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चतुःषष्टितमः सर्गः
व्यः पञ्चेन्द्रियः संज्ञी पर्याप्तो लब्धिभिर्युतः । अन्तः शुद्धिप्रवृद्धो स्यादूबहुकर्मविनिर्जरः ||५२ || ततः प्रथमसम्यक्त्वलाभकारणसन्निधौ । सम्यग्दृष्टिर्भवेत्स स्यादसंख्यगुणनिर्जरः ॥ ५३ ॥ ततः श्रावकतापन्नोऽसंख्येयगुणनिर्जरः । ततोऽनि विरतस्तस्मादनन्तानां वियोजकः || ५४ || ततो दर्शनमोहस्य क्षपकः क्षायिकोद्ध कृत् । ततश्चारित्रमोहस्य सर्वोपशमको यतिः ||५५ || उपशान्तकषायोऽसंख्येयगुणनिर्जरः । ततश्चारित्रमोहस्य क्षपकः क्षपकाभिधः ॥ ५६ ॥ ततः क्षीणकषायाख्योऽसंख्येयगुणनिर्जरः । जिनेन्द्रः केवली तस्मादनन्तज्ञानदर्शनः ||५७।। "पुलाको वकुशचैव कुशीलो गुणशीलवान् । निर्मन्थः स्नातकश्चेति निर्ग्रन्थाः पञ्चधा मताः ॥५८॥ पुलाका भावनाहीना ये गृणेषूत्तरेषु ते । न्यूनाः क्वचित्कदाचिच्च पुलाकामा व्रतेष्वपि ।। ५९ ।। अखण्डितव्रताः कायभूषोपकरणानुगाः । अविविक्तपरीवाराः शवला वकुलाः स्मृताः ॥६०॥ परिपूर्णोभया जातूत्तरगुणविरोधिनः । प्रतिसेवनाकुशीला से अविविक्तपरिग्रहाः || ६१ ||
परिणामों में भेद होने से प्रत्येक स्थानों में भेदको प्राप्त होती है || ५१|| यहाँ निर्जराके कुछ स्थान बताये जाते हैं - सर्वप्रथम संज्ञीपंचेन्द्रियपर्याप्तकभव्य जीव जब करणादि लब्धियोंसे युक्त हो, अन्तरंग की शुद्धिको वृद्धिगत करता है तब उसके बहुत कर्मोंकी निर्जरा होती है । उसके बाद जब यह जीव प्रथमोपशमसम्यक्त्वकी प्राप्तिके योग्य कारणोंके मिलनेपर सम्यग्दृष्टि होता है तब उसके पूर्वस्थानकी अपेक्षा असंख्यातगुणी निर्जरा होती है ।।५२-५३ ।। उससे असंख्यातगुणी निर्जरा श्रावकके होती है, उससे असंख्यातगुणी विरतके, विरतसे असंख्यातगुणी अनन्तानुबन्धीकी विसंयोजना करनेवालेके, उससे असंख्यातगुणी दर्शनमोहका क्षय कर क्षायिकसम्यक्त्व प्राप्त करनेवालेके, उससे असंख्यातगुणी चारित्रमोहका उपशम करनेवाले उपशमश्रेणी में स्थित मुनिके, उससे असंख्यातगुणी उपशान्तकषाय नामक ग्यारहवें गुणस्थानवर्तीके, उससे असंख्यातगुणी चारित्रमोहका क्षय करनेवाले क्षपकश्रेणीमें स्थित मुनिके, उससे असंख्यातगुणी क्षीणकषाय नामक बारहवें गुणस्थानवर्तीके और उससे असंख्यातगुणी अनन्तज्ञानदर्शनके धारक केवली जिनेन्द्र होती है ।। ५४-५७॥
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पुलाक, वकुश, कुशील, निर्ग्रन्थ और स्नातकके भेदसे निर्ग्रन्थ मुनियोंके पाँच भेद हैं ||१८|| जो उत्तर गुणोंकी भावनासे रहित हों तथा मूल व्रतमें भी जो कहीं भी पूर्णताको प्राप्त न हों वे धान्यके छिलके के समान पुलाक मुनि कहलाते हैं || ५९ || जो मूल व्रतोंका तो अखण्ड रूपसे पालन करते हैं परन्तु शरीर और उपकरणोंको साफ-सुथरा रखने में लीन रहते हों, जिनका परिवार नियत न हो-जो अनेक मुनियोंके परिवारसे युक्त हों और मलिन - सातिचार चारित्र के धारक हों उन्हें वकुश कहते हैं ॥ ६० ॥
प्रतिसेवनाकुशील और कषायकुशीलकी अपेक्षा कुशील मुनियोंके दो भेद हैं । जो मूलगुण और उत्तरगुण दोनोंकी पूर्णतासे युक्त हैं, परन्तु कदाचित् उत्तरगुणों की विराधना कर बैठते हैं एवं संघ आदि परिग्रहसे युक्त होते हैं वे प्रतिसेवनाकुशील हैं, जिनके अन्य कषाय शान्त हो गये हैं सिर्फ संज्वलनका उदय रह गया है वे कषायकुशील कहलाते
१. सम्यग्दृष्टिश्रावक विरतानन्त वियोजक दर्शन मोक्षपकोपशम कोपशान्तमोहक्षपकक्षीणमोहजिनाः क्रमशोऽसंख्येयगुणनिर्जराः ॥४५॥ त सू, न. अ. । सम्मत्तुपपत्तीये सावयविरदे अणन्तकम्मंसे । दंसणमोहक्खवगे कसाय उवसामगे य उवसंते ॥ ३६ ॥ खवगे य खीणमोहे जिणेसु दव्त्रा असंखगुणिदकमा | तव्विवरीया काला संखेज्जगुणक्कमा होंति ॥ ६७॥ गो. जी. । २. 'पुलाकवकुश कुशीलनिर्ग्रन्थस्नातका निर्ग्रन्थाः ॥ त.सू., नवमाध्याय, ४६ सूत्र । ३. अनियतपरिवाराः ( ड. टि ) । ४. मलिनचारित्रयुक्ताः ( ङ. टि. ), सबलाः म. क., ख. ङ. ।
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