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षट्षष्टितमः सर्गः
महातपोभृद्विनेयंवरः श्रुतामृषिश्रुतिं गुप्तपदादिकां दधत् । मुनीश्वरोऽन्यः शिवगुप्तसंज्ञको गुणैः स्वमर्हद्बलिरप्यधात्पदम् ॥२५॥ समन्दरार्योऽपि च मित्रवीरवि गुरू तथान्यौ बलदेवमित्रकौ । विवर्धमानाय त्रिरत्नसंयुतः श्रियान्वितः सिंहबलश्च वीरवित् ॥२६॥ स पद्मसेनो गुणपद्मखण्डभृद् गुणाग्रणीर्व्याघ्रपदादिहस्तकः । स नागहस्ती जिवदण्डनामभृत्सनन्दिषेणः प्रभुदीप सेनकः ॥२७॥ तपोधनः श्रीधरसेननामकः सुधर्मसेनोऽपि च सिंहसेनकः । सुनन्दिषेणेश्वरसेन को प्रभू सुनन्दिषेणा मयसेननामकौ ॥ २८ ॥ स सिद्धसेनोऽमय भीमसेनको गुरु परौ तौ जिनशान्तिषेणकौ । अखण्डषेट्खण्डमखण्डितस्थितिः समस्तसिद्धान्तमधत्त योऽर्थतः ॥२९॥ दधार कर्मप्रकृतिं श्रुतिं च यो जिताक्षवृत्तिर्जयसेनसद्गुरुः । प्रसिद्धवैय्याकरणप्रभाववानशेषराद्धान्त समुद्रपारगः ॥ ३० ॥ तदीयशिष्योऽमित सेन सद्गुरुः पवित्रपुन्नाटगणाग्रणीगणी | जिनेन्द्र सच्छासनवत्सलात्मना तपोभृता वर्षशताधिजांविना ॥३१॥ सुशास्त्रदानेन वदान्यतामुना वदान्यमुख्येन भुवि प्रकाशिता । 'यदग्रजो धर्मसहोदरः शमी समग्रधीर्धर्म इवात्तविग्रहः ॥ ३२ ॥ तपोमय कीर्तिमशेषदिक्षु यः क्षिपन् बभौ कीर्तितकीर्तिषेणकः ।
के बाद महातपस्वी विनयंधर, गुप्तश्रुति, गुप्तऋषि, मुनीश्वर शिवगुप्त, अर्हदबलि, मन्दरार्य, मित्रवीरवि, बलदेव, मित्रक, बढ़ते हुए पुण्यसे सहित रत्नत्रयके धारक एवं ज्ञानलक्ष्मी से युक्त सिंहबल, वीरवित्, गुणरूपी कमलोंके समूहको धारण करनेवाले पद्मसेन, गुणोंसे श्रेष्ठ व्याघ्रहस्त, नागहस्ती, जितदण्ड, नन्दिषेण, स्वामी दीपसेन, तपोधन श्रीधरसेन, सुधमंसेन, सिंहसेन, सुनन्दिषेण, ईश्वरसेन, सुनन्दिषेण, अभयसेन, भीमसेन, जिनसेन और शान्तिसेन आचार्यं हुए । तदनन्तर जो अखण्ड मर्यादाके धारक होकर परिपूर्ण षट्खण्डों ( १ जीवस्थान, २ क्षुद्रबन्ध, ३ बन्धस्वामी, ४ वेदनाखण्ड, ५ वगंणाखण्ड ओर ६ महाबन्ध ) से युक्त समस्त सिद्धान्तको अर्थरूपसे धारण करते थे अर्थात् षट्खण्डागमके ज्ञाता थे, कर्मप्रकृतिरूप श्रुतिके धारक थे और इन्द्रियोंकी वृत्तिको जीतनेवाले थे ऐसे जयसेन नामक गुरु हुए । उनके शिष्य अमितसेन गुरु हुए जो प्रसिद्ध वैयाकरण, प्रभावशाली और समस्त सिद्धान्तरूपी सागरके पारगामी थे। ये पवित्र पुन्नाट गणके अग्रणी - अग्रेसर आचार्य थे। जिनेन्द्र शासनके स्नेही, परमतपस्वी, सौ वर्षकी आयुके धारक एवं दाताओं में मुख्य इन अमितसेन आचार्यंने शास्त्रदानके द्वारा पृथिवीमें अपनी वदान्यता - दानशीलता प्रकट की थी । इन्हीं अमितसेनके अग्रज धर्मबन्धु कीर्तिषेण नामक मुनि थे जो बहुत ही शान्त थे, पूर्ण बुद्धिमान थे, शरीरधारी धर्मके समान जान पड़ते थे, और जो अपनी तपोमयी कीर्तिको समस्त दिशाओं में प्रसारित कर रहे थे । उनका प्रथम शिष्य मैं जिनसेन हुआ । मोक्षके उत्कृष्ट सुखका उपभोग करनेवाले अरिष्टनेमि जिनेन्द्रकी भक्ति से युक्त मुझ जिनसेन सूरिने अपने सामर्थ्यंके अनुसार अल्पबुद्धिसे इस हरिवंशपुराणकी रचना की
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१. विनयंघरश्रुतां म, विनयंधरश्रुतीं ख । २. मित्रवीरवि क, ख, ग, ङ. । ३. षट्खण्डमण्डित स्थितिः म. । ४. तदग्रतो म. ।
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