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हरिवंशपुराणे
नारदोऽपि नरश्रेष्ठः प्रव्रज्य तपसो बलात् । कृत्वा भवक्षयं मोक्षमक्षयं समुपेयिवान् ॥२४॥ अन्येऽपि बहवो भव्याः सुरत्नत्रयधारिणः । मोक्षं प्राप्ताः परे स्वर्गमासनभवसंक्षयोः ॥ २५॥ तुङ्गकाशिखरारूढो बलदेवोऽपि दुष्करम् । तपो नानाविधं चक्रे भवचक्रक्षयोद्यतः ॥ २६ ॥ एकद्विश्यादिषण्मासपर्यन्तोपोषितैरसौ । कषायवपुषां चक्रे शोषणं पोषणं घृतेः ॥२७॥ कान्तारभिक्षया प्राणधारणां कर्तुमुद्यतः । भ्रमन् कान्तारमध्येऽन्यैर्व्य लोकि शशिविभ्रमः ॥ २८ ॥ पुरग्रामादिषु ख्यातां श्रुत्वा वार्तां तथाविधाम् । पर्यन्तवासिनो भूपाः प्राप्ताः क्षुभितमानसाः ॥२९॥ शङ्काविषसमापन्नान्नानाप्रहरणाश्रितान् । सिद्धार्थस्तान् तथालोक्य सृष्टवान् सिंहसंततिम् ||३०|| मुनिपादसमीपे तान् सिंहानालोक्य भूभृतः । ते ज्ञातमुनिसामर्थ्याः प्रणम्योपशमं ययुः ॥ ३१ ॥ ततः प्रभृत्यसौ लोके नरसिंह इति श्रुतिम् । सिंहोरस्को हली प्राप्तः सिंहानुचरसंयतः ||३२|| एकं वर्षशतं कृत्वा तपो हलधरो मुनिः । समाराध्य परिप्रातो ब्रह्मलोके सुरेशताम् ॥३३॥ तत्र पद्मोत्तरे नाम्नि विमाने रत्नभास्वरे । देवदेवीगणाकीर्णे प्रासादोद्यानमण्डिते ॥ ३४॥
मनुष्यों में श्रेष्ठ नारद भी दीक्षा ले तपके बलसे संसारका क्षयकर अविनाशी मोक्षको प्राप्त हुए ||२४|| समीचीन रत्नत्रयको धारण करनेवाले अन्य अनेक भव्य जीव भी मोक्षको प्राप्त हुए तथा निकट कालमें जिनके संसारका क्षय होनेवाला था ऐसे कितने ही जीव स्वर्ग गये ||२५||
तुंगीगिरिके शिखरपर स्थित बलदेवने भी संसार चक्रका क्षय करनेमें उद्यत हो नाना प्रकारका तप किया ||२६|| वे एक दिन, दो दिन तीन दिनको आदि लेकर छह माह तकके उपवासोंसे कषाय और शरीरका शोषण तथा धैयँका पोषण करते थे ||२७|| वनमें मिलनेवाली भिक्षासे प्राण धारण करनेके लिए उद्यत बलदेव मुनिराज वनमें विहार करने लगे और चन्द्रमाका भ्रम उत्पन्न करनेवाले उन मुनिराजको लोगोंने देखा || २८|| 'बलदेव वनमें विहार कर रहे हैं' यह बात नगरों तथा गाँवोंमें फैल गयी उसे सुन समीपवर्ती राजा क्षुभितचित्त हो वहां आ पहुँचे ॥२९॥
शंकरूपी विषसे युक्त तथा नाना प्रकारके शस्त्रोंसे सुसज्जित उन राजाओंको जब देव सिद्धार्थने देखा तो उस वनमें उसने सिंहों के समूह रच दिये ||३०|| जब उन आगत राजाओंने मुनिराज के चरणोंके समीप सिंहों को देखा तब वे उनकी सामथ्यं जान नमस्कार कर शान्त भावको प्राप्त हो गये ||३१|| उसी समयसे बलदेव मुनिराज लोकमें नरसिंह इस प्रसिद्धिको प्राप्त हो गये । वे सिंहके समान चौड़े वक्षःस्थलसे सुशोभित थे तथा सिंहरूपी सेवकोंसे युक्त थे ||३२|| इस प्रकार एक सौ वर्ष तक तप कर बलदेव मुनिराजने अन्तमें समाधि धारण की और उसके फलस्वरूप ब्रह्मलोक में इन्द्रके पदको प्राप्त हुए ||३३|| वहाँ देव-देवियों के समूहसे युक्त, महल और उद्यानोंसे सुशोभित तथा रत्नोंके समान देदीप्यमान पद्म नामक विमान में कोमल उपपाद शय्यापर उस प्रकार देव उत्पन्न हुए जिस प्रकार
१. नारदस्य मोक्षप्राप्तिरन्यदिगम्बरग्रन्थाद्विरुद्धा वर्तते, तेषु तस्य नरकगामित्वदर्शनात् । ' कलहप्पिया कदाई घम्मरहा वासुदेवसमकाला । भव्वा णिरयगदि ते हिंसादोषेण गच्छंति' त्रिलोकसार गाथा ८३५ ।। ' रुट्टावर अरु पाणिहाणा हवामि सव्वें वे । कलहमहा जुज्झपिया अधोगया वासुदेवन्व' ।। १४७० त्रि. प्र. अथवा अत्र नारदपदेन वसुदेवस्य सोमश्रीस्त्री समुत्पन्नः पुत्रो ग्राह्यः नारदो मरुदेवोऽपि सोमश्रीतनयो वरौ । सर्ग ४८, श्लोक ५७ हरिवंशपुराणे । २ आसन्नभवसंख्यया म. ।
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