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एकषष्टितमः सर्गः
विहृत्य चिरमीशानः पुनरागत्य पूर्ववत् । गिरौ रैवतके तस्थौ समवस्थानमण्डनः ||१३|| तत्र स्थितं जिनेन्द्र सं देवेन्द्राः सान्द्रतेजसः । प्राप्य नत्वा नतिं कृत्वा निजस्थानेषु सुस्थिताः ॥ १४ ॥ वसुदेवो बलः कृष्णः सान्तःपुरसुहृज्जनः । द्वारिकाप्रजया युक्तः प्रद्युम्नादिसुतान्वितः ||१५|| विभूत्या परयागत्य शैवेर्यमभिवन्द्यते । आसीनाः समवस्थाने धर्मं शुश्रूषुरीश्वरात् ||१६|| तत्र धर्मकथान्तेऽसौ जिनं नव्या हलायुधः । पप्रच्छ वस्तुचित्तस्थं करकुड्मलितालिकः ||१७|| नाथ वैश्रवणेनेयं निर्मिता द्वारिकापुरी । कियतानेहसान्तोऽस्याः कृतका हि विनश्वराः ||१८|| निमज्जेत् स्वत एवेयं किमु कालान्तरेऽम्बुधौ । निमित्तान्तरसानिध्ये केनचिद्वा' विनाश्यते ॥१९॥ स्वान्तकाले निमित्तrd को वा कृष्णस्य यास्यति । जातानां हि समस्तानां जीवानां नियता मृतिः ॥ २०॥ संयमप्रतिपत्तिर्वा कालेन कियता प्रभो । कृष्णस्नेहमहापाशबद्धचित्तस्य मे मवेत् ॥२१॥ इति पृष्टो जिनोऽगादी दृष्टाशेषपरापरः । याथातथ्यं यथाप्रश्नं यत्प्रश्नोत्तरवाद्यौ ॥२२॥ पुरीयं द्वादशे वर्षे राम मथेन हेतुना । द्वैपायर्नकुमारेण मुनिना वक्ष्यते रुषा ॥ २३ ॥
कौशाम्बवन सुप्तस्य कृष्णस्य परमायुषः । प्रान्ते जरत्कुमारोऽपि संहारे हेतुतां व्रजेत् ॥ २४॥
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● अभ्यन्तरस्य सान्निध्ये हेतोः परिणतेर्वशात् । बाह्यो हेतुर्निमित्तं हि जगतोऽभ्युदये क्षये ॥ २५॥
किया था ।। १२ । चिरकाल तक विहार कर भगवान् पुनः आये और रैवतक ( गिरनार ) पर्वतपर समवसरणको सुशोभित करते हुए विराजमान हो गये ॥ १३ ॥ प्रबल तेजको धारण करनेवाले इन्द्र वहाँ विराजमान जिनेन्द्र भगवान् के पास आये और नमस्कार तथा स्तुति कर अपनेअपने स्थानोंपर बैठ गये ॥ १४ ॥
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अन्तःपुर की रानियों, मित्रजन, द्वारिकाकी प्रजा तथा प्रद्युम्न आदि पुत्रोंसे सहित वसुदेव, बलदेव तथा कृष्ण भी बड़ी विभूतिके साथ आये और भगवान् नेमिनाथको नमस्कार कर समवसरण में यथास्थान बैठ भगवान् से धर्मं श्रवण करने लगे || १५ - १६ ॥ तदनन्तर धर्नकथाके बाद जिनेन्द्र भगवान्को नमस्कार कर बलदेवने हाथ जोड़ ललाटसे लगा, अपने हृदय में स्थित बात पूछी ॥ १७ ॥। उन्होंने पूछा कि हे भगवन् ! यह द्वारिकापुरी कुबेरके द्वारा रची गयी है सो इसका अन्त कितने समय में होगा। क्योंकि कृत्रिम वस्तुएँ अवश्य ही नश्वर होती हैं ॥ १८ ॥ यह द्वारिकापुरी कालान्तर में क्या अपने आप ही समुद्रमें डूब जावेगी ? अथवा निमित्तान्तरके सनधान में किसी अन्य निमित्तसे विनाशको प्राप्त होगी ? कृष्णके अपने अन्तकाल में निमित्तपनेको कौन प्राप्त होगा ? क्योंकि उत्पन्न हुए समस्त जीवोंका मरण निश्चित है । हे प्रभो ! मेरा चित्त कृष्णके स्नेहरूपी महापाशसे बँधा हुआ है अतः मुझे संयमको प्राप्ति कितने समय बाद होगी ? ॥१९-२१ ॥ इस प्रकार बलदेवके पूछनेपर समस्त परापर पदार्थोंको देखनेवाले नेमि जिनेन्द्र, प्रश्नके अनुसार यथार्थं बात कहने लगे, सो ठीक ही है क्योंकि भगवान् प्रश्नोंका उत्तर निरूपण करनेवाले ही थे ॥२२॥
उन्होंने कहा कि हे राम ! यह पुरी बारहवें वर्ष में मदिरा के निमित्तसे द्वैपायन मुनिके द्वारा क्रोधवश भस्म होगी ||२३|| अन्तिम समय में श्रीकृष्ण कौशाम्बीके वनमें शयन करेंगे और जरकुमार उनके विनाशमें कारणपनेको प्राप्त होगा ||२४|| अन्तरंग कारणके रहते हुए परिणतिवश
१. युक्ताः म. । २. शिवाया अपत्यं पुमान् शैवेयस्तं नेमिनाथम् । ३. धर्मस्थाने म । ४. 'शुश्रुवुरीश्वरात्' इति पाठेन भवितव्यम् । ५ - द्भाविनास्यते भ. । ६. का केन म. । ७. मेऽभवत् म. । ८. द्वीपायन म. । ९. कौशाम्बीवन -ख. । १०. अनन्तरस्य म. ।
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