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चतुःषष्टितमः सर्गः
७९१ पुलाकस्योत्तरास्तिस्रो वकुलप्रतिसेवना । कुशीलयोश्च 'षड्भेदाः कषाये चतुरुत्तराः ॥७६॥ स्यारसूक्ष्मसापराये च निर्ग्रन्थस्नातकेऽपि च । शुक्लेव केवला लेश्याऽयोगाः लेश्याविवर्जिताः ॥७७॥ पुलाकस्योपपादः स्यात्सहस्रारे परायुषः । प्रतिसेवनाकुशीलवकुशस्यारणेऽच्युते ॥७॥ तथा सर्वार्थसिद्धौ तु निर्ग्रन्थान्त्यकुशीलयोः । द्विसागरोपमायुष्काः सौधर्मे ते जघन्यतः ॥७९॥ संयमस्थानभेदास्तु स्युः कयायनिमित्तकाः । असंख्येयतमानन्तगुणसंयमलब्धयः ।।८।। तत्र सर्वजघन्यानि लब्धिस्थानानि सर्वदा । स्युः कषायकुशीलस्य पुलाकस्य च योगिनः ॥८॥ गच्छतस्तावसंख्येयस्थानानि युगपत्ततः । व्युच्छिद्यते पुलाकोऽन्यस्त्वसंख्येयानि गच्छति ॥४२॥ वकुशेन कुशीली द्वौ स्थानानि युगपत्ततः । असंख्यानि च तो यातौ वकुशस्त्ववहीयते ॥८३।। असंख्येयानि गत्वातः स्थानानि प्रतिसेवना । कुशीलो हीयते तस्माद्यः कषायकुशीलकः ॥८४॥ स्थानान्यतोऽकषायाणि निर्ग्रन्थः प्रतिपद्यते । सोऽसंख्येयानि गत्वातो व्युच्छेदमुपगच्छति ।।८५।। स्थानमेकमतस्तूवं गत्वानन्त णाधिकः । स्नातकः कृतकर्मान्तो निर्वाणं प्रतिपद्यते ॥८६॥
निर्ग्रन्थ लिंगके धारक हैं और द्रव्यलिंगकी अपेक्षा विद्वानोंके द्वारा भजनीय हैं ॥७५॥ लेश्याकी अपेक्षा पुलाकमुनिके आगेकी तीन अर्थात् पीत, पद्म और शुक्ल ये तीन, वकुश और प्रतिसेवनाकुशीलके छहों, कषायकुशीलके आगेकी चार अर्थात् कापोत, पीत, पद्म और शुक्ल ये चार एवं सूक्ष्मसाम्पराय, निर्ग्रन्थ और स्नातकके एक शुक्ललेश्या हो होती है। अयोगकेवली स्नातक लेश्यासे रहित होते हैं ॥७६-७७।।
उपपादकी अपेक्षा पुलाकका उपपाद सहस्रार स्वर्गमें होता है और वह वहां उत्कृष्ट आयुका धारक होता है। प्रतिसेवनाकुशील और वकुशका उपपाद आरण और अच्युत स्वर्गमें होता है। निर्ग्रन्थ ( ग्यारहवें गुणस्थानवर्ती) और कषायकुशीलका उपपाद सर्वार्थसिद्धि में होता है और जघन्यकी अपेक्षा पुलाक आदि पाँचों मुनियोंका उपपाद सौधर्मस्वर्गमें होता है और वहाँ वे दो सागरको आयुके धारक होते हैं ॥७८-७९।। प्रारम्भमें, संयममें जो स्थानभेद होते हैं वे कषायके निमित्तसे होते हैं तथा उनमें असंख्येय और अनन्तगुणीसंयमकी प्राप्ति होती है ।।८०।। इनमें सवंजघन्य लब्धिस्थान कषायकुशील और पुलाक मुनिके होते हैं। ये दोनों मुनि असंख्येय स्थानों तक साथ-साथ जाते हैं, उसके बाद पुलाकमुनि नीचे विच्छिन्न हो जाता है-नीचे रह जाता है और कषायकुशील असंख्येय स्थान तक आगे चला जाता है ।।८१-८२॥
तदनन्तर वकुश और दोनों प्रकारके कुशील साथ-साथ असंख्यात स्थानों तक जाते हैं, उसके बाद वकुश नीचे रह जाता है और दोनों कुशील आगे बढ़ जाते हैं। तदनन्तर असंख्येय स्थान तक साथ-साथ जाकर प्रतिसेवनाकुशील नीचे छूट जाता है और कपायकुशील असंख्येय स्थान आगे चला जाता है। इसके आगे कषायकुशील भी निवृत्त हो जाता है। तदनन्तर कषायरहित संयमके स्थान प्रकट होते हैं और उन्हें निर्ग्रन्थ मुनि प्राप्त करता है। वह असंख्येय स्थानों तक जाकर पीछे छूट जाता है ।।८३-८५।। इसके आगे संयमका एक स्थान रहता है जिसे अनन्तगुण रूप ऋद्धियोंको धारण करनेवाला स्नातक प्राप्त करता है और वह वहाँ कर्मोंका अन्त कर निर्वाणको प्राप्त होता है ।।८६।।
१ कृष्णलेश्यादित्रितयं तयोः कथमिति चेदुच्यते-तयोरुपकरणासक्तिसंभवात आर्तध्यानं कदाचित्संभवति, आर्तध्यानेन च कृष्णादि लेश्यात्रितयं संभवतीति । २. कृतकर्मातो म. ।
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