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हरिवंशपुराणे अघातिकर्माणि निरुद्धयोगको विधूय घातीन्धनवद्विबन्धनः । विबन्धनस्थानमवाप शंकरो निरन्तरायोरुसुखानुबन्धनम् ॥१७॥ स पञ्चकल्याणमहामहेश्वरः प्रसिद्धनिर्वाणमहे चतुर्विधैः । शरीरपूजाविधिना विधानतः सुरैः समभ्ययंत सिद्धशासनः ॥१८॥ ज्वलत्प्रदीपालिकया प्रवृद्धया सुरासुरैः दीपितया प्रदीप्तया । तदा स्म पावानगरी समन्ततः प्रदीपिताकाशतला प्रकाशते ॥१९॥ तथैव च श्रेणिकप प्रकृत्य कल्याणमहं सहप्रजाः । प्रजग्मुरिन्द्राश्च सुरैर्यथायथं प्रयाचमाना जिनबोधिसर्थिनः ॥२०॥ ततस्तु लोकः प्रतिवर्षमादरात्प्रसिद्धदीपालिकयात्र मारते । समुद्यतः पूजयितुं जिनेश्वरं जिनेन्द्रनिर्वाणविभूतिमक्तिमाक् ॥२१॥ त्रयः क्रमाकेवलिनो जिनात्परे द्विषष्टिवर्षान्तरभाविनोऽभवन् । ततः परे पञ्च समस्तपूर्विणस्तपोधना वर्षशतान्तरे गताः ॥२२॥ ध्यशीतिके वर्षशते तु रूपयुक् दशैव गीता दशपूर्विणः शते । द्वये च विंशेऽङ्गभृतोऽपि पञ्च ते शते च साष्टादशके चतुर्मुनिः ॥२३॥ गुरुः सुभद्रो जयभद्रनामकः परो यशोबाहुरनन्तरस्ततः ।
महाहलोहार्यगुरुश्च ये दधुः प्रसिद्धमाचारमहाङ्गमत्र ते ॥२४॥ नष्ट कर बन्धनरहित हो संसारके प्राणियोंको सुख उपजाते हुए निरन्तराय तथा विशाल सुखसे सहित निबंन्ध-मोक्ष स्थानको प्राप्त हए ॥१६-१७|| गर्भादि पांचों कल्याणकोंके महान अधिपति, सिद्धशासन भगवान महावीरके निर्वाण महोत्सवके समय चारों निकायके देवोंने विधिपूर्वक उनके शरीरकी पूजा की ॥१८॥ उस समय सुर और असुरोंके द्वारा जलायी हुई बहुत भारी देदीप्यमान दीपकोंकी पंक्तिसे पावानगरीका आकाश सब ओरसे जगमगा उठा ||१९|| श्रेणिक आदि राजाओंने भी प्रजाके साथ मिलकर भगवान्के निर्वाण कल्याणककी पूजा की। तदनन्तर बड़ी उत्सुकताके साथ जिनेन्द्र भगवान के रत्नत्रयकी याचना करते हुए इन्द्र देवों के साथ-साथ यथास्थान चले गये ।।२०।। उस समयसे लेकर भगवान्के निर्वाणकल्याणकी भक्तिसे युक्त संसारके प्राणी इस भरतक्षेत्रमें प्रतिवर्ष आदरपूर्वक प्रसिद्ध दीपमालिकाके द्वारा भगवान् महावीरकी पूजा करनेके लिए उद्यत रहने लगे । भावार्थ-उन्हींको स्मृतिमें दीपावलीका उत्सव मनाने लगे ॥२१॥
__ भगवान् महावीरके निर्वाणके बाद बासठ वर्षमें क्रमसे गौतम, सुधर्म और जम्बूस्वामी ये तीन केवली हुए । उनके बाद सौ वर्ष में समस्त पूर्वोको जाननेवाले पांच श्रु तकेवली हुए ॥२२।। तदनन्तर एक सौ तेरासी वर्ष में ग्यारह मुनि दश पूर्वके धारक हुए। उनके बाद दो सौ बीस वर्ष में पांच मुनि ग्यारह अंगके धारी हुए। तदनन्तर एक सौ अठारह वर्षमें सुभद्रगुरु, जयभद्र, यशोबाहु और महापूज्य लोहायंगुरु ये चार मुनि प्रसिद्ध आचारांगके धारी हुए ॥२३-२४॥
.। २. एकाधिका दश एकादशेत्यर्थः । ३. जयभद्रनामा-म., ख., ङ., म. । * १. नन्दी, २. नन्दिमित्र, ३. अपराजित, ४. गोवर्द्धन और ५. भद्रबाहु । +१. विशाख, २. प्रोष्ठिल, ३. क्षत्रिय, ४. जय, ५. नाग, ६. सिद्धार्थ, ७. धृतिषेण, ८. विजय, ९. बुद्धिल, १०. गङ्गदेव बोर ११. सुधर्म । ६१. नक्षत्र, २. जयपाल, ३. पाण्डु, ४. ध्र वसेन और ५. कंसार्य ।
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