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पञ्चषष्टितमः सर्गः
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मृदूपपादशय्यायामुदपादि बलोऽमरः । महामणिरिवोदाररत्नाकरमहाक्षितौ ॥३५॥ भाषामनःशरीराक्षप्राणाहारप्रसिद्धिभिः । षड्मिः पर्याप्तिभिः सद्यः पर्याप्तोऽभूत्सुरोत्तमः ॥३६॥ शयने सवतोमरे वस्त्राभरणभूषितः । विबुधः सुखनिद्रान्ते यथात्र नवयौवनः ॥१७॥ विलोकमानमालोक्य शब्दैरमरयोषिताम् । सुराणामनुरक्तानामप्यसावभिनन्दितः ॥३८॥ चन्द्रादित्याधिकोदारप्रभावलय देहभृत् । इति दध्यौ धृतध्यानःप्रमदापूर्णमानसः ॥३९॥ कोऽयं रम्यतमो देशः कोऽयं प्रमुदितो जनः । कोऽहं क्वाद्य मवोऽयं मे धर्मः को वार्जितो मया ॥४०॥ बोधितः सुरमुख्यैः स सभवप्रत्ययावधिः । विवेद सहसा देवः पौर्वापर्यमशेषतः ॥४॥ ज्ञातपूर्वभवाशेषबन्धुबन्धुहितोद्यतः । प्राप्ताभिषेककल्याणः स्वीकृतात्मपरिच्छदः ॥४२॥ अवधिज्ञात कृष्णश्च गत्वासौ बालुकाप्रमाम् । दृष्ट्वानुजं निजं देवो दुःखितं दुःखितोऽभवत् ॥४३॥ महाप्रभावसंपने देवे तत्र तथास्थिते । शब्दगन्धरसस्पर्शाः शुभतामशुमा ययुः ॥४४॥ एथेहि कृष्ण योऽहं ते भ्राता ज्येष्ठो हलायुधः । ब्रह्मलोकाधिपो भूत्वा त्वत्समीपमिहागतः ॥४५॥ इत्युक्त्वा तं समुत्य स्वर्लोकं नेतुमुद्यते । देवे तस्य व्यलीयन्त गात्राणि नवनीतवत् ॥४६॥ ततः कृष्णो जगी देव भ्रातः किं व्यर्थचेष्टितैः । किन्न ज्ञातं यथा सर्वे जीवाः स्वकृतभोगिनः ॥४७॥ यथेन यादृशं कर्म संसारे समुपार्जितम् । तत्तेन तादृशं भ्रातर्नियमादनुभूयते ॥४॥
कि विशाल रत्नाकरकी महाभूमिमें महामणि उत्पन्न होता है ।। ३५ ॥ वह उत्तम देव वहाँ शीघ्र ही आहार, शरीर, इन्द्रिय, श्वासोच्छ्वास, भाषा और मन इन छह पर्याप्तियोंसे पूर्ण हो गया ॥३६|| नवयौवतसे युक्त एवं वस्त्राभरणसे विभूषित वह देव, सर्वतोभद्र नामक शय्यापर ऐसा उठकर बैठ गया जैसा मानो सुखनिद्रा पूर्ण होनेपर ही उठा हो ॥ ३७॥ जब इस देवने चारों ओर देखा तब अनुरागसे युक्त देवांगनाओं और देवोंके शब्दोंने इसका अभिनन्दन किया ।। ३८ ॥ चन्द्रमा और सूर्यसे भी अधिक उत्कृष्ट प्रभावलयसे युक्त शरीरको धारण करनेवाला वह देव, हर्षसे पूर्ण हृदय होता हुआ इस प्रकारका ध्यान करने लगा कि यह अत्यन्त सुन्दर देश कौन है ? ये हर्षसे भरे जन कौन हैं ? मैं कौन हूँ ? मेरा यहां कहां जन्म हुआ है ? और मैंने किस धर्मका संचय किया है ? ॥३९-४०॥
तदनन्तर मुख्य-मुख्य देवोंने उसे समझाया-सब वस्तुओंका परिचय दिया जिससे तथा भवप्रत्यय अवधिज्ञानसे युक्त हो उसने शीघ्र ही आगे-पीछेका सब वत्तान्त जान लिया ॥४१॥ तदनन्तर जिसने पूर्वभवके सब बन्धुओंको जान लिया था, जो भाईका हित करनेमें उद्यत था, जिसे अभिषेकरूप कल्याण प्राप्त हुआ था, जिसने वस्त्राभूषणादि सब सामग्री प्राप्त की थी, और अवधिज्ञानसे जिसने कृष्णका समाचार जान लिया था ऐसा वह बालुकाप्रभा पृथिवीमें गया और अपने छोटे भाई कृष्णको दुःखी देख स्वयं बहुत दुःखी हुआ ॥४२-४३।। महाप्रभावसे सम्पन्न वह देव जब वहां जाकर खड़ा हो गया तब वहाँके अशुभ शब्द गन्ध रस और शब्द शुभरूपताको प्राप्त हो गये ॥४४॥
वह कहने लगा कि हे कृष्ण ! आओ, आओ, जो मैं तुम्हारा बड़ा भाई बलदेव था वही ब्रह्मलोकका अधिपति होकर यहाँ तुम्हारे पास आया हूँ ॥४५।। यह कहकर वह देव ज्योंही कृष्णके जीवको उठाकर स्वर्गलोकमें ले जानेके लिए उद्यत हुआ त्योंही उसका शरीर मक्खनके समान गलकर विलीन हो गया ॥४६।।
तदनन्तर कृष्णने कहा कि हे देव ! हे भाई! व्यर्थकी चेष्टाओंसे क्या लाभ है ? क्या आप यह नहीं जानते कि सब जीव अपने कियेका फल भोगते हैं ॥४७॥ संसारमें जिसने जैसा कर्म उपा
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