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अष्ट पश्चाशः सर्गः 'बन्धूकाजसुसप्तपर्णसुरमिप्रत्यग्रपुष्पाञ्जलिं
मुञ्चन्ती जिनपादयोरुपगता मक्तव लोकत्रयी ॥३२॥
इत्यरिष्टनेमिपुराणसंग्रहे हरिवंशे जिनसेनाचार्यकृती श्रीनेमिनाथधर्मोपदेशवर्णनो नाम
अष्टपञ्चाशः सर्गः ॥५८॥
आकाशमण्डलको जो निर्मल ग्रहों और ताराओंसे पुष्पित बना रही थी एवं जो बन्धूक, कमल और सप्तपर्णके सुगन्धित नूतन फूलोंकी अंजलि छोड़ रही थी ऐसी शरऋतु, भक्तिसे भरी लोकत्रयोके समान जिनेन्द्रदेवके चरणोंके समीप आयी ॥३१२॥
इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराणके संग्रहसे युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराणमें श्रीनेमिनाथ
भगवानके धर्मोपदेशका वर्णन करनेवाला अंठानवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥५०॥
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१. बन्धुकाज्वसुसप्तपर्ण म., ख.।
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