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चतुःषष्टितमः सर्गः
७९३ सिद्धिः प्रत्येकबुद्धानां स्वतो बोधिमुपेयुषाम् । तथा बोधितबुद्धानां परतो बोधिलामिनाम् ॥९॥ 'सिदिनिविशेषः स्यादेकष्ठित्रिचतुष्ककैः । अवगाहेन चोत्कृष्टजघन्यान्तर्भिदावता ॥९८॥ अवगाहनमुत्कृष्टमूनं पञ्चधनुःशती। पञ्चविंशां च देशोनारत्नयोऽर्धचतुर्थकाः ॥१९॥ मध्येऽनेकविकल्पास्तु यथासंभवमीरिताः । तत्र सिद्धयति चैतस्मिन्नेकस्मिन्नवगाहने ॥१०॥ अन्तरः शून्यकालः स्यादन्तरं सिद्धयतां पुनः । जघन्येनैकसमयो मासानां षट्कमन्यथा ॥१०॥ जघन्येनैक एबैकसमये सिद्धयति ध्रुवम् । तथोत्कर्षेणाष्टशतसंख्यास्ते संख्यया स्मृताः ॥१०२॥ क्षेत्रादिभेदमिन्नानां संख्याभेदः परस्परम् । ख्यातमल्पबहुत्वं च सिद्धिक्षेत्रे न विद्यते ॥१०॥ भूतपूर्वव्यपेक्षातश्चिन्त्यते तन्नु तद्यथा । जन्मनः संहृतेश्चेति क्षेत्रसिद्धा द्विधा मताः ॥१०४॥ अल्पे संहारसिद्धास्ते जन्मसिद्धास्तु तत्वतः । स्युः संख्येयगुणाः सर्वे सार्वसर्वज्ञशासने ॥१०५॥ ऊर्ध्वलोकस्य सिद्धाये स्तोकास्तेऽधो जगद्गताः । स्युः संख्येयगुणास्तिर्यग्लोकसिद्धास्तथा ततः ॥१०६॥
साम्परायचारित्र अनिवार्य रूपसे सभीके होते हैं और परिहारविशुद्धि किन्हीं-किन्हींके होता है इसलिए जिनके परिहारविशुद्धि नहीं होगा उनके चार चारित्रोंसे और जिनके परिहारविशुद्धि होगा उनके पांच चारित्रोंसे सिद्धि होती है, यह भूतार्थग्राही नयको अपेक्षा है। प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा चौदहवें गुणस्थानमें एक परमयथाख्यात चारित्र ही होता है इसलिए एक चारित्रसे ही सिद्धि प्राप्त होनेका कथन है ।।१६।। प्रत्येक बुद्ध और बोधितबुद्ध-अनुयोगसे विचार करनेपर प्रत्येक बुद्ध जो कि अपने-आप रत्नत्रयको प्राप्त होते हैं और बोधित बुद्ध जो कि दूसरोंके उपदेशसे रत्नत्रय प्राप्त करते हैं-दोनोंको सिद्धि प्राप्त होती है-दोनों ही मोक्ष जाते हैं ॥९७|| ज्ञान अनुयोगसे विचार करनेपर प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा एक केवलज्ञानसे ही सिद्धि होती है और भतार्थग्राही नयकी अपेक्षा दो, तीन और चार ज्ञानोंसे सिद्धि होती है। भावार्थ-किन्हीं जीवोंकी केवलज्ञानके पूर्व मति और श्रुतमें दो ज्ञान होते हैं। किन्हींको मति, श्रुत, अवधि अथवा मति, श्रुत, मनःपर्यय ये तीन ज्ञान होते हैं। और किन्हींको मति, श्रुत, अवधि, मनःपर्यय ये चार ज्ञान होते हैं। अवगाहना अनुयोगसे विचार करनेपर अवगाहनाके उत्कृष्ट, जधन्य और मध्यमके भेदसे तीन भेद होते हैं। इनमें युक्त जीवोंको उत्कृष्ट अवगाहना कुछ कम पांच-सौ पच्चीस धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम साढ़े तीन हाथ है। मध्यम अवगाहनाके यथासम्भव अनेक विकल्प कहे गये हैं। इन अवगाहनाओंमें-से.जीव किसी एक अवगाहनासे सिद्ध होता है ॥१८-१००|| अन्तर अनुयोगको अपेक्षा विचार करनेपर अन्तरका अर्थ शन्यकालविरहकाल हो
होनेवाले जीवोंमें जघन्य अन्तर एक समयका और उत्कृष्ट अन्तर छह माहका होता है ।।१०१।। संख्या अनुयोगको अपेक्षा विचार करनेपर जघन्यरूपसे एक समयमें एक ही जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्टतासे एक सौ आठ जीव तक सिद्ध होते हैं ।।१०२।। अल्पबहुत्व अनुयोगकी अपेक्षा विचार करनेपर क्षेत्रादि भेदोंसे भिन्न जीवोंमें जो परस्पर संख्याका भेद है वह अल्पबहुत्व कहलाता है। यह अल्पबहुत्व प्रत्युत्पन्नग्राही नयकी अपेक्षा सिद्धिक्षेत्रमें नहीं है किन्तु भूतार्थग्राही नयको अपेक्षा उसका कुछ विचार किया जाता है। क्षेत्रसिद्ध जीव जन्म और संहरणको अपेक्षा दो प्रकारके माने गये हैं। इनमें संहरणसिद्ध थोडे हैं और जन्मसिद्ध गर्वहितकारी सर्वज्ञ जिनेन्द्र के शासनमें संहरण सिद्धोंको अपेक्षा संख्यात गणे बतलाये गये हैं ॥१०३-१०५।। ऊर्बलोकसे सिद्ध होनेवाले थोड़े हैं, उनसे संख्यातगुणे अधोलोकसे सिद्ध होनेवाले हैं और उनसे संख्यातगुणे तिर्यग्लोकसे सिद्ध होनेवाले हैं ॥१०६।। १. सिद्धि निविशेषैरेकद्वित्रिचतुर्थकैः म. । २. पञ्चविंशा म., पञ्चविंशाव ख. । ३. यतः म. ।
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ता हैसा सिद्धहानवाल जापान जपच ज
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