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पञ्चषष्टितमः सर्गः
गन्धपुष्पादिभिर्दिव्यैः पूजितास्तनवः क्षणात् । जैनाद्या द्योतयन्स्यो द्यां विलीना विद्युतो यथा ॥ १२ ॥ स्वभावोऽयं जिनादीनां शरीरपरमाणवः । मुञ्चति स्कन्धतामन्ते क्षणात्क्षणरुचामिव ॥ १३ ॥ ऊर्जयन्त गिरौ वज्री वज्रेणालिख्य पाविनीम् । लोके सिद्धिशिलां चक्रे जिनलक्षणपंक्तिभिः ॥ १४ ॥ वरदत्तादिसंघं च वन्दिवा वासवादयः । देवा नृपतयश्चापि ययुः सर्वे यथायथम् ॥१५॥ दशार्हादयो मुनयः षट्सहोदरसंयुताः । सिद्धिं प्राप्तास्तथान्येऽपि शम्बप्रद्युम्नपूर्वकाः ॥ १६ ॥ ऊर्जयन्तादिनिर्वाणस्थानानि भुवने ततः । तीर्थयात्रागतानेकभव्य सेव्यानि रेजिरे ॥ १७ ॥ ज्ञात्वा भगवतः सिद्धि पञ्च पाण्डवसाधवः । शत्रुंजयगिरौ धोराः प्रतिमायोगिनः स्थिताः ॥ १८॥ दुर्योधनान्वयस्तत्र स्थितो क्षुयवरोधनः । श्रुस्वागत्याकरो रादुपसर्गं सुदुस्सहम् ॥ १९ ॥ तप्तायोमयमूर्तीनि मुकुटानि ज्वलन्त्यलम् । कटकैः कटिसूत्रादि तन्मूर्धादिष्व योजयत् ॥२०॥ रौ दाहोपसर्ग ते मेनिरे हिमशीतलम् । वीराः कर्मविपाकज्ञाः कर्मक्षयकृतौ क्षमाः ॥२१॥ शुकुध्यानसमाविष्टा भीमार्जुनयुधिष्ठिराः । कृत्वाष्टविधकर्मान्तं मोक्षं जग्मुखयोऽक्षयम् ॥२२॥ नकुलः सहदेवश्व ज्येष्ठदाहं निरीक्ष्य तौ । अनाकुलितचेतस्कौ जातौ सर्वार्थसिद्धिौ ॥२३॥
भगवान् के अन्तिम शरीर से सम्बन्ध रखनेवाली निर्वाणकल्याणकी पूजा की || ११ || दिव्य गन्ध तथा पुष्प आदि पूजित, तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवोंके शरीर, क्षण-भर में बिजलीकी नाई आकाशको देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ||१२|| क्योंकि यह स्वभाव है कि तीर्थंकर आदिके शरीर के परमाणु अन्तिम समय बिजली के समान क्षण भरमें स्कन्धपर्यायको छोड़ देते हैं ॥ १३ ॥
गिरनार पर्वत पर इन्द्रने वज्रसे उकेरकर इस लोक में पवित्र सिद्धशिलाका निर्माण किया तथा उसे जिनेन्द्र भगवान् के लक्षणों के समूहसे युक्त किया || १४ || तदनन्तर वरदत्त आदि मुनियोंके संघकी वन्दना कर इन्द्रादि देव और राजा लोग सब यथायोग्य अपने-अपने स्थानपर चले गये ॥ १५ ॥
समुद्रविजय आदि नौ भाई, देवकीके युगलिया छह पुत्र तथा शंब और प्रद्युम्नकुमार आदि अन्य मुनि भी गिरनार पर्वत से मोक्षको प्राप्त हुए । इसलिए उस समय से गिरनार आदि निर्वाण स्थान संसार में विख्यात हुए और तीर्थयात्रा के लिए आनेवाले अनेक भव्य जीवोंके द्वारा सेवित होते हुए सुशोभित होने लगे ॥१६-१७ ||
धीर-वीर पांचों पाण्डव मुनि, भगवान्को मोक्ष हुआ जान शत्रुंजय पर्वत पर प्रतिमायोगसे विराजमान हो गये ||१८|| उस समय वहाँ दुर्योधनके वंशका क्षुयवरोध नामका कोई पुरुष रहता था । ज्यों ही उसने वहाँ पाण्डवोंका आना सुना त्यों ही आकर उसने वैर वश उनपर घोर उपसर्ग करना शुरू कर दिया || १९|| उसने तपाये हुए लोहे के मुकुट, कड़े तथा कटिसूत्र आदि बनवाये और उन्हें अग्निमें अत्यन्त प्रज्वलित कर उनके मस्तक आदि स्थानोंमें पहनाये ||२०|| पाण्डव मुनिराज अत्यन्त धीर-वीर थे, कर्मके उदयको जाननेवाले थे एवं कर्मोंका क्षय करने में समर्थ थे, इसलिए उन्होंने दाहके उस भयंकर उपसर्गको हिमके समान शीतल समझा था ॥ २१ ॥ भीम, अर्जुन और युधिष्ठिर ये तीन मुनिराज तो शुक्लध्यान से युक्त हो आठों कर्मोंका क्षय कर मोक्ष गये परन्तु नकुल और सहदेव बड़े भाईकी राहको देख कुछ-कुछ आकुलितचित्त हो गये इसलिए सर्वार्थसिद्धि में उत्पन्न हुए ||२२-२३||
१. पावनों ख., पावनं म । २. युक्तिभिः म ध । ३. युधवरोधनः घ., म । ४. ईषदाकुलितं चेतो ययोस्ती ईषदर्थे न प्रयोगः ।
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