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षट्षष्टितमः सर्गः
"स्थितेऽथ नाथे तपसि स्वयंभुवि प्रजातकैवल्यविशाललोचने । जगद्विभूत्यै विहरत्यपि क्षितिं क्षितिं विहाय स्थितवांस्तपस्ययम् ॥९॥ अमुष्य े जाताथ तपोबलान्मुनेरवाप्तकैवल्यफला मनुष्यता । मनुष्य भावो हि महाफलं भवे भवेदयं प्राप्तफलस्तपःफलात् ॥१०॥ इतीरितेयं हरिवंशसत्कथा समासतः श्रेणिक लोकविश्रुता । त्रिषष्टिसंख्यान पुराणपद्धतिप्रदेश संबन्धवती श्रियेऽस्तु ते ॥ ११ ॥ "सुगौतमात्पुण्यपुराणपद्धतिं सपार्थिवैः श्रेणिकपार्थिवस्तदा । दृष्टिराकर्ण्य सकर्णतां गतो गतः पुरं प्रीतमतिः कृतानतिः ॥१२॥ चतुर्णिकायामरखेचरादयो जिनं परीत्य प्रणिपत्य मक्तितः । यथायथं जग्मुरजन्मकाङ्क्षिणः प्रसिद्धसद्धर्मकथानुरागिणः ॥१३॥ विहृत्य पूज्योऽपि महीं महीयसां महामुनिर्मोचितकर्मबन्धनः । इयाय मोक्षं जितशत्रुकेवलो निरन्तसौख्यप्रतिबद्ध मक्षयम् ॥१४॥ जिनेन्द्रवीरोऽपि विबोध्य संततं समन्ततो भव्यसमूहसंततिम् । प्रपथ पावानगरी गरीयसीं मनोहरोद्यानवने तदीयके ॥ १५ ॥ चतुर्थ कालेऽर्धचतुर्थ मास कैर्विहीनता विश्वतुरब्दशेषके । स कार्तिके स्वातिषु कृष्णभूतसुप्रभातसन्ध्यासमये स्वभावतः ॥ १६ ॥
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यशोदाका भगवान् महावीर के साथ विवाह - मंगल देखनेकी यह उत्कट अभिलाषा रखता था । परन्तु स्वयम्भू भगवान् महावीर तपके लिए चले गये और केवलज्ञानरूपी विशाल नेत्र प्राप्त कर जगत्का कल्याण करनेके लिए पृथिवीपर विहार करने लगे, तब यह स्वयं भी पृथिवीको छोड़ तपमें लीन हो गया ॥ ८- ९|| आज मुनि जितशत्रुको तपके फलस्वरूप केवलज्ञान उत्पन्न हुआ है और उससे उनका मनुष्यपर्याय सार्थक हुआ है सो ठीक ही है, क्योंकि संसारमें मनुष्यपर्याय महाफलस्वरूप तभी होता है जब वह तपके फलस्वरूप इस केवलज्ञानरूपी फलको प्राप्त कर लेता है ॥१०॥
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गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! मैंने यह लोकप्रसिद्ध तथा त्रेसठशलाका पुरुषों के पुराणपद्धति से सम्बन्ध रखनेवाली हरिवंशकी कथा संक्षेपसे कही है सो तुझे लक्ष्मोकी प्राप्ति के लिए हो ||११|| सम्यग्दर्शनसे सुशोभित राजा श्रेणिक अनेक राजाओंके साथ गौतम गणधरसे इस पवित्र पुराणका वर्णन सुन अपने कानोंको सफल मानने लगा तथा नमस्कारकर प्रसन्न होता हुआ अपने नगरको चला गया ||१२|| मोक्षकी इच्छा रखनेवाले एवं प्रसिद्ध समीचीन धर्मकथा के अनुरागी चारों निकायके देव और विद्याधर जिनेन्द्र भगवान्को प्रदक्षिणा देकर तथा प्रणाम कर अपने-अपने स्थानोंपर चले गये || १३|| बड़े-बड़े पुरुषोंके द्वारा पूज्य महामुनि जितशत्रु केवली भी पृथिवीपर विहार कर अन्तमें कर्मबन्धसे रहित हो अनन्त सुखसे युक्त अविनाशी मोक्षपदको प्राप्त हुए || १४ || भगवान् महावीर भी निरन्तर सब ओरके भव्यसमूहको संबोधकर पावानगरी पहुँचे और वहाँ के 'मनोहरोद्यान' नामक वनमें विराजमान हो गये ||१५|| जब चतुर्थकालमें तीन वर्षं साढ़े आठ मास बाकी रहे तब स्वाति नक्षत्र में कार्तिक अमावास्याके दिन प्रातः कालके समय स्वभावसे ही योग निरोधकर घातियाकर्मरूप ईंधन के समान अघातियाकर्मीको भी
१. स्मितेऽथ म. । २. याताद्य क., ख., ङ. म. । ३. सुगीतमायुष्यपुराण म । ४. स्फीतमतिः म. महा प्रीतमतिः ख । ५. महीयसीं क. ।
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