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हरिवंशपुराणे आचार्य चाप्युपाध्याये तप:श्रेष्टे तपस्विनि । शिक्षाशीले यती शैक्ष्ये ग्रस्ते ग्लाने रुजादिभिः ॥४२॥ गणे स्थविरसंतानलक्षणे च कुलेऽपि च । दीक्षकाचार्यशिष्यादिसंस्त्यायनिजलक्षणे ॥४३॥ गृहिश्रमणसंघाते संघे च गुणसंघके। चिरप्रव्रजिते साधी मनोज्ञे लोकसंमते ॥४॥ व्याधिमिथ्यात्वसंपातपरीषहरिपूदये । वैय्यावृत्त्यं यथायोग्यं विचिकित्साव्यपोहनम् ॥ ४५ पन्थार्थयोः प्रदानं हि वाचना पृच्छनं पुनः । परानुयोगो निश्चित्यै निश्रितानुबलाय वा ॥४६॥ ज्ञानस्य मनसाभ्यासोऽनुप्रेक्षा परिवर्तनम् । 'आम्नायो देशनान्येषामुपदेशोऽपि धर्मगः ॥४७॥ प्रशस्त ध्यवसायार्थ प्रज्ञातिशयलब्धये । संवेगाय तपोवृद्ध्यै स्वाध्यायः पञ्चधा भवे ॥४॥ क्रोधाद्यभ्यन्तरोपाधेः कायस्थ सविचारता । बाह्योपाधेरकल्पस्य स्यागोऽपुत्सर्ग इष्यते ॥४२॥ निस्संगनिर्मयत्वाय जीविताशानिवृत्तये । स बाह्याभ्यन्तरोपप्योर्बुत्सर्गः संग्रजायते ॥५०॥ तपसा निर्जरा मुक्त्यै संवृतस्योपजायते । परिणामस्य भेदेन प्रतिस्थानं तु मिद्यते ॥५१॥
१ दीक्षा देनेवाले आचार्य, २ पठन-पाठनकी व्यवस्था रखनेवाले उपाध्याय, ३ महान् तप तपनेवाले तपस्वी, ४ शिक्षा ग्रहण करनेवाले शैक्ष्य, ५ रोग आदिसे ग्रस्त ग्लान, ६ वृद्ध मुनियों के समुदाय रूप गण, ७ दीक्षा देनेवाले आचार्यके शिष्यसमूहरूप कुल, ८ गृहस्थ, क्षुल्लक, ऐलक तथा मुनियों के समदायरूप संघ, ९ चिरकालके दीक्षित गुणी मुनिरूप साधु और १० लोकप्रिय मनोज्ञ-इन दश प्रकारके मुनियोंको कदाचित् बीमारी आदिको अवस्था प्राप्त हो, मोहके तीव्र उदयसे मिथ्यात्वकी ओर इनकी प्रवृत्ति होने लगे ( अथवा मिथ्यादृष्टि जीवोंके द्वारा कोई उपद्रवउपसर्ग खड़ा कर दिया जाये ) अथवा परीषहरूपी शत्रुओंका उदय हो तो ग्लानि दूर कर उनकी यथायोग सेवा करना वह दश प्रकारका वैयावृत्त्य तप है ।।४२-४५॥
वाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और उपदेशके भेदसे स्वाध्यायके पांच भेद हैं। निर्दोष ग्रन्थ तथा उसका अर्थ दूसरेके लिए प्रदान करना-पढ़कर सुनाना सो वाचना नामका स्वाध्याय है। अनिश्चित तत्त्वका निश्चय करनेके लिए अथवा निश्चित तत्त्वको सुदृढ़ करने के लिए दूसरेसे पूछना वह पृच्छता नामका स्वाध्याय है। ज्ञानका मनसे अभ्यास-चिन्तन करना वह अनुप्रेक्षा नामका स्वाध्याय है। पाठको बार-बार पढ़ना आम्नाय है और दूसरोको धर्मका उपदेश देना उपदेश नामका स्वाध्याय है। यह पाँच प्रकारका स्वाध्याय प्रशस्त अभिप्रायके लिए, प्रज्ञा-भेदविज्ञानके अतिशयकी प्राप्ति के लिए संवेगके लिए और तपकी वृद्धि के लिए किया जाता है ।।४६-४८॥
आभ्यन्तरोपाधित्याग और बाह्योपाधित्यागकी अपेक्षा व्युत्सर्गके दो भेद हैं। क्रोधादि अन्तरंग उपाधिका त्याग करना तथा शरीरके विषयमें भी 'यह मेरा नहीं है' इस प्रकारका विचार रखना आभ्यन्तरोपाधित्याग है और आभूषणादि बाह्य उपाधिका त्याग करना बाह्यो
उपाधियोका त्याग निष्परिग्रहता, निर्भयता और 'मैं अधिक दिन तक जीवित रहूँ' इस प्रकारको आशाको दूर करनेके लिए धारण किया जाता है ॥४२-५०||
संवरके धारक जीवके तपसे जो निर्जरा होती है वह मोक्षका कारण है। यह निर्जरा
१. आम्नाये म.। २. प्रशस्ताध्यवसायार्थप्रतिज्ञातिशय-क, ख., ङ.., म.। स एषः पञ्चविधः स्वाध्यायः किमर्थः ? प्रज्ञातिशयः प्रशस्ताध्यवसायः परमसंवेगस्तपोवृद्धिरतिचारविशुद्धिरित्येवमाद्यर्थ:-स. सि. । ३. आभरणस्य (ङ. टि.)। ४. स किमर्थः ? निःसङ्गत्व निर्भयत्वजीविताशाव्युदासाद्यर्थः-स. सि. ।
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