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पञ्चषष्टितमः सर्गः
अथ सर्वामराकीर्ण स्तीर्थकृस्कृतदेशनः । उत्तरापथतो देशं सुराष्ट्रमभितो ययौ ॥१॥ उत्तरायणमुत्क्रम्य दक्षिणायनमागते । जिना तेजसो वृत्तिः प्राग्वत्सर्वत्रगामवत् ॥२॥ आहन्त्यविभवोपेते महीं विहरतीश्वरे । दक्षिणां दक्षिणा देशा रेजिरे' स्वर्गविभ्रमाः ॥३॥ तत्रोर्जयन्तमन्तेऽसावन्तकल्याणभूतिमाकू । आरुरोह स्वभावेन नृसुरासुरसेवितः॥४॥ पूर्ववत्समवस्थानभूमिस्तत्रामवत्प्रमोः । तिर्यग्मानवदेवोधैरनधैः समधिष्टिता ॥५॥ धर्म तत्र जिनोऽवोचद्गलत्रितयपावनम् । स्वर्गापवर्गसौख्यैकसाधनं साधुसंमतम् ॥६॥ निषद्यायां यथाद्यायां पूर्व सर्वहितो जिनः । भन्स्यानां च तथा धर्म स सविस्तरमब्रवीत् ॥७॥ ऊर्ध्वज्वलनमुष्णत्वं यथाग्नेः शीतताप्यपाम् । जवनं मरुतस्तिर्यग्मास्वरत्वं च तेजसः ॥८॥ अमूर्तत्वं यथा व्योम्नः स्वभावाद्धारां क्षितेः । कृतार्थस्य जिनेन्द्रस्य तथा धर्मस्य देशनम् ॥९॥ अघातिकर्मणामन्तं ततो योगनिरोधकृत् । कृत्वानेकशतः सिद्धिं जिनेन्द्रो मुनिभिर्ययौ ॥१०॥ परिनिर्वाणकल्याणपूजामन्स्यशरीरगाम् । चतुर्विधसुरा जैनी चक्रुः शक्रपुरोगमाः ॥११॥
अथानन्तर समस्त देवोंसे युक्त भगवान् नेमिनाथ उपदेश करते हुए उत्तरापथसे सुराष्ट्र देशकी ओर आये ॥ १॥ जिनेन्द्ररूपी सूर्य यद्यपि उत्तरायणको उल्लंघन कर दक्षिणायनको प्राप्त हुए थे तथापि उनके तेजकी वृत्ति पहले ही-के समान सर्वत्र व्याप्त थी । भावार्थ-जब सूर्य उत्तरायणसे दक्षिणायनकी ओर आता है तब उसका तेज कुछ कम हो जाता है परन्तु नेमिजि सूर्यका तेज उत्तरायण-उत्तर दिशासे दक्षिणायन-दक्षिण दिशामें आनेपर भी कम नहीं हुआ था, पहले ही के समान सर्वत्र व्याप्त था ।। २ ।। समवसरणकी विभूतिसे युक्त नेमिजिनेन्द्र जब दक्षिण दिशामें विहार करते थे तब वहाँके देश स्वर्गके समान सुशोभित हो रहे थे ॥ ३ ॥ तदनन्तर जब अन्तिम समय आया तब निर्वाणकल्याणककी विभूतिको प्राप्त होनेवाले नेमिजिनेन्द्र मनुष्य, सुर और असुरोंसे सेवित होते हुए अपने-आप गिरनार पर्वतपर आरूढ़ हो गये ॥ ४ ॥ वहाँ पहले हो के समान फिरसे कलुषतारहित तिथंच मनुष्य और देवोंके समूहसे युक्त समवसरणको रचना हो गयी ।। ५ ।। समवसरणके बीच विराजमान होकर जिनेन्द्र भगवान्ने स्वर्ग और मोक्षको प्राप्तिका एक साधन, रत्नत्रयसे पवित्र एवं साधुसंमत धर्मका उपदेश दिया ।। ६ ।। जिस प्रकार सर्वहितकारी जिनेन्द्र भगवान्ने केवलज्ञान उत्पन्न होनेके बाद पहली बैठकमें विस्तारके साथ धर्मका उपदेश दिया था उसी प्रकार अन्तिम बैठकमें भी उन्होंने विस्तारके साथ धर्मका उपदेश दिया ॥ ७॥
जिस प्रकार अग्निमें ऊध्र्वज्वलन और उष्णता, पानीमें शीतलता, वायुमें वेग, सूर्य चन्द्र आदि तेजस्वी पदार्थों में सब ओरसे प्रकाशमानता, आकाशमें अमूर्तिकपना और पृथिवीमें किसी पदार्थको धारण करनेकी क्षमता स्वभावसे ही होती है, उसी प्रकार कृतकृत्य जिनेन्द्र भगवान्का धर्मोपदेश भी स्वभावसे होता था किसीकी प्रेरणासे नहीं ।।८-९।। तदनन्तर योगनिरोध करनेवाले भगवान् नेमिजिनेन्द्र अघातिया कर्मोंका अन्त कर अनेक सौ मुनियोंके साथ निर्वाण धामको प्राप्त हो गये ॥१०॥ जिनके आगे-आगे इन्द्र चल रहे थे ऐसे चारों निकायके देवोंने
१. भ्रजिरे क., भेजिरे म. । २. स्वभावाद्वारणं म. ।
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