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एकपष्टितमः सर्ग:
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ततः प्रद्युम्नमाम्वाद्याः कुमाराश्चरमाङ्गकाः । अन्ये च बहवो यातास्तपोवनमसजिनः ॥३९॥ रुक्मिणीसत्यमामाद्या महादेव्योऽष्ट सस्नुषाः । लब्धानुज्ञा हरेः स्त्रीमिः सपत्नीभिः प्रयव्रजुः ॥२०॥ सिद्धार्थसारथिर्धाता बलदेवेन याचितः । बोधनं व्यसने स्वस्थ प्रतिपद्य तपोऽगृहीत् ॥४१॥ ततः संघेन महता जिनः पल्लवदेशभाक् । बभूव मव्यबोधार्थ भव्याम्भोरुहभास्करः ॥४२॥ राजस्त्रीनरसंघातो यावान् प्रव्रजितस्तदा । जिनेनैव समं सोऽयादुत्तरापथमुद्यमी ॥४३॥ 'वर्षद्वादश चोद्वस्य पुर्याः लोकः क्वचिदने । कृत्वा वासं पुनस्तत्र स्वागतश्च विधेर्दशात् ॥४४॥ इतो द्वारवतीलोकः परलोकमयान्वितः । व्रतोपवासपूजासु सुतरां निरतोऽभवत् ।। ३५॥ द्वैपायनोऽपि महता तपसा सहितस्ततः । व्यतीतं द्वादशं वर्ष मन्वानो भ्रान्तिहेतुना ॥४६॥ व्यतिक्रान्तो जिनादेश इति ध्यात्वा विमूढधीः । संप्राप्तो द्वादशे वर्षे सम्यग्दर्शनदुबलः ॥४७॥ धृतातापनयोगश्च तस्थौ प्रतिमया पथि । द्वारिकाबहिरम्याशे कदाचिन्निकटे गिरेः ॥४८॥ वनक्रीडापरिश्रान्ताः पिपासाकुलिता जलम् । इति कादम्बकुण्डेषु शम्बाद्यास्तां सुरां पपुः ॥४॥ कदम्बवनसंन्यस्ता कदम्बकतया स्थिताम् । पीत्वा कादम्बरी मृष्टां कुमारा विकृति गताः ॥५॥
पूर्ण छूट है ॥३७-३८|| घोषणा सुनते ही प्रद्युम्नकुमार तथा भानुकुमारको आदि लेकर चरमशरीरी कुमार और अन्य बहुत-से लोग परिग्रह का त्याग कर तपोवनको चले गये ||३९|| रुक्मिण। और सत्यभामा आदि आठ पट्टरानियोंने भी आज्ञा प्राप्त कर पुत्रवधुओं तथा अन्य सौतोंके साथ दीक्षा धारण कर ली ।।४०॥ सिद्धार्थ नामका सारथि जो बलदेवका भाई था जब दीक्षा लेनेके लिए उत्सुक हुआ तब बलदेवने उससे याचना को कि कदाचित् मैं मोहजन्य व्यसनको प्राप्त होऊँ तो मुझे सम्बोधित करना। बलदेवकी इस प्रार्थनाको स्वीकृत कर उसने तप ग्रहण कर लिया ॥४१॥
। तदनन्तर जो भव्यरूपी कमलोंको विकसित करनेके लिए सूर्यके समान थे ऐसे भगवान् नेमिजिनेन्द्र, भव्य जीवोंको सम्बोधने के लिए बड़े भारी संघके साथ पल्लव देशको प्राप्त हुए ॥४२॥ उस समय जो राजा-रानियों और मनुष्योंका समूह दोक्षित हुआ था वह जिनेन्द्र भगवान्के साथ ही साथ उतरापथकी ओर चलने के लिए उद्यमी हुआ ॥४३॥ द्वारिकाके लोग द्वारिकासे बाहर जाकर बारह वर्ष तक कहीं इनमें रहते आये परन्तु भाग्यकी प्रबलासे वे वहाँ निवास कर फिर वहीं वापस आ गये ||४४|| इधर द्वारिकामें जो लोग रहते थे वे परलोकके भयसे युक्त हो व्रत, उपवास तथा पूजा आदि सत्कार्यों में निरन्तर संलग्न रहते थे ।।४५॥
तदनन्तर बहुत भारो तपसे युक्त जो द्वैपायन मुनि थे वे भी भ्रान्तिवश बारहवें वर्षको व्यतीत हुआ मानते हुए बारहवें वर्षमें वहां आ पहुंचे। 'जिनेन्द्र भगवानशा आदेश पूरा हो चुका है' यह विचारकर जिनको बुद्धि विमूढ़ हो रही थी तथा जो सम्यग्दर्शनसे दुबल थे ऐसे द्वैपायन मुनि बारहवें वर्ष में वहीं आ पहुँचे ।।४६-४७|| वे किसी समय द्वारिकाके बाहर पर्वतके निकट, मार्गमें आतापन योग धारण कर प्रतिमायोगसे विराजमान थे ॥४८|| उसी समय वनक्रीड़ासे थके एवं प्याससे पीड़ित शम्ब आदि कुमारोंने कादम्ब वनके कुण्डोंमें स्थित उस शराबको पी लिया ॥४९॥ कदम्ब वनमें छोड़ी एवं कदम्ब रूपसे डबरोंके रूपमें स्थित उस मधुर मदिराको पीकर वे सब कुमार विकार भावको प्राप्त
१ बलदेवनयान्वितः म.। २. प्रतिपाद्य क., ख., घ., म.। ३. पाया-म., याया ख., घ. । ४. वर्षान् द्वादश क., वर्षे द्वादश म. । ५. द्वारवतीम् म. । ६.द्वीपायनोऽपि म.। ७. सुस्वाद्यां तां क. .
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