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हरिवंशपुराणे
शमितान्यकषाया ये ससंज्वलनमात्रकाः । ते कषायकुशीलाः स्युः कुशीला द्विविधा यतः ।। ६२ ।। अव्यक्तोदयकर्माणो ये पयोदण्डराजिवत् । निर्ग्रन्थास्ते मुहूर्तोर्वोद्भिद्यमानात्म केवलाः ||६३॥ प्रक्षीणघातिकर्माणः स्नातकाः केवलीश्वराः । एते पञ्चापि निर्मन्था नैगमादिनयाश्रयात् ॥ ६४ ॥ "संयमादिभिरष्टाभिरनुयोगैर्यथाक्रमम् । ते पुलाकादयः साध्याः साध्यसाधनभेदिनः || ६५|| प्रतिसेवनाकुशीलाः पुलाका वकुशा द्वयोः । प्राक्कषायकुशीलाः स्युरन्तवज्यै चतुष्टये ||६६ || संयमे च यथाख्याते निर्ग्रन्थस्नातकाः स्थिताः । श्रुतादयोऽपि पञ्चानां प्रकथ्यन्ते यथाक्रमम् ||६७ || प्रतिसेवना कुशीलाः पुलाका वकुशाः स्थिताः । दशपूर्वाण्यभिन्नानि बिभ्रत्युत्कर्षतः श्रुतम् ॥ ६८|| ये कषायकुशीला ये निर्ग्रन्थाख्याश्च संयताः । ते चतुर्दशपूर्वाणि सर्वे विभ्रति सर्वथा ॥ ६९ ॥ जघन्येन पुलाकस्य श्रुतवाचारवस्तु तत् । निर्ग्रन्थान्तयतीनां स्वष्टौ प्रवचनमातरः ||७० || व्रतानां राज्यभुक्तेश्च बलादन्यतमं प्रति । सेवमानः पुलाकः स्यात्परेषामभियोगतः ॥ ७१ ॥ वकुशः सोपकरणो बहूपकरणप्रियः । शरीरवकुशः काय संस्कारं प्रतिसेवते ॥ ७२ ॥ प्रतिसेवनाकुशील उत्तरेषु विराधनाम् । गुणेषु सेवते काञ्चिदविराधितमूलकः ॥ ७३ ॥
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स्युः कषायकुशीलास्तु रहितप्रति सेवनाः । निर्ग्रन्थाः स्नातकाश्चापि ते सर्वे सर्वतीर्थजाः ॥ ७४ ॥
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'भावलिङ्ग प्रतीत्यामी निर्मन्थाः पञ्च लिङ्गिनः । प्रतीत्य द्रव्यलिङ्गं तु मजनीया मनीषिभिः ॥ ७५ ॥
हैं ॥ ६१-६२ ॥ | जिनके जलमें खींची गयो दण्डकी रेखाके समान कर्मोंका उदय अव्यक्त - अप्रकट रहता है तथा जिन्हें एक मुहूर्त्तके बाद केवलज्ञान उत्पन्न होनेवाला है वे निर्ग्रन्थ कहलाते हैं ॥६३॥ और जिनके घातिया कर्म नष्ट हो गये हैं, ऐसे केवली भगवान् स्नातक कहलाते हैं । ये पाँचों ही मुनि नैगमादि नयोंकी अपेक्षा निर्ग्रन्थ माने जाते हैं ||६४ || साध्यसाधनके भेदसे युक्त वे पुलाक आदि मुनि संयम आदि आठ अनुयोगोंके द्वारा साध्य हैं ||६५ ॥ पुलाक, वकुश और प्रतिसेवना कुशील मुनि प्रारम्भके सामायिक और छेदोपस्थापना इन दो संयमोंमें, कषायकुशील यथाख्यातको छोड़कर शेष चार संग्रमोंमें और निर्ग्रन्थ तथा स्नातक यथाख्यात संयममें स्थित हैं । अब पाँचों मुनियों श्रुत आदिका भी यथाक्रमसे कथन किया जाता है ||६६-६७॥ प्रतिसेवना कुशील, पुलाक और वकुश ये उत्कृष्ट रूपसे अभिन्न दशपूर्वं श्रुतको धारण करते हैं || ६८|| जो कषायकुशील और निर्ग्रन्थ नामक मुनि हैं वे सब चौदह पूर्वको धारण करते हैं || ६९ || जघन्यकी अपेक्षा पुलाकमुनिके आचारवस्तुरूप श्रुत होता है और निर्ग्रन्थपर्यंन्त समस्त मुनियोंके पांच समिति, तीन गुप्तिरूप अष्टप्रवचन मातृका प्रमाणश्रुत होता है || ७०|| प्रतिसेवनाकी अपेक्षा पुलाक मुनि पाँच महाव्रत तथा रात्रिभोजन त्याग इनमें से किसी एकका कभी दूसरोंका बलपूर्वक जबर्दस्ती से सेवन करनेवाला होता है || ७१|| वकुशके सोपकरणवकुश और शरीरवकुशकी अपेक्षा दो भेद होते हैं । इनमें सोपकरणवकुश अनेक उपकरणोंके प्रेमी होते हैं और शरीरवकुश शरीरसंस्कारकी अपेक्षा रखते हैं- शरीरकी शोभा बढ़ाना चाहते हैं ॥७२॥
प्रतिसेवनाकुशील मूल गुणोंमें विराधना नहीं करते किन्तु उत्तर गुणोंमें कभी कोई विराधना कर बैठते हैं ||७३ || कषायकुशील निर्ग्रन्थ और स्नातकप्रतिसेवनासे रहित होते हैं । तीर्थकी अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनि सभी तीर्थंकरोंके तीर्थ में होते हैं ||७४ || लिंगके भाव और द्रव्यकी अपेक्षा दो भेद होते हैं । भावलिंगको अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनि
१. संयमश्रुत प्रतिसेवनातीर्थलिङ्गलेश्योपपादस्थानविकल्पतः साध्याः ॥ ४७ ॥ त सू., नवमाध्याय । २. विराधनं म । ३. भावलिङ्गं प्रतीत्य पञ्च निर्ग्रन्था लिङ्गिनो भवन्ति । द्रव्यलिङ्गं प्रतीत्य भाज्याः । स. सि. ।
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