी दिया । उसे पाकर सब प्रकारकी सेनासे युक्त कंस जीवद्यशा के साथ मथुरा गया। वह निर्दय तो था ही इसलिए वहां जाकर उसने पिता उग्रसेनके साथ युद्ध ठान दिया तथा युद्धमें उन्हें जीतकर शीघ्र ही बांध लिया ।। २५-२६ ।। तत्पश्चात् जो प्रकृतिका अत्यन्त उग्र था और जिसकी आशाएँ अत्यन्त क्षुद्र थीं ऐसे उस कंसने अपने पिता राजा उग्रसेनका इधर-उधर जाना बन्द कर उन्हें नगर के मुख्य द्वारके ऊपर कैद कर दिया ||२७||
वसुदेवके उपकारका आभारी होनेसे कंस उनका प्रत्युपकार तो करना चाहता था पर यह नहीं निर्णय कर पाता था कि मैं इनका क्या प्रत्युपकार करूँ। वह सदा अपने-आपको वसुदेवका किंकर समझता था ||२८|| एक दिन वह प्रार्थनापूर्वक बड़ी भक्तिसे गुरु वसुदेवको मथुरा ले आया और वहाँ लाकर उसने उन्हें गुरु-दक्षिणास्वरूप अपनी देवकी नामक बहन प्रदान कर दी ||२९|| तदनन्तर वसुदेव, कंसके आग्रहसे, सुन्दर कान्तिकी धारक एवं मधुर वचन बोलनेवाली देवकी के साथ क्रीड़ा करते हुए मथुरामें ही रहने लगे ||३०|| शत्रुओंको सन्तप्त करनेवाला एवं जरासन्धको अतिशय प्रिय कंस, शूरसेन नामक विशाल देशकी राजधानी मथुराका शासन करने लगा ||३१॥ एक दिन कंसके बड़े भाई अतिमुक्तक मुनि आहारके समय राजमन्दिर आये सो कंसकी स्त्री जीवद्यशा नमस्कार कर विभ्रम दिखाती हुई उनके सामने खड़ी हो गयी और हँसती हुई क्रीड़ा भावसे कहने लगी कि यह आपकी बहन देवकीका आनन्द वस्त्र है इसे देखिए ।। ३२-३३॥ संसारकी स्थितिको जाननेवाले मुनिराज, उस निर्मंर्याद चित्तकी धारक एवं राज्यवैभवसे मत्त जीवद्याको रोकने के लिए अपनी वचनगुप्ति तोड़कर बोले कि अहो ! तू हँसी कर रही है परन्तु यह तेरी बड़ी मूर्खता है। तू दुःखदायक शोकके स्थान में भी आनन्द प्राप्त कर रही है ।। ३४-३५ ।। तू वह निश्चित समझ, कि इस देवकी के गर्भसे जो पुत्र होगा वह तेरे पति और पिताको मारनेवाला होगा। यह ऐसी ही होनहार है-इसे कोई टाल नहीं सकता ||३६||
यह सुनते हो जीवद्यशा भयभीत हो उठी, उसके नेत्रोंसे आँसू निकलने लगे। वह उसी समय मुनिराज को छोड़ पतिके पास गयो और 'मुनिके वचन सत्य ही निकलते हैं' यह विश्वास १. रीक्षताम् क., ग.
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